कांटों वाली भूल: दीपा और तनय का क्या रिश्ता था?

बारबार घंटी बजने पर दीपा की आंखें खुलीं. बालों का जूड़ा बांधते हुए उस ने दरवाजा खोला. बाहर दूध वाला खड़ा था, ‘‘बहनजी, मैं दूसरी बार आ रहा हूं.’’

दीपा कुछ न बोली. दूध ले कर रसोई में रखा और मुंह धोने चली गई. रात की वारदात याद आते ही उस की आंखों से आंसू छलक आए.

चाय बना कर वह तनय के कमरे में आई, पर वह वहां नहीं था. मोबाइल पर उस का एक मैसेज था, जिसे वह पढ़ने लगी :

‘पूजनीय भाभीजी,

‘जब आप यह पढ़ रही होंगी, तब मैं शहर से बहुत दूर जा चुका हूंगा. मैं ने अपने दोस्त शिखर के भरोसे को तोड़ा है. शायद मेरी जिंदगी में आप का प्यार नहीं था. मैं हमेशा के लिए यह शहर छोड़ रहा हूं. मेरी यही सजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.

‘आप का मुंहबोला देवर.’

दीपा ने नफरत और गुस्से से मोबाइल एक ओर पटक दिया और

पलंग पर जा कर लेट गई. रहरह कर

उसे गुजरे दिनों की बातें याद आने

लगी थीं.

पिछले साल दीपा ने 10वीं जमात पास की थी. मां ने उस की पढ़ाई

छुड़ा दी थी, इसलिए पड़ोस की चाची के यहां वह सिलाईकढ़ाई सीखने और 11वीं जमात की तैयारी करने के लिए जाने लगी.

एक दिन दीपा चाची के साथ बैठी थी कि एक नौजवान लड़के ने आते ही चाची के पैर छुए.

‘‘अरे शिखर, बहुत दिन बाद आया. तेरे बाबूजी कैसे हैं?’’ चाची ने पूछा.

‘‘ठीक हैं चाची,’’ कह कर शिखर चारपाई पर बैठ गया.

‘‘दीपा बेटी, यह मेरे जेठ का बेटा है. जा, चाय बना ला.’’

दीपा चाय बनाने चली गई.

शिखर को दीपा की खूबसूरती भा गई. अब तो वह हर तीसरेचौथे दिन चाची का हालचाल पूछने आने लगा. जब दीपा और शिखर का प्यार परवान चढ़ा, तो दीपा के मातापिता ने भी अपनी मंजूरी दे दी.

दोनों का जल्दी ही ब्याह हो गया. दीपा अपने सीधेसच्चे पति को पा कर बेहद खुश थी. सासससुर का प्यार पा कर वह फूली नहीं समाती थी.

मातापिता को शिखर का बारबार छुट्टी ले कर घर आना अच्छा न लगा. एक बार जब शिखर हफ्ते की छुट्टियां ले कर आया, तो मां ने कहा, ‘‘शिखर, अब जाएगा तो बहू को भी ले जाना. बेचारी कुछ दिन घूम आएगी. तुझे खाना भी गरमागरम मिल जाया करेगा.’’

शिखर को जैसे मन की मुराद मिल गई थी, लेकिन वह ऊपरी दिल से बोला, ‘‘मां, मैं तो सोच रहा था कि दीपा कुछ दिन आप की सेवा करती.’’

‘‘बसबस, रहने दे. हमारी खूब हो गई सेवा,’’ हंसते हुए मां ने जवाब दिया.

आटोरिकशा से अटैची उतारते हुए शिखर ने कहा, ‘‘दीपा उतरो. अपना घर आ गया है.’’

दीपा की पायलें छनछना उठीं. वह धीरे से शिखर का हाथ पकड़ कर नीचे उतर पड़ी. सामने एक पक्का मकान था.

आटोरिकशा वाले को पैसे दे कर शिखर ने ताला खोला. दीपा अंदर दाखिल हुई. भीतर सभी कुछ बिखरा पड़ा था. रसोईघर का तो और भी बुरा हाल था. दीपा ने कमरों का मुआयना किया और हंस पड़ी.

अपने आगोश में दीपा को ले कर शिखर बोला, ‘‘क्यों साहिबा, कैसा लगा हमारा घर?’’

‘‘हटोजी, कबाड़खाना है पूरा,’’ और दीपा घर की सफाई में जुट गई. सारा सामान ढंग से जमा कर फिर उस ने चाय बनाई.

थोड़ी देर बाद शिखर का दोस्त तनय भी आ गया. वह शिकायत करते हुए बोला, ‘‘क्यों भई, स्टेशन से फोन कर देते, बंदा कार ले कर हाजिर हो जाता.’’ फिर दीपा से बोला, ‘‘भाभीजी, नमस्ते.’’

‘‘नमस्ते,’’ मुसकराते हुए दीपा ने उत्तर दिया और बोली, ‘‘बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह रसोईघर में चली गई.

तनय बरात में गया था. इसलिए दीपा उसे पहचानती थी. कई सालों से तनय और शिखर भाइयों की तरह इस घर में रह रहे थे. दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. उस दिन से तनय दूसरे कमरे में रहने लगा था.

अब तो तनय और शिखर के दिन मजे से बीतने लगे. दोनों कपड़ों और घर की सफाई पर लड़तेझगड़ते थे. अब इन मुसीबतों से छुटकारा मिल गया था.

तनय अपनी भाभी को बेहद

चाहता था. वह घर के कामकाज में दीपा का हाथ बंटाता. शिखर अपने दोस्त की ओर से एकदम बेफिक्र था. तनय की शादी हुई नहीं थी और वह अपने घर

में न रह कर शिखर के घर में ज्यादा रहता था.

पड़ोस के घरों में अकसर उन के रिश्ते को ले कर खुसुरफुसुर होती थी. लेकिन वे परवाह न करते थे. वैसे भी अब लोग एकदूसरे के मामलों में कम दखल देते थे. उस के पड़ोसी ऊंची जातियों के थे और शिखर व तनय को अपने से नीचा समझते थे, इसलिए कोई हंगामा भी खड़ा नहीं हुआ.

तनय की अभी शादी नहीं हुई थी. वह कभीकभार दीपा से सैक्सी चुहलबाजी कर बैठता तो वह मुसकरा कर देवर सा प्यार जताती. उसे फ्लर्टिंग बुरी नहीं लगती. शिखर अपनी पत्नी से बेहद खुश था.

एक दिन शिखर को दफ्तर के काम से 3 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा. दीपा की आंखों में आंसू भर आए.

तब शिखर बोला, ‘‘पगली, चिंता क्यों करती है? अपना तनय जो है.

उस के रहते चिंता की कोई बात नहीं. फिर तनय के पास कार भी है, उस के साथ फिल्म देख आना, मन बहल जाएगा.’’

शिखर चला गया. दीपा घर की सफाई में लग गई.

थोड़ी देर बाद तनय आ गया, तो दीपा बोली, ‘‘अरे, तुम अच्छे आ गए. वह जरा शक्कर का डब्बा पकड़ाना.’’ स्टूल पर चढ़ेचढ़े दीपा बोली.

दीपा ने उस समय केवल टाइट टौप और एक हाफ पैंट पहनी हुई थी.

डब्बा उठा कर तनय बोला, ‘‘भाभीजी, आप क्यों तकलीफ करती हैं? मैं रख देता हूं.’’

‘‘मुझे क्या कमजोर समझ रखा है,’’ कहते हुए दीपा उस से डब्बा लेने लगी. लेकिन लड़खड़ा गई और तनय से टकराते हुए फर्श पर गिर गई. दीपा के सुडौल जिस्म से टकराते ही तनय के जिस्म में जैसे बिजली सी दौड़ गई. वह दीपा को सहारा देते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, कहीं चोट तो नहीं आई?’’

‘‘नहीं,’’ दीपा खुद को संभालने लगी. हालांकि उसे तनय की छुअन अच्छी लगी थी और उसे कुछ सैकंड ज्यादा पकड़े रही. तनय ने उस का मतलब कुछ और निकाल लिया.

रात का खाना खा कर तनय अपने कमरे में चला गया. दीपा भी अपने कमरे में जा कर पलंग पर लेट गई. वह किताब उठा कर पढ़ने लगी कि तनय ने दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खोलते हुए दीपा ने पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं भाभी, अपनी फाइल लेने आया था,’’ तनय बोलते समय जैसे कांप रहा था.

‘‘अच्छा, ले लो.’’

शिखर की मेज पर तनय फाइल खोजने लगा. फिर एक फाइल उठा कर बोला, ‘‘मैं जाऊं?’’

‘‘और कुछ काम है क्या?’’ दीपा ने पूछा.

‘‘भाभी, तुम कितनी खूबसूरत

हो,’’ कहते हुए तनय ने दीपा का हाथ पकड़ना चाहा. दीपा जैसे चौंक पड़ी. लेकिन संभलते हुए वह बोली, ‘‘यह क्या…? तुम्हें तो मैं अपना देवर सा मानती हूं.’’

‘‘अरे, कहां का देवर,’’ कहते हुए तनय दीपा की ओर लपका, ‘‘जब मेरी बांहों में आई थीं, तो मैं तो उसी समय होश खो बैठा था.’’

दीपा चीख कर बोली, ‘‘तनय, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे रात को इस समय छूने की. निकल जाओ, नहीं तो शोर मचा दूंगी.

‘‘तुम मेरे प्यार का गलत मतलब न निकालो. जो तुम चाहते हो, उसे करने के बाद कोई औरत जिंदगीभर अपने खुद के सामने सिर उठा कर नहीं चल सकती. निकल जाओ बाहर,’’ उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे.

तनय बुझा हुआ कमरे से बाहर निकल गया. दीपा कमरे में कुंडी लगा कर फफक पड़ी.

जन्मकुंडली का चक्कर : पल्लवी की शादी की धूम

उस दिन सुबह ही मेरे घनिष्ठ मित्र प्रशांत का फोन आया और दोपहर को डाकिया उस के द्वारा भेजा गया वैवाहिक निमंत्रणपत्र दे गया. प्रशांत की बड़ी बेटी पल्लवी की शादी तय हो गई थी. इस समाचार से मुझे बेहद प्रसन्नता हुई और मैं ने प्रशांत को आश्वस्त कर दिया कि 15 दिन बाद होने वाली पल्लवी की शादी में हम पतिपत्नी अवश्य शरीक होेंगे.

बचपन से ही प्रशांत मेरा जिगरी दोस्त रहा है. हम ने साथसाथ पढ़ाई पूरी की और लगभग एक ही समय हम दोनों अलगअलग बैंकों में नौकरी में लग गए. हम अलगअलग जगहों पर कार्य करते रहे लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर हमारी मुलाकातें होती रहतीं.

हमारे 2-3 दूसरे मित्र भी थे जिन के साथ छुट्टियों में रोज हमारी बैठकें जमतीं. हम विभिन्न विषयों पर बातें करते और फिर अंत में पारिवारिक समस्याओं पर विचारविमर्श करने लगते. बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की शादी जैसे विषयों पर हमारी बातचीत ज्यादा होती रहती.

प्रशांत की दोनों बेटियां एम.ए. तक की शिक्षा पूरी कर नौकरी करने लगी थीं जबकि मेरे दोनों बेटे अभी पढ़ रहे थे. हमारे कई सहकर्मी अपनी बेटियों की शादी कर के निश्ंिचत हो गए थे. प्रशांत की बेटियों की उम्र बढ़ती जा रही थी और उस के रिटायर होेने का समय नजदीक आ रहा था. उस की बड़ी बेटी पल्लवी की जन्मकुंडली कुछ ऐसी थी कि जिस के कारण उस के लायक सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था.

हमारे खानदान में जन्मकुंडली को कभी महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए मुझे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. एक बार कुछ खास दोस्तों की बैठक में प्रशांत ने बताया था कि पल्लवी मांगलिक है और उस का गण राक्षस है. मेरी जिज्ञासा पर वह बोला, ‘‘कुंडली के 1, 4, 7, 8 और 12वें स्थान पर मंगल ग्रह रहने पर व्यक्ति मंगली या मांगलिक कहलाता है और कुंडली के आधार पर लोग देव, मनुष्य या राक्षस गण वाले हो जाते हैं. कुछ अन्य बातों के साथ वरवधू के न्यूनतम 18 गुण या अंक मिलने चाहिए. जो व्यक्ति मांगलिक नहीं है, उस की शादी यदि मांगलिक से हो जाए तो उसे कष्ट होगा.’’

किसी को मांगलिक बनाने का आधार मुझे विचित्र लगा और लोगों को 3 श्रेणियों में बांटना तो वैसे ही हुआ जैसे हिंदू समाज को 4 प्रमुख जातियों में विभाजित करना. फिर जो मांगलिक नहीं है, उसे अमांगलिक क्यों नहीं कहा जाता? यहां मंगल ही अमंगलकारी हो जाता है और कुंडली के अनुसार दुश्चरित्र व्यक्ति देवता और सुसंस्कारित, मृदुभाषी कन्या राक्षस हो सकती है. मुझे यह सब बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

प्रशांत की बेटी पल्लवी ने एम.एससी. करने के बाद बी.एड. किया और एक बड़े स्कूल में शिक्षिका बन गई. उस का रंगरूप अच्छा है. सीधी, सरल स्वभाव की है और गृहकार्य में भी उस की रुचि रहती है. ऐसी सुयोग्य कन्या का पिता समाज के अंधविश्वासों की वजह से पिछले 2-3 वर्ष से परेशान रह रहा था. जन्मकुंडली उस के गले का फंदा बन गई थी. मुझे लगा, जिस तरह जातिप्रथा को बहुत से लोग नकारने लगे हैं, उसी प्रकार इस अकल्याणकारी जन्मकुंडली को भी निरर्थक और अनावश्यक बना देना चाहिए.

प्रशांत फिर कहने लगा, ‘‘हमारे समाज मेें पढ़ेलिखे लोग भी इतने रूढि़वादी हैं कि बायोडाटा और फोटो बाद में देखते हैं, पहले कुंडली का मिलान करते हैं. कभी मंगली लड़का मिलता है तो दोनों के 18 से कम गुण मिलते हैं. जहां 25-30 गुण मिलते हैं वहां गण नहीं मिलते या लड़का मंगली नहीं होता. मैं अब तक 100 से ज्यादा जगह संपर्क कर चुका हूं किंतु कहीं कोई बात नहीं बनी.’’

मैं, अमित और विवेक, तीनों उस के हितैषी थे और हमेशा उस के भले की सोचते थे. उस दिन अमित ने उसे सुझाव दिया कि किसी साइबर कैफे में पल्लवी की जन्मतिथि थोड़ा आगेपीछे कर के एक अच्छी सी कुंडली बनवा लेने से शायद उस का रिश्ता जल्दी तय हो जाए.

प्रशांत तुरंत बोल उठा, ‘‘मैं ने अभी तक कोई गलत काम नहीं किया है. किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं किसी को धोखा देने की बात नहीं कर रहा,’’ अमित ने उसे समझाना चाहा, ‘‘किसी का अंधविश्वास दूर करने के लिए अगर एक झूठ का सहारा लेना पड़े तो इस में बुराई क्या है. क्या कोई पंडित या ज्योतिषी इस बात की गारंटी दे सकता है कि वर और कन्या की कुंडलियां अच्छी मिलने पर उन का दांपत्य जीवन सफल और सदा सुखमय रहेगा?

‘‘हमारे पंडितजी, जो दूसरों की कुंडली बनाते और भविष्य बतलाते हैं, स्वयं 45 वर्ष की आयु में विधुर हो गए. एक दूसरे नामी पंडित का भतीजा शादी के महज  5 साल बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया. उस के बाद उन्होंने जन्मकुंडली और भविष्यवाणियों से तौबा ही कर ली,’’ वह फिर बोला, ‘‘मेरे मातापिता 80-85 वर्ष की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं जबकि कुंडलियों के अनुसार उन के सिर्फ 8 ही गुण मिलते हैं.’’

प्रशांत सब सुनता रहा किंतु वह पल्लवी की कुंडली में कुछ हेरफेर करने के अमित के सुझाव से सहमत नहीं था.

कुछ महीने बाद हम फिर मिले. इस बार प्रशांत कुछ ज्यादा ही उदास नजर आ रहा था. कुछ लोग अपनी परेशानियों के बारे में अपने निकट संबंधियों या दोस्तों को भी कुछ बताना नहीं चाहते. आज के जमाने में लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि बस, थोड़ी सी हमदर्दी दिखा कर चल देंगे. उन से निबटना तो खुद ही होगा. हमारे छेड़ने पर वह कहने लगा कि पंडितों के चक्कर में उसे काफी शारीरिक कष्ट तथा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कोई लाभ नहीं हुआ.

2 वर्ष पहले किसी ने कालसर्प दोष बता कर उसे महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध स्थान पर सोने के सर्प की पूजा और पिंडदान करने का सुझाव दिया था. उतनी दूर सपरिवार जानेआने, होटल में 3 दिन ठहरने और सोने के सर्प सहित दानदक्षिणा में उस के लगभग 20 हजार रुपए खर्च हो गए. उस के कुछ महीने बाद एक दूसरे पंडित ने महामृत्युंजय जाप और पूजाहवन की सलाह दी थी. इस में फिर 10 हजार से ज्यादा खर्च हुए. उन पंडितों के अनुसार पल्लवी का रिश्ता पिछले साल ही तय होना निश्चित था. अब एकडेढ़ साल बाद भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी.

मैं ने उसे समझाने के इरादे से कहा, ‘‘तुम जन्मकुंडली और ऐसे पंडितों को कुछ समय के लिए भूल जाओ. यजमान का भला हो, न हो, इन की कमाई अच्छी होनी चाहिए. जो कहते हैं कि अलगअलग राशि वाले लोगों पर ग्रहों के असर पड़ते हैं, इस का कोई वैज्ञानिक आधार है क्या?

‘‘भिन्न राशि वाले एकसाथ धूप में बैठें तो क्या सब को सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ नहीं मिलेगा. मेरे दोस्त, तुम अपनी जाति के दायरे से बाहर निकल कर ऐसी जगह बात चलाओ जहां जन्मकुंडली को महत्त्व नहीं दिया जाता.’’

मेरी बातों का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘कुंडली मिला कर जितनी शादियां होती हैं उन में बहुएं जलाने या मारने, असमय विधुर या विधवा होने, आत्महत्या करने, तलाकशुदा या विकलांग अथवा असाध्य रोगों से ग्रसित होने के कितने प्रतिशत मामले होते हैं. ऐसा कोई सर्वे किया जाए तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आ जाएगा. इस पर कितने लोग ध्यान देते हैं? मुझे तो लगता है, इस कुंडली ने लोगों की मानसिकता को संकीर्ण एवं सशंकित कर दिया है. सब बकवास है.’’

उस दिन मुझे लगा कि प्रशांत की सोच में कुछ बदलाव आ गया था. उस ने निश्चय कर लिया था कि अब वह ऐसे पंडितों और ज्योतिषियों के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

खैर, अंत भला तो सब भला. हम तो उस की बेटियों की जल्दी शादी तय होने की कामना ही करते रहे और अब एक खुशखबरी तो आ ही गई.

हम पतिपत्नी ठीक शादी के दिन ही रांची पहुंच सके. प्रशांत इतना व्यस्त था कि 2 दिन तक उस से कुछ खास बातें नहीं हो पाईं. उस ने दबाव डाल कर हमें 2 दिन और रोक लिया था. तीसरे दिन जब ज्यादातर मेहमान विदा हो चुके थे, हम इत्मीनान से बैठ कर गपशप करने लगे. उस वक्त प्रशांत का साला भी वहां मौजूद था. वही हमें बताने लगा कि किस तरह अचानक रिश्ता तय हुआ. उस ने कहा, ‘‘आज के जमाने में कामकाजी लड़कियां स्वयं जल्दी विवाह करना नहीं चाहतीं. उन में आत्मसम्मान, स्वाभिमान की भावना होती है और वे आर्थिक रूप से अपना एक ठोस आधार बनाना चाहती हैं, जिस से उन्हें अपनी हर छोटीमोटी जरूरत के लिए अपने पति के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पल्लवी को अभी 2 ही साल तो हुए थे नौकरी करते हुए लेकिन मेरे जीजाजी को ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उन्होंने दूसरी जाति के एक विधुर से उस का संबंध तय कर दिया.

वैसे मेरे लिए यह बिलकुल नई खबर थी. किंतु मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा. पल्लवी का पति 30-32 वर्ष का नवयुवक था और देखनेसुनने में ठीक लग रहा था. हम लोगोें का मित्र विवेक, प्रशांत की बिरादरी से ही था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर प्रशांत ने ऐसा निर्णय क्यों लिया. उस ने उस से पूछा, ‘‘पल्लवी जैसी कन्या के लिए अपने समाज में ही अच्छे कुंआरे लड़के मिल सकते थे. तुम थोड़ा और इंतजार कर सकते थे. आखिर क्या मजबूरी थी कि उस की शादी तुम ने एक ऐसे विधुर से कर दी जिस की पत्नी की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई थी.’’

‘‘यह सिर्फ मेरा निर्णय नहीं था. पल्लवी की इस में पूरी सहमति थी. जब हम अलगअलग जातियों के लोग आपस में इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं, साथ खापी और रह सकते हैं, तो फिर अंतर्जातीय विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

प्रशांत कहने लगा, ‘‘एक विधुर जो नौजवान है, रेलवे में इंजीनियर है और जिसे कार्यस्थल भोपाल में अच्छा सा फ्लैट मिला हुआ है, उस में क्या बुराई है? फिर यहां जन्मकुंडली मिलाने का कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘और उस की पहली पत्नी की मौत?’’ विवेक शायद प्रशांत के उत्तर से संतुष्ट नहीं था.

प्रशांत ने कहा, ‘‘अखबारों में प्राय: रोज ही दहेज के लोभी ससुराल वालों द्वारा बहुओं को प्रताडि़त करने अथवा मार डालने की खबरें छपती रहती हैं. हमें भी डर होता था किंतु एक विधुर से बेटी का ब्याह कर के मैं चिंतामुक्त हो गया हूं. मुझे पूरा यकीन है, पल्लवी वहां सुखी रहेगी. आखिर, ससुराल वाले कितनी बहुओं की जान लेंगे? वैसे उन की बहू की मौत महज एक हादसा थी.’’

‘‘तुम्हारा निर्णय गलत नहीं रहा,’’ विवेक मुसकरा कर बोला.

जय किशोर बरेरिया

एक जहां प्यार भरा : इत्सिंग और मैं

कहते हैं इंसान को जब किसी से प्यार होता है तो जिंदगी बदल जाती है. खयालों का मौसम आबाद हो जाता है और दिल का साम्राज्य कोई लुटेरा लूट कर ले जाता है.

प्यार के सुनहरे धागों से जकड़ा इंसान कुछ भी करने की हालत में नहीं होता सिवा अपने दिलबर की यादों में गुम रहने के. कुछ ऐसा ही होने लगा था मेरे साथ भी. हालांकि, मैं सिर्फ अपने एहसासों के बारे में जानती थी.

इत्सिंग क्या सोचता है इस बारे में मुझे जानकारी नहीं थी. इत्सिंग से परिचय हुए ज्यादा दिन भी तो नहीं हुए थे. 3 माह कोई लंबा वक्त नहीं होता.

मैं कैसे भूल सकती हूं 2009 के उस दिसंबर महीने को जब दिल्ली की ठंड ने मुझे रजाई में दुबके रहने को विवश किया हुआ था. कभी बिस्तर पर, कभी रजाई के अंदर तो कभी बाहर अपने लैपटौप पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना मेरा मनपसंद काम था.

हाल ही में मैं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से चाइनीज लैंग्वेज में ग्रेजुएशन कंप्लीट किया था.

आप सोचेंगे मैं ने चाइनीज भाषा ही क्यों चुनी? दरअसल, यह दुनिया की सब से कठिन भाषा मानी जाती है और इसी वजह से यह पिक्टोग्राफिक भाषा मुझे काफी रोचक लगी. इसलिए मैं ने इसे चुना. मैं कुछ चीनी लोगों से बातचीत कर इस भाषा में महारत हासिल करना चाहती थी ताकि मु?ो इस के आधार पर कोई अच्छी नौकरी मिल सके.

मैं ने इंटरनैट पर लोगों से संपर्क साधने का प्रयास किया तो मेरे आगे इत्सिंग का प्रोफाइल खुला. वह बीजिंग की किसी माइन कंपनी में नौकरी करता था और खाली समय में इंटरनैट सर्फिंग किया करता था.

मैं ने उस के बारे में पढ़ना शुरू किया, तो कई रोचक बातें पता चलीं. वह काफी शर्मीला इंसान था. उसे लौंग ड्राइव पर जाना और पेड़पौधों से बातें करना पसंद था. उस की हौबी पेंटिंग और सर्फिंग थी. वह जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहता था जो दुनिया में हमेशा के लिए यादगार रह जाए. यह सब पढ़ कर मुझे उस से बात करने की इच्छा जगी. वैसे भी मुझे चाइनीज लैंग्वेज के अभ्यास के लिए उस की जरूरत थी.

काफी सोचविचार कर मैं ने उस से बातचीत की शुरुआत करते हुए लिखा, ‘हैलो इत्सिंग.’

हैलो का जवाब हैलो में दे कर वह गायब हो गया. मुझे कुछकुछ अजीब सा लगा. लेकिन मैं ने उस का पीछा नहीं छोड़ा और फिर से लिखा, ‘कैन आई टौक टू यू?’

उस का एक शब्द का जवाब आया, ‘यस’.

‘आई लाइक्ड योर प्रोफाइल,’ कह कर मैं ने बात आगे बढ़ाई.

‘थैंक्स,’ कह कर वह फिर खामोश

हो गया.

उस ने मुझसे मेरा परिचय भी नहीं पूछा. फिर भी मैं ने उसे अपना नाम बताते हुए लिखा, ‘‘मायसैल्फ रिद्धिमा फ्रौम दिल्ली. आई हैव डन माई ग्रेजुएशन इन चाइनीज लैंग्वेज. आई नीड योर हैल्प टू इंपू्रव इट. विल यू प्लीज टीच मी चाइनीज लैंग्वेज?’’

इस का जवाब भी इत्सिंग ने बहुत संक्षेप में दिया, ’’ओके, बट व्हाई मी? यू कैन टौक टू ऐनी अदर पर्सन आलसो.’’

‘‘बिकौज आई लाइक योर थिंकिंग. यू आर वैरी डिफरैंट. प्लीज हैल्प मी.’’

‘ओके,’ कह कर वह खामोश हो गया. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. उस से बातें करना जारी रखा. धीरेधीरे वह भी मुझसे बातें करने लगा. शुरुआत में काफी दिन हम चाइनीज लैंग्वेज में नहीं बल्कि इंग्लिश में ही चैटिंग करते रहे. बाद में उस ने मुझे चाइनीज सिखानी भी शुरू की. पहले हम ईमेल द्वारा संवाद स्थापित करते थे. पर अब तक व्हाट्सऐप आ गया था. सो, हम व्हाट्सऐप पर चैटिंग करने लगे.

व्हाट्सऐप पर बातें करतेकरते हम एकदूसरे के बारे में काफीकुछ जाननेसमझाने लगे. मुझे इत्सिंग का सीधासादा स्वभाव और ईमानदार रवैया बहुत पसंद आ रहा था. उस की सोच बिलकुल मेरी जैसी थी. वह भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. शोशेबाजी से दूर रहता और महिलाओं का सम्मान करता. उसे भी मेरी तरह फ्लर्टिंग और बटरिंग पसंद नहीं थी.

अब हमें बातें करतेकरते 3-4 महीने से ज्यादा समय गुजर चुका था. इतने कम समय में ही मुझे उस की आदत सी हो गई थी. वह मेरी भाषा नहीं जानता था, पर मु?ो बहुत अच्छी तरह समझेने लगा था. उस की बातों से लगता जैसे वह भी मुझे पसंद करने लगा है. मैं इस बारे में अभी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी. पर मेरा दिल उसे अपनाने की वकालत कर चुका था. मैं उस के खयालों में खोई रहने लगी थी. मैं समझा नहीं पा रही थी कि उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करूं या नहीं.

एक दिन मेरी एक सहेली मुझसे मिलने आई. उस वक्त मैं इत्सिंग के बारे में ही सोच रही थी. सहेली के पूछने पर मैं ने उसे सबकुछ सचसच बता दिया.

वह चौंक पड़ी, ‘‘तुझे चाइनीज लड़के से प्यार हो गया? जानती भी है कितनी मुश्किलें आएंगी? इंडियन लड़की और चाइनीज लड़का…. पता है न उन का कल्चर कितना अलग होता है? रहने का तरीका, खानापीना, वेशभूषा सब अलग.’’

‘‘तो क्या हुआ? मैं उन का कल्चर स्वीकार कर लूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे बच्चे? वे क्या कहलाएंगे इंडियन या चाइनीज?’’

‘‘वे इंसान कहलाएंगे और हम उन्हें इंडियन कल्चर के साथसाथ चाइनीज कल्चर भी सिखाएंगे.’’

मेरा विश्वास देख कर मेरी सहेली भी मुसकरा पड़ी और बोली, ‘‘यदि ऐसा है तो एक बार उस से दिल की बात कह कर देख.’’

मुझे सहेली की बात उचित लगी. अगले ही दिन मैं ने इत्सिंग को एक मैसेज भेजा जिस का मजमून कुछ इस प्रकार था, ‘‘इत्सिंग, क्यों न हम एक ऐसा प्यारा सा घर बनाएं जिस में खेलने वाले बच्चे थोड़े इंडियन हों तो थोड़े चाइनीज.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप रिद्धिमा? यह घर कहां होगा इंडिया में या चाइना में?’’ इत्सिंग ने भोलेपन से पूछा तो मैं हंस पड़ी, ‘‘घर कहीं भी हो पर होगा हम दोनों का. बच्चे भी हम दोनों के ही होंगे. हम उन्हें दोनों कल्चर सिखाएंगे. कितना अच्छा लगेगा न इत्सिंग.’’

मेरी बात सुन कर वह अचकचा गया था. उसे बात सम?ा में आ गई थी, पर फिर भी क्लियर करना चाहता था.

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा? आई मीन क्या सचमुच?’’

‘‘हां इत्सिंग, सचमुच मैं तुम से प्यार करने लगी हूं. आई लव यू.’’

‘‘पर यह कैसे हो सकता है?’’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘क्यों नहीं हो सकता?’’

‘‘आई मीन मुझे बहुत से लोग पसंद करते हैं, कई दोस्त हैं मेरे. लड़कियां भी हैं जो मु?ा से बातें करती हैं. पर किसी ने आज तक मुझे आई लव यू तो नहीं कहा था. क्या तुम वाकई…? आर यू श्योर ?’’

‘‘यस इत्सिंग, आई लव यू.’’

‘‘ओके… थोड़ा समय दो मुझे रिद्धिमा.’’

‘‘ठीक है, कल तक का समय ले लो. अब हम परसों बात करेंगे,’’ कह कर मैं औफलाइन हो गई.

मुझे यह तो अंदाजा था कि वह मेरे प्रस्ताव पर सहज नहीं रह पाएगा. पर जिस तरह उस ने बात की थी कि उस की बहुत सी लड़कियों से भी दोस्ती है. स्वाभाविक था कि मैं भी थोड़ी घबरा रही थी. मुझे डर लग रहा था कि कहीं वह इस प्रस्ताव को अस्वीकार न कर दे. सारी रात मैं सो न सकी. अजीबअजीब से खयाल आ रहे थे. आंखें बंद करती तो इत्सिंग का चेहरा सामने आ जाता. किसी तरह रात गुजरी. अब पूरा दिन गुजारना था क्योंकि मैं ने इत्सिंग से कहा था कि मैं परसों बात करूंगी. इसलिए मैं जानबूझकर देर से जागी और नहाधो कर पढ़ने बैठी ही थी कि सुबहसुबह अपने व्हाट्सऐप पर इत्सिंग का मैसेज देख कर मैं चौंक गई.

धड़कते दिल के साथ मैं ने मैसेज पढ़ा. लिखा था, ‘‘डियर रिद्धिमा, कल पूरी रात मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम्हारा प्रस्ताव भी मेरे दिलोदिमाग में था. काफी सोचने के बाद मैं ने फैसला लिया है कि हम चीन में अपना घर बनाएंगे पर एक घर इंडिया में भी होगा. जहां गरमी की छुट्टियों में बच्चे नानानानी के साथ अपना वक्त बिताएंगे.’’

‘‘तो मिस्टर इन बातों का सीधासीधा मतलब भी बता दीजिए,’’ मैं ने शरारत से पूछा तो अगले ही पल इत्सिंग ने बोल्ड फौंट में ‘आई लव यू टू डियर’ लिख कर भेजा. साथ में एक बड़ा सा दिल भी. मैं खुशी से ?ाम उठी. वह मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल था. अब तो मेरी जिंदगी का गुलशन प्यार की खुशबू से महक उठा था. हम व्हाट्सऐप पर चैटिंग के साथ फोन पर भी बातें करने लगे थे.

कुछ महीनों बाद एक दिन मैं ने इत्सिंग से फिर से अपने दिल की बात की, ‘‘यार, जब हम प्यार करते ही हैं तो क्यों न शादी भी कर लें.’’

‘‘शादी?’’

‘‘हां शादी.’’

‘‘तुम्हें अजीब नहीं लग रहा?’’

‘‘पर क्यों? शादी करनी तो है ही न इत्सिंग या फिर तुम केवल टाइमपास कर रहे हो?’’ मैं ने उसे डराया था और वह सच में डर भी गया था.

वह हकलाता हुआ बोला, ‘‘ऐसा नहीं है रिद्धिमा. शादी तो करनी ही है पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह फैसला बहुत जल्दी का हो जाएगा? कम से कम शादी से पहले एक बार हमें मिल तो लेना ही चाहिए,’‘ कह कर वह हंस पड़ा. इत्सिंग का जवाब सुन कर मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाई.

अब हमें मिलने का दिन और जगह तय करना था. यह 2010 की बात थी. शंघाई वर्ल्ड ऐक्सपो होने वाला था. आयोजन से पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंडियन पैविलियन की तरफ से वौलंटियर्स के सलैक्शन के लिए इंटरव्यू लिए जा रहे थे.

मैं ने जरा सी भी देर नहीं की. इंटरव्यू दिया और सलैक्ट भी हो गई. इस तरह शंघाई के उस वर्ल्ड ऐक्सपो में हम पहली दफा एकदूसरे से मिले. वैसे तो हम ने एकदूसरे की कई तसवीरें देखी थीं पर आमनेसामने देखने की बात ही अलग होती है. एकदूसरे से मिलने के बाद हमारे दिल में जो एहसास उठे उसे बयां करना भी कठिन था. पर एक बात तो तय थी कि अब हम पहले से भी ज्यादा श्योर थे कि हमें शादी करनी ही है.

ऐक्सपो खत्म होने पर मैं ने इत्सिंग से कहा, ‘‘एक बार मेरे घर चलो. मेरे मांबाप से मिलो और उन्हें इस शादी के लिए तैयार करो. उन के आगे साबित करो कि तुम मेरे लिए परफैक्ट रहोगे.’’

इत्सिंग ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया. हम एकदूसरे की आगोश में खो गए. 2 दिन बाद ही इत्सिंग मेरे साथ दिल्ली एयरपोर्ट पर था. मैं उसे रास्तेभर समझाती आई थी कि उसे क्या बोलना है और कैसे बोलना है, किस तरह मम्मीपापा को इंप्रैस करना है.

मैं ने उसे सम?ाया था, ‘‘हमारे यहां बड़ों को गले नहीं लगाते बल्कि आशीर्वाद लेते हैं, नमस्कार करते हैं.’’

मैं ने उसे सबकुछ कर के दिखाया था. मगर एयरपोर्ट पर मम्मीपापा को देखते ही इत्सिंग सब भूल गया और हंसते हुए उन के गले लग गया. मम्मीपापा ने भी उसे बेटे की तरह सीने से लगा लिया था. मेरी फैमिली ने इत्सिंग को अपनाने में देर नहीं लगाई थी, मगर उस के मम्मीपापा को जब यह बात पता चली और इत्सिंग ने मुझे उन से मिलवाया तो उन का रिऐक्शन बहुत अलग था.

उस के पापा ने नाराज होते हुए कहा था, ‘‘लड़की की भाषा, रहनसहन, खानपान, वेशभूषा सब बिलकुल अलग होंगे. कैसे निभाएगी वह हमारे घर में? रिश्तेदारों के आगे हमारी कितनी बदनामी होगी.’’

इत्सिंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था, ‘‘डोंट वरी पापा, रिद्धिमा सबकुछ संभाल लेगी. रिद्धिमा खुद को बदलने के लिए तैयार है. वह चाइनीज कल्चर स्वीकार करेगी.’’

‘‘पर भाषा? वह इतनी जल्दी चाइनीज कैसे सीख लेगी?’’ पापा ने सवाल किया.

‘‘पापा वह चाइनीज जानती है. उस ने चाइनीज लैंग्वेज में ही ग्रेजुएशन किया है. वह बहुत अच्छी चाइनीज बोलती है,’’ इत्सिंग ने अपनी बात रखी.

यह जवाब सुन कर उस के पापा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. थोड़ी नानुकुर के बाद उस के मांबाप ने भी मुझे अपना लिया. उस के पिता हमारी शादी के लिए तैयार तो हो गए मगर उन्होंने हमारे सामने एक शर्त रखते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की शादी चीनी रीतिरिवाज के साथ हो. इस में मैं किसी की नहीं सुनूंगा.’’

‘‘जी पिताजी,’’ हम दोनों ने एकसाथ हामी भरी.

बाद में जब मैं ने अपने मातापिता को यह बात बताई तो वे अड़ गए. वे मुझे अपने घर से विदा करना चाहते थे और वह भी पूरी तरह भारतीय रीतिरिवाजों के साथ. मैं ने यह बात इत्सिंग को बताई तो वह भी सोच में डूब गया. हम किसी को भी नाराज नहीं कर सकते थे. पर एकसाथ दोनों की इच्छा पूरी कैसे करें, यह बात समझ नहीं आ रही थी.

तभी मेरे दिमाग में एक आइडिया आया, ‘‘सुनो इत्सिंग, क्यों न हम बीच का रास्ता निकालें.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब, हम चाइनीज तरीके से भी शादी करें और इंडियन तरीके से भी.’’

‘‘ऐसा कैसे होगा रिद्धिमा?’’

‘‘आराम से हो जाएगा. देखो, हमारे यहां यह रिवाज है कि दूल्हा बरात ले कर दुलहन के घर आता है. सो तुम अपने खास रिश्तेदारों के साथ इंडिया आ जाना. इस के बाद हम पहले भारतीय रीतिरिवाजों को निभाते हुए शादी कर लेंगे, उस के बाद अगले दिन हम चाइनीज रिवाजों को निभाएंगे. तुम बताओ कि चाइनीज वैडिंग की खास रस्में क्या हैं जिन के बगैर शादी अधूरी रहती है?’’

‘‘सब से पहले तो बता दूं कि हमारे यहां एक सैरेमनी होती है जिस में कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट हाउस या गवर्नमैंट औफिस में लड़केलड़की को कानूनी तौर पर पतिपत्नी का दरजा मिलता है. कागजी कार्रवाई होती है.’’

‘‘ठीक है, यह सैरेमनी तो हम अभी निबटा लेंगे. इस के अलावा बताओ और क्या होता है?’’

‘‘इस के अलावा टी सैरेमनी चाइनीज वैडिंग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इसे चाइनीज में जिंग चा कहा जाता है जिस का अर्थ है आदर के साथ चाय औफर करना. इस के तहत दूल्हादुलहन एकदूसरे के परिवार के प्रति आदर प्रकट करते हुए पहले पेरैंट्स को, फिर ग्रैंड पेरैंट्स को और फिर दूसरे रिश्तेदारों को चाय सर्व करते हैं. बदले में रिश्तेदार उन्हें प्यार और तोहफे देते हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है इत्सिंग, पर इस मौके पर चाय ही क्यों?’’

‘‘इस के पीछे भी एक लौजिक है.’’

‘‘अच्छा वह क्या?’’ मैं ने उत्सुकता के साथ पूछा.

‘‘देखो, यह तो तुम जानती ही होगी कि चाय के पेड़ को हम कहीं भी ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते. चाय का पेड़ केवल बीजों के जरिए ही बढ़ता है. इसलिए इसे विश्वास,

प्यार और खुशहाल परिवार का प्रतीक माना जाता है.’’

‘‘गुड,’’ कह कर मैं मुसकरा उठी. मुझे इत्सिंग से चाइनीज वैडिंग की बातें सुनने में बहुत मजा आ रहा था.

मैं ने उस से फिर पूछा, ‘‘इसके अलावा और कोई रोचक रस्म?’’

‘‘हां, एक और रोचक रस्म है और वह है गेटक्रशिंग सैशन. इसे डोर गेम भी कह सकती हो. इस में दुलहन की सहेलियां तरहतरह के मनोरंजक खेलों द्वारा दूल्हे का टैस्ट लेती हैं और जब तक दूल्हा पास नहीं हो जाता वह दुलहन के करीब नहीं जा सकता.’’

इस रिवाज के बारे में सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘थोड़ीथोड़ी यह रस्म हमारे यहां की जूताछिपाई रस्म से मिलतीजुलती है.’’

‘‘अच्छा वही रस्म न जिस में दूल्हे का जूता छिपा दिया जाता है और फिर दुलहन की बहनों द्वारा रिश्वत मांगी जाती है?’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘हां, यही समझा लो. वैसे लगता है तुम्हें भी हमारी रस्मों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी है.’’

‘‘बिलकुल मैडमजी, यह गुलाम अब आप का जो बनने वाला है.’’

उस की इस बात पर हम दोनों हंस पड़े.

‘‘तो चलो यह पक्का रहा कि हम न तुम्हारे पेरैंट्स को निराश करेंगे और न मेरे पेरैंट्स को,’’ मैं ने कहा.

‘‘बिलकुल.’’

और फिर वह दिन भी आ गया जब दिल्ली के करोलबाग स्थित मेरे घर में जोरशोर से शहनाइयां बज रही थीं. हम ने संक्षेप में मगर पूरे रस्मोरिवाज के साथ पहले इंडियन स्टाइल में शादी संपन्न की जिस में मैं ने मैरून कलर की खूबसूरत लहंगाचोली पहनी. इत्सिंग ने सुनहरे काम से सजी हलके नीले रंग की बनारसी शाही शेरवानी पहनी थी जिस में वह बहुत जंच रहा था. उस ने जिद कर के पगड़ी भी बांधी थी. उसे देख कर मेरी मां निहाल हो रही थीं.

अगले दिन हम ने चीनी तरीके से शादी की रस्में निभाईं. मैं ने चीनी दुलहन के अनुरूप खास लाल ड्रैस पहनी जिसे वहां किपाओ कहा जाता है. चेहरे पर लाल कपड़े का आवरण था. चीन में लाल रंग को खुशी, समृद्धि और बेहतर जीवन का प्रतीक माना जाता है. इसी वजह से दुलहन की ड्रैस का रंग लाल होता है.

सुबह गेटक्रैशिंग सैशन और टी सैरेमनी के बाद दोपहर में शानदार डिनर रिसैप्शन का आयोजन किया गया. दोनों परिवारों के लोग बहुत खुश थे. शादी को सफल बनाने में हमारे रिश्तेदारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. दोनों ही तरफ के रिश्तेदारों को एकदूसरे की संस्कृति व रिवाजों के बारे में जानने का सुंदर अवसर मिला था.

इसी के साथ मैं ने और इत्सिंग ने नए जीवन की शुरुआत की. हमारे प्यारे से संसार में 2 फूल खिले. बेटा मा लोंग और बेटी रवीना. हम ने अपने बच्चों को इंडियन और चाइनीज दोनों ही कल्चर सिखाए थे.

आज दीवाली थी. हम बीजिंग में थे मगर इत्सिंग और मा लोंग ने कुरतापाजामा और रवीना ने लहंगाचोली पहनी हुई थी.

व्हाट्सऐप वीडियोकौल पर मेरे मम्मीपापा थे और बच्चों से बातें करते हुए बारबार उन की आंखें खुशी से भीग रही थीं.

सच तो यह है कि हमारा परिवार न तो चाइनीज है और न ही इंडियन. मेरे बच्चे एक तरफ पिंगपोंग खेलते हैं तो दूसरी तरफ क्रिकेट के भी दीवाने हैं. वे नूडल्स भी खाते हैं और आलू के परांठों के भी मजे लेते हैं. वे होलीदीवाली भी मनाते हैं और त्वान वू या मिड औटम फैस्टिवल का भी मजा लेते हैं. हर बंधन से परे यह तो, बस, एक खुशहाल परिवार है. यह एक जहान है प्यारभरा.

सच उगल दिया: क्या था शीला का सच

जब वह बाबा गली से गुजर रहा था, तब रुक्मिणी उसे रोकते हुए बोलीं, ‘‘बाबा, जरा रुकना.’’

‘‘हां, अम्मांजी…’’ बाबा ने रुकते हुए कहा.

‘‘क्या आप हाथ देख कर सबकुछ सहीसही बता सकते हैं?’’ रुक्मिणी ने सवाल पूछा.

बाबा खुश हो कर बोला, ‘‘हां अम्मांजी, मैं तो ज्योतिषी हूं. मैं हाथ देख कर सबकुछ सचसच बता सकता हूं.’’

बाबा को अपने आंगन में बैठा कर रुक्मिणी अंदर चली गईं. तिलकधारी बाबा के गले में रुद्राक्ष की माला थी, बढ़ी हुई दाढ़ी, उंगलियों में न जाने कितने नगीने पहन खे थे. चेहरे पर चमक थी.

रुक्मिणी उस बाबा को देख भीतर ही भीतर खुश हुईं. आखिरकार बाबा बोला, ‘‘लाओ अम्मांजी, अपना हाथ दो.’’

‘‘मेरा हाथ नहीं देखना है बाबा.’’

‘‘तो फिर किस का हाथ देखना है?’’

‘‘मेरी बहू का.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘शादी को 5 साल हो गए, मगर उस की कोख आज तक हरी नहीं हुई है.’’

‘‘ऐसी बात है क्या?’’

‘‘हां, बाबा.’’

‘‘अरे, माहिर डाक्टरों ने जिन औरतों को बांझ बता दिया है, उन की कोख भी मैं ने अपने मंत्रों से हरी की है,’’ बाबा के मुंह से जब यह सुना, तो रुक्मिणी मन ही मन खुश हो गईं और बाहर से ही आवाज देते हुए बोलीं, ‘‘बहू, जरा बाहर तो आना.’’

कुछ देर बाद बहू शीला बाहर आ कर बोली, ‘‘क्या बात है अम्मांजी?’’

‘‘देखो, ये बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं…’’ रुक्मिणी समझाते हुए बोलीं, ‘‘इन को अपना हाथ दिखाओ.’’

‘‘अम्मांजी, हाथ दिखाने से क्या होगा?’’ बहू शीला ने सवाल उठाया.

‘‘अरे, तेरा हाथ देख कर बाबा बताएंगे कि तेरी कोख हरी होगी कि नहीं,’’ रुक्मिणी जरा नाराजगी से बोलीं, ‘‘तू पढ़ीलिखी हो कर बहस करती है. किसी बात पर यकीन नहीं करती है. अरे, इन बाबा ने कहा है कि इन्होंने तो बांझ औरतों को भी अपने मंत्रों से मां बना दिया है.’’

‘‘वह जमाना गया अम्मांजी, जब बाबा मंत्रों से सबकुछ कर लेते थे. अब इन से कुछ नहीं होना है,’’ अपना विरोध दर्ज करते हुए शीला बोली.

‘‘अरे, तू इन पहुंचे हुए बाबा को झूठा बता रही है,’’ रुक्मिणी गुस्से से बोलीं, ‘‘बैठ जा यहां आ कर और बाबा को अपना हाथ दिखा. बहस मत कर. बांझ कहीं की. अब तक तो 3-4 बच्चे की मां हो गई होती.’’

इस के बाद शीला ने कोई विरोध नहीं किया. वह चुपचाप बाबा के पास आ कर बैठ गई. बाबा ने पहले तो शीला को ऊपर से नीचे तक वासना की नजर से देखा, फिर मन ही मन सोचा, ‘अच्छा पंछी हाथ लगा है. अब पिंजरे में कैसे लाया जाए?’ फिर शीला का हाथ पकड़ कर वह बाबा उस के हाथ की रेखाएं बड़े ध्यान से देखता रहा. अपने ज्योतिष का गणित बैठाता रहा. मगर कुछ समझ नहीं पा रहा था. बाबा शीला का हाथ पकड़ कर कुछ बुदबुदा रहा था.

शीला की शादी 5 साल पहले हुई थी. सास रुक्मिणी कितनी खुश हुई थीं. वे बारबार कहतीं कि पोता चाहिए. शादी को अभी 6 महीने ही बीते थे कि शीला पेट से हो गई. यह देख मनीष खुश हुआ था, मगर शीला नहीं चाहती थी कि उस के इतनी जल्दी औलाद हो.

शीला मनीष से बोली थी, ‘मनीष, मैं नहीं चाहती कि इतनी जल्दी हमारी औलाद हो.’ ‘देखो शीला, मैं तो औलाद चाहता हूं, ताकि मां को खिलाने वाला कोई खिलौना मिल जाए,’ मनीष सलाह देते हुए बोला था.

‘ठीक है, सोनोग्राफी करा लेते हैं. अगर लड़का हुआ, तो ठीक. अगर लड़की निकली, तो पेट गिरवा देते हैं.’ शीला ने जब यह शर्त रखी, तो मनीष भी यह शर्त मान गया.

पेट में लड़की पाई गई. डाक्टर से सलाह ले कर बच्चा गिरा दिया गया. मगर इस के बाद डाक्टर ने यह कहा कि अब कभी शीला मां नहीं बन सकेगी. तब उन दोनों को पछतावा हुआ. अम्मांजी को अभी तक इस बात का पता नहीं चला था कि उस ने बच्चा गिरवा दिया था.

‘‘बताइए बाबा, मेरी बहू के औलाद होगी कि नहीं?’’ रुक्मिणी ने जब यह बात कही, तब जा कर शीला पुरानी यादों से लौटी.

बाबा बोला, ‘‘बहू के हाथ की रेखा तो यही बता रही है कि ये बहुत जल्द मां बन जाएंगी.’’

‘‘सच बाबा,’’ यह सुन कर रुक्मिणी के चेहरे पर खुशी लौट आई.

‘‘मगर अम्मांजी, इस के लिए हवन करना पड़ेगा,’’ बाबा ने चाल चली.

‘‘मैं हवन कराने को तैयार हूं बाबा. बताइए, कितना खर्चा आएगा?’’

‘‘वैसे, खर्चा तो खास नहीं आएगा अम्मांजी, मगर हवन श्मशान के मंदिर में रात 12 बजे के बाद होगा. मैं सिर्फ बहू को ले जाऊंगा.’’

‘‘यह सब मैं करने के लिए तैयार हूं बाबा, बस मुझे तो पोता चाहिए,’’ रुक्मिणी ने अपनी हामी दे दी.

इधर शीला ने एक नजर में बाबा की आंखों में आई वासना को पढ़ लिया था. उसे लगा कि यह बाबा झूठा है, ढोंगी है, अंधविश्वासी औरतों को बहलाफुसला कर उन की इज्जत से खेलता है, इसलिए हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘हाथ देखने में इतनी देर कर दी बाबा. तुम्हें ज्योतिष के बारे में जानकारी नहीं है, औरतों को फंसाने की जानकारी है.’’

‘‘अरे बहू, ऐसा क्यों कह रही है? बाबा को हाथ की रेखाएं अच्छी तरह से देखने दे,’’ रुक्मिणी बोलीं.

‘‘अम्मां, ये सब ज्योतिषी झूठे और ढोंगी हैं.’’

‘‘अरे बहू, ऐसी बातें मत बोल.’’

‘‘अम्मां, मैं सही कह रही हूं,’’ शीला ने कनखियों से जब बाबा की ओर देखा, तब उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

शीला बाबा से गुस्से में बोली, ‘‘जाओ बाबा, जाओ. अपनी इज्जत चाहते हो तो…’’

‘ऐ बहू, बाबा की बेइज्जती कर के क्यों भगा रही है?’’ डांटते हुए रुक्मिणी बोलीं, ‘‘बाबा, मैं बहू की तरफ से माफी मांगती हूं. यह ज्यादा पढ़ीलिखी है न, इसलिए इसे यह सब ढोंग लगता है.’’

‘‘ढोंग मैं नहीं कर रही हूं, ढोंगी तो यह बाबा है,’’ ?समझाते हुए शीला बोली, ‘‘श्मशान के मंदिर में रात के 12 बजे के बाद यज्ञ करेगा… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुम जैसे ढोंगी अम्मां जैसी न जाने कितनी औरतों को फुसला कर जवान औरतों के बदन से खेलते हैं.’’

‘‘एक बाबा की बेइज्जती कर के तुम ने अच्छा नहीं किया है,’’ उठते हुए बाबा बोला, ‘‘मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू अब कभी मां नहीं बन सकेगी.’’ ऐसा कह कर बाबा तेजतेज कदमों से चलता बना. रुक्मिणी नाराज होते हुए बोलीं, ‘‘यह तू ने क्या कर दिया बहू? बाबा जातेजाते तुम को श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’’

‘‘अम्मां, मैं ने जो किया सही किया है. मेरा बस चले, तो मैं इसे पुलिस के हवाले कर देती.’’ ‘‘ऐ बहू, ज्यादा बातें मत कर. एक तो मुश्किल से यह बाबा मिला था. ऊपर से हमारी गली में आता कौन है?

‘‘अरे, बाबा तुम्हें ऐसा श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी. मैं तो अब बच्चे की किलकारी सुनने के लिए तरस जाऊंगी…’’

‘‘अम्मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मैं मां नहीं बन सकती हूं,’’ कह कर शीला ने अपने मन का दर्द उगल दिया. उस ने सोचा कि यही सही समय है कि सच बता दिया जाए, नहीं तो अंधविश्वासी अम्मां को उम्रभर यह भरम रहेगा कि बाबा के श्राप के असर की वजह से वह मां नहीं  बन सकी है. शीला बोली, ‘‘अम्मां, मनीष और मैं ने आज तक एक बात तुम से छिपा कर रखी है.’’

‘‘कौन सी बात बहू?’’ हैरानी से रुक्मिणी बोलीं.‘‘शादी के 6 महीने बाद मैं पेट से हो गई थी. मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी मां बनूं, इसलिए मनीष से कहा कि बच्चा गिरा दो. मगर उस के साथ ही डाक्टर ने यह कह दिया कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’ रुक्मिणी कुछ नहीं बोलीं. यह सुन कर वे जड़ हो गईं.

प्यार : होटल की वह रहस्यमयी लड़की

‘‘अरे संजय… चल यार, आज मजा करेंगे,’’ बार से बाहर निकलते समय उमेश संजय से बोला. दिनेश भी उन के साथ था.

संजय ने कहा, ‘‘मैं ने पहले ही बहुत ज्यादा शराब पी ली है और अब मैं इस हालत में नहीं हूं कि कहीं जा सकूं.’’

उमेश और दिनेश ने संजय की बात नहीं सुनी और उसे पकड़ कर जबरदस्ती कार में बिठाया और एक होटल में जा पहुंचे.

वहां पहुंच कर उमेश और दिनेश ने एक कमरा ले लिया. उन दोनों ने पहले ही फोन पर इंतजाम कर लिया था, तो होटल का एक मुलाजिम उन के कमरे में एक लड़की को लाया.

उमेश ने उस मुलाजिम को पैसे दिए. वह लड़की को वहीं छोड़ कर चला गया.

वह एक साधारण लड़की थी. लगता था कि वह पहली बार इस तरह का काम कर रही थी, क्योंकि उस के चेहरे पर घबराहट के भाव थे. उस के कपड़े भी साधारण थे और कई जगह से फटे हुए थे.

संजय उस लड़की के चेहरे को एकटक देख रहा था. उसे उस में मासूमियत और घबराहट के मिलेजुले भाव नजर आ रहे थे, जबकि उमेश और दिनेश उस को केवल हवस की नजर से देखे जा रहे थे.

तभी उमेश लड़खड़ाता हुआ उठा और उस ने दिनेश व संजय को बाहर जाने के लिए कहा. वे दोनों बाहर आ गए.

अब कमरे में केवल वह लड़की और उमेश थे. उमेश ने अंदर से कमरा बंद कर लिया. संजय को यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन उमेश और दिनेश ने इतनी ज्यादा शराब पी ली थी कि उन्हें होश ही न था कि वे क्या कर रहे हैं.

काफी देर हो गई, तो संजय ने दिनेश को कमरे में जा कर देखने को कहा.

दिनेश शराब के नशे में चूर था. लड़खड़ाता हुआ कमरे के दरवाजे पर पहुंच कर उसे खटखटाने लगा. काफी देर बाद लड़की ने दरवाजा खोला.

उस लड़की ने दिनेश से कहा कि उस का दोस्त सो गया है, उसे उठा लो. नशे की हालत में चूर दिनेश उस लड़की की बात सुनने के बजाय पकड़ कर उसे अंदर ले गया और दरवाजा बंद कर लिया.

संजय दूर बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था. दिनेश को भी कमरे में गए काफी देर हो गई, तो संजय ने दरवाजा खड़काया.

इस बार भी उसी लड़की ने दरवाजा खोला. वह अब परेशान दिख रही थी. उस ने संजय की तरफ देखा और कहा, ‘‘ बाबू, ये लोग कुछ कर भी नहीं कर रहे और मेरा पैसा भी नहीं दे रहे हैं.

मुझे पैसे की जरूरत है और जल्दी घर भी जाना है,’’ कहते हुए उस लड़की का गला बैठ सा गया.

संजय ने लड़की को अंदर चलने को कहा और थोड़ी देर में उसे उसी होटल के दूसरे कमरे में ले गया. उस ने जाते हुए देखा कि उमेश और दिनेश शराब में चूर बिस्तर पर पड़े थे.

संजय ने दूसरे कमरे में उस लड़की को बैठने को कहा. लड़की घबराते हुए बैठ गई. वह थोड़ा जल्दी में लग रही थी. संजय ने उसे पास रखा पानी पीने को दिया, जिसे वह एक सांस में ही पी गई.

पानी पीने के बाद वह लड़की खड़ी हुई और संजय से बोली, ‘‘बाबू, अब जो करना है जल्दी करो, मुझे पैसे ले कर जल्दी घर पहुंचना है.’’

संजय को उस की मासूम बातों पर हंसी आ रही थी. उस ने उसे पैसे दे दिए तो उस ने पैसे रख लिए और संजय को पकड़ कर बिस्तर पर ले गई और अपने कपड़े उतारने लगी.

संजय ने उस का हाथ पकड़ा और कपड़े खोलने को मना किया. लड़की बोली, ‘‘नहीं बाबू, कस्तूरी ऐसी लड़की नहीं है, जो बिना काम के किसी से भी पैसे ले ले. मैं गरीब जरूर हूं, लेकिन भीख नहीं लूंगी.’’

संजय अब बोल नहीं पा रहा था. तभी कस्तूरी ने संजय का हाथ पकड़ा और उसे बिस्तर पर ले गई, यह सब इतना जल्दी में हुआ कि संजय कुछ कर नहीं पाया.

कस्तूरी ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे और संजय के भी कपड़े उतारने लगी. अब कस्तूरी संजय के इतने नजदीक थी कि उस के मासूम चेहरे को वह बड़े प्यार से देख रहा था. वह कस्तूरी की किसी बात का विरोध नहीं कर पा रहा था. उस के मासूम हावभाव व चेहरे से संजय की नजर हटती, तब तक कस्तूरी वह सब कर चुकी थी, जो पतिपत्नी करते हैं.

कस्तूरी ने जल्दी से कपड़े पहने और होटल के कमरे से बाहर निकल गई. संजय अभी भी कस्तूरी के खयालों में खोया हुआ था.

समय बीतता गया, लेकिन संजय के दिमाग से कस्तूरी निकल नहीं पा रही थी.

एक दिन संजय बाजार में सामान खरीद रहा था. उस ने देखा कि कस्तूरी भी उस के पास की ही एक दुकान से सामान खरीद रही थी.

संजय उस को देख कर खुश हुआ. उस ने कस्तूरी को आवाज दी तो कस्तूरी ने मुड़ कर देखा और फिर दुकानदार से सामान लेने में जुट गई.

संजय उस के पास पहुंचा. कस्तूरी ने संजय की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. कस्तूरी ने सामान खरीदा और दुकान से बाहर निकल गई.

संजय उसे पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन उस ने अनसुना कर दिया.

कुछ दिन बाद संजय को कस्तूरी फिर दिखाई दी. उस दिन संजय ने कस्तूरी का हाथ पकड़ा और उसे भीड़ से दूर खींच कर ले गया और उस से उस की पिछली बार की हरकत के बारे में पूछना चाहा, तो संजय के पैरों की जमीन खिसक गई. उस ने देखा, कस्तूरी का चेहरा पीला पड़ चुका था और वह बहुत कमजोर हो गई थी. उस ने अपनी फटी चुनरी से अपना पेट छिपा रखा था, जो कुछ बाहर दिख रहा था.

कस्तूरी वहां से जाने के लिए संजय से जोरआजमाइश कर रही थी. संजय ने किसी तरह उसे शांत किया और भीड़ से दूर एक चाय की दुकान पर बिठाया.

संजय ने गौर से कस्तूरी के चेहरे की तरफ देखा, तो उस का दिल बैठ गया. कस्तूरी सचमुच बहुत कमजोर थी. संजय ने कस्तूरी से उस की इस हालत के बारे में पूछा, तो पहले तो कुछ नहीं बोली, लेकिन संजय ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह रोने लगी.

संजय कुछ समझ नहीं पा रहा था. कस्तूरी ने अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘बाबू, मेरी यह हालत उसी दिन से है, जिस दिन आप और आप के दोस्त मुझे होटल में मिले थे.’’

संजय ने उस की तरफ सवालिया नजरों से देखा, तो वह फिर बोली, ‘‘बाबू, मैं कोई धंधेवाली नहीं हूं. मैं उस गंदे नाले के पास वाली कच्ची झोंपड़पट्टी में रहती हूं. उस दिन पुलिस मेरे भाई को पकड़ कर ले गई थी, क्योंकि वह गली में चरसगांजा बेच रहा था. उसे जमानत पर छुड़ाना था और मेरे मांबाप के पास पैसा नहीं था. अब मुझे ही कुछ करना था.

‘‘मैं ने अपने पड़ोस में सब से पैसा मांगा, लेकिन किसी ने नहीं दिया. थकहार कर मैं बैठ गई तो मेरी एक मौसी बोली कि इस बेरहम जमाने में कोई मुफ्त में पैसा नहीं देता.

‘‘मौसी की यह बात मेरी समझ में आई और मैं आप और आप के दोस्तों तक पहुंच गई.’’

कस्तूरी चुप हुई, तो संजय ने अपने चेहरे के दर्द को छिपाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’’

कस्तूरी ने कहा, ‘‘बाबू, यह जान कर आप क्या करोगे? यह तो मेरी किस्मत है.’’

संजय ने फिर जोर दिया, तो कस्तूरी बोली, ‘‘बाबू, उस दिन आप के दिए गए पैसे से मैं अपने भाई को हवालात से छुड़ा लाई, तो भाई ने पूछा कि पैसे कहां से आए. मैं ने झूठ बोल दिया कि किसी से उधार लिए हैं.’’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली, ‘‘बाबू, सब ने पैसा देखा, लेकिन मैं ने जो जिस्म बेच कर एक जान को अपने शरीर में आने दिया, तो उसे सब नाजायज कहने लगे और जिस भाई को मैं ने बचाया था, वह मुझे धंधेवाली कहने लगा और मुझे मारने लगा. वह मुझे रोज ही मारता है.’’

यह सुन कर संजय के कलेजे का खून सूख गया. इस सब के लिए वह खुद को भी कुसूरवार मानने लगा. उस की आंखों में भी आंसू छलक आए थे.

कस्तूरी ने यह देखा तो वह बोली, ‘‘बाबू, इस में आप का कोई कुसूर नहीं है. अगर मैं उस रात आप को जिस्म नहीं बेचती तो किसी और को बेचती. लेकिन बाबू, उस दिन के बाद से मैं ने अपना जिस्म किसी को नहीं बेचा,’’ यह कहते हुए वह चुप हुई और कुछ सोच कर बोली, ‘‘बाबू, उस रात आप के अच्छे बरताव को देख कर मैं ने फैसला किया था कि मैं आप की इस प्यार की निशानी को दुनिया में लाऊंगी और उसी के सहारे जिंदगी गुजार दूंगी, क्योंकि हम जैसी गरीब लड़कियों को कहां कोई प्यार करने वाला जीवनसाथी मिलता है.’’

इतना कह कर कस्तूरी का गला भर आया. वह आगे बोली, ‘‘बाबू, यह आप की निशानी है और मैं इसे दुनिया में लाऊंगी, चाहे इस के लिए मुझे मरना ही क्यों न पड़े,’’ इतना कह कर वह तेजी से उठी और अपने घर की तरफ चल दी.

यह सुन कर संजय जैसे जम गया था. वह कह कर भी कुछ नहीं कह पाया. उस ने फैसला किया कि कल वह कस्तूरी के घर जा कर उस से शादी की बात करेगा.

वह रात संजय को लंबी लग रही थी. सुबह संजय जल्दी उठा और बदहवास सा कस्तूरी के घर की तरफ चल दिया. वह उस के महल्ले के पास पहुंचा तो एक जगह बहुत भीड़ जमा थी. वह किसी अनहोनी के डर को दिल में लिए भीड़ को चीर कर पहुंचा, तो उस ने जो देखा तो जैसे उस का दिल बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो.

कस्तूरी जमीन पर पड़ी थी. उस की आंखें खुली थीं और चेहरे पर वही मासूम मुसकराहट थी.

संजय ने जल्दी से पूछा कि क्या हुआ है तो किसी ने बताया कि कस्तूरी के भाई ने उसे चाकू से मार दिया है, क्योंकि सब कस्तूरी के पेट में पल रहे बच्चे की वजह से उसे बेइज्जत करते थे.

संजय पीछे हटने लगा, अब उसे लगने लगा था कि वह गिर जाएगा. तभी पुलिस का सायरन बजने लगा तो भीड़ छंटने लगी.

संजय पीछे हटते हुए कस्तूरी को देख रहा था. उस का एक हाथ अपने पेट पर था और शायद वह अपने प्यार को मरते हुए भी बचाना चाहती थी. उस के चेहरे पर मुसकराहट ऐसी थी, जैसे उन खुली आंखों से संजय को कहना चाहती हो, ‘बाबू, यह तुम्हारे प्यार की निशानी है, पर इस में तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है.’

संजय पीछे मुड़ा और अपने घर पहुंच कर रोने लगा. वह अपनेआप को माफ नहीं कर पा रहा था, क्योंकि अगर वह कल ही उस से शादी की बात कर लेता तो शायद कस्तूरी जिंदा होती.

बारिश होने लगी थी. बादल जोर से गरज रहे थे. वे भी कस्तूरी के प्यार के लिए रो रहे थे.

विश्वास: क्या बीमार नीता को मिला उस का हमदम

उस रात नीता बहुत खुश थी. जब वह घर लौटी तो पुरानी यादों में ऐसी खोई कि उस की आंखों की नींद न जाने कहां गायब हो गई. उसे समीर ही समीर दिखाई दे रहा था. जब वह पहली बार समीर से मिली थी, तब उसे देखते ही उस का दिल धड़क उठा था.

समीर एम. टैक. फाइनल ईयर का छात्र था और नीता फाइन आर्ट्स की. दोनों एक अनजाने आकर्षण से एकदूसरे की ओर खिंचे चले जा रहे थे. दोनों रोज मिलते. प्रेम के सागर में डूबे दोनों को एकदूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगा था. समीर नीता के सौंदर्य और उस के मधुर स्वभाव पर मुग्ध था और नीता… नीता तो समीर की दीवानी थी. जब कभी अपने सपनों के शहजादे की कल्पना करती तो उस की आंखों में समीर का ही चेहरा आता.

नीता समीर से रोज मिलती थी. एक दिन नीता समीर के प्यार में सराबोर हो ऐसी बही की सारी सीमाएं ही भूल गई. मगर समझदार थे दोनों, इसलिए पूरी सावधानी बरती थी.

नीता की प्रेम के रंग में रंगी पतंग आसमान में ऊंची उड़ती जा रही थी. तभी एक दिन वह पतंग अचानक धम से नीचे आ गिरी. दरअसल, हुआ यह कि नीता को नहाते समय शीशे में अपनी पीठ पर एक सफेद दाग दिखा. वह उस दाग को देखते ही विचलित हो उठी कि यदि यह बीमारी फैल गई तो कैसे जीवित रहेगी वह? समीर का खयाल आते ही उस के मधुर सपने कांच की तरह टूट कर बिखर गए. उस ने रोतेरोते मां से कहा, ‘‘देखो न मां, मेरी पीठ पर यह कैसा दाग दिखाई दे रहा है.’’

नीता की मां शांति ने जैसे ही दाग देखा तो वे भी परेशान हो गईं.

फिर एक दिन शांति ने अपनी सहेली से कंकड़ बाबा का पता ले कर नीता से कहा, ‘‘चल नीता बेटी, तैयार हो जा. मैं तुझे कंकड़ बाबा के पास ले चलती हूं… कुछ दिन पहले मेरी सहेली सुजाता की भानजी को भी ऐसे ही दाग हो गए थे. सुजाता उसे 2-4 बार कंकड़ बाबा के पास ले कर गई और उस के दाग गायब हो गए.’’

नीता को मां से ऐसी बात की कतई आशा नहीं थी. अत: झुंझलाते हुए बोली, ‘‘मां, आप पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? ये बाबा लोग धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बना कर उन्हें ठगते हैं.’’

यह सुन कर मां गुस्सा हो कर कहने लगीं, ‘‘बस यही तो इस नई जैनरेशन की परेशानी है… बच्चे अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं. अरे भई, मंत्र में भी बड़ी शक्ति होती है. चल, जल्दी से तैयार हो जा.’’

नीता को न चाहते हुए भी उस कंकड़ बाबा के पास जाना पड़ा. कंकड़ बाबा के पास बहुत सारे लोग इलाज के लिए आए थे. कुछ ही देर में काले वस्त्र पहने वहां ‘जय मां काली, जय मां काली’ कहते हुए कंकड़ बाबा पहुंच गया. भक्तों ने भी ‘जय मां काली’ के जयकारे लगाने शुरू कर दिए. फिर बाबा ने बड़े ही विचित्र ढंग से लोगों का उपचार करना शुरू किया.

एक औरत के पेट में पथरी थी. बाबा ने कोई मंत्र फूंका और फिर उस के पेट में से पत्थर को चूस कर बाहर निकालने का दावा किया. नीता ये सब देख कर डर गई. जब उस का नंबर आया तब बाबा ने नीता का कुरता उठाया और कमर पर मोरपंख की झाड़ू घुमाते हुए मंत्र फूंका. फिर नीता को अजीब नजरों से घूरते हुए बोला, ‘‘यह दाग किसी ऊपरी शक्ति का प्रकोप है. इस के लिए तो बड़े उपाय करने होंगे.’’

‘‘बताइए न बाबा,’’ शांति ने बड़ी श्रद्धा से कहा.

‘‘बाबा ने नीता को एक लाल कपड़े की पोटली देते हुए कहा, ‘‘लड़की,

इस लाल कपड़े की पोटली को रोज अपने तकिए के नीचे रख कर सोना. और हां, एक काले कुत्ते को हर शनिवार को इमरती खिलाना.’’

शांति ने स्वीकृति में सिर हिलाया. फिर बाबा कोई पेयपदार्थ देते हुए बोला, ‘‘ले, यह दिव्य पेय अभी पी ले और अंदर कुटिया में एक शिला है, उस पर जा कर लेट जा. कोई लेप लगाना होगा.’’

नीता की मां शांति भी उस के साथ कुटिया में जाने के लिए उठने लगीं तो बाबा ने कहा, ‘‘अरेअरे रुक… वहां इसे अकेले ही जाना होगा.’’

नीता वहां का माहौल देख कर बुरी तरह डर गई थी. वह उठी और भागने लगी. पीछेपीछे उस की मां शांति भी भागीं.

बाबा के चेले चिल्लाते रह गए, ‘‘रुको… रुको…’’

नीता ने किसी की नहीं सुनी. वह चिल्लाते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं दिखाना किसी बाबा को. इन पाखंडी, ठग बाबाओं के नित नए कारनामे सुन कर भी क्या मां आप को डर नहीं लगता? चलो, घर चलो.’’

जब नीता के पापा दिनेशजी ने ये सब सुना तो वे शांति पर बहुत गुस्सा हुए. बोले, ‘‘शांति, तुम किस पचड़े में पड़ी हो? ये बाबा, ओझा आदि तंत्रमंत्र और दैवीय शक्ति के नाम पर सीधेसादे लोगों को मूर्ख बनाते हैं. न जाने अकेले में वह बदमाश क्याक्या करता. ये पाखंडी लोगों की अंधश्रद्धा का फायदा उठाते

हैं… नीता बेटा, मैं कल तुझे डाक्टर के पास ले चलूंगा.’’

नीता के पिता उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने चैकअप कर कहा, ‘‘यह ल्यूकोडर्मा जैसी बीमारी की शुरुआत है. समय पर इलाज करा लेने से ठीक हो जाती है वरना इस के परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं.’’

नीता पूरे मनोयोग से इलाज करा रही थी. मगर उसे यह चिंता भी

सता रही थी कि यदि सफेद दाग के बारे में जान कर समीर ने शादी से इनकार कर दिया तो? इस कल्पना मात्र से उस का दिल क्यों दुखाऊं? मगर शादी के बाद जब उसे दाग दिखाई देगा, तब उस का क्या हाल होगा? वह क्या सोचेगा?

ऐसे ही खयालों में डूबी नीता रोज परेशान रहती थी. उस का दिल और दिमाग दोनों ही अलगअलग दिशाओं में जा रहे थे. वह समीर को खोने के डर से सच छिपाने की कोशिश करती रहती थी.

नीता का मन उसे ऐसा करने से धिक्कारता. मन की आवाज की अवहेलना करतेकरते वह परेशान हो उठी थी. नीता यह समझ गई थी कि सफेद दाग की बात छिपाना समीर को बहुत बड़ा धोखा देना होगा. वह यह भलीभांति जानती थी कि विवाह जैसे पावन, मधुर रिश्ते की नींव विश्वास और प्रेम पर ही टिकी होती है. यदि प्रेम और विश्वास न हो तो सफल विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अत: उस ने मन ही मन यह निर्णय कर लिया कि जो भी होगा वह सह लेगी, पर समीर से सच नहीं छिपाएगी.

इसी बीच एक दिन समीर का फोन आया. बोला, ‘‘शहर में एक नया रेस्तरां खुला है… कल चलोगी न?’’

समीर ने इतने आग्रहपूर्वक कहा कि नीता तुरंत मान गई.

अगले दिन यूनिवर्सिटी जाने के बजाय वह समीर के साथ नए रेस्तरां पहुंच गई.

रेस्तरां का वह कोना रंगबिरंगी रोशनी से खूब चमक रहा था. वातावरण में अनोखी चमक थी.

समीर घुटनों के बल बैठ कर धरती, आकाश, जल, पवन और अग्नि को साक्षी मान कर नीता को प्रोपोज करने ही वाला था कि तभी नीता बोल पड़ी, ‘‘समीर, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उस ने अपने दिल को कड़ा कर लिया था. वह समीर के हर उत्तर के लिए तैयार थी. फिर उस ने समीर को अपने सफेद दाग के बारे में बता दिया.

सुन कर समीर ने नीता का हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से कहा, ‘‘मैं हर स्थिति में तुम्हारे साथ हूं. तुम मेरी धड़कन हो… करोगी न मुझ से शादी?’’ नीता की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. उस के मन में उमड़ा तूफान पूरी तरह शांत हो चुका था. सारी शंकाएं दूर हो चुकी थीं. उसे पवित्र प्रेम का उपहार मिल चुका था.

नीता जीवन की इन्हीं खट्टीमीठी यादों को याद करते हुए न जाने कब नींद के आगोश में चली गई.

सुबह उस की मां ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘उठो बेटा, यूनिवर्सिटी जाने का समय हो गया है.’’

नीता के चेहरे पर अद्भुत तेज और सुकून दिखाई दे रहा था. वह मां से बोली, ‘‘मां, बैठो न मेरे पास,’’ नीता मां की गोद में सिर रख कर लेट गई फिर प्यार से बोली, ‘‘मां, मैं आप को कुछ बताना चाहती हूं.’’

मां ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘बोल बेटी, क्या कहना चाहती है?’’

‘‘मां, आप समीर से तो मिल चुकी हैं. मैं उस से बहुत प्यार करती हूं. हम दोनों शादी करना चाहते हैं.’’

‘‘यह तो ठीक है बेटी, पर क्या वह तेरी बीमारी के बारे में जानता है?’’ मां ने पूछा.

‘‘हां मां, मैं ने उसे सब बता दिया है.’’

नीता के मातापिता उस का रिश्ता ले कर समीर के घर गए. सब की रजामंदी से समीर और नीता का रिश्ता तय हो गया. अब तक जो प्रेम छिपछिप कर चल रहा था, अब जग उजागर हो चुका था. कुछ ही दिनों में बड़ी धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया.

अपने कमरे में नईनवेली दुलहन नीता रिश्तेदारों से घिरे समीर का इंतजार कर रही थी. थोड़ी देर में नीता की प्रतीक्षा की घडि़यां समाप्त हुईं. समीर को देखते ही वह खुशी से झूम उठी. पतिपत्नी अपनी न्यारी, प्यारी दुनिया में खोए रहे. बहुत देर हंसतेबतियाते रहे.

नीता ने कहा, ‘‘समीर, तुम ने मुझे मेरे दाग के साथ अपना कर मेरा जीवन सफल कर दिया.’’

समीर ने नीता का चुंबन लेते हुए कहा, ‘‘तुम्हें याद है वह दिन, जब तुम उस मदमाती बेल की तरह मुझ से लिपट गई थी और सारी सीमाओं को भूल गई थी?’’

समीर की बात सुनते ही नीता शर्म से लाल हो गई.

समीर बोला, ‘‘सच बताऊं तो मैं ने तुम्हारा दाग उसी दिन देख लिया था. मैं तो तुम्हारीझ्र भोली सूरत, समझदारी और मधुर स्वभाव पर हमेशा से मुग्ध था. नीता, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, पर मेरे मन के किसी कोने में यह इच्छा दबी थी कि तुम अपने जीवन का सत्य मुझे स्वयं बताओ. नीता उस रेस्तरां की रंगबिरंगी रोशनी में तुम ने सच बोल कर मेरे विश्वास को हमेशा के लिए जीत लिया. नीता तुम मेरी जिंदगी हो… मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं.’’

जैसा भी था, था तो : दास्तान सुनंदा की

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

बदलाव : क्या उर्मिला को मिला उस का पति?

गांव से चलते समय उर्मिला को पूरा यकीन था कि कोलकाता जा कर वह अपने पति को ढूंढ़ लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कोलकाता में 3 दिन तक भटकने के बाद भी पति राधेश्याम का पता नहीं चला, तो उर्मिला परेशान हो गई.

हावड़ा रेलवे स्टेशन के नजदीक गंगा के किनारे बैठ कर उर्मिला यह सोच रही थी कि अब उसे क्या करना चाहिए. पास ही उस का 10 साला भाई रतन बैठा हुआ था.

राधेश्याम का पता लगाए बिना उर्मिला किसी भी हाल में गांव नहीं लौटना चाहती थी. उसे वह अपने साथ गांव ले जाना चाहती थी.

उर्मिला सहमीसहमी सी इधरउधर देख रही थी. वहां सैकड़ों की तादाद में लोग गंगा में स्नान कर रहे थे. उर्मिला चमचमाती साड़ी पहने हुई थी. पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें थीं.

उर्मिला का पहनावा गंवारों जैसा जरूर था, लेकिन उस का तनमन और रूप सुंदर था. उस के गोरे तन पर जवानी की सुर्खी और आंखों में लाज की लाली थी.

हां, उर्मिला की सखीसहेलियों ने उसे यह जरूर बताया था कि वह निहायत खूबसूरत है. उस के अलावा गांव के हमउम्र लड़कों की प्यासी नजरों ने भी उसे एहसास कराया था कि उस की जवानी में बहुत खिंचाव है.

सब से भरोसमंद पुष्टि तो सुहागसेज पर हुई थी, जब उस के पति राधेश्याम ने घूंघट उठाते ही कहा था, ‘तुम इतनी सुंदर हो, जैसे मेरी हथेलियों में चौदहवीं का चांद आ गया हो.’ उर्मिला बोली कुछ नहीं थी, सिर्फ शरमा कर रह गई थी.

उर्मिला बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव की रहने वाली थी. उस ने 19वां साल पार किया ही था कि उस की शादी राधेश्याम से हो गई.

राधेश्याम भी गांव का रहने वाला था. उर्मिला के गांव से 10 किलोमीटर दूर उस का गांव था. उस के पिता गांव में मेहनतमजदूरी कर के परिवार का पालनपोषण करते थे.

उर्मिला 7वीं जमात तक पढ़ी थी, जबकि राधेश्याम मैट्रिक फेल था. वह शादी के 2 साल पहले से कोलकाता में एक प्राइवेट कंपनी में चपरासी था.

शादी के लिए राधेश्याम ने 10 दिनों की छुट्टी ली थी, लेकिन उर्मिला के हुस्नोशबाब के मोहपाश में ऐसा बंधा कि 30 दिन तक कोलकाता नहीं गया.

जब घर से राधेश्याम विदा हुआ, तो उर्मिला को भरोसा दिलाया था, ‘जल्दी आऊंगा. अब तुम्हारे बिना काम में मेरा मन नहीं लगेगा.’

उर्मिला ?ाट से बोली थी, ‘ऐसी बात है, तो मु?ो भी अपने साथ ले चलिए. आप का दिल बहला दिया करूंगी. नहीं तो वहां आप तड़पेंगे, यहां मैं बेचैन रहूंगी.’

उर्मिला ने राधेश्याम के मन की बात कही थी. लेकिन उस की मजबूरी यह थी कि 4 दोस्तों के साथ वह उर्मिला को रख नहीं सकता था.

सच से सामना कराने के लिए राधेश्याम ने उर्मिला से कहा, ‘तुम 5-6 महीने रुक जाओ. कोई अच्छा सा कमरा ले लूंगा, तो आ कर तुम्हें ले चलूंगा.’

राधेश्याम अंगड़ाइयां लेती उर्मिला की जवानी को सिसकने के लिए छोड़ कर कोलकाता चला गया.

फिर शुरू हो गई उर्मिला की परेशानियां. पति का बिछोह उस के लिए बड़ा दुखदाई था. दिन काटे नहीं कटता था, रात बिताए नहीं बीतती थी.

तिलतिल कर सुलगती जवानी से उर्मिला पर उदासीनता छा गई थी. वह चंद दिन ससुराल में, तो चंद दिन मायके में गुजारती.

साजन बिन सुहागन उर्मिला का मन न ससुराल में लगता, न मायके में. मगर ऐसी हालत में भी उस ने अपने कदमों को कभी बहकने नहीं दिया था.

पति की अमानत को हर हालत में संभालना उर्मिला बखूबी जानती थी, इसलिए ससुराल और मायके के मनचलों की बुरी कोशिशों को वह कभी कामयाब नहीं होने देती थी. ससुराल में सासससुर के अलावा 2 छोटी ननदें थीं. मायके में मातापिता के अलावा छोटा भाई रतन था.

उर्मिला ने जैसेतैसे बिछोह में एक साल काट दिया. मगर उस के बाद वह पति से मिलने के लिए उतावली हो गई. हुआ यह कि कोलकाता जाने के 6 महीने तक राधेश्याम ने उसे बराबर फोन किया. मगर उस के बाद उस ने फोन करना बंद कर दिया. उस ने रुपए भेजना भी बंद कर दिया.

राधेश्याम को फोन करने पर उस का फोन स्वीच औफ आता था. शायद उस ने फोन नंबर बदल दिया था.

किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राधेश्याम ने एकदम से परिवार से संबंध क्यों तोड़ दिया?

गांव के लोगों को यह शक था कि राधेश्याम को शायद मनपसंद बीवी नहीं मिली, इसलिए उस ने घर वालों व बीवी से संबंध तोड़ लिया है.

लेकिन उर्मिला यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थी. वह तो अपने साजन की नजरों में चौदहवीं का चांद थी.

राधेश्याम जिस कंपनी में नौकरी करता था, उस का पता उर्मिला के पास था. राधेश्याम के बाबत कंपनी वालों को रजिस्टर्ड चिट्ठी भेजी गई.

15 दिन बाद कंपनी का जवाब आ गया. चिट्ठी में लिखा था कि राधेश्याम 6 महीने पहले नौकरी छोड़ चुका था.

सभी परेशान हो गए. कोलकाता जा कर राधेश्याम का पता लगाने के सिवा अब और कोई रास्ता नहीं था. उर्मिला का पिता अपंग था. कहीं आनेजाने में उसे काफी परेशानी होती थी. वह कोलकाता नहीं जा सकता था.

उर्मिला का ससुर हमेशा बीमार रहता था. जबतब खांसी का दौरा आ जाता था, इसलिए वह भी कोलकाता नहीं जा सकता था.

हिम्मत कर के एक दिन उर्मिला ने सास के सामने प्रस्ताव रखा, ‘अगर आप कहें, तो मैं अपने भाई रतन के साथ कोलकाता जा कर उन का पता लगाऊं?’ परिवार के लोगों ने टिकट खरीद कर रतन के साथ उर्मिला को हावड़ा जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया.

राधेश्याम जिस कंपनी में काम करता था, सब से पहले उर्मिला वहां गई. वहां के स्टाफ व कंपनी के मैनेजर ने उसे साफ कह दिया कि 6 महीने से राधेश्याम का कोई अतापता नहीं है.

उस के बाद उर्मिला वहां गई, जहां राधेश्याम अपने 4 दोस्तों के साथ एक ही कमरे में रहता था. उस समय 3 ही दोस्त थे. एक गांव गया हुआ था.

तीनों दोस्तों ने उर्मिला का भरपूर स्वागत किया. उन्होंने उसे बताया कि 6 महीने पहले राधेश्याम यह कह कर चला गया था कि उसे एक अच्छी नौकरी और रहने की जगह मिल गई है. मगर सचाई कुछ और थी.

‘कैसी सचाई?’ पूछते हुए उर्मिला का दिल धड़कने लगा.

‘दरअसल, उसे किसी अमीर औरत से प्यार हो गया था. वह उसी के साथ रहने चला गया था,’ 3 दोस्तों में से एक दोस्त ने बताया.

उर्मिला को लगा, जैसे उस के दिल की धड़कन बंद हो जाएगी और वह मर जाएगी. उस के हाथपैर सुन्न हो गए थे, मगर जल्दी ही उस ने अपनेआप को काबू में कर लिया.

उर्मिला ने पूछा, ‘वह औरत कहां रहती है?’

तीनों में से एक ने कहा, ‘यह हम तीनों में से किसी को पता नहीं है. सिर्फ गणपत को पता है. उस औरत के बारे में हम लोगों ने उस से बहुत पूछा था, मगर उस ने बताया नहीं था.

‘उस का कहना था कि उस ने राधेश्याम से वादा किया है कि उस की प्रेमिका के बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा.’

‘गणपत कौन…’ उर्मिला ने पूछा.

‘वह हम लोगों के साथ ही रहता है. अभी वह गांव गया हुआ है. वह एक महीने बाद आएगा. आप पूछ कर देखिएगा. शायद, वह आप को बता दे.’

‘मगर, तब तक मैं रहूंगी कहां?’

‘चाहें तो आप इसी कमरे में रह सकती हैं. रात में हम लोग इधरउधर सो लेंगे.’ मगर उर्मिला उन लोगों के साथ रहने को तैयार नहीं हुई. उसे पति की बात याद आ गई थी.

गांव से विदा लेते समय राधेश्याम ने उस से कहा था, ‘मैं तुम्हें ले जा कर अपने साथ रख सकता था, मगर दोस्तों पर भरोसा करना ठीक नहीं है.

‘वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. मगर कब उन की नीयत बदल जाए और तुम्हारी इज्जत पर दाग लगा दें, इस की कोई गारंटी नहीं है.’ उर्मिला अपने भाई रतन के साथ बड़ा बाजार की एक धर्मशाला में चली गई.

धर्मशाला में उसे सिर्फ 3 दिन रहने दिया गया. चौथे दिन वहां से उसे जाने के लिए कह दिया गया, तो मजबूर हो कर उसे धर्मशाला छोड़नी पड़ी.

अब उर्मिला अपने भाई रतन के साथ गंगा किनारे बैठी थी कि अचानक उस के पास एक 40 साला शख्स आया.

पहले उस ने उर्मिला को ध्यान से देखा, उस के बाद कहा, ‘‘लगता है कि तुम यहां पर नई हो. कहीं और से आई हो. काफी चिंता में भी हो. कोई परेशानी हो, तो बताओ. मैं मदद करूंगा…’’

वह शख्स उर्मिला को हमदर्द लगा. उस ने बता दिया कि वह कहां से और क्यों आई है.

वह शख्स उस के पास बैठ गया. अपनापन जताते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम अवधेश सिंह है. मेरा घर पास ही में है. जब तक तुम्हारा पति मिल नहीं जाता, तब तक तुम मेरे घर में रह सकती हो. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

‘‘मेरी जानपहचान बहुतों से है. तुम्हारे पति को मैं बहुत जल्दी ढूंढ़ निकालूंगा. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी लूंगा.’’

कुछ सोचते हुए उर्मिला ने कहा, ‘‘अपने घर ले जा कर मेरे साथ कुछ गलत हरकत तो नहीं करेंगे?’’

‘‘तुम पति की तलाश करना चाहती हो, तो तुम्हें मुझ पर यकीन करना ही होगा.’’

‘‘आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘यहां मैं अकेला रहता हूं. मेरा बेटा और परिवार गांव में रहता है. मेरी पत्नी नहीं है. उस की मौत हो चुकी है.’’

‘‘तब तो मैं हरगिज आप के घर नहीं रह सकती. अकेले में आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं.’’ अवधेश सिंह ने उर्मिला को हर तरह से समझाया. उसे अपनी शराफत का यकीन दिलाया.

आखिरकार उर्मिला अपने भाई रतन के साथ अवधेश सिंह के घर पर इस शर्त पर आ गई कि वह उस के घर का सारा काम कर दिया करेगी. उस का खाना भी बना दिया करेगी.

अवधेश सिंह के फ्लैट में 2 कमरे थे. एक कमरा उस ने उर्मिला को दे दिया. शुरू में उर्मिला अवधेश सिंह को निहायत ही शरीफ समझाती थी, मगर 10 दिन होतेहोते उस का असली रंग सामने आ गया.

अवधेश सिंह अकसर किसी न किसी बहाने से उस के पास आ जाता था. यहां तक कि जब वह रसोईघर में खाना बना रही होती, तो वह उस के करीब आ कर चुपके से उस का अंग छू देता था. कभीकभी तो उस की कमर को भी छू लेता था.

उर्मिला को यह समझाते देर नहीं लगी कि उस का मन बेईमान है. वह उस का जिस्म पाना चाहता है.

एक बार उर्मिला का मन हुआ कि वह उस का घर छोड़ कर कहीं और चली जाए, मगर इस विचार को उस ने यह सोच कर तुरंत दिमाग से हटा दिया कि वह जाएगी तो कहां जाएगी? क्या पता दूसरी जगह कोई उस से भी घटिया इनसान मिल जाए.

गणपत के गांव से लौट आने तक उर्मिला को कोलकाता में रहना ही था. उस ने मीठीमीठी रोमांटिक बातों से अवधेश सिंह को उलझ कर रखने का फैसला किया.

एक दिन उर्मिला रसोईघर में काम कर रही थी, अचानक वह वहां आ गया. उसी समय किसी चीज के लिए उर्मिला झाकी, तो ब्लाउज के कैद से उस के उभारों का कुछ भाग दिखाई पड़ गया.

फिर तो अवधेश सिंह अपनेआप को काबू में न रख सका. झट से उस ने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. तुम मेरी बन जाओ.’’

सही मौका देख कर उर्मिला ने अवधेश सिंह पर अपनी बातों का जादू चलाने का निश्चय कर लिया.

उर्मिला ने भी झट से कहा, ‘‘मैं भी अपना दिल आप को दे चुकी हूं.’’

अवधेश सिंह खुशी से झम उठा. उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘सच कह रही हो तुम?’’

‘‘आप तो अच्छे आदमी नहीं हैं. मैं तो आप को शरीफ समझ कर अपना दिल दे बैठी थी, मगर आप ने तो मेरा हाथ पकड़ लिया.’’

अवधेश सिंह ने तुरंत हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘तो क्या हो गया?’’

‘‘मेरी एक मुंहबोली भाभी कहती हैं कि किसी का प्यार कबूल करने से पहले कुछ समय तक उस का इम्तिहान लेना चाहिए.

‘‘वे कहती हैं कि जो आदमी झट से हाथ लगा दे, वह मतलबी होता है. प्यार का वास्ता दे कर जिस्म हासिल कर लेता है. उस के बाद छोड़ देता है, इसलिए ऐसे आदमियों के जाल में नहीं फंसना चाहिए.’’

‘‘तुम मुझे गलत मत समझे उर्मिला. मैं मतलबी नहीं हूं, न ही मेरी नीयत खराब है. तुम जितना चाहो इम्तिहान ले लो, मुझे हमेशा खरा प्रेमी पाओगी.’’

‘‘तो फिर हाथ क्यों पकड़ लिया?’’

‘‘बस यों ही दिल मचल गया था.’’

‘‘दिल पर काबू रखिए. जबतब मचलने मत दीजिए. एक बात साफ बता देती हूं. ध्यान से सुन लीजिए.

‘‘अगर आप मेरा प्यार पाना चाहते हैं, तो सब्र से काम लेना होगा. जिस दिन यकीन हो जाएगा कि आप मेरे प्यार के काबिल हैं, उस दिन हाथ ही नहीं, पैर भी पकड़ने की छूट दे दूंगी. तब तक आप सिर्फ बातों से प्यार जाहिर कीजिए. हाथ न लगाइए.’’

‘‘वह दिन कब आएगा?’’ अवधेश सिंह ने पूछा.

‘‘कम से कम एक महीना तो लगेगा.’’

उर्मिला की चालाकी अवधेश सिंह समझ नहीं पाया और उस की शर्त को मान लिया.

अवेधश सिंह सरकारी अफसर था. कोलकाता में वह अकेला ही रहता था. जब तक उस की पत्नी जिंदा थी, वह साल में 4-5 बार गांव जाता था. पत्नी की मौत के बाद उस ने गांव जाना ही छोड़ दिया था.

बात यह थी कि पत्नी की मौत के बाद उस ने दूसरी शादी करने का निश्चय किया, जिस का उस के बेटों ने पुरजोर विरोध किया था.

अवधेश सिंह के 2 बेटे थे. दोनों ही शादीशुदा थे. गांव में खेतीकिसानी करते थे. बेटों ने दूसरी शादी का विरोध किया, तो उस ने उन से रिश्ता ही तोड़ लिया.

दरअसल, अवधेश सिंह औरत के बिना नहीं रह सकता था. वह वासना का भेडि़या था. भोलीभाली और गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर वह अपने घर लाता था, फिर तरहतरह का लोभ दिखा कर उन के साथ मनमानी करता था.

अवधेश सिंह सुबहसवेरे कभीकभी गंगा स्नान के लिए भी जाता था. उस दिन सुबह 8 बजे गए, तो उर्मिला पर उस की नजर चली गई. वह समझ गया कि उर्मिला कहीं दूर देहात की है. वह उस के चाल में जल्दी आ जाएगी. वह उसे अपने घर ले जाने में कामयाब भी हो गया.

अवधेश सिंह उर्मिला को निहायत ही भोलीभाली समझाता था, पर वह उस की चालाकी सम?ा नहीं पाया. उसे लगा कि वह उर्मिला की बात मान लेगा, तो वह राजीखुशी उस का बिस्तर गरम कर देगी.

फिर तो वह उर्मिला का दिल जीतने के लिए जीतोड़ कोशिश करने लगा. उस की हर जरूरत पर ध्यान देने लगा. महंगे से महंगा गिफ्ट भी वह उसे देने लगा.

इस तरह 10 दिन और बीत गए. इस बीच उर्मिला को राधेश्याम की कोई खबर नहीं मिली.

उस के बाद एक दिन अचानक उर्मिला ने पति राधेश्याम को छोड़ अवधेश सिंह के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करने का फैसला किया. हुआ यह कि एक दिन अवधेश सिंह दफ्तर से लौट कर रात में घर आया. उस समय रतन सो चुका था.

आते ही उस ने उर्मिला को अपने कमरे में बुलाया. उर्मिला कमरे में आई, तो अवधेश सिंह ने झट से दरवाजा बंद कर दिया.

वह उर्मिला से बोला, ‘‘तुम मान जाओगी, तो जो कुछ कहोगी, वह सबकुछ करूंगा. तुम चाहोगी तो तुम से शादी भी कर सकता हूं.’’

उर्मिला उलझन में पड़ गई. बेशक, वह गांव से पति की तलाश में निकली थी, मगर शहरी चकाचौंध ने पति से उस का मोह भंग कर दिया था.

अब वह गांव की नहीं, शहरी जिंदगी जीना चाहती थी.

अवधेश सिंह के प्रस्ताव पर वह यह सोचने लगी कि उस का पति मिल भी गया तो क्या वह अवधेश सिंह की तरह ऐशोआराम की जिंदगी दे पाएगा?

अवधेश सिंह की उम्र भले ही उस से ज्यादा थी, मगर उस के पास दौलत की कमी नहीं थी. उस ने अवधेश सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करने का फैसला किया.

अवधेश सिंह अपनी बात से मुकर न जाए, इसलिए उर्मिला ने लिखवा लिया कि वह उस से शादी करेगा. उस के बाद उर्मिला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया.

उर्मिला को पा कर अवधेश सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अगले हफ्ते ही उस से शादी करने का फैसला किया. उर्मिला भी जल्दी से जल्दी अवधेश सिंह से शादी कर लेना चाहती थी.

2 दिन बाद ही उस ने अपने भाई रतन को गांव जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. उस से कह दिया कि वह गांव लौट कर नहीं जाएगी. अवधेश सिंह के साथ शहर में ही रहेगी.

शादी के 2 दिन बाकी थे, तो अचानक राधेश्याम के रूममेट राघव के फोन पर उर्मिला को बताया कि गणपत गांव से आ गया है.

उर्मिला हर हाल में अवधेश सिंह से शादी करना चाहती थी, इसलिए वह राधेश्याम का पता लगाने नहीं गई. तय समय पर उस ने अवधेश सिंह से शादी कर ली. एक महीने बाद अवधेश सिंह की गैरहाजिरी में राधेश्याम उर्मिला से मिला.

‘‘कहां थे इतने दिन…?’’ उर्मिला ने पूछा.

‘‘गांव से आने के बाद मैं एक अमीर विधवा औरत के प्रेमजाल में फंस गया था. अब मैं उस के साथ नहीं रहना चाहता.

‘‘गणपत से मुझे जैसे ही पता चला कि तुम अवधेश सिंह के घर पर हो, मैं यहां चला आया. अब मैं तुम्हारे साथ गांव लौट जाना चाहता हूं.’’

‘‘आप ने आने में बहुत देर कर दी. मैं ने अवधेश सिंह से शादी कर ली है. अब मैं आप के साथ नहीं जा सकती.’’

राधेश्याम सबकुछ समझ गया. उस ने उर्मिला से फिर कुछ नहीं कहा और चुपचाप वहां से लौट गया.

बदनाम बस्ती : धंधे वाली पर आया सुमित का दिल

बदनाम बस्ती के मोड़ पर पहुंचते ही सुमित का दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस ने चोर निगाहों से इधरउधर देखा. आसपास किसी को न देख उस ने एक रिकशा वाले से धीमी आवाज में पूछा, ‘‘बदनाम बस्ती चलोगे?’’

‘‘चलूंगा, पर 20 रुपए लूंगा,’’ रिकशा वाला बोला.

‘‘अरे भाई, रुपए की तुम चिंता क्यों करते हो? पहले जल्दी यहां से चलो तो सही,’’ सुमित रिकशा पर बैठता हुआ बोला.

कुछ पल बाद ही रिकशा बदनाम बस्ती की तरफ चल पड़ा. तकरीबन 15 मिनट बाद रिकशा रुका.

‘‘उतरिए साहब,’’ रिकशा वाला गमछे से पसीना पोंछते हुए बोला.

सुमित जल्दी से नीचे उतरा. रिकशा वाले को 20 रुपए का नोट थमाया और तेजी से बदनाम बस्ती में चला गया. कच्ची सड़क के दोनों किनारों पर कई झोंपडि़यां थीं. उन के बाहर लड़कियां सजधज कर बैठी थीं.

कभीकभी सुमित चोर निगाहों से उन लड़कियों की तरफ देख लेता. नजर मिलते ही लड़कियां उस को इशारे से अपने पास बुलातीं, पर सुमित उन के मनमोहक इशारों को नजरअंदाज करता हुआ आगे बढ़ता रहा. वह सीधा सुचित्रा की झोंपड़ी के पास रुका. झोंपड़ी के बाहर सुचित्रा को न देख हौले से आवाज दी.

अगले ही पल मामूली साड़ी अपने जिस्म पर लपेटे एक जवान लड़की उस झोंपड़ी से बाहर निकली. सुमित पर नजर पड़ते ही उस के होंठों पर मुसकान बिखर गई.

सुचित्रा बला की खूबसूरत थी. गोरा, लंबा चेहरा, बड़ीबड़ी आंखें और लंबाई भी अच्छी. उस की देह में एक कशिश थी. बड़े उभार, पतली कमर जैसे तराशा हुआ बदन.

‘‘तुम आ गए सुमित, तुम्हारे इंतजार में मैं बेकरार हो जाती हूं,’’ सुचित्रा वापस अपनी झोंपड़ी में घुसते हुए बोली.

झोंपड़ी में घुसते ही फूलों की भीनीभीनी खुशबू सुमित के दिलोदिमाग में समाती चली गई.

‘‘देखो सुमित, आज मैं ने तुम्हारे लिए अपनी झोंपड़ी को फूलों से सजाया है,’’ सुचित्रा चारपाई पर बैठते हुए बोली.

सुमित उस के पास बैठ गया. सुचित्रा की हथेलियों को अपने हाथों में ले कर वह एकटक उस के चेहरे को देखने लगा.

‘‘आज तुम मुझे इस तरह क्यों देख रहे हो?’’ सुचित्रा चेहरे पर आ गई लटों को समेटती हुई बोली.

‘‘पिछले कई दिनों से मैं तुम से एक बात पूछना चाहता था, पर पूछ नहीं पाया,’’ सुमित बोला.

‘‘क्या पूछना चाहते थे? पूछो न हिचकिचाहट कैसी? तुम तो जानते ही हो कि तुम से मिलने के बाद मैं सिर्फ तुम्हारी हूं… और तुम्हारी ही रहूंगी.’’

‘‘मैं यह पूछना चाहता था कि तुम इस बस्ती में कैसे आ गई? तुम्हारी क्या मजबूरियां थीं, जो तुम्हें यहां खींच लाईं? क्या तुम शौक से…?’’ सुमित ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘नहीं सुमित, कोई लड़की शौक से अपना जिस्म नहीं बेचती, इस पेशे से जुड़ने के पहले मैं भी एक भोलीभाली और शरीफ लड़की थी. मेरा गांव नदी के किनारे बसा था. मेरे पिताजी एक अच्छे किसान थे. एक बार अचानक मेरा गांव बाढ़ की चपेट में आ गया और हमारा सबकुछ बह गया.

‘‘मेरे मांबाप भी बाढ़ के पानी में हमेशा के लिए बह गए. किसी तरह मैं बच गई, पर मैं अनाथ हो चुकी थी. मांबाप के गुजरने के बाद मुझे किसी ने सहारा नहीं दिया.

‘‘मैं सड़कों पर भटकने लगी. पढ़ीलिखी तो थी नहीं कि कोई नौकरी ढूंढ़ लेती. फिर भी कई लोगों से मैं ने काम मांगा, पर किसी ने भी मुझे काम नहीं दिया. हर कोई मेरे जिस्म को ही घूरता, मानो मैं कोई खूबसूरत पंछी हूं और वे लोग शिकारी.

‘‘मैं ने इज्जत की रोटी खाने की बहुत कोशिश की, पर कामयाब न हो सकी. हवस के पुजारियों ने मुझे इज्जत से जीने नहीं दिया. मेरी खूबसूरती, मेरी जवानी, मेरी इज्जत नीलाम हो गई. मैं कुछ न कर सकी. घायल पंछी की तरह सिर्फ फड़फड़ा कर रह गई.

‘‘अब जिंदा रहने के लिए रोटी की जरूरत तो होती ही है न. जब मेरी इज्जत ही खत्म हो गई, तो इज्जत की रोटी खाने कौन देता? मैं मजबूर हो कर इस बस्ती में आ गई,’’ सुचित्रा की आंखों में आंसू भर आए थे.

सुचित्रा की दर्दभरी कहानी सुन कर सुमित की आंखें भी डबडबा आईं. कुछ देर तक झोंपड़ी में खामोशी छाई रही.

‘‘सुचित्रा, मैं तुम्हें ऐसी घटिया जिंदगी नहीं जीने दूंगा. मैं तुम से शादी करूंगा. क्या तुम मेरा साथ दोगी?’’ सुमित ने खामोशी तोड़ी.

सुचित्रा कुछ न बोली, सुमित ने फिर पूछा, ‘‘बोलो सुचित्रा, क्या तुम मुझ से ब्याह करोगी?’’

‘‘नहीं सुमित, मैं तुम्हारे काबिल नहीं. मैं तो अपना सबकुछ गंवा बैठी हूं. मैं तो कोयले की तरह काली हो चुकी हूं. उस पर कितना ही साबुन रगड़ो, कालिख धुल नहीं सकती,’’ सुचित्रा मायूस हो कर बोली.

‘‘पर सुचित्रा, फूल तो आखिर फूल ही होता है. उस की खूबसूरती को कोई नहीं छीन सकता. उस की खुशबू को कोई खत्म नहीं कर सकता. जानती हो, जब मैं तुम से पहली बार मिला था तो उसी दिन मैं ने तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला कर लिया था. पर बारबार मेरे मन में यही सवाल उठता था कि तुम इस बस्ती में क्यों आई? कैसे आई? आज मुझे उन सवालों के जवाब मिल गए हैं.’’

‘‘पर, क्या तुम्हारे घर वाले इस शादी के लिए राजी हो जाएंगे? क्या तुम्हारा समाज यह बरदाश्त कर सकेगा?’’

‘‘मुझे उन सब की परवाह नहीं. कोई कुछ भी कहे, मेरा फैसला बदलने वाला नहीं. सिर्फ तुम ‘हां’ कर दो. बस, नौकरी मिलते ही मैं तुम्हें डोली में बैठा कर यहां से हमेशाहमेशा के लिए ले जाऊंगा. हमारा अपना घर होगा. वहां सिर्फ हम दोनों होंगे और होगा हमारा प्यार,’’ सुमित खयालों में खो गया.

‘‘मुझे ऐसे सपने न दिखाओ सुमित. मैं खुशी से पागल हो जाऊंगी,’’ सुचित्रा उस से लिपट गई.

‘‘यह सपना नहीं है पगली. मैं सचमुच तुम से ब्याह करूंगा,’’ सुमित ने सुचित्रा को अपनी बांहों में कस लिया.

‘‘सुमित, देखो बाहर कैसी चांदनी छिटकी हुई है? कितना खूबसूरत नजारा है,’’ सुचित्रा सुमित की बांहों से निकल कर झोंपड़ी के बाहर देखती हुई बोली.

‘‘तेरे चेहरे से तो नजर ही नहीं हटती, बाहर का नजारा मैं क्या देखूं? अच्छा, अब मैं चलता हूं,’’ कह कर सुमित चारपाई से उठ खड़ा हुआ और झोंपड़ी से बाहर निकल कर तेजी से कच्ची सड़क पर आगे बढ़ने लगा.

सुचित्रा मुसकराते हुए सुमित को जाते हुए देखती रही. कुछ ही मिनटों में सुमित उस की आंखों से ओझल हो गया.

समय अपनी रफ्तार से सरकता रहा. सुमित रोज सुचित्रा से मिलने आता. सबकुछ भूल कर दोनों प्यार के सागर में खो जाते.

फिर एक दिन सुमित को नौकरी भी मिल गई. वह बहुत खुश हुआ. सुचित्रा को यह खुशखबरी देने वह तेजी से बदनाम बस्ती की तरफ चल पड़ा. खुशी के मारे उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वह बदनाम बस्ती कब पहुंच गया, उसे कुछ पता ही न चला.

सुचित्रा की झोंपड़ी के पास लड़कियों की भीड़ देख कर वह सकपका गया. तकरीबन दौड़ता हुआ वह झोंपड़ी के भीतर घुस गया. वहां का नजारा देखते ही उस का दिल दहल गया. सुचित्रा खून से लथपथ पड़ी थी. पास ही खून से सनी शराब की टूटी हुई बोतल पड़ी थी. आसपास कांच के टुकड़े बिखरे पड़े थे. वह मौत से लड़ रही थी.

सुमित सुचित्रा के सिरहाने बैठ गया. उस के सिर को अपनी गोद में रख कर उस के माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘यह क्या हो गया सुचित्रा? आज तो मैं तुम्हें अपनी नौकरी की खुशखबरी देने आया था, पर…’’ उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

सुचित्रा आखिरी सांसें गिन रही थी. वह टूटे हुए शब्दों में बोली, ‘‘मुझे… माफ… कर देना सुमित. मैं… तुम्हारे सपनों को… पूरा… न कर…’’ अचानक सुचित्रा की आवाज बंद हो गई और उस का सिर सुमित की गोद में लुढ़क गया.

सुमित फफकफफक कर रो पड़ा. कभी वह इधरउधर बिखरे कांच के टुकड़ों को देखता तो कभी खून के धब्बों कोे. घूमफिर कर उस की नजर सुचित्रा के मासूम चेहरे पर अटक जाती. किसी तरह उस ने अपनेआप को संभालते हुए एक लड़की से पूछा, ‘‘सुचित्रा की यह हालत कैसे हुई?’’

वह लड़की बोली, ‘‘अभी कुछ देर पहले नशे में झूमता हुआ एक आदमी यहां आया था. उस के हाथ में शराब की बोतल थी. सुचित्रा की झोंपड़ी में घुस गया. फिर हम लोगों को झोंपड़ी से शोरगुल सुनाई दिया.

‘‘शायद सुचित्रा उसे अपना जिस्म सौंपने से इनकार कर रही थी. धीरेधीरे आवाज तेज होती चली गई. फिर अचानक सुचित्रा की चीख गूंज उठी. जब हम लोग यहां पहुंचे, तो सबकुछ खत्म हो चुका था. सुचित्रा खून से लथपथ पड़ी थी. शराबी का कहीं पता न था.’’

सुचित्रा का अंतिम संस्कार कर के सुमित जब श्मशान से लौटा, तो उस के कदम शराब की दुकान की तरफ बढ़ चले. दुकान के पास पहुंचते ही वह अचानक ठिठक गया, ‘नहींनहीं, मैं अपना गम भुलाने के लिए कभी भी शराब नहीं पीऊंगा. इसी शराब के नशे में उस जालिम ने मेरी सुचित्रा को मार डाला. अगर वह नशे में न होता तो शायद…? नहीं, मैं कभी भी शराब को हाथ नहीं लगाऊंगा,’ मन ही मन फैसला कर के सुमित वापस मुड़ गया.

छोटू की तलाश : एक रसोइया की कहानी

सु बह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे.

शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया करे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझाता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तु?ा में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम

लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा

नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह

दूध का गिलास अनमोल को दे आ.

ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालों पर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होेने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’

छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

 

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