Serial Story- विचित्र संयोग: भाग 1

रविवार की सुबह 7 बजे के लगभग नोएडा का धनवानों का इलाका सेक्टर-15ए अभी सोया पड़ा था. वीआईपी इलाका होने के कारण यहां सवेरा यों भी जरा देर से उतरता है. चहलपहल थी तो सिर्फ सेक्टर-2 के पीछे के इलाके में. सवेरे 4 बजे से ही

यहां मछलियों का बाजार लग जाता था. इसी बाजार के पास फाइन चिकन एंड मीट शौप है, जहां सवेरे 4 बजे से ही बकरों को काटने और उन्हें टांगने का काम शुरू हो जाता था.

सामने स्थित डीटीसी बस डिपो से बसें बाहर निकलने लगी थीं. डिपो के एक ओर नया बास गांव है, जिस में स्थानीय लोगों के मकान हैं. डिपो के सामने पुलिस चौकी है, जिस के बाहर

2-3 सिपाही बेंच पर बैठ कर गप्पें मार रहे थे और चौकी के अंदर बैठे सबइंसपेक्टर आशीष शर्मा झपकियां ले रहे थे.

गांव के पीछे के मयूरकुंज की अलकनंदा इमारत की पांचवी मंजिल का एक फ्लैट सेक्टर-62 की एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाले धनंजय विश्वास का था. फ्लैट में धनंजय अपनी पत्नी रोहिणी के साथ रहते थे. रोहिणी दिल्ली में पंजाब नेशनल बैंक में प्रोबेशनरी औफिसर थी. वह दिल्ली की रहने वाली थी. धनंजय के औफिस का समय सवेरे 9 बजे से शाम 6 बजे तक था. वह औफिस अपनी कार से जाता था. रोहिणी शाम साढ़े 6 बजे तक घर लौट आती थी.

पति पत्नी शाम का खाना साथ ही खाया करते थे. हां, छुट्टी के दिनों दोनों मिल कर हसंतेखेलते खाना बनाते थे. धनंजय हर रविवार को सेक्टर-2 में लगने वाली मछली बाजार से मछलियां और फाइन चिकन एंड मीट शौप की दुकान से मीट लाता था. पहली अप्रैल की सुबह 6 बजे फ्लैट की घंटी बजने पर दूध देने वाले गनपत से दूध ले कर धनंजय फटाफट तैयार हो कर मीट लेने के लिए निकल गया. रोहिणी को वह सोती छोड़ गया था. वह कार ले कर निकलने लगा तो  चौकीदार ने हंसते हुए पूछा, ‘‘साहब, आज रविवार है न, मीट लेने जा रहे हैं?’’

धनंजय ने हंस कर कार आगे बढ़ा दी थी.

फाइन चिकन एंड मीट शौप पर आ कर उस ने 2 किलोग्राम मीट और एक किलोग्राम कीमा लिया. इस के बाद उस ने रास्ते में मछली और नाश्ते के लिए अंडे, ब्रेड, मक्खन और 4 पैकेट सिगरेट लिए. लगभग साढ़े 7 बजे वह फ्लैट पर लौट आया. ऊपर पहुंच कर उस ने ‘लैच की’ से दरवाजा खोला. दरवाजे के अंदर अखबार पड़ा था, जिसे नरेश पेपर वाला दरवाजे के नीचे से अंदर सरका गया था. अखबार उठाते हुए उस ने रोहिणी को आवाज लगाई, ‘‘उठो भई, मैं तो बाजार से लौट भी आया.’’

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उस ने डाइनिंग टेबल पर सारा सामान रख कर 2 बड़ी प्लेटें उठाईं. एक में उस ने गोश्त और दूसरे में मछली निकाली. सारा सामान डाइनिंग टेबल पर रख कर वह बैडरूम में घुसा तो उस की चीख निकल गई, ‘‘रोहिणी?’’

धनंजय की सुंदर पत्नी रोहिणी रक्त से सराबोर बैड पर मरी पड़ी थी. उस के गले, सीने और पेट से उस वक्त भी खून रिस रहा था, जिस से सफेद बैडशीट लाल हो गई थी. कुछ क्षणों बाद धनंजय रोहिणी का नाम ले कर चीखता हुआ बाहर की ओर भागा. उस के अड़ोसपड़ोस में 3 फ्लैट थे. दाईं ओर के 2 फ्लैटों में सक्सेना और मिश्रा तथा बाईं ओर के फ्लैट में रावत रहते थे. पागलों की सी अवस्था में धनंजय ने सक्सेना के फ्लैट की घंटी पर हाथ रखा तो हटाया ही नहीं. कुछ क्षणों बाद तीनों पड़ोसी बाहर निकले. वे धनंजय की हालत देख कर दंग रह गए. उस के कंधे पर हाथ रख कर सक्सेना ने पूछा, ‘‘क्या हुआ विश्वास?’’

सक्सेना रिटायर्ड कर्नल थे. उन्होंने ही नहीं, मिश्रा और रावत ने भी किसी अनहोनी का अंदाजा लगा लिया था. धनंजय ने हकलाते हुए कहा, ‘‘रो…हि…णी.’’

सक्सेना, उन का बेटा एवं बहू, मिश्रा और रावत उस के फ्लैट के अंदर गए. बैडरूम का हृदयविदारक दृश्य देख कर सक्सेना की बहू डर के मारे चीख पड़ी. अपने आप को संभालते हुए सक्सेना ने कोतवाली पुलिस को फोन कर घटना की सूचना दी. कोतवाली में उस समय ड्यूटी पर सबइंसपेक्टर दयाशंकर थे.

दयाशंकर ने मामला दर्ज कर के मामले की सूचना अधिकारियों को दी और खुद 2 सिपाही ले कर अलकनंदा पहुंच गए. तब तक आशीष शर्मा भी 2 सिपाहियों के साथ वहां पहुंच गए थे. लोगों के बीच से जगह बनाते हुए पुलिस सीधे पांचवीं मंजिल पर पहुंची. पुलिस के पहुंचते ही धनंजय उठ कर खड़ा हो गया. थोड़ी ही देर में फोरैंसिक टीम के सदस्य भी आ पहुंचे. इंसपेक्टर प्रकाश राय भी आ पहुंचे थे.

प्रकाश राय ने सीधे ऊपर न जा कर इमारत को गौर से देखना शुरू किया. इमारत में ‘ए’ और ‘बी’ 2 विंग थे. दोनों विंग के लिए अलगअलग सीढि़यां थीं. धनंजय ‘ए’ विंग में रहता था. इमारत के गेट पर ही वाचमैन के लिए एक छोटी सी केबिन थी, जिस में से आनेजाने वाला हर व्यक्ति उसे दिखाई देता था. इमारत के चारों ओर घूमते हुए पीछे एक जगह रुक कर प्रकाश राय ने सिक्योरिटी इंचार्ज खन्ना से पूछा, ‘‘ये कमरे किस के हैं?’’

‘‘सफाई कर्मचारियों और वाचमैन के .’’

‘‘कितने वाचमैन हैं?’’

‘‘2 हैं. इन की ड्यूटी 2 शिफ्टों में होती है. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे और रात 8 बजे से सवेरे 8 बजे तक.’’

‘‘दोनों के नाम क्या हैं और ये रहते कहां है?’’

‘‘कल नाइट शिफ्ट पर नारायण था. वह सेक्टर-10 में रहता है. मौर्निंग शिफ्ट में जो गार्ड अभी पौने 8 बजे आया है, उस का नाम भास्कर है, वह खोड़ा में रहता है.’’

‘‘अच्छा, यहां स्वीपर कितने हैं?’’

‘‘एक ही है साहब, रणधीर और उस की पत्नी देविका. ये दोनों अपने दोनों बच्चों के साथ यहीं रहते हैं. बाहर का काम रणधीर और टायलेट वगैरह साफ करने का काम देविका करती है.’’

खन्ना से बात करतेकरते प्रकाश राय इमारत के गेट पर पहुंचे. तभी एसएसपी, एसपी और सीओ भी आ गए. इन्हीं अधिकारियों के साथ डौग स्क्वायड की टीम भी आई थी. ऊपर जांच चल रही थी. प्रकाश राय एक सिपाही के साथ नीचे रुक गए, बाकी सभी अधिकारी ऊपर चले गए. प्रकाश राय चौकीदार नारायण, जो रात की ड्यूटी पर था, उसी के रहते हत्या हुई थी. उस से पूछताछ करने लगे, पर उस से प्रकाश राय के हाथ कोई सूत्र नहीं लगा. उस ने धनंजय को मीट लेने जाते और लौटते देखा था बस.

प्रकाश राय के ऊपर पहुंचते ही दयाशंकर ने धनंजय से उन का परिचय कराया. धनंजय के कंधे पर हाथ रख कर सहानुभूति जताते हुए प्रकाश राय ने कहा, ‘‘धनंजय, तुम्हारे साथ जो हुआ, उस का मुझे बेहद अफसोस है. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि अगर तुम्हारा सहयोग मिला तो मैं खूनी को कानून के शिकंजे में जकड़ कर रहूंगा.’’

प्रकाश राय ने खून से लथपथ रोहिणी की लाश देखी. कमरे का निरीक्षण करते. वह सिर्फ एक ही बात सोच रहे थे कि हत्यारा मुख्य द्वार से आया था या दरवाजे से लग क र जो पैसेज है उस में से किचन पार कर के आया था? पैसेज की जांच के लिए वह किचन के दरवाजे पर आए तो किचन टेबल पर ढेर सारा मीट और मछलियां देख कर चौंके. खाने वाले सिर्फ 2 और सामान इतना. प्रकाश राय बैडरूम में लौट आए. एसआई दयाशंकर और आशीष शर्मा अलमारी को सील कर रहे थे. आश्चर्य की बात यह थी कि अलमारी का लौकर खुला था. उस में चाबियां लटक रही थीं. अलमारी का सारा सामान ज्यों का त्यों था, जो इस बात का प्रमाण था कि हत्यारे ने सिर्फ लौकर का माल साफ किया था.

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बैडरूम में दूसरी अलमारी भी थी. उसे हाथ नहीं लगाया गया था. दयाशंकर ने प्रकाश राय की ओर प्रश्नभरी नजरों से देखते हुए धनंजय से कहा, ‘‘मिस्टर विश्वास, आप जरा यह अलमारी खोलने की मेहरबानी करेंगे?’’

धनंजय ने प्रकाश राय को दयाशंकर की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘मैं इन चाबियों को हाथ लगा सकता हूं?’’

फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट ने गर्दन हिलाते हुए अनुमति दे दी. धनंजय ने पहली अलमारी से चाबी निकाल कर दूसरी अलमारी खोली. प्रकाश राय ने गौर से देखा, अलमारी का सारा सामान ज्यों का त्यों था. पहली अलमारी के लौकर से चोरी गए सामान के बारे में पूछा, ‘‘तुम्हारे अंदाज से कितना सामान चोरी गया होगा?’’

‘‘रोहिणी के जेवरात ही लगभग 30-40 लाख रुपए के थे. 40-42 हजार नकदी भी थी.’’

‘‘इतनी नकदी तुम घर में रखते हो?’’

‘‘नहीं साहब, कल शनिवार  था, रोहिणी ने 40 हजार रुपए बैंक से निकाले थे. बैंक में हम दोनों का जौइंट एकाउंट है. कल सवेरे यह रकम मैं एक टूरिस्ट कंपनी में जमा कराने वाला था.’’

‘‘कारण?’’

Serial Story- इंद्रधनुष: भाग 3

जाने और कितनी देर ऋचा अपने ही खयालों में उलझी रहती यदि पिताजी का करुण चेहरा और उस से भी अधिक करुण स्वर उसे चौंका न देता, ‘क्या बात है, ऋचा? हम तुम्हारी भलाई के लिए कितने प्रयत्न करते हैं, पर पता नहीं क्यों तुम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने पर तुली रहती हो.’

‘क्या हुआ, पिताजी?’ ऋचा हैरान स्वर में पूछने लगी.

‘तुम्हें अजित से यह कहने की क्या जरूरत थी कि तुम कांटेक्ट लैंसों का प्रयोग करती हो?’

‘मैं ने जानबूझ कर नहीं कहा था, पिताजी. ऐसे ही बात से बात निकल आई थी. फिर मैं ने छिपाना ठीक नहीं समझा.’

‘तुम नहीं जानतीं, तुम ने क्या कह दिया. अब वे लोग कह रहे हैं कि हम ने यह बात छिपा कर उन्हें अंधेरे में रखा,’ पिताजी दुखी स्वर में बोले.

‘पर विवाह तो निश्चित हो चुका है, सगाई हो चुकी है. अब उन का इरादा क्या है?’ मां ने परेशान हो कर पूछा था, जो जाने कब वहां आ कर खड़ी हो गई थीं.

‘कहते हैं कि वे हमारी छोटी बेटी पूर्णिमा को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं. पर मैं ने कहा कि बड़ी से पहले छोटी का विवाह हो ऐसी हमारे घर की रीति नहीं है. फिर भी घर में सलाह कर के बताऊंगा. लेकिन बताना क्या है, हमारी बेटियों को क्या उन्होंने पैर की जूतियां समझ रखा है कि अगर बड़ी ठीक न आई तो छोटी पहन ली,’  वह क्रोधित स्वर में बोले.

‘इस में इतना नाराज होने की बात नहीं है, पिताजी. यदि उन्हें पूर्णिमा पसंद है तो आप उस का विवाह कर दीजिए. मैं तो वैसे भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं,’ ऋचा ने क्षणांश में ही मानो निर्णय ले लिया.

कुछ देर सब चुप खड़े रहे, मानो कहने को कुछ बचा ही न हो.

‘ऋचा ठीक कहती है. अधिक भावुक होने में कुछ नहीं रखा है. इतनी ऊंची नाक रखोगे तो ये सब यहीं बैठी रह जाएंगी,’ मां ने अपना निर्णय सुनाया.

फिर तो एकएक कर के 8 वर्ष बीत गए थे. उस से छोटी तीनों बहनों के विवाह हो गए थे. ऋचा भी पढ़ाई समाप्त कर के कालिज में व्याख्याता हो गई थी. पिताजी भी अवकाश ग्रहण कर चुके थे.

अब तो वह विवाह के संबंध में सोचती तक नहीं थी. पर गिरीश ने अपने   व्यवहार से मानो शांत जल में कंकड़ फेंक दिया था. अब अतीत को याद कर के वह बहुत अशांत हो उठी थी.

‘‘अरे दीदी, यहां अंधेरे में क्यों बैठी हो? बत्ती भी नहीं जलाई. नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. तुम्हारे कालिज के कोई गिरीश बाबू अपनी मां के साथ आए हैं. अरे, तुम तो रो रही हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ ऋचा की छोटी बहन सुरभि ने आ कर कहा.

‘‘नहीं, रो नहीं रही हूं. ऐसे ही कुछ सोच रही थी. तू चल, मैं आ रही हूं,’’ ऋचा अपने आंसू पोंछते हुए बोली.

ड्राइंगरूम में पहुंची तो एकाएक सब की निगाहें उस की ओर ही उठ गईं.

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‘‘आप की बेटी ही पहली लड़की है, जिसे देख कर गिरीश ने विवाह के लिए हां की है. नहीं तो यह तो विवाह के लिए हां ही नहीं करता था,’’ ऋचा को देखते ही गिरीश की मां बोलीं.

‘‘आप ने तो हमारा बोझ हलका कर दिया, बहनजी. इस से छोटी तीनों बहनों का विवाह हो चुका है. मुझे तो दिनरात इसी की चिंता लगी रहती है.’’

ऋचा के मां और पिताजी अत्यंत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे.

‘तो मुझ से पहले ही निर्णय लिया जा चुका है?’ ऋचा ने बैठते हुए सोचा. वह कुछ कहती उस से पहले ही गिरीश की मां और उस के मातापिता उठ कर बाहर जा चुके थे. बस, वह और गिरीश ड्राइंगरूम में रह गए थे.

‘‘एक बात पूछूं, आप कभी हंसती- मुसकराती भी हैं या यों ही मुंह फुलाए रहती हैं?’’ गिरीश ने नाटकीय अंदाज में पूछा.

‘‘मैं भी आप से एक बात पूछूं?’’ ऋचा ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न कर दिया, ‘‘आप कभी गंभीर भी रहते हैं या यों ही बोलते रहते हैं?’’

‘‘चलिए, आज पता चल गया कि आप बोलती भी हैं. मैं तो समझा था कि आप गूंगी हैं. पता नहीं, कैसे पढ़ाती होंगी. मैं सचमुच बहुत बोलता हूं. अब क्या करूं, बोलने का ही तो खाता हूं. पर मैं इतना बुरा नहीं हूं जितना आप समझती हैं,’’ गिरीश अचानक गंभीर हो गया.

‘‘देखिए, आप अच्छे हों या बुरे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. पुरुषों में तो मुझे विशेष रूप से कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘आप के अनुभव निश्चय ही कटु रहे होंगे. पर जीवन में किसी न किसी पर विश्वास तो करना ही पड़ता है. आप एक बार मुझ पर विश्वास तो कर के देखिए,’’ गिरीश मुसकराया.

‘‘ठीक है, पर मैं आप को सबकुछ साफसाफ बता देना चाहती हूं. मैं कांटेक्ट लैंसों का प्रयोग करती हूं. दहेज में देने के लिए मेरे पिताजी के पास कुछ नहीं है,’’ ऋचा कटु स्वर में बोली.

‘‘हम एकदूसरे को समस्त गुणों व अवगुणों के साथ स्वीकार करेंगे, ऋचा. फिर इन बातों का तो कोई अर्थ ही नहीं है. मैं तुम्हें 3 वर्षों से देखपरख रहा हूं. मैं ने यह निर्णय एक दिन में नहीं लिया है. आशा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी.’’

गिरीश की बातों को समझ कर ऋचा खामोश रह गई. इतनी समझदारी की बातें तो आज तक उस से किसी ने नहीं कही थीं. फिर उस के नेत्र भर आए.

‘‘क्या हुआ?’’ गिरीश ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं, ये तो प्रसन्नता के आंसू हैं,’’ ऋचा ने मुसकराने की कोशिश की. उसे लगा कि आंसुओं के बीच से ही दूर क्षितिज पर इंद्रधनुष उग आया है.

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Serial Story- इंद्रधनुष: भाग 1

‘‘वाह, आज तो आप सचमुच बिजली गिरा रही हैं. नई साड़ी है क्या?’’ ऋचा को देखते ही गिरीश मुसकराया.

‘‘न तो यह नई साड़ी है और न ही मेरा किसी पर बिजली गिराने का इरादा है,’’ ऋचा रूखेपन से बोली, जबकि उस ने सचमुच नई साड़ी पहनी थी.

‘‘आप को बुरा लगा हो तो माफी चाहता हूं, पर यह रंग आप पर बहुत फबता है. फिर आप की सादगी में जो आकर्षण है वह सौंदर्य प्रसाधनों से लिपेपुते चेहरों में कहां. मैं तो मां से हमेशा आप की प्रशंसा करता रहता हूं. वह तो मेरी बातें सुन कर ही आप की इतनी बड़ी प्रशंसक हो गई हैं कि आप के मातापिता से बातें करने, आप के यहां आना चाहती थीं, पर मैं ने ही मना कर दिया. सोचा, जब तक आप राजी न हो जाएं, आप के मातापिता से बात करने का क्या लाभ है.’’

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गिरीश यह सब एक ही सांस में बोलता चला गया था और ऋचा समझ न सकी थी कि उस की बातों का क्या अर्थ ले, ‘अजीब व्यक्ति है यह. कितनी बार मैं इसे जता चुकी हूं कि मेरी इस में कोई रुचि नहीं है.’ सच पूछो तो ऋचा को पुरुषों से घृणा थी, ‘वे जो भी करेंगे, अपने स्वार्थ के लिए. पहले तो मीठीमीठी बातें करेंगे, पर बाद में यदि एक भी बात मनोनुकूल न हुई तो खुद ही सारे संबंध तोड़ लेंगे,’ ऋचा इसी सोच के साथ अतीत की गलियों में खो गई.

तब वह केवल 17 वर्ष की किशोरी थी और अनुपम किसी भौंरे की तरह उस के इर्दगिर्द मंडराया करता था.

खुद उस की सपनीली आंखों ने भी तो तब जीवन की कैसी इंद्रधनुषी छवि बना रखी थी. जागते हुए भी वह स्वप्नलोक में खोई रहती थी.

उस दिन अनुपम का जन्मदिन था और उस ने बड़े आग्रह से ऋचा को आमंत्रित किया था. पर घर में कुछ मेहमान आने के कारण उसे घर से रवाना होने में ही कुछ देर हो गई थी. वह जल्दी से तैयार हुई थी. फिर उपहार ले कर अनुपम के घर पहुंच गई थी. पर वह दरवाजे पर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई थी.

‘क्या बात है, अब तक तुम्हारी ऋचा नहीं आई?’ भीतर से अनुपम की दीदी का स्वर उभरा था.

‘मेरी ऋचा? आप भी क्या बात करती हैं, दीदी. बड़ी ही मूर्ख लड़की है. बेकार ही मेरे पीछे पड़ी रहती है. इस में मेरा क्या दोष?’

‘बनो मत, उस के सामने तो उस की प्रशंसा के पुल बांधते रहते हो,’ अब उस की सहेली का उलाहना भरा स्वर सुनाई दिया.

‘वह तो मैं ने विवेक और विशाल से शर्त लगाई थी कि झूठी प्रशंसा से भी लड़कियां कितनी जल्दी झूम उठती हैं,’ अनुपम ने बात समाप्त करतेकरते जोर का ठहाका लगाया था.

वहां मौजूद लोगों ने हंसी में उस का साथ दिया था.

पर ऋचा के कदम वहीं जम कर रह गए थे.

‘आगे बढं़ ू या लौट जाऊं?’ बस, एकदो क्षण की द्विविधा के बाद वह लौट आई थी. वह अपने कमरे में बंद हो कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

कुछ दिनों के लिए तो उसे सारी दुनिया से ही घृणा हो गई थी. ‘यह मतलबी दुनिया क्या सचमुच रहने योग्य है?’ ऋचा खुद से ही प्रश्न करती.

पर धीरेधीरे उस ने अपनेआप को संयत कर लिया था. फिर अनुपम प्रकरण को वह दुस्वप्न समझ कर भूल गई थी.

उस घटना को 1 वर्ष भी नहीं बीता था कि घर में उस के विवाह की चर्चा होने लगी. उस ने विरोध किया और कहा, ‘मैं अभी पढ़ना चाहती हूं.’

‘एकदो नहीं पूरी 4 बहनें हो. फिर तुम्हीं सब से बड़ी हो. हम कब तक तुम्हारी पढ़ाई समाप्त करने की प्रतीक्षा करते रहेंगे?’ मां ने परेशान हो कर प्रश्न किया था.

‘क्या कह रही हो, मां? अभी तो मैं बी.ए. में हूं.’

‘हमें कौन सी तुम से नौकरी करवानी है. अब जो कुछ पढ़ना है, ससुराल जा कर पढ़ना,’  मां ने ऐसे कहा, मानो एकदो दिन में ही उस का विवाह हो जाएगा.

ऋचा ने अब चुप व तटस्थ रह कर पढ़ाई में मन लगाने का निर्णय किया. पर जब हर तीसरेचौथे दिन वर पक्ष के सम्मुख उस की नुमाइश होती, ढेरों मिठाई व नमकीन खरीदी जाती, सबकुछ अच्छे से अच्छा दिखाने का प्रयत्न होता, तब भी बात न बनती.

इस दौरान ऋचा एम.ए. प्रथम वर्ष में पहुंच गई थी. उस ने कई बार मना भी किया कि वरों की उस नीलामी में बोली लगाने की उन की हैसियत नहीं है. पर हर बार मां का एक ही उत्तर होता, ‘तुम सब अपनी घरगृहस्थी वाली हो जाओ, और हमें क्या चाहिए.’

‘पर मां, ‘अपने घर’ की दहलीज लांघने का मूल्य चुकाना क्या हमारे बस की बात है?’ मां से पूछा था ऋचा ने.

‘अभी बहुत भले लोग हैं इस संसार में, बेटी.’

‘ऋचा, क्यों अपनी मां को सताती हो तुम? कोशिश करना हमारा फर्ज है. फिर कभी न कभी तो सफलता मिलेगी ही,’ पिताजी मां से उस की बातचीत सुन कर नाराज हो उठे तो वह चुप रह गई थी.

पर एक दिन चमत्कार ही तो हो गया था. पिताजी समाचार लाए थे कि जो लोग ऋचा को आखिरी बार देखने आए थे, उन्होंने ऋचा को पसंद कर लिया था.

एक क्षण को तो ऋचा भी खुशी के मारे जड़ रह गई, पर वह प्रसन्नता उस वक्त गायब हो गई जब पिताजी ने दहेजटीका की रकम व सामान की सूची दिखाई. ऋचा निराश हो कर शून्य में ताकती बैठी रह गई थी.

‘25 हजार रुपए नकद और उतनी ही रकम का सामान. कैसे होगा यह सब. 3 और छोटी बहनें भी तो हैं,’ उस के मुंह से अनायास ही निकल गया था.

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Serial Story- इंद्रधनुष: भाग 2

‘जब उन का समय आएगा, देखा जाएगा,’ मां उस का विवाह संबंध पक्का हो जाने से इतनी प्रसन्न थीं कि उस के आगे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं.

जब मां ने अजित को देखा तो वह निहाल ही हो गईं, ‘कैसा सुंदरसजीला दूल्हा मिला है तुझे,’ वह ऋचा से बोलीं.

पर वर पक्ष की भारी मांग को देखते हुए ऋचा चाह कर भी खुश नहीं हो पा रही थी.

धीरेधीरे अजित घर के सदस्य जैसा ही होता जा रहा था. लगभग तीसरेचौथे दिन बैंक से लौटते समय वह आ जाता. तब अतिविशिष्ट व्यक्ति की भांति उस का स्वागत होता या फिर कभीकभी वे दोनों कहीं घूमने के लिए निकल जाते.

‘मुझे तो अपनेआप पर गर्व हो रहा है,’ उस दिन रेस्तरां में बैठते ही अजित, ऋचा से बोला.

‘रहने दीजिए, क्यों मुझे बना रहे हैं?’ ऋचा मुसकराई.

‘क्यों, तुम्हें विश्वास नहीं होता क्या? ऐसी रूपवती और गुणवती पत्नी बिरलों को ही मिलती है. मैं ने तो जब पहली बार तुम्हें देखा था तभी समझ गया था कि तुम मेरे लिए ही बनी हो,’ अजित अपनी ही रौ में बोलता गया.

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ऋचा बहुत कुछ कहना चाह रही थी, पर उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा था. जब अजित ने पहली ही नजर में समझ लिया था कि वह उस के लिए ही बनी है तो फिर वह मोलभाव किस लिए. कैसे दहेज की एकएक वस्तु की सूची बनाई गई थी. घर के छोटे से छोटे सदस्य के लिए कपड़ों की मांग की गई थी.

ऋचा के मस्तिष्क में विचारों का तूफान सा उठ रहा था. पर वह इधरउधर देखे बिना यंत्रवत काफी पिए जा रही थी.

तभी 2 लड़कियों ने रेस्तरां में प्रवेश किया. अजित को देखते ही दोनों ने मुसकरा कर अभिवादन किया और उस की मेज के पास आ कर खड़ी हो गईं.

‘यह ऋचा है, मेरी मंगेतर. और ऋचा, यह है उमा और यह राधिका. हमारी कालोनी में रहती हैं,’ अजित ने ऋचा से उन का परिचय कराया.

‘चलो, तुम ने तो मिलाया नहीं, आज हम ने खुद ही देख लिया अपनी होने वाली भाभी को,’ उमा बोली.

‘बैठो न, तुम दोनों खड़ी क्यों हो?’ अजित ने औपचारिकतावश आग्रह किया.

‘नहीं, हम तो उधर बैठेंगे दूसरी मेज पर. हम भला कबाब में हड्डी क्यों बनें?’

राधिका हंसी. फिर वे दोनों दूसरी मेज की ओर बढ़ गईं.

‘राधिका की मां, मेरी मां की बड़ी अच्छी सहेली हैं. वह उस का विवाह मुझ से करना चाहती थीं. यों उस में कोई बुराई नहीं है. स्वस्थ, सुंदर और पढ़ीलिखी है. अब तो किसी बैंक में काम भी करती है. पर मैं ने तो साफ कह दिया था कि मुझे चश्मे वाली पत्नी नहीं चाहिए,’ अजित बोला.

‘क्या कह रहे हैं आप? सिर्फ इतनी सी बात के लिए आप ने उस का प्रस्ताव ठुकरा दिया? यदि आप को चश्मा पसंद नहीं था तो वह कांटेक्ट लैंस लगवा सकती थीं,’ ऋचा हैरान स्वर में बोली.

‘बात तो एक ही है. चेहरे की तमाम खूबसूरती आंखों पर ही तो निर्भर करती है, पर तुम क्यों भावुक होती हो. मुझे तो तुम मिलनी थीं, फिर किसी और से मेरा विवाह कैसे होता?’ अजित ने ऋचा को आश्वस्त करना चाहा.

कुछ देर तो ऋचा स्तब्ध बैठी रही. फिर वह ऐसे बोली, मानो कोई निर्णय ले लिया हो, ‘आप से एक बात कहनी थी.’

‘कहो, तुम्हारी बात सुनने के लिए तो मैं तरस रहा हूं. पर तुम तो कुछ बोलती ही नहीं. मैं ही बोलता रहता हूं.’

‘पता नहीं, मांपिताजी ने आप को बताया है या नहीं, पर मैं आप को अंधेरे में नहीं रख सकती. मैं भी कांटेक्ट लैंसों का प्रयोग करती हूं,’ ऋचा बोली.

‘क्या?’

पर तभी बैरा बिल ले आया. अजित ने बिल चुकाया और दोनों रेस्तरां से बाहर निकल आए. कुछ देर दोनों इस तरह चुपचाप साथसाथ चलते रहे, मानो कहने को उन के पास कुछ बचा ही न हो.

‘मैं अब चलूंगी. घर से निकले बहुत देर हो चुकी है. मां इंतजार करती होंगी,’  वह घर की ओर रवाना हो गई.

कुछ दिन बाद-

‘क्या बात है, ऋचा? अजित कहीं बाहर गया है क्या? 3-4 दिन से आया ही नहीं,’ मां ने पूछा.

‘पता नहीं, मां. मुझ से तो कुछ कह नहीं रहे थे,’ ऋचा ने जवाब दिया.

‘बात क्या है, ऋचा? परसों तेरे पिताजी विवाह की तिथि पक्की करने गए थे तो वे लोग कहने लगे कि ऐसी जल्दी क्या है. आज फिर गए हैं.’

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‘इस में मैं क्या कर सकती हूं, मां. वह लड़के वाले हैं. आप लोग उन के नखरे उठाते हैं तो वे और भी ज्यादा नखरे दिखाएंगे ही,’ ऋचा बोली.

‘क्या? हम नखरे उठाते हैं लड़के वालों के? शर्म नहीं आती तुझे ऐसी बात कहते हुए?  कौन सा विवाह योग्य घरवर होगा जहां हम ने बात न चलाई हो. तब कहीं जा कर यहां बात बनी है. तुम टलो तो छोटी बहनों का नंबर आए मां की वर्षों से संचित कड़वाहट बहाना पाते ही बह निकली.

ऋचा स्तब्ध बैठी रह गई. अपने ही घर में क्या स्थिति थी उस की? मां के लिए वह एक ऐसा बोझ थी, जिसे वह टालना चाहती थी. अपना घर? सोचते हुए उस के होंठों पर कड़वाहट रेंग आई, ‘अपना घर तो विवाह के बाद बनेगा, जिस की दहलीज पार करने का मूल्य ही एकडेढ़ लाख रुपए है. कैसी विडंबना है, जहां जन्म लिया, पलीबढ़ी न तो यह घर अपना है, न ही जहां गृहस्थी बसेगी वह घर अपना है.’

Serial Story- वही परंपराएं: भाग 3

संतरी मेरी ओर आकर्षित हुआ, ‘‘जी, सर?’’ गेट पर खड़े संतरी की यही ड्यूटी होती है कि यूनिट के अंदरबाहर जाने वाले हर एक से पूछे कि वह कहां जा रहा है, उसे क्या चाहिए. मैं ने उसे अपना आईकार्ड दिखाया और कहा कि मैं टीएसएस, टैक्नीकल स्टोर सैक्शन के अफसर से मिलना चाहता है. संतरी ने मुझे सैल्यूट किया और कहा, ‘‘सर,

1 मिनट रुकिए, मैं पूछता हूं.’’

‘‘वैसे कौन हैं, ओआईसी, टीएसएस?’’

‘‘सर, कैप्टन धवन साहब हैं.’’

‘‘मेरी बात करवा देना.’’

संतरी ने बात की और फोन मेरी ओर बढ़ा दिया, ‘‘मैं कैप्टन धवन, कहिए?’’

‘‘जयहिंद कैप्टन साहब. मैं एक्स ले. कर्नल साहनी बोल रहा हूं. यह मेरी पहली यूनिट है. मैं ने 1963 में ट्रेनिंग के बाद इसे जौइन किया था, जब यह यूनिट बबीना में थी. 65 की लड़ाई के बाद हम यहीं आ गए थे.’’

‘‘सर, आप संतरी को फोन दें.’’ मैं ने उसे फोन दिया और थोड़ी देर बाद मैं कैप्टन धवन साहब के सामने बैठा था. ‘‘सर, आप कहते हैं, यह आप की पहली यूनिट है. आप उन अफसरों के नाम भी सही बता रहे हैं जिन की कमांड में आप ने काम किया था. आप अफसर कब बने?’’

मैं ने धवन साहब को भी आईकार्ड दिखाया, मैं रैंक से अफसर बना था. जब विभाग ने इंवैंटरी कंट्रोल अफसरों की वैकेंसी निकाली थी. मैं मैट्रिक पास कर के सेना में आया था. मेरा ट्रेड स्टोरकीपर सिगनल था. मैं ने अपनी पढ़ाई भी यहीं से शुरू की. तब मेजर पी एम मेनन कमांडिंग अफसर थे. मैं ने प्रैप और फर्स्ट ईयर यहीं से की. सैकंड और फाइनल ईयर दिल्ली रहते हुए किया. एमए हिंदी से तब किया जब अंबाला की एक वर्कशौप में पोस्ट हुआ.

मेरी सारी पढ़ाई ईएमई वर्कशौपों पर रही. इंवैंटरी कंट्रोल अफसरों की वैकेंसी निकली तो मैं अंबाला की आर्ड वर्कशौप में था. मेजर लक्ष्मी नारायण पांडे मेरे औफिसर कमांडिंग थे. वे मेरी पढ़ाई के बारे में जानते थे. एक वर्कशौप में मैं उन के साथ था. उन्होंने मुझे बुलाया और इस के लिए एप्लाई करवाया. कमांड हैडक्वार्टर से उसे क्लियर भी करवाया.

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मेरा एसएसबी तक का रास्ता साफ हो गया. पर मेरी एक मुश्किल थी. मैं अच्छी अंगरेजी लिख तो सकता था परंतु बोलने का प्रवाह अच्छा न था. मेजर साहब ने कहा, इस का प्रबंध भी हो जाएगा. मेजर साहब ने जाने कहांकहां बात की. एसएसबी परीक्षा से 3 महीने पहले मुझे स्टेशन वर्कशौप, दिल्ली में टैंपरेरी ड्यूटी पर भेजा और एस एन दासगुप्ता कालेज में अंगरेजी का प्रवाह बनाने की कोचिंग दिलाई. मजे की बात यह थी कि मैं पहली बार में सैलेक्ट हो गया और अफसर बना.

मेरी पढ़ाई और अफसर बनना सब ईएमई पर निर्भर रहा. मैं आज भी मेजर पी एम मेनन और मेजर लक्ष्मी नारायण पांडे को याद करता हूं. मैं उन को कभी भूल ही नहीं पाया.’’

‘‘हां, सर, आगे बढ़ने वालों की हर कोई मदद करता है. यहां अब भी कईर् जवान अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं और उन्हें पूरी सुविधाएं दी जा रही हैं.’’

इतने में एक सूबेदार साहब आए और कैप्टन साहब से बोले, ‘‘सर, लीव पार्टी चली गई है. सब को रात का डिनर और सुबह का नाश्ता साथ में दे दिया गया.’’

‘‘तो यह परंपरा आज भी कायम है. मेजर पी एम मेनन ने इसे शुरू किया था. उन को कहीं से पता चला था कि ट्रेन में जवानों को बेहोश कर के लूट लिया गया है. तब से आदेश दे दिया गया कि छुट्टी जाने वाले जवानों को रास्ते के लिए इतना खाना दे दिया जाए कि उन के घर पहुंचने तक समाप्त न हो,’’ मैं ने खुश हो कर बताया.

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सचमुच इतने समय से चली आ रही यह परंपरा आश्चर्य उत्पन्न करती है. मेरा यहां आना ही एक आश्चर्य था. यदि भाषा विभाग, पंजाब मुझे पुरस्कृत न करता तो मैं 50 वर्षों बाद भी इस शहर में न आ पाता. उस से भी आश्चर्य की बात यह थी कि इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस यूनिट का यहां मिलना.

‘‘सर, आप जानते हैं, आज कौन सा दिन है?’’ कैप्टन धवन साहब ने पूछा.

‘‘जी, हां, आज हमारा रेजिंग डे है.’’

‘‘हां, सर, इसी उपलक्ष्य में आज रात को बड़ा खाना है. आप हमारे मुख्य अतिथि होंगे. आप देखेंगे, इतने वर्षों बाद भी भारतीय सेना में वही सद्भावनाएं हैं, वही परंपराएं हैं, वही अनुशासन है, वही बड़े खाने हैं, वही देश के प्रति समर्पण है, एक शाश्वत निर्झर बहने वाले झरने की तरह.’’ रात को बड़े खाने के बाद जब होटल पहुंचा तो मन के भीतर यह बात दृढ़ थी कि आज भी भारतीय सेना हर तरह से विश्व की सर्वश्रेष्ठ सेना है.

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Serial Story- वही परंपराएं: भाग 1

मैं 50 वर्षों बाद पटियाला आया हूं. भाषा विभाग, पंजाब यदि मेरे कहानी संग्रह को सुदर्शन पुरस्कार से न नवाजता तो मैं इस शहर में शायद न आ पाता. पर कहते हैं, जहाज का पंछी जब एक बार जहाज छोड़ कर जाता है तो अपने जीवनकाल में एक बार फिर जहाज पर आता है. मेरी स्थिति भी वैसी ही थी. इतने वर्षों बाद इस शहर में आना मुझे रोमांचित कर रहा था.

पुरस्कार समारोह 2 बजे ही समाप्त हो गया था. मैं उन स्थानों को देखना चाहता था जो मेरे मानस पटल पर सदा छाए रहे. 65 की लड़ाई के बाद हमारी यूनिट यहीं आ गई थी. यह मेरी पहली यूनिट थी. मैं मैट्रिक पास कर के 15-16 साल की आयु के बाद सेना में भरती हुआ था. मैं ने यहीं से अपनी आगे की पढ़ाई शुरू की थी. यहीं के न्यू एरा कालेज में सांध्य कक्षाओं में पढ़ा करता था. मेरे उस समय के कमांडिंग अफसर मेजर पी एम मेनन ने इस की इजाजत दे दी थी.

मैं ने सेना में रहते एमए हिंदी पास कर लिया था. मैं वह कालेज देखना चाहता था. बाहर निकल कर इसी सड़क पर वह कालेज होना चाहिए. मैं ने ड्राइवर से उसी सड़क पर चलने के लिए कहा. थोड़ी दूर चलने पर मुझे कालेज की बिल्ंिडग दिखाई दे गई. मैं ने कार को एक तरफ पार्क करने को कहा. नीचे उतरा और कालेज को ध्यान से देखा. पहले बिल्ंिडग पुरानी थी. अब उस को नया लुक दे दिया गया था. खुशी हुई, कालेज ने काफी तरक्की कर ली है.

मैं जल्दी से कालेज की सीढि़यां चढ़ गया. जहां हमारी कक्षाएं लगा करती थीं, वहां पर अब पिं्रसिपल का औफिस बन गया था. पिं्रसिपल के कमरे में एक सुंदर महिला ने मेरा स्वागत किया. मैं ने उन को अपने बारे में बताया कि किस प्रकार 50 वर्षों बाद मैं यहां आया हूं. जान कर उन्होंने खुशी जाहिर की. मैं ने उस समय के पिं्रसिपल पाठक साहब के बारे में पूछा. उन्होंने कहा, वे उन के पिता थे. पाठक साहब अब नहीं रहे. यह जान कर दुख हुआ. वे बहुत अच्छे शिक्षक थे. परीक्षाओं के दिनों में वे बहुत मेहनत करते और करवाते थे. उन महिला ने चाय औफर की. पाठक साहब की मौत के बारे में सुन कर चाय पीने का मन नहीं किया. कालेज की तरक्की की शुभकामनाएं दे कर मैं नीचे आ गया.

ड्राइवर से कार को मालरोड पर ले जाने के लिए कहा. उसी रोड पर आगे चल कर राजिंद्रा अस्पताल आता है. मालरोड पर काफी भीड़ हो गई है, वरना दिन में अकसर यह रोड खाली रहती थी. राजिंद्रा अस्पताल के सामने कार रुकी. मैं नीचे उतरा. अस्पताल के सामने डाक्टरी करने वाले लड़कों का होस्टल है. इतने वर्षों में वह भी काफी पुराना हो गया है.

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मेरी मौसीजी के लड़के ने यहीं से डाक्टरी की थी जो बाद में डीजी मैडिकल, सीआरपीएफ से सेवानिवृत्त हुए. परीक्षा के दिनों में मैं उन के कमरे में आ कर रहा करता था. शाम को लड़के मैस में खाना न खा कर, होस्टल के गेट के सामने बने ढाबे से हलकाफुलका खाना खाया करते थे.

रात को नींद न आए और परीक्षा की तैयारी कर सकूं, इसलिए मैं भी केवल ब्रैडआमलेट खा लेता था. ढाबे का मालिक एक युवा सरदार था, गुरनाम सिंह. उस से अच्छी जानपहचान हो गई थी. परीक्षा के दिनों में वह कभी मुझ से पैसे नहीं लिया करता था. कहता था, ‘तुस्सी अपना इम्तिहान दो जी, पैसे आंदे रैनगे.’ गुरनाम सिंह का यह स्नेह मुझे हमेशा याद रहा.

ढाबा आज भी वहीं था. इतने वर्षों में केवल इतना बदलाव आया था कि बैंचों की  जगह अब टेबलकुरसियां लग गई थीं. स्टूडैंट आराम से बैठ कर खापी सकते थे. सड़क पार कर के मैं ढाबे पर पहुंचा. पर मुझे गुरनाम सिंह कहीं दिखाई नहीं दिया. समय का अंतराल भी तो बहुत था. मन में कई शंकाएं उठीं जिन्हें मैं ने जबरदस्ती दबा दिया. गल्ले पर बैठे सरदारजी से मैं ने पूछा, ‘‘यह ढाबा तो सरदार गुरनाम सिंह का है?’’

‘‘जी, हां, मैं उन का बेटा हूं. वे आजकल घर पर ही रहते हैं.’’

‘‘वैसे वे ठीक तो हैं?’’

‘‘जी, नहीं, कुछ ठीक नहीं रहते.’’

‘‘कैसी बीमारी है?’’

‘‘जी, वही बुढ़ापे की बीमारियां, ब्लडप्रैशर, शुगर वगैरा.’’

‘‘पर तुस्सी कौन?’’ इतनी देर बातें करने के बाद उस ने मेरे बारे में पूछा था कि मैं कौन हूं.

‘‘मेरी गुरनाम से पुरानी दोस्ती है, 50 वर्षों पहले की.’’

कुछ देर देख कर वह हक्काबक्का रह गया, फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. मैं ने गुरनाम के बेटे को आगे प्रश्न करने का मौका नहीं दिया. मेरा ध्यान राजिंद्रा अस्पताल के पीछे बने क्वार्टरों की ओर चला जाता है. यहां की एक लड़की शकुन, यहीं इन्हीं क्वार्टरों में कहीं रहती थी.

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Serial Story- वही परंपराएं: भाग 2

कालेज से आते समय हमें रात के साढ़े नौ, पौने दस बज जाते थे. वह केवल अपनी सुरक्षा के कारण मेरे साथ अपनी साइकिल पर चल रही होती थी. वह सैनिकों को पसंद नहीं करती थी. वह सैनिक यूनिफौर्म से ही नफरत करती थी. कारण, उस के अपने थे. उस की सखी ने मुझे बताया था. मेरी इस पर कभी कोई बात नहीं हुई थी. जबकि यूनिफौर्म हम सैनिकों की आन, बान और शान थी. हम थे, तो देश था. हम नहीं थे तो देश भी नहीं था.

हमें अपनेआप पर अभिमान था और हमेशा रहेगा. मेरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया था. मन के भीतर यह बात दृढ़ हो गईर् थी कि कुछ भी हो, मुझे उस से अधिक नंबर हासिल करने हैं. और हुआ भी वही. जब परिणाम आया तो मेरे हर विषय में उस से अधिक नंबर थे. मैं ने प्रैप, फर्स्ट ईयर, दोनों में उसे आगे नहीं बढ़ने दिया. फिर मेरी पोस्ंिटग लद्दाख में हो गई और वह कहां चली गई, मुझे कभी पता नहीं चला. इतने वर्षों बाद यहां आया तो उस की याद आई.

अस्पताल से निकलते ही बायीं ओर सड़क मुड़ती है. वहां से शुरू होती हैं अंगरेजों के समय की बनी पुरानी फौजी बैरकें. मैं उस ओर मुड़ा तो वहां बैरियर लगा मिला और

2 संतरी खड़े थे. कार को देख कर उन में से एक संतरी मेरी ओर बढ़ा. मैं ने उस को अपना परिचय दिया, कहा, ‘‘मैं पुरानी बैरकें देखना चाहता हूं.’’

संतरी ने कहा, ‘‘सर, अब यहां पुरानी बैरकें नहीं हैं. उन को तोड़ कर फैमिली क्वार्टर बना दिए गए हैं. उन का कहीं नामोनिशान नहीं है.’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं अंदर जा कर देखना चाहता हूं. कुछ न कुछ जरूर मिलेगा. मैं ने अपनी पढ़ाई यहीं से शुरू की थी. उस ने दूसरे संतरी से बात की. उन्होंने मुझ से आईकार्ड मांगा. मुझे खुशी हुई. किसी मिलीटरी संस्थान में घुसना आसान नहीं है. अपनी ड्यूटी के प्रति उन के समर्पण को देख कर मन गदगद हुआ.

मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया और मेरा रैंक देख कर उन्होंने मुझे सैनिक सम्मान दिया. एक संतरी कार में ड्राइवर के साथ बैठ गया. दूसरे संतरी ने बैरियर खोल दिया. कार अंदर की ओर मुड़ गई. बायीं ओर जवानों के लिए सुंदर और भव्य क्वार्टर और दूसरी ओर एक लाइन में बने लैंप पोस्ट थे. उस के साथ कोई 6 फुट ऊंची दीवार चल रही थी. क्वार्टरों को इस प्रकार सुरक्षित किया गया था कि बैरियर के अतिरिक्त और कहीं से कोई घुस न पाए.

कार बहुत धीरेधीरे चल रही थी. ‘‘रुक रुक’’, एक लैंप पोस्ट के पास मैं ने कार रुकवाई. मैं कार से नीचे उतरा. संतरी भी मेरे साथ उतरा. लैंप पोस्ट के पास एक बड़े पत्थर को देख कर मेरी आंखें नम हो गईं. मैं इस पत्थर पर बैठ कर पढ़ा करता था.

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मैं इतना भावुक हो गया कि बढ़ कर मैं ने संतरी को गले लगा लिया. उस के कारण मैं यहां तक पहुंचा था. मेरे रैंक का आदमी इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है. तुम्हारे कारण आज मैं यहां हूं. 1966 में यह पत्थर मेरे लिए कुरसी का कार्य करता था. 50 साल बीत गए, यह आज भी यहां डटा हुआ है. सामने एक यूनिट थी जिस के संतरी मुझे चाय पिलाया करते थे.

मुझे आज भी सर्दी की भयानक रात याद है. जनवरी का महीना था. परीक्षा समीप थी. दूसरी यूनिट की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना मेरी मजबूरी थी. हालांकि कमांडिंग अफसर मेजर मेनन ने रातभर लाइट जलाने की इजाजत दी हुई थी, परंतु कोई हमारे ब्लौक का फ्यूज निकाल कर ले जाता था. मैं ने बाहर की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना शुरू किया तो किसी ने पत्थर मार कर बल्ब तोड़ दिए थे. फिर मैं यहां पत्थर पर बैठ कर पढ़ने लगा.

शाम को ही धुंध पड़नी शुरू हो जाती थी. मैं रात में 10 बजे के बाद गरम कपड़े पहन कर, कैप पहन कर यहां आ जाता था. उस रोज भी धुंध बहुत थी.

मैं कौपी के अक्षरों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था कि एक जानीपहचानी आवाज ने मुझे आकर्षित किया. यह आवाज मेजर मेनन की थी, मेरे औफिसर कमांडिंग. मेमसाहब के साथ, बच्चे को प्रैम में डाले, कहीं से आ रहे थे.

‘तुम यहां क्यों पढ़ रहे हो? मैं ने तो तुम्हें सारी रात लाइट जलाने की इजाजत दी हुई है.’ मैं जल्दी से जवाब नहीं दे पाया था. जवाब देने का मतलब था, सब से बैर मोल लेना. जब दोबारा पूछा तो मुझे सब बताना पड़ा. मेजर साहब तो कुछ नहीं बोले परंतु मेमसाहब एकदम भड़क उठीं, ‘कैसे तुम यूनिट कमांड करते हो, एक बच्चा पढ़ना चाहता है, उसे पढ़ने नहीं दिया जा रहा है?’

‘डार्लिंग, इस ने कभी मुझे बताया ही नहीं.’

‘एक जवान तुम्हें क्या बताएगा, तुम्हें पता होना चािहए कि तुम्हारी यूनिट में क्या हो रहा है? इतनी सर्दी है, अगर बीमार हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा?’

मेजर साहब कुछ नहीं बोले. मुझ से केवल इतना कहा कि मैं लाइन में जा कर सो जाऊं. कल वे इस का प्रबंध कर देंगे. कल उन्होंने मुझे मास्टर जी, सेना शिक्षा कोर का वह हवलदार जो जवानों की शिक्षा के लिए हर यूनिट में पोस्टेड होते हैं, के कमरे में ऐडजस्ट कर दिया.

मेजर साहब, 2 वर्षों तक मेरे कमांडिंग अफसर रहे और दोनों वर्ष मैं ने उन को सर्टीफिकेट ला कर दिखाए. वे और मेमसाहब बहुत खुश हुए, कहा, कितनी कठिनाइयां आएं, अपनी पढ़ाई को मत छोड़ना. उसे पूरा करना. फिर मैं लद्दाख में पोस्ट हो गया परंतु मुझे उन की बात हमेशा याद रही.

मैं ने कुछ जवानों को वरदी में देखा. उन के बाजू पर वही फौरमेशन साइन लगा हुआ था जो उस समय मैं लगाया करता था. इतने वर्षों बाद भी यह डिवीजन यहीं था. मैं ने सोचा कि फिर तो मेरी पहली यूनिट भी यहीं होगी. मैं ने साथ आए संतरी से वर्कशौप के बारे में पूछा. ‘‘हां, सर, वह यहीं है, थोड़ा आगे जा कर संगरूर रोड पर है. अब वह ब्रिगेड वर्कशौप कहलाती है.’’ मैं ने ड्राइवर से कार पीछे मोड़ कर मेन सड़क पर ले जाने के लिए कहा. वही संगरूर रोड है. संतरी को धन्यवाद के साथ बैरियर पर छोड़ दिया.

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कार धीरेधीरे चल रही थी. थोड़ी दूर जाने पर मुझे वर्कशौप का टैक्टीकल नंबर और फौरमेशन साइन दोनों दिखाई दे गए. जिस ओर ऐरो मार्क लगा था, मैं ने कार को उस ओर ले जाने के लिए कहा. गेट से पहले ही मैं ने कार रुकवा दी. नीचे उतरा. कार को एक ओर पार्क करने के लिए कह कर मैं पैदल ही गेट की ओर बढ़ा. संतरी बड़ी मुस्तैदी से खड़ा था. मेरे पांव जमीन पर नहीं लग रहे थे. रोमांचित था कि जिस यूनिट से मैं ने अपना सैनिक जीवन शुरू किया, 65 की लड़ाई देखी, अपनी पढ़ाई की शुरुआत की, उसी गेट पर खड़ा हूं.

Serial Story- संदूक में लाश: भाग 2

प्रस्तुति : एस. एम. खान

सांवल को गिरफ्तार करने जो एएसआई गया था, वह खाली हाथ वापस आ गया. उस ने कहा कि उस की हवेली की तलाशी में कुछ नहीं मिला. उस का इस तरह गायब होना शक को मजबूत कर रहा था. अब मुझे पक्का यकीन हो गया था कि हत्या उसी ने की है.

सांवल ने यह भी बताया था कि उस की पत्नी के शादी से पहले किसी बहलोलपुर के ही युवक से संबंध थे और वह उसी के साथ भाग गई है. मुझे लग रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सांवल ने गुल्लो और शम्स को मिलते हुए रंगेहाथ पकड़ लिया हो.

देहात में ऐसे अपराध की सजा मौत से कम नहीं होती. गुल्लो के मांबाप से ज्यादा मुझे सांवल पर ही शक हो रहा था. अब सांवल से पूछताछ करनी जरूरी थी.

संयोग से अगले दिन सांवल खुद ही थाने आ गया. उस के साथ नंबरदार भी था. मैं ने डांट कर सांवल से पूछा, ‘‘तुम कहां थे?’’

‘‘मैं डर गया था हुजूर,’’ उस ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘मैं तो पहले से ही परेशान इंसान हूं. मेरे साथ बहलोलपुर वालों ने धोखा किया है. मेरी शादी ऐसी लड़की से कर दी, जिस का दिल पहले ही से कहीं और लगा था. उस का तो अपनी गंदी हरकतों के कारण अंत हो गया, लेकिन मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर गई. साहब, मैं ने सुना है कि उस की मां थाने आ कर मेरे ऊपर इलजाम लगा रही थी?’’

कुछ कहने के बजाय मैं ने हवालात में बंद रोशन और जैन को बाहर निकलवा कर पूछा, ‘‘क्या यही वह आदमी है, जो तुम्हारे घर संदूक छोड़ कर गया था.’’

‘‘साहब, हम उस समय घर पर नहीं थे, मां और मेरी पत्नी ने देखा था.’’ रोशन ने कहा, ‘‘आप उन्हें ही बुला कर पहचान करा लें.’’

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मैं ने तुरंत एक सिपाही को दतवाल गांव रोशन की मां और घर वाली को लाने भेज दिया. आधे घंटे में वह उन दोनों औरतों को ले कर आ गया. मेरी नजर सांवल पर थी, वह काफी परेशान लग रहा था. उन दोनों औरतों को देख कर वह गरदन घुमाने लगा.

मैं ने उन दोनों औरतों से कहा, ‘‘इस आदमी को ध्यान से देखो और बताओ कि यह उन 2 औरतों के साथ था, जो संदूक के साथ तुम्हारे यहां आई थीं.’’

‘‘हम ने उन के साथ वाले आदमी को नहीं देखा था. हम ने केवल औरतों को ही देखा था.’’ रोशन की मां ने कहा.

औरतों की बात सुन कर सांवल के चेहरे की चमक लौट आई. तभी रोशन की पत्नी ने कहा, ‘‘अगर वे औरतें मेरे सामने आ जाएं तो मैं उन्हें पहचान लूंगी, एक के चेहरे पर मस्सा था.’’

सांवल बेचैनी से इधरउधर देखने लगा. उस की हर हरकत पर मेरी नजर थी. मैं उन औरतों को ले कर सादतपुर स्थित सांवल की हवेली पर पहुंचा. सांवल ने हवेली में कहलवा दिया कि पुलिस वाले आए हैं. वह आदमी अंदर गया और कुछ ही देर में वापस आ गया.

‘‘मेरे घर की सभी औरतें हवेली में मौजूद हैं, आप जा कर देख लें.’’ सांवल ने कहा.

मैं ने उन दोनों औरतों को हवेली के अंदर ले कर कहा, ‘‘इन औरतों को पहचान कर बताओ कि इन में वे औरतें हैं या नहीं?’’

दोनों ने देख कर कहा कि इन में वे नहीं हैं. मेरी सारी उम्मीद पर पानी फिर गया. इस बात से मैं बहुत हताशा हुआ. हत्या की एक पेचीदा गुत्थी सुलझतेसुलझते रह गई. नंबरदार भी वहां था, वह मुझे अपने मेहमान खाने में ले गया और वहां मुझे लस्सी दी. मैं तकिए से सिर लगा कर लेट गया.

कमरे का दरवाजा आधा खुला था. मुझे ऐसा लगा कि वहां से कोई गुजरा है. कुछ देर बाद फिर वह उधर से गुजरा. अब मेरी पुलिस वाली अनुभवशक्ति जाग गई. मैं ने दरवाजे की ओर नजरें गड़ा दीं. कुछ ही देर में तीसरी बार फिर कोई वहां से गुजरा.

इस बार मैं ने देख लिया. पता चला कि वह कोई आदमी है और सफेद कपड़े पहने है. मैं बिजली की तरह तेजी से उठा और दरवाजे के बाहर जा कर देखा. वह एक आदमी था, जिस के चेहरे पर दाढ़ी थी. मैं ने उसे अंदर बुलाया और उस से पूछा कि वह इस कमरे के बाहर बारबार क्यों चक्कर लगा रहा है?

उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम रहमत है साहब, मैं एक जमींदार हूं और आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’

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‘‘बताओ क्या बात है?’’

‘‘साहब, अगर आप मेरा नाम गुप्त रखें तो मैं आप को एक खास बात बताना चाहता हूं.’’ उस आदमी ने कहा.

मैं ने उसे पूरा यकीन दिलाया तो उस ने कहा, ‘‘साहब, सांवल ने आप को धोखा दिया है. उस ने अपनी मां को हवेली की पिछली दीवार से बाहर उतार दिया था. सांवल का इस गांव में बड़ा दबदबा है, इसलिए उस के सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं है.’’

मैं ने उस आदमी को धन्यवाद दे कर भेज दिया. उस ने मेरी बहुत बड़ी मुश्किल आसान कर दी थी. गांव में अकसर आपस में दुश्मनियां होती हैं, रहमत ने भी अपनी कोई दुश्मनी सांवल से निकाली थी. बहरहाल, जो भी रहा हो, उस ने मेरा काम आसान कर दिया.

अब मुझे सांवल की मक्कारी पर बड़ा गुस्सा आ रहा था. मैं ने उसे कमरे में बुलवा लिया और गुस्से से पूछा, ‘‘क्या तुम ने अपने घर की सारी औरतों को पहचान के लिए पेश कर दिया था?’’

‘‘जी सरकार, सभी थीं. क्या आप  को कोई शक है?’’ उस ने कहा.

मैं ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के बाएं गाल पर मारा. थप्पड़ खा कर वह नीचे गिर पड़ा. उसे उठने का मौका दिए बगैर मैं अपना बूट उस के हाथों पर रख कर खड़ा हो गया. वह दर्द से छटपटाने लगा. मैं ने कहा, ‘‘तेरी मां कहां मर गई, उसे अभी हाजिर कर.’’

मेरा सवाल सुन कर वह भौचक्का रह गया. उस ने कहा, ‘‘मेरी बहन बीमार है, उसे देखने गई है.’’

‘‘अपनी मां को पेश कर दे, वरना ठीक नहीं होगा.’’ मैं ने अपना बूट उस के हाथ से हटा कर कहा.

उस ने खड़े हो कर कहा, ‘‘हुजूर, आप मेरी बात सुन लें, मेरी मां को मत बुलाएं. आप जैसा चाहेंगे, मैं आप को खुश कर दूंगा.’’

उस की बात सुन कर मैं खुश हो गया. मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा नजराना ले लूंगा, लेकिन पहले तुम अपनी मां को पेश करो. उस के बाद लेनदेन की बात करेंगे.’’

मेरी बात सुन कर वह खुश हो गया. उस ने कहा, ‘‘वह घर में बैठी है, किसी को भेज कर बुलवा लें.’’

मैं ने सिपाही को भेजने के बजाय नंबरदार की नौकरानी को भेज कर उसे बुलवा लिया. कुछ ही देर में एक अधेड़ उम्र की भारीभरकम औरत नौकरानी के साथ मेरे कमरे में आ गई. कमरे में मुझे देख कर उस का रंग उड़ गया. मैं ने सब से पहले जो चीज नोट की, वह उस के माथे पर काला मस्सा. उसी समय मैं ने रोशन की मां और पत्नी को कमरे में बुलवा लिया.

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जैसे ही उन की नजर सांवल की मां पर पड़ी, वे चौंक पड़ीं, ‘‘यही है वह मक्कार बुढि़या.’’ हुस्ना ने कहा, ‘‘यही वह संदूक हमारे घर पर रख गई थी. इस के कारण ही मेरे पति और देवर को हवालात में रहना पड़ा.’’

Serial Story- संदूक में लाश: भाग 3

मामला खुल गया था. मैं ने सांवल तथा उस की मां को गिरफ्तार कर लिया और रोशन एवं उस के भाई जैन को छोड़ दिया. इस के बाद सांवल से पूछताछ करने पर जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

सादतपुर वाले और बहलोलपुर वाले बालिके कहलाते थे. ये एक ही बिरादरी से आते थे. बालिके एक कबीला था, जो आपस में शादीब्याह कर लेता था. सांवल की शादी बहलोलपुर के करमू जाट की बेटी गुलबहार उर्फ गुल्लो से हुई थी.

गुल्लो बहुत सुंदर थी, लेकिन शादी के बाद वह चुप और खोईखोई सी रहती थी. पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब काफी समय हो गया तो गांव की औरतों ने तरहतरह की बातें करनी शुरू कर दीं, जिस से सांवल के दिल में शक के बिच्छू ने पंजे गाड़ दिए.

उसे शक हुआ कि उस की पत्नी उसे नहीं चाहती, बल्कि किसी और को चाहती है. गुल्लो कभीकभी शाम के समय बिना बताए घर से निकल जाती थी. सांवल की मां ने उस से कहा कि वह अपनी पत्नी को संभाले, उस के लच्छन ठीक नहीं लगते.

एक बार रात के समय सांवल अपने फार्म के पश्चिमी छोर पर पहुंचा तो उसे पेड़ों के झुंड में 2 साए दिखाई दिए. उन के आकार से लग रहा था कि उन में एक औरत और एक मर्द है. सांवल को शक हुआ तो दबे पांव पास जा कर उस ने ललकारा तो उस आदमी ने सांवल पर लाठी से वार कर दिया.

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सांवल ने वार बचा कर बरछी से उस पर वार कर दिया, जो उस के पैर में उचटती सी लगी. वह आदमी मुकाबला करने के बजाय खेतों में घुस कर गायब हो गया. सांवल ने पास जा कर उस औरत को देखा तो वह कोई और नहीं, उस की पत्नी गुल्लो थी. वह थरथर कांप रही थी. वहीं एक छोटा सा संदूक पड़ा था. उस में कीमती कपड़े और गहने थे.

गुल्लो उस आदमी के साथ भाग रही थी. सांवल उसे पकड़ कर घर ले आया और काठकबाड़ वाले कमरे में बंद कर दिया. उस ने यह बात अपनी मां को बताई तो दोनों ने आपस में तय किया कि उसे खत्म कर दिया जाए.

सांवल फरसा ले कर कबाड़ के कमरे में पहुंचा, जहां गुल्लो बैठी थी. पति के हाथ में फरसा देख कर वह डर गई. वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी. लेकिन सांवल पर तो खून सवार था, उस ने फरसा उठाया और उस की गरदन काट दी. वह छटपटाने लगी, इस के बाद बरछी उस के सीने में उतार दी, जिस से वह तड़प कर मर गई.

अब लाश को ठिकाने लगाने की बात आई. मांबेटे की समझ नहीं आ रहा कि लाश को कहां छिपाएं. अंत में सांवल ने लाश को एक संदूक में डाला और बैलगाड़ी में रख कर मां और भावज के साथ दतवाल पहुंचा.

सांवल ने सोचा था कि संदूक कहीं रख कर निकल आएंगे. एक घर के बाहर 2 औरतें बैठी हुई दिखाई दीं तो उस ने बैलगाड़ी वहीं रोक दी. वे रोशन की मां और पत्नी थीं. फिर बहाने से संदूक रख कर वह मां और भावज के साथ वापस आ गया.

सांवल से पूछताछ के बाद उस की निशादेही पर उस की हवेली से फरसा और बरछी बरामद कर ली गई. जहां गुल्लो की हत्या की गई थी, वहां की जमीन पर उस के खून के निशान थे, उस मिट्टी को खुरच कर सीलबंद कर दिया गया.

इस के बाद मैं ने सांवल की मां के बयान लिए तो उस ने सांवल के बयान की पुष्टि कर दी. मैं ने उस की बड़ी बहू को भी बुलवाया, जो उस के साथ संदूक छिपाने गई थी. उस ने बताया कि इस हत्या से उस का कोई लेनादेना नहीं है.

मैं ने उसे वादामाफ गवाह बनने को कहा तो वह खुशी से तैयार हो गई. इस के बाद एक रोचक बात यह हुई कि मुकदमा तैयार कर के जब मैं चार्जशीट अदालत में पेश करने की तैयारी कर रहा था, तभी एक दिन सवेरेसवेरे एक जवान आदमी मेरे पास आया. उस ने अपना नाम बताया तो मैं चौंका. वह गुल्लो का प्रेमी शम्स था. उस ने बताया कि वह और गुल्लो एकदूसरे से प्रेम करते थे, लेकिन बिरादरी अलग होने से उन की शादी नहीं हो सकी थी.

गुल्लो की शादी सांवल से हो गई थी. शादी के बाद हंसनेखेलने वाली गुल्लो को चुप्पी लग गई. शम्स उस से मिलने कभीकभी सादतपुर जाता था. गुल्लो उस से मिलती थी तो रोरो कर कहती थी कि वह उसे यहां से ले चले.

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गुल्लो की हालत शम्स से देखी नहीं जा सकी और दोनों ने भागने का फैसला कर लिया. लेकिन जब वे भाग रहे थे तो पकडे़ गए. उस ने बताया कि वह इसलिए गायब हो गया था कि उस की टांग में बरछी लगी थी. सांवल उसे पहचान लेता तो उस की हत्या कर देता.

अब उसे पता चला है कि गुल्लो की हत्या कर दी गई है तो वह सांवल के खिलाफ बयान देने आया है. मैं ने उस का बयान लिया. बयान देते समय उस की आंखों में आंसू थे, लेकिन मुझे उस से कोई हमदर्दी नहीं थी, क्योंकि वह बुजदिल प्रेमी था. वह अपनी प्रेमिका को छोड़ कर भाग गया था और अब घडि़याली आंसू बहा रहा था.

मैं ने केस बहुत मजबूत बनाया था. अदालत ने सांवल को आजीवन कारावास और उस की मां को 7 साल की सजा सुनाई थी.

Serial Story- संदूक में लाश: भाग 1

प्रस्तुति : एस. एम. खान

बात तब की है जब मैं पंजाब के एक जिले का एसपी था. मेरे इलाके में जो गांव आते थे, उन में एक गांव सादतपुर था. एक दिन इसी गांव का नंबरदार थाने आया. उस के साथ एक जवान लड़का था, जो कपड़ों से खातेपीते घर का लग रहा था. नंबरदार से पता चला कि उस लड़के का नाम सांवल है और वह एक संपन्न जमींदार है.  नंबरदार ने बताया था कि सांवल की घरवाली गुलबहार उर्फ गुल्लो ्लल से लापता है.

मैं ने थोड़ा नाराज हो कर कहा, ‘‘तुम्हारी घरवाली कल से लापता है और तुम रिपोर्ट लिखवाने आज आ रहे हो.’’

‘‘इज्जत की बात है आगा जी,’’ सांवल ने कहा, ‘‘पहले हम ने उसे अपनी रिश्तेदारियों में ढूंढा, उस के घर भी पता किया. उस के बारे में कुछ बताने के बजाय उस के मांबाप ने उलटा हमारे ऊपर ही आरोप लगा दिया कि हम ने उसे जानबूझ कर गायब किया है. जब वह कहीं नहीं मिली तो रिपोर्ट लिखाने आ गया.’’

‘‘शादी को कितने दिन हुए हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘3 महीने हुए हैं जी.’’ सांवल ने बताया.

‘‘किसी से दुश्मनी तो नहीं है?’’

‘‘नहीं जी, गांव में किसी की क्या मजाल जो हमारी तरफ नजर उठा कर देख ले.’’ सांवल ने अकड़ कर कहा.

‘‘फिर भी किसी पर कोई शक.’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, मुझे शक है कि शादी से पहले उस के किसी से अवैध संबंध थे. लगता है, उसी के साथ भाग गई है?’’

‘‘घर से कोई रकम, गहने आदि गायब हैं क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में जितने भी गहने और महंगे कपड़े थे, वे सब गायब हैं. उस के पैरों में सोने की वजनी झांझर भी थी, जो मैं ने पहनाई थी, उन्हें भी ले गई.’’

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मैंने गुल्लो की गुमशुदगी दर्ज कर उन्हें वापस भेज दिया. इश्तहार वगैरह दे कर मैं इस केस के बारे में सोचने लगा. मुझे यह केस प्रेमप्रसंग का लग रहा था.

एक सिपाही को बहलोलपुर भेज कर मैं ने गुल्लो के मातापिता को बुलवा लिया. वे दोनों काफी घबराए हुए थे. मैं ने उन्हें तसल्ली दी. गुल्लो की मां का नाम सरदारा और बाप का नाम करमू जाट था.

मैं ने उन से गुल्लो के गायब होने के बारे में पूछा तो गुल्लो की मां ने कहा, ‘‘हमारी बेटी को खुद सांवल ने गायब कराया है. गुल्लो जबान की तेज थी. हो सकता है किसी बात पर कोई झगड़ा हुआ हो और सांवल ने उसे मार दिया हो.’’

मैं ने उन्हें यह कह कर जाने दिया कि अगर उन की जरूरत हुई तो उन्हें फिर बुलाऊंगा. मैं ने मुखबिरों को लगा दिया. 2 दिनों बाद एक मुखबिर बहलोलपुर से आया. उस के साथ 30-32 साल की एक औरत थी. मुखबिर ने बताया कि यह औरत गुल्लो के मातापिता के घर साफसफाई का काम करती है.

उस औरत ने बताया कि गुल्लो के शम्स से नाजायज संबंध थे. वह औरत दोनों को अपने घर चोरीछिपे मिलवाती थी. इस के बदले में गुल्लो उसे अच्छे पैसे देती थी. वह औरत जाते समय हाथ जोड़ कर बोली कि उस ने जो कुछ बताया है, उस में उस का नाम नहीं आना चाहिए. मैं ने उसे तसल्ली दे कर भेज दिया.

उस के जाने के बाद मैं ने मुखबिर से पूछा, ‘‘शम्स कहां है, उसे साथ क्यों नहीं ले आए.’’

‘‘वह गांव में नहीं है साहब, वह उसी दिन से गायब है, जिस दिन से गुल्लो गायब हुई है. उस के घर वालों को भी उस का पता नहीं है.’’ मुखबिर ने बताया.

यह सुन कर मेरा संदेह यकीन में बदल गया. इस का मतलब गुल्लो अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी. मैं ने मुखबिर से कहा कि वह गांव में ही रहे. 2 दिन गुजर गए, कहीं से कोई सूचना नहीं आई. तीसरे दिन जो सूचना आई, वह अद्भुत थी. दोपहर को पड़ोस के गांव दतवाल से वहां का नंबरदार सारू आया. उस के साथ 2 जवान लड़के भी थे. वे थाने के माहौल से काफी डरे हुए लग रहे थे. उन के हाथों में लोहे का एक संदूक था. उस संदूक में ताला नहीं लगा था. नंबरदार ने संदूक नीचे रखवा दिया.

मैं ने नंबरदार से पूछा, ‘‘ये दोनों कौन हैं और इस संदूक में क्या है?’’

नंबरदार ने बताया, ‘‘ये दोनों मेरे भाई हैं. बड़े का नाम रोशन और छोटे का नाम जैन है. ये दोनों दतवाल गांव में रहते हैं. कल जब ये घर पर नहीं थे तो सुबह के वक्त इन के घर एक आदमी और 2 औरतें आईं. उस समय घर में इन की मां और रोशन की पत्नी हुस्ना थी. औरतों ने पीने के लिए पानी मांगा तो रोशन की मां ने गांव के रिवाज के मुताबिक उन्हें लस्सी दी. उन लोगों के पास लोहे का एक संदूक था, जो उन्होंने घर के बाहर रख दिया था.

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औरतों ने बताया था कि वे शादी का सामान खरीदने दतवाल की बाजार आई हैं. जब तक वे बाजार से लौटें, तब तक उन की संदूक वे घर में रख लें. उन औरतों ने अपना नाम और गांव नहीं बताया था. संदूक रख कर वे औरतें उस आदमी के साथ चली गईं.

शाम तक दोनों औरतें नहीं आईं. रोशन और जैन शाम को घर आए तो उन की मां ने संदूक वाली बात बताई. रोशन ने तुरंत बैठक में रखा संदूक देखा. उसे उस में से दुर्गंध आती लगी. उस ने जैसे ही संदूक खोला, दुर्गंध का भभका उस की नाक में समा गया. संदूक में एक औरत की मुड़ीतुड़ी लाश रखी थी.

लाश देखते ही घर वालों के हाथपांव फूल गए. हुस्ना और मां तो थरथर कांपने लगीं. जैसेतैसे रात गुजारी, सवेरा होते ही नंबरदार को बुलाया तो वह दोनों भाइयों और संदूक ले कर थाने गया था.

मैं ने संदूक खुलवाया, उस में 22-23 साल की एक सुंदर लड़की की लाश थी. मैं ने लाश बाहर निकलवाई. मुझे लाश पर एक चीज दिखाई दी, जिस ने मुझे चौंका दिया. वह चीज थी सोने की झांझर. मुझे तुरंत सांवल की वह बात याद आ गई, जो उस ने कही थी कि गुल्लो सोने की झांझर पहने थी.

इस से मुझे लगा कि कहीं यह सांवल की पत्नी गुल्लो की लाश तो नहीं है. मृतका का गला किसी धारदार हथियार से रेता हुआ लग रहा था. उस के सीने पर भी किसी तेज धारदार हथियार का घाव था.

मैं ने रोशन से पूछा कि उस की मां और पत्नी उन औरतों को पहचान लेंगी. रोशन ने कहा, ‘‘साहब, मेरी मां ने बताया था कि जो औरतें आई थीं, उन में से एक के माथे पर काला मस्सा था. लेकिन वह कहां की रहने वाली थीं, यह वह नहीं पूछ पाई थी.’’

मैं ने लाश के फोटो वगैरह खिंचवा कर उसे पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. रोशन और जैन पर मुझे शक हो रहा था, इसलिए उन्हें मैं ने हवालात में डाल दिया था. यही नहीं, पूछताछ के लिए रोशन की मां और पत्नी हुस्ना को भी बुलवा लिया था. साथ ही एक सिपाही को सांवल को बुलाने के लिए भेज दिया था.

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पर वह घर पर नहीं मिला. तब सिपाही ने उस के घर वालों से सख्त लहजे में कहा था कि वह सांवल को थाने में पेश कर दें, नहीं तो सभी के खिलाफ काररवाई की जाएगी. एक सिपाही को बहलोलपुर सांवल की ससुराल भेज दिया था, ताकि लाश की शिनाख्त हो सके.

करीब 2 घंटे बाद गुल्लो की मां और पिता करमू जाट भी थाने आ गए. करमू जाट एक जमींदार था. मैं ने दोनों को मृतका के फोटो और कपड़े दिखाए तो वे चीखचीख कर रोने लगे. इस से मैं समझ गया कि मरने वाली युवती इन की बेटी गुल्लो ही थी. मां रोरो कर यही कह रही थी कि सांवल ने ही उस की बेटी को मारा है.

पोस्टमार्टम होने के बाद लाश मृतका के मांबाप के हवाले कर दी थी, ताकि वे उस का अंतिम संस्कार कर सकें. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया था कि मृतका गुल्लो गर्भवती थी.

जो युवक थाने में संदूक लाए थे, मुझे उन पर तो शक था ही, इस के अलावा मुझे गुल्लो का पति सांवल भी संदिग्ध लग रहा था. इस के अलावा गुल्लो की मां, जो रोतेरोते सांवल पर आरोप लगा रही थी, उस पर भी मैं ने गौर किया. अभी मुझे ऐसा कोई क्लू नहीं दिख रहा था, जिस से केस के खुलने की उम्मीद हो.

मैं इस केस की गुत्थी को जितनी जल्दी सुलझाना चाहता था, उतनी ही यह उलझती जा रही थी. मैं ने हवालात में बंद रोशन और उस के भाई जैन को निकलवा कर उन से ताबड़तोड़ सवाल किए. लेकिन उन से कुछ भी हासिल नहीं हो सका. इस से यही लगा कि इस हत्या में शायद इन का हाथ नहीं है.

अब मैं ने गुल्लो के पति सांवल और उस के प्रेमी शम्स के बारे में विचार किया. दोनों ही लापता थे. मैं ने एक एएसआई को सांवल को गिरफ्तार करने को कहा, साथ ही उस की हवेली की तलाशी लेने को भी कहा. उस का गायब होना मुझे शक में डाल रहा था.

गुल्लो के प्रेमी शम्स की भी कोई सूचना नहीं थी. अब मुझे शक हो रहा था कि कहीं गुल्लो के घर वालों ने शम्स और गुल्लो को एक साथ देख लिया हो, उस के बाद दोनों की हत्या कर दी हो. शम्स की लाश और कहीं डाल दी हो.

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