सबको साथ चाहिए- भाग 3: क्या सही था माधुरी का फैसला

माधुरी के मातापिता भी उसे अपने नए परिवार में खुशी से रचाबसा देख कर संतुष्ट थे. दिन पंख लगा कर उड़ते गए. सुधीर का साथ पा कर माधुरी के मन की मुरझाई लताफिर हरी हो गई. ऐसा नहीं कि माधुरी को प्रशांत की और सुधीर को अपनी पत्नी की याद नहीं आती थी, लेकिन उन दोनों की याद को वे लोग सुखद रूप में लेते थे. उस दुख को उन्होंने वर्तमान पर कभी हावी नहीं होने दिया. उन की याद में रोने के बजाय वे उन के साथ बिताए सुखद पलों को एकदूसरे के साथ बांटते थे.  सोचतेसोचते माधुरी गहरी नींद में खो गई. इस घटना के 10-12 दिन बाद ही सुधीर ने माधुरी को बताया कि रविजी और उन की पत्नी उन के घर आने के इच्छुक हैं. माधुरी उन के आने के पीछे की मंशा समझ गई. उस ने सुधीर से कह दिया कि वे उन्हें रात के खाने पर सपरिवार निमंत्रित कर लें. 2 दिन बाद ही रविजी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को ले कर डिनर के लिए आ गए. विमला माधुरी की हैल्प करवाने के बहाने किचन में आ गई और माधुरी से बातें करने लगी. माधुरी ने स्नेहा से कहा कि प्रिया को बोल दे, डायनिंग टेबल पर प्लेट्स लगा कर रख देगी.

‘‘उसे आज बहुत सारा होमवर्क मिला है मां. उसे पढ़ने दीजिए. मैं आप की हैल्प करवा देती हूं,’’ स्नेहा ने जवाब दिया.

‘‘पर बेटा, तुम्हारे तो टैस्ट चल रहे हैं. तुम जा कर पढ़ाई करो. मैं मैनेज कर लूंगी,’’ माधुरी ने स्नेहा से कहा.

‘‘कोई बात नहीं मां. कल अंगरेजी का टैस्ट है और मुझे सब आता है,’’ स्नेहा प्लेट पोंछ कर टेबल पर सजाने लगी. तभी सुकेश और मधुर बाजार से आइसक्रीम और सलाद के लिए गाजर और खीरे वगैरह ले आए. सुकेश ने तुरंत आइसक्रीम फ्रीजर में रखी और मां से बोला, ‘‘मां, और कुछ काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बेटा. अब तुम आनंद और अमृता को अपने रूम में ले जाओ. वे लोग बाहर अकेले बोर हो रहे हैं,’’ माधुरी ने कहा तो सुकेश बाहर चला गया.

‘‘ठीक है मां, कुछ काम पड़े तो बुला लेना,’’ स्नेहा भी अपना काम खत्म कर के चली गई. अब किचन में सिर्फ मधुरी और विमला ही रह गईं. अब विमला ज्यादा देर तक अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाई और उस ने माधुरी से सवाल किया, ‘‘हम तो 2 ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहे हैं. आप ने 4-4 बच्चों को कैसे संभाला होगा? चारों में अंतर भी ज्यादा नहीं लगता. स्नेहा और मधुर तो बिलकुल एक ही उम्र के लगते हैं.’’  माधुरी इस सवाल के लिए तैयार ही थी. वह अत्यंत सहज स्वर में बोली, ‘‘हां, स्नेहा और मधुर की उम्र में बस 8 महीनों का ही फर्क है.’’

‘‘क्या?’’ विमला बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’

तब माधुरी ने बड़ी सहजता से मुसकराते हुए संक्षेप में अपनी और सुधीर की कहानी सुना दी.  अब तो विमला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘तब भी आप के चारों बच्चों में इतना प्यार है जबकि वे आपस में सगे भी नहीं हैं. मेरे तो दोनों बच्चे सगे भाईबहन होने के बाद भी आपस में इतना झगड़ते हैं कि बस पूछो मत. एक मिनट भी नहीं पटती है उन में. मैं तो इतनी तंग आ गई हूं कि लगता है इन्हें पैदा ही क्यों किया? लेकिन आप के चारों बच्चों में तो बहुत प्यार और सौहार्द दिखता है. चारों आपस में एकदूसरे पर और आप पर तो मानो जान छिड़कते हैं,’’ विमला बोली.

तभी सुधीर की मां किचन में आईं और विमला से बोलीं, ‘‘बात सगेसौतेले की नहीं, प्यार होता है आपसी सामंजस्य से. दरअसल, हम सब अपने जीवन में कुछ अपनों को खोने का दर्द झेल चुके हैं इसलिए हम सभी अपनों की कीमत समझते हैं. इस दर्द और समझ ने ही मेरे परिवार को प्यार से एकसाथ बांध कर रखा है. चारों बच्चे अपनी मां या पिता को खोने के बाद अकेलेपन का दंश झेल चुके थे, इसलिए जब चारों मिले तो उन्होंने जाना कि घर में जितने ज्यादा भाईबहन हों उतना ही मजा आता है. यही राज है हमारे परिवार की खुशियों का. हम दिल से मानते हैं कि सब को साथ चाहिए.’’

विमला उन की बातें सुन कर मुग्ध हो गई, ‘‘सचमुच मांजी, आप के परिवार के विचार और सौहार्द तो अनुकरणीय हैं.’

समय बीतता गया. सुकेश पढ़लिख कर इंजीनियर बना तो मधुर डाक्टर बन गया. मधुर ने एमडी किया और सुकेश ने बैंगलुरु से एमटेक. प्रिया और स्नेहा ने भी अपनेअपने पसंदीदा क्षेत्र में कैरियर बना लिया और फिर उन चारों के विवाह, फिर नातीपातों का जन्म, नामकरण मुंडन आदि की भागदौड़ में बरसों बीत गए. फिर एकएक कर सब पखेरू अपनेअपने नीड़ों में बस गए. सुकेश और प्रिया दोनों इंगलैंड चले गए. जहां दोनों भाईबहन पासपास ही रहते थे. मधुर बेंगलुरु में सैटल हो गया और स्नेहा मुंबई में. मांजी और माधुरी के मातापिता का निधन हो गया.

अब इतने बड़े घर में सुधीर और माधुरी अकेले रह गए. जब बच्चे और नातीपोते आते तो घर भर जाता. कभी ये लोग बारीबारी से सारे बच्चों के पास रह आते, लेकिन अधिकांश समय दोनों अपने घर में ही रहते. अपनी दिनचर्या को उन्होंने इस तरह से ढाला कि सुबह की चाय बगीचे की ताजी हवा में साथ बैठ कर पीते, साथ बागबानी करते. साथसाथ घर के सारे काम करने में दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. दोनों पल भर कभी एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते. अब जा कर माधुरी और सुधीर को एहसास होता कि अगर उन्होंने उस समय अपने मातापिता की बात न मान कर विवाह नहीं किया होता तो आज जीवन की इस संध्याबेला में दोनों इतने माधुर्यपूर्ण साथ से वंचित हो कर बिलकुल अकेले रह जाते. जीवन की सुबह मातापिता की छत्रछाया में गुजर जाती है, दोपहर भागदौड़ में बीत जाती है मगर संध्याबेला की इस घड़ी में जब जीवन में अचानक ठहराव आ जाता है तब किसी के साथ की सब से अधिक आवश्यकता होती है. सुधीर के कंधे पर सिर टिकाए हुए माधुरी यही सोच रही थी. सचमुच, बिना साथी के जीवन अत्यंत कठिन और दुखदायक है. साथ सब को चाहिए.

वारिस- भाग 2: कौन-सी मुक्ति का इंतजार कर रही थी ममता

नरेंद्र ने जब से होश संभाला था उस का भी अमली चाचा से वास्ता पड़ता रहा था. जब भी उस के पांव की चप्पल कहीं से टूटती थी तो उस की मरम्मत अमली चाचा ही करता था. चप्पल की मरम्मत और पालिश कर के एकदम उस को नया जैसा बना देता था अमली चाचा.

काम करते हुए बातें करने की अमली चाचा की आदत थी. बातों की झोंक में कई बार बड़ी काम की बातें भी कह जाता था अमली चाचा.

‘कुदेसन’ के बारे में अमली चाचा से वह पूछेगा, ऐसा मन बनाया था नरेंद्र ने.

एक दिन जब स्कूल से वापस आ कर सब लड़के अपनेअपने घर की तरफ रुख कर गए तो नरेंद्र घर जाने के बजाय चौपाल के करीब पीपल के नीचे जूतों की मरम्मत में जुटे अमली चाचा के पास पहुंच गया.

नरेंद्र को देख अमली चाचा ने कहा, ‘‘क्यों रे, फिर टूट गई तेरी चप्पल? तेरी चप्पल में अब जान नहीं रही. अपने कंजूस बाप से कह अब नई ले दें.’’

‘‘मैं चप्पल बनवाने नहीं आया, चाचा.’’

‘‘तब इस चाचा से और क्या काम पड़ गया, बोल?’’ अमली ने पूछा.

नरेंद्र अमली चाचा के पास बैठ गया. फिर थोड़ी सी ऊहापोह के बाद उस ने पूछा, ‘‘एक बात बतलाओ चाचा, यह ‘कुदेसन’ क्या होती है?’’

नरेंद्र के सवाल पर जूता गांठ रहे अमली चाचा का हाथ अचानक रुक गया. चेहरे पर हैरानी का भाव लिए वह बोले, ‘‘ तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’

‘‘मैं ने सुरजीत के घर में एक औरत को देखा था चाचा, सुरजीत कहता है कि वह औरत ‘कुदेसन’ है जिस को उस का बापू बाहर से लाया है. बतलाओ न चाचा कौन होती है ‘कुदेसन’?’’

‘‘क्या करेगा जान कर? अभी तेरी उम्र नहीं है ऐसी बातों को जानने की. थोड़ा बड़ा होगा तो सब अपनेआप मालूम हो जाएगा. जा, घर जा.’’ नरेंद्र को टालने की कोशिश करते हुए अमली चाचा ने कहा.

लेकिन नरेंद्र जिद पर अड़ गया.

तब अमली चाचा ने कहा,

‘‘ ‘कुदेसन’ वह होती है बेटा, जिस को मर्द लोग बिना शादी के घर में ले आते हैं और उस को बीवी की तरह रखते हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं चाचा.’’

‘‘थोड़े और बड़े हो जाओ बेटा तो सब समझ जाओगे. कुदेसनें तो इस गांव में आती ही रही हैं. आज सुरजीत का बाप ‘कुदेसन’ लाया है. एक दिन तेरा बाप भी तो ‘कुदेसन’ लाया था. पर उस ने यह सब तेरी मां की रजामंदी से किया था. तभी तो वह वर्षों बाद भी तेरे घर में टिकी हुई है. बातें तो बहुत सी हैं पर मेरी जबानी उन को सुनना शायद तुम को अच्छा नहीं लगेगा, बेहतर होगा तुम खुद ही उन को जानो,’’ अमली चाचा ने कहा.

अमली चाचा की बातों से नरेंद्र हक्काबक्का था. उस ने सोचा नहीं था कि उस का एक सवाल कई दूसरे सवालों को जन्म दे देगा.

सवाल भी ऐसे जो उस की अपनी जिंदगी से जुडे़ थे. अमली चाचा की बातों से यह भी लगता था कि वह बहुत कुछ उस से छिपा भी गया था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि होश संभालने के बाद वह जिस खामोश औरत को अपने घर में देखता आ रहा है वह कौन है?

वह भी ‘कुदेसन’ है, लेकिन सवाल तो कई थे.

यदि मेरा बापू कभी मां की रजामंदी से ‘कुदेसन’ लाया था तो आज मां उस से इतना बुरा सलूक क्यों करती है? अगर वह ‘कुदेसन’ है तो मुझ को देख कर रोती क्यों है? जरा सा मौका मिलते ही मुझ को अपने सीने से चिपका कर चूमनेचाटने क्यों लगती थी वह? मां की मौजूदगी में वह ऐसा क्यों नहीं करती थी? क्यों डरीडरी और सहमी सी रहती थी वह मां के वजूद से?

फिर अमली चाचा की इस बात का क्या मतलब था कि अपने घर की कुछ बातें खुद ही जानो तो बेहतर होगा?

ऐसी कौन सी बात थी जो अमली चाचा जानता तो था किंतु अपने मुंह से उस को नहीं बतलाना चाहता?

एक सवाल को सुलझाने निकला नरेंद्र का किशोर मन कई सवालों में उलझ गया.

उस को लगने लगा कि उस के अपने जीवन से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन के बारे में वह कुछ नहीं जानता.

अमली चाचा से नई जानकारियां मिलने के बाद नरेंद्र ने मन में इतना जरूर ठान लिया कि वह एक बार मां से घर में रह रही ‘कुदेसन’ के बारे में जरूर पूछेगा.

‘कुदेसन’ के कारण अब सुरजीत के घर में बवाल बढ़ गया था. सुरजीत की मां ‘कुदेसन’ को घर से निकालना चाहती थी मगर उस का बाप इस के लिए तैयार नहीं था.

इस झगड़े में सुरजीत की मां के दबंग भाइयों के कूदने से बात और भी बिगड़ गई थी. किसी वक्त भी तलवारें खिंच सकती थीं. सारा गांव इस तमाशे को देख रहा था.

वैसे भी यह गांव में इस तरह की कोई नई या पहली घटना नहीं थी.

जब सारे गांव में सुरजीत के घर आई ‘कुदेसन’ की चर्चा थी तो नरेंद्र का घर इस चर्चा से अछूता कैसे रह सकता था?

नरेंद्र ने भी मां और सिमरन बूआ को इस की चर्चा करते सुना था लेकिन काफी दबी और संतुलित जबान में.

इस चर्चा को सुन कर नरेंद्र को लगा था कि उस के मां से कु छ पूछने का वक्त आ गया है.

एक दिन जब नरेंद्र स्कूल से वापस घर लौटा तो मां अपने कमरे में अकेली थीं. सिमरन बूआ किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं और बापू खेतों में था.

नरेंद्र ने अपना स्कूल का बस्ता एक तरफ रखा और मां से बोला, ‘‘एक बात बतला मां, गायभैंस बांधने वाली जगह के पास बनी कोठरी में जो औरत रहती है वह कौन है?’’

नौकर बीवी- भाग 3: शादी के बाद शीला के साथ क्या हुआ?

एक दिन रमेश की मां ने शांता को किसी बात पर मारने की कोशिश की थी, तो बहादुरी कर उसी पर चढ़ बैठी. शांता ने रमेश से शिकायत की, तो रमेश ने भी उसे मारना चाहा. शांता ने डंडा उठा कर उसे ही पीट डाला.

शांता ने गुस्से में आ कर कपड़ों पर मिट्टी का तेल छिड़क कर कमरे में आग लगा दी. मामला पुलिस में गया. उस दिन दारोगा गांव में आए. उन्हें घटना का पता चला, तो उन्होंने शांता को बुला कर सब बातें पूछ लीं.

शांता ने कई झूठी बातें गढ़ दीं. यह भी कह दिया कि रमेश और उस की मां उस से धंधा कराते हैं. उस की बातें सुन कर उन्होंने रमेश और उस की मां पर मुकदमा चलाने की धमकी दी, पर कुछ लेदे कर मामला शांत हो गया.

उस दिन से शांता को किसी ने मारापीटा तो नहीं, पर उस के साथ अपनेपन का बरताव भी किसी ने नहीं किया. उस का मन घर की जेल से ऊबने लगा.

कुछ दिनों के बाद उस ने पड़ोस के एक लड़के, जो रमेश की मां के मायके का था, को रात में एक बहाने से कमरे में बुलाया और फिर जबरन उसे कपड़े उतार कर सोने को कहा.

शांता ने कहा कि वह सैक्स नहीं करेगा, तो उस पर रेप का चार्ज लगा देगी. शांता की उस से पट गई और वह राजी हो गया कि वह उसे इस घर से अपने साथ ले चलेगा.

4-5 रात के बाद शांता ने रमेश के घर का सारा कपड़ागहना एक गठरी में बांधा और वह उस लड़के के साथ उस की बाइक पर चली गई. वे लोग गांव से बाहर निकल कर थोड़ी दूर ही जा पाए थे कि सामने से कोई आता हुआ दिखाई दिया. वे दोनों एक पुरानी कोठरी में छिप गए, जो एक बाबा की मढ़ई थी. बाबा के कोविड से मरने के चलते वह बेकार पड़ी थी.

थोड़ी देर में दिन निकल आया और लोगों के आनेजाने की आहट आने लगी. शांता और उस के साथी ने कोठरी के किवाड़ बंद कर लिए और दिनभर वहीं रह कर रात को वहां से चलने का निश्चय किया.

इधर शांता के भाग जाने की बात सारे गांव में फैल गई. लोगों ने आसपास बहुत ढूंढ़ा, पर उस का कहीं कोई पता नहीं चला. लोगों की सलाह पर रमेश और उस के पिता ने शांता के भाग जाने और चोरी की रिपोर्ट थाने में लिखा दी.

दारोगाजी ने उन्हें खूब आड़े हाथों लिया, ‘‘खुद ही औरतों को खरीद कर लाते हैं, सताते हैं और भाग जाने पर रिपोर्ट लिखाने आते हैं. औरतों को घर से भगाओ तुम और उन्हें ढूंढ़ने का काम पुलिस करे.’’

रमेश और उस के पिता चुपचाप सब सुनते रहे. फिर हाथ जोड़ कर उन्होंने दारोगाजी से कहा, ‘‘अगर आप शांताको पकड़वा दें, तो हम आप को 10,000 रुपए भेंट देंगे.’’

सब को विश्वास हो गया था कि शांता अकेली नहीं गई है. वह उसी लड़के के साथ भागी है, जो रमेश की मां के मायके से आया था.

शांता और उस का साथी दिनभर कोठरी में मौज करते रहे. लड़का एक दिन खाना लाने गया, तो एक आदमी

ने उसे कोठरी में घुसते हुए देख लिया. वह सम?ा गया कि वह कौन हो सकता है. उस ने यह बात रमेश के घर जा कर कह दी.

रमेश के पिता ने बहुत से आदमियों को ले कर कोठरी घेर ली. भीतर से सांकल बंद थी. अंदर से शांता ने कहा, ‘‘हम इस तरह किवाड़ नहीं खोलेंगे. जब तक पुलिस नहीं आ जाती, तब तक किवाड़ नहीं खुलेंगे. शिकायत तो मैं बनाऊंगी कि तुम ने इस लड़के को मेरे साथ पैसे ले कर भेजा. तुम लोग मुझ से धंधा करवा रहे हो. सुबूत के तौर पर मेरे पास कंडोमों के पैकेट पड़े हैं. मैं तो अपना मैडिकल कराऊंगी.’’

मजबूर हो कर सब लोग सवेरे तक वहां बैठे रहे. पुलिस को खबर हो गई, तो दारोगाजी आ गए. तब शांता ने किवाड़ खोल कर कहा कि वह सब को जेल भेजेगी और उस घर में नहीं जाएगी.

दारोगा ने एक लाख रुपए ले कर मामला सुलटाया और रमेश को कहा कि इस लड़की को घर में ही रख और अपने मातापिता से अलग रह. अगर इसे सताया जाएगा, तो यह भाग जाएगी या केस कर देगी.

दारोगाजी ने रमेश के पिता से कहा, इसलिए शांता को सम?ाबु?ा कर घर भेज दिया गया.

अब रमेश अपने मातापिता से अलग शांता के साथ रहता है. अब वह ध्यान रखता है कि शांता को कोई परेशान न हो. अब वह ‘पैर काटने वाली जूती बदलने’ की बात भूल गया है. शायद अब वह पैर की जूती की कीमत सम?ा गया है. पहले वाली जूती उसे मुफ्त मिल गई थी, इसलिए उस ने उतार फेंकी थी. यह जूती बहुत कीमती है. यह चाहे जितना काटे, पैर से उतारी नहीं जा सकती.

शांता अब रमेश के होने या न होने पर चाहे जिसे बिस्तर पर सोने के लिए बुला लेती है. रमेश कुछ कहता है, तो वह कहती है, ‘‘मुझे तो मर्दों का स्वाद है. सतीसावित्री को तो तुम ने बिना तलाक दिए घर से निकाल रखा है. मैं ने तो यहां बीवी की नौकरी की है. तुम चाहे जो करो, मैं यहीं रहूंगी. यहीं खाऊंगी. यहीं मर्दों को लाऊंगी. हां,

तुम ने मुझे रखा है, तो तुम्हारा खयाल रखूंगी. बोलो, आज रात को खीर खाओगे या हलवा?’’

गिरफ्त: भाग 1- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

मनीषा को सामान रखते देख कर प्रिया ने पूछ ही लिया, ‘‘तो क्या, कर ली अजमेर जाने की पूरी तैयारी?’’

‘‘अरे नहीं, पूरी कहां, बस जो सामान बिखरा पड़ा है उसे ही समेट रही हूं. अभी तो एक बैग ले कर ही जाऊंगी, जल्दी वापस भी तो आना है.’’

‘‘वापस,’’ प्रिया यह सुन कर चौंकी थी, ‘‘तो क्या अभी रिजाइन नहीं कर रही हो?’’

‘‘नहीं.’’

मनीषा ने जोर से सूटकेस बंद किया और सुस्ताने के लिए बैड पर आ कर बैठ गई थी.

‘‘बहुत थक गई हूं यार, छोटेछोटे सामान समेटने में ही बहुत टाइम लग जाता है. हां, तो तू क्या कह रही थी. रिजाइन तो मैं बाद में करूंगी, पहले पुणे में जौब तो मिल जाए.’’

‘‘अरे, मिलेगी क्यों नहीं, सुशांत जीजान से कोशिश में लग जाएगा, अब तुझे वह यहां थोड़े ही रहने देगा,’’ प्रिया ने उसे छेड़ा था और मनीषा मुसकरा कर रह गई.

मनीषा और प्रिया इस महिला हौस्टल में रूममेट थीं और दोनों यहां गुरुग्राम में जौब कर रही थीं. मनीषा की शादी अगले महीने होनी तय हुई थी, इसलिए वह छुट्टी ले कर जाने की तैयारी में थी.

‘‘बाय द वे,’’ प्रिया ने उसे फिर छेड़ा था, ‘‘तू अब सुशांत के खयालों में उलझी रह और अपनी पैकिंग भी करती रह, मैं नीचे जा रही हूं. क्या तेरे लिए कौफी ऊपर ही भिजवा दूं? अरे मैडम, मैं आप ही से कह रही हूं.’’ प्रिया ने उसे झकझोरा था.

‘‘हां…हां, सुन रही हूं न, कौफी के साथ कुछ खाने के लिए भी भेज देना, मुझे तो अभी पैकिंग में और समय लगेगा,’’ मनीषा बोली.

‘‘मैं सोच रही हूं कि आज रीना के कमरे में ही डेरा जमाऊं, कुछ काम भी करना है लैपटौप पर,’’ प्रिया बोली.

‘‘हां…हां…जरूर,’’ मनीषा के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘वह तो तू कहेगी ही, अच्छा है रात को सुशांत से अकेले में आराम से चैट करती रहना.’’ मैं चली. हां, यह जरूर कह देना कि यह सब प्रिया की मेहरबानी से संभव हुआ है.’’

‘‘अरे हां, सब कहूंगी,’’ मनीषा हंस पड़ी थी. प्रिया के जाने के बाद उस ने बचा हुआ सामान समेटा और सोचने लगी, ‘चलो, अब ठीक है. छुट्टी के बाद ही लौटेंगे तो कम से कम सामान तो पैक ही मिलेगा.’

हाथमुंह धो कर उस ने कपड़े बदले. तब तक प्रिया ने कौफी के साथ कुछ सैंडविच भी भिजवा दिए थे. कौफी पी कर वह कमरे के बाहर बनी छोटी सी बालकनी में आ गई थी.

शाम को अंधेरा बढ़ने लगा था पर नीचे बगीचे में लाइट्स जल रही थीं जिस से वातावरण काफी सुखद लग रहा था. झिलमिलाती रोशनी को देखते हुए वह बालकनी में ही कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

तो आखिर शादी तय हो ही गई थी उस की. सुशांत को याद करते ही पता नहीं कितनी यादें दिलोदिमाग पर छाने लगी थीं.

पता नहीं उस के साथ लंबे समय तक क्या होता रहा. पापा ने कई लड़के देखे, कहीं लड़का पसंद नहीं आया तो कहीं दहेज की मांग, तो किसी को लड़की सांवली लगती.

चलचित्र की तरह सबकुछ आंखों के सामने घूमने लगा था. हां, रंग थोड़ा दबा हुआ जरूर था उस का पर पढ़ाई में तो वह शुरू से ही अव्वल रही. इंजीनियरिंग कर के एमबीए भी कर लिया. अच्छी नौकरी मिल गई. फिर आत्मनिर्भर होते ही व्यक्तित्व में भी तो निखार आ ही जाता है.

अब तो हौस्टल की दूसरी लड़कियां भी कहती हैं, ‘अरे, रंग कुछ दबा हुआ है तो क्या, पूरी ब्यूटी क्वीन है हमारी मनीषा.’

एकाएक उस के होंठों पर मुसकान खिल गई थी. सुशांत ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था. फिर उस की मां और मौसी दोनों आईं और शगुन कर गईं.

अब तो 15 दिनों बाद सगाई और शादी दोनों एकसाथ ही करने का विचार था.

तय यह हुआ कि सुशांत का परिवार और रिश्तेदार 2 दिन पहले ही अजमेर पहुंच जाएं. पापा ने उन के लिए एक पूरा रिसौर्ट बुक करा दिया था. घर के रिश्तेदारों के लिए पास के एक दूसरे बंगले में ठहरने का इंतजाम था.

कल ही मां ने फोन पर सूचना दी थी, ‘मनी, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बस, अब तू छुट्टी ले कर आजा. घर पर तेरा ही इंतजार है.’

‘हां मां, आ तो रही हूं, परसों पहुंच जाऊंगी आप के पास,’ मां तो पता नहीं कब से पीछे पड़ी थीं.

‘बहुत कर ली नौकरी, अब घर आ कर कुछ दिन हमारे पास रह. शादी के बाद तो ससुराल चली ही जाएगी. और हां, लड़कियां शादी से पहले हलदीउबटन सब करवाती हैं. तू भी ब्यूटी पार्लर जा कर यह सब करवाना.’

‘चली जाऊंगी मां, 15 दिन बहुत होते हैं अपना हुलिया संवारने को,’ मनीषा बोली.

उस ने बात टाली थी. पर मां की याद आते ही बहुत कुछ घूम गया था दिमाग में. एक माने में मां की बात सही भी थी, अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में वह काफी समय घर से बाहर ही रही. और अब शादी कर के घर से दूर हो जाएगी तो वे भी चाहती हैं कि बेटी कुछ दिन उन के पास भी रह ले. चलो, अब मां भी खुश हो जाएंगी. कह भी रही थीं कि मेरी पसंद के सारे व्यंजन बना कर खिलाएंगी मुझे.

‘अरे मां, अब तो मैं ज्यादा तलाभुना खाना भी नहीं खाती हूं.’

‘हां…हां, पता है. पर यहां तेरी मनमानी नहीं चलेगी, समझी,’ मां ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘अरे, फोन बज रहा है,’ कमरे में रखा उस का मोबाइल बज रहा था. लो, मां को याद किया तो उन का फोन भी आ गया. इसी को शायद टैलीपैथी कहते हैं. वह तेजी से अंदर गई. अरे, यह तो सुशांत का फोन है, पर इस समय कैसे. अकसर उस का फोन तो रात 10 बजे के बाद ही आता था और अगर पास में प्रिया सो रही हो तो वह बाहर बालकनी में बैठ कर आराम से घंटे भर बातें करती थी पर इस समय, वह चौंकी थी.

‘‘हां सुशांत, बस, मैं कल निकल रही हूं अजमेर के लिए, थोड़ाबहुत सामान पैक किया है,’’ मोबाइल उठाते ही उस ने कहा था.

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

गिरफ्त: क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

बगावत: क्या प्रेम के लिए तरस रही उषा को प्यार मिल पाया?

बगावत: भाग 1- क्या प्रेम के लिए तरस रही उषा को प्यार मिल पाया?

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.

दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’

‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.

‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.

‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’

‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.

‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’

‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.

कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.

‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’

3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.

बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.

‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.

‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’

उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

गिरफ्त: भाग 2- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी. रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

गिरफ्त: भाग 3- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

रिश्तों की मर्यादा- भाग 2: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

राइटर- नीरज कुमार मिश्रा

नमिता अब भी बिस्तर पर पड़ी कसमसा रही थी. जब वह हथकड़ी से आजाद नहीं हो पाई, तो हार कर तरुण को ही उस के हाथों को खोलना पड़ा और उसे खोलते ही नमिता नीचे पड़े हुए अपने कपड़ों को पहनने लगी, तो तरुण उसे भद्दीभद्दी गालियां देने लगा और गुस्से में उसे 2 तमाचे और जड़ दिए.

‘‘तुम को मेरे साथ रहने का कोई हक नहीं है… तुम अभी और इसी समय मेरे घर से निकल जाओ,’’ एक फरमान सा सुना दिया था तरुण ने, जिसे सुनने के बाद नमिता इतना तो सम?ा गई थी कि इस समय तरुण के सामने रोने या गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होने वाला, इसलिए वह सिर ?ाकाए सुनती रही.

अपने पति के घर से निकाले जाने के बाद नमिता को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करे और कहां जाए…

सड़क के किनारे बहुत देर तक नमिता शून्य की हालत में खड़ी रही और सड़क पर आनेजाने वाले सैकड़ों लोगों को देखती रही. काफी देर बाद उस ने सुदेश को फोन लगाया, तो सुदेश का मोबाइल स्विच औफ आ रहा था. शायद उस ने ऐसा तरुण के डर के चलते किया होगा या फिर वह नमिता से पीछा छुड़ाना चाहता है? ऐसे ढेरों सवाल नमिता के मन में थे.

आज से पहले नमिता ने कभी नहीं सोचा था कि अपने ही शहर में वह एकदम बेगानी हो जाएगी… तो क्या उस ने

एक पराए मर्द के साथ शारीरिक संबंध बना कर जो अपराध किया है, उस की सजा तो मिलनी ही चाहिए उसे… पर कैसा अपराध?

तरुण भी तो दूध के धुले नहीं हैं… कई बार तो नमिता ने खुद ही अपने कानों से उन्हें अपनी एक दोस्त से फोन पर बातें करते सुना है और फिर तरुण कई दिनों तक घर से बाहर भी तो रहते हैं… ऐसे में उस का किसी पराए मर्द के प्रति आकर्षित हो जाना सहज ही तो है.

नमिता अपने मन में तमाम बातें सोच रही थी और अपने मन को सम?ाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘कहां जाना है मैडम आप को?’’ एक ईरिकशा वाले ने ब्रेक लगाते हुए पूछा.

‘‘घर जाना है मु?ो…’’ यह कहते हुए नमिता ईरिकशा में बैठ गई और उस से बसस्टैंड चलने को कहा.

बसस्टैंड पर आ कर नमिता अपने मायके यानी सीतापुर जाने वाली बस में बैठ गई. जल्दबाजी में वह पर्स लाना भूल गई थी और पास में पैसे तो थे नहीं, पर नमिता के हाथ में मोबाइल था. सो, टिकट की चिंता नहीं थी, क्योंकि आजकल बस वाले भी औनलाइन पैसे लेने से मना नहीं करते.

3 घंटे के सफर के बाद नमिता अपने मायके पहुंच गई थी. वहां पर सिर्फ उस के भैयाभाभी और विधवा मां ही थीं. सब से मिल कर वह ?ाठी खुशी दिखाने की कोशिश तो कर रही थी, पर मायके वालों को यह सम?ाते देर नहीं लगी कि पतिपत्नी में ?ागड़ा हुआ है.

हालांकि कुछ महीने बीत जाने के बाद नमिता ने खुद ही अपनी मां को सारी बात सचसच बता दी. मां कुछ बोल न सकीं, सिर्फ नमिता को गले से लगा लिया. नमिता का मन भर आया था.

नमिता की पढ़ाईलिखाई अब काम आई, जब जीविका चलाने और भैयाभाभी पर बो?ा न बने रहने के नाते उस ने सीतापुर में ही एक डिगरी कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया और वैसे भी नमिता के पास उस की पुरानी सेविंग्स तो थीं ही, इसलिए पैसे की ज्यादा चिंता नहीं थी उसे… और इस बीच उस ने कई बार कांपते हाथों से तरुण का नंबर मिलाया, पर वह कभी उठा नहीं…

जिंदगी में मुश्किल समय जल्दी नहीं बीतता… यही हाल नमिता का भी था, पर अब काम में बिजी हो जाने के चलते उस का समय भी बीत रहा था और घर में पैसे भी आ रहे थे, पर मायके में शादीशुदा लड़की का रहना आसपड़ोस के लोगों के लिए एक प्रपंच का विषय तो बन ही चुका था, लेकिन नमिता ने इन सब बातों की परवाह करनी छोड़ दी थी.

नमिता को लखनऊ छोड़े तकरीबन एक साल बीत गया था. इस बीच सुदेश का कई बार फोन भी आया, पर नमिता ने एक बार भी उस का फोन रिसीव नहीं किया.

तरुण ने कोई खोजखबर नहीं ली, पर आज एक नंबर से नमिता के मोबाइल पर एक फोन आया, तो उधर से तरुण की धीमी आवाज थी, ‘नमिता… क्या तुम मेरे पास आ सकती हो… कुछ जरूरी काम है और कुछ बात भी करनी है…’

नमिता बहुतकुछ बोलना चाहती थी, पर कुछ कह नहीं सकी. उसे लग रहा था कि निश्चित ही तरुण उसे तलाक देने के लिए कागजी कार्यवाही करना चाहता है.

नमिता ने सिर्फ हां में जवाब दिया और अगले दिन ही तरुण के पास पहुंच गई.

दरवाजा तरुण ने ही खोला. वह काफी थका सा लग रहा था. नमिता ने मन में सोचा था कि हो सकता है, तरुण ने किसी वकील को बुलाया हो जो कुछ कागजों पर दस्तखत करवाएगा, पर यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं था. अलबत्ता, मेज पर कुछ दवाएं जरूर पड़ी हुई थीं.

‘‘दरअसल, तुम्हें घर से निकालने के बाद मैं काफी सदमे में रहा और कुछ दिन बाद बिस्तर से लग गया. चैकअप कराया, तो मुझे कैंसर निकला. मैं ने इलाज तो कराया, पर कोई फायदा नहीं हुआ और आगे महंगे इलाज के लिए मेरे पास पैसे भी नहीं थे…

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