Serial Story: अनजानी डगर से मंजिल- भाग 2

लेखक- संदीप पांडे

मद्धम गति से गुजरती जिंदगी एकदम जैसे फास्ट फौरवर्ड हो गई. 3 घंटे बाद वे दोनों लगभग 8 किलोमीटर ऊंचेनीचे रास्तों पर पैदल अवलोकन करते थक के चूर हो चुके थे. उन का मार्गदर्शक सोजी भाई अभी उन को और भी घुमाने के लिए तैयार था पर अब  झाडि़यों व पहाडि़यों से पार पाना उन के बस से बाहर की बात लग रही थी. सोजी उन को पास ही एक  झोंपड़ी में ले गया. फर्श पर पसरी बकरी की मींगडियों और उन के लिए नई सी दुर्गंध के बावजूद वे वहीं लेट गए और लेटते ही  झपकी आ गई.

आधे घंटे गहरी नींद के बाद दोनों लगभग साथ उठे तो देखा सोजी नदारद था.  झोंपड़ी के आसपास तलाशने के बाद अब क्या करें, सोच ही रहे थे कि सोजी हाथ और कंधे पर कुछ लादे चला आता नजर आ गया. पास आ कर सामान उतार पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘आप को भूख लग गई होगी. खाने का सामान ले आया हूं. पहले ठंडा पानी पी लो.’’

अचरज से दोनों ने छक कर पानी पिया. अब वे फिर ताजा दम थे. तब तक सोजी ने पत्थर जोड़ कर चूल्हा बना दिया था और सूखी लकडि़यों को उस में डाल कर सुलगाने की तैयारी में था.

‘‘देशी अंडे की सब्जी और मक्की की रोटी बस थोड़ी देर में तैयार हो जाएगी. आप लोग तब तक सामने सौ कदम दूर बहते  झरने से यह चरी और मश्क भर कर ले आओ,’’ बोरे से चरी निकाल थमाते सोजी ने कहा. दोनों पगडंडी से  झरने तक पहुंच गए. गिरते पानी की मद्धिम आवाज कर्णप्रिय संगीत सी आनंदित कर रही थी. अंजुरी में  झरने का पानी भर कर छपाक से मुंह पर मारते ही जैसे नवस्फूर्ति से मन आलोकित हो गया. अभिजीत इस नए संसार में सबकुछ पुराना भूल बैठा था. पानी भर कर मद्धम गति से वे लौटे तो मिट्टी के उलटे तवे पर मक्की की मोटी रोटी सिंक रही थी.

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‘‘आप लोग जीमने बैठो,’’ सोजी ने  2 पत्तल बिछाते हुए कहा.

प्रबल जठराग्नि ने उन्हें बिना विलंब के बैठने पर मजबूर कर दिया. पत्तल के ऊपर रोटी, रोटी के ऊपर गाढ़ी अंडे की सब्जी. अभिजीत के लिए ऐसा भोजन पहली बार ही परोसा गया था. तब तक कुनाल रोटी को सब्जी में मसल कर खाना शुरू कर चुके थे. देखादेखी उस ने भी शुरू किया. मसाला तेज था पर बेहद स्वाद. वैसे भी भूखे पेट जो खाने को मिल जाए, स्वादिष्ठ ही लगता है. भरपेट भोजन के बाद नीम के पेड़ के नीचे अधलेटे उन्हें फिर गहरी नींद आ गई.

कुनाल ने उसे जब उठाया तब तक वह 2 घंटे और सो चुका था. दोपहर में ऐसी नींद शायद ही पहले कभी आई हो.  झोंपड़ी के सामने सोए सोजी को दोनों ने उठाया. तीनों के पूरी तरह जागृत अवस्था में आने के बाद कुनाल ने प्रस्ताव रखा, ‘‘क्यों न हम इस  झोंपड़ी को ही ठिकाना बना लें. अपने सर्वे एरिया के बीचोंबीच है. खाट बिस्तर की व्यवस्था कर लेते हैं. सोजी, यहां जंगली जानवर तो नहीं आते?’’

‘‘लोमड़ीगीदड तो आ जाते हैं, पर ज्यादा खतरे की बात नहीं है. खाट, गद्दे, रजाई की व्यवस्था हो जाएगी.’’

सहमति से निर्णय हो गया कि यहीं डेरा जमा लिया जाए. अगली सुबह साजोसामान और दलबल सहित आने के साथ यह तय हो गया कि रात ठाकुर साहब के यहां गुजार ली जाएगी. ठाकुर साहब की अनुभवी आंखों ने उन के अंदर संस्कारवान इंसान की पहचान कर ली थी, इसलिए घर में जवां बेटी और भतीजी होने के बावजूद 2 शहरी नवयुवकों के घर में रात्रिविश्राम से उन्हें आपत्ति न थी.

अभिजीत को अगली सुबह जल्दी उठने में कोई परेशानी नहीं हुई. समय पर वह कुनाल के साथ सोजी और गांव से तय किए गए 4 मजदूरों के साथ गंतव्य की ओर चल दिए. वहां पहुंचते ही काम शुरू कर दिया गया. डमपी लैवल सैट करने में ही पसीने छूट गए. जैसेतैसे ग्रिड बना, स्टाफ से रीडिंग लेते गणना की तो सबकुछ गलत ही हो रहा था. पहली बार काम करने में सारा तकनीकी ज्ञान समेटने के बावजूद कहां गलती हो रही है, पकड़ से बाहर थी. कुनाल इस सारे प्रकरण में अपनी राय और सहयोग से बचते नजर आ रहे थे.

सुबह से शाम होने को आई थी, पर कहीं से कुछ भी सही होता नजर नहीं आ रहा था. इस बीच गूंदे के अचार और कच्चे प्याज के साथ रोटी, जो लेबर अपने साथ लाए थे, से क्षुधापूर्ति कर ली थी. थकहार कर आखिर अभिजीत बोला, ‘‘बौस, ऐसे नहीं हो पाएगा, जयपुर चलते हैं. पापा के औफिस में एक ड्राफ्ट्समैन है, उस से पहले ठीक से सीख कर आते हैं,’’ कुनाल के पास हां बोलने के अलावा चारा न था. लावलश्कर वापस गांव लौट आया. सभी उपकरण ठीक से सोजी को संभलवा कर अब दोनों बुद्धू लौट के घर को चल दिए.

पूरे 5 दिनों तक जयपुर के एक खुले मैदान में रीडिंग लेने से मैप की प्लौटिंग तक कार्य को मनोयोग से सीखा गया. और अब वापस कार्यक्षेत्र की ओर लौटते हुए उन के चेहरे पूरी तरह खिले हुए थे.

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3 दिन में ही उन की फील्ड रीडिंग लेने की गति 3 गुना हो चुकी थी. उन को अब काम समय पर पूरा होता नजर आ रहा था. आज सोजी सब के लिए देशी मुरगा पका रहा था. 4 बजे तक सब काम समेट कर खाना खत्म कर चुके थे. अभिजीत को खाने के बाद ही नसों में रक्त का प्रवाह तेज होता प्रतीत होने लगा.

उधर, चारों सहयोगी श्रमिक भी तरंग मस्ती में आ चुके थे. एक ने देशी गीत की ऐसी तान छेड़ी कि अभिजीत ने अपनी कमीज उतार कर नाचना शुरू कर दिया. कुनाल को भी सुरूर ने अपनी आगोश में ले लिया था. उन को एक ही गाना आता था ‘ऐ मेरी जोहरा जबीं…’ जो पूरे गले के जोर से गाने लगे. मस्तीमजाक का माहौल 3 घंटे तक चलता रहा. कबाब के सेवन के बाद जिस को जहां जगह मिली, बेसुध हो कर पड़ गया.

वहां के माहौल में अब अभिजीत को पूरा रस आने लग गया था. काम को और गति देने के लिए 4 लेबर और बुला लिए गए थे. चारों में एक महिला बिदाम का रूप लावण्य से अभिजीत मोहित हुए बिना नहीं रह सका. सांचे में ढला बदन और खिलखिलाता चेहरा सब को अपनी ओर खींच ही लेता था. उसे पानी पिलाने जैसे कम श्रम वाला काम कराने के लिए लगभग सभी एकमत थे. बिदाम को भी इस का भान था, इसलिए पानी पिलाने और हंसीमजाक करते माहौल को खुशनुमा रखने के काम भली प्रकार से करने को भली प्रकार अंजाम दे रही थी.

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 3

लेखक- एम. अशफाक

‘‘जी, मैं यहीं प्लेटफार्म के आखिरी सिरे पर सोया करता था.’’ उस ने कहा, ‘‘यहां हवा भी अच्छी आती है और शोर भी कम होता है. उस रात साहब यहां आए तो मैं ने उन के आराम की खातिर उन्हें यहीं सुला दिया था.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी और बच्चे कहां हैं?’’

उस ने दांत निकाल कर कहा, ‘‘जी, अभी मेरी शादी नहीं हुई है.’’

‘‘उस रात एक माल गाड़ी भी तो आई थी, कितने बजे पहुंची थी यहां?’’

‘‘जी हां,’’ उस ने कहा, ‘‘आई थी, वह यहां 2 बज कर 7 मिनट पर पहुंची थी. यहां लोडिंग का कोई काम नहीं था, इसलिए मैं ने लाइन क्लियर कर सिग्नल दे दिया था.’’

‘‘माल गाड़ी यहां कितने मिनट ठहरी?’’

‘‘यही कोई 3 मिनट.’’

‘‘कोई उतरा भी था?’’

‘‘जी नहीं, माल गाड़ी के जाने के बाद भी मैं बहुत देर तक घूमता रहा, यहां कोई आदमी नहीं था.’’ उस ने आगे बताया कि सुबह जब सूरज निकलने के बाद भी वह अफसर अपने बिस्तर से नहीं उठा तो मैं उस के पास गया, उस का मुंह चादर से ढंका था. मैं ने चादर हटा कर देखी तो उस का सिर फटा हुआ था और खून बह कर जम चुका था.

अब मैं ने सोचना शुरू किया, कहीं उस का दुश्मन जोधपुर से ही तो सवार नहीं हुआ था. ताकि सुनसान इलाके में अपना काम कर सके. मैं ने स्टेशन के पूरे स्टाफ से पूछा कि उस गाड़ी से किसी को उतरते तो नहीं देखा. उन्होंने बताया कि अपने अफसर को देख कर सब लोग उस के पास इकट्ठे हो गए थे. वैसे 2 आदमी और भी उतरे थे, उन के साथ उन की बीवी और बच्चे भी थे, वे यहीं के रहने वाले थे.

मैं ने स्टेशन मास्टर से उस के काम के बारे में भी सवाल किए. मैं सोच रहा था कि यह भी हो सकता था कि वह अफसर स्टेशन मास्टर के विरुद्ध किसी शिकायत की छानबीन करने आया हो और स्टेशन मास्टर ने उस की हत्या करा दी हो. स्टेशन मास्टर ने बताया कि वह तो स्टेशन पर साधारण सी चैकिंग के लिए आया था. उसे खुद भी अपने किसी अफसर से शिकायत नहीं थी. वैसे मृतक बहुत सज्जन पुरुष था.

मुझे पथोरो पहुंचे 3 दिन बीत चुके थे. इस बीच मैं बहुत से लोगों से मिला, आनेजाने वाली गाडि़यों को देखता रहा. हत्या के बारे में सोचता रहा.

चौथे दिन मैं ने टे्रन पकड़ी और जोधपुर पहुंच गया. मुझे लगा कि हत्यारा जोधपुर में है और मृतक का दुश्मन है. मृतक का हेडक्वार्टर भी वहीं था. वहां मैं ने उस के दफ्तर से उस की पर्सनल केस फाइल निकलवाई और उसे पढ़ने लगा. उस के काम की हर अफसर ने तारीफ की. उस के विरुद्ध एक भी शिकायत नहीं मिली. मैं ने स्टेशन मास्टर और एएसएम की फाइलें भी देखीं. उन में भी कोई काम भी बात नहीं मिली. उस के बाद मैं ने मृतक के घर का पता लिया और उस की विधवा से मिलने चला गया.

वह काली साड़ी पहने बैठी थी, आंखें रोरो कर सूज गई थीं. मैं ने उस से पूछा कि क्या उसे अपने पति की हत्या के बारे में किसी पर शक है. किसी ऐसे आदमी पर जिसे वह उस का दुश्मन समझती हो. वह फूटफूट कर रोने लगी और रोतेरोते कहने लगी कि हर आदमी यही पूछता है कि उन की किसी से दुश्मनी तो नहीं थी.

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इस पर वह बोली, ‘‘अगर आप उन से मिले होते तो आप भी यही कहते कि वह बहुत ही सज्जन थे, किसी लड़ाईझगड़े के बारे में वह सोच भी नहीं सकते थे.’’

मैं ने उस से कहा कि मैं आप को दुखी करने नहीं आया, बल्कि मैं आप की मदद करने आया हूं. अगर आप इस संबंध में मुझे कुछ बता देंगी तो मैं हत्यारे को पकड़ कर उसे सजा दिलवा सकूंगा. देखिए कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन का ज्ञान पत्नी के अलावा किसी को नहीं होता. मुझे एक दो मोटीमोटी बातें बता दीजिए. उस ने कहा, ‘‘पूछिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह बताइए आप के पति रात को किस समय सो जाया करते थे?’’

वह बोली, ‘‘हम शाम ढलते ही भोजन कर लेते थे और वह रात 9 बजे तक सो जाया करते थे.’’

‘‘वह किस करवट सोया करते थे?’’

‘‘वह पहले तो बाईं करवट लेटते थे और आधी रात के बाद दाईर्ं करवट ले कर सुबह तक सोते थे.’’

‘‘क्या वह हर रात इसी तरह करवट लिया  करते थे?’’

‘‘हर रात,’’ उस ने जवाब दिया, ‘‘यह उन की आदत थी.’’

इतना पूछ कर मैं पहली ट्रेन पकड़ कर पथोरो वापस आ गया. मैं वहां के वेटिंग रूम में बैठा सोचता रहा. 5 दिन हो गए थे और मैं अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा था. मुझे यह भी सूचना मिल चुकी थी कि कराची  और हैदराबाद में मेरे बारे में खुसरफुसर हो रही थी, कि मैं अपने भाई अकबर शाह को बचाने के लिए तफ्तीश का रुख मोड़ने की कोशिश में लगा हुआ हूं.

लेकिन मैं ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपनी तफ्तीश में लगा रहा. मैं ने एक बार फिर पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकाली और उसे पढ़ने लगा. मैं ने घावों वाले हिस्से को ध्यान से पढ़ा. तेज धारदार हथियार से 3 गहरे घाव… कनपटी के आसपास, हर एक की लंबाई 3 इंच. अर्थात कुल्हाड़ी के गहरे घाव थे, क्योंकि हत्यारे ने सिर के पास खड़े हो कर इत्मीनान से वार किए थे.

पहला ही वार जबरदस्त लगा होगा, क्योंकि मृतक अपनी जगह से हिला तक नहीं. सुबह तक इसी तरह चादर ओढ़े पड़ा रहा और फिर मैं रिपोर्ट के उस वाक्य पर ठिठक गया, तीनों घाव सिर के दाएं हिस्से पर… यानी मृतक बाईं करवट सो रहा था. उसी तरह जिस तरह वह रात के पहले हिस्से में सोता था. दाईं ओर करवट तो वह आधी रात के बाद लेता था. इस से यह साबित हुआ कि हत्या रात के पहले हिस्से में हुई थी. वहां मुझे बताया गया था कि हत्यारा शादीपुर से मालगाड़ी द्वारा रात के 2 बजे पथोरो पहुंचा था.

मैं पोस्टमार्टम रिपोर्ट पढ़ता रहा, आगे चल कर जब मेदे का विवरण आया तो मैं ने एक वाक्य पढ़ कर झटके से पढ़ना बंद कर दिया. उस में लिखा था कि मेदे में बिना हजम हुआ खाना मौजूद था. आगे पढ़ने की जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि अफसर की हत्या का माल गाड़ी के आने से कोई संबंध नहीं था.

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हत्या तो रात के 12 बजे से भी बहुत पहले की गई थी. रात के पहले हिस्से में हत्या वही लोग करते हैं, जिन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी होती है. अकबर शाह और तलजा राम के भेजे हुए हत्यारे को लंबी दूरी तय करनी थी. लेकिन जब इन सूबेदारों ने रात के 9 बजे किसी को हत्या करने के लिए भेजा तो वह हत्यारा 10 बजे तक पहुंचा कैसे?

मैं सुबह सवेरे वेटिंग रूम से निकला तो सामने एएसएम खड़ा मुस्कुरा रहा था. मैं ने उसे साथ लिया और स्टाफ के क्वार्टरों की ओर चल दिया.

‘‘कौन कौन रहता है यहां?’’ मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘यह पहला पानी वाले का है, दूसरा कांटे वाले का.’’

‘‘और यह तीसरा?’’

‘‘यह खाली पड़ा रहता है, इस से अगले में टिकट बाबू रहता है और उस से अगला मेरा है.’’

‘‘लेकिन तुम तो अविवाहित हो, क्वार्टर क्यों लिया हुआ है?’’

उस ने कहा, ‘‘जी यहां तो सब अविवाहित ही रहते हैं,  इस उजाड़ में बीवीबच्चों वाले भी अपनी फैमिली नहीं लाते.’’

‘‘तुम्हारा क्वार्टर तो बहुत अच्छा होगा, चलो देखें.’’

Serial Story: मासूम कातिल- भाग 3

लेखक- गजाला जलील

‘‘रजा साहब बाकायदा मेरा रिश्ता ले कर तुम्हारी अम्मा के पास जाएंगे. तुम्हारी अम्मा को राजी कर लेंगे, पर पहले तुम्हारी मंजूरी जरूरी है.’’

मैं उन के कदमों में झुक गई. उन्होंने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. मेरे तड़पते दिल व प्यासी रूह को जैसे सुकून मिल गया. हम दोनों रोज मिलने लगे पर दुनिया से छिप कर. मैं तो अपने महबूब को पा कर जैसे पागल हो गई थी. सब से बड़ी खुशी की बात यह थी कि उन्होंने अपनी मोहब्बत का इजहार शादी के पैगाम के बाद किया था. वह कहते थे, ‘‘सुहाना, मैं तुम्हें दुनिया की हर खुशी देना चाहता हूं.’’

और मैं कहती, ‘‘बस थोड़ा सा इंतजार मेरे महबूब.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर वह चुप हो जाते.

अब हालात बदल गए थे. मैं औफिस में उन के करीब रहती, हमारे बीच में बहुत से फैसले हो गए थे. मां की आंखों की रोशनी चली गई थी. हमारी मोहब्बत तूफान की तरह बढ़ रही थी. मैं अपनी मां की नसीहत, अपनी मर्यादा भूल कर सारी हदें पार कर गई. औफिस के बाद हम काफी वक्त साथ गुजारते. इमरान साहब ने मुझे कीमती जेवर, महंगे तोहफे और कार देनी चाही, पर मैं ने यह कह कर इनकार कर दिया कि ये सब मैं शादी के बाद कबूल करूंगी.

मैं ने उन पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया. एक गरीब लड़की को ऐसा खूबसूरत और चाहने वाला मर्द मिले तो वह कहां खुद पर काबू रख सकती है. मैं शमा की तरह पिघलती रही, लोकलाज सब भुला बैठी.

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अली रजा साहब उन दिनों छुट्टी पर गए हुए थे. मैं ने इमरान हसन से कहा, ‘‘अब आप अम्मा से मेरे रिश्ते के लिए बात कर लीजिए. आप अम्मा के पास कब जाएंगे?’’

‘‘जब तुम कहोगी, तब चले जाएंगे.’’

‘‘अच्छा, परसों चले जाइएगा.’’

‘‘जानेमन, अभी अली रजा साहब छुट्टी पर हैं. वह आ जाएं, कोई बुजुर्ग भी तो साथ होना चाहिए.’’

मैं खामोश हो गई. अब वही मेरी जिंदगी थे. दिन गुजरते रहे वह अम्मा के पास न गए. अली रजा साहब भी पता नहीं कितनी लंबी छुट्टी पर गए थे. धीरेधीरे इमरान साहब का रवैया मेरे साथ बदलता जा रहा था. अली रजा साहब छुट्टी से वापस आ गए. मैं ने इमरान साहब से कहा, ‘‘आप कुछ उलझेउलझे से नजर आते हैं. क्या बात है?’’

‘‘कुछ बिजनैस की परेशानियां हैं. लाखों का घपला हो गया है. मुझे देखने के लिए बाहर जाना पड़ेगा.’’

‘‘आप अम्मा से मिल लेते तो बेहतर था.’’

‘‘हां, उन से भी मिल लेंगे, पहले ये मसला तो देख लें. लाखों का नुकसान हो गया है.’’

उन का लहजा रूखा और सर्द था. उन्होंने मुझ से कभी इस तरह बात नहीं की थी. मैं परेशान हो गई. रात भर बेचैन रही. मैं ने फैसला कर लिया कि सवेरे अली रजा साहब से कहूंगी कि वह इमरान साहब को ले कर अम्मा के पास मेरे रिश्ते के लिए जाएं. वह मुझे बहुत मानते हैं, वह जरूर ले जाएंगे.

दूसरे दिन मैं इमरान के औफिस में बैठी उन का इंतजार कर रही थी. 12 बजे तक वह नहीं आए, मैं अली रजा साहब के पास गई और उन से पूछा, ‘‘सर, अभी तक बौस नहीं आए?’’

अली रजा साहब बोले, ‘‘वह तो कल रात को फ्लाइट से स्वीडन चले गए.’’

मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह मुझे बिना बताए बाहर चले गए. मुझ से मिले भी नहीं.

‘‘मेरे लिए कुछ कह गए हैं?’’

‘‘हां, इमरान साहब की वापसी का कोई यकीन नहीं है. 7-8 महीने या साल-2 साल भी लग सकते हैं. कारोबार वहीं से चलता है. उन्हें वहां का बिगड़ा हुआ इंतजाम संभालना है. आप अपनी सीट पर वापस आ जाइए.’’ अली रजा साहब ने सपाट लहजे में कहा.

मुझे चक्कर सा आ गया. मैं ने एक हफ्ते की छुट्टी ली और घर आ गई.

कुदरत के भी अजीब खेल हैं. मां की रोशनी इसलिए छिन गई थी ताकि वह मेरी यह हालत न देख सकें. मैं अपने कमरे में पड़ी रहती, रोती रहती. मुझे एक पल का चैन नहीं था. पलपल मर रही थी मैं.

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एक हफ्ते बाद एक उम्मीद ले कर औफिस पहुंची. शायद कोई अच्छी खबर आई हो. मैं ने अली रजा साहब से पूछा, ‘‘इमरान साहब की कोई खबर आई?’’

‘‘हां आई, ठीक हैं. औफिस के बारे में डिसकस करते रहे. क्या तुम्हें उन का इंतजार है?’’

‘‘जी, मैं उन की राह देख रही हूं.’’

‘‘बेकार है, जब वे आएंगे तो तुम्हें भूल चुके होंगे.’’

मेरी आंखों से आंसू बह निकले. उन्होंने दुख से कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता तुम्हें क्या कहूं? तुम जैसी मासूम व बेवकूफ लड़कियां आंखें बंद कर के भेडि़ए के सामने पहुंच जाती हैं. तुम्हारे घर वाले लड़कियों को अक्ल व दुनियादारी की बात क्यों नहीं सिखाते? तुम्हें यह क्यों नहीं समझाया गया, जहां तुम जा रही हो, वे लोग कैसे हैं. उन का स्टाइल क्या है. वहां तुम जैसी लड़कियों की क्या कीमत है. सब जानते हैं, ये अमीरजादे साथ नहीं निभाते, बस कुछ दिन ऐश करते हैं. पर तुम लोग उन्हें जीवनसाथी समझ कर खुद को लुटा देती हो.’’

मैं सिसकने लगी, ‘‘रजा साहब, मैं ने ये सब जानबूझ कर नहीं किया, दिल के हाथों मजबूर थी. उन की झूठी मोहब्बत को सच्चाई समझ बैठी.’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘सुहाना, अगर तुम अपनी इज्जत गंवा चुकी हो तो चुप हो जाओ, चिल्लाने से कुछ हासिल नहीं होगा. वह लौट कर नहीं आएगा, ऐसा वह कई लड़कियों के साथ पहले भी कर चुका है. अब तुम अपने फ्यूचर की फिक्र करो. बाकी सब भूल जाओ.’’

सुहाना अपनी कहानी सुनाते हुए बोली, ‘‘मैं ने सब समझ लिया. वक्त से पहले अपनी बरबादी को स्वीकार कर लिया. मेरे पास सिवा पछताने के और कुछ नहीं बचा था. मैं ने औफिस जाना छोड़ दिया. मां से बहाना कर दिया. उन्होंने ज्यादा पूछताछ की तो झिड़क दिया.’’

वक्त गुजरता रहा. मां चुप सी हो गईं. गुजरबसर जैसेतैसे हो रही थी. चंद माह गुजर गए और फिर पड़ोसियों ने मां से कह दिया. अम्मा ने मुझे टटोल कर देखा और एक दर्दभरी चीख के साथ बेहोश हो कर नीचे गिर गई. सदमा इतना बड़ा था कि वह बरदाश्त न कर सकी और फिर कभी नहीं उठ सकीं.

Serial Story: उल्टी पड़ी चाल- भाग 4

लेखक- एडवोकेट अमजद बेग

‘‘क्या आप की बेटी और फुरकान की लव मैरिज है?’’

‘‘जी हां.’’ उस ने धीरे से कहा.

‘‘क्या आप ने फुरकान के मांबाप को खबर की?’’

‘‘जी हां, उन्हें खबर मिल गई है, पर उन का कहना है कि जब फुरकान ने घर छोड़ा था तभी वह हमारे लिए मर गया था. हमारा उस से कोई ताल्लुक नहीं है.’’ बाद में अली मुराद मुझे फुरकान, असमत और वहीद काजी के बारे में तफसील से बताता रहा. उस का खुलासा यह था.

फुरकान ने यूनिवर्सिटी से कौमर्स में मार्स्ट्स किया था और बैकिंग लाइन जौइन कर ली थी. उस का बाप भी बैंक से रिटायर हुआ था. फुरकान का एक भाई और एक बहन और थे. फुरकान की मुलाकात असमत से अली मुराद के घर पर हुई थी. वह असमत की बड़ी बहन नादिया के साथ पढ़ता था. पहली मुलाकात में ही दोनों के बीच मोहब्बत की नींव पड़ गई थी.

जब यह बात फुरकान के मांबाप को मालूम हुई तो वे बहुत नाराज हुए. फुरकान की मां उस की शादी अपनी भतीजी से करना चाहती थी. काफी दिन तक इस बात पर बहस चलती रही. नतीजा यह निकला कि उस के मांबाप ने उस से कह दिया, ‘‘यह शादी हमारे घर में नहीं होगी. अगर तुम्हें शादी करनी है तो हमारे घर से निकल जाओ.’’

यह सारी बातें फुरकान ने अली मुराद को बताईं. फिर एक प्लान के तहत अली मुराद ने फुरकान को अस्पताल के आईसीयू में भर्ती करवा दिया और मांबाप को इमोशनली ब्लैकमेल कर के यह शादी अंजाम तक पहुंचाई. पर लाख कोशिश के बाद भी वो अपने घर में 3 महीने ही रह सका.

जाते समय उस के बाप ने कहा, ‘‘तुम मेरी औलाद हो पर तुम ने हमारा मान नहीं रखा. याद रखना इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे पर तुम्हारी बीवी के लिए नहीं.’’

इस के बाद मायूस फुरकान बीवी को ले कर अली मुराद के घर पहुंचा और सारा माजरा कह सुनाया. अली मुराद ने कहा, ‘‘अल्लाह ने मुझे 2 बेटियां दी हैं. उन की मां पहले ही मर चुकी है. मैं तन्हा रहता हूं. तुम लोग मेरे साथ रह सकते हो.’’ फुरकान के पास कोई और रास्ता नहीं था. वह वहीं रहने लगा. अली मुराद ने उस पर घर दामाद बनने का दबाव नहीं डाला.

काजी वहीद सिर्फ नाम से काजी था, धंधा वह प्रौपर्टी डीलिंग का करता था. फुरकान ने उसे अपनी जरूरत के बारे में बताया और एक छोटे से फ्लैट की मांग की. काजी ने कहा, ‘‘छोटा फ्लैट तो नहीं है. क्या तुम किसी फैमिली के साथ रह सकते हो? सौ गज के एक घर में आप की ही तरह एक छोटी फैमिली और रहती है. उन के पास एक कमरा खाली है. तुम उन के साथ शेयर कर सकते हो. खर्च कम होगा और तन्हाई भी नहीं रहेगी.’’

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जवाब में फुरकान ने कहा, ‘‘आइडिया तो अच्छा है, पर वो फैमिली किस की है?’’ इस पर काजी वहीद हंसते हुए बोला, ‘‘वो फैमिली हमारी ही है. हम मियांबीवी हैं, हमारे बच्चे नहीं हैं. क्योंकि मेरी बीवी बांझ है.’’

‘‘आप ने दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा?’’

‘‘मेरी बीवी ने तो कई बार कहा पर मेरे दिल ने ऐसा जुल्म करने की इजाजत नहीं दी. अब तो हमारी शादी को 25 साल गुजर चुके हैं.’’

फुरकान काजी की बात से प्रभावित हुआ और वह उस के साथ रहने लगा. काजी की बीवी अकसर बीमार रहती थी, इसलिए बहुत कम खाना पकाती थी. ज्यादातर खाना होटल से आता था. फुरकान और असमत के आने से  उन को भी खाने का आराम हो गया. 3 माह में आपस में इतने घुलमिल गए कि हर कोई उन्हें एक ही फैमिली का मेंबर समझता था.

फिर काजी ने फुरकान से कहा, ‘‘अगले कुछ दिनों में अगर कोई अपना घर बना ले तो बहुत फायदे में रहेगा. फुरकान तुम क्यों नहीं कोशिश करते, बहुत फायदा रहेगा.’’ फुरकान ने बेबसी से कहा, ‘‘काजी साहब, 2-4 लाख मेरे लिए सोचना भी नामुमकिन है.’’

काफी देर बहस के बाद काजी ने कहा, ‘‘अगर तुम 50-60 हजार का बंदोबस्त कर दो तो बाकी मैं मिला दूंगा. मेरी ऊपर की छत पर 2 कमरे बन जाएंगे. फिर तुम ऊपर शिफ्ट हो जाना. बाद में किसी अच्छे वकील की मदद से ऊपर की मंजिल तुम्हारे नाम कर दी जाएगी.’’

फुरकान ने सोचते हुए कहा, ‘‘कमरे के लिए मैं खर्च करूंगा पर छत तो आप की होगी.’’ इस पर काजी ने आंखों में आंसू भर के कहा, ‘‘फुरकान, मैं तुम्हें अपना बेटा समझता हूं और असमत को बेटी. मैं अपने बेटे से छत के पैसे कैसे ले सकता हूं. बस तुम लोग मांबाप की तरह हमारा खयाल रखना. इस के लिए कोई एग्रीमेंट नहीं होगा. बस जुबानी मुहायदा होगा.’’

‘‘पर मैं आप को रकम एक साथ नहीं दे सकता.’’

दरअसल, फुरकान बैंक से लोन लेना चाहता था. पर पहले ही वह बाइक के लिए लोन ले चुका था. जिस की एक किस्त बाकी थी. वह सोच रहा था कि यह किस्त पूरी होने के बाद नया लोन ले कर काजी को दे देगा और फिर ऊपर की मंजिल पर 2 कमरे बन जाएंगे. उस के दिल में भी लालच आ गया था कि एक लाख में उस के सिर पर छत आ जाएगी.

उस ने काजी से कहा, ‘‘मैं 2 महीने में आप को 75 हजार दे सकता हूं.’’ काजी ने सोचते हुए कहा, ‘‘मगर 2 माह के अंदर तो बिल्डिंग मैटेरियल के दाम बहुत ऊपर चढ़ जाएंगे. सरिया, सीमेंट रेत के दाम डबल हो जाएंगे. खैर, चलो तुम्हारे लिए मैं अपनी पहचान के सप्लायर्स से सामान अभी बुक कर लेता हूं. पैसे 2 माह बाद माल उठाने पर देंगे.’’

दोनों के बीच में सारे मामलात जुबानी तय हो गए. क्योंकि फुरकान के दिल में काजी के लिए बाप जैसी मोहब्बत थी. अप्रैल में यह मामला तय हुआ. जून के पहले हफ्ते में फुरकान ने बैंक से एक लाख का कर्जा उठाया. 75 हजार उस ने वहीद काजी को दे दिए, बाकी के 25 हजार घर की मेंटनेंस और लकड़ी के काम पर लगा दिए. इस तरह एक लाख में घर बन गया. जुलाई में वो लोग ऊपर के हिस्से में शिफ्ट हो गए.

मियांबीवी जीजान से काजी और उस की बीवी की खिदमत करते, खाना खिलाते और खुश रहते. 2-3 महीने बड़े आराम से गुजरे. वक्त गुजरता रहा. 8-10 महीने बाद काजी जो फुरकान के लिए एक फरिश्ता था, शैतान के रूप में सामने आ गया. अपनी मक्कारी और चालाकी से पहले उस ने फुरकान को घर से बेदखल किया और फिर अपनी बीवी के कत्ल के इलजाम में फंसा दिया.

रिमांड की मुद्दत पूरी होने के बाद पुलिस ने अदालत में चालान पेश कर दिया. मैं ने फुरकान के वकील की हैसियत से अपना वकालतनामा अदालत में पेश कर दिया. मैं ने अपने मुवक्किल के पक्ष में जमानत की अपील करते हुए कहा, ‘‘जनाब, मेरा मुवक्किल एक शरीफ और सीधा सच्चा इंसान है. वह काजी की मक्कारी को समझ नहीं सका और उस की मीठीमीठी बातों के झांसे में आ गया.

Mother’s Day Special: मोह का बंधन

Mother’s Day Special: मोह का बंधन- भाग 1

लेखक- वनश्री अग्रवाल

वह अपने बेटे सुशांत के पास पहली बार जा रही थीं. 3 महीने पहले ही सुशांत का विवाह अमृता से हुआ था. दोनों बंगलौर में नौकरी करते थे और शादी के बाद से ही मां को बुलाने की रट लगाए हुए थे. एक हफ्ते पहले सुशांत ने अपने प्रोमोशन की खबर देते हुए मां को हवाई टिकट भेजा और कहा कि मां, अब तो आ जाओ. इस पर बीना उस का आग्रह न टाल सकीं. विमान में पहुंचने पर एअर होस्टेस ने सीट तक जाने में बीना की मदद की और सीटबेल्ट लगाने का उन से आग्रह किया. नियत समय पर विमान ने उड़ान भरी तो नीचे का दृश्य बीना को अत्यंत मोहक लग रहा था. छोटेछोटे भवन, कहीं जंगल तो कहीं घुमावदार सड़क और इमारतें…सभी खिलौने जैसे दिख रहे थे. कुछ देर बाद विमान बादलों को चीरता हुआ बहुत ऊपर पहुंच गया.

थोड़ी देर तक तो बीना बाहर देखती रहीं, फिर ऊब कर एक पत्रिका उठा ली और उस के पन्ने पलटने लगीं. तभी उन की नजर एक विज्ञापन पर पड़ी जो उन के ही बैंक की आवासीय ऋण योजना का था. साथ ही उस में छपे एक खुशहाल परिवार का चित्र देख कर उन्हें अपने घरसंसार का खयाल आ गया.

उसे बैंक में नौकरी करते हुए अब 15 साल बीत चुके हैं. परिवार में वह और उस के 3 बेटे हैं और अब तो 2 बहुएं भी आ गई हैं. बड़ा बेटा प्रशांत अमेरिका में कंप्यूटर इंजीनियर है. मंझला सुशांत बंगलौर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है. निशांत सब से छोटा है और लखनऊ में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है.

आज जब वह बच्चों की सफलता के बारे में सोचती हैं तो उन्हें अपने पति आनंद की कमी सहसा महसूस हो उठती है. आज वह जिंदा होते तो कितने खुश होते, अकसर यही खयाल मन में आता है. हृदयाघात ने 12 साल पहले आनंद को उन से छीन लिया था. बैंक की नौकरी, बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारी के बीच पति आनंद की कमी बीना को हमेशा महसूस होती रही पर अब जब बच्चे सक्षम हो कर उन से दूर चले गए हैं तब अकेलेपन का एहसास उन्हें अधिक सालने लगा है.

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कुछ साल पहले तक बीना यही सोच कर आश्वस्त हो जाया करती थीं कि यह स्थिति हमेशा के लिए थोड़े ही रहने वाली है. आफिस के सहकर्मी, नातेरिश्तेदार सभी सलाह देते कि अब तो बेटों की शादियां कर के भरेपूरे परिवार का आनंद उठाएं. इच्छा तो बीना की भी यही होती थी पर उन्हीं लोगों के अनुभवों के कारण उन की सोच बदलने लगी.

आफिस के मेहताजी का उदाहरण बीना को भीतर तक हिला गया था. अपने बेटे की शादी तय होने पर पूरे आफिस में मिठाई बांटते हुए उन्होंने कहा था कि अब वह रिटायरमेंट ले कर गृहस्थी का सुख भोगेंगे. बड़े चाव से उन्होंने सब को शादी का न्योता दिया और महल्ले भर में दिल खोल कर मिठाई बांटी पर महीना बीततेबीतते मेहताजी के चेहरे की चमक जा चुकी थी. पता चला कि अपना मकान उन्होंने उपहारस्वरूप जिस बेटेबहू के नाम कर दिया था, उन्होेंने ही अपने मातापिता को घर से निकालने में ज्यादा समय नहीं लगाया था.

उन की अपनी ननद सरिता की कहानी भी कम दुखदायी नहीं थी. उन के बेटे अमन को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजते समय बीना ने ही अपने बैंक  से ऋण की व्यवस्था करवाई थी. अमन जो एक बार गया तो अपनी बहन अमिता की शादी पर भी न आ सका. अमिता ने अपने गहनों के शौक के आगे मातापिता की तंग आर्थिक स्थिति की बिलकुल परवा न की. बीना ने सरिता जीजी को चेताने की दबी हुई सी कोशिश की थी पर बेटी के मोह के कारण उन्होंने अपनी हैसियत से बढ़ कर शादी में खर्च किया.

2 महीने बाद जीजाजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी. जीजी ने बच्चों को बुलावा भेजा, अमन तो आफिस से छुट्टी नहीं ले पाया और अमिता ने अपने विदेश भ्रमण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जरूरी न समझा. बीमार पिता तो कुछ दिनों में ठीक होने लगे पर जीजी को जो आघात मोह के बंधन के टूटने से लगा, उस से वह कभी उबर न सकीं.

आएदिन रिश्तों में आती कड़वाहट के किस्सों के चलते बीना ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि चाहे जो हो जाए, वह मोह के बंधनों में नहीं बंधेंगी. न होगा बंधन, न रहेगा उस के टूटने का भय और उस के नतीजे में होने वाली वेदना. यद्यपि बीना जानती थीं कि उन के बेटे उन्हें बहुत प्यार करते हैं पर कल किस ने देखा है. एक अनजान भविष्य के अनचाहे डर ने धीरेधीरे उन्हें स्वयं में एक तटस्थ नीरवता लाना सिखला दिया.

पारिवारिक बिखराव का एहसास बीना को पहली बार तब हुआ जब प्रशांत के लिए दिल्ली के एक संभ्रांत परिवार का रिश्ता आया. बीना के मन में नई उमंगें जागने लगीं पर प्रशांत की न्यूयार्क जा कर पढ़ाई करने की जिद के आगे उन्होंने सिर झुका दिया. वह मान तो गईं पर मन में कुछ बुझ सा गया.

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पढ़ाई के बाद प्रशांत ने वहीं की एक फर्म में नौकरी का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया. आफिस में ही उस की मुलाकात जूही से हुई थी और उस ने विवाह करने का मन बना लिया. बीना ने भी स्वीकृति देने में देर नहीं की थी. शादी दिल्ली में हुई पर वीसा की बंदिशों के चलते 2 दिन बाद ही दोनों अमेरिका लौट गए. बीना के सारे अरमान उस के दिल में ही रह गए.

इस के साल भर बाद सुशांत ने एक दिन बताया कि उसे बंगलौर में नौकरी मिल गई है. सुन कर बीना थोड़ी अनमनी तो हुईं पर शीघ्र ही खुद को संयत कर के सुशांत को विदा कर दिया.

दीवाली पर सुशांत घर आया. बातोंबातों में उस ने अमृता का जिक्र किया कि दोनों ने मुंबई में एमबीए की पढ़ाई साथ में की थी और अब शादी करना चाहते हैं. बीना ने सहर्ष हामी भर दी.

Serial Story: स्वप्न साकार हुआ- भाग 2

लेखिका-  साधना श्रीवास्तव

‘डार्लिंग, अभी तो मुझे जाना है. हां, 1 घंटे बाद जब वापस आऊंगा तो उधर से ही सब्जी लेता आऊंगा,’ अरविंद बोले.

‘लेकिन सब्जी तो इसी समय के लिए चाहिए,’ वसुधा बोली, ‘ऐसा कीजिए, बबली को अपने साथ लेते जाइए और सब्जी खरीद कर इसे ही दे दीजिएगा. यह लेती आएगी.’

चाय पीने के बाद अरविंद ने बबली से चलने को कहा तो वह दूसरी तरफ का आगे का दरवाजा खोल कर उन की बगल की सीट पर धम से बैठ गई और जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, अचानक अरविंद के कंधे पर हाथ मार कर बबली बोली, ‘अपन को 1 सिगरेट चाहिए, है क्या?’

अरविंद चौंक से गए. यह कैसी लड़की है? फिर बबली की आवाज कानों में पड़ी, ‘लाओ न बाबूजी, सिगरेट है?’

अरविंद ने गाड़ी रोक दी और उस की तरफ देखते हुए जोर से बोले, ‘बबली, आज तू पागल हो गई है क्या? सिगरेट पीएगी?’

अरविंद की आवाज बबली के कानों में गरम लावे जैसी पड़ी. तंद्रा टूटते ही उसे लगा कि अतीत के दिनों की आदतें उस पर न चाहते हुए भी जबतब हावी हो जाती हैं. अपने को संभालती हुई बबली बोली, ‘अंकल, आज मैं बहुत थकी हुई थी. आप की गाड़ी में हवा लगी तो झपकी आ गई. उसी में पता नहीं कैसेकैसे सपने आने लगे. जैसे कोई सिगरेट पीने को मांग रहा हो. माफ कीजिए अंकल, गलती हो गई.’ हाथ जोड़ कर बबली गिड़गिड़ाई.

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अरविंद को बबली की यह बात सच लगी और वह चुप हो गए. कार आगे बढ़ी. ढेर सारी सब्जियां खरीदवा कर अरविंद ने बबली को घर छोड़ा और अपने काम से चले गए.

अरविंद ने इस घटना का घर पर कोई जिक्र नहीं किया. वह अनुमान भी नहीं लगा सके कि बबली बार बाला है पर उस की कमजोरी को उन्होंने भांप लिया था.

बबली को अपनी इस फूहड़ता पर बड़ी ग्लानि हुई. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतना सावधान रहने पर भी उस से बारबार गलती क्यों हो जाती है. उस ने दृढ़ निश्चय किया कि वह भविष्य में अपने पर नियंत्रण रखेगी ताकि उस का काला अतीत आगे के जीवन में अपनी कालिमा न फैला सके.

बीतते समय के साथ सबकुछ सामान्य हो गया. बबली अपने काम में इस कदर तल्लीन हो गई कि सिगरेट मांगने वाली घटना को भूल ही गई.

एक दिन वसुधा ने बबली को चाबी पकड़ाते हुए कहा, ‘मुझे दोपहर बाद एक सहेली के घर जन्मदिन पार्टी में जाना है, तुम समय से आ कर खाना बना देना. मुझे लौटने में देर हो सकती है. राजन तो आज होस्टल में रुक गया है लेकिन अरविंदजी को समय से खाना खिला देना.’

‘जी, आंटी, लेकिन अगर साहब को आने में देर होगी तो मैं मेज पर उन का खाना लगा कर चली जाऊंगी.’

‘ठीक है, चली जाना.’

शाम को जल्दी आने की जगह बबली कुछ देर से आई तो देखा दरवाजा अंदर से बंद है. उस ने दरवाजे की घंटी बजाई तो अरविंद ने दरवाजा खोला. उसे कुछ संकोच हुआ. फिर भी काम तो करना ही था. सो अंदर सीधे रसोई में जा कर अपने काम में लग गई.

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बरतन व रसोई साफ करने के बाद बबली बैठ कर सब्जी काट रही थी कि अरविंद ने कौफी बनाने के लिए बबली से कहा.

कौफी बना कर बबली उसे देने के लिए उन के कमरे में गई तो देखा, वह पलंग पर लेटे हुए थे और उन्होंने इशारे से कौफी की ट्रे को पलंग की साइड टेबल पर रखने को कहा.

बबली ने अभी कौफी की ट्रे रखी ही थी कि उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर खींच लिया. वह धम से उन के ऊपर गिर पड़ी. उसे अपनी बांहों में भरते हुए अरविंद ने कहा, ‘जानेमन, तुम ने तो कभी मौका नहीं दिया, लेकिन आज यह सुअवसर मेरे हाथ लगा है.’

बबली अपने को उन के बंधन से छुड़ाते हुए बोली, ‘छोडि़ए अंकल, क्या करते हैं?’

लेकिन अरविंद ने उसे छोड़ने की जगह अपनी बांहों में और भी शक्ति के साथ जकड़ लिया. अपने बचने का कोई रास्ता न देख कर बबली ने हिम्मत कर के एक जोरदार तमाचा अरविंद के गाल पर जड़ दिया. अप्रत्याशित रूप से पड़े इस तमाचे से अरविंद बौखला से गए.

‘दो कौड़ी की छोकरी, तेरी यह हिम्मत,’ कहते हुए अरविंद उस पर जानवरों जैसे टूट पड़े थे कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी और उन की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई.

बबली को लगा कि जान में जान आई और भाग कर उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने वसुधा खड़ी थी. उन से बिना कुछ कहे बबली रसोई में खाना बनाने चली गई.

खाना बनाने का काम समाप्त कर बबली जाने के लिए वसुधा से कहने आई. वसुधा ने देखा खानापीना सबकुछ तरीके से मेज पर सज गया था. उस की प्रशंसा करती हुई वसुधा ने कहा, ‘बबली, मुझे तुम्हारा काम बहुत पसंद आता है. मैं जल्दी ही तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी.’

इतने समय में बबली ने निश्चय कर लिया कि अब वह इस घर में काम नहीं करेगी. अत: दुखी स्वर में बोली, ‘आंटी, इतने दिनों तक आप के साथ रह कर मैं ने बहुत कुछ सीखा है लेकिन कल से मैं आप के घर में काम नहीं करूंगी. मुझे क्षमा कीजिएगा…मेरा भी कोई आत्म- सम्मान है जिसे खो कर मुझे कहीं भी काम करना मंजूर नहीं है.’

‘अरे, यह तुझे क्या हो गया? मैं ने तो कभी भी तुझे कुछ कहा नहीं,’ वसुधा ने जानना चाहा.

‘आप ने तो कभी कुछ नहीं कहा आंटी, पर मैं…’ रुक गई बबली.

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अब वसुधा का माथा ठनका. वह सीधे अरविंद के कमरे में पहुंचीं और बोलीं, ‘आज आप ने बबली को क्या कह दिया कि वह काम छोड़ कर जाने को तैयार है?’

अरविंद ने अपनी सफाई देते हुए कहा, ‘हां, थोड़ा डांट दिया था. कौफी पलंग पर गिरा दी थी. लेकिन कह दो, अब कभी कुछ नहीं कहूंगा.’

पति की बात को सच मान कर वसुधा ने बबली को बहुतेरा समझाया लेकिन वह काम करने को तैयार नहीं हुई.

Mother’s Day Special: मां का फैसला- भाग 1

रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

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कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

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मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए.

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 4

लेखक- एम. अशफाक

अंदर से क्वार्टर देखा, बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. रसोई तो और भी ज्यादा अच्छी तरह सजी हुई थी. मर्द कितना ही सफाई वाला हो, लेकिन इस तरह रसोई और घर नहीं सजा सकता. एएसएम तो वैसे भी अविवाहित था, मेरी छठी इंद्री जाग गई.

‘‘तुम्हारा खाना कौन पकाता है?’’

‘‘जी, वह पानी वाला पका देता है.’’

मैं ने उस का जवाब एक पुलिस वाले की नजर से उस के चेहरे की ओर देखते हुए सुना. मैं ने देखा उस के चेहरे का रंग बदल रहा था. मैं ने उस से पूछा, ‘‘इस उजाड़ में तुम्हारा दिल कैसे लगता है?’’

वह बोला, ‘‘बस जी, कोई किताब पढ़ लेता हूं या फिर घूमने निकल जाता हूं.’’

बातें करतेकरते हम घर से बाहर निकले तो क्वार्टर के सामने कुछ झोपडि़यां दिखाई दीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘ये किस की झोपडि़यां हैं?’’

‘‘जी, वे भीलों के झोपडे़ हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘चलो, चल कर देखते हैं.’’

वहां गए तो झोपडि़यों के पास कुछ बकरियां बंधी थीं. हमें देख कर कुत्ते भौंकने लगे. उन की आवाज सुन कर झोपडि़यों से औरतें निकल आईं और हमारी ओर देखने लगीं.

मैं ने झोपडि़यों का चक्कर लगा कर देखा तो वहां औरतें ही नजर आईं, मर्द कोई नहीं था. मैं ने उन औरतों से उन के मर्दों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे थरपारकर (रेगिस्तान की एक जगह) में खेतों पर काम करने जाते हैं.’’

‘‘तुम्हारे मर्द खेतों पर रहते हैं और तुम?’’ सवाल सुन कर एक औरत बोली, ‘‘वे वहां और हम यहां.’’

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘बकरियों का दूध निकाल कर रेलवे वालों को बेचते हैं.’’ एक औरत ने एएसएम को देख कर कहा, ‘‘ये बाबू तो यहां भी दूध लेने आ जाते हैं.’’

मैं ने उसी औरत से कहा, ‘‘तुम्हारा आदमी कहां है?’’

उस ने कहा, ‘‘बताया था ना थरपारकर में काम करता है.’’

‘‘वह यहां कब आता है?’’

‘‘1-2 महीने बाद आता है.’’

‘‘उसे आए हुए कितने दिन हो गए?’’

‘‘एक महीने से तो उस ने सूरत भी नहीं दिखाई.’’ वह मुसकरा कर बोली.

‘‘तुम्हारे आदमी का क्या नाम है?’’

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वह कुछ लजा गई, दूसरी औरत ने बताया, ‘‘शिवाराम नाम है.’’

मैं ने एएसएम का बाजू पकड़ा और उसे स्टेशन पर ले आया. एएसएम का उजाड़ इलाके में क्वार्टर, भीलों की जवान लड़की, वह दूध लेने उन के घर जाता था. निस्संदेह वह कोई फरिश्ता नहीं था. उस समय सुबह 7 बजे थे. मैं ने वहां के थाने से पुलिस इंसपेक्टर को बुलवाया और उस से ऊंटों का इंतजाम करने के लिए कहा. उस ने तुरंत ऊंट बुलवा लिए.

मैं पुलिस इंसपेक्टर और 2 सिपाहियों को ले कर थर पार कर के खेतीबाड़ी वाले इलाके में 20 मील लंबा सफर कर के पहुंच गया. शाम का समय था, कुछ लोग अब भी खेतों पर काम कर रहे थे. ऊंट रुकवा कर मैं उन लोगों की ओर गया. पुलिस की वरदी में देख कर वे सब खड़े हो गए.

मैं ने जाते ही सख्ती से पूछा, ‘‘तुम में शिवा कौन है?’’

वे सब डर गए थे, फिर धीरेधीरे एक आदमी हमारी ओर आया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम हो शिवा?’’

‘‘हां, मेरा ही नाम शिवा है.’’ उस की आवाज में जरा भी घबराहट नहीं थी.

‘‘तुम ने हत्या की है. मैं तुम्हें गिरफ्तार करने आया हूं. वह कुल्हाड़ी कहां है, जिस से तुम ने हत्या की है?’’

वह जवाब देने के बजाए एक ओर मुंह घुमा कर देख रहा था, वहां एक झोंपड़ी थी. मेरा हमला उस पर इतना सख्त और जल्दबाजी वाला था कि वह संभल नहीं सका. सूबेदार को अपने एरिए का राजा समझने वाला भील अपने बचाव के बारे में सोच भी नहीं सका.

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शिवा मेरे साथ झोपड़ी में गया और वहां से एक कुल्हाड़ी और खून में सने अपने कपड़े जमीन से खोद कर मेरे हवाले कर दिए. वह बिलकुल शांत था, उस के चेहरे से घमंड साफ दिखाई दे रहा था. वह यही समझ रहा था कि उस ने एक व्यभिचारी एएसएम को अपनी पत्नी को बिगाड़ने का बदला ले लिया है.

लेकिन जिस रात वह एएसएम की हत्या करने के लिए कुल्हाड़ी ले कर उस जगह गया था, जहां एएसएम सोया करता था, वहां वह अफसर सोया हुआ था, जो निरीक्षण के लिए आया हुआ था.

हत्यारे ने अंधेरे में अपने शिकार को पहचाना नहीं, उसे यह पता था कि यहां हर रात वही बाबू सोता था, जिस के क्वार्टर में उस की जवान पत्नी दूध देने जाती थी.

उस के  ऊपर हत्या का भूत सवार था. हत्या करने के बाद उसे 20 मील दूर भी जाना था. उसे जब आजीवन कारावास की सजा हुई तो उसे इस का दुख नहीं था, दुख तो उस की पत्नी के प्रेमी के बच जाने का था.

प्रस्तुति : एस.एम. खान

Serial Story: मासूम कातिल- भाग 4

लेखक- गजाला जलील

पेट में पलती औलाद ने मुझे खुदकशी करने न दी. फिर मेरी बदनसीब बेटी अदीना पैदा हो गई. मेरे जिस्म का एक टुकड़ा मेरी गोद में था. मैं ने अपना घर बेच दिया, एक गुमनाम मोहल्ले में एक कमरा खरीद कर रहने लगी. मैं ने अपनी पुरानी सब बातें भुला दीं. मकान से अच्छी रकम मिली थी. फिर मैं थोड़ाबहुत सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.

हम मांबेटी की अच्छी गुजर होने लगी. मैं ने अपनी बेटी की बहुत अच्छी परवरिश की. उसे दुनिया की हर ऊंचनीच समझाई. उस से वादा लिया कि वह मुझ से कोई बात नहीं छिपाएगी. अदीना बेइंतहा हसीन निकली. मैं ने उसे अच्छी तालीम दिलाई. वह बीएससी कर रही थी. एक दिन वह मुझ से कहने लगी, ‘‘मम्मी, मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘कहो.’’

‘‘मैं नौकरी करना चाहती हूं. मेरे एग्जाम भी पूरे हो गए हैं. रिजल्ट भी जल्द आएगा.’’

‘‘नहीं बेटी, नौकरी ढूंढना और करना बड़ा कठिन है.’’

‘‘मम्मी, मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.’’

‘‘कहां मिल गई नौकरी तुम्हें?’’

‘‘एक प्राइवेट फर्म है. फर्म के मालिक ने मुझे खुद नौकरी का औफर दिया है. मेरी इमरान साहब से कालेज के फंक्शन में मुलाकात हुई थी. वह चीफ गेस्ट थे. इतने नेक और सादा मिजाज आदमी हैं कि देख कर आप दंग रह जाएंगी.’’

‘‘कौन?’’ मुझे जैसे बिच्छू ने डंक मारा.

‘‘इमरान हसन साहब. बड़े हमदर्द इंसान हैं.’’ अदीना उन के बारे में पता नहीं क्याक्या बोलती रही. मुझे लगा, मेरे चारों तरफ जहन्नुम की आग दहक रही हो. फिर मैं ने खुद पर काबू पाया और कुछ सोच कर अदीना को नौकरी की इजाजत दे दी.

वह मेरी हां सुन कर खुशी से खिल उठी. साथ ही मैं ने एक काम किया. चुपचाप उस का पीछा करना शुरू कर दिया. मैं ने इमरान हसन को देखा, वह उतना ही खूबसूरत और डैशिंग था.

उम्र की अमीरी ने उसे और ग्रेसफुल बना दिया था. मैं उस के एकएक रूप एकएक चाल से वाकिफ थी. फिर मैं ने अदीना को अपनी गमभरी दास्तान सुनाई. वह कांप उठी, उस ने चीख कर पूछा, ‘‘ममा, कौन था वह कमीना बेदर्द इंसान?’’

‘‘मैं खुद उस बेगैरत की तलाश में हूं.’’

‘‘काश! वह मिल जाए.’’ अदीना ने गुर्राते हुए कहा तो मैं ने पूछा, ‘‘क्या करेगी तू उस का?’’

‘‘खुदा की कसम है मम्मी, मैं उसे जान से मार डालूंगी. ऐसा हाल करूंगी कि दुनिया देखेगी.’’

मुझे सुकून मिल गया, मैं ने अदीना की परवरिश इसी तरह की थी. ऐसा ही बनाया था उसे. मेरी निगरानी जारी थी. मैं चुपचाप उस का पीछा करती रही. उस दिन भी मैं अदीना से ज्यादा दूर नहीं थी, जब वह अदीना को अपनी शानदार कार में कहीं ले जा रहा था. वह अदीना को अपने घर ले गया. मैं भी छिप कर अंदर आ गई और दरवाजे के पीछे खड़ी हो गई.

मैं सारे रास्तों से वाकिफ थी. घर सुनसान पड़ा था. हलका अंधेरा था. मेरे कानों में इमरान हसन की नशीली आवाज पड़ी, ‘‘अदीना, तुम मेरी जिंदगी में बहार बन कर आई हो. मैं ने सारी जिंदगी तुम जैसी हसीना की तलाश में तनहा गुजार दी.’’

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‘‘सर, ये आप क्या कह रहे हैं. मैं तो आप पर बहुत ऐतमाद करती थी. आप पर बहुत भरोसा है मुझे.’’

‘‘हां ठीक है, पर मोहब्बत तो उफनती नदी है. उस पर रोक नहीं लगाई जा सकती. तुम्हारी चाहत मेरी रगरग में समा गई है. मेरी जान, मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘सर, ये आप गलत कर रहे हैं. आप मुझे यहां यह कह कर लाए थे कि कुछ लेटर्स भेजने हैं.’’

‘‘ये मेरा घर है और तुम अपनी मरजी से मेरे घर आई हो. अब यहां जो कुछ होगा, उस में तुम्हारी रजा भी समझी जाएगी. इस में मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर तुम बदनाम हो जाओगी. लोग कहेंगे तुम मेरे सूने घर में क्यों आई थीं?’’

‘‘सर, आप मुझे काम के बहाने लाए थे.’’

‘‘कौन सुनेगा, तुम्हारी बकवास.’’ वह हंस कर आगे बढ़ा. उसी वक्त मैं अंदर दाखिल हो गई. मैं ने कहा, ‘‘अदीना, यही है वह आदमी जिस की कहानी मैं ने तुम्हें सुनाई थी. यही है वह वहशी दरिंदा, जिस ने मेरी इज्जत लूटी थी.’’

इमरान मुझे देख कर हैरान रह गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘इमरान, ये तेरी बेटी है. तेरा गुनाह है.’’

फिर हम दोनों मसरूफ हो गए. अदीना ने अपना वादा निभाया. उसे कोने में रखा डंडा मिल गया. हम ने अपना इंतकाम लिया. इज्जत के लुटेरे उस शैतान को हम ने खत्म कर दिया. हम ने बहुत बड़ा नेक काम किया है और कई लड़कियों की इज्जत बचाई है. भले ही आप हमें सजा दीजिए, हमें मंजूर है. सुहाना चुप हो गई.

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यह मेरी जिंदगी का सब से संगीन केस था. मैं बड़ी उलझन में था. अदालत में मैं सरकारी वकील की हैसियत से खड़ा था. मुझे इन मांबेटी पर संगीन जुर्म साबित करना था. उन के खिलाफ बोलना था, पर मेरा जमीर इस बात पर राजी नहीं था. मेरा दिल कहता था कि मैं यह मुकदमा हार जाऊं.

मुझे नहीं मालूम मैं ये मुकदमा ठीक से लड़ पाऊंगा या नहीं. मेरी जबान जैसे गूंगी हो गई थी. मैं अपनी बात कह नहीं पा रहा था. जुबान लड़खड़ा रही थी. और सचमुच मैं यह मुकदमा हार गया. मांबेटी सजा से बच गईं. मैं सही था या नहीं, कह नहीं सकता. आप खुद फैसला कीजिए.

(प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन)

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