वेटिंग रूम- भाग 6: सिद्धार्थ और जानकी की छोटी सी मुलाकात के बाद क्या नया मोड़ आया?

Writer- जागृति भागवत 

सिद्धार्थ जानकी को होटल छोड़ कर घर चला गया. मन काफी भारी था और उदास भी. घर पहुंचा तो मां ने पूछा, लेकिन सिद्धार्थ ने बताया कि उस ने एक दोस्त के साथ बाहर खाना खा लिया है. सिद्धार्थ के चेहरे की उदासी उस के मन की जबान बन रही थी. मां ने उस से पूछा, ‘‘कौन दोस्त था तेरा?’’ सिद्धार्थ ने इस प्रश्न की कल्पना नहीं की थी. वह बस बोल गया, ‘‘मौम, आप नहीं जानतीं उसे,’’ और सिद्धार्थ अपने कमरे में चला गया. मां का शक पक्का हो गया कि सिद्धार्थ कुछ छिपा रहा है उस से. वे सिद्धार्थ के कमरे में गईं और पूछा, ‘‘आज तू पापा के साथ औफिस क्यों नहीं गया, इसी दोस्त के लिए?’’

सिद्धार्थ समझ नहीं पा रहा था कि मां इतना खोद कर क्यों पूछ रही हैं. वह बोला, ‘‘हां मौम, वह बाहर से आया है न, इसलिए उस का थोड़ा अरेंजमैंट देखना था.’’ 

‘‘तो क्या हो गया अरेंजमैंट?’’

‘‘अभी नहीं, मौम,’’ सिद्धार्थ बात को खत्म करने के लहजे में बोला. लेकिन मां तो आज ठान कर बैठी थीं कि सिद्धार्थ से आज सब जान कर रहेंगी.

‘‘फिर तू उसे घर क्यों नहीं ले आया? जब तक उस का कोई और इंतजाम नहीं हो जाता, वह हमारे साथ रह लेता,’’ मां ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मौम, उसे हैजिटेशन हो रहा था, इसलिए नहीं आया,’’ सिद्धार्थ बात को जितना समेटने की कोशिश कर रहा था, मां उसे और ज्यादा खींच रही थीं.

‘‘अच्छा यह बता, पिछले 10-12 दिन से तो तू बहुत खुशखुश लग रहा था, आज सुबह दोस्त से मिलने गया तब भी बड़ा खुश था, अब अचानक इतना गुमसुम क्यों हो गया है. सच बताना, मैं मां हूं तेरी मुझ से कुछ मत छिपा, कोई समस्या हो तोबता, शायद मैं मदद कर सकूं,’’ कह कर अब तो मां ने जैसे मोरचा ही खोल दिया था. अब सिद्धार्थ के लिए बात को छिपाना मुश्किल लग रहा था. इतने कम समय में उस ने जानकी को बहुत अच्छी तरह से पहचान लिया था लेकिन इतना बड़ा फैसला लेने में घबरा रहा था. इस बारे में मां और पिताजी को समझाना उसे काफी मुश्किल लग रहा था. सब से बड़ी बात है कि जानकी अनाथालय में पलीबढ़ी थी. जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए लेकिन ऐसे समय सभी खानदान और कुल जैसे भंवर में फंस जाते हैं. वह उच्च और रईस घराने से था, ऐसे में एक ऐसी लड़की जिस के न मातापिता का पता है न खानदान का. अनाथालय में पलीबढ़ी एक लड़की के चरित्र पर भी लोग संदेह करते हैं. ऐसे में वह क्या करे क्या न करे, फैसला नहीं ले पा रहा था.

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दूसरी तरफ उसे जानकी की चिंता सता रही थी. जब तक उस के रहने की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उसे होटल में ही रुकना पड़ेगा जो उस के लिए बहुत खर्चीला होगा. वह कहां से लाएगी इतना पैसा? आखिर उस ने मां को सबकुछ बताने का फैसला किया. ‘‘मौम, आप बैठिए प्लीज, मुझे आप से कुछ बातें करनी हैं,’’ और उस ने मनमाड़ रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय से ले कर आज तक की सारी बातें मां को बता दीं. सबकुछ सुनने के बाद मां कुछ देर चुप रहीं फिर बोलीं, ‘‘देखते हैं बेटा, कुछ करते हैं,’’ और उठ कर चली गईं.

अब सिद्धार्थ पहले से अधिक बेचैन हो गया. बारबार सोचता कि उस ने सही किया या गलत? फिर रात को पापा आए. सब ने साथ खाना खाया. खाने की टेबल पर पापा और सिद्धार्थ की थोड़ीबहुत बातें हुईं. पापा ने भी अनजाने में उस से पूछ लिया, ‘‘बेटा, तेरा वह दोस्त आया कि नहीं?’’

‘‘आया न पापा,’’ सिद्धार्थ ने मां की ओर देखते हुए कहा.

‘‘फिर उसे ले कर घर क्यों नहीं आया,’’ वही मां वाले सवाल पापा दुहराए जा रहे थे.

‘‘पापा, बाद में आएगा,’’ कह कर सिद्धार्थ ने बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई. खाना खा कर तीनों सोने चले गए. अगले दिन शाम को लगभग 4:30 बजे पिताजी ने औफिस में सिद्धार्थ को अपने कक्ष में बुला कर कहा, ‘‘तुम्हारी मौम का फोन था, वह आ रही हैं अभी, तुम्हारे साथ कहीं जाना है उन्हें. तुम अपना काम वाइंडअप कर लो.’’

कई वर्षों बाद ऐसा होगा जब सिद्धार्थ अपनी मौम के साथ कहीं जा रहा हो, वरना अब तक तो मां के साथ पिताजी ही जाते थे और सिद्धार्थ अपने दोस्तों के साथ. अचानक मां को उस के साथ कहां जाना है, वह समझ नहीं पा रहा था.

‘‘जी पापा,’’ इतना कह कर वह अपने कक्ष में आ गया. मां के आने तक सिद्धार्थ बेचैनी से घिरा जा रहा था. मां आईं और सिद्धार्थ उन के साथ गाड़ी में जा बैठा और पूछा, ‘‘मौम, कहां जाना है?’’

मां ने गंभीरता से पूछा, ‘‘जानकी किस होटल में रुकी है?’’ सिद्धार्थ अवाक् रह गया. बस, इतना ही मुंह से निकल पाया, ‘‘होटल शिवाजी पैलेस.’’

‘‘तो चलो,’’ मां बोलीं.

होटल पहुंच कर सिद्धार्थ ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मौम, वह मेरी भावनाओं से अनजान है.’’

‘‘मैं जानती हूं.’’

रिसैप्शन पर कमरा नंबर पता कर के दोनों उस के कमरे के बाहर पहुंचे. दरवाजे पर सिद्धार्थ आगे खड़ा था. दरवाजा खुलते ही जानकी बोली, ‘‘आप? अचानक?’’ ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी?’’ सिद्धार्थ ने स्वयं ही पहल की. लेकिन जानकी थोड़ा असमंजस में पड़ गई कि उसे अंदर आने के लिए कहे या नहीं. तभी सिद्धार्थ की मां सामने आईं और बोलीं, ‘‘मुझे तो अंदर आने दोगी?’’

‘‘मेरी मौम,’’ सिद्धार्थ ने मां से जानकी का परिचय करवाया.

जानकी ने दोनों को अंदर बुलाया. सिद्धार्थ और जानकी खामोश थे. खामोशी को तोड़ते हुए मां ने वार्त्तालाप शुरू की, ‘‘जानकी बेटा, मुझे सिद्धार्थ ने तुम्हारे बारे में बताया, लेकिन हमारे रहते तुम यहां होटल में रहो, यह हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. तुम सिद्धार्थ के कहने पर नहीं आईं, मैं समझ सकती हूं, अब मैं तुम्हें लेने आई हूं, अब तो तुम्हें चलना ही पड़ेगा.’’ सिद्धार्थ की मां ने इतने स्नेह और अधिकार के साथ यह सब कहा कि जानकी के लिए मना करना मुश्किल हो गया. फिर भी वह संकोचवश मना करती रही. लेकिन मां के आग्रह को टाल नहीं सकी. मां ने सिद्धार्थ से कहा, ‘‘सिद्धार्थ, नीचे रिसैप्शन पर जा कर बता दे कि जानकी होटल छोड़ रही हैं और बिल सैटल कर के आना.’’ जानकी को यह सब काफी अजीब लग रहा था. उस ने बिल के पैसे देने चाहे लेकिन सिद्धार्थ की मां बोलीं, ‘‘यह हिसाब करने का समय नहीं है, तुम अपना सामान पैक करो, बाकी सब सिद्धार्थ कर लेगा.’’

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सामान बांध कर जानकी सिद्धार्थ के घर चली गई. सिद्धार्थ की मां ने आउटहाउस को दिन में साफ करवा दिया था. जानकी रात को पिताजी से भी मिली. पहली बार उस ने मातापिता के स्नेह से सराबोर घर को देखा था. जानकी बहुत भावुक हो गई. अगले दिन से उस ने कालेज जाना शुरू कर दिया. साथ ही साथ रहने की व्यवस्था पर गंभीरता से खोज करने लगी. एक हफ्ते में सिद्धार्थ ने ही एक वर्किंग वूमन होस्टल ढूंढ़ा. जानकी को भी पसंद आया. सिद्धार्थ के पिताजी की पहचान से जानकी की अच्छी व्यवस्था हो गई. रविवार के दिन वह होस्टल जाने वाली थी. इस एक हफ्ते में सिद्धार्थ के मातापिता को जानकी को समझनेपरखने का अच्छा मौका मिल गया. अपने बेटे के लिए इतनी शालीन और सभ्य लड़की तो वे खुद भी नहीं खोज पाते. शनिवार की रात सब लोग एक पांचसितारा होटल में खाना खाने गए. पहले से तय किए अनुसार सिद्धार्थ के पिताजी सिद्धार्थ के साथ बिलियर्ड खेलने चले गए. अब टेबल पर सिर्फ सिद्धार्थ की मां और जानकी ही थे. अब तक जानकी उन से काफी घुलमिल गई थी. इधरउधर की बातें करतेकरते अचानक मां ने जानकी से पूछा, ‘‘जानकी, तुम्हें सिद्धार्थ कैसा लगता है?’’

अब तक जानकी के मन में सिद्धार्थ की तरफ आकर्षण जाग चुका था लेकिन सिद्धार्थ की मां से ऐसे प्रश्न की उसे अपेक्षा नहीं थी. सकुचाते हुए जानकी ने पूछा, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘इस के 2 मतलब थोड़े ही हैं, मैं ने पूछा तुम्हें सिद्धार्थ कैसा लगता है? अच्छा या बुरा?’’ मां शरारतभरी मुसकान बिखेरते हुए बोलीं.

अब जानकी को कोई कूटनीतिक उत्तर सोचना था, वह चालाकी से बोली, ‘‘आप जैसे मातापिता का बेटा है, बुरा कैसे हो सकता है आंटी.’’

‘‘फिर शादी करना चाहोगी उस से?’’ मां ने बेधड़क पूछ लिया. आमतौर पर लड़की के सामने शादी का प्रस्ताव लड़का रखता है लेकिन यहां मां रख रही थी.

जवाब में जानकी खामोश रही. सिद्धार्थ की मां ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, मैं जानती हूं कि तुम क्या सोच रही हो. रुपया, पैसा, दौलत, शोहरत एक बार चली जाए तो दोबारा आ सकती है लेकिन, रिश्ते एक बार टूट जाएं तो फिर नहीं जुड़ते, प्यार एक बार बिखर जाए तो फिर समेटा नहीं जाता और मूल्यों से एक बार इंसान भटक जाए तो फिर वापस नहीं आता. लेकिन तुम्हारी वजह से यह सब संभव हुआ है. यों कहो कि तुम ने यह सब मुमकिन किया है.‘‘सिद्धार्थ हमारा इकलौता बेटा है. पता नहीं हमारे लाड़प्यार की वजह से या कोई और कारण था, हम अपने बेटे को लगभग खो चुके थे. सिद्धार्थ के पिताजी को दिनरात यही चिंता रहती थी कि उन के जमेजमाए बिजनैस का क्या होगा? उस रात तुम से मिलने के बाद सिद्धार्थ में ऐसा बदलाव आया जिस की हम ने उम्मीद ही नहीं की थी. तुम ने चमत्कार कर दिया. तुम्हारी वजह से ही हमें हमारा बेटा वापस मिल गया. हम मातापिता हो कर अपने बच्चे को अच्छे संस्कार और मूल्य नहीं दे सके लेकिन तुम ने अनाथालय में पल कर भी वह सब गुण पा लिए. ‘‘जानकी बेटा, तुम्हारे दिल में सिद्धार्थ के लिए क्या है, मैं नहीं जानती, लेकिन वह तुम को बहुत पसंद करता है, साथ ही, मैं और सिद्धार्थ के पिताजी भी. अब बस एक ही इच्छा है कि तुम हमारे घर में बहू बन कर आओ. बोलो आओगी न?’’

जानकी झेंप गई और बस इतना ही बोल पाई, ‘‘आंटी, आप मानसी चाची से बात कर लें,’’ और जानकी का चेहरा शर्म से लाल हो गया. सिद्धार्थ के मातापिता की तय योजना के अनुसार, जिस में अब जानकी भी शामिल हो गई थी, उस के पिताजी उसे ले कर वापस आए. अब चारों साथ बैठे थे. अब चौंकने की बारी सिद्धार्थ की थी. मां ने वही सवाल अब सिद्धार्थ से पूछा, ‘‘बेटा, क्या तुम जानकी के साथ शादी करना चाहोगे?’’ सिद्धार्थ कुछ क्षणों के लिए तो सब की शक्लें देखता रहा, फिर शरमा कर उठ कर चला गया. सिद्धार्थ का यह एक नया रूप उस के मातापिता ने पहली बार देखा था.

पिताजी जानकी से बोले, ‘‘जाओ बेटा, उसे बुला कर ले आओ.’’ जानकी सिद्धार्थ के पास जा कर खड़ी हुई, दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा दिए. 2 माह बाद अनाथालय को दुलहन की तरह सजाया गया और जानकी वहां से विदा हो गई.

ये घर बहुत हसीन है- भाग 1: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

‘‘वान्या,आज से तुम ही संभालना घर और मेरे इस अनाड़ी से भाई को. अगर फ्लाइट्स बंद नहीं हो रही होतीं तो मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ बिता कर जाती. वैसे ठीक ही है हमारा जल्दी जाना. बच्चे दादादादी को खूब तंग कर रहे होंगे कोलकाता में. बहुत चाह रहे थे बच्चे अपनी दुल्हन मामी से मिलना. जल्दबाजी में सब कुछ नहीं करना पड़ता तो सब को ले कर आती.’’ सुरभि अपनी नईनवेली भाभी वान्या को टैक्सी में पीछे की सीट पर बैठे हुए बता रही थी. वान्या मुसकराते हुए सिर हिला कर कभी सुरभि को देखती तो कभी पास ही बैठे अपने पति आर्यन को. सुरभि का बोलना जारी था, ‘‘शादी चाहे जल्दबाजी में हुई, लेकिन सही फैसला है. अब मुझे आर्यन की फिक्र तो नहीं रहेगी. कोविड-19 ने तो ऐसा आतंक मचाया है कि डर लगने लगा है. तुम लोग भी ध्यान रखना अपना. हो सके तो अभी घर पर ही रहना, घूमने के लिए तो उम्र पड़ी है…’’

‘‘बसबस… रहने दो. टीचर है भाभी तुम्हारी और हमारे साले साहब आर्यन भी बेवकूफ थोड़े ही हैं कि जब इंडिया में भी कोरोना अपने पैर फैला रहा है तब बिना सोचेसमझे चल देंगे कहीं घूमने. क्यों साले साहब?’’ ड्राईवर के साथ आगे की सीट पर बैठे सुरभि के पति विशाल ने सिर पीछे घुमा कर आर्यन पर मुसकराती दृष्टि डालते हुए कहा.

वान्या और आर्यन का विवाह दो दिन पहले ही हुआ था. जुलाई में डेट थी शादी की, लेकिन कोरोना के कारण आर्यन ने ही फैसला किया था कि सादे समारोह में केवल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाह जल्दी से जल्दी हो जाए. वान्या का घर दिल्ली में था, इसलिए विवाह का आयोजन वहीं हुआ था. आर्यन हिमाचल प्रदेश के बड़ोग शहर का रहने वाला था. परिवार के नाम पर आर्यन की एक बड़ी बहन सुरभि थी, जो कोलकाता में अपने परिवार के साथ रहती थी. पति के साथ विवाह में सम्मिलित होने सुरभि वहां से सीधा दिल्ली पहुंच गई थी. आज वे दोनों वापस जा रहे थे, वान्या को ले कर आर्यन भी अपने घर आ रहा था. दीदीजीजू को एअरपोर्ट छोड़ने के बाद उन को रेलवे स्टेशन जाना था. दिल्ली से कालका तक वे ट्रेन से जाने वाले थे, जो रात 11 बजे चल कर सुबह 4 बजे कालका पहुंचती. वहां से टैक्सी द्वारा उन्हें आगे का सफर तय करना था.

‘‘लो बातोंबातों में पता ही नहीं लगा और एअरपोर्ट आ भी गया.’’ सुरभि के कहते ही टैक्सी रुक गई. आर्यन सामान उतारने लगा और विशाल दौड़ कर ट्रौली ले आया. सुरभि विशाल हाथ हिला कर एअरपोर्ट के गेट की और चल दिए.

आर्यन और वान्या को ले कर टैक्सी रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गई.

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ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चली. रात सोते हुए कब बीत गई पता ही नहीं लगा. सुबह वे ट्रेन से उतर कर बाहर आए तो वान्या को ठंडी हवा के झोंके स्वागत करते प्रतीत हुए. ‘‘मार्च में भी इतना ठंडा मौसम?’’ वान्या पूछ बैठी.

‘‘यह कोई ठंड है? अभी तो पहाड़ पर चढ़ना है मैडम. ठंड से आप की मुलाकात तो होनी बाकी है अभी.’’ आर्यन ठहाका लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘अरे, डर गईं? बड़ोग में इस समय सिर्फ रातें ठंडी होंगी, दिन में तो मौसम सुहाना ही होगा. तुम कभी हिली एरियाज में नहीं गईं इसलिए पता नहीं होगा.’’

टैक्सी आई तो दोनों की बातचीत का सिलसिला टूट गया. चलती टैक्सी में

वान्या उनींदी आंखों से बाहर झांक रही थी. भोर के नीरव अंधेरे में जलते बल्लों की मध्यम रोशनी से पेड़ भी ऊंघते हुए लग रहे थे. कुछ देर बाद सूर्य उदय हुआ तो खिलती धूप से ऊर्जा पा कर वातावरण में नवजीवन संचरित हो उठा.

परवाणु आने तक वान्या प्रकृति की सुंदरता को मन में कैद करती रही, आगे का रास्ता तन में झुरझुरी बढ़ाने लगा था. एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचेऊंचे पहाड़ों पर घने दरख्त.

धरमपुर आ कर ड्राईवर ने चाय पीने के लिए टैक्सी रोकी. हवा की ताजगी वान्या भीतर तक महसूस कर रही थी. सड़क किनारे बने ढाबे में जा कर आर्यन चाय ले आया. वान्या की निगाहें चारों ओर के मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती थीं. मौसम की खनक और आर्यन का साथ… वान्या के दिल में बरसों से छुप कर बैठे अरमान अंगड़ाई लेने लगे.

धरमपुर से बड़ोग अधिक दूर नहीं था. पाइनवुड होटल आया तो टैक्सी चौड़ी सड़क से निकल कर संकरे रास्ते पर चलती हुई एक घर के सामने रुक गई. बंगलेनुमा मकान देख वान्या ठगी सी रह गई. सफेद मार्बल से जड़ा उजला, धवल महल सा तन कर खड़ा मकान जैसे याद दिला रहा था कि वान्या अब हिमाचल प्रदेश में है. हिम का उज्जवल रंग आर्यन की तरह ही अब उस के जीवन का अभिन्न अंग बन जाएगा.

सामान निकाल कर आर्यन टैक्सी वाले का बिल चुका 2 सूटकेसों पर बैग्स रख पहियों के सहारे खींचता हुआ ला रहा था. वान्या भी अपना पर्स थामे कदम बढ़ाने लगी. पहाड़ में बनी चारपांच सीढि़यां चढ़ने पर वे गेट के सामने थे, जिसे किले का फाटक कहना उचित होगा. गेट के भीतर दोनों ओर मखमली घास कालीन सी बिछी थी. बंगले की ऊंची दीवारों के साथसाथ लगे लंबे पाइन के पेड़ सुंदरता में चारचांद लगा रहे थे.

आर्यन ने चाबी निकाल कर लकड़ी का नक्काशीदार भारीभरकम दरवाजा खोला और दोनों कमरे के भीतर दाखिल हो गए. कमरा क्या एक विशाल हौल था. लकड़ी के फर्श पर मोटा रंगबिरंगी आकृतियों के काम वाला तिब्बती कालीन बिछा था. बैठने के लिए सोफे के 3 सैट रखे थे. उन की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई राजसी शोभा लिए थी. सोफों से कुछ दूरी पर एक दीवान बिछा हुआ था. उसे देख कर वान्या को म्यूजियम में रखे शाही तख्त की याद आ गई. तख्त के एक ओर हाथीदांत की नक्काशी वाली लकड़ी की तिपाही पर नीली लंबी सुराही रखी थी. नीचे जमीन पर पीतल के गमले में सेब का बोनसाई किया पौधा लगा था, जिस में लाललाल नन्हें सेब ऐसे लग रहे थे जैसे क्रिसमस ट्री पर बौल्स सजाई गई हों.

‘‘सामान अंदर के कमरे में रख देते हैं… फिर मैं चाय बना लेती हूं, किचन कहां है?’’ वान्या समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बंगले में रसाई किस ओर होगी? उसे तो लग रहा था जैसे वह किसी महल में खड़ी है.

‘‘आउटहाउस से नरेंद्र आता ही होगा. वह लगा देगा सामान… उस की वाइफ प्रेमा किचन संभालती है, तुम फ्रैश हो जाओ बस.’’ कहते हुए आर्यन ने खिड़कियां खोल मोटे परदे हटा दिए. जाली से छन कर कमरे में आ रही धूप ठंडे मौसम में सुकून दे रही थी.

‘‘यहां घर अधिकतर ऐसे बने होते हैं कि ठंड का असर कम से कम हो. यह मकान मेरे परदादा ने बनवाया था, मोटीमोटी दीवारें हैं और फर्श लकड़ी से बने हैं. छत ढलुआं है ताकि बरसात और बर्फ बिलकुल न ठहरे.’’ आर्यन बता रहा था कि डोरबैल बज गई. नरेंद्र और प्रेमा आए थे. दोनों ने घर का काम शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब मैं नहा लेता हूं.’’ कह कर आर्यन चल दिया, वान्या भी उस के पीछेपीछे हो ली. कमरे से बाहर निकल लंबी गैलरी में नीले रंग के कारपेट पर चलते हुए पैरों की पदचाप खो गई थी. गैलरी के दोनों ओर कमरे दिख रहे थे. घर के बाकी कमरे भी बड़ेबड़े होंगे इस की वान्या ने कल्पना भी नहीं कि थी. एक कमरे में दाखिल हो आर्यन ने 10 फुट ऊंची महागनी की गोलाकार फ्रैंच स्टाइल में बनी अलमारी खोल कपड़े निकाले और बाथरूम में चला गया.

वान्या की आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं. चौड़ी सिंहासन नुमा कुरसी को देख वान्या का दिल चाह रहा था कि उस पर बैठ आंखें मूंद रास्ते की सारी थकान भूल जाए, लेकिन पहले नहाना जरूरी है सोचते हुए वापस ड्राइंगरूम में जा अपना सूटकेस खोल कपड़े देखने लगी.

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अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फोन उठा लिया. उस के हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा कहां हैं?’’ दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज है, सोचते हुए वान्या बोली, ‘‘किस से बात करनी है आप को? यह नंबर तो आप के पापा का नहीं है. दोबारा मिला कर देखो, बच्चे.

‘‘आर्यन पापा का नाम देख कर मिलाया था मैं ने… आप कौन हो?’’ बच्चा रुआंसा हो रहा था.

धुंधली सी इक याद- भाग 3: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

‘‘वैसे तो मुझे आप से बात कर के सब ठीक ही लगता है फिर भी राज आप अपने हारमोन लैवल की जांच के लिए टैस्ट करवा लें और टैस्ट रिपोर्ट मुझे दिखाएं.’’  राज की हारमोन रिपोर्ट में कोई कमी नहीं थी. वह शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ था. डाक्टर चकित थी कि आखिर ऐसा क्या है कि राज ईशा को इतना चाहता है फिर भी वह वैवाहिक सुख से वंचित है?  डाक्टर ने काफी सोचविचार कर कहा, ‘‘राज व ईशा तुम दोनों सैक्स काउंसलर के पास जाओ. मैं आप को रैफर कर देती हूं.’’  अगले ही दिन राज व ईशा सैक्स काउंसलर के पास पहुंचे. काउंसलर ने उन की समस्या को ध्यान से सुना और समझा. फिर दोनों से उन के रहनसहन और जीवनशैली के बारे में पूछा. राज व ईशा ने उन्हें जवाब में जो बताया उस के हिसाब से तो दोनों के बीच सब ठीक ही चल रहा है. राज को दफ्तर में भी कोई समस्या नहीं थी, बल्कि इन 8 सालों में उसे हाल ही में तीसरी प्रमोशन मिली थी. ‘तो फिर आखिर क्या है, जो चाहते हुए भी राज को सैक्स के समय असफल कर देता है?’ सोच काउंसलर ने राज से अकेले में बात करने की इच्छा जाहिर की. ईशा काउंसलर का इशारा समझ कमरे से बाहर चली गई. अब काउंसलर ने राज से उस की शादी से पहले की जीवनी पूछी. उस से उसे पता चला कि राज गोद लिया बच्चा है. और सब जो राज ने डाक्टर को बताया वह इस तरह था, ‘‘सर मेरे परिवार में मैं, मेरी बड़ी बहन और मेरे मातापिता थे. बहन मुझ से 10 साल बड़ी थी. उस की शादी मात्र 18 वर्ष में पापा के दोस्त के इकलौते बेटे से कर दी गई. मेरे पापा ने अपनी वसीयत का ज्यादा हिस्सा मेरे नाम और कुछ हिस्सा दीदी के नाम किया.

अचानक एक कार ऐक्सिडैंट में मम्मीपापा की मृत्यु हो गई.  उस समय मैं 8 वर्ष का था. दीदी के सिवा मेरा कोई न था. अत: दीदी अब मुझे अपने पास रखने लगी थी. जीजाजी को भी कोई ऐतराज न था. जीजाजी के मातापिता को पैसों का लालच आ गया. फिर धीरेधीरे जीजाजी भी उन की बातों में आ गए. वे रोजरोज दीदी से कहने लगे कि वह वसीयत के कागज उन्हें दे दे. लेकिन दीदी ने नहीं दिए. वे दीदी को रोज मारनेपीटने लगे. दीदी समझ गई थी कि मुझे खतरा है.  ‘‘दीदी की एक सहेली थी. उन की कोई संतान न थी. वे एक बच्चा गोद लेना चाहते थे. दीदी ने उन से बात की और मुझे गोद लेने को कहा. वे झट से राजी हो गए. दीदी ने मुझे गोद देने के कागज तैयार करवा लिए. जीजाजी का व्यवहार दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था. अब वे रोज शराब पी कर दीदी को मारनेपीटने लगे थे. मैं तब दीदी के पास ही रह रहा था.  ‘‘एक रात जीजाजी देर से आए. मैं उस वक्त दीदी के कमरे में था. जीजाजी बहुत ज्यादा शराब पीए थे. जीजाजी ने आते ही अंदर से कमरा बंद कर लिया और मुझे व दीदी को लातघूंसों से बहुत मारा. उस के बाद दीदी को बिस्तर पर पटक दिया और उस के साथ सैक्स किया. मैं उस वक्त 10 वर्ष का था. वह दृश्य बहुत डरावना था.  ‘‘मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और मुझे वहीं नींद आ गई. सुबह दीदी जिंदा नहीं थी. सिर्फ एक लाश थी. मुझे और तो कुछ खास याद नहीं कि उस के बाद क्या हुआ, हां उस के बाद मेरे वर्तमान मातापिता मुझे अपने घर ले आए. अब जब भी मैं ईशा से करीबियां बढ़ाना चाहता हूं, मेरी आंखों के सामने उस रात की डरावनी धुंधली सी वह याद आ जाती है.

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‘‘मुझे लगता है दीदी की तरह कहीं मैं ईशा को भी न खो दूं. मैं ईशा से कुछ कह भी नहीं पाता हूं. हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं. बस इसीलिए अपनेआप ही ईशा से दूर हो जाता हूं. यह सब अपनेआप होता है. मेरा अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहता और दीदी की लाश वहां दिखाई देती है.’’  राज की सारी बात सुन कर काउंसलर सब समझ गए कि क्यों चाह कर भी राज ईशा के साथ संबंध कायम करने में असफल रहता है. काउंसलर ने राज को घर जाने को कहा और अगले दिन आने को कहा. अगले दिन उन्होंने राज को प्यार से समझाया, ‘‘राज, तुम्हारी दीदी सैक्स के कारण नहीं मरीं, तुम्हारे जीजाजी ने उन्हें लातघूंसों से मारा. इस के कारण उन्हें कुछ अंदरूनी चोटें लगीं और वे उस दर्द को सहन नहीं कर पाईं और मौत हो गई.  ‘‘तुम ने दीदी को पिटते तो कई बार देखा था, लेकिन उस रात तुम ने जो दृश्य देखा वह पहली बार था और सुबह दीदी की लाश देखी तो तुम्हें ऐसा लगा कि दीदी सैक्स के कारण मर गई… आज इतने वर्षों बाद भी वह धुंधली सी याद तुम्हारे वैवाहिक जीवन को असफल कर रही है.’’  काउंसलर ने ईशा से भी इस बारे में बात की. उन्होंने राज के वर्तमान मातापिता को भी राज की स्थिति बताई. जब उन्हें हकीकत मालूम हुई तो उन्होंने राज की दीदी की मृत्यु की पोस्टमार्टम रिपोर्ट राज को दिखाई, जिस में साफ लिखा था कि राज की दीदी की जान दिमाग व पसलियों में चोट लगने से हुई थी और इसीलिए उस के जीजा को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

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अब सारी स्थिति राज के सामने थी. ईशा राज को उस पुरानी याद से दूर ले जाना  चाहती थी. अत: उस ने गोवा में होटल बुक किया और राज से वहां चलने का आग्रह किया. राज ने खुशीखुशी हामी भर दी.  ईशा वहां राज को उस की खूबियां बताते हुए कहने लगी, ‘‘राज तुम बहुत नेक और होशियार हो… तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गई हूं. मैं तुम्हारी हर हार व जीत में तुम्हारे साथ हूं.’’  ऐसी बातें कर वह राज का मनोबल बढ़ाना चाहती थी. फिर रात के समय जैसे ही राज उस के करीब आ कर उस के बालों को सहलाने लगा, तो वह कहने लगी, ‘‘आगे बढ़ो राज. जब तक तुम मेरे साथ हो मुझे कुछ नहीं होगा, हिम्मत  करो राज.’’

7 दिन बस इसी तरह गुजर गए. अब राज का आत्मविश्वास लौटने लगा था. उस धुंधली सी याद की हकीकत वह समझ चुका था. ईशा ने राज की मम्मी व काउंसलर को खुशी से फोन कर बताया, ‘‘हम सफल हुए.’’  हालांकि राज एक बार तो डर गया था… सैक्स में सफल होने के बाद वह काफी देर  तक ईशा को टकटकी लगाए देखता रहा. फिर कहने लगा, ‘‘दुनिया तो सिर्फ तुम्हारी ऊपरी खूबसूरती देखती है ईशा… तुम्हारा दिल कितना सुंदर है… 8 वर्षों में तुम ने मेरी असफलता को एक राज रखा और हर वक्त मुसकराती रहीं.  आज मैं सफल हूं तो सिर्फ तुम्हारे कारण. तुम  ने इतनी मेहनत की, इतना सहा, विवाहित हो  कर भी 8 वर्षों तक कुंआरी का जीवनयापन करती रहीं और चेहरे पर शिकन भी न आने दी. तुम्हारा दिल कितना सुंदर है ईशा. तुम से सुंदर कोई नहीं.’’

दोनों जब गोवा से लौटे तो उन के चेहरे पर कुछ अलग ही चमक थी. वह चमक थी विश्वास और प्यार की. राज की मां भी बहुत खुश थीं. 3 महीने बाद ईशा ने खुशखबरी दी कि वह मां बनने वाली है.  राज की मां उसे ढेरों आशीर्वाद देते हुए बोलीं, ‘‘मैं दुनिया की सब से खुशहाल सास हूं, जिसे तुम जैसी बहू मिली.’’

मेरा पति सिर्फ मेरा है- भाग 1: अनुषा ने अपने पति को टीना के चंगुल से कैसे निकाला?

सुबहबह के 6 बज गए थे. अनुषा नहाधो कर तैयार हो गई. ससुराल में उस का पहला दिन जो था वरना घर में क्या मजाल कि कभी सुबह 8 बजे से पहले उठी हो.

विदाई के समय मां ने समझाया, ‘‘बेटी, लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएं उन्हें अपने संस्कार और पत्नी धर्म कभी नहीं भूलना चाहिए. सुबह जल्दी उठ कर सिर पर पल्लू रख कर रोजाना सासससुर का आशीर्वाद लेना. कभी पति का साथ न छोड़ना. कैसी भी परिस्थिति आ जाए धैर्य न खोना और मुंह से कभी कटु वचन न निकालना.’’

‘‘जैसी आप की आज्ञा माताश्री…’’

जिस अंदाज में अनुषा ने कहा था उसे सुन कर विदाई के क्षणों में भी मां के चेहरे पर हंसी आ गई थी.

अनुषा ड्रैसिंग टेबल के आगे बैठी थी. बीती रात की रौनक उस के चेहरे पर लाली बन कर बिखरी हुई थी. भीगी जुल्फें संवारते हुए प्यारभरी नजरों से उस ने बेसुध भुवन की तरफ देखा.

भुवन से वैसे तो उस की अरेंज्ड मैरिज हुई थी, मगर सगाई और शादी के बीच के समय में वे कई दफा मिले थे. इसी दरमियान उस के दिल में भुवन के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. तभी तो शादी के समय उसे महसूस ही नहीं हुआ कि वह अरेंज्ड मैरिज कर किसी अजनबी को जीवनसाथी बना रही है. उसे लग रहा था जैसे लव मैरिज कर अपने प्रियतम के घर जा रही है.

बाल संवार सिर पर पल्लू रख कर अनुषा सीढि़यों से नीचे उतर आई. सासससुर बैठकरूम में सोफे पर बैठे अखबार पढ़ते हुए चाय की चुसकियों का आनंद ले रहे थे. अनुषा ने उन को अभिवादन किया और किचन में घुस गई. उस ने अपने हाथों से सुबह का नाश्ता तैयार कर खिलाया तो ससुर ने आशीषस्वरूप उसे 5 हजार रुपए नोट दिए. सास ने अपने गले से सोने की चेन निकाल कर दी. तब तक भुवन भी तैयार हो कर नीचे आ चुका था.

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भुवन ने अनुषा को बताया था कि अभी औफिस में कुछ जरूरी मीटिंग्स हैं, इसलिए

2-3 दिन मीटिंग्स और दूसरे काम निबटा कर

अगले सप्ताह दोनों हनीमून के लिए निकलेंगे. इस के लिए भुवन ने 10 दिनों की छुट्टी भी ले रखी थी.

भुवन का औफिस टाइम 10 बजे का था. औफिस ज्यादा दूर भी नहीं था और जाना भी अपनी गाड़ी से ही था. फिर भी भुवन ठीक 9 बजे घर से निकल गया तो अनुषा को कुछ अजीब लगा. मगर फिर सामान्य हो कर वह खाने की तैयारी में जुट गई.

तब तक कामवाली भी आ गई थी. अनुषा को ऊपर से नीचे तक तारीफभरी नजरों से देखने के बाद धीरे से बोली, ‘‘शायद अब भुवन भैया उस नागिन के चंगुल से बच जाएंगे.’’

‘‘यह क्या कह रही हो तुम?’’ कामवाली की बात पर आश्चर्य और गुस्से में अनुषा ने कहा.

वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘बस बहूरानी कुछ ही दिनों में आप को मेरी बात का मतलब समझ आ जाएगा… 2-3 दिन इंतजार कर लो,’’ कह कर वह काम में लग गई.

फिर अनुषा की तारीफ करती हुई बोली, ‘‘वैसे बहूरानी बड़ी खूबसूरत हो तुम.’’

अनुषा ने उस की बात अनसुनी कर दी. उस के दिमाग में तो नागिन शब्द घूम रहा था. उसे नागिन का मतलब समझ नहीं आ रहा था.

पूरा दिन अनुषा भुवन के फोन का इंतजार करती रही. दोपहर में भुवन का फोन आया. दोनों ने आधे घंटे प्यारभरी बातें कीं. शाम में भुवन को आने में देर हुई तो अनुषा ने सास से पूछा.

सास ने निश्चिंतता भरे स्वर में कहा, ‘‘आ रहा होगा… थोड़ा औफिस के दोस्तों में बिजी होगा.’’

8 बजे के करीब भुवन घर लौटा. साथ में एक महिला भी थी. लंबी, छरहरी, नजाकत और

अदाओं से लबरेज व्यक्तित्व वाली उस महिला ने स्लीवलैस वनपीस ड्रैस पहन रखी थी. होंठों पर गहरी लिपस्टिक और हाई हील्स में वह किसी मौडल से कम नहीं लग रही थी. अनुषा को भरपूर निगाहों से देखने के बाद भुवन की ओर मुखातिब हुई और हंस कर बोली, ‘‘गुड चौइस. तो यह है आप की बैटर हाफ… अच्छी है.’’

बिना किसी के कहे ही वह सोफे पर पसर गई. सास जल्दी से 2 गिलास शरबत ले आई, शरबत पीते हुए उस ने शरबती आवाज में कहा, ‘‘भुवन, जिस दिल में मैं हूं उसे किसी और को किराए पर तो नहीं दे दोगे?’’

उस महिला के मुंह से ऐसी बेतुकी बात सुन कर अनुषा की भंवें चढ़ गईं. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से भुवन की ओर देखा और फिर सास की तरफ.

सास ने नजरें नीचे कर लीं और भुवन ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा, ‘‘यार टीना तुम्हारी मजाक करने की आदत नहीं गई.’’

‘‘मजाक कौन कर रहा है? मैं तो हकीकत बयां कर रही हूं. वैसे अनुषा तुम से मिल कर अच्छा लगा. आगे भी मुलाकातें होती रहेंगी हमारी. आखिर मैं भुवन की दोस्त जो हूं. तुम्हारी भी दोस्त हुई न. बैटर हाफ जो हो तुम उस की.’’

वह बारबार बैटर हाफ शब्द पर जोर दे रही थी. अनुषा उस का मतलब अच्छी तरह समझ रही थी.

टीना ने फिर से अदाएं बिखेरते हुए कहा, ‘‘आज की रात तो नींद नहीं, चैन नहीं, है न भुवन.’’

5-10 मिनट रुक कर वह जाने के लिए खड़ी हो गई. भुवन उसे घर छोड़ने चला गया.

अनुषा ने सास से सवाल किया, ‘‘यह

कौन है मांजी जो भुवन पर इतना अधिकार जता रही है?’’

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‘‘देखो बेटा, अब तुम भुवन की पत्नी हो इसलिए इतना तो तुम्हें जानने का हक है ही कि वह कौन थी? दरअसल, बेटा तुम्हें उसे भुवन

की जिंदगी में स्वीकार करना पड़ेगा. हमारी मजबूरी है बेटा. हम सब को भी उसे स्वीकार करना पड़ा है बेटे.’’

‘‘पर क्यों सासूमां? क्या भुवन का उस के साथ कोई रिश्ता है?’’

‘‘ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं बहू पर बस यह जान लो कि उस के बहुत से एहसान हैं हमारे ऊपर. वैसे तो वह उस की बौस है, मगर भुवन को इस मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है उस ने. अपनी पावर का उपयोग कर भुवन को काफी अच्छा ओहदा दिया है. बस भुवन पसंद है उसे और कुछ नहीं.’’

‘‘इतना कम है क्या सासूमां? वह तो पत्नी की तरह हक दिखाती है भुवन पर.’’

ये घर बहुत हसीन है- भाग 2: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इस से पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. ‘‘किस का फोन है?’’ पूछते हुए उस ने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज में बातें करने लगा.

निराश वान्या कपड़े हाथ में ले कर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किस ने किया होगा फोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उस से बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं… यह तो धोखा है.’ वान्या अपनेआप में उलझती जा रही थी.

आधुनिक सुखसुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिस के वह सपने देखती थी, उस की निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनीभीनी खुशबू, हलकी ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब, जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाए और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फोन उस के लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी…’ वान्या फूटफूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उस की प्रतीक्षा कर रहा

था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुरसियां वान्या को कोरी शान लग रही थीं. वान्या के बैठते ही आर्यन उस के बालों से नाक सटा कर लंबी सांस लेता हुआ बोला, ‘‘कौन सा शैंपू लगाया है? कहीं यह खुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अंदर तक मैं.’’

वान्या को आर्यन की शरारती मुसकान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. ‘‘जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफाई कर रही है. उसे जल्दी से वापस भेज देंगे… अपना बैडरूम तो तुम ने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतजार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा,’’ आर्यन का नटखट अंदाज वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गई. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की खुमारी बढ़ने लगी. ‘‘मुझे जरूर गलतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उस का इजहार तो उस आशिक जैसा लग रहा है, जिसे नईनई मोहब्बत हुई हो.’’ सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गई. फोम के गद्दे में धंसेधंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़ेखड़े ही झुक कर वान्या की आंखों को चूम मुसकराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.

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‘‘कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैं ने?’’ बैड के पास लगे विंटेज कलर फ्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.

दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ्रेम सा सुर्ख हो गया.

प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एकदूसरे की आगोश में खोएखोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

शाम को प्रेमा ने घंटी बजाई तो उन की नींद खुली. ग्रीन टी बनवा कर अपनेअपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुरसियों पर जा कर बैठ गए. वहां रंगबिरंगे फूल खिले थे. कतार में ऊंचेऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एकदूसरे के साथ बारबार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल टक रहे थे, रंग हरा ही था सब का. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, ‘‘मेरे राइट हैंड साइड वाले 4 पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले 3 खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद हैं कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब ऐंजौय करतीं.’’

‘‘अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी का नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैं ने अटेंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे का साथ बात कर रहे थे तुम?’’ वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जा कर अटक गया.

‘‘तुम्हें देखते ही शादी को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाए, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात ले कर. सब को लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को ले कर आ गईं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया.’’

आर्यन का मजाक सुन वान्या मुसकरा कर रह गई.

‘‘एक मिनट… शायद प्रेमा ने आवाज दी है, वापस जा रही होगी, मैं दरवाजा बंद कर अभी आया.’’ वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अंदर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौट कर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोच

कर फिर संदेह से घिर गई. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढि़यों पर चढ़ गई. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ दिखाई दे रहा था. ऊंचीऊंची फैली हुई पहाडि़यों पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटेबड़े मकान, मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एकदूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फसाला भी है. क्या राज है उस फोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आ कर आर्यन ने अपने हाथों से उस की आंखें बंद कर दीं.

‘‘तुम भी न आर्यन… कब आए छत पर?’’

‘‘हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानोंकान खबर भी न हो.’’ आर्यन शरारत से बोला.

‘‘और कौन होगा?’’ वान्या घबरा उठी.

‘‘अरे कितनी डरपोक हो यार… यहां कौन हो सकता है?’’ वान्या की आंखों से हाथों को हटा उस की कमर पर एक हाथ से घेरा बना कर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. ‘‘चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुंदर नजारे दिखाता हूं.’’

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आर्यन से सट कर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उस की छुअन और खुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गईं. दोनों साथसाथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़ेबड़े शहतीरों को जोड़ कर बनाई गई मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश, इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें,’ वान्या सोच रही थी.

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 6

Writer- जसविंदर शर्मा 

उस ने आहिस्ताआहिस्ता मेरे बदन को यों सहलाया जैसे मैं इस दुनिया की सब से नायाब और कीमती चीज हूं. वह मुझे दीवानगी और कामुकता के उच्च शिखर तक ले गया और फिर वापस लौट आया. मैं इस दुनिया में कहीं बहुत ऊपर तैर रही थी. वह बड़े सधे ढंग से इस खेल का निर्देशन कर रहा था. खुद पर उस का नियंत्रण लाजवाब था. ठीक वक्त पर वह रुका. हम दोनों एकसाथ अर्श पर पहुंचे.

पापा ने मेरी बहन को तो कभी कुछ नहीं कहा मगर जब मेरे लवर से संबंध बने और वह जब अकसर घर आने लगा तो पापा ने एक दिन मुझे आड़े हाथ लिया. बहस होने लगी. मैं विद्रोह की भाषा में बोल पड़ी. पापा की मिस्ट्रैस को ले कर मैं ने कुछ उलटासीधा कह दिया. पापा ने मेरी खूब धुनाई कर दी. प्यार करने वाले तो पहले ही इतने पिटे हुए होते हैं कि उन्हें तो एक हलका सा धक्का ही काफी होता है उन की अपनी नजर से नीचे गिराने के लिए. पापा ने जब मुझे पीटा तब भी मां कुछ नहीं बोलीं. अब वे पूरी तरह से गूंगी हो चुकी थीं. कई बार मैं ने सोचा कि उन्हें किसी बढि़या ओल्डऐज होम में भरती करवा दूं. मां को पैसे की किल्लत न थी.

इस कशमकश में कब मेरे बालों में सफेदी उतर आई, पता ही नहीं चला. मां के गुजर जाने के बाद घर में मैं अकेली ही रह गई. सब लोगों ने अपनेअपने घोंसले बना लिए थे. सब लोग आबाद हो गए थे. एक मेरी और पापा की नियति में दुख लिखे थे.

पापा काफी वृद्ध हो गए थे. अपनी मिस्ट्रैस और उस से हुई बेटी से उन की कम ही बनती थी. पापा कभीकभार हमारे घर आते. अपने औफिस की एक अन्य बूढ़ी औरत के घर में रहते थे. मां के गुजर जाने के बाद पापा की वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गई थी. मां को जो खर्च देते थे वह भी बच जाता था.

फिर एक दिन पापा भी इस दुनिया से कूच कर गए. मेरी बहन विदेश चली गई थी. पापा की मौत के बारे में सुन कर 1 साल बाद आई. हम ने एकदूसरे को सांत्वना दी. भाई ने तो बरसों पहले ही हम लोगों से नाता तोड़ रखा था. वह बहुत पहले घर को बेचना चाहता था. मगर मैं यहां रहती थी. उस ने सोचा था कि मैं इस मकान को अकेले ही हड़प लूंगी.

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मैं भला मां को छोड़ कर कहां जाती. अपने मकान में मैं जैसी भी थी, सुख से रहती थी. मेरी नौकरी कोई खास बड़ी नहीं थी. दरअसल, अपने इश्क की खातिर मैं ने यह शहर नहीं छोड़ा था, इसलिए मेरी तरक्की के साधन सीमित थे यहां.

मैं अजीब विरोधाभास में थी. अपने आशिक के घर में जा कर नहीं रह सकती थी. मेरे जाने के बाद मां की हालत खराब हो जाती. वह पापा के कारण यहां आने से कतराता था. फिर भी हम ने कहीं दूसरी जगह मिलने का क्रम जारी रखा. हमारे प्यार की इन असंख्य पुनरावृत्तियों में हमेशा एक नवीनता बनी रही. हम ने एकदूसरे से शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. हमारे इश्क में शिद्दत बनी रही क्योंकि हमारे प्यार की अंतिम मंजिल प्यार ही थी.

उस के सामने मेरी कैफियत उस बच्चे के समान थी जो नंगे हाथों से अंगार उठा ले. उस ने मेरे विचारों, मेरी मान्यताओं और मेरी समझ को उलटपलट कर रख दिया था, जैसे बरसात के दौरान गलियों में बहते पानी का पहला रेला अपने साथ गली में बिखरे तमाम पत्ते, कागज वगैरह बहा ले जाता है.

मैं भी एक पहाड़ी नदी की तरह पागल थी, बावरी थी, आतुर थी. मुझे बह निकलने की जल्दी थी. मुझे कई मोड़, कई ढलान, कई रास्ते पार करने थे. मुझे क्या पता था कि तेजी से बहती हुई नदी जब मैदानों में उतरेगी तो समतल जमीन की विशालता उस की गति को स्थिर कर देगी, लील लेगी. उस के साथ रह कर मुझे लगा कि मैं फिर से जवान हो गई हूं. मेरी उम्र कम हो गई है. फिर उस की उम्र देख कर बोध होता कि मैं गलत कर रही हूं. प्यार तो समाज की धारा के विरुद्ध जा कर ही किया जा सकता है.

मैं डर गई थी समाज से, पापा से, अपनेआप से. कहीं फंस न जाऊं, हालांकि उस से जुदा होने को जी नहीं चाहता था मगर उस के साथ घनिष्ठ होने का मेरा इरादा न था या कहें कि हिम्मत नहीं थी.

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मैं तो उसे दिल की गहराइयों से महसूस कर के देखना चाहती थी. मगर वह तो मेरे प्यार के खुमार में दीवानगी की हद तक पागल था. तभी तो मैं डर कर अजीब परस्पर विरोधी फैसले करती थी. कभी सोचती आगे चलूं, कभी पीछे हटने की ठान लेती. एक सुंदर मौका, जब मैं किसी को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करती थी, मैं ने जानबूझ कर गंवा दिया.

मैं ने उसे अपमानित किया. उसे बुला कर उस से मिलने नहीं गई. वह आया तो मैं अधेड़ उम्र के सुरक्षित लोगों से घिरी बतियाने में मशगूल रही. उस की उपेक्षा की. आखिरकार, मैं ने अपनेआप को एक खोल में बंद कर लिया, जैसे अचार या मुरब्बे को एअरटाइट कंटेनरों में बंद किया जाता है. अब मुझे इस उम्र में जब मैं 58 से ऊपर जा रही हूं, उन क्षणों की याद आती है तो मैं बेहद मायूस हो जाती हूं. मैं सोचती हूं कि मैं ने प्यार नहीं किया और अपनी मूर्खता में एक प्यार भरा दिल तोड़ दिया.

अब मैं समझ गई हूं- भाग 3: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

रिमू की बेबुनियादी बातें सुन कर मैं लगभग ?ां?ाला सा गया था. वास्तव में इस प्रकार की बातों को ले कर कई बार हम दोनों में बहस हो जाया करती थी. मेरा क्रोध देख कर वह शांत तो हो गई परंतु ऐसा लग रहा था मानो उस के मन में कोई अंर्तद्वंद्व चल रहा है.

एक दिन जैसे ही मैं औफिस से लौटा, रिमू बड़ी मस्ती में गुनगुनाती हुई खाना बना रही थी. आमतौर पर हैरानपरेशान रहने वाली रिमू को इतना खुश देख कर मैं हैरान था, सो पूछा, ‘‘क्या बात है, बड़ी खुश नजर आ रही हो?’’

‘‘आज मम्मी आ रही हैं कुछ दिनों के लिए मेरे पास रहने.’’

‘‘तब तो तुम मांबेटी की ही तूती बोलेगी आज से इस घर में, मैं बेचारा एक कोने में पड़ा रहूंगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो, मेरी मां क्या तुम्हारी मां नहीं है,’’ हलकी सी नाराजगी जताते हुए रिमू ने कहा.

‘‘अरे नहीं बाबा, मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था. तुम चायनाश्ता लगाओ, मैं फ्रैश हो कर आता हूं,’’ कह कर मैं चेंज करने चला गया.

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2 दिनों बाद रीमा की मां हमारे घर आ गईं. यह कहने में अवश्य अजीब लगेगा परंतु सचाई यही थी कि 60 की उम्र में भी उन्होंने अपनेआप को बहुत फिट रखा था, जिस से वे रीमा की मां कम, बड़ी बहन अधिक लगती थीं. एक से एक आधुनिक परिधान धारण करती थीं वे.

आते ही उन्होंने रीमा को अपना लाइफस्टाइल बदलने और हैल्दी डाइट प्लान बनाने को कहा ताकि उस के दिन पर दिन बढ़ते कमर के घेरे को कम किया जा सके. घर के बदलते रंगढंग को देख कर मैं भी बड़ा खुश था. पर एक दिन जब सुबह मैं औफिस जाने को तैयार हो रहा था तो मांबेटी को एकसाथ तैयार हो कर जाते देख पूछ लिया.

‘‘अरे, इतनी सुबहसुबह कहां जा रही हैं आप दोनों, चलिए कहां जाना है, मैं छोड़ देता हूं?’’

‘‘कहीं नहीं बेटा, यहीं पास के ही मंदिर में जा रहे हैं. पैदल जाएंगे तो वौक भी हो जाएगी. आप औफिस जाइए,’’ सासुमां ने कहा तो मैं आश्वस्त हो कर औफिस रवाना हो गया.

इन दिनों पहले की अपेक्षा रिमू कुछ अधिक शांत और खुश नजर आने लगी थी. मैं इसे मां के आने की खुशी सम?ा रहा था. कुछ दिनों के बाद मु?ो औफिस के काम से ग्वालियर जाना पड़ा. मेरा काम एक दिन पूर्व ही समाप्त हो गया. सो, मैं एक दिन पूर्व ही घर आ गया. जैसे ही घर के द्वार पर पहुंचा तो घर से पंडितों के मंत्रोच्चार की ध्वनि आ रही थी. अंदर जा कर देखा तो रिमू और उस की मां 4 पंडितों से घिरी हवन करवा रही थीं. क्रोध से मेरी आंखें ज्वाला बरसाने लगीं, परंतु मौके की नजाकत को सम?ा कर मैं शांत रहा और अंदर चला गया.

कुछ ही देर में रिमू घबराती हुई मेरे लिए चायनाश्ता ले कर आई तो मैं लगभग चीखते हुए बोला, ‘‘यह सब क्या हो रहा था, जबकि तुम्हें पता है कि मैं इन सब अंधविश्वासों और ढकोसलों को नहीं मानता?’’

‘‘अरे बेटा, जन्मकुंडली का दोष शांत करवाने के लिए यह पूजा करवाना अत्यंत आवश्यक था. अब देखना तुम्हारा गृहस्थ जीवन बहुत अच्छे से चलेगा. बहुत पहुंचे हुए पंडितजी हैं और उन्होंने पूजा भी बहुत अच्छी करवाई है,’’ रिमू के बोलने से पूर्व ही उस की मां ने अपनी सफाई दी.

‘‘मांजी, यह सब मन का वहम है. क्या कमी है आप की बेटी को बताइए, जन्ममृत्यु, हारीबीमारी ये सब तो जीवन के एक हिस्से हैं. आज दुख है तो कल सुख भी आएगा. यदि पंडितजी इतने ही पहुंचे हुए हैं तो क्यों नहीं कोई अच्छी सी नौकरी प्राप्त कर ली, क्यों यजमान ढूंढ़ते फिरते हैं अपनी जीविका को चलाने के लिए.

‘‘आप की और पापाजी की कुंडली में तो 30 गुण मिले थे पर फिर भी आप दोनों हमेशा लड़ते?ागड़ते और एकदूसरे को अपमानित करते रहते हैं. आप तो इतनी आधुनिका हैं, फिर आप अपनी सोच को आधुनिक क्यों नहीं बना पाईं. गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाना पतिपत्नी के हाथ में होता हैं न कि किसी पंडित के हाथ में. जो काम मु?ो पसंद नहीं हैं वे मेरी पत्नी मेरी अनुपस्थिति में करेगी तो कैसे गृहस्थी सुखद हो सकेगी.’’

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मु?ो नहीं पता कि मेरी बातों का उन पर क्या असर हुआ परंतु उस समय उन्होंने वहां से चले जाने में ही अपनी भलाई सम?ा. इस घटना के 2 दिनों बाद जब रीमा की मम्मी को हम स्टेशन छोड़ने गए तो उन में से एक पंडितजी के हमें प्लेटफौर्म पर दर्शन हुए. बढि़या सिगरेट के कश खींचते हुए वे जींसटौप में किसी गुंडा टाइप आदमी के साथ बातचीत कर रहे थे.

मैं ने रिमू से कहा, ‘‘देखो ये हैं तुम्हारे पंडितजी. जिन से तुम अपनी गृहस्थी में शांति करवाने चली थीं.’’

‘‘बाप रे, ये तो सिगरेट पी रहे हैं.’’ उन्हें देख कर रीमा ने दांतों तले उंगली दबा ली. सासुमां को ट्रेन में बैठा कर जब हम घर आए तो हमारे पड़ोसी अपनी बेटी की शादी का कार्ड देने आ गए.

‘‘बेटा, आप लोग अवश्य आइएगा. बड़ी मुशकिल से तय हो पाई हमारी बेटी की शादी. जहां भी जाओ लोग जन्मकुंडली मिलाने की बात करते और न मिलने पर शादी की बात आगे ही नहीं बढ़ पाती थी, पर एक पंडित ने ही हमें इस का तोड़ बता दिया कि पहले लड़के की जन्मपत्रिका ले लो और मैं उसी के अनुसार बेटी की पत्रिका बना दूंगा. हम ने ऐसा ही किया और चट मंगनी पट ब्याह हो गया. क्या करें बेटा कई जगह विवशता में चालाकी करनी पड़ती है,’’ वे अपनी बेटी के विवाह के बारे में बताने लगे.

‘‘क्या ऐसा भी होता है? फिर कुंडली मिलवाने का क्या मतलब?’’ अब तक शांत बैठी रिमू अचरज से बोली.

‘‘हांहां भाभीजी, क्यों नहीं, आजकल सब संभव है. पंडितजी को चढ़ावा चढ़ाओ और असंभव कार्य को भी पंडितजी से संभव करवाओ. दरअसल, भाभीजी यह कुंडली कुछ होती ही नहीं है, यह सब तो पंडितों के चोंचले हैं दानदक्षिणा प्राप्त करने के.

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‘‘अब हमारा तो अंतर्जातीय विवाह हुआ है. आज 35 वर्ष हो गए हमारे दांपत्य जीवन को. हर सुखदुख को हम ने खुशीखुशी ?ोला है. 35 वर्षों में लड़ाई?ागड़ा तो छोडि़ए, किसी भी प्रकार की अनबन तक नहीं हुई हम दोनों में. एकदूसरे को इतना सम?ाते हैं हम दोनों. विवाह तो पतिपत्नी की सम?ादारी से सफल होते हैं, न कि कुंडली से.’’

इस के बाद वे तो चले गए पर रिमू की आंखें अवश्य खोल गए क्योंकि जैसे ही मैं उन्हें बाहर छोड़ कर आया, रिमू मेरे गले लग गई, बोली, ‘‘तुम सच कहते हो, यह कुंडली सिर्फ मन का वहम और पंडितजी के जीने का साधन है. अब मैं सब सम?ा गई हूं.’’

अनकहा प्यार- भाग 3: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

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‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

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उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

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‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया.

आखिरी मुलाकात- भाग 3: क्यों सुमेधा ने समीर से शादी नहीं की?

Writer- Shivi Goswami

अगले दिन भी वही सब. न मेरा फोन उठाया और न खुद फोन या मैसेज किया. बस अपने सर को उस ने अपनी छुट्टी के लिए एक मेल भेजा था, जिस में बस यह लिखा था कि कोई जरूरी काम है.

क्या जरूरी काम हो सकता है? मैं सोच नहीं पा रहा था.

नीलेश ने कहा, ‘तुम उस के घर के फोन पर बात करने की कोशिश क्यों नहीं करते?’

‘अगर किसी और ने फोन उठाया तो?’ मैं ने उस के सवाल पर अपना सवाल किया.

‘तो तुम बोल देना कि तुम उस के औफिस से बोल रहे हो और यह जानना चाहते हो कि कब तक छुट्टी पर है वह.’

हिम्मत कर के मैं ने उस के घर के फोन पर काल किया. पहली बार किसी ने फोन नहीं उठाया. नीलेश के कहने पर मैं ने दोबारा कोशिश की. इस बार फोन पर आवाज आई जो मैं सुनना चाहता था.

‘हैलो सुमेधा, मैं समीर बोल रहा हूं. कहां हो, कैसी हो? और तुम औफिस क्यों नहीं आ रही हो? मैं ने तुम्हारा मोबाइल नंबर कितनी बार मिलाया, लेकिन तुम ने फोन नहीं उठाया. सब ठीक तो है?’

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सुमेधा चुपचाप मेरी बातों को बस सुने जा रही थी.

‘सुमेधा कुछ तो बोलो.’

‘अब मुझे कभी फोन मत करना समीर…’ सुमेधा ने धीमी आवाज में कहा.

‘क्या, पर हुआ क्या यह तो बताओ?’ मैं ने बेचैन हो कर पूछा.

‘पापा को माइनर हार्ट अटैक आया था. अब उन की हालत ठीक है. मेरे लिए एक रिश्ता आया था पापा ने वह रिश्ता तय कर दिया है और उन की हालत को ध्यान में रखते हुए मैं न नहीं कर पाई.’

‘तुम्हें उन्हें मेरे बारे में तो बताना चाहिए था,’ मैं ने कहा.

‘समीर वह लड़का बिजनैसमैन है,’ सुमेधा ने एकदम से कहा.

‘ओह, तो शायद इसीलिए तुम्हारी उस से शादी हो रही है,’ मैं ने कहा.

‘तुम जो भी समझो मैं मना नहीं करूंगी. अगले महीने मेरी शादी है. मैं ने आज ही अपना रिजाइनिंग लैटर अपने सर को मेल कर दिया है. बाय समीर.’

मैं बस फोन को देखे जा रहा था और नीलेश मुझे देखे जा रहा था. उस का मेरे प्यार को स्वीकार करना जितना खूबसूरत सपने की तरह था, उतना ही आज उस का यह बोलना किसी बुरे सपने से कम नहीं था. मैं चाहता था कि दोनों बातों में से सिर्फ एक ख्वाब बन जाए, लेकिन दोनों ही हकीकत थीं.

आज इस बात को पूरे 3 साल हो गए. उस दिन के बाद मैं ने कभी सुमेधा को न तो फोन किया और न ही उस ने मेरा हाल जानने की कोशिश की. जिस दिन उस की शादी थी उसी दिन मुझे दिल्ली की एक मल्टीनैशनल कंपनी से इस नौकरी का औफर आया था. यहां की सैलरी से दोगुनी सैलरी और एक फ्लैट. सब कुछ ठीक ही नहीं बल्कि एकदम परफैक्ट. आज जो मेरे पास है अगर वह मेरे पास 3 साल पहले होता तो शायद आज सुमेधा मिसेज समीर होती.

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वक्त बदल गया और वक्त के साथ लोग भी. आज मैं जिस मुकाम पर पहुंच गया हूं शायद उस समय इन सब चीजों की कल्पना उस ने कभी की ही नहीं होगी. उस वक्त मैं सिर्फ समीर था लेकिन आज एक मल्टीनैशनल कंपनी का जनरल मैनेजर. आज मेरे पास सब कुछ है लेकिन मेरी सफलता को बांटने के लिए वह नहीं है जिस के लिए शायद मैं यह सब करना चाहता था.

अचानक मेरे मोबाइल की बजी. घंटी ने मुझे मेरी यादों से बाहर निकाला.

नीलेश का फोन था. सब कुछ बदल जाने के बाद भी मेरी और नीलेश की दोस्ती नहीं बदली थी. शायद कुछ रिश्ते सच में सच्चे और अच्छे होते हैं.

‘‘कब तक पहुंचेगा?’’ नीलेश ने पूछा.

‘‘निकलने वाला हूं बस,’’ मैं ने नीलेश से कहा.

‘‘जल्दी निकल यार,’’ कह कर नीलेश ने फोन रख दिया.

नीलेश की शादी है आज. शादी दिल्ली में ही हो रही थी. मुझे सीधे शादी में ही शरीक होना था. अपने सब से अच्छे दोस्त की शादी में न जाने का कोई बहाना होता भी तो भी मैं उस को बना नहीं सकता था.

मैं फटाफट तैयार हुआ. अपनी कार निकाली और चल दिया. वहां पहुंचा तो चारों तरफ फूलों की भीनीभीनी खुशबू आ रही थी. नीलेश बहुत स्मार्ट लग रहा था. मैं ने उस की तरफ फूलों का गुलदस्ता बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारी नई जिंदगी की शुरुआत है और मेरी दिल से शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.’’

नीलेश मेरे गले लग गया. और लोगों को भी उसे बधाइयां देनी थीं, इसलिए मैं स्टेज से नीचे उतर गया. उतर कर जैसे ही मैं पीछे मुड़ा तो देखा कि लाल साड़ी में एक महिला मेरे पीछे खड़ी थी. उस के साथ उस का पति और बेटा भी था.

वह कोई और नहीं सुमेधा थी, जो मेरी ही तरह अपने दोस्त की शादी में शामिल होने आई थी. मुझे देख कर वह चौंक गई. वह मुझ से कुछ कहती, इस से पहले ही मेरी पुरानी कंपनी के सर ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वैल डन समीर. मुझे तुम पर बहुत गर्व है. थोड़े से ही समय में तुम ने बहुत सफलता हासिल कर ली है. मैं सच में बहुत खुश हूं तुम्हारे लिए.’’

मैं बस हां में सिर हिला रहा था और जरूरत पड़ने पर ही जवाब दे रहा था. मेरा दिमाग इस वक्त कहीं और था.

सुमेधा अपने पति के साथ खड़ी थी. उस का पति एक बिजनैसमैन था, लेकिन उस की कंपनी इतनी बड़ी नहीं थी. आज मेरा स्टेटस उस से ज्यादा था.

यह मैं क्या सोच रहा हूं? मेरी सोच इतनी गलत कब से हो गई? मुझे किसी की व्यक्तिगत और व्यावसायिक जिंदगी से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. मेरा दम घुट सा रहा था. अब इस से ज्यादा मैं वहां नहीं रुक सकता था. मैं जैसे ही बाहर जाने लगा सुमेधा ने पीछे से मुझे आवाज लगाई.

‘‘समीर…’’

उस के मुंह से अपना नाम सुनते ही मन में आया कि उस से सारे सवालों के जवाब मांगूं. पूछूं उस से कि जब प्यार किया था तो विश्वास क्यों नहीं किया? सब कुछ एकएक कर के उस की आवाज से मेरी आंखों के सामने आ गया.

लेकिन अब वह पहले वाली सुमेधा नहीं थी. अब वह मिसेज सुमेधा थी. मुझे उस का सरनेम तो क्या उस के पति का नाम भी मालूम नहीं था और मुझे कोई दिलचस्पी भी नहीं थी ये सब जानने की. न मैं उस का हाल जानना चाहता था और न ही अपना बताना.

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मैं ने पलट कर उस की आंखों में आखें डाल कर कहा, ‘‘क्या मैं आप को जानता हूं?’’

वह मेरी तरफ एकटक देखती रही. अगर मैं पहले वाला समीर नहीं था तो वह भी पहले वाली सुमेधा नहीं रही थी.

शायद मेरा यही सवाल हमारी आखिरी मुलाकात का जवाब था. उस की चुप्पी से मुझे मेरा जवाब मिल गया और मैं वहां से चल दिया.

नई रोशनी की एक किरण- भाग 3: सबा की जिंदगी क्यों गुनाह बनकर रह गई थी

दोनों जब तक जवाब देते, सबा उठ कर सामने आ गई और उस ने बहुत नरम और सही अंगरेजी में कहा, ‘‘सर, आप सरकारी नौकर हैं. जांच और पूछताछ करना आप का फर्ज है. आप तरीके से पूछें फिर भी आप को तसल्ली न हो तो आप लिखित में नोटिस दें, हम उस का जवाब देंगे. आप की पहली इन्क्वायरी का संतोषप्रद जवाब दिया जा चुका है. आप को जो भी मालूमात चाहिए, मुझ से पूछिए क्योंकि लेजर मैं मेंटेन करती हूं पर पूछताछ में अपने लहजे और भाषा पर कंट्रोल रखिएगा क्योंकि हम भी आप की तरह संभ्रांत नागरिक हैं.’’

इतनी सटीक और परफैक्ट अंगरेजी में जवाब सुन अफसर के रवैए में एकदम फर्क आ गया. काफी देर जांच चलती रही, सबा ने बड़े आत्मविश्वास से हर शंका का बड़े सही ढंग से समाधान किया क्योंकि पिछले 4 दिनों में वह हर बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी. सेल्सटैक्स अफसर कोई घपला न निकाल सका, इसलिए अपने साथियों के साथ वापस चला गया, पर धमकी देते गया कि उस की खास नजर इस स्टोर पर रहेगी. अकसर परेशान करने को नोटिस आते रहे जिन्हें सबा ने बड़ी सावधानी से संभाल लिया.

घर पहुंच कर नईम खुशी से पागल हो रहा था, अम्मी और बहनों को सबा की काबिलीयत विस्तार से जताते हुए बोला, ‘‘सबा का पढ़ालिखा होना, उस की गहरी जानकारी और अंगरेजी बोलना सारी मुसीबतों से टक्कर लेने में कामयाब रहे. पहले यही अफसर मुझ से ढंग से बात नहीं करता था. मेरा अंगरेजी मेें ज्यादा दखल न होने से और विषय की पकड़ कमजोर होने से मुझ पर हावी हो रहा था. अपनी जानकारी से सबा ने ऐसा मुंहतोड़ जवाब दिया है कि अब बेवजह मुझे परेशान न करेगा. मैं ने फैसला कर लिया है कि सबा हफ्ते में 2 बार आ कर हिसाबकिताब चैक करेगी ताकि आइंदा ऐसा कोई मसला न खड़ा हो.’’

एक अरसे के बाद अम्मी ने प्यार से सबा को गले लगाया. बहनें भी प्यार से लिपट गईं. सबा को लगा उस की मुश्किलों का खत्म होने का वक्त आ गया है. उन्हें हंसता देख कर नईम बोला, ‘‘अम्मी, मैं ने शादी के वक्त शर्त रखी थी कि लड़की पढ़ीलिखी होनी चाहिए तो आप सब खूब नाराज हो रहे थे पर उस वक्त पढ़ीलिखी बीवी की ख्वाहिश इसलिए थी कि मैं कम पढ़ालिखा था. उस कमी को मैं अपनी पढ़ीलिखी बीवी से पूरी करना चाहता था और मैं गर्व से अपने दोस्तों से कह सकूं कि मेरी बीवी एमएससी है.

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‘‘यह हकीकत तो अब खुली है कि इल्म सिर्फ दिखाने या नाज करने के लिए नहीं होता. इस मुश्किल घड़ी में जब मैं बेहद निराश और डिप्रैस्ड था, उस वक्त सबा ने अपनी तालीम, समझदारी व जानकारी से मामला संभाला. आज मैं अपनी ख्वाहिश की जिंदगी और कारोबार में इल्म की अहमियत को समझ गया हूं. इल्म कोई शोपीस नहीं है बल्कि हर समस्या, हर मुश्किल से जूझने का सफल हथियार है.’’

सबा ने खुशी से चमकती आंखों से नईम को शुक्रिया कहा.

सबा के स्टोर में मदद करने से एक एहसान के बोझ से दबी अम्मी उस से कुछ हद तक नरम हो गईं पर दिल में जमी ईर्ष्या और कम होने के एहसास की धूल अभी भी अपनी जगह पर थी. बहनें भी रूखीरूखी सी मिलतीं. सबा सोचने लगी, उस से कहीं गलती हो रही है. एकाएक उस के दिमाग में धमाका हुआ. उसे एहसास हुआ, कोताही उस की तरफ से भी हो रही है. अभी लोहा गरम है, बस एक वार की जरूरत है. वह पढ़ीलिखी है यह एहसास उस पर भी तो हावी रहा था. अनजाने में वह उन से दूर होती गई.

अगर वे लोग अपनी जहालत और नासमझी से उसे अपना नहीं रहे थे तो उस ने भी कहां आगे बढ़ कर कोशिश की. वह तो समझदार थी. उसे ही उन लोगों का  साथ निभाना था. उस ने अपनी बेहतरी को एक खोल की तरह अपने ऊपर चढ़ा लिया था. अब उसे इस खोल को तोड़ कर उन लोगों के लेवल पर उतर कर उन के दिलों में धीरेधीरे जगह बनानी होगी. यही तो उस की कसौटी है कि उसे अपनी तालीम को इस तरह इस्तेमाल करना है कि वे सब दिल से उस के चाहने वाले हो जाएं. उन की नफरत मुहब्बत में बदल जाए. पहल उसे ही करनी होगी. अपने गंभीर और आर्टिस्टिक मिजाज को छोड़ कर अपने घमंड के पीछे डाल कर उसे यह रिश्तों की जंग जीतनी होगी.

दूसरे दिन सबा ने गहरे रंग का रेशमी सूट पहना. झिलमिल करता दुपट्टा ओढ़ नीचे आ गई. उस की सास तख्त पर बैठी सिर में तेल डाल रही थीं. वह उन के करीब जा कर बैठ गई. उन्होंने मुसकरा कर उस के खूबसूरत जोड़े को देखा, उस ने उन के हाथ से कंघा ले कर कंघी करते हुए कहा, ‘‘अम्मी, अगर नासमझी में मुझ से कोई भूल हुई है तो माफ करें, अपनेआप को मैं आप की ख्वाहिश के मुताबिक बदल लूंगी.’’

अम्मी हैरान सी उसे देख रही थीं. आज इस चमकीले सूट में वह उन्हें बड़ी अपनी सी लग रही थी. वह उस के संजीदा व्यवहार से बदगुमान हो गई थीं. उन्हें लगा था कि तालीमयाफ्ता, होशियार बहू उन से उन का बेटा छीन लेगी, क्योंकि नईम वैसे भी उसे खूब चाहता था. कहीं बहू बेटे पर हावी न हो जाए, इसलिए उन्होंने उस के नुक्स निकाल कर उस की अहमियत कम करना शुरू कर दिया. बेटियों ने भी साथ दिया क्योंकि सबा ने भी अपने आसपास एक नफरत की दीवार खड़ी कर दी थी.

आज वही दीवार, अपनेपन और मुहब्बत की गरमी से पिघल रही थी. उस ने अम्मी की चोटी गूंथते हुए कहा, ‘‘अम्मी, आप मुझे रिश्तों का मान दीजिए, मुझे अपनी बेटी समझें, मुझे भी रिश्ते निभाने आते हैं. मैं आप के बेटे को कभी आप से दूर नहीं करूंगी बल्कि मैं भी आप की बन जाऊंगी. मैं मुहब्बत की प्यासी हूं. रमशा और छोटी मेरी बहनें हैं. आप उन्हीं की तरह मुझे अपनी बेटी समझें. तालीम और काबिलीयत ऐसी चीज नहीं है जो दिलों के ताल्लुक और मुहब्बत में सेंध लगाए.’’

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अम्मी को लग रहा था जैसे उन के कानों में मीठा रस टपक रहा है. वे ठगी सी काबिल बहू की बातें सुन रही थीं जो सीधे उन के दिल में उतर रही थीं. उसी ने उन के बेटे को कितनी बड़ी मुश्किल से निकाला है पर जरा सा गुरूर नहीं है. सबा ने रमशा और छोटी को दुलारते हुए कहा, ‘‘आप इन के लिए परेशान न हों, मैं इन दोनों को भी जमाने के साथ चलना सिखाऊंगी. मेरी कुछ, बहुत अच्छे घरों में पहचान है. वहां इन दोनों के लिए रिश्ते भी देखूंगी,’’ यह बात सुन कर दोनों ननदों की आंखों में नई जिंदगी के ख्वाब तैरने लगे.

शाम को नईम जब स्टोर से आया तो घर में खाने की खुशगवार खुशबू के साथ प्यार की महक भी थी. सब ने हंसतेमुसकराते खाना खाया. सबा की एक छोटी सी पहल ने सारा माहौल खुशियों से भर दिया. उस ने अपनी समझदारी से अपना अहं छोड़ कर अपना घर बचा लिया, क्योंकि कुछ पाने के लिए झुकना जरूरी है. उसे यह बात समझ में आ गई कि नीचे झुकने से कद छोटा नहीं होता बल्कि ऊंचा हो जाता है. उन सब में इल्म की कमी से एक एहसासेकमतरी था, उसे छिपाने के लिए वे सबा में कमियां ढूंढ़ते थे. आज उस ने उन के साथ कदम से कदम मिला कर उन के खयालात बदल दिए.

दरअसल, एक रंग पर दूसरा रंग मुश्किल से चढ़ता है. नया रंग चढ़ाने को पुराने रंग को धीरेधीरे हलका करना पड़ता है. दूसरी शाम नईम की पसंद के मुताबिक तैयार हो कर वह उस के दोस्त के यहां खुशीखुशी मिलने जा रही थी. यह नई जिंदगी का खुशगवार आगाज था जिस का उजाला उस के ख्वाबों में नए रंग भरने वाला था.

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