कमाऊ पत्नी अहमियत कितनी

‘‘हा  उस वाइफ से कहीं ज्यादा, लेकिन मर्दों से कम… इसे आप कुछ भी समझ सकते हैं. मेरी अहमियत, हैसियत, आत्मविश्वास या फिर स्वाभिमान…’’

बैंक में काम करने वाली 30 साल की नेहा की शादी को अभी 5 साल ही हुए हैं. इस दौरान उस ने जो महसूस किया, उसे दोटूक कह तो दिया, लेकिन बात करने के कुछ घंटों बाद फिर फोन कर के बोली, ‘‘अच्छा होगा, अगर आप यही सवाल मेरे पति से भी करें कि उन की नजर में मैं क्या हूं?’’ फिर खिलखिला कर हंसते हुए वह बोली, ‘‘अच्छा, मैं ही बता देती हूं कि उन की नजर में मैं उन के आत्मविश्वास की

एक बहुत बड़ी वजह हूं. उतनी ही जितनी मेरे आत्मविश्वास की वे वजह हैं.’’

हाउस वाइफ बनाम वर्किंग वाइफ पर आएदिन बहस, चर्चाएं और रिसर्च भी होती रही हैं, जिन में कमाऊ पत्नी की हालत हमेशा बेहतर बताई जाती है, जो कि एक हद तक है भी, लेकिन नेहा जैसी स्मार्ट औरतों के लिए दुनिया और समाज से ज्यादा पति का नजरिया माने रखता है.

बकौल नेहा, ‘अगर पति पत्नी को इज्जत देता है, तो दूसरे भी देंगे. और एक अच्छा समझदार पति ऐसा करता भी है.’

नेहा जैसी कई औरतें अगर आज भी समाज में अपनी जगह और हैसियत की रैंकिंग के लिए पति की मुहताज हैं, तो क्या इस की एकलौती वजह उन का कमाऊ होना है? यह बहुत टेढ़ा सा सवाल है, जिस का सीधा जवाब एक और बैंक में काम करने वाली सुप्रिया ही यह कहते हुए देती हैं, ‘‘इस सच को स्वीकारने में संकोच नहीं होना चाहिए.  मेरी मम्मी भी सरकारी विभाग में क्लर्क थीं, जिन्हें कई चीजों को अकसर बेमन से ढोना पड़ता था.

‘‘मसलन, धार्मिक और सामाजिक परंपराएं और रीतिरिवाज. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि वे इस का जिम्मेदार अकेले पापा को मानती थीं. वे अगर दादी के जिंदा रहने तक साड़ी बांध कर औफिस गईं, तो इसे उन्होंने आसानी से स्वीकार लिया था.

‘‘यह 80 के दशक की पत्नी की खूबी थी कि वह कमाऊ होने का कोई सिला पति से नहीं चाहती थी. उस पर यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता कि वह आधुनिक नहीं थी.’’

तो क्या अब जमाना और हालात इतने बदल गए हैं कि कमाऊ पत्नी को बहुत सारे या इतने सारे हक मिल गए हैं कि वह अपने मुताबिक जी सके और तमाम वे फैसले ले सके, जिन में पति की सहमति जरूरी न होती हो?

इस सवाल पर बैंगलुरु के सब से बड़े अस्पताल में बतौर काउंसलर काम कर रही अपूर्वा कहती हैं, ‘‘इस सवाल को उलट दीजिए. हकीकत यह है कि आज के पति भी बिना पत्नी की राय के कोई अहम फैसला नहीं लेते. इसलिए नहीं कि उस में पत्नी की भी आर्थिक भागीदारी होती है, बल्कि इसलिए भी कि एक कामकाजी पत्नी को पढ़ीलिखी होने के नाते यह जानकारी मिल ही जाती है कि कहां पैसा इंवैस्ट करने से बेहतर रिटर्न मिलेगा और बच्चा कब प्लान करना ठीक रहेगा.’’

यहां भी है धर्म का दखल

अपूर्वा के मुताबिक, यह सच है कि समाज अभी भी पितृ सत्तात्मक है, लेकिन कमाऊ पत्नियां इसे दरकाने में कामयाब हो रही हैं. हैरत की बात यह है कि उन में से ज्यादातर को नहीं मालूम कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं.

अपनी इस बात के समर्थन में अपूर्वा ने सोशल मीडिया पर आएदिन वायरल होती कुछ पोस्ट भी शेयर की कि कैसे परंपरावादी और कट्टरवादी लोग पतिपत्नी के बीच खाई खोदने का काम कर रहे हैं. ये वे लोग हैं, जो चाहते हैं कि कमाऊ पत्नी को कैसे कमतर साबित कर के उस में हीनता भरें और फिर उसे दबाएं.

ये पोस्ट कितनी शातिराना होती हैं, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता. ऐसी ही एक पोस्ट में अमेरिका के एक तथाकथित सर्वे का हवाला देते हुए आखिर में कहा गया कि हमारे आधुनिकतावादी भी अमेरिका की तरह दुकानों से या औनलाइन भोजन खरीदने की वकालत कर रहे हैं और खुश हो रहे हैं कि भोजन बनाने की समस्या से हम मुक्त हो गए हैं. इस वजह से भारत में भी परिवार धीरेधीरे अमेरिकी परिवारों की तरह बरबाद हो रहे हैं.

इसी पोस्ट में अमेरिकी औरतों के अकेलेपन और तलाक वगैरह का आंकड़ों समेत इतना वीभत्स चित्रण किया गया है कि एक बार के लिए कोई भी कमाऊ पत्नी डर सकती है कि क्या फायदा ऐसे पैसे और नौकरी का, जिस से पति, परिवार और बच्चों को सुख न मिले.

ऐसी ही एक पोस्ट में धौंस सी दी गई है कि कम पढ़ीलिखी औरत ही घर बसाने की कला जानती है. पढ़ीलिखी को तो अकसर कोर्टकचहरी के चक्कर काटते देखा है मैं ने.

इस पोस्ट में औरत को सिर पर घूंघट डाले हुए दिखाया गया है, जिस से यह लगे कि जींसटौप पहनने वाली औरतें तलाक ज्यादा लेती और देती हैं. जाहिर है कि जो औरत अपने हक के बारे में जानतीसमझती है, उस का शोषण करना आसान नहीं होता.

ऐसी पोस्टों पर भोपाल के एक सीनियर प्रोफैसर राजेश पटेरिया कहते हैं, ‘‘ऐसी साजिशों से पतिपत्नी दोनों को सावधान रहना होगा, खासतौर से पति को, क्योंकि इस तरह की बातें मर्दों के अहम को सदियों से भड़काती रही हैं, जबकि हर दौर में औरत कमाऊ रही है, लेकिन अब चूंकि उस में पढ़ाईलिखाई के चलते जागरूकता भी आ गई है, तो परिवारों और समाज को तोड़ने का कारोबार करने वाले लोग नए तरीके से इसे अंजाम दे रहे हैं.’’

जरूरत है कमाऊ पत्नी

हालांकि मर्द चाह कर भी ऐसे झांसों में नहीं आ रहे, क्योंकि बढ़ती महंगाई व विलासिता की हद तक सुविधाजनक होती जा रही दुनिया में पतिपत्नी दोनों का कमाऊ होना जरूरी है. अखबारों में छप रहे वैवाहिक विज्ञापनों में अब शायद ही कोई घरेलू और गृह कार्य में दक्ष पत्नी चाहता है.

बात अकेले कमाई की नहीं है, बल्कि बदलते सामाजिक माहौल और एकल होते परिवारों के बढ़ते खर्चों की भी है, जिन्हें किसी एक की कमाई से पूरा नहीं किया जा सकता और अगर कर भी लिया जाए तो बहुत से समझौते उसे करने पड़ते हैं, फिर महंगा फ्लैट, बड़ी कार और बच्चे को महंगे स्कूल में पढ़ाने जैसे ढेरों सपने सपने ही रह जाते हैं.

आर्थिक लिहाज के अलावा निजी संतुष्टि भी कम रोल नहीं निभाती. भोपाल की ही एक सरकारी कर्मचारी 46 साल की सविता कहती हैं, ‘‘कमाऊ पत्नियों में ज्यादा आत्मविश्वास और बेफिक्री होती है. वे घर और दफ्तर की दोहरी लड़ाई कामयाबी से लड़ लेती हैं. उन का भावनात्मक लगाव पति व बच्चों से कम नहीं होता.’’

अब यह मिथक भी धीरेधीरे टूट रहा है कि कमाऊ पत्नी घरपरिवार, बच्चों और पति को मुनासिब वक्त नहीं दे पाती. अब इन सभी को ज्यादा वक्त की जरूरत ही नहीं रही, बल्कि पैसों और सहूलियतों की जरूरत ज्यादा है. डबल इनकम इसे आसानी से पूरा करती है और रिटायरमैंट के बाद की जिंदगी भी सुकून से गुजरती है.

सविता कहती हैं, ‘‘आप देखिए कि देशभर के पर्यटन स्थलों पर बूढ़ों की तादाद नौजवानों से कहीं ज्यादा देखने में आती है. धार्मिक शहर तो उन्हीं से भरे पड़े रहते हैं.’’

यह पीढ़ी तो बस…

जान कर हैरत नहीं होती कि स्कूली पीढ़ी भी कमाऊ पत्नी की जरूरत और अहमियत पर संजीदा है. इस साल 12वीं जमात पास कर कालेज में दाखिला ले चुके नक्षत्र की मानें, तो उन की उम्र का कोई भी लड़का हाउस वाइफ नहीं चाहता. उन की नजर में वह एक बेकार और फालतू साथी साबित होगी, जो बातबात पर फसाद खड़े करेगी, क्योंकि खाली दिमाग वाकई में शैतान का घर होता है और हम एक सुकून भरी जिंदगी की कल्पना करते हैं, जिस में हर जरूरी चीज हो.

इस का मतलब है कि नई जवान होती पीढ़ी के मन में कमाऊ पत्नी को ले कर कोई शक नहीं है, जिस ने आने वाले वक्त की नजाकत को समय रहते भांप लिया है.

लड़कियां भी स्वीकार कर चुकी हैं कि वे अपनी दादीनानी की तरह चूल्हेचौके के झंझट में पड़ कर जिंदगी खराब नहीं करेंगी. उन्हें अगर मौका और तालीम मिली होती, तो वे भी शायद नौकरी ही करतीं. यूपीएससी की तैयारी कर रही 20 साल की अदिति की मानें तो,

‘‘मैं कोई रिस्क उठाना पसंद नहीं करूंगी. वक्त और हालात कैसे भी रहें, काम में पैसा ही आएगा और वैसे भी लड़कियों का अपना पैरों पर खड़े होना अब हर लिहाज से बहुत जरूरी हो चला है.

‘‘इसे रिश्तों से उठता भरोसा नहीं कहा जा सकता, उलटे अब पैसा नजदीकी रिश्तों को और मजबूती दे रहा है, क्योंकि मजबूती देने वाले रिश्तेनाते खुद मजबूती के मुहताज हो चले हैं.

‘‘अगर आप अस्पताल में किसी अपने वाले को देखने गए हैं और आप की जेब में जरूरत पड़ने पर उस की मदद के लिए पैसा नहीं है, तो आप के वहां होने या न होने के कोई माने नहीं. पत्नी कमाऊ हो, तो पति आसानी से किसी अपने की मदद कर सकता है.’’

यह सब अहम कितना

अकसर कमाऊ पत्नियों पर यह आरोप लगता रहता है कि वे अहंकारी होती हैं और बातबात में अपने फैसले थोपती हैं. अदिति इसे गलत बताते हुए कहती है, ‘‘दरअसल, कमाऊ पत्नियों से लोग ज्यादा उम्मीद इन शर्तों के साथ पाल लेते हैं कि वे खामोशी से अपनी कमाई का इस्तेमाल होते देखती रहेंगी, लेकिन ऐसा अब है नहीं. शादी के 3-4 साल बाद जब पतिपत्नी में ट्यूनिंग हो जाती है, तब यह समस्या नहीं रह जाती. शादी के तुरंत बाद कुछ दिनों तक वे एकदूसरे को ले कर आशंकित हो सकते हैं, जो बेहद स्वाभाविक बात है.’’

थोड़े से बचे संयुक्त परिवारों में जरूर सभी कमाऊ सदस्य घर के मुखिया के पास तयशुदा पैसा जमा करते हैं, जिस से वह घरखर्च चलाता है. ऐसे ही एक परिवार की बहू अर्चना जो शिक्षिका हैं, कहती हैं, ‘‘यह व्यवस्था भी बुरी नहीं, क्योंकि बचे पैसों, जो 60 से 70 फीसदी होते हैं, पर पतिपत्नी का हक होता है और इस्तेमाल करने की आजादी भी होती है.

‘‘मैं अपने भतीजे को सोने की चेन दूं, तो पति और ससुराल वालों को कोई एतराज नहीं होता. दिक्कत उन मामलों में हो जाती है, जिन में पति पत्नी की कमाई पर अपना हक जताता है. हालांकि ऐसे पतियों की तादाद कम हो रही है, लेकिन खत्म नहीं हुई है.’’

कुछ दिन पहले दिल्ली में ‘वर्किंग स्त्री’ नाम की जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि 70 फीसदी कमाऊ औरतें घरखर्च में सक्रिय योगदान देती हैं. 30 फीसदी औरतें अपनी आधी तनख्वाह घरखर्च में देती हैं.

हालांकि, यह रिपोर्ट एक सामाजिक सच भी उजागर करती है कि भले ही आर्थिक रूप से औरतें आत्मनिर्भर और जिम्मेदार हैं, लेकिन वित्तीय फैसले वे घर के मर्द सदस्यों की मदद से ही लेती हैं. इस में कोई बुराई नहीं है.

इस से हासिल क्या

पैसा कमाने की औरतों की जिद ने उन्हें घर और समाज में बराबरी का दर्जा तो दिलाया है, पर कुछ फीसदी मामलों में विवाद होते हैं, लेकिन उन्हें ही हवा देने से परिवारतोड़ू गैंग की मंशा पूरी होती है, जिन्हें फर्राटे से कार चलाती लड़कियां संस्कारहीन लगती हैं. क्लब जाती और किटी पार्टी में मशगूल औरतों को वे धर्म से विमुख कहते हैं तो साफ है कि इस से उन का नुकसान हो रहा होता है.

निसंतान दंपती बच्चे को कैसे लें गोद

शादी के बाद हर दंपती की चाहत संतानप्राप्ति की होती है. कुछ दंपती ऐसे होते हैं जिन की यह चाहत पूरी नहीं हो सकती. ऐसे में उन के पास एक विकल्प यह रहता है कि वे किसी बच्चे को गोद ले कर उसे अपने बच्चे के रूप में पालेंपोसें. किसी बच्चे को गोद लेने की एक कानूनी प्रक्रिया है. आइए, जानते हैं इस के विभिन्न पहलुओं को :

गोद लेने की प्रक्रिया के तहत कोई व्यक्ति किसी बच्चे को तभी गोद ले सकता है जबकि उस की अपनी जीवित संतान न हो, फिर भले ही वह संतान लड़का हो या लड़की. हां, किसी भी बच्चे को गोद लेने के लिए पतिपत्नी दोनों की सहमति आवश्यक है. यदि महिला या पुरुष अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा है तो उस की अकेले की ही सहमति पर्याप्त है.

वैधानिक कार्यवाही

गोद लेने की प्रक्रिया आसान है. इस के लिए गोद लेने वाले और गोद देने वाले की सहमति ही पर्याप्त है. हां, यदि बच्चा किसी अनाथाश्रम से गोद लेना हो तो कुछ वैधानिक कार्यवाही अवश्य करनी पड़ती है. एक बार यदि आप ने किसी बच्चे को गोद ले लिया तो वैधानिक रूप से आप ही उस के मातापिता माने जाएंगे और पिता के रूप में गोद लेने वाले व्यक्ति का ही नाम मान्य होगा. लेकिन हां, उसे अपने मूल मातापिता और गोद लेने वाले मातापिता दोनों की संपत्ति में अधिकार मिलता है.

किसी भी निसंतान दंपती को बच्चा गोद लेने का फैसला जल्दबाजी में नहीं, बल्कि धैर्यपूर्वक सोचसमझ कर लेना चाहिए. किसी भी बच्चे को गोद लेने के फैसले से पूर्व मनोवैज्ञानिक रूप से दंपती को तैयार होना चाहिए, न कि किसी के दबाव में आ कर यह निर्णय लेना चाहिए.

बच्चा गोद लेने से पूर्व दंपती को इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि उन्हें लड़का चाहिए या लड़की? जिस पर दोनों सहमत हों, उसे ही गोद लें.

इस बात पर भी विचार कर लेना जरूरी है कि बच्चा किसी निकट के रिश्तेदार से गोद लेना है या अनाथाश्रम से. यदि आप जाति, धर्म, वंश आदि में विश्वास रखते हैं तो बेहतर होगा कि उसी हिसाब से बच्चे को चुनें. यदि आप अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने का निर्णय लेते हैं तो इस के पीछे लावारिस बच्चे के लिए दयाभाव नहीं होना चाहिए और न ही यह सोचें कि आप किसी अनाथ बच्चे का उद्धार कर रहे हैं.

केंद्र सरकार देश में बच्चों को गोद लेने को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उस की प्रक्रिया को ज्यादा आसान बनाएगी, ऐसे संकेत हैं. इस के लिए इंतजार अवधि को एक साल से घटा कर कुछ माह करने तथा अनाथालयों के पंजीकरण को अनिवार्य किए जाने जैसे बड़े सुधार किए जाएंगे.

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गोद लेना होगा आसान

भारत में करीब 50 हजार बच्चे अनाथ हैं. हर साल महज 800 से एक हजार बच्चे ही गोद लिए जाते हैं. इसे बढ़ावा देने के लिए महिला और बाल विकास मंत्रालय बड़े सुधार करने की योजना बना रहा है. महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार, ‘सभी अनाथालयों के पंजीकरण को अनिवार्य किया जाएगा और गोद लेने की प्रक्रिया सरल बनाई जाएगी.’

सुधारों का मकसद गोद लेने की प्रक्रिया की बाधाओं और भावी अभिभावकों की शंकाओं को दूर करना है. नए दिशार्निदेशों की रूपरेखा का प्रारूप तैयार किया जा रहा है. इस से गोद लेने के लिए इंतजार की अवधि महज कुछ महीने हो जाएगी. फिलहाल इस में एक साल तक का वक्त लगता है. मंत्रालय इसे किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) विधेयक में विशेषतौर पर पेश करने की दिशा में काम कर रहा है.

इस विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी  मिलने का इंतजार है. सुधार के तहत फोस्टर केयर (पालनपोषण) व्यवस्था की एक नई शुरुआत करने का विचार है. इस के तहत 6 या 7 साल की उम्र से ज्यादा के बच्चे को लोग बिना गोद लिए अपने घर ले जा सकेंगे. मंत्रालय का कहना है, ‘‘लोग गोद लेना भले नहीं चाहते हों, लेकिन ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि घर में बच्चे हों और उन्हें स्कूल भेजा जाए. सरकार उन बच्चों का खर्च वहन करेगी.’’

देश में बेटों से ज्यादा बेटियां गोद ली जा रही हैं. सैंट्रल एडौप्शन रिसोर्स अथौरिटी यानी कारा की ताजा रिपोर्ट में यह बात सामने आई है. कारा के मुताबिक, 2014-15 में 2,300 लड़कियां गोद ली गईं. जबकि लड़कों का आंकड़ा 1,688 रहा. यानी लोगों ने बेटों के मुकाबले करीब 36 प्रतिशत ज्यादा बेटियों को चुना. और यह तब है जबकि बेटियों को गोद लेने के कानून ज्यादा सख्त हैं. मसलन, सिंगल फादर है तो बेटी नहीं मिलेगी.

गोद लेने वाले ज्यादातर लोग कहते हैं कि उम्रदराज होने पर बेटियों के साथ रहना ज्यादा सुरक्षित है. बेटे छोड़ देते हैं, पर बेटियां हमेशा साथ देती हैं.

अभिभावक बनी मां

देश में अब मां कानूनीरूप से बच्चे की अभिभावक बनने की अधिकारी हो गई है. महिलाएं अब बच्चे को गोद भी ले सकेंगी. अब तक सिर्फ पुरुषों को ही गोद लेने व संतान का अभिभावक होने का हक था. संसद ने निजी कानून (संशोधन) बिल 2010 पारित किया था. इस के तहत गार्जियंस ऐंड वार्ड्स एक्ट 1890 तथा हिंदू गोद प्रथा तथा मेंटिनैंस कानून 1956 में संशोधन किया गया है. राष्ट्रपति ने निजी कानून (संशोधन) बिल 2010 को मंजूरी दे दी. यह गजट में प्रकाशित हो चुका है.

हिंदू गोद प्रथा तथा मेंटिनैंस कानून 1956 में संशोधन किया गया. यह कानून हिंदू, जैन, बौद्ध व सिख पर प्रभावी होता है. संशोधन का मकसद विवाहित महिलाओं के लिए गोद लेने की राह से बाधाएं हटाना है.

अब तक अविवाहित, तलाकशुदा तथा विधवा महिलाओं को बच्चे को गोद लेने का हक था लेकिन जो महिलाएं अपने पति से अलग रहते हुए तलाक के लिए कानूनी लड़ाई में उलझती थीं, वे किसी बच्चे को गोद नहीं ले सकती थीं. नए संशोधन के बाद पति से अलग रह रही विवाहित महिला को भी अपने पति की रजामंदी से बच्चे को गोद लेने का हक होगा. यह इजाजत तलाक की प्रक्रिया में भी मांगी जा सकती है. यदि पति अपना धर्म बदल लेता है या विक्षिप्त घोषित कर दिया जाए, तो उस की इजाजत जरूरी नहीं होगी.

भारत में हिंदू दत्तक व भरणपोषण अधिनियम लागू किया गया है. यह हिंदुओं के अलावा जैन, सिख और बौद्ध धर्मावलंबियों पर लागू होता है. मुसलिमों में अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार गोद लिया जा सकता है जबकि ईसाई व पारसी समुदायों में इस के लिए कोई धार्मिक कानून नहीं है, पर वे भी बच्चे गोद ले सकते हैं.

कौन गोद ले किसको

यदि कोई पुरुष किसी लड़की को गोद लेना चाहता है तो उस का उस लड़की से उम्र में 21 साल बड़ा होना आवश्यक है. इसी प्रकार यदि कोई महिला किसी लड़के को गोद लेना चाहती है तो उस का उस लड़के से 21 वर्ष बड़ा होना जरूरी है.

आप उसी बच्चे को गोद ले सकते हैं जो पहले से किसी के यहां गोद न गया हो अथवा जिस का अभी तक विवाह न हुआ हो. आमतौर पर 15 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चे को गोद नहीं लिया जा सकता. हां, यदि उस समाज में ऐसी प्रथा हो तो बात अलग है.

यदि आप अनाथाश्रम के बजाय किसी अन्य माध्यम या रिश्तेदारी से बच्चा गोद लेना चाहते हैं तो उस के मूल पिता की अनुमति आवश्यक है. हां, यदि पिता जीवित न हो, पागल हो या विधर्मी हो तो अकेली मां की अनुमति चल सकती है. यदि मांबाप दोनों मर गए हों या बच्चे को लावारिस हालत में छोड़ गए हों तो अदालती कार्यवाही के माध्यम से बच्चा गोद ले सकते हैं.

शराबी पिता, गुंडा भाई कैसे निभाए लड़की

मा नसी यादव नई दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में अपने मम्मीपापा और भाई के साथ रहती है. उस की उम्र 12 साल है. वह दिल्ली नगरनिगम के स्कूल में 8वीं क्लास में पढ़ती है. वे सब एक कमरे के किराए के घर में रहते हैं.
मानसी यादव के पापा एक कारखाने में काम करते हैं, जिन की तनख्वाह 15,000 रुपए महीना है. घर में खाने वाले 4 लोग हैं और कमाने वाला सिर्फ एक.
15,000 रुपए में उन का गुजारा बस किसी तरह हो रहा था कि मानसी यादव के पिता को शराब की लत लग गई. पहले तो वे कभीकभार ही शराब पी कर घर आते थे, लेकिन फिर कुछ दिनों बाद वे रोज शराब पी कर आने लगे. इस से उस के घर का माहौल पूरी तरह बदल गया.
मानसी के पापा शराब पी कर मानसी की मम्मी के साथ मारपीट करते हैं. कई बार वे उन के साथ जबरदस्ती सैक्स भी करते हैं. हालांकि यह भी सच है कि भारतीय समाज में शादी के बाद पति द्वारा पत्नी के साथ बनाए जबरन संबंधों को रेप नहीं माना जाता. इसे पति का हक मान लिया जाता है, जो एक औरत की गरिमा पर चोट है.
मानसी यादव का एक भाई भी है, जिस की उम्र 15 साल है. वह 10वीं क्लास में पढ़ता है. लेकिन पढ़ाई में उस का कम ही मन लगता है, इसलिए पिछले साल वह फेल भी हो गया था. इस की वजह है उस का गलत संगत में पड़ना.
वह दिनभर गलीमहल्ले के आवारा लड़कों के साथ इधरउधर घूमता रहता है. इन लोगों के साथ रहरह कर उसे जुए की लत लग गई. इस वजह से वह चोरी भी करने लगा.
कई बार वह अब मम्मी के पर्स से रुपए भी चुरा लेता है. आएदिन उस की कोई न कोई शिकायत करने आता है. मानसी की मम्मी उस के भविष्य को ले कर बहुत चिंतित हैं.
इस तरह के माहौल का बच्चों पर बहुत गहरा असर पड़ता है. वे इस से दिमागी तौर पर परेशान भी हो सकते हैं. इस का असर लंबे समय के लिए भी हो सकता है.
हो सकता है कि वे अपनी शादीशुदा जिंदगी में अपने पिता के जैसे ही बनें या यह भी हो सकता है कि वे इन सब बातों से सीख ले कर अपनी जिंदगी में ऐसी गलती न करें.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ मानसी के साथ ही ऐसा हो रहा है. इस देश में न जाने ऐसी कितनी ही मानसी होंगी, जो मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से यह सब झेल रही हैं. उन की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना की वजह उन का अपना ही परिवार है.
अगर शराबी लोगों की बात की जाए, तो ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है. भारत में तकरीबन 16 करोड़ लोग शराब का सेवन करते हैं. इन में 95 फीसदी मर्द हैं, जिन की उम्र 18 से 49 साल के बीच है. देश में हर साल अरबों लिटर शराब की खपत होती है. इस से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में शराब की चाह रखने वाले कितने ज्यादा लोग हैं. जितने ज्यादा शराब पीने वाले लोग उतनी ही ज्यादा औरतों के प्रति हिंसा.
औरतों पर घरेलू हिंसा के सब से ज्यादा मामलों में शराब एक बड़ी वजह है. औरतों को यह शिकायत रहती है कि पति ने शराब पी कर उन्हें मारापीटा है. गांवदेहात में इस तरह की घटनाएं ज्यादा देखने को मिलती हैं.
नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में 18 फीसदी मर्द शराब पीते हैं. इन में से 16.5 फीसदी जहां शहरी इलाकों से हैं, वहीं 19.9 फीसदी गांवदेहात के इलाकों के लोग हैं.
इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि शहरों की तुलना में गांवों में शराब पीने वालों की तादाद ज्यादा है. शराब पीने वाले शौकीनों की तादाद 15 साल से ऊपर की उम्र को आधार बना कर मानी गई है.
भारत में साल 2015-2016 में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 6 के मुताबिक, 15-49 साल की उम्र की 31.1 फीसदी शादीशुदा औरतों ने अपनी जिंदगी में कम से कम एक बार वैवाहिक हिंसा झेली है. 27.3 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले हुई थी.
हाल ही में भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो ने बताया है कि साल 2000 में हर 24 घंटे में तकरीबन 125 औरतों को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता था. साल 2006 में यह आंकड़ा बढ़ कर 160 हो गया और तब से लगातार बढ़ रहा है.
शराबी के घर का माहौल
एक ऐसे घर में रहना बहुत मुश्किल होता है, जिस के मुखिया को शराब पीने की बुरी लत हो. लड़ाईझगड़ों का ऐसे घरों में होना आम बात है. ये शराबी लोग न सिर्फ लड़ाईझगड़ा करते हैं, बल्कि कई बार ये अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मारपीट भी करते हैं.
ये लोग शराब के नशे में जबरदस्ती अपनी पत्नी के साथ सैक्स करते हैं और जब उन की पत्नी इस से इनकार करती है, तो ये उन्हें बुरी तरह मारतेपीटते हैं.
पुलिस स्टेशनों में ऐसे कई केस दर्ज हैं. ऐसे केस को करने की असली वजह औरतों का अपने पति की हिंसा से बचना होती है, न कि उन से तलाक लेना.
गांवदेहात के इलाकों में शराब पीने वाले का उस के परिवार पर क्या असर पड़ता है, इसे ऐसे जाना जा सकता है.
राजस्थान के उदयपुर जिले से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर सलुंबर ब्लौक में एक गांव है मालपुर, जहां मर्दों में शराब की बढ़ती लत औरतों के लिए समस्या बन गई है. यहां के 60 फीसदी मर्द शराब पी कर घरेलू हिंसा करते हैं.
शराब ने इस गांव के माहौल को इस कदर खराब कर दिया है कि अब कम उम्र के बच्चे भी इसे पीने लगे हैं. इस वजह से वे न केवल घर में लड़ाईझगड़े करते हैं, बल्कि पढ़ाई से भी दूर हो चुके हैं.
शराब पीने के लिए कई नाबालिग बच्चे गलत संगत में पड़ कर अपनी कीमती जिंदगी बरबाद कर रहे हैं. शराब की बढ़ती लत से गांव की बदनामी होने लगी है और कई लड़कों के शादी के रिश्ते तक टूट गए हैं.
इसी गांव की 29 साल की बबीता (बदला हुआ नाम) का कहना है, ‘‘गांव के ज्यादातर मर्द कोई काम नहीं करते हैं. वे शराब पी कर हम औरतों के साथ मारपीट करते हैं. जब हम काम करने बाहर जाती हैं, तो वे हमारे साथ गालीगलौज करते हैं.
‘‘वे हमें चैन से खाना भी खाने नहीं देते हैं. शराब पी कर वे घर में बवाल मचा देते हैं. हम यह सबकुछ परिवार
की खातिर चुपचाप सहन करने को मजबूर हैं.’’
बच्चों पर असर
जिन घरों में पिता शराबी होते हैं, उन के बच्चों पर इस का क्या असर पड़ता है, इस मुद्दे पर मयंक सिंह (बदला हुआ नाम) कहता है, ‘‘जिन घरों में पिता को शराब पीने की लत होती है, उस घर के बच्चे हमेशा डर के साए में रहते हैं. उन्हें डर लगता है कि आज भी उन के पापा शराब पी कर आएंगे और उन की मम्मी के साथ मारपीट करेंगे. अगर वे अपनी मम्मी को बचाने की कोशिश करेंगे, तो पापा उन्हें भी मारेंगे.
‘‘इस के अलावा उन्हें पढ़ाई छूट जाने का भी डर सताता है कि न जाने कब उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ जाए. जब देर रात तक उन के पापा घर नहीं आते हैं, तो उन्हें यह डर लगता है कि कहीं उन्हें कुछ हो न गया हो. इस के अलावा ऐसे घरों के बच्चों को अपने सिर से पिता का साया हटने का भी डर सताता रहता है.’’
लाचार लड़की
अगर शराबी पिता वाले घरों में रहने वाली लड़कियों की बात करें, तो इन घरों की लड़कियां पहले ही मर्दवादी सोच से डरती हैं, ऊपर से शराबी पिता, ऐसे में उन का डर और ज्यादा बढ़ जाता है. पहले ही यह समाज उन पर सौ पाबंदी लगा देता है. ऊपर से शराबी पिता होने पर ये पाबंदियां कई गुना बढ़ जाती हैं.
ऐसे कई केस आते हैं, जिन में पिता ही अपनी बेटी की इज्जत से खिलवाड़ कर बैठता है. कई बार वह ऐसा शराब के नशे में चूर हो कर करता है. ऐसी लड़कियों की परेशानी की बात करें,
तो एक कमरे वाले घरों में रहने वाली ऐसी फैमिली के बच्चों का अपने मम्मीपापा को संबंध बनाते हुए देखना शर्मनाक और शर्मिंदगी भरा होता है.
कई बार जब ये संबंध जोरजबरदस्ती से बनाए जाते हैं, तो बच्चों पर इस का बुरा असर पड़ता है खासकर लड़कियों पर. वे इस से जिंदगीभर के लिए तनाव में भी जा सकती हैं.
ऐसी लड़कियां अपने भविष्य के खतरों से डरीसहमी रहती हैं. आगे चल कर अपने पति में पिता की छाया इन्हें भीतर तक झकझोर देती है. ये लड़कियां अपनी शादीशुदा जिंदगी का मजा नहीं उठा पाती हैं.
इन घर की लड़कियों का समाज में रहना दूभर हो जाता है. घर से बाहर आतेजाते इन्हें मनचले छेड़ते रहते हैं. इन पर भद्देभद्दे कमैंट किए जाते हैं. कई बार इन के नाजुक अंगों को भी छुआ जाता है.
ये मनचले लड़के जानते हैं कि इस लड़की को बचाने कोई नहीं आएगा. इस का खुद का पिता शराबी है, वह अपनी बेटी के लिए क्या ही कहेगा.
नीम चढ़ा करेला
शराबी पिता वाले घरों में अगर गुंडा भाई हो तो उस घर की लड़की के लिए यह किसी दुखद घटना से कम नहीं होगा. एक तरफ शराबी पिता, जो आएदिन शराब पी कर इधरउधर गिरतापड़ता रहता है, कभी कीचड़ में तो कभी नाले में,
वहीं अगर भाई गुंडा है, तो उस घर की लड़की को बहुतकुछ झेलना होगा. जैसे आएदिन उस के भाई से वसूली करने वाले गुंडे उस के घर आ कर उसे छेड़ेंगे. उन से पैसों की वसूली करेंगे और पैसा न देने पर मांबहन की गालियां देंगे. घर का सामान तोड़ देते हैं. कई बार सामान उठा कर ले जाते हैं.
अगर वह पुलिस में शिकायत करने की कोशिश करेंगे, तो हो सकता है
कि उन्हें और ज्यादा मुसीबत झेलनी पड़े. ऐसे में ये चुप रहना ही सही समझती हैं.
गुंडा भाई हमेशा बहन के लिए मुसीबत ही रहा है. ऐसे भाई की वजह से बहन डरीडरी रहती है. उस का गलीमहल्ले में चलना मुश्किल हो जाता है. आतेजाते लोग उसे ‘गुंडे की बहन’ और ‘बेवड़े बाप की बेटी’ कहते हैं. अपना सिक्का ही खोटा हो, तो दूसरों से क्या शिकायत करें, यही सोच कर वे खुद को तसल्ली दे देती हैं.
लेकिन, क्या लड़कियों को यों ही मानसिक प्रताड़ना झेलते रहना चाहिए? इस मुद्दे पर मुंबई की रहने वाली सूर्यंका सारंगी, जो एक योग टीचर भी हैं, कहती हैं, ‘‘जिस घर में लड़की की इज्जत नहीं होती है, वह घर कभी भी तरक्की नहीं कर पाता. अकसर ऐसा उन घरों में होता है, जिन घरों का मुखिया अच्छे आचरण का नहीं होता.
‘‘जिस घर में पिता शराब पीता हो, मारपीट करता हो, उस घर की लड़कियों और औरतों के साथ अच्छा बरताव नहीं होता है. अपने पिता को ऐसा करता देख उस घर के लड़के भी ऐसा ही करते हैं. बहुत बार वह अपनी बहनों को मारते भी हैं. उन्हें अपने मर्द होने का घमंड होता है. ऐसे में उस घर की लड़की का वहां रहना मुश्किल हो जाता है.
‘‘इस से बचने के लिए हर लड़की का पढ़ना बहुत जरूरी है. वह किसी भी तरह अपनी पढ़ाई को रुकने न दें. साथ ही, उसे इतना सक्षम होना चाहिए कि अपना बचाव कर सकें. हिंसा करना बिलकुल भी सही नहीं है. लेकिन खुद के बचाव के लिए की जाने वाली
हिंसा को पूरी तरह से गलत भी नहीं कहा जा सकता. इसे सैल्फ डिफैंस कह सकते हैं.’’
शराब पीने वाले पिता अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं. एक बार जब उन्हें इस की लत लग जाती है, तो वह बाकी सब भूल जाते हैं. इस से न सिर्फ सेहत व पैसों की बरबादी हो रही है, बल्कि उन के बच्चों का भविष्य दांव पर लगा होता है. वे इस बात से अनजान होते हैं कि यह शराब उन का घरबार तबाह कर रही है.
ऐसे में अगर उस घर का लड़का भी गलत संगत में पड़ कर गुंडामवाली बन जाए, तो उस घर का बेड़ा गर्क होना तो तय है. जिस आदमी को शराब पीने और मारपीट करने की लत एक बार लग जाए, तो उस की लत छुड़ाना आसान नहीं होता है. ऐसे में उसे बदलना आसान तो बिलकुल भी नहीं है.
लेकिन कहा जाता है, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती, इसलिए शराब पीने वाले की आदत छुड़ाने के लिए उसे नशा मुक्ति केंद्र भेजा जा सकता है. हालांकि यह उस शख्स पर कितना असरदार है, यह तो वहां जा कर ही पता चलता है.
जिस घर में शराबी पिता हो, भाई गुंडा हो, उस घर में लड़की को चाहिए कि वह अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान लगा दे. वह कोशिश करे कि घर के माहौल का उस की पढ़ाई पर कोई असर न पड़े.
तालीम ही वह जरीया है, जो उस की जिंदगी बदल सकती है. इसलिए वह अपने घर की नैगेटिविटी को भुला कर सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दे.

लड़कों से ये 7 सवाल पूछना चाहती हैं लड़कियां

लड़कियों और लड़कों के मन में एक दूसरे के प्रति काफी सवाल होते हैं. जो अक्सर लड़के और लड़कियां अपने पार्टनर से पूछ कर अपनी जिज्ञासा खत्म करते हैं, लेकिन लड़कों के मुकाबले लड़कियों के मन मे ज्यादा सवाल होते हैं. जो लड़कों से पूछ कर अपने मन के सवाल शांत करती हैं. लेकिन कुछ सवाल ऐसे होते हैं. जो लड़कियां शर्म के मारे लड़कों से पूछ नहीं पाती, चलिए जानते हैं लड़कियों के उन सवालों के बारें में…

लड़कों का पेट के बल सोना

लड़कियों को अक्सर ये सवाल बहुत सताता है कि लड़कों को पेट के बल सोना क्यों पसंद होता है. कई बार तो वे इस बारे में खुद ही उल्टे-सीधे ख्याल जोड़ लेती हैं.

पैदल चलने में परेशानी

लड़कियां अक्सर ये बात सोचती रहती हैं कि लड़के अपने गुप्तांग के साथ इतनी आसानी से पैदल कैसे चल लेते हैं, उनको दिक्कत क्यों नहीं होती.

एक की तरह के अंतर्वस्त्र पहनना

लड़कियां यही सोचती हैं कि लड़के हर बार एक ही रंग और एक ही डिजाइन के अंतर्वस्त्र पहनकर बोर क्यों नहीं होते हैं.

दाढ़ी बढ़ाने से चेहरा भारी नहीं होता क्या

लड़कों को बड़ी बड़ी उगी हुई दाढ़ी देखकर लड़कियों को यही सवाल मन में परेशान करने लगता है कि लड़को को इतनी बड़ी दाढ़ी मे वजन नहीं लगता क्या.

शारीरिक सम्बन्ध के दौरान लड़कों को कैसा महसूस होता है

लड़कियों को खुद की फिलिंग्स का पता लगने के बाद वे ये भी जानने की इच्छुक हो जाती हैं की लड़को को कैसा फील होता है.

अगर लड़के पेट से हुऐ तो क्या होगा

ये सवाल भी लड़कियों के दिमाग को परेशान करने के लिये कभी-कभी आ जाता है, और लड़कियां सोचती रहती हैं कि लड़के अगर कभी पेट से हुए तो क्या होगा.

आखिर 10 मिनट में तैयार कैसे हो जाते हैं लड़के

लड़कियों को तैयार होने में कम से कम 2 घंटे तो लगते हीं हैं और उनको ये बात हमेशा परेशान करती है कि आखिर लड़के 10 मिनट में तैयार हो कैसे जाते हैं.

धार्मिक कट्टरवाद में पिसती जनता

धर्म का कट्टरपन कैसे लोगों का दिमाग खराब कर रहा है यह पिछले कुछ दिनों से देश लगातार देख रहा है. मणिपुर हिंसा के बाद इस मामले में नए अध्याय और जुड़ गए हैं, जो शर्मसार करते हैं. पहले मामले के आरोपी की तुलना अगर मुंबई आतंकवादी घटना के दोषी अजमल कसाब से की जाए तो गलत न होगा. धर्म की पताका लहराने और गैरधर्मी लोगों का कत्ल करने के जूनून ने इन दोनों घटनाओं के बीच कोई खास फर्क नहीं छोड़ा है.

घटना 31 जुलाई, 2023 की है. ‘जयपुरमुंबई सैंट्रल सुपरफास्ट’ ट्रेन अपने तय समय से पटरी पर दौड़ रही थी. ट्रेन पालघर रेलवे स्टेशन के नजदीक कहीं थी. सुबह का समय था तो ट्रेन की बोगियों में ज्यादातर मुसाफिर सो रहे थे.

अचानक 5 बजे ट्रेन से गोली चलने की आवाज आई. गोली चलाने वाला आरपीएफ का जवान चेतन कुमार चौधरी था, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस का रहने वाला था और जिस पर गोली चली वह उस का सीनियर एएसआई टीकाराम मीणा था, जो राजस्थान के सवाई माधोपुर का रहने वाला था.

यह बात शायद यहीं खत्म हो जाती और इसे डिफैंस का निजी मामला कह कर दबा दिया जाता, लेकिन मामला तब आगे बढ़ा जब इस घटना से नए पहलू जुड़े और इस ने सांप्रदायिक रूप ले लिया. आरोपी चेतन कुमार चौधरी यहीं नहीं रुका. उस ने ट्रेन में सफर कर रहे 3 और मुसाफिरों, जो मुसलिम थे, को भी मौत के घाट उतार दिया.

इस मामले पर लीपापोती करते हुए यह कहा जाने लगा है कि आरोपी की दिमागी हालत खराब थी, इसलिए उस ने इस घटना को अंजाम दिया लेकिन घटना की वायरल वीडियो बताती है कि यह दिमागी हालत देश में चल रहे धार्मिक कट्टरपन के चलते खराब हो रही है, जिसे धर्मोदी मीडिया लगातार लोगों के बीच परोस रहा है.

अगर किसी वजह से चेतन कुमार चौधरी की दिमागी हालत सही नहीं होती तो वह किसी पर भी गोली चलाता, पर यहां चुन कर एक समुदाय के लोगों को बोगियों से ढूंढ़ कर मारा गया. ट्रेन लेआउट के हिसाब से 5 बजे उस ने अपने सीनियर को मारा, फिर उस ने 20 राउंड की अपनी आटोमैटिक असौल्ट राइफल से उसी बौगी में सफर कर रहे अब्दुल को मारा.

इस के बाद चेतन कुमार चौधरी अपनी बौगी बी4 से बी1 की तरफ गया यानी 4 बौगी दूर उस ने सदर मोहमद हुसैन को मारा. फिर वह 2 बौगी आगे एस6 गया और असगर अब्बास अली को मार दिया. यानी एक कथित मैंटल अनस्टेबल इनसान मारने के लिए बौगियों में दाढ़ी और टोपी वाले लोगों को ढूंढ़ रहा था. समझा जा सकता है कि यह किस तरह की मैंटल स्टेबिलिटी रही होगी.

चेतन कुमार चौधरी यहीं नहीं रुका, कत्ल करने के बाद उस ने अपनी राइफल जमीन पर रखी और बाकी मुसाफिरों से कहा कि उस की वीडियो बनाओ. वीडियो में वह बोला, “ये लोग (मुसलमान) पाकिस्तान से औपरेट हुए हैं. देश की मीडिया यही खबरें दिखा रही है. पता चल रहा है उन को, इन के आका हैं वहां. अगर हिंदुस्तान में रहना है तो मैं कहता हूं मोदी और योगी यही 2 हैं और आप के ठाकरे.”

अब चेतन कुमार चौधरी के इन शब्दों पर गौर करें तो समझ आएगा कि यह पूरा मामला उस उग्रधार्मिक जहर का नतीजा है जो पिछले एक दशक से लोगों के दिमाग में भरा जा रहा है. लेकिन इस घटना से किसे क्या हासिल हुआ यह सोचने वाली बात है. क्या इस से धर्म की पताका विश्वभर में लहरा गई? क्या देश का सम्मान बढ़ गया? क्या धार्मिक मसले सुलझ गए? क्या खुशहाली आ गई?

नहीं, बल्कि इस ने मरने और मारने वाले उन 5 लोगों का जीवन व उन के परिवारों को पूरी तरह से तहसनहस तो किया ही साथ में उन हजारों मुसाफिरों को जिंदगी भर की खौफनाक याद दे दी जिसे वे शायद ही कभी भुला पाएं.

इस में कोई हैरानी भी नहीं होगी कि चेतन कुमार चौधरी जैसे लोग देश में हजारों की संख्या में हों, क्योंकि सुबहशाम ह्वाट्सएप पर अधेड़ अंकलआंटी झूठ की बुनियाद पर खड़े नफरती मैसेज ठेलते दिख जाते हैं. वे खुद चेतन कुमार चौधरी जैसे लोगों को सही ठहराने वाले मैसेज अपने बच्चों के ग्रुप में भेज कर उन के दिमाग में भी जहर भरते हैं.

अब अगर इस के समानांतर घटित दूसरी घटना पर जाएं तो समझ आएगा कि यह नफरत पैदा कहां से हो रही है, इसे पालपोस कौन रहा है और हम तक यह पहुंच कैसे रहा है. पालघर में जिस जगह ट्रेन गोलीकांड की घटना घटी, उस से तकरीबन 1,300 किलोमीटर दूर हरियाणा के नूंह में सांप्रदायिक हिंसा हुई.

इन दोनों घटनाओं में यह तय करना मुश्किल है कि किसे ज्यादा खतनाक माना जाए. दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन जो सामान बात यह है इस का बीज वही धार्मिक पागलपन जो देश के कई लोगों को लील चुका है.

पथराव, आगजनी, गोलीबारी, हत्या, जली टूटीफूटी गाड़ियां, बिखरे कांच के टुकड़े, सड़क पर ईंटपत्थर, चेहरे पर मास्क, हाथ में डंडे और मुंह पर धार्मिक नारे. यह नजारा हर सांप्रदायिक हिंसा का रहता है, इसलिए दिल्ली से 86 किलोमीटर दूर हरियाणा का नूंह में भी इस नजारे से खुद को अलग नहीं कर पाया.

करता भी कैसे, दंगे कराने वाले जब एक पैटर्न से दंगे कराएं तो उस का जो कुल जमा होता है वह एक सा ही होता है. इस कहानी पर आएं उस से पहले यह समझना जरूरी है कि जिस जगह दंगे हुए वहां का भूगोल क्या है, क्यों वह इलाका माने रखता है और क्यों उस का चयन किया गया?

हरियाणा राज्य अपना बौर्डर दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश और कुछ हिस्सा हिमाचल प्रदेश से साझा करता है. नूंह में जिस जगह दंगे हुए वह दिल्ली और राजस्थान से नजदीक है और मेवात रीजन में आती है. यह जिला साल 2005 में गुरुग्राम और फरीदाबाद जिले के कुछ हिस्से ले कर बनाया गया. यहां की 80 फीसदी के आसपास आबादी मुसलिम है. नई गणना का देश इंतजार कर रहा है, पर पिछली गणना कहती है कि यहां 11 लाख के करीब लोग रहते हैं.

वक्त के साथ देश आगे बढ़ा पर यह इलाका पिछड़ा रहा. यहां इंडस्ट्री आईं पर यहां के नागरिकों को आर्थिक लाभ नहीं मिल पाया. न ठीक से शिक्षा पहुंच पाई इसलिए पुरुष साक्षरता दर 70 व महिला साक्षरता दर 37 फीसदी हो पाई. 2018 की नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि नूंह की गिनती देश के 721 जिलों में से चुनिंदा मुख्य पिछड़ों में आती है.

लेकिन जिस नूंह को सभी सरकारें भुलाती आई थीं, वह अचानक कुछ कारणों से सुर्खियों में क्यों आने लगी, खासतौर पर हरियाणा की राजनीति के लिए यह इलाका जरूरी क्यों होने लगा? कारण यहां से धर्म की खेती को पकाए जाने वाले मुद्दे बनाना और उस पर चढ़ाई कर राजनीतिक रोटियां सेंकना.

इस इलाके में पिछले कुछ समय से कथित गौवंश और गौरक्षा के मामले सुर्खियों में रहे. फिर इस में नया घटनाक्रम बीते दिनों दंगों की शक्ल में सामने आया. मसला एक यात्रा का था. यात्रा धार्मिक थी. हालांकि यह यात्रा ‘ब्रजमंडल जलाभिषेक यात्रा’ के नाम से पिछले 3 साल से हो रही थी. इस बार 31 जुलाई को यात्रा निकलनी थी. इसे बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के लोग संयोजित कर रहे थे. यह मामला निबट जाता, लेकिन इस यात्रा के 2 दिन पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल होती है. वीडियो मोनू मानेसर की थी.

मोनू मानेसर, जो कि बजरंग दल का कार्यकर्ता है और कथित तौर पर खुद को गौरक्षक बताता है, जिस पर हरियाणा के भिवानी में नासिर और जुनैद की हत्या का आरोप है और फिलहाल फरार है. इसे बजरंग दल बचाने पर लगा है और इस के हर काम का समर्थन करता है. अब चूंकि आर्टिफीशियल इंटैलिजैंस के जमाने में पुलिस तकनीक से वंचित है, पर अपराधी तकनीक से जुड़े हैं, इसलिए मोनू ने अपनी वीडियो में लोगों (हिंदुओं) से अपील की कि इस यात्रा में बढ़चढ़ कर शामिल हों और वह खुद भी अपने लोगों के साथ आएगा.

मोनू की इस वीडियो ने रहीसही कसर पूरी कर दी. इस वीडियो के आने के बाद 2 दिन तक माहौल तनावपूर्ण था, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. सरकार के पास समय था कि वह इस बीच उचित कार्यवाही करती लेकिन वह हाथ पर हाथ धर कर बैठी रही.

नतीजतन जिस इलाके से यात्रा निकली वहां लोग घरों में पहले से तैयार थे और यात्रा में आई भीड़ भी तलवारों और बंदूकों के साथ थी. यह सब होता रहा और पुलिस इंवैस्टिगेटिंग टीम सोती रही और इतनी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा घटी. हिंसा में 3 लोगों की तत्काल मौत हुई, दोनों तरफ के उपद्रवियों ने कईयों गाड़ियों को पर आग लगी दी, साइबर थाने में तोड़फोड़ की, नूंह चौक के पास स्थित अलवर अस्पताल पर भी हमला किया गया. दुकानें जलाई गईं.

दंगों की आग सिर्फ नूंह तक सीमित नहीं रही, 31 जुलाई से 1 अगस्त तक यह हिंसा गुरुग्राम तक भी जा फैली. गुरुग्राम के सैक्टर 57 में एक मसजिद को आग के हवाले कर दिया गया. मसजिद में फायरिंग हुई और इमाम की गोली लगने से मौत हो गई. इस के अलावा सोहना में हिंसा हुई और कई वाहन आग के हवाले कर दिए गए.

इसी तरह की मिलतीजुलती घटना 29 जुलाई, 2023 को दिल्ली में हुई. जगह थी नांगलोई. मुहर्रम के दिन ताजिया जा रहा था. इस में झड़प हुई भीड़ की पुलिस से भिड़ंत हो गई. भीड़ की जिद थी कि उन्हें उस रूट से जाना है जहां से पुलिस उन्हें मना कर रही थी. इस से नाराज भीड़ आक्रोशित हो गई और आनेजाने वाले वाहनों पर पत्थरडंडे बरसाने लगी. कई वाहनों को तोड़ा गया. इसी तरह की घटना 30 जुलाई, 2023 को उत्तर प्रदेश की बरेली में घटित हुई. यहां 2 समुदाय महमूद और जोगी समुदाय आमनेसामने आ गए.

इन सभी घटनाओं को देखा जाए तो कहीं दंगे प्रायोजित रहे, कहीं खुद से फूट पड़े, कहीं नफरत हावी हो गई, लेकिन इस के कोर में धर्म की कट्टरता रही जिस ने लोगों से सोचनेसमझने की ताकत ही छीन ली. ये घटनाएं नई नहीं हैं लेकिन कुल जमा यह है कि इस धार्मिक कट्टरता से किसी को भी क्या हासिल होता है? यह कैसी भक्ति है कि किसी को मार कर ही साबित होती है?

इन सभी घटनाओं में जो चीजें सामने आई वह जानमाल की हानि की रही. सोचो उन के परिजनों के बारे में जिन की मौत इन धार्मिक हिंसाओं में हुई. सोचिए कितनी संपत्ति का नुकसान नागरिकों और सरकारों को उठाना पड़ा है.

हरियाणा में कई वाहन जला कर खाक कर दिए गए, यह वाहन आम लोगों के थे, वाहनों पर धर्म का ठप्पा नहीं लगा होता, इन वाहनों पर सरकार मुआवजा नहीं देती. इंश्योरैंस का क्लेम इतना आसान नहीं होता. इस का क्लेम तभी किया जा सकता है जब वाहन समयसीमा के भीतर हो. उस के बाद भी तमाम तरह की अड़चनें होती हैं. कई शर्तें होती हैं.

हमारे देश में कालोनियां भले धर्मजाति के नाम पर बंटी हों लेकिन बात जब धंधे की आती है तो सभी उसी जगह अपनी दुकानें लगाते हैं जहां व्यापार की अच्छी गुंजाइश हो. जितने भी दंगे होते हैं, उन दंगों में अनुपात में किसी समुदाय की दुकानें भले कमज्यादा जले लेकिन घाटा दोनों तरफ का होता है.

जितनी सांप्रदायिक घटना घटती हैं उन्हें सुलगाने वाले तो अपने घरों में रहते हैं, उन के बच्चे उन जुलूसों में नहीं दिखते, न ही उन के हाथ में लाठीडंडे होते हैं, क्योंकि वे प्राइवेट स्कूल में इंगलिश मीडियम की पढ़ाई कर रहे होते हैं लेकिन उन घटनाओं में लाठीडंडे, तलवार, पत्थर ले कर चलने वाले वे पिछड़े तबके के नौजवान होते हैं, जिन के लिए बुनियादी सवाल रोजगार, पढ़ाईलिखाई, सेहत के होने चाहिए थे. इस के उलट ये नौजवान धर्म के बहकावे में आम मासूम लोगों के दुश्मन बन बैठते हैं और फिर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं.

एक फोन के लिए जिगर का टुकड़ा बेच दिया

24 जून, 2010 को आई फोन 4 लौंच किया गया था. इस फोन का नई पीढ़ी पर इतना ज्यादा क्रेज हुआ था कि चीन के एक 17 साल के लड़के ने यह फोन खरीदने के लिए अपनी एक किडनी काला बाजार में बेच दी थी.

उस लड़के का नाम शिआओ वांग था और महज अपने दोस्तों पर रोब जमाने के लिए उस ने यह जानलेवा कांड कर दिया था. हद तो यह थी कि शिआओ वांग ने अपने आपरेशन के लिए एक ऐसा अस्पताल चुना था, जहां किडनी निकालने का काम गैरकानूनी तरीके से होता था और वहां साफसफाई का भी खयाल नहीं रखा जाता था.

इस से पहले सोशल मीडिया पर आई फोन खरीदने को ले कर किडनी बेचने के मीम्स तो खूब बनते थे, पर चीन के लड़के ने उसे सच साबित कर दिया. बाद में इस सब का अंजाम यह हुआ कि शिआओ वांग को लकवा मार गया और वह हमेशा के लिए अपाहिज हो गया.

अब चीन के पड़ोसी देश भारत की बात करते हैं. अब 2023 में आई फोन 14 लौंच हो चुका है. यकीनन यह आई फोन 4 से बहुत ज्यादा अच्छा होगा और इस के फीचर भी लेटैस्ट होंगे. कीमत के तो कहने ही क्या.

इस का एक फीचर है इस का कैमरा, जो सोशल मीडिया पर रील बनाने वालों को अपना दीवाना बना देता है. हम आप को एक ऐसे जोड़े से मिलवाते हैं, जिस ने यह फोन खरीदने के लिए इतनी ज्यादा घटिया हरकत कर दी कि इनसानियत भी शरमा जाए.

पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले में एक ऐसा मामला सामने आया, जिस में एक जोड़े ने कथित रूप से आईफोन खरीदने के लिए अपना 8 महीने का बच्चा 2 लाख रुपए में बेच दिया. उन दोनों पर यह भी आरोप है कि बच्चा बेचने के बाद पतिपत्नी ने मिल कर आईफोन तो खरीदा ही, बचे हुए पैसों से दीघा और मंदारमणि घूमने गए, जहां उन्होंने कथित रूप से ढेर सारी खरीदारी की और सोशल मीडिया के लिए रील बनाईं.

खबरों के मुताबिक, आरोपी पति जयदेव चौधरी और उस की पत्नी साथी चौधरी की माली हालत ठीक नहीं थी. रविवार, 23 जुलाई, 2023 को साथी चौधरी का अपने सासससुर से झगड़ा हो गया था, जिस के बाद पुलिस ने सासससुर को गिरफ्तार कर लिया था.

इसी बीच कुछ पड़ोसियों ने साथी चौधरी के हाथ में महंगा फोन देखा. उन्होंने यह भी ने गौर किया कि इस जोड़े का 8 महीने का बच्चा भी कई दिनों से नजर नहीं आ रहा है.

जब इस बारे में ज्यादा चर्चा होने लगी तो पुलिस ने साथी चौधरी को गिरफ्तार कर लिया. रिपोर्ट के मुताबिक, उस ने पुलिस के सामने कबूल किया कि दोनों पतिपत्नी ने बच्चे को बेचा. लेकिन इस की वजह हैरान करने वाली थी. आरोपी ने बताया कि उन्होंने इन पैसों से आईफोन खरीदा, कई इलाकों में घूमने गए और इंस्टाग्राम रील भी बनाईं.

अब आप सोच सकते हैं कि सोशल मीडिया पर रातोंरात स्टार बन जाने की लत कितनी ज्यादा खतरनाक हो गई है कि एक मां ने अपने 8 महीने के बच्चे को बेच डाला. यह कोई मैट्रो शहर की घटना नहीं है, जहां आई फोन रखना स्टेटस सिंबल है या जरूरत है, बल्कि एक अदना सी रील बनाने की खातिर कोई गांवदेहात का जोड़ा इतना घिनौना काम कर सकता है, यह बड़ा गंभीर मुद्दा है.

आज की तारीख में सोशल मीडिया बड़ा ताकतवर हथियार बन कर सामने आया है. पर यह एक ऐसी दोधारी तलवार है, जो खुद का बड़ा नुकसान कर सकती है. इस की लत हमें मानसिक रूप से बीमार कर सकती है. एक स्टडी में खुलासा हुआ है कि सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले अनिद्रा का शिकार हो रहे हैं, जो और दूसरी कई गंभीर बीमारियों की जड़ है.

सोशल मीडिया पर दूसरों की शानदार जिंदगी के बारे में देखसुन कर लोग हीन भावना का शिकार हो रहे हैं. उन्हें लगता कि सामने वाला कितना ज्यादा खुश है और हम किसी काम के नहीं. इसी वजह से बहुत से लोग अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं. औनलाइन ठगी इसी समस्या की उपज है, जबकि लोग भूल जाते हैं कि जो सोशल मीडिया पर दिख रहा है, वह पूरा सच नहीं है.

यहां लोग शिआओ वांग की तरह इस वर्चुअल दुनिया में इतने ज्यादा घुस जाते हैं कि एक मोबाइल फोन खरीदने के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा देते हैं और इनाम में उन्हें मिलती है एक अपाहिज जिंदगी जो उन्हें किसी काम का नहीं छोड़ती.

शादी का झांसा देकर बलात्कार है बेबुनियाद

आमतौर पर देखा गया है कि युवतियां पहले तो किसी युवक की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाती हैं या उस की दोस्ती कबूल कर लेती हैं. बाद में उन का यह दोस्ताना रिश्ता शारीरिक संबंधों तक पहुंच जाता है. यह युवक भी जानता है और युवती भी कि उन की शादी हो नहीं सकती, इस के बावजूद दोनों संबंध बना कर सुख भोगते रहते हैं. सामान्यत: कोई युवक शादी का झांसा दे कर या बहलाफुसला कर युवती से शारीरिक संबंध नहीं बनाता, लेकिन वक्त आने पर युवतियां उस पर शादी का झांसा दे कर बलात्कार करने या यौन शोषण का आरोप लगा कर उसे जेल भिजवाने से भी नहीं हिचकतीं.

कुछ प्रकरणों में तो युवतियों का कहना होता है कि पिछले 5 साल से वह शादी का झांसा दे कर यौन शोषण कर रहा था. प्रश्न यह है कि यदि वह बलात्कार था, तो 5 साल तक वे चुप क्यों बैठी रहीं? क्यों न पहले दिन या पहली बार में एफआईआर दर्ज कराई गई? इन 5 साल में उन्होंने कई बार संबंध बनाए, तब तो उसे कोई आपत्ति नहीं हुई, तो फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि रजामंदी को बलात्कार का स्वरूप दे कर उसे फंसा दिया?

कुछ युवतियां पैसे वाले लड़कों से दोस्ती करती हैं या उन्हें अपने प्रेमजाल में फंसाती हैं. उन के साथ हमबिस्तर होती हैं और उन के पैसों पर ऐश करती हैं. जब सामने वाला हाथ खींच लेता है, तो वह उसे ब्लैकमेल करने लगती हैं कि या तो वह उस की आर्थिक जरूरतें पूरी करता रहे या फिर झूठे मुकदमे में फंसने के लिए तैयार रहे?

अब यदि युवक ब्लैकमेल से बचने के लिए उसे धनराशि देता है तो उस की कभी खत्म न होने वाली चाहत बढ़ती जाती है, जो आर्थिक दृष्टि से उसे खोखला कर देती है. ऐसे में जिस दिन वह पैसे देना बंद कर देता है, उस पर शादी करने का झांसा दे कर बलात्कार करने का आरोप मढ़ दिया जाता है.

शादी का झांसा या वादा कर यौन शोषण करने के आरोप प्राय: बेतुके, झूठे और बेबुनियाद होते हैं. युवक लाख सफाई दे, रजामंदी से संबंध बनाने की दुहाई दे, लेकिन उसे सुनता कौन है, नतीजतन, बेकुसूर युवक को सजा हो जाती है.

यदि यह मान भी लिया जाए कि कभी युवक ने शादी करने का वादा किया था और अब उस से मुकर रहा है, तो यह वादाखिलाफी तो हो सकती है, पर बलात्कार नहीं. क्या वादाखिलाफी और बलात्कार एक ही अपराध है? तो फिर उसे बलात्कार के जुर्म में क्यों सलाखों के पीछे डाला जाए?

बलात्कार वह होता है जब कोई बलपूर्वक या डराधमका कर किसी युवती के साथ शारीरिक संबंध बनाता है. मैडिकल जांच से पता चल सकता है कि वह बलात्कार था या आपसी सहमति का नतीजा, क्योंकि बलात्कार में छीनाझपटी, कपड़ों का फटना, प्रजनन अंग में जख्म होना आदि बातें उजागर होती हैं, लेकिन यदि दोनों की सहमति से संबंध बनते हैं तो इस तरह के कोई लक्षण नजर नहीं आते.

जो युवती युवक पर शादी का झांसा दे कर संबंध बनाने जैसे इलजाम लगाती है, कोई उस से पूछे कि वह झांसे में आई क्यों? वह नासमझ तो है नहीं? यदि नाबालिग है तो यह उम्र नहीं शारीरिक संबंध बनाने की, उस ने अपनी सहमति क्यों दी? यदि वह बालिग है तो अपना भलाबुरा खुद जानती है, इस के लिए वह तैयार क्यों हुई?

आजकल मौडर्न सोसायटी या बड़े शहरों में साथ पढ़ने वाले अथवा नौकरीपेशा युवकयुवतियों में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने का चलन बढ़ रहा है. अपने घरपरिवार से दूर युवकयुवती एक कमरे में, एक छत के नीचे बगैर शादी किए रहते हैं, ऐसे युवकयुवतियां शादी को एक बंधन मानते हैं और इस बंधन में बंधना नहीं चाहते, पर शादी के बाद मिलने वाला सुख भोगना चाहते हैं.

न तो उन्हें ‘लिव इन’ में रहने के लिए कोई विवश करता है और न ही शारीरिक संबंध बनाने के लिए. रही बात शादी का झांसा देने की, तो इस का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि शादी नहीं करनी थी, तभी तो वे ‘लिव इन’ में साथ हैं. इसलिए 10 साल तक ‘लिव इन’ में रहने के बाद युवक पर यौन शोषण का आरोप लगाना सरासर नाइंसाफी है.

एक बात यह भी है कि ‘लिव इन’ में रहने वाली युवतियां हों या युवक मौजमस्ती के लिए वे गर्भनिरोधक गोलियों अथवा अन्य साधनों का इस्तेमाल करते हैं ताकि गर्भ न ठहरे. जरा गौर कीजिए, क्या आज तक किसी ने कंडोम का इस्तेमाल कर बलात्कार किया है? तो फिर यह बलात्कार या यौन शोषण कैसे हो सकता है?

कई बार मंगेतर प्रेमीप्रेमिका जब एकांत में होते हैं तो परिस्थितिवश उन के कदम बहक जाते हैं और वे शादी का इंतजार किए बगैर शारीरिक संबंध बना लेते हैं. ऐसे में युवती या उस के परिजन उस से शादी करना नहीं चाहते तो उलटे उस पर बलात्कार का आरोप लगा कर उस से मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं.

यदि आप शादी से पूर्व शारीरिक संबंध बनाने को गलत मानती हैं तो संबंध न बनाएं. एक सीमा तक ही उसे शारीरिक स्पर्र्श करने दें. शारीरिक संबंधों को ‘शादी के बाद’ के लिए छोड़ सकती हैं.

कोई भी युवक, प्रेमी या मंगेतर तब तक संबंध नहीं बनाता, जब तक कि युवती राजीखुशी तैयार नहीं होती या अपनी मौन स्वीकृति’ नहीं दे देती. यदि युवक पहल करता है और वह उस का मजा लेते हुए उसे सब कुछ करने देती है, तो फिर यह बलात्कार कैसे हुआ?

इस तरह के बलात्कार या यौन शोषण के मुकदमे दर्ज कराने वाली युवतियां खुद भी जानती हैं कि वह बलात्कार नहीं था. कई प्रकरणों में तो युवती उसे बलात्कार सिद्ध करने में असफल रही या युवक ने यह सिद्ध कर दिया कि जो कुछ हुआ वह दोनों की सहमति से हुआ. ऐसे में न्यायालय युवती को बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज करने पर फटकार लगाता है तथा युवक को बरी कर देता है.

राजस्थान के बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष मनन चतुर्वेदी का मानना है कि छोटी उम्र में अगर जानेअनजाने में भी सहमति से संबंध बनाएं जाएं, तो उसे दुष्कर्म नहीं मानना चाहिए.

इस के व्यावहारिक पहलू को समझने की जरूरत है. ऐसे मामलों में अकसर युवक के खिलाफ पोक्सो ऐक्ट के तहत मामला दर्ज हो जाता है और उसे जीवन भर परेशानी होती है.

राजस्थान के राजसमंद जिले में अपने दौरे में अधिकारियों के साथ बैठक में मनन चतुर्वेदी ने कहा कि आजकल जितने भी पोक्सो ऐक्ट में दुष्कर्म के प्रकरण दर्ज हो रहे हैं जिन में बालक को दोषी ठहराया जा रहा है, उन में परामर्श की जरूरत है ताकि गलती दोबारा न हो.

मनन चतुर्वेदी ने आगे कहा कि उन्होंने कई आदिवासी इलाकों का दौरा किया और मातापिता तथा किशोरगृहों में रह रहे बच्चों से बात की, तो सामने आया कि उन्हें यह पता ही नहीं है कि वे क्या गलती कर बैठे हैं. उन्होंने कहा कि वे पोक्सो ऐक्ट को गलत नहीं मानतीं, लेकिन यह ऐक्ट लगाने से पहले बच्चों को समझाने की जरूरत भी है.

बच्चे फिल्में देख कर या किसी परिस्थिति में संबंध बना लेते हैं, मगर इस में कहीं न कहीं एकदूसरे की रजामंदी जरूर है. इस के लिए न सिर्फ स्वयंसेवी संगठनों की जिम्मेदारी से परामर्श देते हुए लोगों को प्रेरित करना होगा बल्कि पुलिस व प्रशासन को भी ध्यान देना चाहिए. चतुर्वेदी के बयान पर राजस्थान महिला आयोग की अध्यक्ष सुमन शर्मा ने कहा कि देखना होगा कि चतुर्वेदी ने किस संदर्भ में यह बयान दिया है.

हनीमून और गांव की लड़कियां

विका की शादी तय हो गई थी. हर लड़की की तरह उस के मन में भी शादी को ले कर बहुत उतावलापन था. पर जब उसे यह याद आता था कि शादी के बाद नए घर जाना है, नए-नए लोगों के बीच तालमेल बैठाना है, तब वह परेशान हो जाती थी. सब से ज्यादा परेशानी की वजह पति के साथ बनने वाले जिस्मानी संबंधों को ले कर थी.

इस उलझन में देविका को रात में नींद नहीं आती थी. उसे लगता था कि जिस शरीर को कभी किसी को छूने नहीं दिया, उसे किस तरह दूसरे को सौंप सकती है. जिस्मानी संबंधों को ले कर भी उस के मन में एक हिचक थी. वह यह समझती थी कि हनीमून मतलब पति के साथ सैक्स करने के लिए घूमने जाना होता है. सैक्स करने से बच्चा ठहर जाता है.

देविका गांव की रहने वाली लड़की थी. हनीमून को ले कर उस ने जोकुछ फिल्मों और सीरियलों में देखा था, वही पता था. कुछ भाभियां और बड़ी बहन जैसी लड़कियां उसे जानकारी कम देती थीं, मजाक ज्यादा करती थीं.

देविका की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने हनीमून को ले कर क्या तैयारी करे? एक बार तो उस ने सोचा कि हनीमून के लिए मना ही कर दे. फिर उसे अपनी एक सहेली की हनीमून की तसवीर याद आई, उस की खुशी देखी तो उस का भी मन

होने लगा. उस ने सोचा कि सैक्स तो होना ही है, हनीमून न जाने से कौन सा बच जाना है.

देविका ही नहीं, बल्कि ब्याहता होने जा रही तमाम लड़कियों की हालत एकजैसी ही होती है. हां, शहरों की लड़कियों के लिए हनीमून की जानकारी होना कोई बड़ी बात नहीं है. गांव की लड़कियों के लिए यह अभी भी नई बात जैसा है.

पहले गांव की लड़कियों की शादी 17 से ले कर 20 साल की उम्र तक हो जाती थी, लेकिन अब यह उम्र 20 सेले कर 24 साल तक में हो रही है. ऐसे में उन की समझदारी और चाहत दोनों बढ़ गई हैं. हनीमून उन के लिए अब फिल्मी सपने जैसा नहीं रह गया है.

गांव की लड़कियों को सब से ज्यादा पहाड़ी और समुद्री इलाके पसंद आते हैं. कई लोग तो अभी भी संकोच के चलते हनीमून के लिए धार्मिक पर्यटन स्थलों का चुनाव करते हैं. कई बार तो लड़का और लड़की के साथसाथ उन के मातापिता व सगेसंबंधी भी चले जाते हैं.

कविता की शादी के बाद पहले तो घर से हनीमून जाने की इजाजत नहीं मिल रही थी. बड़ी मुश्किल से इजाजत मिली तो सास भी बेटेबहू के साथ जाने को तैयार हो गईं. उन्हें मना भी नहीं किया जा सकता था और वे खुद भी मानने के लिए तैयार नहीं थीं, क्योंकि उन के मन में यह डर बैठ गया था कि कहीं बहू बेटे पर अकेले में जादू न कर दे.

कविता बताती है, ‘‘मैं ने जिस को भी बताया कि हनीमून में मेरे साथ पति और सास दोनों गए थे, तो वह मेरा खूब मजाक उड़ाते थे.’’वैसे, अब गांवों में भी हनीमून पर जाने का चलन बढ़ गया है. ऐसे मेंगांव की लड़कियों को यह समझना जरूरी है कि वह अपने हनीमून पर क्या और कैसे करें?कम सामान सफर आसानशादी के तुरंत बाद ही हनीमून पर जाने का प्लान न करें. कुछ समय ससुराल में रह लें. ससुराल वालोंको भरोसे में ले कर फिर हनीमून का प्लान बनाएं.

हनीमून में बहुत सारा सामान ले कर भी न जाएं. वहां पर बहुत खरीदारी करने की कोशिश न करें. याद रखें कि हनीमून आप को एकदूसरे को समझने में मदद करता है, जिस से आप का बाकी समय प्यार से कट सके.

हनीमून के दौरान एकदूसरे की खामियां निकालने का काम न करें. पतिपत्नी दोनों ही एकदूसरे के शादी के पहले के संबंधों को ले कर बहुत उत्सुक रहते हैं. हनीमून के समय इस तरह की चर्चा नहीं करनी चाहिए.

हनीमून पर जहां जा रहे हों, तो वहां पहनने के लिए कुछ नए कपड़े जरूर ले लें. बैडरूम में पहनने के लिए इनरवियर के बहुत सारे डिजाइन मिलते हैं. इन में हनीमून ड्रैस, ब्रापैंटी का सैट, गाउन, मैक्सी, नाइटी और बरमूडा जैसे कपड़े खास होते हैं. हनीमून ड्रैस में नैट और साटन के कपड़े वाली ड्रैस ज्यादा पसंद की जाती हैं. अलगअलग स्टाइल की ब्रा भी खूब पसंद की जाती हैं.

झिल्ली हटने का डर

हनीमून का मतलब जिस्मानी संबंध ही नहीं होता है, बल्कि शादी के बाद और हनीमून के पहले कुछ समय एकदूसरे को समझने में लगाना चाहिए. इस के बाद ही जिस्मानी संबंध बनाना सहज हो जाता है.

जिस्मानी संबंध बनाते समय सहज भाव रखना चाहिए. पहली रात को ले कर सब से ज्यादा डर अंग की झिल्ली को ले कर होता है. इस दौरान शरीर को कड़ा नहीं करना चाहिए. हाथपैरों को ढीला छोड़ने से सैक्स में परेशानी कम हो जाती है.

कुछ लोग झिल्ली को कुंआरेपन की निशानी से जोड़ कर देखते हैं. उन का यह सोचना होता है कि हर लड़की में जिस्मानी संबंध के दौरान झिल्ली हटने से खून निकलना जरूरी होता है.

लड़कियों को यह लगता है कि झिल्ली के हटने से बहुत दर्द होता है. यह झिल्ली योनि के भीतरी हिस्से में होती है. यह खेलकूद, साइकिलिंग और मेहनत के काम करने से भी हट जाती है.

जिस लड़की में यह झिल्ली होती है, सैक्स के दौरान उस के हटने के समय थोड़ा दर्द हो सकता है. जरूरी नहीं कि खून निकले. अगर दर्द ठीक न हो तो पेन किलर दवाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं.

गर्भनिरोधक दवा

शादी के बाद अगर जल्दी बच्चा नहीं चाहते हैं, तो गर्भनिरोधक दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर आप के पीरियड सही समय पर आ रहे हों, तो शादी के पहले पीरियड आने के बाद गर्भनिरोधक दवा खाना शुरू कर दें. इस से शादी के बाद जिस्मानी संबंध से बच्चा ठहरने का खतरा नहीं रहता है.

लड़कों के साथ दिक्कत यह होती है कि उन को सही तरह से कंडोम का इस्तेमाल करना नहीं आता. एक गलतफहमी और होती है कि कंडोम का इस्तेमाल करने से सैक्स में मजा नहीं आता है.

ऐसे में लड़की के लिए गर्भनिरोधक गोली का इस्तेमाल करना जरूरी हो जाता है. एक इमर्जैंसी पिल्स भी आती है, जिस का इस्तेमाल 72 घंटे के अंदर करने से बच्चा ठहरने का खतरा कम हो जाता है.

शादी के तुरंत बाद जब पीरियड आ जाता है, तो लड़की के लिए बहुत परेशानी वाली बात हो जाती है. नए माहौल में जल्दी पीरियड आने से एक मानसिक तनाव भी आ जाता है.

इस को दूर करने के लिए अपने पीरियड की डेट को जोड़ कर देख लें. अगर शादी या हनीमून का समय इसी बीच आ रहा हो, तो दवाओं के सहारे पीरियड को कुछ दिन तक आगे बढ़ाया जा सकता है. पीरियड की सही गणना अपनी डाक्टर की मदद से भी कर सकती हैं.

हनीमून पर जा रहे हों, तो अपने साथ सैनेटरी पैड का पैकेट जरूर रखें, जिस से जरूरत पड़ने पर उस का इस्तेमाल किया जा सके.

ताजा रहें सांसें

हनीमून और शादी के लिए अपनेआप को फिट रखने के लिए सही डाइट रखें. हाई प्रोटीन वाली चीजें लें. कार्बोहाइड्रेट और औयली फूड कम से कम लें. हाथपैर के नाखूनों की सफाई रखें. इस समय पानी भी ज्यादा से ज्यादा पीना चाहिए.

बगल यानी अंडर आर्म और बिकिनी एरिया यानी जननांग के आसपास के बालों की सफाई भी जरूर करनी चाहिए. अंडर आर्म साफ करने के लिए ब्लीच और बिकिनी एरिया की सफाई के लिए हेयर रिमूवर क्रीम का इस्तेमाल कर सकती हैं.

गंदे दांत और बदबूदार सांस भी बहुत खराब लगती हैं. इस को दूर करने के लिए शादी के कुछ समय पहले से ही तैयारी करें. अपने दांतों की सफाई का खयाल रखें. दांतों को साफ करने के लिए सुबह सो कर उठने के बाद और रात में सोने से पहले अपने दांत और जीभ को ठीक तरह से साफ करें.

हनीमून पर जाते समय कभी भी सफर के दौरान सिरदर्द और उलटी की शिकायत होती है, तो इस से बचने के लिए सफर से पहले खाना कम खाएं और परेशानी होने पर उलटी रोकने वाली दवाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं.

प्यार के वीडियो न बनाएं

हनीमून पर जाने वालों में कुछ लोग अपने ही सैक्स संबंधों के वीडियो या फोटो खींचते हैं. हनीमून में अपने सैक्स संबंधों या उसी तरह के प्यार भरे पलों वाले फोटो या वीडियो न बनाएं. इस की वजह यह है कि इन को डिलीट करने के बाद भी वापस लाया जा सकता है. ये मैमोरी कार्ड में पड़े होते हैं. इस तरह से ये दूसरे के हाथों में जा सकते हैं. सामान्य फोटो खींचें और वीडियो बनाएं. इस तरह से कुछ सावधानी के साथ अपने हनीमून का मजा लें.

गांव के लोग और वहां का माहौल थोड़ा अलग होता है. ऐसे में अपने मातापिता को समझा कर बात करें, जिस से वे हनीमून की अहमियत को समझ सकें और सहयोग करें. मातापिता को भी समझना चाहिए कि समय बदल रहा है. बदलते समय में नए दूल्हादुलहन को अपने शौक पूरे करने का हक है.

मंदिरों के भरम में दलित

यह धर्म ही बताता है कि किसी भी जने का ऊंची या नीची जाति में पैदा होना उस के पिछले जन्म में किए गए पुण्य या पाप का नतीजा होता है. समाज में सब से निचले पायदान पर दलित हैं. सब से ऊपर ब्राह्मण, जिसे समाज का दिमाग कहा गया, इसी तरह से क्षत्रिय को छाती, बनिए को पेट या उदर और शूद्र को सब से नीचे पैरों का हिस्सा बताया गया. शूद्र वे हैं, जिन्हें आज बैकवर्ड कहा जाता है.

धार्मिक कहानियों के जरीए बारबार इस बात को बताया गया कि मंदिरों में पूजापाठ, धर्मकर्म करना अपने आने वाले जन्म को बेहतर बनाने के काम आता है. दलितों को 5वीं जाति यानी अछूत या जाति के बाहर के लोग कहा जाता था. उन को इस बात का बारबार एहसास कराया गया कि मंदिरों में पूजापाठ करना या धार्मिक ग्रंथ पढ़ना, यह सब उन के लिए नहीं है.

आज भी देश में तमाम मंदिर ऐसे हैं, जहां दलितों के लिए पूजापाठ करना मना है. कई बार ऐसे मंदिरों में प्रवेश को ले कर लड़ाईझगड़ा तक होता रहता है. मंदिरों में पुजारी के रूप में कहीं भी दलित नहीं हैं. धर्म के इसी भेदभाव का शिकार हो कर डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था.

आजादी के समय देश में धार्मिक लैवल पर भेदभाव और छुआछूत बड़े पैमाने पर था. यही वजह है कि दलित समाज को बराबरी का दर्जा देने के लिए सरकारी नौकरियों और चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक हलकों में रिजर्वेशन दिया गया. इस वजह से दलित समाज का एक बड़ा तबका माली और सामाजिक रूप से आगे बढ़ गया.

लेकिन इस तबके ने दलित समाज की सामाजिक भलाई के लिए किसी तरह का कोई सहयोग नहीं किया. यह तबका पूरी तरह से इस कोशिश में लग गया कि वह सामाजिक रूप से दलित की पहचान से छूट जाए. साथ ही, इस तबके ने दलित तबके से अपना रिश्ता वहीं तक रखा, जहां उसे रिजर्वेशन की जरूरत पड़ी.

अपने नाम के आगे दलित जाति से अलग ‘सरनेम’ रख लिया. यही नहीं, यह तबका मंदिरों में जा कर पूजापाठ करने लगा. अपने घर में ही मंदिर बना लिया. यह तबका दलित समाज के कमजोर और गरीब तबके को यह समझाने लगा कि पूजापाठ का ही नतीजा है कि वह आज ऊंच तबके के बराबर खड़ा है.

दलितों का मंदिरों से कोई भला नहीं होगा, यह इस बात से समझा जा सकता है कि कारसेवा करने वाले दलित तो हैं, पर उन के साथ जब गैरदलित हों तो घर वाले उन का शुद्धीकरण कराते हैं. जब वे घर लौटते हैं, तो उन्हें गाय छूने को कहा जाता है और उन पर गंगाजल छिड़का जाता है.

अहमदाबाद के एक रिटायर्ड आईएएस अफसर राजन प्रियदर्शी कहते हैं, ‘‘दलितों को गैरदलित पड़ोसी तक बनाने को तैयार नहीं हैं. गुजरात में कोई दलित अपनी मनपसंद जगह नहीं रह सकता. 98.1 फीसदी गांवों में दलितों को पूजापाठ करने के बावजूद गैरदलितों के यहां मकान किराए पर नहीं मिल सकता. मुझे खुद मजबूरन दलित बहुल इलाके में ही रहना पड़ा है.’’

2014 में पिलखुवा, उत्तर प्रदेश के शुकलान महल्ले में चंडी मंदिर में पूजा करने गए एक दंपती को पुजारी ने पूजा नहीं करने दी और अंजू वाल्मीकि व प्रमोद वाल्मीकि को रोक दिया. ये वहां करने ही क्या गए थे?

चंदौली, उत्तर प्रदेश के एक स्कूल से इसी अक्तूबर महीने में एक छात्रा को निकाल दिया गया, क्योंकि वह दलित जाति की थी. जब स्कूलों में उन्हें स्वीकारा नहीं जा रहा, जो सरकारी पैसों पर चल रहे हैं, जहां पूजापाठ नहीं हो रहा, तो मंदिरों में क्या स्वीकार होंगे और वहां दलितों को मिलेगा क्या?

कांग्रेस की नेता कुमारी शैलजा 2013 में जब द्वारका गईं, तो उन से पुजारी ने उन की जाति पूछी. पूर्व मंत्री कुमारी शैलजा कांग्रेस की दलित नेता हैं, फिर भी उन्हें इस अपमान से मुक्ति नहीं मिली. अफसोस यह है कि कुमारी शैलजा मंदिर देखने नहीं गईं, वहां मत्था टेकने गईं और यही गलत है.

कुछ साल पहले नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया था, पर मधुबनी जिले में एक मंदिर में बतौर मुख्यमंत्री जाने के बावजूद उसे धोया गया और उस बिहार में उसी जीतनराम मांझी के संरक्षक रहे नीतीश कुमार आज उसी भाजपा के पैरों पर गिरे पड़े हैं, जो दलितों को अपनी औकात में रखना चाहती है और मंदिर उस की साजिश की धुरी हैं.

दलितों में बढ़ रहा पाखंड

धर्म के नाम पर चल रहे तमाम पाखंड चढ़ावा चढ़ाने के लिए होते हैं. दलित तबके के ‘नवहिंदुत्व’ में शामिल हुए लोग चढ़ावा चढ़ाने में सवर्णों से भी आगे होने लगे हैं. वे अपने घर पर पूजापाठ करने के लिए पुजारियों को बुलाने लगे हैं.

गरीब दलित के यहां जाने से आनाकानी करने वाले पुजारी यहां पूजा कराने आने लगे. इस की वजह यह नहीं थी कि पुजारी के मन से छुआछूत की भावना मिट गई थी. इस की वजह यह थी कि यहां मुंहमांगा चढ़ावा मिलने लगा था.

एक पुजारी ने बताया, ‘‘नवरात्र के दिनों में मैं एक ऐसे ही परिवार के यहां रोज पूजापाठ और हवन करने जाता था. उन लोगों ने हर दिन के लिए नए कपड़े दिए और कहा कि आप को रोज नए कपड़े पहन कर ही हवन करना है.

‘‘उन्होंने हमारी सोच से ज्यादा चढ़ावा दिया. नवरात्र के खत्म होने पर मुझे दक्षिणा दे कर विदा किया. हमें वहां इतना चढ़ावा मिला, जितना 5 सवर्ण परिवार मिल कर भी नहीं देते थे.’’

आजादी के कुछ सालों तक दलितों के तमाम संगठन ऐसे थे, जो यह बताते थे कि दलितों की हालत के लिए जिम्मेदार धार्मिक कुरीतियां, रूढि़वाद और छुआछूत है. जब तक यह है, तब तक दलितों को समाज में बराबरी का हक नहीं मिलने वाला.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने दलितों को जागरूक करने का काम किया. उन्हें यह लगता था कि राजनीतिक सत्ता हासिल कर के ही दलितों की तरक्की की जा सकती है.

कांशीराम के बाद बसपा की नेता मायावती को अपने सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के बाद लगा कि जो सवर्ण मंच पर उन के पैर छू रहे हैं, उस से दलितों के हालात बदल जाएंगे, जबकि अगड़ों का मायावती के पैर छूना एक राजनीतिक मजबूरी थी. इस का सामाजिक बराबरी से कोई लेनादेना नहीं था.

पूजापाठ में दिलचस्पी

दलितों की ताकत समझ चुके अगड़ों को समझ आ गया था कि जातिवाद के सहारे ताकत हासिल करना मुश्किल है. ऐसे में दलितों को धार्मिक पाखंड से जोड़ा जाने लगा. जिन मंदिरों में कभी दलितों को घुसने नहीं दिया जाता था, वहां उन को प्रवेश दिया जाने लगा.

अब बहुत ही कम ऐसे मंदिर बचे हैं, जहां दलितों को प्रवेश न मिलता हो. दलितों को इस बात के लिए दिमागी रूप से तैयार किया जाने लगा कि वे अपने मंदिर खुद बना लें.

अब दलितों की नौजवान पीढ़ी इस धार्मिक पूजापाठ में ज्यादा दिलचस्पी रखने लगी है. यह पीढ़ी ऐसी है, जो थोड़ीबहुत पढ़ीलिखी है. वह किताबें पढ़ लेती है. बड़े घरों को देख कर अपने घर में धार्मिक कहानियों की किताबें पढ़ने लगी है. किताबों में लिखी विधि के हिसाब से पूजापाठ करने लगी है.

गणेश, दुर्गा और सरस्वती की पूजा कर के उन की मूर्तियों के विसर्जित करते समय देखा जाता है कि बहुत सी दलित बस्तियों में यह शुरू हो चुका है. पहले यह रिवाज शहरों में था, पर अब गांव और कसबों में भी दिखने लगा है. रातरातभर आरकेस्ट्रा पर फिल्मी गानों की धुनों पर भजन बजते हैं.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘हैरानी की बात तो यह है कि दलित और पिछड़े तबके के ये नौजवान पढ़ेलिखे होने के बाद भी धर्म की कहानियों में लिखी बातों को समझने की कोशिश नहीं करते. जिन चौपाइयों और कहानियों में दलित तबके की बुराई की गई है, उस लाइन को भी वह जोरशोर से पढ़ते हैं. वे यह भी नहीं सोचते हैं कि इन लाइनों में दलित तबके को ही गलत बताया गया है.

‘‘असल में इन नौजवानों का कुसूर भी नहीं है. पहले दलितों के लिए काम करने वाले संगठन बताते थे कि किनकिन धर्मग्रंथों में धार्मिक कहानियों के जरीए दलितों की बुराई की गई है. उस समय बहुत सारे दलित होलीदीवाली नहीं मनाते थे. ये त्योहार धार्मिक रूप से हिंदुओं की अगड़ी जातियों के त्योहार माने जाते थे. राम की आलोचना होती थी. ये बातें आज की नौजवान पीढ़ी को नहीं पता. धर्म का प्रचार करने वाले धर्म की सचाई बताने वालों से अधिक संगठित हो गए हैं.’’

बढ़ रहे हैं धार्मिक मेले

दलित परिवारों में धार्मिक मेलों की अहमियत बढ़ रही है. आज भी गांवकसबों की औरतों को घूमनेफिरने की बहुत आजादी नहीं है. ऐसे में जब कोई उन के आसपास मेला लगता है, तो उन का वहां जाना आसान हो जाता है. ऐसे मेले किसी मंदिर या फिर धार्मिक जगह पर होते हैं.

यहां जाने वालों को 2 तरह का फायदा हो जाता है. वे मेला भी घूम लेते हैं और घरों की जरूरत का सामान भी खरीद लेते हैं. बीमारी से ले कर बाकी जरूरतों के लिए ये लोग मंदिरों, बाबाओं और ओझाओं की शरण में जाने से नहीं चूकते हैं. दलित औरतें पहले से ही धर्म को ले कर बहुत डरी रहती हैं. ऐसे में वे बाबाओं की हर बात मान लेती हैं.

लखनऊ के पास बाराबंकी जिले में एक बाबा की सीडी सामने आई, जिस में वे तमाम औरतों का बांझपन दूर करने का उपाय करते थे. कई सीडी में वे सैक्स करते भी दिखे. इन औरतों में बड़ी तादाद दलित औरतों की थी.

जागरूकता की कमी

धार्मिक मेलों में भगदड़ के समय मरने वालों में अगर देखें, तो उन में इन गरीब लोगों की तादाद सब से ज्यादा होती है. धार्मिक भरोसे के मामले में दलित सब से अधिक धर्मभीरु बनते जा रहे हैं. उन के धर्म से प्रभावित होने की वजह गरीबी है.

गरीब को लगता है कि यह सब उस के पिछले जन्म के किए गए बुरे कामों का नतीजा है. ऐसे में वे इस जन्म में अपने काम के प्रति धार्मिक हो जाते हैं.

अब दलित तबके के पास भी पैसा है. वह रोज न सही, पर 2-4 महीने में किसी न किसी धार्मिक आयोजन में शामिल होता है. मीडिया भी ऐसी खबरों को प्रमुखता से दिखाता है.

कुंभ के मौके पर दलितों के लिए नहाने का अलग से इंतजाम होता है. यह बात इस तरह से सामने रखी गई, जिस से कुंभ में नहाने के बाद दलितों की सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. केवल पूजापाठ ही नहीं, अब दलित भी परिवार में किसी के मरने के बाद तेरहवीं जैसे भोज करने लगे हैं.

इस बारे में रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘छुआछूत और गैरबराबरी की बात धर्म की ही देन है. इस के बाद भी धर्म पर भरोसा बढ़ता जा रहा है. आज कई दलित इस बात के लिए आंदोलन करते हैं कि उन को मंदिर में घुसने नहीं दिया जाता.

‘‘सोचने वाली बात यह है कि जिस मंदिर में उन को बराबरी का हक नहीं दिया जाता, वहां जा कर वे क्या हासिल कर लेंगे? इस के बाद भी वे ऐसे मंदिरों में जाने की जिद करने लगते हैं.

‘‘असल में आजादी के बाद दलितों में जिस तरह से मंदिर का भरम कम हुआ था, वह अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के बाद फिर से उभर आया है.

‘‘अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के समय समाज दलितपिछड़ों और अगड़ों की जमात में खड़ा था, पर अब जातिवाद पर धर्म हावी हो गया है.’’

दलित नेता बने मार्गदर्शक

पहले दलितों के नेता अपने लोगों को जागरूक करते थे और खुद भी ऐसे आंडबरों से दूर रहते थे. डाक्टर भीमराव अंबेडकर और कांशीराम दोनों ने अपनी निजी जिंदगी में पाखंड को कभी अहमियत नहीं दी. बाद में आने वाले नेताओं में पाखंड बढ़ने लगा. ये लोग न केवल मंदिर जाने लगे, बल्कि  खुद भी पूजापाठ, हाथ में अंगूठी, कलावा बांधने लगे. अपने पद को बचाए रखने के लिए हवन और जाप कराने लगे. इन को देख कर इन के समर्थक और अनुयायी भी उसी दिशा में बढ़ने लगे.

शहरों में बस चुके दलित केवल रिजर्वेशन का फायदा लेते समय ही दलित होने का प्रमाणपत्र दाखिल करते हैं. उस के बाद वे खुद को सवर्ण समझ लेते हैं. धर्म के कामों में लग कर वे ऊंची जातियों की बराबरी का सपना देखने लगते हैं.

दलितों को यह समझ नहीं आता कि मंदिरों में पूजापाठ करने से समाज में उसे बराबरी का दर्जा हासिल नहीं होगा. समाज में बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए उसे कुरीतियों से मुकाबला करना होगा. वे कुरीतियां धर्म के पाखंड के चलते ही समाज में फैली हुई हैं.

दलितों को समाज से छुआछूत और भेदभाव को दूर करना है, तो मंदिरों के भरम से उसे बाहर निकलना होगा. जब तक वह पापपुण्य, पिछला जन्म भूल कर  पढ़लिख नहीं जाएगा, तब तक समाज में गैरबराबरी का शिकार होता रहेगा.

मणिपुर में इंसानियत शर्मसार

मणिपुर के हालात से सभी वाकिफ हैं. वहां पर बिते कई दिनों से हिंसा चल रही लेकिन बुधवार को जो वायरल वीडियो आया, जिसमें दो महिलाओं को नग्न करके सड़क पर दौड़ाया गया. जिसनें इंसानियत और महिलाओं की इज्जत को तार-तार किया वो बेहद ही शर्मनाक है. मणिपुर हिंसा को लेकर अभी तक कोई कार्रवाई भी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही ये वायरल वीडियो सबके सामने आया इस पर हंगामा शुरू हो गया. मणिपुर में इस घटना ने इंसानियत पर सवाल उठा दिया. वहशी दरिंदों के नए चेहरे दिखा दिए. मणिपुर में कुछ लोग इतने वहशी हो गए कि उन्होंने दो लड़कियों को निर्वस्त्र किया, उन्हें बिना कपड़ों के घुमाया.

प्रधानमंत्री अब तक चुप क्यों ?

मणिपुर में 3 मई से हिंसा हो रही थी, वायरल वीडियो 4 मई का है. 77 दिन तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस मामले में कोई कमेंट नहीं आया जबकि विपक्षी नेता लगातार इस मामले में पीएम के दखल की मांग कर रहे थे. गृह मंत्री अमित शाह ने मोर्चा जरूर संभाला लेकिन उनके दिल्ली वापस होते ही हिंसा से शुरु हो गई. संसद के मानसून सत्र का पहला दिन था प्रधानमंत्री मीडिया के सामने आए और वायरल वीडियो के मामले में 36 सेकंड में अपनी बात कह गए. इस दौरान उन्होंने राजस्थान और छत्तीसगढ़ का नाम भी गिना दिया. अब सवाल यह उठता है कि मणिपुर जैसे जघन्य अपराध को किसी दूसरे अपराध से तुलना कैसे की जा सकती है ? सवाल यह भी उठता है आखिरकार कब तक दूसरे अपराधों की तुलना में अपने अपराधों को छुपाया जाएगा ? जब भी कभी भाजपा पर सवाल उठते हैं तो वह तुरंत कांग्रेस के 70 सालों का इतिहास बनाने लगते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी इसलिए भी सवाल खड़ी करती है कि वह हर छोटे छोटे मसलों पर ट्वीट करते हैं लेकिन मणिपुर 77 दिनों से जल रहा था लेकिन पीएम खामोश थे. वायरल वीडियो और मणिपुर हिंसा को देखते हुए पीएम मोदी ने चुप्पी तो तोड़ी, साथ ही दो और प्रदेशों का नाम जोड़कर उन्होंने यह जता दिया कि सिर्फ बीजेपी शासित राज्य में ऐसे कांड नहीं होते जहां पर कांग्रेस की सरकार है वहां पर भी ऐसी शर्मनाक हरकतें हो रही हैं

मणिपुर में जब से हिंसा हो रही है तब से प्रधानमंत्री ने एक भी शब्द मणिपुर पर नहीं कहा ना ही किसी एक्शन की बात कही. मानसून सत्र की शुरुआत में मीडिया से सिर्फ इतना कहा कि- मणिपुर की घटना से मेरा हृदय दुख से भरा है. ये घटना शर्मसार करने वाली है. पाप करने वाले कितने हैं, कौन हैं वो अपनी जगह है, पर बेइज्जती पूरे देश की हो रही है. 140 करोड़ देशवासियों को शर्मसार होना पड़ रहा है. दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा. नारी का सम्मान सर्वोपरि.

संसद में क्यों मणिपुर पर बहस नहीं कर रहे पीएम ?

विपक्ष लगातार सवाल कर रहा है कि आखिर प्रधानमंत्री संसद में मणिपुर पर चर्चा क्यों नहीं कर रहे हैं. इस मुद्दे पर बात करना बाकी सभी मुद्दों से ज्यादा जरूरी है, क्योंकि बाकी सभी मुद्दों की तुलना में ये महत्वपूर्ण मुद्दा है. समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने कहा सरकार चर्चा के लिए तैयार नहीं जबकि मणिपुर पर नियम के तहत चर्चा चाहता है विपक्ष. कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने मणिपुर सीएम पर हमला बोला, कहा- अपने बयान के बाद भला सीएम की कुर्सी पर कैसे बैठे है मुख्यमंत्री. और देखा जाए तो बात सही भी है.इतने दिनों से मणिपुर जल रहा लेकिन सरकार ने चुप्पी साध रखी है.

मणिपुर मामला है क्या ?

दरअसल मणिपुर में तीन मई को मैतेई (घाटी बहुल समुदाय) और कुकी जनजाति (पहाड़ी बहुल समुदाय) के बीच हिंसा शुरू हुई थी. मणिपुर में मैतेई समाज की मांग है कि उसको कुकी की तरह राज्य में ST का दर्जा दिया जाए, लेकिन कुकी समुदाय को ये बात नागवार गुजरी. वो नहीं चाहता कि मैतेई समाज के लोग उनके बराबर आए और यही कारण है कि इसके खिलाफ कुकी समाज ने आवाज उठाई और आदिवासी एकजुटता रैली निकाली. जिसका विरोध होते-होते बात हिंसा तक पहुंच गई और मणिपुर इतने दिनों से हिंसा की आग में जल रहा है.

BBC के रिपोर्ट के मुताबिक- वायरल वीडियो को शर्मनाक बताते हुए मैतेई समुदाय से आने वाले फ़िल्ममेकर निंगथोउजा लांचा ने कहा- हम किसी अपराध या अपराधी के बचाव में ये नहीं कह रहे लेकिन हमारे पास इससे भी भयावह वीडियो हैं. पीएम मोदी को टिप्पणी करने से पहले इस वीडियो की जाँच होनी चाहिए थी. इसके बिना किसी एक समुदाय पर आरोप लगाना गलत है.” बहुत से ऐसे वीडियो और तस्वीरें हैं जिनमें कुकी समुदाय के लोग मैतेई लोगों को मार रहे हैं. पीएम उन पर क्या कहेंगे? इतना एकतरफ़ा रुख क्यों? प्रधानमंत्री को हमेशा निष्पक्ष रहना चाहिए.”

मणिपुर में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

BBC की रिपोर्ट के मुताबिक- सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के इस वायरल वीडियो पर स्वत: संज्ञान लिया, कहा- इस मामले में 28 जुलाई को सुनवाई करेगा कोर्ट.
चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सरकार को इस मामले में दखल देना चाहिए और एक्शन लेना चाहिए. ये पूरी तरह अस्वीकार्य है. ये संविधान और मानवाधिकारों का उल्लंघन है. कोर्ट ने कहा कि “सरकार बताए कि ऐसी घटनाएं फिर ना हो, इसके लिए क्या कदम उठाए गए, सरकार इसका जवाब दे.

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