Serial Story- जहर का पौधा: भाग 1

बहुत ज्यादा थक गया था डाक्टर मनीष. अभीअभी भाभी का औपरेशन कर के वह अपने कमरे में लौटा था. दरवाजे पर भैया खड़े थे. उन की सफेद हुई जा रही आंखों को देख कर भी वह उन्हें ढाढ़स न बंधा सका था. भैया के कंधे पर हाथ रखने का हलका सा प्रयास मात्र कर के रह गया था.

टेबललैंप की रोशनी बुझा कर आरामकुरसी पर बैठना उसे अच्छा लगा था. वह सोच रहा था कि अगर भाभी न बच सकीं तो भैया जरूर उसे हत्यारा कहेंगे. भैया कहेंगे कि मनीष ने बदला निकाला है. भैया ऐसा न सोचें, वह यह मान नहीं सकता. उन्होंने पहले डाक्टर चंद्रकांत को भाभी के औपरेशन के लिए बुलाया था. डाक्टर चंद्रकांत अचानक दिल्ली चले गए थे. इस के बाद भैया ने डाक्टर विमल को बुलाने की कोशिश की थी, पर जब वे भी न मिले तो अंत में मजबूर हो कर उन्होंने डाक्टर मनीष को ही स्वीकार कर लिया था.

औपरेशनटेबल पर लेटने से पहले भाभी आंखों में आंसू लिए भैया से मिल चुकी थीं, मानो यह उन का अंतिम मिलन हो. उस ने भाभी को बारबार ढाढ़स दिलाया था, ‘‘भाभी, आप का औपरेशन जरूर सफल होगा.’’ किंतु भीतर ही भीतर भाभी उस का विश्वास न कर सकी थीं. और भैया कैसे उस पर विश्वास कर लेते? वे तो आजीवन भाभी के पदचिह्नों पर चलते रहे हैं.

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डाक्टर मनीष जानता है कि आज से 30 वर्ष पहले जहर का जो पौधा भाभी के मन में उग आया था, उसे वह स्नेह की पैनी से पैनी कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सका. वह यह सोच कर संतुष्ट रह गया था कि संसार की कई चीजों को मानव चाह कर भी समाप्त करने में असमर्थ रहता है.

जहर के इस पौधे का बीजारोपण भाभी के मन में उन की शादी के समय हुआ था. तब मनीष 10 वर्ष का रहा होगा. भैया की बरात बड़ी धूमधाम से नरसिंहपुर गई थी. उसे दूल्हा बने भैया के साथ घोड़े पर बैठने में बड़ा आनंद आ रहा था. आने वाली भाभी के प्रति सोचसोच कर उस का बालकमन हवा से बातें कर रहा था. मां कहा करती थीं, ‘मनीष, तेरी भाभी आ जाएगी तो तू गुड्डो का मुकाबला करने के काबिल हो जाएगा. यदि गुड्डो तुझे अंगरेजी में चिढ़ाएगी तो तू भी भाभी से सारे अर्थ समझ कर उसे जवाब दे देना.’ वह सोच रहा था, भाभी यदि उस का पक्ष लेंगी तो बेचारी गुड्डो अकेली पड़ जाएगी. उस के बाद मन को बेचारी गुड्डो पर रहरह कर तरस आ रहा था.

भैया का ब्याह देखने के लिए वह रातभर जागा था और घूंघट ओढ़े भाभी को लगातार देखता रहा था. सुबह बरात के लौटने की तैयारी होने लगी थी. विवाह के अवसर पर नरसिंहपुर के लोगों ने सप्रेम भेंट के नाम पर वरवधू को बरतन, रुपए और अन्य कई किस्मों की भेंटें दी थीं. बरतन और अन्य उपहार तो भाभी के पिताजी ने दे दिए थे किंतु रुपयों के मामले में वे अड़ गए थे. इस बात को मनीष के पिता ने भी तूल दे दिया था.

भाभी के पिता का कहना था कि वे रुपए लड़की के पिता के होते हैं, जबकि मनीष के पिता कह रहे थे कि यह भी लोगों द्वारा वरवधू को दिया गया एक उपहार है, सो, लड़की के पिता को इस पर अपनी निगाह नहीं रखनी चाहिए.

बात बढ़ गई थी और मामला सार्वजनिक हो गया था. तुरंत ही पंचायत बैठाई गई. पंचायत में फैसला हुआ कि ये रुपए वरवधू के खाते में ही जाएंगे.

इस फैसले से भाभी के पिता मन ही मन सुलग उठे. उस समय तो वे मौन रह गए, किंतु बाद में इस का बदला निकालने का उन्होंने प्रण कर लिया.

उन की बेटी ससुराल से पहली बार 4 दिनों के लिए मायके आई तो उन्होंने बेटी के सामने रोते हुए कहा था, ‘बेटा, तेरे ससुर ने जिस दिन से मेरा अपमान किया है, मैं मन ही मन राख हुआ जा रहा हूं.’

भाभी ने पिता को सांत्वना देते हुए कहा था, ‘पिताजी, आप रोनाधोना छोडि़ए. मैं प्रण करती हूं कि आप के अपमान का बदला ऐसे लूंगी कि ससुर साहब का घर उजड़ कर धूल में मिल जाएगा. ससुरजी को मैं बड़ी कठोर सजा दूंगी.’

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इस के पश्चात भाभी ने ससुराल आते ही किसी उपन्यास की खलनायिका की तरह शतरंज की बिसात बिछा दी. चालें चलने वाली वे अकेली थीं. सब से पहले उन्होंने राजा को अपने वश में किया. भैया के प्रति असाधारण प्रेम की जो गंगा उन्होंने बहाई, तो भैया उसी को वैतरणी समझने लगे. भैया ने पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा सी कर दी.

मनीष को अच्छी तरह याद है कि एक बार वह महल्ले के बच्चों के साथ गुल्लीडंडा खेल रहा था. गुल्ली अचानक भाभी के कमरे में घुस गई थी. वह गुल्ली उठाने तेजी से लपका. रास्ते में खिड़की थी, उस ने अंदर निगाह डाली. भाभी एक चाबी से माथे पर घाव कर रही थीं.

जब वह दरवाजे से हो कर अंदर गया तो भाभी सिर दबाए बैठी थीं. उस ने बड़ी कोमलता से पूछा, ‘क्या हुआ, भाभी?’ तब वे मुसकरा कर बोली  थीं, ‘कुछ नहीं.’ वह गुल्ली उठा कर वापस चला गया था.

लेकिन शाम को सब के सामने भैया ने मनीष को चांटे लगाते हुए कहा था, ‘बेशर्म, गुल्ली से भाभी के माथे पर घाव कर दिया और पूछा तक नहीं.’ भाभी के इस ड्रामे पर तो मनीष सन्न रह गया था. उस के मुंह से आवाज तक न निकली थी. निकलती भी कैसे? उम्र में बड़ी और आदर करने योग्य भाभी की शिकायत भैया से कर के उसे और ज्यादा थोड़े पिटना था.

भैया घर के सारे लोगों पर नाराज हो रहे थे कि उन की पत्नी से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता. सभी चुपचाप थे. किसी ने भी भैया से एक शब्द नहीं कहा था. इस के बाद भैया ने पिताजी, मां और भाईबहनों से बात करना छोड़ दिया था. वे अधिकांश समय भाभी के कमरे में ही गुजारते थे.

इस के बाद एक सुबह की बात है. भैया को सुबह जल्दी जाना था. भाभी भैया के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए चौके में आईं. चौके में सभी सदस्य बैठे थे, सभी को चाय का इंतजार था. मनीष रो रहा था कि उसे जल्दी चाय चाहिए. मां उसे समझा रही थीं, ‘बेटा, चाय का पानी चूल्हे पर रखा है, अभी 2 मिनट में उबल जाएगा.’

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उसी समय भाभी ने चूल्हे से चाय उतार कर नाश्ते की कड़ाही चढ़ा दी. मां ने मनीष के आंसू देखते हुए कहा, ‘बहू, चाय तो अभी दो मिनट में बन जाएगी, जरा ठहर जाओ न.’

इतनी सी बात पर भाभी ने चूल्हे पर रखी कड़ाही को फेंक दिया. अपना सिर पकड़ कर वे नीचे बैठ गईं और जोर से बोलीं, ‘मैं अभी आत्महत्या कर लेती हूं. तुम सब लोग मुझ से और मेरे पति से जलते हो.’

Serial Story- जहर का पौधा: भाग 2

इतना सुन कर भैया दौड़ेदौड़े आए और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. वे भी चीखने लगे, ‘मीरा, तुम इन जंगलियों के बीच में न बैठा करो. खाना अपने कमरे में ही बनेगा. ये अनपढ़ लोग तुम्हारी कद्र करना क्या जानें.’

भैया के आग्रह पर 4-5 दिनों बाद ही घर के बीच में दीवार उठा दी गई. सारा सामान आधाआधा बांट लिया गया. इस बंटवारे से पिताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा था. वे बीमार रहने लगे थे. उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र लिख दिया था.

भैया केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी में थे. अच्छाखासा वेतन उन्हें मिलता था. मनीष को याद नहीं है कि विवाह के बाद भैया ने एक रुपया भी पिताजी की हथेली पर धरा हो. पिताजी को इस बात की चिंता भी न थी. पुरानी संपत्ति काफी थी, घर चल जाता था.

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एक दिन भाभी के गांव से कुछ लोग आए. गरमी के दिन थे. मनीष और घर के सभी लोग बाहर आंगन में सो रहे थे. अचानक मां आगआग चिल्लाईं. सभी लोग शोर से जाग गए. देखा तो घर जल रहा था. पड़ोसियों ने पानी डाला, दमकल विभाग की गाडि़यां आईं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. घर का सारा कीमती सामान जल कर राख हो गया था. घर के नाम पर अब खंडहर बचा था. भैया के हिस्से वाले घर को अधिक क्षति नहीं पहुंची थी. पिताजी ने कमचियों की दीवार लगा कर किसी तरह घर को ठीक किया था. मां रोती रहीं. मां का विश्वास था कि यह करतूत भाभी के गांव से आए लोगों की थी. पिताजी ने मां को उस वक्त खामोश कर दिया था, ‘बिना प्रमाण के इस तरह की बातें करना अच्छा नहीं होता.’

साहूकारी में लगा रुपया किसी तरह एकत्र कर के पिताजी ने मनीष की दोनों बहनों का विवाह निबटाया था.

उस समय मनीष 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. मां को गठियावात हो गया था. वे बिस्तर से चिपक गई थीं. पिताजी मां की सेवा करते रहे. मगर सेवा कहां तक करते? दवा के लिए तो पैसे थे ही नहीं. मनीष को स्कूल की फीस तक जुटाना बड़ा दुरूह कार्य था, सो, पिताजी ने, जो अब अशक्त और बूढ़े हो गए थे, एक जगह चौकीदारी की नौकरी कर ली.

भाभी को उन लोगों पर बड़ा तरस आया था. वे कहने लगीं, ‘मनीष, हमारे यहां खाना खा लिया करेगा.’ मां के बहुत कहने पर मनीष तैयार हो गया था. वह पहले दिन भाभी के घर खाने को गया तो भाभी ने उस की थाली में जरा सी खिचड़ी डाली और स्वयं पड़ोसी के यहां गपें लड़ाने चली गईं. उस दिन वह बेचारा भूखा ही रह गया था.

मनीष ने निश्चय कर लिया था कि अब वह भाभी के घर खाना खाने नहीं जाएगा. इस का परिणाम यह निकला कि भाभी ने सारे महल्ले में मनीष को अकड़बाज की उपाधि दिलाने का प्रयास किया.

मां कई दिनों तक बीमार पड़ी रहीं और एक दिन चल बसीं. मनीष रोता रह गया. उस के आंसू पोंछने वाला कोई भी न था.

पिताजी का अशक्त शरीर इस सदमे को बरदाश्त न कर सका. वे भी बीमार रहने लगे. अचानक एक दिन उन्हें लकवा मार गया. मनीष की पढ़ाई छूट गई. वह पिताजी की दिनरात सेवा करने में जुट गया. पिताजी कुछ ठीक हुए तो मनीष ने पास की एक फैक्टरी में मजदूरी करनी शुरू कर दी.

लकवे के एक वर्ष पश्चात पिताजी को हिस्टीरिया हो गया. उसी बीमारी के दौरान वे चल बसे. मनीष के चारों ओर विपत्तियां ही विपत्तियां थीं और विपत्तियों में भैयाभाभी का भयानक चेहरा उस के कोमल हृदय पर पीड़ाओं का अंबार लगा देता. उस ने शहर छोड़ देना ही उचित समझा.

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एक दिन चुपके से वह मुंबई की ओर प्रस्थान कर गया. वहां कुछ हमदर्द लोगों ने उसे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कई बच्चे दिला दिए. मनीष ने ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. प्रथम श्रेणी में पास होने से उसे मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया. उसे स्कौलरशिप भी मिलती थी.

फिर एक दिन मनीष डाक्टर बन गया. दिन गुजरते रहे. मनीष ने विवाह नहीं किया. वह डाक्टर से सर्जन बन गया. फिर उस का तबादला नागपुर हो गया यानी वह फिर से अपने शहर में आ गया.

मनीष ने भैया व भाभी से फिर से संबंध जोड़ने के प्रयास किए थे किंतु वह असफल रहा था. भाभी घायल नागिन की तरह उस से अभी भी चिढ़ी हुई थीं. उन्हें दुख था तो यह कि उन्होंने जिस परिवार को उजाड़ने का प्रण लिया था, उसी परिवार का एक सदस्य पनपने लगा था.

मनीष को भाभी के इस प्रण की भनक लग गई थी किंतु इस से उसे कोई दुख नहीं हुआ. उस के चेहरे पर हमेशा चेरी के फूल की हंसी थिरकती रहती थी. उस ने सोच रखा था कि भाभी के मन में उगे जहर के पौधे को वह एक दिन जरूर धराशायी कर देगा.

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मनीष को संयोग से मौका मिल भी गया था. भाभी के पेट में एक बड़ा फोड़ा हो गया था. उस फोड़े को समाप्त करने के लिए औपरेशन जरूरी था. यह संयोग की ही बात थी कि वह औपरेशन मनीष को ही करना पड़ा.

Serial Story- जहर का पौधा: भाग 3

वह जानता था कि यदि औपरेशन असफल रहा तो भैया जरूर उस पर हत्या का आरोप लगा देंगे. वह अपने कमरे में बैठा इसी बात को बारबार सोच रहा था.

उसी वक्त मनीष के सहायक डाक्टर रामन ने कमरे में प्रवेश किया. ‘‘हैलो, सर, मीराजी अब खतरे से बाहर हैं,’’ रामन ने टेबललैंप की रोशनी करते हुए कहा.

‘‘थैंक्यू डाक्टर, आप ने बहुत अच्छी खबर सुनाई,’’ मनीष ने कहा, ‘‘लेकिन आगे भी मरीज की देखभाल बहुत सावधानी से होनी चाहिए.’’

‘‘ऐसा ही होगा, सर,’’ डाक्टर रामन ने कहा.

‘‘मीराजी के पास एक और नर्स की ड्यूटी लगा दी जाए,’’ मनीष ने आदेश दिया.

‘‘अच्छा, सर,’’  डाक्टर रामन बोला. एक सप्ताह में मनीष की भाभी का स्वास्थ्य ठीक हो गया. हालांकि अभी औपरेशन के टांके कच्चे थे लेकिन उन के शरीर में कुछ शक्ति आ गई थी. मनीष भाभी से मिलने के लिए रोज जाता था. वह उन्हें गुलाब का एक फूल रोज भेंट करता था.

एक महीने बाद भाभी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. मनीष भैयाभाभी को टैक्सी तक छोड़ने गया. सारी राह भैया अस्पताल की चर्चा करते रहे. भाभी कुछ शर्माई सी चुपचुप रहीं.

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मनीष ने कहा, ‘‘भाभीजी, मेरी फीस नहीं दोगी.’’

‘‘क्या दूं तुम्हें?’’ भाभी के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘सिर्फ गुलाब का एक फूल,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

घर पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भाभी के स्वस्थ हो जाने की खुशी में महल्लेभर के लोगों को भोज दिया गया. भाभी सब से कह रही थीं, ‘‘मैं बच ही गई वरना इस खतरनाक रोग से बचने की उम्मीद कम ही होती है.’’

लेकिन भाभी का मन लगातार कह रहा था, ‘मनीष ने अस्पताल में मेरे लिए कितना बढि़या इंतजाम कराया. मैं ने उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु उस ने मेरा औपरेशन कितने अच्छे ढंग से किया.’

भाभी बारबार मनीष को भुलाने का प्रयास करतीं किंतु उस की भोली सूरत और मुसकराता चेहरा सामने आ जाता. वे सोचतीं, ‘आखिर बेचारे ने मांगा भी क्या, सिर्फ एक गुलाब का फूल.’

आखिर भाभी से रहा नहीं गया. उन्होंने अपने बाग में से ढेर सारे गुलाब के फूल तोड़े और अपने पति के पास गईं.

‘‘जरा सुनिए, आज के भोज में सारे महल्ले के लोग शामिल हैं, यदि मनीष को भी अस्पताल से बुला लें तो कैसा रहेगा वरना लोग बाद में क्या कहेंगे?’’

‘‘हां, कहती तो सही हो,’’ भैया बोले, ‘‘अभी बुलवा लेता हूं उसे.’’

एक आदमी दौड़ादौड़ा अस्पताल गया मनीष को बुलाने, लेकिन मनीष नहीं आ सका. वह किसी दूसरे मरीज का जीवन बचाने में पिछली रात से ही उलझा हुआ था. मनीष ने संदेश भेज दिया कि वह एक घंटे बाद आ जाएगा.

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किंतु मरीज की दशा में सुधार न हो पाने के कारण मनीष अपने वादे के मुताबिक भोज में नहीं पहुंच सका. भाभी द्वारा तोड़े गए गुलाब जब मुरझाने लगे तो भाभी ने खुद अस्पताल जाने का निश्चय कर लिया.

भोज में पधारे सारे मेहमान रवाना हो गए, तब भाभी ने मनीष के लिए टिफिन तैयार किया और गुलाब का फूल ले कर भैया के साथ अस्पताल की ओर रवाना हो गईं.

अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मनीष एक वार्ड में पलंग पर आराम कर रहा है. उस ने मरीज को अपना स्वयं का खून दिया था, क्योंकि तुरंत कोई व्यवस्था नहीं हो पाई थी और मरीज की जान बचाना अति आवश्यक था.

भाभी को जब यह जानकारी मिली कि मनीष ने एक गरीब रोगी को अपना खून दिया है तो उन के मन में अचानक ही मनीष के लिए बहुत प्यार उमड़ आया. भाभी के मन में वर्षों से नफरत की जो ऊंची दीवार अपना सिर उठाए खड़ी थी, एक झटके में ही भरभरा कर गिर पड़ी. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘मनीष वास्तव में एक सच्चा इंसान है.’’

भाभी के मुंह से निकली इस हलकी सी प्रेमवाणी को मनीष सुन नहीं सका. मनीष ने तो यही सुना, भाभी कह रही थीं, ‘‘मनीष, तुम्हारी भाभी ने तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया. लेकिन आश्चर्य है, तुम इस के बाद भी भाभी की इज्जत करते हो.’’

‘‘हां, भाभी, परिवाररूपी मकान का निर्माण करने के लिए प्यार की एकएक ईंट को बड़ी मजबूती से जोड़ना पड़ता है. डाक्टर होने के कारण मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी भाभी के मन में कहीं न कहीं स्नेह का स्रोत छिपा है.’’

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‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष,’’ कहते हुए भावावेश में भाभी ने मनीष का हाथ पकड़ लिया. उन की आंखों में आंसू छलक आए. वे बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा बहुत बुरा किया है, मनीष. मेरे कारण ही तुम्हें घर छोड़ना पड़ा.’’

‘‘अगर घर न छोड़ता तो कुछ करगुजरने की लगन भी न होती. मैं यहां का प्रसिद्ध डाक्टर आप के कारण ही तो बना हूं,’’ कहते हुए मनीष ने अपने रूमाल से भाभी के आंसू पोंछ दिए.

देवरभाभी का यह अपनापन देख कर भैया की आंखें भी खुशी से गीली हो उठीं.

Serial Story: सबक के बाद- भाग 3

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

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दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

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सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने लगी.

सबक के बाद: किस मोड़ पर खड़ा था प्रयाग

Serial Story: सबक के बाद- भाग 2

रिश्ता पक्का हो चला था. 6 महीने बाद धूमधाम से उन का विवाह हो गया था. विवाह के तुरंत बाद ही वे दोनों नैनीताल हनीमून पर चल दिए थे. सप्ताह भर वे वहां खूब सैरसपाटा करते रहे थे. दोनों ही तो एकदूसरे में डूबते चले गए थे. वहां उन्होंने नैनी झील में जी भर कर बोटिंग की थी.

‘क्योंजी,’ बोटिंग करते हुए प्रीति ने उन से पूछा था, ‘उस दिन मैं आप की फिलौस्फी नहीं समझ पाई थी. जब आप मुझे देखने आए थे तो अपने निजी जीवन की बात कही थी न.’

‘हां,’ उन्होंने कहा था, ‘मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, इस पर तुम्हारी ओर से किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी. मैं औरतमर्द में अंतर माना करता हूं.’

‘अरे,’ प्रीति भौचक रह गई थी. वह गला साफ  करते हुए बोली, ‘आज के युग में जहां नरनारी की समता की दुहाई दी जाती है, वहां आप के ये दकियानूसी विचार…’

‘मैं ने कहा न,’ उन्होंने पत्नी की बात बीच में काट दी थी, ‘तुम किसी भी रूप में मेरे साथ वैचारिक बलात्कार नहीं करोगी और न ही मैं तुम्हें अपने ऊपर हावी होने दूंगा.’

तभी फोन की घंटी बजी और उन्होंने आ कर रिसीवर उठा लिया, ‘‘यस.’’

‘‘सर, लंच के बाद आप डिक्टेशन देने की बात कह रहे थे,’’ उधर से उन की पी.ए. कनु ने उन्हें याद दिलाया.

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‘‘अरे हां,’’ वह घड़ी देखने लगे. 2 बज चुके थे. अगले ही क्षण उन्होंने कहा, ‘‘चली आओ, मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देना है.’’

इतना कह कर वह कल्पना के संसार में विचरने लगे कि उन की पी.ए. कनुप्रिया कमरे में आएगी. उस के शरीर की गंध से कमरा महक उठेगा. ऐसे में वह सुलगने लगेंगे…तभी चौखट पर कनु आ खड़ी हुई. वह मुसकरा दिए, ‘‘आओ, चली आओ.’’

कनु सामने की कुरसी पर बैठ गई. वह उस के आगे चारा डालने लगे, ‘‘कनु, आज तुम सच में एक संपूर्ण नारी लग रही हो.’’

कनु हतप्रभ रह गई. बौस के मुंह से वह अपनी तारीफ सुन कर अंदर ही अंदर घबरा उठी. उस ने नोट बुक खोल ली और नोटबुक पर नजर गड़ाए हुए बोली, ‘‘मैं समझी नहीं, सर.’’

‘‘अरे भई, कालिज के दिनों में मैं ने काव्यशास्त्र के पीरियड में नायिका भेद के लक्षण पढे़ थे. तुम्हें देख कर वे सारे लक्षण आज मुझे याद आ रहे हैं. तुम पद्मिनी हो…तुम्हारे आने से मेरा यह कमरा ही नहीं, दिल भी महकने लगा है.’’

‘‘काम की बात कीजिए न सर,’’ कनु गंभीर हो आई. उस ने कहा, ‘‘आप मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देने जा रहे थे.’’

‘‘सौरी कनु, मुझे पता न था कि तुम… मैं तो सचाई उगल रहा था.’’

‘‘आप को सब पता है, सर,’’ कनु कहती ही गई, ‘‘आप अपनी आदत से बाज आ जाइए. प्रीति मैडम में ऐसी क्या कमी थी, जो आप ने उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया?’’

अपनी स्टेनो के मुंह से पत्नी का नाम सुन कर प्रयाग को जबरदस्त मानसिक झटका लगा. कनु तो उन्हें नंगा ही कर डालेगी. उन की सारी प्राइवेसी न जाने कब से दफ्तर में लीक होती आ रही है…यानी सभी जानते हैं कि उन के अत्याचारों से तंग आ कर ही उन की पत्नी मायके में बैठी हुई है. कनु के प्रश्न से निरुत्तर हो वह अपने गरीबान में झांकने लगे, तो अतीत फिर उन के सामने साकार होने लगा.

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नैनीताल से आ कर वह नानाजी से अलग एक किराए का फ्लैट ले कर रहने लगे थे. नानाजी ने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन उन्होंने उन की एक भी नहीं सुनी थी. फ्लैट में आ कर वह अपने आदेशनिर्देशों से प्रीति का जीना ही हराम करने लगे थे.

‘रात की रोटियां क्यों बच गईं?’

‘तुम तार पर कपडे़ डालती हुई इधरउधर क्यों झांकती हो?’

‘तुम्हें लोग क्यों देखते हैं?’

आएदिन वह पत्नी पर इस तरह के प्रश्नों की झड़ी सी लगा दिया करते थे.

उस फ्लैट में प्रीति उन के साथ भीगी बिल्ली बन कर रहने लगी थी. जबतब उसे उन की शर्त याद आ जाया करती. पति के उन अत्याचारों से आहत हो वह आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी थी. एक बार तो वह मरतीमरती ही बची थी.

उन की आवारगी अब और भी जलवे दिखलाने लगी थी. एक दिन वह किसी युवती को फ्लैट में ले आए थे. प्रीति कसमसा कर ही रह गई थी. उन्होंने उस युवती का परिचय दिया था, ‘यह सुनंदा है. हम लोग कभी एक साथ ही पढ़ा करते थे.’

विवाह के दूसरे साल उन के यहां एक बच्चा आ गया था लेकिन वे वैसे ही रूखे बने रहे. बच्चे के आगमन पर उन्हें कोई भी खुशी नहीं हुई थी. प्रीति उन के अत्याचारों के नीचे दबती ही गई.

‘देखिएजी,’ एक दिन प्रीति ने अपना मुंह खोल ही दिया, ‘मुझे आप प्रतिबंधों के शिंकजे से मुक्त कीजिए… नहीं तो…’

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Serial Story: सबक के बाद- भाग 1

मेज पर फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह सामने लगे शीशे को देख रहे थे. आने वाले समय की तसवीरें एकएक कर उन के आगे साकार होने लगीं. झुकी हुई कमर, कांपते हुए हाथपांव. वह जहां भी जाते हैं, उपेक्षा के ही शिकार होते हैं. हर कोई उन की ओर से मुंह फेर लेता है. ऐसे में उन्हें नानी के कहे शब्द याद आ गए, ‘अरे पगले, यों आकाश में नहीं उड़ा करते. पखेरू भी तो अपना घोंसला धरती पर ही बनाया करते हैं.’

तनाव से उन का माथा फटा जा रहा था. उसी मनोदशा में वह सीट से उठे और सोफे पर जा धंसे. दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए वह चिंतन में डूबने लगे. उन के आगे सचाई परत दर परत खुलने लगी. उन्होंने कभी भी तो अपने से बड़ों की बातें नहीं मानी. उन के आगे वह अपनी ही गाते रहे. सिर उठा कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा तो 1 बज रहा था. चपरासी ने अंदर आ कर पूछा, ‘‘सर, लंच में आप क्या लेंगे?’’

‘‘आज रहने दो,’’ उन्होंने मना करते हुए कहा, ‘‘बस, एक कौफी ला दो.’’

‘‘जी, सर,’’ चपरासी बाहर चल दिया.

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लोगों की झोली खुशियों से कैसे भरती है? वह इसी पर सोचने लगे. परसों ही तो उन के पास छगनलाल एक फाइल ले कर आए थे. उन्होंने पूछा था, ‘‘कहिए छगन बाबू, कैसे हैं?’’

‘‘बस, साहब,’’ छगनलाल हंस दिए थे, ‘‘आप की दुआ से सब ठीकठाक है. मैं तो जीतेजी जीवन का सही आनंद ले रहा हूं. चहकते हुए परिवार में रह रहा हूं. बहूबेटा दोनों ही घरगृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं. वे तो मुझे तिनका तक नहीं तोड़ने देते. अब वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी हैं.’’

‘‘बहुत तकदीर वाले हो भई,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल पर हस्ताक्षर कर छगनलाल को लौटा दी थी.

चपरासी सेंटर टेबल पर कौफी का मग रख गया. उसे पीते हुए वह उसी प्रकार आत्ममंथन करने लगे.

उन के सिर पर से मांबाप का साया बचपन में ही उठ गया था. वह दोनों एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब नानाजी उन्हें अपने घर ले आए थे. उन का लालनपालन ननिहाल में ही हुआ था. उन की बड़ी बहन का विवाह भी नानाजी ने ही किया था.

नानानानी के प्यार ने उन्हें बचपन से ही उद्दंड बना दिया था. स्कूलकालिज के दिनों से ही उन के पांव खुलने लगे थे. पर उन का एक गुण, तीक्ष्ण बुद्धि का होना उन के अवगुणों पर पानी फेर देता था.

राज्य लोक सेवा आयोग में पहली ही बार में उन का चयन हो गया तो वह सचिवालय में काम करने लगे थे. अब उन के मित्रों का दायरा बढ़ने लगा था. दोस्तों के बीच रह कर भी वह अपने को अकेला ही महसूस किया करते. वह धीरेधीरे अलग ही मनोग्रंथि के शिकार होने लगे. घरबाहर हर कहीं अपनी ही जिद पर अड़े रहते.

उन के भविष्य को ले कर नानाजी चिंतित रहा करते थे. उन के लिए रिश्ते भी आने लगे थे लेकिन वह उन्हें टाल देते. एक दिन अपनी नानी के बहुत समझाने पर ही वह विवाह के लिए राजी हुए थे.

3 साल पहले वे नानानानी के साथ एक संभ्रांत परिवार की लड़की देखने गए थे. उन लोगों ने सभी का हृदय से स्वागत किया था. चायनाश्ते के समय उन्होंने लड़की की झलक देख ली थी. वह लड़की उन्हें पसंद आ गई और बहुत देर तक उन में इधरउधर की बातें होती रही थीं. उन की बड़ी बहन भी साथ थी. उस ने उन के कंधे पर हाथ रख कर पूछा था, ‘क्यों भैया, लड़की पसंद आई?’

इस पर वे मुसकरा दिए थे. वहीं बैठी लड़की की मां ने आंखें नचा कर कहा था, ‘अरे, भई, अभी दोनों का आमना- सामना ही कहां हुआ है. पसंदनापसंद की बात तो दोनों के मिलबैठ कर ही होगी न.’

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इस पर वहां हंसी के ठहाके गूंज उठे थे.

ड्राइंगरूम में सभी चहक रहे थे. किचेन में भांतिभांति के व्यंजन बन रहे थे. प्रीति की मां ने वहां आ कर निवेदन किया था, ‘आप सब लोग चलिए, लंच लगा दिया गया है.’

वहां से उठ कर सभी लोग डाइनिंग रूम में चल दिए थे. वहां प्रीति और भी सजसंवर कर आई थी. प्रीति का वह रूप उन के दिल में ही उतरता चला गया था. सभी भोजन करने लगे थे. नानाजी ने उन की ओर घूम कर पूछा था, ‘क्यों रे, लड़की पसंद आई?’

‘जी, नानाजी,’ वह बोले थे, पर…

‘पर क्या?’ प्रीति के पापा चौंके थे.

‘पर लड़की को मेरे निजी जीवन में किसी प्रकार का दखल नहीं देना होगा,’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यही एक शर्त है.’

‘प्रयाग’, नानाजी उन की ओर आंखें तरेरने लगे थे, ‘तुम्हारा इतना साहस कि बड़ों के आगे जबान खोलो. क्या हम ने तुम में यही संस्कार भरे हैं?’

नानाजी की उस प्रताड़ना पर उन्होंने गरदन झुका ली थी. प्रीति की मां ने यह कह कर वातावरण को सहज बनाने का प्रयत्न किया था कि अच्छा ही हुआ जो लड़के ने पहले ही अपने मन की बात कह डाली.

‘वैसे प्रयागजी’, प्रीति के पापा सिर खुजलाने लगे थे, ‘मैं आप के निजी जीवन की थ्योरी नहीं समझ पाया.’

‘मैं घर से बाहर क्या करूं, क्या न करूं,’ उन्होंने स्पष्ट किया था, ‘यह इस पर किसी भी प्रकार की टोकाटाकी नहीं करेंगी.’

‘अरे,’ प्रीति के पापा ने जोर का ठहाका लगाया था, ‘लो भई, आप की यह निजता बनी रहेगी.’

Serial Story- बुलबुला: भाग 2

‘‘आप समस्या का समाधान ढूंढ़ने के बजाय उसे और ज्यादा न उलझाइए, पापा.’’

‘‘हम ने अपनी बात कह दी है. न जेवर बिकेंगे, न फ्लैट.’’

‘‘फिर मेरा कर्ज कैसे उतरेगा, सीमा?’’ परेशान राकेश की आंखों में अपनी पत्नी से ये सवाल पूछते हुए डर के भाव साफ पढ़े जा सकते थे.

‘‘मुझे नहीं पता,’’ सीमा ने फर्श को ताकते हुए रूखे से स्वर में जवाब दे दिया.

‘‘ऐसा मत कहो, प्लीज. मेरी कमाई से ही तो जेवर और फ्लैट खरीदा गया है. आज बुरे वक्त में उन्हें बेचने की जरूरत आ पड़ी है, तो…’’

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‘‘आप भूल रहे हैं कि मैं भी नौकरी करती हूं. आज हर महीने मुझे भी 20 हजार की पगार मिलती है. जो भी हमारे पास है उस को हासिल करने में मेरा भी योगदान रहा है और वह सब मैं दोनों बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के काम में ही लाऊंगी.’’

‘‘अगर मैं कर्ज नहीं चुका पाया तो मुझे जेल जाना पड़ेगा. इतना भारी अपमान मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा, सीमा.’’

‘‘तब आप उस अपमान से बचने का रास्ता ढूंढ़ो. आप की समस्या को हल करने की काबिलीयत और समझ मुझ में नहीं है. न ही ऐसा करना मेरी जिम्मेदारी है,’’ बेहद गंभीर नजर आ रही सीमा अपना फैसला सुना कर झटके से उठी और मकान के अंदर चली गई.

राकेश अपने दोनों बच्चों से 5-10 मिनट बातें कर के लुटापिटा सा अपने ससुर के घर से बाहर निकल आया.

बाहर से खाना खाए बिना वह घर पहुंच गया. उस का मन बहुत दुखी और परेशान था. आंतरिक तनाव को कम करने के लिए उस ने शराब पीनी शुरू कर दी.

इस वक्त उसे अपना आर्थिक संकट नहीं बल्कि सीमा की बेरुखी और परायापन बहुत ज्यादा कष्ट पहुंचा रहे थे.

मैं ने कौन सा सुख सीमा को नहीं दिया? उस की खुशी की खातिर मैं ने अपने घर वालों से संबंध तोड़ दिए थे. आज इसी सीमा ने मुझे डूबने को अकेला छोड़ दिया. जेवरों और फ्लैट की खातिर उस ने पति का साथ न देने का फैसला कितनी आसानी से कर लिया. हमारा रिश्ता कितना कमजोर निकला. मुझे नफरत है उस से. ऐसे विचारों से उलझा राकेश एक के बाद एक शराब के गिलास खाली किए जा रहा था.

अचानक मोबाइल की घंटी बजी तो उसे उठा कर नंबर देखने लगा. गांव से उस की मां आरती का फोन था जो गांव में अपने सब से छोटे बेटे के पास रहती थीं.

नशे से थरथराती आवाज में राकेश ने अपनी मां से बातें कीं. मां की आवाज सुन कर राकेश अचानक ही बेहद भावुक हो उठा था.

‘‘तुम सब का क्या हालचाल है?’’ मां ने यह सवाल पूछ कर अपने बड़े बेटे के दिल पर लगे जख्म को और हरा कर दिया.

‘‘तेरा यह नालायक बेटा बहुत दुखी और अकेला महसूस कर रहा है, मां. आज तो मुझे अपनी जिंदगी ही सब से बड़ा बोझ लग रही है,’’ अचानक ही राकेश की आंखों में आंसू छलक आए तो वह खुद ही हैरान हो उठा था.

‘‘ऐसी गलत बात मुंह से मत निकाल, बेटा. बहू कहां है?’’

‘‘मर गई तुम्हारी बहू, मां.’’

‘‘चुप कर. मेरी बात करा उस से.’’

‘‘वह मुझे अकेला छोड़ कर अपने बाप के घर चली गई है, मां. दोनों बच्चे भी साथ ले गई…यह अकेला घर मुझे काट खाने को आ रहा है, मां.’’

‘‘अपने घर क्यों गई है वह? तुम में झगड़ा हुआ है क्या?’’

‘‘मां, वह अपने स्वार्थ के खातिर मुझे छोड़ गई. मेरा बिजनेस डूब रहा है, तो वह अब क्यों रहेगी मेरे पास? पहले जैसे मेरी गरीब मां और छोटे भाई उसे बोझ लगते थे, वैसे ही अब मैं उसे बोझ लगने लगा हूं. मां…वह मुझे अकेला छोड़ कर भाग गई है.’’

‘‘तू परेशान मत हो, मैं कल आ कर उसे समझाऊंगी तो फौरन वापस घर लौट आएगी.’’

‘‘मैं अब उस की शक्ल भी नहीं देखना चाहता हूं, मां. उसे अपने पति से नहीं, सिर्फ दौलत से प्यार है. उस ने मेरी सुखशांति को नजरअंदाज कर जेवर और फ्लैट चुना. समाज में तड़कभड़क वाली जिंदगी जीने की शौकीन उस औरत को मैं इस घर में कदम नहीं रखने दूंगा.’’

‘‘अपना गुस्सा थूक दे, राकेश. अपने बच्चों की खुशियों की खातिर तुम दोनों को साथ रहना ही होगा.’’

‘‘मां, तू उस औरत की तरफदारी क्यों कर रही है जिसे तू फटी आंख कभी नहीं भाई? जिस ने तेरा मेरे घर में घुसना बंद करा दिया, तू उस की चिंता क्यों कर रही है?’’

‘‘बच्चे नादानी करें तो क्या बड़े भी नासमझी दिखा कर उन का अहित सोचने लगें, बेटा?’’

‘‘मां, मुझे अपनी अतीत की गलतियां सोचसोच कर इस वक्त रोना आ रहा है. मैं सीमा के स्वार्थी स्वभाव को कभी पहचान नहीं पाया. उस के कहे में आ कर मुझे अपनी मां और छोटे भाइयों से दूर नहीं होना चाहिए था.’’

‘‘तू कहां हम से दूर है. तेरे दोनों भाई तेरी बड़ी इज्जत करते हैं. बहू से छिपा कर तू ने कई बार उन दोनों की रुपएपैसों से सहायता नहीं की है क्या?’’

‘‘आज रुपयापैसा भी नहीं रहा है मेरे पास, मां. सारा बिजनेस चौपट हो गया है. वह स्वार्थी औरत मेरे ही रुपयों से खरीदे जेवर और फ्लैट बेचने को तैयार नहीं है. उस की नजर तो इस मकान पर लगी है, पर मैं ऐसा स्वार्थी नहीं जो अपने छोटे भाइयों का हक मार कर यह मकान हड़प लूं…मुझे मर जाना मंजूर है, पर ऐसा गलत काम मैं कभी नहीं करूंगा, मां.’’

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‘‘तू ने मरने की बात अब मुंह से निकाली तो तू मेरा मरा मुंह देखेगा.’’

‘‘ऐसा मत कह, मां.’’

‘‘तो तू भी गलत मत बोल.’’

‘‘नहीं बोलूंगा, मां.’’

‘‘देख बेटा, अब और शराब मत पीना. तुझे मेरी सौगंध है.’’

‘‘तुझे वचन देता हूं मां, अब और शराब नहीं पीऊंगा.’’

‘‘फ्रिज में कुछ रखा हो तो खा कर सो जा.’’

‘‘अच्छा, मां.’’

‘‘बेकार की बातें बिलकुल मत सोच. मैं कल सुबह तुम से मिलने आऊंगी.’’

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Serial Story- बुलबुला: भाग 3

उसे अपनी मां को दिया वचन याद रहा और उस ने शराब नहीं पी. नशे में होने के बावजूद उसे जल्दी से नींद नहीं आई थी. सीमा से जुड़ी बहुत सी बीती घटनाओं को याद करते हुए वह कभी गुस्से तो कभी दुख और अफसोस के भावों से भर जाता. अपने दोनों बच्चे उसे बहुत याद आ रहे थे. अपनी जिंदगी को समाप्त कर लेने का भाव कई बार उस के मन में उठा, लेकिन बच्चों के भविष्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए उस ने आत्महत्या के विचार को अपने मन में मजबूत जड़ें नहीं जमाने दी थीं.

अगले दिन सुबह अपनी मां और दोनों छोटे भाइयों के आने पर ही राकेश की नींद टूटी थी. उस की चिंता ने इन तीनों के चेहरों पर तनाव और घबराहट के भाव पैदा किए हुए थे.

मां मकान की रजिस्ट्री साथ लाई थीं. अपने दोनों छोटे बेटों उमेश और नरेश की रजामंदी से उस ने मकान बेचने के लिए वह रजिस्ट्री राकेश को सौंप दी.

‘‘बेटा, मकान तो फिर बन जाते हैं, पर मैं ने अपना बेटा खो दिया तो उसे कहां से लाऊंगी? इस शहर में तू कुछ भी ले कर नहीं आया था. फिर तू ने अपनी लगन और मेहनत से लाखों कमाए. आज बाजार में मंदी आई है तो ज्यादा दुखी मत हो. यह खराब वक्त भी जरूर बीत जाएगा. मकान बेच कर तू अपने सिर पर बना कर्जे का बोझ फौरन कम कर,’’ अपने बड़े बेटे का प्यार से माथा चूमते हुए उन की पलकें नम हो उठी थीं.

अपने दोनों छोटे भाइयों को गले लगाने के बाद राकेश एक नए उत्साह, हौसले और आत्मविश्वास के साथ आफिस जाने को घर से निकला.

‘तू इस शहर में कुछ भी तो ले कर नहीं आया था,’ अपनी मां के मुंह से निकले इस वाक्य को बारबार मन में दोहरा कर राकेश व्यापार में हुए भारी घाटे के सदमे से खुद को उबरता देख हलका महसूस कर रहा था.

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उस दिन वह आफिस में बेहद व्यस्त रहा. उसे नुकसान पहुंचाने वाले कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने पड़े, पर उन्हें लेते हुए उस का न कलेजा कांपा, न मन को पीड़ा हुई.

उस दिन रात 8 बजे के करीब जब राकेश अपनी ससुराल पहुंचा तो कई हफ्तों से उस के मन पर बना चिंता और तनाव का कोहरा बहुत हद तक छंट चुका था.

राकेश के होंठों पर मुसकान और हाथों में मिठाई का डब्बा देख सीमा और उस के घर वाले असमंजस का शिकार हो गए. अपने बच्चों के साथ हंसताबोलता राकेश उन के लिए पहेली बन गया था. हैरानी के मारे वे अपने मन में उस के प्रति बसे नाराजगी और शिकायत के भावों को भुला ही बैठे.

‘‘तुम्हारे जेवर और फ्लैट अब सुरक्षित हैं, सीमा. हमारे बीच बनी झगड़े की जड़ नष्ट हो गई है. इसलिए सारा सामान समेट कर घर लौटने की तैयारी करो,’’ अपनी पत्नी को ऐसा आदेश देते हुए राकेश रहस्यमय अंदाज में मुसकरा रहा था.

‘‘मार्किट में तो कोई बदलाव आया नहीं है. फिर आप ने कैसे सारी समस्या हल की है?’’ सोमनाथजी ने माथे में बल डाल कर सवाल पूछा.

‘‘मैं ने जो किया है उसे जान कर आप सब क्या करेंगे?’’

‘‘हम यह जानकारी इसलिए चाहते हैं कि कल को तुम सीमा के साथ जेवरों व फ्लैट को ले कर फिर से झगड़ा और मारपीट न शुरू कर दो.’’

‘‘तब सुनिए, मैं ने तांबा घाटे में ही बेचने का फैसला करने के साथसाथ मकान को एक बैंक के पास गिरवी रख दिया है.’’

‘‘तुम्हारी मां और दोनों भाई मकान को गिरवी रख देने के लिए राजी हो गए हैं?’’

‘‘बिलकुल हो गए हैं. आखिर उन का मुझ से खून का रिश्ता है. मैं जेल जाऊं या आत्महत्या कर लूं, ऐसी कल्पना ही उन के दिलों को बुरी तरह से कंपा गई थी. आप सब लोग उन की भावनाओं को नहीं समझ सकेंगे,’’ राकेश के स्वर में मौजूद व्यंग्य के भावों से उस के सासससुर, साले व पत्नी तिलमिला उठे.

सीमा ने चिढ़ कर सवाल पूछा, ‘‘अपना बिजनेस चौपट कर के अब आगे क्या करने का इरादा है?’’

‘‘माई डियर, अपने कैरियर की शुरुआत मैं ने कमीशन एजेंट के काम से की थी और अब फिर से वही बन जाऊंगा. बहुत लंबाचौड़ा व्यापार फैलाया था, पर वह सारी सफलता पानी का बुलबुला साबित हुई.

‘‘वह बुलबुला बड़ा रंगीन था और अन्य लाखोंकरोड़ों लोगों की तरह मैं किसी पागल की तरह उस के पीछे दौड़ा. जब अपनी नियति के अनुरूप बुलबुला अचानक फूटा तो मैं ने अपने होशोहवास घबरा कर खो दिए थे.

‘‘लेकिन अब मेरी समझ में आ गया है कि बुलबुले तो हमेशा अचानक ही फूटते हैं. लालच के कारण जैसा बेवकूफ मैं इस बार बना हूं वैसा फिर कभी नहीं बनूंगा,’’ राकेश ने नाटकीय अंदाज में अपने कान पकड़े और फिर ठहाका मार कर हंस पड़ा.

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‘‘यों हंस कर अपना सबकुछ बरबाद होने की खुशी जाहिर कर रहे हो क्या? समाज में अब कितनी बेइज्जती के साथ जीना पड़ेगा, जरा इस पर भी कुछ सोचविचार करो,’’ सीमा का चेहरा एकाएक ही गुस्से से लाल हो उठा.

राकेश ने किसी दार्शनिक के अंदाज में जवाब दिया, ‘‘सीमा, बाजार की भारी उथलपुथल ने लाखों लोगों को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है. ऐसे संकट का सामना इनसान अलगअलग ढंग से करता है. जो लोग समाज की नजरों में चमकदमक की जिंदगी जीना महत्त्वपूर्ण मानते हैं वे ऐसे कठिन समय में टूट कर बिखर जाते हैं. उन्हें हार्टअटैक पड़ते हैं, वे आत्महत्या करते हैं.

‘‘दूसरी तरह के लोग बदली परिस्थितियों का सामना हौसले और आत्मविश्वास के साथ करते हैं. वे अपनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के महत्त्व को समझते हैं. अपनों का सहारा और प्रेम उन की ताकत होता है. देखो, मेरी मां और भाइयों ने मेरा साथ दे कर मुझे संकट से निकाल ही लिया है न. जीवन की खुशियां और सुखशांति ऐसे रिश्तों से बनती हैं न कि धनदौलत के अंबार से…पर यह बात शायद तुम नहीं समझोगी.’’

सीमा से कोई जवाब देते नहीं बना. अचानक गहरी उदासी ने उसे घेर लिया और वह गरदन झुकाए लौटने की तैयारी करने कमरे में चली गई.

Serial Story- बुलबुला: भाग 1

सिर्फ 3 महीने के अंदर राकेश की हंसीखुशी से भरी दुनिया जबरदस्त उथलपुथल का शिकार हो गई.

विश्व बाजार में आई आर्थिक मंदी से उस का तांबे का व्यापार भी प्रभावित हुआ था. अपनी पूंजी डूब जाने के साथसाथ सिर पर भारी कर्जा और हो गया था. कहीं से भी आगे कर्ज मिलने की उम्मीदें खत्म हो गई थीं. बाजार में पैसा था ही नहीं.

ऐसे कठिन समय में पत्नी सीमा भी उस का साथ छोड़ कर दोनों बच्चों के साथ मायके चली गई. उसे दुख इस का भी था कि ऐसा करने की न तो सीमा ने उस से इजाजत ली और न उसे इस कदम को उठाने की जानकारी ही दी.

जिस औरत ने 18 साल पहले अग्नि को साक्षी मान कर हमेशा सुखदुख में उस का साथ निभाने की सौगंध खाई थी, उस से ऐसे रूखे व कठोर व्यवहार की कतई उम्मीद राकेश को नहीं थी.

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जबरदस्त तनाव से जूझ रहे राकेश का मन अकेले घर में घुसने को राजी नहीं हुआ, तो वह सीमा को मनाने के लिए अपनी ससुराल चला आया.

वहां उस की बेटी शिखा और बेटा रोहित ही उसे देख कर खुश हुए. सीमा, उस के मातापिता और भैयाभाभी शुष्क और नाराजगी भरे अंदाज में उस से मिले.

राकेश खुद को अंदर से बड़ा थका और टूटा हुआ सा महसूस कर रहा था. इस वक्त वह नींद की गोली खा कर सोना चाहता था पर मजबूरन उसे अपनी पत्नी व ससुराल वालों के साथ बहस में उलझना पड़ा.

‘‘क्या हम ने अपनी बेटी तुम्हें मारपीट कर के दुखी रखने के लिए दी थी?’’ बड़े आक्रामक अंदाज में यह सवाल पूछ कर उस के ससुर सोमनाथजी ने वार्तालाप शुरू किया.

‘‘आजकल मैं बहुत टेंशन में जी रहा हूं, पापा. कल रात मेरा गुस्से में सीमा पर जो हाथ उठा, उस के लिए मैं माफी चाहता हूं,’’ बात को आगे न बढ़ाने के इरादे से राकेश ने शांत लहजे में फौरन क्षमा मांग ली.

‘‘जीजाजी, आप ने तो पिछले कई महीनों से दीदी का जीना हराम कर रखा है. न आप से बिजनेस संभलता है और न शराब. गलतियां आप की और गालियां सुनें दीदी. नहीं, हम दीदी को आप के साथ और अत्याचार सहने के लिए नहीं भेजेंगे,’’ उस के साले समीर ने गुस्से से भरी आवाज में ये फैसला राकेश को सुना दिया.

‘‘तुम आग में घी डाल कर मेरी घरगृहस्थी को तोड़ने की कोशिश मत करो, समीर,’’ राकेश ने अपने साले को डांट दिया.

‘‘अभी घर न लौटने का फैसला मेरा है, राकेश,’’ इन शब्दों को मुंह से निकाल कर सीमा ने राकेश को चौंका दिया.

‘‘परेशानियों से भरे इस समय में क्या तुम मेरा साथ छोड़ रही हो,’’ राकेश एकदम से भावुक हो उठा,  ‘‘मुझे बच्चों से अगर दूर रहना पड़ा तो मैं पागल हो जाऊंगा, सीमा.’’

‘‘और अगर मैं तुम्हारे साथ रही तो मेरे दिमाग की नस फट जाएगी,’’ सीमा ने पलट कर क्रोधित लहजे में जवाब दिया.

‘‘बच्चों जैसी बातें मत करो. इस वक्त तुम्हें मेरा साथ देना चाहिए या मेरी परेशानियां और बढ़ानी चाहिए?’’

‘‘राकेश, तुम एक बात अच्छी तरह से समझ लो,’’ सोमनाथजी बीच में बोल पड़े, ‘‘बिजनेस में हुए घाटे को पूरा करने के लिए सीमा अपने जेवर नहीं बेचेगी. उस के नाम पर जो फ्लैट है, उस को बेचने की बात भी तुम भूल जाओ.’’

‘‘इन को बेचे बिना मेरी समस्याओं का अंत नहीं होगा, पापा. इस महत्त्वपूर्ण बात को आप सब क्यों नहीं समझ रहे हैं?’’ राकेश गुस्सा हो उठा.

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‘‘तुम्हारे बिजनेस में पहले ही लाखों डूब चुके हैं. ये जेवर ही भविष्य में शिखा की शादी और रोहित की पढ़ाई के काम आएंगे. कल को सिर पर सुरक्षित छत उस फ्लैट से ही मिलेगी तुम सब को. तुम जिस मकान में रह रहे हो, उसे क्यों नहीं बेच देते हो,’’ राकेश की सास सुमन ने तीखे लहजे में सवाल पूछा.

‘‘अपने इस सवाल का जवाब आप को मालूम है, मम्मी. इस मकान में मेरे दोनों छोटे भाइयों का भी हिस्सा है. ये मकान मेरे पिता ने बनाया था.’’

‘‘लेकिन इस की देखभाल पर हमेशा सिर्फ तुम ने अकेले ही खर्च किया है. तुम्हारे दोनों भाइयों को रहने के लिए इस मकान की जरूरत भी नहीं. मेरी समझ से तुम्हें इस मकान को बेचने का पूरा अधिकार है.’’

‘‘भाइयों को हिस्सा दे कर जो मुझे मिलेगा, उस से मेरा कर्ज नहीं…’’

‘‘तब तुम भाइयों को उन का हिस्सा अभी मत दो,’’ सोमनाथजी ने उसे टोकते हुए सलाह दी.

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