वे नौ मिनट: बुआजी का अनोखा फरमान

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

अनोखा प्रेमी : क्या हो पाई संध्या की शादी

पटना सुपर बाजार की सीढि़यां उतरते हुए संध्या ने रूपाली को देखा तो चौंक पड़ी. एक मिनट के लिए संध्या गुस्से से लालपीली हो गई. रूपाली ने पास आ कर कहा, ‘‘अरे, संध्याजी, आप कैसी हैं?’’
संध्या खामोश रही तो रूपाली ने आगे कहा, ‘‘मैं जानती हूं, आप मुझ से बहुत नाराज होंगी. इस में आप की कोई गलती नहीं है. आप की जगह कोई भी होता, तो मुझे गलत ही समझता.’’

संध्या फिर भी चुप रही. उसे लग रहा था कि रूपाली सिर्फ बेशरम ही नहीं, बल्कि अव्वल नंबर की चापलूस भी है. रूपाली ने समझाते हुए आगे कहा, ‘‘संध्याजी, मेरे मन में कई बार यह खयाल आया कि आप से मिलूं और सबकुछ आप को सचसच बता दूं. मगर सुधांशुजी ने मुझे कसम दे कर रोक दिया था.’’

सुधांशु का नाम सुनते ही संध्या के तनबदन में आग लग गई. वही सुधांशु, जिस ने संध्या से प्रेम का नाटक कर के उस की भावनाओं से खेला था और बेवफाई कर के चला गया था. संध्या के जीवन के पिछले पन्ने अचानक फड़फड़ा कर खुलने लगे. वह गुस्से से लालपीली हुई जा रही थी. रूपाली, संध्या का हाथ पकड़ कर नीचे रैस्तरां में ले गई, ‘‘आइए, कौफी पीते हैं, और बातें भी करेंगे.’ न चाहते हुए भी संध्या रूपाली के साथ चल दी.

रूपाली ने कौफी का और्डर दिया. संध्या अपने अतीत में खो गई. लगभग 10 साल पहले की बात है. पटना शहर उन दिनों आज जैसा आधुनिक नहीं था. शिव प्रसाद सक्सेना का परिवार एक मध्यवर्गीय परिवार था. वे पटना हाईस्कूल में मास्टर थे. 2 बेटियां, संध्या और मीनू, बस, यही छोटा सा परिवार था. संध्या के बीए पास करते ही मां ने उस की शादी की जिद पकड़ ली. उस की जन्मकुंडली की दर्जनों कापियां करा कर उन पर हलदी छिड़क कर तैयार कर ली गईं. एक तरफ पापा ने अपने मित्रों में अच्छे लड़के की तलाश शुरू कर दी तो दूसरी ओर मां ने टीपन की कापी हर बूआ, मामी और चाचियों में बांट दी.

दिन बीतते रहे पर कहीं भी विवाह तय नहीं हो पा रहा था. मां को परेशान देख कर एक दिन जौनपुर वाली बूआ ने साफसाफ कह दिया, ‘देखो, छोटी भाभी, मैं ने तो संध्या के लिए जौनपुर में सारी कोशिशें कर के देख लीं पर जो भी सुनता है कि रंग थोड़ा दबा है, बस, नाकभौं सिकोड़ लेता है.’

‘अरे दीदी, रंग थोड़ा दबा है तो क्या हुआ, कोई मेरी संध्या में खोट तो निकाल दे,’ मां बोल उठीं.
‘हम जानते नहीं हैं क्या, छोटी भाभी? पर जब ये लोग लड़के वाले बन जाते हैं, तब न जाने कौन सा चश्मा लगा के 13 खोट और 26 कमियां निकालने लगते हैं.’ मां और बूआ का अपनाअपना राग दिनभर चलता रहता था

इस के बाद तो हर साल, लगन आते ही मां मीनू से टीपन उतरवाने और उस पर हलदी छिड़क कर आदानप्रदान करने में लग जातीं और लगन समाप्त होते ही निराश हो कर बैठ जातीं. अगले साल जब फिर से नया टीपन तैयार होता तब उस में संध्या की उम्र एक साल बढ़ा दी जाती.

कहीं भी शादी तय नहीं हो पा रही थी. दिन बीतते गए, संध्या में एक हीनभावना घर करने लगी. हर बार लड़की दिखाने की रस्म के बाद वह मानसिक और शारीरिक दोनों रूप में मलिन हो जाती. उसे गुस्सा भी आता और ग्लानि भी होती. पापा के ललाट की शिकन और मां की चिंता उसे अपने दुख से कहीं ज्यादा बेचैन करती थी.

सिलसिला सालदरसाल चलता रहा. धीरेधीरे संध्या में एक परिवर्तन आने लगा. वह हर अपमान और अस्वीकृति के लिए अभ्यस्त हो चुकी थी. मगर मांबाप को उदास देखती, तो आहत हो उठती थी.
आखिर एक दिन मां को उदास बैठे देख कर संध्या बोली, ‘मां, मैं ने फैसला कर लिया है कि शादी नहीं करूंगी. तुम लोग मीनू की शादी कर दो.’

‘तो क्या जीवनभर कुंआरी ही बैठी रहोगी?’ मां ने डांटा.

‘तो क्या हुआ, मां, कितनी ही लड़कियां कुंआरी बैठी हैं. मैं बिन ब्याही रह गई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. देखो, स्मिता दीदी ने भी तो शादी नहीं की है, क्या हो गया उन्हें, मौज से रह रही हैं.’

‘हमारे खानदान की लड़कियां कुंआरी नहीं रहतीं,’ इतना कह कर मां गुस्से में पैर पटकती हुई चली गईं.
5 वर्ष बीत गए. संध्या ने एमए कर लिया और मगध महिला कालेज में लैक्चरर की नौकरी भी मिल गई. अपने कालेज और पढ़ाने में ही वह अपने को व्यस्त रखती थी. संध्या अकसर सोचा करती, यह कैसी विडंबना है कुदरत की कि रूपआकर्षण न होने की वजह से उस के साथसाथ पूरे परिवार को पीडि़त होना पड़ रहा है. वह कुदरत को अपने प्रति हुई नाइंसाफी के लिए बहुत कोसती थी. वह सोचती कि आखिर उस का कुसूर क्या है. शादी के समय लड़की के गुणों को रूप के आवरण में लपेट कर न जाने कहां फेंक दिया जाता है.

एक दिन पापा ने जब मनोहर बाबू से रिश्ते की बात चलाई तो मां सुनते ही आगबबूला हो गईं, ‘आप सठिया तो नहीं गए हैं. मनोहर अपनी संध्या से 14 साल बड़ा है. आप लड़का ढूंढ़ने चले हैं या बूढ़ा बैल.’

पापा ने मनोहर बाबू की नौकरी, अच्छा घराना, और भी कई चीजों का वास्ता दे कर मां को समझाना चाहा, मगर मां टस से मस नहीं हुईं.

एक दिन संध्या जब कालेज से घर लौटी तो उस ने देखा, बरामदे में कोई पुरुष बैठा मम्मीपापा के साथ बड़े अपनेपन से बातें कर रहा था. वह उसे पहचान पाने में विवश थी. तभी पापा ने परिचय कराते हुए कहा, ‘मेरी बड़ी बेटी संध्या. यहीं मगध महिला कालेज में लेक्चरर है, और आप हैं, शोभा के देवर, सुधांशु.’
संध्या ने देखा, बड़े ही सलीके से खड़े हो कर उस ने हाथ जोड़े. उत्तर में संध्या ने नमस्ते किया. फिर वह अंदर चली गई.

सुधांशु अकसर संध्या के घर आनेजाने लगा. बातचीत करने में माहिर सुधांशु बहुत जल्दी ही घर के सभी सदस्यों का प्यारा बन गया. पापा से राजनीति पर बहस होती, तो मां से धार्मिक वार्त्तालाप. मीनू को चिढ़ाता भी तो बहुत आत्मीयता से. मीनू भी हर विषय में सुधांशु की सलाह जरूरी समझती थी. कई बार मम्मीपापा उसे झिड़क भी देते थे, जिसे सुधांशु हंस कर टाल देता.

सुधांशु स्वभाव से एक आजाद खयाल का व्यक्ति था. वह साहित्य, दर्शन, विज्ञान या प्रेम संबंधों पर जब संध्या से चर्चा करता तब उस की बुद्धिमत्ता की बरबस ही सराहना करने को उस का जी चाहता था. उस की आवाज में एक प्रवाह था, जो किसी को भी अपने साथ बहा कर ले जाने में सक्षम था

सुधांशु, संध्या के कुंठित जीवन में हवा के ताजा झोंके की तरह आया. संध्या को धीरेधीरे सुधांशु का साथ अच्छा लगने लगा. अब तक संध्या ने अपने को दबा कर, मन मार कर जीने की कला सीख ली थी. मगर अब सुधांशु का अस्तित्व उस के मनोभावों पर हावी होने लगा था. और संध्या अपनी भावनाओं पर से अंकुश खोने लगी थी. अंजाम सोच कर वह भय से कांप उठती थी, क्योंकि प्रेम की राहें इतनी संकरी होती हैं कि इन से वापस लौट कर आने की गुंजाइश नहीं होती.

नारी को एक प्राकृतिक उपहार प्राप्त है कि वह पुरुष के मन की बात बगैर कहे ही जान लेती है. इसीलिए संध्या को सुधांशु का झुकाव भांपने में देर नहीं लगी. आखिर एक दिन इन अप्रत्यक्ष भावनाओं को शब्द भी मिल गए, सुधांशु ने अपने प्रेम का इजहार कर दिया. प्रतीक्षारत संध्या का रोमरोम पुलकित हो उठा.
संध्या में उल्लेखनीय परिवर्तन आने लगा. अपने हृदय के जिस कोने को वह अब तक टटोलने से डरती थी, उसे अब उड़ेलउड़ेल कर निकालने को इच्छुक हो उठी थी. संध्या हमेशा सुधांशु की ही यादों में खोई रहती. हमेशा खामोश, नीरस रहने वाली संध्या अब गुनगुनाती, मुसकराती देखी जाने लगी.

संध्या ने एक दिन मां को सबकुछ बता दिया. मां को तो सुधांशु पसंद था ही, वह खुश हो गईं. पापा भी उसे पसंद करते थे. आखिर एक दिन पापा ने सुधांशु से उस के पिताजी का पता मांग लिया. वे वहां जा कर शादी की बात करना चाहते थे. सुधांशु ने बताया कि अगले महीने ही उस के पिताजी पटना आ रहे हैं, यहीं बात कर लीजिएगा.

3 महीने बीत गए, सुधांशु के पिताजी नहीं आए. सुधांशु ने भी धीरेधीरे आनाजाना बहुत कम कर दिया. एक सप्ताह तक सुधांशु संध्या से नहीं मिला तो वह सीधे उस के औफिस जा पहुंची. वहां पता चला कि आजकल वह छुट्टी पर है. संध्या सीधे सुधांशु के घर जा पहुंची और दरवाजा खटखटाया. सुधांशु ने ही दरवाजा खोला, ‘अरे, संध्या, तुम. आओ, अंदर आओ.’

‘यह क्या मजाक है, सुधांशु, तुम एक सप्ताह से मिले भी नहीं, और…’ संध्या गुस्से में कुछ और कहती कि उस ने सामने बालकनी में एक लड़की को देखा, तो अचानक चुप हो गई.

सुधांशु ने चौंकते हुए कहा, ‘अरे, मैं परिचय कराना तो भूल ही गया. आप संध्याजी हैं, मेरी फैमिली फ्रैंड, और आप हैं, रूपाली मेरी गर्लफ्रैंड.’
इस से पहले कि संध्या कुछ पूछती, सुधांशु ने थोड़ा झेंपते हुए कहा, ‘बहुत जल्दी ही रूपाली मिसेज रूपाली बनने वाली हैं. अरे, रूपाली, संध्या को चाय नहीं पिलाओगी.’

संध्या को मानो काटो तो खून नहीं. उसे यह सब अजीब लग रहा था. उस का मन करता कि सुधांशु को झकझोर कर पूछे कि आखिर यह सब क्या कह रहे हो.
रूपाली रसोई में गई तो संध्या ने आंखों में गुस्सा जताते हुए कहा, ‘सुधांशु, प्लीज, मजाक की भी कोई सीमा होती है. यह क्या कि जो मुंह में आया बक दिया.’

‘यह मजाक नहीं, सच है संध्या, कि हम दोनों शादी करने वाले हैं,’ सुधांशु ने बेहिचक कहा. संध्या को लगा मानो वह फफक कर रो पड़ेगी. वह झटके से उठी और बाहर चली गई.

वह कैसे घर पहुंची, उसे होश भी नहीं था. घर पहुंच कर देखा तो सामने मां बैठी थीं. वह अपनेआप को रोकतेरोकते भी मां से लिपट गई और फफक कर रो पड़ी. मां ने भी कुछ नहीं पूछा. वह जानती थी कि रोने से मन हलका होता है.
इस घटना से संध्या को बहुत बड़ा आघात लगा. वह इस बेवफाई की वजह जानना चाहती थी. पर उस का अहं उसे पूछने की इजाजत नहीं दे रहा था. संध्या एक समझदार लड़की थी, इसीलिए सप्ताहभर में ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया. वह फिर से शांत और खामोश रहने लगी थी. धीरेधीरे सुधांशु के प्रति उस की नफरत बढ़ती गई. उधर सुधांशु ने भी अपना तबादला रांची करवा लिया और संध्या से दूर चला गया.

इस समूची घटना से पूरे परिवार में सब से ज्यादा आहत संध्या के पापा थे. ऐसा लगता था जैसे मौत ने जिंदगी को परास्त कर उन्हें काफी पीछे ढकेल दिया है. मीनू भी इन दिनों संध्या का कुछ ज्यादा ही खयाल करने लगी थी. मां की डांट न जाने कहां गायब हो गई थी. संध्या को लग रहा था कि वह आजकल सहानुभूति की पात्र बन चुकी है. यह एहसास उसे सुधांशु की बेवफाई से कहीं ज्यादा ही आहत करता था.

एक दिन संध्या ने पापा से मनोहर बाबू के साथ रिश्ते की स्वीकृति दे दी.
संध्या की शादी हो गई. मनोहर बाबू के साथ एडजस्ट होने में संध्या को तनिक भी परेशानी महसूस नहीं हुई. संध्या ने पूरे परिवार का दिल जीत लिया.
आज शादी को 4 साल बीत गए हैं, मगर संध्या को पता है कि उस के लिए जीवन मात्र एक नाटक का मंच बन कर रह गया है. संध्या एक पत्नी, एक बहू, एक प्रोफैसर और एक मां बन कर तो जी रही थी, मगर सुधांशु के उस अमानवीय तिरस्कार से इतनी आहत हुई थी कि उसे पुरुष शब्द से ही नफरत हो गई थी. यही वजह थी कि वह मनोहर बाबू के प्रति आज तक भी पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाई है.

बैरे ने कौफी ला कर मेज पर रखी, तब अचानक ही संध्या की तंद्रा टूटी. इस से पहले कि वह रूपाली से कुछ पूछती, एक पुरुष की आवाज पीछे से आई, ‘‘ओह, रूपाली, तुम यहां बैठी हो, और मैं ने सारा सुपर मार्केट छान मारा.’’
‘‘ये मेरे पति हैं, विक्रम,’’ रूपाली ने परिचय कराया, ‘‘और यह मेरी मित्र संध्या.’’

‘‘हेलो,’’ बड़े सलीके से अभिवादन करता हुआ विक्रम बोला, ‘‘अच्छा आप लोग बैठो, मैं सामान की पैकिंग करवा कर आता हूं,’’ और सामने वाली दुकान पर चला गया.

‘‘तुम चौंक गईं न,’’ रूपाली ने मुसकराते हुए संध्या से कहा.
‘‘तो तुम्हें भी सुधांशु ने धोखा दे दिया? इतना गिरा हुआ इंसान निकला वह?’’
‘‘नहीं संध्या, सुधांशुजी बेहद नेक इंसान हैं. उस दिन तुम ने जो कुछ देखा वह सब नाटक था.’’

‘‘यह क्या कह रही हो, तुम?’’ संध्या लगभग चीख उठी थी.
रूपाली संध्या को हकीकत बयां करने लगी.

‘‘सुधांशु मुझे ट्यूशन पढ़ाया करता था. एक दिन सुधांशु को परेशान देख कर मैं ने कारण पूछा. पहले तो सुधांशु बात को टालता रहा, फिर उस ने तुम्हारे साथ घटी पूरी प्रेमकहानी मुझे सुनाई कि मेरी बड़ी बहन शोभा ने पटना आते वक्त उसे तुम्हारे बारे में काफीकुछ बता दिया था कि तुम हीनभावना की शिकार हो.

‘‘मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते सुधांशु को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तुम्हारे इस हीनभावना से उबारने का क्या उपाय हो सकता है. पहले तो सुधांशु ने तुम्हारे मन में दबे हुए आत्मविश्वास को धीरेधीरे जगाया, जिस के लिए तुम से प्रेम का नाटक करना जरूरी था.’’

‘‘लेकिन इस नाटक का फायदा?’’ संध्या आगे जानने के लिए जिज्ञासु थी.
‘‘इसीलिए, कि तुम मनोहर बाबू से विवाह कर लो.’’

‘‘लेकिन तुम और सुधांशु भी तो शादी करने वाले थे. उस दिन सुधांशु ने कुछ ऐसा ही कहा था.’’

‘‘वह भी तो सुधांशु के नाटक का एक अंश था,’’ रूपाली ने कौफी का प्याला उठा कर एक घूंट भरते हुए आगे कहा, ‘‘संध्या, मैं भी तुम्हारी तरह उन की एक शिकार हूं, मैं रंजीत से प्रेम करती थी. रंजीत ने किसी और लड़की से शादी कर ली, तो मैं इतना आहत हुई कि अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठी थी. डाक्टरों ने मुझे मानसिक आघात का पहला चरण बताया. उन्हीं दिनों पिताजी को सुधांशुजी मिल गए और मुझे सुधांशुजी ने अपनी चतुराई से उस कुंठा से बाहर निकाला और जिंदगी से प्रेम करना सिखाया. उन दिनों सुधांशु से मैं प्रभावित हो कर उन से प्रेम करने लगी थी. लेकिन उन्होंने तो बड़ी शालीनता से, बड़े प्यार से मुझे समझाया कि वे मुझ से शादी नहीं कर सकते हैं.’’

‘‘हां, लड़कियों के दिलों से खेलने वाले लोग भला शादी क्यों करने लगे?’’ संध्या बोल पड़ी.

‘‘नहीं संध्या, नहीं,’’ बीच में ही बात काट कर रूपाली ने कहा, ‘‘उन्होंने मुझे कसम दिलाई थी, पर अब मैं वह कसम तोड़ रही हूं. आज मैं सबकुछ तुम्हें बता दूंगी. सुधांशुजी को गलत मत समझो. उन्होंने कभी किसी से कोई फायदा नहीं उठाया है.

‘‘असल में सुधांशुजी इसलिए शादी नहीं करना चाहते, क्योंकि उन की जिंदगी, मौत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. सुधांशु को ब्लड कैंसर है.’’
मौन, खामोश संध्या की आंखों से आंसू, बूंद बन कर टपक पड़े. रूमाल से आंख पोंछती हुई संध्या ने भरे गले से पूछा, ‘‘अब वे कहां हैं?’’

‘‘पता नहीं, जाते वक्त मैं ने लाख पूछा, मगर वह मुसकरा कर टाल गए,’’ रूपाली ने एक पल रुक कर फिर कहा, ‘‘सुधांशुजी जहां भी होंगे, किसी न किसी रूपाली या संध्या के जीवन का आत्मविश्वास जगा रहे होंगे.’’

रूपाली तो चली गई, पर संध्या को लग रहा था कि अगर आज रूपाली नहीं मिलती तो जीवनभर सुधांशु के बारे में हीनभावनाएं ले कर जीती रहती. सुधांशु जैसे विरले ही होते हैं जो अपनी नेकनामी की बलि चढ़ा कर भी परोपकार करते रहते हैं.

ठूंठ से लिपटी बेल : रूपा का दर्द न जाने कोय

रूपा के आफिस में पांव रखते ही सब की नजरें एक बारगी उस की ओर उठ गईं और तुरंत सब फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. सब की नजरों में छिपा कौतूहल दूर अपनी मेज पर बैठे मैं ने देख लिया था. मेरे पास से निकल कर अपनी मेज तक जाते रूपा ने मेरे कंधे पर हलके हाथ से दबाव दे कर कहा, ‘हैलो, स्वीटी.’ उस की इस शरारत पर मैं भी मुसकरा दी.

रूपा में आया परिवर्तन मुझे भी दिखाई पड़ रहा था पर मैं चाहती थी वह खुद ही खुले. मैं जानती थी वह अधिक दिनों तक अपना कोई भी सुखदुख मुझ से छिपा नहीं सकती. हमेशा बुझीबुझी और उदास रहने वाली रूपा को मैं वर्षों से जानती थी. उसे किसी ने हंसतेचहकते शायद ही कभी देखा हो. हंसने, खुश रहने के लिए उस के पास था ही क्या? छोटी उम्र में मां का साया उठ गया था. मां के रहने का दुख शायद कभी भुलाया भी जा सकता था, पर जिस हालात में मां मरी थीं वह भुलाना बहुत ही मुश्किल था.

शराबी बाप के अत्याचारों से मांबेटी हमेशा पीडि़त रहती थीं. मां स्कूल में पढ़ाती थीं और जो तनख्वाह मिलती उस से तो पिताजी की पूरे महीने की शराब भी मुश्किल से चलती थी. पैसे न मिलने पर रूपा के पिता रतनलाल घर का कोई भी सामान उठा कर बेच आते थे. जरा सा भी विरोध उन्हें आक्रामक बना देता. मांबेटी को रुई की तरह धुन कर रख देते.

धीरेधीरे रूपा की मां भूख, तनाव और मारपीट सहतेसहते एक दिन चुपचाप बिना चीखेचिल्लाए चल बसीं. उस वक्त रूपा 9वीं कक्षा में पढ़ती थी. बिना मां की किशोर होती बेटी को एक दिन मौसी आ कर उस को अपने साथ ले गईं. मौसी तो अच्छी थीं, पर उन के बच्चों को रूपा फूटी आंखों न भाई.

मौसी के घर की पूरी जिम्मेदारी धीरेधीरे रूपा पर आ गई. किसी तरह वहीं रह कर रूपा ने ग्रेजुएशन किया. ग्रेजुएशन करते ही रतनलाल आ धमके और सब के विरोध के बावजूद रूपा को अपने साथ ले गए. इतने दिनों बाद उन की ममता उमड़ने का कारण जल्दी ही रूपा की समझ में आ गया. उन्होंने उस के लिए एक नौकरी का प्रबंध कर रखा था.

रूपा की नौकरी लगने के बाद कुछ दिनों तक तो रतनलाल थोड़ेथोड़े कर के शराब के लिए पैसे ऐंठते रहे फिर धीरेधीरे उन की मांग बढ़ती गई. पैसे न मिलने पर चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते थे. रूपा 2-3 साडि़यों को साफसुथरा रख कर किसी तरह अपना काम चलाती. चेहरे पर मेघ छाए रहते. सारे सहयोगी उस की जिंदगी से परिचित थे. सभी का व्यवहार उस से बहुत अच्छा था. लंच में चाय तक के लिए उस के पास पैसे न रहते. मैं कभीकभार ही चायनाश्ते  के लिए उसे राजी कर पाती. पूछने पर वह अपनी परेशानियां मुझे बता भी देती थी.

इधर करीब महीने भर से रूपा में एक खास परिवर्तन आया था, जो तुरंत सब की नजरों ने पकड़ लिया. 33 साल की नीरस जिंदगी में शायद पहली बार उस ने ढंग से बाल संवारे थे. उदास होंठों पर एक मदहोश करने वाली मुसकराहट थी. आंखें भी जैसे छलकता जाम हों.

मैं ने सोचा शायद आजकल रूपा के पिता सुधर रहे हों…यह सब इसी कारण हो. करीब 1 माह पहले ही तो रूपा ने एक दिन बताया था कि कैसे चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते पिता को रवि भाई समझाबुझा कर बाहर ले गए थे. करीब 1 घंटे बाद पिताजी नशे में धुत्त खुशीखुशी लौटे थे और बिना शोर किए चुपचाप सो गए थे. रवि भाई उस के मौसेरे भाई के दोस्त हैं. पहले 1-2 बार मौसी के घर पर ही मुलाकात हुई थी. अब इसी शहर में बिजनेस कर रहे हैं.

ऐसे ही रूपा ने बातचीत के दौरान बताया था कि अब पिताजी चीखते-चिल्लाते नहीं, क्योंकि रवि भाई की दुकान पर बैठे रहते हैं. काफी रात गए वहीं से पी कर आते हैं और चुपचाप सो जाते हैं.

2 महीने बाद अचानक एक दिन सुबहसुबह रूपा मेरे घर आ पहुंची. बहुत खुश नजर आ रही थी. जैसे जल्दीजल्दी बहुत कुछ बता देना चाहती हो पर मुझे व्यस्त देख उस ने जल्दीजल्दी मेरे काम में मेरा हाथ बंटाना शुरू कर दिया. नाश्ता मेज पर सजा दिया. मुन्ने को नहला कर स्कूल के लिए तैयार कर दिया. पति व बच्चों को भेज कर जब हम दोनों नाश्ता करने बैठीं तो आफिस जाने में अभी डेढ़ घंटा बचा था. रूपा ने ऐलान कर दिया कि आज आफिस से छुट्टी करेंगे. मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘क्यों भई, छुट्टी किसलिए. डेढ़ घंटे में तो पूरा नावेल पढ़ा जा सकता है…सुना भी जा सकता है.’’

पर वह डेढ़ घंटे में सिर्फ एक लाइन ही बोल पाई, ‘‘मैं रवि से शादी कर लूं, रत्ना?’’ मैं जैसे आसमान से गिरी, ‘‘रवि से? पर वह तो…’’

‘‘शादीशुदा है, बच्चों वाला है, यही न?’’ मैं आगे सुनने के लिए चुप रही. रूपा ने अपनी छलकती आंखें उठाईं, ‘‘मेरी उम्र तो देख रत्ना, इस साल 34 की हो जाऊंगी. पिताजी मेरी शादी कभी नहीं करेंगे. उन्होंने तो आज तक एक बार भी नहीं कहा कि रूपा के हाथ पीले करने हैं. मुझे…एक घर…एक घर चाहिए, रत्ना. रवि मुझे बहुत चाहते हैं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं. आजकल रवि के कारण पिताजी ऊधम भी नहीं करते. रवि के कारण ही मैं चैन की सांस ले पाई हूं. शादी के बाद मैं रवि के पास रहूंगी. पिताजी यहीं अकेले रहें और चीखेंचिल्लाएं.’’

मुझे उस की बुद्धि पर तरस आया. मैं ने कहा, ‘‘यहां तो अकेले पिताजी हैं, वहां सौत और उस के बच्चों के बीच रह कर किस सुख की कल्पना की है तू ने? जरा मैं भी तो सुनूं?’’

उस ने मेरे गले में बांहें डाल दीं, ‘‘ओह रत्ना, तुम समझती क्यों नहीं. वहां मेरे साथ रवि हैं फिर मुझे नौकरी करने की भी जरूरत नहीं. रवि की पत्नी बिलकुल बदसूरत और देहाती है. रवि मेरे बिना रह ही नहीं सकते.’’

इस के बाद की घटनाएं बड़ी तेजी से घटीं. रूपा से तो मुलाकात नहीं हुई, बस, उस की 1 महीने की छुट्टी की अर्जी आफिस में मैं ने देखी. एक दिन सुना दोनों ने कहीं दूसरी जगह जा कर कोर्ट मैरिज कर ली है. इस बीच मुझे दूसरी जगह अच्छी नौकरी मिल गई. जहां मेरा आफिस था वहां से बच्चों का स्कूल भी पास था. इसलिए मेरे पति ने भागदौड़ कर उसी इलाके में मकान का इंतजाम भी कर लिया. इस भागमभाग में मुझे रूपा के बारे में उठती छिटपुट खबरें ही मिलीं कि रूपा उसी आफिस में नौकरी कर रही है, फिर सुना रूपा 1 बेटी की मां बन गई है.

एक ही शहर में रहते हुए भी हमारी मुलाकात एक शादी में 10 साल बाद हुई. करीब 9 साल की बेटी भी उस के साथ थी. देखते ही आ कर लिपट गई. मैं ने पूछा, ‘‘रवि नहीं आए?’’

ठंडा सा जवाब था रूपा का, ‘‘उन्हें अपने काम से फुरसत ही कहां है.’’

रूपा का कुम्हलाया चेहरा यह कहते और बेजान हो गया. उस की बेटी का उदास चेहरा भी झुक गया. मैं ने पूछा, ‘‘रूपा, तुम्हारे पिताजी आजकल कैसे हैं?’’

‘‘वैसे ही जैसे थे,’’ वह बोली.

‘‘कहां रहते हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कभी मेरे पास, कभी गांव में जमीनजायदाद बेचते हैं. पीते रहते हैं, शहर आते हैं तो मैं हूं ही पैसे देने के लिए. महीने में 8-10 दिन यहीं मेरे पास रहते हैं. गांव में पिक्चर हाल जो नहीं है. वहां बोर हो जाते हैं.’’

‘‘पैसे देने से मना क्यों नहीं कर देतीं.’’

‘‘मना करती हूं तो ऐसी भद्दी और गंदी गालियां देते हैं कि सारा महल्ला सुनता है. मेरी बेटी डर कर रोती है. पढ़- लिख नहीं पाती.’’

‘‘घर के बाकी लोग कुछ नहीं कहते. रवि कुछ नहीं कहते?’’

‘‘बाकी कौन से लोग हैं? मैं तो अपने उसी घर में रहती हूं. रात को रवि 10 बजे आते हैं, 12-1 बजे चले जाते हैं. वह भी एक दिन छोड़ कर. बस, हमारा पतिपत्नी का नाता यही 2-3 घंटे का है. घर खर्च देना नहीं पड़ता, कारण, मैं कमाती हूं न.’’

‘‘भई, कुछ तो खर्चा देते ही होंगे. तुझे न सही अपनी बेटी को ही.’’

‘‘और क्या देंगे जब शाबाशी तक तो दे नहीं सकते. नीलूहर साल फर्स्ट आती है. कभी टौफी तक ला कर नहीं दी.’’

नीलू का चेहरा और बुझ गया था. उस का सिर झुक गया. मेरा मन भर आया. बोली, ‘‘पागल, मैं ने तो तुझे पहले ही समझाना चाहा था पर…’’

रूपा की आंखें छलक गईं, ‘‘क्या करती, रत्ना? मुझ जैसी बेसहारा बेल के लिए तो ठूंठ का सहारा भी बड़ी बात थी. फिर वह तो…’’

इतने में हमारे पास 2-3 महिलाएं और आ बैठीं. मैं ने बात बदल दी, ‘‘भई, तेरी बेटी 9 साल की हो गई, अब तो 1 बेटा हो जाना चाहिए था,’’ फिर धीरे से कहा, ‘‘1 बेटा हो जाए तो तुम दोनों का सहारा बने, और नीलू को भाई भी मिल जाए.’’

अचानक नीलू हिचकियां ले कर रोने लगी, ‘‘नहीं चाहिए मुझे भाई, नहीं चाहिए.’’

मैं सहम गई, ‘‘क्या हो गया नीलू बेटे…क्या बात है मुझे बताओ?’’ नीलू को मैं ने गोद में समेट लिया. उस ने हिचकियों के बीच जो कहा सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘मौसी, वह भी नाना और पापा की तरह मां को तंग करेगा. वह भी लड़का है.’’

मैं हैरान सी उसे गोद में समेटे बैठी उस के भविष्य के बारे में सोचती रह गई. इस नन्ही सी उम्र में उस ने 2 ही पुरुष देखे, एक नाना और दूसरा पापा. दोनों ने उस के कोमल मन पर पुरुष मात्र के लिए एक खौफ और नफरत पैदा कर दी थी.

हम चलने लगे तो रूपा भी चल दी. गेट के बाहर निकले तो रवि को एक महिला के साथ अंदर जाते देखा. समझते देर नहीं लगी कि यह उस की पहली पत्नी है. सेठानियों जैसी गर्वीली चाल, कमर से लटकता चाबियों का गुच्छा और जेवरों से लदी उस अनपढ़ सांवली के चेहरे की चमक के सामने रूपा का गोरा रंग, सुंदर देह, खूबसूरत नाकनक्श, कुम्हलाया सा चेहरा फीका पड़ गया. एक के चेहरे पर पत्नी के अधिकारों की चमक थी तो दूसरी का चेहरा, अपमान और अवहेलना से बुझा हुआ. मैं नहीं चाहती थी कि रूपा और नीलू की नजर भी उन पर पड़े, इसलिए मैं ने जल्दी से कार का दरवाजा खोला और उन्हें पहले अंदर बैठा दिया.

दूसरा भगवान : एक डाक्टर फंसा अंधविश्वास के चक्रव्यूह में

डाक्टर रंजन के छोटे से क्लिनिक के बाहर मरीजों की भीड़ थी. अचानक लाइन में लगा बुजुर्ग धरमू चक्कर खा कर गिर पड़ा. डाक्टर रंजन को पता चला. वे अपने दोनों सहायकों जगन और लीला के साथ भागे आए.

डाक्टर रंजन ने धरमू की नब्ज चैक की और बोले, ‘‘इन्हें तो बहुत तेज बुखार है. जगन, इन्हें बैंच पर लिटा कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखो,’’ समझा कर वे दूसरे मरीजों को देखने लगे.

वहां से गुजरते पंडित योगीनाथ और वैद्य शंकर दयाल ने यह सब देखा, तो वे जलभुन गए.

‘‘योगी, यह छोकरा गांव में रहा, तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा. हमारे पास दवा के लिए इक्कादुक्का लोग ही आते हैं. इस के यहां भीड़ लगी रहती है,’’ भड़ास निकालते हुए वैद्य शंकर दयाल बोला.

‘‘वैद्यजी, आप सही बोल रहे हैं. अब तो झाड़फूंक के लिए मेरे पास एकाध ही आता है,’’ पंडित योगीनाथ ने भी जहर उगला. उन के पीछेपीछे चल रहे पंडित योगीनाथ के बेटे शंभूनाथ ने उन की बातें सुनीं और बोला, ‘‘पिताजी, आप चिंता मत करो. यह जल्दी ही यहां से बोरियाबिस्तर समेट कर भागेगा. बस, देखते जाओ.’’

शंभूनाथ के मुंह से जलीकटी बातें सुन कर उन दोनों का चेहरा खिल गया.

हरिया अपने बापू किशना को साइकिल पर बिठाए पैदल ही भागा जा रहा था. किशना का चेहरा लहूलुहान था. वैद्य शंकर दयाल ने पुकारा, ‘‘हरिया, ओ हरिया. तू ने खांसी के काढ़े के उधार लिए 50 रुपए अब तक नहीं दिए. भूल गया क्या?’’

‘‘वैद्यजी, मैं भूला नहीं हूं. कई दिनों से मुझे दिहाड़ी नहीं मिली. काम मिलते ही पैसे लौटा दूंगा. अभी मुझे जाने दो,’’ गिड़गिड़ाते हुए हरिया ने रास्ता रोके वैद्य शंकर दयाल से कहा. किशना दर्द से तड़प रहा था.

‘‘शंभू, तू इस की जेब से रुपए निकाल ले.’

‘‘वैद्यजी, रहम करो. बापू को दिखाने के लिए सौ रुपए किसी से उधार लाया हूं,’’ हरिया के लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी पिता के कहते ही शंभूनाथ ने रुपए निकाल लिए.

डाक्टर रंजन आखिरी मरीज के बारे में दोनों सहायकों को समझा रहे थे. ‘‘डाक्टर साहब, मेरे बापू को देखिए. इन की आंख फूट गई है.’’

‘‘हरिया, घबरा मत. तेरे बापू ठीक हो जाएंगे,’’ हरिया की हिम्मत बढ़ा कर डाक्टर रंजन इलाज करने लगे. बेचैन हरिया इधरउधर टहल रहा था कि तभी वहां जगन आया, ‘‘हरिया, तेरे बापू की आंख ठीक है. चल कर देख ले.’’

इतना सुनते ही हरिया अंदर भागा गया.

‘‘आओ हरिया, दवाएं ले आओ. शुक्र है आंख बच गई,’’ डाक्टर रंजन बोले.

सबकुछ समझने के बाद हरिया ने डाक्टर रंजन को कम फीस दी, फिर हाथ जोड़ कर वैद्यजी वाली घटना सुनाई. डाक्टर रंजन भौचक्के रह गए.

‘‘डाक्टर साहब, काम मिलते ही मैं आप की पाईपाई चुका दूंगा,’’ हरिया ने कहा.

जगन और लीला लंच करने के लिए अपनेअपने घर चले गए. डाक्टर रंजन अकेले बैठे क्लिनिक में कुछ पढ़ रहे थे, तभी वहां दवाएं लिए हुए सैल्समैन डाक्टर रघुवीर आया, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की सभी दवाएं ले आया हूं. कुछ दिनों के लिए मैं बाहर जा रहा हूं. जरूरत पड़ने पर आप किसी और से दवा मंगवा लेना,’’ बिल सौंप कर वह चला गया.

‘‘मैं जरा डाक्टर साहब के यहां जा रही हूं,’’ नेहा की बात सुन कर मां चौंक गईं.

‘‘क्या हुआ बेटी, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘मां, मैं बिलकुल ठीक हूं. मेरा नर्सिंग का कोर्स पूरा हो गया है. घर में बोर होने से अच्छा है कि डाक्टर साहब के क्लिनिक पर चली जाया करूं. वहां सीखने के साथसाथ कुछ सेवा का मौका भी मिलेगा. पिताजी ने इजाजत दे दी है. तुम भी आशीर्वाद दे दो.’’ मां ने भी हामी भर दी. नेहा चली गई.

डाक्टर रंजन के साथ अजय और शंभू गपशप मार रहे थे.

‘‘आज हम दोनों बिना पार्टी लिए नहीं जाएंगे,’’ अजय बोला.

‘‘नोट छाप रहे हो. दोस्तों का हक तो बनता है,’’ शंभू की बात सुन कर डाक्टर रंजन गंभीर हो गए. चश्मा मेज पर रखा, फिर बोले, ‘‘मेरी हालत से तुम वाकिफ हो. मैं जिन गरीब, लाचारों का इलाज करता हूं, उन से दवा की भी भरपाई नहीं होती. मैं ने बचपन में अपने मांबाप को गरीबी और बीमारियों के चलते तिलतिल मरते देखा है, इसलिए मैं इन के दुखदर्द से वाकिफ हूं.’’

‘‘क्या रोनाधोना शुरू कर दिया? मैं पार्टी दूंगा. चलो शहर. मैं डाक्टर रंजन की तरह छोटे दिल वाला नहीं,’’ शंभू बोला.

डाक्टर रंजन चुप रहे. तभी वहां नेहा दाखिल हुई.

‘‘आओ नेहा, सब ठीक तो है?’’ डाक्टर रंजन के पूछने पर नेहा ने आने की वजह बताई.

‘‘कल से आ जाना,’’ डाक्टर रंजन बोले.

‘‘ठीक है सर,’’ कह कर नेहा वहां से चल दी.

‘‘नेहा, ठहरो. डाक्टर साहब पार्टी दे रहे हैं,’’ शंभू ने टोका.

‘‘आप एंजौय करो. मैं चलती हूं,’’ कह कर नेहा चल दी.

‘‘शंभू, जलीकटी बातें मत करो,’’ अजय ने समझाया. ‘‘डाक्टर क्या पार्टी देगा? चलो, मैं देता हूं,’’ शंभू की बात रंजन को बुरी लगी. वे बोले, ‘‘तेरी अमीरी का जिक्र हरिया भी कर रहा था.’’

इतना सुनते ही शंभू के तनबदन में आग लग गई, ‘‘डाक्टर हद में रह, नहीं तो…’’ कह कर शंभू वहां से चला गया. अजय हैरान होते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों क्या बक रहे हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्य शंकर दयाल भागाभागा पंडित योगीनाथ के पास गया. पुराने मंदिर का पुजारी त्रिलोकीनाथ भी वहीं था.

‘‘मुझे अभीअभी पता चला है कि डाक्टर की दुकान ग्राम सभा की जमीन पर बनी है और खुद सरपंच ने जमीन दी है.’’

वैद्य शंकर दयाल की बात सुन कर वे दोनों उछल पड़े.  पंडित योगीनाथ बोला, ‘‘इस में हमारा क्या फायदा है?’’

‘‘डाक्टर को भगाने की तरकीब मैं बताता हूं… वहां देवी का मंदिर बनवा दो.’’

‘‘सुनहरा मौका है. नवरात्र आने वाले हैं,’’ वैद्य शंकर दयाल की हां में हां मिलाते हुए त्रिलोकीनाथ बोला.

‘‘वैद्यजी, तुम्हारा भी जवाब नहीं.’’

‘‘सब सोहबत का असर है,’’ पंडित योगीनाथ से तारीफ सुन कर वैद्य शंकर दयाल ने कहा.

‘‘नेहा डाक्टर के साथ कहां जा रही है. अच्छा, यह तो सरपंच की बेटी के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगा है,’’ बड़बड़ाते हुए शंभू दयाल ने शौर्टकट लिया.

‘‘चाची, नेहा कहां है?’’ घर में घुसते ही शंभू ने पूछा.

‘‘क्या हुआ शंभू?’’ सुनते ही नेहा की मां ने पूछा.

शंभू ने आंखों देखी मिर्चमसाला लगा कर बात बता दी. मां को बहुत बुरा लगा. उन्होंने नेहा को पुकारा, ‘‘नेहा बेटी, यहां आओ.’’

नेहा को देख कर शंभू के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘मेरी बेटी पर लांछने लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आई,’’ मां ने शंभू को फटकार कर भगा दिया.

‘तो वह कौन थी?’ सोचता हुआ शंभू वहां से चल दिया.

पंडित योगीनाथ, त्रिलोकीनाथ और वैद्य शंकर दयाल सरपंच उदय प्रताप से मिलने गए.

‘‘श्रीमानजी, आप इजाजत दें, तो हम वहां देवी का मंदिर बनवाना चाहते हैं. बस, आप जमीन का इंतजाम कर दें,’’ त्रिलोकीनाथ बोले.

सरपंच बोले, ‘‘हमारी सारी जमीन गांव से दूर है और ग्राम सभा की जमीन का टुकड़ा गांव के आसपास है नहीं,’’ झट से पंडित योगीनाथ ने डाक्टर वाली जमीन की याद दिलाई. त्रिलोकीनाथ ने भी समर्थन किया.

‘‘उस जमीन के बारे में पटवारी से मिलने के बाद बताऊंगा,’’ सरपंच उदय प्रताप की बात सुन कर वे सभी मुसकराने लगे. डाक्टर रंजन, नेहा, जगन और लीला एक सीरियस केस में बिजी थे, तभी वहां अजय आया, ‘‘रंजन, गांव में बातें हो रही हैं कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा और तुम्हारा क्लिनिक यहां से हटेगा.’’

‘‘तुम जरा बैठो. मैं अभी आता हूं,’’ कह कर डाक्टर रंजन मरीजों को देखने में बिजी हो गए.

फारिग हो कर वे अजय के पास आए. नेहा, जगन और लीला भी वहीं आ गए. ‘‘रंजन, मुझे थोड़ी सी जानकारी है कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा. कुछ दान देने वालों ने सीमेंटईंट वगैरह का इंतजाम भी कर दिया है. 1-2 दिन बाद ही काम शुरू हो जाएगा.’’

अजय की बात सुन कर नेहा बोली, ‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात घर पर नहीं सुनी.’’ ‘‘तुम जानते हो, मैं दूसरे गांव से यहां आ कर अपनी दुकान में बिजी हो जाता हूं. तुम अपने मरीजों में बिजी रहते हो. न तुम्हारे पास समय है, न मेरे पास,’’ कह कर अजय डाक्टर रंजन को देखने लगे.

तभी वहां दनदनाता हुआ शंभूनाथ आया, ‘‘डाक्टर, तुम गांव के भोलेभाले लोगों को बहुत लूट चुके हो. अब अपना तामझाम समेट कर यह जगह खाली करो. यहां मंदिर बनेगा,’’ जिस रफ्तार से वह आया था, उसी रफ्तार से जहर उगल कर चला गया. सभी हक्केबक्के रह गए.

कुछ देर बाद डाक्टर रंजन बोले, ‘‘नेहा, तुम मरीजों को देखो. मैं सरपंचजी से मिलने जाता हूं. आओ अजय,’’ वे दोनों वहां से चले गए.

‘‘पिताजी, समय खराब मत करो. मंदिर बनवाना जल्दी शुरू करवा दो. मैं डाक्टर को हड़का कर आया हूं. सरपंच के भी सारे रास्ते बंद कर देता हूं,’’ शंभूनाथ ने पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ को समझाया.

‘‘सरपंच को तुम कैसे रोकोगे,’’ वैद्य शंकर दयाल ने पूछा.

‘‘वह सब आप मुझ पर छोड़ दो. जल्दी से मंदिर बनवाना शुरू करवा दो,’’ तीनों को समझाने के बाद शंभूनाथ वहां से चला गया.

‘‘सरपंचजी, आप किसी तरह हमारे क्लिनिक को बचा लो.’’

‘‘रंजन, मैं पूरी कोशिश करूंगा, क्योंकि उस जमीन के कागजात अभी तैयार नहीं हुए हैं. मैं कल कागजात पूरे करवा देता हूं,’’ डाक्टर रंजन को सरपंच उदय प्रताप ने भरोसा दिलाते हुए कहा.

रात में मंदिर बनाने का सामान आया. ट्रक और ट्रैक्टरों ने उलटासीधा लोहा, ईंट वगैरह सामान उतारा. जगह कम थी. टक्कर लगने से क्लिनिक की बाहरी दीवार ढह गई. सुबह डाक्टर रंजन ने यह सब देखा, तो वे दंग रह गए. नेहा, जगन, लीला शांत थे. तभी पीछे से अजय ने डाक्टर रंजन के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘इस समय हम सिर्फ चुपचाप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते हैं.

‘‘मैं ने इस सिलसिले में शंभूनाथ से बात की, तो वह बोला कि मैं कुछ नहीं कर सकता,’’ कह कर अजय चुप हो गया. जेसीबी, ट्रैक्टर वगैरह मैदान को समतल कर रहे थे. जेसीबी वाले ने जानबूझ कर क्लिनिक की थोड़ी सी दीवार और ढहा दी. ‘धड़ाम’ की आवाज सुन कर सभी बाहर आए.

‘‘डाक्टर साहब, गलती से टक्कर लग गई. आज नहीं तो कल यह टूटनी है,’’ बड़ी बेशर्मी से जेसीबी ड्राइवर ने कहा. सभी जहर का घूंट पी कर रह गए.

शंभूनाथ ने पुजारी त्रिलोकीनाथ से कहा, ‘‘पुजारीजी, सब तैयारी हो चुकी है. आप बेफिक्र हो कर मंदिर बनवाना शुरू कर दो. मेरे एक दोस्त ने, जो विधायक का सब से करीबी है, विधायक से थाने, तहसील, कानूनगो को फोन कर के निर्देश दिया है. उस जमीन पर सिर्फ मंदिर ही बने. अब हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है.’’

सारी बातें सुनने के बाद पुजारी त्रिलोकीनाथ खुश हो गए.

डाक्टर रंजन और अजय बहुत सोचविचार के बाद थाने गए. थानेदार ने जमीन के कागजात मांगे. कागजात न होने के चलते रिपोर्ट दर्ज न हो सकी. दोनों बुझे मन से थाने से निकल आए.

सरपंच उदय प्रताप पटवारी और कानूनगो से मिले, ‘‘आप किसी तरह से डाक्टर के क्लिनिक के कागजात आज ही तैयार कर दो. बड़ी लगन और मेहनत से डाक्टर रंजन गांव वालों की सेवा कर रहे हैं. कृपया, आप मेरा यह काम कर दो,’’ सरपंच की सुनने के बाद उन दोनों ने असहमति जताई. सरपंच उदय प्रताप को बड़ा दुख हुआ.

दोनों की नजर तहसील से बाहर आते उदय प्रताप पर पड़ी. उन की चाल देख डाक्टर रंजन और अजय समझ गए कि काम नहीं हुआ. ‘‘काम नहीं हुआ क्या सरपंचजी,’’ डाक्टर रंजन ने पूछा.

‘‘नहीं. बस एक उम्मीद बची है. विधायक साहब से मिले लें,’’ सरपंच उदय प्रताप का सुझाव दोनों को सही लगा. तीनों उन से मिलने चल दिए. नेहा, जगन, लीला वगैरह बड़ी बेचैनी से तीनों के आने का इंतजार कर रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, हम आखिरी बार कह रहे हैं कि क्लिनिक खाली कर दो, नहीं तो सब इसी में दब जाएगा,’’ शंभूनाथ की चेतावनी सुन कर वे तीनों बाहर आए. शंभूनाथ वहां से जा चुका था. विधायक का दफ्तर बंद था. घर पहुंचे, तो गेट पर तैनात पुलिस ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया. थकहार कर उदय प्रताप, अजय और डाक्टर रंजन गांव आ गए.

मंदिर की नींव रख दी गई थी. प्रसाद बांटा जा रहा था. जयकारे गूंज रहे थे.

‘‘पंडितजी ने मंदिर के लिए सही जगह चुनी है. उन्होंने गांव के लिए सही सोचा,’’ एक बुजुर्ग ने योगीनाथ की तारीफ करते हुए कहा. तीनों के जानपहचान वाले डाक्टर रंजन को कोस रहे थे. कुछ गालियां दे रहे थे.

‘‘चोर है, गरीबों को लूट रहा है, नकली दवाएं देता है, पानी का इंजैक्शन लगा कर पैसे बना रहा है, पंडितजी इस को सही भगा रहे हैं,’’ एक आदमी बोला. एक आदमी सरपंच को भी बुराभला कह रहा था, ‘‘अब की इसे वोट नहीं देंगे, यह डाक्टर के साथ मिल कर गांव को लूट रहा है.’’

कुछ ही लोग सरपंच और डाक्टर रंजन के काम को अच्छा कह रहे थे. सरपंच उदय प्रताप डाक्टर रंजन के क्लिनिक के बाहर खड़े थे. नेहा, जगन, लीला और अजय भी वहीं मौजूद थे.

‘‘बेटे, जगह खाली करने के सिवा अब और कोई चारा नहीं है. गांव के भोलेभाले लोग पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ के मकड़जाल में फंस चुके हैं. हमारी सुनने वाला कोई नहीं. कोर्ट के चक्कर में फंसने से भी कोई हल नहीं निकलेगा,’’ सरपंच की बात सुन कर डाक्टर रंजन मायूस हो गए.

बहुत देर बाद डाक्टर रंजन ने पूछा, ‘‘फिर, मैंक्या करूं?’’

सरपंच उदय प्रताप बोले, ‘‘बेटे, गांव के नासमझ लोगों पर मंदिर बनवाने का भूत सवार है. इन्हें डाक्टररूपी दूसरे भगवान से ज्यादा जरूरत पत्थररूपी भगवान की चाह है. इन लोगों को हम जागरूक नहीं कर सकते. इन्हें सिर्फ इन का जमीर, इन की अक्ल ही जागरूक कर सकती है. हम हार चुके हैं रंजन, हम हार चुके हैं.’’ मायूस हो कर सरपंच उदय प्रताप वहां से चले गए. सभी मिल कर क्लिनिक खाली करने लगे. डाक्टर रंजन शांत खड़े थे.

हैवान: आखिर लोग प्रतीक को क्यों हैवान समझते थे?

‘‘माली, यह तुम ने क्या किया? छाया में कहीं आलू होता है? इस से तो हलदी बो दी जाती तो कुछ हो भी जाती.’’

‘‘साहब का यही हुक्म था.’’

‘‘तुम्हारे साहब ठहरे शहरी आदमी. वह यह सब क्या जानें?’’

‘‘हम छोटे लोगों का बड़े लोगों के मुंह लगने से क्या फायदा, साहब? कहीं नौकरी पर ही बन आए तो…’’

‘‘फिर भी सही बात तो बतानी ही चाहिए थी.’’

‘‘आप ने साहब का गुस्सा नहीं देखा. बंगला क्या सारा जिला थर्राता है.’’

मैं ने सुबह बंगले के पीछे काम करते माली को टहलते हुए टोक दिया था. प्रतीक तो नाश्ते के बाद दफ्तर के कमरे में अपने मुलाकातियों से निबट रहा था.

मैं और प्रतीक बचपन के सहपाठी रहे थे. पढ़ाई के बाद वह प्रशासनिक सेवा में चला गया था. उस के गुस्से के आतंक की बात सुन कर मुझे कुछ अजीब सा लगा क्योंकि स्कूलकालिज के दिनों में उस की गणना बहुत शांत स्वभाव के लड़कों में की जाती थी.

कालिज की पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही मुझे असम के एक चायबागान में नौकरी मिल गई थी और उस के बाद से प्रतीक से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया था. 9 साल बाद मैं इस नौकरी से त्यागपत्र दे कर वापस आ गया और अपने गांव में ही खेती के अलावा कृषि से संबंधित व्यवसाय करने लगा.

जब मुझे प्रतीक का पता लगा तो मैं उसे पत्र लिखने से अपने को न रोक सका. उत्तर में उस ने पुरानी घनिष्ठता की भावना से याद करते हुए आग्रह किया कि मैं कुछ दिनों के लिए उस के पास आ कर अवश्य रहूं, लेकिन प्रतीक के पास आ कर तो मैं फंस सा गया हूं. आया था यह सोच कर कि मिल कर 2 दिन में लौट जाऊंगा. लेकिन आजकल करते- करते एक हफ्ते से अधिक हो चुका है. जब भी लौटने की चर्चा चलाता हूं तो प्रतीक कह उठता है, ‘‘अरे, अभी तो पूरी बातें भी नहीं हो पाई हैं तुझ से. तू तो देखता है कि काम के मारे दम मारने की

भी फुरसत नहीं मिलती. फिर तेरी कौन सी नौकरी है जो छुट्टी खत्म होने की तलवार लटक रही हो सिर पर. अभी कुछ ठहर. यहां तुझे क्या तकलीफ है?’’

तकलीफ तो मुझे वास्तव में यहां कोई नहीं है. हर प्रकार का आराम ही है. बड़ा बंगला है. बंगले में दफ्तर के कमरे से सटे एक अलग मेहमान वाले कमरे में मुझे टिकाया गया है. प्रतीक की पत्नी ललिता भी बड़ी शालीन स्वभाव की है. प्रतीक के आग्रह पर वह भी यदाकदा इसी बात पर जोर देती है, ‘‘भाई साहब, इन के साथ तो आप बचपन से रहे हैं लेकिन मैं ने तो आप को अभी देखा है. कुछ मेरा अधिकार भी तो बनता है. इस छोटी जगह में कौन आता है हमारे यहां रहने? जब आप आए हैं तो इतनी जल्दी जाने की बात मत कीजिए. आप की वजह से कुछ ढर्रा बदला है वरना रोज ही वही क्रम चलता रहता है.’’

रोज का एक जैसा क्रम तो मैं एक सप्ताह से बराबर देख रहा हूं. प्रात: 8 बजने से पहले नाश्ता. फिर घर पर आए मुलाकातियों से जूझना, तब कचहरी की दौड़. दोपहर 2 बजे भागादौड़ी में खाना, फिर कोई न कोई बैठक, जो शाम ढले ही निबटती है. फिर किसी समारोह में भाग लेने के लिए निकल जाना या किसी मिलने वाले का आ टपकना. रात को अवश्य आराम से बैठ कर भोजन किया जाता है. दूसरे दिन पुन: यही सिलसिला शुरू हो जाता है.

बंगले का स्तब्ध वातावरण भी किसी फौजी कैंप जैसा लगता है. हर वस्तु अपने स्थान पर व्यवस्थित. ‘जीहजूर’ या ‘जी सरकार’ की उबाऊ गूंज ही निरंतर कान छेदती रहती है. सारे चेहरे या तो कसे हुए हैं या सहमे हुए. यहां तक कि ललिता को भी मैं ने प्रतीक का मूड देख कर ही बात करते पाया. एक दिन मैं ने उस से कहा भी, ‘‘भाभीजी, आप अपनेआप को प्रतीक का अमला क्यों समझने लगी हैं?’’

‘‘क्या करूं, भाई साहब, इन का मूड देख कर ही बात करनी पड़ती है. भय लगा रहता है कि कहीं नौकरचाकरों या बच्चों के सामने ही लोई न उतार बैठें. इन का भी कुसूर नहीं है. हर वक्त ही तो कोई न कोई चिंता या जंजाल सिर पर सवार रहता है.’’

‘‘लेकिन यह तो अच्छी बात नहीं. आप का अपना अलग स्थान है. एकदम निजी और निराला.’’

‘‘आप नहीं समझेंगे, भाई साहब. दिन भर के थकेमांदे जब रात को ये बिस्तर पर गिरते हैं और पलक झपकते ही सो जाते हैं तो सचमुच ही बड़ी करुणा आती है मुझे. उस समय अपनी किसी परेशानी का रोना छेड़ना एक सोते बच्चे को जगाने जैसा अत्याचार लगता है.’’

करुणा तो मुझे मन ही मन इस महिला पर आ रही थी. लेकिन ललिता पुन: बोल पड़ी, ‘‘संसार में मुफ्त कुछ नहीं मिलता, भाई साहब. उच्च पद के लिए भी शायद कीमत चुकानी पड़ती है. कहीं न कहीं त्याग करना होता है.’’

‘‘क्षमा करें, लेकिन यह सब कर के आप प्रतीक की आदतें बिगाड़ रही हैं,’’ मुझे कहना ही पड़ा.

‘‘नहीं भाई साहब, मुझे बजाय संघर्ष के सामंजस्य का मार्ग सिखाया गया है. मेरी समझ में यही उपयुक्त है.’’

इस पूर्णविराम का मैं क्या उत्तर देता?

सुबह के नाश्ते के बाद मैं अपने कमरे में आ कर समाचारपत्र या कोई पुस्तक पढ़ने लगता और प्रतीक की मुलाकातें चालू हो जातीं. दोनों कमरों के बीच केवल एक परदे का अंतर होने के कारण मुझे अधिकांश बातचीत सुनने में कोई बाधा नहीं होती. विविध प्रकार की समस्याएं सुनने को मिलतीं. एक दिन शायद प्रतीक के दफ्तर का नाजिर कुछ रंगों के नमूने ले कर आया और उन्हें प्रतीक को दिखाते हुए बोला, ‘‘मेरी समझ में तो आप के कमरे के लिए हलका नीला रंग ही सब से अच्छा रहेगा.’’

‘‘तुम्हारी भी क्या गंवारू पसंद है. रिटायरिंग रूम में नीला रंग कितना वाहियात लगेगा. हलका पीला ठीक रहेगा.’’

‘‘जी, जो हुक्म. पीला तो और भी जंचेगा,’’ नाजिर हां में हां मिला कर चला गया.

इसी प्रकार एक दिन किसी गांव से आए मुलाकाती ने अपनी समस्या प्रस्तुत की, ‘‘साहब, लड़की का ब्याह है. चीनी मिल जाती तो कुछ मदद हो जाती.’’

‘‘जिला आपूर्ति अधिकारी के पास क्यों नहीं गए?’’

‘‘गया था, हुजूर. वह बोले कि 40 किलो से ज्यादा का परमिट वह नहीं दे सकते. लड़की की शादी में इतने से क्या होगा? उन्होंने बताया है कि ज्यादा का परमिट आप ही दे सकते हैं.’’

‘‘तब कितनी चाहिए?’’

‘‘एक बोरा भी मिल जाती तो कुछ काम चल जाता.’’

‘‘नहीं, एक बोरा तो नहीं, मैं 80 किलो लिख देता हूं. परमिट उसी दफ्तर से बनवा लेना.’’

‘‘जैसी सरकार की मर्जी,’’ अंतिम आदेश की आंच से अपनी मांग को सेंकता वह बिना कान खटकाए चला गया.

एक अन्य दिन कार्यालय के बड़े बाबू ने आ कर बताया, ‘‘साहब, कल रात त्रिलोकी बाबू गुजर गए.’’

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ. आज जब मैं दफ्तर पहुंचूं तो एक शोक सभा कर लेना और आधे दिन को दफ्तर बंद करने की घोषणा भी उसी वक्त कर दी जाएगी.’’

‘‘ठीक है, हुजूर,’’ और बड़े बाबू सलाम झुकाते चले गए.

शायद उस शाम प्रतीक को कहीं जाना भी नहीं था. रात को भोजन के समय मैं ने उसे कुरेदा, ‘‘आज सुबह तुम से कोई कह रहा था कि रात तुम्हारे दफ्तर के किसी बाबू की मृत्यु हो गई. मैं तो सोच रहा था कि शाम को तुम उस के घर संवेदना प्रकट करने जाओगे.’’

‘‘ऐसे मैं किसकिस के घर जाता फिरूंगा?’’ प्रतीक ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘‘खुशी के मौके पर एक बार न भी जाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन शोक के अवसर पर जाने से तुम्हारी सहृदयता की छाप ही पड़ती. लोगों में तुम्हारे प्रति सुभावना ही उत्पन्न होती.’’

‘‘मैं इस सब की चिंता नहीं करता. दिन भर वैसे ही क्या कम झंझट रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि तुम एक मशीनी मानव बनते जा रहे हो. हर व्यक्ति इनसान से इनसानियत की आशा करता है. संवेदना प्रकट करना उसी का तो एक रूप है.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैं हर किसी को देखते ही दबोच कर कच्चा चबा जाता हूं.’’

‘‘चबाओ चाहे नहीं, लेकिन अपने मिलने वालों से व्यवहार तो तुम्हारा एकदम रूखा होता है, यह तो इतने दिनों से तुम्हारे मुलाकाती लोगों से हुई बातचीत को सुन कर मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं. तुम्हारे माली तक की इतनी हिम्मत नहीं कि तुम्हें बता सके कि छाया में आलू पैदा नहीं होता.’’

मैं ने गौर किया कि इस बीच ललिता 2 बार अपनी प्लेट से सिर उठा कर हम लोगों की ओर सशंकित दृष्टि उठा चुकी थी. प्रतीक अपना मोर्चा संभाले ही रहा, ‘‘हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो लेकिन मैं अपने को बदल नहीं सकता.’’

‘‘यह कैसी जिद हुई? अगर तुम्हें लगता है कि कोई आदत सही नहीं है तो उसे छोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है.’’

कुछ देर सभी चुपचाप खाना खाते रहे और केवल प्लेटों पर चम्मचों के टकराने की ध्वनि ही होती रही.

मैं ने ही उसे पुन: छेड़ा, ‘‘अच्छा यह बता कि तुम लोग सिनेमा देखने कितने दिनों से नहीं गए?’’

‘‘याद नहीं कितने दिन हो गए. ललिता, तुम बताओ कब गए थे?’’

ललिता का जैसे साहस जाग्रत हो गया था. फौरन बोली, ‘‘आप दिनों की बात करते हो? यहां तो महीनों हो गए,’’ फिर वह मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘एक तो इस छोटे शहर में लेदे कर कुल जमा 2 सिनेमाघर हैं और उन में भी एकदम पुरानी और सड़ी फिल्में आती हैं. लेकिन कभी जाने की सोचो तो भी प्रोग्राम तो बन जाएगा, टिकट भी आ जाएंगे. सिनेमा के मैनेजर का फोन भी आ जाएगा कि जल्दी आ जाइए फिल्म शुरू होने वाली है. लेकिन तभी इन का कोई जरूरी काम आ टपकेगा. कभी जरूरी मीटिंग होने वाली होगी, तो कभी मंत्रीजी आ टपकेंगे. बस, सिनेमा जाना मुल्तवी. हार कर मुझे ही मैनेजर से कहना पड़ता है कि नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘आप बच्चों को ले कर अकेली क्यों नहीं चली जातीं?’’ मैं ने ललिता से कहा.

‘‘यह मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर, भाई साहब, यह छोटी जगह है. लोग कई तरह की बातें करने लगेंगे. व्यर्थ में बदनामी मोल लेने से क्या फायदा?’’

‘‘अच्छा, भाभीजी, तो इस बात पर आप कल ही सिनेमा चलने का प्रोग्राम बनाइए. मैं भी चलूंगा. क्यों, प्रतीक, फिर रहा पक्का?’’

‘‘भाई, कल शाम तो क्लब की मीटिंग है. उस में जाना ही पड़ेगा वरना लोग कहेंगे कि मीटिंग छोड़ कर मौज उड़ाने सिनेमा चल दिए.’’

‘‘सुन, क्लब की मीटिंग तो तेरे बिना भी हो सकती है, फिर उस में गप्पें मारने और खानेपीने के सिवा और होता ही क्या है? अव्वल तो कोई तुम से पूछेगा नहीं और अगर पूछे भी तो कह देना कि एक जबरदस्त दोस्त जबरन सिनेमा घसीट ले गया.’’

अगले दिन वाकई सब लोग सिनेमा देख ही आए. कोई खास अच्छी फिल्म नहीं थी. लेकिन मैं ने देखा कि ललिता से ले कर बच्चों तक के चेहरों में नई चमक थी. और उस की हलकी परछाईं प्रतीक पर भी थी.

इसी के बाद दीवाली का त्योहार पड़ा. उस दिन ललिता ने रात के भोजन के लिए कई विशेष व्यंजन बनाए. नित्य की भांति हम सभी साथसाथ बैठे भोजन कर रहे थे. मुझे 1-2 वस्तुएं विशेष स्वादिष्ठ लगीं और मैं बोल पड़ा, ‘‘दही की पकौडि़यां बहुत बढि़या बनी हैं. बहुत ही मुलायम हैं. प्रतीक, तुझे अच्छी नहीं लगीं?’’

‘‘नहीं, बनी तो अच्छी हैं,’’ प्रतीक का उत्तर था.

‘‘तो फिर अभी तक तेरे मुंह से कुछ फूटा क्यों नहीं? क्या तेरे स्वादतंतु भी सूख गए हैं?’’

‘‘ललिता के हाथ की बनी हर चीज जायकेदार होती है. किसकिस चीज की तारीफ करता फिरूं?’’

‘‘लेकिन इस में तेरी गांठ का क्या निकल जाएगा, जो इतनी कंजूसी दिखाता है?’’

‘‘भाई, घर में यह चोंचलेबाजी मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘वाह, क्या अच्छी चीज को अच्छा कहने पर भी कर्फ्यू लगा रखा है?’’

दोनों छोटे बच्चे मुसकराने लगे और ललिता भी कुछ सकुचा गई.

तभी चपरासी ने एक तार ला कर प्रतीक को देते हुए कहा, ‘‘हुजूर, सरकारी नहीं है. साहब के नाम से है.’’

प्रतीक ने बिना खोले ही लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘देख तो क्या है?’’

तार पढ़ने के बाद उसे प्रतीक को थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुरंत चल दूं. आपरेशन से पहले तो हर हालत में पहुंचना ही होगा.’’

सभी शंकित दृष्टि से मेरे मुख की ओर देखने लगे और भोजन कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गया.

प्रतीक मुझे स्टेशन छोड़ने आया. गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर टहलते हुए वह मुझ से बोला, ‘‘उस रात तुम ने जो कहा था वह बराबर मेरे दिमाग में घुमड़ रहा है. मुझे तो ऐसा लगता है कि निरंतर ‘जी हुजूर’ और ‘जी सरकार’ के चापलूसी माहौल से घिरा मैं सचमुच ही इनसान से हैवान बनता जा रहा हूं. किसी कोने से भी तो इनकार की आवाज नहीं सुनता. सच, तेरा आना ऐसा लगा जैसे किसी ताजा हवा का झोंका जी को लहरा गया हो. सुन, वहां पहुंचते ही पिताजी की हालत के बारे में मुझे लिखना.’’

हम लोगों ने एकदूसरे के हाथ थाम लिए थे और 10 वर्ष पूर्व की स्नेहसिक्त भावनाओं से सराबोर हो रहे थे.

कोठे से वापसी: शमा की उम्मीद

उस कोठे पर जो भी आता, शमा उस से यही उम्मीद लगाए रखती कि वह उस की मदद करेगा और उसे वहां से निकाल कर ले जाएगा. मगर कोई उस की फिक्र नहीं करता था और अपना मतलब निकाल कर चला जाता था. एक दिन शमा की कोठेदारनी चंद्रा को उस के भाग निकलने की योजना का पता चल गया.

‘‘अगर तू ने यहां से निकल भागने की कोशिश की, तो मैं तुझे काट डालूंगी. अरी, एक बार जो धंधे वाली बन जाती है, उसे तो उस के घर वाले भी वापस नहीं लेते हैं,’’ चंद्रा ने गुस्से में उबलते हुए कहा. शमा के कमरे से थोड़ी दूरी पर एक पान की दुकान थी. वह उस दुकान पर अकसर जाती थी.

एक दिन शमा ने पान वाले से कहा, ‘‘भैया, आप ही मुझे यहां से निकलवा दीजिए. मैं तवायफ नहीं हूं, मजबूरी में फंस कर यह सब…’’ पान वाले ने कहा, ‘‘मेरी इतनी ताकत नहीं है कि मैं तुम्हें यहां से निकलवा सकूं. हां, मेरे पास कमल और आरिफ आते हैं, वे तुम्हारी मदद जरूर कर सकते हैं.’’

शमा ने जब आरिफ और कमल का नाम सुना, तो उसे कुछ उम्मीद नजर आई. अब उस की आंखें हर पल आरिफ और कमल का इंतजार करने लगीं. एक शाम को आरिफ और कमल पान की दुकान पर आए, तो शमा भी दुकान पर पहुंच गई.

शमा बगैर किसी हिचक के उन से फरियाद करने लगी, ‘‘भैया, मैं तवायफ नहीं हूं. मैं यहां से निकलना चाहती हूं. आप ही मुझ बेसहारा, मजबूर लड़की की मदद कर सकते हैं. मैं आप के पास बहुत उम्मीद ले कर आई हूं.’’ ‘‘हम इस बारे में सोच कर बताएंगे,’’ कमल ने शमा को तसल्ली देते हुए कहा.

वहां से लौट कर उन दोनों ने आपस में बातचीत की और एक योजना बनाई. फिर कमल ने कोठे के एक दलाल से शमा को एक रात के लिए अपने पास रखने की बात की. दलाल ने जितनी रकम बताई, कमल ने फौरन अदा कर दी और उसे जगह बता दी.

वह आदमी उस महल्ले का काफी पुराना और भरोसेमंद दलाल था. हर कोठेदारनी उस पर भरोसा कर के उस के साथ लड़कियों को महल्ले से बाहर भेज देती थी. चंद्रा भी इनकार न कर सकी और रकम रखते हुए बोली, ‘‘तड़के ही शमा को वापस ले आना.’’

‘‘ठीक है,’’ दलाल ने अपनी मोटी गरदन हिलाते हुए कहा. रात को वादे के मुताबिक वह दलाल शमा को ले कर कमल के बताए पते पर पहुंच गया.

शमा ने जब वहां आरिफ और कमल को देखा, तो वह अपने बुलाए जाने का मकसद समझ गई और मन ही मन खुश हो गई. शमा को वहां छोड़ कर जब वह दलाल चला गया, तब आरिफ और कमल ने उस से अपने बारे में सबकुछ बताने को कहा.

शमा ने आराम से बैठते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘साहब, मैं पश्चिम बंगाल की रहने वाली हूं. वहां मेरे पिता का अच्छा कारोबार है. मेरे 3 भाई और एक बहन है. भाइयों के भी अच्छे कारोबार हैं. बहन की शादी हो चुकी है. ‘‘कुछ महीने पहले हमारे घर में शीला नाम की एक औरत किराए पर रहने आई थी. कुछ ही दिनों में वह हमारे परिवार से घुलमिल गई थी. हम सब बच्चे उसे आंटी कह कर बुलाते थे.

‘‘एक शाम को मैं स्कूल से आ रही थी. एक सुनसान जगह पर एक गाड़ी आ कर मेरे पास रुकी. कुछ गुंडों ने मुझे उस गाड़ी के अंदर खींच लिया. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे मुंह पर कपड़ा बांध दिया गया. इस के बाद मैं बेहोश हो गई. ‘‘जब मुझे होश आया, तो मैं ने वहां शीला आंटी को देखा. उसे देख कर मैं हैरान रह गई.

‘‘मुझे यह समझते देर न लगी कि इसी औरत ने मुझे अगवा कराया है. रात को शीला और उस के एक साथी ने मुझे जिस्मफरोशी के लिए मजबूर किया. ‘‘अगर मैं उन की किसी बात से इनकार करती थी, तो वे चाकू से मेरे जिस्म को हलका सा काट कर उस में मिर्च भर देते थे, ताकि मैं इस धंधे में उतर आऊं.

‘‘साहब, वहां मेरी चीखें सुनने वाला भी कोई नहीं था. वे मुझे बहुत मारते थे,’’ कहतेकहते शमा रो पड़ी. शमा की दर्दभरी कहानी सुन कर कमल और आरिफ ने उस की हिम्मत की दाद दी.

‘‘शमा, हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे, लेकिन तुम इस राज को अपने तक ही रखना,’’ आरिफ ने कहा. सुबह होते ही वह दलाल वहां आ गया और शमा को ले गया.

कमल और आरिफ कुछ लोगों की मदद से एक पुलिस अफसर से मिले और उन को शमा के बारे में पूरी जानकारी दी. उन की बातें सुन कर पुलिस अफसर ने कहा, ‘‘ठीक है, हम छापा मार कर लड़की को वहां से निकालते हैं.’’

पुलिस कोठे पर छापा मार कर शमा के साथ चंद्रा और कई दलालों को पकड़ लाई. थाने में आ कर पुलिस अफसर ने शमा से पूछताछ शुरू की. इस पर शमा ने पुलिस अफसर को जो बताया, उसे सुन कर आरिफ और कमल के होश उड़ गए. उस ने बयान दिया, ‘‘साहब, मैं एक तवायफ हूं और अपने मरजी से यह धंधा करती हूं.’’

शमा का बयान सुनने के बाद पुलिस अफसर ने कमल और आरिफ को डांटते हुए कहा कि दोबारा इस तरह पुलिस को परेशान करने की कोशिश की, तो बहुत बुरा होगा. उन्होंने शमा को चंद्रा के साथ भेज दिया. कई दिन बाद कमल जब उसी गली से गुजर रहा था, तब शमा उसे रोक कर रोने लगी. वह बोली, ‘‘चंद्रा को हमारी योजना पता लग गई थी. उस ने अपने कुछ आदमियों से मुझे बहुत पिटवाया था, इसलिए मैं डर गई थी. लेकिन साहब, मैं अब भी यहां से किसी भी तरह निकलना चाहती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें एक मौका और दूंगा. अगर निकल सकती हो, तो निकल जाना, वरना जिंदगीभर यहीं जिस्मफरोशी करती रहना,’’ कमल ने गुस्से में कहा. ‘‘इस बार आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगी,’’ शमा ने हाथ जोड़ते हुए कहा. जब कमल ने आरिफ से कहा, तो वह बोला, ‘‘कमल, हमें यह काम अब अकेले नहीं करना चाहिए. हमें अपने कुछ और दोस्तों की मदद लेनी चाहिए. मामला कुछ पेचीदा नजर आ रहा है.’’

कमल और आरिफ अपने एक दोस्त असद खां से मिले. असद खां का उस इलाके में काफी दबदबा था. वह जब उस गली से गुजरता था, तो सारी तवायफें उस के खौफ से अपने दरवाजे बंद कर लेती थीं. कमल ने असद खां को शमा के बारे में बताया. उस की सारी बातें सुन कर वह भी संजीदा हो गया और बोला, ‘‘पहले मैं उस लड़की से बात करूंगा, उस के बाद कोई फैसला लूंगा.’’

अगले दिन असद खां अपने कुछ साथियों के साथ उस कोठे पर पहुंच गया. असद खां को देखते ही महल्ले में भगदड़ सी मच गई. सारी तवायफें अपनेअपने कोठे के दरवाजे बंद करने लगीं.

असद खां ने शमा का कमरा खुलवाया. शमा ने उसे बैठने को कहा, लेकिन असद खां ने रोबीली आवाज में कहा, ‘‘मैं यहां बैठने नहीं आया हूं. मुझे कमल ने भेजा है.’’ असद खां के मुंह से कमल का नाम सुनते ही शमा सबकुछ समझ गई.

‘‘क्या तुम यहां से जाना चाहती हो?’’ असद खां ने उस से पूछा. ‘‘हां, मैं यहां से निकलना चाहती हूं, लेकिन आप लोगों ने देर कर दी, तो मुझे 1-2 दिन में कहीं दूर भेज दिया जाएगा,’’ शमा ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हें यहां से निकाल दूंगा, मगर याद रखना कि इस बार तुम पुलिस के सामने अपना बयान मत बदलना. अगर तुम ने ऐसा किया, तो मैं तुम्हें पुलिस थाने में ही गोली मार दूंगा,’’ असद खां ने कहा. ‘‘मैं थाने नहीं जाऊंगी. मुझे पुलिस से डर लगता है,’’ शमा ने सिसकते हुए कहा.

‘‘अच्छा, मैं तुम्हें थाने नहीं ले जाऊंगा. लेकिन तुम्हें अदालत में बयान देना होगा.’’ शमा ने ‘हां’ में अपना सिर हिला दिया.

‘‘देखो लड़की, मैं तुम्हें इस कोठे से खुलेआम निकाल कर ले जाऊंगा. किसी माई के लाल में इतनी हिम्मत नहीं, जो मुझे रोक सके,’’ असद खां ने आंखें फाड़ते हुए कहा. असद खां की बातों से शमा को यकीन हो गया कि वह उसे यहां से जरूर निकाल ले जाएगा.

असद खां जब शमा का हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया, तो पूरे कोठे में सन्नाटा छा गया. किसी बदमाश या दलाल की उस से बात करने की हिम्मत न हो सकी. असद खां शमा को एक वकील के साथ अदालत में ले गया.

शमा मजिस्ट्रेट के सामने फूटफूट कर रोने लगी. उस ने उन्हें अपनी सारी कहानी सुना दी और अपने जिस्म के जख्मों के निशान भी दिखाए. शमा की दर्दभरी कहानी सुन कर मजिस्ट्रेट ने फौरन पुलिस को हुक्म दिया कि चंद्रा और उन लोगों को गिरफ्तार किया जाए, जिन्होंने इस लड़की पर जुल्म किया है.

मजिस्ट्रेट के हुक्म पर पुलिस ने फौरन गिरफ्तारी शुरू कर दी. बाद मैं मजिस्ट्रेट ने हुक्म दिया कि पुलिस की निगरानी में शमा को उस के घर भेज दिया जाए. कुछ दिनों के बाद शमा को हिफाजत के साथ उस के घर भेज दिया गया.

रिश्ता दोस्ती का: क्या सास की चालों को समझ पाई सुदीपा

12 साल की स्वरा शाम में खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो
सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुस्कुराते हुए बेटी से
कहा,” बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रेंड, अविनाश अंकल हैं . नमस्ते करो
अंकल को.”

“नमस्ते मम्मा के फ्रेंड अंकल ,” कह कर हौले से मुस्कुरा कर वह अपने कमरे
में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी. कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी
घर लौट आया. विराज स्वरा से दोतीन साल ही बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया,” भैया आप मम्मा के फ्रेंड से मिले?”

“हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन
तू कहीं गई हुई थी.”

“वह सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बॉयफ्रेंड हुए न ?”

” यह क्या कह रही है पगली, वह तो बस फ्रेंड है. यह बात अलग है कि आज तक
मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है
मम्मा ने.”

” वही तो मैं कह रही हूं कि वह बॉय भी है और मम्मा का फ्रेंड भी. यानी वह
बॉयफ्रेंड ही तो हुए न,” मुस्कुराते हुए स्वरा ने कहा.

” ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,” विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुए
थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं,” बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रेंड अब
अक्सर ही घर आने लगा है.”

“अरे नहीं मम्मी जी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी ऑफिस के किसी काम
के सिलसिले में ही आया था.”

” मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे ऑफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर
पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं. जब कि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा
लग रहा था.”

” मम्मी जी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है.
एक्चुअली हमारे ऑफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल में ही हुआ है. पहले उस
की पोस्टिंग हेड ऑफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नॉलेज काफी ज्यादा
है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो यह तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह
ऑफिस में बहुत जल्द सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मी जी आप बताइए आज
खाने में क्या बनाऊं?”

” जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों को जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना
सही नहीं होता. तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.”

” अरे मम्मी जी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,” कह कर
हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग
को कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सब कुछ
बताने लगी.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की,” मां आज के समय में महिलाओं और
पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी
समझदार है. आप टेंशन क्यों लेते हो मां ?”

” बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं
सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय
नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.”

” डोंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,” अविनाश मां
के पास से तो उठ कर चला आया मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के
जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा
यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी
तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निपटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे
छेड़ने के अंदाज में कहा ,” मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से
दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.”

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया,” जी हां आप
ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से
प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं. ”

” हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है मगर मेरी नहीं. ऑफिस में मुझे भी
महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि
मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.”

” आई नो एंड आई लव यू, ” प्यार से सुदीपा ने कहा.

” ओहो चलो इसी बहाने यह लफ्ज़ इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,”
अविनाश ने उसे बाहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यार भरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अक्सर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी
दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था इसलिए सुदीपा भी
इस दोस्ती को एंजॉय कर रही थी. साथ ही ऑफिस के काम भी आसानी से निबट
जाते. सुदीपा ऑफिस के साथ घर भी बहुत अच्छे से संभालती थी. अनुराग को इस
मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

पर मां अक्सर बेटे को टोकतीं ,”यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही
हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.”

” मां एक्चुअली सुदीपा ऑफिस के कामों में ही अविनाश की हेल्प लेती है.
दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं.
इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस
में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो
रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए
हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के
लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न. फिर जब वह घर संभालने के बाद
काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती
न. ”

” बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा
नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,” मुंह
बनाते हुए मां ने कहा.

” ठीक है मां मैं बात करूंगा ,” कह कर अनुराग चुप हो जाता.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा
ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश
शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि
सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा
कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही थी तो उस
के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने
पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू किया. एक दिन दोनों बच्चों को
बैठा कर वह समझाने लगे,” देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती
ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या
पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती
है? ”

” दादी जी मम्मा घूमने नहीं बल्कि ऑफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ
जाती हैं, ” विराज ने विरोध किया.

” भैया को छोड़ो दादी जी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में
इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को
ले जाते हैं. यह सही नहीं.”

“हां बेटे मैं इसलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने
दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करें.”

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर
पार्क जाने वाले थे. दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने
लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, “दादी जी मम्मा कहां है दिख
नहीं रही?”

“तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रेंड के साथ.”

“मतलब अविनाश अंकल के साथ?”

“हां ”

” लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बॉयफ्रेंड
इंपॉर्टेंट हो गया ?” कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो
गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ” यही तो मैं कहती
आ रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा
महत्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं
आता.”

” मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरुरी काम आ गया होगा,” अनुराग ने
सुदीपा के बचाव में कहा.

” पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला? ” कह कर
विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा
बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली,” लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश
अंकल से हो गया है.”

वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई. शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में
सब का मूड ऑफ था.

सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा,” तुम्हारे अविनाश
अंकल के पैर में गहरी चोट लगी लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल
गई.”

” मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और
वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी ,” कह कर दोनों वहां
से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नज़दीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे.
वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गर्मी की छुट्टियों के बाद बच्चों
के स्कूल खुल गए और विराज अपने हॉस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर
दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को
समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर
थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं
देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से
दोचार साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन
और फिटनेस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित
थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय
दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सेल्फ
डिफेंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा
को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत
की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं
की. अब तो सुजय अक्सर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रॉब्लम भी
सॉल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा,” मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता
है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.”

” यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लॉन में या फिर अपनी कमरे में
डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.”

” मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा ?” स्वरा ने पूछा.

” अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता
है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पेंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा?
बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम
की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है ?”

“ओके थैंक यू मम्मा,” कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय
इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.
घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो
स्वरा उस से मैथ्स की प्रॉब्लम सॉल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को
दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी है.
स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वह अपने
कमरे में सोए पड़े थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया
और जल्दी से एंबुलेंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मी डैडी को भी
हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा.
उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुँच कर उस ने बहुत
समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन
को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हॉस्पिटल पहुंच गए थे.

डॉक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय की तारीफ करते हुए कहा,” इस लड़के ने
जिस फुर्ती और समझदारी से आप की मां को हॉस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ
है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी और जान को भी खतरा हो
सकता था. ”

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी
नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज
उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की
दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई.

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा,” आज मुझे
पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा
कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे की दोस्ती का मतलब क्या है.”

“यह तो मेरा फर्ज था दादी जी, ” सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा,” मुझे माफ कर
दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और
अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ
सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही
नहीं पाई थी. ”

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली,” मम्मी जी आप बड़ी हैं. आप को मुझ
से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं इसलिए आप
के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं
इसलिए बिना कुछ छुपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी. ”

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल
और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा,” मैं ने
सुना है कि अम्मां जी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वह? ”

” बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,” हंसते हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़
कर उसे अंदर ले आई.

रोजी रोटी: जब लालाजी ने किया फूड इंस्पेक्टर की रिश्वतखोरी का विरोध?

‘‘मेरे यहां न तो कोई गलत माल बनता है न ही मैं मिलावट करता हूं. मैं किस बात का महीना दूं?’’ लाला कुंदन लाल ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘लालाजी, बात अकेली मिलावट की नहीं है…अब पुराने नियम और तरीके सब बदल चुके हैं. मिलावट के साथसाथ अब सफाई, रंग और कैलोरी आदि की भी जांच की जाती है,’’ स्वास्थ्य विभाग के चपरासी श्यामलाल ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘मगर मेरे यहां सफाई का स्तर ठीक है. आप सारे रेस्तरां में कहीं भी गंदगी दिखाएं, किचन में सबकुछ स्टैंडर्ड का है.’’

‘‘ये सब बातें कहने की हैं. अफसर लोग नहीं मानते.’’

‘‘मांग जायज हो तो मानें. पिछले 3 साल से महीने की दर बढ़तेबढ़ते 10 गुनी हो गई है…यह तो सरासर लूट है.’’

‘‘महीना सब का बढ़ाया है, अकेले आप ही का नहीं.’’

‘‘मगर मैं इतना नहीं दे सकता.’’

‘‘सोचविचार कर लीजिए. खामख्वाह पंगा पड़ जाएगा,’’ एक तरह से धमकी देता श्यामलाल चला गया.

चपरासी के जाते दोनों बेटे सुरेश और अशोक भी पिता के पास आ गए. कहां तो 100 रुपए महीना था, अब 3 हजार रुपए महीना मांगा जा रहा है. पहले मिलावट के मामले में सजा अधिकतम 6 महीने से 1 साल तक थी साथ में 1 से 2 हजार रुपए तक जुर्माना था.

नए प्रावधानों में अब न्यूनतम सजा 3 साल की तथा जुर्माना 25 हजार से 3 लाख रुपए तक हो गया था. जैसे ही कानून सख्त हुआ था वैसे ही रिश्वत की दर भी आसमान पर पहुंच गई. सफाई या हाईजिन स्तर के नाम पर किसी प्रतिष्ठान, दुकान को बंद करवाने का अधिकार भी खाद्य निरीक्षक को मिल गया था. इस से भी अब लूट बढ़ गई थी.

लालजी की गोलहट्टी के नाम से खानेपीने की दुकान सारे शहर में मशहूर थी. माल का स्तर शुरू से काफी अच्छा था. मिलावट वाली कोई वस्तु नहीं थी.  मिलावट तो नहीं थी मगर प्रयोग- शालाओं में कई अन्य आधारों पर नमूना फेल हो जाता था. नमूने को कभी स्तरहीन या अखाद्य या ‘एक्सपायर्ड’ भी करार दे दिया जाता था, जिस से मुकदमा दर्ज हो जाता था या फिर दुकान बंद हो जाती.

जितने ज्यादा नए कानून बनते उतने नए अपराधी बनते. जितना सख्त कानून होता उतना ज्यादा रिश्वत का रेट होता. अपराध तो कम नहीं होते थे, भ्रष्टाचार जरूर बढ़ जाता था.  लाला कुंदन लाल ने जीवनभर मिलावट नहीं की थी. वे ऐसा करना पसंद नहीं करते थे. ग्राहकों को साफसुथरा खाना देना अपना कर्तव्य समझते थे. किसी जमाने में मिलावट का नाम भी नहीं था. मिलावट क्या होती है…कोई नहीं जानता था.  तब खाद्य निरीक्षक का पद भी नहीं था. नगर परिषद का सैनेटरी इंस्पैक्टर कभीकभार बाजार का चक्कर लगा लेता था. किसीकिसी का सैंपल या नमूना ले कर प्रयोगशाला को भेज दिया करता था. सैंपल फेल कम आते थे. सैंपल फेल आने पर जुर्माना होता था जो 50 रुपए से 400-500 रुपए तक था. मगर ऐसा कम ही होता था. कोई सजा का मामला नहीं था.

अब वक्त बदल चुका था. आबादी बहुत बढ़ गई थी. साथ ही कानून और अपराधी भी. अब सैंपल या नमूना फेल ज्यादा आते थे, पास कम होते थे. गेहूं के साथ घुन भी पिसता है, के समान मिलावट न करने वाले भी फंस जाते थे.

लाला कुंदन लाल के साथ दोनों बेटे भी विचारमग्न थे. क्या करें? कभी रिश्वत मात्र 100  रुपए महीना थी अब 3 हजार रुपए मांगे जा रहे थे. कल को या भविष्य में 30 हजार रुपए महीना भी मांगे जा सकते थे. वे मिलावट नहीं करते थे मगर हर जगह बेईमानी थी. प्रयोगशालाओं में नमूने फेल, पास करवाए जाते थे.  अपने विरोधी या प्रतिद्वंद्वी को फंसाने के लिए कई व्यापारी उस का नमूना प्रयोगशाला में फेल करवा देते थे. बदले समय के साथ अब व्यापार में भी घटियापन बढ़ गया था.

‘‘फूड इंस्पैक्टर 3 हजार रुपए महीना मांग रहा है,’’ लालाजी ने दोनों बेटों को बताया.

‘‘पिताजी, दे दीजिए. सैंपल भर लिया, फेल करवा दिया तब परेशानी बढ़ जाएगी,’’ छोटे बेटे अशोक ने कहा.

‘‘मगर इन की मांग सुरसा के मुंह के समान बढ़ती जा रही है. कभी 100 रुपए महीना था. अब 3 हजार रुपए मांग रहे हैं, साथ ही आधा दर्जन लोग खाने आ जाते हैं,’’ लालाजी ने रोष भरे स्वर में कहा.

इस पर दोनों बेटे खामोश हो गए. क्या करें? पुराना फूड इंस्पैक्टर शरीफ था. 100 रुपए महीना लेने पर भी विनम्रता से पेश आता था. नए जमाने का खाद्य निरीक्षक 3 हजार ले कर भी रूखे और रोबीले अंदाज में बात करता था.  लालाजी मिलावट पहले नहीं करते थे, अब भी नहीं करते. बात सिर्फ इंसाफ की थी. इंसाफ कहां था? प्रयोगशालाओं में निष्पक्षता न थी यही सब से बड़ी समस्या थी.  2 दिन बाद, चपरासी श्यामलाल दोबारा आया.

‘‘लालाजी, क्या इरादा है?’’

‘‘मैं ने पहले भी कहा है, मैं मिलावट नहीं करता. मैं महीना किस बात का दूं?’’ दोटूक स्वर में लालाजी ने कहा.

‘‘लालाजी, सोच लीजिए,’’ यह बोल कर गुस्से से तमतमाता चपरासी वापस चला गया.

‘‘पिताजी, आप ने यह क्या किया? अब यह हमारा सैंपल भरवा देगा?’’ दोनों बेटों ने पिताजी के पास आ कर कहा.

‘‘जो होगा देखेंगे. जोरजबरदस्ती की भी एक सीमा है. जब हम मिलावट ही नहीं करते तब महीना किस बात का दें.’’

‘‘पिताजी, वे प्रयोगशाला से नमूना फेल करवा देंगे.’’

‘‘जो होगा देखेंगे. अब मैं 60 साल का हूं. मुकदमा हो भी जाता है तो भी परवा नहीं है,’’ लालाजी के स्वर में एक निश्चय और चेहरे पर आभा थी.

शाम से पहले एक बड़ी स्टेशनवैगन गोलहट्टी के सामने आ कर रुकी. चिरपरिचित खाद्य निरीक्षक सोम कुमार और स्वास्थ्य अधिकारी मैडम शकुंतला उतर कर दुकान में प्रवेश कर गए.

‘‘दुकान का मालिक कौन है?’’ फूड इंस्पैक्टर ने रौब से पूछा.  लालाजी सब माजरा समझ रहे थे. दर्जनों बार परिवार सहित खापी कर जाने वाला पूछ रहा है कि दुकान का मालिक कौन है.

‘‘मैं हूं जी, बात क्या है?’’

इस दबंग जवाब की उम्मीद फूड इंस्पैक्टर को न थी.

‘‘क्याक्या बनाते हैं आप?’’

‘‘सामने काउंटर में रखा है, देख लीजिए.’’

‘‘आप के पास इस काम का लाइसैंस है?’’

‘‘हां, है जी. यह देखिए,’’ लालाजी ने शीशे से मढ़ी तसवीर के समान फ्रेम में जड़ी म्यूनिसिपैलिटी के लाइसैंस की कापी सामने रखते हुए कहा.

‘‘आप के खिलाफ स्तरहीन खाद्य- पदार्थ बनाने और बेचने की शिकायत है, आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए, किस चीज का नमूना दें?’’इस बेबाक जवाब पर खाद्य निरीक्षक सकपका गया. काउंटर वातानुकूलित था. माल सब साफ था. दुकान में मक्खी, कीट, मच्छर का नामोनिशान तक न था. दुकान में सर्वत्र साफसफाई थी. रसोईघर साफसुथरा था.  गुलाबजामुन और रसगुल्लों का नमूना ले लिया. पहले कभी आने पर लालाजी ड्राईफू्रट से आवभगत करते थे मगर इस बार जानबूझ कर पानी भी नहीं पूछा. इस से इंस्पैक्टर चिढ़ गया.

नमूना ले सब चले गए.  ‘‘पिताजी, अगर नमूना फेल हो गया तो?’’ दोनों बेटों ने कहा, ‘‘पड़ोसी कहता है वह एक दलाल को जानता है जो प्रयोगशाला से नमूना पास करवा सकता है.’’

‘‘मगर हम तो मिलावट करते नहीं हैं, हौसला रखो, जो होगा देखेंगे.’’  शाम को चपरासी फिर आया. लालाजी ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरते हुए उस की तरफ देखा.

‘‘फूड इंस्पैक्टर कहता है अगर आप को मामला निबटाना है तो निबट सकता है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप चाहें तो नमूना यहीं खत्म कर देते हैं. प्रयोगशाला में नहीं भेजेंगे और आप चाहें तो नमूना प्रयोगशाला से पास भी करवा सकते हैं. हमारे पास दोनों इंतजाम हैं.’’

‘‘जब मैं मिलावट नहीं करता तब कैसा भी इंतजाम क्यों करूं?’’

चपरासी चुपचाप चला गया. डेढ़ माह बाद नतीजा आया. दोनों नमूने पास हो गए. लालाजी का मनोबल ऊंचा हो गया. दुकान की साख बढ़ गई. 2 माह गुजर गए.  दोपहर को स्वास्थ्य विभाग की वही पहली वाली जीप दुकान के सामने आ कर रुकी.

‘‘आप के खिलाफ शिकायत है. किसी ग्राहक को आप के यहां नाश्ता करने के बाद पेट में दर्द हुआ था,’’ फूड इंस्पैक्टर ने कहा.

‘‘वह कौन है?’’

‘‘प्रमुख चिकित्सा अधिकारी के पास लिखित शिकायत आई थी. आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए.’’

लालाजी के स्वर की दृढ़ता से स्वास्थ्य अधिकारी भी थोड़ा विचलित था. खाद्य निरीक्षक ने दुकान में नजर दौड़ाई. दुकान छोटीमोटी रेस्तरां थी. 4-5 मिठाइयां जैसे रसगुल्ले, गुलाबजामुन, रसमलाई, मिल्ककेक, पिस्ता बर्फी और पुलावचावल के साथ राजमा और छोलेभठूरे आदि प्लेट और पीस रेट के हिसाब से बेचे जाते थे.  दीवार पर रेट लिस्ट लगी थी. साथ  ही लिखा था, ‘यहां गाय का दूध प्रयोग होता है.’, ‘मिल्क नौट फौर सेल’, ‘दूध बेचने के लिए नहीं है.’  प्रावधानों के अनुसार जो वस्तु बेचने के लिए न हो उस का नमूना नहीं लिया जा सकता था. मिठाई का सैंपल पास हो चुका था. चावल, पुलाव, राजमा, छोलेभठूरे में क्या मिलावट हो सकती थी?

‘‘जरा छोले दिखाइए.’’

लालाजी के इशारे पर कारीगर ने एक कटोरी में गैस पर रखे गरम छोले डाल कर दे दिए. नाक के समीप ला उस को सूंघते हुए फूड इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘मसाले की गंध कुछ अजीब सी है. आप इस का नमूना दे दीजिए.’’  मसालाचना, राजमा व छोले की तरी का नमूना अलग से ले टीम चली गई. इस बार चपरासी ‘इंतजाम’ की बात करने नहीं आया. बेटों के सामने भी ‘दलाल’ की मार्फत नमूना पास करवाने की बात नहीं उठाई.  डेढ़ महीने बाद नतीजा आया. राजमा, मसालाचना का नमूना पास हो गया था. छोलेतरी का नमूना निर्धारित मात्रा से ज्यादा मसाला मिलाने पर तकनीकी आधार पर फेल हो गया था.  रजिस्टर्ड डाक से लालाजी को नोटिस मिला. ‘आप का नमूना प्रयोगशाला द्वारा फेल घोषित किया गया है. आप इस तारीख को मुख्य दंडाधिकारी के न्यायालय में हाजिर हों. यदि आप राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट से असहमत हैं तो केंद्रीय प्रयोगशाला में नमूने को दोबारा परीक्षण हेतु 10 दिन के अंदरअंदर भिजवा सकते हैं.’

लालाजी नोटिस की प्रति ले कर अपने परिचित वकील के पास पहुंचे.  ‘‘अरे, भाई, इस मामले को निचले स्तर पर निबटा देना था. जो मांग रहे थे दे देते,’’ वकील साहब ने नोटिस पढ़ कर कहा.

‘‘मांग जायज होती तो पूरी कर भी देता. कभी 100-200 रुपए महीना मांगते थे अब 3 हजार रुपए और ऊपर से कभी भी खानेपीने को आ जाते. साथ में रौब अलग से.’’  ‘‘मगर मुकदमा कई साल चल सकता है. पेशियों की परेशानी है. नमूना तकनीकी आधार पर फेल है इसलिए सजा का मामला नहीं है. सजा मिलावट के मामले में होती है,’’ वकील साहब ने कहा.  ‘‘और अगर इसे केंद्रीय प्रयोगशाला में दोबारा परीक्षण के लिए भेज दूं तो?’’

‘‘तब कई पहलू हैं. केंद्रीय प्रयोगशाला इसे पास कर सकती है. राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट के समान ही रिपोर्ट दे सकती है. विभिन्न रिपोर्ट दे सकती है. मिलावट घोषित कर सकती है.’’

‘‘यह तो एक किस्म का जुआ है. ठीक है, हम नमूना दोबारा परीक्षण के लिए केंद्रीय प्रयोगशाला में भेज देते हैं.’’  निर्धारित तिथि को लालाजी, एक पड़ोसी दुकानदार को बतौर जमानती, एक पूर्व नगर पार्षद को बतौर शिनाख्ती और नमूना दोबारा भिजवाने के लिए लकड़ी का खाली डब्बा, रुई का बंडल, सफेद कपड़े का टुकड़ा ले अदालत पहुंच गए.  पहले जमानत हुई. फिर नमूना भेजने की तारीख पड़ी. तारीख वाले दिन नमूना दोबारा सील कर केंद्रीय प्रयोगशाला में रजिस्टर्ड पार्सल द्वारा भेज दिया गया.  चपरासी अब फिर आया.

‘‘लालाजी, हमारे पास केंद्रीय प्रयोगशाला में इंतजाम है.’’

‘‘नहीं भाई, मुझे इंतजाम नहीं करवाना. नमूना फेल भी आ जाता है तो भी कोई बात नहीं. जब तक अदालत फैसला सुनाएगी मैं इस दुनिया से बहुत दूर जा चुका होऊंगा.’’  लालाजी के इस बेबाक जवाब पर चपरासी चला गया. दुकान में खापी रहे ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़े.

2 महीने बाद नतीजा आया. नमूना मिलावटी नहीं था. मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से कम थी जबकि राज्य प्रयोगशाला ने मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा बताई थी.  चार्ज की पेशी पर बहस हुई. माननीय न्यायाधीश ने दोनों प्रयोगशालाओं द्वारा दी गई अलगअलग परीक्षण रिपोर्टों के आधार पर लालाजी को संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया.  सारे सिलसिले में 7-8 महीने का समय लगा? और 12 हजार रुपए खर्च हुए. थोड़ी परेशानी तो हुई मगर लालाजी के नैतिक साहस और बेबाकी की सारे दुकानदारों और पड़ोसियों में चर्चा और प्रशंसा हुई.

अंधेर नगरी का इंसाफ: अंबिका और यशोधर के बीच क्या हुआ

मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, साधारण से भी कम कह सकते हो. मेरे पिता बढ़ई थे, वह भी गांवनुमा छोटे से एक कसबे में. बड़ी मुश्किल से रोजीरोटी का जुगाड़ हो पाता था. मां और बाबा दोनों का एक ही सपना था कि बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपना जीवन स्तर सुधार लें. अत: वे अपना पैतृक मकान छोड़ महानगर में आ बसे. नगर के इस हिस्से में एक नई कालोनी बन रही थी और बड़े जोरशोर से निर्माण कार्य चल रहा था. अनेक बहुमंजिला इमारतें बन चुकी थीं व कुछ बननी बाकी थीं. बाबा को रहने के लिए एक ऐसा प्लौट मिल गया, जो किसी ने निवेश के विचार से खरीद कर उस पर एक कमरा बनवा रखा था ताकि चौकीदारी हो सके.

इस तरह रहने का ठिकाना तो मिला ही, खाली पड़ी जमीन की सफाई कर मां ने मौसमी सब्जियां उगा लीं. कुछ पेड़ भी लगा दिए. बाबा देर से घर लौटते और कभी ठेके का काम मिलने पर देर तक काम कर वहीं सो भी जाते. हमारे परिवार में स्त्रियों को बाहर जा कर काम करने की इजाजत नहीं थी. अत: मां घर पर ही रहतीं. घर पर रह कर ही कड़ा परिश्रम करतीं ताकि बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का उन का सपना पूरा हो सके. हालांकि कई बार इस के लिए मां को परिवार वालों के कटुवचन भी सुनने पड़ते थे.

मुझे याद है, ताऊजी गांव से आए हुए थे. बाबा तो दिन भर काम में व्यस्त रहते अत: वे मां को ही समझाया करते, ‘‘बहुत हो चुकी देवाशीष की पढ़ाई, अब उस से कहो, बाप के साथ काम में हाथ बंटाए ताकि उसे भी कुछ आराम मिल सके. कब तक वह अकेला सब को बैठा कर खिलाता रहेगा. आगे तुम्हें 3 बच्चों की शादी भी करनी है. पता है कितना खर्च होता है बेटी के ब्याह में?’’

मां ताऊजी के सामने ज्यादा बात नहीं करती थीं. वे दबी जबान से मेरा पक्ष लेते हुए बोलीं, ‘‘पर देवाशीष तो अभी आगे और पढ़ना चाहता है… बहुत शौक है उसे पढ़ने का…’’

‘‘ज्यादा पढ़ कर उसे कौन सा इंजीनियर बन जाना है,’’ ताऊजी क्रोध और व्यंग्य मिश्रित स्वर में बोले, ‘‘उलटे अभी बाप के साथ काम में लगेगा तो काम भी सीख लेगा.’’

ताऊजी के शब्द मेरे कानों में कई दिन तक प्रतिध्वनित होते रहे. ‘पढ़लिख कर कौन सा उसे इंजीनियर बन जाना है… पढ़लिख कर…’ और मन ही मन मैं ने इंजीनियर बन जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया. मैं हमेशा ही ताऊजी का बहुत सम्मान करता आया हूं. अपनी तरफ से तो वह परिवार के हित की ही सोच रहे थे लेकिन उन की सोच बहुत सीमित थी.

मुझ से छोटी एक बहन और एक भाई था. बड़ा होने के नाते बाबा का हाथ बंटाने की मुझ पर विशेष जिम्मेदारी थी, पर पढ़नेलिखने का मुझे ही सब से अधिक शौक था. अत: मांबाबा का सपना भी मैं ही पूरा कर सकता था और मांबाबा का विश्वास कायम रखने के लिए मैं दृढ़ संकल्प के साथ शिक्षा की साधना में लग गया.

सब पुस्तकें नहीं खरीद पाता था. कुछ तो पुरानी मिल जातीं, बाकी लाइबे्ररी में बैठ कर नोट्स तैयार कर लेता. क्लास में कुछ समझ न आता तो स्कूल के बाद टीचर के पास जा कर पूछता. ताऊजी की बात का बुरा मानने के बजाय उसे मैं ने अपना प्रेरणास्रोत बना लिया और 12वीं पास कर प्रवेश परीक्षा की तैयारी में जुट गया.

वह दिन मेरे जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण दिन था, जिस दिन परिणाम  घोषित हुए और पता चला कि एक नामी इंजीनियरिंग कालेज में मेरा चयन हो गया है. मांबाबा का सिर तो ऊंचा हुआ ही, ताऊजी जिन्होंने इस विचार पर ही मां को ताना मारा था, अब अपने हर मिलने वाले को गर्व के साथ बताते कि उन का सगा भतीजा इंजीनियरिंग की बड़ी पढ़ाई कर रहा है.

जीवन एक हर्डल रेस यानी बाधा दौड़ है, एक बाधा पार करते ही दूसरी सामने आ जाती है. इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिला तो मैं ने सोचा किला फतह हो गया. सोचा ही नहीं था कि साथियों की उपहास भरी निगाहें मुझे इस कदर परेशान करेंगी और जो खुला मजाक न भी उड़ाते वे भी नजरअंदाज तो करते ही. स्कूल में कमोवेश सब अपने जैसे ही थे.

कालेज में छात्र ब्रैंडेड कपड़े पहनते, कई तो अपनी बाइक पर ही कालेज आते. मेरे पास 5 जोड़ी साधारण कपडे़ और एक जोड़ी जूते थे, जिन में ही मुझे पूरा साल निकालना था.

मैं जानता था कि फीस और अन्य खर्चे मिला कर यही बाबा के सामर्थ्य से ऊपर था, जो वे मेरे लिए कर रहे थे. अत: मुझे अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर ही यह बाधा पार करनी थी. मैं ने अपने मस्तिष्क में गहरे से बैठा रखा था कि इन बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर आगे मुझे हर हाल में बढ़ना ही है.

वर्ष के अंत तक मैं ने अपनी मेहनत और लगन से अपने टीचरों को खुश कर दिया था. अन्य छात्र भी कड़ी मेहनत कर यहां प्रवेश पा सके थे और मेहनत का अर्थ समझते थे. हालांकि मैत्री का हाथ कम ने ही बढ़ाया लेकिन उन की नजरों से उपहास कम होने लगा था.

नया सत्र शुरू हुआ. हमारे बैच में 5 छात्राएं थीं. नए बैच में 10 ने प्रवेश लिया था. अब तक कुछ सीमित क्षेत्रों में ही लड़कियां जाती थीं पर अब मातापिता उन क्षेत्रों में भी जाने की इजाजत देने लगे थे जो पहले उन के लिए वर्जित थे. एक दिन मैं लाइबे्ररी से पुस्तक ले कर बाहर निकला तो देखा कि प्रिंसिपल साहब की सख्त चेतावनी के बावजूद हमारे ही बैच के 4 लड़के रैगिंग करने के इरादे से एक नई छात्रा को घेरे खड़े थे और लड़की बहुत घबराई हुई थी. मैं जानता था कि उन लड़कों में से 2 तो बहुत दबंग किस्म के हैं और किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. मेरे मन में फौरन एक विचार कौंधा. मैं तुरंत उस लड़की की ओर यों बढ़ा जैसे वह मेरी पूर्व परिचित हो और बोला, ‘अरे, मनु, पहुंच गई तुम.’ और उसे बांह से पकड़ कर सीधे लड़कियों के कौमन रूम में ले गया. मैं ने रास्ते में उसे समझा भी दिया कि अभी 15-20 दिन अकेले बाहर बिलकुल मत निकलना. जब भी बाहर जाएं 3-4 के ग्रुप में जाएं. एक बार रैगिंग का ज्वार उतर जाने पर फिर सब सुरक्षित है.

उस समय तो मेरी उस लड़की से खास बात नहीं हुई. यहां तक कि उस का असली नाम भी बाद में पता चला, अंबिका, पर वह मेरा आभार मानने लगी थी. रास्ते में मिल जाने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ करती. उस की मुसकराहट में ऐसा उजास था कि उस का पूरा चेहरा ही दीप्त हो उठता, बच्चे की मुसकराहट जैसी मासूम और पावन. मेरे लिए यह एक नया अनुभव था. मैं ने तो लड़कों के सरकारी स्कूल में ही तमाम शिक्षा पाई थी. संभ्रांत घर की युवतियों से तो कभी मेरा वास्ता पड़ा ही नहीं था. अपने बैच की लड़कियों की उपस्थिति में भी मैं अब तक सहज नहीं हो पाया था और उन से मित्रवत बात नहीं कर पाता था.

अंबिका कभी लाइब्रेरी में मुझे देखती तो खुद ही चली आती किसी विषय की पुस्तक के लिए पूछने. वह मेरे सीनियर होने की हैसियत से मेरा सम्मान करती थी और महज एक मित्र की तरह मेरी तरफ हाथ बढ़ा रही थी. उस के लिए यह बात स्वाभाविक हो सकती है, पर स्त्रीपुरुष मैत्री मेरे लिए नई बात थी.

मेरे मन में उस के लिए प्यार का अंकुर फूट रहा था, धीरेधीरे मैं उस की ओर बढ़ रहा था. मैं अपनी औकात भूला नहीं था, पर क्या मन सुनतासमझता है इन बातों को? सुनता है बुद्धि के तर्क? और प्यार तो मन से किया जाता है न. उस में धनदौलत, धनीनिर्धन का सवाल कहां से आ जाता है? फिर मैं उस से बदले में कुछ मांग भी तो नहीं रहा था.

यह तो नहीं कह रहा था कि वह भी मुझे प्यार करे ही. सब सपने किस के सच हुए हैं? पर उस से हम सपने देखना तो नहीं छोड़ देते न. मेरा सपना तब टूटा जब मैं ने उसे अनेक बार यशोधर के साथ देखा. यशोधर अंतिम वर्ष का छात्र था. छुट्टी होने पर मैं ने उसे अंबिका का इंतजार करते देखा और फिर वह उसे बाइक पर पीछे बैठा ले जाता. जैसेजैसे वे समीप आते गए मैं स्वयं को उन से दूर करता गया जैसे दूर बैठा मैं कोई रोमानी फिल्म देख रहा हूं, जिस के पात्रों से मेरा कोई सरोकार ही न हो.

कोर्स खत्म हुआ. मेरी मेहनत रंग लाई. मैं इंजीनियर भी बन गया और कैंपस इंटरव्यू में मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई. मैं ने एक बाजी तो जीत ली थी, पर मैं हारा भी तो था. मैं ने चांद को छूने का ख्वाब देखा था बिना यह सोचे कि चांदतारों में ख्वाब ढूंढ़ने से गिरने का डर तो रहेगा ही.

यशोधर की तो मुझ से पहले ही नौकरी लग चुकी थी. अंबिका का अभी एक वर्ष बाकी था और दोनों की बड़ी धूमधाम से सगाई हुई. एक बड़ा सा तोहफा ले कर मैं तहेदिल से उन दोनों को भावी जीवन की ढेर सारी शुभकामनाएं दे आया. प्रेम और वासना में यही तो अंतर है. वासना में आप प्रिय का साथ तलाशते हैं, शुद्ध निर्मल प्रेम में प्रिय की खुशी सर्वप्रिय होती है, जिस के लिए आप निजी खुशियां तक कुरबान कर सकते हैं और मैं देख रहा था कि वह यशोधर के साथ बहुत खुश रहती है.

यों कहना कि मैं ने अपने प्रेम को दफना दिया था, सही नहीं होगा. दफन तो उस चीज को किया जाता है, जिस का अंत हो चुका हो. मेरा प्यार तो पूरी शिद्दत के साथ जीवित था. मैं चुपचाप उन के रास्ते से हट गया था.

सगाई के बाद तो उन दोनों को साथसाथ घूमने की पूरी छूट मिल गई थी. ऐसे ही एक शनिवार को वे रात का शो देख कर लौट रहे थे कि एक सुनसान सड़क पर 4 गुंडों ने उन का रास्ता रोक कर उन्हें बाइक से उतार लिया. यश के सिर पर डंडे से प्रहार कर उसे वहीं बेहोश कर दिया और अंबिका को किनारे घसीट कर ले गए. यश को जब तक होश आया तब तक दरिंदे अंबिका के शरीर पर वहशीपन की पूरी दास्तान लिख कर जा चुके थे. यशोधर ने उस के कपड़े ठीक कर मोबाइल पर उस के घर फोन किया. अंबिका के पिता और भाई तुरंत वहां पहुंच गए और यश को अपने घर छोड़ते हुए अंबिका को ले गए.

अंबिका अस्पताल में थी और किसी से मिलने के मूड में नहीं थी. मैं ने अस्पताल के कई चक्कर लगाए लेकिन सिर्फ उस की मां से ही मुलाकात हो पाई. मैं चाहता था कि वह अपने मन के गुबार को भीतर दबाने के बजाय बाहर निकाल दे तो बेहतर होगा. चाहे क्रोध कर के, चाहे रोधो कर. यही बात मैं उस की मां से भी कह आया था.

मां के समझाने पर वह मान गई और करीब एक सप्ताह बाद मुझ से मिलने के लिए खुद को तैयार कर पाई और वही सब हुआ. उन दुष्टों के प्रति क्रोध से शुरू हो कर अपनी असहाय स्थिति को महसूस कर वह बहुत देर तक रोती रही. मैं ने उस के आंसुओं को बह जाने दिया और उन का वेग थमने पर ही बातचीत शुरू की. उस का दुख देख समस्त पुरुष जाति की ओर से मैं खुद को अपराधी महसूस कर रहा था. न सिर्फ हम इन की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए इन पर जुल्म ढहाते हैं विडंबना तो यह है कि अपने अपराध के लिए ताउम्र उन्हें अभिशप्त भी कर देते हैं और उस पर तुर्रा यह कि हम स्वयं को इन से उच्च मानते हैं.

अंबिका आ गई थी और अवसर मिलते ही मैं उस से मिलने चला जाता. उस की मां भी मेरा स्वागत करती थीं, उन्हें लगता था कि मेरे जाने से अंबिका कुछ देर हंसबोल लेती है.

बातोंबातों में मैं अंबिका के मन में यह बात बैठाने का प्रयत्न करता रहता, ‘तुम्हें मुंह छिपा कर जीने की जरूरत नहीं है. तुम बाहर निकलोगी और पहले की ही तरह सिर उठा कर जीओगी. बहुत हो चुका अन्याय, अपराधियों को दंडित करने में अक्षम हमारा समाज अपना क्रोध असहाय लड़कियों पर न उतार पाए, यह देखना हम सब की जिम्मेदारी है. यदि हम युवकों को संस्कारी नहीं बना पा रहे हैं, तो इस का यह हल भी नहीं कि युवतियों को घर की चारदीवारी में कैद कर लें.’

एक महीना बीत चुका था इस हादसे को, अंबिका के शरीर के घाव तो भरने लगे थे लेकिन एक बड़ा घाव उस के मन पर भी लगा था. यशोधर एक महीने में एक बार भी उस से मिलने नहीं आया था. तसल्ली देना तो दूर यश व उस के मातापिता का कभी  टैलीफोन तक नहीं आया. एक सांझ मैं अंबिका के घर पर ही था जब यशोधर के घर से एक व्यक्ति आ कर उन की मंगनी की अंगूठी, कपड़े व जेवर लौटा गया. अंबिका के हरे घावों पर एक और चोट हुई थी. अंबिका की मां को लगा कि वह निराशा में कोई सख्त कदम न उठा ले. अत: उन्होंने मुझ से विनती की कि मैं जितना हो सके उन के घर आ जाया करूं. कालेज का सत्र समाप्त होने में कुछ ही माह बाकी थे पर 2 महीने तक तो वह किसी भी तरह कालेज जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई.

मेरे बहुत समझाने पर उस ने कालेज जाना शुरू तो किया पर उसे हर किसी की निगाह का सामना करना मुश्किल लगता. मुश्किल से कालेज तो जाती रही लेकिन पढ़ाई ठीक से न हो पाने के कारण परीक्षा पास न कर सकी और उस का साल बरबाद हो गया. अंबिका से मेरे विवाह की 5वीं वर्षगांठ है और हमारी एक प्यारी सी बिटिया भी है. मैं ने उस पर कोई दया कर के विवाह नहीं किया. आप तो जानते ही हैं कि मैं उसे हमेशा से ही चाहता आया हूं, मैत्री भाव उस के मन में भी था. हर रोज मिलते रहने से, कष्ट के समय उस का साथ देने से उस का झुकाव मेरी ओर बढ़ने लगा था.

2 वर्ष बाद विवाह हुआ था हमारा, लेकिन उस के बाद भी लगभग 3 वर्ष लग गए मुझे उस के मन से उस रात का भय भगाने में. रात को चीख कर उठ बैठती थी वह. उस दौरान उस का बदन पसीने से तरबतर होता. क्या उन दरिंदों को कभी यह सोच कर अपराधबोध होता होगा कि पल भर की अपनी यौन तृप्ति के लिए उन्होंने एक लड़की को सिर्फ तन से ही नहीं मन से भी विक्षिप्त कर दिया है. पर मैं ने भी धीरज बनाए रखा और उस दिन का इंतजार किया जिस दिन तक अंबिका के मन में स्वयं ही मेरे लिए नैसर्गिक इच्छा नहीं जागी.

एक बात का उत्तर नहीं मिला आज तक, अपराध तो पुरुष करता है पर उसे दंडित करने के बजाय समाज एक निरपराध लड़की की पीठ पर मजबूती से सलीब ठोंक देता है, जिसे वह उम्र भर ढोने को मजबूर हो जाती है. अपराधी खुला घूमता है और पीडि़ता दंड भोगती है. इसे अंधेर नगरी का इंसाफ कहा जाए या सभ्य समाज का? कौन देगा इस का उत्तर?

वह राज बता न सकी: क्या गोविंदराम को राज बता पाई लीला बाई

लीलाबाई ने जिस लड़की को उस के पास भेजा था, उस की खूबसूरती देख कर ग्राहक गोविंदराम दंग रह गया था और बोला, ‘‘तुम चांद से भी ज्यादा खूबसूरत हो?

‘‘ठीक है, ठीक है. तारीफ करने का समय नहीं है. मैं एक धंधे वाली हूं और धंधे वाली ही रहूंगी. आप कितनी भी तारीफ कर लो.’’

‘‘लगता है, तुम कोठे पर अपनी मरजी से नहीं आई हो?’’ गोविंदराम ने सवाल पूछा.

‘‘देखिए मिस्टर, फालतू सवाल  मत पूछो.’’

‘‘ठीक है नहीं पूछूंगा, मगर मैं नाम तो जान सकता हूं तुम्हारा?’’

‘‘आप को नाम से क्या है? लीलाबाई ने जिस काम से भेजा है, वह करो और भागो.’’

‘‘फिर भी मैं तुम्हारा नाम जानना चाहता हूं.’’

‘‘मेरा नाम जमना है.’’

‘‘क्या तुम अब भी शादी करने की इच्छा रखती हो?’’

‘‘अब कौन करेगा मुझ से शादी?’’

‘‘अगर कोई तुम से शादी करने को तैयार हो तो शादी कर लोगी?’’

‘‘मैं इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती हूं. ये सब केवल औरत के जिस्म से खेल कर इस गंदगी में धकेलना जानते हैं.’’

‘‘तुम्हें मर्दों से इतनी नफरत क्यों?’’

‘‘मगर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं? आप अभी धंधे वाली के पास हैं. आप अपना काम कीजिए और यहां से जाइए.’’

‘‘मैं ने अभी तुम से कहा था कि अगर कोई शादी करने को तैयार हो जाए, क्या तब तुम तैयार हो जाओगी?’’

‘‘ऐसा कौन बदनसीब होगा, जो मुझ से शादी करने को तैयार होगा?’’

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?’’ कह कर गोविंदराम ने अपना फैसला सुना दिया.

यह सुन कर जमना हैरान रह गई और बोली, ‘‘आप करेंगे?’’

‘‘हां, तुम्हें यकीन नहीं है?’’

‘‘मैं कैसे यकीन कर सकती हूं… दरअसल, मुझे मर्द जात पर ही भरोसा नहीं रहा.’’

‘‘लगता है, तुम ने किसी मर्द से चोट खाई है, इसलिए हर मर्द से अब नफरत करने लगी हो.’’

‘‘बस, ऐसा ही समझ लो.’’

‘‘अपनी कहानी बताओ कि वह कौन था, जिस ने आप के साथ धोखा किया?’’

‘‘क्या करेंगे जान कर? सुन कर क्या आप मेरे घाव भर देंगे?’’ जमना ने जब यह सवाल उछाला, तब गोविंदराम सोच में पड़ गया. थोड़ी देर बाद इतना ही कहा, ‘‘अगर तुम बताना नहीं चाहती?हो तो मत बताओ, मगर इतना तो बता सकती हो कि यहां तुम अपनी मरजी से आई हो या कोई जबरन लाया है?’’

‘‘प्यार में धोखा खाया है मैं ने,’’ कह कर जमना ने अपनी नजरें नीचे झुका लीं. मतलब, जमना के भीतर गहरी चोट लगी हुई थी.

‘‘साफ है कि जिस लड़के में तुम ने प्यार का विश्वास जताया, वही तुम्हें यहां छोड़ गया?’’

‘‘छोड़ नहीं गया, लीलाबाई को बेच गया,’’ बड़ी तल्खी से जमना बोली.

‘‘प्यार करने के पहले तुम ने उसे परखा क्यों नहीं?’’

‘‘एक लड़की क्याक्या करती? मैं अपनी सौतेली मां के तानेउलाहनों से तंग आ चुकी थी. ऐसे में महल्ले का ही कालूराम ने मुझ पर प्यार जताया. वह कभी मोबाइल फोन, तो कभी दूसरी चीजें ला कर देता रहा. मेरे ऊपर खर्च करने लगा, तो मैं भी उस के प्रेमजाल में उलझती गई.

‘‘जब सौतेली मां को हमारे प्यार का पता लगा, तब वे चिल्ला कर मारते हुए बोलीं, ‘नासपीटी, चोरीछिपे क्या गुल खिला रही है. तेरी जवानी में इतनी आग लगी है तो उस कालूराम के साथ भाग क्यों नहीं जाती है. खानदान का नाम रोशन करेगी.

‘‘‘खबरदार, जो अब उस के साथ गई तो… टांगें तोड़ दूंगी तेरी. तेरी मां ऐसी बिगड़ैल औलाद पैदा कर गई. अगर तुझ से जवानी नहीं संभल रही है, तो किसी कोठे पर बैठ जा. वहां पैसे भी मिलेंगे और तेरी जवानी की आग भी मिट जाएगी.’

‘‘इस तरह आएदिन सौतेली मां सताने लगीं. पर मैं कालूराम से बातें कहती रही. वह कहता रहा,  ‘घबराओ मत जमना,  मैं तुम से जल्दी शादी  कर लूंगा.’

‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘मगर, कब करोगे? मेरी सौतेली मां को हमारे प्यार का पता चल गया है. उन्होंने मुझे खूब पीटा है.’

‘‘यह सुन कर वह बोला, ‘ऐसी बात है, तब तो एक ही काम रह गया है.’

‘‘मैं ने हैरान हो कर पूछा, ‘क्या काम रह गया है?’

‘‘उस ने धीरे से कहा, ‘तुम्हें हिम्मत दिखानी होगी. क्या तुम घर से भाग सकती हो?’

‘‘यह सुन कर मैं ने कहा, ‘मैं तुम्हारे प्यार की खातिर सबकुछ कर सकती हूं.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर कालूराम बहुत खुश हुआ और बोला, ‘चलो, आज रात को भाग चलते हैं. जबलपुर में मेरी लीला मौसी हैं. वहां हम दोनों मंदिर में शादी कर लेंगे. तुम घर से भागने के लिए तैयार हो न?’

‘‘मैं ने बिना कुछ सोचेसमझे कह दिया, ‘हां, मैं तैयार हूं.’

‘‘कालूराम जबलपुर में मुझे लीला मौसी के यहां ले गया. फिर वह यह कह कर वहां से चला गया कि मंदिर में पंडितजी से शादी की बात कर के आता हूं. पर वह मुझे छोड़ कर जो गया, फिर आज तक नहीं आया. बाद में पता चला कि वह औरत उस की लीला मौसी  नहीं थी, बल्कि उसे तो वह मुझे बेच गया था.’’

‘‘सचमुच तुम ने प्यार में धोखा खाया है,’’ अफसोस जाहिर करते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘फिर कभी तुम्हारी सौतेली मां ने तुम्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘की होगी, मगर मुझे नहीं मालूम. उस के लिए तो अच्छा ही था कि एक बला टली. अगर मैं जाती भी तब मुझे  नहीं अपनाती.’’

‘‘अब तुम ने क्या सोचा है?’’ गोविंदरम ने कुरेदा.

‘‘सोचना क्या है, अब लीलाबाई ने कोठे को ही सबकुछ मान लिया है,’’ जमना ने साफ कह दिया.

‘‘मतलब, तुम मुझ से शादी नहीं करना चाहती हो?’’

‘‘हम एकदूसरे को नहीं जानते हैं. फिर मैं औरत जात ठहरी, आप जैसे पराए मर्द पर कैसे यकीन कर लूं. कहीं दूसरे कालूराम निकल जाओ…’’

‘‘तुम्हारे भीतर मर्दों के लिए नफरत बैठ गई है. मगर मैं वैसा नहीं हूं जैसा तुम समझ रही हो.’’

‘‘एक ही मुलाकात से मैं कैसे  मान लूं?’’

‘‘ठीक है. मैं कल फिर आऊंगा, तब तक अच्छी तरह सोच लेना,’’ कह कर गोविंदराम उठ कर चला गया.

जमना को यह पहला ऐसा मर्द मिला था, जो उस के शरीर से खेल कर नहीं गया था. 3-4 दिन तक गोविंदराम लगातार आता रहा, मगर कभी जमना के शरीर से नहीं खेला.

तब जमना बोली, ‘‘आप रोज आते हैं, पर मेरे शरीर से खेलते नहीं… क्यों?’’

‘‘जब तुम से मेरी शादी हो जाएगी, तब रोज तुम्हारे शरीर से खेलूंगा.’’

‘‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने मत देखो. जब तक लीलाबाई के लिए मैं खरा सिक्का हूं, वह मुझे नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘यह बात है, तो मैं लीलाबाई से बात करता हूं.’’

‘‘कर के देख लो, वह कभी राजी  नहीं होगी.’’

‘‘मैं लीलाबाई को राजी कर लूंगा.’’

‘‘मगर, मैं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देखो जमना, तुम्हारी जिंदगी का सवाल है. क्या जिंदगीभर इसी दलदल में रहोगी? अभी तुम्हारी जवानी बरकरार है, इसलिए हर कोई मर्द तुम से खेल कर चला जाएगा. तुम्हें तम्हारे शरीर की कीमत भी दे जाएगा, मगर जब उम्र ढल जाएगी, तब तुम्हारे पास कोई नहीं आएगा.

‘‘तुम चाहती हो कि इतना पैसा कमा लूंगी… फिर बैठेबैठे वह पैसा भी खत्म हो जाएगा…’’ समझाते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘इसलिए कहता हूं कि अपना फैसला बदल लो.’’

‘‘ऐ, तू रोजरोज आ कर जमना को क्यों परेशान करता है?’’ खुला दरवाजा देख कर लीलाबाई कमरे में घुसते  हुए बोली.

गोविंदराम बोला, ‘‘लीलाबाई, मैं जमना से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘शादी… अरे, शादी की तो तू सोच भी मत. अभी जमना मेरे लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी है. मैं इसे कैसे छोड़ दूं,’’ लीलाबाई बोली.

‘‘यही सोचो कि यह मुरगी एक दिन सोने का अंडा देना बंद कर देगी, तब क्या करोगी इस का?’’

‘‘मगर, मुझे एक बात बताओ कि तुम जमना से शादी करने के लिए ही क्यों पीछे पड़े हो? इस कोठे में दूसरी लड़कियां भी तो हैं,’’ लीलाबाई ने पूछा.

‘‘दूसरी लड़कियों की बात मैं नहीं करता लीलाबाई. जमना मुझे पसंद है. मैं इसी से शादी करना चाहता हूं. आप अपनी रजामंदी दीजिए,’’ एक बार फिर गोविंदराम ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे इजाजत दे दूं? तुम कौन हो? तुम्हारा खानदान क्या है? अपने बारे में कुछ बताओ?’’

‘‘अगर मैं अपना खानदान बता दूंगा, तब क्या तुम जमना से मेरी शादी के लिए तैयार होगी?’’

‘‘मुमकिन है कि मैं तैयार हो भी जाऊं,’’ लीलाबाई ने कहा.

‘‘देखो लीलाबाई, मरने से पहले मेरे पापा कह गए थे कि तुम अपनी  मां नहीं धंधे वाली से पैदा औलाद  हो. तुम्हारी मां तो बांझ है.’’

लीलाबाई खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद वह बोली, ‘‘तुम्हारे पिता ने यह नहीं बताया कि वह धंधे वाली कौन थी?’’

‘‘बताना तो चाहते थे, मगर तब तक उन की मौत हो गई,’’ गोविंदराम ने कहा.

लीलीबाई ने पूछा, ‘‘अच्छा, तुम अपने पिता का नाम तो बता सकते हो?’’

‘‘गोपालराम.’’

तब लीलाबाई कुछ नहीं बोली. वह अपने अतीत में पहुंच गई. बात उन दिनों की थी, जब लीलाबाई जवान थी.

एक दिन गोपालराम का एक अधेड़ कोठे पर आया था और बोला, ‘देखो लीलाबाई, मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूं कि मुझे तुम्हारे पेट से बच्चा चाहिए.

‘मैं एक धंधे वाली हूं. मैं बच्चा नहीं चाहती हूं,’ लीलाबाई ने इनकार करते हुए कहा कि अगर बच्चा ही चाहिए तो किसी और से शादी क्यों नहीं कर लेते.

‘मेरी शादी के 10 साल गुजर गए हैं, मगर पत्नी मां नहीं बन पाई है.’

‘तब दूसरी शादी क्यों नहीं कर  लेते हो?’ ‘कर सकता हूं, मगर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. उस की खातिर दूसरी शादी नहीं कर सकता…’ गोपालराम ने कहा, ‘मैं इसी उम्मीद से तुम्हारे पास आया हूं.’

तब लीलाबाई सोच में पड़ गई कि क्या जवाब दे? बच्चा देना मतलब  9 महीने तक धंधा चौपट होना.

उसे चुप देख कर गोपालराम ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो लीलाबाई?’

‘देखो, मैं तो आप का नाम भी नहीं जानती हूं.’

‘मुझे गोपालराम कहते हैं. इस शहर से 30 किलोमीटर दूर रहता हूं. कपड़े की दुकान के साथ पैट्रोल पंप भी है. मेरे पास खूब पैसा है और अब मुझे अपना वारिस चाहिए.’

‘देखो, मेरे पेट में अगर आप का बच्चा आ गया, तो 9 महीने तक मेरा धंधा चौपट हो जाएगा. मैं अपना धंधा चौपट नहीं कर सकूंगी. आप कोई अनाथ बच्चा गोद ले लीजिए.’

‘अगर मुझे गोद ही लेना होता, तब मैं तुम्हारे पास क्यों आता?’ कह कर गोपालराम ने आगे कहा, ‘जब तुम्हारे पेट में बच्चा ठहर जाएगा, तब सालभर तक सारा खर्चा मैं उठाऊंगा.’

जब लीलाबाई ने यकीन कर लिया, तब गोपालराम अपनी गाड़ी ले कर रोज उस के कोठे पर आने लगा. महीनेभर के भीतर उस के बच्चा ठहर गया. वह सालभर तक रखैल बन कर रही. उस की सारी सुखसुविधाओं का ध्यान रखा जाने लगा.

9 महीने बाद लीलाबाई के लड़का हुआ, तब सारी बस्ती में मिठाई बांटी गई. 6 महीने के भीतर जब तक मां का दूध बच्चा पीता रहा, तब तक गोपालराम उसे अपने साथ नहीं ले गया.

बच्चा गोपालराम को सौंपने के बाद लीलाबाई अपने पुराने ढर्रे पर आ गई. जब शरीर ढलने लगा, ग्राहक कम आने लगे, तब वह कोठा चलाने वाली बन गई.

‘‘ओ लीलाबाई, कहां खो गई?’’ कह कर गोविंदराम ने उसे झकझोरा, तब वह अतीत से वर्तमान में लौटी.

गोविंदराम को अपने सामने देख कर लीलाबाई ने मन ही मन सोचा, अब बता दूं कि मैं इस की मां हूं? मगर यह राज राज ही रहेगा. मैं तो इसे जन्म दे कर अपनी गोद में खिलाना चाहती थी. रातरात भर तड़पती थी, ग्राहकों को भी संतुष्ट करती थी…

‘‘अरे, आप फिर कहां खो गईं?’’ गोविंदराम ने एक बार फिर टोका.

‘‘तुम्हारी मां तो हैं न?’’

‘‘हां, मां हैं, मगर आप को यकीन दिलाता हूं कि जमना को मैं खुश रखूंगा. किसी तरह की तकलीफ नहीं होने दूंगा.’’

‘‘हां बेटे, जमना को ले जा. इस से शादी कर ले.’’

‘‘अरे, आप ने मुझे बेटा कहा,’’ गोविंदराम ने जब यह पूछा, तब लीलाबाई बोली, ‘‘अरे, उम्र में तुम से बड़ी हूं, इसलिए तू मेरा बेटा हुआ कि नहीं…

‘‘देख जमना, मैं तुझे आजाद करती हूं. तू इस के साथ शादी रचा ले. मेरी अनुभवी आंखें कहती हैं कि यह तुझे धोखा नहीं देगा.’’

‘‘मगर, मैं एक धंधे वाली हूं. यह दाग कैसे मिटेगा?’’ जमना ने पूछा, ‘‘क्या इन की मां एक धंधे वाली को अपनी बहू बना लेगी?’’

‘‘देखो जमना, मैं ने अपनी मां से इजाजत ले ली है, बल्कि मां ने ही मुझे यहां भेजा है,’’ कह कर गोविंदराम ने एक और राज खोल दिया.

‘‘जा जमना जा, कुछ भी मत सोच. इस गंदगी से निकल जा तू. वहां महारानी बन कर रहेगी,’’ दबाव डालते हुए लीलाबाई बोली.

‘‘ठीक है. आप कहती हैं तो मैं चली जाती हूं,’’ उठ कर जमना अपनी कोठरी में गई. मुंह से पुता पाउडरलाली सब उतार कर साड़ी पहन कर एक साधारण औरत का रूप बना कर जब गोविंदराम के सामने आ कर खड़ी हुई, तो वह देखता रह गया.

बाहर कार खड़ी थी. वे दोनों तो कार में बैठ गए.

लीलाबाई सोचती रही, ‘कभी इस का बाप भी इसी तरह कार ले कर आता था…’

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