और रिश्ते टूट गए – निशि की मौसीजी ने उसका कौनसा राज खोल दिया?

Raghavendra Saini

‘‘सभी मौसियां राधास्वामी मत को मानने वाली बनी फिरती हैं, अक्ल धेले की नहीं है,’’ निशि, मेरी साली की बेटी के उक्त शब्द पास से गुजरते जब मेरे कानों में पड़े तो मेरे तनबदन में आग लग गई. सर्दी की इस उफनती रात में भी भीतर के कोप के कारण मैं ने स्वयं को अत्यंत उग्र पाया. इस का जवाब दिया जाना चाहिए. जैसे ही मैं पीछे को मुड़ा, मेरी पत्नी सरला मेरे मुड़ने का आशय समझ गई. सरला ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस समय नहीं. इस समय हम किसी के समारोह में आए हुए हैं, मैं नहीं चाहती, कुछ अप्रिय हो.’’

‘‘एक बच्ची हो कर उसे इस बात का खयाल नहीं है कि बड़ों से कैसे बात की जाती है या की जानी चाहिए, तो उसे इस बात का प्रत्युत्तर मिलना चाहिए. इस को उस की स्थिति का संज्ञान करवाना आवश्यक है. बस, तुम देखती जाओ.’’

मैं निशि के पास जा कर बैठ गया. उस के सासससुर भी बैठे हुए थे. मैं ने कहा, ‘‘निशि बेटा, क्या कहा तुम ने?’’ उस का ढीठपना तो देखो, उस ने वही बात दोहरा दी. उसे सासससुर का भी लिहाज नहीं रहा.

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मेरे स्वर में तीखापन था.

‘‘देखो न बडे़ मौसा, परसों मेरे फूफा की मृत्यु उपरांत उठाला था. कोई मौसी नहीं आई,’’ वह हमेशा मुझे बड़े मौसा कह कर बुलाती थी.

‘‘क्यों, तुम ने अपने मम्मीपापा से नहीं पूछा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कुछ भी कहने से पहले तुम्हें उन से पूछना चाहिए था. नहीं पूछा तो कोई बात नहीं. वैसे तो तुम बच्ची हो, तुम्हें बड़ों की बातों में नहीं पड़ना चाहिए था. अब तुम पड़ ही गई हो तो तुम्हें हमारे मन के भीतर के तीखेपन का भी अनुभव करना पड़ेगा,’’ मैं अल्प समय के लिए रुका, फिर कहा, ‘‘तुम्हें अपने मायके के परिवार के बुजुर्गों की कहां तक याद है?’’

‘‘मुझे याद है जब पापा की चाची की मृत्यु हुई थीं.’’

‘‘तो फिर तुम्हें यह भी याद होगा कि हम सब यानी तुम्हारी मौसियां, मौसा तुम्हारे पापा की चाची, चाचा और मां यानी तुम्हारी दादी की मृत्यु पर कब हाजिर नहीं हुए? यहां तक कि आजादपुर मंडी के पास डीडीए फ्लैट में, मुझे नहीं पता वे तुम्हारे पापा के क्या लगते थे, हम वहां भी हाजिर थे. नोएडा में भी पता नहीं किस की मृत्यु हुई थी, हम पूछपूछ कर वहां भी हाजिर हुए थे. इतनी दूर फरीदाबाद से इन स्थानों पर जाना कितना मुश्किल होता है, तुम जैसी लड़की को इस बात का अनुभव हो ही नहीं सकता.’’

मैं ने अपने जज्बातों को काबू में किया और फिर बोला, ‘‘पिछले वर्ष मेरी मां की मृत्यु हुई थी. अपने भाई संग हरिद्वार में उन के फूल प्रवाहित करने के बाद जब घर लौटा तो सभी जाने कहांकहां से अफसोस करने आए थे. अपने पापा से पूछना, वे आए थे? अरे, आना तो दूर अफसोस का टैलीफोन तक नहीं किया.’’

‘‘मुझे याद है, उन दिनों पापा के घुटनों में दर्द था,’’ निशि ने सफाई देनी चाही.

‘‘सब बकवास है. टैलीफोन करने में घुटनों में दर्द होता है? उस के 2 रोज बाद तुम्हारे मामा ससुर की मृत्यु हुई थी. वहां 6 घंटे का सफर कर के श्रीगंगानगर अफसोस प्रकट करने गए थे, तब उन के घुटनों में दर्द नहीं हुआ? तब ये तुम्हारे फूफाजी भी जीवित थे. क्या उन का मेरी मां की मृत्यु पर अफसोस करना नहीं बनता था? तब वे कहां गए थे? तुम्हारे मम्मीपापा ने उन को बताया ही नहीं होगा, नहीं तो वे तुम्हारी तरह, तुम्हारे मम्मीपापा की तरह असभ्य नहीं हैं. मैं उन को तुम्हारे पापा की शादी के पहले से जानता हूं.

‘‘और जिन मौसियों के लिए तुम इस प्रकार के असभ्य शब्दों का प्रयोग कर रही हो उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है. वह सब तुम भूल गईं? याद करो, तुम्हारी पंजाबी बाग वाली मौसी और मौसा, जिन को आज तुम नमस्ते करना भी गंवारा नहीं समझतीं, तुम्हारे ब्याह की सारी मार्केटिंग उन्होंने ही करवाई. घर पर बुला कर न केवल तुम्हें बल्कि तुम्हारे ससुराल वालों को खाना खिलाया, शगुन भी दिए. न केवल इस मौसी ने बल्कि सभी मौसियों ने ऐसा ही किया. उन के बहूबेटों को किस ने खाना खिलाया अथवा शगुन दिए? तुम्हारी बेटी होने पर पंजाबी बाग वाली मौसी ने 9-9 किलो की देसी घी की पंजीरी अपने पल्ले से बना कर दी. तुम इतनी जल्दी भूल गईं. एहसानफरामोश कहीं की…अपने पापा की तरह.’’

‘‘आप को मेरे और मेरे पापा के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है.’’

‘‘और तुम्हें ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहने का अधिकार है? मैं बताता हूं, तुम्हारे पापा एहसानफरामोश कैसे हैं. तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा के दिल का औपरेशन हो रहा था. नए वाल्व पड़ने थे.’’

‘‘जी, याद है.’’

‘‘औपरेशन के लिए 9 यूनिट खून चाहिए था. वह पूरा नहीं हो रहा था. तुम्हारे इसी पंजाबी बाग वाले मौसा ने और मैं ने अपना खून दे कर उस कमी को पूरा किया था. याद आया?’’

‘‘जी.’’

‘‘आज तक अनेक विसंगतियां होने के बावजूद हम मूक रहे तो केवल इसलिए कि हम खूनदान जैसे पवित्र कार्य को लज्जित नहीं करना चाहते थे. लेकिन तुम्हारे और तुम्हारे पापा के खराब व्यवहार ने हमें मजबूर कर दिया. यह नहीं है कि तुम्हारी मम्मी इस तरह के व्यवहार से अछूती हैं. जानेअनजाने में वे भी तुम्हारे पापा संग खड़ी हैं. न खड़ी हों तो मार खाएं, क्यों? यह तुम बड़ी अच्छी तरह से जानती हो.’’

निशि ने मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया. शायद उस के पास कोई उत्तर था ही नहीं. परंतु मैं प्रहार करने से नहीं चूका, ‘‘अरे छोड़ो, तुम्हारे पापा को हमारे दुख से दुख तो क्या हमारी खुशी से भी कोई खुशी नहीं थी. तुम्हें याद होगा, हमारी 25वीं मैरिज ऐनीवर्सरी में तुम किस प्रकार अंतिम क्षणों में पहुंचीं. तुम्हारे पापा फिर भी न आए जबकि तुम्हें पता है, तुम्हारे पापा को स्वयं मैं ने कितने प्यार और सम्मान से बुलाया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी ने न आने के लिए कितना घटिया बहाना बनाया था, शायद तुम्हें याद न हो? वहां चोरियां हो रही हैं, इसलिए वे नहीं आए. क्या तुम अपने समारोहों में इस प्रकार के बहाने स्वीकार कर लेतीं? सत्य बात तो यह है, वे हमारी खुशी में कभी शामिल ही नहीं होना चाहते थे. कभी हुए भी तो मन से नहीं. यह तुम भी जानती हो और हम भी. यह बात अलग है, तुम इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न कर सको.

‘‘और मेरे बेटे सोमू की शादी में क्या हुआ? मौसा की मिलनी थी. बड़े मौसा होने के नाते मिलनी का अधिकार तुम्हारे पापा को था. कुछ समय पहले वे वहीं खड़े थे. हम ने आवाजें भी दीं परंतु वे जानबूझ कर वहां से खिसक गए. मिलनी तुम्हारे पंजाबी बाग वाले मौसा को करनी पड़ी. और उन की शराफत देखो, यह नहीं कि जो पैसे और कंबल मिला अपने पास रख लें बल्कि उस सब को तुम्हारे मम्मीपापा को दे दिया क्योंकि यह उन्हीं का अधिकार समझा गया. तुम्हारी शादी में मेरे साथ क्या हुआ? मिलनी के लिए 4 बार पगड़ी पहनाई गई, 4 बार उतारी गई और मिलनी फिर भी न करवाई गई. हम ने तो मिलनी करवाने के लिए नहीं कहा था. इस प्रकार बेइज्जत करने का अधिकार तुम्हारे मम्मीपापा को किस ने दिया?  इस प्रश्न का उत्तर है तुम्हारे मायके वालों के पास?

‘‘कालांत में सोचा था, तुम सब इस योग्य ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए, लेकिन तुम्हारे पापा तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. क्या तुम अथवा तुम्हारी मम्मी इस के प्रति नहीं जानतीं? जानती हैं परंतु इसे दूसरों के समक्ष स्वीकार नहीं करना चाहतीं.

‘‘उसी शादी में तुम्हारे पापा ने कहा था कि मैं ने खाना ही नहीं खाया. जब वीडियो रील बन कर आई तो उस में प्लेट भर कर खाना खाते देखा गया. अपने पापा की इस हरकत को तुम किस संज्ञा का नाम दोगी? यह नहीं है कि तुम्हें, तुम्हारी मम्मी और तुम्हारे भाई को इस के प्रति पता नहीं है. बस, उक्त कारणों से तुम सब स्पष्ट स्वीकार नहीं कर पाते.’’

निशि ने फिर भी मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया या मुझे यह समझना चाहिए कि वह मेरे समक्ष निरुत्तर हो गई है परंतु मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई थी, ‘‘तुम्हारे भाई ने कार ली, हम सब ने बधाई दी. हमारे बच्चों ने भी कारें लीं, हमें किस ने बधाई दी? यह तीखा प्रश्न आज भी मेरे समक्ष मुंहबाए खड़ा है.

‘‘पिछले दिनों मैं और सरला अमृतसर में थे, तुम्हारे नानानानी के पास. तभी तुम्हारी मम्मी का टैलीफोन आया था कि कार लेने की इन को बधाई दे दो और कहना कि वे ब्यास गए हुए थे इसलिए बधाई देने में देर हो गई. बधाई दे दी गई. सभी तो चुप रहे पर तुम्हारी मामी बोली थीं कि जब कभी निशा दीदी यानी तुम्हारी मम्मी उन के सामने होगी तो वे पूछेंगी कि उन के भाई ने जाने कैसेकैसे अपना घर बनाया, उस को बधाई किस ने दी? मैं जानता हूं, उस समय इस प्रश्न का उत्तर न तुम्हारी मम्मी के पास होगा और न तुम्हारे पापा के पास. मुझे आश्चर्य नहीं होगा, उस समय इस प्रश्न से बचने के लिए तुम्हारे पापा जानबूझ कर कहीं खिसक जाएं जैसा वे अकसर करते हैं.

‘‘मामू के गृहप्रवेश में तुम्हारे भाई के जाने तक बात नहीं बनती थी बल्कि तुम्हारे मम्मीपापा का टैलीफोन पर बधाई देना भी बनता था. पूछना, बधाई दी थी? क्या औरों से ऐसी आशा करना मूर्खता नहीं है जो वे स्वयं नहीं कर सकते?

‘‘तुम्हें याद होगा निशि, अपने पापा की एक और बेमानी हरकत का? एक मौसी की बेटी की शादी में वे नहीं आए थे. जब तुम्हारी शादी हुई, सब के समझाने पर तुम्हारी वह मौसी न केवल स्वयं उपस्थित हुईं बल्कि अपने परिवार को ले कर आईं, यह सोच कर कि यदि एक व्यक्ति गलत है तो उसे खुद को गलत नहीं होना है. जानती हो…तुम भी तो वहीं थीं, प्रसंग उठने पर किस प्रकार तुम्हारे पापा ने उन की बेइज्जती करने में एक क्षण भी नहीं लगाया था, ‘हम ने कौन सा बुलाया है.’ उस समय मेरे मन में बड़े तीखे रूप से आया था कि तुम सब ऐसे हो ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए.

‘‘तुम्हें अफसोस होगा कि कल तुम्हारी मैरिज ऐनीवर्सरी थी और मौसियों ने तुम्हें बधाई नहीं दी. तुम मौसियों को ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहती हो और तुम्हारा भाई उन के राज खोलने की बात करता है. क्या तुम समझती हो ऐसी स्थिति में तुम से, तुम्हारे भाई से, तुम्हारे मम्मीपापा से किसी प्रकार के संबंध रखे जा सकते हैं? बल्कि यह कहने की आवश्यकता है कि हमें माफ करो, भविष्य में तुम्हें हमारे दुखसुख से कुछ लेनादेना नहीं है और न ही हमें. मुझे एक कहावत स्मरण हो रही है कि सांप के बच्चे सपोलिए.’’

मैं मूक हो गया था. शायद मेरे पास और कुछ कहने को शेष नहीं था. निशि भी मूक थी. उस का मुंह खुला का खुला रह गया था. अपने मायके वालों के ऐक्सपोज हो जाने से वह अवाक् थी. निशि के सासससुर भी मूक और भावशून्य बैठे थे. शायद वे भी अपनी बहू की बदतमीजी और बदजबानी के प्रति जानते थे. मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में कोई इन टूटते रिश्तों को बचा पाएगा.

कहीं मेला कहीं अकेला

पूनम अहमद

‘‘यह रिश्ता मुझे हर तरह से ठीक लग रहा है. बस अब तनु आ जाए तो इसे ही फाइनल करेंगे,’’ गिरीश ने अपनी पत्नी सुधा से कहा.

‘‘पहले तनु हां तो करे, परेशान कर रखा है उस ने, अच्छेभले रिश्ते में कमी निकाल देती है…संयुक्त परिवार सुन कर ही भड़क जाती है. अब की बार मैं उस की बिलकुल नहीं सुनूंगी और फिर यह रिश्ता उस की शर्तों पर खरा ही तो उतर रहा है. पता नहीं अचानक क्या जिद चढ़ी है कि बड़े परिवार में विवाह नहीं करेगी, क्या हो गया है इन लड़कियों को,’’ सुधा ने कहा.

‘‘तुम्हें तो पता ही है न, यह सब उस की बैस्ट फ्रैंड रिया का कियाधरा है… ऐसी कहां थी हमारी बेटी पर आजकल के बच्चों पर तो दोस्तों का प्रभाव इतना ज्यादा रहता है कि पूछो मत,’’ गिरीशजी बोले.

दोनों पतिपत्नी चिंतित और गंभीर मुद्रा में बातें कर ही रहे थे कि तनु औफिस से

आ गई. मातापिता का गंभीर चेहरा देख चौंकी, फिर हंसते हुए बोली, ‘‘फिर कोई रिश्ता आ गया क्या?’’

उस के कहने के ढंग पर दोनों को हंसी आ गई. पल भर में माहौल हलकाफुलका हो गया. तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. फिर गिरीश का इशारा पा कर सुधा ने कहा, ‘‘इस रिश्ते में कोई कमी नहीं लग रही है, यहीं लखनऊ में ही लड़के के मातापिता अपने बड़े बेटेबहू के साथ रहते हैं. छोटा बेटा मुंबई में ही कार्यरत है, वह दवा की कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर है.’’

तनु पल भर सोच कर मुसकराती हुई बोली, ‘‘अच्छा, वहां अकेला रहता है?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर यह तो ठीक है. बस, उस के मातापिता बारबार मुंबई न पहुंच जाएं.’’

‘‘क्या बकवास करती हो तनु,’’ सुधा को गुस्सा आ गया, ‘‘उन का बेटा है, क्या वे वहां नहीं जा सकते? कैसी हो गई हो तुम? ये सब क्या सीख लिया है? हम आज भी तरसते हैं कोई बड़ा हमारे सिर पर होता तो कितना अच्छा होता पर सब का साथ सालों पहले छूट गया और एक तुम हो… क्या ससुराल में बस पति से मतलब होता है? बाकी रिश्ते भी होते हैं, उन की भी एक मिठास होती है.’’

‘‘नहीं मां, मुझे घबराहट होती है, रिया बता रही थी…’’

सुधा गुस्से में  खड़ी हो गईं, ‘‘मुझे उस लड़की की कोई बात नहीं सुननी… उस लड़की ने हमारी अच्छीभली बेटी का दिमाग खराब कर दिया है…हमारे परिवार में हम 3 ही हैं. थोड़े दिन पहले तुम जौइंट फैमिली में हर रिश्ते का आनंद उठाना चाहती थी पर इस रिया ने अपनी नैगेटिव बातों से तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है.’’

तनु को भी गुस्सा आ गया. वह भी पैर पटकती हुई अपने रूम में चली गई.

गिरीश और सुधा सिर पकड़े बैठे रह गए.

तनु की बैस्ट फ्रैंड रिया का विवाह 6 महीने पहले ही दिल्ली में हुआ था. उस की ससुराल में सासससुर और पति अनुज थे, समृद्ध परिवार था. रिया भी अच्छी जौब में थी. तनु से ही रिया के हालचाल मिलते रहते थे. दिन भर दोनों व्हाट्सऐप पर चैट करती थीं. अकसर छुट्टी वाले दिन दोनों की बातें सुधा के कानों में पड़ती थीं तो वे मन ही मन बेचैन हो उठती थीं. उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि रिया सासससुर की, यहां तक कि अनुज की भी कमियां निकाल कर तनु को किस्से सुनाती रहती है. वह तनु की बैस्ट फ्रैंड थी,  जिस के खिलाफ एक शब्द भी सुनना तनु को मंजूर नहीं था. तनु को हर बात सुधा से भी शेयर करने की आदत थी इसलिए वह कई बातें उन्हें खुद ही बताती रहती थी.

कभी तनु कहती, ‘‘आज रिया का मूड खराब है मम्मी, उसे अनुज ने मौर्निंग वाक के लिए उठा दिया, उसे सोना था, बेचारी अपनी मरजी से सो भी नहीं सकती.’’

एक दिन तनु ने बताया, ‘‘रिया की सास हैल्थ पर बहुत ध्यान देती हैं… उसे वही बोरिंग टिफिन खाना पड़ता है.’’

सुधा ने पूछा, ‘‘उस की सास ही टिफिन बनाती हैं?’’

‘‘हां, रिया औफिस जाती है तो वे ही घर का सारा काम देखती हैं. उन के यहां कुक है पर उस की सास अपनी निगरानी में ही सब खाना तैयार करवाती हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. रिया को खुश होना चाहिए, इस में शिकायत की क्या बात है?’’

क्या खुश होगी बेचारी, उसे वह टिफिन अच्छा नहीं लगता. वह किसी और को खिला देती है. अपने लिए कुछ मनचाहा और्डर करती है बेचारी.

‘‘इस में बेचारी की क्या बात है? उस की सास हैल्दी खाना बनवा कर क्या गलत कर रही है?’’

तनु को गुस्सा आ गया, ‘‘आप उस की परेशानी क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘यह कोई परेशानी नहीं है. बेकार के किस्से सुना कर तुम्हारा टाइम और दिमाग दोनों खराब करती है वह लड़की.’’

2 दिन तो तनु चुप रही, फिर आदतन तीसरे दिन ही शुरू हो गई, ‘‘रिया के सारे रिश्तेदार दिल्ली में ही रहते हैं. कभी किसी के यहां कोई फंक्शन होता है, तो कभी किसी के यहां. पता नहीं  कितने तो रिश्ते के देवर, ननदें हैं, जो छुट्टी वाले दिन टाइमपास के प्रोग्राम बनाते रहते हैं. रिया थक जाती है बेचारी.’’

सुधा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. रिया की बातें सुनसुन कर थक गई थीं. तनु की सोच बिलकुल बदल गई थी. अच्छीखासी स्नेहमयी मानसिकता की जगह नकारात्मकता ने ले ली थी.

कुछ दिन बाद तनु के उसी रिश्ते की बात को आगे बढ़ाया गया. तनु और रजत मिले. दोनों ने एकदूसरे को पसंद किया. सब कुछ सहर्ष तय कर दिया गया. रजत मुंबई में अकेला रह रहा था, इसलिए उस के मातापिता गौतम और राधा को उस के विवाह की जल्दी थी. विवाह अच्छी तरह से संपन्न हो गया था.

रिया भी अनुज के साथ आई थी. वह तनु से कह रही थी, ‘‘तुम्हारी तो मौज हो गई तनु. सब से दूर अकेले पति के साथ रहोगी. काश, मुझे भी यही लाइफ मिलती पर वहां तो मेला ही लगा रहता है.’’

इस बात को सुन कर सुधा को गुस्सा आया था. सब रस्में संपन्न होने के बाद 1 हफ्ते बाद तनु और रजत मुंबई जाने की तैयारी कर रहे थे. तनु के औफिस की ब्रांच मुंबई में भी थी. उस की योग्यता को देखते हुए उस का ट्रांसफर मुंबई ब्रांच में कर दिया गया. रजत के भाई विजय, भाभी रेखा और 3 साल का भतीजा यश और स्नेह लुटाते सासससुर सब के साथ तनु का समय बहुत अच्छा बीता था.

बीचबीच में  रिया भी निर्देश देती रहती थी, ‘‘मुंबई आने के लिए कहने की फौर्मैलिटी में मत पड़ना, नहीं तो वहां सब डट जाएंगे आ कर.’’ भरपूर स्नेह और आशीर्वाद के साथ दोनों परिवार उन्हें एअरपोर्ट तक छोड़ने आए.

तनु ने मुंबई पहुंच कर रजत के साथ नया जीवन शुरू किया. रजत के साथ ने उस का जीवन खुशियों से भर दिया. दोनों सुबह निकलते रात को आते. वीकैंड में ही दोनों को थोड़ी राहत रहती. सुबह लताबाई आ कर घर का सारा काम कर जाती. तनु फटाफट किचन का काम देखते हुए तैयार होती. 2 जनों का काम ज्यादा नहीं था पर रात को लौट कर किचन में घुसना अखर जाता.

रजत ने कई बार कहा भी था, ‘‘डिनर के लिए भी किसी बाई को रख लेते हैं.’’

‘‘पर हमारा कोई आने का टाइम तय नहीं है न और फिर घर की चाबी देना भी सेफ नहीं रहेगा.’’

‘‘चलो, ठीक है, मिल कर कुछ कर लिया करेंगे.’’ तनु की रिया से अब भी लगातार चैट चलती रहती थी. रिया उस के आजाद जीवन पर आंहें भरती थी. 5 महीने बीत रहे थे. रजत को 1 हफ्ते की ट्रैनिंग के लिए सिंगापुर भेजा जा रहा था. उस ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? लखनऊ से मातापिताजी को बुला लेते हैं…वैसे भी अभी तक घर से कोई नहीं आया.’’

‘‘नहीं, अकेली कहां, रिया का बहुत मन कर रहा है आने का, वह आ जाएगी… मातापिताजी को तुम्हारे लौटने के बाद बुला लेंगे,’’ तनु ने अपनी तरफ से बात टालने की कोशिश की तो रजत मान गया.

तनु ने मौका मिलते ही रिया को फोन किया, ‘‘अपना प्रोग्राम पक्का रखना, कोई बहाना नहीं.’’

‘‘अरे, पक्का है. मैं पहुंच जाऊंगी. मुझे भी इस भीड़ से छुट्टी मिलेगी. तेरे पास शांति से रहूंगी 1 हफ्ता.’’

जिस दिन रजत गया, उसी दिन शाम तक रिया भी मुंबई पहुंच गई. दोनों सहेलियां गले मिलते हुए चहक उठी थीं. बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. देर रात तक रिया के किस्से चलते रहे. सासससुर की बातें, देवरननदों में हंसीमजाक के किस्से, रिश्तेदारों के फंक्शनों के किस्से.

अगले दिन तनु ने छुट्टी ले ली थी. दोनों खूब घूमीं, मूवी देखी, शौपिंग की, रात को ही घर वापस आईं.

रिया ने कहा, ‘‘हाय, ऐसा लग रहा है दूसरी दुनिया में आ गई हूं. तेरे घर में कितनी शांति है तनु, दिल खुश हो गया यहां आ कर.’’

तनु मुसकरा दी, ‘‘अब थक गई हैं, सोती हैं. कल औफिस जाऊंगी, शाम को जल्दी आ जाऊंगी. सुबह मेड आ कर सब काम कर देगी, अपने टिफिन के साथ तेरा खाना भी बना कर रख दूंगी, आराम से उठना कल.’’

अगले दिन सब काम कर के तनु औफिस चली गई. बारह बजे रिया का फोन आया, ‘‘तनु, क्या बताऊं, मजा आ गया अभी सो कर उठी हूं, कितनी शांति है तेरे घर में, कोई आवाज नहीं, कोई शोर नहीं.’’

थोड़ी देर बातें कर रिया ने फोन काट दिया. तनु सुधा को भी रिया के आने का प्रोगाम बता चुकी थी. सुधा ने कहा था, ‘‘कितने अच्छे लोग हैं, बहू को आराम से 1 हफ्ते के लिए फ्रैंड से मिलने भेज रखा है, फिर भी रिया कद्र नहीं करती उन का.’’

रिया ने आराम से फ्रैश हो कर खाना खाया, टीवी देखा, फिर सो गई. शाम को तनु आई तो दोनों ने चाय पीते हुए ढेरों बातें कीं. रिया की बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं.

अचानक रिया ने कहा, ‘‘तू भी तो बता कुछ…कुछ किस्से सुना.’’

‘‘बस, किस की बात बताऊं, हम दोनों ही तो हैं यहां, सुबह जा कर रात को आते हैं, पूरा हफ्ता ऐसे ही भागतेदौड़ते बीत जाता है, वीकैंड पर ही आराम मिलता है. घर में तो कोई बात करने के लिए भी नहीं होता.’’

‘‘हां कितनी शांति है यहां. वहां तो घर में घुसते ही सासूमां चाय, नाश्ता, खाने की पूछताछ करने लगी हैं. मैं तो थक गई हूं वहां. आए दिन कुछ न कुछ चलता रहता है.’’

तनु आज अपने ही मनोभावों पर चौंकी. उस ने दिल में एक उदासी सी महसूस की. उस ने रिया की बातें सुनते हुए डिनर तैयार किया, बीचबीच में रिया के पति और उस के सासससुर फोन पर बातें करते रहे थे.

दोनों जब सोने लेटीं तो दोनों के मन में अलगअलग तरह के भाव उत्पन्न हो रहे थे. रिया सोच रही थी वाह, क्या बढि़या लाइफ जी रही है तनु. घर में कितनी शांति है, न कोई शोरआवाज, न किसी की दखलंदाजी कि क्या खाना है, कहां जाना है, अपनी मरजी से कुछ भी करो. वाह, क्या लाइफ है. उधर तनु सोच रही थी रिया इतने दिनों से ससुराल का रोना रो रही है कि काश, वह अकेली रह पाती पर मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि अकेले रहने में क्या सुख है? यहां तो हम दोनों के अलावा सुबह बस बाई दिखती है जो मशीन की तरह काम कर के चली जाती है. हमारी चिंता करने वाला तो कोई भी नहीं यहां. मायके में भी हम 3 ही थे, कितना शौक था मुझे संयुक्त परिवार की बहू बन कर हर रिश्ते का आनंद उठाने का. यहां हर वीकैंड में किसी मौल में या कोई मूवी देख कर छुट्टी बिता लेते हैं. घर आते हैं तो थके हुए. कोई भी अपना नहीं दिखता. इस अकेले संसार में ऐसा क्या सुख है, जिस के लिए रिया तरसती रहती है. ऐसे अकेलेपन का क्या फायदा जहां न देवर की हंसीठिठोली हो न ननद की छेड़खानी और न सासससुर की डांट और उन का स्नेह भरा संरक्षण.

दोनों सहेलियां एकदूसरे के जीवन के बारे में सोच रही थीं. पर तनु मन ही मन फैसला कर चुकी थी कि वह कल सुबह ही लखनऊ फोन कर ससुराल से किसी न किसी को आने के लिए जरूर कहेगी. उसे भी जीवन में हर रिश्ते की मिठास को महसूस करना है. अचानक उस की नजर रिया की नजरों से मिली तो दोनों हंस दीं.

रिया ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही थी?’’

‘‘तुम्हारे बारे में और तुम?’’

‘‘तुम्हारे बारे में,’’ और फिर दोनों हंस पड़ीं, पर तनु की हंसी में जो रहस्यभरी खनक थी वह रिया की समझ से परे थी.

दंश : भाग -1

कुमुद भटनागर

अपने साथ काम करने वाली किसी भी लड़की से गौतम औपचारिक बातचीत से ज्यादा ताल्लुकात नहीं बढ़ाता था. एक रोज एक रिपोर्ट बनाने के लिए उसे और श्रेया को औफिस बंद होने के बाद भी रुकना पड़ा और जातेजाते बौस ने ताकीद कर दी, ‘‘श्रेया को घर जाने में कुछ परेशानी हो तो देख लेना, गौतम.’’

पार्किंग में आने पर श्रेया को अपनी एक्टिवा स्टार्ट करने की असफल कोशिश करते देख गौतम ने कहा, ‘‘इसे आज यहीं छोड़ दो, श्रेया. ठोकपीट कर स्टार्ट कर भी ली तो रास्ते में परेशान कर सकती है. कल मेकैनिक को दिखाने के बाद चलाना.’’

‘‘ठीक है, पंकज से कहती हूं पिक कर ले,’’ श्रेया ने मोबाइल निकालते हुए कहा, ‘‘वह 15-20 मिनट में आ जाएगा.’’

‘‘उसे बुलाने से बेहतर है मेरी बाइक पर चलो,’’ गौतम बोला.

‘‘लेकिन मेरा घर दूसरी दिशा में है, तुम्हें लंबा चक्कर लगाना पड़ेगा.’’

‘‘यहां खड़े रहने से बेहतर होगा तुम मेरे साथ चलो. वैसे भी तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर तो जाऊंगा नहीं.’’

बात श्रेया की समझ में आई और वह गौतम की बाइक पर बैठ गई. घर पहुंचने पर श्रेया का आग्रह कर के गौतम को अंदर ले जाना स्वाभाविक ही था. अपने पापा देवेश, मां उमा, छोटी बहन रिया और जुड़वां भाई पंकज से उस ने गौतम का परिचय करवाया.

‘‘ओह, मैं समझा था पंकज तुम्हारा बौयफ्रैंड है, सो तुम्हें लिफ्ट देने में कोई खतरा नहीं है,’’ गौतम बेसाख्ता कह उठा.

‘‘बेफिक्र रहो, पंकज के रहते मुझे बौयफ्रैंड की जरूरत ही महसूस नहीं होती,’’ श्रेया हंसी.

‘‘इसे छोड़ने आने के चक्कर में तुम्हें घर जाने में देर हो गई,’’ उमा ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं आंटी, घर जा अकेले चाय पीता, यहां सब के साथ नाश्ता भी कर रहा हूं.’’

उमा को उस की सादगी अच्छी लगी. उस ने गौतम के परिवार के बारे में पूछा. गौतम ने बताया कि उस के कोई बहनभाई नहीं है. मातापिता यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक थे. अब उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रत्याशियों के लिए अपना कोचिंग कालेज खोल लिया है.

‘‘छोटी सी फैमिली है मेरी, आप के यहां सब के साथ रौनक में बैठ कर बहुत अच्छा लग रहा है,’’ गौतम ने श्रेया के भाईबहन की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज पहली बार मम्मीपापा से शिकायत करूंगा कोई बहनभाई न देने के लिए.’’

‘‘अब मम्मीपापा तो बहनभाई दिलाने से रहे, यहीं आ जाया करो सब से मिलने. हमें भी अच्छा लगेगा,’’ देवेश ने कहा.

‘‘जी जरूर, अभी चलता हूं, पापा के आने से पहले घर पहुंचना है.’’

‘‘देर से पहुंचने पर पापा नाराज होंगे?’’ पंकज ने पूछा.

‘‘नाराज तो नहीं लेकिन मायूस होंगे जो मुझे पसंद नहीं है,’’ गौतम ने उठते हुए कहा, ‘‘पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं और मैं उन्हें.’’

उस के बाद औफिस में तो दोनों के ताल्लुकात पहले जैसे ही रहे लेकिन जबतब श्रेया पापा की ओर से घर आने का आग्रह करने लगी जिसे गौतम तुरंत स्वीकार कर लेता था. एक रोज यह सुन कर कि गौतम को बिरयानी बहुत पसंद है, देवेश ने कहा, ‘‘हमारे यहां हरेक छुट्टी के रोज बिरयानी बनती है. कभी लखनवी, कभी हैदराबादी तो कभी अमृतसरी. तुम किसी रविवार को लंच पर आ जाओ.’’

‘‘रविवार की दावत तो मैं स्वीकार नहीं कर सकता अंकल, क्योंकि एक रविवार ही तो मिलता है पापा के साथ लंच करने को.’’

‘‘तो पापा को भी यहीं ले आओ.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ गौतम फड़क कर बोला, ‘‘पापा को भी बिरयानी बहुत पसंद है.’’

‘‘तो ठीक है, इस रविवार को तुम पापामम्मी के साथ लंच पर आ रहे हो. मुझे उन का नंबर दो, मैं स्वयं उन से आने का आग्रह करूंगी,’’ उमा ने कहा.

‘‘इतनी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है आंटी, पापा मेरे कहने से ही आ जाएंगे. मम्मी तो शुद्ध शाकाहारी हैं, इसीलिए हमारे यहां यह सब नहीं बनता. मम्मी को फिर कभी ले आऊंगा, रविवार को मुझे और पापा को ही आने दीजिए,’’ कह करगौतम चला गया.

रविवार को गौतम अपने पापा ब्रजेश के साथ आया. देवेश और उमा को ब्रजेश बहुत सहज और मिलनसार व्यक्ति लगे और बापबेटे के आपसी लगाव व तालमेल ने उन्हें बहुत प्रभावित किया.

‘‘इतनी स्वादिष्ठ चिकन बिरयानी तो नहीं लेकिन गीता भी उंगलियां चाटने वाली मटर की कचौड़ी और अचारी आलू वगैरा बनाती है,’’ ब्रजेश ने कहा, ‘‘अगले रविवार को आप सब हमारे यहां आ रहे हैं?’’

देवेश और उमा सहर्ष मान गए. देवेश, उमा और श्रेया रविवार को गौतम के घर पहुंच गए. गीता भी बापबेटे की तरह ही मिलनसार और हंसमुख थी. कुछ ही देर में दोनों परिवारों में अच्छा तालमेल हो गया और वातावरण सहज व अनौपचारिक. उमा किचन में गीता का हाथ बंटाने चली गई, ब्रजेश ने बड़े शौक से सब को अपना पूरा घर दिखाया और फिर आने का अनुरोध किया.

‘‘जरूर आएंगे लेकिन उस से पहले गीता बहन को हमारे यहां आना है,’’ उमा ने कहा.

‘‘आप न कहतीं तो भी मैं इसे ले कर आने वाला ही था और आऊंगा भी,’’ ब्रजेश के कहने के अंदाज पर सभी हंस पड़े.

एक रोज गौतम लंचब्रेक में श्रेया के पास आया, ‘‘मेरे पापामम्मी तुम्हारे घर हमारी शादी की बात करने जा रहे हैं और यह तुम भी जानती हो कि तुम्हारे घर वाले इनकार नहीं करेंगे लेकिन इस से पहले कि तुम हां कहो, मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं, अपने और अपने परिवार के बारे में. मेरे जीवन में हमेशा सर्वोच्च स्थान मेरे पापा का ही रहेगा क्योंकि उन के मुझ पर बहुत एहसान हैं. वे मेरे जन्मदाता नहीं हैं. उन का देहांत तो मेरे जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया था.

‘‘वैसे तो पापा भी वहीं पढ़ाते थे जहां मम्मी लेकिन वे मेरे मामा के दोस्त भी थे. सो, अकसर घर पर आया करते थे और मेरे साथ बहुत खेलते थे. एक रोज मामा से यह सुनने पर कि घर में मम्मी की दूसरी शादी की चर्चा चल रही है, उन्होंने छूटते ही पूछा, ‘गौतम का क्या होगा?’

‘‘शादी ऐसे व्यक्ति से ही करेंगे जो गौतम को अपने बेटे की तरह अपना मानेगा,’’ मामा ने जवाब दिया.

‘‘इस की क्या गारंटी होगी कि शादी के बाद वह अपनी बात पर कायम रहेगा?’’ पापा ने फिर प्रश्न किया.

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और्डर

लेखिका- दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

वाइट पैंट – जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

लेखिका- सरिता पंथी

इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा.

छुटकी नहीं…बड़की : भाग -1

नीरज कुमार मिश्रा

फजल और हिना की शादी को 7 साल हो गए थे, पर उन्हें अभी तक एक भी औलाद नहीं हो सकी थी. लखनऊ के नामीगिरामी डाक्टरों का इलाज करवाया जा चुका था. हजारों रुपए के टैस्ट करवाए गए, पर सब फुजूल…

डाक्टरों ने हिना और फजल दोनों के टैस्ट की रिपोर्ट आने के बाद यही बताया था कि दोनों की जिस्मानी हालत बिलकुल ठीक नहीं है. हालांकि वे दोनों बच्चा पैदा करने में पूरी तरह से काबिल हैं, पर अगर फिर भी बच्चा नहीं हो रहा है तो सही समय का इंतजार करें. फजल के घर में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. वह घर में मंझला भाई था. बड़े भाई के 3 बच्चे थे, 2 बेटे और एक बेटी. फजल का एक छोटा भाई हैदर था, जिस का हाल ही में निकाह हुआ था.

फजल की कमाई का जरीया उस की आरा मशीन थी, जो घर से कुछ ही दूरी पर लगी हुई थी. उस पर इतना काम आता कि काम बंद करतेकरते ही रात के 9 भी बज जाते थे. तकरीबन 15 आरा मशीन पर नौकर लगे हुए थे, जो बड़ी ईमानदारी से काम करते थे.

पुराने लखनऊ में तिमंजिला मकान होना अपनेआप में बहुत बड़ी बात थी और चारपहियों की 2 गाडि़यां भी फजल के दरवाजे पर खड़ी रह कर शान बढ़ाती थीं. फजल के पास न तो काम की कमी थी और न ही पैसे की… उस की और हिना की जिंदगी में एक औलाद की कमी जरूर थी और यह कमी फजल को अब और भी खलने लगी, जब छोटे भाई हैदर के निकाह के साल के अंदर ही वह भी एक चांद जैसी बेटी का बाप बन गया.

‘‘जी… शादी के 2 सालों तक औलाद नहीं हुई तो अब हमें औलाद क्या होगी, इसीलिए मैं चाहती हूं कि हम कोई बच्चा गोद ले लें,’’ एक दिन हिना ने कहा. ‘‘तुम भी क्या बेकार की बात करती हो… डाक्टर ने कहा है कि मेरी मर्दानगी में कोई कमी नहीं है और न ही तुम में कोई कमी है और फिर 2 सालों में तुम्हें 2 बार बच्चा ठहर भी तो चुका है…

‘‘अब यह अलग बात है कि तुम उन्हें संभाल नहीं पाई और तुम को 2 महीने पर ही गर्भपात हो गया… हम फिर से कोशिश करेंगे और हमें औलाद जरूर होगी,’’ फजल ने हिना को समझाया.

हिना की बच्चे को गोद लेने वाली बात से शायद फजल के आत्मसम्मान को ठेस लग गई थी, इसीलिए वह हिना पर झल्ला उठा था. हिना उस समय तो फजल की बात का कोई जवाब नहीं दे पाई, पर एक औलाद न होने के गम में वह अंदर ही अंदर घुटने लगी और परेशान रहने लगी.

2 साल का समय और गुजर गया. अब भी हिना मां नहीं बन पाई थी और एक दिन अचानक वह बहुत बीमार पड़ गई. उसे डाक्टरों को दिखाया गया. ‘‘देखिए, इन्हें अंदरूनी कमजोरी है और ब्लड प्रैशर बढ़ा हुआ है… आप लोग इन्हें ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए… इन की बीमारी अपनेआप ठीक हो जाएगी,’’ डाक्टर कह कर चला गया.

फजल को पता था कि हिना खुश क्यों नहीं रह पा रही है. शादी के इतने साल बाद भी वह मां नहीं बन पाई है. परेशान हालत में वह अपनी आरा मशीन पर बैठा हुआ लकडि़यों के एक ठूंठ को देख रहा था.

‘‘सब खैरियत तो है फजल बाबू,’’ आरा मशीन पर काम करने वाले सज्जाद मुंशी ने पूछा.

‘‘अरे कहां सज्जाद भाई… मेरी दिक्कतें तो आप को पता ही हैं… पर, अब हिना ने मां न बन पाने की बात को अपने जेहन की गहराइयों में बिठा लिया है… लिहाजा, बीमार हो कर वह बिस्तर पर पड़ी है…

‘‘हां, एक बार उस ने एक बच्चा गोद लेने की फरमाइश जरूर की थी, पर मैं ने उसे मना कर दिया, क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे भाइयों के बच्चे भी तो मेरे बच्चे हैं… तो भला बच्चा गोद लेने की जरूरत है?’’ फजल उसे बता रहा था.

‘‘तो इस में परेशानी क्या है… आप किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं,’’ सज्जाद मुंशी ने कहा.

‘‘ऐसे हर किसी राह चलते का बच्चा तो गोद नहीं लिया जा सकता न सज्जाद भाई… कोई ऐसा हो, जिसे हम जानते हों… उस के परिवार को जानते हों… उन के परिवार में कोई ऐब न हो तो ही ठीक है… वरना हम बेऔलाद ही मर जाएं तो बेहतर होगा,’’ फजल ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘ऐसी बात मत कहिए हुजूर… वैसे, अगर आप चाहें तो इस नाचीज का बच्चा गोद ले सकते हैं. अभी मेरी बीवी ने कोई 10 दिन पहले ही एक बेटी को जन्म दिया है. आप तो जानते ही हैं कि मेरे पहले से ही 3 लड़कियां हैं… एक लड़के की चाह में मेरा परिवार बड़ा होता गया…

‘‘अब इतनी महंगाई के दौर में 4 लड़कियों को पालना… मेरे लिए भी मुश्किल होगा शुरुआत से आप बच्ची को साथ रखेंगे, तो वह आप को अब्बू और हिना को अम्मी ही समझेगी,’’ सज्जाद मुंशी ने कहा.

‘‘तुम्हारी बेटी को मैं गोद ले लूं, पर क्या तुम्हारी बीवी इस के लिए राजी हो जाएगी?’’ फजल ने पूछा.

‘‘मेरी अपनी बीवी को तो मैं मना लूंगा… और फिर मेरा बच्चा आप जैसे शरीफ आदमी के घर पलेगा तो इस से बड़ी सुकून देने वाली बात मेरे लिए और क्या होगी… यह हम 2 लोगों की जबान का मामला है… न इस में किसी कोर्ट की जरूरत होगी और न ही किसी कागजी कार्यवाही की…

‘‘मैं कसम खाता हूं कि इस बच्चे को आप को सौंपने के बाद उस पर कभी हक नहीं जताऊंगा,’’ सज्जाद ने कहा.

सज्जाद मुंशी की बातों में फजल को सचाई नजर आ रही थी और उस की बातों से एक नया हौसला भी मिल रहा था.

उसे यों सोच में पड़ा देख सज्जाद मुंशी बोला, ‘‘इतनी भी कोई जल्दी नहीं है… आप घर जा कर अच्छी तरह सोच लेना… घर पर सलाह कर लेना, तब मुझे बताना.’’

घर आ कर फजल ने एक बच्ची को गोद लेने वाली बात हिना से कही.फजल की बातें सुन कर हिना की सूनी आंखों में मानो रोशनी आ गई. वह बिस्तर पर से उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘तो क्या मुझे भी कोई अम्मी कह कर पुकारेगा? मैं भी किसी को गोद में ले सकूंगी,’’ हिना की आंखों से आंसू छलक पड़े थे.

काफी अच्छी तरह सोचविचार करने के बाद फजल सज्जाद मुंशी के घर जा कर उस की दुधमुंही बच्ची को अपने घर ले आया. दुनिया की कोई भी मां अपने दुधमुंहे बच्चे को अपने से अलग नहीं करना चाहती है, पर जब सज्जाद मुंशी ने अपनी बीवी को यह बात समझाई कि उस की बेटी इतने बड़े घर में जाएगी और वे लोग भी तुम्हारी बेटी को कितना लाड़ करेंगे, तब जा कर कहीं हामी भरी थी सज्जाद की बीवी ने.

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यह तो पागल है

अपनी पत्नी सरला को अस्पताल के इमरजैंसी विभाग में भरती करवा कर मैं उसी के पास कुरसी पर बैठ गया. डाक्टर ने देखते ही कह दिया था कि इसे जहर दिया गया है और यह पुलिस केस है. मैं ने उन से प्रार्थना की कि आप इन का इलाज करें, पुलिस को मैं खुद बुलवाता हूं. मैं सेना का पूर्व कर्नल हूं. मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया, ‘‘प्लीज, मेरी पत्नी को बचा लीजिए.’’

डाक्टर ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर तुरंत इलाज शुरू कर दिया. मैं ने अपने क्लब के मित्र डीसीपी मोहित को सारी बात बता कर तुरंत पुलिस भेजने का आग्रह किया. उस ने डाक्टर से भी बात की. वे अपने कार्य में व्यस्त हो गए. मैं बाहर रखी कुरसी पर बैठ गया. थोड़ी देर बाद पुलिस इंस्पैक्टर और 2 कौंस्टेबल को आते देखा. उन में एक महिला कौंस्टेबल थी.

मैं भाग कर उन के पास गया, ‘‘इंस्पैक्टर, मैं कर्नल चोपड़ा, मैं ने ही डीसीपी मोहित साहब से आप को भेजने के लिए कहा था.’’

पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी देर मेरे पास रुके, फिर कहा, ‘‘कर्नल साहब, आप थोड़ी देर यहीं रुकिए, मैं डाक्टरों से बात कर के हाजिर होता हूं.’’

मैं वहीं रुक गया. मैं ने दूर से देखा, डाक्टर कमरे से बाहर आ रहे थे. शायद उन्होंने अपना इलाज पूरा कर लिया था. इंस्पैक्टर ने डाक्टर से बात की और धीरेधीरे चल कर मेरे पास आ गए.

मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा? कैसी है मेरी पत्नी? क्या वह खतरे से बाहर है, क्या मैं उस से मिल सकता हूं?’’ एकसाथ मैं ने कई प्रश्न दाग दिए.

‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. डाक्टर अपना इलाज पूरा कर चुके हैं. उन की सांसें चल रही हैं. लेकिन बेहोश हैं. 72 घंटे औब्जर्वेशन में रहेंगी. होश में आने पर उन के बयान लिए जाएंगे. तब तक आप उन से नहीं मिल सकते. हमें यह भी पता चल जाएगा कि उन को कौन सा जहर दिया गया है,’’ इंस्पैक्टर ने कहा और मुझे गहरी नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘बताएं कि वास्तव में हुआ क्या था?’’

‘‘दोपहर 3 बजे हम लंच करते हैं. लंच करने से पहले मैं वाशरूम गया और हाथ धोए. सरला, मेरी पत्नी, लंच शुरू कर चुकी थी. मैं ने कुरसी खींची और लंच करने के लिए बैठ गया. अभी पहला कौर मेरे हाथ में ही था कि वह कुरसी से नीचे गिर गई. मुंह से झाग निकलने लगा. मैं समझ गया, उस के खाने में जहर है. मैं तुरंत उस को कार में बैठा कर अस्पताल ले आया.’’

‘‘दोपहर का खाना कौन बनाता है?’’

‘‘मेड खाना बनाती है घर की बड़ी बहू के निर्देशन में.’’

‘‘बड़ी बहू इस समय घर में मिलेगी?’’

‘‘नहीं, खाना बनवाने के बाद वह यह कह कर अपने मायके चली गई कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है.’’

‘‘इस का मतलब है, वह खाना अभी भी टेबल पर पड़ा होगा?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘और कौनकौन है, घर में?’’

‘‘इस समय तो घर में कोई नहीं होगा. मेरे दोनों बेटों का औफिस ग्रेटर नोएडा में है. वे दोनों 11 बजे तक औफिस के लिए निकल जाते हैं. छोटी बहू गुड़गांव में काम करती है. वह सुबह ही घर से निकल जाती है और शाम को घर आती है. दोनों पोते सुबह ही स्कूल के लिए चले जाते हैं. अब तक आ गए होंगे. मैं गार्ड को कह आया था कि उन से कहना, दादू, दादी को ले कर अस्पताल गए हैं, वे पार्क में खेलते रहें.’’

इंस्पैक्टर ने साथ खड़े कौंस्टेबल से कहा, ‘‘आप कर्नल साहब के साथ इन के फ्लैट में जाएं और टेबल पर पड़ा सारा खाना उठा कर ले आएं. किचन में पड़े खाने के सैंपल भी ले लें. पीने के पानी का सैंपल भी लेना न भूलना. ठहरो, मैं ने फोरैंसिक टीम को बुलाया है. वह अभी आती होगी. उन को साथ ले कर जाना. वे अपने हिसाब से सारे सैंपल ले लेंगे.’’

‘‘घर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं?’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से पूछा.

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘सेना के बड़े अधिकारी हो कर भी कैमरे न लगवा कर आप ने कितनी बड़ी भूल की है. यह तो आज की अहम जरूरत है. यह पता भी चल गया कि जहर दिया गया है तो इसे प्रूफ करना मुश्किल होगा. कैमरे होने से आसानी होती. खैर, जो होगा, देखा जाएगा.’’

 

इतनी देर में फोरैंसिक टीम भी आ गई. उन को निर्देश दे कर इंस्पैक्टर ने मुझ से उन के साथ जाने के लिए कहा.

‘‘आप ने अपने बेटों को बताया?’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ व्यस्त था.’’

‘‘आप मुझे अपना मोबाइल दे दें और नाम बता दें. मैं उन को सूचना दे दूंगा.’’ इंस्पैक्टर ने मुझ से मोबाइल ले लिया.

फोरैंसिक टीम को सारी कार्यवाही के लिए एक घंटा लगा. टीम के सदस्यों ने जहर की शीशी ढूंढ़ ली. चूहे मारने का जहर था. मैं जब पोतों को ले कर दोबारा अस्पताल पहुंचा तो मेरे दोनों बेटे आ चुके थे. एक महिला कौंस्टेबल, जो सरला के पास खड़ी थी, को छोड़ कर बाकी पुलिस टीम जा चुकी थी. मुझे देखते ही, दोनों बेटे मेरे पास आ गए.

‘‘पापा, क्या हुआ?’’

‘‘मैं ने सारी घटना के बारे में बताया.’’

‘‘राजी कहां है?’’ बड़े बेटे ने पूछा.

‘‘कह कर गई थी कि उस की मां बीमार है, उस को देखने जा रही है. तुम्हें तो बताया होगा?’’

‘‘नहीं, मुझे कहां बता कर जाती है.’’

‘‘वह तुम्हारे हाथ से निकल चुकी है. मैं तुम्हें समझाता रहा कि जमाना बदल गया है. एक ही छत के नीचे रहना मुश्किल है. संयुक्त परिवार का सपना, एक सपना ही रह गया है. पर तुम ने मेरी एक बात न सुनी. तब भी जब तुम ने रोहित के साथ पार्टनरशिप की थी. तुम्हें 50-60 लाख रुपए का चूना लगा कर चला गया.

‘‘तुम्हें अपनी पत्नी के बारे में सबकुछ पता था. मौल में चोरी करते रंगेहाथों पकड़ी गई थी. चोरी की हद यह थी कि हम कैंटीन से 2-3 महीने के लिए सामान लाते थे और यह पैक की पैक चायपत्ती, साबुन, टूथपेस्ट और जाने क्याक्या चोरी कर के अपने मायके दे आती थी और वे मांबाप कैसे भूखेनंगे होंगे जो बेटी के घर के सामान से घर चलाते थे. जब हम ने अपने कमरे में सामान रखना शुरू किया तो बात स्पष्ट होने में देर नहीं लगी.

‘‘चोरी की हद यहां तक थी कि तुम्हारी जेबों से पैसे निकलने लगे. घर में आए कैश की गड्डियों से नोट गुम होने लगे. तुम ने कैश हमारे पास रखना शुरू किया. तब कहीं जा कर चोरी रुकी. यही नहीं, बच्चों के सारे नएनए कपड़े मायके दे आती. बच्चे जब कपड़ों के बारे में पूछते तो उस के पास कोई जवाब नहीं होता. तुम्हारे पास उस पर हाथ उठाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.

‘‘अब तो वह इतनी बेशर्म हो गई है कि मार का भी कोई असर नहीं होता. वह पागल हो गई है घर में सबकुछ होते हुए भी. मानता हूं, औरत को मारना बुरी बात है, गुनाह है पर तुम्हारी मजबूरी भी है. ऐसी स्थिति में किया भी क्या जा सकता है.

‘‘तुम्हें तब भी समझ नहीं आई. दूसरी सोसाइटी की दीवारें फांदती हुई पकड़ी गई. उन के गार्डो ने तुम्हें बताया. 5 बार घर में पुलिस आई कि तुम्हारी मम्मी तुम्हें सिखाती है और तुम उसे मारते हो. जबकि सारे उलटे काम वह करती है. हमें बच्चों के जूठे दूध की चाय पिलाती थी. बच्चों का बचा जूठा पानी पिलाती थी. झूठा पानी न हो तो गंदे टैंक का पानी पिला देती थी. हमारे पेट इतने खराब हो जाते थे कि हमें अस्पताल में दाखिल होना पड़ता था. पिछली बार तो तुम्हारी मम्मी मरतेमरते बची थी.

‘‘जब से हम अपना पानी खुद भरने लगे, तब से ठीक हैं.’’ मैं थोड़ी देर के लिए सांस लेने के लिए रुका, ‘‘तुम मारते हो और सभी दहेज मांगते हैं, इस के लिए वह मंत्रीजी के पास चली गई. पुलिस आयुक्त के पास चली गई. कहीं बात नहीं बनी तो वुमेन सैल में केस कर दिया. उस के लिए हम सब 3 महीने परेशान रहे, तुम अच्छी तरह जानते हो. तुम्हारी ससुराल के 10-10 लोग तुम्हें दबाने और मारने के लिए घर तक पहुंच गए. तुम हर जगह अपने रसूख से बच गए, वह बात अलग है. वरना उस ने तुम्हें और हमें जेल भिजवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इतना सब होने पर भी तुम उसे घर ले आए जबकि वह घर में रहने लायक लड़की नहीं थी.

‘‘हम सब लिखित माफीनामे के बिना उसे घर लाना नहीं चाहते थे. उस के लिए मैं ने ही नहीं, बल्कि रिश्तेदारों ने भी ड्राफ्ट बना कर दिए पर तुम बिना किसी लिखतपढ़त के उसे घर ले आए. परिणाम क्या हुआ, तुम जानते हो. वुमेन सैल में तुम्हारे और उस के बीच क्या समझौता हुआ, हमें नहीं पता. तुम भी उस के साथ मिले हुए हो. तुम केवल अपने स्वार्थ के लिए हमें अपने पास रखे हो. तुम महास्वार्थी हो.

‘‘शायद बच्चों के कारण तुम्हारा उसे घर लाना तुम्हारी मजबूरी रही होगी या तुम मुकदमेबाजी नहीं चाहते होगे. पर, जिन बच्चों के लिए तुम उसे घर ले कर आए, उन का क्या हुआ? पढ़ने के लिए तुम्हें अपनी बेटी को होस्टल भेजना पड़ा और बेटे को भेजने के लिए तैयार हो. उस ने तुम्हें हर जगह धोखा दिया. तुम्हें किन परिस्थितियों में उस का 5वें महीने में गर्भपात करवाना पड़ा, तुम्हें पता है. उस ने तुम्हें बताया ही नहीं कि वह गर्भवती है. पूछा तो क्या बताया कि उसे पता ही नहीं चला. यह मानने वाली बात नहीं है कि कोई लड़की गर्भवती हो और उसे पता न हो.’’

‘‘जब हम ने तुम्हें दूसरे घर जाने के लिए डैडलाइन दे दी तो तुम ने खाना बनाने वाली रख दी. ऐसा करना भी तुम्हारी मजबूरी रही होगी. हमारा खाना बनाने के लिए मना कर दिया होगा. वह दोपहर का खाना कैसा गंदा और खराब बनाती थी, तुम जानते थे. मिनरल वाटर होते हुए भी, टैंक के पानी से खाना बनाती थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी से आशंका व्यक्त की थी कि यह पागल हो गई है. यह कुछ भी कर सकती है. हमें जहर भी दे सकती है. किचन में कैमरे लगवाओ, नौकरानी और राजी पर नजर रखी जा सकेगी. तुम ने हामी भी भरी, परंतु ऐसा किया नहीं. और नतीजा तुम्हारे सामने है. वह तो शुक्र करो कि खाना तुम्हारी मम्मी ने पहले खाया और मैं उसे अस्पताल ले आया. अगर मैं भी खा लेता तो हम दोनों ही मर जाते. अस्पताल तक कोई नहीं पहुंच पाता.’’

इतने में पुलिस इंस्पैक्टर आए और कहने लगे, ‘‘आप सब को थाने चल कर बयान देने हैं. डीसीपी साहब इस के लिए वहीं बैठे हैं.’’ थाने पहुंचे तो मेरे मित्र डीसीपी मोहित साहब बयान लेने के लिए बैठे थे. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे सब से पहले आप की छोटी बहू के बयान लेने हैं. पता करें, वह स्कूल से आ गई हो, तो तुरंत बुला लें.’’

छोटी बहू आई तो उसे सीधे डीसीपी साहब के सामने पेश किया गया. उसे हम में से किसी से मिलने नहीं दिया गया. डीसीपी साहब ने उसे अपने सामने कुरसी पर बैठा, बयान लेने शुरू किए.

2 इंस्पैक्टर बातचीत रिकौर्ड करने के लिए तैयार खड़े थे. एक लिपिबद्ध करने के लिए और एक वीडियोग्राफी के लिए.

डीसीपी साहब ने पूछना शुरू किया-

‘‘आप का नाम?’’

‘‘जी, निवेदिका.’’

‘‘आप की शादी कब हुई? कितने वर्षों से आप कर्नल चोपड़ा साहब की बहू हैं?’’

‘‘जी, मेरी शादी 2011 में हुई थी.

6 वर्ष हो गए.’’

‘‘आप के कोई बच्चा?’’

‘‘जी, एक बेटा है जो मौडर्न स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ता है.’’

‘‘आप को अपनी सास और ससुर से कोई समस्या? मेरे कहने का मतलब वे अच्छे या आम सासससुर की तरह तंग करते हैं?’’

‘‘सर, मेरे सासससुर जैसा कोई नहीं हो सकता. वे इतने जैंटल हैं कि उन का दुश्मन भी उन को बुरा नहीं कह सकता. मेरे पापा नहीं हैं. कर्नल साहब ने इतना प्यार दिया कि मैं पापा को भूल गई. वे दोनों अपने किसी भी बच्चे पर भार नहीं हैं. पैंशन उन की इतनी आती है कि अच्छेअच्छों की सैलरी नहीं है. दवा का खर्चा भी सरकार देती है. कैंटीन की सुविधा अलग से है.’’

‘‘फिर समस्या कहां है?’’

‘‘सर, समस्या राजी के दिमाग में है, उस के विचारों में है. उस के गंदे संस्कारों में है जो उस की मां ने उसे विरासत में दिए. सर, मां की प्रयोगशाला में बेटी पलती और बड़ी होती है, संस्कार पाती है. अगर मां अच्छी है तो बेटी भी अच्छी होगी. अगर मां खराब है तो मान लें, बेटी कभी अच्छी नहीं होगी. यही सत्य है.

‘‘सर, सत्य यह भी है कि राजी महाचोर है. मेरे मायके से 5 किलो दान में आई मूंग की दाल भी चोरी कर के ले गई. मेरे घर से आया शगुन का लिफाफा भी चोरी कर लिया, उस की बेटी ने ऐसा करते खुद देखा. थोड़ा सा गुस्सा आने पर जो अपनी बेटी का बस्ता और किताबें कमरे के बाहर फेंक सकती है, वह पागल नहीं तो और क्या है. उस की बेटी चाहे होस्टल चली गई परंतु यह बात वह कभी नहीं भूल पाई.’’

‘‘ठीक है, मुझे आप के ही बयान लेने थे. सास के बाद आप ही राजी की सब से बड़ी राइवल हैं.’’

उसी समय एक कौंस्टेबल अंदर आया और कहा, ‘‘सर, राजी अपने मायके में पकड़ी गई है और उस ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया है. उस की मां भी साथ है.’’

‘‘उन को अंदर बुलाओ. कर्नल साहब, उन के बेटों को भी बुलाओ.’’

थोड़ी देर बाद हम सब डीसीपी साहब के सामने थे. राजी और उस की मां भी थीं. राजी की मां ने कहा, ‘‘सर, यह तो पागल है. उसी पागलपन के दौरे में इस ने अपनी सास को जहर दिया. ये रहे उस के पागलपन के कागज. हम शादी के बाद भी इस का इलाज करवाते रहे हैं.’’

‘‘क्या? यह बीमारी शादी से पहले की है?’’

‘‘जी हां, सर.’’

‘‘क्या आप ने राजी की ससुराल वालों को इस के बारे में बताया था?’’ डीसीपी साहब ने पूछा.

‘‘सर, बता देते तो इस की शादी नहीं होती. वह कुंआरी रह जाती.’’

‘‘अच्छा था, कुंआरी रह जाती. एक अच्छाभला परिवार बरबाद तो न होता. आप ने अपनी पागल लड़की को थोप कर गुनाह किया है. इस की सख्त से सख्त सजा मिलेगी. आप भी बराबर की गुनाहगार हैं. दोनों को इस की सजा मिलेगी.’’

‘‘डीसीपी साहब किसी पागल लड़की को इस प्रकार थोपने की क्रिया ही गुनाह है. कानून इन को सजा भी देगा. पर हमारे बेटे की जो जिंदगी बरबाद हुई उस का क्या? हो सकता है, इस के पागलपन का प्रभाव हमारी अगली पीढ़ी पर भी पड़े. उस का कौन जिम्मेदार होगा? हमारा खानदान बरबाद हो गया. सबकुछ खत्म हो गया.’’

‘‘मानता हूं, कर्नल साहब, इस की पीड़ा आप को और आप के बेटे को जीवनभर सहनी पड़ेगी, लेकिन कोई कानून इस मामले में आप की मदद नहीं कर पाएगा.’’

थाने से हम घर आ गए. सरला की तबीयत ठीक हो गई थी. वह अस्पताल से घर आ गई थी. महीनों वह इस हादसे को भूल नहीं पाई थी. कानून ने राजी और उस की मां को 7-7 साल कैद की सजा सुनाई थी. जज ने अपने फैसले में लिखा था कि औरतों के प्रति गुनाह होते तो सुना था लेकिन जो इन्होंने किया उस के लिए 7 साल की सजा बहुत कम है. अगर उम्रकैद का प्रावधान होता तो वे उसे उम्रकैद की सजा देते.

भ्रमजाल

बहुत देर से कोई बस नहीं आई. मैं खड़ेखड़े उकता गई. एक अजीब सी सुस्ती ने मुझे घेर लिया. मेरे आसपास लोग खड़े थे, बतिया रहे थे, कुछ इधरउधर विचर रहे थे. मैं उन सब से निर्विकार अपने अकेलेपन से जू?ा रही थी. निगाह तो जिधर से बस आनी थी उधर चिपक सी गई थी. मन में एक प्रश्न यह भी उठ रहा था कि मैं जा क्यों रही हूं? न अम्मा, न बाबूजी, कोई भी तो मेरा इंतजार नहीं कर रहा है. तो क्या लौट जाऊं? पर यहां अकेली कमरे में क्या करूंगी. होली का त्योहार है, आलमारी ठीक कर लूंगी, कपड़े धो कर प्रैस करने का समय मिल जाएगा. 4 दिनों की छुट्टी है. समय ही समय है. सब अपने घरपरिवार में होली मना रहे होंगे. किसी के यहां जाना भी अजीब लगेगा…नहीं, चली ही जाती हूं. क्या देहरादून जाऊं शीला के पास? एकाएक मन शीला के पास जाने के लिए मचल उठा.

शीला, मेरी प्यारी सखी. हमारी जौइनिंग एक ही दिन की है. दोनों ने पढ़ाई पूरी ही की थी कि लोक सेवा आयोग से सीधी भरती के तहत हम इंटर कालेज में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गए. प्रथम तैनाती अल्मोड़ा में मिली.

अल्मोड़ा एक सुंदर पहाड़ी शहर है जहां कसबाई संस्कृति की चुलबुलाहट है. सुंदर आबोहवा, रमणीक पर्यटन स्थल, खूबसूरत मंदिर, आकार बदलते ?ारने, उपनिवेश राज के स्मृति चिह्न, और भी बहुत कुछ. खिली धूप और खुली हवा. ठंडा है किंतु घुटा हुआ नहीं. मैदानी क्षेत्रों की न धुंध न कोहरा. सबकुछ स्वच्छनिर्मल. जल्दी ही हमारा मन वहां रम गया.

दोनों पढ़ने वाले थे. शीघ्र ही हमारी दोस्ती परवान चढ़ने लगी. साथ भोजन करने से खाने का रस बना रहा. पहाड़ी जगह, सीधेसरल जन, रंग बदलते मौसम, रसीले फल और शाम को टहलना, सेहत तो बननी ही थी.

स्कूल की बंधीबंधाई दिनचर्या के उपरांत कुछ शौपिंग, कुछ बतियाना, स्फूर्तिपूर्वक लगता था. अन्यथा स्कूल का माहौल, बाप रे, ऐडमिशन, टाइमटेबल, लगातार वादन, होमवर्क, यूनिट टैस्ट, छमाही, सालाना, कौपियां, रिजल्ट, प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सदन, पत्रिका, संचयिका, अभिभावक संघ, बैठकें, प्रीबोर्ड, बोर्ड परीक्षा, गृह परीक्षा, प्रैक्टिकल्स…उफ, कहीं कुछ चूक हो जाए तो दुनियाभर की फजीहत. इन सब के बाद सवा महीने की गरमियों की छुट्टी. अधिकांश उड़ जाते अपने स्थायी बसेरों की ओर. मैं भी अल्मोड़ा के शीतल मनोहारी वायुमंडल को त्याग तपते आगरा में अम्माबाबूजी की शीतल छांव में जाने को बेताब रहती.

 

अम्माबाबूजी की दवा, खुराक, सामाजिक व्यवहार, कपड़ों की खरीदारी में कब ग्रीष्मावकाश फुर्र हो जाता, कुछ पता ही नहीं चलता. आतेआते भी, ‘मैं जल्दी आऊंगी,’ कह कर ही निकल पाती.

बीच में कुछ दिन देहरादून में दीदी और जीजाजी के पास रहती. वे भी इंतजार सा करते रहते. दीदी कमजोर थीं, 3 बच्चे छोटेछोटे. किसी भी जरूरत पर मु?ो जाना पड़ता था. मेरे बारबार चक्कर काटने से शीला खी?ा जाती. एक दिन तो फट पड़ी.

गजब की ठंड थी. पहाडि़यां बर्फ से लकदक हो गई थीं. रुकरुक कर होती बारिश ने सब को घरों में रहने को मजबूर सा कर दिया था. बर्फीली हवा ने पूरी वादी को अपने आगोश में ले लिया था. मैं छुट्टी की अप्लीकेशन और लैब की चाबी लिए शीला के घर की ओर चल दी. दरवाजा खटखटाया. कुछ देर यों ही खड़ी रही. शीला को आने में समय लगा. बिस्तर में रही होगी. हाथ में बैग देखते ही बोली, ‘इस मौसम में, इतनी ठंड में चिडि़या भी घोंसले में दुबकी है और एक तू है जो बर्फीली हवा की तरह बेचैन है.’

‘देहरादून से जीजाजी का फोन आया है. हनी को चोट लग गई है. शायद औपरेशन कराना पड़े.’

‘तेरे तो कई औपरेशन कर दिए इस बुलावे ने,’ शीला ने बात पूरी सुने बिना जिस विद्रूपता से मेरे हाथ से चाबी और अप्लीकेशन ?ापट कर दरवाजा खटाक से बंद किया, बरसों बाद भी उस का कसैलापन धमनियों में बहते खून में तिरने लगता है. शीला की बात से नहीं, हनी के व्यवहार से.

पिछली बार जब मैं उबाऊ और मैले सफर के बाद देहरादून पहुंची तो बड़ी देर तक हनी और बहू मिलने नहीं आए. हनी के मुख से निकले वाक्य ‘मौसी फिर आ गई हैं’ ने अनायास मु?ा से मेरा साक्षात्कार करा दिया. ऐसा नहीं था कि उन की आंखों में धूमिल होती प्रसन्नता की चमक और लुप्त होते उत्साह को मैं महसूस नहीं कर रही थी किंतु मैं अपने भ्रमजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही थी. सबकुछ बदल रहा था, केवल मैं रुकी हुई थी. शीला ठीक कहती थी, ‘निकल इस व्यामोह से, सब की अपनी जिंदगी है. किसी को तेरी जरूरत नहीं. सब फायदा उठा रहे हैं. अपनी सुध ले.’

मु?ो बेचैनी सी होने लगी. बैग से पानी की बोतल निकाली. कुछ घूंट पिए. इस बीच एक बस आई थी. ठसाठस भरी. मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पाई. लोग सरकती बस में लटकते, चिपकते और ?ालते चले गए.

धीरेधीरे मु?ो लगने लगा कि अम्माबाबूजी की मु?ा पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी. वे हर चीज के लिए मेरी राह देखने लगे. मु?ो गर्व होने लगा, अपने लंबे भाइयों का कद छोटा होते देख. उन को यह जताने में मु?ो पुलक का अनुभव होने लगा कि मेरे रहते हुए अम्माबाबूजी को किसी बात की कोई कमी नहीं है, उन्हें बेटों की कोई दरकार नहीं. भाईभतीजे कुछ खिंचेखिंचे रहने लगे थे. भाभियां कुछ ज्यादा चुप हो गईं. पर मैं ने कब परवा की. बीचबीच में बाबूजी मु?ो इशारा करते थे परंतु मैं ने बात को छूने की कभी कोशिश ही नहीं की.

आज अम्माबाबूजी नहीं हैं. बादलों का वह ?ांड टुकड़ेटुकड़े हो गया जिसे मैं ने शाश्वत सम?ा लिया था.

पहले बाबूजी गए. 93 वर्ष की उम्र में भरेपूरे परिवार के बीच जब उन की अरथी उठी तो सब ने उन्हें अच्छा कहा. उसी कोलाहल में एक दबा स्वर यह भी उभरा कि बेटी को अनब्याहा छोड़ गए. कोई और समय होता तो मैं उस शख्स से भिड़ जाती. पर अब लगता है, अम्माबाबूजी बुजुर्ग हो गए थे किंतु असहाय नहीं थे. उन्होंने मेरे रिश्ते की सरगरमी कभी नहीं दिखाई. जैसे उन्होंने यह मान लिया था कि मैं विवाह करूंगी ही नहीं.

मेरी समवयस्का सखी शीला के घर से जबतब उस के लिए रिश्ते के प्रस्ताव आते रहते. एक रूमानियत उस की आंखों में तैरने लगी थी. बोलती तो जैसे परागकण ?ार रहे हों, चेहरे का आकर्षण दिन पर दिन बढ़ने लगा था. वह मु?ा से बहुतकुछ कहना चाहती थी पर मेरे लिए तो जैसे वह लोक था ही नहीं. आखिर, वह मु?ा से छिटक गई और अकेले ही अपने कल्पनालोक में विचरने लगी.

फिर एकाएक एक दिन उस ने मेरे हाथ में अपनी शादी का कार्ड रख दिया- शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तुते…मैं पंक्ति को पढ़ती जाती और अर्थ ढूंढ़ती जाती. शीला खीझ गई, ‘मेरी शादी है. फुरसत मिले तो आ जाना. मैं आज जा रही हूं.’ मैं उसे देखती रह गई.

शादी के बाद शीला वर्षभर यहां और रही. उस के पति शेखर ने पूरा जोर लगा दिया उस का देहरादून तबादला कराने में. शेखर वहां ‘सर्वे औफ इंडिया’ में अधिकारी थे. कोशिश करतेकरते भी सालभर लग गया. इस बीच वे शीला के पास यहां आते रहे. जब शेखर यहां आते तो मेरी एक सीमारेखा खिंच जाती. परंतु शीला मेरा पहले से भी अधिक खयाल रखने लगती. कोशिश करती कि मैं खाना अकेले न बनाऊं. मैं न जाती तो खाना पहुंचा देती. बहुत मना करती तो दालसब्जी तो जरूर दे जाती. शेखर के स्वभाव में गंभीरता दिखती थी इसलिए मिलने से बचती रही. लेकिन इस गंभीरता के नीचे सहृदयता की निर्मल धारा बह रही है, यह धीरेधीरे पता चला. अपनेआप ?ि?ाक कम होती चली गई और उन में मु?ो एक शुभचिंतक नजर आने लगा.

इसी दौरान शेखर ने मु?ो अरविंद के बारे में बताया, जो उन्हीं के औफिस में देहरादून में कार्यरत था. एक सरकारी कार्य के बहाने उसे अल्मोड़ा बुला कर मेरी मुलाकात भी करा दी. अरविंद ने मु?ो आकर्षित किया. अपने प्रति भी उस की रुचि अनुभव की. शेखर और शीला के दांपत्य के शृंगार का सौंदर्य देख चुकी थी. मैं विवाह के लिए उत्कंठित हो गई. शीला का भी आग्रह बढ़ता गया. कई प्रकार से वह मु?ो सम?ाती.

‘अम्माबाबूजी हमेशा नहीं रहेंगे. पीतपर्ण हैं…कभी भी ?ार जाएंगे. फिर वे अपना जीवन जी चुके हैं. बिंदु, तू बाद में पछताएगी. सोच ले.’

‘ठीक है, अम्माबाबूजी को मैं नहीं छोड़ पाऊंगी पर इस संबंध में तुम मेरे जीजाजी से बात करो,’ मैं ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी स्वीकृति दे दी.

शीला हर्षित हो गई जैसे उसे कोई निधि मिल गई हो. तुरतफुरत उस ने शेखर की जीजाजी से बात करा दी. जीजाजी ने जिस उखड़ेपन से बात की वह शेखर के उत्साह को क्षीण करने के लिए काफी थी. वह बात नहीं थी, कटाक्ष था.

‘अच्छा, तो हमारी साली के रिश्ते की बातें इतनी सार्वजनिक हो गई हैं. आप उस की कलीग शीला के पति बोल रहे हैं न. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है. घर में बिंदु के बहुत हितैषी हैं.’

शीला अपने पति के अपमान से तिलमिला गई. रोंआसी हो कहने लगी, ‘बिंदु, तेरे जीजाजी कभी तेरी शादी नहीं होने देंगे. अम्माबाबूजी के बस की बात नहीं और भाइयों की हद से तू निकल चुकी है. तु?ो स्वयं फैसला लेना होगा.’
पर मैं तो अपने बारे में कभी फैसला ले ही नहीं पाई. धीरेधीरे बात काल के गर्भ में समा गई. शेखर और शीला ने फिर कभी मेरे रिश्ते की बात नहीं की. पर हां, उन्होंने मु?ो देहरादून में जमीन या फ्लैट खरीदने को दोएक बार अवश्य कहा.

‘बिंदु, जमीन के दाम बढ़ते जा रहे हैं. तू समय रहते देहरादून में अपना मकान पक्का कर ले. अपना ठिकाना तो होना चाहिए.’

मैं चौंक गई. मैं और मकान. मैं पलट कर बोली, ‘देहरादून में मेरे दीदीजीजाजी हैं. एक जीजाजी सहारनपुर में हैं. मेरे लिए मकानों की कमी नहीं है.’

अब सबकुछ मेरी आंखों के सामने है. पिछली बार देहरादून गई तो सीधे शीला के पास चली गई थी. शीला प्रसन्न हुई, उस से अधिक हैरान. उस के 2 सुंदर बच्चे हमेशा की तरह मु?ा से चिपक गए. उन के लिए जो लाई थी, उन्हें पकड़ा दिया. शीला बिगड़ी. मैं चुप रही. शीला कुछ ढूंढ़ने लगी. बच्चों को लौन में खेलने भेज दिया.

‘बिंदु, कुछ परेशान लग रही है. सब ठीक है न?’

मेरा गला भर आया. स्वयं पर दया आने का यह विचित्र अनुभव था. शब्द नहीं निकल पाए. शीला पानी ले आई.

‘अच्छा, पहले पानी पी ले. थोड़ा आराम कर ले,’ कह कर शीला रसोई की ओर जाने लगी. मैं ने रोक दिया.

‘शीला, शेखर से कहना कि मेरे लिए कोई छोटा सा फ्लैट देख लें…’

शीला फट पड़ी, ‘अब आया तु?ो होश. जब पहले कहा था कि अपने लिए मकान देख ले तब तो तू ने कहा था कि मेरे बहुत सारे मकान हैं. कहां गए वे सारे मकान? अब याद आ रही है मकान खरीदने की, वह भी देहरादून में.’

शीला और उस के पति ने मकान ढूंढ़ने की कवायद शुरू कर दी. जमीन भी देखी, जमीन शहर से बहुत दूर थी, अकेली प्रौढ़ा के लिए ठीक नहीं लगा और शहर में फ्लैट बहुत महंगे थे. धीरेधीरे दोनों चीजें मेरी पहुंच से बहुत दूर चली गईं.

अब अम्मा भी नहीं रहीं. बाबूजी के जाने के 6 वर्ष बाद अम्मा भी छोड़ कर चली गईं. ऐसा लगने लगा कि जैसे मेरे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया. अब कहां जाऊं? सचमुच एक व्यामोह में कैद थी मैं. अब भ्रम टूटा तो 52 वर्ष की फिसलती उम्र के साथ अकेली खड़ी हूं…

भीड़ में कुछ हलचल हुई. शायद कोई बस आ रही है. बैग संभाल लिए. बस आ गई. रेले में मैं भी यंत्रवत सी बस में चढ़ गई. मंजिल हो न हो, सफर तो है ही.

पश्चात्ताप- भाग 1: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

सफेद चादर से ढकी हुई लाश पड़ी थी. भावशून्य चेहरा लिए वह औरत उस लाश के पास ऐसे बैठी थी जैसे मृत युवक के साथ उस का कोई रिश्ता ही न हो. निस्तेज आंखें, वाकशून्य औरत और वह युवक दोनों ही आपस में अजनबीपन का एहसास करवा रहे थे.

अरे, यह तो अर्जुन की मां है. ओह, तो अर्जुन ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ है. उस ड्राइवर के उतावलेपन व जल्दबाजी ने फुटपाथ पर चलते हुए बेचारे युवक को ही कुचल दिया. यह अधेड़ औरत, अर्जुन की विधवा मां है. इस का एकमात्र अवलंब अर्जुन ही था. हमारे पड़ोस में ही रह रही है. दूसरों के घर के कपड़ों की सिलाई का काम कर के जैसेतैसे उस ने अपने इकलौते पुत्र को बड़ा किया था, अपनी ओर से भरसक प्रयत्न कर के पुत्र को एमएससी तक पढ़ाया था और जब उसे बेटे की कमाई का आनंद उठाने का समय आया तो यह दुर्घटना हो गई.

मेरी पड़ोसिन होने के नाते व चूंकि मैं डाक्टर था, लोग जल्दी से मुझे बुला कर घर ले आए. किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा है, न सांत्वना का, न ही कोई अन्य शब्द. कभीकभी ऐसी पीड़ादायक स्थितियां आ जाती हैं कि शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं. इतने गहरे जख्म को सहलाना छोड़, छूने भर का एहसास करवाने को जबान ही साथ नहीं देती.

मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रहा था एक गंभीर रोगी को देखने, पर यहां आना अत्यधिक जरूरी था. जब अस्पताल की गाड़ी उस के लड़के को उस के घर के सामने उतार रही थी, वह उन्हें रोकने आई कि अरे, यह कौन है? इसे यहां क्यों उतार रहे हो? जो लोग उसे ले कर आए थे, जवाब देने की हिम्मत उन में से भी किसी की नहीं हुई. उस ने आगे बढ़ कर उस की चादर हटा कर मुंह देखा और जड़वत रह गई और अभी भी ऐसे ही मूक बनी बैठी है. ये भावशून्य आंखें, ओह, ये आंखें…बिलकुल याद दिला रही हैं 25 वर्ष पहले की उन्हीं आंखों की, बिलकुल ऐसी ही थीं. अतीत एक बार फिर साकार हो उठता है मेरे सामने.

यों तो मैं डाक्टर हूं, अब तक पता नहीं कितनों की मृत्यु के प्रमाणपत्र दे चुका हूं. मौतें होती ही रहती हैं, पर कुछ ऐसी होती हैं जो मस्तिष्क पर सदैव के लिए अंकित हो जाती हैं, अगर आप उन से कहीं न कहीं जुड़े हैं तो. वैसे तो डाक्टर व मरीज का रिश्ता… एक मरीज आया, ठीक हो गया, चला गया. ठीक नहीं हुआ तो 2-3 बार आ गया. फिर वह डाक्टर को भूल गया, डाक्टर भी उसे भूल गया. बहुत से रोगी डाक्टर बदलते रहते हैं. आज इस डाक्टर के पास, कल दूसरे डाक्टर के पास. बहुत से रोगी हमेशा आते रहेंगे. कहेंगे, डाक्टर साहब, किसी और डाक्टर के पास जाने की इच्छा नहीं होती और अगर चला भी जाता हूं तो ठीक नहीं हो पाता.

एक मरीज व डाक्टर का रिश्ता कायम रहता है और डाक्टर अपने मरीज के बारे में सबकुछ पता रखता है. पर कभीकभी ऐसा भी होता है कि एक मरीज एक बार ही आया है आप के पास लेकिन फिर भी वह अपनेआप को आप की स्मृति से ओझल नहीं होने देता. आप के लिए एक अकुलाहट व एक अजीब व्याकुलता छोड़ जाता है. काश, मैं उस के लिए यह कर पाता, आप को पश्चात्ताप की अग्नि में जलाता है. आप सोचते हैं कि यदि मुझ से यह गलती न होती तो वह बच जाता और ऐसा ये भावशून्य आंखें मुझे आज से 25 वर्ष पूर्व के अतीत की याद दिला रही हैं, बहुत साम्यता है इन आंखों व उन आंखों में.

मैं ने तब अपनी एमडी की डिगरी ले कर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नियुक्ति ली थी कैजुअल्टी औफिसर के पद पर. दिल्ली के इतने बड़े अस्पताल में नियुक्ति होने की बहुत प्रसन्नता थी मुझे, पर यह खुशी अधिक दिनों तक टिकी न रह सकी.

दिल्ली के डाक्टर, विशेषतौर पर इस अस्पताल के डाक्टरों में सुपीरियरिटी कौंपलैक्स बहुत अधिक था. दूसरे प्रदेश से आए हुए व दूसरी जगह के मैडिकल कालेज से पास हो कर आए डाक्टरों को तो वे सब, डाक्टर ही नहीं समझते थे. खैर, मेरी कैजुअल्टी में नियुक्ति हुई थी और कार्य इतना अधिक था कि बात करने का समय ही नहीं मिलता था. मेरे साथी डाक्टर की नियुक्ति मुझ से कुछ पहले हुई थी और उस ने दिल्ली से ही डाक्टरी डिगरी ली थी, सो, उस में अहं भाव अधिक था. कुछ रोब दिखाने की भी आदत थी.

वैसे भी आयुर्विज्ञान संस्थान की कैजुअल्टी में दम लेने की फुरसत ही कहां थी. ‘सिस्टर, इंजैक्शन बेरालगन लगाना बैड नं. 3 को’  व कभी ‘सिस्टर, 6 नंबर को चैस्ट पेन है, एक पेथीडिन इंजैक्शन हंड्रेड मिलीग्राम लगा देना.’ ‘अरे भई, सिस्टर डिसूजा, जरा इस बच्चे को ड्रिप लगेगी, गैस्ट्रोएंटरिट का मरीज है. जल्दी लाइए ड्रिप का सामान.’ सब ओर हड़बड़ाहट, भागदौड़ और अफरातफरी का माहौल. आकस्मिक दुर्घटनाओं व रोग से ग्रसित रोगी एक के बाद एक चले आते हैं.

‘सुभाष, देखो, ट्राली पर कौन है, अरे भई, यह तो गेस्प कर रहा है, औक्सीजन लगाओ जरा,’ ‘सिस्टर, इंजैक्शन कोरामिन लाना.’

इतने में 8-10 लोग आते हैं एक युवक को उठाए हुए, ‘डाक्टर साहब, देखिए इसे, इस युवक का ऐक्सिडैंट हुआ है. इस की खून की नली से बहुत खून बह रहा है, रोकने के लिए इस ने अंगूठे से दबा रखा है. देखिए, ज्यों ही वह अपना अंगूठा हटाता है दिखाने के लिए, खून का फुहारा मेरे कपड़ों व उस के कपड़ों को भी खराब करता है.’

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