गलती का एहसास

सौरभ दफ्तर के काम में बिजी था कि अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी. मोबाइल की स्क्रीन पर कावेरी का नाम देख कर उस का दिल खुशी से उछल पड़ा.

कावेरी सौरभ की प्रेमिका थी. उस ने मोबाइल फोन पर ‘हैलो’ कहा, तो उधर से कावेरी की आवाज आई, ‘तुम्हारा प्यार पाने के लिए मेरा मन आज बहुत बेकरार है. जल्दी से घर आ जाओ.’

‘‘तुम्हारा पति घर पर नहीं है क्या?’’ सौरभ ने पूछा.

‘नही,’ उधर से आवाज आई.

‘‘वह आज दफ्तर नहीं आया, तो मुझे लगा कि वह छुट्टी ले कर तुम्हारे साथ मौजमस्ती कर रहा है,’’ सौरभ मुसकराते हुए बोला.

‘ऐसी बात नहीं है. वह कुछ जरूरी काम से अपने एक रिश्तेदार के घर आसनसोल गया है. रात के 10 बजे से पहले लौट कर नहीं आएगा, इसीलिए मैं तुम्हें बुला रही हूं. तनमन की प्यास बुझाने के लिए हमारे पास अच्छा मौका है. जल्दी से यहां आ जाओ.’

‘‘मैं शाम के साढ़े 4 बजे तक जरूर आ जाऊंगा. जिस तरह तुम मेरा प्यार पाने के लिए हर समय बेकरार रहती हो, उसी तरह मैं भी तुम्हारा प्यार पाने के लिए बेकरार रहता हूं.

‘‘तुम्हारे साथ मुझे जो खुशी मिलती है, वैसी खुशी अपनी पत्नी से भी नहीं मिलती है. हमबिस्तरी के समय वह एक लाश की तरह चुपचाप पड़ी रहती है, जबकि तुम प्यार के हर लमहे में खरगोश की तरह कुलांचें मारती हो. तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं फिदा हूं.’’

थोड़ी देर तक कुछ और बातें करने के बाद सौरभ ने मोबाइल फोन काट दिया और अपने काम में लग गया.

4 बजे तक उस ने अपना काम निबटा लिया और दफ्तर से निकल गया. सौरभ कावेरी के घर पहुंचा. उस समय शाम के साढ़े 4 बज गए थे. कावेरी उस का इंतजार कर रही थी.

जैसे ही सौरभ ने दरवाजे की घंटी बजाई, कावेरी ने झट से दरवाजा खोल दिया. मानो वह पहले से ही दरवाजे पर खड़ी हो. वे दोनों वासना की आग से इस तरह झुलस रहे थे कि फ्लैट का मेन दरवाजा बंद करना भूल गए और झट से बैडरूम में चले गए.

कावेरी को बिस्तर पर लिटा कर सौरभ ने उस के होंठों को चूमा, तो वह भी बेकरार हो गई और सौरभ के बदन से मनमानी करने लगी.

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जल्दी ही उन दोनों ने अपने सारे कपड़े उतारे और धीरेधीरे हवस की मंजिल की तरफ बढ़ते चले गए. अभी वे दोनों मंजिल पर पहुंच भी नहीं पाए थे कि किसी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘यह सब क्या हो रहा है?’’

वे दोनों घबरा गए और झट से एकदूसरे से अलग हो गए.

सौरभ ने दरवाजे की तरफ देखा, तो बौखला गया. दरवाजे पर कावेरी का पति जयदेव खड़ा था. उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे.

उन दोनों को इस बात का एहसास हुआ कि उन्होंने मेन दरवाजा बंद नहीं किया था. कावेरी ने झट से पलंग के किनारे रखे अपने कपड़े उठा लिए. सौरभ ने भी अपने कपड़े उठाए, मगर जयदेव ने उन्हें पहनने नहीं दिया.

जयदेव उन को गंदीगंदी गालियां देते हुए बोला, ‘‘मैं चुप रहने वालों में से नहीं हूं. अभी मैं आसपड़ोस के लोगों को बुलाता हूं.’’

कावेरी ने जयदेव के पैर पकड़ लिए. उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दीजिए. अब ऐसी गलती कभी नहीं करूंगी.’’

‘‘मैं तुम्हें हरगिज माफ नहीं कर सकता. तुम तो कहती थीं कि मैं कभी किसी पराए मर्द को अपना बदन छूने नहीं दूंगी. फिर अभी सौरभ के साथ क्या कर रही थीं?’’

कावेरी कुछ कहती, उस से पहले जयदेव ने सौरभ से कहा, ‘‘तुम तो अपनेआप को मेरा अच्छा दोस्त बताते थे. यही है तुम्हारी दोस्ती? दोस्त की पत्नी के साथ रंगरलियां मनाते हो और दोस्ती का दम भरते हो. मैं तुम्हें भी कभी माफ नहीं करूंगा.

‘‘फोन कर के मैं तुम्हारी पत्नी को बुलाता हूं. उसे भी तो पता चले कि उस का पति कितना घटिया है. दूसरे की पत्नी के साथ हमबिस्तरी करता है.’’

‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी पत्नी को कावेरी के बारे में पता चल जाएगा, तो वह मुझे छोड़ कर चली जाएगी.

‘‘मैं कसम खाता हूं कि अब कभी कावेरी से संबंध नहीं बनाऊंगा,’’ सौरभ ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

सौरभ के गिड़गिडाने का जयदेव पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने सौरभ से कहा, ‘‘मैं तुम दोनों को कभी माफ नहीं कर सकता. तुम दोनों की करतूत जगजाहिर करने के बाद आज ही कावेरी को घर से निकाल दूंगा. उस के बाद तुम्हारी जो मरजी हो, वह करना. कावेरी से संबंध रखना या न रखना, उस से मुझे कोई लेनादेना नहीं.’’

जयदेव चुप हो गया, तो कावेरी फिर गिड़गिड़ा कर उस से माफी मांगने लगी. सौरभ ने भी ऐसा ही किया. जयदेव के पैर पकड़ कर उस से माफी मांगते हुए कहा कि अगर वह उसे माफ नहीं करेगा, तो उस के पास खुदकुशी करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाएगा, क्योंकि वह अपनी पत्नी की नजरों में गिर कर नहीं जी पाएगा.

आखिरकार जयदेव पिघल गया. उस ने सौरभ से कहा, ‘‘मैं तुम्हें माफ तो नहीं कर सकता, मगर जबान बंद रखने के लिए तुम्हें 3 लाख रुपए देने होंगे.’’

‘‘3 लाख रुपए…’’ यह सुन कर सौरभ की घिग्घी बंध गई. उस का सिर भी घूमने लगा.

बात यह थी कि सौरभ की माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह जयदेव को 3 लाख रुपए दे सके. उसे जितनी तनख्वाह मिलती थी, उस से परिवार का गुजारा तो चल जाता था, मगर बचत नहीं हो पाती थी.

सौरभ ने अपनी माली हालत के बारे में जयदेव को बताया, मगर वह नहीं माना. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी माली हालत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. अगर तुम मेरा मुंह बंद रखना चाहते हो, तो रुपए देने ही होंगे.’’

सौरभ को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस मुसीबत से कैसे निबटे?

सौरभ को चिंता में पड़ा देख कावेरी उस के पास आ कर बोली, ‘‘तुम इतना सोच क्यों रहे हो? रुपए बचाने की सोचोगे, तो हमारी इज्जत चली जाएगी. लोग हमारी असलियत जान जाएंगे.

‘‘तुम खुद सोचो कि अगर तुम्हारी पत्नी को सबकुछ मालूम हो जाएगा, तो क्या वह तुम्हें माफ कर पाएगी?

‘‘वह तुम्हें छोड़ कर चली जाएगी, तो तुम्हारी जिंदगी क्या बरबाद नहीं हो जाएगी? मेरी तो कोई औलाद नहीं है. तुम्हारी तो औलाद है, वह भी बेटी. अभी उस की उम्र भले ही 6 साल है, मगर बड़ी होने के बाद जब उसे तुम्हारी सचाई का पता चलेगा, तो सोचो कि उस के दिल पर क्या गुजरेगी. तुम से वह इतनी ज्यादा नफरत करने लगेगी कि जिंदगीभर तुम्हारा मुंह नहीं देखेगी.’’

सौरभ पर कावेरी के समझाने का तुरंत असर हुआ. वह जयदेव को 3 लाख रुपए देने के लिए राजी हो गया, मगर इस के लिए उस ने जयदेव से एक महीने का समय मांगा.

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कुछ सोचते हुए जयदेव ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक महीने की मुहलत दे सकता हूं, मगर इस के लिए तुम्हें कोई गारंटी देनी होगी.’’

‘‘कैसी गारंटी?’’ सौरभ ने जयदेव से पूछा.

‘‘मैं कावेरी के साथ तुम्हारा फोटो खींच कर अपने मोबाइल फोन में रखूंगा. बाद में अगर तुम अपनी जबान से मुकर जाओगे, तो फोटो सब को दिखा दूंगा.’’

मजबूर हो कर सौरभ ने जयदेव की बात मान ली. जयदेव ने कावेरी के साथ सौरभ का बिना कपड़ों वाला फोटो खींच कर अपने मोबाइल में सेव कर लिया.

शाम के 7 बजे जब सौरभ कावेरी के फ्लैट से बाहर आया, तो बहुत परेशान था. वह लगातार यही सोच रहा था कि 3 लाख रुपए कहां से लाएगा?

सौरभ कोलकाता का रहने वाला था. उलटाडांगा में उस का पुश्तैनी मकान था. उस की शादी अनीता से तकरीबन 8 साल पहले हुई थी.

सौरभ की पत्नी अनीता भी कोलकाता की थी. अनीता जब बीए के दूसरे साल में थी, तभी उस के मातापिता ने उस की शादी सौरभ से कर दी थी. सौरभ ने उस की पढ़ाई छुड़ा कर उसे घर के कामों में लगा दिया. अनीता भी आगे नहीं पढ़ना चाहती थी, इसलिए तनमन से घर संभालने में जुट गई थी.

शादी के समय सौरभ के मातापिता जिंदा थे, मगर 2 साल के भीतर उन दोनों की मौत हो गई थी. तब से अनीता ने घर की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी.

मगर शादी के 5 साल बाद अचानक सौरभ ने अपना मन अनीता से हटा लिया था और वह मनचाही लड़की की तलाश में लग गया था.

बात यह थी कि एक दिन सौरभ ने अपने दोस्त के घर ब्लू फिल्म देखी थी. उस के बाद उस का मन बहक गया था. ब्लू फिल्म की तरह उस ने भी मजा लेने की सोची थी. उसी दिन दोस्त से ब्लू फिल्म की सीडी ले कर सौरभ घर आया. बेटी जब सो गई, तो टैलीविजन पर उस ने अनीता को फिल्म दिखाना शुरू किया.

कुछ देर बाद अनीता समझ गई कि यह कितनी गंदी फिल्म है. फिल्म बंद कर के वह सौरभ से बोली, ‘‘आप को ऐसी गंदी फिल्म देखने की लत किस ने लगाई?’’

‘‘मैं ने यह फिल्म आज पहली बार देखी है. मुझे अच्छी लगी, इसलिए तुम्हें दिखाई है कि फिल्म में लड़की ने अपने मर्द साथी के साथ जिस तरह की हरकतें की हैं, उसी तरह की हरकतें तुम मेरे साथ करो.’’

‘‘मुझ से ऐसा नहीं होगा. मैं ऐसा करने से पहले ही शर्म से मर जाऊंगी.’’

‘‘तुम एक बार कर के तो देखो, शर्म अपनेआप भाग जाएगी.’’

‘‘मुझे शर्म को भगाना नहीं, अपने साथ रखना है. आप जानते नहीं कि शर्म के बिना औरतें कितनी अधूरी रहती हैं. मेरा मानना है कि हर औरत को शर्म के दायरे में रह कर ही हमबिस्तरी करनी चाहिए.

‘‘आप अपने दिमाग से गंदी बातें निकाल दीजिए. हमबिस्तरी में अब तक जैसा चलता रहा है, वैसा ही चलने दीजिए. सच्चा मजा उसी में है. अगर मुझ पर दबाव बनाएंगे, तो मैं मायके चली जाऊंगी.’’

उस समय तो सौरभ की बोलती बंद हो गई, मगर उस ने अपनी चाहत को दफनाया नहीं. उस ने मन ही मन ठान लिया कि पत्नी न सही, कोई और सही, मगर वह मन की इच्छा जरूर पूरी कर के रहेगा.

उस के बाद सौरभ मनचाही लड़की की तलाश में लग गया. इस के लिए एक दिन उस ने अपने दोस्त रमेश से बात भी की. रमेश उसी कंपनी में था, जिस में वह काम करता था.

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रमेश ने सौरभ को सुझाव दिया, ‘‘तुम्हारी इच्छा शायद ही कोई घरेलू औरत पूरी कर सके, इसलिए तुम्हें किसी कालगर्ल से संबंध बनाना चाहिए.’’

सौरभ को रमेश की बात जंच गई. कुछ दिन बाद उसे एक कालगर्ल मिल भी गई.

एक दिन सौरभ रात के 9 बजे कालगर्ल के साथ होटल में गया. वह कालगर्ल के साथ मनचाहा करता, उस से पहले ही होटल पर पुलिस का छापा पड़ गया. सौरभ गिरफ्तारी से बच न सका.

सौरभ ने पत्नी को बताया था कि एक दोस्त के घर पार्टी है. पार्टी रातभर चलेगी, इसलिए वह अगले दिन सुबह ही घर आ पाएगा या वहीं से दफ्तर चला जाएगा. इसी वजह से पत्नी की तरफ से वह बेखौफ था.

गिरफ्तारी की बात सौरभ ने फोन पर रमेश से कही, तो अगले दिन उस ने जमानत पर उसे छुड़ा लिया.

सौरभ को लगा था कि उस की गिरफ्तारी की बात कोई जान नहीं पाएगा. मगर ऐसा नहीं हुआ. न जाने कैसे धीरेधीरे दफ्तर के सारे लोगों को इस बात का पता चल गया. शर्मिंदगी से सौरभ कुछ दिनों तक अपने दोस्तों से नजरें नहीं मिला पाया, लेकिन 2-3 महीने बाद वह सामान्य हो गया. इस में उस के एक दोस्त जयदेव ने मदद की था.

जयदेव 6 महीने पहले ही पटना से तबादला हो कर यहां आया था. कालगर्ल मामले में सौरभ दफ्तर में बदनाम हो गया था, तो जयदेव ने ही उसे टूटने से बचाया था.

एक दिन जयदेव उसे अकेले में ले गया और तरहतरह से समझाया, तो उस ने अपने दोस्तों से मुकाबला करने की हिम्मत जुटा ली. अब दफ्तर में सारे दोस्त सौरभ से पहले की तरह अच्छा बरताव करने लगे, तो सौरभ ने जयदेव की खूब तारीफ की और उस से दोस्ती कर ली.

दोस्ती के 6 महीने बीत गए, तो एक दिन जयदेव सौरभ को अपने घर ले गया. जयदेव की पत्नी कावेरी को सौरभ ने देखा, तो उस की खूबसूरती पर लट्टू  हो गया.

कुछ देर तक कावेरी से बात करने पर सौरभ ने महसूस किया कि वह जितनी खूबसूरत है, उस से ज्यादा खुले विचार की है.

सौरभ जयदेव के घर से जाने लगा, तो कावेरी उसे दरवाजे पर छोड़ने आई. कावेरी उस से बोली, ‘जब भी मौका मिले, आप  बेखटक आइएगा. मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’

उस समय जयदेव वहां पर नहीं था, इसलिए सौरभ ने मुसकराते हुए मजाकिया लहजे में कहा, ‘‘क्या मैं जयदेव की गैरहाजिरी में भी आ सकता हूं?’’

‘‘क्यों नहीं? आप का जब जी चाहे आ जाइएगा, मैं स्वागत करूंगी.’’

‘‘तब तो मैं जरूर आऊंगा. देखूंगा कि उस की गैरहाजिरी में आप मेरा स्वागत कैसे करती हैं?’’

‘‘जरूर आइएगा. देखिएगा, मैं आप को निराश नहीं होनें दूंगी. तनमन से स्वागत करूंगी. जो कुछ चाहिएगा, वह सबकुछ दूंगी. घर जा कर सौरभ कावेरी की बात भूल गया. भूलता क्यों नहीं? उस की बात को उस ने मजाक जो समझ लिया था.’’

एक हफ्ता बाद जयदेव के कहने पर सौरभ उस के घर फिर गया. मौका पा कर कावेरी ने उस से कहा, ‘‘आप तो अपने दोस्त की गैरहाजिरी में आने वाले थे? मैं इंतजार कर रही थी. आप आए क्यों नहीं? कहीं आप मुझ से डर तो नहीं गए?’’

सौरभ सकपका गया. वह कावेरी से कुछ कहता, उस से पहले वहां जयदेव आ गया. फिर तो चाह कर भी वह कुछ कह न सका.

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उस के बाद सौरभ यह सोचने पर मजबूर हो गया कि कहीं कावेरी उसे चाहती तो नहीं है?

बेशक कावेरी उस की पत्नी से ज्यादा खूबसूरत थी, मगर वह उस के दोस्त की पत्नी थी, इसलिए वह कावेरी पर बुरी नजर नहीं रखना चाहता था. फिर भी वह उस के मन की चाह लेना चाहता था.

3 दिन बाद ही सुबहसवेरे दफ्तर से छुट्टी ले कर सौरभ कावेरी के घर पहुंच गया. सौरभ को आया देख कावेरी चहक उठी, ‘‘मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरे रूप का जादू आप पर इतनी जल्दी असर करेगा.’’

सौरभ ने भी झट से कह दिया, ‘‘आप का जादू मुझ पर चल गया है, तभी तो मैं दोस्त की गैरहाजिरी में आया हूं.’’

‘‘आप ने बहुत अच्छा किया. देखिएगा, मैं आप को निराश नहीं करूंगी. मैं जानती हूं कि आप अपनी पत्नी से खुश नहीं हैं, वरना कालगर्ल के पास जाते ही क्यों? मैं आप को वह सबकुछ दे सकती हूं, जो अपनी पत्नी से आप को नहीं मिला.’’

सौरभ हैरान रह गया. उस ने कभी नहीं सोचा कि कोई औरत इस तरह खुल कर अपने दिल की बात किसी मर्द से कह सकती है.

सौरभ कावेरी से कुछ कहता, उस से पहले ही वह बोली, ‘‘आप मुझे बेहया समझ रहे होंगे. मगर ऐसी बात नहीं है. बात यह है कि मैं आप को अपना दिल दे बैठी हूं…

‘‘दरअसल, जिस तरह आप अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं हैं, उसी तरह मैं भी अपने पति से संतुष्ट नहीं हूं. जब मैं ने आप को देखा, तो न जाने क्यों मुझे लगा कि अगर आप मेरी जिंदगी में आ जाएंगे, तो मेरी प्यास भी बुझ जाएगी.’’

कावेरी को सौरभ ने बुरी नजर से कभी नहीं देखा था. मगर कावेरी ने जब उसे अपने दिल की बात कही, तो उसे लगा कि उस से संबंध बनाने में कोई बुराई नहीं है.

उस के बद सौरभ ने अपनेआप को आगे बढ़ने से रोका नहीं. झट से उस ने कावेरी को बांहों में भर लिया. उस के होंठों और गालों को चूम लिया.

कावेरी ने कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद वह बोली, ‘‘आप बैडरूम में चलिए, मैं दरवाजा बंद कर के आती हूं.’’

सौरभ बैडरूम में चला गया. दरवाजा बंद कर कावेरी बैडरूम में आई, तो सौरभ ने बगैर देर किए उसे बांहों में भर लिया. उस के बाद दोनों अपनीअपनी हसरतों को पूरा करने में लग गए.

सौरभ जैसा चाहता था, कावेरी ने ठीक उसी तरह से उस की हवस को शांत किया.

सौरभ ने कावेरी की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘मुझे आप से जो प्यार मिला है, वह मैं कभी नहीं भूल सकता.’’

‘‘यही हाल मेरा भी है सौरभजी. मेरी शादी हुए 5 साल बीत गए हैं. देखने में मेरे पति हट्टेकट्टे भी हैं, मगर उन से मैं कभी संतुष्ट नहीं हुई. अब मैं आप से एक गुजारिश करना चाहिती हूं.’’

‘‘गुजारिश क्यों? हुक्म कीजिए. मैं आप की हर बात मानूंगा,’’ कहते हुए सौरभ ने कावेरी के होंठों को चूम लिया.

‘‘आप शादीशुदा हैं. मैं भी शादीशुदा हूं. हम चाह कर भी कभी एकदूसरे से शादी नहीं कर सकते, लेकिन मैं चाहती हूं कि हम दोनों का संबंध जिंदगीभर बना रहे. हम दोनों कभी जुदा न हों. क्या ऐसा हो सकता है?’’

कावेरी ने जैसे उस के दिल की बात कह दी हो, इसलिए झट से उस ने कहा, ‘‘क्यों नहीं हो सकता. मैं भी तो यही चाहता हूं.’’

उस दिन के बाद जब भी मौका मिलता, सौरभ दफ्तर न जा कर कावेरी के घर चला जाता था.

इस तरह 4 महीने बीत गए. इस बीच सौरभ ने 7-8 बार कावेरी से हमबिस्तरी की. हर बार कावेरी ने उसे पहले से ज्यादा मस्ती दी.

सौरभ ने यह मान लिया था कि कावेरी के साथ उस का संबंध जिंदगीभर चलेगा. दोनों के बीच कोई दीवार नहीं आएगी, मगर उस का सोचा नहीं हुआ. आज जो कुछ भी हुआ, उस की सोच से परे था.

सौरभ अपने घर आया, तो वह बहुत परेशान था. अनीता ने उस की परेशानी ताड़ ली. अनीता ने उस से पूछ लिया, ‘‘क्या बात है? आप बहुत परेशान दिखाई दे रहे हैं?’’

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सौरभ ने बहाना बना दिया, ‘‘परेशान नहीं हूं. थका हुआ हूं.’’

सौरभ ने अनीता पर शक तो नहीं होने दिया, मगर उसी दिन से उस की सुखशांति छीन गई. दिनरात वह इस फिराक में रहने लगा कि 3 लाख रुपए का इंतजाम वह कैसे करे?

25 दिन बीत गए, मगर रुपए का इंतजाम नहीं हुआ, तो सौरभ ने मकान पर रुपए लेने का फैसला किया.

सौरभ मकान पर रुपए लेता, उस से पहले अनीता को सबकुछ मालूम हो गया. वह चुप रहने वालों में से नहीं थी.  वह सौरभ से बोली, ‘‘मुझे पता चला है कि आप मकान पर 3 लाख रुपए लेना चाहते हैं. सच बताइए कि रुपए की ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि आप को मकान गिरवी रखना पड़ रहा है? कहीं आप किसी बजारू लड़की के चक्कर में तो नहीं पड़ गए हैं.’’

सौरभ घबरा गया. उस ने सच छिपाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अनीता के सामने उस की एक न चली.

‘‘मैं जानती थी कि आप का शौक एक दिन आप को डुबो देगा.’’

‘‘कैसा शौक?’’ सौरभ हकला गया.

‘‘ब्लू फिल्म की तरह हरकतें करने का शौक,’’ सौरभ हैरान रह गया.

‘‘मैं जानती हूं कि आप अपना शौक पूरा करने के लिए कालगर्ल के साथ होटल में गए थे. वहां रेड पड़ी और पुलिस ने आप को गिरफ्तार कर लिया. अगले दिन आप के दोस्त ने आप को जमानत पर छुड़ाया. मैं ने आप से इसलिए कुछ नहीं कहा कि शर्मिंदगी से आप मुझ से नजरें नहीं मिला पाएंगे.’’

अब सौरभ ने भी अपनी गलती मानने मे देर नहीं की. कावेरी के साथ अपने नाजायज संबंध के बारे में सबकुछ बताने के बाद अनीता से उस ने माफी मांगी. उस से कहा कि वह ऐसी गलती नहीं करेगा.

‘‘मैं तो आप को माफ करूंगी ही, क्योंकि मैं अपना घर तोड़ना नहीं चाहती. मगर सवाल है कि कावेरी के चक्रव्यूह से आप कैसे निकलेंगे?’’

‘‘कैसा चक्रव्यूह?’’

‘‘आप अभी तक यही समझ रहे हैं कि कावेरी के साथ हमबिस्तरी करते समय उस के पति ने आप को अचानक देख लिया और आप के साथ सौदा कर लिया?’’

‘‘मैं तो यही समझ रहा हूं,’’ सौरभ बोला.

लेकिन सच यह नहीं है. मेरी सोच यह है कि कावेरी और उस के पति ने मिल कर आप को फंसाया है. अगर ऐसा नहीं होता, तो उस का पति आप के साथ सौदा क्यों करता? पत्नी की बेवफाई देख कर उसे अपने घर से निकाल देता या माफ कर देता. आप के साथ सौदा किसी भी हाल में नहीं करता.’’

कुछ सोचते हुए अनीता ने कहा, ‘‘जो होना था, वह तो हो गया. अब आप चिंता मत कीजिए. कावेरी के चक्रव्यूह से मैं आप को निकालूंगी.’’

‘‘आप तो जानते ही हैं कि मेरा मौसेरा भाई जयंत पुलिस इंस्पैक्टर है. जब उसे सारी बात बताऊंगी, तो वह हकीकत का पता लगा लेगा और सबकुछ ठीक भी कर देगा.’’

उसी दिन अनीता सौरभ के साथ जयंत से मिली. सारी बात जानने के बाद जयंत अगले दिन से छानबीन में जुट गया. 4 दिन बाद जयंत ने अनीता को फोन पर कहा, ‘‘छानबीन करने के बाद मैं ने जयदेव और कावेरी को गिरफ्तार कर लिया है. दोनों ने अपनाअपना गुनाह कबूल कर लिया है. अब जीजाजी को किसी से डरने की जरूरत नहीं है.

‘‘दरअसल, जयदेव और कावेरी का यही धंधा था. कोलकाता से पहले दोनों पटना में थे. वहां कई लोगों को अपना शिकार बनाने के बाद जयदेव ने अपना ट्रांसफर कोलकाता करा लिया था.

‘‘जब जीजाजी को कालगर्ल के साथ पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, तो उन के दफ्तर के ही किसी ने थाने में उन्हें देख लिया और दफ्तर में सब को बता दिया.

‘‘दफ्तर बदनाम हो गया, तो जयदेव ने उन्हें अपना अगला शिकार बनाने का फैसला कर लिया.

‘‘अपनी योजना के तहत जयदेव ने पहले जीजाजी से दोस्ती की, उस के बाद उन्हें अपनी पत्नी कावेरी से मिलाया.

‘‘उस के बाद कावेरी ने अपना खेल शुरू किया. उस ने जीजाजी पर अपने रूप का जादू चलाया और उन के साथ वही सब किया, जो अब तक औरों के साथ करती आई थी.’’

जयदेव और कावेरी की सचाई जानने के बाद सौरभ ने राहत की सांस ली. अनीता को अपनी बांहों में भर कर उस की खूब तारीफ की.

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अनीता ने भी सौरभ को निराश नहीं किया. रात में बिस्तर पर उस ने शर्म छोड़ कर उस के साथ वैसा ही सबकुछ किया, जिस की चाह में वह कावेरी के चंगुल में फंस गया था.

भरपूर मजे के बाद सौरभ ने अनीता से कहा, ‘‘तुम तो सबकुछ कर सकती हो, फिर उस दिन जब मैं ने ऐसा करने के लिए कहा था, तो मना क्यों किया था?’’

‘‘सिर्फ मैं ही नहीं, हर पत्नी अपने पति के साथ ऐसा कर सकती है, मगर सभी ऐसा करती नहीं हैं, कुछ ही करती हैं.’’

‘‘जिस तरह मेरा मानना है कि औरतों को शर्म के दायरे में रह कर हमबिस्तरी करनी चाहिए, उसी तरह बहुत सी पत्नियां ऐसा मानती हैं. इसी वजह से बहुत सी पत्नियां ब्लू फिल्म की तरह हरकतें नहीं करतीं.’’

‘‘मैं ने आज शर्म की दीवार तोड़ कर आप का मनचाहा तो कर डाला, मगर बराबर नहीं कर सकती, क्यों कि मुझे बेहद शर्म आती है.’’

अनीता के चुप होते ही सौरभ ने कहा, ‘‘अब इस की जरूरत भी नहीं है. मैं समझ गया कि गलत चाहत में लोग बरबाद हो जाते हैं. मैं अपनी गलत चाहत को आदत नहीं बनाना चाहता, इसलिए हमबिस्तरी के समय वैसा ही सबकुछ चलेगा, जैसा अब तक चलता रहा है.’’

अनीता खुशी से सौरभ से लिपट गई. सौरभ ने भी उसे अपनी बांहों में कस लिया.

आसरा: भाग-3

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लेखिका- मीनू सिंह

बेटी के इस तरह गायब हो जाने से किशन का दुख और चिंता से बुरा हाल था. उधर आशा की स्थिति तो और भी दयनीय थी. उन्हें रहरह कर इस बात का पछतावा हो रहा था कि उन्होंने जया के घर से बाहर जाने वाले मामले की खोजबीन उतनी गहराई से नहीं की, जितनी उन्हें करनी चाहिए थी. इस की वजह यही थी कि उन्हें अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था. किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी.

मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था. उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई.

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नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे. इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए.

उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला,

‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई. जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था.

उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे. जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं.

जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं. एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया.

जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया,

‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

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अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था.

इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था. जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं.

मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा.

उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया. अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

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आसरा: भाग 1

लेखिका- मीनू सिंह

धूप का एक उदास सा टुकड़ा खिड़की पर आ कर ठिठक गया था, मानो अपने दम तोड़ते अस्तित्व को बचाने के लिए आसरा तलाश रहा हो. खिड़की के पीछे घुटनों पर सिर टिकाए बैठी जया की निगाह धूप के उस टुकड़े पर पड़ी, तो उस के होंठों पर एक सर्द आह उभरी. बस, यही एक टुकड़ा भर धूप और सीलन भरे अंधेरे कमरे का एक कोना ही अब उस की नियति बन कर रह गया है. अपनी इस दशा को जया ने खुद चुना था. इस के लिए वह किसे दोष दे? कसूर उस का अपना ही था, जो उस ने बिना सोचेसमझे एक झटके में जिंदगी का फैसला कर डाला.

उस वक्त उस के दिलोदिमाग पर प्यार का नशा इस कदर हावी था कि वह भूल गई कि जिंदगी पानी की लहरों पर लिखी इबारत नहीं, जो हवा के एक झोंके से मिट भी सकती है और फिर मनचाही आकृति में ढाली भी जा सकती है. जिंदगी तो पत्थर पर उकेरे उन अक्षरों की तरह होती है कि एक बार नक्श हो गए तो हो गए. उसे न तो बदला जा सकता है और न मिटाया जा सकता है. अपनी भूल का शिद्दत से एहसास हुआ तो जया की आंखें डबडबा आईं. घुटनों पर सिर टिकाए वह न जाने कब तक रोती रही और उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं में उस का अतीत भी टुकड़ेटुकड़े हो कर टूटताबिखरता रहा. जया अपने छोटे से परिवार में तब कितनी खुश थी.

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छोटी बहन अनुपमा और नटखट सोमू दीदीदीदी कहते उस के चारों ओर घूमा करते थे. बड़ी होने की वजह से जया उन दोनों का आदर्श भी थी, तो उन की छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी. मां आशा और पिता किशन के लाड़दुलार और भाईबहन के संगसाथ में जया के दिन उन्मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से चहकते गुजर रहे थे. इंटर तक जया के आतेआते उस के भविष्य को ले कर मातापिता के मन में न जाने कितने अरमान जाग उठे थे. अपनी मेधावी बेटी को वह खूब पढ़ाना चाहते थे.

आशा का सपना था कि चाहे जैसे भी हो वह जया को डाक्टर बनाएगी जबकि किशन की तमन्ना उसे अफसर बनाने की थी. जया उन दोनों की चाहतों से वाकिफ थी और उन के प्रयासों से भी. वह अच्छी तरह जानती थी कि पिता की सीमित आय के बावजूद वह दोनों उसे हर सुविधा उपलब्ध कराने से पीछे नहीं हटेंगे. जया चाहती थी कि अच्छी पढ़ाई कर वह अपने मांबाप के सपनों में हकीकत का रंग भरेगी. इस के लिए वह भरपूर प्रयास भी कर रही थी. उस के सारे प्रयास और आशा तथा किशन के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए जब जया की आंखों में करन के प्यार का नूर आ समाया.

करन एक बहार के झोंके की तरह उस की जिंदगी में आया और देखतेदेखते उस के अस्तित्व पर छा गया. वह दिन जया कैसे भूल सकती है जिस दिन उस की करन से पहली मुलाकात हुई थी, क्योंकि उसी दिन तो उस की जिंदगी एक ऐसी राह पर मुड़ चली थी जिस की मंजिल नारी निकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना थी, जहां बैठी जया अपनी भूलों पर जारजार आंसू बहा रही थी. लेकिन उन आंसुओं को समेटने के लिए न तो वहां मां का ममतामयी आंचल था और न सिर पर प्यार भरा स्पर्श दे कर सांत्वना देने वाले पिता के हाथ. वहां थी तो केवल केयरटेकर की कर्कश आवाज या फिर पछतावे की आंच में सुलगती उस की अपनी तन्हाइयां, जो उस के वजूद को जला कर राख कर देने पर आमादा थीं. इन्हीं की तपन से घबरा कर जया ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

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आंखों पर पलकों का आवरण पड़ते ही अतीत की लडि़यां फिर टूटटूट कर बिखरने लगीं. जया के घर से उस का स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. मुश्किल से 10-12 मिनट का रास्ता रहा होगा. कभी कोई लड़की मिल जाती तो स्कूल तक का साथ हो जाता, वरना जया अकेले ही चली जाया करती थी. उस ने स्कूल जाते समय करन को कई बार अपना पीछा करते देखा था.

शुरूशुरू में उसे डर भी लगा और उस ने अपने पापा को इस बारे में बताना भी चाहा, लेकिन जब करन ने उस से कभी कुछ नहीं कहा तो उस का डर दूर हो गया. करन एक निश्चित मोड़ तक उस के पीछेपीछे आता था और फिर अपना रास्ता बदल लेता था. जब कई बार लगातार ऐसा हुआ तो जया ने इसे अपने मन का वहम समझ कर दिमाग से निकाल दिया और इस के ठीक दूसरे ही दिन करन ने जया के साथसाथ चलते हुए उस से कहा, ‘प्लीज, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’

जया ने चौंक कर उस की ओर देखा और रूखे स्वर में बोली, ‘कहिए.’ ‘आप नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’ करन ने पूछा, तो जया ने उपेक्षा से कहा, ‘मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है. जो कहना है, सीधे कहो.’

‘मैं करन हूं. आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’ करन ने कुछ झिझकते और डरते हुए कहा. अपनी बात कहने के बाद करन जया की प्रतिक्रिया जानने के लिए पल भर भी नहीं रुका और वापस मुड़ कर तेजी से विपरीत दिशा की ओर चला गया.

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दूसरे भाग में पढ़िए क्या हुआ करन और जया के रिश्ते का?

आसरा: भाग-2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- आसरा

लेखिका- मीनू सिंह

करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई. अगले दिन स्कूल जाते समय जया की नजरें करन को ढूंढ़ती रहीं, लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया.

3 दिन लगातार जब वह जया को दिखाई नहीं दिया तो उस का मन उदास हो गया. उसे लगा कि करन ने शायद ऐसे ही कह दिया होगा और वह उसे सच मान बैठी, लेकिन चौथे दिन जब करन नियत स्थान पर खड़ा मिला तो उसे देखते ही जया के मन की कली खिल उठी. उस दिन जया के पीछेपीछे चलते हुए करन ने आहिस्ता से पूछा, ‘आप मुझ से नाराज तो नहीं हैं?’

‘नहीं,’ जया ने धड़कते दिल से जवाब दिया, तब करन ने उत्साहित होते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’

‘जया,’ उस का छोटा सा उत्तर था. ‘आप बहुत अच्छी हैं, जयाजी.’ अपनी बात कहने के बाद करन थोड़ी दूर तक जया के साथ चला, फिर उसे ‘बाय’ कर के अपने रास्ते चला गया.

उस दिन के बाद वह दोनों एक निश्चित जगह पर मिलते, वहां से करन थोड़ी दूर जया के साथ चलता, दो बातें करता और फिर दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता. इन पल दो पल की मुलाकातों और छोटीछोटी बातों का जया पर ऐसा असर हुआ कि वह हर समय करन के ही खयालों में डूबी रहने लगी. नादान उम्र की स्वप्निल भावनाओं को करन का आधार मिला तो चाहत के फूल खुद ब खुद खिल उठे. यही हाल करन का भी था.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने अपने मन की बात जया से कह ही दी, ‘आई लव यू जया,’ मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर जिंदगी अधूरीअधूरी सी लगती है. करन के मन की बात उस के होंठों पर आई तो जया के दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. उस ने नजर भर करन को देखा और फिर पलकें झुका लीं. उस की उस एक नजर में प्यार का इजहार भी था और स्वीकारोक्ति भी.

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एक बार संकोच की सीमाएं टूटीं, तो जया और करन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. ज्योंज्यों दूरियां कम होती गईं, दोनों एकदूसरे के रंग में रंगते गए. फिर उन्होंने सब की नजरों से छिप कर मिलना शुरू कर दिया. जब भी मौका मिलता, दोनों प्रेमी किसी एकांत स्थल पर मिलते और अपने सपनों की दुनिया रचतेगढ़ते. उस वक्त जया और करन को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि पागल मन की उड़ान का कोई वजूद नहीं होता. किशोरवय का प्यार एक पागलपन के सिवा और क्या है.

बिलकुल उस बरसाती नदी की तरह जो वर्षाकाल में अपने पूरे आवेग पर होती है, लेकिन उस के प्रवाह में गंभीरता और गहराई नहीं रहती. इसीलिए वर्षा समाप्त होते ही उस का अस्तित्व भी मिट जाता है. अब जया की हर सोच करन से शुरू हो कर उसी पर खत्म होने लगी थी. अब उसे न कैरियर की चिंता रह गई थी और न मातापिता के सपनों को पूरा करने की उत्कंठा. बेटी में आए इस परिवर्तन को आशा की अनुभवी आंखों ने महसूस किया तो एक मां का दायित्व निभाते हुए उन्होंने जया से पूछा, ‘क्या बात है जया, इधर कुछ दिन से मैं महसूस कर रही हूं कि तू कुछ बदलीबदली सी लग रही है? आजकल तेरी सहेलियां भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं.

तू उन के घर जाती रहती है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बुलाती?’ मां द्वारा अचानक की गई पूछताछ से जया एकदम घबरा गई. जल्दी में उसे कुछ सुझाई नहीं दिया, तो उस ने बात खत्म करने के लिए कह दिया, ‘ठीक है मम्मी, आप मिलना चाहती हैं तो मैं उन्हें बुला लूंगी.’ कई दिन इंतजार करने के बाद भी जब जया की कोई सहेली नहीं आई और उस ने भी जाना बंद नहीं किया तो मजबूरी में आशा ने जया को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अब तू कहीं नहीं जाएगी. जिस से मिलना हो घर बुला कर मिल.’ घर से निकलने पर पाबंदी लगी तो जया करन से मिलने के लिए बेचैन रहने लगी. आशा ने भी उस की व्याकुलता को महसूस किया, लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. धीरेधीरे 4-5 दिन सरक गए तो एक दिन जया ने आशा को अच्छे मूड में देख कर उन से थोड़ी देर के लिए बाहर जाने की इजाजत चाही, जया की बात सुनते ही आशा का पारा चढ़ गया. उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में जया को जोर से डांटते हुए कहा, ‘इतनी बार मना किया, समझ में नहीं आया?’ ‘‘इतनी बार मना कर चुका हूं, सुनाई नहीं देता क्या?’’

नारी निकेतन के केयरटेकर का कर्कश स्वर गूंजा तो जया की विचारधारा में व्यवधान पड़ा. उस ने चौंक कर इधरउधर देखा, लेकिन वहां पसरे सन्नाटे के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. जया को मां की याद आई तो वह फूटफूट कर रो पड़ी. जया अपनी नादानी पर पश्चाताप करती रही और बिलखबिलख कर रोती रही. इन आंसुओं का सौदा उस ने स्वयं ही तो किया था, तो यही उस के हिस्से में आने थे. इस मारक यंत्रणा के बीच वह अपने अतीत की यादों से ही चंद कतरे सुख पाना चाहती थी, तो वहां भी उस के जख्मों पर नमक छिड़कता करन आ खड़ा होता था.

उस दिन मां के डांटने के बाद जया समझ गई कि अब उस का घर से निकल पाना किसी कीमत पर संभव नहीं है. बस, यही एक गनीमत थी कि उसे स्कूल जाने से नहीं रोका गया था और स्कूल के रास्ते में उसे करन से मुलाकात के दोचार मिनट मिल जाते थे. आशा ने बेटी के गुमराह होते पैरों को रोकने का भरसक प्रयास किया, लेकिन जया ने उन की एक नहीं मानी. एक दिन आशा को अचानक किसी रिश्तेदारी में जाना पड़ा. जाना भी बहुत जरूरी था, क्योंकि वहां किसी की मृत्यु हो गई थी.

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जल्दबाजी में आशा छोटे बेटे सोमू को साथ ले कर चली गई. जया पर प्यार का नशा ऐसा चढ़ा था कि ऐसे अवसर का लाभ उठाने से भी वह नहीं चूकी. उस ने छोटी बहन अनुपमा को चाकलेट का लालच दिया और करन से मिलने चली गई. जया ने फोन कर के करन को बुलाया और उस के सामने अपनी मजबूरी जाहिर की. जब करन कोई रास्ता नहीं निकाल पाया तो जया ने बेबाक हो कर कहा, ‘अब मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती, करन. हमारे सामने मिलने का कोई रास्ता नहीं बचा है.’ जया की बात सुनने के बाद करन ने उस से पूछा, ‘मेरे साथ चल सकती हो जया?’

‘कहां?’ जया ने रोंआसी आवाज में कहा, तो करन बेताबी से बोला, ‘कहीं भी. इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं तो पनाह मिलेगी.’ …और उसी पल जया ने एक ऐसा निर्णय कर डाला जिस ने उस के जीवन की दिशा ही पलट कर रख दी. इस के ठीक 5-6 दिन बाद जया ने सब अपनों को अलविदा कह कर एक अपरिचित राह पर कदम रख दिया. उस वक्त उस ने कुछ नहीं सोचा. अपने इस विद्रोही कदम पर वह खूब खुश थी क्योंकि करन उस के साथ था. करन जया को ले कर नैनीताल चला गया और वहां गेस्टहाउस में एक कमरा ले कर ठहर गया. करन का दिनरात का संगसाथ पा कर जया इतनी खुश थी कि उस ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि उस के इस तरह बिना बताए घर से चले जाने पर उस के मातापिता पर क्या गुजर रही होगी. काश, उसे इस बात का तनिक भी आभास हो पाता.

जया दोपहर को उस वक्त घर से निकली थी जब आशा रसोई में काम कर रही थीं. काम कर के बाहर आने के बाद जब उन्हें जया दिखाई नहीं दी तो उन्होंने अनुपमा से उस के बारे में पूछा. उस ने बताया कि दीदी बाहर गई हैं. यह जान कर आशा को जया पर बहुत गुस्सा आया. वह बेताबी से उस के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं.

जब शाम ढलने तक जया घर नहीं लौटी तो उन का गुस्सा चिंता और परेशानी में बदल गया. 8 बजतेबजते किशन भी घर आ गए थे, लेकिन जया का कुछ पता नहीं था. बात हद से गुजरती देख आशा ने किशन को जया के बारे में बताया तो वह भी घबरा गए. उन दोनों ने जया को लगभग 3-4 घंटे पागलों की तरह ढूंढ़ा और फिर थकहार कर बैठ गए. वह पूरी रात उन्होंने जागते और रोते ही गुजारी. सुबह होने तक भी जया घर नहीं लौटी तो मजबूरी में किशन ने थाने जा कर उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

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त्रिया चरित्र भाग-1

रात के 10 बज रहे थे. जेल में चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. कैदियों को उन के बैरकों में भेज दिया गया था और अब तक उन में से ज्यादातर सो गए थे, तो कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे. जेल में गश्ती दल के सिपाही गश्त पर निकल गए थे.

इन्हीं सिपाहियों में आशा भी एक थी. जब वह पहरेदारी करते हुए एक बैरक से हो कर गुजरने लगी तो एक कैदी ने उसे धीमी आवाज में पुकारा.

आवाज सुन कर आशा के पैर ठिठके और वह बैरक के लोहे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. लोहे के दरवाजे के उस पार उसे पुकारने वाला कैदी खड़ा था.

‘‘क्या है रमेश, तुम ने मुझे क्यों पुकारा?’’ आशा धीमी आवाज में बोली.

यह पूछते हुए आशा की निगाहें कैदी के दोहरे बदन पर फिसल रही थीं और आंखों में तारीफ के भाव उभरे हुए थे.

‘‘सुन, मुझे बाहर एक संदेश पहुंचाना है,’’ रमेश यादव बोला.

‘‘लगता है, किसी दिन तुम मुझे  फंसवा दोगे. तुम नहीं जानते, अगर किसी को इस बात का पता चल गया कि मैं तुम्हारे साथियों को बाहर तुम्हारा संदेशा पहुंचाती हूं तो मेरी अच्छीखासी नौकरी पर बन आएगी.’’

‘‘तुम्हारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘फिर मैं तुम्हें इस की कीमत भी तो देता हूं.’’

‘‘तुम क्या समझते हो कि मैं इस कीमत के लालच में तुम्हारा काम करती हूं,’’ आशा ने कहा.

‘‘फिर किसलिए करती हो?’’ कहते हुए रमेश यादव के होंठों पर एक हलकी सी मुसकान उभरी.

‘‘तुम्हारा यह कसरती बदन और खूबसूरत थोबड़ा मुझे पसंद आ गया है इसलिए,’’ कहते हुए आशा मुसकराई.

‘‘तू भी कुछ कम खूबसूरत और मादक नहीं है,’’ रमेश यादव ने उस के हसीन चेहरे और गदराए बदन पर एक नजर डाली.

‘‘मतलब, मैं तुम्हें पसंद हूं?’’

‘‘बहुत…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘मैं खुद तुम्हें पाने को बेचैन हूं. पर तू फिक्र न कर. मेरे साथी जल्द ही मुझे यहां से निकाल लेंगे. फिर तो हम खुल कर एकदूसरे से मिल सकेंगे.’’

‘‘न जाने वह दिन कब आएगा,’’ आशा एक सर्द आह भर कर बोली.

‘‘जल्द आएगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘खैर, मेरा यह संदेश का पुरजा इस पर लिखे पते पर पहुंचा देना.’’

आशा ने एक सतर्क निगाह चारों तरफ डाली, फिर हाथ बढ़ा कर पुरजा थाम लिया और तेजी से आगे बढ़ गई. आगे एक सुनसान जगह पर पहुंच कर उस ने पुरजा खोला तो उस में 100 रुपए का एक नोट रखा था. उस ने नोट अपनी कमीज की जेब के हवाले किया, फिर उस पुरजे को अंदर की जेब में रख कर जेल का चक्कर काटने लगी.

आशा 35 साला गदराए बदन और खूबसूरत चेहरे की थी. 10 सालों से वह पुलिस में थी और 6 महीने पहले रमेश यादव इस जेल में आया था. दोहरे बदन, मोहक चेहरेमोहरे के इस अपराधी ने जब शुरूशुरू में उस से जानपहचान करने की कोशिश की तो आशा थोड़ी हिचकी थी, फिर न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह उस से जानपहचान करती चली गई.

शायद कसरती बदन और सलोना चेहरा उसे भा गया था या फिर अपने साथियों को संदेश पहुंचाने के एवज में वह उसे पैसे जो देता था.

रमेश यादव अपने क्षेत्र का एक बदनाम अपराधी था और दुकानदारों और कारोबारियों से रंगदारी वसूलता था. उस के साथी जान से मारने या जख्मी करने से नहीं हिचकते थे.

रमेश यादव का जेल में आनाजाना लगा रहता था. पर, चाहे वह जेल के बाहर रहता या अंदर, हर हाल में उस का धंधा चलता रहता. उस के जेल में रहने की हालत में उस के साथी उस की चिट्ठी ले कर उस के बताए दुकानदार और कारोबारी के पास पहुंचते और उस के डर से दुकानदार या कारोबारी उस के द्वारा मांगी गई रकम उस के साथी को दे देते.

रमेश यादव की ऐसी ही चिट्ठियां आशा उस के साथियों तक पहुंचाने लगी. लेनदेन में दोनों शारीरिक रूप से भी एकदूसरे की ओर खिंचते चले गए थे.

जहां आशा को रमेश का दोहरा बदन ललचाता था, वहीं रमेश आशा के गदराए मादक बदन को अपनी बांहों में समेटने का ख्वाब देखता था.

कुछ सप्ताह बाद आशा का फोन बजा, ‘हैलो.’

‘‘कौन?’’

‘मैं रमेश यादव बोल रहा हूं.’

‘‘अब याद आई है मेरी…’’ आशा अपनी आवाज में नाराजगी घोलते हुए बोली, ‘‘जबकि तुम 10 दिन पहले ही जेल से बाहर आ चुके हो.’’

‘नाराज मत हो यार…’ उधर से रमेश यादव की मनुहार भरी आवाज सुनाई पड़ी, ‘जेल जाने के कारण बहुत सारा काम पैंडिंग पड़ा था, उन्हें निबटाने में उलझ गया था. इन से जैसे ही फुरसत मिली, तुम्हें फोन किया.’

‘‘फोन कैसे किया?’’

‘अरे यार, तुझ से मिलने के लिए मन बेचैन है.’

‘‘बेचैन तो मैं भी हूं.’’

‘फिर तो ऐसा कर, आज शाम

मुझ से मिल. हम दोनों मिल कर अपनीअपनी बेचैनी मिटाएंगे,’ कह कर रमेश यादव हंसा.

‘‘कहां…?’’

‘तू किसी जानीपहचानी जगह पर तो मुझ से मिल नहीं सकती.’

‘‘फिर…?’’

‘मेरे फार्महाउस पर चली आ.’

‘‘पता बोल.’’

रमेश यादव ने पता बतलाया.

‘‘ठीक है, मैं शाम को साढ़े 5 बजे तक वहां पहुंच जाऊंगी.’’

‘अच्छी बात है.’ रमेश यादव बोला.

अपने वादे के अनुसार आशा साढ़े 5 बजे रमेश यादव के फार्महाउस पर पहुंच गई. दरवाजे पर खड़े दरबान ने उसे रमेश यादव के कमरे में पहुंचाया.

आशा को देखते ही रमेश यादव खुशदिली से बोला, ‘‘आओ आशा, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.’’

आशा सधे हुए कदमों से आगे बढ़ी और आ कर उस बिछावन पर बैठ गई जिस पर रमेश यादव शराब की बोतल खोले बैठा था.

‘‘यकीन करो आशा, तुम्हारे इंतजार में शराब पीने का मजा ही नहीं आ रहा था. अब तुम आ गई हो तो पीने का असली मजा आएगा.’’

‘‘जरूर…’’ आशा उसे कातिल नजरों से देखती हुई बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपने हाथों से पिलाऊंगी,’’ कहते हुए आशा ने वहां पड़े शीशे के गिलास में शराब डाली, फिर उसे रमेश यादव की ओर बढ़ाया.

‘‘ऐसे नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘पहले तुम अपने होंठों का रस इस में घोलो. यकीन मानो, शराब का नशा दोगुना हो जाएगा.’’

आशा ने गिलास से एक घूंट भरा, फिर गिलास रमेश यादव के होंठों से लगा दिया. एक ही सांस में रमेश यादव ने गिलास खाली किया, फिर वह हसरतभरी नजरों से आशा के गदराए बदन को देखने लगा. ऐसे में जब आशा ने दोबारा गिलास भरा तो वह बोला, ‘‘ऐसे दूरदूर से मत पिला. जरा मेरे करीब आ जा.’’

बदले में आशा अपनी टांगें फैला कर उस की गोद में आ बैठी, फिर गिलास उस के होंठों से लगाया. अब की बार रमेश यादव ने जरा भी जल्दीबाजी नहीं की बल्कि घूंटघूंट शराब चुसकने लगा.

दूसरी ओर रमेश यादव के हाथ आशा के बदन की ऊंचाइयांगहराइयां नाप रहे थे. अपने बदन पर रमेश यादव के बेताब हाथों की छुअन पा कर आशा बेहाल होने लगी. ऐसे में उस ने अपने हाथ का गिलास फर्श पर टिकाया, फिर रमेश यादव को बिछावन पर लिटा कर उस को बेताबी से चूमने लगी.

आशा की इस हरकत से रमेश यादव के तनबदन में वासना के शोले भड़कने लगे और उस ने अपने ऊपर सवार आशा की कमर के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं.

इस के बाद तो आशा अकसर रमेश यादव से मिलने लगी. रमेश यादव न सिर्फ भरपूर जिस्मानी सुख देता था, बल्कि उस पर दोनों हाथों से पैसे भी लुटाता था.

आशा तो पहले ही अपने पति से खुश नहीं थी, रमेश यादव जैसा प्रेमी पा कर उस की ओर से आशा और भी लापरवाह हो गई. जेल की नौकरी में पैसा और रिश्वत दोनों मिलते थे, पर इतने नहीं.

अगले भाग में पढ़िए- क्या हुआ आशा और रमेश के नाजायज रिश्ते का… ?

त्रिया चरित्र भाग-2

यहां पढ़िए पहला भाग- त्रिया चरित्र भाग-1

अब आगे….

आशा के पति रतनलाल ने जब उस में आए इस बदलाव को महसूस किया तो उस का माथा ठनका. रतनलाल को लगा कि हो न हो, आशा ने घर से बाहर अपना कोई यार पाल लिया है.

एक रात को वह आशा से बोला, ‘‘आशा, आजकल तू किस दुनिया में रह रही है?’’

पति रतनलाल के इस सवाल पर आशा चौंकी, पर जल्द ही अपनेआप

को संभालते हुए वह बोली, ‘‘क्या मतलब…?’’

‘‘मैं देख रहा हूं कि आजकल तेरे तो रंगढंग ही बदल गए हैं. तू यह बात बिलकुल भूल गई है कि घर में तेरा एक पति भी है. रात को जब मैं तुझे हाथ लगाता हूं तो तू मेरा हाथ झटक देती है. कहीं तू ने घर के बाहर अपना कोई यार तो नहीं पाल लिया है?’’

मन ही मन डरती आशा तेज आवाज में बोली, ‘‘तुम्हें अपनी पत्नी से ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती? यह सीधासीधा मेरे चरित्र पर लांछन है.’’

‘‘अच्छा होगा, यह लांछन ही हो. मगर हकीकत में बदला तो याद रख. मैं तेरा जीना हराम कर दूंगा,’’ रतनलाल उसे घूरता हुआ बोला.

पति रतनलाल के शक को देखते हुए आशा कुछ दिनों तक रमेश यादव से मिलने में सावधानी बरतती रही और जब उसे पक्का यकीन हो गया कि रतनलाल उस की ओर से बेपरवाह हो गया है तो फिर से खुल कर उस से मिलने लगी.

पर रतनलाल उस की ओर से लापरवाह नहीं हुआ था, बल्कि चोरीछिपे उस की हरकतों पर नजर रख रहा था.

कुछ ही दिन के बाद रतनलाल को मालूम हो गया कि आशा ने रमेश यादव नामक के एक अपराधी से यारी गांठ ली है और उस के साथ मिल कर रंगरलियां मनाती है.

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सचाई जानते ही उस का खून खौल उठा. एक रात जब वह घर लौटी, तो रतनलाल बोला, ‘‘कहां से आ रही है तू?’’

‘‘पुलिस स्टेशन से.’’

‘‘पता है, इस समय रात के 11 बज रहे हैं?’’ रतनलाल उसे घूरता हुआ बोला, ‘‘मैं ने पुलिस स्टेशन फोन किया था. मालूम हुआ कि तू वहां से शाम 7 बजे ही निकल गई थी.’’

‘‘रास्ते में एक सहेली मिल गई थी. उसी के साथ उस के घर चली गई थी,’’ आशा उस से नजरें चुराते हुए बोली.

‘‘और तुम्हारी उस सहेली का नाम रमेश यादव है?’’ रतनलाल गुस्से से चिल्लाया, ‘‘यह कहते हुए तेरी रूह कांपती है कि तू अपने इसी यार के साथ रंगरलियां मना कर वापस लौट रही है.’’

आशा बौखलाई हुई सी उसे देखती रह गई.

‘‘बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘यह सरासर झूठ है,’’ आशा कांपती हुई आवाज में बोली.

बदले में रतनलाल उस की ओर लपका, फिर उस के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ रसीद करता हुआ बोला, ‘‘तू क्या समझती है, मैं अंधा और

बहरा हूं. मुझे कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं देता?

‘‘जानती है, जिस रमेश यादव की तू आजकल प्यारी बनी हुई है, उस के फार्महाउस का गार्ड मेरा दोस्त है. कल वह मजे लेले कर कह रहा था कि उस के साहब ने आजकल एक रखैल पाल रखी है जिस का नाम आशा है और वह घंटों उस की बांहों में झूलती वासना का नंगा खेल खेलती है.’’

आशा के मुंह से बोल नहीं फूटे. दूसरी ओर गुस्से से पागल हुआ पति रतनलाल उसे पीटता चला गया.

रतनलाल उसे पीट कर घर से निकल गया, पर आशा घंटों बेइज्जती और बदले की आग में जलतीसिसकती रही.

अगली मुलाकात में रमेश यादव से जब आशा ने ये सारी बातें कहीं, तो वह गुस्से से उबलता हुआ बोला, ‘‘उस की यह हिम्मत कि वह रमेश यादव की यार पर हाथ उठाए, पर तुम फिक्र न करो. मैं जल्द ही इस का इलाज कर दूंगा. बस, तुम्हें मेरा साथ देना होगा.’’

आशा ने उसे इस की सहमति दे दी.

आशा के घर के दरवाजे पर एक खास अंदाज में थाप पड़ी. इसे सुनते ही बिछावन पर आंखें मूंदे लेटी आशा ने अपनी आंखें खोल दीं. वह चुपके से बिछावन से उतरी, फिर बिछावन पर गहरी नींद में सोए रतनलाल पर एक गहरी नजर डालने के बाद दरवाजे की ओर बढ़ गई. उस ने जब दरवाजा खोला तो रमेश यादव जल्दी से अंदर आता हुआ बोला, ‘‘कहां है?’’

‘‘अपने कमरे में गहरी नींद में सोया पड़ा है.’’

‘‘चलो,’’ रमेश यादव बोला.

आशा ने अंदर से दरवाजा बंद कर दिया, फिर कमरे में आ गई. कमरे में बिछी चारपाई पर पति रतनलाल दीनदुनिया से बेखबर सो रहा था.

बिछावन के पास पहुंच कर रमेश यादव ने आंखों ही आंखों में आशा को कुछ इशारा किया, फिर चुपके से वह बिछावन पर चढ़ गया. उस ने रतनलाल के बगल में पड़ा तकिया उठा कर उस के मुंह पर रखा, फिर उस के सीने पर सवार हो कर अपनी हथेलियों का पूरा वजन तकिए पर डाल दिया.

दबाव पड़ते ही रतनलाल ने अपनी आंखें खोल दीं. ऐसे में जब उस की नजर अपने सीने पर सवार रमेश यादव पर पड़ी तो हैरानी से उस की आंखें फटती चली गईं. उसे समझते देर न लगी कि रमेश यादव उस का गला घोंटना चाहता है. यह समझते ही उस की आंखों में खौफ के भाव उभरते चले गए और वह उस के चंगुल से छूटने के लिए अपने हाथपैर पटकने लगा.

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उस के ऐसा करते ही रमेश यादव बिछावन के पास ही खड़ी आशा से बोला, ‘‘इस के पैर पकड़ो आशा.’’

पर ऐसा लगा, जैसे आशा ने उस की बात सुनी ही न हो. वह मूर्ति बनी कभी रतनलाल के सीने पर सवार, उस का गला घोंटते रमेश यादव को देख रही थी, तो कभी हाथपैर पटकते रतनलाल को.

सच तो यह था कि इस समय उस के दिलोदिमाग में एक भयानक लड़ाई चल रही थी. एक औरत और एक पत्नी में धीरेधीरे पत्नी का पलड़ा भारी पड़ता चला गया और आशा सोचने लगी कि चाहे रतनलाल कैसा भी है, पर है तो उस का पति ही. उस का और उस के बच्चे का भविष्य उसी के साथ सुरक्षित था.

दूसरी ओर रमेश यादव एक अपराधी था और इस समय भी एक अपराध करने जा रहा था. वह उसे भी इस अपराध में शामिल करना चाहता था.

पुलिस में होने के चलते आशा को यह बात अच्छी तरह से मालूम थी कि अगर उस का यह अपराध उजागर हो जाता तो उस के साथ उस की भी जिंदगी तबाह हो जाती. पर आशा ऐसा हरगिज नहीं चाहती थी, तो फिर…?

जवाब में आशा ने अपनी नजरें कमरे में चारों तरफ दौड़ाईं. उसे कमरे में एक ओर मोटा डंडा पड़ा दिखाई दिया. उस ने डंडा उठाया, फिर रतनलाल का गला घोंटते रमेश यादव के सिर पर पूरी ताकत से दे मारा.

रमेश यादव के मुंह से एक दर्दनाक चीख उभरी. रतनलाल का गला छोड़ वह अपना सिर पकड़ कर वहीं जमीन पर गिर पड़ा. उस का सिर फट गया था और वहां से खून का फव्वारा फूट पड़ा था. कुछ देर तक वह तड़पता रहा, फिर वह मर गया.

एक घंटे बाद आशा के घर में पुलिस वालों की भीड़ लगी हुई थी और उस ने इंस्पैक्टर को यह बयान दिया था कि रमेश यादव उस पर बुरी नजर रखता था जिस का विरोध उस का पति रतनलाल करता था. रमेश यादव उस के घर में घुस आया और उस ने उस के पति का गला घोंट कर मारना चाहा. अपने पति की जान बचाने के लिए उसे रमेश यादव को मारना पड़ा.

जब आशा अपना यह बयान दे रही थी तो रतनलाल हैरत भरी नजरों से उसे देख रहा था.

आशा के इस बरताव ने उसे सकते में ला दिया था और वह यह सोचने पर मजबूर हो गया था कि लोग यह गलत नहीं कहते, ‘औरत का चरित्र इनसान तो क्या कोई नहीं समझ सकता.’

मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी: भाग 3

दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी: भाग 2

देर तक एकदूसरे के सामने बैठे हम अपने बीते कल और अकेले आज पर आंसू बहाते रहे, न उस ने मुझे चुप कराना चाहा और न मैं ने ही उसे रोका.

काफी समय बीत गया. जब लगा मन हलका हो गया तब हाथ उठा कर चंद्रा का सिर थपथपा दिया मैं ने.

‘‘बस करो, अब और कितना रोओगी?’’

रोतेरोते हंस पड़ी चंद्रा. आंखें पोंछ अपना पर्स खोला और मेरे लिए लाया ढोकला मुझे दिखाया.

‘‘जरा सा चखना चाहोगे, मुंह का स्वाद अच्छा हो जाएगा.’’

लगा, बरसों पीछे लौट गया हूं. आज भी हम जवान ही हैं…जब आंखों में हजारोंलाखों सपने थे. हर किसी की मुट्ठी बंद थी. कौन जाने हाथ की लकीरों में क्या होगा. अनजान थे हम अपने भविष्य को ले कर और अनजाने रहने में ही कितना सुख था. आज सबकुछ सामने है, कुछ भी ढकाछिपा नहीं. पीछे लौट जाना चाहते हैं हम.

‘‘मन नहीं हो रहा चंद्रा…भूख भी नहीं लग रही.’’

‘‘तो सो जाओ, रात के 9 बज गए हैं.’’

‘‘तुम होस्टल चली जातीं तो आराम से सो पातीं.’’

‘‘यहां क्या परेशानी है मुझे? पुराना साथी सामने है, पुरानी यादों का अपना ही मजा है, तुम क्या जानो.’’

‘‘मैं कैसे न जानूं, सारी समझदारी क्या आज भी तुम्हारी जेब में है?’’

मेरे शब्दों पर पुन: चौंक उठी चंद्रा. मुझे ठीक से लिटा कर मुझ पर लिहाफ ओढ़ातेओढ़ाते उस के हाथ रुक गए.

‘‘झगड़ा करना चाहते हो क्या?’’

‘‘इस में नया क्या है? बरसों पहले जब हम अलग हुए थे तब भी तो एक झगड़ा हुआ था न हमारे बीच.’’

‘‘याद है मुझे, तो क्या आज हारजीत का निर्णय करना चाहते हो?’’

‘‘हां, आखिर मैं एक पुरुष हूं. जाहिर सी बात है जीतना तो चाहूंगा ही.’’

‘‘मैं हार मानती हूं, तुम जीत गए.’’

‘‘चंद्रा, मेरी बात सुनो…’’ सामने बेंच की ओर बढ़ती चंद्रा का हाथ पकड़ लिया मैं ने. पहली बार ऐसा प्रयास किया है मैं ने और मेरा यह प्रयास एक अधिकार से ओतप्रोत है.

‘‘मेरे पास बैठो, यहां.’’

एक उलझन उभर आई है चंद्रा की आंखों में. शायद मेरा यह प्रयास मेरी अधिकार सीमा में नहीं आता.

‘‘सब के सामने तो तुम पूछती हो कि मेरा परिवार कहां है? मेरी पत्नी कहां है? अगर शादी नहीं की तो क्यों नहीं की? अकेले में क्यों नहीं पूछतीं? अभी हम अकेले हैं न. पूछो मुझ से कि मैं किस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र?’’

मेरे हाथ से अपना हाथ नहीं छुड़ाया चंद्रा ने. मेरी बगल में चुपचाप बैठ गई.

‘‘बरसों पहले भी मैं तुम से हारना नहीं चाहता था. तब भी मेरे जीतने का मतलब अलग होता था और आज भी अलग है…

‘‘तुम्हें हरा कर जीतना मैं ने कभी नहीं चाहा. तब भी जब तुम सही प्रमाणित हो जाती थीं तो मुझे खुशी होती थी और आज भी तुम्हारी ही जीत में मेरी जीत है.

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‘‘चंद्रा, तुम्हारे सुख की कामना में ही मेरा पूरा जीवन चला गया और आज पता चला मेरा चुप रह जाना किसी भी काम नहीं आया. मेरा तो जीनामरना सब बस, यों ही…

‘‘देखो चंद्रा, जो हो गया उस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. वही हुआ जो होना था. स्वयं पर गुस्सा आ रहा है मुझे. जिस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र, कम से कम कभी उस का हाल तो पूछ लेता. तुम जैसी किसी को खोजखोज कर थक गया. थक गया तो खोज समाप्त कर दी. तुम जैसी भला कोई और हो भी कैसे सकती थी. सच तो यह है कि तुम्हारी जगह कोई और न ले सकती थी और न ही मैं ने वह जगह किसी को दी.’’

डबडबाई आंखों से चंद्रा मुझे देखती रही.

‘‘मेरे दिल पर इसी सत्य ने प्रहार किया है कि मेरा चुप रह जाना आखिर किस के काम आया. न तुम्हारे न ही मेरे. एक घर जो कभी बस सकता था… बस ही नहीं पाया… किसी का भी भला नहीं हुआ. खाली हाथ तुम भी हो और मैं भी.’’

‘‘कल से तुम्हें महसूस कर रही हूं मैं सोम. 50 के आसपास तो मैं भी पहुंच चुकी हूं. तुम जानते हो न मेरी छटी इंद्री की सूचना कभी गलत नहीं होती…जिस इनसान से मेरी शादी हुई थी वह कभी मुझे अपना सा नहीं लगा था. और सच में वह मेरा कभी था भी नहीं…उस के बाद हिम्मत ही नहीं हुई किसी पर भरोसा कर पाऊं.’’

‘‘क्या मुझ पर भी भरोसा नहीं कर पाओगी?’’

‘‘तुम तो सदा से अपने ही थे सोम, पराए कभी लगे ही नहीं थे. आज इतने सालों बाद भी लगता नहीं कि इतना समय बीत गया. तुम पर भरोसा है तभी तो पास बैठी हूं…अच्छा, मैं पूछती हूं तुम से…

‘‘सोम, तुम ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मत पूछना, क्योंकि अपनी बरबादी का सारा जिम्मा मैं तुम्हीं पर डाल दूंगा जो शायद तुम्हें बुरा लगेगा. तुम्हारे बाद रास्ता ही खो गया. वहीं खड़ा रहा मैं…दाएंबाएं कभी नहीं देखा. तनमन से वैसा ही हूं जैसा तुम ने छोड़ा था.’’

‘‘तनमन से मैं तो वैसी नहीं हूं न. 2 संतानें मेरे गर्भ में आईं और चली गईं. पहले उन्हीं को याद कर के दुखी हो लेती थी फिर सोचा पागल हूं क्या मैं? जिंदा पति किसी बदनाम औरत का हाथ पकड़ गंदगी में समा गया. उसे नहीं बचा पाई तो उन बच्चों का क्या रोना जिन्हें कभी न देखा न सुना. कभीकभी तो लगता है पत्थर बन गई हूं जिस पर सुखदुख का कोई असर नहीं होता.’’

‘‘असर होता है. असर कैसे नहीं होता?’’ और इसी के साथ मैं ने चंद्रा को अपने पास खींच लिया. फिर सस्नेह उस का माथा सहला कर सिर थपथपा दिया.

‘‘असर होता है तुम पर चंद्रा. समय की मार से हम समझदार हो गए हैं, पत्थर तो नहीं बने. पत्थर बन जाते तो एकदूसरे के आरपार कभी नहीं देख पाते.’’

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मेरे हाथों की ही सस्नेह ऊष्मा थी जिस ने दर्द की परतों को उघाड़ दिया.

‘‘यदि आज भी एकदूसरे का हम सहारा पा लें तो शायद 100 साल जी जाएं और उस हिसाब से तो अभी मध्यांतर भी नहीं हुआ.’’

नन्ही बच्ची की तरह रो पड़ी चंद्र्रा. बांहों में छिपा कर माथा चूम लिया मैं ने. छाती में जो हलकाफुलका दर्द सुबह शुरू हुआ था सहसा कहीं खो सा गया.

मां, पराई हुई देहरी तेरी: भाग 1

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता?है. मां के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब- कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी. कमरे में मेरी पसंद के क्रीम कलर की जगह आसमानी रंग हो गया है. परदे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिए गए हैं, जिन पर बड़ेबड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं.

मैं अपना पलंग दरवाजे के सामने वाली दीवार की तरफ रखना पसंद करती थी. अब भैयाभाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाजे से दिखाई न दे. पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं. जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था, अब उसे हटा कर वहां झूला रख दिया गया?है, जिस में वह सफेद मखमली सा शिशु किलकारियां ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के 10 महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूं.

‘‘आइए दीदी, आप की आवाज से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है,’’ भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है. वह तकिए का सहारा ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइए.’’

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है. मेरी मां के घर में मेरे कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराए मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है.

‘‘पहले यह बताइए कि अब आप कैसी हैं?’’ मैं सहज बनने की कोशिश करती हूं.

‘‘यह तो हमें देख कर बताइए. आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिए. हम ने तो आप को ननद के साथ गुरु  भी बना लिया है. सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आए?थे.’’

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मैं थोड़ा सकुचा जाती हूं. भैया मुझ से 3 वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की जिद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे. मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी.

भाभी अपनी ही रौ में बताए जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उन की हालत खराब हो गई थी. आपरेशन द्वारा प्रसव हुआ.

‘‘आप तो लिखती थीं कि सबकुछ सामान्य चल रहा है फिर आपरेशन क्यों हुआ?’’ कहते हुए मेरी नजर अलमारी पर फिसल जाती है, जहां मेरी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबें रखी रहती थीं. वहां एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने. ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है.

‘‘सबकुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मांबच्चे दोनों की जान को खतरा है. घर वालों को तो घबरा कर आपरेशन के लिए ‘हां’ कहनी ही पड़ती है.’’

‘‘अब तो जिस से सुनो, उस के ही आपरेशन से बच्चा हो रहा है. हमारे जमाने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही आपरेशन से होते थे,’’ मां शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं.

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों को छूना चाह रही है जो मैं ने अपनी मां के घर के इस कमरे में गुजारे हैं. परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा. बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो शृंगार मेज के सामने घूमघूम कर अपनेआप को निखारने के लिए यही कमरा. मां या पिताजी से कोई अपनी जिद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना. मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से. अब यही इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलतीकूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा.

‘‘तू यहीं छिपी बैठी है. मैं तुझे कब से ढूंढ़ रहा हूं,’’ भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं. भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, ‘‘लीजिए, बंदा आप के लिए शक्तिवर्धक दवाएं व फल ले आया है.’’ फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, ‘‘देखा तू ने इसे. मां कह रही थीं बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी. अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठातेउठाते हमारी मुसीबत ही आ जाएगी.’’

‘‘मारूंगी, ऐसे कहा तो,’’ मैं तुनक कर जवाब देती हूं. मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है. अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा. सबकुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी खुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है. मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी. भैया की शादी की तैयारी करवाने 15 दिन पहले ही चली आई थी. मैं ने और मां ने बहुत चाव से ढूंढ़ढूंढ़ कर शादी का सामान चुना था. अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के लिए तनछोई की साड़ी चुनी थी. बरात में भी देर तक नाचती रही थी.

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मां व मैं घर पर सारी खुशियां समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं. भैया भाभी के आंचल से अपने फेंटे की गांठ बांधे धीरेधीरे दरवाजे पर आ रहे थे.

‘‘अंदर आने का कर लगेगा, भैया.’’ मैं ने अपना हाथ फैला दिया था.

‘‘पराए घर की छोकरी मुझ से कर मांग रही है, चल हट रास्ते से,’’ भैया मुझे खिजाने के लिए आगे बढ़ते आए थे.

‘‘मैं तो नहीं हटूंगी,’’ मैं भी अड़ गई थी.

‘‘कमल, झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा,’’ मां और एक बुजुर्ग महिला ने बीचबचाव किया था.

‘‘तुम्हीं बताओ, इसे कितनी बख्शीश दें?’’ भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था.

भाभी तो संकोच से आधे घूंघट में और भी सिमट गई थीं. किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था. मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की जरूरत महसूस होने लगी है.

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनिया में मस्त हो गई थी. मुझे खुश देखती मां, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई. मां तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थीं. घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो. शायद मेरे पराए हो जाने का एहसास ही उन के लिए मेरे बिछोह को सहने की शक्ति भी बना होगा.

‘‘संभालो अपने शहजादे को,’’ भैया, मुन्ने को भाभी के पास लिटाते हुए बोले, ‘‘अब पड़ेगी डांट. मैं यह कहने आया था कि मेज पर मां व विनयजी तेरा इंतजार कर रहे हैं.’’

खाने की मेज पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है.

मेरे बैठते ही मां विनय से कहती हैं, ‘‘विनयजी, मैं सोच रही हूं कि 3 महीने बाद हम लोग मुन्ने का मुंडन करवा देंगे. आप लोग जरूर आइए, क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बूआ लेती है.’’

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मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पाएंगे.’’

मैं जानती हूं कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है.

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, ‘‘3 महीने बाद तो आना नहीं हो सकता. इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रंगीला ‘रतन’ का खत डियर डैडी के नाम

लेखक- ब्रजकिशोर पटेल

माई डियर वीर बहादुर डैडी, आप को यह जान कर खुशी होगी कि मैं आप के ही नक्शेकदम पर चल रहा हूं यानी मेरे इम्तिहान के नतीजे भी आप के इस साल के चुनावी नतीजे की तरह ही रहे हैं… टांयटांय फिस.

डैडी, आप मेरे सम ादार पिता हैं और अगर मेरे इम्तिहान के रिजल्ट की जानकारी आप को मेरे बताने से पहले ही मिल भी गई हो, तो मु ो यकीन है कि आप ने कभी भूल कर भी यह नहीं सोचा होगा कि मैं शर्म के मारे मरा जा रहा होऊंगा या कहीं डूब मरने के लिए चुल्लूभर पानी की तलाश कर रहा होऊंगा.

मैं अपने बहादुर डैडी का हिम्मती बेटा हूं. अपनी मरजी से सिर मुंड़ाता हूं, तो फिर ओले की परवाह भी नहीं करता हूं. हारजीत के मायामोह से मैं कोसों दूर हूं और आप के ही इस फलसफे का कायल हूं कि ‘गिरते हैं घुड़सवार ही मैदानेजंग में…’

और फिर डैडी, जिस तरह आप बहुत थोड़े से वोटों के अंतर से अपना तकरीबन जीता हुआ चुनाव हार गए थे, मैं भी बहुत थोड़े अंकों की कमी से पास होतेहोते रह गया हूं.

आदरणीय पिताजी, चुनाव हारने के बाद आप ने अपने पै्रस नोट में कहा था कि आप हारे नहीं हैं, बल्कि साजिशन हराए गए हैं, क्योंकि विरोधियों ने फर्जी वोटिंग कराई थी.

आप के चुनाव हारने की एक बहुत बड़ी वजह ‘भितरघात’ भी रही है. मेरे साथ भी कुछ भितरघातियों ने खुराफात की है.

मैं जिन्हें अपना खास दोस्त सम ाता रहा, उन्होंने जानबू ा कर ‘भूगोल’ के परचे के दिन मेरी जेब में ‘इतिहास’ की चिटें और ‘इतिहास’ के परचे के दिन ‘अर्थशास्त्र’ की चिटें रख दी थीं,

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वरना डैडी आप ही सोचिए कि आप का पूत इतना

कपूत तो नहीं हो सकता

कि ठीक से नकल भी न

कर सके.

प्रिंसिपल के नोटिस से आप को पता चला ही होगा कि इस साल मु ो नकल करते रंगे हाथों पकड़ा

गया था.

ऐसा मेरे विरोधियों की चाल के चलते हुआ है. उन्होंने साजिशन मेरी जेब

में पहले से ही नकल

की परचियां और चाकू रख दिए थे, वरना डैडी, मैं तो अपने कारतूस इस तरह छिपा कर रखता हूं कि सीबीआई भी जांच करे तो हाथ कुछ नहीं लगे.

डियर डैडी, चुनाव में हारने के बावजूद जिस तरह आप ने हिम्मत नहीं हारी थी और पार्टी के संगठन की जिम्मेदारी उठाने के लिए हाईकमान का आदेश सिरआंखों पर ले लिया था, ठीक इसी तरह ‘नकल कांड’ और 3 साल तक इम्तिहान से वंचित किए जाने के बाद मु ो कोई गिलाशिकवा नहीं है. इन 3 सालों में मैं कालेज की छात्र यूनियन को मजबूत करने का काम पूरा मन लगा कर करूंगा.

सीनियर होने के नाते जूनियर छात्रों द्वारा आसानी से नेता मान लेने का फायदा तो मु ो मिलेगा ही, आप को यह जान कर खुशी होगी कि हमारी छात्र यूनियन ने उत्तर प्रदेश के नकल विरोधी कानून के बावजूद वहां के छात्रों द्वारा नकल परंपरा को जिंदा रखने और किए गए हिफाजत के उपायों की स्टडी करने के लिए वहां एक दल भेजने का फैसला लिया है.

यह दल उत्तर प्रदेश से लगे हुए हमारे मध्य प्रदेश के भिंड, मुरैना, शिवपुरी वगैरह जिलों में अपनाई जाने वाली ‘बेहतरीन’ नकल तरीकों की भी स्टडी करेगा.

अब आप यह तो सम ा ही गए होंगे कि इस दल की जिम्मेदारी भी मु ो ही सौंपी गई है.

अभी मुझे यह खबर मिली है कि मेरे सुपर डैडी ने कमाल कर दिया है. आप ने मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोंक दिया है. सत्ता दल के

25 विधायकों को तोड़ कर उसे अल्पमत में ला दिया है. ऐसा लग रहा है, जैसे आप सप्लीमैंट्री एग्जामिनेशन में पास हो गए हैं. वैरी गुड डैडी. आप को अब 5 साल का इंतजार नहीं करना पड़ा. मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण से पहले ही आप को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.

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डियर डैडी, इंतजार तो मु ो भी नहीं करना पड़ा, अगले इम्तिहान का सालभर. रीटोटलिंग की फैसिलिटी का फायदा उठा कर मैं एक विषय में पास हो गया. नतीजतन, मु ो पूरक परीक्षा का पात्र मान लिया गया. पूरक परीक्षा में कुछ नकल टीप ली और कुछ प्रिंसिपल को डराधमका कर पासिंग मार्क्स हासिल कर लिए.

आप के आशीर्वाद से मैं भी आप की ही तरह जुगाड़तुगाड़ कर के आखिरकार पास हो ही गया. आखिर बेटा किस

का हूं.

डियर डैडी, इस लिहाज से हम

दोनों की कामयाबी तो यही साबित करती है कि भारतीय लोकतंत्र में ‘जुगाड़तुगाड़’ बहुत जरूरी कला है. जो इस कला में माहिर है, वह हार कर भी जीत सकता है. और तो और जो इस कला से अनजान है, वह जीत कर भी हार सकता है.

आप का होनहार वारिस,

रंगीला ‘रतन’.

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