Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 3

लेखक-  वीना टहिल्यानी

मिसेज ब्राउन ने अपने को पूरी तरह से काम में झोंक कर अपनी सेहत को खूब नकारा था. अचानक वह बीमार पड़ीं और डाक्टर को दिखाया तो पता चला कि उन्हें कैंसर है और वह अंतिम स्टेज में है.

मिली ने सुना तो सकते में आ गई. लेकिन मौम बहादुर बनी रहीं. जौन मिलने आया तो उसे भी समझाबुझा कर वापस भेज दिया. उस की पीएच.डी. पूरी होने वाली थी. मां के लिए उस की पढ़ाई का हर्ज हो यह मिसेज ब्राउन को मंजूर न था.

मां के समझाने पर मिली सामान्य बनी रहती और रोज स्कूल जाती. बीमार अवस्था में भी मौम अपना और अपने दोनों बच्चों का भी पूरा खयाल रखतीं. डैड अपनेआप में ही रमे रहते. पीते और देर रात गए घर लौटते थे.

इधर मौम का इलाज चलता रहा. उधर अमेरिका के फ्लोरिडा विश्व- विद्यालय में पढ़ाई पूरी होते ही जौन को नौकरी मिल गई. यह जानने के बाद कि उसे फौरन नौकरी ज्वाइन करनी है, मौम ने उसे घर आने के लिए और अपने से मिलने के लिए साफ और सख्त शब्दों में मना करते हुए कह दिया कि उसे सीधा वहीं से रवाना होना है.

उस दिन बिस्तर में बैठेबैठे ही मौम ने पास बैठी मिली का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच रख लिया फिर धीरे से बहुत प्रयास कर उसे अपने अंक में भर लिया. मिली डर गई कि मौम को अंत की आहट लग रही है. मिली ने भी मौम की क्षीण व दुर्बल काया को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘मर्लिन मेरी बच्ची, मैं तेरे लिए क्याक्या करना चाहती थी लेकिन लगता है सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. लगता है अब मेरे जाने का समय आ गया है.’’

‘‘नहीं, मौम…नहीं, तुम ने सबकुछ किया है…तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो…’’ रुदन को रोक, रुंधे कंठ से मिली बस, इतना भर बोल पाई और अपना सिर मौम के सीने पर रख दिया.’’

कांपते हाथों से मिसेज ब्राउन बेटी का सिर सहलाती रहीं और एकदूसरे से नजरें चुराती दोनों ही अपनेअपने आंसुओं को छिपाती रहीं.

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मिली भाई को बुलाना चाहती तो मौम कहतीं, ‘‘उसे वहीं रहने दे…तू है न मेरे पास, वह आ कर भी क्या कर लेगा. वह कद से लंबा जरूर है पर उस का दिल चूहे जैसा है…अब तो तुझे ही उस का ध्यान रखना होगा, मर्लिन.’’

मौम की हालत बिगड़ती देख अकेली पड़ गई मिली ने एक दिन घबरा कर चुपचाप भाई को फोन लगाया और उसे सबकुछ बता दिया.

आननफानन में जौन आ पहुंचा और फिर देखते ही देखते सबकुछ बीत गया. मौम चुपके से सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गईं.

उस रात मां के चेहरे पर और दिनों सी वेदना न थी. कैसी अलगअलग सी दिख रही थीं. मिली डर गई. वह समझ गई कि मौम को मुक्ति मिल गई है. मिली ने उन को छू कर देखा, वे जा चुकी थीं. मिली समझ ही न पाई कि वह हंसे या रोए. अंतस की इस ऊहापोह ने उसे बिलकुल ही भावशून्य बना दिया. हृदय का हाहाकार कहीं भीतर ही दब कर रह गया.

लोगों का आनाजाना, अंतिम कर्म, चर्च सर्विस, मिली जैसे सबकुछ धुएं की दीवार के पार से देख रही थी. होतेहोते सबकुछ हो गया. फिर धीरेधीरे धुंधलका छंटने लगा. कोहरा भी कटने लगा. मिली की भावनाएं पलटीं तो मां के बिना घर बिलकुल ही सूना लगने लगा था.

कुछ ही दिन के बाद डैड अपनी एक महिला मित्र के साथ कनाडा चले गए. जैसे जो हुआ उन्हें बस, उसी का इंतजार था.

सत्र समाप्ति पर था. मिली नियमित स्कूल जाती और मेहनत से पढ़ाई करती पर एक धुकधुकी थी जो हरदम उस के साथसाथ चलती. अब तो जौन भी चला जाएगा, फिर कैसे रहेगी वह अकेली इस सांयसांय करते सन्नाटे भरे घर में.

मौम क्या गईं अपने साथसाथ उस का सपना भी लेती गईं. सपना अपने देश जा कर अपने शहर कोलकाता देखने का था. सपना अपनी फरीदा अम्मां से मिल आने का था. टूट चुकी थी मिली की आस. अब कोई नहीं करेगा इंडिया जाने की बात. काश, एक बार, सिर्फ एक बार वह अपना देश और कोलकाता देख पाती.

स्कूल का सत्र समाप्त होने पर जौन उसे अपने साथ ले जाने की बात कर रहा था. अब वह कैसे उस से कहे कि मुझे इंडिया ले चलो. देश दिखा लाओ.

मौम के जाने पर ही भाईबहन ने जाना कि वह बिन बोले, बिन कहे कितना कुछ सहेजेसंभाले रहती थीं. अब वह चाहे जितना कुछ करते, कुछ न कुछ काम रह ही जाता.

उस दिन जौन मां के कागज सहेजनेसंभालने में व्यस्त था. बैंक पेपर, वसीयत, रसीदें, टैक्स पेपर तथा और भी न जाने क्या क्या. इतने सारे तामझाम के बीच जौन एकदम से बोल पड़ा, ‘‘मर्लिन, इंडिया चलोगी?’’

मिली हैरान, क्या कहती? ओज के अतिरेक में उस की आवाज ही गुम हो गई और आंखों में आ गया अविश्वास और आश्चर्य.

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‘‘यह देखो मर्लिन, मौम तुम्हारे भारत जाने का इंतजाम कर के गई हैं, पासपोर्ट, टिकट, वीसा और मुझे एक चिट्ठी भी, छुट्टियां शुरू होते ही बहन को इंडिया घुमा लाओ…और यह चिट्ठी तुम्हारे लिए.’’

मिली ने कांपते हाथों से लिफाफा पकड़ा और धड़कते दिल से पत्र पढ़ना शुरू किया:

‘‘प्यारी बेटी, मर्लिन,

कितना कुछ कहना चाहती हूं पर अब जब कलम उठाई है तो भाव जैसे पकड़ में ही नहीं आ रहे. कहां से शुरू करूं और कैसे, कुछ भी समझ नहीं पा रही हूं्. कुछ भावनाएं होती भी हैं बहुत सूक्ष्म, वाणी वर्णन से परे, मात्र मन से महसूस करने के लिए. कैसेकैसे सपनों और अरमानों से तुम्हें बेटी बना कर भारत से लाई थी कि यह करूंगी…वह करूंगी पर कितना कुछ अधूरा ही रह गया… समय जैसे यों ही सरक गया.

कभीकभी परिस्थितियां इनसान को कितना बौना बना देती हैं. मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है. फिर भी हम सोचते हैं, समय से सब ठीक हो जाएगा पर समय भी साथ न दे तो?

मैं तुम्हारी दोषी हूं मर्लिन. तुम्हें तुम्हारी जड़ों से उखाड़ लाई…तुम्हारी उमर देखते हुए साफ समझ रही थी कि तुम्हें बहलाना, अपनाना कठिन होगा पर क्या करती, स्वार्थी मन ने दिमाग की एक न सुनी. दिल तुम्हें देखते ही बोला, तुम मेरी हो सिर्फ मेरी. तब सोचा था तुम्हें तुम्हारे देश ले जाती रहूंगी और उन लोगों से मिलवाती रहूंगी जो तुम्हारे अपने हैं. पर जो चाहा कभी कर न पाई. तुम्हारे 18वें जन्मदिन का यह उपहार है मेरी ओर से. तुम भाई के साथ भारत जाओ और घूम आओ…अपनी जननी जन्मभूमि से मिल आओ. मैं साथ न हो कर भी सदा तुम्हारे साथ चलूंगी. तुम दोनों मेरे ही तो अंश हो. ऐसी संतान भी सौभाग्य से ही मिलती है. जीवन के बाद भी यदि कोई जीवन है तो मेरी कामना यही रहेगी कि मैं बारबार तुम दोनों को ही पाऊं. अगली बार तुम मेरी कोख में ही आना ताकि फिर तुम्हें कहीं से उखाड़ कर लाने की दोषी न रहूं.

तुम पढ़ोलिखो, आगे बढ़ो, यशस्वी बनो, अपने लिए अच्छा साथी चुनो. घरगृहस्थी का आनंद उठाओ, परिवार का उत्सव मनाओ. तुम्हारे सारे सुख अब मैं तुम्हारी आंखों से ही तो देखूंगी. इति…

मंगलकामनाओं के साथ तुम्हारी मौम.’’

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 3

लेखिका- डा. शशि गोयल

तेल मल कर पट्टी बांध ली, पर श्यामा ताई को पता नहीं चला कि पट्टी में सत्ते ने 10-10 के 2 नोट बांध रखे हैं. एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सिक्के बांध कर सामने चौराहे के बीच में लगी घनी झाड़ी के बीच में छिपाई थी. पर पता नहीं, वहां से भी किसी ने निकाल ली. जरूर सनी या जुगल ने उसे छिपाते हुए देखा होगा.

रुकमा सत्ते की राजदार थी, पर रुकमा ऐसा नहीं कर सकती थी. उसे भरोसा था कि जरूर सनी या जुगल का ही काम होगा. पट्टी रात में ढीली हो कर पैरों में सरक गई. सुबह अचकचा कर सत्ते ने उसे कस लिया. शाम को रुकमा के लिए गिलट के कान के झुमके ले आया.

रुकमा को अब सजनेसंवरने का शौक लगने लगा था, पर श्यामा ताई उस के बालों में मिट्टी लगा कर लट सी बना देती, ‘‘मुंडी काट दूंगी, जो फैशन बनाया… जवानी कुछ ज्यादा ही चढ़ रही है.

सत्ते को पता नहीं था कि जवानी क्या होती है, पर यह समझ गया कि रुकमा अब बड़ी हो रही है, टांड़ सी बढ़ती जा रही?है. फैशन करेगी तो ले उड़ेगी दुनिया. और हकीकत में एक दिन रुकमा कहीं नहीं दिखाई दी…

श्यामा ताई चारों ओर देख रही थी. उस दिन श्यामा ताई का लड़का भी दिन में ही दिखाई दिया… ‘बबलू भैया के…’

सत्ते ने कहना चाहा, पर लाललाल आंखों से लड़के ने सत्ते को चुप करा दिया और ‘चल ढूंढ़ें’ कहता हुआ बाहर ले गया.

‘‘क्या बोला, क्या बोला,’’ बबलू बोला, तो सत्ते हकला गया, ‘‘वह आप की मोपेड.’’

‘‘क्या मेरी मोपेड? एक चक्कर लगवा कर उसे यहीं छोड़ गया था. अम्मां के सामने जबान भी खोली तो काट डाल दूंगा…’’

2 दिन बाद मोपेड की जगह लड़का मोटरसाइकिल ले आया. उस के कपड़े भी महंगे हो गए थे. श्यामा ताई की आंखें जब तब उसे खोज लेतीं, लगता अभी आ कर कहेगी, ‘‘ताई, लो चाय पी लो.’’

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रुकमा धीरेधीरे बड़ा काम सहेजने लगी थी. छोरी सुख दे रही थी. बारबार मुंह धोने का शौक ले डूबा छोरी को.

चौराहे पर अब लंबीलंबी कतारें लगने लगी थीं और बस्तियों से मांगने वाले भी बढ़ गए थे. अब भागतेभागते टांगें दुखने लगतीं.

एक दिन जुगल को एक मेमसाहब पर्स खोल कर पैसे देने लगीं. हरी बत्ती हो गई. ड्राइवर ने गाड़ी बढ़ा दी. जुगल पीछे भागा. ट्रैफिक पर कोई नहीं रुकना चाहता है. पीछे से मोटरसाइकिल वाला भी निकलने की जल्दी में था और जुगल को भी जल्दी थी. वहीं मेमसाहब न निकल जाए. मोटरसाइकिल से बचने को जुगल सरका, पर उस का सिर डिवाइडर से टकराया. मोटरसाइकिल वाला भाग गया और फिर जुगल नहीं उठा. सत्ते ‘ताई जुगल…’ कहता भागा. श्यामा ताई भागी आई… फिर एकदम सत्ते को पकड़ कर पीछे खड़ी हो गई. सत्ते ‘जुगलजुगल’ चिल्लाया, तो ताई ने चुप करा दिया.

ट्रैफिक पुलिस आई. भीड़ बढ़ गई. फुटपाथ पर जुगल को रख दिया.

‘‘कौन है इस के साथ?’’ एक ट्रैफिक पुलिस वाला बोला.

कोई नहीं बोला. सत्ते बारबार ताई की ओर देख रहा था. सत्ते की समझ नहीं आया कि ताई कुछ कह क्यों नहीं रही.

सभी तो जानते हैं जुगल कौन है, फिर क्यों नहीं बता रहे हैं? ट्रैफिक पुलिस वाले ने श्यामा ताई से पूछा, ‘‘क्यों बुढि़या, यह तेरे साथ देखा था.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम… मेरे पास कभीकभी भीख मांगने आ बैठता था. मैं नहीं जानती, ‘‘कह कर श्यामा ताई पीछे सरक गई. पुलिस ने लावारिस समझ कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया.

झोंपड़ी में आ कर सत्ते रोने लगा. सत्ते ने श्यामा ताई से पूछा… ‘‘ताई, तुम्हारा कोई नहीं था वह… इतने दिन से तो था. तुम ने कहा क्यों नहीं…’’

‘‘चुप रह. कौन काठीकफन करे. मोटरसाइकिल वाला भाग गया. वह पकड़ा जाता तो कुछ खर्चापानी मिल जाता. चुप रह… पता नहीं… पुलिस के चक्कर में कौन पड़े?’’ श्यामा ताई को यह फिक्र ज्यादा थी कि कहां से लाई बच्चे को. क्या जवाब देती. बच्चा चुराने के जुर्म में पुलिस जेल और भेज देती.

सत्ते को रोटीपानी कुछ अच्छा नहीं लगा. वह लेट गया… लेटेलेटे आंख लग गई… आंसू की धार सूख गई थी. न जाने क्या सपना आया कि वह मुसकराने लगा. सोतेसोते उस का चेहरा जैसे उजास से भर गया.

श्यामा ताई ने घड़ी देखी. मंगल का दिन है. यह पड़ापड़ा सो रहा है. सारी कमाई तो बंद हो गई है. उस ने सत्ते को हिलाया, ‘‘उठ…’’

सत्ते हकबका कर उठा… इधरउधर देखा. जोर से श्यामा ताई को मुक्के मारने लगा, ‘‘मुझे क्यों जगाया? मुझे क्यों जगाया.’’

‘‘अरे तो उठेगा नहीं… उठ टाइम निकला जा रहा है. चल थैली उठा.’’

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‘‘नहीं जाऊंगा, नहीं जाऊंगा,’’ वह खिसिया कर रो उठा, ‘‘मुझे क्यों जगाया…’’

‘‘उठ, बहुत नाटक हो गया.’’

‘‘नहीं… मेरी मां आई थी सपने में… मां आई थी… अब कब आएगी… मेरी मां आई थी,’’ कह कर वह जोरजोर से रोने लगा.

Mother’s Day Special: मोह का बंधन- भाग 2

जब सुशांत ने मां से कहा कि शादी उन के पैतृक निवास से ही होगी तो बीना को सुखद आश्चर्य हुआ था. शादी धूमधाम से संपन्न हो गई. अमृता शक्लसूरत से तो सामान्य थी पर व्यवहार से विनम्र और सुशील लगी थी. उस की शर्मीली मुसकान बीना को एक दुलहन के लिए स्वाभाविक ही लगी थी. फिर उस का संयमित व्यवहार शायद प्रेम विवाह के ढंग को मिटाने की एक कोशिश…इन्हीं विचारों ने बीना को तटस्थ बनाए रखा.

शादी के बाद बंगलौर से बेटाबहू के फोन अकसर आते रहते थे जिन में एक ही जिज्ञासा होती थी कि मां, हमारे पास आप कब आ रही हैं? अमृता की मीठी गुजारिश तो मात्र एक औपचारिकता थी क्योंकि इस प्रेममय बुलावे में बीना को उन की अनकही आस का आभास होता था. शायद मां को खुश कर उस के पैसे और मकान की इच्छा…इसी ऊहापोह में बीना उन के आग्रह को हर बार टाल जाती थीं पर इस बार जब सुशांत फोन पर भावुक हो उठा तो उन्होंने सोचा कि चलो, चल कर देख ही लिया जाए कि क्या होता है.

बंगलौर हवाई अड्डे पर सामान के साथ बीना जब बाहर निकलीं तो भीड़ में सुशांत हाथ हिलाता हुआ नजर आया पर अमृता कहीं दिखाई नहीं दी तो उन्होंने सोचा शायद आफिस से छुट्टी नहीं मिली होगी. फिर खयाल आया कि आज तो रविवार है, आफिस तो बंद होगा. यहीं से हो गई अवहेलना की पहली शुरुआत, सोचते हुए वह सुशांत के साथ कार की ओर बढ़ गईं.

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कार चलाते हुए सुशांत मां को बंगलौर के बारे में बताता जा रहा था. बीना ने महसूस किया कि उस की आवाज में बहुत उत्साह था. चलो, कुछ देर को ही सही, बेटा उसे देख कर खुश तो हुआ और यही सोच कर उन्हें अच्छा लगा. कुछ ही देर में गाड़ी गोल्डन अपार्टमेंट के गेट पर आ कर रुकी.

सुशांत का फ्लैट पहले तल पर था. सामान ले कर वह मां के साथ सीढि़यों की ओर चल पड़ा. बीना ऊपर पहुंचीं तो देखा काफी लोग जुटे थे ओर शोरगुल की आवाजें आ रही थीं. उन्होंने सोचा शायद किसी के यहां शादीब्याह का मौका होगा, तभी एक आवाज आई, ‘‘अरे देखो, आंटी आ गई हैं.’’ इतना सुनते ही सब लोग ‘स्वागतम् सुस्वागतम्’ का मंगलगान करने लगे. दरवाजे पर रंगोली सजी थी और अमृता आरती का थाल लिए खड़ी थी. ‘‘अपने घर में आप का स्वागत है, मांजी,’’ कहते हुए उस ने बीना के चरण स्पर्श किए और फिर आरती उतार कर घर में ले आई.

‘‘क्यों मांजी, कैसा रहा हमारा सरप्राइज?’’ सुशांत ने शरारत से कहा, ‘‘अमृता ने यह सारी तैयारी आप के शानदार स्वागत के लिए की थी.’’

बीना का मन पुलकित हो उठा. ऐसे स्वागत की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. जी चाहा बहू का माथा चूम ले. फिर सहसा मन में खयाल आया कि यह सब तो पहले दिन का खुमार है, जल्दी ही उतर जाएगा. यही सोच कर उन्होंने खुद को संयमित किया और दोनों को आशीर्वाद दे कर आगे बढ़ गईं.

अमृता ने उन्हें उन का कमरा दिखाया. कमरा सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था. सामने की ओर बालकनी थी जिस में आरामकुरसी पड़ी थी. बाथरूम में जरूरत का सब सामान करीने से लगा था. यह सब देख कर बीना को अच्छा लगा.

मुंहहाथ धो कर बीना बाहर आईं तो देखा अमृता ने मेज पर खाना लगा दिया था. खाने में सब चीजें उन्हीं की पसंद की थीं. तीनों ने साथ बैठ कर भोजन किया. उस के बाद बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर बीना के कहने पर ही सब सोने के लिए उठे.

अगले दिन जब वह सुबह उठीं तो घड़ी 9 बजा रही थी. ‘आज तो उठने में बहुत देर हो गई. अब तक तो बच्चे आफिस के लिए निकल चुके होंगे,’ उन के मुंह से निकला. कमरे से बाहर आईं तो देखा सुशांत अखबार पढ़ रहा था और अमृता रसोई में थी.

‘‘गुडमार्निंग, मांजी,’’ कहते हुए अमृता ने आ कर उन के पैर छुए और बोली, ‘‘आप पहले चाय लेंगी या सीधे नाश्ता ही लगाऊं?’’

बीना ने कहा, ‘‘अरे, मैं नाश्ता खुद बना लूंगी, तुम लोग आफिस जाओ, तुम्हें बहुत देर हो जाएगी.’’

सुशांत रोनी सूरत बना कर कहने लगा, ‘‘मां, अमृता ने तो 10 दिन की छुट्टियां ले रखी हैं और मैं ने सोचा था कि आप को थोड़ा घुमा लाएं, फिर आफिस चला जाऊंगा. पर लगता है आप तो भूखे पेट ही आफिस भेज देंगी आज.’’

बेटे के मुंह से यह सुन कर बीना को एक सुखद आश्चर्य का अनुभव हुआ. पर फिर थोड़ा  गुस्सा भी आया. आखिर हद होती है दिखावे की भी. वह यहां किसी को तकलीफ देने नहीं आई हैं. यही सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘देखो बहू, मैं कोई बच्ची थोड़े ही हूं. तुम जाना चाहो तो आराम से आफिस जा सकती हो. मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

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‘‘पर मांजी मुझे तो होगी,’’ अमृता ने कहा, ‘‘मुझे तो आप के साथ रहने का मौका ही नहीं मिल पाया था इसलिए मैं ने आफिस से छुट्टी ले ली ताकि मैं आराम से अपना सारा समय आप के साथ बिता सकूं.’’

अमृता के शब्दों में एक अपनापन था और आंखों में प्यार की गरमाहट जिन्हें देख कर बरबस ही बीना के मुंह से आशीर्वाद निकल पड़ा.

नाश्ते के बाद सुशांत तो आफिस के लिए निकल गया और सासबहू में वार्त्तालाप शुरू हो गया. बातोंबातों में अमृता ने सास से उन की पसंदनापसंद, खानपान, सेहत, रीतिरिवाज आदि के बारे में जानकारी हासिल कर ली. शाम को दोनों पास के  पार्क में चली गईं.

रात को सुशांत के आने पर सब ने एकसाथ बैठ कर खाना खाया. बीना जब पानी लेने रसोई में जाने लगीं तो अमृता ने देखा कि वह ठीक से चल नहीं पा रही हैं.

सुशांत के पूछने पर बीना को बताना पड़ा कि शाम को घूमते हुए शायद पैर में मोच आ गई थी इसीलिए दर्द हो रहा था. यह सुनते ही अमृता दर्दनिवारक बाम उठा लाई. बीना के बहुत मना करने पर भी वह उन्हें कमरे में ले गई और उन के पैर में मालिश करनी शुरू कर दी. धीरेधीरे बीना को आराम आ गया और वह सो गईं.

सुबह उठने पर सुशांत ने पूछा, ‘‘मां, अब आप का पैर कैसा है? चलिए, जल्दी से तैयार हो जाइए, हमें अस्पताल जाना है.’’

बीना ने कहा, ‘‘अरे, तू तो नाहक ही परेशान हो रहा है. मामूली सी मोच होगी भी तो 1-2 दिन में ठीक हो जाएगी.’’

‘‘चलिए, फिर भी डाक्टर को दिखा लेने में क्या हर्ज है?’’ सुशांत बोला, ‘‘मां, इसी के साथ आप का पूरा हेल्थ चेकअप भी हो जाएगा.’’

‘‘अरे, अब इस की क्या जरूरत है? मैं तो बिलकुल ठीक हूं,’’ बीना ने हैरानी से कहा.

‘‘मां, कई बार जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है. और फिर यह तो निशांत भैया का हुक्म था कि मां जैसे ही बंगलौर आएं उन का पूरा मेडिकल चेकअप होना चाहिए. मैं तो बस, भैया की आज्ञा का पालन कर रहा हूं.’’

दूर रह कर भी निशांत मां की सेहत के लिए फिक्रमंद था, यह जान कर बीना को अच्छा लगा.

अस्पताल पहुंच कर सुशांत ने सब से पहले बीना के पैर की जांच कराई. डाक्टर ने बताया कि मोच नहीं आई थी. बस, पैर हलका सा मुड़ गया था. उस ने दवा देते हुए आराम करने की सलाह दी. फिर बीना अलगअलग कमरों में अनेक प्रकार के परीक्षणों से गुजरीं. सुशांत ने हर डाक्टर से अलग से समय ले रखा था इसलिए कहीं कोई तकलीफ नहीं आई.

घर पहुंचतेपहुंचते बीना काफी थक गई थीं. अमृता ने सब का खाना मांजी के कमरे में ही लगा दिया. फिर बातें होने लगीं. साथ ही साथ अमृता ने बीना के पैर में डाक्टरों द्वारा दी गई दवा लगा दी. फिर उन्हें नींद ने आ घेरा.

इन 2-3 दिनों में ही वे अमृता की ओर झुकाव महसूस करने लगी थीं जबकि उन्होंने तो सुशांत के प्रति भी ज्यादा लगाव न रखने की सोची थी. क्या वह गलत थीं या अब गलती कर रही थीं? काफी देर तक ऐसी ही अनिश्चितता की स्थिति बनी रही.

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 2

लेखिका- डा. शशि गोयल

‘‘चल री चल,’’ कह कर रानी काकी ने बच्चा ले लिया. वह तो पड़ोस की कांता का बच्चा था. वह बरतन करने जाती थी. कभीकभी वह रख लेती, ‘‘अरे, कहां लिए डोलेगी. छोड़ जा मेरे पास.’’

कांता को 2-3 घंटे लगते, तब तक वह चौराहे पर आ जाती. कभी देर हो जाती तो रानी काकी कांता से कह देती, ‘‘अरे, पार्क में ले गई थी. सब बच्चे खेल रहे थे.’’

आज की घटना से रानी काकी का दिल जोर से धड़क उठा. वह तो नक्षत्र सीधे थे, नहीं तो मर लेती. उसे अपने पास अफीम भी रखनी पड़ती थी, नहीं तो सारे दिन रिरियाते बच्चों को कहां तक संभाले. बच्चा सोता रहे. जरा सा हिलते ही जरा सी अफीम चटा दो… कई घंटे की हो गई छुट्टी.

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मगर, रानी काकी जब बच्चे को कंधे पर लगाएलगाए थक जाती है, तो श्यामा ताई की झोंपड़ी में ही सुस्ताने आ जाती है. वहीं सत्ते ने सुना कि क्वार्टर की मास्टरनी का बच्चा भी कभीकभी उस की नौकरानी दे देती है. मास्टरनी स्कूल में पढ़ाए और सारा दिन बच्चा रानी काकी की बहन के पास रहे. 1-2 दिन उसे भी रानी काकी लाई, पर उस का रंगरूप गरीबों का सा बनाना पड़ा. कुछ भी हो, इतने साफसुथरे रंगरूप का सलोना बच्चा ले कर पकड़ी जाती तो मैले कपड़े पहनाने, मिट्टी का लेप लगाना सब भारी पड़ता… और अब खुद का ही छठा महीना चल रहा है… बच्चा गोद ले कर चलने में उपदेश ज्यादा मिलते हैं, ‘‘एक पेट में, एक गोद में, भीख मांगती घूम रही है. शर्मलिहाज है कुछ… क्या भिखारी बनाएगी इन्हें भी…’’

अब पैसा देना हो तो दो, उपदेश चाहिए नहीं… सारा दिन हाड़ पेल के क्या दे दोगी 100 रुपए रोज, पर यहां तो 500 रुपए तक मिल जाते हैं. कपड़ेलत्ते अलग… सर्दी में कंबल, ऊनी कपड़े… ऐसी दयामाया तो रखती नहीं, उपदेश दे रही हैं.

एक बार तो श्यामा ताई फंस ही गई. सर्किल के मंदिर पर मकर संक्रांति पर एक के बाद एक दानदाता आ रहे थे. खिचड़ी की पोटली सरकाई कि फटने लगी. वह पीछे बैंच पर रख कर उन के नीचे कंबलकपड़े बांध कर सरका रही थी कि एक संस्था की बहनजी कंबल बांटती आईं और बोलीं, ‘‘अरे, यहां तो बहुत कंबल बंटे हैं. देखो, एकएक के पास कितने कंबल हैं.’

वे बहनजी मुंह फाड़े देख रही थीं. ‘कहांकहां’ कहते हुए श्यामा ताई ने ही बात संभाली, ‘‘अरे, सब के हैं. अकेले मेरे तो नहीं हैं. सब रखवा गए हैं…’’

श्यामा को एक बार में 5 कंबल मिल गए थे, जो एकदम दिख रहे थे. वे बहनजी तो चली गईं, पर सब भिखारी श्यामा पर पिल पड़े.

रात को श्यामा ताई का लड़का मोपेड पर आता था. जींस और टीशर्ट पहने हुए. सर्दी में जैकेट. उस की जेब में काला चश्मा रहता, जिसे कभीकभी सत्ते लगा कर देखता और झोंपड़ी में लटके आईने में अपनी शक्ल देखता. वह लड़का सारी चिल्लर और कपड़े ले जाता. खर्चे के लिए श्यामा ताई के पास कुछ पैसे छोड़ जाता. श्यामा देने में नानुकर करती, तो लड़का धमकाता कि कुटाई कर देगा और कई बार कर भी देता था और सब छीन कर ले जाता था.

सत्ते उस समय यही सोचता कि वह भी ऐसे कपड़े पहन कर घूमेगा. श्यामा ताई तो बूढ़ी हो जाएगी, इसलिए मन ही मन मनाता कि बूढ़ी के बेटे का ऐक्सिडैंट हो जाए तो हमारा पैसा हमारा होगा. कैसे वह मोपेड को तेजी से चलाता है. कभीकभी वह भी उस लड़के के साथ मोपेड पर घूम आता, पर अब फुरसत मुश्किल से मिलती है. कोई न कोई दिन रहता है देवीदेवताओं का तो श्यामा ताई शाम को भी सब को लाइन में बिठा देती?है. पहले बस मंगलवार को हनुमान के मंदिर जाते थे तो बूंदी से थैली भर जाती थी और बाकी दिन शाम 6 बजे के बाद नहाधो कर अच्छे कपड़े पहन कर सब पार्क में जाते थे और खेलते थे, पर अब तो हर दिन मंदिर में भीड़ रहती है.

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वीरवार को साईं बाबा की तसवीर तश्तरी पर लगा कर चौराहे पर भागते हैं. लोग हाथ तो जोड़ते ही हैं, श्रद्धा से पैसे भी चढ़ा देते हैं. सोमवार को शंकर या किसी देवी और बुधवार को गणेश के मंदिर में.

‘‘शनिवार को छोटीछोटी बालटी ले कर दौड़ते रहते हैं. तेल जमा करना होता है. श्यामा ताई थोड़ा तेल अपने पास रखती है, बाकी पास में ठेले पर समोसेकचौड़ी वाले को बेच आती है. पैसे उस ने गद्दे के नीचे जेब बना कर छिपाने शुरू कर दिए हैं.

रात को लड़का आ कर तेल मांगता तो श्यामा ताई थोड़े से तेल को दिखा देती, ‘‘अब क्या लोग तेल ले कर चलते हैं. वे तो मंदिर में चढ़ाते हैं. रखा है बालटी में.’’

भुनभुनाता लड़का बोतल में तेल डाल कर चिकनाए पैसे थैली में डाल कर चला जाता. पानी में डाल कर रखे सिक्कों को श्यामा ताई कपड़े से रगड़रगड़ कर पोंछ देती.

‘‘ताई, हलदीतेल देना,’’ कहते हुए सत्ते ने पैर की पट्टी खोली.

‘‘क्या हुआ?’’ श्यामा ताई ने कहते हुए हलदीतेल निकाल कर दिया, ‘किसी से टकरा गया क्या?’

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 1

लेखिका- डा. शशि गोयल

सुबह 10 बजे के आसपास वे सब सड़क के नुक्कड़ के पेड़ के नीचे बनी तिरपाल वाली झोंपड़ी में आ जाते थे. वे उस के अंदर रखे फटे और गंदे कपड़े पहनते थे.

श्यामा ताई एक कटोरे में कोयला पीस कर मिलाई मिट्टी तैयार रखती थी. वे अपने हाथपैरों में मल कर सूखे कपड़े से पोंछ लेते तो संवलाया, मटमैला सा शरीर हो जाता और सभी अपनेअपने ठिकानों पर पहुंच जाते.

सत्ते के हाथ में गंदा सा फटा कपड़ा रहता. बड़ा चौराहा था. चौराहे पर जो बच्चों वाली गाड़ी दिखती, उस पर जाना उसे अच्छा लगता. गाड़ी पर कपड़ा फेरता, रिरियाती हुई आवाज निकालता, ‘‘देदे… मां कुछ पैसे… भैयाजी…’’

कोईकोई तो उसे झिड़क भी देता, ‘‘गाड़ी और गंदी कर देगा, भाग…’’ तो वह सारी दीनता चेहरे पर ला कर… गाड़ी में देखता जाता… उत्सुकता रहती कि बच्चे क्या कर रहे हैं, उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं.

ज्यादातर बच्चे मोबाइल फोन पर लगे होते. उस की ओर एक आंख देखते और फिर उन की उंगलियां तेजी से मोबाइल फोन पर चलने लगतीं.

सत्ते का हाथ बारबार माथे को छू कर उन्हें सलाम करता. कभीकभी बच्चों के हाथ में अधखाए चिप्स के पैकेट होते, जिन्हें खाखा कर वे अघाए होते तो उसे पकड़ा देते. कभीकभी बर्गर वगैरह भी मिल जाते, जिन्हें वह झाड़ी के पास बैठ कर खा जाता. श्यामा ताई न देख ले. सनी, जुगल, रुकमा उस के दोस्त थे, वे भी आ जाते.

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श्यामा ताई वहीं पेड़ के नीचे से उन पर निगाह रखती थी. कम से कम 50 गज की दूरी थी, पर वह देख लेती कि किस ने नोट दिया या सिक्के. पांचों लड़कों पर निगाह रखती, ‘‘टांग तोड़ दूंगी. अपाहिज बना कर बिठा दूंगी. कोशिश भी मत करना मुझे धोखा देने की.’’

श्यामा ताई जब चाहती, साहबों की सी बोली बोलने लगती और चाहे जब वह झोंपड़पट्टी की बोली बोलने लगती. उस में चुनचुन कर गालियां होतीं. साथ ही, सत्ते की मरी मां के लिए भी न जाने कितनी बद्दुआएं होतीं कि अपना बोझा उस के सिर छोड़ गई और बदले में उसे पालना पड़ रहा है.

सत्ते को नहीं याद कि वह कब और कैसे श्यामा ताई के पास आया और उस ने अपने को जुगल, नन्हे, सन्नी, रुकमा के साथ पाया. वे सब भी उसी झोंपड़ी में सोते थे.

नन्हे पता नहीं कहां चला गया. श्यामा ताई ने उस का चूल्हे की लकड़ी से हाथ जला दिया था. उस ने समझा, श्यामा ताई देख नहीं रही है और सच

में ताई कुछ देर झोंपड़ी में लेट गई थी, पर उसे पता नहीं था कि वह लेटी जरूर थी, पर बदकिस्मती थी नन्हे की या खुशकिस्मती कि उस ने 5 रुपए वाली स्टिक वाली आइसक्रीम खरीद कर वहीं झाड़ी के पीछे बैठ कर खाई थी. पर श्यामा ताई फटरफटर चप्पल सरकाती आ पहुंची और खींच कर ले गई झोंपड़ी में, ‘‘चमड़ी उधेड़ दूंगी… रोटी कौन खिलाएगा,’’ गुस्से में जलती लकड़ी नन्हे के हाथ पर धर दी, ‘‘काट डालूंगी… अगर आगे से ऐसा किया.’’

बिलबिला कर रहा गया नन्हे. उस की चीख सुन कर जुगल, सनी, रुकमा और सत्ते एकदूसरे से चिपक कर रो रहे थे. जब दोबारा उस की पीठ की ओर लकड़ी उठाई तो चारों श्यामा ताई से चिपक कर रोने लगे थे, ‘ताई नहीं, ताई नहीं, अब नहीं खाएगा.’

पर, दूसरे दिन नन्हे सुबह से ही नहीं दिखा. उस के बाद कभी नहीं दिखा. कभीकभी सत्ते उसे ढूंढ़ता गाडि़यों में झांकता रहता कि शायद कोई साहब या मेमसाहब उसे ले गई हों. वह साहब के बच्चों के साथ हो. कभी तो वह उसे ही साहब बना देखता. सपने तो अपने लिए भी कभीकभी वह देखता था. कभी मोटरसाइकिल का, कभी लंबी गाड़ी में बैठा श्यामा ताई को भीख देता.

रानी काकी पीछे बस्ती में से आती थी. ज्यादातर गोद में बच्चा होता. गंदे कपड़ों से ढके उस बच्चे के लिए वह पैसे मांगती. सत्ते हैरानी से देखता कि रानी काकी की गोद का बच्चा बदलता रहता था. एक दिन तो रुकमा को भी बच्चा दिया. रानी काकी ने बच्चे को ले कर भीख मांगना सिखाया… साहब, मेरा कोई नहीं है. हमारी मैया मर गई है. यह भूखा है. दूध के लिए पैसे चाहिए…’’

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सच में रुकमा को कई बार अपनी अम्मां याद आई. उसे अपने गांवघर की एक झलक याद है. उस के घर के सामने पीपली देवी का मंदिर था, बस इतना याद है. घर में कई लोग थे. बूआ थी, दादी थी, अम्मां लंबा घूंघट निकाले रहती थी. इतना ही याद है. बूआ और दादी के साथ पीपली देवी के मेले में झूला झूलतेझूलते कब वह श्यामा ताई की गोद में पहुंच गई, उसे याद नहीं… ‘अम्मांअम्मां’ चिल्लाती रह जाती. ज्यादा रोती तो श्यामा ताई दवा चटा कर सुला देती.

अब तो कई साल हो गए. उसे बस धुंधली सी याद है.

जिस दिन रुकमा बच्चे को ले कर घूमी, उस दिन उसे काफी पैसे मिल गए, पर साथ ही बड़ी मुश्किल हो गई. पता नहीं, एक बहनजी को रुकमा पर ज्यादा ही दया आ गई, ‘‘चल, नन्हे से बच्चे को कैसे पालेगी. चल, आश्रम में चल. वहां तेरा भी इंतजाम हो जाएगा और बच्चे का भी. बैठ गाड़ी में,’’ कहते हुए बहनजी ने गाड़ी किनारे कर ली.

रुकमा सिटपिटा गई. उस का मन हुआ कि बैठ जाए गाड़ी में. श्यामा ताई से तो अच्छी रहेगी, पर पता नहीं कब रानी काकी आ खड़ी हुई, ‘‘कौन तू? क्यों ले जा रही है छोरी को तू… मैं सब जानती हूं. अनाथ से धंधा कराएगी.’’

कहां बहनजी पुलिस को सूचना दे कर उसे ले जाना चाहती थी, कहां लेने के देने पड़ रहे थे. रानी काकी बहनजी को पुलिस में ले जाने लगी. बहनजी की दयामाया काफूर हो गई. वह चुपचाप गाड़ी में बैठ चली गई.

Serial Story: काले घोड़े की नाल- भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

उस दिन रानी वापस तो आई, पर उस का मन जैसे कहीं छूट सा गया था. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह जा कर चंद्रिका से खूब बातें करे, उस के साथ में जीने का एहसास पहली बार हुआ था उसे.

इस बीच रानी कभीकभी अकेले ही अस्तबल चली जाती. एक दिन उस ने चंद्रिका का एक अलग ही रूप देखा.

‘‘बस, कुछ दिन और बादल… मु?ो बस इस बार के मेले में होने वाली दौड़ का इंतजार है, जिस में मुखिया से मेरा हिसाब बराबर हो जाएगा… मु?ो इस मुखिया ने बहुत सताया है.’’

‘‘यह चंद्रिका आज कैसी बातें कर रहा है? कैसा हिसाब…? और मुखियाजी ने क्या सताया है तुम्हें?’’ एकसाथ कई सवाल सुन कर घबरा गया था चंद्रिका.

‘‘जाने दीजिए… हमें इस बारे में कुछ नहीं कहना है.’’

‘‘नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा… तुम्हें हमारी कसम,’’ चंद्रिका का हाथ पकड़ कर रानी ने अपने सिर पर रखते हुए कहा था. न चाहते हुए भी चंद्रिका को बताना पड़ा कि वह अनाथ था. मुखियाजी ने उसे रहने की जगह और खाने के लिए भोजन दिया. उन्होंने ही चंद्रिका की शादी भी कराई और फिर चंद्रिका को बहाने से शहर भेज दिया और उस के पीछे उस की बीवी की इज्जत लूटने की कोशिश की, पर उस की बीवी स्वाभिमानी थी. उस ने फांसी लगा ली…

बस, तब से चंद्रिका हर 8 साल बाद होने वाले इस मेले का इंतजार कर रहा है, जब वह बग्घी दौड़ में मुखियाजी को बग्घी से गिरा कर मार देगा और इस तरह से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेगा.

रानी को सम?ाते देर न लगी कि ऊपर से चुप रहने वाला चंद्रिका अंदर से कितना भरा हुआ है. वह कुछ न बोल सकी और लौट आई.

रानी के मन में चंद्रिका की मरी हुई पत्नी के लिए श्रद्धा उमड़ रही थी. अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने अपनी जिंदगी ही खत्म कर दी.

इस के जिम्मेदार तो सिर्फ मुखियाजी हैं… तब तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए… पर कैसी सजा…? किस तरह की सजा…? मुखियाजी को कुछ ऐसी चोट दी जाए, जिस का दंश उन्हें जिंदगीभर ?ोलना पड़े… और वे चाह कर भी कुछ न कर सकें… आखिरकार रानी को उस के पति से अलग करने का जुर्म भी तो मुखियाजी ने ही किया है.

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अगली सुबह रानी सीधा अस्तबल पहुंची और चंद्रिका से कुछ बातें कीं, जिन्हें सुन कर चंद्रिका परेशान सा दिखाई दिया था.

वापस आते समय रानी चंद्रिका से काले घोड़े की नाल भी ले आई थी… यह कहते हुए कि देखते हैं कि  तुम्हारे इस अंधविश्वास में कितनी सचाई है और वह काले घोड़े की नाल उस ने मुखियाजी के कमरे के बाहर टांग दी थी.

रात में रानी ने घर का सारा कीमती सामान और नकदी एक बैग में रखी और अस्तबल पहुंच गई. रानी और चंद्रिका दोनों बादल की पीठ पर बैठ कर शहर की ओर जाने वाले थे, तभी चंद्रिका ने पूछा, ‘‘पर, इस तरह तुम को भगा ले जाने से मेरे बदले का क्या संबंध…?’’

‘‘मैं ने अपने पति को एक चिट्ठी लिखी है, जिस में उसे अपनी पत्नी का ध्यान न रख पाने का जिम्मेदार ठहराया है… वह तिलमिलाता हुआ आएगा और मुखियाजी से सवाल करेगा…

‘‘दोनों भाइयों में कलह तो होगी ही, साथ ही साथ पूरे गांव में मुखियाजी की बहू के उन के घोड़ों के नौकर के साथ भाग जाने से उन की आसपास के सात गांव में जो नाक कटेगी, उस का घाव जिंदगीभर रिसता रहेगा… यह होगा हमारा असली बदला,’’ रानी की आंखें चमक रही थीं.

रानी ने उसे यह भी बताया, ‘‘माना कि मुखियाजी को वह मार सकता है, पर भला उस से क्या होगा? एक ?ाटके में वह मुक्त हो जाएगा और फिर उस पर हत्या का इलजाम भी लग सकता है और फिर मुखिया भले ही बहुत बुरा आदमी है, पर मुखियाइन का भला क्या दोष? उस के जिंदा रहने से उस की जिंदगी जुड़ी हुई है और फिर उसे मार कर बेकार पुलिस के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि उसे ऐसी चोट दी जाए, जो जिंदगीभर सालती रहे.

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‘‘और हां… अब तो मानते हो न कि तुम्हारी वह बुरे वक्त से बचाने वाली काले घोड़े की नाल वाली बात एक कोरा अंधविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है… क्योंकि मुखियाजी का बुरा वक्त तो अब शुरू हुआ है, जिसे कोई नालवाल बचा नहीं सकती.’’

रानी की बात सुन कर चंद्रिका के चेहरे पर एक मुसकराहट फैल गई.  उस ने बड़ी जोर से ‘हां’ में सिर को हिलाया और बादल को शहर की ओर दौड़ा दिया.

Serial Story: पति की संतान- भाग 2

सरिता घबरा गई. उस ने प्यार से हरीतिमा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘तुम ने आखिर बेवकूफी कर ही दी. जब यह सब कर रही थी तो सावधानी क्यों नहीं बरती? कितना समय हो गया? अभी जा कर अपने चाहने वाले के साथ मिल कर डाक्टर से अबौर्शन करा लो. बाद में मुसीबत में पड़ जाओगी और तुम्हारे आशिक को बलात्कार के जुर्म में जेल हो जाएगी. इतना तो समझती होगी कि 18 साल से कम उम्र की लड़की से संबंध बनाना बलात्कार कहलाता है?’’

हरीतिमा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा…’’ सरिता ने गुस्से में कहा, ‘‘मैं इस हालत में तुम्हें काम पर नहीं रख सकती. अभी इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से.’’

हरीतिमा रोने लगी. उस ने सरिता के पैर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, गलती हो गई. मुझे माफ कर दीजिए. आप ही कोई रास्ता निकालिए. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

सरिता को गुस्सा तो था लेकिन हरीतिमा की जरूरत भी थी. उस ने अपने परिचित डाक्टर को दिखाया. एक महीने का पेट था. 5,000 रुपए ले कर डाक्टर ने आसानी से पेट गिरा दिया.

सरिता ने फिर डांटा, समझाया और दोबारा ऐसी गलती न करने को कहा.

रात में उसे अपने पास बिठा कर प्यार से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिस के साथ तुम्हारे संबंध बने? चाटपकौड़े की दुकान में मिला वह लड़का?’’

हरीतिमा चुप रही. सरिता समझ गई कि वह बताना नहीं चाहती.

रतनलाल की ठीक होती तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. उन्हें फिर अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों ने हालत गंभीर बताई. जिस कैंसर से वे उबर चुके थे, वही कैंसर उन्हें पूरी तरह अंदर ही अंदर खोखला कर चुका था.

अस्पताल में ही रतनलाल की मौत हो गई. उस दिन सरिता फूटफूट कर रोई और हरीतिमा अकेले में अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करती रही.

पति के अंतिम संस्कार की सारी रस्में निबट चुकी थीं. सरिता की जिंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी थी. बच्चे अपनी पढ़ाई में लग चुके थे. दुख की परतें अब छंटने लगी थीं.

तभी फिर सरिता को हरीतिमा में वे सारे लक्षण दिखे जो एक गर्भवती औरत में दिखाई देते हैं. इस बार हरीतिमा अपने पेट को छिपाने की कोशिश करती नजर आ रही थी.

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सरिता ने उसे गुस्से में थप्पड़ जड़ कर कहा, ‘‘फिर वही पाप…’’ इस बार हरीतिमा ने जवाब दिया, ‘‘पाप नहीं, मेरे प्यार की निशानी है.’’

हरीतिमा का जवाब सुन कर सरिता सन्न रह गई, ‘‘प्यार समझती भी हो? यह प्यार नहीं हवस है, बलात्कार है. चलो, अभी डाक्टर के पास,’’ सरिता ने गुस्से में कहा.

‘‘मैं नहीं गिराऊंगी.’’

‘‘यह कानूनन अपराध है. जेल जाएगा तुम्हारा आशिक.’’

‘‘कुछ भी हो, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? समझती क्यों नहीं हो?’’

‘‘हां, मेरा दिमाग खराब है. प्यार ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है.’’

‘‘बुलाओ इस बच्चे के बाप को.’’

‘‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘क्या… कौन है वह?’’

‘‘मैं उन्हें बदनाम नहीं करना चाहती.’’

‘‘चली जाओ यहां से.’’

हरीतिमा चली गई. सरिता ने एजेंसी वाले को फोन कर दिया.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं सब संभाल लूंगा.’’

सरिता निश्चिंत हो गई. कुछ दिन बीत गए. एक दिन वह घर की साफसफाई करने लगी. पति के कमरे का नंबर आया तो सरिता ने पति के सारे कपड़े, पलंग, बिस्तर सबकुछ दान कर दिया. वह एक अरसे बाद पति के कमरे में गई थी.

कमरा पूरी तरह खाली था. बस, एक पैन और डायरी रखी थी. सरिता ने डायरी के पन्ने पलटे. कुछ जगह हिसाब लिखा हुआ था. कुछ कागजों पर दवा लेने की नियमावली. एक पन्ने पर हरी स्याही से लिखा था हरीतिमा. यह नाम पढ़ कर वह चौंक गई. उस ने अपने कमरे में जा कर हरीतिमा के बाद पढ़ना शुरू किया…

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Serial Story: पति की संतान- भाग 3

‘सरिता, माना कि 15 साल की लड़की से प्यार करना गलत है. उस से संबंध बनाना अपराध है. लेकिन इस अपराध की हिस्सेदार तुम भी हो. मैं बीमार क्या हुआ, तुम ने मुझे मरा ही समझ लिया. अपना कमरा बदल लिया. मेरे कमरे में आना, मुझ से मिलना तक बंद कर दिया.

‘‘मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, तुम ने सोचा कभी? लेकिन तुम तो जिम्मेदारियां निभाने में लगी थीं. मैं तो जैसे अछूत हो चुका था तुम्हारे लिए.

‘सच कहूं तो मैं तुम्हारी बेरुखी देख कर ठीक होना ही नहीं चाहता था. लेकिन मैं ठीक हुआ हरीतिमा की देखभाल से. उस के प्यार से.

‘हां, मैं ने हरीतिमा से तुम्हारी शिकायतें कीं. उस से प्यार के वादे किए. उस के पैर पड़ा कि मेरी जिंदगी में तुम्हीं बहार ला सकती हो. मुझे तुम्हारी जरूरत है हरीतिमा. मैं तुम से प्यार करता हूं.

‘कम उम्र की नाजुक कोमल भावों से भरी लड़की मेरे प्यार में बह गई. उस ने मेरी जिस्मानी और दिमागी जरूरतें पूरी कीं.

‘हां, वह मेरे ही बच्चे की मां बनने वाली है. मैं उस के बच्चे को अपना नाम दूंगा. दुनिया इसे पाप कहे या अपराध, लेकिन वह मेरा प्यार है. मेरी पतझड़ भरी जिंदगी में वह हरियाली बन कर आई थी.

‘इस घर पर जितना तुम्हारा हक है, उतना ही हरीतिमा का भी है. लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मैं बचूंगा नहीं. अचानक से सारे शरीर में पहले की तरह भयंकर दर्द उठने लगा है.

‘मैं तुम से किसी बात के लिए माफी नहीं मांगूंगा. चिंता है तो बस हरीतिमा की. अपने होने वाले बच्चे की. उसे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए. तुम्हारा बंगला, तुम्हारा बैंक बैलैंस नहीं चाहिए. उसे बस सहारा चाहिए, प्यार चाहिए.’

डायरी खत्म हो चुकी थी. सरिता अवाक थी. उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था और खुद पर शर्मिंदगी भी. किस तरह झटक दिया था उस ने अपने पति को. बीमारी, लाचारी की हालत में. हां, वही जिम्मेदार है अपने पति की बेवफाई के लिए. इसे बेवफाई कहें या अकेले टूटे हुए इनसान की जरूरत.

सरिता को उसी एजेंसी से दूसरी लड़की मिल चुकी थी. उस ने पूछा, ‘‘तुम हरीतिमा को जानती हो?’’

‘‘नहीं मैडम, एजेंसी वाले जानते होंगे.’’

सरिता ने एजेंसी में फोन लगा कर बात की.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘क्या बताएं मैडम, किस के प्यार में थी? बच्चा गिराने को भी तैयार नहीं थी. न ही मरते दम तक बच्चे के बाप का नाम बताया.’

‘‘मरते दम तक… मतलब?’’ सरिता ने पूछा.

‘हरीतिमा बच्चे को जन्म देते समय ही मर गई थी.’

‘‘क्या…’’ सरिता चौंक गई ‘‘और बच्चा…’’

‘‘वह अनाथाश्रम में है.’’

सरिता सोचने लगी, ‘एक मैं हूं जिस ने पति के बंगले, कारोबार, बैंक बैलैंस को अपना कर पति को छोड़ दिया बंद कमरे में. बीमार, लाचार पति. बच्चों तक को दूर कर दिया. और एक गरीब हरीतिमा, जिस ने न केवल बीमारी की हालत में पति की देखभाल की, अपना सबकुछ सौंप दिया. यह जानते हुए भी कि उसे कुछ नहीं मिलेगा सिवा बदनामी के.

‘उस ने अपने प्यार की निशानी को जन्म दिया. वह चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी? इस धनदौलत पर उस का भी हक बनता था. वह ले सकती थी लेकिन उस ने सबकुछ छोड़ दिया अपने प्यार की खातिर. उस ने एक बीमार मरते आदमी से प्यार किया और उसे निभाया भी और एक मैं हूं…

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‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं हरीतिमा के प्यार की निशानी, अपने पति के बच्चे को इस घर में ला कर रहूंगी. मैं पत्नी का धर्म तो नहीं निभा सकी, पर उन की संतान के प्रति मां होने की जिम्मेदारी तो निभा ही सकती हूं.’

सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद सरिता बच्चे को घर ले आई.

Serial Story: पति की संतान- भाग 1

हरीतिमा के आने से सरिता की परेशानी बहुत कम हो गई थी, क्योंकि वह घर का सारा काम संभाल लेती थी.

पहले सरिता घर के बहुत से काम निबटा लेती थी. लेकिन जब से पति बीमार हुए थे और बिस्तर पकड़ चुके थे तब से पार्ट टाइम कामवाली बाई से उस का काम नहीं चलता था. उसे परमानैंट नौकरानी की जरूरत थी जो पूरा घर संभाल सके.

सरिता को पति का मैडिकल स्टोर सुबह से रात तक चलाना होता था. दुकान में 3 नौकर थे. सरिता बीच में थोड़ी देर के लिए खाना खाने और फ्रैश होने घर आती थी. सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक उसे मैडिकल स्टोर पर बैठना पड़ता था. काम सारा नौकर ही करते थे लेकिन हिसाब उसे ही देखना पड़ता था.

काफी समय तक सरिता को बहुत समस्या हुई. घर में एक बेटा, एक बेटी थे जो 8वीं और 9वीं क्लास में पढ़ते थे. उन के लिए चाय, नाश्ता, सुबह का टिफिन तैयार कर के स्कूल भेजना और शाम की चाय के बाद भोजन तैयार करना और खिलाना सब हरीतिमा की जिम्मेदारी थी.

बीमार पति को समय पर दवाएं और डाक्टर के बताए मुताबिक भोजन देना… यह सब हरीतिमा के बिना मुमकिन नहीं था.

सरिता जब बहुत परेशान हो गई तब उस ने एजेंसी में जा कर कई बार परमानैंट नौकरानी का इंतजाम करने के लिए कहा.

एक दिन एजेंसी के मालिक ने कहा, ‘‘अभी तो कोई लड़की नहीं है. जल्द ही असम और बिहार से लड़कियां आने वाली हैं. मैं आप को बता दूंगा.’’

सरिता ने एजेंसी वाले से कहा, ‘‘आप ज्यादा कमीशन ले लेना. लड़की को अच्छी तनख्वाह के साथ रहनेखाने की सारी सुविधाएं भी दूंगी लेकिन मुझे उस की सख्त जरूरत है.’’

और जल्द ही एजेंसी वाले का फोन आ गया. एजेंसी से 13 साल की हरीतिमा को लाने के बाद सरिता की सारी मुसीबतों का हल हो गया.

हरीतिमा सुबह से रात तक चकरघिन्नी बनी रहती. पूरे घर का काम करती. घर के हर सदस्य का ध्यान रखती.

हर समय पूरा घर साफसुथरा रहता. हरीतिमा हमेशा काम करती नजर आती. न कोई नखरा, न कोई शिकायत और न कोई छुट्टी.

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13 साल की खूबसूरत, गोरी, नाजुक, मेहनती हरीतिमा बिहार के एक छोटे से गांव की थी. घर की माली हालत खराब थी. मां बीमार थीं. घर में 2 छोटे भाई थे. उस के पिता बचपन में ही गुजर गए थे.

शुक्रवार को जब मैडिकल स्टोर बंद रहता तब सरिता उस से बात करती. उस से पूछती, ‘‘किसी चीज की कोई जरूरत हो तो बेझिझक कहना. खाने में जो पसंद हो, बना कर खा लिया करो.’’

हरीतिमा को पढ़ने का शौक था. सरिता उस के लिए किताबें भी ला देती.

पति रतनलाल के एक के बाद एक 2-3 बड़े आपरेशन हुए थे. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी.

सरिता पति के कमरे में कम ही जाती थी. कमरे से आती दवाओं और गंदगी की बदबू से उसे उबकाई आती थी. पति की ऐसी बुरी दशा देखने का भी उस का मन नहीं करता था.

पति बिस्तर पर लेटे रहते. काफी समय तक तो उन के मलमूत्र का मार्ग बंद कर प्लास्टिक की थैलियां लटका दी गई थीं. उन्हें साफ करने का काम पहले तो एक नर्स करती थी, बाद में रतनलाल खुद करने लगे थे. लेकिन अब हरीतिमा ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया था.

सरिता को लगता था कि उस के पति की जिंदगी एक तरह से खत्म ही हो चुकी है. उन्हें बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही गुजारनी है. ठीक हो भी गए तो पहले जैसे नहीं रहेंगे.

सरिता ने अपना कमरा अलग तैयार कर लिया था. अपनी जरूरतों के हिसाब से सबकुछ अपने कमरे में रख लिया था. बच्चे बड़े हो रहे थे. वह गलती से ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी कि बच्चों की जिंदगी पर उस का बुरा असर पड़े.

सरिता की उम्र 40 साल थी और पति की उम्र 45 साल के आसपास. पिछले एक साल से वह पति की दुकान और घर सब देख रही थी.

आज रतनलाल को प्लास्टिक की थैली निकलवाने जाना था, लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं था.

सरिता को साथ जाना था लेकिन उस ने कह दिया, ‘‘मैं जा कर क्या करूंगी? मुझ से यह सब देखा नहीं जाता. तुम हरीतिमा को साथ ले जाओ. फिर मुझे दुकान भी देखनी है. काम करूंगी तो पैसा आएगा. आप के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं.’’

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तय हुआ कि हरीतिमा ही साथ जाएगी.

रतनलाल अस्पताल से 3 दिन बाद घर वापस आए. उन्हें परहेज के साथ दवाएं समय पर लेनी थीं.

हरीतिमा बोर न हो, इस वजह से सरिता शुक्रवार को उसे बच्चों के साथ बाहर घुमाने ले जाती. बच्चे जो खाते, हरीतिमा को भी खिलाया जाता. चाट, पकौड़े, गोलगप्पे. बच्चे पार्क में खेलते तो हरीतिमा भी साथ में खेलती. बच्चों के लिए कपड़े खरीदने जाते तो हरीतिमा के लिए भी खरीदे जाते.

चाट खाते समय एक लड़के ने हरीतिमा से बात की. सरिता को अच्छा नहीं लगा. लौटते समय सरिता ने उस से पूछा, ‘‘तुम इसे कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे मुल्क का है मैडम.’’

‘‘मुल्क के नहीं राज्य के. मुल्क तो हम सब का एक ही है,’’ सरिता ने हंसते हुए कहा, फिर उसे समझाया, ‘‘देखो हरीतिमा, तुम मेरी बेटी जैसी हो. इस उम्र में लड़कों से दोस्ती ठीक नहीं है. अभी तुम्हारी उम्र महज 15 साल है.’’

अब हरीतिमा को अकसर ऐसी हिदायतें मिलने लगी थीं.

रतनलाल लाठी के सहारे घर में ही टहलने लगे थे. एक बार वे लड़खड़ा कर गिर गए. तब से सरिता ने हरीतिमा को हिदायत दी, ‘‘तुम अंकल को थोड़ा बाहर तक घुमा दिया करो. कहीं और कोई परेशानी न हो जाए.’’

तब से हरीतिमा घर से थोड़ी दूर बने पार्क में उन के साथ जाने लगी. वह पहले जैसी शांत और सहमी हुई नहीं थी. अब वह हंसने, बोलने लगी थी. खुश रहने लगी थी.

लेकिन हरीतिमा के खिलते शरीर और उस में आए बदलावों को देख कर सरिता जरूर चिंता में रहने लगी थी. उसे उस लड़के का चेहरा याद आया तो क्या बाहर जा कर इतनी उम्र में वह सब करने लगी थी हरीतिमा, जो उस की उम्र की लिहाज से गलत था? कहीं पेट में कुछ ठहर गया तो? सरिता ने एजेंसी वाले को सारी बात फोन पर बताई.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘मैडम, यह उस का निजी मामला है. हम और आप इस में क्या कर सकते हैं? वह अपनी नौकरी से बेईमानी नहीं करती. आप के घर की देखभाल ईमानदारी से कर रही है. और आप को क्या चाहिए?’’

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सरिता को लगा कि एजेंसी वाला ठीक ही कह रहा है. फिर हरीतिमा उस की जरूरत बन गई थी. जरूरी नहीं कि दूसरी लड़की इतनी ईमानदार हो, मेहनती हो.

सरिता इस बात को भूलने की कोशिश कर ही रही थी. 2-4 दिन ही गुजरे थे कि सरिता ने हरीतिमा को उलटी करते हुए देख लिया.

Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 4

लेखक-  वीना टहिल्यानी

मौम बिन बताए उस के लिए कितना कुछ कर गई थीं. उसे घर, धनसंपत्ति और सब से ऊपर जौन जैसा प्यारा भाई दे गई थीं.

मौम की अंतिम इच्छा को कार्यरूप देने में जौन ने भी कोई कोरकसर न छोड़ी.

स्कूल का सत्र समाप्त होते ही रोमांच से छलकती मिली हवाई यात्रा कर रही थी. जहाज में बैठी मिली को लग रहा था कि बचपन जैसे बांहें पसारे खड़ा हो. गुजरा, भूला समय किसी चलचित्र की तरह उस की आंखों के सामने चल रहा था.

पिछवाड़े का वह बूढ़ा बरगद जिस की लंबी जटाओं से लटक कर वह हमउम्र बच्चों के साथ झूले झूलती थी, और वेणु मौसी देख लेती तो बस, छड़ी ले कर पीछे ही पड़ जाती. बच्चों में भगदड़ मच जाती. गिरतेपड़ते बच्चे इधरउधर तितरबितर हो जाते पर मौसी का कोसना देर तक जारी रहता.

विमान ने कोलकाता शहर की धरती को छुआ तो मिली का मन आकाश की अनंत ऊंचाइयों में उड़ चला.

बाहर चटकचमकीली धूप पसरी पड़ी थी. विदेशी आंखों को चौंध सी लगी. बाहर निकलने से पहले काले चश्मे चढ़ गए. चौडे़ हैट लग गए. पर मान से भरी मिली यों ही बाहर निकल गई मानो कह रही हो कि अरे, धूप का क्या डर? यह तो मेरी अपनी है.

मिली के मन से एक आह सी निकली, ‘तो आखिर, मैं आ ही गई अपने नगर, अपने शहर.’ जौन ने भारत के बारे में लाख पढ़ रखा था पर जो आंखों से देखा तो चकित रह गया. ज्योंज्यों गंतव्य नजदीक आ रहा था, मिली के दिल की धुकधुकी बढ़ती जा रही थी. कई सवाल मन में उठ रहे थे.

कैसी होंगी फरीदा अम्मां? पहचानेंगी तो जरूर. एकाएक ही सामने पड़ कर चौंका दूं तो? तुरंत न भी पहचाना तो क्या…नाम सुन कर तो सब समझ जाएंगी…मृणाल…मृणालिनी कितना प्यारा लग रहा था आज उसे अपना वह पुराना नाम.

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लोअर सर्कुलर रोड के मोड़ पर, जिस बड़े से फाटक के पास टैक्सी रुकी वह तो मिली के लिए बिलकुल अजनबी था पर ऊपर लगा नामपट ‘भारती बाल आश्रम’ बिलकुल सही.

टैक्सी के रुकते ही वर्दीधारी वाचमैन ने दरवाजा खोला और सामान उठवाया.

अंदर की दुनिया तो मिली के लिए और भी अनजानी थी. कहां वह लाल पत्थर का एकमंजिला भवन, कहां यह आधुनिक चलन की बहुमंजिला इमारत.

सामने ही सफेद बोर्ड पर इमारत का इतिहास लिखा था. साथ ही साथ उस का नक्शा भी बना था. मिली ठहर कर उसे पढ़ने लगी.

सिर्फ 5 वर्ष पहले ही, केवलरामानी नाम के सिंधी उद्योगपति के दान से यह बिल्ंिडग बन कर तैयार हुई थी. मिली भौंचक्क सी रह गई. लाल गलियारे और हरे गवाक्ष, ऊंची छतों वाला शीतल आवास काल के गाल में समा चुका था. मिली अनमनी हो उठी.

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रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने रजिस्टर में उन का नाम पता मिलाया. गेस्ट हाउस में उन की बुकिंग थी. कमरे की चाबी निकाल कर जब लड़की उन का लगेज लिफ्ट में लगवाने लगी तो मिली ने डरतेडरते पूछा, ‘‘क्या मैं पहली मंजिल पर बनी नर्सरी को देखने जा सकती हूं?’’

लड़की ने बहुत शिष्टता से कहा, ‘‘मैम, उस के लिए आप को आफिस से अनुमति लेनी होगी. और आफिस शाम को 5 बजे के बाद ही खुलेगा.’’

‘‘तो आप ऊपर से फरीदा अम्मां को बुलवा दीजिए, प्लीज,’’ मिली ने हिचक के साथ अनुरोध किया.

लड़की ने जब यह कहा कि वह यहां की किसी फरीदा अम्मां को नहीं जानती तो मिली निराश सी हो गई. उस का लटका चेहरा देख कर जौन ने लिफ्ट में उसे टोकते हुए कहा, ‘‘चीयर अप सिस्टर, वी आर इन इंडिया…’’

मिली बेमन से हंस दी.

मिली ने विशेष आग्रह कर के अपने लिए मछली का झोल और भात मंगवाया. पहले उसे यह बंगाली खाना पसंद था पर आज 2 चम्मच से अधिक नहीं खा पाई, जीभ जलने लगी. आंखों में जल भर आया.

मिली की हताशा पर जौन हंस कर बोला, ‘‘चलो, चलो, पानी पियो…मुंह पोंछो… यह लो, मेरे सैंडविच खाओ.’’

जौन की लाख कोशिशों के बाद भी मिली अधीर और उदास ही बनी रही. इतने बदलावों ने उस के मन में इस शंका को भी जन्म दिया कि कहीं अगर फरीदा अम्मां भी…और इस के आगे वह और कुछ नहीं सोच सकी.

मिली के लिए 2 घंटे 2 युगों के बराबर गुजरे. 5 बजे कार्यालय खुला और जैसे ही संचालक महोदय आए मिली सब को पीछे छोड़ती हुई जौन को साथ ले कर उन के पास पहुंच गई.

संचालक, मिलन मुखर्जी आश्रम की बाला को बरसों बाद वापस आया जान खूब खुश हुए और आदरसत्कार कर मिली से इंगलैंड के बारे में, उस के परिवार के बारे में बात करते रहे. मिली ने अधीरता से जब नर्सरी देखने के लिए आज्ञापत्र मांगा तो मुखर्जी महोदय होहो कर हंस दिए और बोले, ‘‘अरे, तुम्हारे लिए कैसा आज्ञापत्र? तुम तो हमारी अपनी हो…यह तो तुम्हारा अपना घर है…चलो…मैं दिखाता हूं तुम्हें नर्सरी.’’

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बड़ा सा हौल. छोटेछोटे पालने. नन्हेमुन्ने बच्चे. कितने सलोने, कितने सुंदर. वह भी तो ऐसे ही पलीबढ़ी है, यह सोचते ही मिली का मन फिर उमड़ने- घुमड़ने लगा.

हौल में बच्चों को पालनेपोसने वाली मौसियां उत्सुकता से मिलीं. वे सब जौन को देखे जा रही थीं. मुखर्जी बाबू ने बड़े अभिमान से मिली का परिचय दिया कि यहीं की बच्ची है मृणालिनी, अब लंदन से अपने भाई के साथ आई है.

हौल में हलचल सी मच गई. खूब मान मिला. मिली के साथसाथ लंबे जौन ने भी सब को बड़ा प्रभावित किया.

मिली बच्चों से मिली. बड़ों से मिली लेकिन उस फरीदा अम्मां से नहीं मिल पाई जिस के लिए समंदर पार कर वह भारत आई थी.

‘‘बाबा, फरीदा अम्मां कहां हैं?’’ उसे याद है बचपन में संचालक को सभी बच्चे बाबा ही कह कर बुलाते थे. आज मुखर्जी बाबू के लिए भी मिली के पास वही संबोधन था.

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