जब मां की अय्याशी का फल एक बेटी ने भुगता

सीमा के पिता रेलवे में नौकरी करते थे, सो वे ज्यादातर दौरे पर रहते थे. सीमा की मां सारा दिन कालोनी में यहांवहां घूमती रहती थीं. सीमा घर पर होती तो उस की मां का रिश्तेदार चंदू आ जाता. चंदू तबीयत से दिलफेंक मिजाज का था और इस की वजह से उस की बीवी उसे छोड़ चुकी थी. वह प्राय: इधरउधर लड़कियों के पीछे घूमता रहता. सीमा की मां के लिए शहर से उपहार लाता तो वे खुश हो जातीं. एक दिन वह सीमा को शहर घुमाने के बहाने ले गया और उसे बहलाफुसला कर उस से संबंध बना लिए. सीमा को जब तक कुछ समझ में आता, उसे अनचाहा गर्भ ठहर चुका था.

अब चूंकि चंदू तो मतलब साध कर निकल गया, लेकिन जैसेजैसे सीमा पर दिन चढ़े तो उन की पड़ोसिन को संदेह हुआ. गांव में रहने के कारण मामला गंभीर था. अगर किसी को भनक लग गई तो पूरे गांव में बदनामी हो जाएगी.

अब सीमा की मां को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें? क्योंकि 3-4 माह का गर्भ हो चुका था. यदि वे पति को बतातीं तो पति तो उन्हें ही बदचलन कह कर छोड़ देता. सीमा की मां अपनी पड़ोसिन के साथ पास के गांव की दाई रजिया के पास गई. रजिया ने यह काम आसानी से करने का भरोसा दिलाया और बतौर मेहताना मोटी रकम मांगी. वक्त तय हुआ रात 12 बजे का. सीमा के पिता नाइट ड्यूटी पर चले गए तब रजिया व पड़ोसिन सीमा के घर आए. उस ने सीमा को लिटाया. बिना किसी दवा व इंजैक्शन के रजिया ने सीमा की योनि से उस के गर्भ में एक कमची जैसी पतली लकड़ी डाली, जैसे हरे बांस की छड़ी होती है. उस पतली लकड़ी के भीतर डाले जाने से सीमा चीखने लगी. वह असहाय दर्द से बिलबिला उठी तो रजिया ने कहा कि उस का हाथ पकड़ कर रखो साथ ही मुंह भी दबा दो.

रजिया ने लकड़ी को गर्भाशय में आघात से चलाना शुरू किया व उस की मां व पड़ोसिन ने सीमा के हाथ कस कर पकड़े रखे और मुंह भी कपड़े से बांध दिया ताकि वह चीख न सके.

लकड़ी के तेज आघात से सीमा का गर्भाशय क्षतविक्षत हो गया और जब ब्लीडिंग होने लगी तो सीमा की मां घबरा गई. रजिया बोली, ‘‘गर्भ गिर गया है. सुबह तक होश आ जाएगा.’’ वह पैसे ले कर चली गई. लेकिन न तो ब्लीडिंग रुकी और न ही सीमा होश में आई. वह असहनीय पीड़ा से तड़पतड़प कर प्राण गवां चुकी थी.

सीमा की मां को सुबह पता चला कि सीमा का प्राणांत हो चुका है. कमरा सीमा के खून से भर चुका था. पुलिस ने जांच की तो रजिया की करतूत पता चली. सीमा की मां की रंगीनमिजाजी उस की बेटी को लील गई. इतना ही नहीं, चंदू की ऐयाशी अभी भी जारी रही क्योंकि वह पकड़ से दूर जा चुका था.

प्यार सबकुछ नहीं जिंदगी के लिए 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आईटी चौराहे पर रैड सिग्नल होने से ट्रैफिक रुक गया. हमारी बाइक यानी मोटरसाइकिल के ठीक बगल में एक दूसरी बाइक आ कर रुकती है. नए जमाने के स्टाइल वाली बाइक पर एक लड़का अपने पीछे एक लड़की को बैठाए है. दोनों आपस में बात करते हैं. लड़का सम झाते हुए कहता है कि यह आईटी चौराहा है. दाहिनी तरफ आईटी कालेज है. लड़का आईटी चौराहे से कपूरथला की तरफ जाने वाला था. वहां कई रैस्तरां हैं. लड़की को ले कर उसे वहां जाना रहा होगा. यह अंदाजा लड़की को लग जाता है. शायद वह पहले कभी उधर गई होगी. वह लड़के के कान में कहती है, ‘उधर आज नहीं जाना. वहां भीड़ बहुत होती है. भीड़भाड़ वाली जगह हमें पसंद नहीं आती.’ वह कहता है, ‘कोई नहीं, आज सीतापुर रोड की तरफ चलते हैं. वहां अच्छी जगहें हैं.’

इसी बीच चौराहे का ट्रैफिक सिगनल ग्रीन हो जाता है. लड़का अपनी बाइक सीतापुर रोड की तरफ मोड़ देता है. दोनों को देख कर यह लग रहा था कि वे एकांत में कुछ समय गुजारना चाहते थे. ऐसे लोगों को प्यार करने वाला कपल कहा जाता है. जब प्यार की बात होती है तो ऐसे ही कपल की चर्चा सब से ज्यादा होती है. इन की दोस्ती, इन का प्यार छोटीछोटी वजहों से टूट जाता है. हर दोस्ती को प्यार की नजर से नहीं देखना चाहिए. हर कपल को प्यार करने वाला कपल नहीं माना जा सकता. यह जरूर है कि दोस्ती में सैक्स और प्यार दोनों आगे बढ़ जाते हैं. प्यार और सैक्स के बीच दूरी बनाए रखना जरूरी है. जहां यह दूरी नहीं होती वहां प्यार बदनाम हो जाता है. प्यार के ऐसे ही रास्ते से घर, परिवार और समाज को डर लगता है. यही डर पाबंदी का भी रूप ले लेता है.

प्यार के अलग फलसफे प्यार को ले कर दिल और समाज में अलगअलग फलसफे हैं. कहीं कहा जाता है कि ‘प्यार ही जिंदगी है’ तो कहीं कहा जाता है कि ‘प्यार सबकुछ नहीं जिंदगी के लिए.’ यह सच है कि प्यार से खूबसूरत चीज दूसरी दुनिया में नहीं है. प्यार उम्र, जाति और दूरी के बंधन को भी नहीं मानता है. आज जिस प्यार की बात हम करने जा रहे हैं वह ‘टीनएज लव’ या ‘युवावस्था में होने वाला प्यार’ है. यह प्यार उम्र के उस दौर में होता है जब सब से अधिक जरूरत युवाओं को अपने कैरियर पर ध्यान देने की होती है. ऐसे युवाओं को ही सम झाने के लिए कहा जाता है, ‘प्यार से भी जरूरी कई काम हैं, प्यार सबकुछ नहीं जिंदगी के लिए’. क्लीनिकल साइकोलौजिस्ट डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘किशोरावस्था में शरीर में हारमोनल चेंज आते हैं. ऐसे में लड़के और लड़कियों के बीच आपस में एकदूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ता है. यह आकर्षण पहले दोस्ती, फिर प्यार, फिर शादी तक भी पहुंच जाता है.

समाज की नजरों से देखें तो इस को सफल प्यार कहा जाता है. जो प्यार शादी तक नहीं पहुंच पाता उस को असफल प्यार की श्रेणी में रख दिया जाता है. प्यार की कुछ कहानियां पहले आकर्षण के बाद खत्म हो जाती हैं. कुछ एकतरफा हो कर ही रह जाती हैं, कुछ दोस्ती से आगे नहीं बढ़ पातीं और कुछ तो शादी के बाद भी टूट जाती हैं.’’ अलगअलग है प्यार और सैक्स  प्यार के अलगअलग दौर होते हैं. हर दौर की अपनी मुश्किलें होती हैं. प्यार का सब से अलग दौर वह होता है जब उस में सैक्स की चाहत पनप जाती है. असल में लड़कालड़की के बीच जो आकर्षण प्यार की तरह से दिखता है उस में सैक्स का अहम रोल होता है. प्यार और सैक्स के बीच में एक बहुत ही पतली विभाजन रेखा होती है. यह इतनी पतली होती है कि इस में अंतर कर पाना समाज और देखने वालों के लिए मुश्किल होता है.

समाज का एक बड़ा वर्ग प्यार को सैक्स का आकर्षण सम झता है. सैक्स को ले कर लड़कियों के व्यवहार के प्रति समाज का नजरिया बेहद संकीर्ण होता है. इस की वजह यह है कि समाज उन लड़कियों को सही नहीं मानता जो शादी से पहले सैक्स कर लेती हैं. शादी के पहले सैक्स के प्रति इसी सोच के कारण मातापिता और समाज प्यार करने वालों को सही नहीं मानते. उन के बीच दूरियां डालने का काम करते हैं. प्यार और सैक्स में घट रही दूरियों के कारण ही प्यार की चुनौतियां बढ़ रही हैं. समाज और परिवार का मानना होता है कि किशोरावस्था से ले कर युवावस्था तक का समय कैरियर बनाने व अपने भविष्य की मजबूत नींव रखने के लिए होता है. ऐसे में प्यार का होना उन को रास्ते से भटकाने का काम करता है, जिस से प्यार के चक्कर में पड़ कर लड़के हों या लड़कियां, अपने भविष्य से खिलवाड़ करते हैं. यहीं पर यह धारणा जन्म लेती है कि प्यार सबकुछ नहीं जिंदगी के लिए.

प्यार में नासम झी खतरनाक  हमारे समाज में सब से गलत धारणा यह है कि प्यार पहली नजर में हो जाता है. प्यार अंधा होता है, प्यार सोचसम झ कर नहीं किया जाता और प्यार में अमीरीगरीबी नहीं देखी जाती. ये बातें किताबी होती हैं. प्यार जब वास्तविकता के धरातल पर उतरता है तो ये सारी बातें बेमानी हो जाती हैं. और तब जातिधर्म, अमीरीगरीबी, रूपरंग सभी कुछ माने रखने लगते हैं. पहली नजर के आकर्षण में होने वाले प्यार के समय मानसिक स्तर के तालमेल को भी महत्त्व नहीं दिया जाता है. जबकि, सचाई यह होती है कि जिन लोगों के विचार आपस में नहीं मिलते उन के बीच दूरियां बनी रहती हैं. वे प्यार, मोहब्बत और शादी के बंधन में भी तालमेल नहीं बना पाते हैं. जो युवा प्यार में नासम झी करते हैं वे कभी प्यार में सफल नहीं हो सकते. लखनऊ में घर से भाग कर शादी करने वाले लड़केलड़कियों के जिन मामलों में पुलिस में रिपोर्टें दर्ज हुईं, पुलिस ने कुछ लड़केलड़कियों को पकड़ कर कोर्ट में पेश किया, तो ज्यादातर लड़कियां कम उम्र की थीं. वे अपने पिता के घर जाने को तैयार नहीं थीं.

ऐसे में उन को ‘बालिका गृह’ भेजा गया. वहां जांच में पता चला कि आधे से अधिक लड़कियां गर्भवती निकलीं. प्यार में घर से विद्रोह कर लड़के के साथ भाग जाना और फिर गर्भवती होना प्यार के लिए बेहद खतरनाक हो जाता है. ऐसे मामलों में ही घरपरिवार और समाज का डर भी पैदा हो जाता है जो आपराधिक गतिविधियों को जन्म दे देता है. इस वजह से ऐसे कपल कई बार आत्महत्या करने जैसे आत्मघाती कदम उठा लेते हैं. कई बार समाज इन के प्रति हिंसक हो जाता है. प्यार में नासम झी भारी पड़ती है. सम झदारी और सू झबू झ से सफल होता है प्यार समाज में तमाम ऐसे उदाहरण भी हैं जो जातिधर्म या दूसरे बंधनों से अलग हो कर भी प्यार, शादी, परिवार और समाज के लिए उदाहरण या रोल मौडल माने जाते हैं. ऐसे लोगों के गुणों को देखें तो पता चलता है कि ये प्यार और सैक्स के बीच दूरी को बना कर रखने वाले थे. इन्होंने अपने कैरियर को प्राथमिकता दी.

जब आत्मनिर्भर हो गए तब शादी व सैक्स के फैसले किए. जिस के बाद इन के प्यार पर किसी भी तरह की उंगली न उठी. ऐसे ही प्यार में शादी करने वाली शबाना खंडेलवाल ने गैरधर्म में शादी की थी. शबाना कहती हैं, ‘‘हमारा प्यार जब आगे बढ़ा तब हम ने यह फैसला किया था कि जब हम अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तभी शादी का फैसला लेंगे. यही हुआ. हम ने अलग रहने का फैसला भले ही लिया पर एकदूसरे के परिवार के सुखदुख में हिस्सा लेते रहे. दोनों ही परिवारों ने हमें स्वीकार किया.’’

शबाना आगे कहती हैं, ‘‘अगर हम ने केवल प्यार के युवा आकर्षण में पड़ कर ऐसा कदम उठाया होता तो हम सफल नहीं होते. प्यार का विरोध करने वाले यह सोचते हैं कि केवल आकर्षण में ऐसे कदम उठाने वालों में जिम्मेदारी का भाव नहीं होता है. इस कारण वे प्यार का विरोध करते हैं. जिन लोगों में जहां प्यार का आकर्षण और जिम्मेदारी का भाव दोनों होता है वहां पर प्यार के सफल होने के अवसर बढ़ जाते हैं. समाज ऐसे लोगों को स्वीकार कर लेता है.’’ डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘रिश्तों की सफलता व असफलता की तमाम वजहें होती हैं. ऐसे में प्यार में टूटने वालों को अपने जीवन से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. जिंदगी की जो तमाम वजहें होती हैं, प्यार उन में से एक है.

प्यार सबकुछ नहीं जिंदगी के लिए, ऐसे में एक वजह के लिए पूरी जिंदगी को दांव पर लगाना उचित नहीं होता.’’  युवाओं से केवल घर व परिवार को ही नहीं, देश व समाज को भी उम्मीदें होती हैं. युवाशक्ति देश के विकास में अहम रोल अदा करती है. प्यार के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना ठीक नहीं है. प्यार से भी जरूरी कई काम हैं.

डा. अरविंद गोयल: 600 करोड़ की प्रापटी दान करने वाले दानवीर

कहते हैं कि समाज सेवा से बड़ा कोई कर्म और धर्म नहीं है. यह मुरादाबाद के डा. अरविंद कुमार गोयल ने कर दिखाया है. उन्होंने इस के लिए कितना किया है, इस का हिसाब लगाना आसान नहीं. लेकिन इतना जरूर है कि उन्होंने सामाजिक जरूरतों को महसूस करते हुए अपनी 600 करोड़ रुपए की प्रौपर्टी दान करने का जो कदम उठाया, उसे एक मिसाल कह सकते हैं.

25 साल पहले बात उस समय की है, जब एक बार डा. अरविंद कुमार गोयल अपने मैडिकल प्रोफेशन के सिलसिले में ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे. दिसंबर महीने की सर्दी की रात थी. उन की ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी थी. तब उन्हें चाय पीने की तलब हुई.

वह चाय पीने के लिए प्लेटफार्म पर उतरे. उन्हें कहीं चाय बेचने वाला नहीं दिखा. कुहासे में बहुत कुछ साफ भी नहीं दिख रहा था. इधरउधर नजरें घुमाईं. चार कदम पर ही बेंच पर लेटे एक आदमी को ठिठुरता देख उन की निगाहें उस पर टिक गईं.

उन्होंने देखा कि वह आदमी ठंड के कारण बुरी तरह से ठिठुर रहा था. उस के पास कोई कंबल नहीं था. साधारण सी चादर से वह खुद को किसी तरह से ढंके हुए था. उस के पैर चादर से बाहर निकले हुए थे. पैरों में कोई जुराब या चप्पल तक नहीं थे.

डा. गोयल ट्रेन में तुरंत अपनी सीट पर गए. अपना कंबल समेटा, जूते खोले, उन में जुराबें डालीं और ठिठुरने वाले उस आदमी के पास जा पहुंचे. उन्होंने उसे अच्छी तरह से कंबल ओढ़ाया और उसे जूतेमोजे पहना दिए.

वापस गाड़ी में आ गए. बैग से अपना शाल निकाला और ओढ़ कर बैठ गए. उन्होंने पानी के 2-4 घूंट पिए तो लगा चाय की तलब खत्म हो गई हो. गाड़ी चल पड़ी. इसी के साथ उन के दिमाग में कई बातें भी चलती रहीं.

कुछ देर तक उन्होंने सर्दी सहन करने की कोशिश की. कड़ाके की ठंड होने की वजह से उन की हालत भी खराब होने लगी थी. लेकिन उस आदमी की हालत उन के जेहन में बस चुकी थी. इस के बाद उन्होंने गरीब बेसहारों के लिए काम करना शुरू कर दिया था. यहीं से समाज सेवा न केवल उन की दिनचर्या का हिस्सा बनी, बल्कि जीवन का लक्ष्य भी.

उस के बाद से ठंड हो या बारिश, वह रोजाना ही गरीबों की आर्थिक मदद करने लगे थे. लिहाफ या कंबल वितरण वह स्वयं करते हैं.

सारी संपत्ति दान कर के बचा है सिर्फ स्कूटर

इस बात का जिक्र डा. गोयल ने पिछले दिनों तब किया, जब उन्होंने 18 जुलाई, 2022 को मीडिया के सामने अपनी 600 करोड़ रुपए की संपत्ति दान में देने की घोषणा की. इस बारे में उन्होंने राज्य सरकार को लिखा पत्र भी दिखाया. उन्होंने बताया कि दान की संपत्ति को इस्तेमाल करने के लिए सरकार को एक कमेटी बनाने की सलाह दी है.

पुरानी घटना का जिक्र करते हुए डा. गोयल ने बताया, ‘‘उस रात मैं ने सोचा कि न जाने कितने लोग ठंड में ठिठुरते होंगे. तब से मैं ने गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करने की कोशिश शुरू की थी. मैं ने काफी तरक्की की है, लेकिन जीवन का कोई भरोसा नहीं है. इसलिए जीवित रहते अपनी संपत्ति सही हाथों में सौंप रहा हूं. ताकि ये किसी जरूरतमंद के काम आ सके. गरीबों की शिक्षा और चिकित्सा के लिए राज्य सरकार को सहयोग मिल सके.’’

अपने जीवन भर की कमाई से डा. गोयल ने मुरादाबाद के सिविल लाइंस का सिर्फ बंगला ही अपने पास रखा है, जिस में वह अपने परिवार के साथ रहते हैं. परिवार में उन की पत्नी रेणु गोयल के अलावा उन के 2 बेटे और एक बेटी है.

उन के बड़े बेटे मधुर गोयल मुंबई में रहते हैं. छोटा बेटा शुभम प्रकाश गोयल मुरादाबाद में रहते हैं और अपने पिता को समाजसेवा और व्यवसाय में मदद करते हैं. दान के बाद आनेजाने के लिए उन के पास मात्र एक स्कूटर बचा हुआ है. उन की इसी पुराने स्कूटर की वजह से सादगी को ले कर भी चर्चा होती रही है.

वह जब भी अपने वृद्धाश्रम जाते हैं तो वहां रह रही महिलाओं के आशीर्वाद के हाथ स्वत: उठ जाते हैं. सभी उन्हें अपने बेटे की तरह स्नेह करती हैं. वह भी उन के साथ घंटों गुजारते हैं. घरेलू खेल और दूसरे कार्यों में सहभागी बनते हैं. उन्हें वृद्ध महिलाओं के साथ कैरम बोर्ड खेलते हुए और मां की तरह सेवा करते अकसर देखा जा सकता है.

गरीबों और असहायों की सेवा में जुटे रहने वाले शहर के समाजसेवी एवं शिक्षाविद डा. गोयल का नाम उन की सेवा कार्यों को ले कर ही चर्चा में बना रहता है. देश और विदेश तक उन की चर्चा होती है.

वृद्धों की सेवा के साथ ही हजारों निराश्रित बच्चों की पढ़ाई के खर्च का भी जिम्मा उन्होंने उठा रखा है. देश के अलगअलग राज्यों में उन की शिक्षण संस्थाओं में गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है.

इस संबंध में बीते साल 2021 में उन्हें दिल्ली में आयोजित एक निजी कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था. इस दौरान उन्होंने बच्चों को कैसे संस्कार दिया जाएं, के बारे में संबोधित किया था. इस कार्यक्रम में अलगअलग राज्यों से आए समाजसेवी और कारोबारियों को सम्मानित किया गया था.

इसी कार्यक्रम का एक वीडियो उन की एक प्रशंसक द्वारा फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दिया गया था. वह वीडियो इस कदर वायरल हुआ कि 2 दिनों में ही फेसबुक पर इस वीडियो को 50 लाख और इंस्टाग्राम में 89 लाख लोगों ने देखा.

देशविदेश की अनेक हस्तियों ने किया सम्मानित

इस उपलब्धि पर उन्हें लोगों ने बधाइयां दीं. वीडियो के वायरल होने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि समाजसेवा के साथ ही शिक्षा क्षेत्र में किए गए कार्यों को ले कर देश और विदेश में कई बार उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. उन के बारे में एक बात सर्वमान्य हो चुकी है कि वह हमेशा असहायों की मदद को तत्पर रहते हैं.

डा. गोयल के पिता प्रमोद कुमार गोयल और मां शकुंतला देवी स्वतंत्रता सेनानी थे. पिता का भी बड़ा कारोबार था. उन के कई कोल्डस्टोरेज, राइस मिल, स्टील फैक्ट्री आदि थे. समाज सेवा की भावना डा. अरविंद के अंदर अपने मातापिता के संस्कार के कारण ही आई.

डा. अरविंद गोयल को देश के 4 राष्ट्रपति सम्मानित कर चुके हैं. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रणव मुखर्जी, प्रतिभा देवी पाटिल, डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने इन्हें सम्मानित किया तो इन्हें भी अपार खुशी महसूस हुई.

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, शाहरुख खान, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ भी इन्हें सम्मानित कर चुके हैं.

थाईलैंड सरकार द्वारा इन्हें ग्लोब लीडरशिप अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. फिल्म इंडस्ट्री के सब से बड़े आइफा अवार्ड समारोह में वह 3 बार मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए हैं.

उत्तराखंड की तत्कालीन राज्यपाल मार्गरेट अल्वा ने अरविंद गोयल को उत्तराखंड रत्न सम्मान से सम्मानित किया था. कपिल सिब्बल भी एकता सम्मान से इन्हें सम्मानित कर चुके हैं. पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने गोयल को भारत के गौरव रत्न दे कर सम्मानित किया था. 2015 में टाइम्स औफ इंडिया द्वारा आयोजित इकोनौमिक टाइम्स इंडिया कार्यक्रम में राजनेता राजीव प्रताप रूड़ी ने इन्हें सम्मानित किया था.

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी डा. अरविंद गोयल को स्टार्टअप योजना के शुभारंभ पर लखनऊ में उन्हें प्रतीक चिह्न दे कर सम्मानित किया.

यही नहीं, उन के परिवार में कई सदस्य जिम्मेदार पदों पर काम कर चुके हैं. बहनोई मुख्य चुनाव आयुक्त और ससुर जज रह चुके हैं, जबकि उन के दामाद सेना में कर्नल हैं.

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर के रहने वाले डा. अरविंद गोयल के पास उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में 100 से ज्यादा शिक्षण संस्थान, वृद्धाश्रम और अस्पताल हैं. उन में  वह ट्रस्टी हैं. कोविड 19 लौकडाउन के दौरान उन्होंने मुरादाबाद के 50 गांवों को गोद ले कर लोगों को मुफ्त खाना और दवा दिलवाई थी. वह भी अपनी जान जोखिम में डाल कर.

डा. गोयल का यह फैसला व्यक्तिगत नहीं था. बल्कि इस में उन्हें पूरे परिवार वालों की सहमति मिली. पत्नी रेणु और तीनों बच्चों ने इस फैसले पर खुशी जताई.

डा. गोयल द्वारा संपत्ति दान करने की घोषणा से नगर के लोग खुश हैं तो हतप्रभ भी हैं कि आखिर वह क्या वजह रही, जो उन्होंने अपनी मेहनत से अर्जित की गई संपत्ति 3 बच्चों के होते हुए भी सरकार के हवाले करने का निर्णय लिया. जबकि सरकार की संस्थाएं घिसटती हुई चलती हैं.

बहरहाल, डा. गोयल द्वारा दान की गई संपत्ति की निगरानी को लेकर भी लोगों के मन में कई सवाल हैं, हालांकि उस के लिए कमेटी बनाने का बात कही गई है.

आईएएस और आईपीएस की टीम करेगी निगरानी

सरकार संपत्ति लेने से पहले 5 सदस्यीय टीम गठित करेगी, जिस में आईएएस और आईपीएस अफसर शामिल होंगे. इस टीम के द्वारा दान की गई जमीन में परियोजनाओं का संचालन करने की योजना बनाई जाएगी.

टीम द्वारा संपत्ति का पूर्ण आकलन कर गरीबों के लिए बेहतर उपचार, शिक्षा की व्यवस्था के केंद्र खोले जाएंगे.

अरविंद गोयल ने मुरादाबाद के जिलाधिकारी शैलेंद्र कुमार सिंह को पत्र द्वारा अपनी 600 करोड़ रुपए की संपत्ति राज्य सरकार को दान देने की घोषणा कर दी है. दान की प्रक्रिया जिलाधिकारी शैलेंद्र कुमार सिंह के माध्यम से पूरी की जाएगी.

डा. अरविंद गोयल की मदद से देश में सैकड़ों स्कूल, हजारों प्याऊ, अनेकों वृद्धाश्रम, बड़ी संख्या में अस्पताल, सैकड़ों सुलभ शौचालय, रैन बसेरे, अनेक विकलांग आश्रम, विधवा आश्रम संचालित हैं. वह अनेक गांवों को गोद ले कर उन्हें आदर्श गांव में बदल चुके हैं.

अरविंद गोयल व उन के परिवार के पास देश भर में 250 से ज्यादा स्कूल थे. कोरोना काल में कुछ स्कूल बंद हो गए. वर्तमान में करीब 200 से ज्यादा स्कूल चल रहे हैं.

इन स्कूलों का संचालन डा. अरविंद गोयल की मदद से होता है. विभिन्न प्रदेशों में जो स्कूल गोद लिए हैं, उन का नाम तक नहीं बदला है. प्रदेश में स्थित संपत्तियों को दान करने का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश शासन को भेजा जा चुका है, जल्द ही इस की प्रक्रिया पूर्ण हो जाएगी.

जब बहन निचली जाति में ब्याह कर ले

बात कुछ साल पुरानी है, पर आज भी हालात ज्यादा बदले नहीं हैं. सुनीता रक्षाबंधन से कुछ दिन पहले डाकघर गई थी. उस ने राखी का लिफाफा तो बना लिया था, पर अपने भाई के नाम चिट्ठी नहीं लिखी थी. लिहाजा, वह डाकघर में ही बैठ कर चिट्ठी लिखने लगी.

सुनीता के साथ की सीट पर मालती नाम की एक और औरत बैठी थी और वह समझ गई कि सुनीता क्या और क्यों लिख रही है. यह देख कर मालती फूटफूट कर रोने लगी.

जब सुनीता ने रोने की वजह पूछी, तो मालती ने अपने जज्बातों पर काबू रखते हुए बताया, ‘‘मैं भी आप की तरह अपने भाइयों को राखी भेजने आई हूं, पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही है.’’

‘‘पर क्यों? इस में दिक्कत क्या है? क्या तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं?’’ सुनीता ने मालती का हाथ पकड़ कर पूछा.

‘‘वह बात नहीं है. आज से 5 साल पहले मैं ने अपने घर वालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली थी. लड़का छोटी जाति का था. हम घर वालों के गुस्से से बचने के लिए गांव छोड़ कर दिल्ली आ गए थे.

‘‘उस समय मेरे पिताजी ने मुझे मरा हुआ कह दिया था. मेरे तीनों भाई भी मुझ से नाराज हो गए थे. पिछले साल ही मेरे पिताजी की मौत हो गई थी. अब मैं अपने भाइयों को राखी भेजना चाहती हूं. पता नहीं, उन्हें मेरी राखी से मेरी याद भी आएगी या नहीं,’’ मालती ने अपनी कहानी बताई.

सुनीता ने मालती का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बिलकुल भेजो. अब तक तो तुम्हारे भाई पुरानी सारी बातें भूल गए होंगे.’’

मालती ने वैसा ही किया और राखी भेज कर वह अपने घर चली गई.

रक्षाबंधन के दिन मालती हैरान रह गई, जब उस के तीनों भाई उस के दरवाजे पर खड़े थे. वह खुशी के मारे उछल पड़ी और तीनों भाइयों को राखी बांधी. भाइयों ने भी उस का खूब मान रखा और अपने जीजा को घर आने का न्योता दिया.

मालती ने मन ही मन सुनीता का शुक्रिया अदा किया, क्योंकि उसी के बढ़ावा देने पर उस ने राखी भेजी थी.

रक्षाबंधन के साथसाथ भाई दूज भाईबहन के रिश्ते को मजबूत करने वाला त्योहार है. मांबाप के बाद भाईबहन ही कई साल एकसाथ जिंदगी गुजारते हैं. बचपन से ले कर शादी होने तक उन दोनों के बीच इतना ज्यादा गहरा रिश्ता बन जाता है कि वे एकदूसरे के सुखदुख में भागीदार बन जाते हैं. चूंकि आजकल अमूमन 2 ही बच्चे पैदा करने का चलन है, तो यह रिश्ता और भी ज्यादा गहरा हो जाता है.

ऐसा नहीं है कि शादी के बाद इस रिश्ते में कम गहराई हो जाती है, पर कुछ वजहों से खटास पैदा होने का खतरा जरूर बन जाता है. मालती के साथ यही हुआ था. निचली जाति में शादी करने के बाद वह अपने परिवार से कट गई थी. पिता के गुस्से और नाराजगी की वजह से मालती के भाई भी उस से खुन्नस खाए हुए थे, लिहाजा मालती ने भी चुप्पी साध ली थी, पर वह अपने भाइयों के बगैर घुटघुट कर जी रही थी.

पिता के न रहने पर उस के मन में उम्मीद की किरण जगी और सुनीता के बढ़ावा देने पर उस ने अपने भाइयों को राखी भेज दी, जिस का नतीजा बेहद सुखद रहा.

यह हमारे लिए शर्मनाक बात है कि आजादी के 75 साल बाद भी कोई लड़की अपनी पसंद का लड़का ढूंढ़ कर उसे अपना जीवनसाथी नहीं बना सकती है. और अगर वह लड़का निचली जाति का है तो घरसमाज में भूचाल आ जाता है. पिता तो लड़की को मरा हुआ मान लेते हैं, जबकि भाई मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं.

गुजरात के अहमदाबाद जिले के वारमोर गांव में 9 मई, 2019 को 8 लोगों ने मिल कर दलित नौजवान हरेश सोलंकी पर तलवार, चाकू, छड़ और डंडे से हमला बोला और उसे मार डाला. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इन लोगों की अगुआई लड़की के पिता दशरथ सिंह जाला कर रहे थे.

लड़की का नाम उर्मिला था और जिस समय उस के पति की हत्या हुई, उस समय उस के पेट में 2 महीने का बच्चा पल रहा था. तकरीबन 6 महीने पहले हरेश और उर्मिला ने शादी की थी.

इस वारदात से कुछ दिनों पहले तेलंगाना में एक कारोबारी पिता ने अपनी गर्भवती बेटी अमृता के पति की किराए के गुंडों से सरेआम हत्या करा दी थी, क्योंकि लड़की ने अपने पिता की मरजी के खिलाफ एक दलित लड़के प्रणय से शादी कर ली थी. यह हत्या लड़की की आंखों के सामने हुई थी.

ये तो वे वारदातें हैं, जिन में अति कर दी गई थी, पर ज्यादातर मामलों में लड़की को अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ जाता है और वह न चाहते हुए भी अपने भाई से दूर हो जाती है. लेकिन भाइयों को इस सिलसिले में पहल करनी चाहिए और रक्षाबंधन और भाई दूज जैसे त्योहार इस टूटे रिश्ते को जोड़ने का काम करते हैं.

सब से पहले तो भाई को यह समझ लेना चाहिए कि उस की बहन ने सोचसमझ कर ही अपना जीवनसाथी चुना होगा. अगर उस समय कोई गुस्सा था भी, तो रक्षाबंधन और भाई दूज के दिन तो भाई अपनी बहन के घर जा कर यह देख सकता है कि वह सुखी तो है.

अगर मालती की तरह उस की शादी को कई साल हो गए हैं, तो यकीनन वह मां भी बन गई होगी और किसी भी मामा के लिए उस के भानजाभानजी दिल के टुकड़े होते हैं, फिर वह उन्हें अपने स्नेह से कैसे दूर रख सकता है.

भाई और बहन तो एकदूसरे के लिए संबल होते हैं. मांबाप के न रहने के बाद सब से ज्यादा नजदीकी रिश्ता उन्हीं का होता है. समझदार भाईबहन कभी भी एकदूसरे को अकेलेपन का एहसाह नहीं होने देते हैं.

उन्होंने अपनी जिंदगी के कई साल उस घर में बिताए होते हैं, जो उन के मांबाप का सपनों का घरौंदा होता है. वहां उन की खट्टीमीठी, अच्छीबुरी यादें बीती होती हैं. फिर एक निचली जाति के लड़के से शादी करने के बाद इस मजबूत रिश्ते में दरार आने की कोई वजह नहीं है. और ऐसा हो भी गया है, तो रक्षाबंधन और भाई दूज पर उस दरार को भरा जा सकता है. यही इस त्योहार का असली मकसद भी है.

बहन के जिंदा होते हुए किसी भाई की कलाई कभी सूनी नहीं रहनी चाहिए और भाई दूज पर भाई को अपने स्नेह का तिलक लगाना हर बहन का हक होता है, इसलिए पुरानी कड़वी यादों को भूलें और बहन को फिर से अपने परिवार में शामिल कर लें.

पंडे, पुजारी और पाखंड

पंडेपुजारी पुराणों के हवाले से कहते फिरते हैं कि तीर्थों के दर्शनों के बड़े फायदे हैं और उन के दर्शन से ही पाप धुल जाते हैं और आदमीऔरत का मन साफ हो जाता है. ऋषिकेश, मथुरा, वाराणसी, नासिक, उज्जैन जैसे तीर्थों में रहने वाले जानते हैं कि उन के शहरों में किस तरह लूटपाट होती है. जो भक्त दिमाग और आंख बंद कर के आते हैं वे अकसर लूट का शिकार होते हैं.

इसी तरह के एक तीर्थ प्रयागराज, जिस का पहले नाम इलाहाबाद था, में एक पति ने अपनी पत्नी को हथौड़े से मार दिया और फिर शव को वहीं छोड़ कर खुद पुलिस थाने में जा कर अपने को हवाले कर दिया. मामला कोई छोटी बात थी, न दहेज की, न सासससुर की, न दूसरी प्रेमिका या दूसरे प्रेमी की. पत्नी की उम्र सिर्फ 24 साल थी और शादी 14 साल की उम्र में ही हो गई थी और 3 बच्चे भी थे.

छुटपन में शादी, एक नहीं 3 बच्चे, पैसे की कमी, गुस्सा… क्या नहीं था इन दोनों में बिना यह सोचे कि 3 छोटे बच्चों का क्या होगा, आदमी ने औरत पर हथौड़ा चला दिया. इलाहाबाद यानी प्रयागराज का वह उपदेशों से भरा माहौल किस काम का रहा कि न तो 14 साल की उम्र में शादी रोक पाया, न छोटी सी लड़की को 3-3 की मां बनने से रोक सका.

इतने पंड़ों, कथावाचकों की भीड़ का क्या फायदा हुआ कि आगापीछा सोचे बिना छोटी सी बात पर हथौड़े चल गए. गंगा का पानी क्यों नहीं इन के मन को साफ कर पाया जिस का गुणगान रातदिन कथाओं में भी सुना जाता है और अब टीवी, मोबाइलों पर मौजूद है.

‘‘तीर्थराज प्रयाग ऐसे राजा हैं जिन के दर्शन से चारों पुरुषार्थ– धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मिलते हैं. बहुत पैसा मिलता है, घरपरिवार सुखी रहता है, बदन मजबूत व निरोगी रहता है…’’ इस तरह की बात प्रयागराज यानी इलाहाबाद के बारे में आज भी मोबाइल पर एकदम मिल जाती है. महाभारत, रामायण, रामचरितमानस और पुराणों का हवाला दे कर बारबार कहा जाता है कि इलाहाबाद यानी प्रयागराज से बढ़ कर तीर्थ नहीं है. प्रयागराज की मिट्टी को छूने से ही पाप खत्म हो जाते हैं.

यह तो अचंभे की बात है न कि इसी इलाहाबाद में एक मर्द ने अपनी औरत को हथौड़े से मार डाला. प्रयागराज तीर्थ ने उस का दिमाग क्यों नहीं ठीक किया? और फिर वह थाने गया. आखिर प्रयागराज में थाने का क्या काम? इलाहाबाद तो मुसलमान नाम है, वहां तो सब खूनखराबा होते हों तो बड़ी बात नहीं पर नाम बदलते ही यह तीर्थ आखिर सारे गुनाहों से दूर क्यों नहीं हो गया कि पुलिस मौजूद रहती है?

असल में धर्म, पूजापाठ, रीतिरिवाज, दान किसी को सुधारते नहीं हैं. छोटीछोटी बातों पर झगड़े कराने में तो हर धर्म सब से अव्वल रहता है. हर धर्म एक तरफ भक्त से वसूलने में लगा रहता है और इसलिए वसूल करने वालों को बचाता है तो दूसरी ओर भक्तों को बहकाता है. इसी बहकने में हथौड़े चलते हैं.

बेरोजगारी: चायपकौड़े ही बेचने हैं तो डिगरी की क्या जरूरत

प्रियंका गुप्ता चाय वाली. अब आप पूछेंगे कि इस में क्या खास बात है? खास बात यह है कि बिहार की राजधानी पटना में महिला कालेज के सामने पूर्णिया जिले की रहने वाली प्रियंका गुप्ता टपरी पर चाय तो बेचती है, पर अगर उस की पढ़ाईलिखाई की बात करें तो वह बीएचयू, बनारस से इकोनौमिक्स से ग्रेजुएशन कर चुकी है.

प्रियंका गुप्ता 2 साल तक पटना में रह कर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रही थी. जब उसे लगा कि वह किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठ नहीं पाएगी, क्योंकि सालों से किसी भी प्रतियोगिता में बैठने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है और बिहार समेत पूरे देश में नौकरी की रिक्तियां ही नहीं निकल रही हैं, तब उसे अनुभव हुआ कि समय खराब करने से कोई फायदा नहीं. तो वह बिना समय गंवाए अपनेआप को चाय बेचने के लिए तैयार कर पाई.

पर प्रियंका गुप्ता को बैंक में चक्कर लगाने के बाद भी 30,000 रुपए तक का लोन नहीं मिल पाया. लिहाजा, वह अपने एक दोस्त से उधार ले कर महिला कालेज के सामने चाय की दुकान लगाने लगी.

जब से एक पढ़ीलिखी लड़की ने चाय की दुकान की शुरुआत की, तब से मीडिया वाले खासकर सोशल मीडिया पर अपना चैनल चलाने वालों का उस के मुंह में माइक घुसेड़ कर इंटरव्यू लेने वालों का तांता लगने लगा. सारे मीडिया वाले बड़े गर्व से चिल्लाचिल्ला कर बताने लगे कि देखो, एक पढ़ीलिखी लड़की ने चाय की टपरी लगाई है.

अरे भाई, प्रियंका गुप्ता को एक अदना सी नौकरी नहीं मिल पाई, तो वह चाय बेचने को मजबूर हो गई. किसी भी लड़केलड़की को ग्रेजुएशन तक पढ़ने में तकरीबन 15 साल बीत जाते हैं. अगर उस के बाद भी नौकरी नहीं मिली, तो उन की 15 साल की तपस्या बेकार चली जाती है. यह सब मीडिया वाले क्यों नहीं बताते हैं?

यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि यह प्रियंका गुप्ता की नाकामी नहीं, बल्कि मोदी सरकार की नाकामी है, जो अब ऊंची डिगरी वालों से भी चायपकौड़े बिकवा रही है? देशभर में सरकारी नौकरियों को खत्म किया जा रहा है. इस बात को मीडिया जगत में जगह नहीं दी जा रही है.

जब देश के पढ़ेलिखे बेरोजगार नौजवानों को रोजगार नहीं दिया जाता है, तो चायपकौड़े बेचने का नैरेटिव सैट किया जाता है, ताकि नौजवान नौकरी से डाइवर्ट हो कर फालतू के रोजीरोजगार कर सड़कों पर खाक छानें और जब चुनाव का समय आए तो उन से रामलला के नारे लगवाए जाएं, मंदिरमसजिद के नाम पर अंधभक्ति कराई जाए.

सब से बड़ा सवाल यह है कि जब चाय की दुकान ही लगानी है, तो इतनी बड़ी डिगरी की क्या जरूरत है? दरअसल, देश में रोजगार की कमी हो गई है. दिनोंदिन बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है. पढ़ेलिखे लोग नौकरी के लिए मारेमारे फिर रहे हैं. उन में निराशा बढ़ती जा रही है.

इस सब के बावजूद मीडिया इस बारे में ज्यादा गंभीरता से बात नहीं कर रहा है. वह जानता है, अगर विरोध करेगा भी, तो अंधभक्तों द्वारा देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट दिया जा सकता है.

कुछ समय पहले ही देशभर के नौजवानों द्वारा रेलवे की परीक्षा की गलत नीतियों का विरोध किया गया था. पटना और लखनऊ से ले कर दिल्ली तक इस का असर पड़ा था. जानबूझ कर कोचिंग संस्थानों को भी आंदोलन भड़काने का आरोप लगाया गया था.

आखिर लाखों रुपए कोचिंग संस्थानों से कमाने वाले शिक्षकों की रौनक लड़केलड़कियों से ही हो पाती है. लेकिन नौकरी नहीं निकलने के चलते उन के बिजनैस पर बुरा असर पड़ रहा है. लड़केलड़कियां भी कोचिंग सैंटरों में दाखिला लेने से पहले सौ बार सोचते हैं.

आज के गरीब तबके के लड़केलड़कियां किसी भी काम को करने से पहले अपने मांबाप की माली हैसियत का भी जरूर खयाल रखते हैं. ज्यादातर लड़केलड़कियां बेकार में पैसा बरबाद नहीं करना चाहते हैं. वे कोचिंग भी तभी करना पसंद करते हैं, जब नौकरी के इश्तिहार आने शुरू होते हैं. तभी वे पढ़ने की रणनीति भी बना पाते हैं.

क्या प्रियंका गुप्ता दुनिया की पहली महिला हैं, जो चाय की टपरी चला रही है? फिर जो पहले से औरतें और लड़कियां चाय बेचने पर मजबूर हैं, उन्हें पब्लिसिटी क्यों नहीं मिल रही है? जो औरतें और लड़कियां चाय बेचने पर मजबूर हुई हैं, उन की खोजखबर क्यों नहीं की जा रही है? वे आखिर किन हालात में ऐसा करने को मजबूर हुई हैं या हो रही हैं?

दरअसल, आज वर्तमान सरकार द्वारा नौकरी के लिए रिक्तियां निकालनी कम कर दी गई हैं और सरकारी संस्थाओं को निजीकरण की ओर धकेला जा रहा है. जबकि एक समय ऐसा था, जब निजी संस्थानों का सरकारीकरण किया जाता था, ताकि सरकार ज्यादा से ज्यादा रोजगार पैदा कर सके. तब लोगों को लगता था कि पढ़लिख लेने के बाद कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी.

वे लोग भले ही प्रतियोगिता परीक्षा में कामयाबी हासिल नहीं कर पाते थे, लेकिन फिर भी वे खुद को चायपकौड़े बेचने के लिए अपनेआप को तैयार नहीं कर पाते थे. बेरोजगार रहने पर कोई अच्छा सा कारोबार करने के बारे में सोचते थे.

लेकिन आज नौकरी की रिक्तियां नहीं निकलने के चलते ज्यादातर बेरोजगार प्रियंका गुप्ता की तरह ही निराश और हताश हैं. कुछ लोग निराशा में छोटेमोटे कामधंधे करने के लिए राजी हो रहे हैं, पर शौक से ऐसा करने वालों की तादाद न के बराबर है.

इस के बावजूद मीडिया का एक धड़ा यह बताने पर आमादा है कि पढ़ेलिखे लोग चायपकौड़े बेचने के लिए बड़े शौक से राजी हैं. दरअसल, जब से मीडिया के एक धड़े ने मोदी मौडल पर काम करना शुरू कर दिया है, तब से कुछ लोगों द्वारा यह सलाह दी जा रही है कि पढ़ेलिखे भी चायपकौड़े बेच सकते हैं.

अब पढ़ेलिखे लोग चायपकौड़े बेचने लगेंगे, तो कम पढ़ेलिखे लोग कौन सा धंधा करेंगे? क्या उन के हकों को नहीं मारा जा रहा है? लिहाजा, पत्रकारों और मीडिया वालों द्वारा बेरोजगारों की समस्याओं को प्रमुखता देने की जरूरत है.

समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, सामाजिक चिंतन करने वालों को भी इस समस्या के प्रति सोचने की सख्त जरूरत है, वरना आने वाले समय में इन नौजवानों की बेरोजगारी की समस्या से देश में बड़ा संकट पैदा हो सकता है.

धीरज कुमार

हत्यारिन पत्नी: न घर की रहती और न घाट की

हम  3 बहनें और 2 भाई हैं, जो पिता के साथ मजदूरी करते हैं. मेरी शादी 12 साल पहले छत का पुरा गांव के विश्वनाथ से हुई थी. कुछ सालों से वह मुझे आएदिन बहुत मारनेपीटने लगा था, क्योंकि मेरे पैर में सफेद दाग है.

‘‘मेरा 10 साल का एक बेटा और उस से एक साल छोटी बेटी है. मेरा पति मुझे घर से निकालना चाहता था. इस से कोई 5 साल पहले मेरा खिंचाव अरविंद सखवार की तरफ होने लगा था, जो हमारे खेतों में बंटाईदार है. हम दोनों में जिस्मानी ताल्लुकात बन गए. हम एकदूसरे से प्यार करने लगे थे. अरविंद भी शादीशुदा है. उस के 2 बेटे हैं.

‘‘वारदात वाले दिन मैं ने बाजरे की रोटी के लड्डू बनाए और उन में नींद की गोलियां मिला दीं. ये लड्डू मैं ने पति को खिला दिए. उसे नींद आने लगी, तो पहले उसे दूध गाड़ी में बैठा कर दिमनी ले गए, उस के बाद अरविंद अपनी मोटरसाइकिल ले आया. हम दोनों ने बेहोश विश्वनाथ को उस पर बैठाया और सिकरौदा नहर के किनारे एक सुनसान जगह ले गए.

‘‘वहां अरविंद निगरानी करता रहा कि कोई आएजाए तो पता चल जाए.

‘‘नहर के किनारे ले जा कर हम ने विश्वनाथ के कपड़े उतार दिए और उसे नहर में बहा दिया. उस के मोबाइल का सिम निकाल कर उसे भी नदी में फेंक दिया…’’

मुरैना के थाने में बैठी राजकुमारी को देख कर लगता नहीं था कि सीधीसादी सी दिखने वाली यह औरत अपने पति की इतनी बेरहमी से हत्या कर सकती है. लेकिन अब वह पछता रही है. उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा है कि इस से तो अच्छा था कि वही मर जाती.

अब राजकुमारी को समझ आ रहा है कि दोनों बच्चे अनाथ हो चुके हैं और जिन का कोई ठौरठिकाना नहीं है. जमीन अब देवर या जेठ के पास चली जाएगी, जो न जाने बच्चों के साथ कैसा सुलूक करेंगे.

शातिर दिमाग राजकुमारी

12 अगस्त, 2022 को थाने में मीडिया वालों को राजकुमारी रट्टू तोते की तरह अपनी दास्तां सुना रही थी, जिस में हैरानी और दिलचस्पी की बात यह थी कि हत्या के 22 महीने बाद तक किसी को शक ही नहीं हुआ कि विश्वनाथ अब इस दुनिया में नहीं है.

दरअसल, हत्या के बाद राजकुमारी जब घर वापस लौटी, तो उस ने अपनी 80 साला बूढ़ी सास को बताया कि विश्वनाथ काम की तलाश में गुजरात चला गया है. यही बात उस ने नातेरिश्तेदारों और गांव वालों को भी बताई थी.

सास की बात राजकुमारी अकसर मोबाइल फोन पर पति से करवा देती थी, जो असल में पति नहीं, बल्कि उस का आशिक अरविंद था, जो विश्वनाथ बन कर बात करता था.

बूढ़ी मां को ऊंचा सुनाई देता था और नजर भी कमजोर थी, इसलिए बेचारी आसानी से धोखा खाते हुए इस उम्मीद पर जीती रही कि जल्द ही बेटा लौट आएगा, मगर बेटा लौटता कहां से, उस की लाश को तो 24 नवंबर, 2020 को ही सिकरौदा पुलिस लावारिस मान कर दफना चुकी थी.

अगस्त के पहले हफ्ते में विश्वनाथ की बहन वंदना मायके आई, तो उस ने भी भाई से बात करनी चाही. राजकुमारी ने उस की बात भी अरविंद से करा दी, लेकिन इस दफा चोरी पकड़ी गई, क्योंकि वंदना को शक नहीं, बल्कि यकीन हो गया कि सामने से उस का भाई नहीं, बल्कि कोई और बात कर रहा है.

माथा ठनकने पर वंदना अपनी मां को ले कर थाने गई और इस गड़बड़ की शिकायत की तो जल्द ही सच सामने आ गया. शातिर दिमाग राजकुमारी ने पति को जल समाधि देने से पहले उस के कपड़े तक उतार लिए थे, जिस से पहचान का कोई सुबूत उस के साथ बह कर फांसी का फंदा न बन जाए. सिम निकाल कर उस के नंबर की पहचान जरूर कायम रखी.

राजकुमारी के पछतावे की वजह पति की हत्या करना कम, बल्कि पकड़े जाने के बाद सजा का खौफ ज्यादा है, क्योंकि जिंदगी अब जेल की चक्की पीसते कटेगी और अरविंद भी उस के पहलू में नहीं होगा, जो अब साफ मुकर रहा है कि हत्या उस ने की है, बल्कि पुलिस को उस ने बताया कि सारी साजिश तो राजकुमारी ने ही रची थी. वह तो उस का साथ दे रहा था. जाहिर है कि उसे सजा कम होगी.

मामूली सी बात पर पत्नी के साथ मारपीट कर विश्वनाथ बिलाशक गलती कर रहा था, लेकिन इतना बड़ा गुनाह उस ने नहीं किया था जितनी सजा उसे मिली.

बढ़ती तादाद

प्रेमी के संग मिल कर पति की हत्या करने के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, वह चिंता की बात है. इन से सबक सीखा जाना जरूरी है कि कातिल पकड़े जरूर जाते हैं.

अब डिजिटल का दौर है और हर हाथ में स्मार्टफोन है, जिस ने पुलिस और कानून की राह काफी आसान कर दी है. लिहाजा, पहले की तरह यह आसान काम नहीं रहा कि किसी को नींद की गोलियां या शराब के नशे में धुत्त कर के मारने के बाद किसी नदीनाले या नहर में फेंक दिया जाए और कुछ किलोमीटर दूर लाश जब कुछ दिन बाद मिले, तो कोई सुबूत या गवाह न मिलने की हालत में कातिल पकड़े न जाएं.

आजकल कोई भी शख्स अगर 2-4 दिन भी बिना बताए गायब होगा और उस का मोबाइल फोन बंद मिलता है, तो किसी अनहोनी के डर से तुरंत घर वाले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं, जिस की लोकेशन कातिलों को कानून के फंदे तक ले ही आती है. कई मामले तो इतने नीट ऐंड क्लीन होते हैं कि मोबाइल खंगालने की भी जरूरत नहीं पड़ती.

केस नंबर 1

हरियाणा के चमारखेड़ा गांव का रहने वाला महेंद्र सिंह अचानक गायब हो गया था, जिस की लाश गांव के नजदीक की नहर से बरामद हुई थी.

गांव में चर्चा तो पहले से ही थी, लेकिन महेंद्र के भाई सुशील ने आरोप लगाया कि महेंद्र की पत्नी यानी उस की भाभी रीनू का किसी अनजान नौजवान से प्यार का चक्कर चल रहा था.

इस शिकायत पर पुलिस ने फुरती दिखाते हुए महेंद्र का अंतिम संस्कार होने से पहले ही रीनू को गिरफ्त में ले कर कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने सच उगल दिया.

रीनू ने बताया कि उस ने नडाना गांव के रहने वाले अपने आशिक राकेश के साथ मिल कर महेंद्र की हत्या को अंजाम दिया था.

इस साजिश के तहत रीनू महेंद्र को इलाज के लिए करनाल के कल्पना चावला अस्पताल ले गई थी. वहां से राकेश के बुलावे पर वह काछवा गांव चली गई. वहां तीनों बाइक पर सवार हो कर चमारखेड़ा गांव पहुंचे और महेंद्र को छक कर शराब पिलाई और नशे की हालत में उसे नहर में धक्का दे दिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हत्या के बाद रीनू कल्पना चावला अस्पताल में भरती हो गई और 4 दिन बाद मायके चली गई और फिर ससुराल वापस आ गई. जाहिर है, अब वह कह सकती थी कि महेंद्र कहां गया, उसे नहीं पता, क्योंकि इलाज के बाद तो वह घर चली गई थी.

रीनू और राकेश ने सोचा था कि 4-6 दिन में महेंद्र की लाश कोसों दूर बह जाएगी और मछलियां और दूसरे जानवर उसे इतना नोंच खाएंगे कि लाश पहचानी नहीं जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब रीनू और राकेश जेल में बैठे पछताते हुए अपने मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ती देख रहे हैं.

रीनू तो उस घड़ी को ज्यादा कोस रही है, जब मोबाइल के जरीए राकेश से दिल और फिर जिस्म लगा बैठी थी और फिर पति को रास्ते से हटाने के लिए उस के कत्ल की साजिश रची थी.

केस नंबर 2

राजकुमारी और रीनू की तरह रीवा की अर्चना ने भी यही सोचा और चाहा था कि पति राजू की हत्या कुछ इस तरह की जाए कि कोई उस पर और उस के आशिक संदीप पर शक न करे. कुछ दिनों बाद मामला जब आयागया हो जाएगा, तो दोनों इतमीनान से शादी कर के मौज की जिंदगी जिएंगे.

12 अगस्त, 2021 को अर्चना ने अपने पति राजू के साथ छक कर शराब पी. साकी बनी इस पत्नी ने पति की शराब में आशिक की भेजी जहर की पुडि़या घोल दी थी, जिस से मामला जहरीली शराब से हुई मौत का लगे.

जहर और नशे के कहर से राजू तड़पता हुआ उम्मीदभरी निगाहों से पत्नी की तरफ देखता रहा कि वह उसे बचा ले, डाक्टर को बुलाए या फिर उसे अस्पताल ले जाए, लेकिन अर्चना का सावित्री बनने का कोई इरादा नहीं था. उस का सत्यवान तो थोड़ी दूर बसे गांव लालपुर में राजू की मौत की खबर सुनने के लिए मरा जा रहा था. वक्त काटने के लिए वे दोनों मोबाइल पर बात और चैटिंग करते जा रहे थे.

अर्चना राजू की बिगड़ती हालत के अपडेट संदीप को देती जा रही थी कि बस अब कुछ देर और, इस के बाद तो…

एक पति के प्रति एक पत्नी की क्रूरता की यह इंतिहा थी, जिस में वह पति को तिलतिल कर मरते देखने का लुत्फ उठा रही थी. जब राजू को खून की उलटी हुई तो अर्चना ने साफ कर दी. वह अपने पति की लाश पर बचपन के प्रेमी के साथ नया आशियाना बनाने के रंगीन सपने देख रही थी. घर वालों ने उस की शादी संदीप के साथ नहीं होने दी थी.

सुबह होतेहोते राजू ने आखिरकार दम तोड़ दिया. चूंकि मौत ज्यादा शराब पीने की वजह से हुई थी, इसलिए उस की लाश का पोस्टमार्टम कर बिसरा जांच के लिए सागर की फौरैंसिक लैब में भेज दिया गया.

जांच रिपोर्ट आने में 11 महीने लग गए. तब तक अर्चना और संदीप बेखौफ हो चुके थे और 4 महीने बाद नोटरी के यहां शादी भी उन्होंने कर ली थी. लेकिन बिसरा जांच की रिपोर्ट में जहर का होना पाया गया, तो पुलिस ने अर्चना को धर दबोचा. इन दोनों की रातभर की काल डिटेल्स सब से बड़ा सुबूत थीं, जिस से ये मुकर नहीं पाए.

अर्चना ने शराफत से अपना गुनाह कबूल कर लिया. जल्द ही 8 अगस्त, 2022 को संदीप को भी गिरफ्तार कर लिया गया. अब ये दोनों ही अपनी करनी पर पछताते हुए सजा का इंतजार कर रहे हैं.

हत्या हल नहीं

ऐसी लाखों पत्नियां और उन के आशिक जेल में सस्ते मुकदमे के फैसले का इंतजार करते पछता रहे हैं कि आखिर उन्हें हत्या कर के हासिल क्या हुआ. बाहर की जिंदगी में थोड़ी घरेलू और सामाजिक बंदिशें जरूर थीं, जो इस अंधेरी कोठरी की जिंदगी से तो हजार गुना ज्यादा बेहतर थीं.

अगर हत्या नहीं करते तो क्या करते, यह सवाल और उस का जवाब भी इन के जेहन में बारबार कौंधता होगा कि तलाक ले लेते तो छुटकारा भी मिल जाता और मनचाहा आशिक, माशूका और जिंदगी भी मिल जाती.

हत्यारिन पत्नी के नजरिए से देखें, तो लगता है कि तलाक की बात इन के दिमाग में शायद आई ही नहीं, क्योंकि हमारे देश के तलाक कानून बहुत सख्त और खर्चीले हैं.

ऐसा बिलकुल नहीं होता कि कोई पत्नी या फिर पति अदालत में तलाक की अर्जी लगाए और 2-4 पेशियों में ही उसे तलाक मिल जाए और फिर वह अपने आशिक से शादी कर सुकून और चैन की जिंदगी जिए.

अगर कानून में फटाफट तलाक के इंतजाम होते तो शायद पतियों की हत्याएं कम होतीं, क्योंकि पतिपत्नी के बीच रोजरोज होती कलह की मीआद सिमट कर रह जाती और पत्नी अपने प्रेमी के साथ पति की हत्या करने का रास्ता चुनने के बजाय कोर्ट जाती.

पतिपत्नी के रिश्ते में एक बार खटास पड़ जाए और उन्हें समझाने वाला कोई न हो, तो पत्नी का झुकाव अपने आशिक की तरफ बढ़ते जाना कुदरती बात है. दोनों मिलते हैं, सुनसान जगह पर सैक्स की अपनी भूख मिटाते हैं, तो यही हसीन लम्हे उन्हें अच्छे लगने लगते हैं.

पर घर पहुंचने के बाद जब शुरू होती है रोजरोज की कलह, मारकुटाई तो मन करता है कि अगर इस नरक से परमानैंट छुटकारा मिल जाए तो जिंदगी स्वर्ग हो जाएगी. इस के लिए दोनों तैयार करते हैं एक प्लान कि कैसे पति की हत्या कर के उसे हमेशा के लिए रास्ते से हटाया जाए.

पैसों की कमी, बच्चे हों तो उन की जिम्मेदारी जैसी वजहें इन्हें भागने की इजाजत नहीं देतीं. दूसरा डर इस बात का ज्यादा रहता है कि पाताल में जा कर भी छिप जाएं, पति और नातेरिश्तेदार पीछा नहीं छोड़ेंगे, इसलिए क्यों न हत्या ही कर दी जाए.

लेकिन किसी की हत्या करना मक्खीमच्छर मारने जितना आसान काम भी नहीं होता है. इस के बाद भी राजकुमारी, अर्चना और रीनू ने पूरा प्लान बना कर बड़े एहतियात से अपने पति की हत्या की वारदात को अंजाम दिया, लेकिन वे कानून के लंबे हाथों से बच नहीं पाईं. तीनों के आशिक भी अपनी जिंदगी बरबाद कर बैठे. इन का अंजाम देख कर सबक तो यही मिलता है कि हत्या करना समस्या का हल नहीं है.

तो फिर क्या है हल

आशिक के साथ मिल कर शौहर की हत्या के तकरीबन 90 फीसदी मामले गांवकसबों और गरीब तबके के लोगों में होते हैं. पढ़ेलिखे पैसे वाले तबके के लोग बजाय हत्या के तलाक का रास्ता चुनते हैं. उन्हें एहसास रहता है कि इस में देर जरूर लगेगी, लेकिन इलाज पक्का होगा, इसलिए वे सब्र का दामन थामे रहते हैं.

इस तबके की औरतें भी आमतौर पर कामकाजी होती हैं या उन्हें मायके का सहारा होता है, इसलिए उन्हें परेशानियां कम उठानी पड़ती हैं. पति से अलग रहना उन्हें किसी भी लिहाज से भारी नहीं पड़ता है.

लिहाजा, एकलौता हल तो यही है कि पति से जब पटरी बैठना बंद हो जाए और कोई दूसरा जब दिल और जिस्म की गहराइयों तक इतना उतर जाए कि उस के बिना जीना दुश्वार और बेकार लगने लगे तो फौरन पति को छोड़ देना चाहिए. यह कम से कम हत्या जैसे अपराध से मुश्किल रास्ता तो नहीं है.

इस के बाद भी अगर पति परेशान करे तो पुलिस और कानून का सहारा लेना चाहिए. इस से तलाक लेने में भी आसानी रहती है और कानूनन मुआवजा लेने में भी मदद मिलती है.

आशिक को हत्या के लिए उकसाना या उस के उकसाने में आना सीधे जेल की तरफ ले जानी वाली बातें हैं. इन से बचना चाहिए.

लेकिन इस के पहले पति से ही पटरी बैठाने की कोशिश होनी चाहिए. अकसर अनबन की वजहें उतनी बड़ी होती नहीं जितना कि उन्हें बढ़ा कर के देखा जाने लगता है. पति की छोटीमोटी कमजोरियों और गलतियों को दिल पर लेने के बजाय उन्हें प्यार और समझदारी से दूर करने से एक बड़े संगीन गुनाह से बचा जा सकता है.

अगर आप के बच्चे हैं तो उन की जो गत होगी, उसे राजकुमारी के बच्चों की हालत से समझा जा सकता है कि वे अनाथ हो कर दूसरों के रहमोकरम पर पलते रहेंगे और जिंदगी में कुछ खास नहीं कर पाएंगे.

पति को चाहिए कि वह अपनी पत्नी को गुलाम या सामान न समझे. उस से इज्जत और प्यार से पेश आए और अगर आपसी खटपट का कोई हल समझ नहीं आ रहा हो, तो रास्ते अलग कर लिए जाएं.

उत्सव : दीवाली- आनंद का नहीं पूजा पाठ का त्यौहार

पहले त्योहार मनाने का मकसद यह होता था कि जब आदमी मेहनत कर के थक जाए, तो इस बहाने खुशियां मना ले. भारत के गांवों की बात करें, तो त्योहार ही ऐसा मौका होता था, जब वहां रहने वाले खुशियां मनाने के लिए समय निकाल पाते थे. उन के आसपास ऐसा माहौल बन जाता था और तब वे नए कपड़े पहनने और लजीज पकवान का स्वाद लेते थे.

भारत में दीवाली का त्योहार अपनी अलग पहचान लिए हुए है. इसे रोशनी का त्योहार कहा जाता है, पर आज के दौर में माहौल बदल गया है. धर्म की दुकानदारी त्योहार की खुशियों पर भारी पड़ रही है.

समाज को इस तरह से बहका दिया गया है कि त्योहार पर पूजापाठ का खर्च ही उसे मनोरंजन लगने लगा है. इस में मंदिर सजाने वालों और पूजापाठ का सामान बेचने वालों की मौज हो रही है. गांवदेहात में तो त्योहारों के बहाने पैसा और समय दोनों खर्च होता है.

कोरोना काल में बेरोजगारी के चलते बहुत से लोग शहर छोड़ कर गांव आए थे. उन के पास पैसा नहीं था. खाने के लिए मुफ्त अनाज की राह देख रहे थे. बच्चों को पढ़ाने के लिए फीस और कौपीकिताबें नहीं थीं. बीमारी के इलाज के लिए पैसा नहीं था. इस दौर के खत्म होते ही भंडारे लगने लगे. मेले में लोगों की भीड़ जुटने लगी. मंदिरों में चढ़ावा चढ़ने लगा. कहीं से कोई आर्थिक संकट नहीं दिख रहा था.

पहले हर त्योहार एक क्षेत्र तक सीमित रहता था, पर अब सोशल मीडिया पर धर्म के प्रचार, टैलीविजन और फिल्मों को देख कर पूरे देश में हर त्योहार मनाया जाने लगा है.

मिसाल के तौर पर, पहले करवाचौथ केवल पंजाब तक सीमित था, पर अब यह पूरे उत्तर भारत में फैल गया है. इस की पूजा में नई चीजें जुड़ गई हैं.

यही हाल बिहार की छठ पूजा का हो गया है. यह त्योहार अब बिहार के बाहर भी पूरी तरह से फैल गया है. यही हाल पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश पूजा का हो गया है.

त्योहार का मतलब पूजापाठ

गांवदेहात में जिन लोगों के पास बच्चों को पढ़ाने, परिवार के लोगों का अस्पताल में इलाज कराने के लिए पैसा नहीं होता, वे मेलों में जाते हैं. देवीदेवताओं के नाम पर चढ़ावा चढ़ाते हैं. घर के लिए नया फर्नीचर, नए कपड़े या घरेलू सामान भले ही न खरीदें, पर नवरात्रि में पूजापाठ का सामान खूब खरीदा गया.

नवरात्रि हो या गणेश पूजा या फिर दुर्गा पूजा, हाल के कुछ सालों में इन का प्रचार घरघर हो गया है. अब तकरीबन हर कालोनी के पार्क में इन के पंडाल लगने लगे हैं. पूजा कराने वाले लोग महल्लों, गांवों और कालोनियों में रहने वालों से ही इस का चंदा लेने लगे हैं.

पहले शहरों में 1-2 जगहों पर ऐसे आयोजन होते थे. वहीं लोग एकजुट हो कर त्योहार का मजा लेते थे. अब ऐसे आयोजन कराना फायदे का सौदा होने लगा है. इस की वजह यह है कि अब धर्म के नाम पर मोटा चंदा मिलने लगा है. पहले जहां 11, 21, 51 और 101 रुपए की चंदे की रसीद कटती थी, अब शहरों में यह चंदे की रसीद 101 रुपए से कम की नहीं कटती.

गांवदेहात में भी 51 रुपए से कम की रसीद नहीं कटती है. लोग पर्यावरण, बाढ़ पीडि़तों या ऐसे ही तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए भले ही चंदा न दें, पर त्योहारों में धर्म के नाम पर चंदा खूब देते हैं.

यही वजह है कि चंदा लेने वाले भी कम पैसों की रसीद नहीं काटते हैं. जनता के मन में यह बैठा दिया गया है कि त्योहार का मतलब पूजापाठ है.

बढ़ गया पंडितों का दखल

पूजापाठ के बहाने त्योहारों में पंडितों का दखल बढ़ गया है. इस दखल का नतीजा यह हो गया है कि हर त्योहार को किसी न किसी बहाने 2 दिन का मनाया जाने लगा है. कोशिश यह होती है कि त्योहार मनाने का जो समय पंडित बताए, उस समय पर ही त्योहार मनाया जाए.

रक्षाबंधन में शुभ मुहूर्त और तिथि की बात को फैला कर उसे 2 दिन का कर दिया गया. इस के साथ ही यह भी कहा गया है कि राखी बांधने का शुभ मुहूर्त यह है, जिस की वजह से रक्षाबंधन 2 दिन का त्योहार हो गया. नतीजतन, शुभ मुहूर्त में राखी बांधने की होड़ लगी, तो हर जगह उसी समय भीड़ बढ़ गई.

इसी तरह से होली का त्योहार भी बसंत पंचमी की पूजा से शुरू होने लगा है. जिस जगह पर होलिका दहन होता है यानी जहां होली जलाई जाती है, वहां पर बसंत पंचमी के दिन एक लकड़ी बसंत पंचमी की पूजा के बाद गाड़ दी जाती है. यहीं पर होली के 1-2 दिन पहले लकड़ी एकत्र कर के होली जलाई जाती है.

आमतौर पर होली शाम को जला दी जाती थी. अब होली जलाने का भी मुहूर्त होता है. शुभ मुहूर्त पर ही होलिका दहन किया जाता है. होली खेलने का मुहूर्त भी पंडित बताने लगे हैं.

इसी तरह से गणेश पूजा में गणेश की स्थापना और दुर्गापूजा में दुर्गा की स्थापना का शुभ मुहूर्त होने लगा है. दीवाली पूजन में भी मुहूर्त के मुताबिक ही पूजा होती है.

दरअसल, मुहूर्त के पीछे एक ही बात है कि त्योहार को पूजापाठ से जोड़ना और पूजा में पंडित के प्रभाव को बढ़ाना. बिना उन की इजाजत के त्योहार को नहीं मनाया जा सकता.

धीरेधीरे जनता के मन में इस बात को पूरी तरह से बैठा दिया गया है कि बिना पूजापाठ के त्योहार नहीं हो सकता, जिस का मतलब यह है कि त्योहार लोगों की खुशी के लिए नहीं, बल्कि पूजापाठ के लिए होता है. धीरेधीरे त्योहार अपने मूल स्वरूप से पीछे हटते जा रहे हैं.

बढ़ गया बाजार

त्योहार के दिनों में गांव से ले कर शहर तक में पूजापाठ का सामान बेचने वाली दुकानों की तादाद बढ़ जाती है. उन दुकानों को ही फायदा हो रहा है, जो घर के मंदिर सजाने और पूजापाठ का सामान बेचने का काम करती हैं. मजेदार बात यह है कि अब बरतन बेचने वाले हों या किराने की दुकानें, उन में भी पूजापाठ का सामान बिकने लगा है.

गांवगांव इस तरह की दुकानें खुल गई हैं. अब डब्बाबंद पूजा का सामान मिलने लगा है. जिस तरह की पूजा का समय होता है, दुकानदार उस तरह का सामान रख लेता है, जिस में खरीदने वाले को कोई दिक्कत न हो. दुकानदार खुद ही बता देता है कि पूजापाठ में क्याक्या सामान लगता है. छोटेछोटे प्लास्टिक के पैकेट में यह सामान मिल जाता है.

दीवाली और गणेश पूजा में मूर्तियां कई तरह की और महंगी मिलती हैं. गणेश पूजा में मूर्तियां हर साल बढ़ी हुई कीमत पर खरीदनी पड़ती हैं.

पूजापाठ करने वाली जगह को सजाने के लिए भी सामान मिलता है.

इस में रंगोली से ले कर वाल पेपर तक सब होता है. बिजली की सजावट वाला सामान तो होता ही है.

और्गेनिक मूर्तियां अलग से मिलती हैं. इन को इको फ्रैंडली मूर्तियां भी कहते हैं. इन की कीमत अमूमन 500 रुपए से शुरू होती है. मूर्ति की सजावट पर पैसा अलग से लगता है.

5 दिन का आयोजन

दीवाली को 5 दिन का त्योहार माना जाता है. इन पांचों दिन को पूजा और मुहूर्त से खासतौर पर जोड़ दिया गया है. पहला दिन धनतेरस के रूप में मनाया जाता है.

दीवाली की शुरुआत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन से होती है. इस दिन धनतेरस का पर्व मनाया जाता है. धनतेरस पर धन के देवता कुबेर, यम और औषधि के देव धनवंतरी के पूजन का विधान है.

दीवाली का दूसरा दिन नरक चौदस के नाम से मनाया जाता है. नरक चौदस को छोटी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था. उसी के नाम से इस दिन को नरक चौदस कहा जाता है.

दीवाली की हर कहानी में किसी न किसी भगवान को इसलिए जोड़ा जाता है, ताकि इस से धार्मिक उत्सव बनाया जा सके, धर्म से जोड़ कर पूजापाठ को बढ़ावा दिया जा सके.

दीवाली के 5 दिन के त्योहार का सब से खास पर्व कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. दीवाली पर गणेशलक्ष्मी के पूजन का विधान है. इस के साथ ही इस दिन को राम द्वारा लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने के त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है.

दीवाली का चौथा दिन गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पूजा के नाम से मनाया जाता है. दीवाली के अगले दिन प्रतिपदा पर गोवर्धन पूजा या अन्नकूट का त्योहार मनाने का विधान है. यह पर्व भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठा कर मथुरावसियों की रक्षा करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है.

समाज को यह बताने की कोशिश की जाती है कि भगवान ही हमारी रक्षा करते हैं. इस के लिए पूजापाठ जरूरी है और पूजापाठ के लिए शुभ मुहूर्त होता है.

शुभ मुहूर्त बताने का काम पंडित करते हैं. बिना शुभ मुहूर्त के की गई पूजा फल नहीं देती है, इसलिए त्योहार मनाने के लिए जरूरी है कि शुभ मुहूर्त और पूजापाठ का पूरा ध्यान रखा जाए.

दीवाली का 5वां दिन भैया दूज या यम द्वितीया पर्व के रूप में मनाया जाता है. यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. यह त्योहार भी रक्षाबंधन की ही तरह से भाईबहन को समर्पित होता है. इस में नदी स्नान का विशेष महत्त्व बताया जाता है. इस तरह से देखें, तो दीवाली का त्योहार 5 दिन का धार्मिक आयोजन बन गया है.

सोशल मीडिया का इस्तेमाल

त्योहारों में पूजापाठ और शुभ मुहूर्त का प्रचार करने में सोशल मीडिया का रोल सब से खास हो गया है. सोशल मीडिया पर ऐसे पंडितों की भरमार हो गई है, जो धर्म का प्रचार करने का कोई मौका जाने नहीं देना चाहते. ऐसे लोग त्योहारों पर धर्म का असर बढ़ाने में लगे हैं.

सोशल मीडिया पर किसी भी त्योहार के कुछ समय पहले से ही ऐसे मैसेज वायरल होने लगते हैं, जो उस में धर्म की अहमियत बताते हैं. कई बार ये लोग ऐसे तर्क देते हैं कि त्योहार एक ही जगह 2 दिन का हो जाता है.

सोशल मीडिया पर ऐसे तर्क और ज्ञान देने वालों की भीड़ जुट गई है. इन में से ज्यादातर नौजवान हैं. वे अपने नाम के आगे पंडित लगा कर ऐसे संदेश देते हैं.

नौजवान होने के चलते इन को सोशल मीडिया पर प्रचारप्रसार की सारी जानकारी होती है. इन के संदेश इतने असरदार तरीके से लिखे होते हैं कि लोग इन पर आसानी से यकीन कर लेते हैं.

हर हाथ में मोबाइल फोन होने के चलते शहर हो या सुदूर गांव, हर जगह इन की बात आसानी से पहुंच जाती है, जिस से लोग त्योहार पर पूजापाठ ज्यादा करने लगे हैं.

त्योहार की अहमियत और इस में धर्म का दबदबा होने से तमाम तरह के खर्च बढ़ गए हैं. पूजापाठ के नाम पर हर चीज जरूरी हो गई है. पूजापाठ सही तरीके से न होने पर आप का बुरा हो सकता है, इस डर से आदमी सबकुछ छोड़ कर पूजापाठ पर अपना तनमनधन लगा देता है.

इस से हमारी जिंदगी में खर्च बढ़ गए हैं और उल्लास घट गया है. हंसीखुशी से मनाए जाने वाले त्योहार के मुहूर्त के बारे में पंडित से पूछना पड़ता है. जनता को यह समझना चाहिए कि यह सब बाजार के चलते हो रहा है, जिस का सारा बोझ उस की जेब पर पड़ रहा है.

जो पैसा घरपरिवार के भले के लिए खर्च होना चाहिए, वह पूजापाठ की दुकानों में खर्च हो रहा है. यह जनता की जेब से निकल कर धर्म का धंधा करने वालों की जेब में जा रहा है.

जनता के मेहनत की कमाई निठल्ले लोगों की जेब भर रही है, इसलिए त्योहार मौजमस्ती कम बोझ ज्यादा बनते जा रहे हैं. अगर सही माने में त्योहार मनाना है, तो फुजूलखर्ची छोड़नी होगी, तभी दीवाली और दूसरे बड़े त्योहारों का असली संदेश लोगों में जा सकेगा.

Diwali Special: हॉस्टल वाली दीवाली

जो लोग होस्टल में रहे हैं उन्हें पता है कि वे उन की जिंदगी के कभी न भूलने वाले पल हैं. होस्टल की जिंदगी मजेदार भी होती है और परेशानियों से भरी भी. बावजूद इस के, होस्टल में रह कर त्योहारों के समय जो खुशियां मिलती हैं, जो आजादी और मस्ती मिलती है, वह कहीं और नहीं मिलती.

संध्या जब हैदराबाद से दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने आई थी तो उस ने कई साल वुमन होस्टल में गुजारे थे. अब तो वह शादी कर के पति के घर में सैटल हो गई है मगर होस्टल के दिन उन्हें नहीं भूलते हैं. घर के ऐशोआराम से निकल कर कम संसाधनों और जुगाड़ों के बीच होस्टल की टफ लाइफ का भी अपना ही मजा था. उस जिंदगी को याद करते वक्त उन्हें सब से ज्यादा दीवाली की याद आती है.

संध्या कहती हैं, ‘‘किसी आसपास के शहर से होती तो त्योहारों में जरूर घर भाग जाती, मगर दिल्ली से ट्रेन में हैदराबाद तक 2 दिन का सफर बड़ा कठिन लगता था और वह भी सिर्फ दोतीन दिन के लिए जाना बिलकुल ऐसा जैसे देहरी छू कर लौट आओ. शुरू के 2 साल तो मैं दीवाली पर घर गई, मगर बाद में होलीदीवाली सब होस्टल में ही मनाने लगी.

‘‘दिल्ली के आसपास रहने वाली ज्यादातर लड़कियां घर चली जाती थीं.  बस, थोड़ी सी बचती थीं. शुरू में तो त्योहार के समय खाली पड़े कमरे को देख कर मु झे भुतहा फीलिंग होती थी, मगर जब शाम को बची हुई लड़कियां होस्टल की छत पर इकट्ठी हो कर पटाखे छुड़ाती थीं तब बड़ा मजा आता था. हम 8-10 लड़कियां नई ड्रैसेस पहन कर सुबह से ही त्योहार की तैयारियों में जुट जाती थीं. हमारी वार्डन काफी सख्तमिजाज महिला थीं, मगर उस दिन उन का मातृत्व हम लड़कियों पर खूब छलकता था. वे सिंगल मदर थीं. पति से तलाक हो चुका था. 14 साल की उन की बेटी थी जो उन के साथ ही रहती थी. त्योहार के दिन होस्टल के रसोइए की छुट्टी रहती थी और किचन हम लड़कियों के हवाले होता था. ऐसे में विशेष मैन्यू तैयार किया जाता. दोपहर और रात के खाने के लिए मनपसंद सब्जियां,  नौनवेज, पूडि़यां, पुलाव हम बनाते थे. इकट्ठे जब इतने सारे बंदे रसोई में पकाने के लिए जमा होते थे तो काम भी फटाफट निबट जाता था. शाम को हम सब होस्टल के गेट पर बड़ी सी रंगोली बनाने में जुट जाते थे. पूरे गेट और दीवार की मुंडेर को दीयों, फूलमालाओं और रंगोली से सजा देते थे.

‘‘अंधेरा होते ही पूरा होस्टल दीयों की जगमगाहट से भर जाता था. दीवाली की रात हम सब छत पर इकट्ठे हो कर आधी रात तक जम कर पटाखे जलाते थे. मगर उस दिन दोस्ती के लिए तो सब को खुली छूट थी. खुद वार्डन भी उन लड़कियों के साथ मस्ती करती. खानेपीने के बाद जब हम सोते तो दूसरे दिन 12 बजे से पहले आंख न खुलती थी.

‘‘फिर वार्डन की आवाज सुनाई देती कि जाओ सब मिल कर छत साफ करो. छत पर जले हुए पटाखों, दीयों, मोमबत्तियों, जूठे बरतनों का ढेर लगा होता था. सारा कूड़ा इकट्ठा कर के बोरियों में भर कर हम कूड़ा गाड़ी पर फेंकने जाते थे. घर की दीवाली में कभी इतना मजा नहीं आया जितना होस्टल की दीवाली में आया करता था. जबकि होस्टल की दीवाली में हमारी मेहनत दोगुनी होती थी लेकिन मजा भी दोगुना था. घर में तो मां ही पूरी रसोई बनाती थीं. वे ही पूजा करती थीं, फिर थोड़े से पटाखे हम भाईबहन महल्ले के बच्चों के साथ जला लेते थे. लो मन गई दीवाली. मगर होस्टल में त्योहार का आनंद ही अलग था. खुलेपन का एहसास जहां होस्टल में हुआ तो बियर का स्वाद भी पहलेपहल वहीं चखा.’’

संध्या बताती हैं, ‘‘मैं बचपन में बहुत दब्बू टाइप थी. मगर होस्टल में आने के बाद काफी बोल्ड हो गई. इस की वजह है होस्टल में हमें अपनी परेशानियों का हल खुद ही निकालना होता है. वहां मांबाप या बड़े भाईबहन नहीं होते जो परेशानी हल कर दें. एक बार की बात है, हमारे होस्टल में सुबह पानी की मोटर जल गई. अब किसी को कालेज के लिए निकलना था, किसी को औफिस के लिए. तब हम सब बाहर सरकारी नल से बाल्टी में पानी भरभर कर लाए और नहाया.

यह तो ऐसा मामला था जो शायद कभीकभार ही हो, लेकिन कुछ बातें तो लगभग हर गर्ल्स होस्टल या पीजी में देखने को मिलती हैं. हर होस्टल में चोरी जरूर होती है. चाहे वह कोई रहने वाली लड़की करे, चाहे कोई नौकर करे या कोई पड़ोसी ही आ कर कुछ चुरा ले जाए. लड़कियों की कटोरीचम्मच से ले कर अंडरगारमैंट्स तक गायब हो जाते थे.

‘‘कभीकभी 2 लड़कियों के बीच इतनी भयानक लड़ाई हो जाती थी कि मामला हाथापाई तक पहुंच जाता था. उस में बीचबचाव करना और सम झाना खुद की लाइफ को बहुत स्ट्रौंग बना देता है. होस्टल एक ऐसी जगह है जहां आजादी, मस्ती, टाइमपास, फैशन,  झगड़े सब होते हैं. लड़कियां अपने घर से दूर, मांबाप की डांट से दूर अपनी उम्र की लड़कियों के साथ जिंदगी का पूरा मजा लेती हैं.’’

वैसे होस्टल लाइफ को ले कर बहुत से लोग कहते हैं, ‘जो कभी होस्टल में नहीं रहा,  उस ने लाइफ में बहुतकुछ मिस किया है.’ राजीव चन्नी अपनी होस्टल लाइफ याद करते हुए कहते हैं, ‘‘पानी जैसी दाल, नहाने के लिए लंबी लाइन और खूसट वार्डन के अलावा भी बहुतकुछ होता है होस्टल में. घर के ऐशोआराम के बाद अगर आप ने होस्टल में संघर्ष कर लिया तो सम झ लो, जीवन सफल हो गया.

‘‘होस्टल में इंसान लाइफ के बहुत सारे स्किल्स सीख लेता है. जैसे, नहाते हुए पानी चले जाने पर शरीर पर लगे साबुन को गीले तौलिए से पोंछना और फ्रैश फील करना, दूसरे की शेविंग क्रीम या शैंपू इस्तेमाल कर लेना और उस को हवा भी न लगने देना, पौटी प्रैशर रोकने में सक्षम हो जाना, मनपसंद सब्जी न होने पर दहीचावल खा कर जीना, पनीर की सब्जी में से पनीर और आलू के परांठों में आलू ढूंढ़ना और जब हद गुजर जाए तो भूखहड़ताल करना वगैरहवगैरह और सब से अहम सीख है ‘एकता’. एकजुट हो कर कोई भी काम करना, स्ट्राइक से ले कर त्योहार मनाने तक.

‘‘दीवाली के दिन तो लड़कों का जोश देखने लायक होता था. कुछ घरेलू किस्म के लड़के जहां अपने कमरों में दीयामोमबत्तियां सजाते थे, पूजा करते और कुछ स्पैशल खाना बनाने में रसोइए की मदद करते थे, वहीं मर्द टाइप के लड़के इस जुगाड़ में रहते थे कि दारू और गर्लफ्रैंड के साथ त्योहार की रात कहां और कैसे मनाई जाए. दीवाली की रात ज्यादातर लड़के होस्टल के बाहर ही बिताते थे. कुछ सिनेमाहौल में तो कुछ होटल वगैरह में पाए जाते थे.

‘‘होस्टल लाइफ थी. खुली छूट थी. कोई रोकटोक नहीं. जब तक चाहो, बाहर रहो. कोई पूछने वाला नहीं था. न मां की  िझक िझक, न बाप की फटकार. कई बार तो हम सुबह के 4 बजे वापस आते और चौकीदार की जेब में 10 रुपए का नोट ठूंस कर आराम से कमरे में जा कर सो जाते. अलग ही आनंद था होस्टल लाइफ में त्योहार मनाने का. वे दिन तो जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

Diwali Special: मिलन के त्योहारों को धर्म से न बांटे

त्योहारों का प्रचलन जब भी हुआ हो, यह निश्चित तौर पर आपसी प्रेम, भाईचारा, मिलन, सौहार्द और एकता के लिए हुआ था. पर्वों को इसीलिए मानवीय मिलन का प्रतीक माना गया है. उत्सवों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है. सामाजिक बंधनों और पारिवारिक दायित्वों में बंधा व्यक्ति अपना जीवन व्यस्तताओं में बिता रहा है. वह इतना व्यस्त रहता है कि उसे परिवार के लिए खुशियां मनाने का वक्त ही नहीं मिलता.

इन सब से कुछ राहत पाने के लिए तथा कुछ समय हर्षोल्लास के साथ बिना किसी तनाव के व्यतीत करने के लिए ही मुख्यतया पर्वउत्सव मनाने का चलन हुआ, इसलिए समयसमय पर वर्ष के शुरू से ले कर अंत तक त्योहार के रूप में खुशियां मनाई जाती हैं.

उत्सवों के कारण हम अपने प्रियजनों, दोस्तों, शुभचिंतकों व रिश्तेदारों से मिल, कुछ समय के लिए सभी चीजों को भूल कर अपनेपन में शामिल होते हैं. सुखदुख साझा कर के प्रेम व स्नेह से आनंदित, उत्साहित होते हैं. और एक बार फिर से नई चेतना, नई शारीरिकमानसिक ऊर्जा का अनुभव कर के कामधंधे में व्यस्त हो जाते हैं.

दीवाली भी मिलन और एकता का संदेश देने वाला सब से बड़ा उत्सव है. यह सामूहिक पर्र्व है.  दीवाली ऐसा त्योहार है जो व्यक्तिगत तौर पर नहीं, सामूहिक तौर पर मनाया जाता है. एकदूसरे के साथ खुशियां मनाई जाती हैं. एक दूसरे को बधाई, शुभकामनाएं और उपहार दिए जाते हैं. इस से आपसी प्रेम, सद्भाव बढ़ता है. आनंद, उल्लास और उमंग का अनुभव होता है.

व्रत और उत्सव में फर्क है. व्रत में सामूहिकता का भाव नहीं होता. व्रत व्यक्तिगत होता है, स्वयं के लिए. व्रत व्यक्ति अपने लिए रखता है.  व्रत में निजी कल्याण की भावना रहती है जबकि उत्सव में मिलजुल कर खुशी मनाने के भाव. शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, नवरात्र, दुर्गापूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, छठ पूजा, गोवर्धन पूजा आदि ये सब व्रत और व्रतों की श्रेणी में हैं. ये  सब पूरी तरह से धर्म से जुड़े हुए हैं जो किसी न किसी देवीदेवता से संबद्घ हैं. इन में पूजापाठ, हवनयज्ञ, दानदक्षिणा का विधान रचा गया है.

यह सच है कि हर दौर में त्योहार हमें अवसर देते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार कर, खुशियों से सराबोर हो सकें. कुछ समय सादगी के साथ अपनों के साथ बिता सकें ताकि हमें शारीरिक व मानसिक आनंद मिल सके. मनुष्य के भले के लिए ही त्योहार की सार्थकता है और यही सच्ची पूजा भी है. उत्सव जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं. यह उत्साह मनुष्य के मन में सदैव कायम रहता है. जीवन में गति आती है. लोग जीवन में सकारात्मक रवैया रखते हैं. त्योहारों की यही खुशबू हमें जीवनभर खुशी प्रदान करती रहती है.

लेकिन दीवाली जैसे त्योहारों में धर्म और उस के पाखंड घुस आए हैं जबकि इन की कोई जरूरत ही नहीं है. इस में लक्ष्मी यानी धन के आगमन के लिए पूजापाठ, हवनयज्ञ और मंत्रसिद्धि जैसे प्रपंच गढ़ दिए गए हैं. मंदिरों में जाना, पूजन का मुहूर्त, विधिविधान अनिवार्य कर दिया गया है. इसलिए हर गृहस्थ को सब से पहले पंडेपुजारियों के पास यह सब जानने के लिए जाना पड़ता है. उन्हें चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है.

दीवाली पर परिवार के साथ स्वादिष्ठ मिठाइयों, पटाखों, फुलझडि़यों और रोशनी के आनंद के साथसाथ रिश्तेदारों, मित्रों से अपने संबंधों को नई ऊर्जा प्रदान करें. स्वार्थी लोगों ने दीवाली, होली में भी धर्म को इस कदर घुसा दिया है कि इन के मूल स्वरूप ही अब पाखंड, दिखावे, वैर, नफरत में परिवर्तित हो गए हैं.

पिछले कुछ समय से हमारे सामाजिकमजहबी बंधन के धागे काफी ढीले दिखाई देने लगे हैं. दंगों ने सामूहिक एकता को तोड़ने का काम किया है. आज उत्सव कटुता के पर्याय बन रहे हैं. त्योहारों की रौनक पर भाईचारे में आई कमी का कुप्रभाव पड़ा है. स्वार्थपरकता ने यह सब छीन लिया है. त्योहारों को संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं के दायरे में समेट कर संपूर्ण समाज की एकता में मजहब, जाति, वर्ग के बैरिकेड खड़े कर दिए गए. लिहाजा, एक ही धर्म के सभी लोग जरूरी नहीं, उस उत्सव को मनाएं.

धर्म व पाखंड के चलते रक्षाबंधन को ब्राह्मणों, विजयादशमी को क्षत्रियों, दीवाली को वैश्यों का पर्व करार सा दे दिया गया है, तो होली को शूद्रों का. ऐसे में शूद्र, दलित दीवाली मनाने में हिचकिचाते हैं. दीवाली मनाने के पीछे जितनी धार्मिक कथाएं हैं, उन से शूद्रों और दलितों का कोई सरोकार नहीं बताया गया. उलटा उन्हें दुत्कारा गया है.

अशांति की जड़ है धर्म       

अगर किसी का इन गढ़ी हुई मान्यताओं में यकीन नहीं है या वह उन से नफरत करता है तो निश्चित ही तकरार, टकराव होगा. दीवाली को लंका पर विजय के बाद राम के अयोध्या आगमन की खुशी का प्रतीक माना जाता है पर कुछ लोग रावण के प्रशंसक भी हैं जो राम को आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं मानते. राम के शंबूक वध की वजह से पढ़ेलिखे दलित उन के इस कृत्य के विरोधी हैं. राम द्वारा अपनी पत्नी सीता की अग्निपरीक्षा और गर्भवती अवस्था में घर से निष्कासन की वजह से उन्हें स्त्री विरोधी भी माना जाता है.

इसी तरह हर त्योहार को ले कर कोईर् न कोई धार्मिक मान्यता गढ़ दी गई. त्योहारों को धर्म और उस की मान्यताओं से जोड़ने से नुकसान यह है कि समाज के सभी वर्गों के लोग अब एकसाथ उन से जुड़ा महसूस नहीं कर पाते. कहने को धर्म को कितना ही प्रेम का प्रतीक संदेशवाहक बताया जाए पर धर्म हकीकत में सामाजिक भेदभाव, वैर, नफरत, अशांति की जड़ है. सच है कि त्योहारों में मिठास घुली होती है पर अपनों तक ही. मजहबी बंटवारे से यह मिठास खट्टेपन में तबदील हो रही है. अकसर त्योहारों पर निकलने वाले जुलूस, झांकियों के वक्त एकदूसरे का विरोध, गुस्सा देखा जा सकता है. कभीकभी तो खूनखराबा तक हो जाता है.

हर धर्म के त्योहार अलगअलग हैं. एक धर्र्म को मानने वाले लोग दूसरे के त्योहार को नहीं मानते. धर्मों की बात तो और, एक धर्र्म में ही इतना विभाजन है कि एक धर्म वाले सभी उत्सव एकसाथ नहीं मनाते. हिंदुओं के त्योहार ईर्साई, सिख, मुसलमान ही नहीं, स्वयं नीचे करार दिए गए हिंदू ही मनाने में परहेज करते हैं. मुसलमानों में शिया अलग, सुन्नी अलग, ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टेंटों की अलगअलग ढफली हैं. हर धर्म में ऊंचनीच है. श्रेष्ठता और छोटेबड़े की भावना है. फिर कहां है सांझी एकता? कहां है मिलन? क्या त्योहार आज भी मानवीय गुणों को स्थापित करने में, प्रेम, शांति एवं सद्भावना को बढ़ाते दिखाईर् पड़ते हैं?

त्योहारों में धर्म की घुसपैठ सामाजिक मिलन, एकता, समरसता की खाई को पाटने के बजाय और चौड़ी कर रही है. एकता, समन्वय और परस्पर जुड़ने का संदेश देने वाले त्योहारों के बीच मनुष्यों को बांट दिया गया है.

धर्म के धंधेबाजों का औजार 

धार्मिक वर्ग विभाजन की वजह से उत्सव अब सामाजिक मिलन के वास्तविक पर्व साबित नहीं हो पा रहे हैं. त्योहारों के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक महत्त्व को भूल कर धार्मिक, सांस्कृतिक पहलू को सर्वोपरि मान लिया गया है. त्योहार अब धर्म के कारोबारियों के औजार बन गए हैं. नतीजा यह हो रहा है कि विद्वेष, भेदभाव की जड़वत मान्यताओं को त्योहारों के जरिए और मजबूत किया जा रहा है. एक परिवार हजारों, लाखों रुपए दिखावे, होड़ में फूंक देता है. ऐसे में त्योहारों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं.

केवल समृद्धि, धन के आगमन की उम्मीदों के तौर पर मनाए जाने वाले दीवाली पर्व का महत्त्व धन से ही नहीं है, इस का रिश्ता सारे समाज की एकता, प्रेम, सामंजस्य, मिलन के भाव से है. हमें सोचना होगा कि क्यों सामाजिक, पारिवारिक विघटन हो रहा है. धर्मों में विद्वेष फैल रहा है? त्योहार सौहार्द के विकास में कहां सहयोग कर रहे हैं?

ऐसे में सवाल पूछा जाना चाहिए कि सामाजिक जीवन में धर्मों की क्या उपयोगिता रह गई है? धर्र्म के होते ‘अधर्म’ जैसे काम क्यों हो रहे हैं? त्योहारों के वक्त आतंकी खतरे बढ़ जाते हैं. सरकारों को सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है. रामलीलाओं में पुलिस और स्वयंसेवकों का कड़ा पहरा रहता है. वे हर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखते हैं. अब तो रामलीलाओं की सुरक्षा का जिम्मा द्रोण द्वारा तय किया जाने लगा है. फिर भी आतंकी बम फोड़ जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते है.

नए सिरे से विचार करना होगा कि परस्पर मेलमिलाप के त्योहार हमारी ऐसी सामाजिक सोच को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं? दीवाली को अंधकार को समाप्त करने वाला त्योहार कहा गया है. कई तरह के अंधकारों में धार्मिक भेदभाव, असहिष्णुता, वैमनस्यता और भाईचारे, सौहार्द के अभाव का अंधेरा अधिक खतरनाक है. जब घरपरिवार, समाज में सद्भाव, प्रेम, मेलमिलाप न रहेगा तो कैसा उत्सव, कैसी खुशी? समाज में फैल रहे धर्मरूपी अंधकार को काटना दीवाली पर्व का उद्देश्य होना चाहिए. तभी इस त्योहार की सही माने में सार्थकता है.

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