वादियों का प्यार: कैसे बन गई शक की दीवार – भाग 2

कहीं ऐसा तो नहीं कि साकेत ने पहले कोई लड़की पसंद कर के उस से सगाई कर ली हो और फिर तोड़ दी हो या फिर प्यार किसी से किया हो और शादी मुझ से कर ली हो? आखिर हम ने साकेत के बारे में ज्यादा जांचपड़ताल की ही कहां है. जीजाजी भी उस के काफी वक्त बाद मिले थे. कहीं तो कुछ गड़बड़ है. मुझे पता लगाना ही पड़ेगा.

पता नहीं इसी उधेड़बुन में मैं कब तक खोई रही और फिर यह सोच कर शांत हो गई कि जो कुछ भी होगा, साकेत से पूछ लूंगी.

किंतु रात को अकेले होते ही साकेत से जब मैं ने यह बात पूछनी चाही तो साकेत मुझे बाहों में भर कर बोले, ‘देखो, कल रात कालका मेल से शिमला जाने के टिकट ले आया हूं. अब वहां सिर्फ तुम होगी और मैं, ढेरों बातें करेंगे.’ और भी कई प्यारभरी बातें कर मेरे निखरे रूप का काव्यात्मक वर्णन कर के उन्होंने बात को उड़ा दिया.

मैं ने भी उन उन्मादित क्षणों में यह सोच कर विचारों से मुक्ति पा ली कि ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि प्यार किसी और से किया होगा पर विवाह तो मुझ से हो गया है. और मैं थकान से बोझिल साकेत की बांहों में कब सो गई, मुझे पता ही न चला.

दूसरे दिन शिमला जाने की तैयारियां चलती रहीं. तैयारियां करते हुए कई बार वही सवाल मन में उठा लेकिन हर बार कोई न कोई बात ऐसी हो जाती कि मैं साकेत से पूछतेपूछते रह जाती. रात को कालका मेल से रिजर्व कूपे में हम दोनों ही थे. प्यारभरी बातें करतेकरते कब कालका पहुंच गए, हमें पता ही न चला. सुबह 7 बजे टौय ट्रेन से शिमला पहुंचने के लिए उस गाड़ी में जा बैठे.

घुमावदार पटरियों, पहाड़ों और सुरंगों के बीच से होती हुई हमारी गाड़ी बढ़ी जा रही थी और मैं साकेत के हाथ पर हाथ धरे आने वाले कल की सुंदर योजनाएं बना रही थी. मैं बीचबीच में देखती कि साकेत कुछ खोए हुए से हैं तो उन्हें खाइयों और पहाड़ों पर उगे कैक्टस दिखाती और सुरंग आने पर चीख कर उन के गले लग जाती.

खैर, किसी तरह शिमला भी आ गया. पहाड़ों की हरियाली और कोहरे ने मन मोह लिया था. स्टेशन से निकल कर हम मरीना होटल में ठहरे.

कुछ देर आराम कर के चाय आदि पी कर हम माल रोड की सैर को निकल पड़े.

साकेत सैर करतेकरते इतनी बातें करते कि ऊंची चढ़ाई हमें महसूस ही न होती. माल रोड की चमकदमक देख कर और खाना खा कर हम अपने होटल लौट आए. लौटते हुए काफी रात हो गई थी व पहाड़ों की ऊंचाईनिचाई पर बसे होटलों व घरों की बत्तियां अंधेरे में तारों की झिलमिलाहट का भ्रम पैदा कर रही थीं. दूसरे दिन से घूमनेफिरने का यही क्रम रहने लगा. इधरउधर की बातें करतेकरते हाथों में हाथ दिए हम कभी रिज, कभी माल रोड, कभी लोअर बाजार और कभी लक्कड़ बाजार घूम आते.

दर्शनीय स्थलों की सैर के लिए तो साकेत हमेशा टैक्सी ले लेते. संकरी होती नीचे की खाई देख कर हम सिहर जाते. हर मोड़ काटने से पहले हमें डर लगता पर फिर प्रकृति की इन अजीब छटाओं को देखने में मग्न हो जाते.

इस प्रकार हम ने वाइल्डफ्लावर हौल, मशोबरा, फागू, चैल, कुफरी, नालडेरा, नारकंडा और जाखू की पहाड़ी सभी देख डाले.

हर जगह ढेरों फोटो खिंचवाते. साकेत को फोटोग्राफी का बहुत शौक था. हम ने वहां की स्थानीय पोशाकें पहन कर ढेरों फोटो खिंचवाईं. मशोबरा के संकरे होते जंगल की पगडंडियों पर चलतेचलते साकेत कोई ऐसी बात कह देते कि मैं खिलखिला कर हंस पड़ती पर आसपास के लोगों के देखने पर हम अचानक अपने में लौट कर चुप हो जाते.

नारकंडा से हिमालय की चोटियां और ग्लेशियर देखदेख कर प्रकृति के इस सौंदर्य से और उन्मादित हो जाते.

इस प्रकार हर जगह घूम कर और माल रोड से खापी कर हम अपने होटल लौटने तक इतने थक जाते कि दूसरे दिन सूरज उगने पर ही उठते.

इस तरह घूमतेघूमते कब 10 दिन गुजर गए, हमें पता ही न चला. जब हम लौट कर वापस दिल्ली पहुंचे तो शिमला की मस्ती में डूबे हुए थे.

साकेत अब अपनी वर्कशौप जाने लगे थे. मैं भी रोज दिन का काम कराने के लिए रसोई में जाने लगी.

एक दिन चुपचाप मैं अपने कमरे में खिड़की पर बैठी थी कि साकेत आए. मैं अभी कमरे में उन के आने का इंतजार ही कर रही थी कि मेरी सासूजी की आवाज आई, ‘साकेत, कल काम पर मत जाना, तुम्हारी तारीख है.’ और साकेत का जवाब भी फुसफुसाता सा आया, ‘हांहां, मुझे पता है पर धीरे बोलो.’

उन लोगों की बातचीत से मुझे कुछ शक सा हुआ. एक बार आगे भी मन में यह बात आई थी लेकिन साकेत ने टाल दिया था. मुझे खुद पर आश्चर्य हुआ, पहले दिन जिस बात को साकेत ने प्यार से टाल दिया था उसे मैं शिमला के मस्त वातावरण में पूछना ही भूल गई थी. खैर, आज जरूर पूछ कर रहूंगी. और जब साकेत कमरे में आए तो मैं ने पूछा, ‘कल किस बात की तारीख है?’

साकेत सहसा भड़क से उठे, फिर घूरते हुए बोले, ‘हर बात में टांग अड़ाने को तुम्हें किस ने कह दिया है? होगी कोई तारीख, व्यापार में ढेरों बातें होती हैं. तुम्हें इन से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. और हां, कान खोल कर सुन लो, आसपड़ोस में भी ज्यादा आनेजाने की जरूरत नहीं. यहां की सब औरतें जाहिल हैं. किसी का बसा घर देख नहीं सकतीं. तुम इन के मुंह मत लगना.’ यह कह कर साकेत बाहर चले गए.

मैं जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. एक तो पहली बार डांट पड़ी थी, ऊपर से किसी से मिलनेजुलने की मनाही कर दी गई. मुझे लगा कि दाल में अवश्य ही कुछ काला है. और वह खास बात जानने के लिए मैं एड़ीचोटी का जोर लगाने के लिए तैयार हो गई.

दूसरे दिन सास कहीं कीर्तन में गई थीं और साकेत भी घर पर नहीं थे. काम वाली महरी आई. मैं उस से कुछ पूछने की सोच ही रही थी कि वह बोली, ‘मेमसाहब, आप से पहले वाली मेमसाहब की साहबजी से क्या खटरपटर हो गई थी कि जो वे चली गईं, कुछ पता है आप को?’

यह सुन कर मेरे पैरों तले जमीन खिसकने लगी. कुछ रुक कर वह धीमी आवाज में मुझे समझाती हुई सी बोली, ‘साहब की एक शादी पहले हो चुकी है. अब उस से कुछ मुकदमेबाजी चल रही है तलाक के लिए.’ सुन कर मेरा सिर चकरा गया.

सगाई और शादी के समय साकेत का खोयाखोया रहना, सगाई के लिए मांबाप तक को न लाना और शादी में सिर्फ 5 आदमियों को बरात में लाना, अब मेरी समझ में आ गया था. पापा खुद सगाई के बाद आ कर घरबार देख गए थे. जा कर बोले थे, ‘भई, अपनी सुनीता का समय बलवान है. अकेला लड़का है, कोई बहनभाई नहीं है और पैसा बहुत है. राज करेगी यह.’

उन को भी तब इस बात का क्या गुमान था कि श्रीमान एक शादी पहले ही रचाए हुए हैं.

जीजाजी भी तब यह कह कर शांत हो गए थे, ‘लड़का मेरा जानादेखा है पर पिछले 5 वर्षों से मेरी इस से मुलाकात नहीं हुई, इसलिए मैं इस से ज्यादा क्या बता सकता हूं.’

इन्हीं विचारों में मैं न जाने कब तक खोई रही और गुस्से में भुनभुनाती रही कि वक्त का पता ही न चला. अपने संजोए महल मुझे धराशायी होते लगे. साकेत से मुझे नफरत सी होने लगी.

वो नीली आंखों वाला : वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी- भाग 3

आप… आप हैं …मिस्टर वरुण शर्मा.”

वरुण बोला, “इफ आई एम नोट रौंग, यू आर छुटकी.”

“एंड… आप वो नीली आंखों वाले लड़के…” यह बोलतेबोलते मालिनी की जबान पर ताला सा लग गया… उस की आंखों के नीले समुंदर में, वो फिर से ना खो जाए,

“हां, हां…”

मालिनी उन्हें पुष्पगुच्छ दे कर उन का स्वागत करने के साथसाथ दिल की गहराइयों से मन ही मन धन्यवाद ज्ञापन करती है, जो इतने बरसों में ना कर सकी.

जैसे आज भगवान उस पर मेहरबान हो गए हो और कोई बरसों पुराना काम आज पूरा हो गया हो. आज उस के दिल से उस नीली आंखों वाले लड़के को धन्यवाद ना कर पाने का अपराधबोध समाप्त हो चुका था.

“क्या आप एकदूसरे को जानते हैं…?” शशांक ने पूछा.

“जी… मालिनी जी मेरी जूनियर थीं…”

आज मालिनी का “समय पर किसी का अधिकार नहीं, किंतु समय की दयालुता पर विश्वास” पेड़ की जड़ों की तरह गहरा हो गया था.

“ओह दैट्स ग्रेट…” इतना कह कर मिस्टर शशांक दूसरे कामों में व्यस्त हो गए, जैसे उन्होंने मन ही मन स्वीकार कर लिया था कि अब उन के मेहमान मालिनी के भी हैं, तो वह उन की बढ़िया आवभगत कर लेगी.

मालिनी और वरुण की आंखों में न जाने कितने मूक संवाद तैर रहे थे, जिन में अनेकों प्रश्न, उत्तर की नोक पर भटक रहे थे. जैसे नदी का बांध खोल देने पर सबकुछ प्रवाहित होने लगता है.

दोनों इतने वर्षों बाद भी औपचारिक बातों के अलावा और कुछ नहीं कह पा रहे थे. शायद वह माहौल उन के अंतर्मन में उठते प्रश्नों के जवाब के लिए उपयुक्त ना था, किंतु वर्षों बाद वरुण के मन की तपती बंजर भूमि पर आज मालिनी से मिलन एक बरखा समान बरस रहा था और साथ ही वरुण इस के विपरीत भाव मालिनी के चेहरे पर पढ़ रहा था.

पूरे कार्यक्रम के दौरान वरुण ने अनेकों बार चोर निगाहों से मालिनी को निहारा. उस के दिल का वायलिन जोरजोर से बज रहा था, किंतु उस की भनक सिर्फ शशांक को ही महसूस हो रही थी.

कार्यक्रम के उपरांत सभी ने रात्रिभोज एकसाथ किया और तभी बारिश होने लगी. वरुण की फ्लाइट खराब मौसम के कारण कुछ घंटों के लिए स्थगित कर दी गई.

मिस्टर वरुण शशांक से एयरपोर्ट के लिए विदा लेने लगे, तो शशांक ने उन्हें कुछ देर घर पर ही चल कर आराम करने को कहा.

वरुण तो जैसे अपने प्रश्नों के जवाब हासिल करने को बेताब हुआ जा रहा था और ऐसे में शशांक के घर पर रुकने का न्योता… पर, इस बात से मालिनी कुछ असहज सी होने लगी, जिसे वरुण ने भांप लिया.

खैर, सभी घर पहुंचे और वरुण को मेहमानों के कमरे में शशांक ही पहुंचा कर आया और यह भी कहा कि इसे अपना ही घर समझें. कुछ चीज की आवश्यकता हो तो मुझे या मालिनी को अवश्य बताएं.

“जी, जरूर… आप बेतकल्लुफ हो रहे हैं.”

शशांक अपने कमरे में आते ही मालिनी से कहता है कि आज मैं सब देख रहा था…

“जी, क्या?”

“वही…”

“क्या..?”

“ज्यादा भोली न बनो. मिस्टर वरुण तुम्हें टुकुरटुकुर निहार रहे थे. पर, मैं तो नहीं…”

“क्या इस का अंदाजा तुम्हें नहीं कि वह तुम्हें…”

“छी:.. छी:, कैसी बात करते हैं आप? मेरे जीवन में आप के सिवा कोई दूसरा नहीं.”

“अरे, मैं ने कब कहा ऐसा… मैं तो पहले की बात कर रहा हूं.”

मालिनी गुस्से से तमतमाते हुए…. “नहीं, हमारे बीच पहले भी कभी ऐसी कोई बात नहीं हुई.”

“तो फिर मिस्टर वरुण की आंखों में मैं ने जो देखा, वह क्या…?”

शशांक की इन बातों ने मालिनी के दिल में नश्तर चुभो दिए और वह चुपचाप जा कर सो गई.

वह सुबह उठी, तो मिस्टर वरुण जा चुके थे और शशांक अपने औफिस. तभी हरिया चाय के साथ मालिनी के कमरे में दाखिल होता है.

“बीवीजी… वह साहब जो रात को यहां ठहरे थे, आप के लिए यह चिट्ठी छोड़ गए हैं. बोले, मैं आप को दे दूं…”

मालिनी की आंखों में छाई सुस्ती क्षणभर के लिए जिज्ञासा में परिवर्तित हो गई कि क्या है इस में… ऐसा क्या लिखा है…” मालिनी ने कांपते हाथों से वह चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी.

‘प्रिय छुटकी,

‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे मन में अनगिनत सवाल उमड़ रहे होंगे कि मैं तुम्हें कभी कालेज के बाद क्यों नहीं मिला?

‘क्यों तुम से कभी अपने दिल की बात नहीं कही. जबकि मैं ने कई बार महसूस किया कि तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थी.

‘किंतु वह शब्द हमेशा तुम्हारे गले में ही अटके रहे. उन्हें कभी जबान का स्पर्श नसीब नहीं हुआ. मैं वह सुनना चाहता था, किंतु मेरी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मैं आशा करता हूं कि मेरे इस पत्र में तुम्हें अपने सभी सवालों के जवाब के साथसाथ मेरे दिल का हाल भी पता लग जाएगा.

‘मालिनी, मैं तुम्हारे काबिल ही नहीं था, इसलिए तुम से बाद में चाह कर भी नहीं मिला, क्योंकि मैं तुम्हें वह सारी खुशियां देने में शारीरिक रूप से पूर्ण नहीं था. मेरे साथ तुम तो क्या कोई भी लड़की खुश नहीं रह सकती.’

पढ़तेपढ़ते मालिनी की आंखों से गिरते आंसू इन अक्षरों को अपने साथ बहाव नहीं दे पा रहे थे. वह फिर पढ़ने लगी.

‘मेरी उस कमी ने मुझे तुम से दूर कर दिया, किंतु तुम आज भी मेरे मनमंदिर में विराजमान हो. तुम्हारे अलावा आज तक उस का स्थान कोई और नहीं पा सका है.

‘बचपन में क्रिकेट खेलते वक्त गेंद इतनी तेजी से मेरे अंग में लगी, जिस ने मेरे पौरूष को जबरदस्त चोट पहुंचाई और मेरे आत्मविश्वास को भी… किंतु मेरा तुम से वादा है कि मैं तुम्हें यों ही बेइंतहा चाहता रहूंगा और एक दिन तुम्हें भी अपने प्यार का एहसास करा कर रहूंगा….

‘तुम्हारा ना हो सका

वरुण.’

मालिनी कुछ पछताते हुए सोचने लगी, “तुम ने मुझ से कहा तो होता… क्या सैक्स ही एक खुशहाल जिंदगी की नींव होता है? क्या एकदूसरे का साथ और असीम प्यार जीवन के सफर को सुहाना नहीं बना सकता?”

आज फिर से वह सवालों के घेरे में खुद को खड़ा महसूस कर रही है.

मालिनी की नजर बगीचे में पड़ी तो देखा…

अनगिनत टेसू के फूल झड़े पड़े थे और संपूर्ण वातावरण केसरिया नजर आ रहा था.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास -भाग 1

‘‘मां तुम समझती क्यों नहीं, आजकल तो सभी मातापिता अपने बच्चों को छूट देते हैं, तुम क्यों नहीं मुंबई जाने देती मुझे?’’ सान्या जिद पर अड़ी थी और उस की मां 2 दिन से उसे समझा रही थी, ‘बेटी, हम मध्यवर्गीय लोग हैं, तुम पढ़ाई में इतनी अच्छी हो कि डाक्टर, इंजीनियर बन सकती हो, क्यों इस फालतू के डांस शो के लिए जिद पर अड़ी हो?’

‘‘नहीं मां, मैं जाऊंगी डांस शो में,’’ पैर पटकते हुए सान्या कमरे की तरफ बढ़ गई और जा कर पलंग पर औंधेमुंह लेट गई. उस की मां दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम बात समझने की कोशिश करो, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, दरवाजा तो खोलो.’’

सान्या कहां सुनने वाली थी. उसे तो मुंबई जाना था डांस शो के लिए. वह तो मशहूर मौडल बनना चाहती थी. कहां पसंद था उसे यह साधारण लोगों की तरह जीना? वह तो खुले आसमान में उड़ जाना चाहती थी पंछियों की तरह, जहां कोई रोकटोक न हो, जितना चाहो उड़ो. दूरदूर तक खुला आसमान, न तो रीतिरिवाज की बंदिश न ही समाज के बंधन. उस की मां कैसे कह देती, ‘बेटी, तुम जाओ.’ वह बेचारी तो स्वयं संयुक्त परिवार के बंधनों में फंसी थी. यदि वह आज उसे छूट देगी तो यह इस के बाद मौडलिंग में जाने की जिद करेगी. और फिर, वह देवरजेठ समेत अन्य रिश्तेदारों को क्या जवाब देगी? देर तक सान्या की मां इसी उधेड़बुन में उलझी रही और फिर मन ही मन बोली, ‘सान्या के पिताजी घर आएं तो रात को उन से जरूर इस विषय में बात करूंगी.’

रात को खाना खा कर परिवार के सभी सदस्य सोने के लिए अपने कमरे में चले गए और तभी सान्या की मां ने मौका पा कर उस के पिताजी से कहा, ‘‘सुनिए जी, बच्ची का बड़ा मन है डांस शो में जाने के लिए, वैसे हमें उसे रोकना नहीं चाहिए, कितना अच्छा डांस करती है हमारी सान्या. हर वर्ष स्कूल के सालाना कार्यक्रम में भाग लेती है और इनाम भी ले कर आती है हमारी बेटी. हां कह दीजिए न, एक बार मुंबई में डांस शो में जा कर आ जाएगी तो उस का दिल नहीं टूटेगा.’’

सान्या के पिताजी बोले, ‘‘एक बार जाने में तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन वह आगे मौडलिंग के लिए भी तो जिद करेगी, कैसे भेजेंगे उसे?’’

‘‘आप इस डांस शो के लिए तो हां कीजिए, फिर उसे मैं समझा दूंगी,’’ सान्या की मां ने मुसकराते हुए कहा.

अगले दिन जब सान्या की मां व पिताजी ने उसे डांस शो में जाने के लिए हामी भरी तो उसे एक बार को तो विश्वास ही नहीं हुआ. वह कहने लगी, ‘‘मांपिताजी, आप लोग मान गए? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूं?’’ मां बोली, ‘‘नहीं बेटी, यह हकीकत है. लेकिन इस के बाद तुम अपनी पढ़ाई में जुट जाओगी, मुझ से वादा करो.’’

‘‘हां मां, पक्का, फिर कभी जिद  नहीं करूंगी,’’ इतना कह सान्या अपनी मां से लिपट गई, ‘‘थैंक्यू मां, थैंक्यू पिताजी, आप दोनों कितने अच्छे हैं.’’ वह खुशी के मारे उछल पड़ी.

अगले ही दिन से डांस शो व मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो गई. ऐसा करतेकरते शो का दिन भी आ गया और सान्या अपने मातापिता के साथ मुंबई डांस स्टूडियो में पहुंच गई. उस के मातापिता को दर्शकों में विशिष्ट अतिथि का स्थान मिला था. एकएक

कर सभी कंटैस्टैंट स्टेज पर आए. वे इतने बड़े स्टेज पर अपनी बेटी का डांस शो देखने को उत्सुक थे. स्टेज की साजसजावट, निर्णायक मंडल व दर्शकगण कुल मिला कर सभीकुछ बड़ा ही अच्छा लग रहा था. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि बचपन में 2 चोटियां बना कर घूमने वाली सान्या बड़ी फिल्मी हस्तियों के सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी. 3 लोगों का डांस पूरा हुआ और चौथा नंबर सान्या का था.

जैसे ही स्टेज पर उस का नाम पुकारा गया, सान्या के पिताजी का सीना फूल कर चौड़ा हो गया और अगले ही पल सान्या झूम कर स्टेज पर आ पहुंची. उस की नाचने की अदा सब से अलग थी. सभी दर्शकों और निर्णायक मंडल के सदस्यों की तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा था. सान्या की मां उस के पिताजी के पास सरक कर मुंह पर हाथ रख कर धीरे से फुसफुसाती हुईर् बोली, ‘‘देखना जी, हमारी सान्या ही प्रथम आएगी, इस का फाइनल्स के लिए जरूर सलैक्शन होगा.’’ जवाब में सान्या के पिताजी ने अपना सिर हामी भरते हुए हिला दिया था.

खैर, शो खत्म हुआ. उस के पिताजी शाम को उसे मुंबई घुमाने के लिए ले कर गए. मरीन ड्राइव पर समुद्र की आतीजाती लहरें सड़क पर ठंडी फुहारें फेंक रही थीं. और हैंगिंग गार्डन में बुड्ढी का जूता देख सान्या बहुत खुश हो गई. कई पुरानी फिल्मों को वहां फिल्माया गया है. सान्या तो अपने सपनों की नगरी में आ पहुंची थी. वह तो सदा के लिए यहां बस जाना चाहती थी. किंतु मांपिताजी तो चाहते हैं कि वह आगे पढ़ाई करे और इस चमकदमक की दुनिया से दूर रहे.

खैर, अगले 2 दिनों में छोटा कश्मीर, नैशनल पार्क, एस्सेल वर्ल्ड आदि सभी जगहों पर घूम कर सान्या अपने मातापिता के साथ घर आ गई. लेकिन आने के बाद वह मुंबई और वहां का बड़ा सा स्टेज ही देखती रही. वह तो चाहती ही न थी कि उस रात की कभी सुबह भी हो. कितनी अच्छी होती है न सपनों की दुनिया. जो सोचो वही हकीकत में रूपांतरित होता नजर आता है. काश, उस का यह सपना हकीकत बन जाए. तभी घड़ी का अलार्म बजा और घर्रघर्र की आवाज ने उसे सोने नहीं दिया. उस ने झट से बटन दबा कर अलार्म बंद कर दिया.

थोड़ी देर में मां की आवाज आई, ‘‘बेटी सान्या, उठो न, तुम्हें कालेज जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘जी मां,’’ कहते हुए सान्या ने अलसाई आंखों से सूर्य को देखा. बाथरूम में जा ठंडे पानी के छींटे अपनी आंखों पर मारे और मां के पास रसोई में जा कर अपने लिए चाय ले कर आई. अखबार पढ़ने के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए सान्या पेज थ्री में फिल्मी हस्तियों के फोटो देख रहे थी. उन्हें देख वह तो रोज ही ख्वाब संजोने लगती कि उसे मुंबई से बुलावा आ रहा है. हर वक्त मुंबईमुंबई, बस मुंबई.

उस की मां उसे समझाती, ‘‘सान्या, हम साधारण लोग हैं, मुंबई में तो बड़बड़े लोग रहते हैं. यह जो फिल्मी दुनिया है न, वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है.’’ जवाब में सान्या कहती, ‘‘पर मां, वहां भी तो इंसान ही बसते हैं न. बस, एक बार मैं वहां चली जाऊं, फिर देखना, पैसा, शोहरत सब है वहां. यहां इस छोटे से कसबे में क्या रखा है? आज पढ़ाई पूरी कर भी लूंगी तो कल किसी सरकारी नौकरी वाले डाक्टर, इंजीनियर से तुम मेरा ब्याह कर दोगी और फिर रोज वही चूल्हाचौका. जो जिंदगी तुम ने जी है, वही मुझे जीनी होगी. क्या फायदा मां ऐसी जिंदगी का? मां मैं बड़े शहर में जाना चाहती हूं, मुंबई जाना चाहती हूं, कुछ अलग करना चाहती हूं.’’ मां ने उसे टालते हुए कहा, ‘‘अच्छाअच्छा, अभी तो पहले पढ़ाई पूरी कर ले.’’ लेकिन सान्या का कहां पढ़नेलिखने में मन लगने वाला था. उसे तो फैशन वर्ल्ड अच्छा लगता था, वह तो जागते हुए भी डांस शो और मौडलिंग के सपने देखती थी.

वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई: भाग 1

कभी कभी जिंदगी में कुछ घटनाएं ऐसी भी घटती हैं, जो अपनेआप में अजीब होती हैं. ऐसा ही वाकिआ एक बार मेरे साथ घटा था, जब मैं दिल्ली से हैदराबाद जा रहा था. उस दिन बारिश हो रही थी, जिस की वजह से मुझे एयरपोर्ट पहुंचने में 10 मिनट की देरी हो गई थी और काउंटर बंद हो चुका था. आज पूरे 2 साल बाद जब मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा और बारिश को उसी दिन की तरह मदमस्त बरसते देखा, तो अचानक से वह भूला हुआ किस्सा न जाने कैसे मेरे जेहन में ताजा हो गया.

मैं खुद हैरान था, क्योंकि पिछले 2 सालों में शायद ही मैं ने इस किस्से को कभी याद किया होगा.

एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर होने के चलते काम की जिम्मेदारियां इतनी ज्यादा हैं कि कब सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है, इस का हिसाब रखने की फुरसत नहीं मिलती. यहां तक कि मैं इनसान हूं रोबोट नहीं, यह भी खुद को याद दिलाना पड़ता है.

लेकिन आज हवाईजहाज से उतरते ही उस दिन की एकएक बात आंखों के सामने ऐसे आ गई, जैसे किसी ने मेरी जिंदगी को पीछे कर उस दिन के उसी वक्त पर आ कर रोक दिया हो. चैकआउट करने के बाद भी मैं एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकला या यों कहें कि मैं जा ही नहीं पाया और वहीं उसी जगह पर जा कर बैठ गया, जहां 2 साल पहले बैठा था.

मेरी नजरें भीड़ में उसे ही तलाशने लगीं, यह जानते हुए भी कि यह सिर्फ मेरा पागलपन है. मेन गेट की तरफ देखतेदेखते मैं हर एक बात फिर से याद करने लगा.

टिकट काउंटर बंद होने की वजह से उस दिन मेरे टिकट को 6 घंटे बाद वाली फ्लाइट में ट्रांसफर कर दिया गया था. मेरा उसी दिन हैदराबाद पहुंचना बहुत जरूरी था. कोई और औप्शन मौजूद न होने की वजह से मैं वहीं इंतजार करने लगा.

बारिश इतनी तेज थी कि कहीं बाहर भी नहीं जा सकता था. बोर्डिंग पास था नहीं, तो अंदर जाने की भी इजाजत नहीं थी और बाहर ज्यादा कुछ था नहीं देखने को, तो मैं अपने आईपैड पर किताब पढ़ने लगा.

अभी 5 मिनट ही बीते होंगे कि एक लड़की मेन गेट से भागती हुई आई और सीधा टिकट काउंटर पर आ कर रुकी. उस की सांसें बहुत जोरों से चल रही थीं. उसे देख कर लग रहा था कि वह बहुत दूर से भागती हुई आ रही है, शायद बारिश से बचने के लिए. लेकिन अगर ऐसा ही था तो भी उस की कोशिश कहीं से भी कामयाब होती नजर नहीं आ रही थी. वह सिर से पैर तक भीगी हुई थी.

यों तो देखने में वह बहुत खूबसूरत नहीं थी, लेकिन उस के बाल कमर से 2 इंच नीचे तक पहुंच रहे थे और बड़ीबड़ी आंखें उस के सांवले रंग को संवारते हुए उस की शख्सीयत को आकर्षक बना रही थीं.

तेज बारिश की वजह से उस लड़की की फ्लाइट लेट हो गई थी और वह भी मेरी तरह मायूस हो कर सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. मैं कब किताब छोड़ उसे पढ़ने लगा था, इस का एहसास मुझे तब हुआ, जब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी.

ठीक उसी वक्त उस ने मेरी तरफ देखा और तब तक मैं भी उसे ही देख रहा था. उस के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. मैं सकपका गया और उस पल की नजर से बचते हुए फोन को उठा लिया.

फोन मेरी मंगेतर का था. मैं अभी उसे अपनी फ्लाइट मिस होने की कहानी बता ही रहा था कि मेरी नजर मेरे सामने बैठी उस लड़की पर फिर से पड़ी. वह थोड़ी घबराई हुई सी लग रही थी. वह बारबार अपने मोबाइल फोन पर कुछ चैक करती, तो कभी अपने बैग में.

मैं जल्दीजल्दी फोन पर बात खत्म कर उसे देखने लगा. उस ने भी मेरी ओर देखा और इशारे में खीज कर पूछा कि क्या बात है? मैं ने अपनी हरकत पर शर्मिंदा होते हुए उसे इशारे में ही जवाब दिया कि कुछ नहीं.

उस के बाद वह उठ कर टहलने लगी. मैं ने फिर से अपनी किताब पढ़ने में ध्यान लगाने की कोशिश की, पर न चाहते हुए भी मेरा मन उस को पढ़ना चाहता था. पता नहीं, उस लड़की के बारे में जानने की इच्छा हो रही थी.

कुछ मिनट ही बीते होंगे कि वह लड़की मेरे पास आई और बोली, ‘सुनिए, क्या आप कुछ देर मेरे बैग का ध्यान रखेंगे? मैं अभी 5 मिनट में चेंज कर के वापस आ जाऊंगी.’

‘जी जरूर. आप जाइए, मैं ध्यान रख लूंगा,’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘थैंक यू. सिर्फ 5 मिनट… इस से ज्यादा टाइम नहीं लूंगी आप का,’ यह कह कर वह बिना मेरे जवाब का इंतजार किए वाशरूम की ओर चली गई.

10-15 मिनट बीतने के बाद भी जब वह नहीं आई, तो मुझे उस की चिंता होने लगी. सोचा जा कर देख आऊं, पर यह सोच कर कि कहीं वह मुझे गलत न समझ ले. मैं रुक गया. वैसे भी मैं जानता ही कितना था उसे. और 10 मिनट बीते. पर वह नहीं आई.

अब मुझे सच में घबराहट होने लगी थी कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया. वैसे, वह थोड़ी बेचैन सी लग रही थी. मैं उसे देखने जाने के लिए उठने ही वाला था कि वह मुझे सामने से आती हुई नजर आई. उसे देख कर मेरी जान में जान आई. वह ब्लैक जींस और ह्वाइट टौप में बहुत अच्छी लग रही थी. उस के खुले बाल, जो शायद उस ने सुखाने के लिए खोले थे, किसी को भी उस की तरफ खींचने के लिए काफी थे.

वह अपना बैग उठाते हुए एक फीकी सी हंसी के साथ मुझ से बोली, ‘सौरी, मुझे कुछ ज्यादा ही टाइम लग गया. थैंक यू सो मच.’

मैं ने उस की तरफ देखा. उस की आंखें लाल लग रही थीं, जैसे रोने के बाद हो जाती हैं. आंखों की उदासी छिपाने के लिए उस ने मेकअप का सहारा लिया था, लेकिन उस की आंखों पर बेतरतीबी से लगा काजल बता रहा था कि उसे लगाते वक्त वह अपने आपे में नहीं थी. शायद उस समय भी वह रो रही हो.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 3

कैद में पड़ी कंवल को रहरह कर केवर की याद सताए जा रही थी. चिंता में डूबी जमीन पर पड़ी कंवल के सामने एकदम से टुन्ना मानो कहीं से प्रकट हो गई. कंवल ने उसे देख कर हैरानी से पूछा, ‘‘तुम यहां कैसे आई?’’ टुन्ना ने हड़बड़ी में कंवल से कहा, ‘‘मैं और सां झी यहां दासदासी बन कर आए हैं.

कल ही मैं ने यहां दासी की नौकरी ली है. केवर सिंह को भी बंदी बनाया गया है. मैं तु झ तक सारे संदेश पहुंचाती रहूंगी, तू बस सब्र रखना. हम तुम दोनों को जल्द ही छुड़ा कर ले जाएंगे.’’ केवर के बंदी बनाए जाने की खबर सुन कंवल को खूब चोट पहुंची.

उसे अब यह महसूस होने लगा कि शायद दोनों की कहानी यहीं इसी कैद में सिमट कर खत्म हो जाएगी कि तभी कुछ सोचविचार कर टुन्ना ने इधरउधर नजरें दौड़ा कर माहौल का मुआयना करते हुए कंवल के कान में एक योजना सुनाते हुए कहा, ‘‘देख कंवल, मैं और सां झी एक बहुत बड़ी योजना के साथ यहां आए हैं, तो सुन…’’ टुन्ना ने सारी योजना कंवल को कह सुनाई. उस रात ही टुन्ना खाना ले कर केवर सिंह की कोठरी में पहुंची. खाने की थाली के नीचे टुन्ना ने एक कटार को ठीक से पकड़ रखा था.

जैसे ही टुन्ना ने थाली को केवर सिंह की ओर सरकाया, साथ में कटार भी सरका दी.  केवर सिंह टुन्ना को वहां देख कर अवाक से रह गया. टुन्ना ने आंखें बड़ी करते हुए केवर को चुप रहने का इशारा किया और बाहर खड़े सिपाही फालूदा खां को एक गिलास भांग पकड़ाते  हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारे लिए है  फालूदा खां.’’ ‘‘मेरे लिए… पर क्यों?’’ ‘‘नहीं चाहिए, तो लाओ वापस ले जाती हूं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं अब पी ही लेता हूं,’’ फालूदा खां ने एक सांस में सारी भांग गटकते हुए टुन्ना को धन्यवाद दिया, पर इतना कहते ही वह सिपाही खूनी उलटी करता हुआ वहीं ठंडा पड़ गया.

कोठरी में बैठा हुआ केवर सबकुछ देख रहा था. सिपाही के दम तोड़ते ही वह इस सब का मतलब सम झ चुका था. उन्होंने वह कटार उठाई और किसी तरह से उस कोठरी से निकल गया.

अ गले दिन केवर के कोठरी से भाग जाने की खबर पूरे दरबार में फैल गई. बादशाह ने अब केवर को जिंदा या मुरदा लाने का आदेश दे डाला.  आदेश मिलते ही औसाफ खां नामक दरबारी ने केवर को मारने का जिम्मा उठा लिया. उधर केवर मेवाड़ के एक सरहदी गांव के मुखिया गंगो भील से मदद की संधि करने पहुंचा.  गंगो भील ने उसे भरोसा दिया कि अगर लड़ाई हुई तो उसे 60 गांवों के भीलों का पूरा समर्थन रहेगा.  औसाफ खां केवर की तलाश कर के थक चुका था.

उस ने बड़े भारी मन से महमूद को जा कर अपनी नाकामी की खबर सुनाई.  महमूद ने पूरे गुजरात में केवर की धर पकड़ शुरू करवा दी. बाहर से आने वाली हर पालकी, हर घुड़सवार, व्यापारी, हर किसी की तलाशी ले कर ही उसे सरहद के भीतर आने दिया जाता.  योजना के मुताबिक दूसरी पारी खेलने की बारी कंवल की थी. कंवल ने महमूद से कहा, ‘‘बादशाह, मैं अब केवर का इंतजार करकर के थक चुकी हूं. मैं नामसम झ थी जो आप के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा कर केवर के पीछे पागल थी, पर अब इस बेवकूफ कंवल को सम झ आ चुका है कि उस ने कितनी बड़ी भूल की है.

आप मु झे माफ कर दीजिए और एक बार मु झे अपनी गलती सुधारने का मौका दीजिए.’’ ‘‘तुम ने सही सम झा. अब तक उस केवर की लाश कहीं पड़ी सड़ रही होगी. बस एक सपना अधूरा रह गया हमारा कि हम उस के सामने तुम से निकाह करना चाहते थे,’’ बादशाह महमूद खुद को काफी नरमदिल और महान दिखाने की कोशिश में लगा था, पर अंदर ही अंदर वह भी कंवल जैसी खूबसूरत लड़की  को जल्द से जल्द अपनी बेगम बनाना चाहता था.  कंवल धीरे से बोली, ‘‘लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं.’’ ‘‘कैसी शर्तें?’’ कंवल ने शर्तें बतानी शुरू कीं, ‘‘पहली, हमारी शादी एकादशी वाले दिन ही होगी.

दूसरी, विवाह हिंदू रीतिरिवाज से ही होगा. तीसरी, शादी के दिन जब आप बुलंद गुंबज में पधारें तो खूब आतिशबाजियां हों और आखिरी शर्त यह कि हमारी शादी देखने का हक सब को होना चाहिए. मेरी मां भी पालकी में बैठ कर बुलंद गुंबज में आएं.’’

‘‘हमें तुम्हारी सारी शर्तें मंजूर हैं,’’ महमूद उस दिन काफी खुश था. कंवल को मालूम था कि सां झी और केवर मेवाड़ में उस का अगला संदेशा आने का इंतजार कर रहे होंगे.

अब टुन्ना को महल से निकालने की बारी थी, सो उसी के हाथ यह आखिरी संदेशा भिजवाना रह गया था.  कंवल ने टुन्ना से कहा, ‘‘केवर से कहना कि एकादशी को मारवाड़ के व्यापारी मूंदड़ा की बरात अजमेर से अहमदाबाद आएगी. रास्ते में आप उसी बरात में वेश बदल कर शरीक हो जाना, ताकि बरात के साथसाथ आप भी दरबार में प्रवेश कर सकें.

‘‘यही एक रास्ता है अहमदाबाद में घुसने का, क्योंकि अब भी यहां आप की छानबीन खूब जोरशोर से चल रही है. आगे की योजना अहमदाबाद पहुंचने  के बाद.’’ जाने से पहले टुन्ना ने कंवल को एक बार गले लगा कर कहा, ‘‘अब कुछ ही दिनों की बात है कंवल…’’

एकादशी का दिन भी नजदीक था, उधर टुन्ना के मुंह से यह संदेशा सुन कर केवर और सां झी ने अपने दूसरे दोस्तों के साथ अहमदाबाद में घुसने की तैयारियां शुरू कीं. महमूद भी कंवल से अपनी शादी की तैयारियों में दिल से जुटा हुआ था. वह आखिरी घड़ी आज आ चुकी थी और हथियारों से लैस केवर और उस के साथी तयशुदा समय और योजना के मुताबिक बरात में जा मिले.

उधर महमूद के लिए हाथी सजाया जा चुका था. बरात के आगेपीछे शहनाई वादक थे, नगाड़े बज रहे थे, ढोल की थाप सब के जी में खड़े हो कर नाचने की उमंग भर रही थी. बीच मे हाथी पर सवार महमूद के आगे सिपाहियों के घोड़े और हाथी थे.

उधर कंवल की मां जवाहर पातुर के घर पर अपनी योजना के मुताबिक केवर तैयार बैठा था. पालकी वाले जवाहर पातुर को बुलंद गुंबज में ले जाने को आ चुके थे.  टुन्ना ने पालकी वालों का ध्यान भटकाए रखा और उधर केवर साड़ी पहने पालकी के भीतर जा बैठा.

बुलंद गुंबज पहुंचते ही कंवल पालकी देख खुशी से  झूम उठी. सैनिकों ने पालकी को जमीन पर रखा कि टुन्ना ने उन्हें बाहर भेज दिया. केवर बाहर निकला. साड़ी में होने के चलते उस पर किसी को कोई शक नहीं हुआ.  सैनिक बाहर जा चुके थे. अब अंदर सिर्फ केवर और कंवल ही थे. इतने दिनों बाद एकदूसरे को आमनेसामने देख दोनों के सब्र का बांध टूट गया.

कंवल से रहा न गया और वह दौड़ती हुई केवर से जा मिली. दोनों ने खूब आंसू बहाए. तभी टुन्ना के कानों में पटाकों की आवाज सुनाई पड़ी.  कंवल ने कहा, ‘‘महमूद शाह आ गया है.’’ केवर जा कर पीछे वाली एक मीनार के पीछे छिप गया. कंवल सहजता के भाव लिए अपनी जगह पर पहुंच गई.

अब थोड़ी ही देर में गुंबज के भीतर सिर्फ 4 जने ही थे टुन्ना, कंवल, केवर और बादशाह महमूद.  महमूद अपनी बेगम से मिलने को उतावला उस के कमरे में जाने ही वाला था कि उधर से केवर ने महमूद की गरदन को अपनी बगल में भींचते हुए उस का दम निकलना चाहा.

महमूद का चेहरा अब पीला पड़ने लगा था. उस की आंखें बाहर को निकल आईं कि तभी महमूद अपनी तलवार तक अपना हाथ पहुंचाने में कामयाब हो गया, पर उस की तलवार का वार केवर के सिर के ऊपर से गुजर गया.  क ेवर दांवपेंच में कुशल था, सो निहत्था ही चंद मिनटों की गहमागहमी के बाद महमूद पर काबू पा गया.  महमूद की चीखें सुनने वाला कोई न था.

बाहर आतिशबाजी और कारतूसों के धमाके उस की चीखें दबा रहे थे. अपनी ही तलवार के वार से महमूद के प्राण पखेरू उड़ गए.  टुन्ना ने किसी के अंदर आने से पहले ही कंवल और केवर को पालकी में बैठा दिया और पालकी वालों को बुला कर कहा, ‘‘लो जवाहर पातुर को उन के घर छोड़ दो. आज बादशाह  रानी कंवल के साथ यहीं रुकेंगे तो  उन्हें परेशान न कीजिएगा,’’ कह कर टुन्ना भी फटाफट जवाहर पातुर के घर पहुंच गई. जवाहर पातुर के घर पहुंच कर कंवल और केवर ने उन के चरणों में गिर कर आशीर्वाद मांगा. बाहर सां झी  3 घोड़े लिए तैयार खड़ा था.  सां झी ने टुन्ना और केवर ने कंवल को अपने साथ अपने घोड़े पर बैठाया और पीछेपीछे जवाहर पातुर भी अपनी नई आजाद जिंदगी इज्जत से जीने की चाह लिए घोड़े पर चली जा रही थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 2

केवर सिंह के नाम के जयकारे लगाने वाली एक तरफ की प्रजा जैसे शांत सी हो गई हो, वहीं दूसरी तरफ वाली प्रजा की रगों में जैसे अपने साथी हुक्काम को जीतता देख खून बिजली की रफ्तार से दौड़ने लगा.  अब चारों ओर ‘हुक्काम’ का शोर था, पर आखिर में एक विचित्र से दांव के साथ हुक्काम को रेतीली जमीन पर पटकनी देते हुए केवर सिंह ने खेल का सारा नतीजा ही बदल दिया.

केवर के हुक्काम को पटकने की देरी ही थी कि प्रजा अखाड़े में कूद कर केवर सिंह को कंधों पर चढ़ाए मस्ती से ?ामने लगी. नगाड़े बजने लगे और लोग मस्ती से ?ामने लगे.  केवर सिंह की नजर कंवल पर पड़ी ही थी कि वह एक मुसकान के साथ शरमा कर रह गई.  ‘‘अरे कंवल, तुम यहां. आज भी…’’ केवर और कंवल अभी कल ही मिले थे. आज भी उसे यहां देख कर केवर ने कंवल से पूछा. ‘‘हां, मैं ने सुना कि आप रोजरोज ही अपना बलप्रदर्शन कर रहे हैं, तो आज भी देखने चले आई,’’ कंवल ने अल्हड़पने में जवाब दिया. ‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं,’’ केवर ने ?ोंपते हुए कहा और कंवल को अपने गले लगा लिया.

सारा दिन सैरसपाटे और बाग में घूमने के बाद शाम हो चली थी. कंवल की सहेली टुन्ना ने अब कंवल से वापस चलने को कहा.  कंवल केवर सिंह को छोड़ कर यों जाना तो नहीं चाहती थी, पर उसे भी रात होने से पहले घर पहुंचना था.  क ेवर सिंह ने कंवल और टुन्ना से कहा कि उन्हें अब जल्द ही निकलना चाहिए. सां?ा ने केवर सिंह से कहा, ‘‘केवर, अब अंधेरा होने ही वाला है, इसलिए मु?ो लगता है कि हमें इन के साथ एक सिपाही भी भेजना चाहिए.’’

टुन्ना और कंवल ने इस के लिए इनकार किया, पर केवर ने हामी भरी और दोनों सहेलियों के लिए एक हथियारबंद सिपाही को बुलाया गया और कहा कि तुम्हें इन दोनों लड़कियों के साथ जाना है. इन को महफूज पहुंचाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.

वह सिपाही अपने प्यासे घोड़े को तुरंत पानी पिलाने ले गया और जाने  की तैयारी करने लगा. उतने में ही केवर सिंह ने कंवल को अपने बाहुपाश में भरते हुए आखिरी बार उस के माथे को चूमते हुए उसे घोड़े पर बैठाया और  उधर सां?ा और टुन्नी का भी फिलहाल अपने प्यार को विराम देने का समय  आ चुका था. सब चलने को तैयार थे.

आगे दोनों लड़कियां और पीछे हथियारबंद सिपाही. जवाहर पातुर आज कंवल को बादशाह के संग शादी करने के लिए मनाने की सोच कर घर के लिए निकली थी, पर घर पर कंवल को न देखने के बाद उस के कानों में महमूद की वह बात गूंजने लगी, ‘तुम दिनभर यहां रहती हो. तुम्हारी बेटी सुबह से शाम तक कहां जाती है, क्या करती है, इस की तुम्हें क्या खबर…’  पातुर को अब लगने लगा था कि शायद महमूद की बात ठीक थी.  अब कंवल की शादी कर देना ही  ठीक रहेगा.

कंवल और टुन्ना के घोड़े कंवल के दरवाजे पर आ कर रुके. टुन्ना का घर अभी और आगे था, सो वह वहां से चलती बनी.  जवाहर पातुर घर से बाहर निकली तो तैश में थी, पर साथ में सिपाही को देख कर बेटी को उस के सामने डांटना ठीक न सम?ा.  सिपाही जाने की तैयारी करने लगा, तो जवाहर पातुर ने सामने से कहा, ‘‘रात काफी हो चुकी है.

अभी मीलों का सफर तय करना खतरे से खाली नहीं और  तुम्हें भूख भी लगी होगी, तो आज  रात यहीं रुको. कल सवेरे जल्दी  निकल जाना.’’ कंवल ने भी कहा, तो वह सिपाही रुकने को तैयार हो गया. रात को भोजन करने के बाद आरामकक्ष में उस के सोने का इंतजाम कर दिया गया.

रात को मौका देख कर जवाहर पातुर ने बेटी कंवल से आज हुई सारी घटना सुना दी.   मां की बात सुन कर कंवल ने कहा, ‘‘क्या… मैं उस महमूद से शादी कर लूं… उस अधेड़ से. मां, तुम ने देखा नहीं कि वह किस गलत नजर से वह मेरी तरफ देख रहा था.

मैं तो उस के हावभाव से  ही पहचान गई थी कि यह इनसान ठीक नहीं है.  ‘‘और क्या 2 लाख रुपए मैं वह आप से मेरा सौदा करना चाहता है. अरे, उस से कहना कि केवर सिंह के सामने उस का सारा साम्राज्य कम है.’’ ‘‘बेटी, तू सम झ नहीं रही है… तू जवाहर पातुर की बेटी है. तू इतने बड़े सपने न देख. खेलकूद अलग चीज है और जिंदगी अलग.’’ ‘‘उस महमूद से कहना कि जिस ने शेर केवर सिंह को गले लगाया हो वह गीदड़ महमूद को अपना पति नहीं बना सकती,’’

कंवल बोली. कंवल की बेपरवाही पर जवाहर पातुर ने एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ दिया. कंवल अपनी मां की कठोरता पर फूटफूट कर रोने लगी.  करुणा के आगे क्रोध कहां ठहर पाता है. अपने प्रेम के लिए तड़पती बेटी का दुख मां से न देखा गया.

उसे याद आया कि कैसे उसे भी उस जालिम महमूद ने अपने प्रेमजाल में फांस कर बड़ेबड़े सपने दिखाए थे, उसे अपने दरबार में जगह दी थी, पर इस सब की कीमत  उस महमूद ने उसे वेश्या बना कर वसूल की थी.  जवाहर पातुर को सम झ आ चुका था कि यही गलती वह इस बार फिर करने जा रही है. उस ने अपनी बेटी कंवल को हिम्मत देते हुए कहा, ‘‘बेटी, तू उसी घराने में शादी करेगी जहां तेरी इच्छा है. तु झे मेरी ओर से पूरी छूट है. तु झे अपनी जिंदगी को अपने मनमुताबिक जीने का पूरा हक है.’’

अगले दिन अपने विवाह प्रस्ताव के ठुकरा दिए जाने की खबर सुन कर बादशाह महमूद शाह की आंखों में मानो खून उतर आया. उस ने कंवल और केवर को कैद करने का हुक्म देते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों में से जो भी केवर को बंदी बना कर मेरे पास लाएगा,

उसे केवर की जागीर का नया मालिक बना दिया जाएगा.’’ क ंवल को तो कैद कर लिया गया पर केवर को कैदी बनाने की हिम्मत हर किसी में न थी. पर बादशाह महमूद को खुश करने के लिए और केवर की जागीर के लालच में जलाल नामक दरबारी ने केवर को कैद करने का वचन दे डाला. जलाल को मालूम था कि हिंदुओं में होली का त्योहार बहुत धूमधाम से बनाया जाता है.

होली के दिन जलाल केवर की जागीर में होली का  झूठा निमंत्रण ले कर केवर के महल पहुंच गया.  केवर सिंह ने भी बादशाह महमूद का निमंत्रण स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘बादशाह से कहना कि हमारी इस बार की होली हम उन्हीं के साथ मनाएंगे.’’ होली में अब कुछ ही दिन बाकी थे.

उधर कंवल को महल में रख बादशाह ने बहुत बड़ी गलती की थी. बादशाह चाहता था कि वह केवर के सामने ही कंवल से शादी करेगा.  होली का दिन आ चुका था. बादशाह के यहां केवर सिंह को लाया गया, पर महल में घुसते ही उस के गले और हाथों में लोहे की भारीभारी बेडि़यां डाल दी गईं. केवर की सम झ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है. बादशाह ने केवर सिंह को कैद में डाल दिया. उधर उस की जागीर पूरी तरह से बादशाह के कब्जे में ली जा चुकी थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 1

जवाहर पातुर ने कई बार कंवल को चेताया… तू इस महल में नहीं आएगी. कोई बात होगी तो तभी बताना, जब मैं घर आ जाया करूं…’’ कंवल का रूपरंग भी अपनी मां से कहीं ज्यादा बढ़ कर था. जवाहर पातुर यह कभी नहीं चाहती थी कि उस की फूल सी बच्ची पर उस नामुराद महमूद शाह की काली छाया पड़े. उन दिनों बादशाह महमूद शाह के राजघराने में वेश्याओं का अच्छाखासा तांता लगा रहता था. बादशाह के हरम में हुस्न की कोई कमी न थी. उन्हीं में से एक रूपवती थी जवाहर पातुर. बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य में वेश्या जवाहर पातुर की खूबसूरती का बोलबाला था.

सब ने यही सुना था कि बादशाह के हरम में कई आईं और गईं, पर एक जवाहर पातुर ही है, जिसे हरम में रानी के समान ही सारी सहूलियतें मुहैया थीं.  जवाहर पातुर की बेटी कंवल भी कभीकभी अपनी मां से मिलने महल में आ जाया करती थी, पर पातुर को यह पसंद न था. वैसे अब तक ऐसा नहीं हुआ कि महमूद और कंवल ने एकदूसरे को आमनेसामने देखा हो, पर आज वह महमूद की नजरों से बच न सकी.  महमूद ने इस से पहले ऐसी बला की खूबसूरती न देखी थी.

कंवल अपनी सहेली टुन्ना के साथ अपनी मां के कमरे में बैठ बाटिया के जागीर कुंवर केहर सिंह चौहान के मल्लयुद्ध में बड़ेबड़े पहलवानों को पस्त करने के दांवपेंचों का शब्दचित्र खींच कर अपनी मां को सुना ही रही थी कि उसी वक्त महमूद का मन पातुर के साथ समय बिताने को किया, तो वह दनदनाते हुए उस के कमरे में चला आया. उस दिन यह कंवल और महमूद शाह की पहली मुलाकात थी.

दोनों ने पहली बार एकदूसरे को आमनेसामने देखा था.  महमूद ने बड़ी गर्मजोशी से कंवल का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अरे पातुर, तुम ने आज तक बताया क्यों नहीं कि तुम्हारी बेटी इतनी बड़ी हो गई है और इन्हें महल भी इतने दिन बाद ले कर आई हो. कभी हम से तो मिलवाने के लिए ले आती.’’ ‘‘जी हुजूर, पर यह हाथ ही कहां आती है. दिनभर तो अपनी सहेलियों के साथ मटरगश्ती में लगी रहती है,’’ जवाहर पातुर ने चापलूसी वाली हंसी हंसते हुए टुन्ना की ओर देखते हुए कहा.  ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. अब आप को यहां आते रहना है. कभी किसी चीज की कमी हो, तो बे?ि?ाक बता देना. और तुम्हें हम से मिलने के लिए किसी की इजाजत लेने की भी जरूरत नहीं है,’’ महमूद ने कंवल की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.  कंवल हड़बड़ी में अपनी मां और महमूद से विदा ले कर अपनी सहेली टुन्ना के संग वहां से निकल गई. महमूद ने कंवल को थोड़ी देर और रोकना चाहा, पर फिर कुछ सोच कर रुक गया.

उस दिन सारी रात महमूद शाह किसी गहरी सोच में डूबा रहा. वह कभी इस ओर करवट लेता, तो कभी उस ओर. और कभी बारबार एक ?ाटके से उठ कर बैठ जाया करता.  अगले दिन किसी अनमनी सी सोच में उल?ा महमूद फिर जवाहर पातुर के कमरे में गया और थोड़ी देर इधरउधर की बात करने के बाद उसे बाजुओं से पकड़ता हुआ बोला, ‘‘देखो पातुर, मैं तुम्हें कुछ बताने के लिए आया हूं…’’ मानो महमूद के मन में क्या है, उस का अंदाजा वह लगा पा रही हो, पर फिर भी अपने अंदेशे को अपने ही अंदर छिपाते हुए बोली, ‘‘हुजूर, कुछ कहना था तो मु?ो बुला लिया होता.

अब बादशाह  को किसी को कुछ कहने के लिए  उस के पास जाना पड़े, यह तो कोई बात नहीं हुई.’’ ‘‘तुम वह सब छोड़ो पातुर और यह बताओ कि क्या तुम अपनी बेटी कंवल को मेरी रानी बनाना चाहोगी?’’ पातुर मानो यही सुनने के लिए रुकी थी. उसे मालूम था कि कल जिस तरह से महमूद ने उस की बेटी की पीठ को हाथ से सहलाया था, वह उस का दिखावा मात्र था.

वह बोली, ‘‘लेकिन हुजूर, वह अभी काफी छोटी है. उस के लिए अभी भी राजपाठ ऐशोआराम से कहीं ज्यादा बढ़ कर अपनी सहेलियां और दोस्त हैं. उसे अभी इस हरम में न डालिए.

मैं आप को मना नहीं कर रही हूं, बस थोड़ा रुकने को कह रही हूं.’’ जवाहर पातुर को जो अंदेशा था, ठीक वही हुआ. वह कल ही सम?ा चुकी थी कि महमूद की आवारा नजर उस की बेटी पर पड़ चुकी है और कभी भी महमूद की यह मांग हो सकती है कि उसे अब कंवल से निकाह करना है. ‘‘देखो, मां को अपने बच्चे हमेशा छोटे ही लगते हैं, पर किसी और से पूछो तो वह बताएगा कि कंवल अब कितनी बड़ी हो चुकी है. तुम समाज के बारे में सोचो… दिनभर तुम यहां रहती हो, उधर वह पूरे दिन क्या करती है, किस से मिलती है, कौन जानता है. इधर एक रानी की हैसियत से इस महल में रहेगी, तो तुम सोच ही सकती हो कि क्या शान होगी तुम लोगों की.  ‘‘खैर, चलो छोड़ो. अभी फिलहाल उस से कहना कि बादशाह ने उसे 2 लाख रुपए सालाना जागीर देने का फैसला किया है,’’ महमूद घेरने में माहिर था. वह अपना काम निकलवाने के लिए अपनी जबान का इस्तेमाल करना बखूबी जानता था.

2 लाख रुपयों का लालच पातुर की आन को तोड़ने लगा था. उस ने बादशाह से कहा, ‘‘ठीक है हुजूर, मैं बात करूंगी कंवल से.’’ ‘‘मैं जानता हूं पातुर कि तुम मेरी ख्वाहिश पूरी करने में जान लगा दोगी. आज तक तुम ने यही तो किया है,’’ कहते हुए बादशाह पातुर के कमरे से बाहर आ गया.

उधर सूरज को आसमान में चढ़े थोड़ी ही देर हुई थी कि कंवल अपनी सखी टुन्ना के संग घोड़ों पर सवार हो कर गुजरात की छोटी सी जागीर बारिया के मालिक कुंवर केवर सिंह चौहान के बाहुबल का कारनामा देखने उन की जागीर में जा रही थी.

आज केवर सिंह की हुक्काम से कुश्ती की प्रतियोगिता थी. यह जागीर बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य के अधीन ही थी.  कंवल को महल पहुंचने में थोड़ी देर हो गई थी. उधर कुश्ती का खेल शुरू हो चुका था. कंवल और उस की सहेली टुन्ना को आता देख कुंवर केवर सिंह के दोस्त सां?ा ने उन्हें दर्शकों की भीड़ में रास्ता बना कर आगे की ओर ला कर अलग जगह पर बैठा दिया, जहां से सिर्फ राजघराने के लोगों को ही कार्यक्रम देखने की इजाजत थी.

केवर सिंह को हुक्काम सिंह पर भारी पड़ते देख कंवल खुशी के मारे सभी के साथ जोर से शोर मचाती, तालियां पीटती. उस की सहेली टुन्ना और सां?ा कंवल की यह बचकानी हरकत को देख उस पर ठहाके लगाते और उस का मजाक बनाते.  खेल के मिजाज से यह साफ जाहिर था कि आज केवर सिंह का दिन ठीक नहीं है.

एक नई दिशा : क्या अपना मुकास हासिल कर पाई वसुंधरा – भाग 1

पोस्टमैन के जाते ही वसुंधरा ने जैसे ही लिफाफा खोला वह खुशी से उछल पड़ी और जोर से आवाज लगा कर मां को बुलाने लगी.

मां गायत्री ने कमरे में प्रवेश करते हुए घबरा कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘मां, आप की बेटी बैंक में अफसर बन गई. यह देखो, मेरा नियुक्तिपत्र आया है,’’ और इसी के साथ वसुंधरा मां से लिपट गई.

‘‘क्या…’’ कहने के साथ गायत्री का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.

‘‘मां, मैं न कहती थी कि मैं एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखाऊंगी. बस, आप मुझे सहयोग दो. देखो, मां, आज वह दिन आ गया,’’ वसुंधरा भावुक हो कर बोली.

मां की आंखों से खुशी के छलकते आंसू पोंछते हुए उस ने गले में चुन्नी डाली और बैग उठाते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ममता मैडम के घर जा रही हूं, उन्हें अपना नियुक्तिपत्र दिखाने. मैडम कालिज से अब वापस आ चुकी होंगी.’’

वसुंधरा का बस चलता तो वह उड़ कर ममता मैडम के पास चली जाती, जो बी.एससी. में पहले साल से ले कर तीसरे साल तक उस को फिजिक्स पढ़ाती रहीं और उस का मार्गदर्शन भी करती रहीं. आज खुशी का यह दिन उन के मार्गदर्शन का ही नतीजा है.

वसुंधरा को याद हैं अतीत के वे दिन जब प्राइमरी स्कूल के अध्यापक और 4 बेटियों के पिता दीनानाथ को अपनी बेटी वसुंधरा का सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आना भी कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा था. उन्होंने हड़बड़ाहट में उस का विवाह वहां तय कर दिया जहां के बारे में वसुंधरा कभी सोच भी नहीं सकती थी. वह भी उस समय जब वह बी.एससी. द्वितीय वर्ष में थी.

राजू उस की सहेली मंजू की मौसी का लड़का था. मंजू ने उस के बारे में सबकुछ बता दिया था. अपार संपत्ति ने राजू को गैरजिम्मेदार ही नहीं विवेकहीन भी बना दिया था. कोई ऐसा व्यसन न था जिस का वह आदी न हो. बड़ों का सम्मान करना तो वह जानता ही न था.

वसुंधरा को यह जान कर घोर आश्चर्य और दुख हुआ कि राजू के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी उस के पिता वहां उस के रिश्ते की बात चला रहे हैं.

‘पिताजी, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और उस लड़के से तो हरगिज नहीं जिस से आप मेरा रिश्ता करना चाहते हैं,’ वसुंधरा ने पिता से स्पष्ट शब्दों में अपने विचार रखते हुए कहा.

‘तुम कौन होती हो यह फैसला लेने वाली? मैं पिता हूं और यह मेरा अधिकार व जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हारा विवाह समय से कर दूं,’ दीनानाथ गरजते हुए बोले.

‘पिताजी, मैं अभी पढ़ना चाहती हूं, जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं,’ वसुंधरा गिड़गिड़ाते हुए बोली.

‘तुम्हारी 3 बहनें और भी हैं. मुझे उन के बारे में भी सोचना है.’

‘वसु, तू तो हमारी स्थिति जानती है बेटी, वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार है, फिर उन्होंने खुद ही तेरा हाथ मांगा है. तू खुद सोच, हम कैसे मना कर दें,’ मां ने वसुंधरा को प्यार से समझाते हुए कहा.

‘अरे, जवानी में थोड़ी नासमझी तो सभी दिखाते हैं लेकिन परिवार की जिम्मेदारी पड़ते ही सब ठीक हो जाते हैं,’ दीनानाथ ने लड़के का बचाव करते हुए कहा.

‘पिताजी, वह  खुद अपनी जिम्मे- दारी उठाने के काबिल तो है नहीं, फिर परिवार की जिम्मेदारी क्या उठाएगा?’ वसुंधरा ने आवेश में आ कर कहा.

‘खामोश…अपने पिता से बात करने की तमीज भी भूल गई. मैं ने फैसला ले लिया है, तुम्हारा विवाह वहीं होगा,’ दीनानाथ चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा समझ गई कि उस के विरोध का कोई फायदा नहीं है. वह सोचने लगी कि वादविवाद प्रतियोगिताओं में निर्णायकगण और अपार जन समूह को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से प्रभावित करने वाली लड़की आज अपने विचारों से अपने ही मातापिता को सहमत नहीं करा पा रही है.

घर पर उस के पिताजी ने सगाई की सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वसुंधरा का मन बहुत बेचैन रहने लगा. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

‘वसुंधरा, तुम्हारी फाइल पूरी हो गई?’ ममता मैडम ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘मैडम, बस थोड़ा सा काम रह गया है,’ वसुंधरा ने झेंपते हुए कहा.

‘क्या हो गया है तुम्हें आजकल? प्रैक्टिकल की डेट आने वाली है और अभी तक तुम्हारी फाइल पूरी नहीं हुई. अभी फाइल पूरी कर के स्टाफ रूम में ले आना,’ मैडम ने जातेजाते आदेश दिया.

वसुंधरा ने जल्दीजल्दी फाइल पूरी की और सीधे स्टाफरूम की ओर भागी. संयोग से ममता मैडम उस समय वहां पर अकेली बैठी फाइलें चेक कर रही थीं. जैसे ही वसुंधरा ने अपनी फाइल मैडम को दी उन्होंने उस की परेशानी को भांपते हुए कहा, ‘क्या बात है, वसुंधरा, आजकल तुम कुछ परेशान लग रही हो. टेस्ट में भी तुम्हारे नंबर अच्छे नहीं आए. तुम तो बहुत होशियार लड़की हो और हमें तुम से बहुत उम्मीदें हैं.’

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 1

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी.

लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी. बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

जाएं तो जाएं कहां : चार कैदियों का दर्द – भाग 1

वे चारों दिल्ली के तिहाड़ जेल में विचाराधीन कैदी थे. वे दिल्ली में ही पकड़े गए थे. चारों की उम्र 40 से 45 साल के आसपास थी. वे जानते थे कि कुछ समय बाद उन को अपने इलाके के जेलों में भेज दिया जाएगा. पुलिस के मुताबिक, उन्होंने अपराध किए थे. विचाराधीन कैदियों से काम करवाने का कोई कानून नहीं था, लेकिन कानून उस का जिस के हाथ में ताकत. हर बैरक का एक इंचार्ज होता है, जिसे जेल की भाषा में वार्डन कहते हैं. जेल में आते ही कैदियों से उन के बारे में जान लिया जाता है कि वे क्या काम कर सकते हैं. वे चारों बहुत तगड़े नहीं थे. उन से पानी भरवाने या साफसफाई का मेहनत वाला काम नहीं लिया जा सकता था. उन से पूछा गया कि वे क्या काम कर सकते हैं  उन्होंने कुछ नहीं कहा. वे चुप ही रहे.

जेल में 5 सौ लोगों के लिए दोनों वक्त का भोजन, दलिया, चाय बनाना होता है. इस के लिए रसोई में काम करने वालों को सुबह 4 बजे उठना पड़ता है. उन्हें एक अलग बैरक दे दिया जाता है, जिस में रसोई में काम करने वाले कैदी रहते हैं.

लेकिन रसोई में काम करने का एक फायदा यह भी था कि उन्हें 100-150 आदमियों के बीच जानवरों की तरह रहने की जरूरत नहीं थी, न ही बारबार की मारपिटाई, बेइज्जती की चिंता थी और न ही गुंडेटाइप लोगों की सेवा करने की जरूरत पड़ती थी. जेल के वार्ड सुबह 7 बजे खुलते थे. जिन कैदियों की जेल में सत्ता थी, पकड़ थी, वे अपना चायनाश्ता ले कर रसोई में आ जाते और रसोइए बड़ीबड़ी भट्ठियों में किनारे की थोड़ी सी जगह उन के लिए छोड़ देते. रसोई में काम करने वाले पुराने कैदी रिहा हो चुके थे या दूसरे जेलों में ट्रांसफर हो चुके थे. शुरू में आए कैदियों को जेल के दूसरे कैदी और जेल प्रशासन उसी नजर से देखता है, जो केस पुलिस ने बताया है. धीरेधीरे उन के तौरतरीकों से समझ आता है कि वे आदतन अपराधी नहीं हैं. अपराध या तो गुस्से में आ कर जोश में हुआ है या पुलिस ने झूठे केस में फंसाया है.

शुरूशुरू में उन चारों पर बड़ी सख्ती होती. उन पर निगरानी रखी जाती. उन के साथ वही होता, जो नए कैदी के साथ होता है. गालीगलौज, मारपीट. बड़े अपराधियों द्वारा अपने निजी काम कराना. बैरक की साफसफाई से ले कर झाड़ू लगाना. सीनियर कैदियों के कपड़े धोना. उन की हर तरह से सेवा करना. जब बैरक नंबर एक का कैदी अनुपम परेशान हो गया, तो उस ने हिम्मत कर के हवलदार से कहा, ‘‘साहब, ऐसे तो मैं मर जाऊंगा. आप कुछ कीजिए.’’ अनुपम ने जिस हवलदार से कहा, वह उसी की जाति का था. हवलदार ने कहा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं  यह जेल है, घर नहीं. यहां तो यह सब होता ही है.’’ अनुपम की बारबार की गुजारिश से पसीज कर हवलदार ने कहा, ‘‘रसोई का काम ले लो. काम ज्यादा है, लेकिन बाकी मुसीबतों से बच जाओगे.’’

यह सुनते ही अनुपम मान गया. बैरक नंबर 2 में बंद बिशनलाल को खाना बनाना आता था. जब यह बात जेलर को पता चली, तो उसे बुला कर पूछा, ‘‘रसोई में काम कर सकते हो ’’

बिशनलाल ने तुरंत हां कर दी. बैरक नंबर 3 में चांद मोहम्मद और राकेश थे. वे भी दबंग कैदियों की सेवा से थक चुके थे. उन्होंने गार्ड मोहम्मद आसिफ से अपनी तकलीफ कही. गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा, ‘‘मैं साहब से बात कर के रसोईघर में रखवा सकता हूं, लेकिन कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए. मन लगा कर ईमानदारी से काम करना.’’ उन दोनों ने हामी भर दी. गार्ड मोहम्मद आसिफ ने जेलर से उन को रसोईघर में काम पर रखने के लिए कहा. जेलर ने यह कह कर मना कर दिया कि ये तो संगीन और बड़े अपराध में आते हैं. अगर कहीं उन्होंने भागने की कोशिश की या कुछ और गड़बड़ की, तो जेल प्रशासन मुसीबत में आ जाएगा.

गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा कि ये 2 साल से बंद हैं. इन का कोई भी नहीं है. इतने समय में आदमी की पहचान हो जाती है. दोनों बहुत ही सीधे हैं.

जेलर ने अपनी बात रखते हुए कहा, ‘‘लेकिन, विचाराधीन कैदियों को काम देना नियम के खिलाफ है.’’

इस पर गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा, ‘‘साहब, यहां कौन से काम नियम से होते हैं. जेल में गांजा बिकता है. बड़े विचाराधीन कैदियों के पास मोबाइल फोन हैं. हथियार हैं. उन का खानापीना अलग बनता है. वे सब कौन से नियम का पालन करते हैं या हम उन से करवा सकते हैं.

‘‘उन की मुलाकात जब चाहे तब होती है. वे जब तक चाहें, तब तक मिल सकते हैं. उन के पास बाहर से हफ्ता आता है. हम उन पर रोक नहीं लगा सकते.

‘‘और फिर, इन का तो अपराध भी साबित नहीं हुआ है. पहली बार जेल आए हैं. न ही इन की कोई जमानत कराने वाला है, न ही कोई मिलने आने वाला. अनुपम और बिशनलाल भी तो बड़े अपराध में बंद हैं. वे भी रसोई में काम कर रहे हैं.’’

जेलर ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘ठीक है.’’

इस तरह उन चारों को रसोई वाला छोटा सा बैरक मिल गया, जो उन के लिए सुकून की जगह थी.

वे सुबह 4 बजे उठते. जेल का गार्ड आ कर उन के बैरक का ताला खोलता, उन्हें बाहर निकालता. वे रसोई में चाय और दलिया बनाना शुरू कर देते.

इस बीच जेल के गार्डों के लिए और साथ में खुद के लिए अच्छी चाय बनाते. गार्ड अपनी ड्यूटी करते और वे चारों मिलजुल कर जेल में बंद 5 सौ कैदियों के लिए जेलछाप चाय बनाते.

जेलछाप चाय मतलब बहुत बड़े बरतन में 5 सौ लोगों के लिए चाय, जिस में शक्कर भी कम, चायपत्ती भी कम और दूध भी कम.

कैदियों के हिस्से की शक्कर, चायपत्ती, दूध वगैरह जेलर, सुपरिंटैंडैंट व उपजेलर के घर पहुंचते थे. इस का कोई विरोध नहीं करता था. यह नियम सा बन गया था. एक लिटर वाले 5 पैकेट दूध में 500 लोगों की चाय. बाकी 45 पैकेट दूध जेल प्रशासन के पास जाता.

जेल में सामग्री सप्लाई करने वाले ठेकेदार और जेल सुपरिंटैंडैंट, जेलर के बीच सब तय हो जाता था. अंदर जो आता, वही कैदियों के हिस्से का माना जाता.

साथ काम करतेकरते उन चारों में अपनापन हुआ, जुड़ाव हुआ. उन्होंने एकदूसरे के बारे में पूछना शुरू किया.

उन चारों प्रमुख रसोइयों के अलावा उन के जूनियर भी थे, जो रहते थे मुख्य बैरकों में, लेकिन सुबह 7 बजे बैरक खुलने के बाद वे मुख्य रसोइयों द्वारा बनाई गई चाय व दलिया 2 बड़ेबड़े बरतनों में ले कर सब को बांटते थे.

दोपहर के 12 बजे तक खाना बंटने के बाद वे चारों अपने छोटे से बैरक में आ कर अपने लिए बनाया स्वादिष्ठ भोजन करते. इस बीच गिनती के साथ सभी बैरक बंद हो जाते.

वे चारों भी अपने बैरक में आराम करते. फिर शाम की चाय बनाते. फिर 6 बजे तक खाना बनता और बंटता. बांटने वाले अलग थे. चारों अपने लिए बनाया खाना ले कर अपने बैरक में आते.

शाम 6 से साढ़े 6 बजे के बीच फिर से सभी कैदियों की गिनती होती. गार्ड बाहर से ताला लगाते और कैदी बैरक के अंदर खाना खाते, टैलीविजन देखते और सेवा करने वाले गरीब, कमजोर हाथपैर दबाते हुए अमीर, ताकतवर कैदियों से बदले में बीड़ीतंबाकू इनाम के तौर पर पाते, फिर सो जाते.

टैलीविजन में सिर्फ दूरदर्शन आता, बाकी के चैनल नहीं. कुछ बैरकों में रंगीन टैलीविजन, कुछ में ब्लैक ऐंड ह्वाइट. जो सब के लिए खाना बनाते, उन्हें इतना हक खुद ब खुद मिला हुआ था कि वे अपने लिए अच्छी रोटी और तड़का लगी दाल और अच्छी सब्जी बना सकते थे.

ताकतवर कैदी भी अपने लिए ये साधन जुटा लेते. बाकियों का भोजन ऐसा था कि दाल में दाल के दाने ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते थे. रोटियां कच्ची या जली हुई होतीं.

वे चारों रसोई के बैरक में थे. सिपाही बैरक का ताला लगा कर अपनी ड्यूटी पर तैनात था. शाम के 7 बज चुके थे. चारों ने मिल कर खाना खाया.

चांद मोहम्मद ने बिशनलाल से पूछा, ‘‘तुम्हारी जमानत का क्या हुआ ’’

‘‘खारिज हो गई है…’’ बिशनलाल ने उदास लहजे में कहा.

अनुपम ने बीच में कहा, ‘‘जुर्म भी तो बड़ा है.’’

‘‘मैं बेकुसूर हूं,’’  बिशनलाल ने विरोध में कहा.

‘‘हर कुसूरवार जेल में आ कर यही कहता है, ‘‘अनुपम ने ताना कसा.

‘‘तो तुम मानते हो कि तुम ने गुनाह किया है ’’ राकेश ने अनुपम से पूछा.

‘‘मेरे कहने या न कहने से क्या होता है. एक बार पुलिस ने जो केस बना दिया, लग गया वही ठप्पा. मैं बेकुसूर हूं, इस बात को कौन मानेगा ’’

‘‘तुम फंसे कैसे इस चक्कर में  लगता तो नहीं…’’ राकेश ने पूछा.

‘‘सुनने में दिलचस्प है न मेरी कहानी ’’ अनुपम ने कहा.

‘‘सुनाओ, एकदूसरे की सुन कर मन भी हलका होगा और समय भी कटेगा,’’ चांद मोहम्मद ने कहा.

अनुपम उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हुए समय को पीछे की ओर खींच ले गया.

‘‘मैं कश्मीरी ब्राह्मण हूं. जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में अपने परिवार के साथ मैं भी जन्नत की सी जिंदगी जी रहा था. खूबसूरत बीवी. 2 प्यारी बेटियां. बैंक की नौकरी. अपना घर.

‘‘मेरी बीवी मनोरमा घरेलू औरत थी. बेटियां पलक और अलका 10वीं और 11वीं जमात में पढ़ रही थीं. जिंदगी बड़े आराम से गुजर रही थी.

‘‘आतंकवाद ने फिर से दस्तक दी. हमें लगा कि आतंक का एक दौर गुजर चुका है. कई बेकुसूर मारे जा चुके थे. आतंकवादी मारे जा चुके थे या सरैंडर कर चुके थे. चारों ओर सैनिकों के कदमों की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन हम जैसे मिडिल क्लास लोग सुकून महसूस कर रहे थे.

‘‘हमें लगा कि सेना है, तो हम महफूज हैं, लेकिन कुदरत का नियम हर जगह लागू होता है. हर कमजोर भोजन होता है ताकतवर का.

‘‘रात का वक्त था. अचानक घर की पिछली दीवार से किसी के कूदने की आवाज सुनाई दी. मैं पीछे देखने के लिए गया. सामने का नजारा देख कर मेरी रूह कांप गई.

‘‘मैं दरवाजा बंद करने के लिए तेजी से मुड़ा कि आवाज आई, ‘अपनी जगह से हिले तो गोली चला दूंगा.’

‘‘वे 3 थे. तीनों की एके 47 मेरी तरफ ही तनी हुई थी.

‘‘मेरे हलक से बड़ी मुश्किल से आवाज निकली, ‘क्या…चाहिए ’

‘‘उन में से एक ने कहा, ‘हमें आज रात आसरा चाहिए. कल सुबह हम चले जाएंगे. लेकिन अगर तुम ने कोई हरकत की, तो गोली मार दूंगा.’

‘‘इस के बाद वे मुझे धकेलते हुए मेरे ही घर के अंदर ले गए और वहां जा कर एक आतंकवादी ने कहा, ‘कौनकौन हैं घर में  सब सामने आओ.’

‘‘मेरी पत्नी समझदार थी. उस ने दोनों बेटियों को दूसरे कमरे में अलमारी के पीछे छिपा दिया.

‘‘पत्नी सामने आई. उस ने कहा, ‘हम दोनों ही हैं. बेटियां अपने मामा के घर गई हुई हैं.’

‘‘उन्होंने घर की तलाशी ली. इस के बाद वे निश्चिंत हुए. उन में से एक ने कहा, ‘हमें भूख लगी है. खाना चाहिए.’

‘‘पत्नी ने डरते हुए कहा, ‘अभी बनाती हूं.’

‘‘पत्नी खाना बनाने लगी. वे चारों टैलीविजन देखने लगे. मुझे उन्होंने अपने बीच बिठा लिया और एक ने कहा, ‘डरो मत. हम सुबह चले जाएंगे. पर तुम कोई बेवकूफी मत करना, नहीं तो…’

‘‘मैं समझ गया था उन की धमकी. उन के पास शराब की बोतल थी. उन्होंने मुझे गिलास लाने का इशारा किया.

‘‘मैं रसोईघर में गया. उन में से एक अपनी एके 47 के साथ मेरे पीछेपीछे आया.

‘‘मैं रसोईघर से कांच के 3 गिलास लाया. तब तक खाना बन चुका था. मेरी पत्नी ने उन्हें खाना परोसा. वे खाना खाते रहे, शराब पीते रहे. खाना खाने के बाद उन्होंने बाकी शराब भी खत्म की.

‘‘उन में से एक ने कहा, ‘हमें औरत चाहिए.’ ‘‘यह सुन कर मैं सकते में था और मेरी पत्नी दहशत में. ‘‘एक आतंकवादी ने मुझे कुरसी पर जबरदस्ती बिठा कर अपनी एके 47 मेरे सिर पर लगा दी. दूसरे ने मेरी पत्नी से कहा, ‘हम बहुत दिनों से भटक रहे हैं. कल सुबह चले जाएंगे. अपनी और अपने पति की सलामती चाहती हो, तो हमें अपनी मनमानी करने दो. आवाज निकली, तो समझो कि तुम दोनों की लाशें बिछीं.’ ‘‘बाकी 2 मेरी पत्नी के साथ बारीबारी से बलात्कार करते रहे. ‘‘जब दोनों मनमानी कर चुके, तो तीसरा मेरी पत्नी के पास पहुंचा. पहले ने मुझ पर एके 47 तान दी. रात के 12 बजे से 4 बजे तक वे बारीबारी से मेरी पत्नी के साथ बलात्कार करते रहे और मैं सिर झुकाए बैठा रहा.

‘‘हमें चिंता अपनी बेटियों की थी. विरोध करने पर हमारे साथ कुछ होता, तो  दोनों बाहर आ जातीं. ‘‘सुबह के 4 बजे वे निकल गए. हमें हमारे ही घर में लाश की तरह बना कर. बस तसल्ली थी तो इतनी कि बेटियों की आबरू बची रही.

‘‘सुबह के 8 बजे थे. टैलीविजन पर खबर आई कि सुबह 5 बजे सेना ने मुठभेड़ में 2 आतंकी मार गिराए. तीसरा पकड़ा गया. उस आतंकी ने बताया कि वे रात में एक घर में पनाह लिए हुए थे.

‘‘खबर सुन कर पत्नी ने घबरा कर कहा, ‘मैं बेटियों को ले कर अपने भाई के घर जा रही हूं. यहां कभी भी पुलिस आ सकती है. आप तुरंत किसी वकील के पास जाइए, नहीं तो आतंकियों को पनाह देने के जुर्म में पता नहीं हमें क्याक्या भुगतना पड़े ’

‘‘पत्नी रोते हुए बच्चों को ले कर घर से निकल गई. मैं वकील के घर पहुंचा. ‘‘वकील ने गुस्से में कहा, ‘अपने साथ क्या हमें भी मरवाओगे  यहां कोई नहीं सुनेगा. तुम दिल्ली जा कर किसी वकील से मिलो.’

‘‘उस ने मुझे फौरन घर से बाहर कर दिया. मैं छिपतेछिपाते दिल्ली पहुंचा, पर गिरफ्तार कर लिया गया.

‘‘मैं जितनी बार खुद को बेकुसूर कहता, उतनी ही बार मुझ पर कानून की थर्ड डिगरी चलती. मैं ने पुलिस के दिए कागजों पर दस्तखत कर दिए. तब से  यहां 2 साल हो गए.’’

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