लेखक- वीना टहिल्यानी
मिसेज ब्राउन ने अपने को पूरी तरह से काम में झोंक कर अपनी सेहत को खूब नकारा था. अचानक वह बीमार पड़ीं और डाक्टर को दिखाया तो पता चला कि उन्हें कैंसर है और वह अंतिम स्टेज में है.
मिली ने सुना तो सकते में आ गई. लेकिन मौम बहादुर बनी रहीं. जौन मिलने आया तो उसे भी समझाबुझा कर वापस भेज दिया. उस की पीएच.डी. पूरी होने वाली थी. मां के लिए उस की पढ़ाई का हर्ज हो यह मिसेज ब्राउन को मंजूर न था.
मां के समझाने पर मिली सामान्य बनी रहती और रोज स्कूल जाती. बीमार अवस्था में भी मौम अपना और अपने दोनों बच्चों का भी पूरा खयाल रखतीं. डैड अपनेआप में ही रमे रहते. पीते और देर रात गए घर लौटते थे.
इधर मौम का इलाज चलता रहा. उधर अमेरिका के फ्लोरिडा विश्व- विद्यालय में पढ़ाई पूरी होते ही जौन को नौकरी मिल गई. यह जानने के बाद कि उसे फौरन नौकरी ज्वाइन करनी है, मौम ने उसे घर आने के लिए और अपने से मिलने के लिए साफ और सख्त शब्दों में मना करते हुए कह दिया कि उसे सीधा वहीं से रवाना होना है.
उस दिन बिस्तर में बैठेबैठे ही मौम ने पास बैठी मिली का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच रख लिया फिर धीरे से बहुत प्रयास कर उसे अपने अंक में भर लिया. मिली डर गई कि मौम को अंत की आहट लग रही है. मिली ने भी मौम की क्षीण व दुर्बल काया को अपनी बांहों में भर लिया.
‘‘मर्लिन मेरी बच्ची, मैं तेरे लिए क्याक्या करना चाहती थी लेकिन लगता है सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. लगता है अब मेरे जाने का समय आ गया है.’’
‘‘नहीं, मौम…नहीं, तुम ने सबकुछ किया है…तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो…’’ रुदन को रोक, रुंधे कंठ से मिली बस, इतना भर बोल पाई और अपना सिर मौम के सीने पर रख दिया.’’
कांपते हाथों से मिसेज ब्राउन बेटी का सिर सहलाती रहीं और एकदूसरे से नजरें चुराती दोनों ही अपनेअपने आंसुओं को छिपाती रहीं.
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मिली भाई को बुलाना चाहती तो मौम कहतीं, ‘‘उसे वहीं रहने दे…तू है न मेरे पास, वह आ कर भी क्या कर लेगा. वह कद से लंबा जरूर है पर उस का दिल चूहे जैसा है…अब तो तुझे ही उस का ध्यान रखना होगा, मर्लिन.’’
मौम की हालत बिगड़ती देख अकेली पड़ गई मिली ने एक दिन घबरा कर चुपचाप भाई को फोन लगाया और उसे सबकुछ बता दिया.
आननफानन में जौन आ पहुंचा और फिर देखते ही देखते सबकुछ बीत गया. मौम चुपके से सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गईं.
उस रात मां के चेहरे पर और दिनों सी वेदना न थी. कैसी अलगअलग सी दिख रही थीं. मिली डर गई. वह समझ गई कि मौम को मुक्ति मिल गई है. मिली ने उन को छू कर देखा, वे जा चुकी थीं. मिली समझ ही न पाई कि वह हंसे या रोए. अंतस की इस ऊहापोह ने उसे बिलकुल ही भावशून्य बना दिया. हृदय का हाहाकार कहीं भीतर ही दब कर रह गया.
लोगों का आनाजाना, अंतिम कर्म, चर्च सर्विस, मिली जैसे सबकुछ धुएं की दीवार के पार से देख रही थी. होतेहोते सबकुछ हो गया. फिर धीरेधीरे धुंधलका छंटने लगा. कोहरा भी कटने लगा. मिली की भावनाएं पलटीं तो मां के बिना घर बिलकुल ही सूना लगने लगा था.
कुछ ही दिन के बाद डैड अपनी एक महिला मित्र के साथ कनाडा चले गए. जैसे जो हुआ उन्हें बस, उसी का इंतजार था.
सत्र समाप्ति पर था. मिली नियमित स्कूल जाती और मेहनत से पढ़ाई करती पर एक धुकधुकी थी जो हरदम उस के साथसाथ चलती. अब तो जौन भी चला जाएगा, फिर कैसे रहेगी वह अकेली इस सांयसांय करते सन्नाटे भरे घर में.
मौम क्या गईं अपने साथसाथ उस का सपना भी लेती गईं. सपना अपने देश जा कर अपने शहर कोलकाता देखने का था. सपना अपनी फरीदा अम्मां से मिल आने का था. टूट चुकी थी मिली की आस. अब कोई नहीं करेगा इंडिया जाने की बात. काश, एक बार, सिर्फ एक बार वह अपना देश और कोलकाता देख पाती.
स्कूल का सत्र समाप्त होने पर जौन उसे अपने साथ ले जाने की बात कर रहा था. अब वह कैसे उस से कहे कि मुझे इंडिया ले चलो. देश दिखा लाओ.
मौम के जाने पर ही भाईबहन ने जाना कि वह बिन बोले, बिन कहे कितना कुछ सहेजेसंभाले रहती थीं. अब वह चाहे जितना कुछ करते, कुछ न कुछ काम रह ही जाता.
उस दिन जौन मां के कागज सहेजनेसंभालने में व्यस्त था. बैंक पेपर, वसीयत, रसीदें, टैक्स पेपर तथा और भी न जाने क्या क्या. इतने सारे तामझाम के बीच जौन एकदम से बोल पड़ा, ‘‘मर्लिन, इंडिया चलोगी?’’
मिली हैरान, क्या कहती? ओज के अतिरेक में उस की आवाज ही गुम हो गई और आंखों में आ गया अविश्वास और आश्चर्य.
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‘‘यह देखो मर्लिन, मौम तुम्हारे भारत जाने का इंतजाम कर के गई हैं, पासपोर्ट, टिकट, वीसा और मुझे एक चिट्ठी भी, छुट्टियां शुरू होते ही बहन को इंडिया घुमा लाओ…और यह चिट्ठी तुम्हारे लिए.’’
मिली ने कांपते हाथों से लिफाफा पकड़ा और धड़कते दिल से पत्र पढ़ना शुरू किया:
‘‘प्यारी बेटी, मर्लिन,
कितना कुछ कहना चाहती हूं पर अब जब कलम उठाई है तो भाव जैसे पकड़ में ही नहीं आ रहे. कहां से शुरू करूं और कैसे, कुछ भी समझ नहीं पा रही हूं्. कुछ भावनाएं होती भी हैं बहुत सूक्ष्म, वाणी वर्णन से परे, मात्र मन से महसूस करने के लिए. कैसेकैसे सपनों और अरमानों से तुम्हें बेटी बना कर भारत से लाई थी कि यह करूंगी…वह करूंगी पर कितना कुछ अधूरा ही रह गया… समय जैसे यों ही सरक गया.
कभीकभी परिस्थितियां इनसान को कितना बौना बना देती हैं. मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है. फिर भी हम सोचते हैं, समय से सब ठीक हो जाएगा पर समय भी साथ न दे तो?
मैं तुम्हारी दोषी हूं मर्लिन. तुम्हें तुम्हारी जड़ों से उखाड़ लाई…तुम्हारी उमर देखते हुए साफ समझ रही थी कि तुम्हें बहलाना, अपनाना कठिन होगा पर क्या करती, स्वार्थी मन ने दिमाग की एक न सुनी. दिल तुम्हें देखते ही बोला, तुम मेरी हो सिर्फ मेरी. तब सोचा था तुम्हें तुम्हारे देश ले जाती रहूंगी और उन लोगों से मिलवाती रहूंगी जो तुम्हारे अपने हैं. पर जो चाहा कभी कर न पाई. तुम्हारे 18वें जन्मदिन का यह उपहार है मेरी ओर से. तुम भाई के साथ भारत जाओ और घूम आओ…अपनी जननी जन्मभूमि से मिल आओ. मैं साथ न हो कर भी सदा तुम्हारे साथ चलूंगी. तुम दोनों मेरे ही तो अंश हो. ऐसी संतान भी सौभाग्य से ही मिलती है. जीवन के बाद भी यदि कोई जीवन है तो मेरी कामना यही रहेगी कि मैं बारबार तुम दोनों को ही पाऊं. अगली बार तुम मेरी कोख में ही आना ताकि फिर तुम्हें कहीं से उखाड़ कर लाने की दोषी न रहूं.
तुम पढ़ोलिखो, आगे बढ़ो, यशस्वी बनो, अपने लिए अच्छा साथी चुनो. घरगृहस्थी का आनंद उठाओ, परिवार का उत्सव मनाओ. तुम्हारे सारे सुख अब मैं तुम्हारी आंखों से ही तो देखूंगी. इति…
मंगलकामनाओं के साथ तुम्हारी मौम.’’