Women’s Day- नपुंसक: कैसे टूटने लगे आरुषी के सपने

Women’s Day- गांव की इज्जत: हजारी ने कैसे बचाई गांव की इज्जत

शालिनी देवी जब से गांव की सरपंच चुनी गई थीं, गांव वालों को राहत क्या पहुंचातीं, उलटे गरीबों को दबाने व पहुंच वालों का पक्ष लेने लगी थीं.

शालिनी देवी का मकान गांव के अंदर था, जहां कच्ची सड़क जाती थी.

सड़क को पक्की बनाने की बात तो शालिनी देवी करती थीं, पर अपना नया मकान गांव के बाहर मेन रोड के किनारे बनाना चाहती थीं, इसलिए वे गरीब गफूर मियां पर मेन रोड वाली सड़क पर उन की जमीन सस्ते दाम पर देने का दबाव डालने लगी थीं.

गफूर मियां को यह बात अच्छी नहीं लगी. वे हजारी बढ़ई के फर्नीचर बनाने की दुकान में काम करते थे. मेहनताने में जोकुछ भी मिलता, उसी से अपना परिवार चलाते थे.

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बड़ों के सामने गफूर मियां की बोली फूटती न थी. एक बार गांव के ही एक बड़े खेतिहर ने उन का खेत दबा लिया था, पर हजारी ने ही आवाज उठा कर गफूर मियां को बचाया था.

गफूर मियां हजारी बढ़ई को सबकुछ बता देते थे. उन्होंने बताया कि शालिनी देवी अपना नया मकान बनाने के लिए उन की जमीन मांग रही हैं.

इस बात पर हजारी बढ़ई खूब बिगड़े और बोले, ‘‘यह तो शालिनी देवी का जुल्म है. यह बात मैं मुखिया राधे चौधरी के पास ले जाऊंगा.’’

हजारी बढ़ई जानते थे कि मुखिया इंसाफपसंद तो हैं, पर शालिनी देवी के मामले में वे कुछ नहीं बोलेंगे. दबी आवाज में यह बात भी उठी थी कि शालिनी देवी का मुखिया से नाजायज संबंध है.

एक दिन हजारी बढ़ई गफूर मियां का पक्ष लेते हुए सरपंच शालिनी देवी से कहने लगे, ‘‘चाचीजी, हम लोग गरीब हैं. हमें आप से इंसाफ की उम्मीद है. आप गफूर मियां को दबा कर उन की जमीन सस्ते दाम में हड़पने की मत सोचिए, नहीं तो यह बात पूरे गांव में फैलेगी. विरोधी लोग आप के खिलाफ आवाज उठाएंगे. मैं नहीं चाहता कि अगले चुनाव में आप सरपंच का पद पाने से रह जाएं.’’

यह सुन कर शालिनी देवी गुस्से से कांप उठीं और बोलीं, ‘‘तुम उस गफूर की बात कर रहे हो, जो बिरादरी में छोटा है. उस की हिम्मत है, तो मुखिया के पास जा कर शिकायत करे.’’

हजारी बढ़ई बोले, ‘‘आप की नजर में तो मैं भी छोटा हूं… छोटे भी कभीकभी बड़ा काम कर जाते हैं.’’

शालिनी देवी एक दिन दूसरे सरपंचों से बोलीं, ‘‘क्या हमारा चुनाव इसलिए हुआ है कि हम दूसरे लोगों की धौंस से डर जाएं?’’

मुखिया राधे चौधरी ने शालिनी देवी को समझाया कि हजारी बढ़ई व गफूर मियां जैसे छोटे लोगों से डरने की जरूरत नहीं है.

शालिनी देवी खूबसूरत व चालाक थीं. उन की एक ही बेटी थी रेशमा, जो उन का कहना नहीं मानती थी. वह खेतखलिहानों में घूमती रहती थी.

शालिनी देवी के लिए अब एक ही रास्ता बचा था, जल्दी ही उस की शादी कर उसे ससुराल विदा कर दो.

जल्दी ही एक पड़ोसी गांव में उन्हें एक खेतिहर परिवार मिल गया. लड़का नौकरी के बजाय गांव की राजनीति में पैर पसार रहा था. भविष्य अच्छा देख कर शालिनी देवी ने रेशमा की शादी उस से तय कर दी.

शालिनी देवी ने हजारी बढ़ई को बुलाया और बोलीं, ‘‘मेरी बेटी रेशमा की शादी है. तुम उस के लिए फर्नीचर बना दो. मेहनताना व लकडि़यों के दाम मैं दे दूंगी.’’

इज्जत समझ कर हजारी बढ़ई ने गफूर मियां व मजदूरों को काम पर लगा कर अच्छा फर्नीचर बनवा दिया.

मेहनताना देते समय शालिनी देवी कतराने लगीं, ‘‘तुम मुझ से कुछ ज्यादा पैसे ले रहे हो. लकडि़यों की मुझे पहचान नहीं… सागवान है कि शीशम या शाल… कुछकुछ आमजामुन की लकड़ी भी लगती है.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘यह सागवान ही है. मेरे पेट पर लात मत मारिए. अपना समझ कर मैं ने दाम ठीक लिया है. मुझे मजदूरों को मेहनताना देना पड़ता है. फर्नीचर आप नहीं ले जाएंगी, तो दूसरे खरीदार न मिलने से मैं मारा जाऊंगा.’’

मौका देख कर शालिनी देवी बदले पर उतर आईं और बोलीं, ‘‘मैं औनेपौने दाम पर सामान नहीं लूंगी. मैं तो शहर से मंगाऊंगी.’’

तभी वहां मुखिया राधे चौधरी आ गए. वे भी शालिनी देवी का पक्ष लेते हुए बोले, ‘‘ज्यादा पैसा ले कर गफूर मियां का बदला लेना चाहते हो तुम?’’

हजारी बढ़ई तमक कर बोले, ‘‘मैं गलती कर गया. सुन लीजिए, जो मेरे दिल में कांटी ठोंकता है, उस के लिए मैं भी कांटी ठोंकता हूं… मैं बढ़ई हूं, रूखी लकडि़यों को छील कर चिकना करना मैं अच्छी तरह जानता हूं. आप का दिल भी रूखा हो गया है. मैं इसे छील कर चिकना करूंगा.

‘‘शालिनी देवी, आप की बेटी गांव के नाते मेरी बहन है. मैं बिना कुछ लिए यह फर्नीचर उसे देता हूं… आगे आप की मरजी…’’

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हजारी बढ़ई ने मजदूरों से सारा फर्नीचर उठवा कर शालिनी देवी के यहां भिजवा दिया.

शालिनी देवी को लगा कि हजारी उस के दिल में कांटी ठोंक गया है.

गांव में क्या हिंदू क्या मुसलिम, सभी हजारी को प्यार करते थे. एक गूंगी लड़की की शादी नहीं हो रही थी. हजारी ने उस लड़की से शादी कर गांव में एक मिसाल कायम की थी.

इस पर गांव के सभी लोग कहा करते थे, ‘हजारी जैसे आदमी को ही गांव का मुखिया या सरपंच होना चाहिए.’

शालिनी देवी के घर बरात आई. उसी समय मूसलाधार बारिश हो गई. कच्ची सड़क पर दोनों ओर से ढलान था. सड़क पर पानी भर गया था. कहीं से निकलने की उम्मीद नहीं थी. चारों तरफ पानी ही पानी नजर आने लगा.

‘दरवाजे पर बरात कैसे आएगी?’ सभी बराती व घराती सोचने लगे.

दूल्हा कार से आया था. ड्राइवर ने कह दिया, ‘‘कार दरवाजे तक नहीं जा सकती. कीचड़ में फंस जाएगी, तो निकालना भी मुश्किल होगा.’’

शालिनी देवी सोच में पड़ गईं.

मुखिया राधे चौधरी भी परेशान हुए, क्योंकि इतनी जल्दी पानी को भी नहीं निकाला जा सकता था.

गांव की बिजली भी चली गई थी. पंप लगाना भी मुश्किल था. पैट्रोमैक्स जलाना पड़ रहा था.

फिर कीचड़ तो हटाई नहीं जा सकती थी. उस में पैर धंसते थे, तो मुश्किल से निकलते थे… मिट्टी में गिर कर दोचार लोग धोतीपैंट भी खराब कर चुके थे.

बराती अलग बिगड़ रहे थे. एक बोला, ‘‘कार दरवाजे पर जानी चाहिए. दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा. वह गोद में भी नहीं जाएगा.’’

दूल्हे के पिता बिगड़ गए और बोले, ‘‘कोई पुख्ता इंतजाम न होने से मैं बरात वापस ले जाऊंगा.’’

शालिनी देवी रोने लगीं, ‘‘इसीलिए मैं नया मकान मेन रोड पर बनाना चाहती थी. लेकिन जमीन नहीं मिलती. गफूर मियां अपनी जमीन नहीं देता. हजारी बढ़ई ने उसे चढ़ा कर रखा हुआ है.’’

शालिनी देवी ने अपनेआप को चारों ओर से हारा हुआ पाया. उन्हें मुखिया राधे चौधरी पर गुस्सा आ रहा था, जो कुछ नहीं कर पा रहे थे.

तभी हजारी बढ़ई गफूर मियां के साथ आए और बोले, ‘‘गांव की इज्जत का सवाल है. गांव की बेटी की शादी है… बरातियों की बात भी जायज है. कार दरवाजे तक जानी ही चाहिए…’’

शालिनी देवी हार मानते हुए बोल उठीं, ‘‘हजारी, कोई उपाय करो… समझो, तुम्हारी बहन की शादी है.’’

‘‘सब सुलट जाएगा. आप अपना दिल साफ रखिए.’’

शालिनी देवी को लगा कि हजारी ने एक बार फिर एक कांटी उन के दिल में ठोंक दी है.

हजारी बढ़ई गफूर मियां से बोले, ‘‘मुसीबत की घड़ी में दुश्मनी नहीं देखी जाती. दुकान में फर्नीचर के लिए जितने भी पटरे चीर कर रखे हुए हैं, सब उठवा कर मंगा लो और बिछा दो. उसी पर से बराती भी जाएंगे और कार भी जाएगी दरवाजे तक.

‘‘लकड़ी के पटरों पर से गुजरते हुए कार के कीचड़ में फंसने का सवाल ही नहीं उठता. बांस की कीलें ठोंक दो. कुछ गांव वालों को पटरियों के आसपास ले चलो…’’

सभी पटरियां लाने को तैयार हो गए, क्योंकि गांव की इज्जत का सवाल सामने था.

इस तरह हजारी बढ़ई, गफूर मियां और गांव वालों की मेहनत से एक पुल सा बन गया. उस पर से कार पार हो गई.

बराती खुश हो कर हजारी बढ़ई की तारीफ करने लगे.

शालिनी देवी की खुशी का ठिकाना न था. वे खुशी से झूम उठीं.

मुखिया राधे चौधरी हजारी बढ़ई की पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘इस खुशी में मैं अपने बगीचे के 5 पेड़ तुम्हें देता हूं.’’

पता नहीं, मुखिया हजारी को खुश कर रहे थे या शालिनी देवी को.

शालिनी देवी ने देखा कि हजारी बढ़ई और गफूर मियां भोज खाने नहीं आए, तो लगा कि दिल में एक कांटी और ठुंक गई है.

बरात विदा होते ही शालिनी देवी हजारी बढ़ई के घर पहुंच गईं और आंसू छलकाते हुए बोलीं, ‘तुम ने मेरे यहां खाना भी नहीं खाया. इतना रूठ गए हो… क्यों मुझ से नाराज हो? मैं अब कुछ नहीं करूंगी, गफूर की जमीन भी नहीं लूंगी. हां, कच्ची सड़क को पक्की कराने की कोशिश जरूर करूंगी…

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‘‘सच ही तुम ने मेरे रूखे दिल को छील कर चिकना कर दिया है… तुम मेरी बात मानो…उखाड़ दो अपने दिल से कांटी… तब मुझे चैन मिलेगा.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘दरअसल, आप सरपंच होते ही हमें छोटा समझने लगी थीं. आप भूल गई थीं कि छोटी सूई भी कभी काम आती है.’’

तभी हजारी की गूंगी बीवी कटोरे में गुड़ और लोटे में पानी ले आई.

पानी पीने के बाद शालिनी देवी ने साथ आए नौकरों के सिर से टोकरा उतारा और गूंगी के हाथ में रख दिया. फिर वे हजारी से बोलीं, ‘‘शाम को अपने परिवार के साथ खाना खाने जरूर आना, साथ में अपने मजदूरों को लाना. मैं तुम सब का इंतजार करूंगी.’’

टोकरे में साड़ी, धोती, मिठाई, दही और पूरियां थीं. धोती के एक छोर में फर्नीचर के मेहनताने और लागत से भी ज्यादा रुपए बंधे हुए थे.

हजारी बढ़ई आंखें फाड़े शालिनी देवी को जाते देखते रहे, जिन का दिल चिकना हो गया था. अब कांटी भी उखड़ चुकी थी.

Women’s Day- नपुंसक: भाग 1

आरुषी ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली तो देखा साढ़े 8 बज चुके थे. उस का शरीर थक कर चूर हो गया था. उस ने हाल की दीवारों पर नजर डाली, तो पाया केवल 5 पेंटिंग्स बची थीं. उन में से भी 3 अनिरुद्ध के चाचाजी अपने फार्म हाउस पर ले जाएंगे. मन ही मन खुश होती आरुषी की नजर अनिरुद्ध पर पड़ी जो उस की तरफ पीठ किए हुए खड़ा था, पर तन, मन, धन से उस का साथ दे रहा था.

उस के मन ने खुद से सवाल किया, कैसे चुका पाऊंगी इस आदमी का उपकार? क्या नहीं किया इस ने मेरे लिए? उस के मन में अनिरुद्ध को ले कर जाने कैसेकैसे विचार आ रहे थे. तभी अनिरुद्ध का फोन बज उठा और आरुषी की विचार तंद्र्रा टूट गई. जैसे ही फोन पर बात समाप्त हुई, अनिरुद्ध उस के करीब आया और आंखों में आंखें डाल कर बोला, ‘‘कैसा लग रहा है आरुषी, पहली प्रदर्शनी में ही तुम ने झंडे गाड़ दिए. एक ही हफ्ते में तुम ने लाखों कमा लिए.’’

अनिरुद्ध का आप से तुम पर आना, आरुषी को अच्छा लगा. वह बोली, ‘‘अनिरुद्ध, यह तो तुम्हारी मेहनत का नतीजा है वरना मैं जिस परिवार से हूं उस के लिए तो यह सबकुछ करना संभव नहीं था.’’

आरुषी की आंखों के आगे चुटकी बजाते हुए अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘आरुषी, कहां खो जाती हो तुम? कोई परेशानी है क्या? इस तरह उदास रहोगी तो मैं तुम्हें पार्टी कैसे दे पाऊंगा. कल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता पर एक पार्टी दूंगा.’’

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‘‘सर, कल किस ने देखा है?’’ आरुषी बोली, ‘‘चलिए, आज ही मैं आप को पार्टी दे देती हूं.’’

‘‘पर तुम अपने घर खबर तो कर दो,’’ अनिरुद्ध अचकचा कर हैरानी से बोला.

‘‘मैं घर पर बता कर आई थी कि आज मुझे देर हो जाएगी,’’ आरुषी के चेहरे से साफ लग रहा था कि वह झूठ बोल रही है.

अनिरुद्ध ने फौरन आर्ट गैलरी से आरुषी की बनाई पेंटिंग्स सावधानी से उतरवा कर अपने आफिस में रखवा दीं. उस के बाद जेब से चाबी निकाल कर आर्ट गैलरी का ताला लगाया और आरुषी के साथ रेस्टोरेंट की ओर चल दिया.

कार में बैठी आरुषी मन ही मन सोच रही थी कि काश, रेस्टोरेंट और दूर हो जाए ताकि अनिरुद्ध के साथ यह सफर समाप्त न हो. उस के चेहरे पर रहरह कर मुसकराहट आ रही थी, पर उस ने खुद को परंपरा और आदर्शवाद के आवरण से ढक रखा था.

‘‘आरुषी, तुम्हें रात के 9 बजे मेरे साथ आते हुए डर नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, शायद डरने की उम्र को मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूं.’’

‘‘तो क्या अब तुम्हें बिलकुल डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात भी नहीं है, डर लगता है पर अभी तुम से नहीं लग रहा है,’’ अचानक आरुषी भी आप से तुम पर आ गई थी, उसे इस का आभास भी नहीं हुआ था. ऐसी ही बातें करते दोनों रेस्टोरेंट पहुंच गए.

पार्किंग में कार खड़ी कर के अनिरुद्ध आगे बढ़ा तो अचानक ही उस ने आरुषी का हाथ अपने हाथ में ले लिया. उस ने भी इस का विरोध नहीं किया बल्कि जो आवरण आरुषी ने ओढ़ रखा था, उसे उतार फेंका. उस की पकड़ को उस ने और कस कर पकड़ लिया.

दोनों ने मन ही मन इस रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगा दी. आरुषी के चेहरे पर वही भाव थे जो अब से 15 साल पहले तब आए थे जब राघव ने उसे 3 अक्षर के साथ प्रेम का इजहार किया था. वैसे ही आज उस का चेहरा खुशी से दमक उठा था, कनपटी लाल हो चुकी थी, कांपती उंगलियां बारबार चेहरे पर आ रही जुल्फों को पीछे कर रही थीं.

उस की जुल्फों को अनिरुद्ध ने कान के पीछे करते हुए कहा, ‘‘लो, मैं तुम्हारी कुछ मदद कर दे रहा हूं.’’

तब आरुषी को लगा, काश, उस का हाथ चेहरे पर ही रुक जाए, ऐसा सोचते हुए आरुषी ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘‘अरु, अपनी आंखें खोलो. मुझे यह सब सपना लग रहा है. क्या तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लग रहा है?’’

अनिरुद्ध की आवाज सुन कर मानो वह आकाश से उड़ती हुई जमीन पर आ लगी. उस की आंखें एक झटके में खुल गईं. वास्तविकता के धरातल पर आते ही उसे अपने से जुड़ी सभी बातें याद आने लगीं. अतीत की बातें याद आते ही आरुषी के माथे पर पसीने की छोटीछोटी बूंदें उभरने लगीं. उसे लगा उस के परिवार के बारे में जान कर अनिरुद्ध उसे तुरंत छोड़ देगा.

आरुषी की आंखों के आगे चुटकी बजाते हुए अनिरुद्ध बोला, ‘‘कहां खो जाती हो तुम?’’

‘‘सर, मैं आप को अपने बारे में कुछ बताना चाहती हूं,’’ आरुषी के चेहरे पर गंभीरता देख कर वह भी कुछ गंभीर हो गया और बोला, ‘‘कहो, क्या कहना चाहती हो?’’

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फीकी सी मुसकराहट के साथ आरुषी ने अपनी बात कहनी शुरू की :

‘‘मेरे पापा का नाम करण राजनाथ है. वह रिटायर सिविल इंजीनियर हैं. करीब 40 साल पहले उन का विवाह कनकलता नाम की एक लड़की से हुआ था. वह लड़की रूपरंग में बेहद साधारण थी. विवाह के कुछ समय बाद ही उस ने एक लड़की को जन्म दिया और उस के ठीक 1 साल बाद दूसरी लड़की को जन्म दिया. चूंकि कनकलता रूपरंग में साधारण थी और गंवार भी थी इसलिए करण राजनाथ का मन उस औरत से बिलकुल हट गया. जब वह तीसरी बार गर्भवती हुई तो करण ने उसे अपने गांव छोड़ दिया. गांव में तीसरे प्रसव के दौरान जच्चाबच्चा दोनों की मृत्यु हो गई.

‘‘अब करण राजनाथ की दोनों बेटियां अकेली रह गईं. करण राजनाथ की दोनों बेटियों में बड़ी बेटी मैं हूं और छोटी बेटी मेरी बहन है. मेरी मां को गुजरे अभी कुछ महीने ही बीते थे कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली. उन का नाम अर्चना है और हम उन्हें मौसी कह कर बुलाते हैं. पहले तो उन्होंने हमें प्यार नहीं किया पर जब पता चला कि वह मां नहीं बन सकतीं तो उन्होंने हमें प्यार देना शुरू कर दिया.

Women’s Day- अपना घर: भाग 3

चाह कर भी अभिषेक जिया के व्यवहार में जो बदलाव आया है उसे समझ नहीं पा रहा था. वह रात को भी घंटों लैपटौप पर बैठ कर न जाने क्या करती रहती. अभिषेक जैसे ही उसे आवाज देता, वह घबरा कर लैपटौप बंद कर देती. अभिषेक जितना उस के करीब जाने की कोशिश करता वह उतना ही उस से दूर जा रही थी.

न जाने वह क्या था जिस के पीछे जिया पागल हो रही थी. जिया के भाई ने भी उस दिन अभिषेक को फोन पर कहा, ‘‘आजकल जिया घर पर फोन ही नहीं करती. सब ठीक है न?’’

अभिषेक ने कहा, ‘‘नहीं आजकल औफिस में बहुत काम है.’’

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब अभिषेक और जिया दोनों के मातापिता की इच्छा थी कि वे अपने परिवार को आगे बढ़ाएं.

आज फिर से उन की शादी की सालगिरह का जश्न था पर आज लीला ने खुद दावत रखी थी. जिया ने एक बहुत ही खूबसूरत प्याजी रंग की स्कर्ट और कुरती पहनी हुई थी. अभिषेक की नजरें उस से हट ही नहीं रही थी. सब लोग उन्हें छेड़ रहे थे कि वे खुशखबरी कब दे रहे हैं.

रात को एकांत में जब अभिषेक ने जिया से कहा कि जिया मेरा भी मन है, तो जिया ने अनमने ढंग से कहा कि वह तैयार नहीं है.

रात में भी अभिषेक को ऐसा लगा जैसे उस के पास बस जिया का शरीर है. अभिषेक रातभर सो नहीं पाया.

आज वह हर हाल में जिया से बात करना चाहता था, पर जब वह सुबह उठा, जिया औफिस के लिए निकल चुकी थी. अभिषेक को कुछ समझ नहीं आ रहा था. ऐसा लगता था, जिया उस के साथ हो कर भी उस के साथ नहीं है, वह हर हफ्ते उस के साथ कोई न कोई प्लान बनाता पर जिया को तो रविवार में भी कोई न कोई औफिस का काम हो जाता था. उन दोनों के बीच एक मौन था, जिसे वह चाह कर भी नहीं तोड़ पा रहा था. अभिषेक को अपनी वह पुरानी जिया चाहिए थी पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.

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देखते ही देखते फिर दीवाली आ गई. पूरा शहर रोशनी से जगमगा रहा था. आज अभिषेक को बहुत दिनों बाद जिया का चेहरा रोशनी से खिला दिखा.

जिया ने अभिषेक से कहा, ‘‘अभिषेक, आज मुझे तुम से कुछ कहना है और कुछ दिखाना भी है.’’

अभिषेक उस की तरफ प्यार से देखते हुए बोला, ‘‘जिया, कुछ भी बोलना बस यह मत बोलना तुम्हें मुझ से प्यार नहीं है.’’

जिया खिलखिला कर हंस पड़ी और फिर बोली, ‘‘तुम पागल हो क्या, तुम ने ऐसा सोचा भी कैसे?’’

अभिषेक मुसकरा दिया. बोला, ‘‘लेकिन तुम मुझे पिछले 1 साल से नैगलैक्ट कर रही हो, हम एकसाथ कहीं भी नहीं गए.’’

जिया बोली, ‘‘पता नहीं तुम्हें समझ आएगा या नहीं पर मैं पिछले 1 साल से अपनी पहचान और अपने वजूद, अपनी जड़ें ढूंढ़ रही थी?’’

अभिषेक को कुछ समझ नहीं आ रहा था. जिया ने गुलाबी और नारंगी चंदेरी सिल्क की साड़ी पहनी हुई थी. साथ में कुंदन का मेल खाता सैट, हीरे के कड़े और ढेर सारी चूडि़यां. आज उस के चेहरे पर ऐसी आभा थी कि सब लोग उस के आगे फीके लग रहे थे. रंगोली बनाने के बाद जिया ने अभिषेक को उस के साथ चलने को कहा, तो अभिषेक कार की चाबी उठा चल पड़ा.

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जिया हंस कर बोली, ‘‘आज मैं तुम्हें अपने साथ अपनी कार में ले कर चलना चाहती हूं.’’

अभिषेक चल पड़ा. थोड़ी ही देर में कार हवा से बातें करने लगी और कुछ देर बाद कार नई बस्ती की तरफ चलने लगी. कार ड्राइव करते हुए जिया बोली, ‘‘अभिषेक, आज मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. तुम ने हमेशा हर तरह से मेरा खयाल रखा पर बचपन से मेरा एक सपना था जो मेरी आंखों में पलता रहा. मांपापा ने कहा कि तुम्हारा घर वह होगा, जहां तुम जा कर एक घर बनाओगी. तुम मिले, तो लगा मेरा सपना पूरा हो गया, पर अभिषेक कुछ दिनों बाद समझ आ गया कि कुछ सपने होते हैं जो साझा नहीं होते. शादी का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे सपनों का बोझ तुम्हारा जीवनसाथी भी उठाए. मुझे तुम से या किसी से भी कोई शिकायत नहीं है. पर अभिषेक आज मेरा एक सपना पूरा हुआ है,’’ यह कह उस ने एक नई बनी सोसाइटी के सामने कार रोक दी. अभिषेक चुपचाप उस के पीछे चल पड़ा. एक नए फ्लैट के दरवाजे पर उस के नाम की नेमप्लेट लगी थी.

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अभिषेक हैरानी से देख रहा था. छोटा पर बेहद खूबसूरती से सजा हुआ प्लैट. तभी हवा का झोंका आया तो चंदेरी के फीरोजी परदे जिया के अपने घर में लहराने लगे, जहां पर उस का अधिकार घर पर ही नहीं वरन उस की आबोहवा पर भी था.

परिवर्तन की आंधी

लेखक- डा. रमेश यादव

“मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

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‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

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“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

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“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

उतरन- भाग -2: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

सपनों के साये तले रात और दिन बीतते रहे. समय पंख लगा कर उड़ रहा था. पर उस के दिमाग में रहरह कर यही सवाल कौंधता कि कौनकौन होगा उस के घर में… सोचती… पूछूं या नहीं?

परएक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘‘रचित, हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए हैं, पर अभी तक मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती. अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न?’’

‘‘क्या जानना चाहती हो? यही न कि मैं शादीशुदा हूं या नहीं, बच्चे हैं या नहीं…? हां बच्चे हैं. पर शादीशुदा होते हुए भी मैं अकेला हूं, क्योंकि पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. मेरे साथ मेरी मां और मेरा बेटा रहता है.’’

रूपा ने आंखें बंद कर लीं. यह सुख का क्षण था. सपने अभी जिंदा हैं… कुछ देर की मौन के बाद रचित ने पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

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‘‘क्या तुम्हें पता है कि मेरी भी एक बेटी है? मैं एक तलाकशुदा हूं. क्या तुम्हारी फैमिली मुझे और मेरी बेटी को स्वीकार करेगी? सपनों की दुनिया बहुत कोमल होती है रचित. पर वास्तविकता का धरातल बहुत कठोर. अच्छी तरह सोच लो. फिर कोई निर्णय लेना,’’ इतना कहती गई, पर मन के किसी कोने में कुछ नया जन्म लेती महसूस कर रही थी रूपा.

कुछ तेरी कहानी है, कुछ मेरी कहानी है

हर बात खयाली है, हर बात रूहानी है

मिल जाए कभी जो हम, तो हर बात सुहानी है…

रूपा के गोरे से मुखड़े पर अठखेलियां करती लटों को हाथों हटाते हुए रचित ने उस के गालों को अपनी हथेलियों में समेट लिया और उस की मदभरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे बगैर नहीं रह सकता रूपा. मैं सब ठीक कर दूंगा. बस तुम हां कर दो.’’

महीनों से चल रही मुलाकातों की फुहारें रूपा को आश्वासन की मधुर चासनी में सराबोर कर चुकी थीं. वह अपनेआप से अजनबी होती जा रही थी. कभी तो मन मचलता कि बारिश की बूंदों को अपनी हथेली में समेट ले. और कभी समंदर की लहरों के साथ विलीन हो जाने की विकलता. भावनाएं तूफान की तरह प्रचंड, उद्वेलित अंतर्मन की छटपटाहट ने आंखों में पानी का उबाल ला दिया. सामान्य गति से बीतते वक्त की चाल बहुत धीमी लग रही थी रूपा को, और सांसें धौंकनी की तरह तेज.

सांसों में बसे हो तुम

आंखों में बसे हो तुम

छूओ तो मुझे एकबार

धड़कन में बसे हो तुम…

समय गुजरते देर नहीं लगती. दोनों ने शादी कर ली. हालांकि रचित की मां बहुत मानमनुहार के बाद राजी हुई थीं और इस शर्त पर कि रूपा की बेटी कभी इस घर में नहीं आएगी. रूपा को बहुत बड़ा झटका लगा था. एक बार फिर से पुराने घावों का दर्द हरा हो गया था.

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अचानक ही आए इस झंझावात ने रूपा के सपनों को चकनाचूर कर दिया. विचलित सी वह सन्न रह गई. पर रचित ने यह समझा कर शांत कर दिया कि वक्त के साथ सब बदल जाते हैं. मां को हम दोनों मिल कर मना लेंगे. रूपा ने गहरी सांस ली. उस ने बड़ी मुश्किल से दिल को समझाया, होस्टल से तो बच्ची महफूज है ही. जब मन करेगा जा कर उस से मिल लूंगी. सुखद भविष्य की कामना लिए रूपा को क्या पता था कि नियति क्याक्या रंग दिखाने वाली है.

डूबता हुआ सुर्ख लाल सूरज उसे माथे की बिंदिया सी लग रही थी. एक बार फिर से सब भूल कर उस ने रचित के प्यार भरोसा कर लिया. सुख की अनुभूतियां वक्त का पता ही नहीं चलने देती. सपनों के हिंडोले में झूलते 10 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

‘‘कल घर लौटने का दिन है रूपा,’’ रचित ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘प्यार ने हम दोनों को बांध रखा है, वरना हम तो नदी के दो किनारे थे.’’

रूपा आसमान की ओर देखती हुई बुदबुदाई. रचित उस की आंखों में देखता कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने मन में अंदर चल रहे द्वंद्व को परे झटक कर रूपा की खूबसूरती को निहारने लगा. पलभर के लिए तो लगा कि काश, यह वक्त यही ठहर जाता. पर वक्त भी कभी ठहरता है भला.

साथ तुम्हारे चल कर यह अहसास हुआ

दरमियां हमारे सिर्फ प्यार, और कुछ नहीं…

अंधेरा चढ़ता गया और दोनों महकते एहसास के साथ सपनों सरीखे पलों की नशीली मादकता में विलीन. थकान से चूर कब दोनों की आगोश में समा गए, महसूस भी न हुआ. सुबह का सूरज नया दिन ले कर हाजिर हो गया. जल्दीजल्दी तैयार हो कर दोनों गाड़ी में बैठ गए और चल दिए घर की ओर.

घर पहुंचते ही सब से पहला सामना रचित के बेटे प्रथम से हुआ. उस की नजरें क्रोध और हिकारत से भरी हुई थीं. दोनों को देखते ही वह अंदर के कमरे में चला गया. रूपा के चेहरे पर सोच की लकीरें उभर आईं. तो क्या प्रथम की रजामंदी के बगैर शादी हुई है? जबकि मैं ने तो अपनी बेटी को बताया था कि रचित की मम्मी शादी के लिए तैयार हैं, पर शर्त रखी है कि तुम मेरे साथ उन लोगों के साथ नहीं रहोगी. ये सुन कर भी मेरी बेटी ने तो नाराजगी नहीं जताई. बल्कि उम्मीद से कहीं आगे बढ़ कर बोली, ‘‘मां, अभी भी तो हम साथ नहीं रहते. तुम मुझ से मिलने होस्टल तो वैसे भी आती रहती हो.’’

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बच्ची को याद कर के रूपा की आंखें भर आईं. धीरेधीरे खुद को सामान्य कर सास के पास गई. लेकिन सास की बेरुखी ने तो दिल ही बैठा दिया. एक बार फिर से रूपा ने दिल को बहलाया. कोई बात नहीं. रचित तो समझता है न मुझे. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.

रूपा एक सपना देख रही है. वह है, उस की बच्ची है, रचित और प्रथम है. एक बहुत ही प्यारा सा, रंगीन सा प्रथम और बच्ची गोद में सोई है. रचित और मां उस के बगल में बैठे हैं. सभी बहुत खुश हैं.

अचानक नींद से जग जाती है रूपा. चारों तरफ देखती है…

ऐसा सपना, जिस का जाग्रत अवस्था से कोई संबंध नहीं. लेकिन सपने की खुशी उस के चेहरे पर झलक आती है. कभी न कभी यह सपना भी सच होगा, जरूर होगा.

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उतरन- भाग 1: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

लेखिका- कात्यायनी सिंह

रहरहकर उस का दिल धड़क रहा था. मन में उठते कई सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. यह क्या हो गया? भूल किस से हुई? या भूल हुई भी तो क्यों हुई? मन में उभरते इन सवालों का दंश झेल पाना मुश्किल हो रहा था. अभी बेटी के होस्टल में पहुंचने में तकरीबन 3 घंटे का समय था. बस का झेलाऊ सफर और उस पर होस्टल से किया गया फोन कि आप की बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है…

अपने अंदर झांकने की हिम्मत नहीं हुई. स्मृति पटल पर जमी कई परतें, परत दर परत सामने आने और ओझल होने लगीं. दिल बैठा जा रहा था. अवसाद गहरा होता जा रहा था. तन का बोझ भी सहना मुश्किल और आंखों से बहती अविरल धारा…

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वह खिड़की के सहारे आंखें मूंदे, दिल और दिमाग को शांत करने की कोशिश करने लगी. पर एकएक स्मृति आंखों में चहलकदमी करती हुई सजीव होने लगी. वह घबरा कर खिड़की से बाहर देखने लगी. आंखों की कोरों पर बांधा गया बांध एकाएक टूट कर प्रचंड धारा बन गया. यों तो जिंदगी करवट लेती है, पर इस तरह की उस का पूरा वजूद दूसरी शादी के नाम पर स्वाह हो जाए. क्योंकि उस ने दूसरी शादी? क्या मिला उसे? स्वतंत्र वजूद की चाहत भी तो अस्तित्वहीन हो गई?

पर समाज का तो एक अलग ही नजरिया होता है. तलाकशुदा स्त्री को देख लोगों की आंखों में हिकारत का कांटा चुभ सा जाता है. और उस कांटे को निकालने के लिए ही तो रूपा ने दूसरी शादी की.

पहली शादी और तलाक को याद कर मन कसैला नहीं करना चाहती अब. पर न चाहने से क्या होता है. तलाक के 10 साल पहले ही बेटी उस की गोद में आ चुकी थी. शादी के 2 दिन बाद ही सपने बिखरने की आहट सुनाई देने लगी थी. सुनहरे दिन और सपनों में नहाई रात, सब इतनी भयावह कैसे हो गई? वह आज तक समझ नहीं पाई.

हर रोज की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना उसे जिंदगी से बेजार करने लगी थी और उस के नीचे कराहता उमंगों भरा मन. पहलेपहल भरपूर विरोध किया रूपा ने. पर दिन, महीने और 7 साल बीतते चले गए और उस का धैर्य क्षीण होता रहा. पर एक दिन… उसी विरोध के महीन परतों के नीचे ज्वालामुखी के असंख्य कण फूट पड़े. और अंतत: उसे तलाक की पहल भी करनी पड़ गई…

2 साल लगे इस अनचाही पीड़ादायी परिस्थिति से नजात पाने में. तलाक के बाद बेटी को साथ ले कर वो एक अनजान सफर पर निकल गई. मंजिल उस को पता नहीं थी. इस असमंजस की स्थिति के बावजूद वह तनावमुक्त महसूस कर रही थी खुद को. आखिर 2 सालों के संघर्ष ने नारकीय जीवन से मुक्ति जो दिलाई थी. कुदरत ने मेहरबानी दिखाई और 1 हफ्ते में ही रेडियो स्टेशन में नौकरी लग जाने के कारण उसे कोई आर्थिक तंगी का एहसास नहीं हुआ. और फिर मायके का सहारा भी संबल बना.

उगते सूरज की लालिमा उस के गालों पर उतरने लगती थी, जब रेडियो स्टेशन में उसे एक पुरुष प्यार से देखता था. अच्छा लगता था उसे यों किसी का देखना. 2 वर्ष का अकेलापन ही था, जो अनजान पुरुष को देख कर पिघलने लगा.

पिछली यादों में तड़पता उस का मन कहता कि मुझे इस सुख की आशा नहीं करनी चाहिए अब. मेरे हिस्से में कहां है सुख… और अजीब सी उदासी मन को उद्वेलित करने लगती.

उफ्फ, यह अचानक आज मुझे क्या हो रहा है? 2 सालों के अकेलेपन में कभी भी इस तरह का खयाल नहीं आया. अकेलापन, उदासी, सबकुछ अपनी बेटी की मुसकान तले दब चुकी थी. फिर आज क्यों? जबकि उस ने तलाक के बाद किसी भी पुरुष को अपने दायरे के बाहर ही रखा. अंदर आने की इजाजत नहीं दी किसी को. पर आज इस पुरुष को देख कर क्यों तपते रेगिस्तान में बारिश की बूंदों जैसा महसूस हो रहा है.

‘क्या ये कोई स्वप्न है या फिर पिछले जन्म का साथ. क्यों मेरी नजरें बारबार उस की ओर उठ रही हैं? क्यों वह उसे अनदेखा नहीं कर पा रही है? मन में एक सवाल- क्या कुदरत को कुछ और खेल खेलना है? इसी उधेड़बुन में शाम हो गई,’ उस ने अपने बैग को कंधे पर लटकाया और बाहर निकल आई.

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पूस की सर्दी में भी उस के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं. चेहरे पर शर्म भरी मुसकराहट खिल उठी. तो क्या उसे प्यार हो गया है? एकाएक उस की मुद्रा ने गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया. सोचने लगी, ‘उस का मकसद तो सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटी का भविष्य बनाना है. नहींनहीं, वह इन फालतू के बातों में नहीं पड़ेगी.’

तभी उसे एक आवाज ने चौंका दिया, ‘‘चलिए मैं आप को घर छोड़ देता हूं. कब तक यहां खड़ी रह कर रिकशे का इंतजार करेंगी. अंधेरा भी तो गहरा रहा है.’’

पलट कर देखा तो वही पुरुष था, जो उस के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था. वैसे अंधेरे की आशंका तो उस के मन में भी थी. वह बिना कुछ जवाब दिए उस की कार में बैठ गई. मध्यम स्वर में गाना बज रहा था-

धीरेधीरे से मेरी जिंदगी में आना

धीरेधीरे से दिल को चुराना…

वह चुपचाप बैठ बाहर के अंधेरे में झांकने की असफल कोशिश रही थी. तभी उस ने हंस कर पूछा, ‘‘अंधेरे से लड़ रही हैं या मुझे अनदेखा कर रही हैं?’’

वह भी मुसकरा दी, ‘‘अपने वजूद को तलाश रही हूं. आप घुसपैठिए की तरह

जबरदस्ती घुस आए हैं, इसी समस्या के निवारण में जुटी हूं.’’

खिलखिला कर हंस पड़ा वह. लगा जैसे चारों तरफ हरियाली बिखर गई हो. इन्हीं बातों के दरमियान घर आ गया और वह बिना कुछ कहे गाड़ी से उतर कर जाने लगी. तभी उस ने विनती भरे स्वर में उस का मोबाइल नंबर मांगा. पहले तो वह झिझकी, लेकिन फिर कुछ सोच कर नंबर दे दिया.

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दिन बीतने के साथ बातों का और फिर मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह नहीं चाहती थी कि रचित हर शाम उस से मिलने आए. क्योंकि एक तो बदनामी का डर और दूसरी तरफ बेटी जिस की नजरों का सामना करना मुश्किल होता. मन की आशंकाएं उसे परेशान करती कि उस के जानने के बाद, क्या वह बेझिझक उस के सामने जा पाएगी? पर दफ्तर के बाद का खाली समय उसे काटने दौड़ता. झिझक और असमंजस के बीच वह मिलने का समय होते ही उस के आने की राह भी देखती.

तेरे वादों पर हम एतबार कर बैठे

ये क्या कर बैठे, हाय क्या कर बैठे

एक बार मुसकरा कर देख क्या लिए

सारी जिंदगी हम तेरे नाम कर बैठे…

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उतरन- भाग 3: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

देखती है पलट कर रचित को. नींद में बच्चों सा मासूम, प्यार से अपने गुलाबी होंठ उस के माथे पर टिका देती है. रचित के माथे पर भावनाओं का गुलाबी अंकन देख कर खुद शरमा भी जाती है रूपा. फिर उठ कर चल देती है किचन की ओर. नजदीक पहुंचते ही बरतनों की आवाज सुन कर चौंक गई. अंदर घुसते ही देखती है कि रचित की मां नाश्ता बना रही हैं.

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‘‘मां, मैं बना देती हूं न…’’ सुनते ही सास किचन से बाहर निकल गई. सब समझते हुए भी रूपा ने खुद को संयत रख कर बाकी काम निबटाया और नाश्ता ले कर प्रथम के कमरे में दाखिल हुई. बेखबर सो रहे प्रथम को कुछ देर अपलक देखती रही. फिर बड़े प्यार से धीरेधीरे बाल सहलाते हुए बोली, ‘‘उठो प्रथम बेटा, स्कूल नहीं जाना क्या आज?’’ रूपा की आवाज कानों में पड़ते ही वह घबरा कर जाग गया और अजीब सी नजरों से घूरने लगा. पता नहीं क्यों इतना असहज कर रहा था उस का इस तरह घूरना? नफरत ऐसी कि आंखों में अंगारे दहक रहे हों.

‘‘आप फिर से मेरे कमरे में आ गईं? एक बात हमेशा याद रखिए कि आप सिर्फ पापा की पत्नी हैं, मेरी मम्मी नहीं. मेरी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता. कोई भी नहीं.’’

स्तब्ध रह गई थी रूपा. रात का सुनहरा सपना ताश के पत्तों की तरह बिखरता नजर आ रहा था उसे. लगभग दौड़ती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई.

ऊपर से सब कुछ सामान्य दिख रहा था, पर समय के साथ रचित में भी बदलाव आने लगा. दिनभर औफिस और घर के काम से थक कर चूर हो जाने के बावजूद रात में बिस्तर पर नींद का नामोनिशान तक नहीं. रचित से भी वो अब कुछ नहीं कहती. बस अपनी एक बात उसे अचंभित कर जाती थी. जिस घुटन और प्रताड़ना के विरुद्ध वह महीनों लड़ी, वह घुटन और प्रताड़ना अब उसे उतना विचलित नहीं करती थी. समय और उम्र समझौता करना सिखा देता है शायद.

आज सुबह से मन उद्विग्न हो रहा था बारबार. रहरह कर दिल में एक अजीब सी टीस महसूस हो रही थी. जैसेतैसे काम खत्म कर के चाय पीने बैठी ही थी कि दीया के होस्टल से फोन आ गया. चकोर को चांद मिल जाने खुशी मिल गई हो जैसे.

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लेकिन यह क्या, मोबाइल से बात करते हुए उस के चेहरे पर दर्द का प्रहार महसूस कर सकता था कोई भी. कुछ देर के लिए तो वह मोबाइल लिए हतप्रभ सी बैठी रही. फिर अचानक बदहवास सी उठी और निकल गई बस स्टैंड की ओर.

होस्टल के गेट पर पहुंची तो काफी भीड़ दिखी. अनहोनी की आशंका उस के दिलोदिमाग को आतंकित करने लगी. अंदर जा कर देखा तो बेटी को जमीन पर लिटाया गया था. बेसब्री के साथ पास में बैठ गई और बड़े प्यार से पुकारी,

‘‘दीया बेटे.’’

कोई जवाब नहीं…

शरीर पकड़ कर हिलाया.

रूपा को तो जैसे करंट लग गया हो. इतना ठंडा और अकड़ा हुआ क्यों लग रहा है दीया का बदन. तो क्या?

नहीं…

ऐसा कैसे हो सकता है?

क्यों…?

किंतु अशांत धड़कता दिल आश्वस्त नहीं हो पा रहा था. वह निर्निमेष भाव से अपनी प्यारी परी को देखे जा रही थी. वही मोहक चेहरा…

तभी किसी ने उस के हाथों में एक कागज का टुकड़ा थमा दिया. यह कह कर कि आप की बेटी ने आप के नाम पत्र लिखा है.

डबडबाई आंखों से पत्र पढ़ने लगी-

‘दुनिया की सब से प्यारी ममा…’

आप को खूब सारा प्यार

आप को खूब सारी खुशियां मिले. सौरी ममा, मैं आप से मिले बगैर जा रही हूं. ये दुनिया बहुत खराब है ममा. तुम्हारे तलाक और शादी को ले कर बहुत गंदीगंदी बातें करते थे स्कूल के स्टूडैंट्स. कहते थे तेरी मां… छोड़ न मां.

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मैं जानती हूं तुम्हारे बारे में. लेकिन मां, मैं तंग आ गई थी उन के तानों से.

तुझ से नहीं बताया कि तू इतनी खुश है, परेशान हो जाओगी ये सब जान कर. मां, अब मुझे कोई परेशान नहीं करेगा. और तुम भी शांति से रह पाओगी.

हमेशा खुश रहना मां.

‘-तुम्हारी परी दीया.’

वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. अचेत हो कर लुढ़क गई रूपा. पर उस अर्ध चेतनावस्था में भी वह मंदमंद मुसकरा रही थी.

वह अचानक उठ कर बैठ गई और खूब जोर से हंस पड़ी. उसे लगा वह तो न नए पति और उस के बच्चे की बन पाई न ही अपनी वाली को संभाल पाई. मां बनने की इतनी बड़ी कीमत देनी होगी इस का अंदाजा नहीं था.

दिल चिथड़े कर डालने वाली हंसी…

अगला दिन…

दुनिया के लिए एक सामान्य दिन जैसा ही सवेरा था.

सिवाय रूपा के…

उतरन- पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

तलाक के कागजात- क्या सचमुच तलाक ले पाए सुधीर और आकांक्षा

“क्या बात है, आजकल बहुत मेकअप कर के ऑफिस जाने लगी हो. पहले तो कुछ भी पहन कर चल देती थी. पर अब तो रोज लेटेस्ट फैशन के कपड़े खरीदे जा रहे हैं,” व्यंग से सुधीर ने कहा तो आकांक्षा ने एक नजर उस पर डाली और फिर से अपने मेकअप में लग गई.

सुधीर आकांक्षा के इस रिएक्शन से चढ़ गया और एकदम उस के पास जा कर बोला,” आकांक्षा में जानना चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी में चल क्या रहा है?”

आकांक्षा ने भंवे चढ़ाते हुए उस की तरफ देखा और फिर अपने बॉब कट बालों को झटकती हुई बोली,” चलना क्या है, मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रही हूं, लोग मेरी इज्जत कर रहे हैं, मेरे काम की सराहना हो रही है और क्या?”

“सराहना हो रही है या पीठ पीछे तुम्हारा मजाक बन रहा है आकांक्षा?”

“खबरदार जो ऐसी बात की सुधीर. तुम्हें क्या पता सफलता का नशा क्या होता है. तुम ने तो बस जिस कुर्सी पर काम संभाला था आज तक वहीँ चिपके बैठे हो.”

“क्योंकि मुझे तुम्हारी तरह गलत तरीके से प्रमोशन लेना नहीं आता. पति के होते हुए भी प्रमोशन के लिए इमीडिएट बॉस की बाहों में समाना नहीं आता.”

सुधीर का इल्जाम सुन कर आकांक्षा ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ मिरर जमीन पर फेंक दिया और चीख पड़ी,” मेरे कैरेक्टर की समीक्षा करने से पहले अपने अंदर झांको सुधीर. तुम्हारे जैसा फेलियोर इंसान मेरे लायक है ही नहीं. न तो तुम मुझे वह प्यार और खुशियां दे सके जो मैं चाहती थी और न खुद को ही किसी काबिल बना सके. तुम्हारे बहाने हमारी खुशियों के आड़े आते रहे. अब यदि मुझे किसी से प्यार हुआ है तो मैं क्या कर सकती हूं.”

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“शादीशुदा मर्द से प्यार का नाटक करने वाली चालाक औरत हो तुम. तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं आकांक्षा. बस मेरी जिंदगी से हमेशा के लिए दूर चली जाओ. तलाक दे दो मुझे.”

“मैं तैयार हूं सुधीर. तुम कागज बनवाओ. हम आपसी सहमति से तलाक ले लेंगे. अब तक मैं यह सोच कर डरती थी कि हमारी बच्चियों का क्या होगा. पर अब फिक्र नहीं. दोनों इतनी बड़ी और समझदार हो गई हैं कि इस सिचुएशन को आसानी से हैंडल कर लेंगी. बड़ी को हॉस्टल भेज देंगे और छोटी मेरे साथ रह जाएगी.”

“तो ठीक है आकांक्षा. मैं तलाक के कागज तैयार करवाता हूँ. फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते.”

इस बात को अभी तीनचार दिन भी नहीं हुए थे कि सुधीर और आकांक्षा की बड़ी बेटी रानू की तबीयत अचानक बिगड़ गई. आकांक्षा उसे अस्पताल ले कर भागी. छोटी बेटी रोरो कर कह रही थी,” मम्मा आप जब ऑफिस चले जाते हो तो पीछे में कई दफा रानू दी सर दर्द की गोली खाती हैं. एकदो बार तो मैं ने इन्हें चक्कर खा कर गिरते भी देखा था. रानू दी हमेशा मुझे आप लोगों से कुछ न बताने को कह कर चुप करा देती थीं. एक दिन उन की सहेली ने फोन कर बताया था कि वे स्कूल में बेहोश हो गई हैं. ”

मेरी बच्ची इतना कुछ सहती रही पर मुझे कानोंकान खबर भी न होने दिया. यह सोच कर आकांक्षा की आंखों में आंसू आ गए. तब तक भागाभागा सुधीर भी अस्पताल पहुंचा.

आकांक्षा ने सवाल किया,” आज तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई ? मैं ऑफिस छोड़ कर नहीं भागती तो पता नहीं रानू का क्या होता.”

“वह दरअसल तलाक के कागज फाइनल तैयार करा रहा था. ”

“जाओ तुम पहले डॉक्टर से बात कर के पता करो कि मेरी बच्ची को हुआ क्या है? बेहोश क्यों हो गई मेरी बच्ची?”

अगले दिन तक रानू की सारी रिपोर्ट आ गई. रानू को ब्रेन ट्यूमर था. यह खबर सुन कर सुधीर और आकांक्षा के जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. फिर तो अस्पतालबाजी का ऐसा दौर चला कि दोनों को और किसी बात का होश ही नहीं रहा.

रानू के ब्रेन का ऑपरेशन करना पड़ा. काट कर ट्यूमर निकाल दिया गया. रेडिएशन थेरेपी भी दी गई. आकांक्षा ने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. रुपए पानी की तरह बहाए. रानू को काफी लंबा वक्त अस्पताल में रहना पड़ा. घर लौटने के बाद भी अस्पताल आनाजाना लगा ही रहा. करीब डेढ़दो साल बाद एक बार फिर से ट्यूमर का ग्रोथ शुरू हुआ तो तुरंत उसे अस्पताल में एडमिट कर के थेरेपी दी गई.

इतने समय में रानू काफी कमजोर हो गई थी. सुधीर और आकांक्षा का पूरा ध्यान रानू को पहले की तरह बनाने में लगा हुआ था. आकांक्षा का रिश्ता अभी भी अपने प्रेमी मयंक के साथ कायम था. सुधीर अभी भी आकांक्षा से नाराज था. दोनों के दिल अभी भी टूटे हुए थे. मगर दोनों ने झगड़ना छोड़ दिया था. दोनों के लिए ही रानू की तबीयत पहली प्राथमिकता थी.

ऑफिस के बाद दोनों घर लौटते तो रानू की देखभाल में लग जाते. आपस में उन की कोई बात नहीं होती. दिल से दोनों का रिश्ता पूरी तरह टूट चुका था. एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते. इस तरह तीनचार साल बीत गए. अब तक रानू नॉर्मल हो चुकी थी. उस ने कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया था. सुधीर और आकांक्षा कि जिंदगी भी पटरी पर लौटने लगी थी. मगर दोनों के दिल में जो फांस चुभी हुई थी उस का दर्द कम नहीं हुआ था.

इस बीच सुधीर के जीवन में एक परिवर्तन जरूर हुआ था. उस ने अपने दर्द को गीतों के जरिए बाहर निकालना शुरू किया. उस की गायकी लोगों को काफी पसंद आई और देखते ही देखते उस की गिनती देश के काबिल गायकों में होने लगी. सुधीर को अब स्टेज परफॉर्मेंस के साथसाथ टीवी और फिल्मों में भी छोटेमोटे ऑफर मिलने लगे. नाम के साथसाथ पैसे भी मिले और आकांक्षा के तेवर कमजोर हुए. मगर मयंक के साथ उस का रिश्ता वैसे ही कायम रहा और यह बात सुधीर को गवारा नहीं थी.

इसलिए एक बार फिर दोनों ने तलाक लेने का फैसला किया. सुधीर ने फिर से तलाक के कागज बनने को दे दिए. मगर दूसरे ही दिन आकांक्षा की मां का फोन आ गया. आकांक्षा की मां अकेली मेरठ में रहती थीं. बड़ी बेटी आकांक्षा के अलावा उन की एक बेटी और थी जो रंगून में बसी हुई थी. पति की मौत हो चुकी थी. ऐसे में आकांक्षा ही उन के जीवन का सहारा थी.

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बड़े दर्द भरे स्वर में उन्होंने आकांक्षा को बताया था,’ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं कि मुझे पेट का कैंसर हो गया है जो अभी सेकंड स्टेज में है.”

” मां यह क्या कह रही हो आप?”

“सच कह रही हूँ बेटा. आजकल बहुत कमजोरी रहती है. ठीक से खायापिया भी नहीं जाता. कल ही रिपोर्ट आई है मेरी.”

“तो मम्मा आप वहां अकेली क्या कर रही हो? आप यहां आ जाओ मेरे पास. मैं डॉक्टर से बात करूंगी. यहां अच्छे से अच्छा इलाज मिल सकेगा आप को.”

“ठीक है बेटा. मैं कल ही आ जाती हूं.”

इस तरह एक बार फिर अस्पतालबाजी का दौर शुरू हो गया. सुधीर अपनी सास की काफी इज्जत करता था और जानता था कि उस की सास अपनी बेटी को तलाक की इजाजत कभी नहीं देंगी. इसलिए तलाक का मसला एक बार फिर पेंडिंग हो गया. वैसे भी सुधीर अब खुद ही काफी व्यस्त हो चुका था. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आकांक्षा कहां है और क्या कर रही है.

आकांक्षा ने एक अच्छे अस्पताल में मां का इलाज शुरू करा दिया. वह खुद मां को अस्पताल ले कर जाती. इस वजह से मयंक के साथ वह अधिक समय नहीं बिता पाती थी. ऐसे में मयंक ही दोतीन बार घर आ कर आकांक्षा से मिल चुका था.

मां समझ गई थीं कि मयंक के साथ आकांक्षा का रिश्ता कैसा है और यह बात उन्हें बहुत ज्यादा अखरी थी. मगर वह कुछ बोल नहीं पाती थीं. सुधीर के लिए उन के मन में सहानुभूति थी. मगर वह यह सोच कर चुप रह जातीं कि सुधीर और आकांक्षा दोनों ही इतने बड़े पद पर हैं और इतना पैसा कमा रहे हैं. इन्हें जिंदगी कैसे जीनी है इस का फैसला भी इन का खुद का होना चाहिए.

सुधीर को संगीत के सिलसिले में अक्सर दूसरेदूसरे शहरों में जाना पड़ता और इधर पीछे से मां की देखभाल के साथसाथ आकांक्षा मयंक के और भी ज्यादा करीब होती गई.

करीब 3 साल के इलाज के बाद आखिर मां ने दम तोड़ दिया. उन्हें बचाया नहीं जा सका. उस दिन आकांक्षा बहुत रोई पर सुधीर एक प्रोग्राम के सिलसिले में मुंबई में था. आकांक्षा ने अकेले ही मां का क्रियाकर्म कराया. मयंक ने जरूर मदद की उस की. आकांक्षा को इस बात का काफी मलाल था कि खबर सुनते ही सब कुछ छोड़ कर सुधीर दौड़ा हुआ आया क्यों नहीं.

सुधीर के आते ही वह उस से इस बात पर झगड़ने लगी तो सुधीर सीधा वकील के पास निकल गया. जल्द से जल्द तलाक के कागज बनवा कर वह इस कड़वाहट भरे रिश्ते से आजाद होना चाहता था. दूसरे दिन शाम में जब वह तलाक के कागजात ले कर लौटा तो अंदर से आ रही आवाजें सुन कर ठिठक गया.

उस ने देखा कि ड्राइंग रूम में उस की बड़ी बेटी रानू अपने बॉयफ्रेंड के साथ खड़ी है और आकांक्षा चीख रही है,” नहीं रानू तू ऐसा नहीं कर सकती. अभी उम्र ही क्या है तेरी? आखिर तू एक शादीशुदा और दो बच्चों के बाप से ही शादी करना क्यों चाहती है? दुनिया के बाकी लड़के मर गए क्या?”

“पर मम्मा आप यह क्यों भूलते हो कि आप खुद पापा के होते हुए एक शादीशुदा मर्द से प्यार करते हो. हम ने तो कुछ नहीं कहा न आप को. आप की जिंदगी है. आप के फैसले हैं. फिर मेरे फैसले पर आप इस तरह का रिएक्शन क्यों दे रहे हो मम्मा? ”

“मुझ से तुलना मत कर मेरी बच्ची. मेरी उम्र बहुत है. पर तेरी पहली शादी होगी. वह भी एक विवाहित से?”

“मयूर विवाहित है मम्मा पर मेरी खातिर अपनी बीवी और बच्चों को छोड़ देगा. दोतीन महीने के अंदर उसे तलाक मिल जाएगा. तलाक के कागजात उस ने सबमिट करा दिए हैं. ”

“पर बेटा यह तो समझने की कोशिश कर, तू एक ऊंचे कुल की खानदानी लड़की है और तेरा मयूर एक दलित युवक.
नहींनहीं यह संभव नहीं मेरी बच्ची. शादी के लिए समाज में हैसियत और दर्जा एक जैसा होना जरूरी है. मयूर का परिवार और रस्मोरिवाज सब अलग होंगे. तू नहीं निभा पाएगी.”

“पर मम्मा आप की और पापा की जाति तो एक थी न. एक हैसियत, एक दर्जा, एक से ही रस्मोरिवाज मगर आप दोनों तो फिर भी नहीं निभा पाए न. तो आप मेरी चिंता क्यों कर रहे हो?”

बेटी का जवाब सुन कर आकांक्षा स्तब्ध रह गई थी. सुधीर को भी कुछ सूझ नहीं रहा था. हाथों में पकड़े हुए तलाक के कागजात शूल की तरह चुभ रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि कब उस की बच्चियां इतनी बड़ी हो गईं थीं कि उन दोनों की भूल समझने लगी थीं और सिर्फ समझ ही नहीं रही थीं बल्कि उसी भूल का वास्ता दे कर खुद भी भूल करने को आमादा थीं.

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सुधीर अचानक लडख़ड़ा सा गया. जल्दी से दरवाजा पकड़ लिया. रानू और मयूर घर से बाहर निकल गए थे. आकांक्षा अकेली बैठी रो रही थी.

सुधीर धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ उस के पास आया और फिर तलाक के कागजात उस के आगे टेबल पर रख दिए. आकांक्षा ने कांपते हाथों से वे कागज उठाए और अचानक ही उन को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

वह लपक कर सुधीर के सीने से लग गई और रोती हुई बोली,” सुधीर शायद मैं ही गलत थी. मेरी बेटी ने मेरे आगे रिश्तों का सच खोल कर रख दिया. मैं मानती हूं बहुत देर हो चुकी है. फिर भी मैं समझ गई हूं कि हमें अपने बच्चों के आगे गलत नहीं बल्कि सही उदाहरण पेश करना चाहिए ताकि वे अपना रास्ता न भटक जाए.”

आकांक्षा की बात सुन कर सुधीर ने भी सहमति में सिर हिलाया और तलाक के कागजात के टुकड़े उठा कर डस्टबिन में फेंक आया. उस ने भी जिंदगी को नए तरीके से जीने का मन बना लिया था.

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