Social Story : मंदिर की चौखट

Social Story : यहां तक कि गणित का जो सवाल पूरी कक्षा से हल न होता उसे राहुल जरूर हल कर देता था. तभी तो मदर प्रिंसिपल गर्व से कहती थीं कि राहुल की प्रतिभा का कोई सानी नहीं है. और राहुल ने भी कभी उन को निराश नहीं किया. अंतरविद्यालयीन मुकाबलों में जीते पुरस्कार उस की प्रतिभा के प्रत्यक्ष प्रमाण थे. इतना मेधावी राहुल फिर आज बेचैन क्यों था? क्यों आज वह मानवीय आचरण की गुत्थी में उलझ कर रह गया था? क्यों वह नहीं समझ पा रहा था कि इनसान इतना संवेदनहीन भी हो सकता है? हुआ यह कि कल गणित का पेपर था और आज राहुल के पड़ोस में जागरण हो रहा था. कोई और दिन होता तो राहुल बढ़चढ़ कर जागरण मंडली के साथ मां की भेंटें गा रहा होता और ढोलमजीरे की लय पर आंखें बंद किए पुजारी को गरदन घुमाते हुए वह श्रद्धाभाव से देख रहा होता लेकिन आज बात कुछ और थी. उसे परीक्षा की तैयारी करनी थी. उसे पास होने की नहीं बल्कि प्रदेश में प्रथम स्थान पाने की चिंता थी. उसे अपने अध्यापकों, सहपाठियों तथा मातापिता, सब की आकांक्षाओं पर खरा उतरना था. यही कारण था कि मंदिर से लाउडस्पीकर की आ रही ध्वनि उसे बारबार परेशान कर रही थी.

भक्तजनों ने ‘जयजगदंबे’, ‘जय महाकाली’ के जयकारे लगाए तो लगा, उस के दिमाग पर वे लोग हथौड़ों की तरह वार कर रहे हैं. मृदंग और ढोलक की आवाज से राहुल का सिर फटा जा रहा था. जब उस की सहनशक्ति जवाब देने लगी तो वह उठा और पुजारीजी के पास जा कर हाथ जोड़ विनम्र शब्दों में प्रार्थना की, ‘पुजारीजी, कल मेरी 10वीं की वार्षिक परीक्षा है. कृपया लाउड- स्पीकर की आवाज थोड़ी हलकी करवा दें या उस का मुंह मेरे घर से दूसरी तरफ करवा दें तो आप की बड़ी कृपा होगी क्योंकि शोर के कारण मुझ से पढ़ा नहीं जा रहा है.’

पता नहीं पुजारी ने सुना नहीं या सुन कर भी अनसुना कर दिया. वह अपने चेले से बोले, ‘भई, जरा कलश तो पकड़ाना, पूजा में उस की जरूरत पड़ने वाली है.’

राहुल उन के और समीप पहुंचा और तनिक जोर से अपनी प्रार्थना फिर दोहराई. पर पुजारीजी के पास शायद राहुल की कोई बात सुनने का समय ही न था. 2 बार अपनी उपेक्षा देख कर वह तीसरी बार थोड़ा और साहस जुटा कर पुजारी के सामने जा कर खड़ा हो गया और फिर से नम्र निवेदन किया.

‘अरे, लड़के. क्यों हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ा है?’ पुजारीजी ने आव देखा न ताव, कड़क कर बोले, ‘दिखाई नहीं देता कि पूजा में देर हो रही है. क्या कहा तू ने? जागरण से तेरी पढ़ाई में विघ्न पड़ रहा है? अरे, कौन सी बी.ए. की परीक्षा देनी है, और फिर पढ़लिख कर  करेगा भी क्या? काम तो तुझे कपड़े की दुकान पर ही करना है. चल, छोड़ पढ़ाईलिखाई और महामाई का गुणगान करने को आजा, वही तेरी नैया पार लगाएंगी.’

पुजारी की बात राहुल को गाली से भी बुरी लगी. वह क्या करना चाहता है, क्या बनना चाहता है, यह तो वही जानता था. कपड़े की दुकान पर काम वाली बात राहुल कड़वे घूंट की तरह पी गया और मौके की नजाकत को देखते हुए पुजारी के सामने गिड़गिड़ा कर बोला, ‘पुजारीजी, परीक्षा छोटी हो या बड़ी, परीक्षा परीक्षा ही होती है. मैं आप से यह तो नहीं कहता कि जागरण बंद कर दें या लाउडस्पीकर बंद कर दें. हां, कुछ ऐसा कीजिए कि जागरण भी चलता रहे और मुझे पढ़ने में असुविधा भी न हो.’

राहुल का इतना कहना था कि पुजारी गुस्से में लालपीले हो गए. एकदम भड़क उठे और बोले, ‘मां जगदंबा के जगराते में विघ्न डालता है? निकृष्ट बालक, मां की अनुकंपा के बिना तू अच्छे नंबरों से तो क्या पास भी नहीं हो सकता,’ क्रोध से तमतमाए पुजारी ने अपने चेलों को आदेश दे कर लाउडस्पीकर की आवाज और भी ऊंची करवा दी.

निराश राहुल को मदन ताऊजी की याद आई जो महल्ले में किसी की कैसी भी समस्या हो धैर्य से सुनते थे और प्राय: समस्या का उचित समाधान भी ढूंढ़ते थे. वह अपनी व्यथा ले कर ताऊजी के पास जा पहुंचा. ताऊजी ने उस की सारी बातें ध्यान से सुनीं. उन्हें राहुल की बातों में सचाई और तर्क दोनों की झलक दिखाई दी. वह राहुल को ढांढ़स बंधाते हुए बोले, ‘बेटा, मैं तुम्हारे साथ चलता हूं, मुझे भरोसा है कि पुजारीजी मेरी बात जरूर सुनेंगे. उन का मूड किसी वजह से खराब होगा अन्यथा तुम्हारी इतनी छोटी सी बात मानने में भला उन का क्या जाता है.’

जागरण के पंडाल में पहुंच कर मदन ताऊजी ने पुजारी को नमस्कार किया और विनम्रतापूर्वक बोले, ‘पुजारीजी, इस लड़के की कल परीक्षा है. यदि लाउडस्पीकर जरा धीमा कर दें तो…’ ताऊजी की बात बीच में काटते हुए पुजारीजी उसी गुस्से भरी मुद्रा में बोले, ‘पंडितजी, तो ले आया आप को भी अपने साथ यह लड़का और आप भी इस की बातों में आ गए. यह लड़का पढ़ने का नाटक करता है. कल सारा दिन तो मैं ने इसे महल्ले में घूमते देखा और अब ठीक जागरण के समय इसे पढ़ाई की सूझ रही है.’

पुजारी द्वारा मंदिर के अहाते में देवी मां के सामने बोले गए सफेद झूठ ने राहुल की आत्मा को झकझोर दिया. वह भौचक हो कर पुजारी और ताऊ की बातों को सुनता रहा. आखिर जब बात किसी तरह नहीं बनी तो ताऊजी ने भी पुजारी के हठी आचरण के सामने हथियार डाल दिए और मुड़ कर राहुल से बोले, ‘बेटा राहुल, लगता है पुजारीजी मानने वाले नहीं हैं, तुम ही कहीं और जा कर पढ़ लो.’

राहुल खिन्न हो गया. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह वापस घर आया तो चौखट पर खड़ी मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और पुचकारते हुए बोलीं, ‘बेटा, अगर पुजारीजी ने तुम्हारे ताऊजी की बात नहीं मानी तो अब किसी और की बात मानने की संभावना शून्य है. अच्छा है कि तुम अब सो जाओ, और सुबह जल्दी उठ जाना और तब पढ़ाई कर लेना.’

मां की बात मान राहुल सोने की कोशिश करने लगा लेकिन इतने शोर में नींद भी कहां आती? वह इसी उधेड़बुन में था कि कैसे इस विपदा से पार पाया जाए. तरहतरह के विचार उस के मन में आने लगे कि क्या करूं, कहां जाऊं? हताश मन में एक विचार आया कि स्कूल में जा कर पढ़ लेता हूं. तभी अंदर से उत्तर मिला, वहां तो सारे कमरे बंद होंगे और फिर इतनी रात में कमरा कौन खोलेगा. मदर प्रिंसिपल से टेलीफोन कर के पूछूं? पर कहीं मना कर दिया तो? लेकिन मन ने आवाज दी, नहीं…नहीं…मना नहीं करेंगी क्योंकि वह बहुत प्यार करती हैं मुझ से. शायद मां से भी ज्यादा. इतनी रात गए क्या कहूंगा उन्हें कि मदरजी, हमारे धर्म में गौड की प्रेयर धूमधड़ाके वाली, शोरगुल से भरपूर होती है. भांग पी कर नाचते पुजारी और जोरजोर से मृदंग और करताल पीटते उन के चेले गौड्स को मनाने के अनिवार्य अंग होते हैं.

राहुल ने हृदय में मची उथलपुथल को अपनी बाल बुद्धि से तर्क दे कर शांत करने का प्रयास किया. सोचा, नींद तो आ नहीं रही, इधरउधर मन भटकाने से अच्छा है कि यहीं पढ़ने की कोशिश की जाए. सवाल ही तो हल करने हैं. एक बार एकाग्रता बन गई तो शोर सुनाई देना स्वत: ही बंद हो जाएगा.

बहुत चाहने के बावजूद भी राहुल की एकाग्रता बन नहीं पा रही थी. अनमना सा वह उठा और पड़ोस में जा कर स्कूल में टेलीफोन कर ही दिया.

‘गुड इवनिंग मदर, मैं राहुल बोल रहा हूं.’

‘वैल सन, कैसे याद किया? सब ठीक तो है न?’

‘मैम, मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं क्योंकि मेरे घर के पास लाउडस्पीकर का बहुत शोर हो रहा है.’

‘राहुल, तुम शोर करने वालों से प्रार्थना करो कि वे शोर न करें. उन को बताओ कि कल तुम्हारा मैथ का पेपर है. वे तुम्हारी बात जरूर मान लेंगे,’ मदर ने राहुल को समझाया.

‘मैम, सब तरीके अपनाने के बाद ही आप को इतनी रात में फोन किया है. आई एम सौरी, मैम.’

मदर प्रिंसिपल भांप गईं कि सचमुच राहुल के सामने भारी समस्या है वरना वह कभी फोन न करता. इसलिए जरूरी है कि इस समय उस की मदद की जाए.

‘सन, तुम होस्टल आ जाओ. यहां मैं तुम्हारी पढ़ाई का पूरा इंतजाम कर दूंगी,’ मदर प्रिंसिपल की आवाज में सहानुभूति और वात्सल्य का मेल था.

राहुल होस्टल पहुंच गया. मदर प्रिंसिपल ने उस का बेड डोरमेटरी में लगवा दिया था. पढ़ाई पूरी कर के वह सोने का प्रयत्न करने लगा.

बचपन से ले कर किशोर होने तक का सफर सिनेमा की तरह उस की आंखों के सामने घूम गया. राहुल के घर और मंदिर की दीवार साझी थी. जब से उस ने होश संभाला था, अपनेआप को मंदिर से किसी न किसी तरह जुड़ा पाया था. पूरे महल्ले के बच्चे खेलने के लिए मंदिर में जमा होते थे. वह भी वहीं खेलता था. सर्दियों में मंदिर के विशाल मैदान में खिली धूप का आनंद मिलता था तो गरमियों में नीम, पीपल तथा बरगद की ठंडी छांव सुख पहुंचाती थी.

मंदिर में कोई न कोई कथावार्ता हमेशा चलती रहती थी. संतमहात्मा आते रहते थे और अपने प्रवचनों से लोगों को ज्ञान प्रदान करते थे. ताऊजी भी अधिकांश समय मंदिर में बिताते थे. रोज सुबह खुद भी और बच्चों से भी हनुमान चालीसा का पाठ करवाते थे, जो उन्हें मुंहजबानी याद था. अनेक भक्तों की कहानियां ताऊजी को याद थीं. पुंडरीक, प्रह्लाद व ध्रुव आदि की कहानियां न जाने कितनी बार उन्होेंने राहुल को सुनाई थीं.

ताऊजी अपने ढंग से बच्चों को कहानियों के माध्यम से अनेक शिक्षाएं देते थे, ‘सदा सच बोलो’, ‘अन्याय मत करो’, ‘अन्याय मत सहो’, ‘अत्याचार मत करो’, ‘अत्याचारी से बड़ा पापी अत्याचार सहने वाला होता है’ आदि. बच्चों को भी उन की कहानियां सुनने में बड़ा आनंद आता था.

राहुल को वह दिन याद आया जिस दिन ताऊजी ने धन्ना जाट की कहानी उसे सुनाई थी. कहानी कुछ ऐसी थी कि राहुल के मन में कौतूहल जाग उठा. उस ने सोचा कि यदि धन्ना जाट अपने हठ से कृष्ण को पा सकता है तो वह क्यों नहीं? एक पत्थर उठाया और बैठ गया राहुल भी उस के सामने यह हठ कर के कि ‘तब तक न खाऊंगा, न पीऊंगा जब तक प्रभु दर्शन नहीं देते. ताऊजी की शैली में धन्ना जाट का डायलाग राहुल ने पत्थर के सामने दोहराया.

3-4 घंटे बीत जाने पर मां ने राहुल को ढूंढ़ना शुरू किया और जब वह कमरे में गईं तो देखा, पत्थर के सामने दीपक और अगरबत्ती जला कर राहुल बैठा है. मां को जब सारी बात का पता चला तो उन्होंने अपना माथा पकड़ लिया. हंसी भी आई और दुलार भी आया बेटे के भोलेपन पर.

होस्टल के बिस्तर पर पड़े राहुल को अतीत की वह हर घटना याद आ रही थी जिस ने बालक राहुल को सनातन कर्मकांड का भक्त बना दिया था. प्राय: उस का दिन मंदिर में जा कर पूजा से शुरू होता था. परीक्षा देने जाते समय भगवान को टीका अवश्य लगाता था. पूजापाठ या मंदिर का कोई भी काम होता तो राहुल सब से आगे होता था. राहुल के विवेक पर आस्था का साम्राज्य हो गया था.

छठी कक्षा की वह घटना भी उसे याद आई जब सिस्टर फ्लोरेंस स्कूल में हनुमानजी के बारे में पढ़ा रही थीं, ‘हनुमान वाज ए मंकी’ (हनुमान एक बंदर था).

राहुल का दिमाग भन्ना गया. वह बिफर कर बोला, ‘सिस्टर, हनुमान वाज नाट ए मंकी. ही वाज ए सर्वेंट आफ गौड.’ (अर्थात हनुमान बंदर नहीं भगवान के सेवक थे)

‘परंतु था तो बंदर ही,’ सिस्टर ने तर्क दिया.

‘नहीं, यह मेरे आराध्य देव का अपमान है. वे केवल रामभक्त थे, यही उन का परिचय है,’ ताऊजी के दिए संस्कार राहुल के सिर चढ़ कर बोल रहे थे.

राहुल के साहस और उग्रता के सामने सिस्टर फ्लोरेंस धीमी पड़ गई. वह खुद कोई दंड न दे कर राहुल को मदर प्रिंसिपल के पास ले गईं.

मदर प्रिंसिपल ने गंभीरतापूर्वक कहा था, ‘फ्लौरेंस, अगर हनुमान को बंदर कहने से राहुल की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो जो वह कहना चाहता है उसे वही कहने दो. दूसरों की भावनाओं का आदर करना ही मानव जाति का सब से बड़ा धर्म है और उन्हें कुचलना सब से बड़ा अधर्म.’

गांठ की तरह बांध ली थी राहुल ने अपने पल्ले से प्रिंसिपल मैम की यह बात.

राहुल को पुजारी के व्यवहार ने तोड़ दिया था. उस का संवेदनशील मन, सच और सही रास्ते की तलाश में भटक रहा था. वह भगवान के अस्तित्व को खोज रहा था. उसे फैसला करना था कि भगवान है कहां? मन में या मंदिर में, मानवता की सेवा में या मृदंग की थाप में? किसी का दिल दुखाने में या किसी की सहायता करने में? राहुल के मन

में मंथन जारी था. पता नहीं कब मन

में यह कशमकश लिए राहुल को नींद आ गई.

इस घटना को 30 साल बीत चुके हैं. पुजारीजी अभी जिंदा हैं. उन को पक्षाघात हो गया है जिस के कारण उन्होंने खटिया पकड़ ली है. उन के चेलों में सब से उद्दंड चेला अब पुजारी बन चुका है. उस ने उन की खाट मंदिर से निकाल, पिछवाड़े में भैंसों के तबेले के साथ वाले कमरे में डाल दी है.

जब राहुल ताऊजी के संस्कार पर गया था तो वह पुजारीजी से भी मिल कर आया था.

राहुल ने अपने साथ चलने के लिए पुजारीजी से आग्रह किया था ताकि वह अपने हस्पताल में उन का इलाज करवा सके. लेकिन वह नहीं माने तो उन की खटिया वापस मंदिर के आंगन में डलवा दी थी और नए पुजारी से उन के इलाज के लिए हर माह कुछ रकम भेजने का वादा भी किया था.

मदर प्रिंसिपल से राहुल की मुलाकात लगभग 12 बरस पहले स्कूल के रजत जयंती समारोह में हुई थी. उन के सीने में दर्द रहने लगा था और उन्होंने अपनी बीमारी की फाइल राहुल को दिखाई थी. राहुल जब उन के लिए दवाइयां लिख रहा था तो उन की आंखों की चमक बता रही थी कि वह खुशी से अधिक गर्व महसूस कर रही हैं. उन का नन्हा राहुल उन की हर आकांक्षाओं पर खरा जो उतरा.

राहुल की शादी हुए लगभग 10 साल हो चुके हैं. उस के 2 होनहार बच्चे हैं. राहुल कभी मंदिर नहीं जाता. पूरे परिवार को राहुल का यह व्यवहार बड़ा अटपटा लगता है. पत्नी कई बार सोचती है कि हर बात में बुद्धिसंगत व्यवहार करने वाले राहुल मंदिर का नाम आते ही इतना असंगत क्यों हो जाते हैं? ऐसी क्या गांठ राहुल के मन में है कि वह किसी भी तरह मंदिर जाने के लिए तैयार नहीं होते.

आज 30 साल बाद राहुल दक्षिण भारत के मदुरई नगर में स्थित मीनाक्षी मंदिर की दहलीज पर खड़ा है. राहुल ने अपना कदम आगे बढ़ाया और मंदिर की चौखट लांघी पर लांघने वाले कदम भगत राहुल के नहीं अपितु पर्यटक राहुल के थे.

लेखक – डा. सुभाष चंद्र गर्ग

Short Story : अपनापन : लव मैरिज के बावजूद किस बात से डर रही थी चैताली

Short Story : करण और चैताली ने प्रेम विवाह किया था. दोनों साथसाथ एमबीए कर रहे थे. करण मार्केटिंग में था और चैताली एचआर में, कैंपस में दोस्ती हुई और धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को चाहने लगे और पढ़ाई पूरी होने तक उन्होंने एकदूसरे के साथ रहने का फैसला कर लिया. दोनों को अच्छी प्लेसमैंट मिली, पर करण को पुणे और चैताली को मुंबई औफिस मे रिपोर्ट करना था. यह बात दोनों को ही नागवार गुजरी. पर चूंकि पैकेज अच्छा था, इसलिए दोनों ने स्वीकार कर लिया.

करण पंजाबी परिवार से ताल्लुक रखता था और चैताली बंगाल से थी. जब दोनों ने इस का जिक्र अपनेअपने घरों मे किया तो जैसा कि डर था, पहले तो दोनों ही परिवारों ने अपनीअपनी असहमति दिखाई. करण के परिवार वाले शुद्ध शाकाहारी थे और चैताली का परिवार बिलकुल इस के विपरीत था. इस के अलावा भी बहुत सारे मुद्दे थे जिन पर सहमति के आसार दूरदूर तक नजर नहीं आते थे. पर करण और चैताली भी अपनी जिद पर अड़े थे. दोनों ने तय कर लिया था कि शादी तो करनी है, चाहे देर में ही सही, पर दोनों परिवारों की रजामंदी से ही.

लंबे समय तक चले मानमनुहार के बाद आखिर दोनों के परिवार वाले शादी के लिए मान गए और अगले महीने में शादी की तारीख भी तय कर दी गई. दोनों की मनचाही मुराद पूरी हो रही थी, इसलिए दोनों ही बहुत खुश थे. पर करण की मां की एक शर्त चैताली को बहुत परेशान कर रही थी. मां यह चाहती थीं कि शादी के बाद चैताली छुट्टी ले कर कम से कम एक महीने उन के परिवार के साथ रहे, करण बेशक चाहे तो पुणे जौइन कर ले या साथ रहे. चैताली को यह शर्त ही अजीब सी लगी. पर करण ने इस पर ज्यादा तवज्जुह नहीं दी. उस ने चैताली को बड़े ही सहज तरीके से सम झाया था.

‘‘देखो चैताली, अगर मां ऐसा चाहती हैं तो इस में बुराई क्या है. उन का भी तो मन करता होगा कि उन की बहू कुछ दिन उन के साथ रहे. रह लो न. कौन सा तुम वहां हमेशा के लिए रहने वाली हो.’’

चैताली कोई भी दलील देती तो करण उसे मानने से इनकार कर देता था. उसे कई बार महसूस होता था कि कहीं उस ने गलत निर्णय तो नहीं ले लिया. क्या शादी के बाद भी करण पहले जैसा ही रहेगा या बदल जाएगा? जबकि करण उसे हमेशा ही बड़े प्यार से समझाया करता था और फिर उस का विश्वास लौट आता था.

इसी ऊहापोह में शादी की तारीख कब करीब आ गई, पता ही न चला. शादी दिल्ली में होनी थी जहां करण का घर था, क्योंकि उस के दादाजी लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे. चैताली के घर से सभी लोग 2 दिन पहले ही दिल्ली आ चुके थे और सभी खुशीखुशी शादी की तैयारियों में व्यस्त थे.

पर, चैताली एक अनजाने डर से परेशान थी. कैसे रहेगी वह इतने दिन बिना करण के? करण की मां और बाकी लोगों का व्यवहार कैसा होगा? उस के घर के तौरतरीके कैसे होंगे? करण की मां बहुत सख्त मिजाज और उसूलों वाली हैं, ऐसा करण ने खुद बताया था. चैताली की मां शायद यह सब सम झ रही थीं, इसीलिए उन्होंने भी उसे सम झाया था. पर फिर भी, उस अज्ञात भय का डर उसे बारबार सता रहा था.

आज वह घड़ी भी आ ही गई जब उस ने करण के संग 7 फेरे ले ही लिए. सभी लोग उसे बधाई दे रहे थे. दोस्त, यार, रिश्तेदार, पूरा माहौल खुशियों से भरा हुआ था. करण भी अपने प्यार को शादी में बदलते देख बेहद खुश नजर आ रहा था.

अब विदाई का वक्त था, चैताली की मां और पापा दोनों के चेहरे गमगीन दिख रहे थे. कुछ औपचारिकताओं के बाद उसे करण के साथ गाड़ी में बैठा दिया गया. उस की आंखें भर आई थीं. करण ने उस के हाथों को अपने हाथ में ले लिया. उस की आंखों से टपके आंसू करण के हाथों को भिगो रहे थे.

करण के घर पहुंचते ही सब ने उस का खूब स्वागत किया. वह एक पल के लिए भी अकेली नहीं रही. घर के सभी लोग उस की खूबसूरती, उस की पढ़ाई और उस की नौकरी की खूब तारीफ कर रहे थे. करण अपने रिश्तेदारों के साथ बातें कर रहा था और बीचबीच में आ कर उस से मिल कर चला जाता था. उस के दोस्तयार उस का मजाक भी उड़ाते थे. उसे यहां पलभर के लिए भी नहीं लगा कि वह किसी नई जगह आ गई है. पर जैसे ही उसे करण की मां की बात याद आती कि वह फिर उसी अज्ञात भय की गिरफ्त में आ जाती. वह कुछ क्षणों के लिए ही अकेली रही होगी कि करण की मां कमरे में आती हुई दिखीं. वह उन्हें देख कर खड़ी हो गई. उन्होंने उसे इशारे से बैठने के लिए कहा और खुद उस की बगल में बैठ गईं.

‘‘यहां अच्छा लग रहा है बेटा?’’ उन की आवाज में स्नेह और दुलार दोनों ही था.

‘‘हां, मम्मी,’’ उस ने धीरे से कहा.

‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही घर है. इसे तुम्हें ही संभालना है. तुम करण की पसंद जरूर थीं पर अब तुम हम सब की पसंद हो. अगर तुम यहां खुश रहोगी तो हम सभी खुश रहेंगे. मु झे करण ने बताया था कि तुम एक महीने रहने वाली बात से काफी डरी हुई हो. पगली, इस में डरने जैसा क्या है.

‘‘मैं भी तुम्हारी मां ही हूं. जब साथ रहोगी, तभी तो मु झे, हम सभी को सम झ पाओगी. मु झे भी तो चाहिए जिस से मैं अपना दुखसुख शेयर कर सकूं. उस से अपने मन की बात कह सकूं.

‘‘मेरी कोई बेटी तो है नहीं, बस, यही सोच कर मैं ने कहा था. बेटे, अपनापन अपना समझने से ही बढ़ सकता है. अब यह तुम पर है, तुम अगर करण के साथ जाना चाहती हो तो मु झे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

चैताली सास का दूसरा रूप ही देख रही थी. उन की बातों से उसे बहुत सुकून मिला. उस ने सास का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप जब कहेंगी तभी जाऊंगी. आप की बातों ने मु झे बहुतकुछ समझा दिया है. प्लीज, मुझे माफ कर दें.’’ उस की आंखें भर आईं.

‘‘मेरे बच्चे, रोते नहीं,’  यह कहते हुए सास ने उसे गले से लगा लिया.

लेखक- राजेश कुमार सिन्हा

Short Story : निम्मो

Short Story : नैशनल हाईवे की उस सुनसान सड़क पर ट्रक ड्राइवर ने जब विजय को उस के गांव से 8 किलोमीटर पहले उतारा, तो विजय को इस बात की तसल्ली थी कि गांव न सही, लेकिन गांव के करीब तो पहुंच ही गया. लेकिन इस बात का मलाल भी था कि जहां किराएभाड़े के तौर पर पहले 400-500 रुपए लगा करते थे, वहीं आज उसे 4,000 रुपए देने पर भी अपने गांव पहुंचने के लिए 8 किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ेगा.

अब विजय सुनसान दोपहर में गरम हवाओं के थपेड़े सहता हुआ नैशनल हाईवे से तेजी से अपने गांव की तरफ बढ़ रहा था. चारों तरफ सन्नाटा पसरा था. सामान के नाम पर साथ में बस एक बैग था, जिसे अपने कंधे पर लटकाए पसीने से तरबतर वह लगातार चल रहा था.

अभी गांव कुछ ही दूरी पर था कि एक ठंडी हवा के झोंके से उस का धूप से झुलस कर मुरझाया चेहरा खिल उठा.

गांव से पहले पड़ने वाले अपने खेत में लहलहाती फसल देख कर विजय के तेजी से चल रहे कदमों ने दौड़ना शुरू कर दिया. वह दौड़ते हुए ही अपने खेत में दाखिल हुआ और वहां काम कर रहे अपने बाबा से लिपट गया.

‘‘अरे, देखो तो कौन आया है…’’ विजय के बाबा ने खेत में बनी झोपड़ी में काम कर रही उस की मां को आवाज लगाई.

‘‘अरे विजय बेटा, कैसा है तू? और यह क्या हालत बना ली… देख, कितना दुबलापतला हो गया है,’’ कहते हुए विजय की मां झोपड़ी से भाग कर के पास आई.

‘‘इतने दिनों के बाद देखा है न मां, इसीलिए ऐसा लग रहा है तुम्हें. और वैसे भी अब तो गांव में तुम्हारे हाथों का ही बना खाना मिलेगा, खिलापिला कर कर मुझे कर देना मोटाताजा,’’ कहते हुए विजय ने मां को गले से लगा लिया.

‘‘धूप में चल कर आया है, देख कितना गरम हो गया है. यहां ज्यादा मत रुक, घर जा कर आराम कर ले… और हां, निम्मो को भी लेता जा साथ में, वह तुझे खाना बना कर खिला देगी.’’

‘‘निम्मो.. निम्मो यहां क्या कर रही है?’’ विजय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘अरे, तुझे तो मालूम है कि निम्मो के मांबाबा हमारे गांव में बाहर से आ कर बसे हैं. उन का खुद का खेत तो है नहीं, इसलिए वे लोग काम करने किसी दूसरे के खेत में जाते हैं. निम्मो उन के साथ नहीं जाती.

‘‘निम्मो का भाई अपने मामा के यहां बिजली का काम सीखने शहर चला गया. यह बेचारी घर में बैठी बोर हो जाती है…’’

मां ने आगे कहा, ‘‘एक दिन मैं और तेरे बाबा खेत के लिए निकल रहे थे तो यह मुझ से बोली, ‘काकी, आते वक्त अपने खेत से बेर लेती आना, मुझे बेरी के बेर बहुत भाते हैं…’

‘‘तो मैं बोली, ‘खुद ही आ कर तोड़ ले और जितने मरजी ले जा…’

‘‘तब से जब भी मन करता है, यह हमारे खेत चली आती है,’’ कह कर मां ने निम्मो को आवाज लगाई.

बेर की गुठली थूकते हुए जैसे ही निम्मो झोपड़ी से बाहर आई, विजय हैरान रह गया. गांव के सरकारी स्कूल में उसी की क्लास में पढ़ने वाली निम्मो अब काफी बदल चुकी थी. पहले तो न कपड़ों का कोई अतापता था, न बालों की कोई सुधबुध होती थी.

लेकिन आज निम्मो की खूबसूरती देख कर विजय को यकीन नहीं हुआ. खुले बाल, गोरा रंग, भरापूरा बदन और बिना किसी मेकअप के चेहरे पर लाली दमक रही थी.

विजय भी यह सोच कर हैरान था कि इतने कम समय में इतना बदलाव कैसे आ सकता है. हालांकि पिछले 3 सालों में वह 2 बार गांव आया था, लेकिन दोनों बार ही निम्मो अपने मामा के यहां गई हुई थी.

‘‘हां काकी…’’ पास आ कर निम्मो विजय की मां से बोली.

‘‘तू विजय के साथ घर जा और इसे खाना बना कर खिला देना, फिर भले ही अपने घर चली जाना. हम लोग भी थोड़ा जल्दी आने की कोशिश करेंगे,’’ मां ने निम्मो से कहा, तो निम्मो ने हां में सिर हिलाया और इकट्ठा किए हुए बेरों से भरी अपनी थैली लेने झोपड़ी की ओर चली गई.

जब वह वापस आई तो विजय की ओर देख कर बोली, ‘‘चलिए.’’

मांबाबा को जल्दी घर आने की कह कर विजय निम्मो के साथ घर के लिए निकल पड़ा.

रास्ते में निम्मो बेर निकाल कर विजय की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘ये लो बेर खाओ, रास्ते में अच्छा टाइमपास हो जाएगा.’’

विजय ने उस के हाथों से बेर ले लिए और चलते हुए उस की नजरों से बच कर उसे देखने लगा.

निम्मो थैली से बेर निकालती और उसे तब तक चूसती, जब तक उस का सारा रस न निकल जाता और फिर फीका पड़ने पर थूक देती.

विजय भी निम्मो के अंदाज में बेर खाते हुए उस के साथ चल रहा था. चलते वक्त निम्मो के सीने पर होने वाली हलचल बारबार उस का ध्यान खींच रही थी.

निम्मो की जब इस पर नजर पड़ी तो उस ने दुपट्टे से ढक लिया. लेकिन दुपट्टा भी विजय की नीयत की तरह बारबार फिसल रहा था.

‘‘लौकडाउन हुआ तो गांव की याद आ गई, वरना तुम्हारे तो दर्शन ही दुर्लभ थे,’’ बेर की गुठली थूकते हुए निम्मो बोली.

‘‘इस से पहले भी 2 बार आया था, लेकिन तू नहीं मिली. काकी से पूछा तो बोली मामा के यहां गई हुई है,’’ विजय ने भी शिकायती लहजे में कहा.

‘‘और जिस दिन मैं आई तो काकी बोली कि विजय आज सुबह ही शहर के लिए निकला है. मतलब, इस थोड़े से फासले की वजह से तुम्हारे दर्शन नहीं हो पाए,’’ निम्मो ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘हां, ऐसा ही समझ,’’ विजय ने कहा.

पूरे रास्ते निम्मो तीखे सवाल करती तो विजय उन का मीठा सा जवाब दे देता और विजय कोई मीठा सवाल करता तो निम्मो उस का खट्टामीठा जवाब दे देती.

बातों का यही स्वाद चलतेचलते एकदूसरे के दिलों में झांकने का जरीया बना और इसी की बदौलत दोनों एकदूसरे के दिल का हाल जान पाए.

बेरों से भरी थैली भी तकरीबन आधी हो चुकी थी और अब घर भी आ गया था.

घर पहुंच कर विजय नहाने चला गया और निम्मो रसोई में खाने की तैयारी करने लगी.

विजय नहाधो कर आया, तब तक खाना भी तैयार था. निम्मो ने उसे खाना खिलाया, फिर विजय ने उसे चाय बनाने को कह दिया और खुद कमरे में अपना बैग खोल कर उस में नीचे दबा कर लाए हुए कुछ रुपए अलमारी में रख कर निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ा. थकावट की वजह से कब उस की आंख लग गई और उसे पता ही नहीं चला.

निम्मो जब तक चाय ले कर आई, तब तक विजय को नींद आ चुकी थी. निम्मो ने उसे उठाना मुनासिब नहीं समझ और वापस रसोई की ओर मुड़ी. तभी उस की नजर विजय के बैग के पास बिखरे सामान पर पड़ी तो वह हैरान रह गई. उस के सामान के साथ कुछ गरमागरम पत्रिकाएं भी पड़ी थीं.

यह देख एक बार तो निम्मो को बहुत गुस्सा आया, लेकिन बाद में उस ने धीरे से चाय की ट्रे नीचे रखी और उन पत्रिकाओं को उठा कर देखने लगी.

उस ने बैग के अंदर हाथ डाला तो 2-4 पत्रिकाएं और निकलीं, जो कुछ हिंदी में तो कुछ इंगलिश में थीं.

निम्मो ने एक के बाद एक उन के पन्ने पलटने शुरू किए. हर पलटते पन्ने के साथ उस के सांसों की रफ्तार भी बढ़ने लगी. सांसों में गरमाहट महसूस करते हुए वह कभी बिस्तर पर लेटे विजय की ओर देखती, तो कभी मैगजीन में छपी बोल्ड तसवीरें.

कुछ तसवीरें देख कर तो वह ऐसे ठहर जाती मानो यह सब उसी के साथ हो रहा हो, जबकि कुछ तसवीरों ने तो उस के दिलोदिमाग में घर कर लिया था.

तभी अचानक विजय ने करवट बदली तो वह सहम गई, जिस से उस के हाथ से मैगजीन छूट कर चाय की ट्रे पर जा गिरी.

इस आवाज से विजय की आंख खुली और निम्मो के हाथ में मैगजीन देख वह चौंक कर खड़ा हो गया.

एक बार तो निम्मो भी शर्म से पानीपानी हो गई थी. विजय अपनी सफाई में कुछ कहता, उस से पहले निम्मो ने आगे बढ़ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘कमबख्त शहर में यही सब करते हो क्या तुम?’’ निम्मो ने पूछा.

खुद को निम्मो की बांहों में पा कर विजय हैरान तो था, साथ ही वह उस की मंशा जान चुका था.

विजय ने अपनी सफाई में कहा, ‘‘ये सब मेरी नहीं हैं, उस ट्रक ड्राइवर की हैं, जिस ने मुझे सड़क तक छोड़ा था. ट्रक में रखी इन पत्रिकाओं को देख कर मैं ने लौकडाउन में टाइमपास के लिए पढ़ने के लिए मांगी तो उस ने दे दीं.’’

‘‘जरा भी शर्म है तुम में? मेरे होते हुए इन से टाइमपास करोगे तुम? पता है, कितनी तरसी हूं मैं तुम्हारे लिए… हर दूसरे दिन काकी से तुम्हारे बारे में पूछती रहती थी. यह तो अच्छा हुआ कि मुझे मांबाबा ने फोन नहीं दिलाया वरना मैं फोन कर के रोज तुम्हें परेशान करती,’’ विजय को अपनी बांहों में जकड़ते हुए निम्मो ने कहा, तो विजय ने उसे बिस्तर पर धकेल दिया.

निम्मो के अंगों को प्यार से सहलाते हुए विजय ने कहा, ‘‘मैं भी तुझे बहुत चाहता हूं पगली, पर अब तक यह सोच कर चुप रहा कि न जाने तेरे मन में क्या होगा.’’

‘‘अब तो पता चल गया न कि मेरे मन में क्या है?’’ निम्मो ने पूछा, तो विजय पागलों की तरह उसे चूमने लगा और इस प्यार की सारी हदें पार करने के बाद विजय के साथ चादर में लिपटी निम्मो बोली, ‘‘विजय… आज तुम्हारा प्यार पा कर निम्मो विजयी हुई.’’

विजय ने निम्मो के माथे को चूमते हुए फिर से उसे अपनी बांहों में भर लिया.

लेखक – पुखराज सोलंकी

Family Story : सांझा दुख

Family Story : कोरोनाकाल चल रहा है. हम सब अपनेअपने घरों में लौकडाउन का पालन करते हुए भी डरे हुए हैं. पता नहीं कब किस को क्या हो जाए. एक ही तरह की दिनचर्या निभाते हुए मन की उलझन और बढ़ती ही जा रही है. कब, कहां, और कैसे? हर मौत पर दिमाग में ये सवाल कौंध रहे हैं.

अरे, अभी उन से 10 दिनों पहले ही तो बात हुई थी और आज… विवशता, हताशा और पीड़ा का मिलाजुला रूप हम सब पर भारी है. कैसी महामारी है कि हम अपनों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं जब उन को हमारी सब से ज्यादा जरूरत है.

स्पर्श, प्यार के दो बोल और सेवा के लिए तड़पते हमारे अपने, अकेले में किस से गुहार कर रहे होंगे? तकलीफ को सांझ कर मन शांत हो जाता है. हम ऐसी डरावनी बीमारी के खौफ से घिरे हैं कि उस के पास हम बैठ भी नहीं सकते जिस से हमारा जीवनभर का नाता है.

दूर से अपनों की परेशानी देख मन तड़प जाता है और एक टीस कि काश.. ऐसा नहीं होता. हमारे अपने बिछुड़ रहे हैं और ऐसी बिछुड़न, कि हम फिर से मिलने की आस भी नहीं संजो पा रहे हैं.

मेरे दिल में यही सब बातें चल रही थीं कि मां आ कर मेरे पास खड़ी हो गईं. नम आंखें बहुतकुछ कह रही थीं. मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘शरद नहीं रहा, बिट्टू. कोरोना के काल ने उस को अपनी चपेट में ले लिया.’’

मैं स्तब्ध मां का चेहरा देखती रही. खामोशी के बीच हमारे अंदर दिल चीर डालने वाला दुख सांझ हो रहा था. आंखें उमड़ रही थीं.

मां के जाते ही औंधेमुंह बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह ढह गई मैं. आंसू हमारे सुखदुख की साथी तकिया को भिगोते रहे.

शरद भैया से मेरा खून का रिश्ता नहीं था, पर खून के रिश्तों पर हमेशा भारी रहा है यह आत्मिक रिश्ता. बचपन से ही वे हमारे लिए रोलमौडल रहे. भैया के कंधे पर बैठ हम कहांकहां की सैर कर आते थे. मैं छोटीछोटी समस्याओं पर उन के पास पहुंच, रोते हुए और अपनी फ्रौक से आंसू पोंछते हुए उन की गोद में सिर रख कर शिकायतों का पुलिंदा खोल दिया करती थी. कभी मां सा, कभी भाई सा, तो कभी सहेलियों सा बरताव करते.

वे हंसते हुऐ कहते, ‘थोड़ा रूक जा बिट्टू. जब मैं डाक्टर बन जाऊंगा, तब इन सब को इंजैक्शन लगा कर दर्द का एहसास करवाऊंगा.’

खूब हंसती मैं, और तरहतरह की ऐक्टिंग कर के बताती कि दर्द के कारण वे सब कैसे बिलबिलाएंगे. थोड़ी बड़ी हुई. उन के आने पर चाय मैं ही बनाती थी, क्योंकि उन को मेरे हाथ की बनी चाय पसंद थी.

चाय पीते हुए वे कहते, ‘चाची, बिट्टू की शादी हम इसी शहर में कराएंगे, ताकि हम सब को उस के हाथ की बनी चाय हमेशा मिलती रहे.’

बनावटी गुस्सा दिखाती हुई मैं भैया को मारने लगती. वे मुझे सीने से लगाते हुए कहते, ‘इस को कभी भी अपनेआप से दूर नहीं जाने दूंगा.’

मेरी हर समस्या का समाधान था भैया के पास. मेरे स्कूल से ले कर कालेज तक के सफर में भैया हमेशा मार्गदर्शक रहे मेरे.

एक दिन हंसते हुए मैं उन से बोली, ‘आप की अपनी कोई बहन नहीं है न, इसीलिए आप मु?ा से बहुत प्यार करते हैं.’

मु?ो आज भी याद है वह दिन. उन्हें बिलकुल भी बुरी नहीं लगी मेरी बात. उलटे, उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर बोला था, ‘बिट्टू, तुम हर जन्म में मेरी बहन हो, और रहोगी. अपना और पराया क्या होता है? जहां प्रेम की लौ जगी, वही अपना है.’

कुछ वर्षों बाद भैया मैडिकल की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चले गए. मैं बहुत रोई थी. जैसे, मेरी दुनिया बेरंग हो गई हो. सुबह के उजाले से ले कर देररात तक उन के साथ की यादें मु?ो और उदास कर जातीं.

फोन पर जब मैं अपनी समस्याएं बताने लगती तो वे कहते, ‘इतनी समस्याओं का, बस, एक समाधान है तेरी शादी. दूल्हा आ जाएगा तेरी जिंदगी में, तब जा कर इस निरीह भाई को राहत मिलेगी.’

गुस्से से कहती मैं, ‘अच्छा, तो आप मुझ से छुटकारा चाहते हैं. इतनी जल्दी नहीं छोड़ने वाली मैं आप को. और वैसे भी, पहले आप की शादी होगी, तब मेरी.’

भैया के डाक्टर बनते ही उन की शादी हो गई. खूब नाची थी मैं. खुशी मेरे दामन में नहीं समा रही थी.

बाद के दिनों में वे मुझे चिढ़ाते, ‘चाची, मेरी शादी में नागिन डांस के लिए तो इस को पद्मश्री अवार्ड मिलना चाहिए था.’

वक्त के साथ हम सब बदलते गए. मेरी भी शादी हो गई. जिम्मेदारियों ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. मां की आवाज सुन कर मैं आंसू पोंछते हुए बैठ गई.

अपनी गोद में मेरा सिर रख कर प्यार से हाथ फेरते हुए मां बोलीं, ‘‘बिट्टू, तुम्हारे अंदर एक जीव पल रहा है, वह भी तो तुम्हारे खाने का इंतजार कर रहा है.’’

पेट पर हाथ रख कर सोचने लगी मैं, ‘काश, भैया मेरी कोख में आ जाते. मैं मां बन कर उन का खूब खयाल रखती और अपने से कभी भी दूर न जाने देती.’

बहुत प्रयास करने के बाद मैं ने खुद को संयत कर भाभी को कौल किया. उन के रोने की आवाज मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह आहत कर रही थी.

‘‘शरद बगैर मुझ से कुछ बोले चले गए, बिट्टू. मैं अब किस को प्यार करूंगी? किस के सहारे रहूंगी? चारों तरफ अंधेरा दिख रहा है? मेरे तो सिर का ताज ही बिखर गया, बिट्टू.’’

‘‘समय के सामने हम सब विवश हैं, भाभी. धैर्य रखिए. अमन का खयाल रखिए. उस पर इन दुखों का असर नहीं होना चाहिए. टूट जाएगा तो बिखरे को समेटना बहुत मुश्किल होगा, भाभी.’’

तभी अमन की आवाज ने मेरी बची हुई हिम्मत को भी तोड़ कर रख दिया, ‘‘मैं पापा के साथ खेलना चाहता हूं. पापा से मिले हम को एक महीना हो गया है बूआ. सब के पापा हैं, तो मेरे पापा हमें छोड़ कर क्यों चले गए? बताओ बूआ?’’

सांत्वना के शब्द यहीं पर खत्म हो गए थे मेरे. मैं शून्य में निहारते हुए बोली, ‘‘इस का जवाब किसी के पास भी नहीं होगा, अमन बेटा.’’

मां के हाथों में खाने की थाली दिखी, तो आंखों ने सवाल किया और जबान पूछ बैठी, ‘‘मां, पीर पराई है या अपनी है?’’

‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे,’’ गाती हुई मां वहां से चली गईं.

लेखिका – कात्यायनी दीप

Social Story : पाखंडी तांत्रिक

Social Story : अचानक रिम्मी को पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर नाम की बीमारी के कुछ दौरे ही पड़े होंगे कि मां झट से गईं और चप्पल से रिम्मी पर अनगिनत वार करती चली गईं.

हालांकि उन्हें यह बहुत बाद में पता चला कि यह कोई बीमारी है, जिसे मैडिकल साइंस में पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर कहा जाता है. वरना उस दिन रिम्मी की मां ने तो किसी ऊपरी साए का चक्कर समझ कर उस साए पर चप्पलों की बरसात कर दी थी, जबकि दर्द रिम्मी को सहना पड़ रहा था.

रिम्मी की मां ने रिम्मी को दौरे पड़ने वाली बात को समाज से छिपाए रखी, शायद इसलिए क्योेंकि रिम्मी की शादी एक साल पहले ही विजय से तय हो चुकी थी.

विजय एक अच्छे परिवार और पढ़ेलिखे घर का सुशील और गुणवान लड़का था और पेशे से सीबीआई अफसर भी. रिम्मी और विजय दोनों ही एकदूसरे को कालेज से पसंद भी करते आए थे. ऐसे में मां नहीं चाहती थीं कि महल्ले वालों को रिम्मी की इस बीमारी के बारे में पता चले और इतनी अच्छी ससुराल हाथ से निकल जाए.

रिम्मी को जब कभी भी ऐसे दौरे पड़ते, उस के थोड़ी देर बाद ही वह अपनेआप शांत हो जाती. उसे बिलकुल भी याद नहीं रहता कि उस के साथ क्या हुआ और उस ने कैसीकैसी हरकतें कीं.

पर हुआ वही, जो रिम्मी की मां नहीं चाहती थीं. अब भला रिम्मी के घर से उस के चिल्लाने की अजीबोगरीब आवाज आना, रोनाबिलखना भला कोई कैसे अनसुना कर सकता था.

एक दिन ठेले पर सब्जी लेते समय सुनीता आंटी ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे रिम्मी की मां, सुनो तो जरा. यह रिम्मी को क्या हो गया है? अगर कोई बात है तो बताओ?’’

सुनीता आंटी पड़ोस में ही रहती थीं और इसीलिए बाकियों से ज्यादा उन के साथ रिम्मी की मां के अच्छे संबंध थे.

मां ने अभी तक अपना यह दुख किसी के साथ नहीं बांटा था, शायद इसी वजह से सुनीता आंटी के जरा से पूछ लेने पर उन से रहा नहीं गया और दिल खोल कर सारी बात बता दी. उन्हें लगा कि शायद इन के पास इस मुसीबत का कोई हल हो.

‘‘अरे इतनी सी बात के लिए इतना घबरा रही थीं आप. एक बार मुझे पहले ही बता तो दिया होता, अब भला रिम्मी हमारी बेटी नहीं है क्या,’’ सुनीता आंटी के इतना कहने पर रिम्मी की मां को आशा की एक किरण दिखने लगी. मां को लगा कि शायद सुनीता आंटी के पास इस समस्या का कोई समाधान जरूर है.

‘‘अरे, मैं ने ऐसी कई लड़कियों को देखा है, जिन पर ऊपरी चक्कर या अन्य कोई दोष होता है और उस के चलते वे अजीबअजीब सी हरकतें करने लगती हैं.

‘‘डरो मत, मैं एक ऐसे तांत्रिक बाबा को जानती हूं, जो सिर्फ माथा छू कर सारी समस्याओं की जड़ बता देते हैं,’’ सुनीता आंटी ने रिम्मी की मां से कहा.

मां ने बिना कुछ सोचेसमझे सुनीता आंटी से तांत्रिक के यहां चलने की बात पक्की भी कर ली.

‘‘चलो रिम्मी उठो, जल्दी उठो और तैयार हो जाओ. हमें कहीं जाना है,’’ मां ने सुबहसुबह ही रिम्मी को नींद से जबरदस्ती उठा लिया.

‘‘क्या हुआ मां, कहां जाना है? बताओ पहले…’’ रिम्मी ने लेटेलेटे ही मां से पूछा.

‘‘वे सुनीता आंटी एक तांत्रिक बाबा को जानती हैं. वे बड़े ही पहुंचे हुए बाबा हैं. वे तुझे देखते ही बता देंगे कि क्या परेशानी है और फिर तेरा इलाज भी कर देंगे,’’ मां ने रिम्मी को समझाया.

‘‘मां, आप भी कैसेकैसे लोगों की बातों में आ जाती?हैं और वह भी आज के जमाने में. आप ने यह कैसे सोच लिया कि मैं आप के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगी.’’

‘‘बेटी, एक बार चल कर देखने में क्या हर्ज है. और क्या पता, किस का तुक्का ठीक बैठ जाए. हमें तो बस तेरे ठीक होने से मतलब है. अभी तेरी शादी होने में सिर्फ 6 महीने ही बचे हैं न? उस से पहले ही ठीक होना है न तुझे?’’ पिताजी ने भी मां की तुक में तुक मिला कर रिम्मी को समझाया.

रिम्मी भी न नानुकुर करतेकरते मान ही गई और तांत्रिक के पास चलने के लिए राजी हो गई.

तांत्रिक का ठिकाना बड़ा ही घनचक्कर कर देने वाला था. पता नहीं कितनी पतलीपतली संकरी गलियों के अंदर उस ने अपना घर बना रखा था. सुनीता आंटी ने मां और रिम्मी को दरवाजे पर ही समझा दिया था कि जाते ही उन बाबा के पैर पकड़ कर आशीर्वाद ले लेना.

तांत्रिक के घर पर पहले से ही 4-5 लोग बैठे हुए थे. रिम्मी को बड़ी हैरत हुई कि आज भी इतने लोग डाक्टरों को छोड़ कर इन पाखंडियों के पास आते हैं. फिर सोचा कि अगर इतने लोग अपना इलाज कराने आए हैं, तो जरूर इस तांत्रिक में कोई तो बात होगी.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद रिम्मी का नंबर भी आ ही गया. रिम्मी ने इस से पहले कभी किसी तांत्रिक को रूबरू नहीं देखा था, सिर्फ टैलीविजन पर ही देखा था. उस को लगा था कि कोई काला कुरतापाजामा पहने खोपडि़यों की माला और ढेर सारी अंगूठियां पहने, काला टीका लगाए, आग जलाए बैठा होगा, पर अंदर जाते ही उस ने देखा कि तकरीबन 40-45 साल का एक आदमी फौर्मल कपड़ों में अपने सोफे पर बैठा हुआ था. हां, अंगूठियां तो उस ने भी पहनी थीं, पर इतनी नहीं. और माथे पर काला टीका भी लगाया हुआ था.

तांत्रिक सुनीता आंटी को जानता था, शायद इसलिए उस ने सब लोगों के लिए चाय और बिसकुट का भी इंतजाम किया.

रिम्मी से तांत्रिक ने उस की बीमारी के बारे में पूछा और अंदर बने एक कमरे में ले जा कर कुछ जादूटोना कर के कई तरह के प्रपंच करने लगा, जिन का रिम्मी पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

फिर रिम्मी को बाहर ले जा कर उस ढोंगी तांत्रिक ने मां को भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘देखो, किसी भटकती आत्मा ने रिम्मी के शरीर को अपना वास बना लिया है, पर घबराने वाली कोई बात नहीं है…

‘‘ऐसे केस मेरे पास आएदिन आते रहते हैं. मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं,’’ तांत्रिक अपनी बड़ाई करते थक नहीं रहा था कि अगले ही पल असली मुद्दे पर आ गया.

‘‘देखिए, इस तरह की आत्माओं से निबटने के लिए अकसर खास तरह की पूजा कराने की जरूरत पड़ती है और एक बकरे की बलि भी देनी ही पड़ती है.

‘‘इस सब पर कम से कम 40,000 से 50,000 रुपए का खर्चा तो मान कर ही चलिए, लेकिन आप लोग चिंता मत कीजिए, सारी सामग्री का इंतजाम हम खुद ही कर लेंगे. अगर आप को ठीक लगे तो बताना. आगे की विधि मैं आप को उस के बाद ही बताऊंगा.’’

रिम्मी चालाकी दिखाते हुए बोली, ‘‘बाबाजी, आप बस अपना खर्च बता दीजिए, सामग्री का इंतजाम हम खुद कर लेंगे.’’

‘‘नहीं बेटी, यह कोई ऐसीवैसी सामग्री नहीं है, जो कहीं पर भी मिल जाए. यह सारी सामग्री हमारे सिद्ध गुरुजी की आज्ञा से विशेष विधि से लाई जाती है, इसलिए यह काम तुम हम पर ही छोड़ दो.’’

तांत्रिक अपना उल्लू सीधा करने के मकसद से बोल रहा था. सब ने तांत्रिक से अलविदा ली और जैसे ही जाने के लिए मुड़े, वैसे ही तांत्रिक ने टोकते हुए फीस के नाम पर पहली ही मुलाकात में रिम्मी की मां से 5,000 रुपए ऐंठ लिए.

रिम्मी को तांत्रिक द्वारा 5,000 रुपए मांगने वाली बात पर कुछ शक हुआ. वे समझ चुकी थीं कि यह तांत्रिक के नाम पर पाखंडी है, पर उस की मां तांत्रिक की बातें आंख बंद कर मानने लगी थीं.

घर पहुंचते ही रिम्मी के फोन पर विजय का फोन आया, तो वह चुपचाप अपने कमरे की ओर निकल गई और तांत्रिक की बात बताने लगी.

मां और पिताजी ने रिम्मी से कहा कि वे तांत्रिक बाबा से विशेष क्रियाकर्म करवाएंगे.

रिम्मी ने भी इस बात का कोई विरोध नहीं किया और बड़ी आसानी से मान गई.

मां ने तुरंत तांत्रिक को फोन लगाया और आगे की सारी विधि समझ ली.

तांत्रिक ने उन्हें बताया, ‘अमावस्या की रात को मैं जो पता बताने जा रहा हूं, वहां पहुंच जाना. हम रिम्मी के अंदर बैठी उस दुष्ट आत्मा को बोतल में कैद कर अपने साथ ले जाएंगे और रिम्मी को उस दुष्ट आत्मा से हमेशा के लिए मुक्त कर देंगे.’

अमावस्या की रात भी आ चुकी थी और रिम्मी की मां और पिताजी उसे ले कर तांत्रिक के बताए उस पते पर पहुंच गए थे.

तांत्रिक पहले ही रिम्मी के पिताजी से पूरे 50,000 रुपए की दक्षिणा मांग लेता है और रिम्मी को अपने साथ खुफिया कमरे में ले जा कर उस से कहता है, ‘‘रिम्मी, अब अपने सारे कपड़े उतार कर इस आसन पर बैठ जाओ. इस विशेष पूजा में तन पर कोई कपड़ा नहीं होना चाहिए, वरना वह आत्मा कभी तुम्हारे अंदर से नहीं निकल पाएगी.’’

इतना कहते ही रिम्मी ने एक जोरदार तमाचा तांत्रिक के गाल पर जड़ दिया, उतने में ही विजय अपने कई साथियों के साथ दौड़ता हुआ उस कमरे का गेट तोड़ कर अंदर जा घुसा.

रिम्मी के मां और पिताजी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा है और जमाई राजा यहां कैसे आ गए, वह भी इतने आदमी ले कर.

विजय ने अंदर पहुंचते ही उस तांत्रिक के हाथों में हथकड़ी डाली, तो पिताजी ने विजय से पूछा, ‘‘बेटा, यह सब क्या है?’’

‘‘पापाजी, शायद आप लोगों को यह नहीं मालूम कि यह तांत्रिक नहीं, बल्कि डकैत?है. इस ने लोगों को ठगने का नया तरीका ढूंढ़ लिया है. पिछले कई महीनों से हमारे डिपार्टमैंट को इस की तलाश थी. यह अब लोगों को लूटने उन के घर नहीं जाता, बल्कि लोग इस के पास खुद आते हैं अपनेआप को लुटवाने के लिए.

‘‘यह पाखंडी लोगों को ठीक करने का झूठा वादा कर के उन से हजारोंलाखों रुपए तक वसूल लेता है और फिर किसी दूसरे शहर में अपना शिकार ढूंढ़ने के लिए निकल जाता है.’’

विजय ने उस पाखंडी बाबा की सचाई रिम्मी के पिताजी को बताई, जिसे रिम्मी की मां भी सुन रही थीं.

‘‘पर बेटा, तुम्हें कैसे पता चला कि हम लोग रिम्मी को ले कर इस तांत्रिक के पास आए हुए हैं?’’ मां ने हैरान होते हुए विजय से पूछा.

‘‘मांजी, जिस दिन आप रिम्मी को पहली बार इस डकैत के पास ले कर गई थीं, उस दिन मैं ने रिम्मी से बात करने के लिए उसे फोन लगाया था. तब रिम्मी ने मुझ सारी बात बताई.

‘‘रिम्मी ने मुझे इस के बारे में जोकुछ बताया और वह फीस के 5,000 रुपए के बारे में बताया, तो मेरे दिमाग की बत्ती जली. मुझे याद आया कि कहीं यह वही तांत्रिक तो नहीं जिस की तलाश मैं और मेरे साथी कई महीनों से कर रहे हैं.

‘‘मैं ने तुरंत इस तांत्रिक का स्टिंग आपरेशन करने का प्लान बनाया और फोन पर ही सारी योजना रिम्मी को समझा दी.

‘‘और आज जब आप लोग अपने घर से निकले, तब हम ने आप लोगों का पीछा किया था, क्योंकि इस के अड्डे तक हमें सिर्फ आप ही पहुंचा सकते थे.

‘‘अपनी योजना के मुताबिक हम सारे अफसर अपना हुलिया बदल कर गाड़ी में बैठेबैठे रिम्मी की माला पर लगे स्पाई कैमरे से सबकुछ लाइव देख रहे थे और जैसे ही रिम्मी ने इसे तमाचा मारा, हम समझ गए कि कोई बात जरूर है और अंदर इसे दबोचने चले आए.’’

इतना कह कर रिम्मी की ओर देखते हुए विजय ने बताया, ‘‘मांजी, मैं ने रिम्मी की बीमारी के बारे में कुछ दिनों पहले ही अपने दोस्त से फोन पर पूछा था, जो लंदन में एक मनोचिकित्सक है.

‘‘उस ने बताया कि रिम्मी के अंदर किसी आत्मा का वास नहीं, बल्कि पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर की बीमारी है. इस की वजह से अकसर मरीज अजीबअजीब सी हरकतें करने लगता है, जैसे बहुत गुस्सा आने के चलते अपना आपा खो देना, किसी पर विश्वास न करना, अकेले रहना, पर यह बीमारी डाक्टर के इलाज से जल्दी ठीक भी हो जाती है.’’

विजय यह सब बातें बताते समय तांत्रिक को गुस्से भरी आंखों से घूरे जा रहा था.

इस के बाद विजय ने उस तांत्रिक से रिम्मी के 50,000 और उस दिन की फीस के 5,000 रुपए भी वसूल कर रिम्मी के पिताजी को दे दिए.

लेखक – हेमंत कुमार

Family Story : न्याय अन्याय

Family Story : कुंडी खड़कने की आवाज सुन कर निम्मी ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए…’’ निम्मी ने बाहर खड़े 2 लड़कों को नमस्ते करते हुए कहा.

‘‘जी, हम आप के महल्ले से ही हैं. आप को राशन की जरूरत तो नहीं…’’ उन में से एक ने निम्मी से कहा.

‘‘जी शुक्रिया, अभी घर में राशन है…’’ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है… जब भी जरूरत होगी, तो इस मोबाइल नंबर पर फोन करना…’’ उन में से एक बड़ी मूंछों वाले लड़के ने निम्मी को एक कागज पर मोबाइल नंबर लिख कर देते हुए कहा.

लौकडाउन का तीसरा दिन था. पूरा शहर एक उदासी और सन्नाटे की ओर बढ़ रहा था. किसी को नहीं पता था कि कब बाजार खुलेगा, कब घर से बाहर निकल सकेंगे और कब हालात सही होंगे.

निम्मी का पति अमर किसी काम से दूसरे शहर गया हुआ था कि अचानक से ये कर्फ्यू से हालात हो गए.

निम्मी की शादी को अभी सालभर भी नहीं हुआ था. निम्मी बहुत खूबसूरत थी. न जाने कितने नौजवान निम्मी को किसी न किसी तरह पाना चाहते थे.

यह तालाबंदी भी निम्मी की जिंदगी में घोर अंधेरा ले कर आई थी. उसे अमर से मिलने की उम्मीद दिखने लगी थी कि लौकडाउन को आगे बढ़ा दिया गया. एक ओर राशन खत्म हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर अमर के खेत में गेहूं की खड़ी फसल. अब कौन फसल को काटे और कौन मंडी ले जाए.

निम्मी सोच ही रही थी कि अमर का फोन आया, ‘निम्मी, मु झे तो अभी वहां आना मुमकिन नहीं जान पड़ता… खेत का क्या हाल है… तुम गई क्या किसी दिन?’

‘‘बस एक दिन गई थी… फसल पक चुकी है, पर अमर अब यह कटेगी कैसे… मजदूर भी नहीं मिल रहे इस वक्त यहां,’’ निम्मी ने बताया.

कुछ देर इधरउधर की बात कर के निम्मी ने फोन रख दिया.

तभी उस के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘अमर… बाहर आना.’’

महल्ले के धनी सेठ की आवाज सुन कर निम्मी बाहर आई.

‘‘अमर को बुलाओ तो बाहर. उस से कहो, अगर गेहूं की फसल जल्दी नहीं काटी तो सारी खराब हो जाएगी.’’

‘‘जी, वे तो शहर से बाहर गए थे किसी काम से और तालाबंदी के चलते वहीं फंस गए,’’ निम्मी ने बताया.

हालांकि धनी सेठ अच्छी तरह से जानता था कि अमर घर पर नहीं है, फिर भी अनजान बनने की अदाकारी बखूबी कर रहा था, ‘‘ओह, लेकिन अगर फसल नहीं कटेगी, तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा…’’

‘‘जी जरूर… जरूरत हुई तो आप के पास आ कर कह दूंगी. वैसे, इतनी खेती तो है नहीं कि मंडी तक पहुंचाई जाए. हमारा ही गुजर होने लायक अनाज होता है,’’ निम्मी ने हाथ जोड़ कर कहा.

धनी सेठ कई सवाल ले कर जा रहा था कि निम्मी मु झे बुलाएगी या नहीं, क्या कभी निम्मी के साथ गुफ्तगू मुमकिन है. वह खुद से ही बोलते जा रहा था कि पुजारी से सामना हो गया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी… कैसे हैं आप?’’ धनी सेठ पुजारी से बोला.

‘‘चिरंजीवी रहो धनी सेठ… तरक्की तुम्हारे कदम चूमे,’’ दोनों हाथों से आशीष देते हुए पुजारी ने कहा.

‘‘इस दोपहरी में कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं?’’ धनी सेठ ने पुजारी से पूछा.

पुजारी ने सकपकाते हुए जवाब दिया, ‘‘बस, एक यजमान के घर से आ रहा हूं… तो सोचा, थोड़ा नदी किनारे टहल आऊं.’’

‘‘अच्छा… नमस्ते,’’ कह कर धनी सेठ आगे बढ़ गया. इधर निम्मी ने अमर को फोन पर धनी सेठ के प्रस्ताव के बारे में बताया, तो अमर ने साफ इनकार करने को कहा, क्योंकि वह उसे अच्छी तरह जानता था और इस सहयोग के पीछे की मंशा पर भी उसे शक था.

निम्मी ने फोन रखा ही था कि किसी ने घर का दरवाजा खटखटाया. निम्मी ने दरवाजा खोल कर सामने खड़े पुजारी को प्रणाम किया.

पुजारी ने भी धनी सेठ की तरह हमदर्दी और सहयोग का प्रस्ताव दिया. इसी तरह हैडमास्टर किशोर कश्यप ने भी सहयोग का प्रस्ताव निम्मी के सामने रखा.

निम्मी असमंजस में थी. एक ओर उस की शुगर की दवा खत्म हो रही थी, वहीं दूसरी ओर राशन भी खत्म होने को था.

अगले दिन मुंह पर चुन्नी लपेटे निम्मी महल्ले की दुकान तक गई. वहां से जरूरी सामान ले कर वह वापस आ रही थी कि सामने से उसी मूंछ वाले लड़के ने उसे पहचान लिया. उस का नाम अनूप शुक्ला था. उस ने निम्मी से कहा, ‘‘अरे निम्मीजी, आप को किसी चीज की जरूरत थी, तो मु झ से कहती… आप क्यों इस धूप में बाहर निकलीं…’’

‘‘जी, इस में परेशानी की कोई बात नहीं… बस टहल भी ली और सामान भी ले लिया,’’ इतना कह कर निम्मी तेजी से घर की ओर बढ़ गई. पर एक परेशानी उस के सामने खड़ी हो गई कि उस की शुगर की दवा खत्म हो गई और मैडिकल स्टोर बहुत दूर था.

तभी निम्मी को अनूप के मोबाइल नंबर वाला कागज भी दिख गया, तो उस ने उसे फोन कर ही दिया. अनूप ने भी उसे दवा ला कर दे दी.

इसी तरह कुछ दिन बीत गए, पर गेहूं की फसल का कुछ तो करना था, निम्मी यह सोच ही रही थी कि धनी सेठ और पुजारी कुछ मजदूरों के साथ उस के घर पर आ गए.

‘‘आप तो संकोच करेंगी निम्मीजी, पर हमारा भी तो फर्ज बनता है कि नहीं?’’

‘‘मैं कुछ सम झी नहीं,’’ निम्मी बोली.

‘‘इस में न सम झने जैसा क्या है. बस तुम हां कह दो, तो खेत से गेहूं ले आएं.’’

निम्मी कुछ सम झती, इस से पहले ही उन दोनों ने मजदूरों को खेत में जाने का आदेश दे दिया. निम्मी ने उन को चाय पीने को कह दिया.

दोनों चाय पी कर चले गए. उसी शाम धनी सेठ फिर निम्मी के घर आया.

‘‘तुम ठीक हो न निम्मी… मेरा मतलब, खुश तो हो न?’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

धीरेधीरे सेठ निम्मी की ओर बढ़ने लगा और पास आ कर बोला, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत और कमसिन हो…’’ इतना कह कर उस ने निम्मी की कमर को अपने आगोश में ले लिया.

निम्मी कुछ रोकती या कहती, उस ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और उसे बेहिसाब चूमने लगा.

निम्मी रोती, कभी मिन्नत करती, पर जिस्म के भूखे सेठ को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उस ने उसे हर तरीके से भोगा और वहां से चला गया.

निम्मी जोरजोर से रो रही थी, पर उस की चीख सुनने वाला कोई न था. अचानक उसे याद आया कि उस के महल्ले का देवेंद्र सिंह पुलिस में नौकरी करता है. किसी तरह निम्मी ने उस का पता लगाया और फोन किया.

‘हैलो, कौन बोल रहा है?’ देवेंद्र सिंह ने फोन रिसीव कर के पूछा.

‘‘जी, मैं आप के ही महल्ले से बोल रही हूं… मु झे आप की मदद चाहिए,’’ निम्मी ने जवाब दिया.

‘आप को अगर कोई भी परेशानी है, तो आप थाने में आ कर रिपोर्ट लिखा सकती हैं,’ देवेंद्र सिंह ने यह कह कर फोन रख दिया.

निम्मी ने फिर से फोन किया, ‘‘हैलो… प्लीज, फोन मत काटना… मैं निम्मी बोल रही हूं. आप के ही महल्ले में रहती हूं. मेरे पति अमर इस वक्त यहां नहीं हैं और मैं मुसीबत में हूं.’’

अमर का नाम सुनते ही वह निम्मी को पहचान गया, ‘अच्छाअच्छा, मैं सम झ गया. आप चिंता न करें. मैं शाम को आप के पास आता हूं.’

निम्मी अब निश्चिंत थी कि उसे मदद मिल जाएगी और वह धनी सेठ की रिपोर्ट लिखा सकेगी.

शाम को देवेंद्र सिंह उस के पास आया. निम्मी ने सारी बात बताई और मदद मांगी.

‘‘तुम घबराओ मत, मैं तुम्हारी पूरी मदद करूंगा,’’ देवेंद्र सिंह ने कहा.

चाय पी कर जब वह जाने लगा, तो अचानक तेज आंधी और बारिश होने लगी. अब तो देवेंद्र को वहीं रुकना पड़ा.

छत पर सूख रहे कपड़े उतारने के लिए निम्मी भागी, तो उस की साड़ी ही उड़ने लगी.
देवेंद्र सिंह ने उस से कहा, ‘‘मैं ले आता हूं कपड़े. आप बैठ जाइए.’’

बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी, इधर देवेंद्र सिंह अपने पर काबू नहीं कर पाया और जो उस की शिकायत सुनने आया था, उसी निम्मी को दबोच बैठा और एक लाचार को अपनी जिस्म की भूख मिटाने को मसलता रहा.

उस के जाने के बाद निम्मी मर जाना चाहती थी, पर जहर भी कहां से लाए इस तालाबंदी में.

थोड़ी देर में निम्मी को याद आया कि बीती सुबह एक ट्रेन यहां से गुजरी थी और उस ने सुना था कि श्रमिक ट्रेन इन दिनों चल रही है. उसे अब यही एक रास्ता दिखा.

निम्मी ने किसी तरह वह रात काटी और तड़के उठ कर घर से चल दी, पास ही पटरियों की ओर.
पौ फटने का समय था और निम्मी बदहवास जा रही थी. सामने से आते पुजारी ने उसे देख लिया. निम्मी पटरी पर लेट गई और ट्रेन की आवाज सुनाई दी. पुजारी ने भाग कर उसे पटरी से खींच लिया और सम झाबु झा कर घर ले आया. उस ने निम्मी की मजबूरी और अकेलेपन का फायदा उठाया और दबोच लिया.

निम्मी कुछ समझ पाती. इस से पहले ही उसे लूट लिया गया था. तालाबंदी खत्म होने का आदेश भी जारी हो गया. अब अमर के आने की भी उम्मीद होने लगी.

इधर निम्मी अमर की राह देख रही थी, उधर निम्मी के दीवाने दुखी हो रहे थे. निम्मी की मजबूरी का खूब फायदा उठा चुके ये लोग अभी संतुष्ट नहीं हुए थे. अनूप तो सोचने लगा कि अमर घर आता ही नहीं तो अच्छा था, क्योंकि उसे निम्मी के शरीर की मादक खुशबू से अभी तक मन नहीं भरा था. उस के साथ बिताया हर पल उसे याद आ रहा था.

एक शाम जब निम्मी चीनी लेने घर से बाहर निकली, तो वह जबरन उस के साथ अंदर आ गया. निम्मी ने उस से घर से बाहर जाने को कहा, तो उस ने मना कर दिया.

निम्मी मदद के लिए चिल्लाने लगी, तो उस ने उस का मुंह बंद कर दरवाजे की अंदर से कुंडी लगा दी.

निम्मी रोती रही, पर उस की मदद को भला कौन आता. पुलिस पर भरोसा भी कैसे करे. अनूप उसे अपनी हवस की आग में जला रहा था और वह रोए जा रही थी.

तभी वहां से कश्यप मास्टर गुजर रहे थे, तो उन्होंने उस की चीख सुनी तो फौरन घर की ओर मुड़े.

‘क्या हुआ बेटी… क्यों चीख रही हो. दरवाजा खोलो बेटी,’ बेटी सुनते ही निम्मी को न जाने कैसी ताकत आ गई और उस ने अनूप के बालों को खींच कर उस के अंग पर वार कर दिया.

अनूप दर्द से चीखने लगा और मौका पा कर निम्मी ने दरवाजा खोल दिया.

सामने कश्यप मास्टर खड़े थे. उन्होंने अपना अंगोछा निम्मी को ओढ़ा दिया. इस बीच अनूप भाग गया.

‘‘रो मत बेटी,’’ मास्टर साहब उसे दिलासा दे रहे थे. निम्मी रोतेरोते मास्टर साहब की गोद में ही सो गई.

मास्टर साहब ने अपनी बेटी को बुला कर निम्मी की देखभाल करने को कहा और चले गए.

अगले दिन अमर घर आ गया, तो वह बहुत खुश थी. अमर ने देखा कि गेहूं गोदाम में भरे हुए हैं, तो उस ने पूछा, ‘‘निम्मी, ये गेहूं किस ने काटे?’’

निम्मी ने उत्तर देते हुए कहा, ‘‘पुजारी और धनी सेठ ने.’’

अमर सम झ रहा था कि निम्मी कुछ कहने की कोशिश कर रही है, पर कुछ कह नहीं पा रही.

कुछ दिन बीते ही थे कि अमर की तबीयत खराब हो गई. उसे लोगों की मदद से अस्पताल ले जाया गया, जहां उस के टैस्ट चल रहे थे…

इधर निम्मी भी एक रोज चक्कर खा कर गिर पड़ी. पड़ोस की सुधा उसे अस्पताल ले गई. डाक्टर ने तुरंत उसे दवा दे कर कहा कि घबराने की बात नहीं है… कुछ कमजोरी है.

उधर, अमर के टैस्ट की रिपोर्ट आ चुकी थी. उसे डाक्टर ने एचआईवी पौजिटिव की पुष्टि की, तो उस के पैरों के तले से जमीन ही निकल गई. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया. वह सोचसोच कर परेशान था.

वह जैसेतैसे घर आया, तो निम्मी की तबीयत और ज्यादा खराब हो रही थी. उस की शुगर भी बढ़ रही थी.

अमर ने उसे तुरंत दवा दी, तो थोड़ा आराम हुआ. इस तरह दिन बीत रहे थे. अमर निम्मी को कैसे बताए, यह सोच रहा था. उधर निम्मी परेशान थी कि कैसे बताए कि कैसे उस के जिस्म के टुकड़ेटुकड़े हुए.

अमर ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘निम्मी, तुम मु झ पर भरोसा करती हो न?’’

‘‘यह पूछने की जरूरत है अमर?’’

‘‘तो सुनो… मेरी एचआईवी पौजिटिव की रिपोर्ट आई है,’’ अमर ने एक ही सांस में कह दिया, ‘‘पर, यकीन मानो कि मेरा किसी से कोई संबंध नहीं है. मु झे याद आ रहा है, जब पिछली बार मैं शहर काम से गया था, तो एक सैलून में मैं ने अपनी दाढ़ी बनवाई थी, क्योंकि मु झे मीटिंग के लिए देर हो रही थी, इसलिए मैं ने ही नाई को जल्दी शेव करने को कहा था… शायद उस ने ब्लेड बदला नहीं था,’’ गहरी सांस लेते हुए अमर ने कहा.

निम्मी चुप थी, बस आंखों से आंसू बहाए जा रही थी. कुछ देर बाद अचानक उस के चेहरे पर एक जीत की जैसी मुसकान दौड़ गई.

अमर अपनी बीमारी के चलते ही अधमरा हुआ जा रहा था और निम्मी मुसकरा रही थी.

निम्मी बोली, ‘‘अभी चलो, मु झे भी यह टैस्ट करवाना है.’’

‘‘कल बुलाया है तुम को डाक्टर ने,’’ अमर ने कहा. दोनों के लिए पूरी रात काटनी मुश्किल हो रही थी. निम्मी ने अमर को सब बता दिया था. दोनों बस रोए जा रहे थे.

अगले दिन निम्मी का भी टैस्ट किया गया, तो वह भी एचआईवी पौजिटिव निकली.

निम्मी दुखी होने के बजाय खुश थी. पर दोनों के लिए जीना आसान न था. दोनों अपनी मजबूरियों पर रो रहे थे. जैसेतैसे संभलते हुए दोनों घर आए और एकदूसरे को दिलासा दे ही रहे थे कि अनूप, धनी सेठ, पुजारी सब निम्मी के घर आए और अमर का हालचाल पूछने लगे. इन सब को निम्मी ने ही फोन कर के बुलाया था.

पहले तो अमर को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर जैसेतैसे संभल कर उस ने सब को निम्मी का साथ देने के लिए धन्यवाद दिया और निम्मी से चाय बनाने को कहा.

अमर और निम्मी को गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर दोनों ने खुद को संभाल लिया.

‘‘आप लोगों का मैं जितना भी धन्यवाद करूं कम ही होगा,’’ अमर ने कहा, तो धनी सेठ ने कहा, ‘‘इस में धन्यवाद कैसा अमर साहब… हम अगर एकदूसरे के काम नहीं आएंगे तो और कौन आएगा.’’

‘‘जी, कह तो आप सही रहे हैं… पर आप तो हमारे दुखसुख के सचमुच भागीदार हैं और इतना ही नहीं हमारी बीमारी के भी…’’ एक कुटिल हंसी के साथ अमर ने कहा.

‘‘हम कुछ सम झे नहीं… बीमारी के भागीदार कैसे?’’ पुजारी ने चौंकते हुए पूछा. वह घबरा गया था.

अमर ने राज खोला, तो सब के सब सकपका कर रह गए और एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

उधर निम्मी और अमर चैन की सांस ले रहे थे, एकदूसरे को हिम्मत दे रहे थे और कुदरत के इस न्यायअन्याय को सम झने की कोशिश कर रहे थे.

लेखिका – आरती लोहनी

Family Story : दीदी मुझे माफ कर दो

Family Story : सुबह से यह चौथा फोन था. फोन उठाने का बिलकुल मन नहीं था. पर मां सम झने को तैयार ही नहीं थी. फोन की घंटियां उस के मनमस्तिष्क पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं. आखिरकार, नेहा ने फोन उठा ही लिया.

‘‘हैलो, हां मां, बोलो.’’

‘‘बोलना क्या है, घर में सभी तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे हैं. तुम किसी की बात का जवाब क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘मां, इतना आसान नहीं है यह सब. मुझे सोचने का मौका तो दो,’’ नेहा ने बु झे स्वर में कहा.

‘‘सोचना क्या है इस में. तुम्हारी बहन की अंतिम इच्छा थी. क्या बिलकुल भी दया नहीं आती तुम्हें. उन बच्चों के मासूम चेहरों को तो देखो.’’

‘‘मां, मैं सम झती हूं पर…’’

‘‘पर क्या? वह सिर्फ तुम्हारी बहन नहीं थी. मां की तरह पाला था उस ने तुम्हें. आज जब उस के बच्चों को मां की जरूरत है तो तुम्हें सोचने का समय चाहिए?’’

‘‘मां, इतनी जल्दबाजी में इस तरह के फैसले नहीं लिए जाते.’’

‘‘हम ने भी दुनिया देखी है. ठीक है, अगर तुम्हें उन बच्चों की छीछालेदर होना मंजूर है तो फिर क्या कहा जा सकता है.’’

‘‘यह क्या बात हुई. तुम इस तरह की बातें क्यों कर रही हो?’’ नेहा बोली थी.

मां का गला भर आया, ‘‘तुम अभी मां नहीं बनी हो न. जब मां बनोगी तब औलाद का दर्द सम झोगी. फूल से बच्चे मां के बिना कलप रहे हैं और तुम हो कि सब दरवाजे बंद कर के बैठी हो.’’

नेहा का मन खराब हो चुका था. क्या इतना आसान था यह सब. 4 भाईबहनों में सब से छोटी थी वह. सब से छोटी. सब से लाड़ली. पर जिंदगी उसे इतने कड़वे और कठिन मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी, उस ने सोचा न था. दीदी की शादी के वक्त महज 17 साल की नाजुक उम्र थी उस की. पहली बार साड़ी पहनी थी. कितना उत्साह था. जीजाजी का जूता चुराऊंगी. 10,000 से एक रुपए कम न लूंगी. उन्हें खूब तंग करूंगी.

जीजाजी उस की हर शरारत पर मुसकरा कर रह जाते. वे सिर्फ उस की बहन के पति ही नहीं, नेहा की हर बात के हमराज, सम झदार और सुल झे हुए व्यक्ति थे. नेहा बहुत सारी ऐसी बातें, जो दीदी को नहीं बताती थी, जीजाजी से डिस्कस करती थी. जीजाजी के प्रोत्साहित करने पर ही उस ने सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी शुरू की थी. नहीं तो मां के आगे तो वह भी दीदी की तरह मजबूर हो जाती और आज वह भी दीदी की तरह किसी की घरगृहस्थी देख रही होती. दीदी पढ़ने में बहुत अच्छी थी. पर बाबा की अंतिम इच्छा का मान रखने के लिए दीदी बलि का बकरा बन कर रह गई और अचारमुरब्बे व नएनए पकवानों के अलावा आगे कुछ भी न सोच सकी.

याद है उसे आज भी वह दिन, जब दीदी की कैंसर की रिपोर्ट आई थी. कैंसर थर्ड स्टेज पर था. घर में कुहराम मच गया था. मां का रोरो कर बुरा हाल था और दीदी दीवार का कोना पकड़े बुत बनी पड़ी थी. नेहा को सम झ में नहीं आ रहा था किसकिस को संभाले और क्या सम झाए. सम झते सभी थे, पर  झूठी दिलासा एकदूसरे को देते रहे.

प्रवीण जीजाजी का सुदर्शन चेहरा अचानक से बूढ़ा लगने लगा था. अपनी जीवनसंगिनी की दुर्दशा उन से बरदाश्त नहीं हो रही थी. कितने सुखी थे वे. न जाने किस की नजर लग गई थी उस खुशहाल परिवार पर. जीजाजी ने दीदी को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की. मुंबई, मद्रास कहांकहां नहीं दौड़े. किसकिस के आगे हाथ नहीं जोड़े. पर सब बेकार गया. जीजाजी की आलीशान कोठी, रुपयापैसा सब धरा रह गया और दीदी हमें रोताबिलखता छोड़ कर चली गई. इन दिनों में उस ने क्याक्या देखा और महसूस किया, वही जानती थी.

घर मेहमानों और रिश्तेदारों से भरा हुआ था. नन्ही परी मां के लिए बिलखतेबिलखते नेहा की गोदी में ही सो गई थी. दीदी की चचिया सास कनखियों से नेहा को बारबार घूर  रही थीं.

‘‘बेटा, तुम कौन हो? बहुत देखादेखा चेहरा लग रहा है.’’

नेहा ने परी की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘मैं इस की मौसी हूं.’’

चाचीजी के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुसकान आ गई. उन्होंने सोती हुई परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से कहा, ‘‘हां भई, परी के लिए तुम मा-सी हो. अब तो तुम ही इस की…’’

नेहा गुस्से से तिलमिला गई. चाची के शब्द गले मे अटक कर रह गए. वह परी को ले कर कमरे में चली गई. यह पहली बार नहीं था. इन 13 दिनों में हर आनेजाने वालों की निगाहों में उस ने यही सवाल तैरते देखा था. कितना रोई थी वह उस दिन.

‘‘मां, दीदी को गए चार दिन नहीं हुए और लोग जीजाजी की दूसरी शादी के बारे में भी सोचने लगे,’’ यह कह कर वह मां की गोद में सिर कर रख कर सिसकने लगी.

‘‘यह दुनिया ऐसी ही है. जानती हो आज एक महिला आई थी, शायद तुम्हारे जीजाजी के जानने वालों में थी. मु झ से ही तुम्हारे जीजाजी के लिए अपनी तलाकशुदा बेटी के रिश्ते की बात कर रही थी.’’

नेहा आश्चर्य से मां को देखती रह गई.

मां कहती रहीं, ‘‘नेहा, दुनिया ऐसी ही है. एक अच्छा जीवन जीने के लिए आलीशान मकान, नौकरचाकर और रुपयापैसा किस को नहीं चाहिए.’’

नेहा का मन खिन्न हो गया. दीदी के सपनों का महल यों आहिस्ताआहिस्ता ढह रहा था.

धीरेधीरे सारे मेहमान चले गए. नेहा सामान पैक कर रही थी. तभी परी और गोलू ने आ कर चौंका दिया.

‘‘मौसी, आप जा रही हैं?’’

दीदी के जाने के बाद दोनों बहुत अकेले पड़ गए थे.

‘‘हां बेटा, मेरी छुट्टियां खत्म हो गई हैं. औफिस भी जाना है न. तुम उदास क्यों हो. हम रोज वीडियो कौल से बात करेंगे. अपना होमवर्क रोज करना. परी कल से तुम अपनी कत्थक की क्लास जौइन करोगी और गोलू, तुम भी अपनी कराटे की क्लास जाना शुरू करोगे.’’

बच्चे चुपचाप सुनते रहे. दीदी के बच्चे बहुत सम झदार और आत्मनिर्भर थे. पर फिर भी, बच्चे ही थे. बच्चे नेहा को छोड़ कर चले गए. तभी मां कमरे में आ गईं.

‘‘नेहा, सामान पैक हो गया?’’

‘‘हां मां, औफिस से बारबार फोन आ रहा है. आप लोग कब निकल रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा और भैया कल सुबह निकलेंगे. मैं…मैं अभी कुछ दिन यहीं रहूंगी. बच्चे एकदम अकेले पड़ गए हैं.’’

‘‘हां…’’ नेहा सिर  झुकाए मां की बात सुनती रही.

‘‘नेहा, तु झ से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हां, बोलो मां, सुन रही हूं.’’

‘‘यहां मेरे पास बैठो.’’

‘‘क्या हुआ मां, ऐसी भी क्या बात है?’’

मां ने नेहा का हाथ अपने हाथों में ले लिया, ‘‘नेहा, तुम से कुछ भी नहीं छिपा. तुम्हारी दीदी के जाने के बाद हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. तुम्हारी दीदी ने मरने से पहले मु झ से एक वादा लिया था. वह चाहती थी कि उस के मरने के बाद तुम उस के बच्चों की जिम्मेदारी संभालो. तुम… तुम प्रवीणजी से शादी कर लो.’’

नेहा छटपटा कर रह गई, ‘‘मां, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो. जीजाजी के साथ मेरी… छी… मां तुम भी न,’’ गुस्से और वितृष्णा से नेहा का चेहरा लाल हो गया.

‘‘नेहा, सम झने की कोशिश करो. आखिर तुम्हारी भी शादी करनी ही है. देखाभाला परिवार है. बच्चों को मां मिल जाएगी. वैसे भी एक लड़की को क्या चाहिए. आलीशान घर, नौकरचाकर, रुपयापैसा. तुम्हारे पापा की भी यही इच्छा है.’’

नेहा आश्चर्य से मां को देखती रह गई, ‘‘तुम ने जीजाजी से भी एक बार पूछा है?’’

‘‘पूछना क्या है उन के मातापिता तो हैं नहीं. चाचाचाची से बात हो गई है. उन्हें भी यह रिश्ता मंजूर है.’’

‘‘रिश्ता..?’’ नेहा को सारा घटनाक्रम सम झ में आ गया.

‘‘मां, मैं तुम से इस बात की उम्मीद नहीं कर रही थी. तुम भी छि… दीदी की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई और तुम?’’

मां का चेहरा गंभीर हो गया, ‘‘हो सकता है आज तुम्हें मेरी बातें अच्छी न लगें पर तुम्हारी दीदी के जाने के बाद प्रवीणजी और उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी मु झ पर है. तुम सोचविचार कर जल्द मु झे जवाब दे दो. कहते हैं मरने वाले की अंतिम इच्छा न पूरी की जाए तो उसे कभी शांति नहीं मिलती.’’

अंतिम वाक्य कहते वक्त मां ने नेहा को अजीब सी निगाहों से देखा. पता नहीं उन निगाहों में ऐसा क्या था. वह उन आंखों में तैर रहे हजारों सवाल के तीर  झेल नहीं पाई और मुंह घुमा लिया.

एक हफ्ते में मां ने पचासों बार फोन कर दिया था. हर बार एक ही सवाल और नेहा एक ही जवाब देती, ‘मां, मु झे सोचने का वक्त दो.’ नेहा हर बार एक ही बात पर आ कर अटक जाती. सब को मरी हुई दीदी की अंतिम इच्छा की पड़ी है. पर किसी ने एक बार, हां सिर्फ एक बार, उस से पूछा कि उस की इच्छा क्या है. मरने वाला तो मर कर चला गया. पर लोग उसे जिंदा लाश बनाने पर क्यों तुले हैं.

शनिवार की रात थी. इन दिनों वह बहुत व्यस्त रही. शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी. सप्ताहभर की दौड़भाग से शरीर थक कर चूर हो गया था. हाथ में कौफी का मग लिए वह छत पर आ गई. कितने दिनों बाद वह छत पर सुकून के चंद पलों की तलाश में आ कर बैठी थी. आसमान में चांद, बादलों से लुकाछिपी कर रहा था. वह सोचने लगी, बादलों और तारों के बीच रह कर भी चांद कितना अकेला है. वह भी तो आज कितनी अकेली थी. कोई उसे सम झने को तैयार नहीं. किसी ने एक बार भी उस के बारे में नहीं सोचा. सब अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं और वह…? वह आखिर क्या चाहती है. नेहा सोचती रही. उस की आंखों के सामने जीजाजी का थका हुआ चेहरा, परी और गोलू का मासूम चेहरा, तो कभी मां का गंभीर चेहरा उभर कर आ जाता. नेहा ने आंखें मूंद लीं.

आखिर एक लड़की को क्या चाहिए अपनी जिंदगी से. एक खुशहाल परिवार, रुपयापैसा, घर बस. बस, क्या यही चाहिए था उसे. आज अगर वह मां की बात मान कर शादी कर ले तो इस रिश्ते में उसे क्या मिलेगा. दीदी की परछाईं होने का दर्जा? दूसरी पत्नी, दूसरी मां? नेहा मन ही मन मुसकराने लगी. दूसरी मां नहीं, सौतेली मां. लोगों के ताने, समाज का हर कदम पर तुलनात्मक अध्ययन. बड़ी बहन ज्यादा सुंदर थी. दूसरी तो ऐसी ही आएगी. बच्चे पैदा करने की क्या जरूरत है, पहली से 2 पहले हैं ही. जिंदगी गुजर जाएगी एक अच्छी मां बनने और सिद्ध करने में. उस के बाद भी इस की गारंटी नहीं कि वह यह सिद्ध कर भी पाएगी या नहीं. शायद समाज की नजर में स्वयं का मातृत्व सुख उठाना भी अपराध ही होगा.

प्रवीण की निगाहें हर चीज, हर रंग, हर त्योहार, हर खुशबू, हर स्वाद में दीदी को ही ढूढेंगीं. तिनकातिनका जोड़ कर अरमानों से सजाया हुए दीदी के उस घर में एक फूलदान सजाने में भी मेरे हाथ कांपेंगे. हर पार्टी, हर उत्सव में लोगों की सवालिया निगाहें मु झे तारतार करेंगी, ‘देखने में तो ठीक लगती है, फिर ऐसी क्या गरज पड़ी थी 2 बच्चों के बाप से शादी करने की. अकेली आई है या बच्चे भी.’

घूमने से पहले पचास बार सोचना होगा कि न जाने लोग क्या कहें, ‘घरगृहस्थी संभालनी चाहिए. पर यह तो हनीमून के मूड में है. शादी में इतनी धूम और रिश्तेदारों की क्या जरूरत. चुपचाप कोर्ट मैरिज से कर लेती. शर्म नहीं आती. इतने बड़ेबड़े बच्चों के सामने इतना तैयार हो कर खड़ी हो जाती है.’ नेहा ने घबरा कर आंखें खोल दीं और आसमान में तारों के बीच दीदी को ढूंढ़ने लगी, ‘दीदी, मु झे माफ कर देना, शायद आज मैं तुम्हें और सब को स्वार्थी लगूं, पर मैं इतनी मजबूत नहीं कि जीवनभर लोगों के सवालों का जवाब दे सकूं.

‘पर मैं आज तुम से यह वादा करती हूं कि एक मौसी के तौर पर हमेशा तुम्हारे बच्चों के साथ खड़ी हूं.’ हफ्तों से घुमड़ते सवालों का मानो उसे जवाब मिल गया था. नेहा अपनी मां को फोन करने के लिए छत से नीचे उतर गई.

Short Story : जी शुक्रिया

Short Story : रंजीता यों तो 30 साल की होने वाली थी, पर आज भी किसी हूर से कम नहीं लगती थी. खूबसूरत चेहरा, तीखे नैननक्श, गोलमटोल आंखें, पतलेपतले होंठ, सुराही सी गरदन, गठीला बदन और ऊपर से खनकती आवाज उस के हुस्न में चार चांद लगा देती थी. वह खुद को सजानेसंवारने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी.

रामेसर ने जब रंजीता को पहली बार सुहागरात पर देखा था, तो उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. जब 22 साल की उम्र में रंजीता बहू बन कर ससुराल आई थी, तब टोेले क्या गांवभर में उस की खूबसूरती की चर्चा हुई थी.

पासपड़ोस की बहुत सी लड़कियां हर रोज अपनी नई भाभी को देखने पहुंच जाती थीं. वे एकटक नई भाभी को निहारती रहती थीं. जब उस की खूबसूरती को ले कर तरहतरह के सवालजवाब करतीं, तो वह हंस कर बोलती, ‘‘धत तेरे की, यह भी कोई बात हुई…’’

रामेसर ठहरा एक देहाती लड़का. बहुत ज्यादा पढ़ालिखा तो था नहीं, पर बिजली मेकैनिक का काम अच्छा जानता था. उसी के चलते तकरीबन 5,000 रुपए महीना वह कमा लेता था. काम करने वह पास के एक कसबे में जाता था. शाम ढले दालसब्जी और गृहस्थी का सामान ले कर लौटता था.

रंजीता सजसंवर कर उस का इंतजार कर रही होती थी. अगर कभी रामेसर को देर हो जाती तो रंजीता उसे उलाहना देते हुए कहती, ‘‘देखोजी, हम पूरे दिन आप के इंतजार में खटते रहते हैं, पर आप को एक बार भी हमारी याद तक नहीं आती. ज्यादा सताओगे तो हम अपने मायके चले जाएंगे.’’

यह सुन कर रामेसर उस की जीहुजूरी करने लग जाता था. रंजीता मान भी जाती थी. गरमागरम जलेबी उस की कमजोरी थी. रामेसर घर वालों से छिपतेछिपाते थोड़ी जलेबी अकसर ले आता था.

वक्त बुलेट ट्रेन से भी तेज रफ्तार के साथ आगे बढ़ता गया. 3 साल में घर में 2 बच्चे भी हो गए. फिर शुरुआत हुई उन की पढ़ाईलिखाई की.

गांव में बहुत अच्छे स्कूल तो नहीं थे इसलिए रंजीता ने रामेसर को कसबे में जा कर रहने के लिए राजी कर लिया.

कसबे में आ कर रामेसर पूरी तरह काम में रम गया. अब उसे पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही थी. किराए का घर, मोलतोल का सामान, बच्चों की फीस, ऊपर से गांव में मांबाप के लिए भी कुछ न कुछ भेजने की चिंता हमेशा रामेसर को खाए रहती थी. वह ओवरटाइम भी करने लगा था.

जिंदगी की भागदौड़ में रामेसर हांफने लगा था. अब उस में पहले जैसा जोश व ताजगी नहीं बची थी. वह खापी कर रात में जल्दी सो जाता था. उस के पास रंजीता की तारीफ करने के लिए न तो शब्द बचे थे और न ही समय बचा था.

उन्हीं दिनों रामेसर का दूर का रिश्ते का एक भाई रघु काम की तलाश में उस के पास आया. उस ने सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर ली. रामेसर के पास वाला ही कमरा किराए पर ले लिया.

रघु की ड्यूटी ज्यादातर रात में ही होती थी. वह आधे दिन आराम करता और बाकी दिन में अपने छोटेमोटे काम निबटा लेता. रंजीता से उस की पटरी खूब बैठती थी. खाली समय में वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

रघु रंजीता की तारीफ के पुल बांधता तो वह मुंह में आंचल भर कर हंस देती थी. रघु उस की मस्त हंसी में कहीं खो जाता था.

रघु की अभी शादी नहीं हुई थी. वह भाभी के चुलबुलेपन, रूपरंग और मदमस्त अदाओं का दीवाना हो चला था. रंजीता भी उसे छेड़ने का कोई मौका जाने नहीं देती थी.

एक दिन रंजीता रघु से बोली थी, ‘‘गांव कब जाओगे?’’

‘‘क्यों, आप के लिए कुछ लाना है क्या भाभी?’’

‘‘हां, लाना तो है… एक देवरानी.’’

रघु इस पर कुछ झेंप सा गया था.

उधर बच्चों के स्कूल में छुट्टियां हो गई थीं. रामेसर का साला बंटू शहर घूमने आया था. वापस जाते समय वह अपने साथ दोनों बच्चों को भी ले गया. नानी के घर के क्या कहने. जाना तो रंजीता भी चाहती थी मगर रामेसर के खयाल ने उसे रोक दिया था. उस के खानेपीने, कपड़े धोने की चिंता बनी हुई थी.

रामेसर सुबह 8 बजे अपना खाना ले कर घर से निकल जाता था और देर शाम 7-8 बजे तक ही घर लौटता था.

रघु की छुट्टी बुधवार को होती थी. एक दिन वह आराम से दोपहर के 1 बजे तक सो कर उठा. चाय बना कर पी.

बरतनों की खटपट की आवाज सुन कर रंजीता ने पुकारा, ‘‘अरे रघुजी, थोड़ा आना तो.’’

‘‘आया भाभी,’’ कह कर रघु दौड़ादौड़ा रंजीता के कमरे में गया. वह औंधे मुंह बिस्तर पर लेटी हुई थी.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं, थोड़ा सिरदर्द है. दुकान से दवा ला दो.’’

रघु पास की कैमिस्ट की दुकान से सिरदर्द की गोली ले आया.

रघु ने रंजीता को गोली थमा दी और पानी का गिलास भी भर कर ले आया.

‘‘रघु, तुम कितना ध्यान रखते हो हमारा,’’ रंजीता ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा.

‘‘भाभी, आप कहो तो थोड़ा सिर भी दबा दूं,’’ रघु ने अपनेपन में कहा.

रंजीता ने ‘हां’ में गरदन हिला दी. रघु उस के सिरहाने एक कुरसी पर बैठ गया. उस की जादुई उंगलियां रंजीता के माथे पर थिरकने लगीं. दवा के असर और रघु की सेवा से रंजीता के माथे का दर्द तो बंद हो गया, मगर बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई.

अब एक अजब सा खिंचाव रंजीता के मन में आ गया था. वह बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पा रही थी. उस ने बंद आंखों से ही कहा, ‘‘ठीक है रघु, तुम्हारा शुक्रिया.’’

‘‘अरे, शुक्रिया कैसा भाभी? अपने ही तो काम आएंगे. जब से यहां आया हूं, मेरे सिर में आज तक किसी ने मालिश नहीं की है. आप कर सकती हो क्या?’’

रंजीता सोच में पड़ गई कि आखिर आज रघु चाहता क्या है? बड़ी मुश्किल से वह खुद को रोक पाई थी. फिर आगपानी का मिलन. क्या करे, मना भी नहीं कर सकती. उस ने खुद को वक्त के हवाले कर दिया.

रंजीता की पतलीलंबी उंगलियां रघु के सिर में हलचल मचा रही थीं. वह धीरेधीरे सुधबुध खो रहा था. उस ने रंजीता की गोलमटोल हथेली को पकड़ कर चूम लिया.

रंजीता ने अपना हाथ खींचते हुए कहा, ‘‘यह क्या है रघु.’’

‘‘यह मेरा शुक्रिया है, भाभी.’’

रंजीता ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘बस, इतना सा शुक्रिया.’’

रघु ने रंजीता को अपने सामने की ओर खींच लिया. वह किसी धधकते ज्वालामुखी सी लग रही थी. आंखों के लाललाल डोरे अंदर की हलचल को साफ बयां कर रहे थे.

रघु ने अपने तपते होंठ रंजीता के गुलाबी होंठों पर रख दिए. इस के बाद हुई प्यार की बरसात में वे दोनों जम कर भीगे. जब एकदूसरे से अलग हुए तो दोनों ने मुसकराते हुए कहा, ‘जी शुक्रिया.’

Short Story : एक कश्मीरी

Short Story : जिन हिंदू और मुसलमानों ने कभी एकदूसरे के त्योहारों व सुखदुख को एकसाथ जिया था, आज उन्हें ही जेहादी व शरणार्थी जैसे नामों से पुकारा जाने लगा है.

ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने का आदेश दे कर मैं तेजी से कानफ्रेंस हाल की तरफ बढ़ गया. सभी अधिकारी आ चुके थे और मीटिंग कुछ ही देर में शुरू होने वाली थी. मैं भी अपनी नेम प्लेट लगी जगह को देख कर कुरसी में धंस गया.

चीफ के हाल में प्रवेश करते ही हम सभी सावधानी से खड़े हो गए. तभी किसी के मोबाइल की घंटी घनघना उठी. चीफ की तेज आवाज ‘प्लीज, स्विच आफ योर मोबाइल्स’ सुनाई दी. मीटिंग शुरू हो चुकी थी. चपरासी सभी को गरम चाय सर्व कर रहा था.

चीफ के दाहिनी ओर एक लंबे व गोरेचिट्टे अधिकारी बैठे हुए थे. यह हमारे रीजन के मुखिया थे. ऊपर से जितने कड़क अंदर से उतने ही मुलायम. एक योग्य अधिकारी के साथसाथ लेखक भी. विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में उन की कहानियां व कविताएं छपती थीं. ज्यादातर वह उर्दू में ही लिखा करते थे इसलिए उर्दू पढ़ने वालों में उन का नाम काफी जानापहचाना था. मीटिंग में जब कभी चीफ किसी बात पर नाराज हो जाया करते तो वह अपनी विनोदप्रियता से स्थिति को संभाल लेते.

मीटिंग का प्रथम दौर खत्म होते ही मैं उन के साथ हो लिया. चूंकि मेरी नियुक्ति अभी नईनई थी, अत: उन के अनुभवों से मुझे काफी कुछ सीखने को मिलता. चूंकि वह काफी वरिष्ठ थे, अत: हर चीज उन से पूछने का साहस भी नहीं था. फिर भी उन के बारे में काफी कुछ सुनता रहता था. मसलन, वह बहुत अकेला रहना पसंद करते थे, इसी कारण उन की पत्नी उन से दूर कहीं विदेश में रहती हैं और वहीं एक स्कूल में बतौर टीचर पढ़ाती हैं. एक लंबा समय उन्होंने सेना में प्रतिनियुक्ति पर बिताया व अधिकतर दुर्गम जगहों पर उन की तैनाती रही थी. आज तक उन्होंने किसी भी जगह अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया था. यहां से भी उन के ट्रांसफर आर्डर आ चुके थे.

बात शुरू करने के उद्देश्य से मैं ने पूछा, ‘‘सर, आप नई जगह ज्वाइन कर रहे हैं?’’

वह मुसकराते हुए बोले, ‘‘देखो, लगता है जाना ही पड़ेगा. वैसे भी किसी जगह मैं लंबे समय तक नहीं टिक पाया हूं.’’

इस बीच चपरासी मेज पर खाना लगा चुका था. धीरेधीरे हम ने खाना शुरू किया. खाने के दौरान मैं कभीकभी उन्हें ध्यान से देखता और सोचता, इस व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप क्या है? सामने जितना खुशमिजाज, फोन पर उतनी ही कड़क आवाज. वह मूलत: कश्मीरी ब्राह्मण थे. अचानक बातों के सिलसिले में वह मुझे अपने बीते दिनों के बारे में बताने लगे तो लगा जैसे समय का पहिया अचानक मुड़ कर पीछे चला गया हो.

‘‘देखो, आज भी मुझे अपने कश्मीरी होने पर गर्व है. अगर कश्मीर की धरती को स्वर्ग कहा गया तो उस में सचाई भी है. अतीत में झांक कर देखो तो न हिंदूमुसलमान का भेद, न आतंकवाद की छाया. सभी एकदूसरे के त्योहार व सुखदुख में शरीक होते थे और जातिधर्म से परे एक परिवार की तरह रहते थे.’’

उन्होेंने अपने बचपन का एक वाकया सुनाया कि एक बार मेरी छोटी बहन दुपट्टे को गरदन में लपेटे घूम रही थी कि तभी एक बुजुर्ग मुसलमान की निगाह उस पर पड़ी. उन्होंने प्यार से उसे अपने पास बुलाया और पूछा कि बेटी, तुम किस के घर की हो? परिचय मिलने पर उस बुजुर्ग ने समझाया कि तुम शरीफ ब्राह्मण खानदान की लड़की हो और इस तरह दुपट्टे को गले में लपेट कर चलना अच्छा नहीं लगता. फिर उसे दुपट्टा ओढ़ने का तरीका बताते हुए उन्होंने घर जाने को कहा व बोले, ‘तुम भी मेरी ही बेटी हो, तुम्हारी इज्जत भी हमारी इज्जत से जुड़ी है. हम भले ही दूसरे धर्म को मानते हैं पर नारी की इज्जत सभी की इज्जत से जुड़ी है.’

इतना बताने के बाद अचानक वह खामोश हो गए. एक पल रुक कर वह कहने लगे कि पता नहीं किन लोगों की नजर हमारे कश्मीर को लग गई कि देखते ही देखते उसे आतंकवाद का गढ़ बना दिया और हम अपने ही कश्मीर में बेगाने हो गए. हम ने तो कभी हिंदूमुसलमान के प्रति दोतरफरा व्यवहार नहीं पाला, फिर कहां से आया यह सब.

मैं उन की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था और उन की आवाज के दर्द को समझने की कोशिश भी कर रहा था. वह बता रहे थे कि सिविल सर्विस में आने से पहले वह एक दैनिक पत्र के लिए काम करते थे. 1980 के दौर में जब भारत पर सोवियत संघ की सरपरस्ती का आरोप लगता था तो अखबारों में बड़ेबड़े लेख छपते थे. मैं उन को ध्यान से पढ़ता था, और तब मेरे अंदर भी सोवियत संघ के प्रति एक विशेष अनुराग पैदा होता था. पर वह दिन भी आया जब सोवियत संघ का बिखराव हुआ और उसी दौर में कश्मीर भी आतंक की बलि चढ़ गया. वह मुझे तब की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझाने की कोशिश करते और मैं अबोध शिशु की तरह उन का चेहरा देखता.

चपरासी आ कर जूठी प्लेटें उठा ले गया. फिर उस ने आइसक्रीम की बाबत हम से पूछा पर उसे उन्होंने 2 कड़क चाय लाने का आदेश दिया. तभी उन के मोबाइल पर मैसेज टोन बजी. उन्होंने वह मैसेज पढ़ा और मेरी तरफ नजर उठा कर बोले कि बेटे का मैसेज है.

अब वह अपने बेटे के बारे में मुझे बताने लगे, ‘‘पिछले दिनों उस ने एक नौकरी के लिए आवेदन किया था और उस के लिए जम कर मेहनत भी की थी, पर नतीजा निगेटिव रहा था. मैं उस पर काफी नाराज हुआ और हाथ भी छोड़ दिया. इस के बाद से ही वह नाराज हो कर अपनी मम्मी के पास विदेश चला गया,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘अच्छा ही किया उस ने, यहां पर तो कैट, एम्स जैसी परीक्षाओं के पेपर लीक हो कर बिक रहे हैं, फिर अच्छी नौकरी की क्या गारंटी? वहां विदेश में अब अच्छा पैसा कमाता है,’’ एक लंबी सांस छोड़ते हुए आगे बोले, ‘‘यू नो, यह भी एक तरह का मानसिक आतंकवाद ही है.’’

हमारी बातों का सिलसिला धीरेधीरे फिर कश्मीर की तरफ मुड़ गया. वह बताने लगे, ‘‘जब मेरी नियुक्ति कश्मीर में थी तो मैं जब भी अपने गांव पहुंचता, महल्ले की सारी औरतें, हिंदू हों या मुसलमान, मेरी कार को घेर कर चूमने की कोशिश करतीं. उन के लिए मेरी कार ही मेरे बड़े अधिकारी होने  की पहचान थी.

‘‘मैं अपने गांव का पहला व्यक्ति था जो इतने बड़े ओहदे तक पहुंचा था. जब भी मैं गांव जाता तो सभी बुजुर्ग, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, मेरा हालचाल पूछने आते और मेरे द्वारा पांव छूते ही वह मुझे अपनी बांहों में भर लेते थे और कहते, ‘बेटा, तू तो बड़ा अधिकारी बन गया है, अब तो दिल्ली में ही कोठी बनवाएगा.’ तब मैं उन से कहता, ‘नहीं, चाचा, मैं तो यहीं अपने पुश्तैनी मकान में रहूंगा.’’

अचानक उन की आंखों की कोर से 2 बूंद आंसू टपके और भर्राए गले से वह बोले, ‘‘मेरा तो सपना सपना ही रह गया. अब तो जाने कितने दिन हो गए मुझे कश्मीर गए. पिछले दिनों अखबार में पढ़ा था कि मेरे गांव में सेना व आतंक- वादियों के बीच गोलीबारी हुई है. आतंकवादी जिस घर में छिपे हुए थे वह मेरा ही पुश्तैनी मकान था.

‘‘पुरखों की बनाई हुई अमानत व मेरे सपनों का इतना बुरा अंजाम होगा, कभी सोचा भी नहीं था. अब तो किसी को बताने में भी डर लगता है कि मैं कश्मीरी हूं.’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछते हुए वह कह रहे थे, ‘‘पता नहीं, हमारे कश्मीर को किस की नजर लग गई? जबकि कश्मीर में आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी को शक की निगाह से नहीं देखता पर कुछ सिपाही लोगों के चलते आम कश्मीरी अपने ही घर में बेगाना बन गया. जिन हिंदू और मुसलमान भाइयों ने कभी एकदूसरे के त्योहारों व सुखदुख को एकसाथ जिया था, आज उन्हें ही जेहादी व शरणार्थी जैसे नामों से पुकारा जाने लगा है.’’

कुछ देर तक वह खमोश रहे फिर बोले, ‘‘अपने जीतेजी चाहूंगा कि कश्मीर एक दिन फिर पहले जैसा बने और मैं वहां पर एक छोटा सा घर बनवा कर रह सकूंगा पर पता नहीं, ऐसा हो कि नहीं?’’

दरवाजे पर खड़ा चपरासी बता रहा था कि चीफ मैडम मीटिंग के लिए बुला रही हैं. वह ‘अभी आया’ कह कर बाथरूम की ओर बढ़ गए. शायद अपने चेहरे की मासूम कश्मीरियत साफ कर एक अधिकारी का रौब चेहरे पर लाने के लिए गए थे.

लेखक-  कृष्ण कुमार यादव

Best Hindi Story : असली पहचान : राजेश की क्या थी असलीयत

Best Hindi Story : वह मेरी पड़ोसिन की बूआ का बेटा था. मेरे परिवार के लोग राजेश को टपोरी समझते थे पर उसी टपोरी ने वह कर दिखाया था जिस के बारे में न तो मैं ने कभी सोचा था न मेरे परिवार में किसी को उम्मीद थी.

आज जब राजेश का फोन आया कि नीलू मां बनने वाली है तो मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. मां और बाबूजी के साथ मेरे देवर भी तरहतरह के मनसूबे बनाने लगे और मैं सोचने लगी कि इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो जैसे दिखते हैं वैसे अंदर से होते नहीं और जो बाहर से भोलेभाले दिखते हैं स्वभाव से भी वैसे हों यह जरूरी नहीं.

नीलू मेरी सब से छोटी ननद है. मेरी आंखों के सामने उस की बचपन की तसवीर घूमने लगी और मेरा मन 15 साल पीछे की बातों को याद करने लगा.

मैं इस घर में बहू बन कर जब आई थी तब मेरे दोनों देवर व ननद छोटेछोटे थे. मेरे पति सब से बड़े थे. उन में व बाकी बहनभाइयों में उम्र का काफी फासला था. हमारी शादी के दूसरे दिन ही बूआ सास ने मजाक में कहा था, ‘बहू, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पति व अन्य बहनभाइयों में उम्र का इतना अंतर क्यों है? तुम्हारे पति के जन्म के बाद मेरी भाभी ने सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए…’ और इतना कह कर वह जोर का ठहाका मार का हंस पड़ी थीं.

नईनई भाभी पा कर मेरे छोटेछोटे देवर तो मेरे आगेपीछे चक्कर काटते और मेरा आंचल पकड़ कर घूमते रहते थे. पर मैं ने गौर किया कि मेरी सब से छोटी ननद नीलू जो लगभग 6-7 साल की थी, मेरे सामने आने से कतराती थी. यदि वह कभी हिम्मत कर के पास आती भी थी तो उस के भाई उसे झिड़क देते थे. यहां तक कि मांजी भी हमेशा उसे अपने कमरे में जाने को बोलतीं. नीलू मुझे सहमी सी नजर आती.

शादी के कुछ दिन बाद घर मेहमानों से खाली हो गया था. कोई काम नहीं था तो सोचा कमरे में पेंटिंग ही लगा दूं. मैं अपने कमरे में पेंटिंग लगा रही थी कि देखा, नीलू चुपचाप मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई है. मुझे इस तरह उस का चुपचाप आना अच्छा लगा.

‘आओ नीलू, तुम अपनी भाभी के पास नहीं बैठोगी? तुम मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं.’

मैं उस से प्यार से अभी पूछ ही रही थी कि मेरा बड़ा देवर संजय आ गया और नीलू की ओर देख कर बोला, ‘अरे, भाभी, यह क्या बातें करेगी…इतनी बड़ी हो गई पर इसे तो ठीक से बोलना तक नहीं आता.’

संजय ने बड़ी आसानी से यह बात कह दी. मैं ने देखा कि नीलू का खिला चेहरा बुझ सा गया. मैं ने सोचा कि इस बारे में संजय को कुछ नसीहत दूं. पर तभी मांजी मेरे कमरे में आ गईं और आते ही उन्होंने भी नीलू को डांटते हुए कहा, ‘तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है. जा, जा कर पढ़ाई कर.’

नीलू अपने मन के सारे अरमान लिए चुपचाप वापस अपने कमरे में चली गई.

उस के जाने के बाद मांजी बोलीं, ‘देखो बहू, मैं ने तुम्हारे लिए यह सूट खरीदा है,’ और वह मुझे सूट दिखाने लगीं, पर मेरा मन नीलू पर ही लगा रहा.

शाम को जब यह घर आए तो चायनाश्ते के समय मैं ने इन से पूछा, ‘आप एक बात बताइए कि यह नीलू इतनी डरीसहमी सी क्यों रहती है?’

यह गौर से मुझे देखते हुए बताने लगे कि वह साफसाफ बोल नहीं पाती. दरअसल, नीलू ने बोलना ही देर से शुरू किया और 6 साल की होने के बावजूद हकलाहकला कर बोलती है.

‘आजकल तो कितनी मेडिकल सुविधाएं हैं. आप नीलू को किसी स्पीच थेरेपिस्ट को क्यों नहीं दिखाते?’

उस समय उन्होंने मेरी बात हवा में उड़ा दी पर मैं ने मन ही मन सोचा कि मैं खुद नीलू को दिखाने के लिए किसी स्पीच थेरेपिस्ट के पास जाऊंगी. इस बारे में जब मैं ने बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई लेकिन उन्होंने सीधे मना भी नहीं किया.

अगले हफ्ते मैं नीलू को शहर की एक लोकप्रिय महिला स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले गई.

थोड़ी देर बाद जब थेरेपिस्ट नीलू का विश्लेषण कर के बाहर आईं तो बोलीं, ‘इस का हकला कर बोलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितना इस के व्यक्तित्व का दबा होना. इसे लोगों के सामने आने में घबराहट होती है क्योंकि लोग इस के हकलाने का मजाक उड़ाते हैं. इसी से यह खुल कर नहीं रहती और न ही बोल पाती है.’

मैं नीलू को ले कर घर चली आई. मैं ने निश्चय किया कि नीलू को ले कर मैं बाहर निकला करूंगी, उसे अपने साथ घुमाने ले जाया करूंगी और उस दिन से मैं नीलू पर और ज्यादा ध्यान देने लगी.

मैं ने नीलू के व्यक्तित्व को निखारने की जैसे कसम खा ली थी. इस के नतीजे जल्दी ही हम सब के सामने आने लगे. उस दिन तो घर में खुशी की लहर ही दौड़ गई जब नीलू अपने स्कूल में कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ले कर घर आई थी.

समय पंख लगा कर कितनी तेजी से उड़ गया, पता ही नहीं चला. मेरे सभी देवरों की शादी हो गई. अब घर में बस, नीलू ही थी. उस ने भी एम.ए. कर लिया था. हम लोग उस की शादी के लिए लड़का देख रहे थे. जल्द ही लड़का भी मिल गया जो डाक्टर था. परिवार के लोगों ने बड़ी धूमधाम से नीलू की शादी की.

शादी के बाद के कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीकठाक चलता रहा. धीरेधीरे मैं ने महसूस किया कि नीलू की आवाज में खुशी नहीं झलकती. मैं ने पूछा भी पर उस ने कुछ बताया नहीं और शादी के केवल 2 साल बाद ही नीलू अकेले मायके वापस आ गई.

उस के बुझे चेहरे को देख कर हम सभी परेशान रहते थे. मैं ने सोचा भी कि कुछ दिन बीत जाएं तो उस के ससुराल फोन करूं. क्या पता पतिपत्नी में खटपट हुई हो.

15 दिन बाद जब मैं ने नीलू के ससुराल फोन किया तो उस की सास व पति के जवाब सुन कर सन्न रह गई.

‘मेरा तो एक ही बेटा है, आप ने हम से झूठ बोल कर शादी की और अपनी तोतली बेटी हमें दे दी. उस पर वह बांझ भी है. मैं तो सीधे तलाक के पेपर भिजवाऊंगी,’ इतना कह कर नीलू की सास ने फोन काट दिया.

घर में सन्नाटा छा गया. मांजी ने मुझे भी कोसना शुरू कर दिया, ‘मैं कहती थी कि यह कभी ठीक नहीं होगी. तुम्हारे उस ‘स्पीच थेरेपी’ जैसे चोंचलों से कुछ होने वाला नहीं है. लो, देखो, अब रखो अपनी छाती पर इसे जिंदगी भर.’

मुझे नीलू की सास की बात सुन कर उतना दुख नहीं हुआ जितना कि अपनी सास की बातों से हुआ. दरअसल, नीलू एकदम ठीक हो गई थी पर नए माहौल में एकाध शब्द पर थोड़ा अटकती थी जोकि पता नहीं चलता था. पर उस के ससुराल वालों ने उसे कैसे बांझ करार दे दिया यह बात मेरी समझ में नहीं आई. क्या 2 साल ही पर्याप्त होते हैं किसी स्त्री की मातृत्व क्षमता को नापने के लिए?

खैर, बात काफी आगे बढ़ चुकी थी. आखिर तलाक हो ही गया. इस के बाद नीलू एकदम चुप सी रहने लगी. जैसे कि मेरी शादी के समय थी. बंद कमरे में रहना, किसी से बातें न करना.

एक दिन मैं ने जिद कर के नीलू को अपने साथ बाहर चलने के लिए यह सोच कर कहा कि घर से बाहर निकलेगी तो थोड़ा बदलाव महसूस करेगी. रास्ते में ही पड़ोस की बूआ का बेटा राजेश मिल गया. उस ने मुझे रोक कर नमस्कार किया और बोला, ‘भाभी, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई है और कंपनी वालों ने रहने के लिए फ्लैट दिया है. किसी दिन मम्मी से मिलने के लिए आप मेरे घर आइए न.’

‘ठीक है भैया, किसी दिन मौका मिला तो आप के घर जरूर आऊंगी,’ इतना कह कर मैं नीलू के साथ बाजार चली गई.

एक दिन मैं बूआ के घर गई. उन का घरपरिवार अच्छा था. अपना खुद का कारोबार था. मैं ने बातों ही बातों में बूआ से नीलू का जिक्र किया तो वह बोल पड़ीं, ‘अरे, उस बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? कहीं दूसरी शादी करा दें तो ठीक हो जाएगी.’

‘लेकिन बूआ, कौन थामेगा उस का हाथ? अब तो उस पर बांझ होने का ठप्पा भी लग गया है. यद्यपि मैं ने उस के तमाम मेडिकल चेकअप कराए हैं पर उस में कहीं कोई कमी नहीं है,’ इतना कहते- कहते मेरा गला जैसे भर्रा गया.

‘मैं कैसा हूं आप के घर का दामाद बनने के लिए?’ राजेश बोला तो मैं ने उसे डांट दिया कि यह मजाक का वक्त नहीं है.

‘भाभी, मैं मजाक नहीं सच कह रहा हूं. मैं नीलू का हाथ थामने को तैयार हूं बशर्ते आप लोगों को यह रिश्ता मंजूर हो.’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. आश्चर्य से मैं बूआ की ओर पलटी तो मुझे लगा कि उन्हें भी राजेश से यह उम्मीद नहीं थी.

थोड़ी देर रुक कर वह बोलीं, ‘मैं घूमघूम कर समाजसेवा करती हूं और जब अपने घर की बारी आई तो पीछे क्यों हटूं? फिर जब राजेश को कोई एतराज नहीं है तो मुझे क्यों होगा?’

राजेश मेरी ओर मुड़ कर बोला, ‘भाभी, जहां तक बच्चे की बात है तो इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे अनाथ पड़े हैं. उन्हीं में से किसी को अपने घर ले आएंगे और उसे अपना बच्चा बना कर पालेंगे.’

राजेश के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. जिस की पहचान हम उस के पहनावे से करते रहे वह तो बिलकुल अलग ही निकला और जो सूटटाई के साथ ‘जेंटलमैन’ बने घूमते थे वह कितने खोखले निकले.

मेरे मन से राजेश के लिए सैकड़ों दुआएं निकल पड़ीं. मेरा रोमरोम पुलकित हो उठा था. मुझे टपोरी ड्रेस में भी राजेश किसी राजकुमार की तरह लग रहा था.

घर आ कर मैं ने यह बात परिवार के दूसरे लोगों को बताई तो सब इस के लिए तैयार हो गए और फिर जल्दी ही नीलू की शादी राजेश के साथ कर दी गई. शादी के साल भर बाद ही वे दोनों अनाथ आश्रम जा कर एक बच्चा ले आए और आज जब नीलू खुद मां बनने वाली है तो मेरा मन खुशी से झूम उठा है.

मैं ने राजेश से फोन पर बात की और उसे बधाई दी तो वह कहने लगा कि भाभी, हम मांबाप तो पहले ही बन चुके थे पर बच्चों से परिवार पूरा होता है न. बेटी तो हमारे पास पहले से ही है अब जो भी होगा उसे ले कर कोई गिलाशिकवा नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारा ही अंश होगा.

राजेश के मुंह से यह सुन कर सचमुच मन भीग सा गया. राजेश ने मानवता की जो मिसाल कायम की है, यदि ऐसे ही सब हो जाएं तो समाज में कोई परेशानी आए ही न. यह सोच कर मेरी आंखों में राजेश व उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के आंसू आ गए.

लेखक- बबिता श्रीवास्तव

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