Social Story: गोधरा में गोदनामा

Social Story: मरने के अलावा उसे और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जीने के लिए उस के पास कुछ नहीं था. न पत्नी न बच्चे, न मकान, न दुकान. उस का सबकुछ लुट चुका था. एक लुटा हुआ इंसान, एक टूटा हुआ आदमी करे भी तो क्या?

उस का घर दंगाइयों ने जला दिया था. हरहर महादेव के नारे श्रीराम पर भी कहर बरपा चुके थे. वह हिंदू था लेकिन उस की पत्नी शबनम मुसलमान थी. उस के बेटे का नाम शंकर था. फिर भी वे गोधरा में चली नफरत की आग में स्वाहा हो चुके थे.

श्रीराम अपने व्यापार के काम से रतलाम गया हुआ था. तभी अचानक दंगे भड़क उठे. जंगल की आग को तो बुझाया जा सकता है लेकिन आग यदि नफरत की हो और उस पर धर्म का पैट्रोल छिड़का जाता रहे, प्रशासन दंगाइयों का उत्साहवर्द्धन करता रहे तो फिर मुश्किल है उस आग का बुझना. ऊपर से एक फोन आया प्रशासन को. लोगों का गुस्सा निकल जाने दो. जो हो रहा है होने दो. बस, फिर क्या था? मौत का खूनी खेल चलता रहा. जिन दोस्तों ने श्रीराम का विवाह करवाया था वे अब कट्टरपंथी बन चुके थे.

दंगाई जब श्रीराम के घर के पास पहुंचे तो किसी ने कहा, ‘‘इस की पत्नी मुसलमान है. इसे मार डालना जरूरी है.’’

दंगाइयों में श्रीराम के दोस्त भी शामिल थे. उस के एक दोस्त ने कहा, ‘‘नहीं, वह श्रीराम की पत्नी है. इस नाते वह भी हिंदू हुई.’’

दंगाई बोले, ‘‘यह हिंदू नहीं मुसलमान है. यह अब भी नमाज पढ़ती है. रोजे रखती है. इस ने अपना नाम और सरनेम भी नहीं बदला. इस ने अपने बेटे का नाम जरूर शंकर रखा है किंतु उसे शिक्षासंस्कार इस्लाम के ही दिए हैं. इस तरह श्रीराम की पत्नी और बेटा मुसलमान ही हुए.’’

श्रीराम के एक दोस्त ने कहा, ‘‘कृपया यह घर छोड़ दीजिए. यह हमारे दोस्त का घर है. इस में उस की पत्नी और बच्चे रहते हैं. कल जब वह वापस आएगा तो हम उसे क्या जवाब देंगे.’’

दंगाई भड़क उठे, ‘‘श्रीराम जैसे मर्दों को जीने का कोई अधिकार नहीं है. मुसलिम औरत से विवाह किया था तो उसे हिंदू बनाना था. हिंदुओं की तरह रहना सिखाना था. ऐसे ही लोग मुसलमानों को बढ़ावा देते हैं. देखते क्या हो? खत्म कर दो सब को और आग लगा दो घर में.’’

थोड़ी ही देर में उस की पत्नीबच्चा आग के दावानल में घिर जल कर राख हो गए. घर से लगी हुई उस की दुकान लूट कर जला दी गई. जब वह वापस आया तो उस का सबकुछ लुट चुका था. वह बरबाद हो चुका था. वह मरने के लिए घर से निकल पड़ा. पहले उस ने ट्रेन के नीचे आ कर मरने की सोची किंतु भारतीय रेल की लेटलतीफी और दंगों के कारण रेल पुलिस भी सजग हो चुकी थी.

आत्महत्या करने के अपराध में कहीं उसे गिरफ्तार न होना पड़े, इसलिए उस ने फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक की शीशी खरीदी और पूरी की पूरी मुंह में उड़ेल ली. थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे. वह बेहोश हो कर गिर पड़ा. होश आया तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. उस के दोस्त शर्मिंदगी के भाव लिए उस के पास खड़े थे. उस से माफी मांग रहे थे. किंतु उन के माफी मांगने से उस का परिवार तो जीवित होने से रहा. उसे कोई शिकायत भी नहीं थी किसी से. वह तो हर हाल में मरना चाहता था.

अस्पताल घायलों की चीखपुकार से गूंज रहा था. श्रीराम सोच रहा था कि रात को वह अपनी नस काट लेगा ताकि उसे इस अकेले और लुटे जीवन से मुक्ति मिल सके. बिना प्यार, बिना सहारे, बिना घर, बिना दुकान के वह जी कर क्या करेगा? उस की पत्नी, उस का बच्चा, घर… सब कितने प्रेम से संजोया था उस ने. शबनम से विवाह के कारण उस का अपना परिवार भी छूट गया था. क्या करेगा वह शबनम और शंकर के बिना जी कर?

जिस बैड पर वह लेटा था उस के बगल में एक मासूम बच्ची थी. घायल, चोटग्रस्त. उफ, दंगाइयों ने इसे भी नहीं छोड़ा. न जाने कैसे बच गई थी. बच्ची को होश आ चुका था. वह रोने लगी. श्रीराम ने उसे सांत्वना दी, सहलाया. उस से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

बच्ची ने कराहते हुए कहा, ‘‘शबाना, और आप का?’’

‘‘श्रीराम.’’

बच्ची के चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए.

वह बोली, ‘‘आप हिंदू हो. मुझे भी मार डालोगे.’’

‘‘मैं तो खुद तुम्हारी तरह अस्पताल में भरती हूं. मैं तुम्हें क्यों मारूंगा?’’

‘‘आप तो हिंदू हैं. फिर आप को क्यों मारा?’’

श्रीराम की आंखों में आंसू आ गए.

उसे रोता देख बच्ची ने कहा, ‘‘सौरी, अंकल, आप को मुसलमानों ने मारा होगा. मेरा पूरा घर जला दिया. मेरे अम्मीअब्बू को भी मार डाला. पता नहीं, मैं कैसे बच गई?’’ यह कह कर 10 वर्ष की मासूम शबाना रोने लगी.

‘अब इस बच्ची का क्या होगा?

इसे कौन सहारा देगा? कौन इसे पालेगापोसेगा?’ श्रीराम सोचने लगा. उस ने डाक्टर से पूछा कि ठीक होने के बाद इस बच्ची का क्या होगा?

डाक्टर ने कहा, ‘‘अभी तक तो कोई रिश्तेदार आया नहीं. एकदो दिन देखते हैं, वरना यतीमखाने भिजवाना पड़ेगा.’’

श्रीराम सोचने लगा कि वह भी इस दुनिया में अकेला है और यह बच्ची भी. क्यों न इसी बच्ची को जीने का सहारा बनाया जाए. श्रीराम को शबाना में अपना बेटा शंकर दिखने लगा. उस का शबाना से मेलमिलाप बढ़ चुका था. उस ने शबाना से पूछा, ‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी?’’

‘‘लेकिन आप तो हिंदू हैं.’’

‘‘ठीक है, तो मैं मुसलमान बन जाता हूं.’’

‘‘नहीं, अंकल, आप मुसलमान मत बनना. नहीं तो आप का भी घर जला देंगे.’’

‘‘तो तुम हिंदू बन जाओ.’’

‘‘नहीं, अंकल, मैं हिंदू नहीं बनूंगी. हिंदू लोग अच्छे नहीं होते. वे लोगों को मार डालते हैं. घर जला देते हैं.’’

‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ, मेरी बेटी कैसे बनोगी?’’

शबाना ने दिमाग पर जोर लगाया, फिर कहा, ‘‘अंकल, आप हिंदू मैं मुसलमान. जब मुसलमान दंगे करेंगे तो मैं आप को बचाऊंगी और जब हिंदू दंगे करेंगे तो आप मुझे बचाना. क्यों, ठीक है न अंकल?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर श्रीराम उदास हो गया. वह कैसे समझाए इस मासूम को कि दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता. होता तो उस की पत्नी शबनम और बेटा शंकर जिंदा होते. शैतानों का कोई ईमान नहीं होता.

बहरहाल, हुआ यों कि श्रीराम ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया और शबाना को अपनी गोद में लिए शेष जीवन जीने में जुट गया.

Family Story: बाजारीकरण – जब बेटी के लिए नीला ने किराए पर रखी कोख

Family Story: आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

नीला को अनिता की बात जंच गई

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

Family Story: पुनर्विवाह- क्या पत्नी की मौत के बाद आकाश ने दूसरी शादी की?

Family Story: जब से पूजा दिल्ली की इस नई कालोनी में रहने आई थी उस का ध्यान बरबस ही सामने वाले घर की ओर चला जाता था, जो उस की रसोई की खिड़की से साफ नजर आता था. एक अजीब सा आकर्षण था इस घर में. चहलपहल के साथसाथ वीरानगी और मुसकराहट के साथसाथ उदासी का एहसास भी होता था उसे देख कर. एक 30-35 वर्ष का पुरुष अकसर अंदरबाहर आताजाता नजर आता था. कभीकभी एक बुजुर्ग दंपती भी दिखाई देते थे और एक 5-6 वर्ष का बालक भी.

उस घर में पूजा की उत्सुकता तब और भी बढ़ गई जब उस ने एक दिन वहां एक युवती को भी देखा. उसे देख कर उसे ऐसा लगा कि वह यदाकदा ही बाहर निकलती है. उस का सुंदर मासूम चेहरा और गरमी के मौसम में भी सिर पर स्कार्फ उस की जिज्ञासा को और बढ़ा गया.

जब पूजा की उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गई तो एक दिन उस ने अपने दूध वाले से पूछ ही लिया, ‘‘भैया, तुम सामने वाले घर में भी दूध देते हो न. बताओ कौनकौन हैं उस घर में.’’

यह सुनते ही दूध वाले की आंखों में आंसू और आवाज में करुणा भर गई. भर्राए स्वर में बोला, ‘‘दीदी, मैं 20 सालों से इस घर में दूध दे रहा हूं पर ऐसा कभी नहीं देखा. यह साल तो जैसे इन पर कयामत बन कर ही टूट पड़ा है. कभी दुश्मन के साथ भी ऐसा अन्याय न हो,’’ और फिर फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘भैया अपनेआप को संभालो,’’ अब पूजा को पड़ोसियों से ज्यादा अपने दूध वाले की चिंता होने लगी थी. पर मन अभी भी यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर क्या हुआ है उस घर में.

शायद दूध वाला भी अपने मन का बोझ हलका करने के लिए बेचैन था.

अत: कहने लगा, ‘‘क्या बताऊं दीदी, छोटी सी गुडि़या थी सलोनी बेबी जब मैं ने इस घर में दूध देना शुरू किया था. देखते ही देखते वह सयानी हो गई और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. सलोनी बेबी ऐसी थी कि सब को देखते ही पसंद आ जाए पर वर भी उस के जोड़ का होना चाहिए था न.

‘‘एक दिन आकाश बाबू उन के घर आए. उन्होंने सलोनी के मातापिता से कहा कि शायद सलोनी ने अभी आप को बताया नहीं है… मैं और सलोनी एकदूसरे को चाहते हैं और अब विवाह करना चाहते हैं,’’ और फिर अपना पूरा परिचय दिया.

‘‘आकाश बाबू इंजीनियर थे व मांबाप की इकलौती औलाद. सलोनी के मातापिता को एक नजर में ही भा गए. फिर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे मातापिता को यह रिश्ता मंजूर है?

‘‘यह सुन कर आकाश बाबू कुछ उदास हो गए फिर बोले कि मेरे मातापिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. 2 वर्ष पूर्व एक कार ऐक्सिडैंट में उन की मौत हो गई थी.

‘‘यह सुन कर सलोनी के मातापिता बोले कि हमें यह रिश्ता मंजूर है पर इस शर्त पर कि विवाहोपरांत भी तुम सलोनी को ले कर यहां आतेजाते रहोगे. सलोनी हमारी इकलौती संतान है. तुम्हारे यहां आनेजाने से हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा और हमारे जीवन में बेटे की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आकाश बाबू राजी हो गए. फिर क्या था धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया और फिर साल भर में गोद भी भर गई.’’

‘‘यह सब तो अच्छा ही है. इस में रोने की क्या बात है?’’ पूजा ने कहा.

दूध वाले ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘एक दिन जब मैं दूध देने गया तो घर में सलोनी बिटिया, आकाश बाबू और शौर्य यानी सलोनी बिटिया का बेटा भी था. तब मैं ने कहा कि बिटिया कैसी हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दीं. मेरी तो आंखें ही तरस जाती हैं तुम्हें देखने के लिए. पर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो सलोनी मुझे काकाकाका कहते नहीं थकती थी वह मेरी बात सुन कर मुंह फेर कर अंदर चली गई. मैं ने सोचा बेटियां ससुराल जा कर पराई हो जाती हैं और कभीकभी उन के तेवर भी बदल जाते हैं. अब वह कहां एक दूध वाले से बात करेगी और फिर मैं वहां से चला आया. पर अगले ही दिन मुझे मालूम पड़ा कि मुझ से न मिलने की वजह कुछ और ही थी. सलोनी बिटिया नहीं चाहती थी कि सदा उस का खिलखिलाता चेहरा देखने वाला काका उस का उदास व मायूस चेहरा देखे.

‘‘दरअसल, सलोनी बिटिया इस बार वहां मिलने नहीं, बल्कि अपना इलाज करवाने आई थी. कुछ दिन पहले ही पता चला था कि उसे तीसरी और अंतिम स्टेज का ब्लड कैंसर है. इसलिए डाक्टर ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जाने को कहा था. यहां इस बीमारी का इलाज नहीं था.

‘‘सलोनी को अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया, पर कोई फायदा नहीं हुआ. ब्लड कैंसर की वजह से सलोनी बिटिया की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई. बारबार कीमोथेरैपी करवाने से उस के लंबे, काले, रेशमी बाल भी उड़ गए. इसी वजह से वह हर वक्त स्कार्फ बांधे रखती. कितनी बार खून बदलवाया गया. पर सब व्यर्थ. आकाश बाबू बहुत चाहते हैं सलोनी बिटिया को. हमेशा उसी के सिरहाने बैठे रहते हैं… तनमनधन सब कुछ वार दिया आकाश बाबू ने सलोनी बिटिया के लिए.’’

शाम को जब विवेक औफिस से आए तो पूजा ने उन्हें सारी बात बताई, ‘‘इस

दुखद कहानी में एक सुखद बात यह है कि आकाश बाबू बहुत अच्छे पति हैं. ऐसी हालत में सलोनी की पूरीपूरी सेवा कर रहे हैं. शायद इसीलिए विवाह संस्कार जैसी परंपराओं का इतना महत्त्व दिया जाता है और यह आधुनिक पीढ़ी है कि विवाह करना ही नहीं चाहती. लिव इन रिलेशनशिप की नई विचारधारा ने विवाह जैसे पवित्र बंधन की धज्जियां उड़ा दी हैं.’’

फिर, ‘मैं भी किन बातों में उलझ गई. विवेक को भूख लगी होगी. वे थकेहारे औफिस से आए हैं. उन की देखभाल करना मेरा भी तो कर्तव्य है,’ यह सोच कर पूजा रसोई की ओर चल दी. रसोई से फिर सामने वाला मकान नजर आया.

आज वहां काफी हलचल थी. लगता था घर की हर चीज अपनी जगह से मिलना चाहती है. घर में कई लोग इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. बाहर ऐंबुलैंस खड़ी थी. पूजा सहम गई कि कहीं सलोनी को कुछ…

पूजा का शक ठीक था. उस दिन सलोनी की तबीयत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. हालांकि उन से अधिक परिचय नहीं था, फिर भी पूजा और विवेक अगले दिन उस से मिलने अस्पताल गए. वहां आकाश की हालत ठीक उस परिंदे जैसी थी, जिसे पता था कि उस के पंख अभी कटने वाले ही हैं, क्योंकि डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि सलोनी अपने जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही है. फिर वही हुआ. अगले दिन सलोनी इस संसार से विदा हो गई.

इस घटना को घटे करीब 2 महीने हो गए थे पर जब भी उस घर पर नजर पड़ती पूजा की आंखों के आगे सलोनी का मासूम चेहरा घूम जाता और साथ ही आकाश का बेबस चेहरा. मानवजीवन पर असाध्य रोगों की निर्ममता का जीताजागता उदाहरण और पति फर्ज की साक्षात मूर्ति आकाश.

दोपहर के 2 बजे थे. घर का सारा काम निबटा कर मैं लेटने ही जा रही थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजे पर एक महिला थी. शायद सामने वाले घर में आई थी, क्योंकि पूजा ने इन दिनों कई बार उसे वहां देखा था. उस का अनुमान सही था.

‘‘मैं आप को न्योता देने आई हूं.’’

‘‘कुछ खास है क्या?’’

‘‘हां, कल शादी है न. आप जरूर आइएगा.’’

इस से पहले कि पूजा कुछ और पूछती, वह महिला चली गई. शायद वह बहुत जल्दी में थी.

वह तो चली गई पर जातेजाते पूजा की नींद उड़ा गई. सारी दोपहरी वह यही सोचती रही कि आखिर किस की शादी हो रही है वहां, क्योंकि उस की नजर में तो उस घर में अभी कोई शादी लायक नहीं था.

शाम को जब विवेक आए तो उन के घर में पैर रखते ही पूजा ने उन्हें यह सूचना दी जिस ने दोपहर से उस के मन में खलबली मचा रखी थी. उसे लगा कि यह समाचार सुन कर विवेक भी हैरान हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे वैसे ही शांत रहे जैसे पहले थे.

बोले, ‘‘ठीक है, चली जाना… हम पड़ोसी हैं.’’

‘‘पर शादी किस की है, आप को यह जानने की उत्सुकता नहीं है क्या?’’ पूजा ने तनिक भौंहें सिकोड़ कर पूछा, क्योंकि उसे लगा कि विवेक उस की बातों में रुचि नहीं ले रहे हैं.

‘‘और किस की? आकाश की. अब शौर्य की तो करने से रहे इतनी छोटी उम्र में. आकाश के घर वाले चाहते हैं कि यह शीघ्र ही हो जाए, क्योंकि आकाश को इसी माह विदेश जाना है. दुलहन सलोनी की चचेरी बहन है.’’

यह सुन कर पूजा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. जिस आकाश को उस ने आदर्श पति का ताज दे कर सिरआंखों पर बैठा रखा था. वह अब उस से छिनता नजर आ रहा था. उस ने सोचा कि पत्नी को मरे अभी 2 महीने भी नहीं हुए और दूसरा विवाह? तो क्या वह प्यार, सेवाभाव, मायूसी सब दिखावा था? क्या एक स्त्री का पुरुषजीवन में महत्त्व जितने दिन वह साथ रहे उतना ही है? क्या मरने के बाद उस का कोई वजूद नहीं? मुझे कुछ हो जाए तो क्या विवेक भी ऐसा ही करेंगे? इन विचारों ने पूजा को अंदर तक हिला दिया और वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई. उसे सारा कमरा घूमता नजर आ रहा था.

जब विवेक वहां आए तो पूजा को इस हालत में देख घबरा गए और फिर उस का सिर गोद में रख कर बोले, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या ऊटपटांग सोचसोच कर अपना दिमाग खराब किए रखती हो? तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

विवेक की इस बात पर सदा गौरवान्वित महसूस करने वाली पूजा आज बिफर पड़ी, ‘‘ले आना तुम भी आकाश की तरह दूसरी पत्नी. पुरुष जाति होती ही ऐसी है. पुरुषों की एक मृगमरीचिका है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. आकाश यह शादी अपने सासससुर के कहने पर ही कर रहा है. उन्होंने ही उसे पुनर्विवाह के लिए विवश किया है, क्योंकि वे आकाश को अपने बेटे की तरह चाहने लगे हैं. वे नहीं चाहते कि आकाश जिंदगी भर यों ही मायूस रहे. वे चाहते हैं कि आकाश का घर दोबारा बस जाए और आकाश की पत्नी के रूप में उन्हें अपनी सलोनी वापस मिल जाए. इस तरह शौर्य को भी मां का प्यार मिल जाएगा.

‘‘पूजा, जीवन सिर्फ भावनाओं और यादों का खेल नहीं है. यह हकीकत है और इस के लिए हमें कई बार अपनी भावनाओं का दमन करना पड़ता है. सिर्फ ख्वाबों और यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. जिंदगी बहुत लंबी होती है.

‘‘आकाश दूसरी शादी कर रहा है इस का अर्थ यह नहीं कि वह सलोनी से प्यार नहीं करता था. सलोनी उस का पहला प्यार था और रहेगी, परंतु यह भी तो सत्य है कि सलोनी अब दोबारा नहीं आ सकती. दूसरी शादी कर के भी वह उस की यादों को जिंदा रख सकता है. शायद यह सलोनी के लिए सब से बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

‘‘यह दूसरी शादी इस बात का सुबूत है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के 2 पहिए हैं और यह गाड़ी खींचने के लिए एकदूसरे की जरूरत पड़ती है और यह काम अभी हो जाए तो इस में हरज ही क्या है?’’

विवेक की बातों ने पूजा के दिमाग से भावनाओं का परदा हटा कर वास्तविकता की तसवीर दिखा दी थी. अब उसे आकाश के पुनर्विवाह में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी और न ही विवेक के प्यार पर अब कोई शक की गुंजाइश थी.

विवेक के लिए खाना लगा कर पूजा अलमारी खोल कर बैठ गई और फिर स्वभावानुसार विवेक का सिर खाने लगी, ‘‘कल कौन सी साड़ी पहनूं? पहली बार उन के घर जाऊंगी. अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

विवेक ने भी सदा की तरह मुसकराते हुए कहा, ‘‘कोई भी पहन लो. तुम पर तो हर साड़ी खिलती है. तुम हो ही इतनी सुंदर.’’

पूजा विवेक की प्यार भरी बातें सुन कर गर्वित हो उठी.

Social Story: एक मुलाकात

Social Story: सपना से मेरी मुलाकात दिल्ली में कमानी औडिटोरियम में हुई थी. वह मेरे बगल वाली सीट पर बैठी नाटक देख रही थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि उस के मामा थिएटर करते हैं और वह उन्हीं के आग्रह पर आई है. वह एमएससी कर रही थी. मैं ने भी अपना परिचय दिया. 3 घंटे के शो के दौरान हम दोनों कहीं से नहीं लगे कि पहली बार एकदूसरे से मिल रहे हैं. सपना तो इतनी बिंदास लगी कि बेहिचक उस ने मुझे अपना मोबाइल नंबर भी दे दिया.

एक सप्ताह गुजर गया. पढ़ाई में व्यस्तता के चलते मुझे सपना का खयाल ही नहीं आया. एक दिन अनायास मोबाइल से खेलते सपना का नंबर नाम के साथ आया, तो वह मेरे जेहन में तैर गई. मैं ने उत्सुकतावश सपना का नंबर मिलाया.

‘हैलो, सपना.’

‘हां, कौन?’

‘मैं सुमित.’

सपना ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया तो उसे सहसा याद आया, ‘सुमित नाटक वाले.’

‘ऐसा मत कहो भई, मैं नाटक में अपना कैरियर बनाने वाला नहीं,’ मैं हंस कर बोला.

‘माफ करना, मेरे मुंह से ऐसे ही निकल गया,’ उसे अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘ओकेओके,’ मैं ने टाला.

‘फोन करती, पर क्या करूं 15 दिन बाद फर्स्ट ईयर के पेपर हैं.’ उस के स्वर से लाचारी स्पष्ट झलक रही थी.

‘किस का फोन था?’ मां ने पूछा.

‘मेरे एक फ्रैंड सुमित का. पिछले हफ्ते मैं उस से मिली थी.’ सपना ने मां को याद दिलाया.

‘क्या करता है वह?’ मां ने पूछा.

‘यूपीपीसीएस की तैयारी कर रहा है दिल्ली में रह कर.’

‘दिल्ली क्या आईएएस के लिए आया था? इस का मतलब वह भी यूपी का होगा.’

‘हां,’ मैं ने जान छुड़ानी चाही.

एक महीने बाद सपना मुझे करोल बाग में खरीदारी करते दिखी. उस के साथ एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं. मां के अलावा और कौन हो सकता है? मैं कोई निर्णय लेता, सपना ने मुझे देख लिया.

‘सुमित,’ उस ने मुझे आवाज दी. मैं क्षणांश लज्जासंकोच से झिझक गया, लेकिन सपना की पहल से मुझे बल मिला. मैं उस के करीब आया.

‘मम्मी, यही है सुमित,’ सपना मुसकरा कर बोली.

मैं ने उन्हें नमस्कार किया.

‘कहां के रहने वाले हो,’ सपना की मां ने पूछा.

‘जौनपुर.’

‘ब्राह्मण हो?’

मैं ब्राह्मण था तो बुरा भी नहीं लगा, लेकिन अगर दूसरी जाति का होता तो? सोच कर अटपटा सा लगा. खैर, पुराने खयालातों की थीं, इसलिए मैं ने ज्यादा दिमाग नहीं खपाया. लोग दिल्ली रहें या अमेरिका, जातिगत बदलाव भले ही नई पीढ़ी अपना ले, मगर पुराने लोग अब भी उन्हीं संस्कारों से चिपके हैं. नई पीढ़ी को भी उसी सोच में ढालना चाहते हैं.

मैं ने उन के बारे में कुछ जानना नहीं चाहा. उलटे वही बताने लगीं, ‘हम गाजीपुर के ब्राह्मण हैं. सपना के पिता बैंक में चीफ मैनेजर हैं,’ सुन कर अच्छा भी लगा, बुरा भी. जाति की चर्चा किए बगैर भी अपना परिचय दिया जा सकता था.

हम 2 साल तक एकदूसरे से मिलते रहे. मैं ने मन बना लिया था कि व्यवस्थित होने के बाद शादी सपना से ही करूंगा. सपना ने भले ही खुल कर जाहिर न किया हो, लेकिन उस के मन को पढ़ना कोई मुश्किल काम न था.

मैं यूपीपीसीएस में चुन लिया गया. सपना ने एमएससी कर ली. यही अवसर था, जब सपना का हाथ मांगना मुझे मुनासिब लगा, क्योंकि एक हफ्ते बाद मुझे दिल्ली छोड़ देनी थी. सहारनपुर जौइनिंग के पहले किसी नतीजे पर पहुंचना चाहता था, ताकि अपने मातापिता को इस फैसले से अवगत करा सकूं. देर हुई तो पता चला कि उन्होंने कहीं और मेरी शादी तय कर दी, तो उन के दिल को ठेस पहुंचेगी. सपना को जब मैं ने अपनी सफलता की सूचना दी थी, तब उस ने अपने पिता से मिलने के लिए मुझे कहा था. मुझे तब समय नहीं मिला था, लेकिन आज मिला है.

मैं अपने कमरे में कपड़े बदल रहा था, तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी.

‘कौन?’ मैं शर्ट पहनते हुए बोला.

‘सपना,’ मेरी खुशियों को मानो पर लग गए.

‘अंदर चली आओ,’ कमीज के बटन बंद करते हुए मैं बोला, ‘आज मैं तुम्हारे ही घर जा रहा हूं.’

सपना ने कोई जवाब नहीं दिया. मैं ने महसूस किया कि वह उदास थी. उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस के हाथ में कुछ कार्ड्स थे. उस ने एक मेरी तरफ बढ़ाया.

‘यह क्या है?’ मैं उलटपुलट कर देखने लगा.

‘खोल कर पढ़ लो,’ सपना बुझे मन से बोली.

मुझे समझते देर न लगी कि यह सपना की शादी का कार्ड है. आज से 20 दिन बाद गाजीपुर में उस की शादी होने वाली है. मेरा दिल बैठ गया. किसी तरह साहस बटोर कर मैं ने पूछा, ‘एक बार मुझ से  पूछ तो लिया होता.’

‘क्या पूछती,’ वह फट पड़ी, ‘तुम मेरे कौन हो जो पूछूं.’ उस की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. मुझे सपना का अपने प्रति बेइंतहा मुहब्बत का प्रमाण मिल चुका था. फिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी, जिस के चलते सपना ने अपनी मुहब्बत का गला घोंटा.

‘मम्मीपापा तुम से शादी के लिए तैयार थे, परंतु…’ वह चुप हो गई. मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. मैं सबकुछ जानना चाहता था.

‘बोलो, बोलो सपना, चुप क्यों हो गई. क्या कमी थी मुझ में, जो तुम्हारे मातापिता ने मुझे नापसंद कर दिया.’ मैं जज्बाती हो गया.

भरे कंठ से वह बोली, ‘जौनपुर में पापा की रिश्तेदारी है. उन्होंने ही तुम्हारे परिवार व खानदान का पता लगवाया.’

‘क्या पता चला?’

‘तुम अनाथालय से गोद लिए पुत्र हो, तुम्हारी जाति व खानदान का कुछ पता नहीं.’

‘हां, यह सत्य है कि मैं अपने मातापिता का दत्तक पुत्र हूं, मगर हूं तो एक इंसान.’

‘मेरे मातापिता मानने को तैयार नहीं.’

‘तुम क्या चाहती हो,’ मैं ने ‘तुम’ पर जोर दिया. सपना ने नजरें झुका लीं. मैं समझ गया कि सपना को जैसा मैं समझ रहा था, वह वैसी नहीं थी.

वह चली गई. पहली बार मुझे अपनेआप व उन मातापिता से नफरत हुई, जो मुझे पैदा कर के गटर में सड़ने के लिए छोड़ गए. गटर इसलिए कहूंगा कि मैं उस समाज का हिस्सा हूं जो अतीत में जीता है. भावावेश के चलते मेरा गला रुंध गया. चाह कर भी मैं रो न सका.

आहिस्ताआहिस्ता मैं सपना के दिए घाव से उबरने लगा. मेरी शादी हो गई. मेरी बीवी भले ही सुंदर नहीं थी तथापि उस ने कभी जाहिर नहीं होने दिया कि मेरे खून को ले कर उसे कोई मलाल है. उलटे मैं ने ही इस प्रसंग को छेड़ कर उस का मन टटोलना चाहा तो वह हंस कर कहती, ‘मैं सात जन्मों तक आप को ही चाहूंगी.’ मैं भावविभोर हो उसे अपने सीने से लगा लेता. सपना ने जहां मेरे आत्मबल को तोड़ा, वहीं मेरी बीवी मेरी संबल थी.

आज 18 नवंबर था. मन कुछ सोच कर सुबह से ही खिन्न था. इसी दिन सपना ने अपनी शादी का कार्ड मुझे दिया था. कितनी बेरहमी के साथ उस ने मेरे अरमानों का कत्ल किया था. मैं उस की बेवफाई आज भी नहीं भूला था, जबकि उस बात को लगभग 10 साल हो गए थे. औरत अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलती और पुरुष अपनी पहली बेवफाई.

कोर्ट का समय शुरू हुआ. पुराने केसों की एक फाइल मेरे सामने पड़ी थी. गाजीपुर आए मुझे एक महीने से ऊपर हो गया. इस केस की यह पहली तारीख थी. मैं उसे पढ़ने लगा. सपना बनाम सुधीर पांडेय. तलाक का मुकदमा था, जिस में वादी सपना ने अपने पति पर शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा कर तलाक व भरणपोषण की मांग की थी.

सपना का नाम पढ़ कर मुझे शंका हुई. फिर सोचा, ‘होगी कोई सपना.’ तारीख पर दोनों मौजूद थे. मैं ने दोनों को अदालत में हाजिर होने का हुक्म दिया. मेरी शंका गलत साबित नहीं हुई. वह सपना ही थी. कैसी थी, कैसी हो गई. मेरा मन उदास हो गया. गुलाब की तरह खिले चेहरे को मानो बेरहमी से मसल दिया गया हो. उस ने मुझे पहचान लिया. इसलिए निगाहें नीची कर लीं. भावनाओं के उमड़ते ज्वार को मैं ने किसी तरह शांत किया.

‘‘सर, पिछले 4 साल से यह केस चल रहा है. मेरी मुवक्किल तलाक के साथ भरणपोषण की मांग कर रही है.’’

दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनने के बाद लंच के दौरान मैं ने सपना को अपने केबिन में बुलाया. वह आना नहीं चाह रही थी, फिर भी आई.

‘‘सपना, क्या तुम सचमुच तलाक चाहती हो?’’ उस की निगाहें झुकी हुई थीं. मैं ने पुन: अपना वाक्य दोहराया. कायदेकानून से हट कर मेरी हमेशा कोशिश रही कि ऐसे मामलों में दोनों पक्षों को समझाबुझा कर एक किया जाए, क्योंकि तलाक का सब से बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है. वकीलों का क्या? वे आपस में मिल जाते हैं तथा बिलावजह मुकदमों को लंबित कर के अपनी रोजीरोटी कमाते हैं.

मुवक्किल समझता है कि ये हमारी तरफ से लड़ रहे हैं, जबकि वे सिर्फ अपने पेट के लिए लड़ रहे होते हैं. सपना ने जब अपनी निगाहें ऊपर कीं, तो मैं ने देखा कि उस की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं.

‘‘वह मेरे चरित्र पर शक करता था. किसी से बात नहीं करने देता था. मेरे पैरों में बेडि़यां बांध कर औफिस जाता, तभी खोलता जब उस की शारीरिक डिमांड होती. इनकार करने पर मारतापीटता,’’ सपना एक सांस में बोली.

यह सुन कर मेरा खून खौल गया. आदमी था कि हैवान, ‘‘तुम ने पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाई?’’

‘‘लिखवाती तब न जब उस के चंगुल से छूटती.’’

‘‘फिर कैसे छूटीं?’’

‘‘भाई आया था. उसी ने देखा, जोरजबरदस्ती की. पुलिस की धमकी दी, तब कहीं जा कर छूटी.’’

‘‘कितने साल उस के साथ रहीं?’’

‘‘सिर्फ 6 महीने. 3 साल मायके में रही, सोचा सुधर जाएगा. सुधरना तो दूर उस ने मेरी खोजखबर तक नहीं ली. उस की हैवानियत को ले कर पहले भी मैं भयभीत थी. मम्मीपापा को डर था कि वह मुझे मार डालेगा, इसलिए सुसराल नहीं भेजा.’’

‘‘उसे किसी मनोचिकित्सक को नहीं दिखाया?’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता? वैसे भी जन्मजात दोष को कोई भी दूर नहीं कर सकता.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘वह शुरू से ही शक्की प्रवृत्ति का था. उस पर मेरी खूबसूरती ने कोढ़ में खाज का काम किया. एकाध बार मैं ने उस के दोस्तों से हंस कर बात क्या कर ली, मानो उस पर बज्रपात हो गया. तभी से किसी न किसी बहाने मुझे टौर्चर करने लगा.’’

मैं कुछ सोच कर बोला, ‘‘तो अब तलाक ले कर रहोगी.’’ वह कुछ बोली नहीं. सिर नीचा कर लिया उस ने. मैं ने उसे सोचने व जवाब देने का मौका दिया.

‘‘अब इस के अलावा कोई चारा नहीं,’’ उस का स्वर अपेक्षाकृत धीमा था.

मैं ने उस की आंखों में वेदना के उमड़ते बादलों को देखा. उस दर्द, पीड़ा का एहसास किया जो प्राय: हर उस स्त्री को होती है. जो न चाहते हुए भी तलाक के लिए मजबूर होती है. जिंदगी जुआ है. यहां चाहने से कुछ नहीं मिलता. कभी मैं सपना की जगह था, आज सपना मेरी जगह है. मैं ने तो अपने को संभाल लिया. क्या सपना खुद को संभाल पाएगी? एक उसांस के साथ सपना को मैं ने बाहर जाने के लिए कहा.

मैं ने सपना के पति को भी बुलाया. देखने में वह सामान्य पुरुष लगा, परंतु जिस तरीके से उस ने सपना के चरित्र पर अनर्गल आरोप लगाए उस से मेरा मन खिन्न हो गया. अंतत: जब वह सपना के साथ सामंजस्य बिठा कर  रहने के लिए राजी नहीं हुआ तो मुझे यही लगा कि दोनों अलग हो जाएं. सिर्फ बच्चे के भरणपोषण को ले कर मामला अटका हुआ था.

मैं ने सपना से पूछा, ‘‘तुम्हें हर माह रुपए चाहिए या एकमुश्त रकम ले कर अलग होना चाहती हो,’’ सपना ने हर माह की हामी भरी.

मैं ने कहा, ‘‘हर माह रुपए आएंगे भी, नहीं भी आएंगे. नहीं  आएंगे तो तुम्हें अदालत की शरण लेनी पड़ेगी. यह हमेशा का लफड़ा है. बेहतर यही होगा कि एकमुश्त रकम ले कर अलग हो जाओ और अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ. तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि संपन्न है. बेहतर है ऐसे आदमी से छुट्टी पाओ.’’ यह मेरी निजी राय थी.

5 लाख रुपए पर मामला निबट गया. अब दोनों के रास्ते अलग थे. सपना के मांबाप मेरी केबिन में आए. आभार व्यक्त करने के लिए उन के पास शब्द नहीं थे. उन के चेहरे से पश्चात्ताप की लकीरें स्पष्ट झलक रही थीं. मैं भी गमगीन था. सपना से अब पता नहीं कब भेंट होगी. उस के भविष्य को ले कर भी मैं उदिग्न था. न चाह कर भी कुछ कहने से खुद को रोक नहीं पाया, ‘‘सपना, तुम ने शादी करने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मेरी जाति, खानदान का अतापता नहीं था. मैं अपने तथाकथित मातापिता का गोद लिया पुत्र था, पर जिस के मातापिता व खानदान का पता था उसे क्यों छोड़ दिया,’’ सब निरुत्तर थे.

सपना के पिता मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर भरे गले से बोले, ‘‘बेटा, मैं ने इंसान को पहचानने में गलती की, इसी का दंड भुगत रहा हूं. मुझे माफ कर दो,’’ उन की आंखों से अविरल अश्रुधार फूट पड़ी.

एक बेटी की पीड़ा का सहज अनुमान लगाया जा सकता था उस बाप के आंसुओं से, जिस ने बड़े लाड़प्यार से पालपोस कर उसे बड़ा किया था, पर अंधविश्वास को क्या कहें, इंसान यहीं हार जाता है. पंडेपुजारियों का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. सपना मेरी आंखों से ओझल हो गई और छोड़ गई एक सवाल, क्या उस के जीवन में भी सुबह होगी?

Short Story: एक रात का सफर- क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Short Story, लेखिका- सोनी किशोर सिंह

बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास.

Social Story: प्यार उसका न हो सका

Social Story, लेखक- किशन लाल शर्मा

‘‘कौन है?’’ दरवाजे पर कई बार दस्तक देने के बाद अंदर से आवाज आई पर अब भी दरवाजा नहीं खिड़की खुली थी.

‘‘मैं, नेहा. दरवाजा खोल,’’ नेहा बोली, ‘‘कब से दरवाजा खटखटा रही हूं.’’

‘‘सौरी,’’ प्रिया नींद से जाग कर उबासी लेते हुए बोली, ‘‘तू और कहीं कमरा तलाश ले.’’

‘‘कमरा तलाश लूं,’’ नेहा ने हैरानी से प्रिया की ओर देखा व बोली, ‘‘कमरा तो तुझे तलाशना है?’’

‘‘अब मुझे नहीं, कमरा तुझे तलाशना है,’’ प्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘मैं ने और कर्ण ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’ नेहा ने आश्चर्य से प्रिया को देखा. उस के माथे की बिंदी और मांग में भरा सिंदूर इस बात के गवाह थे.

‘‘पतिपत्नी के बीच तेरा क्या काम?’’ और इतना कहने के साथ ही प्रिया ने खिड़की बंद कर ली.

नेहा खड़ीखड़ी कभी खिड़की को तो कभी दरवाजे को ताकती रह गई. प्रिया औैर कर्ण के बारे में सोचतेसोचते उस के अतीत के पन्ने खुलने लगे.

नेहा और कर्ण कानपुर में इंजीनियरिंग कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. अंतिम वर्ष की परीक्षाएं चल रही थीं, तभी कालेज कैंपस में प्लेसमैंट के लिए कई कंपनियां आईं. मुंबई की एक कंपनी में नेहा और कर्ण का सलैक्शन हो गया. परीक्षा समाप्त होने के बाद दोनों मुंबई चले गए.

मुंबई में नेहा और कर्ण ने मिल कर एक फ्लैट किराए पर ले लिया और दोनों लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. साथ रहतेरहते दोनों एकदूसरे के करीब आ गए.

एक रात जब कर्ण ने नेहा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा तो वह चौंकते हुए बोली, ‘कर्ण, क्या कर रहे हो?’

‘प्यार… लव…’

‘नहीं,’ नेहा बोली, ‘अभी हमारी शादी नहीं हुई है.’

‘क्या प्यार करने के लिए शादी करना जरूरी है?’

‘हां, हमारे यहां शादी के बाद ही पतिपत्नी को शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत है.’

‘कैसी दकियानूसी बातें करती हो, नेहा. जब शादी के बाद हम सैक्स कर सकते हैं तो पहले क्यों नहीं,’ कर्ण बोला, ‘अगर तुम शादी को जरूरी समझती हो तो वह भी कर लेंगे.’

नेहा शिक्षित और खुले विचारों की थी, लेकिन सैक्स के मामले में उस का मानना था कि शादी के बाद ही शारीरिक संबंध बनाने चाहिए. लेकिन कर्ण ने अपने प्यार का विश्वास दिला कर शादी से पहले ही नेहा को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया.सैक्स का स्वाद चखने के बाद नेहा को भी उस का चसका लग गया. रोज रात को समर्पण करने से तो वह इनकार नहीं करती थी, लेकिन सावधानी जरूर बरतने लगी थी.

शुरू में तो नेहा ने कर्ण से शादी के लिए कहा, लेकिन दिन गुजरने के साथ वह भी सोचने लगी थी कि औरतआदमी दोनों अगर साथ जीवन गुजारने को तैयार हों तो जरूरी नहीं कि समाज को दिखाने के लिए शादी के बंधन में बंधें. बिना शादी के भी वे पतिपत्नी बन कर रह सकते हैं.

नेहा को कर्ण के प्यार पर पूरा विश्वास था इसीलिए उस ने शादी का जिक्र तक करना छोड़ दिया था और उसे शादी का खयाल आता भी नहीं अगर उन के बीच प्रिया न आती.

प्रिया पिछले दिनों ही उन की कंपनी में नई नई आई थी. वह दिल्ली की रहने वाली थी. मुंबई में उस का कोई परिचित नहीं था. जब तक प्रिया को कहीं कमरा नहीं मिल जाता तब तक के लिए कर्ण और नेहा ने उसे अपने साथ फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी.

प्रिया नेहा से ज्यादा सुंदर और तेजतर्रार थी. कर्ण प्रिया की सुंदरता और उस की मनमोहक बातों से इतना प्रभावित हुआ कि वह उस में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा.

जिस कर्ण को नेहा सब से ज्यादा सुंदर नजर आती थी, वही कर्ण अब प्रिया के पीछे घर में ही नहीं औफिस में भी लट्टू था.

नेहा ने कई बार कर्र्ण को रोका, लेकिन कर्ण ने उस की बातों पर ध्यान नहीं दिया. नेहा समझ गई कि अगर जल्दी कर्ण को शादी के बंधन में नहीं बांधा गया तो वह हाथ से निकल जाएगा.

नेहा शादी के बारे में अपनी मां से बात करने एक सप्ताह की छुट्टी ले कर कानपुर चली गई. उस ने मां से कुछ नहीं छिपाया. मां ने उसे डांटते हुए कहा, ‘देर मत कर, उस से शादी कर ले.’

लेकिन नेहा आ कर कर्ण से शादी करती उस से पहले ही प्रिया ने उसे अपना बना लिया था.

कर्ण पर विश्वास कर के नेहा शादी से पहले अपना सबकुछ कर्ण को समर्पित कर चुकी थी और समर्पण कर के वह बुरी तरह ठगी जा चुकी थी. अपना सबकुछ लुटा कर भी नेहा कर्ण को अपना नहीं बना पाई.

Social Story: दीया और सुमि

Social Story: “अरे दीया, चलो मुसकरा भी दो अब. इस दुनिया की सारी समस्याएं केवल तुम्हारी तो नहीं हैं,” सुमि ने कहा तो यह लाजवाब बात सुन कर दीया हंस दी और उस ने सुमि के गाल पर एक मीठी सी चपत भी लगा दी.

“अरे सुनो, हां, तो यह चाय कह रही है कि गरमगरम सुड़क लो ठंडी हो जाऊंगी तो चाय नहीं रहूंगी,” सुमि ने कहा.

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने कप हाथों में थामा और होंठों तक ले आई. सुमि के हाथ की गरम चाय घूंटघूंट पी कर मन सचमुच बागबाग हो गया उस का.

“चलो, अब मैं जरा हमारे दिसु बाबा को बाहर सैर करा लाती हूं. तुम अपना मन हलका करो और यह संगीत सुनो,” कह कर सुमि ने 80 के दशक के गीत लगा दिए और बेबी को ले कर बाहर निकल गई.

दीया ने दिसु के बाहर जाने से पहले उसे खूब प्यार किया…’10 महीने का दिसु कितना प्यारा है. इस को देख कर लगता है कि यह जीवन, यह संसार कितना सुंदर है,’ दीया ने मन ही मन सोचा और खयालों में डूबती चली गई.

यादों के सागर में दीया को याद आया 2 साल पहले वाला वह समय, जब मेकअप रूम में वह सुमि से टकरा गई थी. दीया तैयार हो रही थी और सुमि क्लब के मैनेजर से बहस करतेकरते मेकअप रूम तक आ गई थी. वह मैनेजर दीया को भी कुछ डांस शो देता था, पर दीया तो उस से भयंकर नफरत करती थी. दीया का मन होता कि उस के मुंह पर थूक दे, क्योंकि उस ने दीया को नशीली चीजें पिला कर जाने कितना बरबाद कर डाला था. आज वह मैनेजर सुमि को गालियां दे रहा था.

आखिरकार सुमि को हां करनी पड़ी, “हांहां, इसी बदन दिखाती ड्रैस को पहन कर नाच लूंगी.”

यह सुन कर वह धूर्त मैनेजर संतुष्ट हो कर वहां से तुरंत चला गया और जातेजाते बोलता रहा, “जल्दी तैयार हो जाना.”

“क्या तैयार होना है, यह रूमाल ही तो लपेटना है…” कह कर जब सुमि सुबक रही थी, तब दीया ने उसे खूब दिलासा दिया और कहा, “सुनो, मैं आप का नाम तो नहीं जानती, पर यही सच है कि हम को पेट भरना है और
उस कपटी मैनैजर को पैसा कमाना है. जानती हो न इस पूरी धरती की क्या बिसात, वहां स्वर्ग में भी यह दौलत ही सब से बड़ी चीज है.”

इस तरह माहौल हलका हुआ. सुमि ने अपना नाम बताया, तब उन दोनों ने एकदूसरे के मन को पढ़ा. कुछ बातें भी हुईं और उस रात क्लब में नाचने के बाद अगले दिन सुबह 10 बजे मिलने का वादा किया.

आधी रात तक खूबसूरत जवान लड़कियों से कमर मटका कर और जाम पर जाम छलका कर उन के मालिक, मैनेजर या आयोजक सब दोपहर बाद तक बेसुध ही रहने वाले थे. वे दोनों एक पार्क में मिलीं और बैंच पर बैठ गईं. दोनों कुछ पल खामोश रहीं और सुमि ने बात शुरू की थी, फिर तो एकदूसरे के शहर, कसबे, गांव, घरपरिवार और घुटन भरी जिंदगी की कितनी बातें एक के बाद एक निकल पड़ीं और लंबी सांस ले कर सुमि बोली, “कमाल है न कि यह समय भी कैसा खेल दिखाता है. जिन को हम ने अपना समझ कर अपनी हर समस्या साझा कर ली, वे ही दोस्त से देह के धंधेबाज बन गए, वह भी हमारी देह के.”

“हां सुमि, तुम सही कह रही हो. कल रात तुम को देखा तो लगा कि हम दोनों के सीने में शायद एकजैसा दर्द है,” कहते हुए दीया ने गहरी सांस ली. आज कितने दिनों के बाद वे दोनों दिल की बात कहसुन रही थीं.

सुमि को तब दीया ने बताया कि रामपुर में उस का पंडित परिवार किस तरह बस पूजा और अनुष्ठान के भरोसे ही चल रहा था, पर सारी दुनिया को कायदा सिखा रहे उस घर में तनिक भी मर्यादा नहीं थी. उस की मां को उस के सगे चाचा की गोद में नींद आती और पिता से तीसरेचौथे दिन शराब के बगैर सांस भी न ली जाती.

“तो तुम कुछ कहती नहीं थी?” सुमि ने पूछा.

“नहीं सुमि, मैं बहुत सांवली थी और हमारे परिवार मे सांवली लड़की किसी मुसीबत से कम नहीं होती, तो मैं घर पर कम रहती थी.”

“तुम कहां रहती थी?”

“सुमि, मैं न बहुत डरपोक थी और जब भी जरा फुरसत होती तो सेवा करने चली जाती. कभी कहीं किसी के बच्चों को पढ़ा देती तो किसी के कुत्तेबिल्ली की देखभाल करती बड़ी हो गई तो किसी की रसोई तक संभाल देती पर यह बात भीतर तक चुभ जाती कि कितनी सांवली है, इस को कोई पसंद नहीं करेगा,” दीया तब लगातार बोलती रही थी.

सुमि कितने गौर से सुन रही थी. अब वह एक सहेली पा कर उन यादों के अलबम पलटने लगी.

दीया बोलने लगी, “एक लड़का मेरा दोस्त बन गया. उस ने कभी नहीं कहा कि तुम सांवली हो और जब जरूरत होती वह खास सब्जैक्ट की किताबें और नोट्स आगे रखे हुए मुझे निहारता रहता.

“इस तरह मैं स्कूल से कालेज आई तो अलगअलग तरह की नईनई बातें सीख गई. मेरे कसबे के दोस्तों ने बताया था कि अगर कोई लड़का तुम से बारबार मिलना चाहे तो यही रूप सच्चे मददगार का भी रूप है और मैं ने आसानी से इस बात पर विश्वास कर लिया था.”

एक दिन इसी तरह कोई मुश्किल सब्जैक्ट समझाते हुए उस लड़के के एकाध बाल उलझ कर माथे पर आ गए थे तो दीया का मन महक गया. उस के चेहरे पर हलकीहलकी उमंग उठी थी.

हालांकि दीया की उम्र 20 साल से ज्यादा नहीं थी, पर उस के दिल पर एक स्थायी चाहत थी, जिस का रास्ता बारबार उसी अपने और करीबी से लगने वाले मददगार लड़के के पास जाता दिखाई देता था.

दीया कालेज में पढ़ने वाले उस लड़के का कोई इतिहासभूगोल जानती नहीं थी और जानना भी नहीं चाहती थी. सच्चा प्यार तो हमेशा ईमानदार होता है, वह सोचती थी. एक दिन वह अपने घर से रकम और गहने ले कर चुपचाप
रवाना हो गई. वह बेफिक्र थी, क्योंकि पूरे रास्ते उस का फरिश्ता उस को गोदी मे संभाले उस के साथ ही तो था और बहुत करीब भी था.

दीया उस लड़के के साथ बिलकुल निश्चिंत थी, क्योंकि उस को जब भी अपने मददगार यार के चेहरे पर मुसकराहट दिखाई देती थी, वह यही मान लेती थी कि भविष्य सुरक्षित है, जीवन बिलकुल मजेदार होने वाला है. आने वाले दिन तो और भी रसीले और चमकदार होंगे.

मगर दीया कहां जानती थी कि वे कोरे सपने थे, जो टूटने वाले थे. यह चांदनी 4-5 दिन में ही ढलने लगी. एक दिन वह लड़का अचानक उठ कर कहीं चला गया. दीया ने उस का इंतजार किया, पर वह लौटा नहीं, कभी नहीं.

उस के बाद दीया की जिंदगी बदल गई. वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस जो उसे यहांवहां नाचने के लिए मजबूर किया गया. इतना ही नहीं उस को धमकी मिलती कि तुम्हारी फिल्म बना कर रिलीज कर देंगे, फिर किसी कुएं या पोखर मे कूद जाना.

दीया को कुछ ऐसा खिलाया या पिलाया जाता कि वह सुबह खुद को किसी के बैडरूम में पाती और छटपटा जाती. कई दिनों तक यों ही शहरशहर एक अनाचारी से दूसरे दुराचारी के पलंग मे कुटने और पिसने के बाद वह सुमि से मिल गई.

सुमि ने दीया को पानी की बोतल थमा दी और बताया, “मैं खुद भी अपने मातापिता के मतभेद के बीच यों ही पिसती रही जैसे चक्की के 2 पाटों में गेहूं पिस जाता है. मां को आराम पसंद था पिता को सैरसपाटा और लापरवाही भरा जीवन. घर पर बस नौकर रहते थे. हमारे दादा के बगीचे थे. पूरे साल रुपया ही बरसता रहता था. अमरूद, आम से ले कर अंगूर, अनार के बगीचे.”

“अच्छा तो इतने पैसे मिलते थे…” दीया ने हैरानी से कहा.

“हां दीया, और मेरी मां बस बेफिक्र हो कर अपने ही आलस में रहती थी. पिता के बाहर न जाने कितने अफेयर चल रहे थे. वे बाजारू औरतों पर दौलत लुटा रहे थे, पर मां मस्तमगन रहती. इस कमजोरी के तो नौकर भी खूब मजे लेते. वे मां को सजधज कर तैयार हो कर बाहर सैरसपाटा करने में मदद करते और घर पर पिता को महंगी शराब के पैग पर पैग बना कर देते.

“मां और पिता दोनों से नौकरों को खूब बख्शीश मिलती और उन की मौज ही मौज होती, लेकिन जब भी मातापिता एक दूसरे के सामने पड़ते तो कुछ पल बाद ही उन दोनों में भयंकर बहस शुरू हो जाती, कभी रुपएपैसे के हिसाब को ले कर तो कभी मुझे ले कर कि मैं किस की जिम्मेदारी हूं.

“मेरा अकेला उदास मन मेरे हमउम्र पडो़सी मदन पर आ गया था. वह हर रोज मेरी बातें सुनता, मुझे पिक्चर दिखा लाता और पढ़ाई में मेरी मदद करता. कालेज में तो मेरा एक ही सहारा था और वह था मदन.

“पर एक दिन वह मेरे घर आया और शाम को तैयार रहना कह कर मुझे एक पार्टी में ले गया जहां मुझे होश आया तो सुबह के 5 बज रहे थे. मेरे अगलबगल 2 लड़के थे, मगर मदन का कोई अतापता ही नहीं था.

“मैं समझ गई थी कि मेरे साथ क्या हुआ है. मैं वहां से भागना चाहती थी, पर मुझे किसी ने बाल पकड़ कर रोक दिया और कहा कि कार में बैठो. वे लोग मुझे किसी दूसरे शहर ले गए और शाम को एक महफिल में सजधज कर शामिल होने को कहा.

“वह किसी बड़े आदमी की दावत थी. मैं अपने मातापिता से बात करने को बेचैन थी, मगर मुझे वहां कोई गोली खिला दी गई और मेरा खुद पर कोई कंट्रोल न रहा. फिर मेरी हर शाम नाचने में ही गुजरने लगी.”

“ओह, सुमि,” कह कर दीया ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. आज 2 अजनबी मिले, पर अनजान होते हुए भी कई बातें समान थीं. उन की सरलता का फायदा उठाया गया था.

“देखो सुमि, हमारे फैसले और प्राथमिकता कैसे भी हों, वे होते तो हमारे ही हैं फिर उन के कारण यह दिनचर्या कितनी भी हताशनिराश करने वाली हो, दुविधा कितना भी हैरान करे, हम सब के पास 1-2 रास्ते तो हर हाल ही में रहते ही हैं और चुनते समय हम उन में से भी सब से बेहतरीन ही चुनते हैं, पर जब नाकाम हो जाते है, तो खुद को भरम में रखते हुए कहते हैं कि और कोई रास्ता ही नही था. इस से नजात पाए बिना दोबारा रास्ता तलाशना बेमानी है,” कह कर दीया चुप हो गई थी.

अब सुमि कहने लगी, “हमारे साथ एक बात तो है कि हम ने भरोसा किया और धोखा खाया, पर आज इस बुरे वक्त में हम दोनों अब अकेले नहीं रहेंगे. हम एकदूसरे की मदद के लिए खड़े हैं.”

“हां, मैं तैयार हूं,” कह कर दीया ने योजना बनानी शुरू की. तय हुआ कि 2 दिन बाद अपना कुछ रुपया ले कर रेल पकड़ कर निकल जाएंगी. उस के बाद जो होगा देखा जाएगा, अभी इस नरक से तो निकल लें.

यह बहुत अच्छा विचार था. 2 दिन बाद इस पर अमल किया. सबकुछ आराम से हो गया. वे दोनों चंडीगढ़ आ गईं. वहां उन्होंने एक बच्चा गोद लिया.

दीया यही सोच रही थी कि कुछ आवाज सी हुई. सुमि और दिसु लौट आए थे.

सुमि ने दीया की गीली आंखें देखीं और बोली, “ओह दीया, यह अतीत में डूबनाउतरना क्या होता है, क्यों होता है, किसलिए होता है, मैं नहीं जानती, क्योंकि मैं गुजरे समय के तिलिस्म में कभी पड़ी ही नहीं. मैं वर्तमान में जीना पसंद करती हूं. बीते समय और भविष्य की चिंता में वे लोग डूबे रहते हैं, जिन के पास डूबने का और कोई साधन नहीं होता…”

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने सुमि को अपने गले लगा लिया.

Hindi Story: हीरो – क्या समय रहते खतरे से बाहर निकल पाई वह?

Hindi Story: बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही मूसलाधार बारिश शुरू हो गई थी. अपने घर की बालकनी में बैठी चाय की चुसकियों के साथ बारिश की बौछारों का मैं आनंद लेने लगी. आंखें अनायास ही सड़क पर तितरबितर होते भीड़ के रैले में किसी को तलाशने लगीं लेकिन उसे वहां न पा कर उदास हो गईं. आज ये फुहारें कितनी सुहानी लग रही हैं, जबकि यही गड़गड़ाहट, आसमान में चमकती बिजली की आंखमिचौली उस दिन कितना कहर बरपाती प्रतीत हो रही थी. समय और स्थान परिवर्तन के साथसाथ एक ही परिदृश्य के माने कितने बदल जाते हैं.

2 बरस पूर्व की यादें अभी भी जेहन में आते ही शरीर में झुरझुरी सी होने लगती है और इस के साथ ही आंखों के सामने उभर आता है एक रेखाचित्र, ‘हीरो’ का, जिस की मधुर स्मृति अनायास ही चेहरे पर मुसकान ला देती है.

उस दिन औफिस से निकलने में मुझे कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी. काफी अंधेरा घिर आया था. स्ट्रीट लाइट्स जल चुकी थीं. मैं ने घड़ी देखी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 तो बज ही जाएंगे. मां चिंता करेंगी, सोच कर लिफ्ट से उतरते ही मैं ने मां को फोन लगा दिया.

‘हां, कहां तक पहुंची? आज तो बहुत तेज बारिश हो रही है. संभल कर आना,’ मां की चिंता उन की आवाज से साफ जाहिर हो रही थी.

‘बस, निकल गई हूं. अभी कैब पकड़ कर सीधे घर पहुंचती हूं और फिर मुंबई की बारिश से क्या घबराना, मां? हर साल ऐसे ही तो होती है. मेहमान और मुंबई की बारिश का कोई ठिकाना नहीं. कब, कहां टपक जाए कोई नहीं बता सकता,’ मैं बड़ी बेफिक्री से बोली.

‘अरे, आज साधारण बारिश नहीं है. पिछले 10 घंटे से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश थमने या धीमे होने का नाम नहीं ले रही है. हैलो…हैलो…’ मां बोलती रह गईं.

मैं भी देर तक हैलो… हैलो… करती बिल्डिंग से बाहर आ गई थी. सिगनल जो उस वक्त आने बंद हुए तो फिर जुड़ ही नहीं पाए थे. बाहर का नजारा देख मैं अवाक रह गई थी. सड़कें स्विमिंग पूल में तबदील हो चुकी थीं. दूरदूर तक कैब क्या किसी भी चलती गाड़ी का नामोनिशान तक न था. घुटनों तक पानी में डूबे लोग अफरातफरी में इधरउधर जाते नजर आ रहे थे. महानगरीय जिंदगी में एक तो वैसे ही किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं होता और उस पर ऐसा तूफानी मंजर… हर किसी को बस घर पहुंचने की जल्दी मची थी.

अपने औफिस की पूर्णतया वातानुकूलित इमारत जिस पर हमेशा से मुझे गर्व रहा है, पहली बार रोष उमड़ पड़ा. ऐसी भी क्या वातानुकूलित इमारत जो बाकी दीनदुनिया से आप का संपर्क ही काट दे. अंदर हमेशा एक सा मौसम, बाहर भले ही पतझड़ गुजर कर बसंत छा जाए. खैर, अपनी दार्शनिकता को ठेंगा दिखाते हुए मैं तेज कदमों से सड़क पर आ गई और इधरउधर टैक्सी के लिए नजरें दौड़ाने लगी. लेकिन वहां पानी के अति बहाव के कारण वाहनों का रेला ही थम गया था. वहां टैक्सी की खोज करना बेहद मूर्खतापूर्ण लग रहा था. कुछ अधडूबी कारें मंजर को और भी भयावह बना रही थीं. मैं ने भैया से संपर्क साधने के लिए एक बार और मोबाइल फोन का सहारा लेना चाहा, लेकिन सिगनल के अभाव में वह मात्र एक खिलौना रह गया था. शायद आगे पानी इतना गहरा न हो, यह सोच कर मैं ने बैग गले से कमर में टांगा और पानी में उतर पड़ी. कुछ कदम चलने पर ही मुझे सैंडल असुविधाजनक लगने लगे. उन्हें उतार कर मैं ने बैग में डाला.

आगे चलते लोगों का अनुसरण करते हुए मैं सहमसहम कर कदम बढ़ाने लगी. कहीं किसी गड्ढे या नाले में पांव न पड़ जाए, मैं न जाने कितनी देर चलती रही और कहां पहुंच गई, मुझे कुछ होश नहीं था. लोकल ट्रेन में आनेजाने के कारण मैं सड़क मार्गों से नितांत अपरिचित थी. आगे चलने वाले राहगीर भी जाने कब इधरउधर हो गए थे मुझे कुछ मालूम नहीं. मुझे चक्कर आने लगे थे. सारे कपड़े पूरी तरह भीग कर शरीर से चिपक गए थे. ठंड भी लग रही थी. अर्धबेहोशी की सी हालत में मैं कहीं बैठने की जगह तलाश करने लगी तभी जोर से बिजली कड़की और आसपास की बत्तियां गुल हो गईं. मेरी दबी सी चीख निकल गई.

फुटपाथ पर बने एक इलैक्ट्रिक पोल के स्टैंड पर मैं सहारा ले कर बैठ गई. आंखें स्वत: ही मुंद गईं. किसी ने झटके से मुझे खींचा तो मैं चीख मार कर उठ खड़ी हुई. ‘छोड़ो मुझे, छोड़ो,’ दहशत के मारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. अंधेरे में आंखें चौड़ी कर देखने का प्रयास करने पर मैं ने पाया कि एक युवक ने मेरी बांह पकड़ रखी थी. ‘करेंट खा कर मरना है क्या?’  कहते हुए उस ने मेरी बांह छोड़ दी. वस्तुस्थिति समझ कर मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी उभर आई. फिर तुरंत ही अपनी असहाय अवस्था का बोझ मुझ पर हावी हो गया. ‘प्लीज, मुझे मेरे घर पहुंचा दीजिए. मैं पिछले 3 घंटे से भटक रही हूं.’

‘और मैं 5 घंटे से,’ उस ने बिना किसी सहानुभूति के सपाट सा उत्तर दिया.

‘ओह, फिर अब क्या होगा? मुझ से तो एक कदम भी नहीं चला जा रहा. मैं यहीं बैठ कर किसी मदद के आने का इंतजार करती हूं,’ मैं खंभे से थोड़ा हट कर बैठ गई.

‘मदद आती नहीं, तलाश की जाती है.’

‘पर आगे कहीं बैठने की जगह भी न मिली तो?’ मैं किसी भी हाल में उठने को तैयार न थी.

‘ऐसी सोच के साथ तो सारी जिंदगी यहीं बैठी रह जाओगी.’

मेरी आंखें डबडबा आई थीं. शायद इतनी देर बाद किसी को अपने साथ पा कर दिल हमदर्दी पाने को मचल उठा था. पर वह शख्स तो किसी और ही मिट्टी का बना था.

‘आप को क्या लगता है कि मैं किसी फिल्मी हीरो की तरह आप को गोद में उठा कर इस पानी में से निकाल ले जाऊंगा? पिछले 5 घंटे से बरसते पानी में पैदल चलचल कर मेरी अपनी सांस फूल चुकी है. चलना है तो आगे चलो, वरना मरो यहीं पर.’

उस के सख्त रवैए से मैं सहम गई थी. डरतेडरते उस के पीछे फिर से चलने लगी. तभी मेरा पांव लड़खड़ाया. मैं गिरने ही वाली थी कि उस ने अपनी मजबूत बांहों से मुझे थाम लिया.

‘तुम आगे चलो. पीछे गिरगिरा कर बह गई तो मुझे पता भी नहीं चलेगा,’ आवाज की सख्ती थोड़ी कम हो गई थी और अनजाने ही वह आप से तुम पर आ गया था, पर मुझे अच्छा लगा. अपने साथ किसी को पा कर मेरी हिम्मत लौट आई थी. मैं दूने उत्साह से आगे बढ़ने लगी. तभी बिजली लौट आई. मेरे दिमाग में बिजली कौंधी, ‘आप के पास मोबाइल होगा न?’

‘हां, है.’

‘तो मुझे दीजिए प्लीज, मैं घर फोन कर के भैया को बुला लेती हूं.’

‘मैडम, आप को शायद स्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं है. इस क्षेत्र की संचारव्यवस्था ठप हो गईर् है. सिगनल नहीं आ रहे हैं. पूरे इलाके में पानी भर जाने के कारण वाहनों का आवागमन भी रोक दिया गया है. हमारे परिजन चाह कर भी यहां तक नहीं आ सकते और न हम से संपर्क साध सकते हैं. स्थिति बदतर हो इस से पूर्व हमें ही किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचना होगा.’

‘लेकिन कैसे?’ मुझे एक बार फिर चारों ओर से निराशा ने घेर लिया था. बचने की कोईर् उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. लग रहा था आज यहीं हमारी जलसमाधि बन जाएगी. मुझे अपने हाथपांव शिथिल होते महसूस होने लगे. याद आया लंच के बाद से मैं ने कुछ खाया भी नहीं है. ‘मुझे तो बहुत जोर की भूख भी लग रही है. लंच के बाद से ही कुछ नहीं खाया है,’ बोलतेबोलते मेरा स्वर रोंआसा हो गया था.

‘अच्छा, मैं तो बराबर कुछ न कुछ उड़ा रहा हूं. कभी पावभाजी, कभी भेलपुरी, कभी बटाटाबड़ा… मुझे समझ नहीं आता तुम लड़कियां बारबार खुद को इतना निरीह साबित करने पर क्यों आमादा हो जाती हो? तुम्हें क्या लगता है मैं अभी सुपरहीरो की तरह उड़ कर जाऊंगा और पलक झपकते तुम्हारे लिए गरमागरम बटाटाबड़ा ले कर हाजिर हो जाऊंगा. फिर हम यहां पानी के बीच गरमागरम बड़े खाते हुए पिकनिक का लुत्फ उठाएंगे.’

‘जी नहीं, मैं ऐसी किसी काल्पनिकता में नहीं जी रही हूं. बटाटाबड़ा तो क्या, मुझे आप से सूखी रोटी की भी उम्मीद नहीं है.’ गुस्से में हाथपांव मारती मैं और भी तेजतेज चलने लगी. काफी आगे निकल जाने पर ही मेरी गति थोड़ी धीमी हुई. मैं चुपके से टोह लेने लगी, वह मेरे पीछे आ भी रहा है या नहीं?

‘मैं पीछे ही हूं. तुम चुपचाप चलती रहो और कृपया इसी गति से कदम बढ़ाती रहो.’

उस के व्यंग्य से मेरा गुस्सा और बढ़ गया. अब तो चाहे यहीं पानी में समाधि बन जाए, पर इस से किसी मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगी. मेरी धीमी हुई गति ने फिर से रफ्तार पकड़ ली थी. अपनी सामर्थ्य पर खुद मुझे आश्चर्य हो रहा था. औफिस से आ कर सीधे बिस्तर पर ढेर हो जाने वाली मैं कैसे पिछले 7-8 घंटे से बिना कुछ खाएपीए चलती जा रही हूं, वह भी घुटनों से ऊपर चढ़ चुके पानी में. शरीर से चिपकते पौलीथीन, कचरा और खाली बोतलें मन में लिजलिजा सा एहसास उत्पन्न कर रहे थे. आज वाकई पर्यावरण को साफ रखने की आवश्यकता महसूस हो रही थी. यदि पौलीथीन से नाले न भर जाते तो सड़कों पर इस तरह पानी नहीं भरता. पानी भरने की सोच के साथ मुझे एहसास हुआ कि सड़क पर पानी का स्तर काफी कम हो गया है.

‘वाह,’ मेरे मुंह से खुशी की चीख निकल गई. वाकई यहां पानी का स्तर घुटनों से भी नीचा था. तभी एक बड़े से पत्थर से मेरा पांव टकरा गया. ‘ओह,’ मैं जोर से चिल्ला कर लड़खड़ाई. पीछे आ रहे युवक ने आगे आ कर एक बार फिर मुझे संभाल लिया. अब वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे चलाने लगा क्योंकि मेरे पांव से खून बहने लगा था और मैं लंगड़ा रही थी. पानी में बहती खून की धार देख कर मैं दहशत के मारे बेहोश सी होने लगी थी कि उस युवक के उत्साहित स्वर से मेरी चेतना लौटी, ‘वह देखो, सामने बरिस्ता होटल. वहां काफी चहलपहल है. उधर इतना पानी भी नहीं है.

हम वहां से जरूर फोन कर सकेंगे. हमारे घर वाले आ कर तुरंत हमें ले जाएंगे. देखो, मंजिल के इतने करीब पहुंच कर हिम्मत नहीं हारते. आंखें खोलो, देखो, मुझे तो गरमागरम बड़ापाव की खुशबू भी आ रही है.’

मैं ने जबरदस्ती आंखें खोलने का प्रयास किया. बस, इतना ही देख सकी कि वह साथी युवक मुझे लगभग घसीटता हुआ उस चहलपहल की ओर ले चला था. कुछ लोग उस की सहायतार्थ दौड़ पड़े थे. इस के बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा. चक्कर और थकान के मारे मैं बेहोश हो गई थी. होश आया तो देखा एक आदमी चम्मच से मेरे मुंह में कुनकुनी चाय डाल रहा था और मेरा साथी युवक फोन पर जोरजोर से किसी को अपनी लोकेशन बता रहा था. मैं उठ कर बैठ गई. चाय का गिलास मैं ने हाथों में थाम लिया और धीरेधीरे पीने लगी. किसी ने मुझे 2 बिस्कुट भी पकड़ा दिए थे, जिन्हें खा कर मेरी जान में जान आई.

‘तुम भी घर वालों से बात कर लो.’

मैं ने भैया को फोन लगाया तो पता चला वे जीजाजी के संग वहीं कहीं आसपास ही मुझे खोज रहे थे. तुरंत वे मुझे लेने निकल पड़े. रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन आसपास मौजूद भीड़ की आंखों में नींद का नामोनिशान न था. हर किसी की जबान पर प्रकृति के इस अनोखे तांडव की ही चर्चा थी.

‘मेरा साला मुझे लेने आ रहा है. तुम्हें कहां छोड़ना है बता दो… लो, वे आ गए.’अपनी गर्भवती पत्नी को भी गाड़ी से उतरते देख वह हैरत में पड़ गया, ‘अरे, तुम ऐसे में बाहर क्यों निकली? वह भी ऐसे मौसम में?’ बिना कोईर् जवाब दिए उस की पत्नी उस से बुरी तरह लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. वह उसे धीरज बंधाने लगा. मेरी भी आंखें भर आईं. पत्नी को अलग कर वह मुझ से मुखातिब हुआ, ‘पहली बार कोई हैल्प औफर कर रहा हूं. चलो, हम छोड़ देंगे.’

‘नहीं, थैंक्स, भैया और जीजाजी बस आ ही रहे हैं. लो, वे भी आ गए.’

‘अच्छा बाय,’ वह चला गया.

हम ने न एकदूसरे का नाम पूछा, न पता. उस की स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए मैं ने उसे एक नाम दे दिया है, ‘हीरो’  वास्तविक हीरो की तरह बिना कोई हैरतअंगेज करतब दिखाए यदि कोई मुझे उस दिन मौत के दरिया से बाहर ला सकता था तो वही एक हीरो. उस समय तो मुझे उस पर गुस्सा आया ही था कि कैसा रफ आदमी है, लेकिन आज मैं आसानी से समझ सकती हूं उस का मुझे खिझाना, आक्रोशित करना, एक सोचीसमझी चालाकी के तहत था ताकि मैं उत्तेजित हो कर तेजतेज कदम बढ़ाऊं और समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल जाऊं. सड़क पर रेंगते अनजान चेहरों के काफिले में आज भी मेरी नजरें उसी ‘हीरो’ को तलाश रही हैं.

Romantic Story: कुछ कहना था तुम से

Romantic Story, Writer- Minu Vishwas

वैदेही का मन बहुत अशांत हो उठा था. अचानक 10 साल बाद सौरव का ईमेल पढ़ बहुत बेचैनी महसूस कर रही थी. वह न चाहते हुए भी सौरव के बारे में सोचने को मजबूर हो गई कि क्यों मुझे बिना कुछ कहे छोड़ गया था? कहता था कि तुम्हारे लिए चांदतारे तो नहीं ला सकता पर अपनी जान दे सकता है पर वह भी नहीं कर सकता, क्योंकि मेरी जान तुम में बसी है. वैदेही हंस कर कहती थी कि कितने झूठे हो तुम… डरपोक कहीं के. आज भी इस बात को सोच कर वैदेही के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई थी पर दूसरे ही क्षण गुस्से के भाव से पूरा चेहरा लाल हो गया था. फिर वही सवाल कि क्यों वह मुझे छोड़ गया था? आज क्यों याद कर मुझे ईमेल किया है?

वैदेही ने मेल खोल पढ़ा. सौरव ने केवल 2 लाइनें लिखी थीं, ‘‘आई एम कमिंग टू सिंगापुर टुमारो, प्लीज कम ऐंड सी मी… विल अपडेट यू द टाइम. गिव मी योर नंबर विल कौल यू.’’

यह पढ़ बेचैन थी. सोच रही थी कि नंबर दे या नहीं. क्या इतने सालों बाद मिलना ठीक रहेगा? इन 10 सालों में क्यों कभी उस ने मुझ से मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की? कभी मेरा हालचाल भी नहीं पूछा. मैं मर गई हूं या जिंदा हूं… कुछ भी तो जानने की कोशिश नहीं की. फिर क्यों वापस आया है? सवाल तो कई थे पर जवाब एक भी नहीं था.

जाने क्या सोच कर अपना नंबर लिख भेजा. फिर आराम से कुरसी पर बैठ कर सौरव से हुई पहली मुलाकात के बारे में सोचने लगी…

10 साल पहले ‘फोरम द शौपिंग मौल’ के सामने और्चर्ड रोड पर एक ऐक्सीडैंट में वैदेही सड़क पर पड़ी थी. कोई कार से टक्कर मार गया था. ट्रैफिक जाम हो गया था. कोई मदद के लिए सामने नहीं आ रहा था. किसी सिंगापोरियन ने हैल्पलाइन में फोन कर सूचना दे दी थी कि फलां रोड पर ऐक्सीडैंट हो गया है, ऐंबुलैंस नीडेड.

वैदेही के पैरों से खून तेजी से बह रहा था. वह रोड पर हैल्प… हैल्प चिल्ला रही थी, पर कोई मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था. उसी ट्रैफिक जाम में सौरव भी फंसा था. न जाने क्या सोच वह मदद के लिए आगे आया और फिर वैदेही को अपनी ब्रैंड न्यू स्पोर्ट्स कार में हौस्पिटल ले गया.

वैदेही हलकी बेहोशी में थी. सौरव का उसे अपनी गोद में उठा कर कार तक ले जाना ही याद था. उस के बाद तो वह पूरी बेहोश हो गई थी. पर आज भी उस की वह लैमन यलो टीशर्ट उसे अच्छी तरह याद थी. वैदेही की मदद करने के ऐवज में उसे कितने ही चक्कर पुलिस के काटने पड़े थे. विदेश के अपने पचड़े हैं. कोई किसी

की मदद नहीं करता खासकर प्रवासियों की. फिर भी एक भारतीय होने का फर्ज निभाया था. यही बात तो दिल को छू गई थी उस की. कुछ अजीब और पागल सा था. जब जो उस के मन में आता था कर लिया करता था. 4 घंटे बाद जब वैदेही होश में आई थी तब भी वह उस के सिरहाने ही बैठा था. ऐक्सीडैंट में वैदेही की एक टांग में फ्रैक्चर हो गया था, मोबाइल भी टूट गया था. सौरव उस के होश में आने का इंतजार कर रहा था ताकि उस से किसी अपने का नंबर ले इन्फौर्म कर सके.

होश में आने पर वैदेही ने ही उसे अच्छी तरह पहली बार देखा था. देखने में कुछ खास तो नहीं था पर फिर भी कुछ तो अलग बात थी.

कुछ सवाल करती उस से पहले ही उस ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप होश में आ गईं वरना तो आप के साथ मुझे भी हौस्पिटल में रात काटनी पड़ती. खैर, आई एम सौरव.’’

सौरव के तेवर देख वैदेही ने उसे थैंक्यू नहीं कहा.

वैदेही से उस ने परिवार के किसी मैंबर का नंबर मांगा. मां का फोन नंबर देने पर सौरव ने अपने फोन से उन का नंबर मिला कर उन्हें वैदेही के विषय में सारी जानकारी दे दी. फिर हौस्पिटल से चला गया. न बाय बोला न कुछ. अत: वैदेही ने मन ही मन उस का नाम खड़ूस रख दिया.

उस मुलाकात के बाद तो मिलने की उम्मीद भी नहीं थी. न उस ने वैदेही का नंबर लिया था न ही वैदेही ने उस का. उस के जाते ही वैदेही की मां और बाबा हौस्पिटल आ पहुंचे थे. वैदेही ने मां और बाबा को ऐक्सीडैंट का सारा ब्योरा दिया और बताया कैसे सौरव ने उस की मदद की.

2 दिन हौस्पिटल में ही बीते थे.

ऐसी तो पहली मुलाकात थी वैदेही और सौरव की. कितनी अजीब सी… वैदेही सोचसोच मुसकरा रही थी. सोच तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. सौरव के ईमेल ने वैदेही के पुराने सारे मीठे और दर्द भरे पलों को हरा कर दिया था.

ऐक्सीडैंट के बाद पंद्रह दिन का बैडरेस्ट लेने को कहा गया

था. नईनई नौकरी भी जौइन की थी तब वैदेही ने. घर पहुंच वैदेही ने सोचा औफिस में इन्फौर्म कर दे. मोबाइल खोज रही थी तभी याद आया मोबाइल तो हौस्पिटल में सौरव के हाथ में था और शायद अफरातफरी में उस ने उसे लौटाया नहीं था. पर इन्फौर्म तो कर ही सकता था. उफ, सारे कौंटैक्ट नंबर्स भी गए. वैदेही चिल्ला उठी थी. तब अचानक याद आया कि उस ने अपने फोन से मां को फोन किया था. मां के मोबाइल में कौल्स चैक की तो नंबर मिल गया.

तुरंत नंबर मिला अपना इंट्रोडक्शन देते हुए उस ने सौरव से मोबाइल लौटाने का आग्रह किया. तब सौरव ने तपाक से कहा, ‘‘फ्री में नहीं लौटाऊंगा. खाना खिलाना होगा… कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा… एड्रैस बताओ.’’

वैदेही के तो होश ही उड़ गए. मन में सोचने लगी कैसा अजीब प्राणी है यह. पर मोबाइल तो चाहिए ही था. अत: एड्रैस दे दिया.

अगले दिन शाम को महाराज हाजिर भी हो गए थे. सारे घर वालों को सैल्फ इंट्रोडक्शन भी दे दिया और ऐसे घुलमिल गया जैसे सालों से हम सब से जानपहचान हो. वैदेही ये सब देख हैरान भी थी और कहीं न कहीं एक अजीब सी फीलिंग भी हो रही थी. बहुत मिलनसार स्वभाव था. मां, बाबा और वैदेही की छोटी बहन तो उस की तारीफ करते नहीं थक रहे थे. थकते भी क्यों उस का स्वभाव, हावभाव सब कितना अलग और प्रभावपूर्ण था. वैदेही उस के साथ बहती चली जा रही थी.

वह सिंगापुर में अकेला रहता था. एक कार डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी में मैनेजर था. तभी आए दिन उसे नई कार का टैस्ट ड्राइव करने का मौका मिलता रहता था. जिस दिन उस ने वैदेही की मदद की थी उस दिन भी न्यू स्पोर्ट्स कार की टैस्ट ड्राइव पर था. उस के मातापिता इंडिया में रहते थे.

इस दौरान अच्छी दोस्ती हो गई थी. रोज आनाजाना होने लगा था. वैदेही के परिवार के सभी लोग उसे पसंद करते थे. धीरेधीरे उस ने वैदेही के दिल में खास जगह बना ली. उस के साथ जब होती थी तो लगता था ये पल यहीं थम जाएं. वैदेही को भी यह एहसास हो चला था कि सौरव के दिल में भी उस के लिए खास फीलिंग्स हैं. मगर अभी तक उस ने वैदेही से अपनी फीलिंग्स कही नहीं थीं.

15 दिन बाद वैदेही ने औफिस जौइन कर लिया. सौरव और वैदेही का औफिस और्चर्ड रोड पर ही था. सौरव अकसर वैदेही को औफिस से घर छोड़ने आता था. फ्रैक्चर होने की वजह से

6 महीने केयर करनी ही थी. वैदेही को उस का लिफ्ट देना अच्छा लगता था.

आज भी वैदेही को याद है सौरव ने उसे

2 महीने के बाद उस के 22वें बर्थडे पर प्रपोज किया था. औसतन लोग अपनी प्रेमिका को गुलदस्ता या चौकलेट अथवा रिंग के साथ प्रपोज करते हैं, पर उस ने वैदेही के हाथों में एक कार का छोटा सा मौडल रखते हुए कहा कि क्या तुम अपनी पूरी जिंदगी का सफर मेरे साथ तय करना चाहोगी? कितना पागलपन और दीवानगी थी उस की बातों में. वैदेही उसे समझने में असमर्थ थी. यह कहतेकहते सौरव उस के बिलकुल नजदीक आ गया और वैदेही का चेहरा अपने हाथों में थामते हुए उस के होंठों को अपने होंठों से छूते हुए दोनों की सांसें एक हो चली थीं. वैदेही का दिल जोर से धड़क रहा था. खुद को संभालते हुए वह सौरव से अलग हुई. दोनों के बीच एक अजीब मीठी सी मुसकराहट ने अपनी जगह बना ली थी.

कुछ देर तो वैदेही वहीं बुत की तरह खड़ी रही थी. जब उस ने वैदेही का उत्तर जानने की उत्सुकता जताई तो वैदेही ने कहा था कि अगले दिन ‘गार्डन बाय द वे’ में मिलेंगे. वहीं वह अपना जवाब उसे देगी.

उस रात वैदेही एक पल भी नहीं सोई थी. कई विषयों पर सोच रही थी जैसे

कैरियर, आगे की पढ़ाई और न जाने कितने खयाल. नींद आती भी कैसे, मन में बवंडर जो उठा था. तब वैदेही मात्र 22 साल की ही तो थी और इतनी जल्दी शादी भी नहीं करना चाहती थी. सौरव भी केवल 25 वर्ष का था. पर वैदेही उसे यह बताना भी चाहती थी कि उस से बेइंतहा मुहब्बत हो गई है और जिंदगी का पूरा सफर उस के साथ ही बिताना चाहती है. बस कुछ समय चाहिए था उसे. पर यह बात वैदेही के मन में ही रह गई थी. कभी इसे बोल नहीं पाई.

अगले दिन वैदेही ठीक शाम 5 बजे ‘गार्डन बाय द वे’ में पहुंच गई. वहां पहुंच कर उस ने सौरव को फोन मिलाया तो फोन औफ आ रहा था. उस का इंतजार करने वह वहीं बैठ गई. आधे घंटे बाद फिर फोन मिलाया तब भी फोन औफ ही आ रहा था. वैदेही परेशान हो उठी. पर फिर सोचा कहीं औफिस में कोई जरूरी मीटिंग में न फंस गया हो. वहीं उस का इंतजार करती रही. इंतजार करतेकरते रात के 8 बजे गए, पर वह नहीं आया और उस के बाद उस का फोन भी कभी औन नहीं मिला.

2 साल तक वैदेही उस का इंतजार करती रही पर कभी उस ने उसे एक बार भी फोन नहीं किया. 2 साल बाद मांबाबा की मरजी से आदित्य से वैदेही की शादी हो गई. आदित्य औडिटिंग कंपनी चलाता था. उस के मातापिता सिंगापुर में उस के साथ ही रहते थे.

शादी के बाद कितने साल लगे थे वैदेही को सौरव को भूलने में पर पूरी तरह भूल नहीं पाई थी. कहीं न कहीं किसी मोड़ पर उसे सौरव की याद आ ही जाती थी. आज अचानक क्यों आया है और क्या चाहता है?

वैदेही की सोच की कड़ी को अचानक फोन की घंटी ने तोड़ा. एक अनजान नंबर था. दिल की धड़कनें तेज हो चली थीं. वैदेही को लग रहा था हो न हो सौरव का ही होगा. एक आवेग सा महसूस कर रही थी. कौल रिसीव करते हुए हैलो कहा तो दूसरी ओर सौरव ही था. उस ने अपनी भारी आवाज में ‘हैलो इज दैट वैदेही?’ इतने सालों के बाद भी सौरव की आवाज वैदेही के कानों से होते हुए पूरे शरीर को झंकृत कर रही थी.

स्वयं को संभालते हुए वैदेही ने कहा, ‘‘यस दिस इज वैदेही,’’ न पहचानने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘मे आई नो हू इज टौकिंग?’’

सौरव ने अपने अंदाज में कहा, ‘‘यार, तुम मुझे कैसे भूल सकती हो? मैं सौरव…’’

‘‘ओह,’’ वैदेही ने कहा.

‘‘क्या कल तुम मुझ से मरीना वे सैंड्स होटल के रूफ टौप रैस्टोरैंट पर मिलने आ सकती  हो? शाम 5 बजे.’’

कुछ सोचते हुए वैदेही ने कहा, ‘‘हां, तुम से मिलना तो है ही. कल शाम को आ जाऊंगी,’’ कह फोन काट दिया.

अगर ज्यादा बात करती तो उस का रोष सौरव को फोन पर ही सहना पड़ता. वैदेही के दिमाग में कितनी हलचल थी, इस का अंदाजा लगाना मुश्किल था. यह सौरव के लिए उस का प्यार था या नफरत? मिलने का उत्साह था या असमंजसता? एक मिलाजुला भावों का मिश्रण जिस की तीव्रता सिर्फ वैदेही ही महसूस कर सकती थी.

अगले दिन सौरव से मिलने जाने के लिए जब वैदेही तैयार हो रही थी, तभी आदित्य कमरे में आया. वैदेही से पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

वैदेही ने कहा, ‘‘सौरव सिंगापुर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है,’’ कह वैदेही चुप हो गई. फिर कुछ सोच आदित्य से पूछा, ‘‘जाऊं या नहीं?’’

आदित्य ने जवाब में कहा, ‘‘हां, जाओ. मिल आओ. डिनर पर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ कह वह कमरे से चला गया.

आदित्य ने सौरव के विषय में काफी कुछ सुन रखा था. वह यह जानता था कि सौरव को वैदेही के परिवार वाले बहुत पसंद करते थे… कैसे उस ने वैदेही की मदद की थी. आदित्य खुले विचारों वाला इनसान था.

हलके जामुनी रंग की ड्रैस में वैदेही बहुत खूबसूरत लग रही थी. बालों को

ब्लो ड्राई कर बिलकुल सीधा किया था. सौरव को वैदेही के सीधे बाल बहुत पसंद थे. वैदेही हूबहू वैसे ही तैयार हुई जैसे सौरव को पसंद थी. वैदेही यह समझने में असमर्थ थी कि आखिर वह सौरव की पसंद से क्यों तैयार हुई थी? कभीकभी यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर किसी के होने का हमारे जीवन में इतना असर क्यों आ जाता है. वैदेही भी एक असमंजसता से गुजर रही थी. स्वयं को रोकना चाहती थी पर कदम थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

वैदेही ठीक 5 बजे मरीना बाय सैंड्स के रूफ टौप रैस्टोरैंट में पहुंची. सौरव वहां पहले से इंतजार कर रहा था. वैदेही को देखते ही वह चेयर से खड़ा हो वैदेही की तरफ बढ़ा और उसे गले लगते हुए बोला, ‘‘सो नाइस टू सी यू आफ्टर ए डिकेड. यू आर लुकिंग गौर्जियस.’’

वैदेही अब भी गहरी सोच में डूबी थी. फिर एक हलकी मुसकान के साथ उस ने कहा, ‘‘थैंक्स फार द कौंप्लीमैंट. आई एम सरप्राइज टु सी यू ऐक्चुअली.’’

सौरव भांप गया था वैदेही के कहने का तात्पर्य. उस ने कहा, ‘‘क्या तुम ने अब तक मुझे माफ नहीं किया? मैं जानता हूं तुम से वादा कर के मैं आ न सका. तुम नहीं जानतीं मेरे साथ क्या हुआ था?’’

वैदेही ने कहा, ‘‘10 साल कोई कम तो नहीं होते… माफ कैसे करूं तुम्हें? आज मैं जानना चाहती हूं क्या हुआ था तुम्हारे साथ?’’

सौरव ने कहा, ‘‘तुम्हें याद ही होगा, तुम ने मुझे पार्क में मिलने के लिए बुलाया था. उसी दिन हमारी कंपनी के बौस को पुलिस पकड़ ले गई थी, स्मगलिंग के सिलसिले में. टौप लैवल मैनेजर को भी रिमांड में रखा गया था. हमारे फोन, अकाउंट सब सीज कर दिए गए थे. हालांकि 3 दिन लगातार पूछताछ के बाद, महीनों तक हमें जेल में बंद कर दिया था. 2 साल तक केस चलता रहा. जब तक केस चला बेगुनाहों को भी जेल की रोटियां तोड़नी पड़ीं. आखिर जो लोग बेगुनाह थे उन्हें तुरंत डिपोर्ट कर दिया गया और जिन्हें डिपोर्ट किया गया था उन में मैं भी था. पुलिस की रिमांड में वे दिन कैसे बीते क्या बताऊं तुम्हें…

‘‘आज भी सोचता हूं तो रूह कांप जाती है. किस मुंह से तुम्हारे सामने आता? इसलिए जब मैं इंडिया (मुंबई) पहुंचा तो न मेरे पास कोई मोबाइल था और न ही कौंटैक्ट नंबर्स. मुंबई पहुंचने पर पता चला मां बहुत सीरियस हैं और हौस्पिटलाइज हैं. मेरा मोबाइल औफ होने की वजह से मुझ तक खबर पहुंचाना मुश्किल था. ये सारी चीजें आपस में इतनी उलझी हुई थीं कि उन्हें सुलझाने का वक्त ही नहीं मिला और तो और मां ने मेरी शादी भी तय कर रखी थी. उन्हें उस वक्त कैसे बताता कि मैं अपनी जिंदगी सिंगापुर ही छोड़ आया हूं. उस वक्त मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा था.

‘‘और फिर जिंदगी की आपाधापी में उलझता ही चला गया. पर तुम हमेशा याद आती रहीं. हमेशा सोचता था कि तुम क्या सोचती होगी मेरे बारे में, इसलिए तुम से मिल कर तुम्हें सब बताना चाहता था. काश, मैं इतनी हिम्मत पहले दिखा पाता. उस दिन जब हम मिलने वाले थे तब तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थीं न… आज बता दो क्या कहना चाहती थीं.’’

वैदेही को यह जान कर इस बात की तसल्ली हुई कि सौरव ने उसे धोखा नहीं दिया. कुदरत ने हमारे रास्ते तय करने थे. फिर बोली, ‘‘वह जो मैं तुम से कहना चाहती उन बातों का अब कोई औचित्य नहीं,’’ वैदेही ने अपने जज्बातों को अपने अंदर ही दफनाने का फैसला कर लिया था.

थोड़ी चुप्पी के बाद एक मुसकराहट के साथ वैदेही ने कहा, ‘‘लैट्स और्डर सम कौफी.’’

Family Story: औलाद – क्यों कुलसूम अपने बच्चे को खुद से दूर करना चाहती थी?

Family Story: नरगिस की खूबसूरती के चर्चे आम होने लगे. गांवभर की औरतें नरगिस की मां से कहने लगीं कि उस की शादी की फिक्र करो जुबैदा. उम्र भले ही कम सही, लेकिन कुदरत ने इस को खूबसूरती ऐसी दी है कि बड़ेबड़ों का ईमान डोल जाए.

इस पर जुबैदा कहती, “तुम लोग मेरी बेटी की फिक्र में मत मरा करो. मेरे पास दौलत भले ही नहीं है, लेकिन बेटी ऐसी मिली है कि राजेमहाराजे तक आएंगे रिश्ता ले कर मेरे दरवाजे पर.”

एक दिन ऐसा हुआ भी. हवेली से बड़े नवाब के बड़े साहबजादे शाहरुख मिर्जा के लिए नरगिस का रिश्ता आ गया. जुबैदा की खुशी का ठिकाना न रहा.

नरगिस के अब्बा अब इस दुनिया में नहीं थे, इसलिए मंगनी की रस्म भी जुबैदा ने खुद पूरी की और अगले साल बेटी के निकाह का दिन तय कर दिया.

इस बीच बचपन का बिछड़ा जुबैदा का भांजा यानी नरगिस के मामा का बेटा खुर्रम पाकिस्तान से लौट आया. लोग कहते हैं कि वह बकरी चरातेचराते सरहद पार कर गया था और फिर वहां से लौट कर नहीं आया.

खुर्रम के साथ गांवभर में खुशियां भी लौट आईं, इसलिए कि बचपन में खुर्रम गांवभर का चहेता हुआ करता था. जुबैदा के भाईभाभी खुर्रम के साथ जुबैदा के घर मिलने आए और जुबैदा को उस का वादा याद दिलाया.

जुबैदा की जबान से आवाज नहीं निकल रही थी, “भाभी… वह… मैं ने तो… नरगिस का रिश्ता हवेली में शाहरुख मिर्जा के साथ तय कर दिया है. मैं नहीं जानती थी कि खुर्रम कभी लौट भी आएगा.”

यह सुन कर जुबैदा के भाईभाभी के अलावा खुर्रम भी हैरान रह गया. बच्चों के बचपन में किए गए उन के मांबाप के वादे को जुबैदा द्वारा तोड़े जाने का उन्हें बेहद अफसोस हो रहा था, लेकिन चूंकि गलती जुबैदा की नहीं, बल्कि हालात की थी, इसलिए उन्हें खामोश रह जाना पड़ा.

हालांकि खुर्रम के दिल में गांठ बैठ गई. उस ने नरगिस को अपने दिल से कभी नहीं निकालने का फैसला कर लिया. वह दिल से मनाया करता कि किसी तरह नरगिस का रिश्ता हवेली से टूट कर उस से तय हो जाता.

दोनों खानदान एक ही गांव में रहते थे, इसलिए नरगिस और खुर्रम का एकदूसरे के यहां आनाजाना लगा रहता था. एक दिन मौका पा कर खुर्रम ने नरगिस को घेर लिया, “देखो नरगिस, मैं जानता हूं कि तुम्हारा निकाह हवेली में तय हो चुका है, लेकिन मैं तुम्हें अपने दिल में बसा चुका हूं, इसलिए वहां से निकाल नहीं सकता.”

नरगिस पाक दामन लड़की थी. अकेले में खुर्रम की बातें सुन कर वह पसीनापसीना हो गई. उस के लब खुले, “तुम तो पाकिस्तान चले गए थे, फिर मैं कब दिल में बस गई?”

“मैं तुम्हें भुला ही कब था. बचपन में जब हमारा रिश्ता तय हुआ था, तब मैं होशमंद था और तुम नादान. उस वक्त मैं 8 साल का और तुम 5 साल की थी.”

नर्गिस बोली, “अच्छा तो अब मैं क्या कर सकती हूं?”

खुर्रम ने कहा, “तुम चाहो तो अब भी लौट सकती हो…”

नर्गिस ने कहा, “बेवा मां के अरमानों को तोड़ने की हिम्मत नहीं है मुझ में. उन्होंने मां की ममता के साथ बाप जैसी परवरिश भी दी है. पुराने लोग अपनी जबान पर मरते हैं. अम्मी हवेली वालों को जबान दे चुकी हैं.”

“फुफू तो मेरी अम्मी को भी जबान दे चुकी थीं…” खुर्रम बोला.

“लेकिन तब तुम गायब थे और गायब इनसान के भरोसे कोई अपनी बेटी को घर बिठा कर नहीं रख सकता,” नरगिस बोली.

बहरहाल बात आईगई हो गई. फिर तय वक्त पर नरगिस की बरात आई और अगली सुबह वह रुखसत भी हो गई.

हवेली में दुलहन की खूबसूरती एक कौंधती हुई बिजली की मानिंद झमाका बन कर गिरी. रात हुई. दूल्हा आया, लेकिन पलंग के बजाय सोफे पर सो गया. नरगिस घंटों इंतजार करती रही, लेकिन वह सेज तक नहीं आया और खुद उस के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि किसी अनजान मर्द के पास खुद चल कर जा सके.

सुबह जल्दी ही नरगिस जाग गई. हड़बड़ा कर कपड़े समेटे और पलंग से नीचे उतर आई और सोफर के पास गई जहां उस का शौहर सो रहा था.

शाहरुख का चेहरा देखते ही नरगिस गश खा कर वहीं गिर पड़ी. जब वह गिरी तब उस की आवाज पर शाहरुख जाग गया. अपनी दुलहन को ऐसे देख कर वह समझ गया कि उस की बदसूरती ने नरगिस को बेहोश कर दिया है.

फिर शाहरुख बाहर जा कर अपनी मां की गोद में सिर रख कर रोने लगा, “अम्मी, मैं न कहता था कि मेरी शादी किसी खूबसूरत लड़की से मत करना. देखो, मुझे देखते ही दुलहन गश खा कर गिर पड़ी है.”

मां दौड़ीदौड़ी दुलहन के कमरे में गई. पानी के छींटे मार कर उसे होश में लाया गया, फिर दुलहन के सामने अपना दामन फैलाते हुए अम्मी ने कहा, “बेटी, मैं तुम्हारी असल गुनहगार हूं. शाहरुख अपनी सूरत को ले कर बचपन से ही  परेशान रहा है. मैं ने ही उस से बारबार चांद सी दुलहन लाने का वादा किया था.

“बेटी, अब तुम इस हवेली की बड़ी बहू हो. मेरे इन आंसुओं का वास्ता… तुम मेरे शाहरुख को अपना लो, नहीं तो वह जीतेजी मर जाएगा.”

बहरहाल, नरगिस को हालात से समझौता करना पड़ा जैसा अकसर लड़कियों को करना पड़ता है. फिर शाहरुख के खुरदरे जीवन में बहार आ गई. शाहरुख की खुशी देख कर उस की मां आयशा फूली नहीं समाती. वह हवेली की औरतों में अपनी बहू की खूबसूरती के चर्चे बढ़ाचढ़ा कर करती.

देखतेदेखते एक साल, फिर 2 साल बीत गए, लेकिन नरगिस मां नहीं बनी. उस की सास आयशा को शक होने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नरगिस अपने शौहर के साथ हमबिस्तर ही नहीं होती. पर उन दोनों ने अपने हमबिस्तर होने का उसे यकीन दिलाया, फिर वह अपने वारिस को ले कर फिक्रमंद रहने लगी.

3 साल बीत गए. फिर डाक्टरों के यहां चक्कर लगने शुरू हो गए. डाक्टरों ने बताया कि नरगिस के अंदर कोई खराबी नहीं है. जो कमी है वह शाहरुख के अंदर ही है.

शाहरुख हवेली में सब से बड़ा लड़का था. उस के अंदर का खोट आयशा को अपना खोट महसूस होने लगा. उस की बहू को मारे जाने वाले ताने उस के जिगर पर नश्तर बन कर चुभने लगे. फिर पोतेपोतियों की चाहत में आयशा बीमार रहने लगी.

एक दिन आयशा ने नरगिस से अकेले में कहा, “दुलहन, एक औरत के लिए सब से बड़ा कलंक होता है उस का मां नहीं बनना. मैं जानती हूं कि मेरे बेटे में खोट है, लेकिन दुनिया तुम्हें ही हिकारत की नजर से देखेगी, बांझ कहेगी.

“मैं चाहती हूं कि तुम अपने मायके में कुछ दिनों तक रह लो. क्या पता वहीं कुदरत तुम्हारी गोद हरी कर दे और हमारे खानदान का चिराग रोशन हो जाए.”

नरगिस नादान और कम उम्र थी. उस ने हंसते हुए कहा, “अम्मां, मैं वहां अकेली रहूंगी, तो मेरी गोद हरी कैसे होगी?”

आयशा ने समझाया, “यह हंसने का समय नहीं, बल्कि सोचने का समय है. एक औरत दूसरी औरत का और एक मां दूसरी मां का दर्द समझती है. तुम वहां जा कर सोचना कि इस हवेली का चिराग कैसे रोशन होगा. औरत अपने अंदर बड़े से बड़ा तूफान भी जज्ब कर लेती है, यह बात तुम्हें समझनी पड़ेगी.”

नरगिस अपने घर चली आई. आते ही मां ने औलाद की खुशखबरी जाननी चाही, लेकिन उसे नाउम्मीदी हाथ लगी. फिर नर्गिस ने अपनी सास की कही बातों को मां से कहा. जुबैदा सब समझ गई.

जुबैदा ने बेटी को समझाया, “बीज गलत रहने से जमीन बंजर रह जाती है और सारा कुसूर जमीन के माथे मढ़ दिया जाता है, इसलिए बीज बदला जाता है. जब जानदार और दमदार बीज धरती की कोख में पड़ता है, तो धरती को फाड़ कर बाहर निकल आता है. थोड़ा दर्द सहने के बाद जब धरती पर फसल लहलहाने लगती है, तब धरती अपने सारे दर्द भूल जाती है.”

फिर जुबैदा को खुर्रम याद आया जो अभी भी कुंआरा बैठा था. अपने खानदान का देखाभाला लड़का था. उस ने उस तक खबर पहुंचा दी कि नरगिस आई हुई है.

खुर्रम दौड़ादौड़ा आ पहुंचा. दोनों को अकेला छोड़ कर जुबैदा अपना इलाज कराने शहर चली गई. नरगिस ने खुर्रम काफी देर तक आपस में बातें करते रहे.

उस दिन के बाद जब तक नरगिस मां के घर रही, खुर्रम का आनाजाना लगा रहा. जबजब खुर्रम आता, जुबैदा कभी अपना इलाज कराने शहर चली जाती तो कभी बाजार चली जाती, ताकि तनहाई में उम्मीदों के चिराग जल सकें.

2 महीने बीत गए. नरगिस ज्यादा दिनों तक यहां रह भी नहीं सकती थी. एक दिन जुबैदा ने उसे टटोला. नरगिस ने जवाब दिया, “अम्मां, पागल हो गई हो क्या… बिना मर्द के बच्चा कैसे होगा?”

जुबैदा ने पूछा, “खुर्रम मर्द नहीं है क्या?”

नरगिस को पहली बार मां और सास दोनों की बातें समझ में आईं. वह फूटफूट कर रोने लगी, “यह क्या कह रही हो आप… ऐसा कैसे हो सकता है…”

जुबैदा ने कहा, “ऐसा करने के लिए मैं कह रही हूं और तुम्हारी सास कह रही हैं. सारा गुनाह हमारे सिर होगा. मेरी बेटी को लोग बांझ कहें यह मैं कतई बरदाश्त नहीं कर सकती.”

नरगिस बोली, “लेकिन मैं आप लोगों के लिए खुर्रम को कुरबानी का बकरा नहीं बना सकती.”

जुबैदा ने कहा, “मर्द औरत के जिस्म प्यासा होता है. मर्द खुद को गिराने की ताक में लगा रहता है. खुर्रम के लिए यह कुरबानी नहीं, बल्कि फख्र की बात होगी.”

नरगिस ने कहा, “मेरे गुनाहों की सजा आप को या मेरी सास को नहीं मिल सकती…”

जुबैदा चिल्लाई, “फिर तो जाओ हवेली और अपने गुनाहों की सजा जिंदगीभर भुगतती रहो, “कह कर जुबैदा बाहर निकल गई और नरगिस किसी कमजोर दीवार की तरह वहीं ढह गई.

अगली सुबह नरगिस ने हवेली का रुख किया. सास ने उम्मीदों के साथ उस का स्वागत किया. शाम होते ही आयशा ने उम्मीद से होने की बात पूछी, पर नरगिस ने इनकार कर दिया.

आयशा ने कहा, “तुम्हारी तरह तुम्हारी मां भी बेवकूफ ठहरी. क्या उस ने तुम्हें दुनियादारी नहीं सिखाई…”

नर्गिस ने कहा, “सिखाई थी, बल्कि आप से ज्यादा बेहतर ढंग से सिखाई थी, लेकिन मैं ने मोहरा बनने से साफ इनकार कर दिया.”

आयशा मुंह बना कर रह गई.

रात में नरगिस ने अपने शौहर को सारी बातों से आगाह किया. नरगिस की बातें सुन कर शाहरुख हैरान रह गया. उस ने अपनी मां और अपनी सास को बुराभला कहना शुरू किया, लेकिन नरगिस ने उसे समझाया कि एक को अपने बेटे की कमी पर परदा डालना है तो दूसरी को अपनी बेटी की कमी पर परदा डालना है.

दोनों अपनीअपनी औलाद की खातिर इस हद तक गिरने के लिए तैयार हैं. दोनों मां हैं और मां अपनी औलाद की खातिर कुछ भी करगुजरने के लिए ऐसे ही तैयार रहती है, लेकिन अफसोस कि दोनों ही गलत हैं.

फिर नरगिस ने शाहरुख को एक प्लान समझाते हुए कहा कि शायद इस तरह हमारे लिए कोई राह निकल आए.

सुबह होते ही शाहरुख ने अपनी मां से कहा कि फलां डाक्टर का पता चला है जो बेऔलाद लोगों के लिए मसीहा साबित हो रहा है.

आयशा ने उन्हें उस डाक्टर के पास जाने के लिए कहा. वे दोनों डाक्टर के पास गए. जब वापस लौटे तो औलाद की भूखी आयशा दरवाजे पर नजरें गड़ाए बैठी थी. आते ही फौरन सवाल किया, “क्या कहा डाक्टर ने?”

वे दोनों अपने प्लान के मुताबिक मुंह लटकाए अपने कमरे में चले गए. मां का मन नहीं माना और वह भी पीछेपीछे उन के कमरे में गई, “आखिर क्या कहा डाक्टर ने? कुछ तो बताओ?”

शाहरुख ने जवाब दिया, “मां, डाक्टर ऐसी तरकीब बता रहा है जो मुमकिन ही नहीं है.”

आयशा ने परेशान होते हुए पूछा, “कुछ मुझे भी तो पता चले कि क्या कहा डाक्टर ने?”

शाहरुख ने कहा, “आप नरगिस से ही पूछ लो.”

यह सुन कर आयशा बोली, “क्या ड्रामा है. आखिर कोई कुछ बता क्यों नहीं रहा है. बताओगे नहीं तो कैसे समझ में आएगा कि मुमकिन है या नहीं. तुम लोगों से ज्यादा दुनिया मैं ने देख रखी है. कौन सा काम है जो मुमकिन नहीं…”

नरगिस ने आखिरकार बताया, “डाक्टर का कहना है कि शौहरबीवी दोनों को एक साल कश्मीर घाटी में गुजारना पड़ेगा. वहां की बर्फीली आबोहवा और क़ुदरती खानपान में एक साल गुजारने के बाद शाहरुख की अंदरूनी कमी दूर होने की पूरी उम्मीद है. और अगर कश्मीर घाटी में हमल ठहरता है तो बच्चा दूध का धुला पैदा होगा.”

आयशा ने तड़पते हुए कहा, “सचमुच ऐसा कहा डाक्टर ने?”

शाहरुख बोला, “जी बिलकुल.”

आयशा ने पूछा, “तो फिर दिक्कत क्या है?”

शाहरुख बोला, “एक साल तक वहां रहना कैसे मुमकिन होगा? वहां सर्दी भी जबरदस्त पड़ती है.”

आयशा ने कहा, “जिस आबोहवा में इनसान रहने लगता है आहिस्ताआहिस्ता उस का आदी हो जाता है. तुम लोग बस जाने की तैयारी करो. मैं और कुछ सुनना नहीं चाहती.”

यह कहते हुए आयशा उन के कमरे से बाहर निकल गई. उस के जाते ही दोनों शौहरबीवी खुशी से झूम उठे, इसलिए कि उन के प्लान का पहला हिस्सा आसानी से मुकम्मल हो चुका था.

ठीक 8 महीने बाद उन के प्लान का दूसरा हिस्सा शुरू हुआ. अफजल एक गरीब कश्मीरी था. वह रोज ताजा फल शाहरुख के डेरे पर ला कर पहुंचा जाता था. अफजल की बीवी कुलसूम दुबलीपतली, बला की खूबसूरत कश्मीरी औरत थी. पूरे कश्मीर का हुस्न उस के बदन में समाया हुआ लगता था. अफजल की गैरमौजूदगी में कभीकभी कुलसूम भी फल पहुंचा जाया करती थी.

एक दिन कुलसूम का निकला हुआ पेट देख कर नरगिस की उम्मीदों को पर लग गए. उस ने पूछा, “बहन, कितने महीने हो गए?”

कुलसूम ने बताया, “8 महीने हो गए बीबीजी.”

नर्गिस ने पूछा, “पहले से आप के कितने बच्चे हैं?”

कुलसूम शरमाते हुए बोली, “10 बच्चे हैं जी. पर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?”

नरगिस ने अपनी पूरी कहानी कुलसूम को सुना दी. कहानी सुनातेसुनाते दोनों के दामन आंसुओं से भीग गए.

कुलसूम ने घर जा कर अपने शौहर अफजल से पूरी बात सुनाई और कहा कि क्यों न हम अपनी आने वाली औलाद उसे दे दें. वह लेने की ख्वाहिशमंद है.

कुलसूम की बातें सुन कर अफजल हैरान रह गया. उस ने कहा, “तुम कैसी मां हो जो अपना बच्चा दूसरी औरत को देने के लिए तैयार हो.”

कुलसूम बोली, “मां होने का सुख एक औरत के मुकम्मल होने का सुबूत होता है. मुझे मां होने का भरपूर सुख मिला है. क्यों न जो इस सुख से महरूम है उसे अपनी तरफ से औलाद की दौलत दे कर उसे भी मालामाल कर दिया जाए.”

अफजल अपनी बीवी की बातें सुन कर सोचने के लिए मजबूर हो गया और बोला, “ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी.”

फिर अगले महीने कुलसूम को एक नहीं, बल्कि जुड़वां बेटे हुए. उस ने एक बेटा नरगिस को दे कर उस की गोद हरी कर दी. बदले में नरगिस ने अपने गले में पड़ा हीरे का हार कुलसूम को देना चाहा, लेकिन उस ने लेने से साफ इनकार कर दिया.

फिर साल पूरा होते ही शाहरुख और नरगिस अपनी औलाद के साथ हवेली लौट आए. आयशा के तो पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

शानदार दावत दी गई. नरगिस के मायके से भी लोग आए थे. मेहमानों की भीड़ से अलग शाहरुख और नरगिस एकदूसरे को एहसानमंद नजरों से देख रहे थे. उन की चतुराई से हवेली को वारिस और नरगिस को औलाद मिल गई थी.

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