पत्नी की बात मानना नहीं है दब्बूपन की निशानी

पुरुषप्रधान समाज में आज महिलाएं हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पढ़ीलिखी, योग्य व समझदार पत्नी की राय को सम्मान देना पति का गुलाम होना नहीं, बल्कि उस की बुद्धिमत्ता को दर्शाता है.

कपिल इंजीनयर हैं. लोक सेवा आयोग से चयनित राकेश उच्च पद पर हैं. विभागीय परिचितों, साथियों में दोनों की इमेज पत्नियों से डरने, उन के आगे न बोलने वाले भीरु या डरपोक पतियों की है. पत्नियों का आलम यह है कि नौकरी संबंधी समस्याओं की बाबत मशवरे के लिए पतियों के उच्च अधिकारियों के पास जाते समय वे भी उन के साथ जाती हैं.

उच्चाधिकारियों से मशवरे के दौरान कपिल से ज्यादा उन की पत्नी बात करती है. सोसाइटी में कपिल की दयनीय स्थिति को ले कर खूब चर्चाएं होती हैं. वहीं, राकेश ने अपनी स्थिति को जैसे स्वीकार ही कर लिया है और उन्हें इस से कोई दिक्कत नहीं है. असल में, उन्हें पत्नी की सलाह से बहुत बार लाभ हुए. बहुत जगह वह खुद ही काम करा आती. वे सब के सामने स्वीकार करते हैं कि शादी के बाद उन की काबिल पत्नी ने बहुत बड़ा त्याग किया है. वे घर व बाहर के सभी काम खुशीखुशी करते हैं, पत्नी की डांट भी खाते हैं और कभी ऐसा नहीं लगता कि वे खुद को अपमानित महसूस करते हों.

वास्तव में जो पतिपत्नी आपस में अच्छी समझ रखते हैं और मिलजुल कर निर्णय लेते हैं उन के घर में आपसी सामंजस्य और हंसीखुशी का माहौल रहता है. जरूरत इस बात की है कि पति हो या पत्नी, दोनों एकदूसरे की राय को बराबर महत्त्व व सम्मान दें और कोई भी निर्णय किसी एक का थोपा हुआ न हो. यदि पत्नी ज्यादा समझदार, भावनात्मक रूप से संतुलित व व्यावहारिक है तो पति अगर उस की राय को मानता है तो इस में पति को दब्बू न समझ कर, समझदार समझा जाना चाहिए.

इस के विपरीत, महेश और उन की पत्नी का दांपत्य जीवन इसलिए कभी सामान्य नहीं रह पाया क्योंकि उन्होंने अपनी दबंग पत्नी के सामने खुद को समर्पित नहीं किया. उन का सारा वैवाहिक जीवन लड़तेझगड़ते, एकदूसरे पर अविश्वास और शक करते हुए बीता. इस के चलते उन के बच्चे भी इस तनाव का शिकार हुए.

कई परिवार ऐसे दिख जाएंगे जिन में पति की कोई अस्मिता या सम्मान नहीं दिखेगा और पत्नियां पूरी तरह से परिवार पर हावी रहती हैं. ये पति अपने इस जीवन को स्वीकार कर चुके होते हैं और परिस्थितियों से समझौता कर चुके होते हैं. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ये दब्बू या कायर व्यक्ति हैं जिन का कोई आत्मसम्मान नहीं है? या फिर किन स्थितियों में उन्होंने हालात से समझौता कर लिया है और अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया है? अगर गहन विश्लेषण करें तो इन स्थितियों के कारण सामाजिक, पारिवारिक ढांचे में निहित दिखते हैं, जिन के कारण कई लोगों को अवांछित परिस्थितियों को भी स्वीकार करना पड़ता है.

समाज में एक बार शादी हो कर उस का टूटना बहुत ही खराब बात मानी जाती है. विवाह जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. और फिर बच्चों का भविष्य, परिवार की जगहंसाई, समाज का संकीर्ण रवैया आदि कई बातें हैं जिन के कारण लोग बेमेल शादियों को भी निभाते रहते हैं. कर्कशा और झगड़ालू पत्नियों के साथ  पति सारी जिंदगी बिता देते हैं. ऐसी स्त्रियां बच्चों तक को अपने पिता के इस तरह खिलाफ कर देती हैं कि बच्चे भी बातबात पर पिता का अपमान कर मां को ही सही ठहराते हैं और पुरुष बेचारे खून का घूंट पी कर सब चुपचाप सहन करते रहते हैं. समाज का स्वरूप पुरुषवादी है और यदि वह पत्नी की बात मानता है, उस की सलाह को महत्त्व देता है तो परिवार व समाज द्वारा उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

बच्चे भी तनाव के शिकार

श्रमिक कल्याण विभाग के एक औफिसर की पत्नी ने पति की सारी कमाई यानी घर, प्रौपर्टी हड़प कर, बच्चों को भी अपने पक्ष में कर के गुंडों की मदद से पति को घर से निकलवा दिया और वह बेचारा दूसरे महल्ले में किराए का कमरा ले कर रहता है, कभीकभार ही घर आता है. आखिर, इस तरह के एकतरफा संबंध चलते कैसे रहते हैं?  इतना अपमान झेल कर भी पुरुष क्यों  ऐसी पत्नियों के साथ निभाते रहते हैं?

वास्तव में सारा खेल डिमांड और सप्लाई का है. भारतीय समाज में शादी होना एक बहुत बड़ा आडंबर होने के साथसाथ एक सामाजिक बंधन ज्यादा है. चाहे उस बंधन में प्रेम व विश्वास हो, न हो, फिर भी उसे तोड़ना बहुत ही कठिन है. वैवाहिक संबंध को तोड़ने पर समाज, रिश्तेदारों, आसपास के लोगों के सवालों को झेलना और सामाजिक अवहेलना को सहन करना बहुत ही दुखदायी होता है. और एक नई जिंदगी की शुरुआत करना तो और भी दुष्कर होता है. ऐसे में व्यक्ति अकेला हो जाता है और मानसिक रूप से टूट जाता है.

बच्चों का भी जीवन परेशानियों से भर जाता है. उन की पढ़ाई, कैरियर सब प्रभावित होते हैं, साथ ही, बच्चे मानसिक रूप से अस्थिर हो कर कई तरह के तनावों का शिकार हो जाते हैं

इन परिस्थितियों में अनेक लोग इसी में समझदारी समझते हैं कि बेमेल रिश्ते को ही झेलते रहा जाए और शांति बनाए रखने के लिए चुप ही रहा जाए. जब पति घर में शांति बनाए रखने के लिए चुप रहते हैं और पत्नी के साथ जवाबतलब नहीं करते तो इस तरह की अधिकार जताने वाली शासनप्रिय महिलाएं इस का फायदा उठाती हैं और पतियों पर और ज्यादा हावी होने की कोशिश करने लगती हैं. ऐसी पत्नी को इस बात का अच्छी तरह भान होता है कि यह व्यक्ति उसे छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता. अगर पति कुछ विरोध करने की कोशिश करता भी है तो वह उस पर झूठा इलजाम लगाने लगती है. यहां तक कि उसे चरित्रहीन तक साबित कर देती है.

ऐसी हालत में पुरुष की स्थिति मरता क्या न करता की हो जाती है. इधर कुआं तो उधर खाई. पति को अपने चंगुल में रखना ऐसी स्त्रियों का प्रमुख उद्देश्य होता है. वे घर तो घर, बाहर व चार लोगों के सम्मुख भी पति पर अपना अधिकार व शासन प्रदर्शित करने से बाज नहीं आतीं. और धीरेधीरे यह उन की आदत में आ जाता है. स्थिति को और ज्यादा हास्यास्पद बनने न देने के लिए पतियों के पास चुप रहने के सिवा चारा नहीं होता. इसे उन का दब्बूपन समझ कर उन पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. यह इमेज बच्चों की नजरों में भी पिता के सम्मान को कम कर देती है और ये औरतें बच्चों को भी अपने स्वार्थ व अपने अधिकार को पुख्ता बनाने के लिए इस्तेमाल करती हैं. समस्या की जड़ हमारे समाज का दकियानूसी ढांचा है जहां व्यक्ति इस संबंध को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाता और अपना सारा जीवन इसी तरह काट देता है.

हमेशा केवल स्त्रियों की त्रासदी का जिक्र किया जाता है. कई पुरुषों का जीवन भी त्रासदीपूर्ण होता है, ऐसा गलत स्त्री से जुड़ जाने के कारण हो जाता है. ऐसे पुरुषों के प्रति भी सहानुभूति रखनी चाहिए और वैवाहिक जीवन को डिमांड व सप्लाई का खेल न बना कर प्रेम व एकदूसरे के प्रति सम्मान की भावना से पूर्ण बनाना चाहिए.

पतिपत्नी गाड़ी के 2 पहिए

इस समस्या को दूसरे पहलू से भी देखा जाना चाहिए. एक धारणा बना रखी गई है कि पुरुष हमेशा स्त्री से ज्यादा समझदार होते हैं. समाज ने पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक सभी तरह के निर्णय लेने के अधिकार पुरुष के लिए रिजर्व कर दिए हैं. जबकि, यह तथ्य हमेशा सही नहीं हो सकता कि पुरुष ही सही निर्णय ले सकते हैं, स्त्री नहीं. जो स्त्री सारा घर चला सकती है, उच्चशिक्षा ग्रहण कर बड़ेबड़े पद संभाल सकती है वह पति को निर्णय लेने में अपनी सलाह या मशवरा क्यों नहीं दे सकती?

कई बार देखा गया है कि स्त्रियां परिस्थितियों को ज्यादा सही ढंग से समझ पाती हैं और अधिक व्यावहारिक निर्णय लेती हैं. ऐसे में यदि पति अपनी पत्नी की राय को सम्मान देता है, उस के मशवरे को मानता है तो उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा देना कैसे उचित है?

परिवार में केवल एक के द्वारा लिए गए फैसले एकतरफा और जल्दबाजी में लिए गए भी हो सकते हैं. जब कहते हैं कि, पतिपत्नी एक गाड़ी के 2 पहिए हैं, तो भला एक पहिए से गाड़ी कैसे चल सकती है? पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है लेकिन वही अर्धांगिनी अपनी बात मानने को या उस की राय पर विचार करने को कहे तो उसे शासन करना कहा जाता है. अब वह समय आ गया है कि दकियानूसी धारणाओं को छोड़ परिवार के निर्णयों को लेने में स्त्री की राय को भी प्राथमिकता दी जाए और उसे पूरा महत्त्व दिया जाए.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली, मध्य प्रदेश में तो बुरा हाल

फरवरी महीने के ठंड और गरमी से मिलेजुले दिनों में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी अस्पताल में सुबह 8 बजे से ही मरीजों की काफी भीड़ जमा हो गई थी. भीड़ में मर्दऔरतों का जमावड़ा तो था ही, अपने छोटेछोटे बच्चों को गोद में लिए कुछ नौजवान औरतें भी अपनी बारी के आने का इंतजार कर रही थीं.

10 रुपए काउंटर पर जमा कर के सभी अपने हाथ में ओपीडी की स्लिप पकड़े हुए डाक्टर के आने की बाट जोह रहे थे. सभी आपस में अपने दुखदर्द सा?ा करते हुए अपनीअपनी बीमारी की चर्चा कर रहे थे. ज्यादातर मरीज मौसमी बुखार और सर्दीखांसी से पीडि़त नजर आ रहे थे.

तकरीबन 9 बजे ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ओपीडी में आए, तो घंटों लाइन में लगे मरीजों और उन के साथ आए लोगों के चेहरे पर मुसकान फैल गई. डाक्टर ने बारीबारी से मरीजों को देखना शुरू किया और परचे पर दवाएं लिख दीं.

कुछ ही समय में दवा के काउंटर पर भी भीड़ बढ़ने लगी. काउंटर पर तैनात मुलाजिम कुछ दवाएं दे रहा था और कुछ दवाएं मैडिकल स्टोर से खरीदने का बोल रहा था. मरीज इस बात को ले कर परेशान थे कि उन्हें मैडिकल स्टोर से महंगी दवाएं लेनी पड़ेंगी.

अभी कुछ ही मरीजों का इलाज हुआ था कि सड़क हादसे में घायल हुए एक आदमी को कुछ लोग अस्पताल ले कर आए. उन में से एक आदमी ने डाक्टर से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, पहले इसे देख लीजिए. इस के सिर में चोट लगी है और खून भी बह रहा है.’’

तकरीबन 5,000 की आबादी वाले इस गांव में नौकरी कर रहे उस एकलौते डाक्टर ने ओपीडी छोड़ कर घायल आदमी की तरफ रुख करते हुए उसे ले कर आए लोगों से कहा, ‘‘अस्पताल में पट्टी नहीं है. जब तक मैं घाव पर मरहम लगाता हूं, तब तक आप बाहर मैडिकल स्टोर से पट्टियां मंगवा लीजिए.’’

एक नौजवान भागते हुए बाहर से पट्टियां खरीद कर ले आया, तो डाक्टर ने प्राथमिक उपचार कर उसे डिस्ट्रिक्ट हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया.

गांव में मेहनतमजदूरी करने वाले लोगों का सुबह से काम पर न जाने से मजदूरी का नुकसान तो हो ही रहा था, ऊपर से उन्हें जेब से कुछ रुपए भी खर्च करने पड़ रहे थे. कुछ नौजवान सरकार को कोस भी रहे थे कि सरकारी अस्पताल में इलाज के माकूल इंतजाम नहीं हैं और सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का ढोल पीट रही है.

सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी का नजारा कोई नई बात नहीं है. गांवकसबों के बहुत से अस्पताल तो डाक्टरों के बिना भी चल रहे हैं. सरकार गरीबों के उपचार के लिए ढेर सारी योजनाएं बना रही है, मगर डाक्टर और स्टाफ की कमी से जू?ाते अस्पताल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को इलाज मुहैया कराने में नाकाम हो रहे हैं. सरकारी अस्पतालों का सच जानने के लिए देश के अलगअलग हिस्सों का रुख करते हैं.

मध्य प्रदेश में कटनी जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी बदहाल है, इस का खुलासा नीति आयोग द्वारा जारी हुई लिस्ट से हुआ है. इस में रीठी स्वास्थ्य केंद्र के हालात काफी खराब बताए गए हैं, जिसे ले कर नीति आयोग ने कटनी सीएमएचओ राजेश आठ्या को चिट्ठी जारी करते हुए उन्हें इंतजाम दुरुस्त करने के निर्देश जारी किए हैं.

कटनी में 6 स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं, जिस के हर केंद्र में 4 से 5 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं, लेकिन तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में न तो डाक्टर मिलते हैं, न ही बेहतर इलाज. इन सब बातों की जांच के लिए बाहर से आई टीम ने जिले के सभी ब्लौकों में स्वास्थ्य इंतजामों की जांच की, जिस में सब से खराब हालात रीठी स्वास्थ्य केंद्र में मिले थे.

रीठी ब्लौक का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी इलाकों में शामिल है, जहां गरीब तबके के लोग रहते हैं. हालांकि, क्षेत्र में स्वास्थ्य इंतजामों को दुरुस्त करने के लिए शासन ने लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च किए हैं, लेकिन जमीनी लैवल पर हालात जस के तस बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के गांवदेहात के इलाकों में नएनए अस्पताल भवन तो बन रहे हैं, लेकिन इन अस्पतालों में न तो डाक्टर हैं और न ही इलाज की जरूरी सुविधाएं हैं. कई अस्पताल ऐसे हैं, जो बंद ही रहते हैं, तो कई अस्पताल कभीकभार खुलते हैं.

गांवदेहात के अस्पतालों की इस बदहाली के चलते मरीज व घायलों को इलाज के लिए ?ालाछाप डाक्टरों के यहां जाना पड़ता है, जहां इलाज कराना न सिर्फ जोखिम भरा है, बल्कि जेब पर भी भारी पड़ता है.

मध्य प्रदेश में गांवकसबों के अस्पताल के अलावा कई शहरों के अस्पताल भी अच्छी हालत में नहीं हैं. शाजापुर का जिला अस्पताल खुद बीमार है. इस अस्पताल में लिफ्ट तो है, लेकिन चलती नहीं. एक्सरे मशीन लगी है, लेकिन रिपोर्ट बनाने के लिए फिल्म नहीं है. मजबूरी में लोग कागज पर एक्सरे की रिपोर्ट निकलवाते हैं और यही रिपोर्ट डाक्टर को दिखा कर अपना इलाज कराते हैं.

जब कोई मरीज काफी पूछताछ करता है, तो रेडियोलौजिस्ट एक ही जवाब देता है कि एक्सरे की फिल्म काफी महंगी आती है और कई साल से सरकार ने इस के लिए बजट ही नहीं दिया है.

सरकारी अस्पताल में सरकार ने जांच के लिए भले ही मशीन लगा दी हो, पर स्टाफ की कमी की वजह से मरीजों को सुविधा कम, परेशानी ज्यादा हो रही है.

राजस्थान के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में मरीजों को सोनोग्राफी कराने के लिए लंबी कतार में लगना पड़ता है. उदयपुर में सोनोग्राफी के लिए मरीजों को एक हफ्ते के बाद आने को कहा जाता है और भीलवाड़ा में 15 से 20 दिन बाद की तारीख मिलती है. अलवर के राजीव गांधी सामान्य अस्पताल में तो मरीजों को सोनोग्राफी जांच के लिए 2 महीने का इंतजार करना पड़ता है.

मजबूरन मरीजों को निजी लैब से सोनोग्राफी करानी पड़ रही है. जब तक परची नहीं कटती, तब तक मरीज को पता नहीं चलता कि उसे सोनोग्राफी की कौन सी तारीख दी जा रही है. प्राइवेट लैब से सोनोग्राफी के लिए 800 से 1,000 रुपए ढीले करने पड़ते हैं.

?ां?ानूं के राजकीय भगवानदास खेतान अस्पताल में सिर्फ एक सोनोग्राफी मशीन है, जिस में रोजाना 40 मरीजों की सोनोग्राफी हो पाती है. बाद में आने वालों को आगे की तारीख दे दी जाती है. यहां पर एक दूसरी सोनोग्राफी मशीन स्टोर में ताले में बंद पड़ी है.

जोधपुर के उम्मेद अस्पताल में इंडोर पेशेंट की इमर्जैंसी के हिसाब से उसी दिन और बाकी की 24 घंटे में सोनोग्राफी होती है और आउटडोर मरीजों को सोनोग्राफी के लिए 20 से 25 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

भीलवाड़ा के एमजीएच में 4 सोनोग्राफी मशीन हैं, लेकिन 2 ही डाक्टर होने से 2 मशीन पर ही सोनोग्राफी की जाती है. उदयपुर के आरएनटी मैडिकल कालेज में सोनोग्राफी की तारीख 5 से 7 दिन बाद की मिलती है. गर्भवती महिलाओं और दूसरे मरीजों के लिए अलगअलग व्यवस्था रहती है. गर्भवती महिलाओं को 6 से 7 दिन बाद की तारीख दी जाती है.

शहरी बना रहे हैं नीतियां आज भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. एंबुलैंस, शव वाहन, जननी ऐक्सप्रैस जैसे वाहन केवल प्रचार का जरीया बने हुए हैं. ओडिशा के कालाहांडी से ले कर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश में अस्पताल से मृतक के शव को परिजनों द्वारा कंधे, साइकिल और आटोरिकशा पर लाद कर घर ले जाने की तसवीरें केंद्र और राज्य सरकारों की स्वास्थ्य योजनाओं की पोल खोलती नजर आती हैं.

आजादी के बाद कांग्रेस के राज को कोसने वाली इस सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि 10 सालों में उस ने देश के अंदर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार में कौन सा बड़ा कदम उठाया है? चौराहों पर लगे बड़ेबड़़े होर्डिंग स्वास्थ्य सुविधाओं का बखान कर देखने में भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर जमीनी तौर पर पर इन योजनाओं का असरदार ढंग से पूरा न होने से देश के नागरिकों का हाल बेहाल है. भूखेनंगे गरीबों को इलाज की सुविधा मुहैया नहीं है और आप ऊंचीऊंची मूर्तियों पर पैसा लुटा रहे हैं.

देश में राम मंदिर बनाने से भले ही वोट बटोरे जा सकते हों, पर गरीब के दुखदर्द नहीं मिटाए जा सकते. शायद आप भूल जाते हैं कि देश को मंदिरों की नहीं, बल्कि अस्पतालों की जरूरत ज्यादा है.

जनता अब अच्छी तरह जान गई है कि जुमलों से इनसान के दुखदर्द को दूर करने का झांसा देने वाले धर्म के ठेकेदार कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण किस तरह मंदिरों में ताले लगा कर मुंह छिपा कर घरों में कैद हो गए थे.

मगर भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बेहद कमजोर है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की तादाद बेहद कम है, तो निजी अस्पतालों का महंगा इलाज गरीब के बूते के बाहर है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, तकरीबन 1,000 की आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए, लेकिन इस पैमाने पर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कहीं नहीं टिकती है. नैशनल हैल्थ प्रोफाइल की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 11,000 से ज्यादा की आबादी पर महज एक सरकारी डाक्टर है.

उत्तर भारत के राज्यों में हालात बद से बदतर हैं. बिहार में एक सरकारी डाक्टर के कंधों पर 28,391 लोगों के इलाज की जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश में 19,962, झारखंड में 18,518, मध्य प्रदेश में 17,192, महाराष्ट्र में 16,992 और छत्तीसगढ़ में 15,916 लोगों पर महज एक डाक्टर है.

केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री संसद में बता चुके हैं कि देश में कुल 6 लाख डाक्टरों की कमी है. हाल इतना बुरा है कि देश के 15,700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ एकएक डाक्टर के भरोसे चल रहे हैं.

इंडियन जर्नल औफ पब्लिक हैल्थ ने अपनी एक स्टडी में कहा है कि अगर भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानक पर पहुंचना है, तो उसे साल 2030 तक 27 लाख डाक्टरों की भरती करनी होगी. हालांकि, स्वास्थ्य और शिक्षा के बजाय भगवा रंग में रंगी यह सरकार मंदिर बनाने और मूर्तियां लगाने पर पैसा पानी की तरह बहा देगी, लेकिन गरीब जनता की सेहत से उसे कोई सरोकार नहीं है.

दरअसल, एयरकंडीशनर कमरों में बैठ कर नीतियां बनाने वाले शहरी नीतिनिर्धारक अभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि गांव वालों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते. सच तो यह है कि गांव के लोगों के पास इलाज के लिए पैसे होते तो वे सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बजाय प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराते.

गांवकसबों के लिए सरकारी नीतियां अब विधायक, सांसद नहीं बनाते, बल्कि शहरों के इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले अफसर बनाते हैं. ये अफसर कंप्यूटर पर 50 पेज का पावर पौइंट प्रैजेंटेशन तैयार कर मीटिंग में मंत्रियों को दिखाते हैं, मगर गांव के हालात से उन्हें कोई मतलब नहीं होता.

सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार कर करोड़ों रुपए की रकम ऐंठने वाले इन अफसरों के गांवकसबों में बड़ेबड़े रिजौर्ट तो बन गए हैं, मगर गांव से इन का कोई सरोकार नहीं है. अफसर और मंत्रियों की काली कमाई से बड़े शहरों में प्राइवेट हौस्पिटल बने हुए हैं, जिन तक गांव के गरीब आदमी की पहुंच ही नहीं है.

स्वास्थ्य सेवाओं में फिसड्डी

मध्य प्रदेश के 51 जिलों में 8,764 प्राथमिक उपस्वास्थ्य केंद्र, 1,157 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 63 सिविल अस्पताल, 51 जिला अस्पताल हैं, पर कई जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं मानो खुद वैंटिलेटर पर हैं. सरकार रोज नई स्वास्थ्य योजनाएं लागू कर रही है, लेकिन फील्ड पर इस के नतीजे निराशाजनक ही रहे हैं.

ज्यादातर सरकारी अस्पताल डाक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं. सरकारी योजनाओं में फैला भ्रष्टाचार भी व्यवस्थाओं को बरबाद करने में अपना अहम रोल निभा रहा है.

भोपाल और इंदौर जैसे बड़े शहरों के बड़ेबड़े सरकारी अस्पताल बदहाल हैं. ऐसे में छोटे जिलों, तहसीलों, कसबों और गांवदेहात के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

मध्य प्रदेश के गांवदेहात के इलाकों के हालात बद से बदतर हैं. मनकवारा गांव के सुखराम कुशवाहा कहते हैं, ‘‘गांवकसबों में संविदा पर नियुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता हफ्ते में एक दिन जा कर पंचायत भवन या स्कूल में घंटे 2 घंटे बैठ कर बच्चों को टीका लगा कर मरीजों को नीलीपीली गोलियां बांट कर अपने काम से पल्ला झाड़ लेते हैं.’’

गरीब दलित और पिछड़े परिवारों का एक बड़ा तबका बीमारी में सरकारी अस्पतालों की ओर ही भागता है. रोजाना 250-300 रुपए मजदूरी से कमाने वाला गरीब प्राइवेट डाक्टरों की भारीभरकम फीस और दवाओं का खर्च नहीं उठा पाता.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली के शिकार गरीब आदमी बीमार होने पर मन मसोस कर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, जहां उसे रोगी कल्याण समिति के नाम पर 10 रुपए, जांच शुल्क के नाम पर 30 रुपए और भरती होने पर 50 रुपए की रसीद कटवानी पड़ती है. एएनएम और नर्सों द्वारा उन का इलाज किया जाता है.

किसी तरह की अव्यवस्था की शिकायत गरीब डर की वजह से नहीं कर पाता है और कभी उस ने किसी विभागीय टोल फ्री नंबर पर औनलाइन शिकायत कर भी दी, तो विभागीय कर्मचारियों द्वारा शिकायत करने वाले को डरायाधमकाया जाता है. सरकारी पोर्टल पर गोलमोल जवाब डाल कर शिकायत का निबटान कर दिया जाता है.

गरीब के पास वोटरूपी हथियार होता है. कभी व्यवस्था से नाराज हो कर वह सरकार बदलने का कदम उठाता भी है तो अगली सरकार का रवैया भी ढाक के तीन पात के समान ही रहता है. ऐसे में लाचार गरीब सरकारी अस्पतालों में मिल रही आधीअधूरी सुविधाओं से काम चला लेने में ही अपनी भलाई समझाता है.

सरकारी योजनाओं की लूट

मध्य प्रदेश के ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल राजनीतिक रसूख रखने वाले डाक्टरों के हैं, जिन में सरकारी योजनाओं के तहत मरीजों का इलाज किया जाता है और सरकार से लाखों रुपए के क्लेम की बंदरबांट की जाती है.

आयुष्मान योजना केंद्र सरकार ने गरीब मरीजों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से शुरू की थी, लेकिन निजी अस्पतालों के लिए यह योजना पैसा कमाने का जरीया बन गई.

फर्जीवाड़ा कर रहे डाक्टर सामान्य बीमारी वाले मरीजों या स्वस्थ लोगों को गंभीर रोगों से पीडि़त बता कर उन के इलाज के नाम पर सरकारी पैसा लूट रहे हैं. यह रकम थोड़ीबहुत नहीं, बल्कि लाखों रुपए में होती है.

होटल वेगा में भरती मरीजों के बारे में जान कर आप को भी पता चलेगा कि किस तरह आयुष्मान योजना में भ्रष्टाचार किया जाता है.

जबलपुर पुलिस की टीम ने स्वास्थ्य विभाग के साथ मिल कर 26 अगस्त, 2022 को सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में छापा मारा था. उस समय अस्पताल के अलावा होटल वेगा में भी छापा मारा गया था.

जांच के दौरान होटल वेगा और अस्पताल में आयुष्मान कार्डधारी मरीज भरती पाए गए थे. अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी कुमार पाठक ने कई लोगों को फर्जी मरीज बना कर यहां रखा था. होटल के कमरे में 3-3 लोग भरती पाए गए थे. इस के बाद पुलिस ने डाक्टर दंपती के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था और डाक्टर दंपती को जेल की हवा खानी पड़ी थी.

इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया था. एसआईटी की जांच में यह खुलासा हुआ था कि आयुष्मान भारत योजना के तहत सैंट्रल इंडिया किडनी हौस्पिटल में पिछले 2 से ढाई साल में तकरीबन 4,000 मरीजों का इलाज हुआ था, जिस के एवज में सरकार द्वारा तकरीबन साढ़े 12 करोड़ रुपए का भुगतान अस्पताल को किया गया था. इस के साथ ही इस बात के भी दस्तावेज मिले हैं कि

दूसरे राज्यों के मरीजों का उपचार भी सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में हुआ था, जो गैरकानूनी है.

एसआईटी ने सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में काम कर रहे मुलाजिमों से भी पूछताछ की, जिस में कई मुलाजिमों ने बताया कि वे अस्पताल में आयुष्मान हितग्राही को भरती करवाते थे, तो अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी पाठक बतौर कमीशन 5,000 रुपए देते थे.

कमीशन लेने के लिए मुलाजिमों ने कई बार एक ही परिवार के लोगों को अलगअलग तारीख में भरती किया था. उन के नाम पर अस्पताल द्वारा आयुष्मान योजना के फर्जी बिल लगा कर लाखों रुपए की वसूली की गई थी.

इसी तरह टीला जमालपुरा में बनी हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाले 28 साल के खालिद अली ने नवंबर, 2021 में अपने 3 महीने के बेटे जोहान के सर्दीजुकाम के इलाज के लिए भोपाल के मैक्स केयर अस्पताल में भरती कराया था. बाद में डाक्टरों द्वारा बताया गया कि उस बच्चे को निमोनिया हो गया है.

3 महीने तक मासूम को हौस्पिटल में भरती रखा गया, जिस में कई बार में दवाओं और इलाज के नाम पर 3 लाख से ज्यादा रुपए वसूल लिए गए. खालिद अली जब भी बिल मांगता, अस्पताल मैनेजमैंट उसे टका सा जबाव दे देता कि मरीज के डिस्चार्ज होने के समय पूरे बिल दे दिए जाएंगे, आप चिंता न करें.

जनवरी, 2022 में आखिरकार मासूम जोहान की मौत हो गई और बाद में पता लगा कि अस्पताल की ओर से आयुष्मान कार्ड से भी बच्चे के इलाज के नाम पर रकम सरकारी खजाने से ली गई है, जबकि खालिद अली के परिवार को इस की जानकारी नहीं दी गई थी. सब से पहले इस फर्जीवाड़े की शिकायत पुलिस थाने में की तो सुनवाई नहीं हुई. तब जा कर कोर्ट में परिवाद दायर किया.

खालिद अली ने बताया कि मैक्स केयर हौस्पिटल का संचालक डाक्टर अल्ताफ मसूद सरकारी योजनाओं में जम कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और उन के खिलाफ शिकायतें भी हो रही हैं, मगर अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती है.

अभी भी मैक्स केयर हौस्पिटल की ओपीडी में डाक्टर अल्ताफ मसूद मरीजों का इलाज कर रहे हैं और पुलिस जांच के नाम पर खानापूरी कर यह बता रही है कि वे हास्पिटल में नहीं हैं.

चिंताजनक बात यह है कि देश के दूरदराज के इलाकों में लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. बड़ेबड़े सरकारी अस्पतालों में एंबुलैंस नहीं हैं और जो हैं उन के अस्थिपंजर ढीले पड़ गए हैं. देश के जनसेवक इन सब पर ध्यान देने के बजाय करोड़ों रुपए खर्च कर हवाईजहाज खरीद रहे हैं और जुमले उछाल कर लोगों का मन बहला रहे हैं.

आजादी के 7 दशकों के बाद भी हम गरीबों के लिए कोई खास सुविधाएं नहीं जुटा पाए हैं. जब देश के रहनुमा कोरोना की जंग लड़ने के लिए जुमलों के साथ ताली और थाली बजाने व दीया जलाने को रोग भगाने का टोटका सम?ाते हों, हौस्पिटल में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय भव्य मंदिर और ऊंचीऊंची मूर्तियों के बनाने को विकास समझते हों, ऐसे शासकों से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है?

Holi 2024: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है.

इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

Holi 2024: होली से दूरी, यंग जेनरेशन की मजबूरी

होली का दिन आते ही पूरे शहर में होली की मस्ती भरा रंग चढ़ने लगता है लेकिन 14 साल के अरनव को यह त्योहार अच्छा नहीं लगता. जब सारे बच्चे गली में शोर मचाते, रंग डालते, रंगेपुते दिखते तो अरनव अपने खास दोस्तों को भी मुश्किल से पहचान पाता था. वह होली के दिन घर में एक कमरे में खुद को बंद कर लेता  होली की मस्ती में चूर अरनव की बहन भी जब उसे जबरदस्ती रंग लगाती तो उसे बहुत बुरा लगता था. बहन की खुशी के लिए वह अनमने मन से रंग लगवा जरूर लेता पर खुद उसे रंग लगाने की पहल न करता. जब घर और महल्ले में होली का हंगामा कम हो जाता तभी वह घर से बाहर निकलता. कुछ साल पहले तक अरनव जैसे बच्चों की संख्या कम थी. धीरेधीरे इस तरह के बच्चों की संख्या बढ़ रही है और होली के त्योहार से बच्चों का मोहभंग होता जा रहा है. आज बच्चे होली के त्योहार से खुद को दूर रखने की कोशिश करते हैं.

अगर उन्हें घरपरिवार और दोस्तों के दबाव में होली खेलनी भी पड़े तो तमाम तरह की बंदिशें रख कर वे होली खेलते हैं. पहले जैसी मौजमस्ती करती बच्चों की टोली अब होली पर नजर नहीं आती. इस की वजह यही लगती है कि उन में अब उत्साह कम हो गया है.

1. नशे ने खराब की होली की छवि

पहले होली मौजमस्ती का त्योहार माना जाता था लेकिन अब किशोरों का रुझान इस में कम होने लगा है. लखनऊ की राजवी केसरवानी कहती है, ‘‘आज होली खेलने के तरीके और माने दोनों ही बदल गए हैं. सड़क पर नशा कर के होली खेलने वाले होली के त्योहार की छवि को खराब करने के लिए सब से अधिक जिम्मेदार हैं. वे नशे में गाड़ी चला कर दूसरे वाहनों के लिए खतरा पैदा कर देते हैं ऐसे में होली का नाम आते ही नशे में रंग खेलते लोगों की छवि सामने आने लगती है. इसलिए आज किशोरों में होली को ले कर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है.’’

2. एग्जाम फीवर का डर

होली और किशोरों के बीच ऐग्जाम फीवर बड़ी भूमिका निभाता है. वैसे तो परीक्षा करीबकरीब होली के आसपास ही पड़ती है. लेकिन अगर बोर्ड के ऐग्जाम हों तो विद्यार्थी होली फैस्टिवल के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि उन का सारा फोकस परीक्षाओं पर जो होता है. पहले परीक्षाओं का दबाव मन पर कम होता था जिस से बच्चे होली का खूब आनंद उठाते थे. अब पढ़ाई का बोझ बढ़ने से कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं और भी महत्त्वपूर्ण होने लगी हैं, जिस से परीक्षाओं के समय होली खेल कर बच्चे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते.

होली के समय मौसम में बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में मातापिता को यह चिंता रहती है कि बच्चे कहीं बीमार न पड़ जाएं. अत: वे बच्चों को होली के रंग और पानी से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जो बच्चों को होली के उत्साह से दूर ले जाता है. डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘बच्चे खेलकूद के पुराने तौरतरीकों से दूर होते जा रहे हैं. होली से दूरी भी इसी बात को स्पष्ट करती है. खेलकूद से दूर रहने वाले बच्चे मौसम के बदलाव का जल्द शिकार हो जाते हैं. इसलिए कुछ जरूरी सावधानियों के साथ होली की मस्ती का आनंद लेना चाहिए.’’ फोटोग्राफी का शौक रखने वाले क्षितिज गुप्ता का कहना है, ‘‘मुझे रंगों का यह त्योहार बेहद पसंद है. स्कूल में बच्चों पर परीक्षा का दबाव होता है. इस के बाद भी वे इस त्योहार को अच्छे से मनाते हैं. यह सही है कि पहले जैसा उत्साह अब देखने को नहीं मिलता.

‘‘अब हम बच्चों पर तमाम तरह के दबाव होते हैं. साथ ही अब पहले वाला माहौल नहीं है कि सड़कों पर होली खेली जाए बल्कि अब तो घर में ही भाईबहनों के साथ होली खेल ली जाती है. अनजान जगह और लोगों के साथ होली खेलने से बचना चाहिए. इस से रंग में भंग डालने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है.’’

3. डराता है जोकर जैसा चेहरा

होली रंगों का त्योहार है लेकिन समय के साथसाथ होली खेलने के तौरतरीके बदल रहे हैं. आज होली में लोग ऐसे रंगों का उपयोग करते हैं जो स्किन को खराब कर देते हैं. रंगों में ऐसी चीजों का प्रयोग भी होने लगा है जिन के कारण रंग कई दिनों तक छूटता ही नहीं. औयल पेंट का प्रयोग करने के अलावा लोग पक्के रंगों का प्रयोग अधिक करने लगे हैं. लखनऊ के आदित्य वर्मा कहता है, ‘‘मुझे होली पसंद है पर जब होली खेल रहे बच्चों के जोकर जैसे चेहरे देखता हूं तो मुझे डर लगता है. इस डर से ही मैं घर के बाहर होली खेलने नहीं जाता.’’

उद्धवराज सिंह चौहान को गरमी का मौसम सब से अच्छा लगता है. गरमी की शुरुआत होली से होती है इसलिए इस त्योहार को वह पसंद करता है. उद्धवराज कहता है, ‘‘होली में मुझे पानी से खेलना अच्छा लगता है. इस फैस्टिवल में जो फन और मस्ती होती है वह अन्य किसी त्योहार में नहीं होती. इस त्योहार के पकवानों में गुझिया मुझे बेहद पसंद है. रंग लगाने में जोरजबरदस्ती मुझे अच्छी नहीं लगती. कुछ लोग खराब रंगों का प्रयोग करते हैं, इस कारण इस त्योहार की बुराई की जाती है. रंग खेलने के लिए अच्छे किस्म के रंगों का प्रयोग करना चाहिए.’’

4. ईको फ्रैंडली होली की हो शुरुआत

‘‘होली का त्योहार पानी की बरबादी और पेड़पौधों की कटाई के कारण मुझे पसंद नहीं है. मेरा मानना है कि अब पानी और पेड़ों का जीवन बचाने के लिए ईको फ्रैंडली होली की पहल होनी चाहिए. ‘‘होली को जलाने के लिए प्रतीक के रूप में कम लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए और रंग खेलते समय ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो सूखे हों, जिन को छुड़ाना आसान हो. इस से इस त्योहार में होने वाले पर्यावरण के नुकसान को बचाया जा सकता है,’’ यह कहना है सिम्बायोसिस कालेज के स्टूडेंट रह चुके शुभांकर कुमार का. वह कहता है, ‘‘समय के साथसाथ हर रीतिरिवाज में बदलाव हो रहे हैं तो इस में भी बदलाव होना चाहिए. इस से इस त्योहार को लोकप्रिय बनाने और दूसरे लोगों को इस से जोड़ने में मदद मिलेगी.’’

एलएलबी कर रहे तन्मय को होली का त्योहार पसंद नहीं है. वह कहता है, ‘‘होली पर लोग जिस तरह से पक्के रंगों का प्रयोग करने लगे हैं उस से कपड़े और स्किन दोनों खराब हो जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. कई बार होली खेले कपड़े दोबारा पहनने लायक ही नहीं रहते. ‘‘ऐसे में जरूरी है कि होली खेलने के तौरतरीकों में बदलाव हो. होली पर पर्यावरण बचाने की मुहिम चलनी चाहिए. लोगों को जागरूक कर इन बातों को समझाना पड़ेगा, जिस से इस त्योहार की बुराई को दूर किया जा सके. इस बात की सब से बड़ी जिम्मेदारी किशोर व युवावर्ग पर ही है.

होली बुराइयों को खत्म करने का त्योहार है, ऐसे में इस को खेलने में जो गड़बड़ियां होती हैं उन को दूर करना पड़ेगा. इस त्योहार में नशा कर के रंग खेलने और सड़क पर गाड़ी चलाने पर भी रोक लगनी चाहिए.’’

5. किसी और त्योहार में नहीं होली जैसा फन

होली की मस्ती किशोरों व युवाओं को पसंद भी आती है. एक स्टूडेंट कहती है, ‘‘होली ऐसा त्योहार है जिस का सालभर इंतजार रहता है. रंग और पानी किशोरों को सब से पसंद आने वाली चीजें हैं. इस के अलावा होली में खाने के लिए तरहतरह के पकवान मिलते हैं. ऐसे में होली किशोरों को बेहद पसंद आती है

‘‘परीक्षा और होली का साथ रहता है. इस के बाद भी टाइम निकाल कर होली के रंग में रंग जाने से मन अपने को रोक नहीं पाता. मेरी राय में होली जैसा फन अन्य किसी त्योहार में नहीं होता. कुछ बुराइयां इस त्योहार की मस्ती को खराब कर रही हैं. इन को दूर कर होली का मजा लिया जा सकता है.’’ ऐसी ही एक दूसरी छात्रा कहती हैं, ‘‘होली यदि सुरक्षित तरह से खेली जाए तो इस से अच्छा कोई त्योहार नहीं हो सकता. होली खेलने में दूसरों की भावनाओं पर ध्यान न देने के कारण कई बार लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है, जिस से यह त्योहार बदनाम होता है. सही तरह से होली के त्योहार का आनंद लिया जाए तो इस से बेहतर कोई दूसरा त्योहार हो ही नहीं सकता.

‘‘दूसरे आज के किशोरों में हर त्योहार को औनलाइन मनाने का रिवाज चल पड़ा है. वे होली पर अपनों को औनलाइन बधाइयां देते हैं. भले ही हमारा लाइफस्टाइल चेंज हुआ हो लेकिन फिर भी हमारा त्योहारों के प्रति उत्साह कम नहीं होना चाहिए.’’

जब पार्टनर टालने लगे शादी की बात

आजकल की जिंदगी में अगर लड़के की गर्लफ्रेंड न हो और लड़की का बौयफ्रेंड न हो तो दोस्त एक-दूसरे का मज़ाक बना लेते हैं इसलिए ये तो आजकल आम बात हो गई वैसे भी जिंदगी का एक मोड़ ऐसा आता है जब हर किसी को एक पार्टनर की जरूरत होती है. और जब उसे वो पार्टनर मिल जाता है तो उसके साथ बहुत से सपने संजोने लगते हैं.

अगर लडकियों की बात करें तो लड़कियां इस मामले में ज्यादा इमोशनल होती हैं और साथ ही उनकी अपने पार्टनर से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें होने लगती हैं लेकिन जब उनका पार्टनर उन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता तो वो अंदर से टूट जाती हैं लेकिन इन सब के बाद भी उनके अंदर एक उम्मीद होती है कि उनका पार्टनर उससे शादी जरूर करेगा लेकिन लड़के अक्सर शादी की बात को टालने लगते हैं लड़की जब भी इस बारे में बात करती हैं तो या तो बात को गोल-मोल घुमा देते हैं और या तो उस बात को पलट देते हैं या कहते हैं मैं अभी रेडी नहीं हूं उस वक्त लड़की को अनसिक्योर फील होता है जो कहीं न कहीं सही है.ऐसे में लड़कियों को कुछ सलाह है जो उन्हें करना चाहिए.

सबसे पहले तो आप एक लड़की हैं ये सोच कर कभी चुप मत रहिए.अगर आपको लगे की आपका पार्टनर शादी की बात टाल रहा है जरूर कुछ गड़बड़ है तो तुरन्त बिना वक्त गवाएं उससे फेस टू फेस बात करें और मामला क्लियर करें क्योंकि बिना क्लियर किए रिश्ता निभाना बहुत मुश्किल है. फिर भी अगर आपका पार्टनर इधर-उधर की बातें करे तो आपको उससे कड़ाई से ये सवाल करना चाहिए कि वो शादी के लिए तैयार है या नहीं.

अक्सर लड़कियां प्यार मोहब्बत की बातें सुनकर भावुकता में बह जाती हैं तो ऐसा बिल्कुल भी न करें अपनी जिंदगी को किसी पर निर्भर न होने दें और ना ही किसी उम्मीद को पलने दें क्योंकि जिंदगी कब क्या मोड़ लेले ये किसी को भी नहीं पता.आप खुद को इस तरह स्ट्रांग बनाए कि अगर आपका पार्टनर शादी न करें तो आप भी उसके पीछे अपना समय न गवाएं क्योंकि उसके छोड़कर जाने से आपकी जिंदगी खतम नहीं हो जाएगी.

जब आपको ये लगने लगे कि अब ज्यादा हो रहा है आपकी शादी वाली बात आपका पार्टनर सुनने के लिए रेडी नहीं हैं और अगर सुनने पर भी बार-बार टालता हैं तो आपको अपनी लाइफ में मूवऑन करना चाहिए
क्योंकि रिश्ता इसी तरह खतम हो जाता है. क्योंकि आप जितना उससे जुड़ी रहेंगी आपको बाद में उतनी ही तकलीफ होगी.

अगर आपको लगने लगे कि अब आपका पार्टनर आपमें दिलचस्पी नहीं ले रहा है और शादी की बातें भी नहीं करता तो उससे दूर हो जाना ही ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि आपकी अपनी भी खुद की एक जिंदगी है जिसे आपको जीने का पूरा हक है अपनी जिंदगी को खुल कर बिना किसी दबाव के जीना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि हर प्यार करने वाले पार्टनर धोखा देते हैं बल्कि कभी-कभी किसी की मजबूरी के कारण भी दो लोग अलग हो जाते हैं तो ऐसे में आपको ऐसा ही करना होगा और खुद को संभालना होगा अपनी
जिंदगी में आगे बढ़ना होगा.

मोबाइल जेल की गिरफ्त युवाओं की दुनिया

युवाओं की दुनिया आजकल ऐसे आइडल ढूंढ़ने लगी है जो कुछ करतेधरते नहीं हैं. मोबाइल पर रील्स, चुटकुले, गौसिप, एआई जेनरेटड हाफबेक्ड मोटिवेशनल मैसेज, पौर्न या सैमिपौर्न क्लिप्स ने इन्फ्लुएंसर्स की एक नई खेप तैयार कर दी जो राजनीति के लीडरों जैसे हैं जिन में कोई सौलिड बात कहने की न कैपेसिटी है और न ही कोई उन्हें सीरियसली लेता है.

जिन के लाखों फौलोअर्स हैं, वे पैसे तो कमा रहे हैं लेकिन फिल्मस्टारों से भी ज्यादा गए गुजरे हैं क्योंकि उन्होंने मोबाइल डिवाइस पर जो भी भेजा वह आम व्यूअर्स की जिंदगी को संवारने लायक है ही नहीं. कुछ मिनट बीत जाएं, मैट्रो या बस की जर्नी पूरी हो जाए, रैस्तरां में बैठे किसी के इंतजार में 10-15 मिनट बीत जाएं, इन रील्स की बस यही कीमत रह गई है. इन्फ्लुएंसर्स से ज्यादा इर्रिस्पौंसिबल तो वे व्यूअर्स हैं जो अपने समय की कीमत नहीं समझ रहे.

मोबाइल ने आज हर तरह की इन्फौर्मेशन को आप के हाथ में लाना पौसिबल कर दिया है. यह तो उन युवाओं की गलती है जो इस इंटैलिजैंट इन्वैंशन का इस्तेमाल बेवकूफी के कृत्यों में कर रहे हैं. आजकल जिंदगी कौंप्लैक्स होती जा रही है. सरकारों और कौर्पोरेटों का दखल आम जिंदगी में बढ़ रहा है. औनलाइन फैसिलिटीज के चक्कर में हरेक की प्राइवेसी पर बुरी तरह हमले हो रहे हैं.

मोबाइल में आप क्या देखें, यह कुछ लोगों की कंपनियों के हाथ में है. रील्स या मोटिवेशनल मैसेज आप देखते नहीं हैं, ये आप को दिखाए जाते हैं. यह देखने की आप की इच्छा नहीं जो आप देख रहे हैं बल्कि यह दिखाने की उन कंपनियों की इच्छा है जो इन प्लेटफौर्मों को चला रही हैं. हर मोबाइल ऐप आप के बारे में हरेक छोटी सी बात को भी जानना चाहती है.

अगर कभी आप से कोई गलती हो जाए तो आप की पूरी जिंदगी आप की उस गलती को पकड़ने वालों के हाथों में होगी. तब आप कहीं से भी छूट न सकेंगे. आज कुछ भी छिपाना आसान नहीं है. हैकर्स आप की जानकारी जमा कर आप को कभी भी ब्लैकमेल कर सकते हैं. सब से बड़ी बात यह है कि इस औनलाइन इन्फौर्मेशन, एंटरटेनमैंट, मैसेजिंग के पीछे आप को लूटने की साजिश रची गई है.

पहले आप को काफीकुछ मुफ्त में परोस कर मोबाइल पर बने रहने की लत डाली गई, ऐप्स ने लुभावने सपने दिखाए. फिर आप से पैसे मांगे जाने लगे. कुछ पैसों से शुरू कर ये लोग आप से अब सैकड़ों रुपए सालाना लेने लगे हैं. इन प्लेटफौर्मों पर सरकारों का कड़ा कंट्रोल है.

सरकार जब चाहे जिस प्लेटफौर्म की बांह मरोड़ सकती है. इन प्लेटफौर्मों को पैसा कमाना है, उन्हें व्यूअर्स के राइट्स से कोई मतलब नहीं है. वे सरकारों की हर बात मान रहे हैं. मोबाइलों की वजह से 10 साल पहले इजिप्ट में तख्ता पलट गया था. आज दुनियाभर की सरकारें अपने मतलब के लिए मोबाइल तकनीक का मिसयूज कर रही हैं. ओटीपी के चक्करों में आप को फंसा कर आप के समय को बरबाद किया जा रहा है. मोबाइल रिवोल्यूशन की अभी तो शुरुआत है.

एआई यानी आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस के बाद इन्फ्लुएंसर्स भी कंपनियों के नकली लोग होंगे और व्यूअर्स अपनी असली कमाई देने को मजबूर हो रहे होंगे. टैक्नोलौजी कौर्पोरेट्स की तानाशाही शुरू हो चुकी है और उन की बनाई ‘मोबाइल जेलों’ में करोड़ों लोग पहले से ही फंस चुके हैं. आप किस खेत की मूली हैं.

रुक नहीं रही मौब लिंचिंग की घटना

जी हां, इस वक्त बच्च चोरी की अफवाह इतनी ज्यादा फैल गई है कि मौब लिंचिंग जैसी घटना को होते देर नहीं लग रही है. जहां देखो हर जगह से खबर आ रही है कि बच्चा चोरी के शक में भीड़ ने व्यक्ति को पीटा. और केवल बच्चा चोरी का इल्जाम ही नहीं बल्की दूसरे इल्जाम लगा कर भी भीड़तंत्र इस कदर लोगों पर हावी हो जाती है कि फिर उस व्यक्ति की जान ले कर ही छोड़ती है. इधर कुछ दिनों में कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जिन्होंने तूल पकड़ा हुआ है.

असम के जोरहाट जीले में चाय बागान में काम करने वाले मजदूरों ने एक डौक्टर की पीट-पीट कर हत्या कर दी सिर्फ इसलिए क्योंकि उनमें से एक मजदूर की हालत ठीक न होने की वजह से उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था और उसकी जान वो डौक्टर नहीं बचा पाया और मजदूरों की भीड़ ने डौक्टर की लापरवाही बताते हुए उसे पीटा.

बच्चा चोरी की अफवाह भी पूरे देश में तेजी से फैल रही है और इसके चलते बकसूरों की जान जा रही है. हरियाणा के रेवाड़ी में एक ऐसी ही घटना हुई. तीन साल की एक बच्ची अपने मामा के साथ बाजार गई थी और वहां पर मामा को ही बच्चा चोर समझ कर पकड़ लिया और पीटना शुरु कर दिया. बात बस इतनी सी थी कि देर रात बच्ची किसी समान के लिए रोने लगी और लोगों ने उसके मामा को बच्चा चोर समझ कर घेर लिया.

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दिल्ली में भी बच्चा चोरी के आरोप में पिटाई का एक मामला सामने आया. इसमें एक मूक बाधिर महिला को भीड़ पीट रही है. कोई लात-घूसे मार रहा है तो कोई थप्पड़ लगा रहा है. बात सिर्फ इतनी सी थी कि महिला तुगलकाबाद की रहने वाली है. वो उत्तर-पूर्वी दिल्ली में किसी काम से आई थी और वहां कुछ बच्चों को टौफी देने लगी बस फिर क्या था लोगों ने उसे बच्चा चोर समझा और पीटना शुरू कर दिया. महिला ने बचने की पूरी कोशिश की लेकिन भीड़ ने उसे घेर रखा था.

गाजीपुर के बहरियाबाद कस्बे में भी इसी तरह की घटना घटी वहां पर भी देर रात बच्चा चोर- बच्चा चोर का हंगामा हुआ और बेकाबू भीड़ ने एक व्यक्ति को मार-मार कर अधमरा कर दिया. कुछ समय पहले की ही बात है जब गौ तस्करी के शक में भीड़ लोगों को पीटा करती थी लेकिन आज कल तो बच्चा चोरी की अफवाह ने तूल पकड़ा है.

यहां बात सिर्फ ये नहीं है कि बच्चा चोरी का इल्जाम है या गौ तस्करी का इल्जाम है बात तो ये है कि चाहे जो भी हो लेकिन ये भीड़तंत्र भला कानून को अपने हांथ में कैसे ले सकती है और ये इस कदर किसी पर भी कैसे हावी हो सकती है कि व्यक्ति की जान ले ले वो भी सिर्फ शक के आधार पर. क्या किसी का जीवन इस भीड़ के लिए मायने नहीं रखता है? ये भीड़ होती कौन है फैसला लेने वाली कि किस के साथ क्या करना है. आज तो सरकार भले ही कई नेक और अच्छे काम कर रही हो लेकिन इस भीड़तंत्र का क्या? सरकार को जल्दी ही इसका कुछ इलाज करना होगा वरना इसी तरह भीड़तंत्र लोगों पर हावी होता रहेगा और मासूम और बगुनाह लोगों की जान जाती रहेगी. इस मौब लिंचिंग को रोकने के लिए सरकार को कोई कड़ा कदम उठाना ही होगा.

आजादी का अमृतकाल : दलितों पर जुल्मोसितम की हद

देश में जातिवाद का जहर किस तरह ऊंची जाति वालों की नसनस में भरा है, उस के लिए 27 दिसंबर, 2023 का एक मामला देखिए. उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में एक 18 साल की दलित लड़की को सिर्फ इस बात के लिए गरम कड़ाही में धकेल दिया था, क्योंकि वह अपनी इज्जत से खिलवाड़ करने वालों की खिलाफत कर रही थी.

यह घटना बागपत जिले के बिनौली थाना क्षेत्र के एक गांव की है. पीडि़ता बुधवार, 27 दिसंबर, 2023 को गांव के ही एक कोल्हू की कड़ाही पर काम कर रही थी. तभी तीनों आरोपी प्रमोद, राजू और संदीप वहां आए और उस के साथ छेड़छाड़ करने लगे. इस का विरोध करने पर उन्होंने जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उस लड़की के साथ गलत बरताव किया. इतना ही नहीं, उन के अंदर इतना गुस्सा भर गया कि पीडि़ता को जान से मारने के इरादे से उसे गरम कड़ाही में फेंक दिया. इस के बाद वे तीनों वहां से भाग गए.

पीड़िता के भाई की शिकायत पर उन तीनों आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 (महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने के इरादे से हमला), 504 (शील भंग करने के इरादे से अपमान), 307 (हत्या का प्रयास) और अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया.

दूसरे मामले ने तो दिल ही दहला दिया. वहां तो एक दलित लड़के से शादी करने पर एक लड़की का बेरहमी से खून कर दिया गया और ऐसा करने का इलजाम लगा दिया लड़की के मांबाप पर.

दरअसल, तमिलनाडु के तंजावुर जिले में पट्टुकोट्टाई के पास पूवालुर का रहने वाला एक दलित लड़का नवीन अपने पड़ोस के नेवाविदुति गांव की 19 साल की एक लड़की ऐश्वर्या से प्यार करता था.

नवीन और ऐश्वर्या बीते 5 सालों से एकदूसरे को जानते थे और पिछले 2 सालों से तिरुपुर जिले में काम कर रहे थे. उन्होंने आवरापलयम के विनयागर मंदिर में 31 दिसंबर, 2023 को शादी भी कर ली थी.

2 जनवरी, 2024 को इस शादी से गुस्साए ऐश्वर्या के मांबाप अपने रिश्तेदारों के साथ तिरुपुर जिले के पल्लाडम पुलिस स्टेशन पहुंचे और पुलिस से इस मामले में दखल देने की मांग की. थाने में मामला दर्ज कर लिया गया और पुलिस ने ऐश्वर्या को उस के मांबाप को सौंप दिया.

7 जनवरी, 2024 को नवीन ने पुलिस में एक शिकायत दर्ज कराई, जिस में कहा गया कि ‘वह अनुसूचित जाति से आता है और ऐश्वर्या पिछड़ी जाति से. दोनों के बीच कई साल से प्रेम चल रहा था.’

नवीन की शिकायत के मुताबिक, ‘ऐश्वर्या के पिता अपने रिश्तेदारों के साथ पुलिस स्टेशन गए. आधे घंटे बाद ही पल्लाडम पुलिस स्टेशन से ऐश्वर्या को उस के पिता और रिश्तेदारों ने अपने साथ लिया और पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी एक कार में बैठ कर चले गए.’

नवीन की शिकायत पर पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर में कहा गया कि ‘नवीन को सूचना मिली थी कि 3 जनवरी की सुबह ऐश्वर्या की हत्या कर दी गई थी और स्थानीय लोगों से छिपा कर शव को तत्काल श्मशान में जला दिया गया था.’

पुलिस ने भी अपनी जांच में कहा कि ऐश्वर्या को उस के अभिभावकों ने नेवाविदुति गांव में इमली के पेड़ से लटका दिया था.

अगस्त, 2023. मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक दलित नौजवान की पीटपीट कर हत्या कर दी गई थी. आरोपियों ने उस नौजवान को बचाने पहुंची उस की मां को भी पीटा और उन के कपड़े भी फाड़ डाले.

दरअसल, मारे गए उस नौजवान की बहन के साथ कुछ दिनों पहले आरोपियों ने छेड़छाड़ की थी, जिस का केस दर्ज हुआ था. वे आरोपी पीडि़त परिवार पर राजीनामा करने का दबाव बना रहे थे.

यह घटना सामने आने के बाद पुलिस ने 9 नामजद और 4 दूसरे आरोपियों के खिलाफ हत्या समेत दूसरी धाराओं में केस दर्ज किया. पुलिस ने मुख्य आरोपी समेत 8 आरोपियों को गिरफ्तार भी किया.

मारे गए उस नौजवान की बहन ने कहा, ‘गांव के विक्रम सिंह, कोमल सिंह और आजाद सिंह घर पर आए थे. मां से कहने लगे कि राजीनामा कर लो. मां ने कहा कि जब पेशी होगी, तो उसी दिन राजीनामा कर लेंगे, तो उन्होंने कहा कि क्या आप को अपने बच्चों की जान प्यारी नहीं है? ऐसा बोल कर वे धमकी दे गए कि जो हमें जहां मिलेगा, उस को निबटा देंगे.

‘मेरा छोटा भाई बसस्टैंड के पास सब्जी लेने गया था. वह वहां से लौट रहा था. रास्ते में आरोपी उस के साथ मारपीट करने लगे. वह भागने लगा, तो कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया.

‘मम्मी जब बाजार की तरफ गईं तो देखा कि वे भाई के साथ मारपीट कर रहे हैं. मम्मी उस को बचाने पहुंचीं. आरोपियों ने मम्मी को भी पीटा. जब मैं वहां गई और मोबाइल फोन से पुलिस को काल करने लगी, तो उन लोगों ने मेरे साथ भी मारपीट शुरू कर दी. मैं ने हाथ जोड़े, पैर पड़ कर कहा कि मेरे भाई को छोड़ दो, पर उन्होंने नहीं छोड़ा.’

इस मुद्दे पर कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, ‘मध्य प्रदेश के सागर में एक दलित नौजवान की पीटपीट कर हत्या कर दी गई. गुंडों ने उस की मां को भी नहीं बख्शा. सागर में संत रविदास मंदिर बनवाने का ढोंग रचने वाले प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश में लगातार होते दलित व आदिवासी उत्पीड़न और अन्याय पर चूं तक नहीं करते. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री केवल कैमरे के सामने वंचितों के पैर धो कर अपना गुनाह छिपाने की कोशिश करते हैं.’

मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना सही है कि प्रधानमंत्री एक तरफ तो संत रविदास का मंदिर बनवाने का ढोंग करते हैं, पर दूसरी तरफ वे उन पर होने वाले जुल्म पर चुप्पी साध लेते हैं. क्या दलितों के पैर धोने से समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा मिल जाएगा? बिलकुल नहीं, क्योंकि जब तक हर दलित को पढ़ने का हक नहीं मिलेगा, तब तक समाज में जातिवाद की खाई और गहरी होती जाएगी.

एक फिल्म से दलित समाज की हकीकत सम झते हैं, जिस का नाम है ‘गुठली लड्डू’. इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह भारतीय समाज में फैली जातिवाद की सड़ांध नाक के बाल जलाती हुई सीधा दिमाग की नसों में बजबजाने लगती है.

‘अस्पृश्यता अपराध है’ और ‘शिक्षा पर सब का समान अधिकार’ के मुद्दे पर बुनी गई यह फिल्म समाज के उस तबके की जहालत, बेबसी और गरीबी को उजागर करती है, जिसे गलीज सम झा जाता है. वह तबका जो दूसरों की गंदगी साफ करता है और जिस के घर का पानी पीना भी बड़ी जाति के लोगों के लिए हराम है.

साल 2023 में आई इस फिल्म की कहानी के 2 मासूम और मेन किरदार हैं गुठली (धनय सेठ) और लड्डू (हीत शर्मा). ये दोनों दोस्त हैं और छोटी जाति के 2 हमउम्र बच्चे भी. गुठली को पढ़ने का शौक है. या यों कहें कि जुनून है, पर चूंकि वह दलित समाज से है तो उसे स्कूल में घुसने तक नहीं दिया जाता है.

इस फिल्म की कहानी तब अचानक मोड़ लेती है, जब लड्डू अपने बापदादा का पुश्तैनी काम मतलब साफसफाई करने की हामी भर देता है और एक दिन गटर में गिरने से उस की मौत हो जाती है. यह देख कर गुठली का बापू उसी दिन से ठान लेता है कि कुछ भी हो जाए, वह अपने बेटे को स्कूल भेजेगा और इस गटर जैसी गंदी जिंदगी से बाहर निकालेगा.

गुठली के बापू की इसी जद्दोजेहद में फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है और इस हकीकत से रूबरू कराती है कि आज भी अनपढ़ दलित की जिंदगी किस नरक में कट रही है और अगर वह अपने हक की बात करता है, तो उसे लतिया दिया जाता है.

गरीब, अनपढ़ दलितों और साफसफाई करने वालों की असली जिंदगी में  झांकें तो उन की हालत भी गुठली और लड्डू से ज्यादा अच्छी नहीं है. भले ही संविधान ने सब को बराबरी का हक दिया है, पर आज भी न जाने कितने गुठली और लड्डू पढ़ाईलिखाई से कोसों दूर हैं और न चाहते हुए भी छोटी जाति का होने की सजा दूसरों की गंदगी साफ कर के पाते हैं.

‘स्वच्छ भारत’ के हल्ले के बीच साल 2023 के मार्च महीने में हरियाणा के पानीपत में नगरनिगम के गटर की सफाई करते हुए 2 मुलाजिमों की मौत हो गई थी. ऐसा पूरे देश में होता है, पर हैरत की बात तो यह है कि हर साल सीवर और सैप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए मरने वालों का आंकड़ा कम होने

के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. सरकार खुद मानती है कि साल 2019 में पूरे देश में सीवर और सैप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए 110 लोगों की जानें चली गई थीं.

ऊपर से बड़ी जाति वालों का उन्हें नाली का कीड़ा सम झना. उन के हाथ से पैसे तो वे ले लेंगे, पर अगर गलती से वे बड़ी जाति वाले की साइकिल छू देंगे, तो उस साइकिल को कई बार धोने का रोना रोएंगे.

जुल्म की खास वजहें

सब से बड़ी वजह तो यह है कि दलितों को सभ्य समाज का हिस्सा ही नहीं सम झा जाता है. उन्हें धर्म ने अछूत माना है और हर तथाकथित बड़ी जाति वाले के मन में यह गहरे तक पैठ चुका है कि अनुसूचित जाति के लोगों को नीचा दिखाने और उन पर अपना रोब जमाना उन का जन्मजात हक है. तभी तो कोई दलित मूंछ रख ले तो उसे लतिया दिया जाता है. कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़ जाए, तो उसे सबक सिखा दिया जाता है.

अनुसूचित जाति की औरतों और लड़कियों को तो सरेआम शर्मिंदा करने की खबरें आएदिन सुर्खियों में बनी रहती हैं. स्कूलकालेज में धमकाया जाता है. छात्रों को ही नहीं, बल्कि दलित समाज के टीचरों और प्रोफैसरों को भी जाति के आधार पर सताया जाता है. दलित समाज पर जोरजुल्म की घटनाओं के पीछे लोगों की छोटी सोच और इंसाफ में देरी की वजह से लोगों में कानून का डर कम हो रहा है.

कोढ़ पर खाज यह कि लाखों मामले ऐसे होते हैं, जिन में केस दर्ज नहीं किया जाता है या मामले दबा दिए जाते हैं. सागर वाले मामले में नौजवान की हत्या इसीलिए हुई थी कि उस का परिवार राजीनामा नहीं कर रहा था.

आजादी के अमृतकाल में समाज का यह घिनौना रूप उन लोगों पर तमाचा है, जो देश के हर जने की भलाई की बात तो करते हैं, पर हकीकत में उन से होता जाता कुछ नहीं.

‘फुलेरा’ के बहाने अंधविश्वास की खुलती पोल

तकरीबन 4 साल पहले आई दीपक मिश्रा के डायरैक्शन में बनी वैब सीरीज ‘पंचायत’ नौजवान तबके द्वारा काफी पसंद की गई थी, क्योंकि इस में फुलेरा गांव के बहाने भारत की देहाती जिंदगी की झलक दिखाई गई थी, जिस से जब पढ़ालिखा नयानया बना शहरी पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) रूबरू होता है, तो हैरान हो उठता है कि गांव की राजनीति में आज भी दबंगों का रसूख चलता है और उस में भ्रष्टाचार भी जम कर होता है.

इसी वैब सीरीज के एक प्रसंग में अंधविश्वासों का भी जिक्र है. होता कुछ यों है कि एक योजना के तहत गांव में सोलर एनर्जी के 11 खंभे लगाने की मंजूरी मिली हुई है. पंचायत की मीटिंग में सभी रसूखदार अपने घरों के सामने खंभा लगाने का प्रस्ताव पास करा लेते हैं.

एक आखिरी खंभा लगने की बात आती है, तो उसे गांव के बाहर की तरफ पेड़ के पास लगाने का प्रस्ताव आता है. पर गांव वाले मानते हैं कि उस पेड़ पर भूत रहता है.

अभिषेक त्रिपाठी चूंकि एमबीए कर रहा है, इसलिए पढ़ाई की अपनी सहूलियत के लिए चाहता है कि आखिरी बचा हुआ खंभा पंचायत औफिस के बाहर लग जाए, जहां वह एक कमरे में रहता है. भूत वाली बात पर उसे यकीन नहीं होता, इसलिए वह उस की सचाई जानने के लिए निकल पड़ता है.

अभिषेक त्रिपाठी को पता चलता है कि कुछ साल पहले गांव के एक सरकारी स्कूल के मास्टर ने अपनी नशे की लत छिपाने के लिए यह झठ फैलाया था, जो इस कदर चला था कि कई गांव वालों को भूत होने का एहसास हुआ था.

कइयों को अंधेरी रात में उस भूत ने पकड़ा और दौड़ाया था. राज खुलता है, तो सभी हैरान रह जाते हैं और खंभा अभिषेक त्रिपाठी की मरजी और जरूरत के मुताबिक लग जाता है.

देश में इन दिनों भूत वाले एक नहीं, बल्कि कई ?ाठसफेद, कालेहरे, पीलेभगवा, नीले सब इफरात से चल नहीं, बल्कि दौड़ रहे हैं. नशेड़ी मास्टर तो सिर्फ भूत होने की बात कहता है, लेकिन कई लोग बताने लगते हैं कि यह भूत उन्होंने देखा है.

कच्चे चावलों की खिचड़ी बनाने का काम इतने आत्मविश्वास से जोरों पर है कि झठ और सच में फर्क कर पाने के मुश्किल काम को छोड़ लोग झठ को ही सच करार देने लगे हैं कि कौन बेकार की कवायद और रिसर्च के चक्कर में पड़े, इसलिए मास्टरजी जो कह रहे हैं, उसे ही सच मान लो और उस का इतना हल्ला मचाओ कि कोई हकीकत जानने के लिए पेड़ के पास जाने की हिम्मत ही न करे.

गलत नहीं कहा जाता कि झठ के पैर नहीं होते. दरअसल, झठ के मीडिया और सोशल मीडिया रूपी पंख होते हैं, जिन के चलते वह मिनटों में पूरा देशदुनिया घूम लेता है और सच कछुए की तरह रेंगता रहता है.

झठ में अगर धर्म, अध्यात्म और दर्शन का भी तड़का लग जाए, तो वह और अच्छा लगने लगता है. आप लाख पढ़ेलिखे हों, लेकिन आग और ऊर्जा में फर्क नहीं कर पाएंगे और जब तक सोचेंगे और उस पर अमल करेंगे, तब तक गंगा और सरयू का काफी पानी बह चुका होगा.

अब से तकरीबन 28 साल पहले साल 1995 में अफवाह उड़ी थी कि मंदिरों में गणेश दूध पी रहे हैं. बस, फिर क्या था. देखते ही देखते गणेश मंदिरों में भक्त लोग दूध का कटोरा ले कर उमड़ पड़े थे.

जिन्हें गणेश के मंदिरों में जगह नहीं मिली, उन्होंने घर में रखी मूर्तियों के मुंह में जबरन दूध ठूंस कर प्रचारित कर दिया कि उन की मूर्ति ने भी दूध पीया. जिन के घर गणेश की मूर्ति नहीं थी, उन्होंने राम, कृष्ण, शंकर और हनुमान तक को दूध पिला दिया.

उस अफरातफरी का मुकाबला वर्तमान दौर की कोई आस्था नहीं कर सकती, जिस के तहत भक्तों के मुताबिक भगवान ने समोसे, कचौड़ी, छोलेभटूरे, जलेबी और बड़ा पाव भी खाए. सार यह है कि मूर्तियों में इंद्रियां होती हैं और प्राण भी होते हैं. समयसमय पर यह बात अलगअलग तरीकों से साबित करने की कोशिश भी की जाती है.

अब मूर्तियां पलक झपकाएं, हंसें और रोएं भी तो हैरानी किस बात की. हैरानी सिर्फ इस बात पर हो सकती है कि 21 सितंबर, 1995 की आस्था असंगठित थी, उस के लिए कोई समारोह आयोजित नहीं करना पड़ा था और न ही खरबों रुपए खर्च हुए थे. बस, कुछ करोड़ रुपए लिटर दूध की बरबादी हुई थी.

तब भी विश्व हिंदू परिषद ने इसे सनातनी चमत्कार कहा था और दुनियाभर के देशों में रह रहे हिंदुओं ने मूर्तियों को दूध पिलाया था. तब भी मीडिया दिनरात यही अंधविश्वास और पाखंड दिखाता और छापता रहा था.

भारत में नागपंचमी पर नाग को दूध पिलाने का रिवाज है, जबकि यह कोरा अंधविश्वास है, क्योंकि सांप दूध पीता ही नहीं है. लोग यह मानते हैं कि इस दिन सांप को दूध पिलाने से उन की हर इच्छा पूरी होगी, पर यह सच नहीं है.

यह विश्वास या आस्था होती ही ऐसी चीज है, जिस में न होने का एहसास कोई माने नहीं रखता. कोई है और आदि से है और अंत तक रहेगा, यह फीलिंग बड़ा सुकून देती है. फिर चाहे वह पेड़ वाला भूत हो या फिर कोई मूर्ति हो, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता.

सच यही है कि यह एक विचार है और रोटी, पानी, रोजगार और दीगर जरूरतों से ज्यादा देश को विचारों की जरूरत है, जिस से दुनिया देश का लोहा माने कि देखो इन्हें भूखेनंगे और फटेहाल हैं, लेकिन इन के विचार बड़े ऊंचे हैं.

इस चक्कर में देश बेचारों का बन कर रह जाए, इस की परवाह जिन को है वे वाकई बेचारे हैं और पत्थर से सिर फोड़ने की बेवकूफी कर रहे हैं. लेकिन यकीन मानें तो यही वे लोग हैं, जो एक न एक दिन अभिषेक त्रिपाठी की तरह अंधविश्वास के भूत के सच उजागर करेंगे.

अनपढ़ता, गरीबी और बेरोजगारी से जूझता मुसलिम तबका

जिस मुसलिम कौम ने कई सदियों तक राज किया, साल 1857 की क्रांति की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, देश को अंगरेजों की गुलामी से आजाद कराने वाले आंदोलन में भाग लिया और फिर 1947 में देश को आजाद कराने में भागीदारी निभाई, आज उसी तबके की दशा चिंताजनक है.

वर्तमान दौर में यह तबका माली, सामाजिक,  पढ़ाईलिखाई, राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़ रहा है. इस के जिंदगी जीने के ग्राफ में भी गिरावट देखी जा रही है.

मुसलिम समाज आज अनपढ़ता, गरीबी और बेरोजगारी से भी जू?ा रहा है. इस वजह से समाज अनैतिक कामों के जाल में फंसता चला जा रहा है. आखिर इस बदहाली का कुसूरवार कौन है?

समाज के रहनुमा गौर करें : रहबर ए कौम सम?ा ले ये हकीकत है बड़ी, कौम छोटी है, मगर इस की रिवायत है बड़ी.

इस समाज के रहनुमाओं की राजनीतिक नुमाइंदगी और शासनप्रशासन में भागीदारी नहीं के बराबर है और जो है, वह भी बौद्धिक रूप से भीरू है. इस तबके के लोग जिस राजनीतिक नुमाइंदगी के पीछे रहे, उस ने भी इन का शोषण ही किया. जो राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते हैं, वे भी पीठ पीछे घात ही लगाते हैं.

इन सब बातों पर इस समाज को फिक्र करनी होगी. देश का वातावरण वर्तमान समय में दूषित है और हमें आपसी भाईचारे से रहना है.

मस्तान बीकानेरी का कहना है : दुनिया से जो डरते थे उन्हें खा गई दुनिया, वे छा गए दुनिया में जो डरते थे खुदा से.

मुसलिम समाज की हालत पर आखिरकार देश के तब के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने 58 साल बाद यह महसूस किया कि मुसलिमों के सामाजिक, माली, पढ़ाईलिखाई और राजनीतिक पिछड़ेपन के कारण व निवारण के लिए कुछ किया जाए, तो फिर उन्होंने जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में साल 2005 में एक कमेटी बनाई थी.

इस आयोग की रिपोर्ट भी चौंकाने वाली थी और मुसलिमों के हालात अनुसूचित जातियों से भी बदतर बताए गए थे. ऐसा ही कुछ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने भी बताया था. इन आयोगों ने जो सु?ाव दिए, उन्हें लागू करने में भी उदासीनता ही रही. वे सु?ाव अब ठंडे बस्ते में पड़े हैं.

किसी शायर ने कहा है : बेइल्म, बेहुनर रहेगी दुनिया में जो भी कौम, कुदरत की इकतिजा है, बन के रहेगी वो गुलाम.

मुसलिमों को इल्म व हुनर की वजह से यह दशा सुधारनी जरूरी है. इस के लिए सरकारों पर निर्भर न हो कर मुसलिमों को मौडर्न पढ़ाईलिखाई के सांचे में खुद को ढालना होगा.

कहा भी तो गया है : खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा अपने बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है.

इस के लिए समाज के जिम्मेदार लोगों को आगे आ कर गांव और शहर के लैवल पर संगठन बना कर समाज के बुद्धिजीवी तबके की मदद से सुनियोजित तरीके से क्रांतिकारी बदलाव ला कर समाज को जागरूक करने की अलख जगाई जानी चाहिए.

आज का जमाना प्रतियोगिता का है. मुसलिमों के बच्चे गाइडैंस की कमी में पिछड़ जाते हैं. बहुत से तो सामाजिक और माली वजहों से स्कूल छोड़ देते हैं, बहुत कम ही आगे की पढ़ाई तक पहुंच पाते हैं. इस समस्या से नजात पाने के लिए भी मुहिम चलानी चाहिए.

मुसलिम समुदाय के बच्चों को मनोवैज्ञानिक ढंग से मार्गदर्शन की जरूरत है, जबकि आम लोगों की सोच बन चुकी है कि मुसलिमों को नौकरी तो मिलनी नहीं है, इसलिए इस मिथक को तोड़ना भी बहुत जरूरी है.

आज के तकनीकी जमाने में देश में पढ़ेलिखे लोगों का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारे पुश्तैनी धंधे भी आधुनिक तकनीक से चलाए जाने में उन का पढ़ालिखा होना जरूरी है, इसलिए मुसलिम समाज में आमूलचूल बदलाव लाने की दिशा में ऊंची तालीम और प्रोफैशनल कोर्स, कंप्यूटर की अच्छी जानकारी की अहमियत की गाइडैंस देना जरूरी है.

इस के साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी देना और बच्चों को कोचिंग दिलाना जरूरी है. आज केंद्र

व राज्य सरकार की तमाम योजनाओं और दूसरे कार्यक्रमों का फायदा लेने के लिए भी उन का मार्गदर्शन किया जाए.

मुसलिमों में बढ़ चुके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें सामाजिक कुरीतियों और फुजूलखर्ची से भी दूर रहने की जरूरत है. यह पैसा बच्चों की तालीम पर खर्च किया जाए.

किसी ने सही कहा है : अभी वक्त है संभालो समाज को समाज के रहनुमाओ, वक्त निकल गया हाथ से तो पछताओगे तुम रहनुमाओ.

साथ ही, मुसलिम समाज के बच्चों के लिए लाइब्रेरी, होस्टल, पढ़ाईलिखाई से जुड़े संस्थानों का संचालन किया जाए और गरीब बच्चों की पढ़ाईलिखाई का पुख्ता इंतजाम कर उन्हें मैनेजमैंट, होटल, पर्यटन, चिकित्सा, पशुपालन, खेतीबारी, तमाम छात्रवृत्तियां फैलोशिप और खेलों से जुड़ी जानकारी भी दी जानी चाहिए. इस से भविष्य में मुसलिम समाज को फायदा होगा

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