Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 1

‘‘सौरी डैड, मुझे पता है कि आप ने मुझे एक घंटा पहले बुलाया था, पर उस समय मुझे अपनी महिला मित्र को फोन करना था. चूंकि उस के पास यही समय ऐसा होता है कि मैं उस से बात कर सकता हूं इसलिए मैं आप के बुलावे को टाल गया था. अब बताइए कि आप किस काम के लिए मुझे बुला रहे थे.’’

‘‘कोई खास नहीं,’’ दीनप्रभु ने कहा, ‘‘दवा लेने के लिए मुझे पानी चाहिए था. तुम आए नहीं तो मैं ने दवा की गोली बगैर पानी के ही निगल ली.’’

‘‘डैड, आप ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया. वैसे भी इनसान को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मैं कल से पानी का पूरा जार ही आप के पास रख दिया करूंगा.’’

हैरीसन के जाने के बाद दीनप्रभु सोचने लगे कि इनसान के जीवन की वास्तविक परिभाषा क्या है? और वह किस के लिए बनाया गया है. क्या वह बनाने वाले के हाथ का एक ऐसा खिलौना है जिस को बनाबना कर वह बिगाड़ता और तोड़ता रहता है और अपना मनोरंजन करता है.

इनसान केवल अपने लिए जीता है तो उस को ऐसा कौन सा सुख मिल जाता है, जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती और यदि दूसरों के लिए जीता है तो उस के इस समर्पित जीवन की अवहेलना क्यों कर दी जाती है. यह कितना कठोर सच है

कि इनसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करता है. वह दूसरों को रास्ता दिखाता है मगर जब वह खुद ही अंधकार का शिकार होने लगता है तो उसे एहसास होता है कि प्रवचनों में सुनी बातें सरासर झूठ हैं.

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हैरीसन घर से जा चुका था. कमरे में एक भरपूर सन्नाटा पसरा पड़ा था. दीनप्रभु के लिए यह स्थिति अब कोई नई बात नहीं थी. ऐसा वह पिछले कई सालों से अपने परिवार में देखते आ रहे थे मगर दुख केवल इसी बात का कि जो कुछ देखने की कल्पना कर के वह विदेश में आ बसे थे उस के स्थान पर वह कुछ और ही देखने को मजबूर हो गए. भरेपूरे परिवार में पत्नी और बच्चों के रहते हुए भी वह अकेला जीवन जी रहे थे.

अपने मातापिता, बहनभाइयों के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया. सब को रास्ता दिखा कर उन के घरों को आबाद किया और जब आज उन की खुद की बारी आई तो उन की डगमगाती जीवन नैया की पतवार को संभालने वाला कोई नजर नहीं आता था. सोचतेसोचते दीनप्रभु को अपने अतीत के दिन याद आने लगे.

भारत में वह दिल्ली के सदर बाजार के निवासी थे. पिताजी स्कृल में प्रधानाचार्य थे. वह अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़े थे. परिवार की आर्थिक स्थिति संभालने का जरिया नौकरी के अलावा सदर बाजार की वह दुकान थी जिस पर लोहा, सीमेंट आदि सामान बेचा जाता था. इस दुकान को उन के पिता, वह और उन के दूसरे भाई बारीबारी से बैठ कर चलाया करते थे.

संयुक्त परिवार था तो सबकुछ सामान्य और ठीक चल रहा था मगर जब भाइयों की पत्नियां घर में आईं और बंटवारा हुआ तो सब से पहले दुकान के हिस्से हुए, फिर घर बांटा गया और फिर बाद में सब अपनेअपने किनारे होने लगे.

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इस बंटवारे का प्रभाव ऐसा पड़ा कि बंटी हुई दुकान में भी घाटा होने लगा. एकएक कर दुकानें बंद हो गईं. परिवार में टूटन और बिखराव के साथ अभावों के दिन दिखाई देने लगे तो दीनप्रभु के मातापिता ने भी अपनी आंखें सदा के लिए बंद कर लीं. अभी उन के मातापिता के मरने का दुख समाप्त भी नहीं हुआ था कि एक दिन उन की पत्नी अचानक दिल के दौरे से निसंतान ही चल बसीं. दीनप्रभु अकेले रह गए. किसी प्रकार स्वयं को समझाया और जीवन के संघर्षों के लिए खुद को तैयार किया.

दीनप्रभु के सामने अब अपनी दोनों सब से छोटी बहनों की पढ़ाई और फिर उन की शादियों का उत्तरदायित्व आ गया. उन्हें यह भी पता था कि उन के भाई इस लायक नहीं कि वे कुछ भी आर्थिक सहायता कर सकें. इन्हीं दिनों दीनप्रभु को स्कूल की तरफ से अमेरिका आने का अवसर मिला तो वह यहां चले आए.

अमेरिका में रहते हुए ही दीनप्रभु ने यह सोच लिया कि अगर वह कुछ दिन और इस देश में रह गए तो इतना धन कमा लेंगे जिस से बहनों की न केवल शादी कर सकेंगे बल्कि अपने परिवार की गरीबी भी दूर करने में सफल हो जाएंगे.

अमेरिका में बसने का केवल एक ही सरल उपाय था कि वह यहीं की किसी स्त्री से विवाह करें और फिर यह शार्र्टकट रास्ता उन्हें सब से आसान और बेहतर लगा. अपनी सोच को अंजाम देने के लिए दीनप्रभु अमेरिकन लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन देखने  लगे. इत्तफाक से उन की बात एक लड़की के साथ बन गई. वह थी तो  तलाकशुदा पर उम्र में दीनप्रभु के बराबर ही थी. इस शादी का एक कारण यह भी था कि लड़की के परिवार वालों की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह किसी भारतीय युवक से करना चाहते थे, क्योंकि उन की धारणा थी कि पारिवारिक जीवन के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला हुआ युवक अधिक विश्वासी और अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार होता है.

एक दिन दीनप्रभु का विवाह हो गया और तब उन की दूसरी पत्नी लौली उन के जीवन में आ गई. विवाह के बाद शुरू के दिन तो दोनों को एकदूसरे को समझने में ही गुजर गए. यद्यपि लौली उन की पत्नी थी मगर हरेक बात में सदा ही उन से आगे रहा करती, क्योेंकि वह अमेरिकी जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी. दीनप्रभु वहां कुछ सालों से रह जरूर रहे थे पर वहां के माहौल से वह इतने अनुभवी नहीं थे कि अपनेआप को वहां की जीवनशैली का अभ्यस्त बना लेते. उन की दशा यह थी कि जब भी कोई फोन आता था तो केवल अंगरेजी की समस्या के चलते वे उसे उठाते हुए भी डरते थे. शायद उन की पत्नी लौली इस कमजोरी को समझती थी, इसी कारण वह हर बात में उन से आगे रहा करती थी.

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दीनप्रभु शुरू से ही सदाचारी थे. इसलिए अपनी विदेशी पत्नी के साथ निभा भी गए लेकिन विवाह के बाद उन्हें यह जान कर दुख हुआ था कि उन की पत्नी के परिवार के लोग अपने को सनातन धर्म का अनुयायी बताते थे पर उन का सारा चलन ईसाइयत की पृष्ठभूमि लिए हुए था. अपने सभी काम वे लोग अमेरिकियों की तरह ही करते थे. उन के लिए दीवाली, होली, क्रिसमस और ईस्टर में कोई भी फर्क नहीं दिखाई देता था. लौली के परिवार वाले तो इस कदर विदेशी रहनसहन में रच गए थे कि यदि कभीकभार कोई एक भी शनिवार बगैर पार्टी के निकल जाता था तो उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे जीवन का कोई बहुत ही विशेष काम वह करने से भूल गए हैं.

Serial Story- एक तवायफ मां नहीं हो सकती: भाग 1

यह उन दिनों की बात है जब मैं पंजाब के एक छोटे से शहर के एक थाने में तैनात था. एक दिन दोपहर लगभग 3 बजे एक अधेड़ उम्र की औरत थाने में आई, उस के साथ 2 आदमी भी थे. उन्होंने बताया कि एक औरत मर गई है, उन्हें शक है कि उस की हत्या की गई है. पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें संदेह इसलिए है कि देखने से ऐसा लग रहा है जैसे उसे जहर दिया गया हो.

मैं ने देखा मर्द बोल रहे थे लेकिन औरत चुप थी. मैं ने पूछा रिपोर्ट किस की ओर से लिखी जाएगी. उन्होंने औरत की ओर इशारा कर दिया. वे दोनों मर्द उस के पड़ोसी थे. औरत का नाम शादो था और मरने वाली का नाम सरदारी बेगम. मैं ने मरने वाली से उस का संबंध पूछा तो उस ने बताया कि मरने वाली उस की सौतन थी. उस के पति का 9 महीने पहले देहांत हो चुका था. सौतनों के झगड़े होना मामूली बात है. मैं ने भी इसी तरह का केस समझ कर रिपोर्ट लिख ली और उनके घर पहुंच गया.

मैं ने लाश को देखा तो लगा कि मृतका को जहर दिया गया है. मैं ने कागजी काररवाई कर के लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया और केस की जांच में लग गया. मैं ने देखा कि घर में एक ओर चीनी की प्लेट में थोड़ा सा हलवा रखा हुआ था, उस में से कुछ हलवा खाया भी गया था.

मैं ने अनुमान लगाया कि मृतका को हलवे में जहर मिला कर खिलाया गया होगा. मैं ने उस हलवे को जाब्ते की काररवाई में शामिल कर के उसे मैडिकल टेस्ट के लिए भेज दिया. मैडिकल रिपोर्ट आने पर ही आगे की काररवाई की जा सकती थी.

शादो से मैं ने पूरी जानकारी ली तो पता लगा कि उस के और सरदारी बेगम के पति का नाम मसूद अहमद था. वह छोटामोटा कारोबार करते थे. सरदारी बेगम अपने पति की दूर की रिश्तेदार भी थी, जबकि शादो की उन से कोई रिश्तेदारी नहीं थी. सरदारी बेगम से मसूद के 2 बेटे और एक बेटी थी. जबकि शादो से कोई संतान नहीं थी. तीनों बच्चों की शादी हो चुकी थी. लड़की अपने घर की थी और दोनों लड़के मांबाप से अलग रहते थे. शादो ने कहा कि उन दोनों को उन की मां के मरने की जानकारी दे दी गई है.

शादो से जो जानकारी मिली, वह संक्षेप में लिख रहा हूं. मसूद अहमद का कारोबार ठीकठाक चल रहा था. उन्होंने शादो से चोरीछिपे शादी कर ली थी और उसे एक अलग मकान में रखा हुआ था. इसी बीच मसूद बीमार पड़ गए. उन की हालत दिनबदिन गिरती जा रही थी. तभी एक दिन उन्होंने सरदारी बेगम से कहा कि उन्होंने चोरी से एक और शादी की हुई है.

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यह सुन कर सरदारी बेगम को दुख तो हुआ लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था. मसूद अहमद ने दूसरी पत्नी शादो को बुला कर उस का हाथ सरदारी बेगम के हाथ में दे कर कहा कि मेरा कोई भरोसा नहीं है कि मैं कितने दिन जिऊंगा. मेरे बाद तुम शादो का खयाल रखना, क्योंकि इस के आगेपीछे कोई नहीं है. मैं तुम्हारी खानदानी शराफत की वजह से इस का हाथ तुम्हें दे रहा हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम इस का खयाल रखोगी.

सरदारी बेगम ने मसूद से वादा किया कि वह शादो का पूरा खयाल रखेगी और उसे कभी भी अकेला नहीं छोड़ेगी. इस के कुछ दिन बाद ही मसूद का देहांत हो गया.

सरदारी बेगम ने शादो को अपने पास बुला कर रख लिया और उस से कहा कि वह उसे सौतन की तरह नहीं, बल्कि अपनी सगी बहन की तरह रखेगी. शादो के इस तरह घर में आ कर रहने से सरदारी के दोनों बेटे खुश नहीं थे. न ही उन्होंने उसे अपनी सौतेली मां माना. उस के आने से घर में रोज झगड़े होने लगे. हालात से तंग आ कर सरदारी बेगम शादो के उस मकान में चली गई, जिस में वह रहा करती थी.

दोनों बेटे इस बात से खुश थे, लेकिन दुनियादारी निभाने के लिए मां से कहते थे कि तुम हमारे पास आ जाओ, लेकिन शादो को साथ नहीं लाना. सरदारी ने कहा कि मैं मरते दम तक अपने पति से किया वादा पूरा करूंगी और शादो का साथ नहीं छोड़ सकती.

महीने-2 महीने में सरदारी बेगम अपने बेटों से मिलने चली जाती थी. बड़ा बेटा मां से खुश नहीं था. वह कहता था कि शादो को छोड़ कर यहां आ जाओ, लेकिन वह इस के लिए तैयार नहीं थी.

बड़े बेटे शरीफ ने बहाने बना कर अपने पिता के कारोबार और बैंक में जमा रकम पर कब्जा कर लिया था. इस से उन दोनों को खानेपीने की तंगी होने लगी. सरदारी बेगम पढ़ीलिखी थी, उस ने घर में बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया.

शादो ने एक स्कूल की हेडमिस्ट्रैस से मिल कर अपने लिए स्कूल में छोटेमोटे कामों के लिए नौकरी कर ली. इस तरह उन की आय बढ़ गई और खानेपीने का इंतजाम हो गया. शरीफ अपनी मां से बारबार शादो को छोड़ने के लिए कहा करता था लेकिन वह किसी तरह भी तरह तैयार नहीं होती थी. इस से शरीफ अपनी मां से बहुत नाराज था.

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जिस दिन सरदारी बेगम का देहांत हुआ था, उस दिन शादो स्कूल से अपनी ड्यूटी पूरी कर के घर पहुंची तो देखा सरदारी बेगम मर चुकी हैं. वह रोनेचीखने लगी. मोहल्ले वाले इकट्ठा हो गए. उन्होंने लाश को देखा तो मृतका का रंग देख कर उन्हें भी लगा कि उसे जहर दिया गया है या उस ने खुद जहर खा लिया है, इसलिए पुलिस में रिपोर्ट करनी जरूरी है. और इस तरह वे 2 आदमी शादो के साथ रिपोर्ट लिखाने थाने आए थे.

अगले दिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गई, जिस में लिखा था कि मृतका की मौत जहर के कारण हुई है. उस के पेट में जो हलवे की मात्रा निकली, वह हजम नहीं हुई थी, उस में जहर मिला हुआ था. शाम तक हलवे के टेस्ट की रिपोर्ट भी आ गई. रिपोर्ट में लिखा था कि हलवे में संखिया की मात्रा पाई गई है. संखिया को अंगरेजी में आर्सेनिक कहते हैं. यह इंसान के लिए बहुत खतरनाक होता है.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मैडिकल टेस्ट से यह बातसाफ हो गई कि सरदारी बेगम को जहर दे कर मारा गया था. मैं ने शादो से पूछा कि क्या उस दिन घर में हलवा बना था? लेकिन उस ने इस बात से इनकार कर दिया.

मंथर हत्या

लेखिका- कादंबरी मेहरा    

मैं अनीता जोशी, माताजी की नर्स हूं.

माताजी जब बड़े भैया के यहां से वापस आई थीं, एकदम चुस्त- दुरुस्त थीं. खूब हंसहंस कर बाबूजी को बता रही थीं कि क्या खाया, क्या पिया, किस ने पकाया.

बड़े भैया जब भी कनाडा से भारत आते मां को अपने फ्लैट पर ले जाते और अमृतसर से अपनी छोटी बहन मंजू को भी बुला लेते. कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है. महीना भर के लिए मेरी भी मौज हो जाती. मैं भी उधर ही रहती. माताजी पिछले 4 सालों से मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर थीं. 90 साल की उम्र ठहरी, शरीर के सभी जरूरी काम बिस्तर पर ही निबटाने पड़ते थे.

वैसे देखा जाए तो सुरेश और उन की पत्नी संतोष को सेवा करनी चाहिए. मांबाप के घर में जो रह रहे हैं. कभी काम नहीं जमाया. एक तरह से बाबूजी का ही सब हथिया कर बैठ गए हैं. संतोष बीबीजी भी एकदम रूखी हैं. पता नहीं कैसे संस्कार पाए हैं. औरत होते हुए भी इन का दिल कभी अपनी सास के प्रति नहीं पसीजता. बस, अपने पति और बच्चों से मतलब या पति की गांठ से.

इधर कई महीनों से माताजी रात को आवाज लगाती थीं तो सुरेश का परिवार सुनीअनसुनी कर देता था. एक दिन बाबूजी ने सुरेश के बच्चों को फटकारा तो वह कहने लगे कि ऊपर तक आवाज सुनाई नहीं देती. आवाज लगाना फुजूल हुआ तो माताजी ने कटोरी पर चम्मच बजा कर घंटी बना ली. इस पर संतोष बीबीजी ने यह कह कर कटोरी की जगह प्लास्टिक की डब्बी रखवा दी कि कटोरी बजाबजा कर बुढि़या ने सिर में दर्द कर दिया.

मैं ड्यूटी पर आई तो माताजी ने कहा कि अनीता, तू ने मुझे रात को खाना क्यों नहीं दिया. मैं बोली कि खाना तो मैं बना कर जाती हूं और आशीष आप को दोनों समय खाना खिलाता है. मैं ने ऊपर जा कर छोटी बहू संतोष से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘अरे, इस बुढि़या का तो दिमाग चल गया है. खाऊखाऊ हमेशा लगाए रखती है. खाना दिया था यह भूल गई.’’

अगले दिन बाबूजी से पूछा तो वह कहने लगे कि डाक्टर ने खाने के लिए मना किया है. रात का खाना खिलाने से इन का पेट खराब हो जाएगा. ताकत की दवाइयां दे गया है. आशीष खिला देता है.

मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘डाक्टर आप को देखने आया था लेकिन आप ने तो नहीं बताया.’’

माताजी हैरान हो कर बोलीं, ‘‘कौन सा डाक्टर? अरे, मैं तो डा. चावला को दिखाती थी पर उन को मरे हुए तो 2 साल हो गए. दूसरे किसी डाक्टर को ये इसलिए नहीं दिखाते कि मुझ पर इन को पैसा खर्च करना पड़ेगा.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘ताकत की गोलियां कहां हैं मांजी, दूध के संग उन्हें मेरे सामने ही ले लो.’’

वह बोलीं, ‘‘कौन सी गोलियां? मरने को बैठी हूं… झूठ क्यों बोलूंगी? 3 दिन से रात का खाना बंद कर दिया है मेरा. जा, पूछ, क्यों किया ऐसा.’’

मैं ने तरस खा कर जल्दी से एक अंडा आधा उबाला और डबल रोटी का एक स्लाइस ले कर अपने घर जाने से पहले उन्हें खिला दिया.

अगले दिन मेरी आफत आ गई. सुरेश बाबू ने मुझे डांटा और कहा कि जो वह कहेंगे वही मुझे करना पड़ेगा. रात को उन्हें पाखाना कौन कराएगा.

मैं ने दबी जबान से दलील दी कि भूख तो जिंदा इनसान को लगती ही है, तो चिल्ला पड़े, ‘‘तू मुझे सिखाएगी?’’

मैं भी मकानजायदाद वाली हूं. घर से कमजोर नहीं हूं. मेरा बड़ा बेटा डाक्टरी पढ़ रहा है. छोटा दर्जी की दुकान करता है. उसी की कमाई से फीस भरती हूं. दोनों मुझे यहां कभी न आने देते. मगर माताजी मेरे बिना रोने लगती हैं. मैं हूं भी कदकाठी से तगड़ी. माताजी 80 किलो की तो जरूर होंगी. उन्हें उठानाबैठाना आसान काम तो नहीं और मैं कर भी लेती हूं.

एक बार कनाडा से माताजी जिमर फ्रेम ले आई थीं जो वजन में हलका और मजबूत था. माताजी उसे पकड़ कर चल लेती थीं. अंदरबाहर भी हो आती थीं. पर तभी छोटी बहू के पिताजी को लकवा मार गया. अत: उन्होंने जिमर फ्रेम अपने पिताजी को भिजवा दिया.

बड़े भैया जब अगली बार आए तो अपनी मां को एक पहिएदार कुरसी दिला गए. मैं उसी पर बैठा कर उन को नहलानेधुलाने बाथरूम में ले जाती थी. मगर 2 साल पहले जब आशीष ने कंप्यूटर खरीदा तो संतोष बीबीजी ने उस की पुरानी मेज माताजी के कमरे में रखवा दी जिस से व्हील चेयर के लिए रास्ता ही नहीं बचा.

बड़े भैया कनाडा से आते तो अपनी मां के लिए जरूरत का सब सामान ले आते. भाभीजी सफाईपसंद हैं, एकदम कंचन सा सास को रखतीं. भाभीजी अपने हाथ से माताजी की पसंद का खाना बना कर खिलातीं. बाबूजी बड़े भैया के घर नहीं जाते थे. सुरेश ने कुछ ऐसा काम कर रखा था कि बाप बेटे से जुदा हो गया. बाबूजी के मन में अपने बड़े बेटे के प्रति कैसा भाव था यह तब देखने को मिला जब भैया माताजी से मिलने आए तो बाबूजी परदे के पीछे चले गए. इस के बाद ही बड़े भैया ने अलग मकान लिया और मां को बुलवा कर उन की सारी इच्छाओं को पूरा करते थे. तब मेरी भी खूब मौज रहती. वह मुझे 24 घंटे माताजी के पास रखते और उतने दिनों के पैसों के साथ इनाम भी देते.

फिर जब उन के कनाडा जाने का समय आता तो वह माताजी को वापस यहां छोड़ जाते और वह फिर उसी गंदी कोठरी में कैद हो जातीं. भाभीजी की लाई हुई सब चीजें एकएक कर गायब हो जातीं. मैं ने एक बार इस बात की बाबूजी से शिकायत की तो उलटा मुझ पर ही दोष लगा दिया गया. मैं ने जवाब दे दिया कि कल से नहीं आऊंगी, दूसरा इंतजाम कर लो. मगर माताजी ने मेरे नाम की जो रट लगाई कि उन का चेहरा देख कर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा.

खाना तो रोज बनता है इस घर में. बाबूजी को खातिर से खिलाते हैं मगर मांजी के लिए 2 रोटी नहीं हैं. यह वही मां है जिस ने किसी को कभी भूखा नहीं सोने दिया. देवर, ननद, सासससुर, बच्चे सब संग ही तो रहते थे. आज उसी का सब से लाड़ला बेटा उसे 2 रोटी और 1 कटोरी सब्जी न दे? क्या कोई दुश्मनी थी?

माताजी की सहेली भी मैं ही थी. एक दिन उन से पूछा तो कहने लगीं कि बाबूजी की ये खातिरवातिर कुछ नहीं करते. सब नीयत के खोटे हैं. बाबूजी के बैंक खाते में करोड़ों रुपए हैं इसलिए उन्हें मस्का लगाते हैं. मैं ठहरी औरत जात. 2-4 गहने थे उन्हें बेटी के नेगजोग में दे बैठी. इन पर बोझ नहीं डाला कभी. अब मैं खाली हाथ खर्चे ही तो करवा रही हूं. रोज दवाइयां, डाक्टर. ऊपर से मुझे दोष लगाते हैं कि तू मेरे गहने परायों को दे आई.

आज सुरेश अपनी बीवी को 5 हजार रुपया महीना जेबखर्च देता है. मेरा आदमी इसे देख कर भी नहीं सीखता. पहले तो ऐसा रिवाज नहीं था. औरतों को कौन जेबखर्च देता था.

माताजी की बाबूजी से नहीं बनती. कैसे बने? शराबी का अपना दिमाग तो होता नहीं. सुरेश के हाथ कठपुतली बन कर रह गए हैं. 10वीं में बेटा फेल हुआ तो उसे अपने साथ दुकानदारी में लगा लिया और पीना भी सिखा दिया. अब उसी नालायक से यारी निभा रहे हैं. माताजी कहती थीं कि देखना अनीता, जिस दिन मेरी आंखें बंद हो जाएंगी यह बाप की रोटीपानी भी बंद कर देगा. बाप को बोतल पकड़ा कर निचोड़ रहा है, ताकि जल्दी मरे.

माताजी कोसतीं कि इतनी बड़ी कोठी कौडि़यों के मोल बेच दी और इस दड़बे जैसे घर में आ बैठा, जहां न हवा है न रोशनी. मेरे कमरे में तो सूरज के ढलने या उगने का पता ही नहीं चलता. ऊपर से संतोष ने सारे घर का कबाड़ यहीं फेंक रखा है.

माताजी रोज अपनी कोठी को याद करती थीं. सुबह चिडि़यों को दाना डालती थीं. सूरज को निकलते देखतीं, पौधों को सींचतीं. ग्वाला गाय ले कर आता तो दूध सामने बैठ कर कढ़वातीं. लोकाट और आम के पेड़ थे, लाल फूलों वाली बेल थीं.

बड़े भैया के बच्चे सामने चबूतरे पर खेलते थे. बड़े भैया अच्छा कमाते थे. सारे घर का खर्च उठाते थे. सारा परिवार एक छत के नीचे रहता था और यह सुरेश की बहू डोली से उतरने के 4 दिन बाद से  ही गुर्राने लगी. अपने घर की कहानी सुनातेसुनाते माताजी रो पड़तीं.

इस बार बड़े भैया जब आए तब जाने क्यों बाबूजी खुद ही उन से बोलने लगे. भाभीजी ने पांव छुए तो फल उठा कर उन के आंचल में डाले. पास बैठ कर घंटों अच्छे दिनों की यादें सुनाने लगे. जब वह लोग माताजी को अपने फ्लैट पर ले गए तो मैं ने देखा कि उस रोज बाबूजी पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रो रहे थे.

मैं रुक गई और पूछा, ‘‘क्या बात हो गई?’’ तो कहने लगे कि अनीता, आज तो मैं लुट गया. मेरा एक डिविडेंड आना था. सुरेश फार्म पर साइन करवाने कागज लाया था. मगर मैं ने कुछ अधिक ही पी रखी थी. उस ने बीच में सादे स्टांप पेपर पर साइन करवा लिए. नशा उतरने के बाद अपनी गलती पर पछता रहा हूं. अरे, यह सुरेश किसी का सगा नहीं है. पहले बड़े भाई के संग काम करता था तो उसे बरबाद किया. वह तो बेचारा मेहनत करने परदेस चला गया. मुझ से कहता था, भाई ने रकम दबा ली है और भाग निकला है. मैं भी उसे ही अब तक खुदगर्ज समझता रहा मगर बेईमान यह निकला.

मैं ने कहा, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है. सबकुछ तो आप के पास है. बड़े को उस का हक दो और आप भी कनाडा देखो.’’

वह हताश हो कर बोले, ‘‘अनीता, कल तक सब था, आज लुट गया हूं. क्या मुंह दिखाऊंगा उसे. मुझे लगता है कि मैं ने इस बार बड़े से बात कर ली तो छोटे ने जलन में मुझे बरबाद कर दिया.’’

मन में आया कह दूं कि आप को तो रुपए की बोरी समझ कर संभाल रखा है. मांजी पर कुछ नहीं है इसलिए उन्हें बड़े भाई के पास बेरोकटोक जाने देता है. मगर मैं क्यों इतनी बड़ी बात जबान पर लाती.

होली की छुट्टियों में मैं गांव गई थी. जाते समय जमादारिन से कह गई थी कि माताजी को देख लेगी. 4 दिन बाद गांव से लौटी तो देखा माताजी बेहोश पड़ी थीं. बड़े भैया 1 माह की दवाइयां, खाने का दिन, समय आदि लिख कर दे गए थे. उसी डा. चावला को टैक्सी भेज कर बुलवाया था जिसे इन लोगों ने मरा बता दिया था. माताजी देख कर हैरान रह गई थीं. डाक्टर साहब ने हंस कर कहा था, ‘‘उठिए, मांजी, स्वर्ग से आप को देखने के लिए आया हूं.’’

बाबूजी ने मुझे बताया कि जब से तू गांव गई सुरेश ने एक भी दवाई नहीं दी. कहने लगा कि आशीष और विशेष की परीक्षाएं हैं, उस के पास दवा देने का दिन भर समय नहीं और मुझे तो ठीक से कुछ दिखता नहीं.

माताजी ब्लड प्रेशर की दवा पिछले 55 साल से खाती आ रही हैं. मुझे बाबूजी से मालूम हुआ कि दवा बंद कर देने से उन का दिल घबराया और सिर में दर्द होने लगा तो सुरेश ने आधी गोली नींद की दे दी थी. उस के बाद ही इन की हालत खराब हुई है.

मैं ने माताजी की यह हालत देखी तो झटपट बड़े भैया को फोन लगाया. सुनते ही वह दौड़े आए. बड़ी भाभी ने हिलाडुला कर किसी तरह उठाया और पानी पिलाया. माताजी ने आंखें खोलीं. थोड़ा मुसकराईं और आशीर्वाद दिया, ‘‘सुखी रहो…सदा सुहागिन बनी रहो.’’

बस, यही उन के आखिरी बोल थे. अगले 7 दिन वह जिंदा तो रहीं पर न खाना मांगा न उठ कर बैठ पाईं. डाक्टर ने कहा, सांस लेने में तकलीफ है. चम्मच से पानी बराबर देते रहिए.

मैं बैठी रही पर उन्होंने आंखें नहीं खोलीं. ज्यादा हालत बिगड़ी तो डाक्टर ने कहा कि इन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ेगा.

सुरेश झट से बोला, ‘‘देख लो, बाबूजी. क्या फायदा ले जाने का, पैसे ही बरबाद होंगे.’’

तभी बड़ी भाभी ने अंगरेजी में बाबूजी को डांटा कि आप इन के पति हैं. यह घड़ी सोचने की नहीं बल्कि अपनी बीवी को उस के आखिरी समय में अच्छे से अच्छे इलाज मुहैया कराने की है, अभी इसी वक्त उठिए, आप को कोई कुछ करने से नहीं रोकेगा.

2 दिन बाद माताजी चल बसीं. उन का शव घर लाया गया. महल्ले की औरतें घर आईं तो संतोष बीबीजी ऊपर से उतरीं और दुपट्टा आंखों पर रख कर रोने का दिखावा करने लगीं.

अंदर मांजी को नहलानेधुलाने का काम मैं ने और बड़ी भाभी ने किया. बड़े भैया ने ही उन के दाहसंस्कार पर सारा खर्च किया.

कल माताजी का चौथा था. कालोनी की नागरिक सभा की ओर से सारा इंतजाम मुफ्त में किया गया. पंडाल लगा, दरी बिछाई गई. रस्म के मुताबिक सुरेश को सिर्फ चायबिस्कुट खिलाने थे.

सुबह 11 बजे मैं घर पहुंची तो देखा, बाबूजी उसी पलंग पर लेटे हुए थे जिस पर माताजी लेटा करती थीं. मैं ने उन्हें उठाया, कहा कि पलंग की चादरें भी नहीं बदलवाईं अभी किसी ने.

यह सुनते ही सुरेश चिल्लाए, ‘‘तेरा अब यहां कोई काम नहीं, निकल जा. होली की छुट्टी लेनी जरूरी थी. मार डाला न मेरी मां को. अब 4 दिन की नागा काट कर हिसाब कर ले और दफा हो.’’

‘‘माताजी को किस ने मारा, यह इस परिवार के लोगों को अच्छी तरह पता है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा हिसाब.’’

मैं चिल्ला पड़ी थी. मेरा रोना निकल गया पर मैं रुकी नहीं. लंबेलंबे डग भर कर लौट पड़ी.

बाबूजी मेरे पीछेपीछे आए. मेरे कंधे पर हाथ रखा. उन की आंखों में आंसू थे, भर्राए गले से बोले, ‘‘अब मेरी बारी है, अनीता.’’

क्या फर्क पड़ता है- भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा. ‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं. इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया.

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मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या? अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’ ‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’ ‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

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‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था. कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है. ‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’

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मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं. खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं. अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा.

चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं. ‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’ ‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’ ‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’ सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’ ‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’ ‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था. क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था. ‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’ ‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’ मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं?

आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’ ‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’ ‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’ कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये…मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.

‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’ सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है. ‘‘बस, मौसीजी…आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’ ‘‘बैठ, बैठ…हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’ विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ.

शोकसभा – भाग 1

लेखक- मनमोहन भाटिया  

महानगरों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है. हर इनसान अपने में ही व्यस्त है. कुसूर किसी का भी नहीं है, वक्त की कमी सभी को है और हर कोई दूसरे से न मिलने की शिकायत करता है. लेकिन व्यक्ति क्या खुद अपने गिरेबान में झांक कर स्वयं को देखता है कि वह खुद जो शिकायत कर रहा है, स्वयं कितना समय दूसरों के लिए निकाल पाता है.

सुबह आफिस जाने के लिए सुभाष तैयार हो कर नाश्ते की मेज पर बैठे समाचारपत्र की सुर्खियों पर नजर डाल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठा कर उन्होंने जैसे ही हैलो कहा, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘क्या भाषी है?’’

एक अरसे के बाद भाषी शब्द सुन कर उन्हें अच्छा लगा और सोचने लगे कि कौन है भाषी कहने वाला, नजदीकी रिश्तेदार ही उन्हें भाषी कहते थे. तभी दूसरी तरफ की आवाज ने उन की सोच को तोड़ा, ‘‘क्या भाषी है?’’

‘‘हां, मैं भाषी बोल रहा हूं, आप कौन, मैं आवाज पहचान नहीं सका,’’ सुभाष ने प्रश्न किया.

‘‘भाषी, तू ने मुझे नहीं पहचाना, क्या बात करता है, मैं मेशी.’’

‘‘अरे, मेशी, कितने सालों बाद तेरी आवाज सुनाई दी है, कहां है तू. तेरी तो आवाज बिलकुल बदल गई है.’’

‘‘थोड़ा सा जुकाम हो रहा है पर यह बता, तू कहां है, कभी नजर ही नहीं आता.’’

‘‘मेशी, तेरे से मिले तो एक जमाना हो गया. क्या कर रहा है?’’

‘‘तेरे से यह उम्मीद न थी, भाषी. तू तो एकदम बेगाना हो गया है. मैं ने सोचा, कहीं तू विदेश तो नहीं चला गया, लेकिन शुक्र है कि तू बदल गया पर तेरा टैलीफोन नंबर नहीं बदला है.’’

‘‘क्या बात है मेशी, सालों बाद बात हो रही है और तू जलीकटी सुना रहा है.’’

‘‘भाषी, तू हरी के अंतिम संस्कार पर भी नहीं पहुंचा, आज उस की उठावनी है, इसलिए फोन कर रहा हूं, शाम को 3 से 4 बजे का समय है.’’

‘‘क्या बात करता है, हरी का देहांत हो गया. कब, कैसे हुआ, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं.’’

‘‘4 दिन हो गए हैं. आज तो उस की शोकसभा है. आना जरूर.’’

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‘‘कहां आऊं, पता तो बता…आज 10 साल बाद हमारे बीच बात हो रही है. न पता बता कर राजी है, न पहले बताया. बस, गिलेशिकवे कर रहा है,’’ भाषी ने तीखे शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की.

मेशी ने उठावनी कहां होनी है, उस का पता बताया.

सुभाष की पत्नी सारिका रसोई में थी, टिफिन हाथ में ला कर बोली, ‘‘यह लो अपना लंच… नाश्ता यहीं ले कर आऊं या डाइनिंग टेबल पर लगाऊं.’’

‘‘टिफिन से खाना निकाल लो, आज आफिस नहीं जा रहा हूं.’’

‘‘क्यों? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, मेशी का फोन आया था. अभी उसी से बात कर रहा था. हरी का देहांत हो गया है, वहां जाना है.’’

‘‘क्या?’’ सारिका ने हैरानी से पूछा.

‘‘आज शाम को हरी की उठावनी है.’’

‘‘4 दिन हो गए और हमें पता ही नहीं. किसी ने बताया ही नहीं,’’ इस से पहले सारिका कुछ और कहती सुभाष ने कहा, ‘‘रहने दे, हम क्यों अपना दिमाग और समय खराब करें. जब पता चल ही गया है तो हम अभी हरी के घर चलते हैं और शाम को उठावनी में भी चलेेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं भी तैयार हो जाती हूं, फिर साथ चलते हैं.’’

सारिका तैयार होने चली गई तो सुभाष अतीत में गुम हो गया. हरी, भाषी और मेशी तो उन के घर के नाम थे. तीनों ताऊ, चाचा के लड़के थे. बचपन में सब के मकान एकसाथ थे. तीनों की उम्र में 1-2 साल का ही अंतर था. एकसाथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना. तीनों भाई ही नहीं दोस्त भी थे.

हरी यानी बिहारी, मेशी यानी रमेश और भाषी यानी सुभाष. तीनों बड़े हो गए लेकिन बचपन के उन के नाम नहीं गए. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही बिहारी, रमेश, सुभाष हों, लेकिन एकदूसरे के लिए हरी, मेशी और भाषी ही थे.

कालेज की पढ़ाई के बाद हरी ताऊजी की दुकान पर बैठ गया. रमेश चाचाजी की दुकान पर और सुभाष ने नौकरी कर ली, क्योंकि उस के पिताजी का व्यापार नुकसान की वजह से बंद हो चुका था और बहनों की शादी के खर्च के बाद मकान भी बिक गया. सुभाष मांबाप के साथ किराए के मकान में रहने लगा तो वे दूर हो गए फिर भी आपसी नजदीकियां और मेलजोल पहले जैसा ही रहा.

सुभाष की शादी सब से पहले हुई, फिर रमेश की और सब से बाद में बिहारी की. जहां सुभाष की पत्नी सारिका गरीब परिवार की थी वहीं रमेश और बिहारी की शादियां बड़े व्यापारियों की बेटियों के साथ बहुत धूमधाम से हुईं. अमीर घर की बेटियां सारिका से दूरी ही बनाए रखती थीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के रहते कुछ बोल नहीं पाती थीं.

समय बीतता गया. घर के बुजुर्गों के गुजर जाने के बाद रमेश और बिहारी की पत्नियां सेठानी की पदवी पा गईं, उन के सामने सारिका का कोई पद नहीं था, नतीजतन, सुभाष और सारिका का बचपन के लंगोटिया मेशी, हरी का साथ छूट गया.

एक शहर में रहते हुए भी वे अनजाने हो गए. आज के भौतिकवाद में हैसियत सिर्फ रुपएपैसों से तौली जाती है. सुभाष सोचने लगा, शायद 15 साल बीत गए होंगे, मेशी और हरी से मिले हुए. शायद नातेरिश्ते भी सिर्फ पैसा ही देखते हैं. एक छोटी सी नौकरी करते हुए सुभाष बिहारी और रमेश के नजदीक न आ सका. तभी सारिका की आवाज ने सुभाष को अतीत से वर्तमान में ला दिया.

‘‘कब चलना है, मैं तैयार हूं.’’

सुभाष व सारिका बाइक पर बैठ बिहारी (हरी) के मकान की ओर चल पड़े. सुभाष ने रमेश से बिहारी के नए मकान का पता ले लिया था. सुभाष और सारिका जब बिहारी की कोठी के सामने पहुंचे तो उस की भव्यता देख कर हैरान हो गए और उस के सामने उन्हें अपने 2 कमरे के फ्लैट का कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा था. वे हिम्मत कर के अंदर जाने लगे तो बड़े से भव्य गेट पर गार्ड ने उन्हें रोक लिया और विजिटर रजिस्टर पर नामपता लिखवाया फिर इंटरकौम पर पूछ कर इजाजत ली, तब कहीं अंदर जाने दिया.

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अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे जिन्हें सुभाष नहीं जानते थे. उन्हें कोई रिश्तेदार नजर नहीं आया. काफी देर तक वे बैठे रहे. जो लोग मिलने आ रहे थे, उन के डिजिटल कैमरे से फोटो खींच कर एक लड़का अंदर जाता और फिर मिलने की इजाजत ले कर बरामदे में आता और अपने साथ अंदर छोड़ कर आता.

सुभाष ने बैठेबैठे नोट किया कि उस लड़के के पास रिवाल्वर था. अपने भाई के देहांत पर अफसोस करने आए मगर अफसोस का यह सिस्टम उन की समझ से बाहर था कि क्यों आगंतुकों को एकएक कर के अफसोस जाहिर करने के लिए अंदर भेजा जा रहा है. आखिर 1 घंटे बाद सुभाष को अंदर भेजा गया. एक आलीशान कमरे में उस की भाभी डौली सोफे पर अपने 2 भाइयों के साथ बैठी थी. सोफे के दोनों कोनों पर 2 खूंखार विदेशी नस्ल के कुत्तों को देख कर सुभाष और सारिका ठिठक गए और दूर से ही हाथ जोड़ कर सिर झुका कर अफसोस जाहिर किया.

Serial Story : सजा – भाग 1

लेखक : विजया वासुदेवा    

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

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‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

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इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

पिताजी : नीला को कब अहसास हुआ, ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए – भाग 1

वीणा समझ नहीं पा रही थीं कि पतिपरमेश्वर हर समय वहशी रवैया क्यों अपनाए रहते हैं. नीला भी पिताजी की डांटडपट से सहमी रहती. समय गुजरता रहा कि एक दिन वे वीणा से अपने को सच्चा पत्नीव्रता जताते नजर आए. और तब नीला को पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए.

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

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बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

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अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

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‘‘सो म, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

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‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर %A

Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था : भाग 1

दरवाजा खोला तो पोस्टमैन ने सीमा के हाथ में चिट्ठी दे कर दस्तखत करने को कहा.

‘‘किस की चिट्ठी है?’’ मैं ने बैठेबैठे ही पूछा.

चिट्ठी देख कर सीमा ठिठक गई और आश्चर्य से बोली, ‘‘किसी सौलिसिटर की है. लिफाफे पर भेजने वाले का नाम ‘जौन मार्र्टिन-सौलिसिटर्स’ लिखा है.’’

यह सुनते ही मैं ने चाय का प्याला होंठों तक पहुंचने से पहले ही मेज पर रख दिया. इंगलैंड में मैं वैध रूप से आया था और 65 वर्ष की आयु में वकील का पत्र देख कर दिल को कुछ घबराहट सी होने लगी थी. उत्सुकता और भय का भाव लिए पत्र खोला तो लिखा था.

‘‘जेम्स वारन, 30 डार्बी एवेन्यू, लंदन निवासी का 85 वर्ष की आयु में 28 नवंबर, 2004 को देहांत हो गया. उस की वसीयत में अन्य लोगों के साथ आप का भी नाम है. जेम्स की वसीयत 15 दिसंबर, 2004 को 3 बजे जेम्स वारन के निवास पर पढ़ी जाएगी. आप से अनुरोध है कि आप निर्धारित तिथि पर वहां पधारें या आफिस के पते पर टेलीफोन द्वारा सूचित करें.’’

‘‘यह जेम्स वारन कौन है?’’ सीमा ने उत्सुकता से कहा, ‘‘मेरे सामने तो आप ने कभी भी इस व्यक्ति का कोई जिक्र नहीं किया.’’

मैं जैसे किसी पुराने टाइमजोन में पहुंच गया. चाय का एक घूंट पीते हुए मैं ने सीमा को बताना शुरू किया.

उस समय मैं अविवाहित था और लंदन में रहता था. मैं कभीकभी 2 मील की दूरी पर स्थित एवेन्यू पार्क में जाता था. वहां एक अंगरेज वृद्ध जिस की उम्र लगभग 55-60 की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहां से गुजरने वाले हर व्यक्ति को हंस कर ‘गुडमार्निंग’ या ‘गुड डे’ इस अंदाज में कह कर अभिवादन करता, मानो कुछ कहना चाहता हो.

इंगलैंड में धूप खिलीखिली हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल बातों में समय गंवाए? यह सोच कर लोग उसे नजरअंदाज कर चले जाते और वह बैंच पर अकेला बैठा होता था. मैं भी औरों की तरह अकसर आंखें नीची किए कतरा कर चला जाता था.

हर रोज अंधेरा शुरू होने से पहले बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरेधीरे चल देता. मैं कभी अनायास ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर वह ‘हैलो’  कह कर मुसकरा देता. मैं भी उसी प्रकार उत्तर दे कर चला जाता.

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यह क्रम चलता रहा. एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं आई तो विचारों के क्रम में बारबार बूढे़ की आकृति सामने आती रही, फिर नींद लगी तो देर से सो कर उठा. सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर कपड़े बदले और पार्क जा पहुंचा.

देखा तो बूढ़ा उसी बैंच पर मुंह नीचे किए बैठा हुआ था. इस बार कतराने के बजाय मैं ने उस से कहा, ‘हैलो, जेंटिलमैन.’

बूढ़े ने मुंह ऊपर उठाया. उस की नजरें कुछ क्षणों के लिए मेरे चेहरे पर अटक गईं. फिर एकदम से उस की आंखों में चमक सी आ गई. वह बड़े उल्लास- पूर्वक बोला, ‘हैलो, सर. आप मेरे पास बैठेंगे क्या?’

मैं उसी बैंच पर उस के पास बैठ गया. बूढ़े ने मुझ से हाथ मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो. मैं ने पूछा, ‘आप कैसे हैं?’

जब भी 2 व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वत: ही मुख से निकल जाता है. कुछ देर मौन ने हम को अलग रखा था पर मैं ने ही फिर पूछा, ‘आसपास में ही रहते हैं?’

मेरे इस सवाल पर ही उस ने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया, ‘मेरा नाम जेम्स वारन है. 30 डार्बी एवेन्यू, फिंचले में अकेला ही रहता हूं.’

मैं ने कहा, ‘मिस्टर वारन…नहीं, नहीं…जेम्स.’

‘आप मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा,’ जेम्स ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही कह दिया.

मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे उस ने अपने अंदर दबा कर रखा है क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है. उस के अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिए जाने कब से संघर्ष कर रही होंगी किंतु किस के पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिए समय है?

जेम्स ने एक आह सी भरी और कहना शुरू किया.

‘मैं अकेला हूं और 4 बेडरूम के मकान की भांयभांय करती दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूं.’

इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ कर के दोबारा बोलना शुरू किया.

‘ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी बहुत अच्छी थी. हम दोनों एकदूसरे की सुनते थे. उस के साथ दुख का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?

‘एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया. पिता बनने की खबर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो. मेरी मां ने दादी बनने की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली. इसी तरह 8 महीने आनंद से बीत गए. ऐथल ने अपने आफिस से अवकाश ले लिया था. मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता.

‘एक रात मूसलाधार वर्षा हो रही थी. ऐथल को ऐसा तेज दर्द हुआ जो उस के लिए सहना कठिन था. मैं ने एंबुलेंस मंगाई और ऐथल की कराहटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुंच गया.

‘नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेजी से आई.सी.यू. में ले गईं. डाक्टर ने ऐथल की हालत जांच कर कहा कि शीघ्र ही आपरेशन करना पड़ेगा. अंदर डाक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के जीवन और मौत के बीच अपने औजारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने से लड़ता रहा. काफी देर बाद एक नर्स ने आ कर बताया कि तुम एक लड़के के पिता बन गए हो. खुशी में एक उन्माद सा छा गया. नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा था. नर्स ने मुझे जोर से झंझोड़ सा दिया पर मेरा हाथ जोर से दबाए रही. कहने लगी कि मिस्टर वारन, मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश के बाद भी आप की पत्नी नहीं बच सकी.

जेम्स ने आंखों से चश्मा उतार कर फिर साफ किया. उस की आंखें आंसुओं के भार को संभाल नहीं पाईं.  उस ने एक लंबी सांस छोड़ी और अपनी इस वेदना भरी कहानी को जारी करते हुए बोला, ‘मां पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगीं. मेरी मां बड़ी साहसी थीं. उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्योंकि विलियम ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था.’

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‘इसी तरह 8 साल बीत गए. मां बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं. एक दिन वह भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा ले कर चली गईं. उस दिन से विलियम के लिए मैं ही मां, दादी और पिता के कर्तव्यों को पूरी जिम्मेदारी से निभाता. उसे सुबह नाश्ता दे कर स्कूल छोड़ कर अपने दफ्तर जाता. वहां से भी दिन के समय स्कूल में फोन पर उस की टीचर से उस का हाल पूछता रहता. विलियम की उंगली में यदि जरा सी भी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर में दर्द फैल गया हो.

‘इतने लाड़प्यार में पलते हुए वह 18 वर्ष का हो गया. ए लेवल की परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की खबर सुन कर मैं बेहद खुश हुआ था. जब उस ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से आनर्स की डिगरी पास की तो मेरे आनंद का पारावार न था.

‘विलियम की गर्लफ्रेंड जैनी जब भी उस के साथ घर आती तो मैं खुशी से नाच पड़ता. जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में संपन्न हुआ जहां मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था. एक साल के बाद ही विलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया. उस दिन मुझे मां और ऐथल की बड़ी याद आई. मेरी आंखें भर आईं. पोते का नाम जार्ज वारन रखा.

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‘हंसतेखेलते एक साल बीत गया. इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था.

‘डैडी, जैनी और मुझे, कंपनी एक बहुत बड़ा पद दे कर आस्टे्रलिया भेज रही है. वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है. मकान, गाड़ी, हवाई जहाज की यात्रा के साथसाथ कंपनी जार्ज के स्कूल का प्रबंध आदि की सुविधाएं भी दे रही है, विलियम ने बताया तो मेरी आंखें खुली की खुली ही रह गईं.

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