काश, तुम भाभी होती

पुनीत पटना इंजीनियरिंग कालेज में प्रीफाइनल ईयर में पढ़ रहा था. उस का भाई प्रेम इंजीनियरिंग कर 2 साल पहले अमेरिका नौकरी करने गया था. उस के पिता सरकारी नौकरी में थे. वह साइकिल से ही कालेज जाया करता था. एक दिन जाड़े के मौसम में वह कालेज जा रहा था. उस दिन उस का एग्जाम था. अचानक उस की साइकिल की चेन टूट गई. ठंड में इतनी सुबह कोई साइकिल रिपेयर की दुकान भी नहीं खुली थी और न ही कोई अन्य सवारी जल्दी मिलने की उम्मीद थी. उस के पास समय  भी बहुत कम बचा था. कालेज अभी  3 किलोमीटर दूर था. वह परेशान रोड पर खड़ा था. तभी एक लड़की स्कूटी से आई और बोली, ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

पुनीत ने अपनी परेशानी का कारण बताया. लड़की स्कूटी पर बैठ गई और पुनीत से बोली ‘‘आप साइकिल पर बैठ जाएं और मेरे कंधे को पकड़ लें. बिना पैडल किए मेरे साथ कुछ दूर चलें. मेरा कालेज आधा किलोमीटर पर है. उस के बाद मैं आप को इंजीनियरिंग कालेज तक छोड़ दूंगी.’’

थोड़ी दूर पर मगध महिला कालेज के गेट पर उस ने दरबान को साइकिल रिपेयर करवाने के लिए बोल कर पुनीत से कहा, ‘‘आप मेरी स्कूटी पर बैठ जाएं, मैं आप को ड्रौप कर देती हूं. कालेज से लौटते वक्त अपनी साइकिल दरबान से ले लेना. हां, उसे रिपेयर के पैसे देना न भूलना.’’

उस लड़की ने पुनीत को कालेज ड्रौप कर दिया. पुनीत ने कहा ‘‘थैंक्स, मिस… क्या नाम…?’’

लड़की बिना कुछ बोले चली गई. कुछ दिनों बाद पुनीत कालेज से लौटते समय सोडा फाउंटेशन रैस्टोरैंट में एक किनारे टेबल पर बैठा था. पुनीत लौन में जिस टेबल पर बैठा था उस पर सिर्फ 2 कुरसियां ही थीं. दूसरी कुरसी खाली थी. बाकी सारी टेबलें भरी थीं.

वह अपना सिर झुकाए कौफी सिप कर रहा था कि एक लड़की की आवाज उस के कानों में पहुंची, ‘‘मे आई सिट हियर?’’ उस ने सिर उठा कर लड़की को देखा तो वह स्कूटी वाली लड़की थी. उस ने कहा, ‘‘श्योर, बैठो… सौरी बैठिए. इट्स माय प्लेजर. उस दिन आप का नाम नहीं पूछ सका था.’’

वह बोली, ‘‘मैं वनिता और फाइनल ईयर एमए में हूं.’’

‘‘और मैं पुनीत, थर्ड ईयर बीटेक में हूं.’’

दोनों में कुछ फौर्मल बातें हुईं. पुनीत बोला, ‘‘मैं रीजेंट में इवनिंग शो देखने जा रहा था. अभी शो शुरू होने में थोड़ा टाइम बाकी था, तो इधर आ गया.’’

वनिता ने अपना बिल पे किया और वह बाय कह कर चली गई. पुनीत ने वनिता का बिल पे करना चाहा था पर उस ने मना कर दिया.

इधर पुनीत के भाई प्रेम की शादी उस के पिता ने एक लड़की से तय कर रखी थी. बस, प्रेम की हां की देरी थी. उन्होंने लड़की की विधवा मां को वचन भी दे रखा था. पर प्रेम अमेरिका में पटना की ही किसी पिछड़ी जाति की लड़की से प्यार कर रहा था बल्कि कुछ दिनों से साथ रह भी रहा था. उस लड़की से अपनी शादी की इच्छा जताते हुए प्रेम ने मातापिता से अनुरोध किया था.

प्रेम के मातापिता दोनों बहुत पुराने विचारों के थे और खासकर पिता बहुत जिद्दी व कड़े स्वभाव के थे. उन्होंने दोनों बेटों को साफसाफ बोल रखा था कि वे बेटों की शादी अपनी मरजी से अच्छी स्वजातीय लड़की से ही करेंगे. उन्होंने प्रेम को भी बता दिया था कि यह रिश्ता मानना ही होगा वरना मातापिता के श्राद्ध के बाद जो करना हो करे.

मातापिता के दबाव में प्रेम ने टालने की नीयत से उन से कहा कि वे पुनीत को लड़की देखने को भेज दें, उसे पसंद आए तो सोच कर बताऊंगा. इधर प्रेम ने पुनीत को सचाई बता दी थी.

पुनीत की मां ने उस से कहा, ‘‘जा बेटे, अपने भैया की दुलहनिया देख कर आओ.’’

पुनीत मातापिता के बताए पते पर होने वाली भाभी को देखने गया. पुनीत ने उसे महल्ले में पहुंचने पर घर की सही लोकेशन पूछने के लिए दिए गए नंबर पर फोन किया. फोन एक लड़की ने उठाया और निर्देश देते हुए कहा, ‘‘मैं बालकनी में खड़ी रहूंगी, आप बाईं तरफ सीधे आगे आएं.’’

वनिता ने उस लड़की से परिचय कराते हुए कहा, यह मेरी सहेली कुमुद…

पुनीत उस पते पर पहुंचा तो बालकनी में वनिता को देख कर चकित हुआ. वनिता ने उसे अंदर आने को कहा. वहां 2 प्रौढ़ महिलाओं के साथ वनिता एक और लड़की के साथ बैठी हुई थी. वनिता ने उस लड़की से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘यह मेरी सहेली कुमुद, यह उस की मां और उस किनारे में मेरी मां.’’ दोनों की माताएं उन लोगों को बातें करने के लिए बोल कर चली गईं.

वनिता पुनीत से बोली, ‘‘कुमुद मैट्रिक तक मेरे ही स्कूल में पढ़ी है. मुझ से एक साल सीनियर थी. हमारे पड़ोस में ही रहती थी. इस के पिता अब नहीं रहे. इस की मां कुमुद की शादी को ले कर काफी चिंतित हैं.’’

पुनीत बोला ‘‘क्यों?’’

‘‘कुमुद ही आप के भाई की गर्लफ्रैंड है. कुछ महीनों से अमेरिका में वे साथ ही रह रहे हैं. दोनों में फिजिकल रिलेशनशिप भी चल रहा है. वैसे, आप के मातापिता मुझ से रिश्ता करना चाहते हैं. पर मैं कुमुद की जिंदगी से खिलवाड़ नहीं करूंगी. कुमुद को मैं अपनी बहन समझती हूं. मैं प्रेम और कुमुद के बीच रोड़ा नहीं बन सकती हूं. आप अपने पेरैंट्स को समझाएं कि अपनी जिद छोड़ दें वरना प्रेम, कुमुद और मेरी तीनों की जिंदगी तबाह हो जाएगी.’’

पुनीत कुछ पल खामोश था. फिर बोला, ‘‘मैं किसी को दुखी नहीं देखना चाहता हूं. घर जा कर बात करता हूं. डोंट वरी. मुझ से जो बन पड़ेगा, अवश्य करूंगा. मैं आप को फोन करूंगा.’’

पुनीत के जाने के बाद कुमुद ने वनिता से कहा, ‘‘तुम्हें अगर प्रेम पसंद है तो तुम्हारे लिए मैं प्रेम से रिलेशन ब्रेक कर सकती हूं.’’

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. मां मेरे लिए जरूरत से ज्यादा चिंतित है. वैसे भी, प्रेम तुम्हारे अलावा किसी और के साथ रिलेशन में होता तो भी मेरे लिए उस से शादी की बात सोचना भी असंभव थी.’’

‘‘मैं एक बात कहूं?’’

‘‘हां, श्योर.’’

‘‘पुनीत बहुत अच्छा लड़का है. अगर तेरा किसी और से चक्कर नहीं चल रहा है तो तू उस से शादी कर ले.’’

‘‘क्या बात करती हो? मैं मास्टर्स कर रही हूं और वह तो अभी बीटैक थर्ड ईयर में है.’’

‘‘पगली, तुम्हें पता नहीं है कि उस का कैंपस सलैक्शन भी हो गया है. और प्रेम बोल रहा था कि पुनीत सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा है. कंपीट कर गया तो समझ तेरी लौटरी लग जाएगी, नहीं तो इंजीनियर है ही.’’

‘‘फिर भी, तुम क्या समझती हो मैं जा कर उसे प्रपोज करूं?’’

‘‘नहीं, मैं अभी प्रेम की मां को फोन पर इस प्रपोजल के लिए बोल देती हूं. घर आ कर पुनीत ने मातापिता को विस्तार से समझाया. उस ने कहा, ‘‘भैया चाहते तो अमेरिका में ही कोर्ट मैरिज कर लेते, तो उस स्थिति में आप क्या कर लेते. भैया ने आप का सम्मान करते हुए आप से अनुमति मांगी है. मैं ने उस लड़की को देखा है, कुमुद नाम है उस का. काफी अच्छी लड़की है. वह भी आई हुई है. आजकल वयस्क जोड़ों को जातपांत और धर्म शादी करने से नहीं रोक सकते. आप 3 लोगों की खुशियां क्यों छीनना चाहते हैं?’’

मां ने कहा, ‘‘तुम मुझे कुमुद से मिलवाओ, फिर मैं पापा को समझाने की कोशिश करूंगी.’’

‘‘वह तो कल सुबह मुंबई की फ्लाइट से जा रही है. वहीं से अमेरिका चली जाएगी.’’

फिर पुनीत और मां दोनों जा कर कुमुद से मिले. मांबेटे दोनों ने मिल कर पिताजी को काफी समझाया. तब उन्होंने कहा, ‘‘मुझे समाज में शर्मिंदा होना पड़ेगा. वनिता की बूढ़ी विधवा मां को वचन दे चुका हूं. रिश्तेदारी में भी इस बारे में काफी लोगों को बता चुका हूं.’’

उसी समय अमेरिका से प्रेम ने मां से फोन पर कुछ बात की. मां ने कहा, ‘‘हम ने तुम्हारे लिए वनिता की मां को बोल रखा था. वनिता में तुम्हें क्या खराबी नजर आती है. वैसे भी कुमुद तो पिछड़ी जाति की है. तेरे पापा को समझाना बहुत मुश्किल है.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘आप लोगों ने पहले मुझे वनिता के बारे में कभी नहीं बताया था. वनिता को मैं ने देखा जरूर है पर मेरे मन में उस से शादी की बात कभी नहीं थी. और जहां तक कुमुद की जाति का सवाल है तो आप लोग दकियानूसी विचारों को छोड़ दें. अमेरिका, यूरोप और अन्य उन्नत देशों में आदमी की पहचान उस की योग्यता से है, न कि धर्म या जाति से. यह उन की उन्नति का मुख्य कारण है. और हां, अगर मैं शादी करूंगा तो कुमुद से ही वरना शादी नहीं करूंगा,’’ इतना बोल कर प्रेम ने फोन काट दिया.

उस की मां ने पुनीत से पूछा ‘‘यह वनिता कैसी लड़की है रे?’’

‘‘मां, वह बहुत अच्छी लड़की है. पढ़नेलिखने और देखने में भी. मैं उस से  2 बार पहले भी मिल चुका हूं.’’

फिर उस के मातापिता दोनों ने आपस में कुछ देर अकेले में बात कर पुनीत से कहा, ‘‘अब इस समस्या का हल तुम्हारे हाथ में है.’’

‘‘मैं भला इस में क्या कर सकता हूं?’’

‘‘कुमुद को हम बड़ी बहू स्वीकार कर लेंगे. पर तुम्हें भी हमारी इज्जत रखनी होगी. वनिता तेरी पत्नी बनेगी.’’

‘‘अभी तो मुझे पढ़ना है. वैसे वह एमए फाइनल में है मां. हो सकता है उम्र में मुझ से बड़ी हो.’’

‘‘लव मैरिज में सीनियरजूनियर या उम्र का खयाल तुम लोग आजकल कहां करते हो. और क्या पता कुमुद प्रेम से बड़ी हो? मैं वनिता की मां को फोन करती हूं. अगर थोड़ी बड़ी भी हुई तो क्या बुराई है इस में,’’ इतना बोल कर उस ने वनिता की मां से फोन पर कुछ बात की.

पुनीत गंभीर हो कर कुछ सोचने लगा था. थोड़ी देर बाद मां ने कहा, ‘‘पुनीत, तुम वनिता से बात कर लो. मैं ने उस की मां  को कहा कि कल शाम तुम दोनों रैस्टोरैंट में मिलोगे.’’ पुनीत और वनिता दोनों अगली शाम को उसी रैस्टोरैंट में मिले. पुनीत बोला, ‘‘मां ने अजब उलझन में डाल दिया है. मैं क्या करूं? आप को ठीक लग रहा है?’’

वनिता बोली, ‘‘मुझे तो कुछ बुरा नहीं दिखता इस में? हां, ज्यादा अहमियत आप की पसंद की है. मैं आप की पसंदनापसंद के बारे में नहीं जानती हूं.’’

‘‘आप तो हर तरह से अच्छी हैं, आप को कोई नापसंद कर ही नहीं सकता. फिर भी मुझे कुछ देर सोचने दें.’’

‘‘हां, वैसे दोनों में किसी को जल्दी भी नहीं है. पर मुझे कुमुद की चिंता है. वैसे हम दोनों के परिवार और कुमुद के परिवार सभी की भलाई इसी में है, और हां, मां बोल रही थी कि मैं पढ़ाई में आप से सीनियर हूं.’’

पुनीत चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. तो वनिता बोली, ‘‘मैं अगर सीनियर लगती हूं तो इस साल एग्जाम ड्रौप कर दूंगी. मंजूर?’’

पुनीत हंसते हुए बोला, ‘‘नहीं, आप ऐसा कुछ नहीं करें. आप अपना पीजी इसी साल करें.’’

‘‘एक शर्त पर.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘अभी इसी वक्त से हम लोग आप कहना छोड़ कर एकदूसरे को तुम कहेंगे.’’

‘‘आप भी… सौरी तुम भी न…. पर मेरी भी एक शर्त है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘शादी पढ़ाई पूरी होने के बाद ही होगी, भले सगाई अभी हो जाए.’’

‘‘मंजूर है. फोन पर रोज बात करनी होगी और वीकैंड में यहीं मिला करेंगे.’’

‘‘एग्रीड.’’

दोनों एकसाथ हंस पड़े. अगले पल वे वहां से निकल कर एकदूसरे का हाथ पकड़े सड़क पार कर सामने फैले गांधी मैदान में टहलने लगे.

पुनीत बोला, ‘‘पर मुझे एक बात का अफसोस रह गया. मैं तो घाटे में रहा.’’

‘‘कौन सी बात?’’ वनिता ने पूछा.

‘‘अगर भैया की शादी तुम से और मेरी शादी किसी और लड़की से होती तो मैं विनविन सिचुएशन में होता न.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम मेरी भाभी होतीं, तो मेरे दोनों हाथों में लड्डू होते.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पत्नी पर तो हंड्रेड परसैंट हक रहता ही और अगर तुम मेरी भाभी होतीं तो देवर के नाते भाभी से छेड़छाड़ करने और मजाक करने का हक बोनस में बनता ही था.’’

‘यू नौटी बौय,’ बोल कर वनिता उस के कान खींचने लगी.

विकराल शून्य : निशा की कौनसी बीमारी से बेखबर था सोम?

‘‘कैसी विडंबना है, हम पराए लोगों को तो धन्यवाद कहते हैं लेकिन उन को नहीं, जो करीब होते हैं, मांबाप, भाईबहन, पत्नी या पति,’’ अजय ने कहा.

‘‘उस की जरूरत भी क्या है? अपनों में इन औपचारिक शब्दों का क्या मतलब? अपनों में धन्यवाद की तलवार अपनत्व को काटती है, पराया बना देती है,’’ मैं ने अजय को जवाब दिया.

‘‘यहीं तो हम भूल कर जाते हैं, सोम. अपनों के बीच भी एक बारीक सी रेखा होती है, जिस के पार नहीं जाना चाहिए, न किसी को आने देना चाहिए. माना अपना इनसान जो भी हमारे लिए करता है वह हमारे अधिकार या उस के कर्तव्य की श्रेणी में आता है, फिर भी उस ने किया तो है न. जो मांबाप ने कर दिया उसी को अगर वे न करते या न कर पाते तो सोचो हमारा क्या होता?’’ अजय बोला.

अजय की गहरी बातें वास्तव में अपने में बहुत कुछ समाए रखती हैं. जब भी उस के पास बैठता हूं, बहुत कुछ नया ही सीख कर जाता हूं.

बड़े गौर से मैं अजय की बातें सुनता था जो अजय कहता था, गलत या फिजूल उस में तो कुछ भी नहीं होता था. सत्य है हमारा तो रोमरोम किसी न किसी का आभारी है. अकेला इनसान संपूर्ण कहां है? क्या पहचान है एक अकेले इनसान की? जन्म से ले कर बुढ़ापे तक मनुष्य किसी न किसी पर आश्रित ही तो रहता है न.

‘‘मेरी पत्नी सुबह से शाम तक बहुत कुछ करती है मेरे लिए, सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक, मेरे कपड़े, मेरा कमरा, मेरी व्यक्तिगत चीजों का खयाल, यहां तक कि मेरा मूड जरा सा भी खराब हो तो बारबार मनाना या किसी तरह मुझे हंसाना,’’ मैं अजय से बोला.

‘‘वही सब अगर वह न करे तो जीवन कैसा हो जाए, समझ सकते हो न. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन की बीवियां तिनका भी उठा कर इधरउधर नहीं करतीं. पति ही घर भी संभालता है और दफ्तर भी. पत्नी को धन्यवाद कहने में कैसी शर्म, यदि उस से कुछ मिला है तुम्हें? इस से आपस का स्नेह, आपस की ऊष्मा बढ़ती है, घटती नहीं,’’ अजय ने कहा.

सच ही कहा अजय ने. इनसान इतना तो समझदार है ही कि बेमन से किया कोई भी प्रयास झट से पहचान जाता है. हम भी तो पहचान जाते हैं न, जब कोई भावहीन शब्द हम पर बरसाता है.

उस दिन देर तक हम साथसाथ बैठे रहे. अपनी जीवनशैली और उस के तामझाम को निभाने के लिए ही मैं इस पार्टी में आया था, जहां सहसा अजय से मुलाकात हो गई थी. हमारी कंपनी के ही एक डाइरेक्टर ने पार्टी दी थी, जिस में मैं हाजिर हुए बिना नहीं रह सकता था. इसे व्यावसायिक मजबूरी कह लो या तहजीब का तकाजा, निभाना जरूरी था.

12 घंटे की नौकरी और छुट्टी पर भी कोई न कोई आयोजन, कैसे घर के लिए जरा सा समय निकालूं? निशा पहले तो शिकायत करती रही लेकिन अब उस ने कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया है. समूल सुखसुविधाओं के बावजूद वह खुश नजर नहीं आती. सुबह की चाय और रात की रोटी बस यही उस की जिम्मेदारी है. मेरा नाश्ता और दोपहर का खाना कंपनी के मैस में ही होता है. आखिर क्या कमी है हमारे घर में जो वह खुश नजर नहीं आती? दिन भर वह अकेली होती है, न कोई रोकटोक, न सासससुर का मुंह देखना, पूरी आजादी है निशा को. फिर भी हमारे बीच कुछ है, जो कम होता जा रहा है. कुछ ऐसा है जो पहले था अब नहीं है.

सुबह की चाय और अखबार वह मेरे पास छोड़ जाती है. जब नहा कर आता हूं, मेरे कपड़े पलंग पर मिलते हैं. उस के बाद यंत्रवत सा मेरा तैयार होना और चले जाना. जातेजाते एक मशीनी सा हाथ हिला कर बायबाय कर देना.

मैं पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा हूं, अब निशा चुप रहती है. हां, कभी माथे पर शिकन हो तो पूछ लेती है, ‘‘क्या हुआ? क्या आफिस में कोई समस्या है?’’

‘‘नहीं,’’ जरा सा उत्तर होता है मेरा.

आज शनिवार की छुट्टी थी लेकिन पार्टी थी, सो यहां आना पड़ा. निशा साथ नहीं आती, उसे पसंद नहीं. एक छत के नीचे रहते हैं हम, फिर भी लगता है कोसों की दूरी है.

मैं पार्टी से लौट कर घर आया, चाबी लगा कर घर खोला. चुप्पी थी घर में. शायद निशा कहीं गई होगी. पानी अपने हाथ से पीना खला. चाय की इच्छा नहीं थी. बीच वाले कमरे में टीवी देखने बैठ गया. नजर बारबार मुख्य

द्वार की ओर उठने लगी. कहां रह गई यह लड़की? चिंता होने लगी मुझे. उठ कर बैडरूम में आया और निशा की अलमारी खोली. ऊपर वाले खाने में कुछ उपहार पड़े थे. जिज्ञासावश उठा लिए. समयसमय पर मैं ने ही उसे दिए थे. मेरा ही नाम लिखा था उन पर. स्तब्ध रह गया मैं. निशा ने उन्हें खोला तक नहीं था. महंगी साडि़यां, कुछ गहने. हजारों का सामान अनछुआ पड़ा था. क्षण भर को तो अपना अपमान लगा यह मुझे, लेकिन दूसरे ही क्षण लगा मेरी बेरुखी का इस से बड़ा प्रमाण और क्या होगा?

उपहार देने के बाद मैं ने उन्हें कब याद रखा. साड़ी सिर्फ दुकान में देखी थी, उसे निशा के तन पर देखना याद ही नहीं रहा. कान के बुंदे और गले का जड़ाऊ हार मैं ने निशा के तन पर सजा देखने की इच्छा कब जाहिर की? वक्त ही नहीं दे पाता हूं पत्नी को, जिस की भरपाई गहनों और कपड़ों से करता रहा था. जरा भी प्यार समाया होता इस सामान में तो मेरे मन में भी सजीसंवरी निशा देखने की इच्छा होती. मेरा प्यार और स्नेह ऊष्मारहित है. तभी तो न मुझे याद रहा और न ही निशा ने इन्हें खोल कर देखने की इच्छा महसूस की होगी. सब से पुराना तोहफा 4 महीनों पुराना है, जो निशा के जन्मदिन का उपहार था. मतलब यह कि पिछले 4 महीनों से यह सामान लावारिस की तरह उस की अलमारी में पड़ा है, जिसे खोल कर देखने तक की जरूरत निशा ने नहीं समझी.

यह तो मुझे समझ में आ गया कि निशा को गहनों और कपड़ों की भूख नहीं है और न ही वह मुझ से कोई उम्मीद करती है.

2 साल का वैवाहिक जीवन और साथ बिताया समय इतना कम, इतना गिनाचुना कि कुछ भी संजो नहीं पा रहा हूं, जिसे याद कर मैं यह विश्वास कर पाऊं कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय है.

निशा की पूरी अलमारी देखी मैं ने. लाकर में वे सभी रुपए भी वैसे के वैसे ही पड़े थे. उस ने उन्हें भी हाथ नहीं लगाया था.

शाम के 6 बज गए. निशा लौटी नहीं थी. 3 घंटे से मैं घर पर बैठा उस का इंतजार कर रहा हूं. कहां ढूंढू उसे? इस अजनबी शहर में उस की जानपहचान भी तो कहीं नहीं है. कुछ समय पहले ही तो इस शहर में ट्रांसफर हुआ है.

करीब 7 बजे बाहर का दरवाजा खुला. बैडरूम के दरवाजे की ओट से ही मैं ने देखा, निशा ही थी. साथ था कोई पुरुष, जो सहारा दे रहा था निशा को.

‘‘बस, अब आप आराम कीजिए,’’

सोफे पर बैठा कर उस ने कुछ दवाइयां मेज पर रख दी थीं. वह दरवाजा बंद कर के चला गया और मैं जड़वत सा वहीं खड़ा रह गया. तो क्या निशा बीमार है? इतनी बीमार कि कोई पड़ोसी उस की सहायता कर रहा है और मुझे पता तक नहीं. शर्म आने लगी मुझे.

आंखें बंद कर चुपचाप सोफे से टेक लगाए बैठी थी निशा. उस की सांस बहुत तेज चल रही थी. मानो कहीं से भाग कर आई हो. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की. शब्द कहां हैं मेरे पास जिन से बात शुरू करूंगा. पैसों का ढेर लगाता रहा निशा के सामने, लेकिन यह नहीं समझ पाया, रुपयापैसा किसी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता.

‘‘क्या हुआ निशा?’’ पास आ कर मैं ने उस के माथे पर हाथ रखा. तेज बुखार था, जिस वजह से उस की आंखों से पानी भी बह रहा था. जबान खिंच गई मेरी. आत्मग्लानि का बोझ इतना था कि लग रहा था कि आजीवन आंखें न उठा पाऊंगा.

किसी गहरी खाई में जैसे मेरी चेतना धंसने लगी. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह के साथ मेरा घर, मेरी गृहस्थी कहीं उजड़ने तो नहीं लगी? हंसतीखेलती यह लड़की ऐसी कब थी, जब मेरे साथ नहीं जुड़ी थी. मेरी ही इच्छा थी कि मुझे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए. वैसी हो जो घर संभाले और मुझे संभाले. इस ने तो मुझे संभाला लेकिन क्या मैं इसे संभाल पाया?

‘‘आप कब आए?’’ कमजोर स्वर ने मुझे चौंकाया. अधखुली आंखों से मुझे देख रही थी निशा.

निशा का हाथ कस कर अपने हाथ में पकड़ लिया मैं ने. क्या उत्तर दूं, मैं कब आया.

‘‘चाय पिएंगे?’’ उठने का प्रयास किया निशा ने.

‘‘कब से बीमार हो?’’ मैं ने उठने से उसे रोक लिया.

‘‘कुछ दिन हो गए.’’

‘‘तुम्हारी सांस क्यों फूल रही है?’’

‘‘ऐसी हालत में कुछ औरतों को सांस की तकलीफ हो जाती है.’’

‘‘कैसी हालत?’’ मेरा प्रश्न विचित्र सा भाव ले आया निशा के चेहरे पर. वह मुसकराने लगी. ऐसी मुसकराहट, जो मुझे आरपार तक चीरती गई.

फिर रो पड़ी निशा. रोना और मुसकराना साथसाथ ऐसा दयनीय चित्र प्रस्तुत करने लगा मानो निशा पूर्णत: हार गई हो. जीवन में कुछ भी शेष नहीं बचा. डर लगने लगा मुझे. हांफतेहांफते निशा का रोना और हंसना ऐसा चित्र उभार रहा था मानो उसे अब मुझ से

कोई भी आशा नहीं रही. अपना हाथ खींच लिया निशा ने.

तभी द्वार घंटी बजी और विषय वहीं थम गया. मैं ही दरवाजा खोलने गया. सामने वही पुरुष खड़ा था, मेरी तरफ कुछ कागज बढ़ाता हुआ.

‘‘अच्छा हुआ, आप आ गए. आप की पत्नी की रिपोर्ट्स मेरी गाड़ी में ही छूट गई थीं. दवा समय से देते रहिए. इन की सांस बहुत फूल रही थी इसलिए मैं ही छोड़ने चला आया था.’’

अवाक था मैं. निशा को 4 महीने का गर्भ था और मुझे पता तक नहीं. कुछ घर छोड़ कर एक क्लीनिक था, जिस के डाक्टर साहब मेरे सामने खड़े थे. उन्होंने 1-2 कुशल स्त्री विशेषज्ञ डाक्टरों का पता मुझे दिया और जल्दी ही जरूरी टैस्ट करवा लेने को कह कर चले गए. जमीन निकल गई मेरे पैरों तले से. कैसा नाता है मेरा निशा से? वह कुछ सुनाना चाहती है तो मेरे पास सुनने का समय नहीं. तो फिर शादी क्यों की मैं ने, अगर पत्नी का सुखदुख भी नहीं पूछ सकता मैं.

चुपचाप आ कर बैठ गया मैं निशा के पास. मैं पिता बनने जा रहा हूं, यह सत्य अभीअभी पता चला है मुझे और मैं खुश भी नहीं हो पा रहा. कैसे आंखें मिलाऊं मैं निशा से? पिछले कुछ महीनों से कंपनी में इतना ज्यादा काम है कि सांस भी लेने की फुरसत नहीं है मुझे. निशा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और मैं ने एक बार भी पूछा नहीं, उसे क्या तकलीफ है.

निशा के विरोध के बावजूद मैं उसे उठा कर बिस्तर पर ले आया. देर तक ठंडे पानी की पट्टियां रखता रहा. करीब आधी रात को उस का बुखार उतरा. दूध और डबलरोटी ही खा कर गुजारा करना पड़ा उस रात, जबकि यह सत्य है, 2 साल के साथ में निशा ने कभी मुझे अच्छा खाना खिलाए बिना नहीं सुलाया.

सुबह मैं उठा तो निशा रसोई में व्यस्त थी. मैं लपक कर उस के पास गया. कुछ कह पाता, तब तक तटस्थ सी निशा ने सामने इशारा किया. चाय ट्रे में सजी थी.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम? तुम तो बीमार हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बीमार तो मैं पिछले कई दिनों से हूं. आज नई बात क्या है?’’

‘‘देखो निशा, तुम ने एक बार भी मुझे नहीं बताया,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताया था मैं ने लेकिन आप ने सुना ही नहीं. सोम, आप ने कहा था, मुझे इस घर में रोटीकपड़ा मिलता है न, क्या कमी है, जो बहाने बना कर आप को घर पर रोकना चाहती हूं. आप इतनी बड़ी कंपनी में काम करते हैं. क्या आप को और कोई काम नहीं है, जो हर पल पत्नी के बिस्तर में घुसे रहें? क्या मुझे आप की जरूरत सिर्फ बिस्तर में होती है? क्या मेरी वासना इतनी तीव्र है कि मैं चाहती हूं, आप दिनरात मेरे साथ वही सब करते रहें?’’ निशा बोलती चली गई.

काटो तो खून नहीं रहा मेरे शरीर में.

‘‘आप मुझे रोटीकपड़ा देते हैं, यह सच

है. लेकिन बदले में इतना बड़ा अपमान भी करें, क्या जरूरी है? सोम, आप भूल गए, पत्नी का भी मानसम्मान होता है. रोटीकपड़ा तो मेरे पिता के घर पर भी मिलता था मुझे. 2 रोटी तो कमा भी सकती हूं. क्या शादी का मतलब यह होता है कि पति को पत्नी का अपमान करने का अधिकार मिल जाता है?’’ निशा बिफर पड़ी.

याद आया, ऐसा ही हुआ था एक दिन. मैं ने ऐसा ही कहा था. इतनी ओछी बात पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गई थी. सच है, उस के बाद निशा ने मुझ से कुछ भी कहना छोड़ दिया था. जिस खबर पर मुझे खुश होना चाहिए था उसे बिना सुने ही मैं ने इतना सब कह दिया था, जो एक पत्नी की गरिमा पर प्रहार का ही काम करता.

निशा को बांहों में ले कर मैं रो पड़ा. कितनी कमजोर हो गई है निशा, मैं देख ही नहीं पाया. कैसे माफी मांगूं अपने कहे की. लाखों रुपए हर महीने कमाने वाला मैं इतना कंगाल हूं कि न अपने बच्चे के आने की खबर का स्वागत कर पाया और न ही शब्द ही जुटा पा रहा हूं कि पत्नी से माफी मांग सकूं.

पत्नी के मन में पति के लिए एक सम्मानजनक स्थान होता है, जिसे शायद मैं खो चुका हूं. लाख हवा में उड़ता रहूं, आना तो जमीन पर ही था मुझे, जहां निशा ने सदा शीतल छाया सा सुख दिया है मुझे.

मेरे हाथ हटा दिए निशा ने. उस के होंठों पर एक कड़वी सी मुसकराहट थी.

‘‘ऐसा क्या हुआ है मुझे, जो आप को रोना आ गया. आप रोटीकपड़ा देते हैं मुझे, बदले में संतान पाना तो आप का अधिकार है न. डाक्टर ने कहा है, कुछ औरतों को गर्भावस्था में सांस की तकलीफ हो जाती है. ठीक हो जाऊंगी मैं. आप की और घर की देखभाल में कोई कमी नहीं आएगी,’’ निशा ने कहा.

‘‘निशा, मुझ से गलती हो गई. मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्यों मेरे मुंह से

वह सब निकल गया,’’ मैं निशा के आगे गिड़गिड़ाया.

‘‘सच ही आया होगा न जबान पर, इस में माफी मांगने की क्या जरूरत है? मैं जैसी हूं वैसी ही बताया आप ने.’’

‘‘तुम वैसी नहीं हो, निशा. तुम तो संसार की सब से अच्छी पत्नी हो. तुम्हारे बिना मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा. अगर मैं अपनी कंपनी का सब से अच्छा अधिकारी हूं तो उस के पीछे तुम्हारी ही मेहनत और देखभाल है. यह सच है, मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता लेकिन यह सच नहीं कि मैं तुम से प्यार नहीं करता. तुम्हें गहनों, कपड़ों की चाह होती तो मेरे दिए तोहफे यों ही नहीं पड़े होते अलमारी में. तुम मुझ से सिर्फ जरा सा समय, जरा सा प्यार चाहती हो, जो मैं नहीं दे पाता. मैं क्या करूं, निशा, शायद आज संसार का सब से बड़ा कंगाल भी मैं ही हूं, जिस की पत्नी खाली हाथ है, कुछ नहीं है जिस के पास. क्षमा कर दो मुझे. मैं तुम्हारी देखभाल नहीं कर पाया.’’ मैं रोने लगा था.

मुझे रोते देख कर निशा भी रोने लगी थी. रोने से उस की सांस फूलने लगी थी. निशा को कस कर छाती से लगा लिया मैं ने. इस पल निशा ने विरोध नहीं किया. मैं जानता हूं, मेरी निशा मुझ से ज्यादा नाराज नहीं रह पाएगी. मुझे अपना घर बचाने के लिए कुछ करना होगा. घर और बाहर में एक उचित तालमेल बनाना होगा, हर रिश्ते को उचित सम्मान देना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब मेरे बैंक खातों में तो हर पल शून्य का इजाफा होगा ही, वहीं शून्य अपने विकराल रूप में मेरे जीवन में भी स्थापित हो जाएगा.

बिन फेरे हम तेरे: क्यों शादी के बाद भी अकेली रह गई नीतू

कहने और सुनने में कुछ अजीब लगता है, लेकिन यह भी एक सच्चा रिश्ता है, दिल का रिश्ता है. जब दिल से दिल जुड़ जाता है, तो चाहे हम साथसाथ न रहें, लेकिन हमें एकदूसरे की फिक्र होती है, एकदूसरे के प्रति लगाव होता है, इसी को प्यार कहा जाता है.

नीतू और सोहन का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है. उन्होंने शादी नहीं की और न ही साथसाथ रहते हैं, लेकिन एकदूसरे की फिक्र रहती है उन्हें, एकदूसरे का खयाल रखते हैं वे.

नीतू और सोहन को आज 20 साल हो गए हैं इस रिश्ते को निभाते हुए. कभी उन्होंने मर्यादा को नहीं तोड़ा है. दुखसुख में हमेशा एकदूसरे के साथ रहे. आज समाज भी उन को इज्जत की नजर से देखता है, क्योंकि सब जान गए हैं कि इन का रिश्ता तन का नहीं, मन का है. इन का रिश्ता दिखावा नहीं, बल्कि सच्चा है.

नीतू एक साधारण परिवार से थी. वह ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं थी. बड़ी 2 बहनों की शादी हो गई थी. एक भाई भी था सूरज.

सूरज चाहता था कि पहले नीतू की शादी हो जाए, तब वह करेगा. हालांकि, वह नीतू से बड़ा था. अच्छा घरबार देख कर नीतू की शादी कर दी गई.

सूरज का एक बचपन का दोस्त था सोहन. सूरज के घर अकसर उस का आनाजाना होता था. वह नीतू को पसंद करता था और वह भी उसे मन ही मन चाहने लगी थी, लेकिन किसी में कहने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि सोहन उन की जाति का नहीं था और वे जानते थे कि उन की शादी नहीं हो सकती है. इस बात को न ही घर वाले और न ही गांव वाले स्वीकार करेंगे.

नीतू की ससुराल वालों का असली चेहरा तब नजर आया, जब वह शादी के बाद पग फेरे के लिए नहीं आ पाई, लेकिन जब वह कुछ दिनों के बाद आई, तो उस के चेहरे पर चोटों के निशान

देख कर उस के परिवार वाले दंग रह गए. नीतू ने बताया कि उन्होंने पैसों की  मांग की है.

इस तरह अकसर 10-15 दिनों के बाद नीतू अपनी ससुराल से मार खा कर आती और पैसे ले जाती.

सोहन का अकसर नीतू के गांव किसी न किसी काम से चक्कर लग जाता था. उसे नीतू की मार और पैसों के बारे में भी सब पता लग गया था.

सोहन ने सूरज से बहुत बार कहा, ‘‘सूरज, नीतू को घर वापस ले आ. वे लोग किसी दिन उसे मार देंगे. ऐसे लालची लोगों से क्या रिश्ता रखना…’’

लेकिन सूरज और उस का परिवार नहीं मानते थे. सूरज कहता, ‘‘गांव वाले क्या कहेंगे कि शादीशुदा लड़की को घर में बैठा लिया. तुम्हें तो पता है कि यहां गांव में ऐसा नहीं होता है.’’

एक दिन सोहन जब नीतू के गांव किसी काम से गया, तो न जाने उस के मन में क्यों बेचैनी हो रही थी. वह नीतू के घर चला गया. पहले भी वह सूरज के साथ कभीकभी चला जाता था उस के घर. जब वह वहां पहुंचा, तो वहां का मंजर देख कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

नीतू के तन के कपडे़ चीथड़े बन चुके थे और चोट लगने की वजह से उस के माथे से खून बह रहा था, लेकिन अभी भी उसे मारा जा रहा था और वह गिड़गिड़ा कर बारबार एक बात कह रही थी, ‘‘मेरा भाई इतने पैसे कहां से लाएगा.’’

‘‘हमें नहीं पता… जहां मरजी से लाओ… हमें तो पैसे चाहिए, वरना अपने घर वापस चली जाओ. हम ने कोई धर्मशाला नहीं खोल रखी है, जो तुम्हें खिलाते रहें…’’ उस की सास चिल्लाई.

सोहन यह मंजर देख कर बौखला गया और नीतू को अपने साथ ले आया. जब नीतू घर पहुंची और सोहन ने सारा किस्सा सूरज को बताया, लेकिन सूरज फिर से वही बात दोहराने लगा, ‘‘हम नीतू को इस घर में नहीं रख सकते. इस की अब शादी हो गई है. इस का जीनामरना अब वहीं पर है. जैसे लाए हो, वैसे ही इसे वापस छोड़ आओ.’’

सोहन नहीं माना और नीतू भी वापस उस नरक में नहीं जाना चाहती थी. सोहन ने नीतू से कहा, ‘‘मेरी अब शादी हो गई है, इसलिए अब हम शादी तो नहीं कर सकते, लेकिन मैं तुम्हें उस नरक में भी वापस नहीं जाने दूंगा.

‘‘शहर में मेरा एक दोस्त है. मैं तुम्हें उस के घर कुछ समय के लिए छोड़ दूंगा और थाने जा कर हम तेरी ससुराल वालों के खिलाफ केस भी करेंगे. तुझे उस से तलाक दिलवा कर तेरी दोबारा शादी करा दूंगा.’’

लेकिन नीतू अब दोबारा शादी नहीं करना चाहती थी. उस का मन तो अभी भी सोहन में बसा हुआ था. वह उसी की यादों के सहारे जिंदगी बिताना चाहती थी.

सोहन नीतू को शहर ले आया और अपने दोस्त के घर ठहरा दिया. उस का दोस्त सबइंस्पैक्टर था. उस के परिवार ने नीतू का बहुत खयाल रखा और उस की हर मुमकिन मदद भी की. नीतू को तलाक दिलवाया और उसे सिलाई का कोर्स भी करवाया.

सोहन ने उसे सिलाई मशीन खरीद कर दे दी, ताकि वह अपना खर्चा खुद उठा सके और किसी पर बोझ न बने. नीतू की खैरियत जानने के लिए वह समयसमय पर शहर आता रहता है. दुखसुख में भी वह हमेशा उस की मदद करता है.

नीतू अपने इस बेनाम रिश्ते से बंधी, बिन फेरों की बिन ब्याही दुलहन की तरह अपनी जिंदगी काट रही है, लेकिन वह खुश है अपने इस रिश्ते से. उन का यह पावन रिश्ता है. कोई कसमें नहीं, कोई वादे नहीं, फिर भी वे एकदूजे के हैं.

निशि डाक: अंधेरी रात में किसने भूपेश को पुकारा

आज खेत से लौटने में रात हो गई थी. भूपेश ने इस बार अपने खेत में गेहूं की फसल बोई थी. आवारा जानवरों से फसल को उजड़ने से बचाना था, सो रातरातभर जाग कर रखवाली करनी पड़ती थी. बाड़ लगाने का भी कोई ज्यादा फायदा नहीं था, क्योंकि आवारा पशु उसे भी काट डालते थे. आज तो खेत में पानी भी लगाना था, सो भूपेश को लौटने में बहुत रात हो गई थी.

अगलबगल के खेतों वाले बाकी साथी भी चले गए थे. भूपेश को रात में अकेले ही लौटना पड़ा. घर पर मां इंतजार कर रही थी. रात सायंसायं कर रही थी. खेतोंखेतों होता हुआ भूपेश चला आ रहा था. पीपल, नीम, आम, बबूल के पेड़ों की छाया ऐसी लग रही थी जैसे प्रेतात्माएं आ कर खड़ी हो गई हों. बीचबीच में किसी पक्षी की आवाज सन्नाटे को चीर जाती थी. ‘ऐसी गहरी काली रात में ही अकेले आदमी को प्रेतात्माएं घेरने की कोशिश करती हैं. वे अकसर खूबसूरत औरत का वेश बना कर आती हैं और बड़ी ही मीठी आवाज में बुलाती हैं…

‘अम्मां कहती हैं कि अंधियारी रात में अगर कोई औरत मीठी आवाज में बुलाए तो पीछे मुड़ कर मत देखो, बस सीधे चलते चले जाओ.  ‘प्रेतात्मा 2 बार ही पुकारती है और अगर मुड़ कर देखो भी तो तीसरी आवाज पर मुड़ो, क्योंकि प्रेतात्मा तो  2 बार ही आवाज दे सकती है…’

अम्मां की इस सीख को याद करता हुआ भूपेश चला जा रहा था. नहर की मेंड़ के किनारे झाड़झंखाड़, मूंज और झरबेरी की झाड़ियां उगी हुई थीं. इन जगहों पर सांपबिच्छू, कीड़ेमकोड़े भी रहते थे.  भूपेश के मोबाइल फोन में टौर्च थी, जिस से वह रास्ता देखता जा रहा था. उस की भी बैटरी डिस्चार्ज हो जाने का खतरा था. अपने डर को काबू में करते हुए वह जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहा था.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ पीछे से एक मधुर आवाज आई. राजपुर भूपेश के गांव का ही नाम था. यह सुन कर उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं और चाल तेज हो गई. भूपेश को लगा कि निशि डाक यानी रात की आत्मा उसे आवाज दे रही है. अगर वह उस के चंगुल में फंस गया, तो निशि डाक उसे बंधक बना लेगी, उस के अंदर घुस जाएगी और फिर वह आत्मा का गुलाम बन जाएगा.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ फिर वही मधुर आवाज आई. ‘2 बार आवाज आ गई है. पीछे मुड़ कर नहीं देखना है…’ दिल की तेज धड़कनों के साथ भूपेश चलता जा  रहा था.  तीसरी बार फिर वही आवाज गूंजी, ‘‘क्या आप राजपुर गांव जा रहे हैं?’’

‘आत्मा तो बस 2 बार आवाज देती है. इस ने तीसरी बार भी आवाज दी है, तो इस का मतलब यह आत्मा नहीं है…’ भूपेश ने सोचा और डरतेडरते सिर घुमाया और टौर्च की रोशनी में देखा कि यह तो उसी के गांव की एक लड़की गौरी है… गांव के पंडितजी की बेटी. शहर जाती है. बीए की पढ़ाई कर रही है.

‘‘गौरी, तुम इतनी रात को कहां से आ रही हो?’’ डरी हुई आवाज में भूपेश ने पूछा. अभी उस का अपने डर और घबराहट पर काबू नहीं हुआ था. ‘‘आज मैं कालेज से देर में छूट पाई थी और फिर बस भी देर से मिली, इसी के चलते देर हो गई,’’ गौरी ने बताया. रास्ता तकरीबन कट ही चुका था.

भूपेश और गौरी हंसतेबतियाते घर आ गए थे. भूपेश और गौरी दोनों तकरीबन हमउम्र थे. बचपन में वे एक ही स्कूल में पढ़े थे. साथ खेले, लड़ेझगड़े थे, उन के बीच प्यार का बीज पिछली रात की आत्मा ने बो दिया था. भूपेश के पिता खेतीकिसानी करने वाले एक मेहनती इनसान थे. सामाजिक रूढि़यों और व्यवस्था के मुताबिक वे निचली जाति के कहे जाते थे. गौरी ब्राह्मण परिवार से थी. उस के पिता पंडित गंगाधर शास्त्री पीढि़यों से चला आ रहा पंडिताई का धंधा करते थे. आसपास के गांवों में भी उन का अच्छाखासा सम्मान था.

ग्रेजुएशन कर रहा भूपेश पढ़ाई के साथसाथ पिता की खेतीबारी में भी अपना पूरा योगदान देता था. वह बहुत मेहनती था. कुछ बन कर मातापिता को सुख देना चाहता था. छोटे भाई और बहन को भी पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका मिले, यह उस की दिली तमन्ना थी.

‘‘कुछ पढ़तीलिखती भी हो या बस ऐसे ही मौजमस्ती करने जाती हो कालेज में?’’ एक दिन भूपेश ने गौरी को छेड़ा.  ‘‘अरे, अगर मैं फेल हो गई, तो पिताजी डिगरी भी पूरी नहीं करने देंगे… घर पर बिठा देंगे,’’ गौरी ने कहा, ‘‘और तुम्हारा क्या इरादा है… आगे क्या करोगे?’’ ‘‘ग्रेजुएशन की डिगरी ले कर फिर सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करूंगा. अम्मांबाबूजी को कुछ बन कर दिखाना है. उन्होंने बहुत दुख उठाए हैं मेरे लिए,’’ भूपेश ने कहा.

कुछ समय के बाद भूपेश का रिजल्ट आ गया था. वह फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया था और आगे की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाने की सोच रहा था.  जब से गौरी को यह बात पता लगी थी, उस की भूखप्यास गायब हो गई थी.  ‘न जाने कब लौटेगा अब वह… तब तक तो पिता और भाई मेरा ब्याह कहीं और करवा देंगे…’ यही सब सोच कर गौरी को घबराहट होती थी.

‘‘तुम इलाहाबाद चले गए, तो पीछे से मेरे घर वाले मेरी शादी करा ही देंगे. वैसे भी मेरे पिता और भाई हमारी शादी को कभी राजी नहीं होंगे,’’ गौरी ने कहा. ‘‘तुम बस अपनी शादी मत होने देना. जब मैं अच्छी नौकरी पा लूंगा, फिर तुम्हारा हाथ मांगूंगा. तब तुम्हारे पिता मना नहीं कर पाएंगे,’’ भूपेश गौरी को दिलासा दे रहा था.

गौरी गांव में ही रह गई और भूपेश इलाहाबाद चला गया. गौरी को आज भी याद थी उस के बचपन की वह घटना, जब गांव के ही रूपेंद्र ठाकुर के परिवार ने अपने ही घर की बेटी को मार कर फांसी पर लटका दिया था, क्योंकि वह गांव के ही एक पासी लड़के से इस कदर दिल लगा बैठी थी कि उस के साथ भाग जाने को भी तैयार हो गई थी.  यह पता चलने पर उस के पिता और भाइयों ने ही उस का गला घोंट कर उसे फंदे से लटका दिया था और पुलिस को घूस दे कर मामला रफादफा करवा  दिया था. वह पासी लड़का और उस का पूरा परिवार ठाकुरों के डर से जान बचा कर गांव छोड़ कर भाग गया था और शहर में मजदूरी करने लगा था.

3 साल बीत गए थे. गौरी ने बीए कर लिया था. उस के लिए वर की तलाश जोरों पर थी. इस बीच भूपेश 1-2 दिन के लिए घर आता और चला जाता. उस ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा रखा था. परिवार वालों पर पैसे का बोझ न पड़े, इसलिए वह शहर में ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे पूरे करता था.

‘‘लो पंडितजी, मिठाई खाओ…’’ एक दिन भूपेश के पिता सारे गांव में लड्डू बांट रहे थे. खुशी उन के चेहरे से छलक रही थी.

‘‘क्या खुशखबरी है भूपेश के बापू?’’ पंडित गंगाधर शास्त्री ने हंस  कर पूछा.

‘‘भूपेश को डिगरी कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिल गई है. शुरू में ही 60,000 रुपए महीना मिलेंगे. अपने गांव का पहला लड़का है, जो इतनी बड़ी पोस्ट पर पहुंचा है. अखबार में भी खबर छपी है,’’ बेटे की कामयाबी ने पिता की छाती गर्व से चौड़ी कर दी थी.

यह सुन कर पंडित गंगाधर शास्त्री के मन में जलन ने जन्म ले लिया. दिल से आह सी निकली. पर फिर मन ने यह भी माना कि भूपेश है भी मेहनती और लगनशील, इसीलिए इस मुकाम तक पहुंचा है, वरना उन के दोनों बेटों में से तो एक भी इंटर भी सही से पास नहीं कर पाया था. दोनों को मजबूरन अपने पंडिताई के धंधे में ही उतारना पड़ा था. गौरी ने भी यह खबर सुनी, तो उस के दिल में खुशी की एक लहर दौड़ गई. अब इंतजार था कि कब भूपेश घर वापस आएगा.

भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर उम्मीद की एक लौ तो जली ही थी. आखिर वह दिन आ ही गया. भूपेश घर आया, तो उस के परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. भूपेश अब गौरी के पिता से अपने रिश्ते की बात करने को बेताब था.

‘‘नमस्कार बाबूजी,’’ कहते हुए भूपेश ने पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छुए.

‘‘अरे, आओ भूपेश. बहुत अच्छी नौकरी लग गई है तुम्हारी. सारे गांव का नाम रोशन कर दिया तुम ने तो.’’ ‘‘सब आप के आशीर्वाद का ही फल है बाबूजी,’’ भूपेश ने कहा.

‘‘बहुत बढ़िया. ऐसे ही तरक्की करो जीवन में,’’ इस बार उन का आशीर्वाद दिल से निकला था.

‘‘बाबूजी, एक बात कहनी है आप से,’’ डरतेडरते भूपेश किसी तरह बोल पाया.

‘‘हां, बोलो बेटा… इस में पूछने की क्या बात है,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘अगर आप को मंजूर हो, तो मैं गौरी का हाथ आप से मांगना चाहता हूं. मैं उसे जीवन में कभी कोई दुख नहीं दूंगा,’’ भूपेश किसी तरह बोल पाया. सुनते ही पंडितजी सन्न रह गए. कुछ बोल न फूटे. उन्हें अंदाजा तो था कि गौरी और भूपेश में अच्छी बोलचाल है, पर वे दोनों शादी करना चाहते हैं, उन्होंने इतना नहीं सोचा था. पंडित गंगाधर शास्त्री की चुप्पी को उन की नाराजगी जान कर भूपेश चुपचाप वहां से चला गया. सब कशमकश में थे.

गौरी के दोनों भाई गुस्से से आगबबूला हो रहे थे. ‘‘उस हरामखोर की इतनी हिम्मत… नौकरी लग गई तो अपनी औकात भूल गया… हम से बराबरी करने लगा…’’ बड़ा बेटा कह रहा था.

‘‘आप कहो तो अभी हाथपैर तोड़ कर फेंक आएं…’’ छोटा बेटा हां में हां मिला रहा था. पंडितजी ने उन्हें शांत रहने को कहा. दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि पिताजी को क्या हो गया है. एक नीची जाति के लड़के की इतनी हिम्मत कि ब्राह्मणों की बेटी का हाथ मांगे. वे दोनों अपनी बहन को भी कोस रहे थे.

पंडितजी ऊहापोह में थे. ब्राह्मण थे, पर वे एक पढ़ेलिखे और प्रैक्टिकल इनसान भी थे. वे भूपेश की पढ़ाईलिखाई, उस की कामयाबी से खुश थे और उन की बेटी उस के साथ सुखी रहेगी, इस का भी उन्हें यकीन था.  उन की आंखों पर धर्मांधता का परदा नहीं चढ़ा था. उन के दोनों बेटे, जो फुजूल के तेवर दिखा रहे थे, उस का उन्हें एहसास था. उन्होंने भूपेश को अपने पिता के साथ खेतों में मेहनत करते, पीठ पर भारी वजन लादे हुए अनाज ढोते हुए और पढ़ाई करते हुए देखा था.

दिन बीत रहे थे. भूपेश के जाने का दिन आ गया था. जाते समय वह हिम्मत जुटा कर पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छूने गया. ‘‘जा रहा हूं बाबूजी,’’ कह कर वह पंडितजी के पैर छूने के लिए झुका. ‘‘जाओ बेटा, अपना काम मन लगा कर करना. शिक्षा देना एक महान और पवित्र काम है. कभी अपने कर्तव्य से मुंह मत मोड़ना,’’ पंडितजी ने अपना आशीर्वाद दिया और आगे कहा,

‘‘तुम्हारी और गौरी की शादी की बात हम तुम्हारे मातापिता के साथ मिल कर तय कर लेंगे.’’ यह सुन कर भूपेश खुश हो गया था. सब मुरझाए फूल खिल गए थे. खेतों में सरसों फूल रही थी. वसंत आ गया था. निशि डाक यानी रात की आत्मा से शुरू हुई कहानी अपने मुकाम पर पहुंच गई थी.

दिल हथेली पर : अमित कैसे हारा मेनका पर दिल

अमित और मेनका चुपचाप बैठे हुए कुछ सोच रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए.

तभी कालबेल बजी. मेनका ने दरवाजा खोला. सामने नरेन को देख चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए वह बोली, ‘‘अरे जीजाजी आप… आइए.’’

‘‘नमस्कार. मैं इधर से जा रहा था तो सोचा कि आज आप लोगों से मिलता चलूं,’’ नरेन ने कमरे में आते हुए कहा.

अमित ने कहा, ‘‘आओ नरेन, कैसे हो? अल्पना कैसी है?’’

नरेन ने उन दोनों के चेहरे पर फैली चिंता की लकीरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘हम दोनों तो ठीक हैं, पर मैं देख रहा हूं कि आप किसी उलझन में हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो तुम…’’ अमित बोला, ‘‘तुम तो जानते ही हो नरेन कि मेनका मां बनने वाली है. दिल्ली से बहन कुसुम को आना था, पर आज ही उस का फोन आया कि उस को पीलिया हो गया है. वह आ नहीं सकेगी. सोच रहे हैं कि किसी नर्स का इंतजाम कर लें.’’

‘‘नर्स क्यों? हमें भूल गए हो क्या? आप जब कहेंगे अल्पना अपनी दीदी की सेवा में आ जाएगी,’’ नरेन ने कहा.

‘‘यह ठीक रहेगा,’’ मेनका बोली.

अमित को अपनी शादी की एक घटना याद हो आई. 4 साल पहले किसी शादी में एक खूबसूरत लड़की उस से हंसहंस कर बहुत मजाक कर रही थी. वह सभी लड़कियों में सब से ज्यादा खूबसूरत थी.

अमित की नजर भी बारबार उस लड़की पर चली जाती थी. पता चला कि वह अल्पना है, मेनका की मौसेरी बहन.

अब अमित ने अल्पना के आने के बारे में सुना तो वह बहुत खुश हुआ.

मेनका को ठीक समय पर बच्चा हुआ. नर्सिंग होम में उस ने एक बेटे को जन्म दिया.

4 दिन बाद मेनका को नर्सिंग होम से छुट्टी मिल गई.

शाम को नरेन घर आया तो परेशान व चिंतित सा था. उसे देखते ही अमित ने पूछा, ‘‘क्या बात है नरेन, कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

‘‘हां, मुझे मुंबई जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बौस ने हैड औफिस के कई सारे जरूरी काम बता दिए हैं.’’

‘‘वहां कितने दिन लग जाएंगे?’’

‘‘10 दिन. आज ही सीट रिजर्व करा कर आ रहा हूं. 2 दिन बाद जाना है. अब अल्पना यहीं अपनी दीदी की सेवा में रहेगी,’’ नरेन ने कहा.

मेनका बोल उठी, ‘‘अल्पना मेरी पूरी सेवा कर रही है. यह देखने में जितनी खूबसूरत है, इस के काम तो इस से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’

‘‘बस दीदी, बस. इतनी तारीफ न करो कि खुशी के मारे मेरे हाथपैर ही फूल जाएं और मैं कुछ भी काम न कर सकूं,’’ कह कर अल्पना हंस दी.

2 दिन बाद नरेन मुंबई चला गया.

अगले दिन शाम को अमित दफ्तर से घर लौटा तो अल्पना सोफे पर बैठी कुछ सोच रही थी. मेनका दूसरे कमरे में थी.

अमित ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो अल्पना?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ अल्पना ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘नरेन के मुंबई जाने से तुम्हारा मन नहीं लग रहा?है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. वे जिस कंपनी में काम करते हैं, वहां बाहर जाना होता रहता है.’’

‘‘जैसे साली आधी घरवाली होती है वैसे ही जीजा भी आधा घरवाला होता है. मैं हूं न. मुझ से काम नहीं चलेगा क्या?’’ अमित ने अल्पना की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘अगर जीजाओं से काम चल जाता तो सालियां शादी ही क्यों करतीं?’’ कहते हुए अल्पना हंस दी. 5-6 दिन इसी तरह हंसीमजाक में बीत गए.

एक रात अमित बिस्तर पर बैठा हुआ अपने मोबाइल फोन पर टाइमपास कर रहा था. जब आंखें थकने लगीं तो वह बिस्तर पर लेट गया.

तभी अमित ने आंगन में अल्पना को बाथरूम की तरफ जाते देखा. वह मन ही मन बहुत खुश हुआ.

जब अल्पना लौटी तो अमित ने धीरे से पुकारा.

अल्पना ने कमरे में आते ही पूछा, ‘‘अभी तक आप सोए नहीं जीजाजी?’’

‘‘नींद ही नहीं आ रही है. मेनका सो गई है क्या?’’

‘‘और क्या वे भी आप की तरह करवटें बदलेंगी?’’

‘‘मुझे नींद क्यों नहीं आ रही है?’’

‘‘मन में होगा कुछ.’’

‘‘बता दूं मन की बात?’’

‘‘बताओ या रहने दो, पर अभी आप को एक महीना और करवटें बदलनी पड़ेंगी.’’

‘‘बैठो न जरा,’’ कहते हुए अमित ने अल्पना की कलाई पकड़ ली.

‘‘छोडि़ए, दीदी जाग रही हैं.’’

अमित ने घबरा कर एकदम कलाई छोड़ दी.

‘‘डर गए न? डरपोक कहीं के,’’ मुसकराते हुए अल्पना चली गई.

सुबह दफ्तर जाने से पहले अमित मेनका के पास बैठा हुआ कुछ बातें कर रहा था. मुन्ना बराबर में सो रहा था.

तभी अल्पना कमरे में आई और अमित की ओर देखते हुए बोली, ‘‘जीजाजी, आप तो बहुत बेशर्म हैं.’’

यह सुनते ही अमित के चेहरे का रंग उड़ गया. दिल की धड़कनें बढ़ गईं. वह दबी आवाज में बोला, ‘‘क्यों?’’

‘‘आप ने अभी तक मुन्ने के आने की खुशी में दावत तो क्या, मुंह भी मीठा नहीं कराया.’’

अमित ने राहत की सांस ली. वह बोला, ‘‘सौरी, आज आप की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी.’’

शाम को अमित दफ्तर से लौटा तो उस के हाथ में मिठाई का डब्बा था. वह सीधा रसोई में पहुंचा. अल्पना सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी.

अमित ने डब्बा खोल कर अल्पना के सामने करते हुए कहा, ‘‘लो साली साहिबा, मुंह मीठा करो और अपनी शिकायत दूर करो.’’

मिठाई का एक टुकड़ा उठा कर खाते हुए अल्पना ने कहा, ‘‘मिठाई अच्छी है, लेकिन इस मिठाई से यह न सम?ा लेना कि साली की दावत हो गई है.’’

‘‘नहीं अल्पना, बिलकुल नहीं. दावत चाहे जैसी और कभी भी ले सकती हो. कहो तो आज ही चलें किसी होटल में. एक कमरा भी बुक करा लूंगा. दावत तो सारी रात चलेगी न.’’

‘‘दावत देना चाहते हो या वसूलना चाहते हो?’’ कह कर अल्पना हंस पड़ी.

अमित से कोई जवाब न बन पड़ा. वह चुपचाप देखता रह गया.

एक सुबह अमित देर तक सो रहा था. कमरे में घुसते ही अल्पना ने कहा, ‘‘उठिए साहब, 8 बज गए हैं. आज छुट्टी है क्या?’’

‘‘रात 2 बजे तक तो मुझे नींद ही नहीं आई.’’

‘‘दीदी को याद करते रहे थे क्या?’’

‘‘मेनका को नहीं तुम्हें. अल्पना, रातभर मैं तुम्हारे साथ सपने में पता नहीं कहांकहां घूमता रहा.’’

‘‘उठो… ये बातें फिर कभी कर लेना. फिर कहोगे दफ्तर जाने में देर हो रही है.’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि नरेन की वापसी कब तक है?’’

‘‘कह रहे थे कि काम बढ़ गया है. शायद 4-5 दिन और लग जाएं. अभी कुछ पक्का नहीं है. वे कह रहे थे कि हवाईजहाज से दिल्ली तक पहुंच जाऊंगा, उस के बाद ट्रेन से यहां तक आ जाऊंगा.’’

‘‘अल्पना, तुम मुझे बहुत तड़पा रही हो. मेरे गले लग कर किसी रात को यह तड़प दूर कर दो न.’’

‘‘बसबस जीजाजी, रात की बातें रात को कर लेना. अब उठो और दफ्तर जाने की तैयारी करो. मैं नाश्ता तैयार कर रही हूं,’’ अल्पना ने कहा और रसोई की ओर चली गई.

एक शाम दफ्तर से लौटते समय अमित ने नींद की गोलियां खरीद लीं. आज की रात वह किसी बहाने से मेनका को 2 गोलियां खिला देगा. अल्पना को भी पता नहीं चलने देगा. जब मेनका गहरी नींद में सो जाएगी तो वह अल्पना को अपनी बना लेगा.

अमित खुश हो कर घर पहुंचा तो देखा कि अल्पना मेनका के पास बैठी हुई थी.

‘‘अभी नरेन का फोन आया है. वह ट्रेन से आ रहा है. ट्रेन एक घंटे बाद स्टेशन पर पहुंच जाएगी. उस का मोबाइल फोन दिल्ली स्टेशन पर कहीं गिर गया. उस ने किसी और के मोबाइल फोन से यह बताया है. तुम उसे लाने स्टेशन चले जाना. वह मेन गेट के बाहर मिलेगा,’’ मेनका ने कहा.

अमित को जरा भी अच्छा नहीं लगा कि नरेन आ रहा है. आज की रात तो वह अल्पना को अपनी बनाने जा रहा था. उसे लगा कि नरेन नहीं बल्कि उस के रास्ते का पत्थर आ रहा है.

अमित ने अल्पना की ओर देखते हुए कहा, ‘‘ठीक?है, मैं नरेन को लेने स्टेशन चला जाऊंगा. वैसे, तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे होंगे कि इतने दिनों बाद साजन घर लौट रहे हैं.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है,’’ अल्पना बोली.

‘‘पर, नरेन को कल फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘कह रहे थे कि अचानक पहुंच कर सरप्राइज देंगे,’’ अल्पना ने कहा.

अमित उदास मन से स्टेशन पहुंचा. नरेन को देख वह जबरदस्ती मुसकराया और मोटरसाइकिल पर बिठा कर चल दिया.

रास्ते में नरेन मुंबई की बातें बता रहा था, पर अमित केवल ‘हांहूं’ कर रहा था. उस का मूड खराब हो चुका था.

भीड़ भरे बाजार में एक शराबी बीच सड़क पर नाच रहा था. वह अमित की मोटरसाइकिल से टकराताटकराता बचा. अमित ने मोटरसाइकिल रोक दी और शराबी के साथ झगड़ने लगा.

शराबी ने अमित पर हाथ उठाना चाहा तो नरेन ने उसे एक थप्पड़ मार दिया. शराबी ने जेब से चाकू निकाला और नरेन पर वार किया. नरेन बच तो गया, पर चाकू से उस का हाथ थोड़ा जख्मी हो गया.

यह देख कर वह शराबी वहां से भाग निकला.

पास ही के एक नर्सिंग होम से मरहमपट्टी करा कर लौटते हुए अमित ने नरेन से कहा, ‘‘मेरी वजह से तुम्हें यह चोट लग गई है.’’

नरेन बोला, ‘‘कोई बात नहीं भाई साहब. मैं आप को अपना बड़ा भाई मानता हूं. मैं तो उन लोगों में से हूं जो किसी को अपना बना कर जान दे देते हैं. उन की पीठ में छुरा नहीं घोंपते.

‘‘शरीर के घाव तो भर जाते हैं भाई साहब, पर दिल के घाव हमेशा रिसते रहते हैं.’’

नरेन की यह बात सुन कर अमित सन्न रह गया. वह तो हवस की गहरी खाई में गिरने के लिए आंखें मूंदे चला जा रहा था. नरेन का हक छीनने जा रहा था. उस से धोखा करने जा रहा था. उस का मन पछतावे से भर उठा.

दोनों घर पहुंचे तो नरेन के हाथ में पट्टी देख कर मेनका व अल्पना दोनों घबरा गईं. अमित ने पूरी घटना बता दी.

कुछ देर बाद अमित रसोई में चला गया. अल्पना खाना बना रही थी.

नरेन मेनका के पास बैठा बात कर रहा था.

अमित को देखते ही अल्पना ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप तो बातोंबातों में फिसल ही गए. क्या सारे मर्द आप की तरह होते हैं?’’

‘‘क्या मतलब…?’’

‘‘लगता है दिल हथेली पर लिए घूमते हो कि कोई मिले तो उसे दे दिया जाए. आप को तो दफ्तर में कोई भी बेवकूफ बना सकती है. हो सकता है कि कोई बना भी रही हो.

‘‘आप ने तो मेरे हंसीमजाक को कुछ और ही समझ लिया. इस रिश्ते में तो मजाक चलता है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि… अब आप यह बताइए कि मैं आप को जीजाजी कहूं या मजनूं?’’

‘‘अल्पना, तुम मेनका से कुछ मत कहना,’’ अमित ने कहा.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी पर आप तो बहुत डरपोक हैं,’’ कह कर अल्पना मुसकरा उठी.

अमित चुपचाप रसोईघर से बाहर निकल गया.

नया द्वार: नये दरवाजे पर खुशियों ने दी दस्तक

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं. बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

अलविदा काकुल : रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार

पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण…

काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई.

2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली.

शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’

पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’

‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज  मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी.

ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया.

‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’

मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा.

‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा.

मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया.

काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते.

एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा.

मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था.

इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया.

‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’

‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए.

अलविदा…काकुल…अलविदा…

गैस की कालाबाजारी: प्यार की अनोखी जोड़ी

उत्तराखंड के काफी खूबरसूरत लैंसडाउन इलाके में बहुत से सैलानी आते हैं. वहां का मौसम है ही इतना खुशनुमा कि शहरी लोगों को अपनी तरफ खींच ही लेता है. इसी के चलते वहां बहुत से छोटेबड़े होटल, ढाबे और रैस्टोरैंट बन गए हैं. अब तो रिजौर्ट भी खूब दिखने लगे हैं.

इसी लैंसडाउन इलाके में बनी एक गैस एजेंसी से जुड़े दर्जनों गांवों में लोग आज भी वहां गैस की गाड़ी का इंतजार कर रहे थे. वजह, काफी समय से चैलूसैंण गांव के अलावा पाली, शीला, सुराड़ी, धुरा, सिलोगी, बाघों, अमलेशा और रिंगालपानी जैसे बहुत से गांवों में घरेलू गैस नहीं पहुंच पा रही थी.

‘‘अरे, यहां जमा हो कर क्या होगा. गैस एजेंसी का मालिक कालाबाजारी का शातिर खिलाड़ी है. वह घरेलू गैस को तिकड़मबाजी से होटल, ढाबे और रैस्टोरैंट वालों को बेच देता है और भारी मुनाफा कमाता है,’’ सिलोगी गांव के पान सिंह ने कहा.

‘‘केंद्र की मोदी सरकार कितना भी दावा कर ले कि ‘न खाएंगे और न खाने देंगे’, पर कालाबाजारी हद पर है और नेताओं की नाक के नीचे सब गोरखधंधा हो रहा है,’’ सुराड़ी के नरेंद्र सिंह ने कहा और गुस्से में सड़क पर ही थूक दिया.

पाली गांव के दर्शन कुमार ने दबी जबान में कहा, ‘‘शहर में पैट्रोमैक्स (छोटे गैस सिलैंडर) में गैस रिफिल का धंधा भी जोरों पर चल रहा है. शहर में गैस की सप्लाई सामान्य हो या फिर कितनी भी किल्लत चल रही हो, लेकिन पैट्रोमैक्स में आसानी से गैस मिल जाती है.

‘‘इन पैट्रोमैक्सों में 100 रुपए किलो गैस बेची जाती है. साफ है कि 450 रुपए का गैस सिलैंडर रिफिल कर के 1,600 रुपए में बिक रहा है. आखिर इन को कहां से सिलैंडर मिल रहे हैं?’’

धुरा गांव के संदीप सिंह ने नया ही बम फोड़ा, ‘‘हरिद्वार की खबर नहीं सुनी क्या तुम लोगों ने… वहां तो उज्ज्वला योजना में ही फर्जीवाड़ा सामने आया है. लोग फर्जी दस्तावेज लगा कर मुफ्त कनैक्शन और सब्सिडी पा रहे हैं. इन में ऐसे लोग

भी शामिल हैं, जिन के पास अपनी कार है. खुद को गरीब दिखा कर हम जैसों के पेट पर लात मारते हैं.’’

‘‘हां, मैं ने भी यह खबर पढ़ी थी. हरिद्वार जिले में डेढ़ लाख ऐसे कनैक्शनों की जांच हो रही है. पुष्पक गैस एजेंसी के मैनेजर राकेश सिंह के मुताबिक, कई उपभोक्ताओं की मौत हो चुकी है, फिर भी कनैक्शन से सप्लाई और सब्सिडी जारी हो

रही है,’’ चैलूसैंण गांव के हिम्मत सिंह ने बताया.

‘‘सरकार धार्मिक जगहों को तो संवार रही है, सड़कें और सुरंगें बनाने के दावे कर रही है, पर पहाड़ की गरीब जनता की सुध नहीं ले रही है. हमारे गांव के गांव खाली हो रहे हैं, पर सरकार चाहती है कि रिजौर्ट में अमीर लोग खूब आते रहें.

‘‘अरे, जब उन की सेवा करने के लिए पहाड़ी लोग ही नहीं बचेंगे, तो वे क्या खाक हमारी वादियों का मजा ले पाएंगे. एक मैगी बनाने वाले को भी सस्ता सिलैंडर चाहिए, लेकिन इस कालाबाजारी ने सब बेड़ा गर्क कर के रख दिया है,’’ पास खड़े मैगी बनाने वाले पवन राजपूत ने अपना दर्द बयां किया.

इन सब लोगों में 23 साल का प्रेम रावत भी शामिल था, जो अमलेशा गांव में रहता था. यह गांव पौड़ीगढ़वाल जिले के जयहरीखाल ब्लौक और लैंसडाउन तहसील में था, जो अमकटाला ग्राम पंचायत के तहत आता था. इस गांव का भौगोलिक क्षेत्रफल 114.41 हैक्टेयर था.

ऐसा बताया जाता है कि अमलेशा गांव की कुल आबादी 151 थी, जिस में 44 परिवार शामिल थे. प्रेम रावत का परिवार भी उन में से एक था. घर कच्चा था और रोजगार की कमी. खेती से मुश्किल से गुजारा होता था और बीए करने के बावजूद प्रेम रावत को उत्तराखंड में ही कहीं अच्छी नौकरी नहीं मिल पा रही थी. वह अपने दोस्तों की तरह दिल्ली के होटलों में बरतन घिस कर अपनी जिंदगी को नरक नहीं बनाना चाहता था.

प्रेम रावत भी घरेलू गैस सिलैंडर पाने की आस में गैस एजेंसी आया था, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात. प्रदेश में ‘प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’ शुरू होने के बाद घरघर गैस सिलैंडर तो पहुंच गए हैं, लेकिन पर्वतीय इलाकों में अब भी सिलैंडर रिफिल कराने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था या कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. ऊपर से कालाबाजारी कोढ़ पर खाज साबित हो रही थी.

प्रेम रावत को आज भी खाली हाथ लौटना पड़ रहा था. उसे अपनी मां कटोरी देवी की याद आ गई, जिस की धुएं की वजह से फेफड़े और आंखें कमजोर हो गई थीं. पिता श्याम सिंह रावत की आमदनी से किसी तरह घर का खर्च चलता था. कमाई के आधे से ज्यादा रुपए लकड़ीचूल्हा में खर्च हो जाते थे.

प्रेम अभी गांव की बस का इंतजार कर ही रहा था कि उसे अपने ही गांव की ज्योति नयाल आती दिखी. वह 22 साल की जवान लड़की थी. दुबलीपतली, पर बहुत गोरी और खूबसूरत. प्रेम उस के रूप का दीवाना था.

ज्योति अपने पिता के साथ खेतीबारी में हाथ बंटाती थी और उस ने अपने घर में एक बड़े कमरे में मशरूम की खेती भी कर रखी थी. उस के उगाए मशरूम लोकल होटल में सप्लाई होते थे.

प्रेम और ज्योति बस का इंतजार करने लगे. आज प्रेम सोच रहा था कि वह ज्योति से अपने दिल की बात कह देगा, पर उसे शक था कि क्या ज्योति एक बेरोजगार के प्यार को अपना लेगी?

‘‘बड़े दिनों में नजर आई. कहां रहती हो आजकल? कोई खैरखबर नहीं,’’ प्रेम ने पूछा.

ज्योति ने एक नजर उसे देखा और बोली, ‘‘सारी खैरखबर मैं ही लूं? तुम भी तो फोन कर सकते थे. अभी मैं मशरूम सप्लाई कर के आ रही हूं.

‘‘लैंसडाउन में आज भी गैस कंपनी के आगे लोगों की भीड़ जमा थी. गांव वालों को घरेलू गैस चूल्हे की सप्लाई नहीं हो रही है. बड़ी दिक्कत होने लगी है. तुम तो जानते ही हो कि जंगल से जलावन लकड़ी लाने में औरतों को कितना खतरा रहता है,’’ ज्योति ने कहा.

‘‘पिछले साल के दिसंबर महीने की ही तो खबर है, जब लैंसडाउन वन प्रभाग के दुगड्डा रेंज के तहत टाटरी गांव में भालू के हमले से एक औरत गंभीर रूप से घायल हो गई थी.

‘‘खबर में बताया गया था कि टाटरी गांव की कुसुम देवी जंगल में चारा लेने गई थी कि तभी भालू ने उस पर हमला बोल दिया. वह तो भला हो कि कुसुम देवी ने दरांती से भालू पर जोरदार हमला किया और अपनी जान बचा ली, वरना कुछ भी हो सकता था,’’ प्रेम ने ज्योति के डर को खबर का जामा पहना दिया.

ज्योति का मूड खराब हो गया. बस भी तो नहीं आ रही थी. इतने में उन्हीं के गांव का राम सिंह वहां आ गया, जो एक होटल में कुक था. वह गढ़वाली खाना बनाने में माहिर था.

राम सिंह को देख प्रेम ने कहा, ‘‘इन लोगों के चलते घरेलू गैस की कालाबाजारी होती है. हमारे हिस्से के सिलैंडर ये लोग हड़प लेते हैं.’’

यह सुन कर राम सिंह चिढ़ गया और प्रेम का गरीबान पकड़ लिया और डपट कर बोला, ‘‘इतना ही दर्द हो रहा है तो गैस एजेंसी फूंक दो न. वे लोग ही कालाबाजारी करते हैं. अगर किसी को घरबैठे सिलैंडर मिल जाए, तो कोई पागल ही होगा जो मना करेगा.’’

ज्योति ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘छोड़ इसे. नौकरी के नशे में इतने भी मत उड़ो कि आसापास का कुछ भी न दिखे. अपनी ताकत खाना बनाने के लिए बचा कर रखो. घर पर भी रसोई बनानी होगी.’’

राम सिंह ने प्रेम को तो छोड़ दिया, पर ज्योति को घूरते हुए बोला, ‘‘सब सम?ाता हूं कि तुम दोनों में क्या खिचड़ी पक रही है. पूरे पहाड़ पर गूंज रही तेरी और प्रेम की लवस्टोरी.’’

‘‘तो तेरे पेट में क्यों दर्द हो रहा है? लगता है, आज होटल में देशी दारू नहीं मिली, जो मरोड़ उठ रही है,’’ ज्योति ने खरीखरी सुना दी.

राम सिंह गुस्से में पैर पटकता हुआ चला गया. प्रेम को अंदाजा नहीं था कि राम सिंह इस तरह की बात बोल देगा. वह डर गया. उसे लगा कि ज्योति को बुरा लगा होगा. वह चुप ही रहा.

इतने में बस आ गई. ज्योति बोली, ‘‘चलना है कि नहीं या यहीं बुत बने खड़े रहोगे?’’

प्रेम बस में चढ़ गया. ज्यादा भीड़ नहीं थी. उन्हें सीट मिल गई. दोपहर के 3 बजे थे. वे शाम तक घर पहुंच जाते. ड्राइवर ने गढ़वाली गाना ‘मेरी प्यारी सुशीला’ बजा रखा था.

सीट पर बैठते ही ज्योति ने प्रेम के कंधे पर सिर टिका दिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. प्रेम की बांछें खिल गईं. उस ने ज्योति का हाथ पकड़ लिया. ज्योति आंखें बंद किए ही मुसकरा दी. इस के बाद पता ही नहीं चला कि कब उन का गांव आ गया.

ज्योति से विदा ले कर प्रेम अपने घर पहुंचा. मां रसोई में दालभात पका रही थीं. वहां नया भरा गैस चूल्हा देख कर प्रेम हैरत में पड़ गया.

‘‘यह नया चूल्हा कौन लाया?’’ प्रेम ने अपनी मां से पूछा.

‘‘तेरे पिताजी. बस, दलाल को 300 रुपए ऊपर से दिए. बोले कि कब तक लकड़ी के धुएं में अपनी आंखें फोड़ती रहेगी.

‘‘बेटा, अब जल्दी से कोई नौकरी देख कर ब्याह कर ले और मेरे लिए कमेरी बहू ले आ. अब मैं थक चुकी हूं अकेले काम करतेकरते,’’ इतना कह कर मां चूल्हे में फूंकनी से आंच तेज करने लगीं.

प्रेम छत पर चला गया. उसे ज्योति की याद आ गई. उस ने मन ही मन राम सिंह का शुक्रिया अदा किया, जिस ने आज ऐसा सच बोला, जो घरेलू गैस की कालाबाजारी से ज्यादा बड़ा था, पर उतना घिनौना नहीं. इस सच ने तो ज्योति और प्रेम को और नजदीक ला दिया था.

छत से तारों को देखता हुआ प्रेम नई जिंदगी के सपनों में खो गया. पड़ोस के घर पर रेडियो में वही गढ़वाली गाना ‘मेरी प्यारी सुशीला’ बज रहा था.

Holi 2024: प्यार तूने क्या किया

अनिरुद्ध आज फिर से दफ्तर 25 मिनट पहले पहुंच गया था. जब से उस के दफ्तर में नेहल आई है, उसे ऐसा लगता है कि सबकुछ रूमानी हो गया है. नेहल की झील सी आंखें, प्यारभरी मुसकान उसे सबकुछ बेहद पसंद था.

आज नेहल हरे कुरते के साथ पीला दुपट्टा पहन कर आई थी और साथ में था लाल रंग का प्लाजो… जैसे औफिस का माहौल सुरमई हो गया हो. अनिरुद्ध बहुत दिनों से नेहल के करीब जाने की कोशिश कर रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

नेहल का बेबाक अंदाज अनिरुद्ध को उस के करीब जाने से रोकता था, पर आज वह खुद को रोक नहीं पाया और उस ने नेहल को बोल ही दिया, ‘‘नेहल, आप आज एकदम सुरमई शाम के जैसी लग रही हो…’’

नेहल खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘थैंक यू.’’

धीरेधीरे नेहल के ग्रुप में अनिरुद्ध भी शामिल हो गया था. अनिरुद्ध की आंखों की भाषा नेहल खूब समझती थी, पर अनिरुद्ध का जरूरत से ज्यादा पतला होना नेहल को खलता था.

अनिरुद्ध ने एक दिन बातों ही बातों में नेहल से पूछ लिया, ‘‘नेहल, तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है क्या?’’

नेहल ने कहा, ‘‘नहीं, फिलहाल तो नहीं है, क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड माचोमैन होना चाहिए, सिक्स पैक एब्स के साथ… अगर कोई लड़का मुझे देखने की भी जुर्रत करे, तो वह उस की हड्डीपसली एक कर दे…’’

नेहल की बात सुन कर अनिरुद्ध का चेहरा उतर गया था. घर आ कर भी उस के दिमाग में नेहल की बात घूमती रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे नेहल के काबिल बने.

तभी अनिरुद्ध को अपने एक करीबी दोस्त मोंटी की याद आई. वह जिम जाने का शौकीन था.

अनिरुद्ध ने मोंटी को फोन कर के अपनी समस्या बताई, तो मोंटी बोला, ‘अरे भाई, तू मेरे पास आ जा. 2 महीने में ही नेहल तेरी बांहों में होगी.’

अनिरुद्ध फोन रखते ही मोंटी के पास पहुंच गया. वह जल्द से जल्द बौडी बनाना चाहता था.

अब अनिरुद्ध सीधे दफ्तर से जिम ही जाता था. वहां पर मोंटी के कहने पर उस ने अपना खुद का पर्सनल ट्रेनर भी रख लिया था. पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध का एक पूरा डाइट प्लान बना कर दिया था. डाइट प्लान में शामिल खाना अनिरुद्ध की जेब पर काफी महंगा पड़ रहा था, पर वह अपने दिल के हाथों मजबूर था.

एक महीना होने को आया था, पर अनिरुद्ध को अपनी बौडी में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा था. जब भी वह अपने पर्सनल ट्रेनर से यह बात कहता, तो उस का यही जवाब होता था, ‘‘अरे सर, थोड़ा समय लगता है बौडी बनाने में, लेकिन देख लेना सर, आप को कुछ ही महीनों में बदलाव नजर आने लगेगा.’’

अनिरुद्ध रातदिन बौडी बनाने के बारे में ही बात करता था. नेहल अनिरुद्ध की बात सुन कर मुसकरा देती और बोलती, ‘‘चलो देखते हैं अनिरुद्ध, तुम्हारी बौडी बन पाती है या नहीं?’’

अभी अनिरुद्ध यह सब कर ही रहा था कि उस की जिंदगी में सक्षम नाम का तूफान आ गया था. सक्षम उन की कंपनी में एकाउंट्स डिपार्टमैंट में नयानया आया था. उस का 6 फुट का कद और गठीला बदन हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था.

नेहल एक दिन अपनी सैलरी के किसी इशू को ले कर एकाउंट्स डिपार्टमैंट में गई थी और सक्षम का नंबर ले कर लौटी थी. अब सक्षम भी नेहल के ग्रुप का हिस्सा था. अनिरुद्ध को सक्षम का ग्रुप में शामिल होना नागवार लगता था, पर वह कुछ बोल नहीं पाता था.

अब अनिरुद्ध के सिर पर बौडी बनाने का जुनून सवार हो गया था. एक दिन अनिरुद्ध के पापा ने उसे समझाना भी चाहा था, ‘‘बेटा, अपनी सेहत का ध्यान रखना बहुत अच्छी बात है, पर यह पागलपन ठीक नहीं है.’’

अनिरुद्ध बोला, ‘‘पापा, मुझे इस पतलेपन से छुटकारा चाहिए. मैं नेहल के काबिल बनना चाहता हूं.’’

पापा थोड़ा सोचते हुए बोले, ‘‘बेटा, जिस रिश्ते की बुनियाद ऐसी खोखली  बातों पर टिकी हो, वैसा रिश्ता न ही बने तो अच्छा है.’’

अनिरुद्ध गुस्से में बोला, ‘‘आप नहीं समझोगे पापा. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप का बेटा अपनी सेहत के प्रति जागरूक है.’’

पापा बोले, ‘‘हां, पर अगर इस से मन का चैन छिनता है, तो यह घाटे का सौदा है.’’

अनिरुद्ध बिना कुछ जवाब दिए तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया.

अनिरुद्ध के जुनून को देखते हुए उस के पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध के डाइट प्लान में कुछ अलग तरह की खाने की चीजें शामिल कर दी थीं. कोई पाउडर भी था. पर अब अनिरुद्ध की बौडी में बदलाव आना शुरू हो गया था.

न जाने उस पाउडर में क्या था कि अनिरुद्ध को मनचाहा नतीजा मिल रहा था. आजकल वह बेहद खुश रहता था. पर बौडी बनाने और नेहल के चक्कर में बिना अपने ट्रेनर की सलाह लिए अनिरुद्ध ने उस पाउडर की खुराक दोगुनी कर दी थी. अब नेहल ही नहीं दफ्तर की हर लड़की का हीरो था अनिरुद्ध.

अनिरुद्ध ने नेहल से डेट के लिए पूछा और नेहल ने फौरन हां कर दी थी. अनिरुद्ध बेहद खुश था, क्योंकि आखिर उस की मेहनत रंग लाई और उस के प्यार की जीत हुई थी. अब अनिरुद्ध के दिन सोना और रात चांदी हो गई थी.

14 फरवरी हर प्रेमी जोड़े के लिए खास दिन होता है. अनिरुद्ध ने नेहल से पूछा, ‘‘नेहल, कल क्या मेरे साथ बाहर चलोगी?’’

नेहल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इतना शरमा क्यों रहे हो, जरूर चलेंगे और यह तो वैसे भी हमारा पहला वैलेंटाइन डे है.’’

अनिरुद्ध ने शहर के बाहर एक रिसोर्ट में बुकिंग करा ली थी. वह नेहल को जी भर कर प्यार करना चाहता था.

नेहल और अनिरुद्ध ने पहले लंच किया और फिर दोनों रूम में चले गए. अनिरुद्ध नेहल के करीब आ कर उसे चूमने लगा और नेहल भी बिना किसी विरोध के समर्पण कर रही थी.

15 मिनट बीत गए थे, पर अनिरुद्ध उस से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था. नेहल कुछ देर तक तो कोशिश करती रही और फिर चिढ़ते हुए बोली, ‘‘यार, जब कुछ कर ही नहीं सकते हो, तो फिर इतना टाइम क्यों खराब किया?’’

फिर नेहल मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिम में बौडी बन सकती है, पर वह नहीं.’’

अनिरुद्ध शर्म से पानीपानी हो रहा था. उसे तो ऐसी समस्या नहीं थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्यों उस के साथ हो रहा था. क्या उस के अंदर कोई कमी आ गई है?

अनिरुद्ध को लग रहा था कि बौडी बनाने में उस ने जो पाउडर की दोगुनी खुराक कर ली थी, क्या यह उसी का नतीजा है?

अनिरुद्ध नेहल को सब बताना चाहता था, पर जिस प्यार के लिए अनिरुद्ध ने इतना कुछ किया, वही प्यार बिना एक पल रुके पतली गली से निकल गया.

अनिरुद्ध सिर पकड़ कर बैठ गया था. बाहर रिसोर्ट में गाना चल रहा था, ‘प्यार तू ने क्या किया…’

गलतफहमी : जिंदगी दो और दो का जोड़ नहीं

हर आदमी के सपने में एक लड़की होती है. कमोबेश खूबसूरत लड़की. वह उस की कल्पना के बीच हमेशा चलतीफिरती है, हंसतीबोलती है. इसी तरह नीना के प्रति सुजीत का लगाव उसे चुंबक की तरह खींच रहा था.

एक दिन सुजीत ने हंस कर सीधेसीधे नीना से कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’’

नीना ठहाका मार कर हंसी और बोली, ‘‘तुम बड़े भोले हो. बड़े शहर में प्यार मत करो, लुट जाओेगे. यहां दिल से कोई रिश्ता नहीं चलता, सब पैसे का तमाशा है.’’

‘‘मतलब…?’’ सुजीत चौंका.

‘‘अरे, मिलोजुलो, दोस्ती रखो… हो गया बस,’’ नीना ने दिल के अंदर की पछाड़ खाती लहरों को भुला कर कहा, ‘‘प्यार और शादी के पचड़े के बारे में सोचो भी नहीं.’’

इस तरह एक झटके में नीना ने सुजीत की भावनाओं के खूबसूरत गुलाब की पंखुडि़यों को नोंच कर फुटपाथ पर फेंक दिया था.

नीना इतना संगदिल हो सकती है, इस की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. सुजीत हैरत से उसे कुछ पलों तक ताकता रह गया. लग रहा था कि वह कोई नादान बच्चा है, जिसे वह सीख दे रही हो.

नीना ने फिर कहीं दूर भटकते हुए कहा, ‘‘इस शहर में रहो, पर सपने मत देखो. छोटे लोगों के सपने यों ही जल जाते हैं. जिंदगी में सिर्फ राख और धुआं बचते हैं. प्यार यहां हाशिए पर चला जाता है. वैसे भी ये सब अमीरों के चोंचले हैं…’’

‘‘कितना अजीब सा खयाल है तुम्हारा नीना…’’ सुजीत ने हिम्मत जुटा कर कहा.

‘‘किस का…?’’ नीना चौंकी.

‘‘तुम्हारा और किस का…’’

‘‘यह मेरा खयाल है?’’ नीना थोड़ा बेचैन हुई, ‘‘तुम यही समझे?’’

‘‘तो क्या मेरा है?’’ सुजीत ने सवाल किया.

‘‘ओह,’’ नीना ने दुखी हो कर कहा, ‘‘फिर भी मैं कह सकती हूं कि तुम कितने अच्छे हो… काश, मैं तुम्हें ठीक से समझ पाती.’’

‘‘न ही समझ तो अच्छा,’’ सुजीत ने उस से विदा लेते हुए कहा, ‘‘पर, मैं समझ गया…’’

सुजीत को रास्तेभर तरहतरह के खयाल आते रहे. आखिर में उस ने तय किया कि सपने कितने भी हसीन हों, अगर आप बेदखल हो गए हों, तो उन हसरतों के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए.

सुजीत नीना से कट गया और कटता ही चला गया.

बचपन में सुजीत गांव की एक लड़की से प्यार करता था. वह लड़की भी उसे चाहती थी, पर ऊंची जाति की थी, इसलिए बाद में वह इनकार कर गई, पर उस दिन वह बहुत रोई थी.

लेकिन नीना तो हंस रही थी सुजीत के प्रस्ताव पर, जैसे किसी बच्चे ने किसी औरत का वर्जित प्रदेश छू दिया हो, बेजा सवाल कर दिया हो… सुजीत का मन कसैला हो गया.

उस दिन सुजीत फैक्टरी से देर से निकला, तो जैक्सन रोड की तरफ चला गया. दिल यों भी दुखी था. फैक्टरी में एक हादसा हो गया था. बारबार दिमाग में उस लड़के का घायल चेहरा आ रहा था.

सुजीत एक बार के पास रुक गया. यह पुराना शहर था अपनी यादों में इतिहास को समेटे हुए. यहां लाखों सुजीत जैसे लोग अपनी रोजीरोटी की तलाश में वजूद घिस रहे थे.

सुजीत ने घड़ी देखी. रात के 9 बज रहे थे. अभी वह शराब पीने की जगह खोज ही रहा था कि उस की नजर नीना पर पड़ी, ‘‘तुम यहां…?’’

‘‘मैं इसी बार में काम करती हूं,’’ नीना ने झोंप कर कहा.

‘‘पर, तुम ने तो बताया था…’’ सुजीत ने हैरानी से भर कर कहा, ‘‘तुम किसी औफिस में काम करती हो…’’

‘‘हां, करती थी.’’

‘‘फिर यहां कैसे?’’ सुजीत थोड़ा हैरान हो गया था.

‘‘सब यहीं पूछ लोगे?’’ कह कर नीना दूसरे ग्राहकों की ओर बढ़ गई. नशे से लुढ़कते लोगों के बीच से वह खाली बोतलों और गिलासों को उठा रही थी. सुजीत को यह सब देख कर गहरा अफसोस हुआ.

सुजीत बोतल ले कर वापस आ गया. रास्ते में उस ने फ्राइड चिकन और रोटियां ले ली थीं. कमरे में पहुंच कर वह बेहिसाब पीना चाह रहा था, ताकि सीने पर रखा बोझ हलका हो जाए. पता नहीं वह किस से नाराज हो रहा था, शायद इस रात से.

अभी सुजीत ने बोतल खोली ही थी कि वर्मा आ गया.

‘‘आओ वर्मा यार…’’ सुजीत ने कहा, ‘‘बड़े मौके से आए.’’

‘‘क्या है?’’ वर्मा ने मुसकराते हुए पूछा. वह एक दवा दुकान पर सेल्समैन था. पूरा कंजूस और मजबूर आदमी. अकसर उसे घर से फोन आता था, जिस में पैसे की मांग होती थी.

इस कबूतरखाने में इसी तरह के लोग किराएदार थे, जो दूर कहीं गांवकसबे में अपने परिवार को छोड़ कर अपना सामान उठाए चले आए थे. अलबत्ता, नीचे वाले कमरे में कुछ परिवार वाले लोग भी थे, लेकिन वे भी अच्छी आमदनी वाले नहीं थे, अपनी रीनानीना के साथ किसी तरह रह रहे थे… सस्ती साड़ियों, सूट और परफ्यूम के साथ सैकंडहैंड चीजों के साथ जीने वाले.

‘‘चीयर्स,’’ गिलास टकरा कर सुजीत ने कहा, ‘‘उठाओ यार…’’

वर्मा 2-3 पैग लेने के बाद खुल गया, ‘‘यार, सुजीत तुम्हीं ठीक हो. तुम्हारे घर वाले तुम्हें नोंचते नहीं. मैं तो सोचता हूं कि मेरी जिंदगी इसी तरह घिसटती हुई खत्म हो जाएगी… कि मैं वापस भी नहीं जा सकूंगा गांव… पहले यह सोच कर आया था कि 2-4 साल कमा कर लौट जाऊंगा… मगर, 10 साल होने को हैं, मैं यहीं हूं…’’

‘‘इमोशनल नहीं होने का यार.’’

‘‘नहीं, मैं तो इस बड़े शहर में एक भुनगा हूं.’’

‘‘सुनो यार, मुझे फोन इसलिए नहीं आते हैं कि मेरे घर में लोग नहीं हैं… बल्कि उन्हें पता ही नहीं है कि मैं कहां हूं… इस दुनिया में हूं भी कि नहीं… यह अच्छा है… आज जिस लड़के का एक्सीडैंट हुआ, अगर मेरी तरह होता तो किस्सा खत्म था, पर अब जाने क्या गुजर रही होगी उस के घर वालों पर…’’

‘‘किस लड़के की बात कर रहे हो?’’ वर्मा ने पूछा.

‘‘छोड़ो भी उस बदनसीब को,’’ सुजीत ने अफसोस के साथ कहा, ‘‘तुम्हें दुख होगा. हम लोगों की यहां क्या पहचान है? हम कीटपतंगे हैं, किसी भी वक्त की आग से जल जाएंगे इसी तरह…’’

‘‘अब मैं ने दुख के बारे में सोचना छोड़ दिया, वह तो…’’ वह अपनी बात से पलटा, ‘‘पर, एक बात तुम से बोलूं?’’

‘‘बोलो…’’ सुजीत बोला.

‘‘तुम शादी कर लो.’’

‘‘किस से?’’ सुजीत चौंका.

‘‘अरे, मिल जाएगी…’’ वर्मा ने गिलास उठाते हुए कहा.

‘‘मिली थी…’’ सुजीत ने शराब के सुरूर में कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘खत्म हो गया सब.’’

रात काफी हो गई थी. वर्मा उठ गया. सुजीत ने आखिरी पैग उस के नाम पीया और कहा, ‘‘गुड नाइट.’’

सवेरे सुजीत की नींद देर से खुली, मगर फैक्टरी में समय से पहुंच गया. उसे वहीं पता चला कि रात उस लड़के ने अस्पताल में तकरीबन 3 बजे दम तोड़ दिया. मैनेजर ने एक मुआवजे का चैक दिखा कर हमदर्दी बटोरने के बाद फैक्टरी में चालाकी से छुट्टी कर दी.

सुजीत वापस लौटने ही वाला था कि नीना का फोन आया. चौरंगी बाजार में एक जगह वह इंतजार कर रही थी. सुजीत उदास था, पर चल पड़ा.

‘‘क्या बात है?’’ सुजीत ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर नीना हंसी.

‘‘बुलाया क्यों?’’

‘‘गुस्से में हो?’’

‘‘किस बात के लिए?’’

‘‘अरे, बोलो भी.’’

‘‘बोलूं?’’

‘‘हां.’’

‘‘झूठ क्यों बोली?’’

‘‘क्या झूठ?’’

‘‘कि औफिस में काम करती हो…’’

‘‘नहीं, सच कहा था कि करती थी.’’

‘‘तो वहीं रहती.’’

‘‘मालिक देह मांग रहा था,’’ नीना ने साफसाफ कहा.

‘‘क्या?’’ सुजीत हैरान रह गया, ‘‘क्या कह रही हो?’’

‘‘सच को झूठ समझ रहे हो?’’

सुजीत ने कहा, ‘‘चलो, मुझे ही गलतफहमी हुई थी. माफ करो.’’

‘‘गलतफहमी में तो तुम अभी भी हो…’’ नीना ने कहा.

‘‘मतलब…?’’ सुजीत इस बार एकदम अकबका गया, ‘‘कैसे?’’

‘‘फिर कभी,’’ नीना ने हंस कर कहा, ‘‘जो दिखता है, वह सच नहीं है यहां… और जो नहीं दिखता है, उसे देखना भी कैसे मुमकिन हो सकता है, वहां क्या कम मुश्किलें हैं…’’

उस दिन नीना के प्रति यह गलतफहमी रह जाती, अगर सुजीत उस के साथ घर नहीं गया होता. सचमुच कभीकभी जिंदगी भी क्या खूब मजाक करती है. नीना 2 बूढ़ों को पालते हुए खुद बूढ़ी हो रही थी.

उस दिन नीना का हाथ अपने हाथ में ले कर सुजीत ने कहा, ‘‘मुझे अब नहीं है, तुम्हें कोई गलतफहमी हो, तो कहो.’’

‘‘मुझे है,’’ नीना बोली.

‘‘तो कहो.’’

नीना ने हंस कर कहा, ‘‘पर, अभी नहीं कहूंगी.’’

उस दिन सुजीत को समझे आया कि जिंदगी दो और दो का जोड़ नहीं, एक मुश्किल सवाल है, जिस का फिलहाल कोई हल उसे नहीं सूझ रहा था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें