देवी की कृपा…

लेखक- नीलिमा टिक्कू

‘‘रमियाजी, रुकिए,’’ कानों में मिश्री घोलता मधुर स्वर सुन कर कुछ देर के लिए रमिया ठिठक गई फिर अपने सिर को झटक कर तेज कदमों से चलते हुए सोचने लगी कि उस जैसी मामूली औरत को भला कोई इतनी इज्जत से कैसे बुला सकता है, जिस को पेट का जाया बेटा तक हर वक्त दुत्कारता रहता है और बहू भड़काती है तो बेटा उस पर हाथ भी उठा देता है. बाप की तरह बेटा भी शराबी निकला. इस शराब ने रमिया की जिंदगी की सुखशांति छीन ली थी. यह तो लाल बंगले वाली अम्मांजी की कृपा है जो तनख्वाह के अलावा भी अकसर उस की मदद करती रहती हैं. साथ ही दुखी रमिया को ढाढ़स भी बंधाती रहती हैं कि देवी मां ने चाहा तो कोई ऐसा चमत्कार होगा कि तेरे बेटाबहू सुधर जाएंगे और घर में भी सुखशांति छा जाएगी.

तभी किसी ने उस के कंधे पर हाथ स्वयं रखा, ‘‘रमिया, मैं आप से ही कह रही हूं.’’

हैरानपरेशान रमिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक युवती उसे देख कर मुसकरा रही थी.

हकबकाई रमिया बोल उठी, ‘‘आप कौन हैं? मैं तो आप को नहीं जानती… फिर आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?’’

युवती ने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा, ‘‘सब देवी मां की कृपा है. मेरा नाम आशा है और हमारी अवतारी मां पर माता की सवारी आती है. देवी मां ने ही तुम्हारे लिए कृपा संदेश भेजा है.’’

रमिया अविश्वसनीय नजरों से आशा को देख रही थी. उस ने थोड़ी दूर खड़ी एक प्रौढ़ महिला की तरफ इशारा किया जोकि लाल रंग की साड़ी पहने थी और उस के माथे पर सिंदूर का टीका लगा हुआ था.

रमिया के पास आ कर अवतारी मां ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना दायां हाथ उठाया. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने रमिया को खींच कर अपने गले  लगा लिया और बड़बड़ाने लगीं :

‘‘मैं जानती हूं कि तू बहुत दुखी है. तुझे न पति से सुख मिला न बेटेबहू से मिलता है. शराब ने तेरी जिंदगी को कभी सुखमय नहीं बनने दिया. लेकिन तेरी भक्ति रंग ले आई है. माता का संदेशा आया है. वह तुझ से बहुत प्रसन्न हैं. अब तेरा बेटा सोहन व तेरी बहू कमली तुझे कभी तंग नहीं करेंगे.’’

रमिया हतप्रभ रह गई. देवी मां चमत्कारी हैं यह तो उस ने सुना था पर उन की ऐसी कृपा उस अभागी पर होगी ऐसा सपने में भी उस ने नहीं सोचा था.

अवतारी ने मिठाई का एक डब्बा उसे देते हुए कहा, ‘‘क्या सोचने लगी? तुझे तो खुश होना चाहिए कि मां की तुझ पर कृपा हो गई है. और हां, मैं केवल माता के भक्तों से ही मिलती हूं, नास्तिकों से नहीं. चल, पहले इस डब्बे में से प्रसाद निकाल कर खा ले और इस में कुछ रुपए भी रखे हैं. तू इन रुपयों से अपनी नातिन ऊषा की शादी के लिए जो सामान खरीदना चाहे खरीद लेना.’’

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आश्चर्य में डूबी रमिया ने भक्तिभाव से ओतप्रोत हो डब्बे की डोरी खोली तो उस में तरहतरह की मिठाइयां थीं. एक लिफाफे में 100 रुपए के 10 नोट भी थे. रमिया ने एक टुकड़ा मिठाई का मुंह में डाला और भावावेश में अवतारी के पैर छूने चाहे लेकिन वह तो जाने कहां गायब हो चुकी थीं.

रमिया की नातिन ऊषा का ब्याह होने वाला था. लाल बंगले वाली अम्मांजी ने दया कर के उसे 200 रुपए दे दिए थे. उसी से वह नातिन के लिए साड़ीब्लाउज खरीदने बाजार आई थी. पर यहां देवी कृपा से मिले रुपयों से रमिया ने नातिन के लिए बढि़या सी साड़ी खरीदी, एक जोड़ी चांदी की पायल व बिछुए भी खरीदे. उस के पास 400 रुपए बच भी गए थे. इस भय से रमिया सीधे घर नहीं गई कि बेटेबहू पैसा व सामान ले लेंगे.

सारा सामान अम्मांजी के पास रखने का निश्चय कर रमिया रिकशा कर के लाल बंगले पहुंच गई. उस ने बंगले की घंटी बजाई तो उसे देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.

‘‘रमिया, तू बाजार से इतनी जल्दी आ गई?’’

‘‘हां, अम्मांजी,’’ कहती वह अंदर आ गई. रमिया के हाथ में शहर के मशहूर मिष्ठान भंडार का डब्बा देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.

‘‘क्या तू ने नातिन के लिए सामान लाने के बजाय मेरे दिए पैसों से मंदिर में इतना महंगा प्रसाद चढ़ा दिया?’’

रमिया चहकी, ‘‘अरे, नहीं अम्मांजी, अब आप से क्या छिपाना है. आप तो खुद ‘देवी मां’ की भक्त हैं…’’ और फिर रमिया ने सारी आपबीती अम्मांजी को ज्यों की त्यों सुना दी.

रमिया की बात सुन कर सावित्री देवी चकित रह गईं. रमिया जैसी गरीब और मामूली औरत को भला कोई बेवकूफ क्यों बनाएगा…फिर इतना सबकुछ दे कर वह औरत तो गायब हो गई थी. निश्चय ही रमिया पर देवी की कृपा हुई है. पल भर के लिए सावित्री देवी को रमिया से ईर्ष्या सी होने लगी. वह कितने सालों से देवी के मंदिर जा रही हैं पर मां ने उन पर ऐसी कृपा कभी नहीं की.

सावित्री देवी पुरानी यादों में खो गईं. उन का बेटा मनोज  7वीं कक्षा में पढ़ता था. गणित की परीक्षा से एक दिन पहले वह रोने लगा कि मां, मैं ने गणित की पढ़ाई ठीक से नहीं की है और मैं कल फेल हो जाऊंगा.

‘बेटा, मेरे पास एक मंत्र है’ उन्होंने पुचकारते हुए कहा, ‘तू इस को 108 बार कागज पर लिख ले. तेरा पेपर जरूर अच्छा हो जाएगा.’

मनोज मंत्र लिखने लगा. थोड़ी देर बाद मनोज के पिता कामता प्रसाद फैक्टरी से आ गए. बेटे को गणित के सवाल हल करने के बजाय मंत्र लिखते देख वह गुस्से से बौखला उठे और जोर से एक थप्पड़ मनोज के गाल पर दे मारा. साथ ही पत्नी सावित्री को जबरदस्त डांट पड़ी थी.

‘देखो, तुम अपने मंत्रतंत्र, चमत्कार के जाल में उलझे रहने के बेहूदा शौक पर लगाम लगाओ. अपने बच्चे के भविष्य के साथ मैं तुम्हें किसी तरह का खिलवाड़ नहीं करने दूंगा. दोबारा ऐसी हरकत की तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’

उस दिन के बाद सावित्री ने मनोज को अपनी चमत्कारी सलाह देनी बंद कर दी थी. मनोज पिता की देखरेख में रह कर मेहनतकश नौजवान बन गया था. वहीं सावित्री की सोच ने उसे नास्तिक मान लिया था.

मनोज का विवाह अंजना से हुआ था. अंजना एक पढ़ीलिखी सुशील लड़की थी. पति व ससुर के साथ उस ने भी फैक्टरी का कामकाज संभाल लिया था. अपने विनम्र व्यवहार से उस ने सास को कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था लेकिन बहू के साथ रोज मंदिर जाने की उन की हसरत, अधूरी ही रह गई थी. अंजना पूजापाठ से पूरी तरह विरक्त एकएक पल कर्म में समर्पित रहने वाली युवती थी.

मनोज के विवाह को 5 साल हो गए थे. सावित्री एक पोती व पोते की दादी बन चुकी थीं. तभी अचानक हुए हृदयाघात में पति का देहांत हो गया. पिता के जाने के बाद मनोज और अंजना पर फैक्टरी का अतिरिक्त भार पड़ गया था. दोनों सुबह 10 बजे फैक्टरी जाते और रात 7-8 बजे तक घर आते. इसी तरह सालों निकल गए.

सावित्री की पोती अब एम.बी.ए. करने अहमदाबाद गई थी और पोता आई.आई.टी. की कोचिंग के लिए कोटा चला गया था. वह दिन भर घर में अकेली रहती थीं. ऐेसे में रमिया का साथ उन को राहत पहुंचाता था. वह रोज रमिया को ले कर ड्राइवर के साथ मंदिर जाती थीं. मंदिर से उन्हें घर छोड़ने के बाद ड्राइवर दोबारा फैक्टरी चला जाता था. रमिया सब को रात का खाना खिला कर अपने घर जाती थी.

‘‘अम्मांजी, क्या सोचने लगीं’’ रमिया का स्वर सुन कर सावित्री देवी की तंद्रा भंग हुई, ‘‘यह देखो, मैं ने कितनी सुंदर साड़ी, पायल व बिछुए खरीदे हैं लेकिन ये सबकुछ आप अपने पास ही रखना. जब विवाह में जाऊंगी तब यहीं से ले जाऊंगी.’’

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रमिया खुशीखुशी घर के कामों में लग गई. सावित्री कुछ देर तक टेलीविजन देखती रही फिर जाने कब आंखें बंद हुईं और वह सो गईं.

उस दिन रात को जब रमिया अपने घर पहुंची तो यह देख कर हैरान रह गई कि घर में अजीब सी शांति थी. उसे देख कर बहू ने रोज की तरह नाकभौं नहीं सिकोड़ी बल्कि मुसकान बिखेरती उस के पास आ कर बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘अम्मां, दिनभर काम कर के आप कितना थक जाती होंगी. मैं ने आज तक कभी आप का खयाल नहीं रखा. मुझे माफ कर दो.’’

आज बेटे ने भी शराब नहीं पी थी. वह भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘मां, तू इतना काम मत किया कर. हम दोनों कमाते हैं. क्या तुझे खाना भी नहीं खिला सकते? क्या जरूरत है तुझे सुबह से रात तक काम करने की?’’

रमिया को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. सचमुच आज सुबह से चमत्कार पर चमत्कार हो रहा था. यह सोच कर उस की आंखें भर आईं कि बेटेबहू ने आज उस की सुध ली है. स्नेह व अपनेपन की भूखी रमिया बेटेबहू का माथा सहलाते हएु बोली, ‘‘तुम्हें मेरी इतनी चिंता है, देख कर अच्छा लगा. सारा दिन घर में पड़ीपड़ी क्या करूं. काम पर जाने से मेरा मन लग जाता है.’’

दूसरे दिन सुबह जब रमिया ने अपने बेटेबहू के सुधरते व्यवहार के बारे में अम्मांजी को बताया तो वह भी हैरान रह गईं.

रमिया बोली, ‘‘अम्मांजी, मुझे लगता है देवी मां खुद ही इनसान का रूप धारण कर मुझ से मिलने आई थीं.’’

सावित्री के मुख से न चाहते हुए भी निकल गया, ‘‘काश, वह मुझ से भी मिलने आतीं.’’

रमिया के जीवन में खुशियां भर गई थीं. बेटाबहू पूरी तरह से सुधर गए थे. उस का पूरा ध्यान रखने लगे थे. एक दिन वह शाम को डेयरी से दूध ले कर लौट रही थी कि अचानक ही अपने सामने आशा व अवतारी मां को देख कर वह हैरान रह गई. अवतारी मां ने दायां हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिया.

रमिया ने भावावेश में उन के पैर पकड़ लिए और बोली, ‘‘आप उस दिन कहां गायब हो गई थीं?’’

अवतारी मां बोलीं, ‘‘अब तुझे कभी कोई कष्ट नहीं होगा. अच्छा, बता तेरी लाल बंगले वाली सावित्री कैसी हैं? माता उन से भी बहुत प्रसन्न हैं.’’

यह सुनते ही हैरान रमिया बोली, ‘‘आप उन के बारे में भी जानती हैं?’’

अवतारी ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें फैलाते हुए कहा, ‘‘भला, देवी से उस के भक्त कभी छिप सकते हैं? मैं भी सावत्री से मिलना चाहती हूं लेकिन उन के बेटे व बहू नास्तिक हैं. इसीलिए मैं उन के घर नहीं जाना चाहती.’’

रमिया तुरंत बोली, ‘‘आप अभी चलो. इस समय अम्मांजी अकेली ही हैं. बेटेबहू तो रात 8 बजे से पहले नहीं आते.’’

अवतारी मां ने कहा, ‘‘देख, आज रात मुझे तीर्थयात्रा पर जाना है लेकिन तू भक्त है और मैं अपने भक्तों की बात नहीं टाल सकती इसलिए तेरे साथ चल कर मैं थोड़ी देर के लिए उन से मिल लेती हूं.’’

अवतारी मां से मिल कर सावित्री की खुशी का ठिकाना न रहा. उन्होंने कुछ रुपए देने चाहे लेकिन अवतारी मां नाराज हो उठीं.

सावित्री ने अवतारी मां से खाना खा कर जाने की विनती की तो फिर किसी दिन आने का वादा कर के वह विदा हो गईं.

इस घटना को कई दिन बीत गए थे. एक दिन दोपहर के समय लाल बंगले की घंटी बज उठी. सावित्री ने झुंझलाते हुए बाहर लगे कैमरे में देखा तो बाहर आशा व अवतारी मां को खड़े पाया. उन की झुंझलाहट पलभर में खुशी में बदल गई. उन्होंने बड़ी तत्परता से दरवाजा खोला.

‘‘आप के लिए मां का प्रसाद लाई हूं. मां तुम से बहुत खुश हैं,’’ फिर इधरउधर देखते हुए अवतारी मां बोलीं, ‘‘रमिया दिखाई नहीं दे रही?’’

अम्मांजी चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘अभी कुछ देर पहले उस का बेटा आया था और बता गया है कि रात भर दस्त होने की वजह से उसे बहुत कमजोरी है. आज काम पर नहीं आ पाएगी.’’

अवतारी मां ने कहा, ‘‘चिंता मत करो. वह जल्दी ही ठीक हो जाएगी.’’

सावित्री के पूछने पर कि आप की तीर्थयात्रा कैसी रही, अवतारी मां कुछ जवाब देतीं इस से पहले ही फोन की घंटी घनघना उठी. सावित्री ने ड्राइंगरूम का फोन न उठा कर अपने बेडरूम में जा कर फोन उठाया. उन के बेटे का फोन था. वह कह रही थीं कि बेटा, तू चिंता मत कर, रमिया नहीं आई तो क्या हुआ, मैं कोई छोटी बच्ची तो हूं नहीं जो अकेली डर जाऊंगी.

फिर अपने स्वर को धीमा करते हुए वह बोलीं, ‘‘आनंदजी आए थे और 90 हजार रुपए दे गए हैं. मैं ने उन्हें तेरी अलमारी में रख दिया है.’’

बेटे से बात करते समय सावित्री को लगा कि ड्राइंगरूम का फोन किसी ने उठा रखा है. उन्होंने खिड़की के परदे से झांक कर देखा तो उन का शक सही निकला. फोन आशा ने उठा रखा था और इशारे से वह अवतारी को कुछ कह रही थी. सावित्री देवी तब और स्तब्ध रह गईं. जब उन्होंने अवतारी के पास मोबाइल फोन देखा, जिस से वह किसी को कुछ कह रही थी.

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एसी से ठंडे हुए कमरे में भी सावित्री को पसीने आ गए. उन्होंने जल्दीजल्दी बेटे को दोबारा फोन मिलाया. उधर से हैलो की आवाज सुनते ही वह कुछ बोलतीं, इस से पहले ही अपनी कनपटी पर लगी पिस्तौल का एहसास उन की रूह कंपा गया. आशा ने लपक कर फोन काट दिया था.

दुर्गा मां का अवतार लगने वाली अवतारी अब सावित्री को साक्षात यमराज की दूत दिखाई दे रही थी.

‘‘बुढि़या, ज्यादा होशियारी दिखाई तो पिस्तौल की सारी गोलियां तेरे सिर में उतार दूंगी. चल, अपने बेटे को वापस फोन लगा कर बोल कि तू किसी और को फोन कर रही थी, गलती से उस का नंबर लग गया वरना उस का फोन आ जाएगा.’’

सावित्री कुछ कहतीं इस से पहले ही बेटे का फोन आ गया.

‘‘क्या बात है, अम्मां? फोन कैसे किया था?’’

‘‘काट क्यों दिया…’’ सावित्री देवी मिमियाईं, ‘‘मैं तुम्हारी नीरजा बूआ से बात करना चाह रही थी लेकिन गलती से तेरा नंबर मिल गया.’’

‘‘मुझे तो चिंता हो गई थी. सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां, सब ठीक है,’’ कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया.

अवतारी गुर्राई, ‘‘बुढि़या, झटपट सभी अलमारियों की चाबी पकड़ा दे. जेवर व कैश कहांकहां रखा है बता दे. मैं ने कई खून किए हैं. तुझे भी तेरी दुर्गा मां के पास पहुंचाते हुए मुझे देर नहीं लगेगी.’’

उसी समय उन के 2 साथी युवक भी आ धमके. सावित्री को उन लड़कों की शक्ल कुछ जानीपहचानी लगी.

तभी एक युवक गुर्राकर बोला, ‘‘ए… घूरघूर कर क्या देख रही है बुढि़या? तेरे चक्कर में मैं ने भी तेरी देवी मां के मंदिर में खूब चक्कर लगाए. तू जो अपनी नौकरानी के साथ घंटों मंदिर में बैठ कर बतियाती रहती थी तब तेरे बारे में जानकारी हासिल करने के लिए हम दोनों भी वहीं तेरे आसपास मंडराते रहते थे. तेरी बड़ी गाड़ी देख कर ही हम समझ गए थे कि तू हमारे काम की मोटी आसामी है और हमारे इस विश्वास को तू ने मंदिर के बाहर हट्टेकट्टे भिखारियों को भीख में हर रोज सैकड़ों रुपए दान दे कर और भी पुख्ता कर दिया.’’

सावित्री के बताने पर आननफानन में उन्होंने घर में रखे सारे जेवरात व नकदी समेट लिए. तभी अवतारी जोर से खिलखिलाई, ‘‘बुढि़या, मैं आज तक किसी मंदिर में नहीं गई फिर भी तेरी देवी मां ने तेरी जगह मुझ पर कृपा कर दी. तेरी नौकरानी रमिया के बारे में पता चला कि वह तेरे यहां 20 साल से काम कर रही है. बड़ी नमकहलाल औरत है. उस को भरोसे में ले कर तो तुझे लूट नहीं सकते थे. इसीलिए तुम्हारी धार्मिक अंधता को भुनाने की सोची.

‘‘सच कहती हूं तुम्हारे जैसी धर्म में डूबी भारतीय नारियों की वजह से ही हम जैसे लोगों का धंधा जिंदा है. रमिया के बेटेबहू को भी पिस्तौल की नोक पर मेरे ही साथियों ने कई बार धमकाया था और रमिया समझी कि मां की कृपा से उस के बेटेबहू सुधर गए. कल रात को रास्ते में मैं ने रमिया को जमालघोटा डला प्रसाद दिया था ताकि वह आज काम पर न आ सके.’’

‘‘फालतू समय खराब मत करो,’’ एक युवक चिल्लाया, ‘‘अब इस बुढि़या का काम तमाम कर दो.’’

घबराहट से सावित्री के सीने में जोर का दर्द उठा और वह अपनी छाती पकड़ कर जमीन पर लुढ़क गईं.

पसीने से तरबतर सावित्री को देख अवतारी चहकी, ‘‘इसे मारने की जरूरत नहीं पड़ेगी. लगता है इसे दिल का दौरा पड़ा है. तुरंत भाग चलो.’’

उधर फैक्टरी में अपनी आवश्यक मीटिंग खत्म होने के बाद मनोज ने दोबारा घर फोन किया.

फोन की घंटी लगातार बज रही थी. जवाब न मिलने पर चिंतित मनोज ने पड़ोसी शर्माजी के घर फोन कर के अम्मां के बारे में पता करने को कहा.

पड़ोसिन अपनी बेटी के साथ जब उन के घर पहुंची तो घर के दरवाजे खुले थे और अम्मांजी जमीन पर बेसुध गिरी पड़ी थीं. यह देख कर वह घबरा गई. डरतेडरते वह अम्मांजी के पास पहुंची और देखा तो उन की सांस धीमेधीमे चल रही थी. उन्होंने तुरंत मनोज को फोन किया.

सावित्री को जबरदस्त हृदयाघात हुआ था. उन्हें आई.सी.यू. में भरती कराया गया. गैराज में खड़ी दूसरी गाड़ी गायब थी. 2 दिन बाद उन को होश आया. बेटे को देखते ही उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी. बेटे ने उन के सिर पर तसल्ली भरा हाथ रखा. सावित्री को पेसमेकर लगाया गया था. धीरेधीरे उन की हालत में सुधार हो रहा था.

रमिया व उन के बयान से पता चला कि लुटेरों के गिरोह ने योजना बना कर कई दिन तक सारी बातें मालूम कर के ही उन की धार्मिकता को भुनाते हुए अपनी लूट की योजना को अंजाम दिया और लाखों रुपए के जेवरात व नकदी लूट ले गए.

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उन की कार शहर के एक चौराहे पर लावारिस खड़ी मिली थी लेकिन लुटेरों का कहीं पता न चला.

दहशत व ग्लानि से भरी सावित्री को आज अपने पति की रहरह कर याद आ रही थी जो हरदम उन्हें तथाकथित साधुओं और उन के चमत्कारों से सावधान रहने को कहते थे. वह सोच रही थीं, ‘सच ही तो कहते थे मनोज के पिताजी कि अंधभक्ति का यह चक्कर किसी दिन उन की जान को सांसत में डाल देगा. अगर पड़ोसिन समय पर आ कर उन की जान न बचाती तो…और अगर वे लुटेरे उन्हें गोली मार देते तो?’

दहशत से उन के सारे शरीर में झुरझुरी आ गई. आगे से वह न तो किसी मंदिर में जाएंगी और न ही किसी देवी मां का पूजापाठ करेंगी.

वे बच्चे

लेखक- मनमोहन भाटिया

लाल बत्ती पर जैसे ही कार रुकी वैसे ही भिखारी और सामान बेचने वाले उन की तरफ लपके. बड़ा मुश्किल हो जाता है इन भिखारियों से पीछा छुड़ाना. जब तक हरी बत्ती न हो जाए, भिखारी आप का पीछा नहीं छोड़ते हैं. अब तो इन के साथसाथ हिजड़ों ने भी टै्रफिक सिग्नलों पर कार वालों को परेशान करना शुरू कर दिया है. सब से अधिक परेशान अब संपेरे करते हैं, यदि गलती से खिड़की का शीशा खुला रह जाए तो संपेरे सांप आप की कार के अंदर डाल देते हैं और आप चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं.

‘‘कार का शीशा बंद कर लो,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘गरमी में शीशा बंद करने से घुटन होती है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘डेश बोर्ड पर रखे सामान पर नजर रखना. भीख मांगने वाले ये छोटे बच्चे आंख बचा कर मोबाइल फोन, पर्स चुरा लेते हैं,’’ मैं ने कहा.

इतने में एक छोटी सी बच्ची कार के दरवाजे से सट कर खड़ी हो गई और पत्नी से भीख मांगने लगी.

कुछ सोचने के बाद पत्नी ने एक सिक्का निकाल कर उस छोटी सी लड़की को दे दिया. वह लड़की तो चली गई, लेकिन उस के जाने के फौरन बाद एक और छोटा सा लड़का आ टपका और कार से सट कर खड़ा हो गया.

‘‘एक को दो तो दूसरे से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. देखो, इस को कुछ मत देना, नहीं तो तीसरा बच्चा आ जाएगा,’’ मैं बोला.

इसी बीच बत्ती हरी हो गई और कार स्टार्ट कर के मैं आगे बढ़ गया.

‘‘इन छोटेछोटे बच्चों को भीख मांगते देख कर बड़ा दुख होता है. स्कूल जाने की उम्र में पता नहीं इन को क्याक्या करना पड़ता है. इन का तो बचपन ही खराब हो जाता है,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘यह हम सोचते हैं, लेकिन भीख मांगना इन के लिए तो एक बिजनेस की तरह है. रोज इसी सड़क से आफिस जाने के लिए गुजरता हूं, इस लाल बत्ती पर रोज इन्हीं भिखारियों को सुबहशाम देखता हूं. कोई नया भिखारी नजर नहीं आता है. मजे की बात यह कि भिखारी सिर्फ कार वालों से ही भीख मांगते हैं. लाल बत्ती पर कभी इन को स्कूटर, बाइक वालों से भीख मांगते नहीं देखा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘भिखारियों के साथसाथ अब सामान बेचने वालों से भी सावधान रहना पड़ता है.’’

‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ पत्नी ने कहा, ‘‘कभीकभी तरस आता है.’’

‘‘फायदा क्या इन पर तरस दिखाने का,’’ मैं ने कहा, ‘‘जरा ध्यान रखना, फिर से लाल बत्ती आ गई.’’

‘‘अपनी भाषा कभी नहीं सुधार सकते. लाल, हरी बत्ती क्या होती है. ट्रैफिक सिग्नल नहीं कह सकते क्या,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘फर्क क्या पड़ता है, बत्ती तो लाल और हरी ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैनर्स का फर्क पड़ता है. हमेशा सही बोलना चाहिए. अगर तुम्हें किसी को टै्रफिक सिग्नल पर मिलना हो और तुम उसे लाल बत्ती पर मिलने को कहो और मान लो, टै्रफिक सिग्नल पर हरी बत्ती हो या फिर बत्ती खराब हो तो वह व्यक्ति क्या करेगा? अगली लाल बत्ती पर आप का इंतजार करेगा, जोकि गलत होगा. इसीलिए हमेशा सही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए,’’ पत्नी ने कहा.

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‘‘अब इस बहस को बंद करते हैं. फिर से बत्ती लाल हो गई है.’’

इस बार एक छोटा सा 7-8 साल का बच्चा मेरी तरफ आया.

‘‘अंकल, टायर, एकदम नया है, सिएट, एमआरएफ, लोगे?’’ बच्चा बोला.

मैं चुप रहा.

‘‘एक बार देख लो,’’ बच्चा बोला, ‘‘सस्ता लगा दूंगा.’’

‘‘नहीं लेना,’’ मैं ने कहा.

‘‘एक बार देख तो लो. देखने के पैसे नहीं लगते,’’ बच्चा बोला.

‘‘कितने का देगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मारुति 800 का नया टायर शोरूम में लगभग 1,100 रुपए में मिलेगा. आप के लिए सिर्फ 800 रुपए में,’’ बच्चा बोला.

‘‘मेरे लिए सस्ता क्यों? टायर चोरी का तो नहीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘हम लोगों की कंपनी में सेटिंग है, इसलिए सस्ते मिल जाते हैं.’’

‘‘एक टायर कितने में लाते हो?’’

‘‘सिर्फ 50 रुपए एक टायर पर कमाते हैं.’’

‘‘50 रुपए में टायर देगा?’’

‘‘नहीं लेना तो मना कर दो, क्यों बेकार में मेरा टाइम खराब कर रहे हो,’’ बच्चा बोला.

‘‘टायर बेचने बेटे तुम आए थे, मैं चल कर तुम्हारे पास नहीं गया था,’’ मैं ने कहा.

‘‘सीधे मना कर दो,’’ बच्चा बोला.

‘‘मना किया तो था, लेकिन फिर भी तुम चिपक गए तो मैं ने सोचा, चलो जब तक लाल बत्ती है तुम्हारे साथ टाइम पास कर लूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘टाइम पास करना है तो आंटी के साथ करो न. मेरा बिजनेस टाइम क्यों खराब कर रहे हो,’’ कह कर बच्चा चला गया.

‘‘बात तो बच्चा सही कह गया,’’ पत्नी बोली, ‘‘मेरे साथ बात नहीं कर सकते थे, टाइम पास करने के लिए वह बच्चा ही मिला था. ऊपर से जलीकटी बातें भी सुना गया.’’

‘‘आ बैल मुझे मार. चुप रहो तो मुसीबत, पीछा ही नहीं छोड़ते और बोलो तो जलीकटी सुना जाते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब टायर लेना नहीं था तो उस के साथ उलझे क्यों?’’ पत्नी ने कहा.

ऐसे ही बातोंबातों में घर आ गया.

दिल्ली शहर की भागदौड़ की जिंदगी में घर और दफ्तर का रुटीन है, इसी में इतनी जल्दी दिन बीत जाता है कि अपनों से भी बात करने का समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

एक दिन आगरा घूमने का कार्यक्रम बना कर सुबह अपनी कार से रवाना हुए. खुशनुमा मौसम और सुबह के समय खाली सड़कें हों तो कार चलाने का आनंद ही निराला हो जाता है.

फरीदाबाद की सीमा समाप्त होते ही खुलाचौड़ा हाइवे और साफसुथरे वातावरण से मन और तन दोनों ही प्रसन्न हो जाते हैं. बीचबीच में छोटेछोटे गांव और कसबों में से गुजरते हुए कोसी पार कर मैं पत्नी से बोला, ‘‘चलो, वृंदावन की लस्सी पी कर आगे चलेंगे. वैसे हम दोनों पहले भी वृंदावन घूमने आ चुके हैं. मंदिरों व भगवान में अपनी कोई रुचि नहीं लेकिन यहां के बाजार में लस्सी पीने अैर भल्लाटिक्की खाने का अलग ही मजा है.’’

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कार एक तरफ खड़ी कर इस्कान मंदिर के सामने की दुकान में हम लस्सी पीने के लिए बैठ गए.

लस्सी पी कर बाहर निकले तो पत्नी बोली, ‘‘चलो, अब थकान कम हो गई.’’

कार के पास जा कर जेब से चाबी निकाली और कार का दरवाजा खोलने के लिए चाबी को दरवाजे पर लगाया ही था कि तभी एक छोटा सा बच्चा आ कर दरवाजे से सट कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘अंकल, पैसे.’’

भिखारियों को मैं कभी पैसे नहीं दिया करता पर पता नहीं क्यों उस बच्चे पर मुझे तरस आ गया और जेब से 1 रुपए का सिक्का निकाल कर उस छोटे से बच्चे को दे दिया.

वह तो चला गया लेकिन उस के जाने के बाद पता नहीं कहां से छोटे बच्चों का एक  झुंड आ गया और चारों तरफ से हमें घेर लिया.

‘‘अंकल, पैसे,’’ एक के बाद एक ने कहना शुरू किया.

मैं ने एक बार पत्नी की तरफ देखा, फिर उन बच्चों को.

जी में तो आया कि डांट कर सब को भगा दूं पर जिस तरह बच्चों की भीड़ ने हमें घेर रखा था और लोग तमाशबीन की तरह हमें देख रहे थे, शायद उस से विवश हो कर मेरा हाथ जेब में चला गया और फिर हर बच्चे को 1-1 सिक्का देता गया. किसी बच्चे को 1 रुपए का और किसी को 2 रुपए का सिक्का मिला. किसी के साथ भेदभाव नहीं था. यह इत्तफाक ही था कि जेब में 2 सिक्के रह गए और बच्चे भी 2 ही बचे थे. एक बच्चे को 5 रुपए का सिक्का चला गया और आखिरी वाले को 50 पैसे का सिक्का मिला.

‘‘क्यों, अंकल, उसे 5 रुपए और मुझे 50 पैसे?’’

‘‘जितने सिक्के जेब में थे, खत्म हो गए हैं. और सिक्के नहीं हैं, अब आप जाओ.’’

‘‘ऐसे कैसे चला जाऊं,’’ बच्चे ने अकड़ कर कहा.

‘‘और पैसे मैं नहीं दूंगा. सारे सिक्के खत्म हो गए. तुम कार के दरवाजे से हटो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मतलब ही नहीं बनता यहां से जाने का. फटाफट पैसे निकालो. दूसरे बच्चे दूर चले गए हैं. उन्हें भाग कर पकड़ना है. अपने पास ज्यादा टाइम नहीं है. अंकल, आप के पास पैसे खत्म हो गए हैं तो आंटी के पास होंगे,’’ बच्चे ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आंटी, पर्स से फटाफट पैसे निकालो.’’

मैं और मेरी पत्नी दोनों एकदम अवाक् हो एकदूसरे की शक्ल देखने लगे.

पत्नी ने चुपचाप पर्स से 5 रुपए का सिक्का निकाला और उस बच्चे को दे दिया.

सिक्का पा कर छोटा सा बच्चा जातेजाते कहता गया,  ‘‘इतनी बड़ी कार ले कर घूमते हैं. पैसे देने को 1 घंटा लगा दिया.’’

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फटाफट कार में बैठ कर  मैं ने कार स्टार्ट की और अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा.

हम आगरा पहुंचे तो काफी थक चुके थे. पत्नी ने मेरे चेहरे की थकान को देख कर कहा, ‘‘चलो, किसी गेस्ट हाउस में चलते हैं.’’

गेस्ट हाउस के कमरे में बिस्तर पर लेटेलेटे सामने दीवार पर टकटकी लगा कर मुझे सोचते देख पत्नी ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’

‘‘उस छोटे बच्चे की बात मन में बारबार आ रही है. एक तो भीख दो, ऊपर से उन की जलीकटी बातें भी सुनो. सोच रहा हूं कि दया का पात्र मैं हूं या वे बच्चे. दया की भीख मैं उन से मांगूं या उन को भीख दूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि भिखारी कौन है. आखिर सुकून की जिंदगी कब और कहां मिलेगी. कहीं भी चले जाओ, ये भिखारी हर जगह सारा मजा किरकिरा कर देते हैं.’’

‘‘चलो, इस किस्से को अब भूल जाओ और हम दोनों ही प्रतिज्ञा करते हैं कि आज के बाद कभी भी किसी को भीख या दान नहीं देंगे, चाहे वह व्यक्ति कितना ही जरूरतमंद क्यों न हो.’’

‘‘करे कोई, भरे कोई,’’ मेरे मुंह से हठात निकल पड़ा.

‘‘किसी के चेहरे पर लिखा नहीं होता कि वह जरूरतमंद है.’’

‘‘सही बात है. हमें खुद अपनेआप को देखना है. दूसरों की चिंता में अपना आज क्यों खराब करें. अब आराम करते हैं.

रैना

लेखक- रतन वर्मा

यह खबर जंगल की आग की तरह पूरी कालोनी में फैल गई थी कि रैना के पैर भारी हैं और इसी के साथ कल तक जो रैना पूरी कालोनी की औरतों में सहानुभूति और स्नेह की पात्र बनी हुई थी, अचानक ही एक कुलटा औरत में तबदील हो कर रह गई थी. और होती भी क्यों न. अभी डेढ़ साल भी तो नहीं हुए थे उस के पति को गुजरे और उस का यह लक्षण उभर कर सामने आ गया था.

अब औरतों में तेरेमेरे पुराण के बीच रैना पुराण ने जगह ले ली थी. एक कहती, ‘‘देखिए तो बहनजी इस रैना को, कैसी घाघ निकली कुलक्षिणी. पति का साथ छूटा नहीं कि पता नहीं किस के साथ टांका भिड़ा लिया.’’

‘‘हां, वही तो. बाप रे, कैसी सतीसावित्री बनी फिरती थी और निकली ऐसी घाघ. मुझे तो बहनजी, अब डर लगने लगा है. कहीं मेरे ‘उन पर’ भी डोरे न डाल दे यह.’’

‘‘अरे छोडि़ए, ऐसे कैसे डोरे डाल देगी. मैं तो जब तक बिट्टू के पापा घर में होते हैं, हमेशा रैना के सिर पर सवार रहती हूं. क्या मजाल कि वह उन के पास से भी गुजर जाए.’’

‘‘पर बहनजी, एक बात समझ में नहीं आती…सुबह से रात तक तो रैना कालोनी के ही घरों में काम करती रहती है, फिर जो पाप वह अपने पेट में लिए फिर रही है वह तो कालोनी के ही किसी मर्द का होगा न?’’

‘‘हां, हो भी सकता है. पर बदजात बताती भी तो नहीं. जी तो चाहता है कि अभी उसे घर से निकाल बाहर करूं पर मजबूरी है कि घर का काम कौन करेगा?’’

‘‘हां, बहनजी. मैं भी पूछपूछ कर हार गई हूं उस से, पर बताती ही नहीं. मैं ने तो सोच लिया है कि जैसे ही मुझे कोई दूसरी काम वाली मिल जाएगी, इस की चुटिया पकड़ कर निकाल बाहर करूंगी.’’

सच बात तो यह थी कि कालोनी की किसी भी औरत ने उस आदमी का नाम उगलवाने के लिए रैना पर कुछ खास दबाव नहीं डाला था. शायद यह सोच कर कि कहीं उस ने उसी के पति का नाम ले लिया तो.

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मगर नौकर या नौकरानी का उस शहर में मिल पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए मजबूर हो कर रैना को ही उन्हें झेलना था, और झेलना भी ऐसे नहीं बल्कि सोतेजागते रैना के खूबसूरत चेहरे में अपनी- अपनी सौत को महसूसते हुए. मसलन, जिन 4 घरों में रैना नियमित काम किया करती थी, उन सारी औरतों के मन में यह संदेह तो घर कर ही गया था कि कहीं रैना ने उन के ही पति को तो नहीं फांस रखा है.

फिर तो रोज ही सुबहशाम वे अपनेअपने पतियों को खरीखोटी सुनाने से बाज नहीं आतीं, ‘आप किसी दूसरी नौकरानी का इंतजाम नहीं करेंगे? मुझे तो लगता है, आप चाहते ही नहीं कि रैना इस घर से जाए.’

‘क्यों? मैं भला ऐसा क्यों चाहूंगा?’

‘कहा न, मेरा मुंह मत खुलवाइए.’

‘देखो, रोजरोज की यह खिचखिच मुझे पसंद नहीं. साफसाफ कहो कि तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘क्या? मैं ही खिचखिच करती हूं? और यह रैना? कैसे हमें मुंह चिढ़ाती सीना ताने कालोनी में घूम रही है, उस का कुछ नहीं? आप मर्दों में से ही तो किसी के साथ उस का…’

इस प्रकार रोज का ही यह किस्सा हो कर रह गया था उन घरों का, जिन में रैना काम किया करती थी.

आखिर उस दिन यह सारी खिच- खिच समाप्त हो गई जब औरतों ने खुद ही एक दूसरी नौकरानी तलाश ली.

फिर तो न कोई पूर्व सूचना, न मुआवजा, सीधे उसी क्षण से निकाल बाहर किया था सभी ने रैना को. बेचारी रैना रोतीगिड़गिड़ाती ही रह गई थी. पर किसी को भी उस पर दया नहीं आई थी.

कुछ दिनों तक तो रैना का गुजारा कमा कर बचाए गए पैसों से होता रहा था पर जब पास की उस की सारी जमापूंजी समाप्त हो गई तब कालोनी के दरवाजे- दरवाजे घूम कर पेट पालने लगी थी. इसी तरह दिन कटते रहे थे उस के. और जब समय पूरा हुआ तो खैराती अस्पताल में जा कर रैना भरती हो गई थी.

उस कालोनी में कुछ ऐसे घर भी थे जिन्होंने अपने यहां नियमित नौकर रखे हुए थे. उन्हीं में एक घर रमण बाबू का भी था, जहां रामा नाम का एक 12 वर्ष का बच्चा काम करता था, लेकिन एक दिन अचानक ही रामा को उस का बाप आ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने साथ ले गया.

घर का झाड़ ूपोंछा, बरतन व कपडे़ धोने आदि का काम अकेले कमलाजी से कैसे हो पाता? सो, अब उन के घर में भी नौकर या नौकरानी की तलाश शुरू हो गई थी. कमलाजी की बेटी को तो अपनी पढ़ाई से ही फुरसत नहीं मिलती थी कि वह घर के किसी भी काम में मां का हाथ बंटा सकती. सो 2 ही दिनों में घर गंदा दिखने लग गया था. जब सुबहसुबह ड्राइंगरूम की गंदगी रमण बाबू से देखी नहीं गई तो उन्होंने खुद ही झाडू उठा ली. यह देख कर कमलाजी बुरी तरह अपनी बेटी पर तिलमिला उठी थीं, ‘‘छी, शर्म नहीं आती तुम्हें? पापा झाडू दे रहे हैं और तुम…’’

‘‘बोल तो ऐसे रही हैं मम्मी कि मैं इस घर की नौकरानी हूं. अगर यही सब कराना था तो मुझे पढ़ाने की क्या जरूरत थी. बचपन में ही झाड़ ू थमा देतीं हाथ में.’’

अभी बात और भी आगे बढ़ती कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई थी.

‘‘अरे, देखो तो कौन है,’’ रमण बाबू ने कहा.

दरवाजा खोला तो सामने गोद में नवजात बच्चे को लिए रैना नजर आई थी. उसे देख कर मन और भी खट्टा हो गया था कमलाजी का. बोली थीं, ‘‘तू…तू… क्यों आई है यहां?’’

रैना गिड़गिड़ा उठी थी, ‘‘कल से एक दाना भी पेट में नहीं गया है मालकिन. छाती से दूध भी नहीं उतर रहा. मैं तो भूखी रह भी लूंगी पर इस के लिए थोड़ा दूध दे देतीं तो…’’

कमलाजी अभी उसे दुत्कारने की सोच ही रही थीं कि तभी घर के ढेर सारे काम आंखों में नाच उठे थे. फिर तो उन के मन की सारी खटास पल भर में ही धुल गई थी. बोल पड़ीं, ‘‘जो किया है तू ने उसे तो भुगतना ही पड़ेगा. खैर, देती हूं दूध, बच्चे को पिला दे. रात की रोटी पड़ी है, तू भी खा ले और हां, घर की थोड़ी साफसफाई कर देगी तो दिन का खाना भी खा लेना. बोल, कर देगी?’’

चेहरा खिल उठा था रैना का. थोड़ी ही देर में घर को झाड़पोंछ कर चमका दिया था उस ने. बरतन मांजधो कर किचन में सजा दिए थे. यानी चंद ही घंटों में कमलाजी का मन जीत लिया था उस ने.

शाम को रैना जब वहां से जाने लगी तो कमलाजी उसे टोक कर बोली थीं, ‘‘वैसे तो तुझ जैसी औरत को कोई भी अपने घर में घुसने नहीं देगा पर मैं तुझे एक मौका देना चाहती हूं. मन हो तो मेरे यहां काम शुरू कर दे. 150 रुपए माहवार दूंगी. खाना और तेरे बच्चे को दूध भी.’’

इतना सुनना था कि रैना सीधे कमलाजी के पैरों पर ही झुक गई थी.

इस प्रकार पूरी कालोनी में कुलक्षिणी के नाम से मशहूर रैना को कमलाजी के घर में काम मिल ही गया था. इस के लिए कमलाजी को कालोनी की औरतों के कटाक्ष भी झेलने पड़े थे, पर जरूरत के वक्त ‘गदहे को भी बाप’ कही जाने वाली कहावत का ज्ञान कमलाजी को था.

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रैना के घर में काम पर आने से रमण बाबू की गृहस्थी की गाड़ी फिर से पहले की तरह चलने लग गई थी, लेकिन रैना का आना उन के हक में शुभ नहीं हुआ था. जब तक रमण बाबू घर में होते, अपनी पत्नी, यहां तक कि बेटी की नजरों में भी संदिग्ध बने रहते.

धीरेधीरे हालात ऐसे होते गए थे रमण बाबू के कि दिनभर में पता नहीं कितनी बार रैना को ले कर कभी पत्नी की तो कभी बेटी की झिड़की उन्हें खानी पड़ जाती थी.

आखिर एक दिन अपने बेडरूम के एकांत में कमलाजी से पूछ ही दिया उन्होंने, ‘‘मैं चरित्रहीन हूं क्या कि जब से यह रैना आई है, तुम और तुम्हारी बेटी मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी रहती हो?’’

‘‘रैना के बारे में तो आप जानते ही हैं. आप ही बताइए जिन घरों में रैना काम किया करती थी उन घरों के मर्द कहीं से बदचलन दिखते हैं? नहीं न. पर रैना का संबंध उन में से ही किसी न किसी से तो रहा ही होगा. मैं उस मर्द को भी दोष नहीं देती. असल में रैना है ही इतनी सुंदर कि उसे देख कर किसी भी मर्द का मन डोल जाए. इसीलिए आप को थोड़ा सचेत करती रहती हूं. खैर, आप को बुरा लगता है तो अब से ऐसा नहीं करूंगी. पर आप खुद ही उस से थोड़े दूर रहा कीजिए…’’

रैना को रमण बाबू के घर में काम करते हुए लगभग 1 वर्ष हो आया था. इस बीच रैना ने एक दिन की भी छुट्टी नहीं की थी. तभी एक दिन उसे मोहन से पता चला कि उस की मां गांव में बीमार है.

मां का हाल सुन रैना की आंखों में आंसू आ गए थे. मां के पास जाने के लिए उस का मन मचल उठा था लेकिन तभी उसे अपने बच्चे का खयाल आ गया था. बच्चे के बारे में क्या कहेगी वह. समाज के लोग तो पूछपूछ कर परेशान कर देंगे. फिर मन में आया कि जब तक मां के पास रहेगी, घर से निकलेगी ही नहीं. रही बात मां की, तो उसे तो वह समझा ही लेगी. वैसे भी कौन सा उसे जिंदगी बिताने जाना है गांव…

सारा कुछ ऊंचनीच सोचने के बाद कमलाजी से सप्ताह भर की छुट्टी की बात की थी उस ने.

‘‘क्या, 1 सप्ताह…’’ अभी आगे कुछ कमलाजी बोलतीं कि बेटी ने अपनी मां को टोक दिया था, ‘‘मम्मी, जरा इधर तो आइए,’’ फिर पता नहीं उन के कान में क्या समझाया था उस ने कि उस के पास से लौट कर सहर्ष रैना को गांव जाने की इजाजत दे दी थी उन्होंने.

रैना के जाने के बाद कमलाजी अपने पति से बोली थीं, ‘‘रैना 1 सप्ताह के लिए अपने गांव जा रही है. अगर आप कहें तो हम लोग भी इस बीच पटना घूम आएं. काफी दिन हो गए मांबाबूजी को देखे.’’

‘‘देखो, मैं तो नहीं जा सकूंगा. यहां मुझे कुछ जरूरी काम है. चाहो तो तुम बच्चों के साथ हो आओ,’’ रमण बाबू बोले थे.

फिर तो रात की ट्रेन से ही कमलाजी, दोनों बच्चों के साथ पटना के लिए प्रस्थान कर गई थीं.

कमलाजी को गए अभी दूसरा ही दिन था कि अचानक ही रात में रमण बाबू को बुखार, खांसी और सिरदर्द ने आ दबोचा. सारी रात बुखार में वह तपते रहे थे. सुबह भी बुखार ज्यों का त्यों बना रहा था. चाय की तलब जोरों की लग रही थी पर उठ कर चाय बना पाने का साहस उन में नहीं था. वह हिम्मत जुटा कर बिस्तर से उठने को हुए ही थे कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

उन्होंने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने रैना खड़ी थी. उसे देख कर वह चौंक पड़े थे. अभी वह कुछ पूछते कि रैना ही बोल पड़ी, ‘‘बाबूजी, जब मैं गांव पहुंची तो मां एकदम ठीक हो गई थीं. फिर वहां रुक कर क्या करती. यहां मालकिन को दिक्कत होती या नहीं?’’

‘‘पर यहां तो कोई है नहीं. सभी पटना…’’ एकबारगी जोरों की खांसी उठी और वह खांसतेखांसते सोफे पर बैठ गए.

उन्हें उस हाल में देख कर रैना पूछ बैठी, ‘‘तबीयत तो ठीक है, मालिक?’’

खांसी पर काबू पाने की कोशिश करते हुए वह बोले थे, ‘‘देख न, कल रात से ही बुखार है. खांसी और सिरदर्द भी है.’’

इतना सुनना था कि रैना ने आगे बढ़ कर उन के माथे पर अपनी हथेली टिका दी. फिर चौंकती हुई बोल पड़ी, ‘‘बुखार तो काफी है, मालिक. कुछ दवा वगैरह ली आप ने?’’

जवाब में सिर्फ इतना बोल पाए रमण बाबू, ‘‘एक कप चाय बना देगी?’’

फिर तो चाय क्या, पूरी उन की सेवा में जुट गई थी रैना.

रमण बाबू ने फोन कर के डाक्टर को बुलवा लिया था. डाक्टर ने जोजो दवाइयां लिखीं, रैना खुद भाग कर ले आई. डाक्टर की हिदायत के अनुसार रमण बाबू के माथे पर वह अपने हाथों से ठंडे पानी की पट्टी भी रखती रही. खुद का खानापीना तो भूल ही गई, अपने बच्चे को भी दूध तभी पिलाती जब वह भूख से रोने लगता.

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इस प्रकार 2 ही दिनों में उस की देखभाल से रमण बाबू काफी हद तक स्वस्थ हो चले थे. इस बीच रैना ने उन्हें कुछ अलग ढंग से भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था. एक तो घर का एकांत, फिर रैना जैसी खूबसूरत और ‘चरित्रहीन’ स्त्री की निकटता, उस को प्राप्त करने के लिए रमण बाबू का भी मन डोल उठा था.

रात को घर का सारा काम निबटाने के बाद रैना रमण बाबू के पास जा कर बोली, ‘‘अब मैं जाती हूं, मालिक. मालकिन तो बुधवार की रात को आएंगी, मैं बृहस्पतिवार की सुबह आ जाऊंगी. आप की तबीयत भी अब ठीक ही है.’’

जवाब में रमण बाबू बोल पड़े थे, ‘‘अरे कहां, आज तो तबीयत पहले से भी ज्यादा खराब है.’’

‘‘जी?’’ चौंक कर रैना ने अपनी हथेली उन के माथे पर टिका दी थी. फिर बोली थी, ‘‘न, कहां है बुखार.’’

अभी वह उन के माथे से अपनी हथेली हटाती कि एक झपट्टे के साथ उस की कलाई पकड़ कर रमण बाबू बोल पड़े थे, ‘‘तू भी कमाल की है. अंदर का बुखार कहीं ऊपर से पता चलता है?’’

रैना समझ गई थी कि अब उस के मालिक पर कौन सा बुखार सवार है. चेहरे पर उन के प्रति घिन सी उभर आई थी. एक झटके से अपना हाथ उन की पकड़ से मुक्त कराती हुई  रैना बोल पड़ी थी, ‘‘छि मालिक, आप भी? आप मर्दों के लिए तो औरत भले अपनी जान ही क्यों न दे दे, पर आप के लिए वह मांस के टुकडे़ से अधिक कुछ भी नहीं,’’ इस के साथ ही अपने बच्चे को उठा कर वह तेजी से बाहर निकल गई थी.

बृहस्पतिवार की सुबह रैना जल्दी- जल्दी तैयार हो कर रमण बाबू के यहां पहुंच गई. कमलाजी की नजर उस पर पड़ी तो दांत पीसती हुई बोल पड़ी थीं, ‘‘आ गई महारानी? अरे, तुझ जैसी औरत पर भरोसा कर के मैं ने बहुत बड़ी भूल की.’’

रैना समझ तो गई थी कि मालकिन क्यों उस पर गुस्सा हो रही हैं, फिर भी पूछ बैठी थी, ‘‘मुझ से कोई भूल हो गई, मालकिन?’’

‘‘अरे, बेशरम, भूल पूछती है? अब बरबाद करने के लिए तुझे मेरा ही घर मिला था? हुं, मां बीमार है, छुट्टी चाहिए…’’

‘‘मां सचमुच बीमार थीं मालकिन पर जब मैं वहां पहुंची तो वह ठीक हो चुकी थीं. वहां रुकने से कोई फायदा तो था नहीं. मन में यह भी था कि यहां आप को दिक्कत हो रही होगी, इसीलिए चली आई. यहां आ कर देखा तो मालिक बहुत बीमार थे. आप लोग भी नहीं थे यहां…’’

‘‘बस, मौका मिल गया तुझे मर्द पटाने का.’’

‘‘यह क्या बोल रही हैं मालकिन. मैं तो लौट ही जाती, पर मालिक को उस हालत में छोड़ना ठीक नहीं लगा. मालिक को कुछ हो जाता तो?’’

‘‘चुप…चुप बेशरम. बोल तो ऐसे रही है जैसे वह मालिक न हुए कुछ और हो गए तेरे. अरे, बदजात, यह भी नहीं सोचा तू ने कि किस घर में सेंध मार रही है? पर तू भला क्यों सोचेगी? अगर यही सोचा होता तो शहर क्यों भटकना पड़ता तुझे? अरे, पति मेरे हैं, जो होता मैं देखती आ कर, पर…’’

‘‘बस, बस मालकिन, बस,’’ आखिर रैना के धैर्य का बांध टूट ही गया, ‘‘अगर मालिक को कुछ हो गया होता तो क्या कर लेतीं आप आ कर? अरे, पति का दर्द क्या होता है, यह आप क्या समझेंगी. आप के माथे पर तो सिंदूर चमक रहा है न. मुझ से पूछिए कि मर्द के बिना औरत की जिंदगी क्या होती है. आप ने मुझे कैसीकैसी गालियां नहीं दीं. इसीलिए न कि आज मेरे पति का हाथ मेरे सिर पर नहीं है. आज वह जिंदा होता, तब अगर छिप कर मैं किसी गैर से भी यह बच्चा पैदा कर लेती तो कोई मुझे कुछ नहीं कहता. यह जिसे पूरी कालोनी वाले मेरा पाप समझते हैं, इस में भी मेरी कोई गलती नहीं है. अरे, हम औरतें तो होती ही कमजोर हैं. बताइए, आप ही बताइए मालकिन, कोई गैर मर्द यदि किसी औरत की इज्जत जबरन लूट ले तो कुलटा वह मर्द हुआ या औरत हुई? पर नहीं, हमारे समाज में गलत सिर्फ औरत होती है.

‘‘खैर, मर्द लोग औरत को जो समझते हैं, सो तो समझते ही हैं, पर दुख तो इस बात का है कि औरतें भी औरत का मर्म नहीं समझतीं. अच्छा मालकिन, गलती माफ कीजिएगा मेरी. मैं समझ गई कि मेरा दानापानी यहां से भी उठ गया. पर मालकिन, मैं ने तो अपना धर्म निभाया है, अब ऊपर वाला जो सजा दे,’’ बोलते- बोलते रैना फफक पड़ी थी.

कमलाजी मौन, रैना की एकएक बात सुनती रही थीं. उन्हें भी लगने लगा था कि रैना कुछ गलत नहीं बोल रही. तभी रैना फिर बोली, ‘‘अच्छा तो मालकिन, मैं जाती हूं. कहासुना माफ कीजिएगा.’’

अभी जाने के लिए रैना पलटने को ही थी कि कमलाजी बोल पड़ीं, ‘‘हेठी तो देखो जरा. थोड़ा रहनसहन और चाल- चलन के लिए टोक क्या दिया, लगी बोरियाबिस्तर समेटने. मैं ने तुझ से जाने के लिए तो नहीं कहा है.’’

रैना की आंखें कमलाजी पर टिक गई थीं. कमलाजी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘देख, मैं भी औरत हूं. औरत के मर्म को समझती हूं. मैं ने तो सिर्फ  यही कहा है न कि अकेले मर्द के घर में तुझे नहीं जाना चाहिए था. खैर छोड़, अच्छा यह बता, क्या सचमुच किसी ने तेरे साथ जबरदस्ती की थी? अगर की थी तो तू उस का नाम क्यों नहीं बता देती?’’

रैना का चेहरा अजीब कातर सा हो आया. वह बोली, ‘‘उस का नाम बता दूं तो मेरे माथे पर लगा दाग मिट जाएगा? अरे, मैं तो थानापुलिस भी कर देती मालकिन, पर अपनी गांव की तारा को याद कर के चुप हो गई. मुखिया के बेटे ने तारा का वही हाल किया था जो मेरे साथ हुआ. उस ने तो थानापुलिस में भी रपट लिखवाई थी, पर हुआ क्या? रात भर तारा को ही थाने में बंद रहना पड़ा और सारी रात…

‘‘मुखिया का बेटा तो आज भी छाती तान कर घूमता फिर रहा है और बेचारी तारा को कुएं में डूब कर अपनी जान गंवानी पड़ी…मालकिन लोग तो मुझ पर ही लांछन लगाते कि सीधेसादे मर्द को मैं ने ही फांस लिया. अच्छा मालकिन, बुरा तो लगेगा आप को, एक बात पूछूं?’’

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‘‘पूछ.’’

‘‘अगर आप के पीछे मालिक ने ही मेरे साथ बदसलूकी की होती और मैं आप से बोल देती तो आप मुझे निकाल बाहर करतीं या मालिक को? मुझे ही न. हां, दोचार रोज मालिक से मुंह फुलाए जरूर रहतीं फिर आप दोनों एक हो जाते, और…’’ बोलतेबोलते फिर रैना फफक पड़ी थी.

कमलाजी ने गौर से रैना के चेहरे को देखा था. कुछ देर वैसे ही देखती रही थीं, फिर जैसे ध्यान टूटा था उन का. बोल पड़ी थीं, ‘‘अच्छा, अब रोनाधोना छोड़. देख तो कितना समय हो गया है. सारे काम ज्यों के त्यों पड़े हैं. चल, चल कर पहले नाश्ता कर ले, फिर…’’

मालकिन का इतना बोलना था कि एकबारगी फुर्ती सी जाग उठी थी रैना में. आंसू पोंछती वह तेजी से अंदर की ओर बढ़ गई थी.

शुभलाभ

लेखक-विश्वजीत बनर्जी

यह शायद सूर के किसी पद से लिया गया हो, पर अब याद नहीं. बच्चा था सो उस समय ‘म’ अक्षर की इतनी बार पुनरावृत्ति से इस के उच्चारण में बड़ा मजा आता था. यह कुछकुछ अंगरेजी ‘टंगट्वीस्टर’ जैसा ही था.

आधुनिक काल में अनुप्रास के ये सब उदाहरण चलने वाले नहीं हैं. हमारे सांसद एवं विधायक सूर या तुलसी के पदों की नहीं बल्कि लाभ के पद के मादक मधु को चख कर जिस प्रकार मतवाले हो रहे हैं इस बारे में अनुप्रास अलंकार के नए उदाहरण कुछ इस प्रकार हो सकते हैं, ‘लाभ के पद के लोभ से लालायित हो कर लार टपकना या फिर कुछ और क्लिष्ट ‘पद के लोभ से लाभ का पद लाभ कर लाभ के पद के त्याग का लाभ उठाना’ आदि.

व्याकरण के अलंकार ज्यादा उपयोगी होते जा रहे हैं क्योंकि वैचारिक एवं नैतिक नग्नता को ढकने के लिए अलंकार तो चाहिए ही, चाहे वह महज व्याकरण के ही क्यों न हों.

अब तनिक देखा जाए कि युधिष्ठिर ने महाभारत के दौरान लाभ के पद के अहम मसले को किस प्रकार हैंडल किया था. युद्ध में सामान्यतया स्थिर रहने वाले युधिष्ठिर के हृदय की धुकपुकाहट उस समय बढ़ गई थी जब उन्होंने यक्ष के अंतिम प्रश्न को सुना.

यह प्रश्न महाभारत में दर्ज नहीं है और यक्ष ने इसे युधिष्ठिर के कान में फुसफुसा कर पूछा था क्योंकि वे स्वयं भी इस के उत्तर के बारे में कौन्फिडेंट नहीं थे. अब अपने चारों भाइयों को जीवित करने के लिए यह रहा तुम्हारा आखिरी सवाल :

लाभ के पद की परिभाषा क्या है? तुम्हारे पास आप्शन हैं :

(ए) जिस पद से लाभ मिलता हो.

(बी) जिस पद को त्यागने से त्याग का लाभ मिलता हो.

(सी) जो पद न रखते बनता है न त्यागते.

(डी) ईश्वर ही जानता है.

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युधिष्ठिर ने धर्माचार्यों एवं गुरु द्रोण से प्राप्त सारे ज्ञान को खंगाल डाला पर प्रश्न का उत्तर नहीं मिला. धर्मराज इतने विचलित तो द्रौपदी के चीरहरण के समय भी नहीं दिखे होंगे. (डी) औप्शन में दिया गया जवाब ‘ईश्वर ही जानता है’ पर उन्हें भरोसा तो था पर इस के लिए फाइनली पूछ कर चेक करना जरूरी था.

‘फोन-ए-फे्रंड’ की तर्ज पर उन्होंने कृष्ण को याद किया पर पता चला कि वह वैलेंटाइन डे के मौके पर गोपियों से मिलने गए हुए थे. युधिष्ठिर ने यक्ष से ‘टाइम आउट’ मांगा एवं सीधे बैकुंठ पहुंचे. उन्हें उम्मीद थी कि बैकुंठ में इस प्रश्न का उत्तर अवश्य प्राप्त होगा.

बैकुंठ में गुरु बृहस्पति, इंद्रदेव, नारद आदि भी युधिष्ठिर की जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाए. अत: इस शंकासमाधान के लिए सभी ने एक ग्रुप बना कर विष्णु के पास जाना ही उचित समझा. क्षीर सागर में लेटे विष्णु ने जम्हाई लेते हुए अपनी आंखें खोलीं और उन की फरियाद सुन कर अपनी आंखें फिर मूंद लीं. थोड़ी देर बाद आंखें खोल कर विष्णु, युधिष्ठिर से बोले, ‘‘तुम अपने चारों तरफ देखो और बताओ कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?’’

‘‘प्रभु, चारों ओर क्षीर सागर की सफेद लहरें हिलोरें मार रही हैं,’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘मंदमंद हवा में अद्भुत सुगंध है, आकाश से गंधर्व और किन्नर फूलों की वर्षा कर रहे हैं, अप्सराएं फैशन परेड की तरह आजा रही हैं, शेषनाग अपने विशाल फन से आप को एन.एस.जी. कमांडो की भांति प्रोटेक्शन दे रहे हैं और इन सब के बीच आप फुल बेड रेस्ट का लुत्फ उठा रहे हैं और हां, लक्ष्मीजी भी आप की सेवा में अहर्निश लगी हुई हैं.’’

‘‘एग्जैक्टली,’’ विष्णु उत्तेजित हो कर बोले और फिर स्वयं अपनी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देखो, मेरा पद ही लाभ का पद है और यह सारी सुविधाएं जो तुम देख रहे हो, पदेन सुविधाएं हैं.’’

इतने सरल विश्लेषण की किसी को उम्मीद न थी, सो ‘विष्णु जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए सभी देवतागण उन के चरणस्पर्श के लिए दौड़े. युधिष्ठिर ने यक्ष के सामने उपस्थित हो कर औप्शन (डी) ईश्वर ही जानता है, पर अपने उत्तर को लौक कराया और अपने भाइयों की जान बचाई.

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लाभ के पद के सवाल पर हमारे लोकतंत्र को जैसे लकवा ही मार गया है. लोकतंत्र के तीनों मुख्य स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका सकते में आ चुके हैं. अब विधायिका को ही लें, राष्ट्रपति के पास सांसदों की बर्खास्तगी के  लिए आवेदनों की बाढ़ सी आ गई है और अगर ये सभी सचमुच बर्खास्त होते हैं तो 2-3 चीजें हो सकती हैं, संसद के खाली हो रहे विशाल सूने केंद्रीय कक्ष में शऽशऽशऽ कोई है…किस्म की हारर फिल्मों की शूटिंग हो सकती है, साथ ही सत्र के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच लाइव संसदीय डब्लू.डब्लू.एफ. का मजा उठाने से लोग वंचित रह जाएंगे, राज्य विधानसभाओं में अगर बर्खास्तगियां होती हैं तो बहुत सारे फर्नीचर बनाने वालों की जीविका खतरे में पड़ सकती है.

न्यायपालिका की स्थिति भी बहुत ठीक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में लाभ के पद को परिभाषित करने की अर्जी दी गई है. भला बताइए, न्यायपालिका को लाभ के पद की परिभाषा आखिर कैसे मालूम हो? लाभ के पद की नईनई परिभाषाएं आखिर लाभान्वित लोगों से ज्यादा सटीक कौन दे सकता है?

कार्यपालिका की सब से बड़ी समस्या होगी बर्खास्त होने या इस्तीफा देने वाले सांसदों तथा विधायकों के बंगले खाली करवाना और बिजली, पानी और टेलीफोन की मद में उन से बकाया रकम वसूलना, क्योंकि सांसद, विधायक बिना पंडित से पूछे यह काम करेंगे नहीं और पंडित पोथी देख कर खरमास में खाली करने की बात करेगा. अत: कार्यपालिका तब तक चैन की नींद सो सकती है. रही बात सांसदों से बकाया वसूलने की तो यह सवाल लाजमी है कि अगर बिजली, पानी, टेलीफोन आदि का बकाया लेना ही था तो सांसदों को सालाना 50 हजार यूनिट बिजली और पानी मुफ्त देने का प्रावधान क्यों रखा था? उन्हें 3 मुफ्त टेलीफोन लाइन पर सालाना 1 लाख 70 हजार फ्री लोकल कौल देने का क्या मतलब है? रेल में प्रथम श्रेणी में असीमित सफर, 40 बार तक बिजनेस क्लास में हवाई सफर, मुफ्त ए.सी., फ्रिज तथा कलर टीवी से सुसज्जित बंगले, मोटा यात्रा भत्ता आदि के प्रावधान के बाद भी बकाया राशि की मांग अन्याय नहीं बल्कि अपराध भी है.

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अरे भई, इतना सब मुफ्त दिया है तो थोड़ा और मुफ्त कर देते. या तो पूरा माफ करो या पूरे के पैसे लो, अगर सभी सुविधाओं के पूरे पैसे लगते तो क्या हमारे विवेकवान सांसद इतना खर्च थोड़े ही करते. निष्कर्ष यही निकलता है कि सांसद का पद अन्य सभी पदों का बाप है. अत: अब उचित यही होगा कि संसद तथा विधानसभाओं के सदस्य पदों को छोड़ कर सभी तथाकथित लाभ के पदों को अलाभकारी घोषित कर दिया जाए. साथ ही संसद और विधानसभाओं के प्रवेशद्वार पर महाजन की तिजोरी की तरह स्वस्तिक का चिह्न अंकित कर ‘शुभलाभ

स्पर्श दंश

लेखक- सुरेंद्र कुमार

एक छोटी सी घटना भी इनसान के जीवन को कैसे बदल सकती है, इस को वह अब महसूस कर रहा था. सुरेश अपनी ही सोच का कैदी हो अपने ही घर में, अपनों के बीच बेगाना और अजनबी बन गया था.

सुनंदा उस में आए बदलाव को पिछले कुछ दिनों से खामोश देख रही थी. आदमी के व्यवहार में अगर तनिक भी बदलाव आए तो सब से पहले उस की पत्नी को ही इस बात का एहसास होता है.

सुनंदा शायद अभी कुछ दिन और चुप रह कर उस में आए बदलाव का कारण खोजती लेकिन आहत मासूम मानसी की पीड़ा ने उस के सब्र के पैमाने को एकाएक ही छलका दिया.

अपनी बेटी के साथ सुरेश का बेरुखा व्यवहार सुनंदा कब तक चुपचाप देख सकती थी. वह भी उस बेटी के साथ जिस में हमेशा एक पिता के रूप में सुरेश की सारी खुशियां सिमटी रहती थीं.

रविवार की सुबह सुरेश ने मानसी के साथ जरूरत से ज्यादा रूखा और कठोर व्यवहार कर डाला था. वह भी तब जब मानसी ने लाड़ से भर कर अपने पापा से लिपटने की कोशिश की थी.

बेटी का शारीरिक स्पर्श सुरेश को एक दंश जैसा लगा था. उस ने बड़ी बेरुखी से बेटी को यह कहते हुए कि मानसी, तुम अब बड़ी हो गई हो, तुम्हारा यह बचपना अब अच्छा नहीं लगता, अपने से अलग कर दिया था. सुरेश ने बेटी को झिड़कते हुए जिस अंदाज से यह कहा था उस से मानसी सहम गई थी. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. साफ लगता था कि सुरेश के व्यवहार से उस को गहरी चोट लगी थी. वह तुरंत ही वहां से चली गई थी.

बेटी के साथ अपने इस व्यवहार पर सुरेश को बहुत पछतावा हुआ था. वह ऐसा नहीं चाहता था मगर उस से ऐसा हो गया था. तब उस को लगा भी था कि सचमुच व्यवहार पर उस का नियंत्रण नहीं रहा.

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सुरेश जानता था कि कई दिनों से खामोश सबकुछ देख रही सुनंदा अब शायद खामोश नहीं रहे. मानसी ने जरूर उस के सामने अपनी पीड़ा जाहिर की होगी.

सुरेश का सोचना गलत नहीं था. रसोई के काम से फारिग हो सुनंदा कमरे में आ गई और आते ही उस ने सुरेश के हाथ में पकड़ा अखबार छीन कर फेंक दिया. वह तैश में थी.

‘‘इस बार जब से तुम टूर से वापस आए हो तुम को आखिर हो क्या गया है? अगर बिजनेस की कोई परेशानी है तो कहते क्यों नहीं, इस तरह सब से बेरुखी से पेश आने का क्या मतलब?’’

‘‘मैं किस से बेरुखी से पेश आता हूं, पहले यह भी तो पता चले?’’ अनजान बनते हुए सुरेश ने पूछा.

‘‘इतने भी अनजान न बनो,’’ सुनंदा ने कहा, ‘‘जैसे कुछ जानते ही नहीं हो. जानते हो तुम्हारे व्यवहार से दुखी मानसी आज मेरे सामने कितनी रोई है. वह तो यहां तक कह रही थी कि पापा अब पहले वाले पापा नहीं रहे और अब वह तुम से बात नहीं करेगी.’’

‘‘अगर मानसी ऐसा कह रही है तो जरूर ही मुझ से गलती हुई है. मैं अपनी बेटी को सौरी कह दूंगा. मैं जानता हूं, मेरी बेटी ज्यादा देर तक मुझ से रूठी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्या हम दोनों उस के बगैर रह सकते हैं? एक ही तो बेटी है हमारी,’’ सुनंदा ने कहा.

इस पर सुरेश ने पत्नी का हाथ थाम उसे अपने पास बिठा लिया और बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ सुनंदा, क्या तुम को ऐसा नहीं लगता कि हमारी नन्ही बेटी अब बड़ी हो गई है?’’

सुरेश की बात को सुन कर सुनंदा हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘जनाब, इस बार आप केवल 10 दिन ही घर से बाहर रहे हैं और इतने दिनों में कोई लड़की जवान नहीं हो जाती. बेटी बड़ी जरूर हो जाती है, पर इतनी बड़ी भी नहीं कि हम उस की शादी की चिंता करने लगें. अगले महीने मानसी केवल 15 साल की होगी. अभी कम से कम 5-6 वर्ष हैं हमारे पास इस बारे में सोचने को.’’

‘‘मैं ने तो यह बात सरसरी तौर पर की थी, तुम तो बहुत दूर तक सोच गईं.’’

‘‘मुझ को जो महसूस हुआ मैं ने कह दिया. वैसे इस तरह की बातें तुम ने पहले कभी की भी नहीं थीं. इस बार जब से टूर से आए हो बदलेबदले से हो. बुरा मत मानना, मैं कोई गिलाशिकवा नहीं कर रही हूं. लेकिन न जाने क्यों मुझ को ऐसा लगने लगा है कि तुम अपनी परेशानियां अब मुझ से छिपाने लगे हो. तुम्हारे मन में जरूर कुछ है, अपनी खीज दूसरों पर उतारने के बजाय बेहतर यही होगा कि मन की बात कह कर अपना बोझ हलका कर लो,’’ सुरेश के कंधे पर हाथ रखते हुए सुनंदा ने कहा.

‘‘तुम को वहम हो गया है, मेरे मन में न कोई परेशानी है और न ही कोई बोझ.’’

‘‘मेरी सौगंध खा कर और आंखों में आंखें डाल कर तो कहो कि तुम को कोई परेशानी नहीं,’’ सुनंदा ने कहा.

उस के ऐसा करने से सुरेश की परेशानी जैसे और भी बढ़ गई. सुनंदा से आंखें न मिला कर उस ने कहा, ‘‘तुम भी कभीकभी बचपना दिखलाती हो. कारोबार में कोई न कोई परेशानी तो हमेशा लगी ही रहती है.’’

‘‘मैं कब कहती हूं कि ऐसा नहीं होता मगर पहले कभी तुम्हारी कोई कारोबारी परेशानी तुम्हारे घरेलू व्यवहार पर हावी नहीं हुई. इस बार तुम्हारी परेशानी का एक सुबूत यह भी है कि तुम अपनी बेटी की फरमाइश पर उस की बार्बी लाना भी भूल गए, वह भी तब जब उस ने मोबाइल से 2 बार तुम को इस के लिए कहा था. एक तो तुम मुंबई से उस की बार्बी नहीं लाए, उस पर उस से इतना रूखा व्यवहार, वह आहत हो रोएगी नहीं तो क्या करेगी?’’

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‘बार्बी’ के जिक्र से ही सुरेश के शरीर को जैसे कोई झटका सा लगा. जिस गुनाह के एहसास ने उस को अपनी बेटी से बेगाना बना दिया था उस गुनाह के नागपाश ने एकाएक ही उस के सर्वस्व को जकड़ लिया. सुरेश की मजबूरी यह थी कि वह आपबीती किसी से कह नहीं सकता था. सुनंदा से तो एकदम नहीं, जो शादी के बाद से ही इस भ्रम को पाले हुए है कि उस के जीवन में किसी दूसरी औरत की कोई भूमिका नहीं रही.

सुनंदा ही नहीं दुनिया की बहुत सी औरतें जीवन भर इस विश्वास का दामन थामे रहती हैं कि उन के पति को उस के अलावा किसी दूसरी औरत से शारीरिक सुख का कोई अनुभव नहीं. मर्द इस मामले में चालाक होता है. पत्नी से बेईमानी कर के भी उस की नजरों में पाकसाफ ही बना रहता है.

लेकिन कभीकभी मर्द की बेईमानी और उस का गोपनीय गुनाह कैसे उस के जीवन से उस के अपनों को दूर कर सकता है, सुरेश की कहानी तो यही बतलाती थी.

सुनंदा ने गलत नहीं कहा था. मानसी ने 2 बार मोबाइल से अपने पापा सुरेश से ‘बार्बी’ लाने की बात याद दिलाई थी. लेकिन न तो मानसी इस बात को जानती थी और न ही सुनंदा कि जब दूसरी बार मानसी ने सुरेश से बार्बी लाने की बात की थी तब वह मुंबई में नहीं गोआ में था.

सुरेश बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के पहली बार गोआ गया था और गोआ ने उस के लिए रिश्तों के माने इतने बदल डाले कि वह अपनी बेटी से मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत दूर हो गया था.

मानसी का बचपन बीत गया था पर उस का गुडि़यों के संग्रह का शौक अभी गया नहीं था. मानसी के होश संभालने के बाद से सुरेश जब कभी भी टूर पर जाता था वह अपने पापा से बार्बी की नईनई गुडि़या लाने को कहती थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि सुरेश अपनी बेटी की मांगी कोई चीज लाना भूला हो. इस बार भी सुरेश नहीं भूला था. यह अलग बात है कि इस बार उस ने बार्बी मुंबई से नहीं गोआ से खरीदी थी. मगर उसी बार्बी ने सुरेश को बेटी से दूर कर दिया था.

सुनंदा भले ही सुरेश के बारे में कितने भी भ्रम पाले रही हो मगर सच था कि शादी के बाद भी वह जिस्म का कारोबार करने वाली औरतों से यौनसंपर्क बनाता रहा था. ऐसा वह तभी करता था जब वह अपने कारोबार के सिलसिले में घर से बाहर दूसरे शहर में होता था. अगर कभी सुरेश का अपना मन बेईमान न हो तो कारोबारी दोस्तों की बेईमानी में साथी बनना पड़ता था. अब की बार इसी तरह के एक चक्कर में सुरेश के साथ जो घटना घटी थी उस ने उस की अंदर की आत्मा को झकझोर डाला था.

गोआ जाने का सुरेश का कोई कार्यक्रम नहीं था. यह तो सुरेश का मुंबई वाला कारोबारी दोस्त युगल था जिस ने अचानक ही गोआ का कार्यक्रम बना डाला था. युगल बाजारू औरतों का रसिया था और अपनी पत्नी के साथ विवाद के चलते वह चैंबूर इलाके में फ्लैट ले कर अकेले ही रह रहा था.

औरतों की तो मुंबई में भी कोई कमी नहीं थी मगर गोआ में उस के जाने का आकर्षण बालवेश्याएं थीं. 12-13 से ले कर 15-16 साल की उम्र तक की वे लड़कियां जो तन और मन दोनों से ही अभी सेक्स के लायक नहीं थीं. मगर अय्याश तबीयत मर्दों की विकृत सोच इन्हीं में पाशविक आनंद तलाशती है.

गोआ में बालवेश्यावृत्ति के बारे में सुरेश ने भी पढ़ा था. इस को ले कर जब युगल ने सुरेश से बात की तो उस का मन भी ललचा गया था.

सारी रात बस का सफर कर के सुरेश और युगल सुबह गोआ की राजधानी पणजी पहुंचे थे. गोआ सुरेश के लिए नई जगह थी, युगल के लिए नहीं. पणजी में कहां और किस होटल में ठहरना था और क्या करना था यह युगल को मालूम था.

होटल में लगभग 4 घंटे आराम करने के बाद सुरेश और युगल बाहर घूमने निकले. दोनों गोआ के खूबसूरत बीचों पर घूम कर अपना समय गुजारते रहे क्योंकि उन्हें तो रात होने का इंतजार था.

शाम होटल लौटते समय सुरेश बाजार से मानसी के लिए बार्बी गुडि़या खरीदना नहीं भूला. मुंबई के मुकाबले गोआ में बार्बी थोड़ी महंगी जरूर मिली थी, मगर उस को खरीदने के बाद सुरेश काफी निश्ंिचत हो गया था कि अब घर वापस जाने पर उसे अपनी बेटी की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ेगी.

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होटल के अपने कमरे में आ कर सुरेश ने मानसी के लिए खरीदी बार्बी को यह सोच कर मेज पर रख दिया था कि यहां से जाते समय वह अपने बैग में जगह बना कर इसे रख लेगा.

पणजी में आ कर युगल ने होटल में एक नहीं 2 कमरे बुक करवाए थे. एक सुरेश के नाम से और दूसरा अपने नाम से. बेशक दोनों पणजी पहुंचने के बाद एक ही कमरे में साथसाथ थे, लेकिन रात को उन दोनों को अलग- अलग कमरे में रहना था.

शाम को होटल में वापस आ कर युगल लगभग 1 घंटा गायब रहा था. उस को रात का इंतजाम जो करना था.

1 घंटे बाद युगल वापस आया और अपने होंठों पर जबान फेरते हुए एक खास अंदाज में बोला, ‘‘सुरेश, सारा इंतजाम हो गया है. रात 11 बजे के बाद लड़की तुम्हारे कमरे में होगी. सुबह होने से पहले तुम्हें उस को फारिग करना है. लड़की के साथ पैसों का कोई लेनदेन नहीं होगा. जो उस को छोड़ने आएगा, पैसे वही लेगा.’’

इस के बाद युगल ने गोआ की मशहूर शराब की बोतल खोली. खाना उन दोनों ने होटल के कमरे में ही मंगवा लिया था. खाना खाने के बाद दोनों ने थोड़ी देर गपशप की. रात के लगभग साढे़ 10 बजे अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देख युगल ने अपनी एक आंख दबाते हुए सुरेश से ‘गुडनाइट’ कहा और अपने नाम से बुक दूसरे कमरे में चला गया.

सवा 11 बजे के आसपास सुरेश के कमरे के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी.

सुरेश के ‘यस, कम इन’ कहने पर एक आदमी अपने साथ एक लड़की लिए कमरे में दाखिल हो गया. लड़की की उम्र 14 साल से ज्यादा नहीं थी. लड़की का कद भी छोटा था और उस के अंग विकास के शुरुआती दौर में थे.

लड़की को कमरे में छोड़ कर वह आदमी सुरेश से 700 रुपए ले कर चला गया. यह उस लड़की की एक रात की कीमत थी.

उस आदमी के जाने के बाद सुरेश ने कमरे की चिटखनी लगा दी थी.

लड़की सिर झुकाए अपनी उंगली के नाखून कुतर रही थी. उस के चेहरे पर किसी तरह की कोई घबराहट नहीं थी. मगर कोई दूसरा भाव भी नहीं था.

इतना तय था कि उसे यह जरूर पता था कि उस के साथ रात भर क्या होने वाला था. मगर उस के साथ जो होना था उस के बारे में शायद उस को पूरा ज्ञान नहीं था. उस की उम्र अभी शायद इन चीजों के बारे में जानने की थी ही नहीं.

सुरेश ने उस का नाम भी पूछा था. नाम से लगता था कि वह क्रिश्चियन थी. मारिया नाम बतलाया था उस ने अपना.

अपने शरीर के निशानों को सहलाने के बाद भी उस की आंखों में मासूमियत बरकरार थी. उस मासूमियत में दम तोड़ते कई सवाल भी थे.

इनसान की जिंदगी में ऐसे कई मौके आते हैं जब वह खुद अपनी ही नजरों में अपने किए पर शर्मिंदा नजर आता है. यही हालत उस वक्त सुरेश की थी.

कपडे़ पहनने के बाद मारिया कमरे में इधरउधर देखने लगी. फिर उस की भटकती नजरें किसी चीज पर टिक गई थीं.

उसी पल सुरेश ने उस के चेहरे पर बच्चों की निर्दोष और स्वाभाविक ललक देखी.

सुरेश ने देखा, मारिया की नजरें उस बार्बी पर टिकी थीं जोकि उस ने मानसी के लिए खरीदी थी.

वह ज्यादा देर बार्बी को दूर से निहारते नहीं रह सकी थी. उम्र और सोच से वह थी तो एक बच्ची ही. उस ने मामूली सी झिझक के बाद मेज पर रखी बार्बी उठाई और उस को अपने सीने से लगा कर सुरेश को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आप ने जो कहा, रात भर मैं ने वही किया. अगर आप मेरी सेवा से खुश हैं तो बख्शीश में यह गुडि़या मुझे दे दो. मैं कभी किसी गुडि़या से नहीं खेली साहब, क्योंकि कोई भी मुझ को गुडि़या ले कर नहीं देता.’’

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मारिया के मुख से निकले ये शब्द किसी कटार की तरह सुरेश के सीने के आरपार हो गए थे. एक पल के लिए उस को ऐसा लगा था कि ‘बार्बी’ को अपने सीने से चिपकाए उस के सामने उस की अपनी बेटी मानसी खड़ी थी…वही मासूम आंखें…मासूम आंखों में वैसी ही ललक, वही अरमान…

उसी रात सुरेश की अपनी नजरों में अपनी ही मौत हो गई थी. वह मौत जिस को किसी दूसरे ने नहीं देखा था. इस गुपचुप मौत के बाद उस में कुछ भी सामान्य नहीं रहा था. अपनी बेटी के शरीर का स्पर्श ही सुरेश के लिए एक ऐसे दंश जैसा बन गया था जिस का दर्द उस से सहन नहीं होता था.

गोआ के एक होटल के कमरे में सुरेश को मारिया नाम की उस लड़की में मानसी नजर आई थी, अब मानसी में उस को मारिया नाम की लड़की की सूरत दिखने लगी थी. वह उन दोनों को अलग करने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहा था.

उस मोड़ पर

भावनाओं की रौ में बह कर लिए गए फैसले हमेशा गलत होते हैं. चांदनी के प्यार में दीवाने हुए राजीव ने भी ऐसा ही एक फैसला किया उस से शादी करने का. लेकिन महत्त्वाकांक्षी चांदनी ने उसी राजीव के फैसले को इतनी बेदर्दी से ठुकरा दिया जिस के लिए उस ने अपना घर और घर वालों को छोड़ा था.

कभीकभी जीवन की सचाइयां वर्षों के फैसलों को पल भर में बदल देती हैं. प्यार और भावनाओं के आवेश में किए गए वादे दौलत की चमक के आगे बेमानी जान पड़ते हैं और इनसान को लगने लगता है कि उस के पांव के नीचे का धरातल कितना कमजोर था, उस के विश्वास की बुनियाद कितनी खोखली थी.

अपने विवाह के निमंत्रणपत्र को निहारते हुए ऐसे न जाने कितने विचार राजीव के मन को मथ रहे थे. उस की यादों में वे लमहे कौंध गए, जब शाम के समय वह और चांदनी सागर के किनारे रेत पर जा बैठते थे. चांदनी बारबार रेत पर उस के नाम के साथ अपना नाम लिखती जिसे सागर की लहरें आ कर मिटा देती थीं. तब वह उस की बांहों को थाम स्नेहसिक्त स्वर में कहती, ‘आज ये नासमझ लहरें भले ही तुम्हारे नाम के साथ लिखे मेरे नाम को मिटा डालें किंतु कल जब हम दोनों का विवाह हो जाएगा तब तुम्हारे नाम के साथ मेरे नाम को कौन मिटा पाएगा?’ उन लमहों को याद कर राजीव के होंठों पर एक विद्रूप सी मुसकान तैर गई और वह अतीत की गहराइयों में उतरता चला गया.

उस शाम लायंस क्लब में काव्य गोष्ठी का आयोजन था. कई बड़ेबड़े कवि वहां आए हुए थे. साहित्य में रुचि होने के कारण राजीव भी अकसर ऐसे कार्यक्रमों में जाया करता था. उस दिन एक 20-21 साल की युवती की काव्य रचना को काफी सराहा गया था. शब्दों का चयन और भावों की अभिव्यक्ति के बीच सुंदर तालमेल था. कार्यक्रम की समाप्ति पर वह उस लड़की के करीब पहुंचा और बोला, ‘आप बहुत अच्छा लिखती हैं, इतनी कम उम्र में विचारों में इतनी परिपक्वता कम ही देखने को मिलती है.’

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चांदनी हंस दी तो वह एकटक उसे निहारता रह गया था.

‘सच कहूं तो आप का नाम भी आप की कविता की तरह दिल को ठंडक पहुंचाने वाला है,’ वह बोला.

चांदनी खिलखिला पड़ी. उस की खनकती हंसी ऐसी थी मानो जलतरंग बज उठी हो. उस की सुंदर दंतपंक्तियों को देख लग रहा था मानो गुलाब की 2 पंखडि़यों के बीच में आकाश से तारे उतर कर सिमट गए हों.

राजीव मंत्रमुग्ध सा उसे निहारता ही रह गया. उसे लगा, चांदनी के रूप में विधाता ने स्वयं एक जीतीजागती काव्य रचना लिख डाली थी. जैसे ही घर जाने के लिए चांदनी ने बाहर की ओर कदम बढ़ाए, बादलों की गड़गड़ाहट ने बारिश की सूचना दे डाली.

चांदनी घबरा कर बोली, ‘अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’

‘अगर आप को कोई एतराज न हो तो आप मेरे साथ कार में बैठ कर अपने घर चल सकती हैं,’ राजीव ने कहा.

पहले तो चांदनी के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे फिर परिस्थिति की मजबूरी को समझते हुए उस ने सहमति में गरदन हिला दी. राजीव चांदनी को उस के घर छोड़ कर अपने घर लौट आया.

राजीव शहर के सब से बड़े ज्वैलर्स विजय सहाय का छोटा बेटा था. उस से बड़े दोनों भाई संजय और अजय बी.ए. तक पढ़ाई कर के पिताजी के व्यवसाय में उन का हाथ बटा रहे थे किंतु राजीव की पढ़ने में रुचि अधिक थी इसलिए वह अपने ही शहर के एक प्रतिष्ठित कालिज से एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था. शाम को वह अपनी दुकान पर चला जाता था.

उस दिन भी राजीव कुछ ग्राहकों को आभूषण दिखा रहा था, जब चांदनी अपनी मां के साथ वहां आई. उसे देख वह प्रसन्न हो उठा. चांदनी भी उसे दुकान में देख कर हैरान रह गई थी.

‘अरे, तुम यहां? लगता है, पढ़ाई के साथसाथ  पार्टटाइम नौकरी भी करते हो?’

राजीव मुसकराया, ‘ऐसा ही कुछ समझ लो. फिर उस की मां से बोला, ‘हां, तो बताइए आंटी, क्या दिखाऊं?’

‘बेटी के लिए हलका सा हार चाहिए.’

‘अभी लीजिए,’ और इसी के साथ राजीव ने वार्डरोब से कई डब्बे निकाल कर उन के सामने रख दिए. एक के बाद एक कर के कई डब्बे देखने के बाद एक लाल मोतियों के हार पर चांदनी की नजर अटक गई. उस ने उस हार को अपने गले में पहना और खुद को शीशे में निहारते हुए राजीव से पूछा, ‘कैसा लग रहा है?’

प्रशंसात्मक नजरों से राजीव ने चांदनी को देखा और बोला, ‘आप के गले में पड़ कर यह हार नहीं जीत लग रहा है.’

‘हार से ज्यादा सुंदर तो आप की बातें हैं,’ चांदनी बोली, ‘क्या कीमत है इस की?’

‘किस की, हार की या मेरी जबान की?’ राजीव हंसा फिर बोला, ‘5 हजार रुपए.’

चांदनी ने हार खरीद लिया. राजीव ने अपने पिताजी से कह कर उस की कीमत कुछ कम करवा दी. चांदनी उस के हाथ से रसीद लेते हुए बोली थी, ‘लगता है तुम्हारा यहां अच्छा रसूख है.’

राजीव हंस दिया था. अगली शाम वह दुकान पर जब पहुंचा तो चांदनी को वहां पहले से ही आ कर बैठे देखा. वह उस के पिताजी से पूछ रही थी, ‘आप का वह राजीव नाम का कर्मचारी आज नहीं आया?’

पिताजी पहले तो हंसे, फिर बोले, ‘बेटी, वह मेरा कर्मचारी नहीं, मेरा सब से छोटा बेटा है.’

तभी चांदनी की नजर राजीव पर पड़ी. उस ने आंखें तरेर कर उस की तरफ देखा तो उस ने अभिवादन में हलका सा सिर झुका दिया.

चांदनी को हार के साथ के टाप्स चाहिए थे. राजीव ने एक हफ्ते बाद उसे आने के लिए कहा परंतु 3 दिन में ही टाप्स तैयार करवा कर वह उन्हें ले कर चांदनी के घर पहुंच गया.

राजीव को घर आया देख चांदनी बहुत खुश हुई और जल्दी से चाय बना कर ले आई. वह मध्यवर्गीय परिवार की लड़की थी. उस के पिता बिजली विभाग में क्लर्क थे. घर में मांबाप के अलावा एक छोटी बहन भी थी.

चाय पीते हुए चांदनी ने पूछा था, ‘राजीव, तुम इतने बड़े ज्वैलर्स के बेटे हो, घर का जमाजमाया व्यवसाय है, फिर भला तुम्हें एम.बी.ए. करने की क्या सूझी?’

‘मुझे शुरू से ही पढ़ाई का शौक रहा है. पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती, चांदनी. एक न एक दिन काम आती  ही है,’ उस ने तर्क दिया.

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चांदनी ने कंधे उचकाए फिर लापरवाही से बोली, ‘पता नहीं, एम.बी.ए. तुम्हारे ज्वैलरी के व्यवसाय में क्या काम देगा? मेरे विचार में तो पढ़ाईलिखाई का चक्कर छोड़ कर तुम्हें जल्द से जल्द अपने व्यवसाय पर अपनी पकड़ मजबूत करनी चाहिए.’

राजीव खामोश रहा.

वह बोली, ‘क्या सोचने लगे?’

‘सोच रहा था कि अगली बार तुम्हारे घर किस बहाने से आऊंगा?’

उस की बात पर वह खिलखिला कर बोली, ‘राजीव, अब तुम्हें मेरे घर आने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं है. जब भी दिल करे बेझिझक आया करो.’

धीरेधीरे चांदनी, राजीव की अच्छी दोस्त बन गई. दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा. दोस्ती के इस रिश्ते में कब प्यार की कोंपलें फूटने लगीं उसे पता ही नहीं चला. अकसर वह और चांदनी समुद्र के किनारे जा बैठते थे. ऐसी ही एक सुनहरी शाम को राजीव ने चांदनी का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा था, ‘चांदनी, मुझ से शादी करोगी?’

यह सुन कर उस के गाल शर्म से  लाल हो उठे थे. वह बोली थी, ‘तुम इतने पैसे वाले बाप के बेटे हो. तुम से विवाह करने का सौभाग्य मिले, इस से ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है? मेरे घर वाले तुरंत राजी हो जाएंगे.’

चांदनी का जवाब पा कर राजीव का मन मयूर नाच उठा था किंतु साथ ही उसे यह चिंता भी थी कि पिताजी प्रेम विवाह के सख्त खिलाफ थे. मंझले भैया एक लड़की को चाहते थे पर पिताजी ने उन की एक न सुनी और भाई का विवाह अपनी पसंद की लड़की से कर दिया. चांदनी के साथ उस के प्रेम की बात उन के कानों में पड़ेगी, तब पता नहीं उन पर क्या प्रतिक्रिया हो. आखिर उस ने सबकुछ समय पर छोड़ दिया.

राजीव का एम.बी.ए. पूरा हो चुका था. अब वह पिताजी के साथ पूरी तरह उन के व्यवसाय में व्यस्त हो गया. एक दिन उस के पिताजी ने काम के सिलसिले में उसे देहरादून जाने के लिए कहा और बोले, ‘देखो बेटे, देहरादून में मेरे बचपन का दोस्त लक्ष्मीकांत रहता है. तुम उन्हीं के घर ठहरना. लक्ष्मीकांत का भी देहरादून में ज्वैलरी का व्यवसाय है. तुम अपने काम में उन की मदद लोगे तो तुम्हारा काम जल्दी हो जाएगा.

देहरादून पहुंच कर राजीव को लक्ष्मीकांत की कोठी तलाशने में कोई कठिनाई नहीं हुई. उसे देख कर वह बहुत प्रसन्न हुए. ड्राइंगरूम में राजीव को बैठा कर उन्होंने आवाज लगाई, ‘अरे, पूजा बेटी, राजीव आ गया है. चाय ले कर आओ.’

थोड़ी देर बाद परदा हटा और ट्रे हाथ में लिए पूजा ने कमरे में प्रवेश किया. लक्ष्मीकांतजी ने राजीव से पूजा का परिचय कराया तो वह धीरे से ‘हैलो’ बोली और नजरें नीची किए चाय बनाने लगी.

दोनों को चाय दे कर जब वह जाने को हुई तो लक्ष्मीकांत बोले, ‘पूजा बेटी, राजीव हमारे घर दोचार दिन रुकेगा. यह पहली बार देहरादून आया है, इसे घुमाना तुम्हारा काम है.’

‘ठीक है, पापा. आज शाम को मैं इन्हें सहस्रधारा ले कर जाऊंगी.’

नाश्ता कर के राजीव और लक्ष्मीकांत काम के सिलसिले में बाहर चले गए. शाम को वह वापस लौटा तो पूजा तैयार खड़ी थी. दोनों कार से सहस्रधारा पहुंचे. सहस्रधारा का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था.

पूजा व राजीव दोनों पानी के बीच में पड़े पत्थरों पर बैठ गए.

राजीव ने पूछा, ‘पूजा, आजकल तुम क्या कर रही हो?’

‘एम.ए. करने के साथसाथ मैं ज्वैलरी डिजाइनिंग का कोर्स कर रही हूं ताकि पापा के व्यवसाय में उन का हाथ बटा सकूं,’ पूजा बोली थी, ‘और तुम क्या कर रहे हो?’ उस ने राजीव से पूछा.

‘मैं ने एम.बी.ए. किया है. अब पिताजी के व्यवसाय में हाथ बंटा रहा हूं.’

‘एम.बी.ए. कर के तुम कोई दूसरा काम भी कर सकते हो. किसी कंपनी में नौकरी कर सकते हो. मार्केटिंग कर सकते हो. टीचिंग भी कर सकते हो.’

‘सलाह तुम अच्छी दे रही हो किंतु मुझे यह सब करने की क्या जरूरत है, जब पिताजी का जमाजमाया व्यवसाय है.’

‘तुम्हारे बारे में तो मैं नहीं जानती पर अपने बारे में मैं बता सकती हूं कि तुम्हारी जगह अगर मैं होती तो कम से कम कुछ महीनों तक अपने बलबूते अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयास जरूर करती. मुझे पता तो चलता कि मेरे अंदर कितनी क्षमता है,’ पूजा एक पल के लिए रुकी थी फिर बोली, ‘जीवन में अपनी अलग पहचान बनानी भी बहुत जरूरी है. संघर्ष करने से इनसान के जीवन में निखार आता है. पापा का व्यवसाय तो कभी भी अपनाया जा सकता है.’

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राजीव पूजा की बातों से बहुत प्रभावित हुआ था. शाम हो चली थी. घर जाने के लिए दोनों उठ खड़े हुए. अभी राजीव ने कदम आगे बढ़ाया ही था कि अचानक पत्थर पर से पैर फिसल गया. इस से पहले कि वह लड़खड़ा कर गिरता, पूजा ने उसे संभाल लिया था. दर्द की तीखी लहर उस के शरीर में दौड़ गई थी.

‘लगता है पांव में मोच आ गई है,’ राजीव ने अपना पांव मसलते हुए कहा.

‘एक मिनट  ठहरो,’ पूजा तेजी से कार की ओर लपकी और वहां से दवा का डब्बा उठा लाई. दर्द की दवा पैर पर मल कर उस ने क्रेप बैंडेज बांध दी. पूजा ने ड्राइविंग सीट संभाल ली. राजीव उस के बराबर में जा बैठा और वह दक्षता से कार चलाती हुई उसे घर ले आई थी.

3 दिन देहरादून में रुक कर राजीव अपने घर लौट आया. अपने मित्र का हालचाल जानने के बाद पिताजी बोले, ‘राजीव, पूजा तुम्हें कैसी लगी?’

‘पिताजी, पूजा बहुत अच्छी लड़की है. बहुत बुद्धिमान और साहसी. आजकल ज्वैलरी डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है.’

‘मुझे पूरी उम्मीद थी कि पूजा तुम्हें पसंद आएगी,’ पिताजी बोले, ‘बेटे, मैं और लक्ष्मीकांत तुम्हारा और पूजा का विवाह करना चाहते हैं.’

‘क्या? पिताजी, ऐसा कैसे हो सकता है?’ राजीव ने हैरानी से मां और पिताजी को बारीबारी से देखा.

‘क्यों नहीं हो सकता? पूजा अच्छी लड़की है. घर अच्छा है, फिर तुम्हें और क्या चाहिए?’ पिताजी ने उसे घूरा.

राजीव की उन से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हुई. वह उठ कर अपने कमरे में आ गया.

मां राजीव के कमरे में आईं और उस के समीप बैठ कर स्नेह से बोलीं, ‘मुझे बता बेटा, क्या बात है? क्या पूजा तुझे पसंद नहीं?’

उस दिन सबकुछ बताने का समय आ गया था, राजीव ने मां की तरफ देखा. हिम्मत जुटा कर धीमे स्वर में बोला, ‘मां, मैं चांदनी से प्यार करता हूं. यही सच है और एक न एक दिन आप सब को इस सचाई को स्वीकारना ही पड़ेगा.’

‘तू जानता है राजीव, तेरे पिताजी यह बात कभी नहीं मानेंगे. उन के दिल में तेरे विवाह को ले कर कितने अरमान हैं. क्या बीतेगी उन के दिल पर, जब उन्हें यह पता चलेगा?’ मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें सिमट आईं.

‘मां, पिताजी के अरमानों के लिए क्या मैं अपने प्यार को कुर्बान कर दूं?’

‘मेरे लिए किसी को कोई कुर्बानी देने की जरूरत नहीं है राजीव की मां,’ पिताजी ने कमरे में आते हुए कहा और कुरसी खींच कर बैठते हुए बोले, ‘देखो राजीव, पिता होने के नाते तुम्हें समझाना मेरा फर्ज है. विवाह कोई हंसीखेल नहीं. जीवन भर का बंधन है. तुम्हारा भाई अजय भी यह गलती करने जा रहा था पर वक्त रहते वह संभल गया. देखो, मैं कितनी अच्छी बहू लाया हूं उस के लिए. आज वह कितना खुश है.’

‘भैया संभले नहीं थे, आप से डर गए थे इसलिए आप के आगे झुक गए. पर मैं झुकने वाला नहीं. अपने प्यार का बलिदान नहीं कर सकता मैं.’

‘अच्छा बताओ, तुम कितने दिन से चांदनी को जानते हो?’ राजीव की ओर देख पिताजी व्यंग्यात्मक लहजे में बोले.

‘लगभग 6 माह से,’ धीमे स्वर में राजीव बोला.

‘और मैं ने पूजा को बचपन से बड़ा होते देखा है. 15 साल की थी वह जब उस की मां चल बसी थीं. तभी से उस ने अपने घर को संभाल लिया था. उस में बहुत ठहराव है…’

अपने पिताजी की बात बीच में काटते हुए राजीव बोला, ‘आप और मां एक बार चांदनी को देख तो लीजिए. पिताजी, चांदनी बहुत सुंदर है. उस के संस्कार बहुत ऊंचे हैं, जबकि आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी पूजा हमेशा जींस टाप पहने रहती है. ऐसी लड़की हमारे घर में कैसे सामंजस्य बैठा पाएगी?’

‘देखो राजीव, किसी के पहनावे से उस के संस्कारों का पता नहीं चलता है. चांदनी एक साधारण परिवार की लड़की है. मैं दावे से नहीं कह रहा हूं पर इस बात की संभावना हो सकती है कि वह तुम से  नहीं तुम्हारे पैसे से प्यार करती हो.’

अपने पिताजी की बात पर राजीव गुस्से से भन्ना कर बोला, ‘आप समझते हैं कि दुनिया में पैसा ही सबकुछ है, भावनाएं कुछ भी नहीं. आप को अपने पैसे पर इतना ही घमंड है तो मैं अभी यह घर छोड़ कर चला जाता हूं. आप को अपने पैरों पर खड़ा हो कर दिखाऊंगा. आप का पैसा और रुतबा न होने पर भी चांदनी मुझ से ही शादी करेगी, देख लीजिएगा.’

‘अगर ऐसा हुआ तो मैं खुद अपनी बहू को घर ले कर आऊंगा,’ पिताजी बोले.

राजीव ने अपने कपड़े अटैची में रखे और मां पिताजी के पांव छू अटैची उठा घर से बाहर आ गया. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाए, तभी सौरभ का खयाल आते ही वह आटो पकड़ कर सौरभ के घर की ओर चल दिया.

सौरभ को राजीव ने सारी स्थिति बता दी तो वह बोला, ‘घर से तू चला आया, अब करेगा क्या?’

‘कुछ न कुछ तो करूंगा ही. चांदनी को पाने के लिए अपनी अलग पहचान बनाना बहुत जरूरी है.’

शाम को राजीव काफी हाउस में चांदनी से मिला और सारे हालात के बारे में उसे बताया. घर से अलग होने की बात सुन कर चांदनी स्तब्ध रह गई. वह नाराजगी जाहिर करते हुए बोली, ‘राजीव, तुम्हें घर नहीं छोड़ना चाहिए था. घर में रह कर भी तो तुम पिताजी को मना सकते थे.’

‘पिताजी मानने वाले नहीं थे, फिर अजय भैया के वक्त भी वह कहां माने थे? आखिरकार भाई को ही झुकना पड़ा था. मैं नहीं चाहता कि हमारे प्यार का भी वही हश्र हो इसलिए मुझे घर छोड़ना पड़ा.’

‘किंतु राजीव, मैं नहीं चाहती कि मेरी खातिर तुम अपने घर वालों को छोड़ो. लोग तो मुझे ही बुरा कहेंगे न.’

‘जिसे जो कहना है, कहने दो. मुझे किसी की परवा नहीं है. मैं अपना घर छोड़ सकता हूं चांदनी, किंतु तुम्हें नहीं छोड़ सकता.’

‘फिर अब क्या करने का इरादा है?’

‘अब नौकरी तलाश करूंगा. तुम निराश मत हो चांदनी, सब ठीक हो जाएगा.’

एक माह के अंदर ही राजीव को नौकरी मिल गई. एक प्रोफेशनल कालिज में वह बी.बी.ए. के छात्रों को पढ़ाने लगा. शाम के समय 9वीं और 10वीं के बच्चे उस के पास ट्यूशन पढ़ने आने  लगे थे. इस से अच्छी आमदनी होने लगी थी उसे. कुछ दिन बाद राजीव ने सौरभ के घर के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया. अब वह बहुत खुश था. उस का एम.बी.ए. करना सार्थक हो गया था. धीरेधीरे घर की आवश्यक वस्तुएं जुटाने में 3 माह बीत गए.

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एक रात वह अपने कमरे में बैठा टेलीविजन पर फिल्म देख रहा था, तभी बड़े भैया का फोन आया, ‘राजीव, जल्दी से सिटी नर्सिंगहोम पहुंचो, मां को हार्टअटैक पड़ा है.’

राजीव का दिल धक् से रह गया. जल्दी से स्कूटर स्टार्ट कर वह नर्सिंगहोम पहुंचा. घर के सभी सदस्य आई.सी.यू. के बाहर जमा थे. वह पिताजी के निकट चला आया, उसे देख उन की आंखें भर आईं. उन के हाथों को कस कर थाम राजीव रुंधे कंठ से बोला, ‘हिम्मत रखिए पिताजी, मां को कुछ नहीं होगा?’

‘दर्द में भी तुम्हारी मां बारबार तुम्हें ही याद कर रही थी,’ कहते हुए पिताजी फूटफूट कर रो पड़े थे.

राजीव ने उन्हें बहुत मुश्किल से संभाला. 1 घंटे बाद डाक्टर आई.सी.यू. से बाहर निकले. मां अब खतरे से बाहर थीं. सारी रात हम ने आंखों में काट दी. सुबह नर्स ने आ कर सूचना दी कि आप लोग मां से मिल सकते हैं. पहले राजीव और पिताजी मां के पास गए. राजीव को देख उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आई. अपलक उसे देखती मां ने धीमे स्वर में कहा, ‘राजीव बेटे, तू घर लौट आ. मैं तेरे बगैर जी नहीं पाऊंगी.’

एक हफ्ता नर्सिंगहोम में रह कर मां घर आ गईं. मां और पिताजी के कहने पर राजीव ने अपना फ्लैट छोड़ दिया और सामान ले कर घर वापस आ गया. चांदनी उन दिनों अपनी मौसी के पास गई हुई थी, इसलिए वह उसे कुछ भी न बता सका.’

एक शाम मां और पिताजी के पास राजीव लान में बैठा था तो पिताजी बोले, ‘राजीव, तुम चांदनी से विवाह की बात कर लो. मैं और तुम्हारी मां जल्द से जल्द उस के मांबाप से मिलना चाहते हैं.’

राजीव का दिल उमंग से भर उठा. एक सप्ताह बाद चांदनी लौटी तो वह उस से मिलने पहुंचा. उस दिन वह गुलाबी साड़ी और सफेद मोतियों के हार में बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस की आंखों में झांक कर राजीव बोला था, ‘चांदनी, अब वक्त आ गया है कि तुम दुलहन बन कर मेरे घर आ जाओ. बताओ, मैं तुम्हारे घर वालों से कब बात करने आऊं?’

राजीव ने उस से यह बात छिपा ली कि उस के घर वाले अब उस से विवाह के लिए राजी थे. उस ने सोचा कि जब अचानक मां और पिताजी को ले कर वह चांदनी के घर पहुंचेगा, तब उसे कितनी प्रसन्नता मिलेगी.

चांदनी कुछ क्षण खामोश रही फिर बोली, ‘पहले मैं तुम से कुछ मांगना चाहती हूं, बताओ दोगे?’

‘मांगो, क्या मांगती हो? कहो तो आसमान से चांदसितारे तोड़ कर तुम्हारे कदमों में बिछा दूं,’ मुसकराते हुए राजीव बोला.

‘राजीव, मजाक मत करो. मैं गंभीर हूं.’

अब वह भी संजीदा हो उठा. सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा था.

‘राजीव, मैं चाहती हूं कि विवाह से पहले तुम अपनी नौकरी छोड़ दो और अपने पिताजी का बिजनेस संभाल लो.’

‘लेकिन क्यों? अच्छीभली नौकरी है, क्या बुराई है इस में,’ राजीव ने हैरत से उस की तरफ देखा.

‘बुराई कुछ भी नहीं परंतु सोचो, कहां यह 2 हजार रुपए की छोटी सी नौकरी और कहां तुम्हारे पिताजी का लाखों का बिजनेस. उस में जो शान और इज्जत होगी वह तुम्हारी इस नौकरी में नहीं होगी.’

‘और कुछ?’ चांदनी का चेहरा गौर से देखते हुए राजीव बोला.

‘विवाह से पहले, उस 2 कमरों के फ्लैट को छोड़ कर अपनी कोठी में चले आओ, क्योंकि तुम्हारे घर से अलग रहने पर तुम्हारी इतनी बड़ी कोठी पर तुम्हारे दोनों भाइयों का कब्जा हो जाएगा.’

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‘अच्छा हुआ चांदनी, विवाह से पहले ही तुम ने अपने मन की बात साफ कह दी,’ बुझे मन से राजीव बोला.

‘मेरी बात का बुरा मत मानना राजीव, हर लड़की की कुछ आकांक्षाएं होती हैं, कुछ सपने होते हैं. मैं ने हमेशा अभाव में जीवन काटा है. बचपन से मेरी इच्छा थी कि किसी बहुत बड़े आदमी के बेटे से मेरा विवाह हो. मैं भी कारों में घूमूं, आलीशान कोठी में रहूं. आज मेरा सपना पूरा होने जा रहा है तो तुम इसे व्यर्थ के आत्मसम्मान के चक्कर में पड़ कर मत तोड़ो,’ चांदनी विनती करते हुए बोली.

राजीव चुपचाप उठ कर वहां से चला आया और सीधे घर न जा कर समुद्र के किनारे रेत पर जा बैठा और आतीजाती लहरों को देखने लगा. कितनी शामें उस ने यहां चांदनी के साथ बिताई थीं. भविष्य के कितने सतरंगी सपने संजोए थे. किंतु आज उसे सबकुछ अर्थहीन लग रहा था. रहरह कर पूजा की कही बातें उस के जेहन में गूंज रही थीं :

‘अपने बलबूते कुछ करने का प्रयास करो. थोड़ा सा भी कमाओगे तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा. तुम्हें सच्ची खुशी हासिल होगी.’

कितना फर्क था दोनों की सोच में. अब राजीव को अपने जीवन का फैसला लेने में अधिक देर नहीं लगी. शांत मन से वह घर चला आया और मां और पिताजी से बोला था, ‘पिताजी, मैं पूजा से विवाह करना चाहता हूं.’

आश्चर्य से वे दोनों बेटे का चेहरा देखने लगे.

‘आप ने बिलकुल ठीक कहा था पिताजी कि भावावेश में लिए गए फैसले अकसर गलत होते हैं. आप का अनुमान सही था. चांदनी मुझ से नहीं बल्कि आप के पैसे से प्यार करती थी. अच्छा ही हुआ पिताजी, जो आप ने उस दिन मुझे घर से जाने दिया, अन्यथा मुझे चांदनी की भावनाओं का कभी पता नहीं चलता. जीवन का वह मोड़ मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था. उसी मोड़ पर आ कर मैं भंवर में फंसने से बच गया. मेरे जीवन को सही दिशा मिली.’

‘अच्छी तरह सोच लो राजीव, तुम्हें अपने फैसले पर अफसोस तो नहीं होगा?’ पिताजी बोले.

‘अब कैसा अफसोस पिताजी? मैं उस मृगतृष्णा से बाहर आ चुका हूं. पूजा जैसे हीरे को छोड़ मैं पत्थर तराश रहा था.’

पिताजी उठे और देहरादून फोन कर के लक्ष्मीकांत को यह खुशखबरी सुनाने चल दिए मां और भाभियां विवाह की तैयारियों में जुट गईं.

सोचते-सोचते राजीव अतीत से वर्तमान में आ गया.

अधिकारों वाली अधिकारी…

शेखपुरा की डीएम इनायत खान 

लेकिन गिनेचुने अधिकारी ऐसे भी होते हैं, जो अपनी परवरिश को ध्यान में रखते हुए जमीन से जुड़े रहते हैं. इनायत खान उन्हीं अधिकारियों में से हैं…

नींद में देखे गए सपने और खुली आंखों से सपने देखना अलगअलग बातें हैं. क्योंकि नींद में दिखने वाले सपने

कोई जरूरी नहीं कि सुबह तक याद रह जाएं. और अगर याद रह भी जाएं तो उन का कोई महत्त्व नहीं होता. जबकि खुली आंखों से दिखने वाले सपनों का वजूद कल्पनाओं की कमजोर टांगों पर टिका होता है.

कहने का अभिप्राय यह कि कल्पना की कडि़यों को जोड़ कर बुने गए सपने हानिकारक भले ही न हों, लेकिन उन का वजूद बुलबुले की तरह होता है, जो हवा के जरा से झोंके में नेस्तनाबूद हो जाता है.

एक और कहावत है सपनों के पीछे भागना. हर पढ़ालिखा समझदार इंसान अपने भविष्य के लिए एक राह चुनता है और उसी पर चलने की कोशिश करता है. मेहनत और लगन से मनचाही राह पर चल कर कई लोग अपनी मंजिल तक पहुंच भी जाते हैं. इसी को कहते हैं सपनों के पीछे भागना. लेकिन इस में कोई दो राय नहीं कि सपनों के पीछे भागने वालों में से कम ही लोगों को सफलता मिल पाती है.

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हां, जो सफल होते हैं, उन में से कुछ दूसरों की बनाई घिसीपिटी राह पर चलते हैं और कुछ अपने लिए नया मुकाम तय करते हैं. ऐसे ही लोगों में हैं इनायत खान, जिन्होंने हाल ही में बिहार के जिला शेखपुरा के जिलाधिकारी की जिम्मेदारी संभाली है.

आगरा के एक मध्यमवर्गीय परिवार की इनायत खान ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रैट की कुरसी तक पहुंचने के लिए कम मेहनत नहीं की. वह पूरी लगन और मेहनत से अपने सपनों के पीछे भागती रहीं और अंतत: उन्हें 2011 में सफलता मिल ही गई.

इनायत खान ने उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले आनंद इंजीनियरिंग कालेज से 2007 में इलैक्ट्रौनिक्स में बी.टेक किया था. इस के बाद उन्होंने एक साल तक एक प्रसिद्ध सौफ्टवेयर कंपनी में नौकरी की. लेकिन वहां उन का मन नहीं लगा, इस की वजह उन का आईएएस बनने का सपना भी था, जिस के पीछे वह भाग रही थीं.

अपने सपने को सच करने के लिए उन्होंने 2009 में पहली बार सिविल सेवा परीक्षा दी. इस में वह प्री में तो निकल गईं, लेकिन फाइनल में नहीं निकल पाईं. इसी बीच इनायत का चयन ग्रामीण बैंक में हो गया. लेकिन मेहनती इनायत को इस तरह की नौकरी नहीं चाहिए थी. इसलिए वह आगरा से दिल्ली आ गईं और मुखर्जीनगर के पास गांधी विहार में किराए का एक कमरा ले कर आईएएस की तैयारी में जुट गईं.

2011 में इनायत ने फिर से सिविल सेवा की परीक्षा दी. इस बार वह सफल रहीं. उन का नंबर था 176. उन्हें कैडर मिला बिहार. इनायत की पहली पोस्टिंग नालंदा में हुई, जहां उन्हें असिस्टेंट कलेक्टर बनाया गया. इस के बाद उन्हें एसडीओ बना कर राजगीर भेज दिया गया.

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अब तक इनायत खान बहुत कुछ सीखसमझ चुकी थीं. मसलन अपने अधीनस्थों से कैसे काम लेना है. उन के खुद के काम क्या हैं और अधिकार क्या. राजगीर के बाद इनायत की पोस्टिंग भोजपुर में हुई. वहां उन्होंने बतौर डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट कमिश्नर (डीडीसी) का पद संभाला. यहीं से इनायत खान की अलग पहचान बननी शुरू हुई, एकदम कड़क अफसर की इमेज. भोजपुर आ कर उन्हें पता चला कि डेवलपमेंट कमेटी का औफिस बाबुओं के बूते पर चलता है.

बाबुओं और छोटे अफसरों पर शिकंजा कसने के लिए इनायत खान ने सब से पहले प्रखंड के प्रत्येक औफिस में सीसीटीवी कैमरा और अटेंडेंस के लिए बायोमीट्रिक मशीनें लगवाई ताकि सभी समय पर आएंजाएं और कैमरों की जद में रहें.

इतना ही नहीं, वह कार्यालय परिसर में कुरसी लगवा कर बैठ जाती थीं. वहां ऐसे कई लोग थे जो रोज पटना आतेजाते थे. इनायत ने इन सब की क्लास ली और भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी. इस से मनमौजी अफसरों की गतिविधियों पर अंकुश लग गया.

कई बार इनायत जिले में चल रहे कामों का औचक निरीक्षण करने के लिए जाती तो गाड़ी दूर खड़ी करा देतीं और पैदल ही कार्यस्थल पहुंच जातीं. इस से काम कराने वालों के मन में डर रहता था कि कहीं इनायत न आ जाएं. वहां के अफसर और बाबू चाहते थे कि इनायत का जल्दी से जल्दी ट्रांसफर हो जाए.

जल्दी ही उन का तबादला हो भी गया. उन्हें पर्यटन विभाग का संयुक्त सचिन बनाया गया. इस के साथ ही उन्हें बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम का अतिरिक्त प्रभार भी सौंपा गया. यहां से इनायत खान को शेखपुरा का 21वां जिलाधिकारी बना कर भेजा गया, जहां वह बखूबी अपना काम कर रही हैं.

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इनायत खान तेजतर्रार अधिकारी तो हैं ही, साथ ही सामाजिक कार्यों से भी गहराई से जुड़ी रहती हैं. उन में दूसरों का दर्द समझने का भी माद्दा है. 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों से भरी बस पर आतंकी हमला हुआ और 40 जवान शहीद हो गए. शहीद होने वालों में बिहार के भी 2 जवान रतन कुमार ठाकुर और संजय सिन्हा शामिल थे.

इनायत खान ने आगे बढ़ कर रतन कुमार और संजय सिन्हा की एकएक बेटी को गोद लेने का ऐलान किया. इन दोनों बच्चियां की पढ़ाई और उन की परवरिश पर होने वाला खर्च वह आजीवन उठाएंगी. इतना ही नहीं, उन्होंने अपना एक दिन का वेतन भी शहीदों के परिवारों को दिया और अपने स्टाफ से भी ऐसा करने को कहा. द्य

 

पुलिस वाले दुल्हनिया…

लेखक- लाज ठाकुर

‘‘मनोज, यहां तुम अपने हस्ताक्षर करो और यहां अपनी बुआ के दस्तखत करवा दो,’’ फूफाजी ने फोल्ड किया एक स्टांप पेपर मेरे सामने मेज पर रख दिया.

कागज पर केवल हस्ताक्षर करने का स्थान ही दिख रहा था. बाकी का तह किया कागज फूफाजी ने अपने हाथ में दबा रखा था.

‘‘पहले जरा सांस तो लेने दीजिए,’’ मैं ने कहा फिर पास वाले सोफे पर माथे पर बल डाले बैठी बुआजी पर एक नजर डाली.

बुआजी ने मुझे देखते ही मुंह फेर लिया.

‘‘कागजी काररवाई के बाद जितनी सांसें लेनी हों ले लेना,’’ फूफाजी बोले, ‘‘शाबाश, करो दस्तखत.’’

‘‘फूफाजी इसे पढ़ने तो दीजिए, क्योंकि बुजुर्गों ने कहा है कि बिना पढ़े कहीं भी हस्ताक्षर न करो,’’ मैं ने कागज खोल कर पढ़ना चाहा.

‘‘मैं ने जो पढ़ लिया है. मैं क्या तुम्हारा बुजुर्ग नहीं हूं?’’ फूफाजी ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘वह तो ठीक है मगर इस में लिखा क्या है?’’

‘‘यह तलाक के कागज हैं,’’ फूफाजी ने बताया.

‘‘मगर किस के तलाक के हैं?’’

‘‘यह मेरे और तुम्हारी बुआजी के आपसी सहमति से तलाक लेने के कागज हैं.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने फूफाजी की ओर अब की बार इस तरह देखा जैसे उन के सिर पर सींग निकल आए हों, ‘‘मुझे लगता है आज आप ने सुबह ही बोतल से मुंह लगा लिया है.’’

‘‘अरे, नहीं बेटे, मैं पूरी तरह से होश में हूं. चाहो तो मुंह सूंघ लो,’’ फूफाजी ने मुंह फाड़ा.

‘‘फिर यह तलाक की बात क्यों? क्या बुआजी से फिर कोई झगड़ा हुआ?’’

‘‘न कोई झगड़ा न बखेड़ा… यह तलाक तो मैं अपने वंश के लिए ले रहा हूं.’’

‘‘आप साफसाफ क्यों नहीं बताते कि बात क्या है?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘मनोज बेटे, मैं तुम्हारी बुआजी को तलाक दे कर एक विदेशी स्त्री से शादी कर रहा हूं,’’ फूफाजी ने गरदन मटकाई.

‘‘मैं भी अपने को धन्य समझूंगी कि तुम जैसे जाहिल कामचोर से पीछा छूटा,’’ बुआजी भड़क उठीं, ‘‘लाओ, कहां दस्तखत करने हैं.’’

बुआ ने अदालत के पेपर लेने को हाथ बढ़ाया.

‘‘ठहरिए, बुआजी. पहले पता तो चले कि माजरा क्या है.’’

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‘‘मनोज बेटे, विदेश में जा कर जितना धन 5 सालों में बनाया जा सकता है उतना अपने देश में 5 जन्मों में भी नहीं कमाया जा सकता. इसलिए मैं ने विदेशी लड़की से ब्याह रचा कर वहां बसने की ठानी है,’’ फूफाजी ने ‘राज’ खोला.

‘‘मुझे टै्रवल एजेंट ने समझाया है कि बिना कोई जोखिम उठाए विदेश जाने का यही एक आसान तरीका है कि किसी विदेशी लड़की से शादी कर लो तो वह अपने दूल्हे को अपने साथ विदेश ले जाएगी…’’ फूफाजी सांस लेने को रुके.

‘‘और यह सारा इंतजाम उस भलेमानस ट्रैवल एजेंट ने कर दिया है. बस, कुछ लाख रुपए उसे देने पड़े जिस में से कुछ हिस्सा उस विदेशी महिला को शादी करने की फीस के तौर पर एजेंट उसे देगा,’’ फूफाजी ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मगर आप के पास लाखों रुपए आए कहां से?’’ बुआजी ने फूफाजी से पूछा, ‘‘क्या किसी बैंक में डाका डाला है?’’

‘‘बैंक में डाका नहीं डाला है बल्कि अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख कर कर्जा लिया है.’’

‘‘बुढ़ऊ,  तुम्हारा सत्यानाश हो,’’ बुआजी भड़कीं.

‘‘सत्तानाश हो या अट्ठानाश, अब तो मैं ने जो करना था कर दिया. मगर तुम घबराओ नहीं, विदेश से कर्जे की किस्तें भेजता रहूंगा ताकि तुम यहां मजे से रहो,’’ फूफाजी ने तसल्ली दी, ‘‘विदेश से कुछ सालों में करोड़ों रुपए कमा कर वापस आऊंगा, तब तक वह मेरी फौरन वाइफ मुझे धत्ता बता चुकी होगी और मैं तुम से दोबारा ठाट से विवाह कर लूंगा.’’

‘‘मैं तो एक बार ही तुम से शादी कर के पछता रही हूं.’’

‘‘पछताना बाद में, पहले तुम बुआ- भतीजा झट से तलाक के इन कागजों पर दस्तखत करो. मेरा वकील दोस्त और वे लोग आते ही होंगे,’’ फूफाजी ने मेज पर रखे कागजों पर पेन बजाया.

बुआजी का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उन्होंने हस्ताक्षर कर के कागज और कलम मेरी ओर बढ़ा दिए.

‘‘मनोज, तुम भी इस पर दस्तखत कर दो ताकि इन का यह कर्ज भी खत्म हो, यह झंझट ही समाप्त हो जाए,’’ बुआजी ने मुझ से कहा.

‘‘यह आप क्या कह रही हैं, बुआ. कल को भाभी के मायके वाले और दीदी के ससुराल वाले आप के तलाक के बारे में पूछेंगे तो हम क्या बतलाएंगे?’’

‘‘किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं. जब मैं किसी घपले में अंदर हो जाता हूं तो तुम लोग होंठ सीए रहते हो न. बस, कुछ सालों तक चुप्पी साधे रहना,’’ फूफाजी ने समझाया, ‘‘मैं वहां से आया और सारा मामला सुलझाया.’’

‘‘मनोज बेटा, दस्तखत करो और हम यहां से चलते हैं,’’ बुआजी सोफे पर से उठ खड़ी हुईं.

‘‘अरे भई, बैठोबैठो, उन लोगों में कोई मेरी ओर से भी तो होना चाहिए,’’ फूफाजी ने बुआजी से आग्रह किया, ‘‘फिर इस बेचारे ने मेरीतुम्हारी शादी तो नहीं देखी लेकिन अब इसे मेरी यह शादी तो देख लेने दो,’’ फूफाजी के चेहरे पर खुशी और शर्म के मिलेजुले भाव झलक उठे.

बाहर किसी गाड़ी के रुकने की घरघराहट हुई.

‘‘लो, वे लोग पहुंच गए,’’ यह कहते हुए फूफाजी दरवाजे की ओर लपके.

अब बाहर जाने के लिए रास्ता नहीं था सो बुआजी फिर से सोफे पर बैठ गईं.

फूफाजी के साथ 3 स्थानीय लोग, एक 65 साल का विदेशी पुरुष तथा उस के पीछे 35 साल की एक विदेशी महिला थी…जिस ने खूब मेकअप कर रखा था और बड़ेबड़े फूलों वाली फ्राक और स्कर्ट पहनी हुई थी. स्थानीय पुरुषों में एक तो फोटोग्राफर था और एक पंडितजी थे. उन के साथ जो तीसरा आदमी था उस ने पैंटशर्ट पहन रखी थी.

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‘‘मनोज बेटा, इन से मिलो,’’ फूफाजी ने साथ के सोफे पर बैठे, चेहरे पर चौड़ी मुसकान वाले आदमी की ओर इशारा किया, ‘‘आप हैं, जेल ट्रैवल एजेंसी के मालिक भावलंकरजी.’’

‘‘और यह मेरा सहायक, गोविंदा,’’ टै्रवल एजेंट के मालिक ने कैमरे वाले की ओर उंगली उठाई, ‘‘और आप पंडित धूर्तराजजी, जिन के शुभ आशीर्वाद से ब्याह का कार्यक्रम संपन्न होगा.’’

‘‘अब आगे आप इन को मिलवाएं,’’ टे्रवल एजेंट ने फूफाजी से कहा.

‘‘बेटे मनोज,’’ फूफाजी ने खंखार कर गला साफ किया, ‘‘यह हैं तुम्हारी नई बुआजी…मेरा मतलब…मेरी…यानी तुम समझ ही गए होगे. और यह मेरे नए ससुरजी…यानी ‘फादर इन ला.’ ’’

फूफाजी ने उन विदेशियों की भेंट मुझ से करवाई और चोर नजरों से बुआजी की ओर देखा.

बुआजी ने माथे पर बल डाल कर मुंह फेर लिया.

‘‘बेटे, अब जल्दी से मेहमानों के लिए ठंडा, नमकीन और मिठाई आदि लाओ,’’ फूफाजी ने कहा.

‘‘यजमान, जलपान फेरों के साथसाथ चलता रहेगा. अब वरकन्या को बुलाएं,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

‘‘पंडितजी, वर तो मैं ही हूं और मेरी कन्या…उफ तौबा…’’ फूफाजी ने गाल पीटे, ‘‘यानी मेरी होने वाली दुलहन यह सामने सोफे पर बैठी हैं.’’

‘‘ठीक है वरजी, आप यह ‘रेडीमेड’ सेहरा पहन लीजिए,’’ पंडितजी ने अपने झोले में से एक सुनहरी पगड़ी निकाली जिस के साथ सेहरा लटका हुआ था.

‘‘सेहरा पहनूं?’’

‘‘हां, इस सेहरे के साथ वरवधू के फोटो उतारे जाएंगे ताकि ब्याह का प्रमाण हो. उस के बाद ही मैं आप को ब्याह का प्रमाणपत्र दे सकूंगा,’’ पंडितजी ने समझाया.

‘‘कागजी काररवाई के लिए यह बहुत जरूरी है,’’ टै्रवल एजेंट ने पंडितजी की बात का समर्थन किया और अपने सहायक को इशारा किया.

सहायक ने अपना कैमरा एडजस्ट किया.

फूफाजी ने सिर पर सेहरे वाली पगड़ी रख ली.

‘‘देखो, कैसा दिखता हूं?’’ फूफाजी ने बुआजी से पूछा, ‘‘सच बताना, ऐसा रूप तो तुम्हारे साथ शादी के मौके पर भी मुझ पर न चढ़ा होगा.’’

‘‘ठीक कहा. उस से सौगुना फटकार आप के चेहरे पर आज बरस रही है,’’ बुआजी बड़बड़ाईं.

‘‘छाती पर सांप लोट रहे होंगे, तभी तो ऐसा जहर उगल रही हो,’’ फूफाजी ने जहर का घूंट पीते हुए कहा.

‘‘दूल्हादुल्हन इधर आ कर बैठें,’’ पंडितजी ने लंबी तान लगाई.

पंडितजी ने फूफाजी और उस विदेशी महिला को साथसाथ सोफे पर बैठाया और झोले में से फूलपत्तियां निकाल कर फूफाजी और उस विदेशी महिला पर मंत्रोच्चारण करते हुए बरसाईं.

टै्रवल एजेंट के सहायक ने कैमरे से 3-4 फोटो लिए.

‘‘अब फेरों का कार्यक्रम समाप्त हुआ. आज से आप दोनों पतिपत्नी हुए,’’ पंडितजी ने फूफाजी से कहा, ‘‘यजमान, अब आप सेहरे का किराया और मेरी दानदक्षिणा और विवाह के प्रमाणपत्र के 1,500 रुपए दे दीजिए.’’

पंडितजी ने अपने झोले से छपा हुआ एक फार्म निकाला.

‘‘आप 1,500 की बजाय 2 हजार ले लो पंडितजी,’’ फूफाजी ने ब्रीफकेस से नएनए नोट निकाले और पंडितजी की ओर बढ़ा दिए.

पंडितजी ने पहले तो नोट कमीज के अंदर बनी हुई जेब में डाले, फिर फार्म भर कर अपने हस्ताक्षर किए और फूफाजी को शादी का प्रमाणपत्र थमा दिया.

‘‘पंडितजी, यह पगड़ीसेहरा दूल्हे के सिर पर ही लगा रहने दें क्योंकि हमें इस नए जोड़े के साथ, ऐसे ही कोर्ट में जाना है,’’ टै्रवल एजेंट ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं आप के दफ्तर से सेहरा ले लूंगा या आप अपने सहायक के हाथ भिजवा देना,’’ पंडितजी गुनगुनाए.

‘‘वह आप का वकील दोस्त अभी तक नहीं पहुंचा,’’ एजेंट ने फूफाजी से कहा, ‘‘मेरा दूसरा सहायक उन को लाने के लिए काफी देर से टैक्सी पर गया है.’’

तभी बाहर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आई.

‘‘लो, वे लोग भी आ पहुंचे,’’ टै्रवल एजेंट ने गरदन घुमा कर देखा.

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दरवाजे में से फूफाजी के वकील दोस्त और टै्रवल एजेंट का सहायक अंदर आ गए. उन के पीछेपीछे एक पुलिस इंस्पेक्टर, 2 लेडी कांस्टेबल तथा 2 पुरुष कांस्टेबल और एक सहायक इंस्पेक्टर ड्राइंगरूम में आ गए.

इंस्पेक्टर ने विदेशी आदमी और टै्रवल एजेंट की ओर उंगली घुमाई. महिला पुलिसकर्मियों ने उस विदेशी महिला के हाथ थाम लिए और सहायक इंस्पेक्टर के साथ दोनों पुलिस वाले उस अधेड़ विदेशी पुरुष व टै्रवल एजेंट के पास खड़े हो गए.

‘‘तुम सब को गिरफ्तार किया जाता है.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘देखिए, इंस्पेक्टर, आप मेरे मेहमानों से…नहीं बल्कि सगे संबंधियों से ऐसा बरताब नहीं कर सकते,’’ फूफाजी ने सेहरा संभालते हुए इंस्पेक्टर से कहा, ‘‘आप नहीं जानते, मेरी कहांकहां तक पहुंच है?’’

‘‘शायद आप इन के नए शिकार हैं,’’ इंस्पेक्टर ने फूफाजी की ओर देखा.

‘‘शिकार, कैसा शिकार?’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह लोग भोलेभाले लोगों को विदेश ले जाने का झांसा देते हैं. यह मैडम उन लोगों से लाखों रुपए बटोर कर शादी रचाने का ढोंग करती है और फुर्र हो जाती है. यह ऐसे टै्रवल एजेंटों की मिलीभगत से होता है,’’ इंस्पेक्टर बोलता गया, ‘‘अब तक इन लोगों के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं मगर यह लोग पकड़ में नहीं आते थे. आखिर आज शिकंजे में आ ही गए.’’

इंस्पेक्टर ने अपने सहायक की ओर देखा.

‘‘ले चलो इन को,’’ इंस्पेक्टर ने होलस्टर से रिवाल्वर निकाल लिया.

पुलिस के घेरे में विदेशी पुरुष व महिला और टै्रवल एजेंट मरीमरी चाल से दरवाजे की ओर बढ़े.

‘‘पंडितजी, आप भी चलिए. आप भी तो इन के ‘फ्राड’ में भागीदार हैं,’’ सबइंस्पेक्टर ने पंडितजी को टोक दिया.

‘‘मगर इंस्पेक्टर, मेरे विदेश जाने के सपने का क्या होगा?’’ फूफाजी ने बुझे स्वर में इंस्पेक्टर से पूछा.

‘‘आप पुलिस स्टेशन चल कर इन के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाएं,’’ कहते हुए पुलिस इंस्पेक्टर दरवाजे की ओर मुड़ा.

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‘‘मनोज बेटे, अब तुम तलाक के यह कागज मेरी ओर से कोर्ट में दाखिल करो. अब मैं इन से तलाक लूंगी,’’ बुआजी ने कोर्ट के कागज संभालते हुए कहा.

‘‘अरे, नहीं, ऐसा गजब न करना,’’ फूफाजी ने घबरा कर कहा.

‘‘अब तो यह गजब होगा ही,’’ बुआजी का स्वर कठोर हो गया, ‘‘मेरा फैसला अटल है.’’

‘‘मनोज बेटे, तुम ही इन को समझाओ. मैं तो पूरी तरह लुट गया. बरबाद हो गया. मेरे लाखों रुपए डूब गए. नई नवेली विदेशी दुलहन भी गई और अब तुम्हारी बुआजी भी नाता तोड़ रही हैं,’’

स्मिता

लेखक- बी.आर. जांगिड़

‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

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‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

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‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

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स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

‘‘कब?’’

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

‘‘हां.’’

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

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यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फ ोन किया.

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी.

विदाई

पूर्व कथा

टीना और नरेश की शादी की सभी रस्में पूरी हो जाती हैं. विदाई के समय उस की मां केवल उसे अपना ध्यान रखने की सलाह देती है.

एक विवाह समारोह में नरेश की मां खूबसूरत टीना को देखती है और बहू बनाने का फैसला कर लेती है. 6 माह के अंदर नरेश और टीना की शादी हो जाती है.

शादी के बाद भी टीना मांमां की रट लगाए रहती है ससुराल में सभी लोग उसे बहुत प्यार करते हैं लेकिन टीना बड़ी बेरुखी से उन के साथ पेश आती है और नरेश से मायके जाने की जिद करती है? टीना के घर जा कर नरेश को यह एहसास होता है कि उस के घर में मां का राज है पिता को कोई पूछता भी नहीं.

शादी के कुछ ही हफ्तों में नरेश टीना की असलियत समझ जाता है कि टीना की गृहस्थी के कामों में कोई रुचि नहीं है बल्कि बातबात पर वह उस से लड़ने के बहाने ढूंढ़ती है और नाराज हो कर आत्महत्या की धमकी देने लगती है.

टीना अपनी ससुराल और नरेश से जुड़ी हर बात की खबर अपनी मां को देती है और वह भी टीना को सही सलाह देने के बजाय नरेश पर नजर रखने को कहती है अब आगे…

अंतिम भाग

कहानी द्य डा. के. रानी

गतांक से आगे…

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई.

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‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी.

घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

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‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.

सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

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‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.     द

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