रूह का स्पंदन: क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.

दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.

दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.

दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.

दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.

उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.

सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.

पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.

सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.

घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.

काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.

सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.

सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.

घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.

निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.

तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

लव इन मालगाड़ी: मालगाड़ी में पनपा मंजेश और ममता का प्यार

देश में लौकडाउन का ऐलान हो गया, सारी फैक्टरियां बंद हो गईं, मजदूर घर पर बैठ गए. जाएं भी तो कहां. दिहाड़ी मजदूरों की शामत आ गई. किराए के कमरों में रहते हैं, कमरे का किराया भी देना है और राशन का इंतजाम भी करना है. फैक्टरियां बंद होने पर मजदूरी भी नहीं मिली.

मंजेश बढ़ई था. उसे एक कोठी में लकड़ी का काम मिला था. लौकडाउन में काम बंद हो गया और जो काम किया, उस की मजदूरी भी नहीं मिली.

मालिक ने बोल दिया, ‘‘लौकडाउन के बाद जब काम शुरू होगा, तभी मजदूरी मिलेगी.’’

एक हफ्ते घर बैठना पड़ा. बस, कुछ रुपए जेब में पड़े थे. उस ने गांव जाने की सोची कि फसल कटाई का समय है, वहीं मजदूरी मिल जाएगी. पर समस्या गांव पहुंचने की थी, दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के सीतापुर के पास गांव है. रेल, बस वगैरह सब बंद हैं.

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तभी उस के साथ काम करने वाला राजेश आया, ‘‘मंजेश सुना है कि आनंद विहार बौर्डर से स्पैशल बसें चल रही हैं. फटाफट निकल. बसें सिर्फ आज के लिए ही हैं, कल नहीं मिलेंगी.’’

इतना सुनते ही मंजेश ने अपने बैग में कपड़े ठूंसे, उसे पीठ पर लाद कर राजेश के साथ पैदल ही आनंद विहार बौर्डर पहुंच गया.

बौर्डर पर अफरातफरी मची हुई थी. हजारों की तादाद में उत्तर प्रदेश और बिहार जाने वाले प्रवासी मजदूर अपने परिवार के संग बेचैनी से बसों के इंतजार में जमा थे.

बौर्डर पर कोई बस नहीं थी. एक अफवाह उड़ी और हजारों की तादाद में मजदूर सपरिवार बौर्डर पर जमा हो गए. दोपहर से शाम हो गई, कोई बस नहीं आई. बेबस मजदूर पैदल ही अपने गांव की ओर चल दिए.

लोगों को पैदल जाता देख मंजेश और राजेश भी अपने बैग पीठ पर लादे पैदल ही चल दिए.

‘‘राजेश, सीतापुर 500 किलोमीटर दूर है और अपना गांव वहां से 3 किलोमीटर और आगे, कहां तक पैदल चलेंगे और कब पहुंचेंगे…’’ चलतेचलते मंजेश ने राजेश से कहा.

‘‘मंजेश, तू जवान लड़का है. बस 10 किलोमीटर के सफर में घबरा गया. पहुंच जाएंगे, चिंता क्यों करता है. यहां सवारी नहीं है, आगे मिल जाएगी. जहां की मिलेगी, वहां तक चल पड़ेंगे.’’

मंजेश और राजेश की बात उन के साथसाथ चलते एक मजदूर परिवार ने सुनी और उन को आवाज दी, ‘‘भैयाजी क्या आप भी सीतापुर जा रहे हैं?’’

सीतापुर का नाम सुन कर मंजेश और राजेश रुक गए. उन के पास एक परिवार आ कर रुक गया, ‘‘हम भी सीतापुर जा रहे हैं. किस गांव के हो?’’

मंजेश ने देखा कि यह कहने वाला आदमी 40 साल की उम्र के लपेटे में होगा. उस की पत्नी भी हमउम्र लग रही थी. साथ में 3 बच्चे थे. एक लड़की तकरीबन 18 साल की, उस से छोटा लड़का तकरीबन 15 साल का और उस से छोटा लड़का तकरीबन 13 साल का.

‘‘हमारा गांव प्रह्लाद है, सीतापुर से 3 किलोमीटर आगे है,’’ मंजेश ने अपने गांव का नाम बताया और उस आदमी से उस के गांव का नाम पूछा.

‘‘हमारा गांव बसरगांव है. सीतापुर से 5 किलोमीटर आगे है. हमारे गांव आसपास ही हैं. एक से भले दो. बहुत लंबा सफर है. सफर में थोड़ा आराम रहेगा.’’

‘‘चलो साथसाथ चलते हैं. जब जाना एक जगह तो अलगअलग क्यों,’’ मंजेश ने उस से नाम पूछा.

‘‘हमारा नाम भोला प्रसाद है. ये हमारे बीवीबच्चे हैं.’’

मंजेश की उम्र 22 साल थी. उस की नजर भोला प्रसाद की बेटी पर पड़ी और पहली ही नजर में वह लड़की मंजेश का कलेजा चीर गई. मंजेश की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी.

‘‘भोला अंकल, आप ने बच्चों के नाम तो बताए ही नहीं?’’ मंजेश ने अपना और राजेश का नाम बताते हुए पूछा.

‘‘अरे, मंजेश नाम तो बहुत अच्छा है. हमारी लड़की का नाम ममता है. लड़कों के नाम कृष और अक्षय हैं.’’

मंजेश को लड़की का नाम जानना था, ममता. बहुत बढि़या नाम. उस का नाम भी म से मंजेश और लड़की का नाम भी म से ममता. नाम भी मैच हो गए.

मंजेश ममता के साथसाथ चलता हुआ तिरछी नजर से उस के चेहरे और बदन के उभार देख रहा था. उस के बदन के आकार को देखता हुआ अपनी जोड़ी बनाने के सपने भी देखने लगा.

मंजेश की नजर सिर्फ ममता पर टिकी हुई थी. ममता ने जब मंजेश को अपनी ओर निहारते देखा, उस के दिल में भी हलचल होने लगी. वह भी तिरछी नजर से और कभी मुड़ कर मंजेश को देखने लगी.

मंजेश पतले शरीर का लंबे कद का लड़का है. ममता थोड़े छोटे कद की, थोड़ी सी मोटी भरे बदन की लड़की थी. इस के बावजूद कोई भी उस की ओर खिंच जाता था.

चलतेचलते रात हो गई. पैदल सफर में थकान भी हो रही थी. सभी सड़क के किनारे बैठ गए. अपने साथ घर का बना खाना खाने लगे. कुछ देर के लिए सड़क किनारे बैठ कर आराम करने लगे.

जब दिल्ली से चले थे, तब सैकड़ों की तादाद में लोग बड़े जोश से निकले थे, धीरेधीरे सब अलगअलग दिशाओं में बंट गए. कुछ गिनती के साथी अब मंजेश के साथ थे. दूर उन्हें रेल इंजन की सीटी की आवाज सुनाई दी. मंजेश और राजेश सावधान हो कर सीटी की दिशा में कान लगा कर सुनने लगे.

‘‘मंजेश, रेल चल रही है. यह इंजन की आवाज है,’’ राजेश ने मंजेश से कहा.

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‘‘वह देख राजेश, वहां कुछ रोशनी सी है. रेल शायद रुक गई है. चलो, चलते हैं,’’ सड़क के पास नाला था, नाला पार कर के रेल की पटरी थी, वहां एक मालगाड़ी रुक गई थी.

‘‘राजेश उठ, इसी रेल में बैठते हैं. कहीं तो जाएगी, फिर आगे की आगे सोचेंगे. भोला अंकल जल्दी करो. अभी रेल रुकी हुई है, पकड़ लेते हैं,’’ मंजेश के इतना कहते ही सभी गोली की रफ्तार से उठे और रेल की ओर भागे. उन को देख कर आतेजाते कुछ और मजदूर भी मालगाड़ी की ओर लपके. जल्दबाजी में सभी नाला पार करते हुए मालगाड़ी की ओर दौड़े, कहीं रेल चल न दे.

ममता नाले का गंदा पानी देख थोड़ा डर गई. मंजेश ने देखा कि कुछ दूर लकड़ी के फट्टों से नाला पार करने का रास्ता है. उस ने ममता को वहां से नाला पार करने को कहा. लकड़ी के फट्टे थोड़े कमजोर थे, ममता उन पर चलते हुए डर रही थी.

मंजेश ने ममता का हाथ पकड़ा और बोला, ‘‘ममता डरो मत. मेरा हाथ पकड़ कर धीरेधीरे आगे बढ़ो.’’

मंजेश और ममता एकदूसरे का हाथ थामे प्यार का एहसास करने लगे.

राजेश, ममता का परिवार सभी तेज रफ्तार से मालगाड़ी की ओर भाग रहे थे. इंजन ने चलने की सीटी बजाई. सभी मालगाड़ी पर चढ़ गए, सिर्फ ममता और मंजेश फट्टे से नाला पार करने के चलते पीछे रह गए थे. मालगाड़ी हलकी सी सरकी.

‘‘ममता जल्दी भाग, गाड़ी चलने वाली है,’’ ममता का हाथ थामे मंजेश भागने लगा. मालगाड़ी की रफ्तार बहुत धीमी थी. मंजेश मालगाड़ी के डब्बे पर लगी सीढ़ी पर खड़ा हो गया और ममता का हाथ पकड़ कर सीढ़ी पर खींचा.

एक ही सीढ़ी पर दोनों के जिस्म चिपके हुए थे, दिल की धड़कनें तेज होने लगीं. दोनों धीरेधीरे हांफने लगे.

तभी एक झटके में मालगाड़ी रुकी. उस झटके से दोनों चिपक गए, होंठ चिपक गए, जिस्म की गरमी महसूस करने लगे. गाड़ी रुकते ही मंजेश सीढ़ी चढ़ कर डब्बे की छत पर पहुंच गया. ममता को भी हाथ पकड़ कर ऊपर खींचा.

मालगाड़ी धीरेधीरे चलने लगी. मालगाड़ी के उस डब्बे के ऊपर और कोई नहीं था. राजेश और ममता के परिवार वाले दूसरे डब्बों के ऊपर बैठे थे.

भोला प्रसाद ने ममता को आवाज दी. ममता ने आवाज दे कर अपने परिवार को निश्चित किया कि वह पीछे उसी मालगाड़ी में है.

मालगाड़ी ठीकठाक रफ्तार से आगे बढ़ रही थी. रात का अंधेरा बढ़ गया था. चांद की रोशनी में दोनों एकदूसरे को देखे जा रहे थे. ममता शरमा गई. उस ने अपना चेहरा दूसरी ओर कर लिया.

‘‘ममता, दिल्ली में कुछ काम करती हो या फिर घर संभालती हो?’’ एक लंबी चुप्पी के बाद मंजेश ने पूछा.

‘‘घर बैठे गुजारा नहीं होता. फैक्टरी में काम करती हूं,’’ ममता ने बताया.

‘‘किस चीज की फैक्टरी है?’’

‘‘लेडीज अंडरगारमैंट्स बनाने की. वहां ब्रापैंटी बनती हैं.’’

‘‘बाकी क्या काम करते हैं?’’

‘‘पापा और भाई जुराब बनाने की फैक्टरी में काम करते हैं. मम्मी और मैं एक ही फैक्टरी में काम करते हैं. सब से छोटा भाई अभी कुछ नहीं करता है, पढ़ रहा है. लेकिन पढ़ाई में दिल नहीं लगता है. उस को भी जुराब वाली फैक्टरी में काम दिलवा देंगे.

‘‘तुम क्या काम करते हो, मेरे से तो सबकुछ पूछ लिया,’’ ममता ने मंजेश से पूछा.

‘‘मैं कारपेंटर हूं. लकड़ी का काम जो भी हो, सब करता हूं. अलमारी, ड्रैसिंग, बैड, सोफा, दरवाजे, खिड़की सब बनाता हूं. अभी एक कोठी का टोटल वुडवर्क का ठेका लिया है, आधा काम किया है, आधा पैंडिंग पड़ा है.’’

‘‘तुम्हारे हाथों में तो बहुत हुनर है,’’ ममता के मुंह से तारीफ सुन कर मंजेश खुश हो गया.

चलती मालगाड़ी के डब्बे के ऊपर बैठेबैठे ममता को झपकी सी आ गई और उस का बदन थोड़ा सा लुढ़का, मंजेश ने उस को थाम लिया.

‘‘संभल कर ममता, नीचे गिर सकती हो.’’

मंजेश की बाहों में अपने को पा कर कुछ पल के लिए ममता सहम गई, फिर अपने को संभालती हुई उस ने नीचे

झांक कर देखा ‘‘थैंक यू मंजेश, तुम ने बांहों का सहारा दे कर बचा लिया,

वरना मेरा तो चूरमा बन जाता.’’

‘‘ममता, एक बात कहूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘तुम मुझे अच्छी लग रही हो.’’

मंजेश की बात सुन कर ममता चुप रही. वह मंजेश का मतलब समझ गई थी. चुप ममता से मंजेश ने उस के दिल की बात पूछी, ‘‘मेरे बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

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ममता की चुप्पी पर मंजेश मुसकरा दिया, ‘‘मैं समझ गया, अगर पसंद नहीं होता, तब मना कर देती.’’

‘‘हां, देखने में तो अच्छे लग रहे हो.’’

‘‘मेरा प्यार कबूल करती हो?’’

‘‘कबूल है.’’

मंजेश ने ममता का हाथ अपने हाथों में लिया, आगे का सफर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले कट गया.

लखनऊ स्टेशन पर मंजेश, ममता, राजेश और ममता का परिवार मालगाड़ी से उतर कर आगे सीतापुर के लिए सड़क के रास्ते चल पड़ा.

सड़क पर पैदल चलतेचलते मंजेश और ममता मुसकराते हुए एकदूसरे को ताकते जा रहे थे.

ममता की मां ने ममता को एक किनारे ले जा कर डांट लगाई, ‘‘कोई लाजशर्म है या बेच दी. उस को क्यों घूर रही है, वह भी तेरे को घूर रहा?है. रात गाड़ी के डब्बे के ऊपर क्या किया?’’

‘‘मां, कुछ नहीं किया. मंजेश अच्छा लड़का है.’’

‘‘अच्छा क्या मतलब?’’ ममता की मां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

ममता और मां के बीच की इस बात को मंजेश समझ गया. वह भोला प्रसाद के पास जा कर अपने दिल की बात कहने लगा, ‘‘अंकल, हमारे गांव आसपास हैं. आप मेरे घर चलिए, मैं अपने परिवार से मिलवाना चाहता हूं.’’

मंजेश की बात सुन कर भोला प्रसाद बोला, ‘‘वह तो ठीक है, पर क्यों?

‘‘अंकल, मुझे ममता पसंद है और मैं उस से शादी करना चाहता हूं. हमारे परिवार मिल कर तय कर लें, मेरी यही इच्छा है.’’

मंजेश की बात सुन कर ममता की मां के तेवर ढीले हो गए और वे मंजेश के घर जाने को तैयार हो गए.

लौकडाउन जहां परेशानी लाया है, वहीं प्यार भी लाया है. मंजेश और ममता का प्यार मालगाड़ी में पनपा.

सभी पैदल मंजेश के गांव की ओर बढ़ रहे थे. ममता और मंजेश हाथ में हाथ डाले मुसकराते हुए एक नए सफर की तैयारी कर रहे थे.

एक इंच मुसकान : दीपिका-सलोनी की कशमश

‘‘अरे, कहां भागी जा रही हो?’’ दीपिका को तेजतेज कदमों से जाते हुए देख पड़ोस में रहने वाली उस की सहेली सलोनी उसे आवाज लगाते हुए बोली.

‘‘मरने जा रही हूं,’’ दीपिका ने बड़बड़ाते हुए जवाब दिया.

‘‘अरे वाह, मरने और इतना सजधन कर. चल अच्छा है, आज यमदूतों का भी दिन अच्छा गुजरेगा,’’ सलोनी चुटकी लेते हुए बोली.

‘‘मैं परेशान हूं और तुझे मजाक सूझ रहा है,’’ दीपिका सलोनी को घूरते हुए बोली, ‘‘अभी मैं औफिस के लिए लेट हो रही हूं, तुझ से शाम को निबटूंगी.’’

‘‘अरे हुस्नेआरा, इस बेचारी को भी आज करोलबाग की ओर जाना है, यदि महारानी को कोई एतराज न हो तो यह नाचीज उन के साथ चलना चाहती है,’’ सलोनी ने दीनहीन होने की ऐक्टिंग करते हुए मासूमियत से जवाब दिया.

‘‘चल, बड़ी आई औपचारिकता निभाने वाली,’’ सलोनी की पीठ पर हलका सा धौल जमाते हुए दीपिका बोली, ‘‘एक तू ही तो है, जो मेरा दुखदर्द समझती है.’’

बातोंबातों में दोनों पड़ोसन सहेलियां बसस्टैंड पहुंच गईं. कुछ ही देर में करोल बाग वाली बस आ गई.

एक तो औफिस टाइम, ऊपर से सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई दिल्ली की आबादी. जिधर देखो भीड़ ही भीड़. खैर, धक्कामुक्की के बीच दोनों सहेलियां बस में सवार हो गईं. यह अच्छा था कि 2 सीटों वाली एक लेडीज बर्थ खाली थी.

‘‘कुछ तो अच्छा हुआ,’’ कहते हुए दीपिका सलोनी का हाथ पकड़ कर झट से उस खाली बर्थ पर कर बैठ गई.

सलोनी ने पूछा, ‘‘अरे, ऐसा क्यों बोल रही है? चल, अब साफसाफ बता कि क्या हुआ…? और यह चांद सा चेहरा आज सूजा हुआ क्यों है?’’

दीपिका बोली, ‘‘अरे, क्या बताऊं? घर में किसी को मेरी बिलकुल भी परवाह नहीं है. मैं सिर्फ पैसा कमाने की मशीन और सब की सेवा करने वाली नौकरानी हूं.’’

‘‘अरे, इतना गुस्सा… क्यों, क्या हो गया?’’ सलोनी उसे प्यार से अपने से चिपकाते हुए बोली.

‘‘आज सुबह मैं थोड़ी ज्यादा देर तक क्या सो गई, घर का पूरा माहौल ही बिगड़ गया. देर हो जाने के चलते भागमभाग में मैं इन के लिए कपड़े निकालना भूल गई, तो महाशय तौलिया लपेटे ही तब तक बैठे रहे, जब तक कि मैं बाथरूम से निकल नहीं आई.

‘‘इस भागदौड़ के बीच इतना मुश्किल से जो नाश्ता बनाया, उसे भी बिना किए यह कहते हुए औफिस चले गए कि आज शर्टपैंट न होने के चलते तैयार होने में देरी हो गई.

‘‘इधर साहबजादे तरुण को आलूगोभी की सब्जी नाश्ते में दी, तो वे जनाब मुंह फुला कर बैठ गए कि रोजरोज एक ही तरह की सब्जी खातेखाते बोर हो गया हूं, मशरूम क्यों नहीं बनाई?

‘‘उधर, बिटिया रानी की रोज यही शिकायत रहती है कि आप रोज एक ही तरह की बहनजी स्टाइल की चोटी करती हो. मेरी फ्रैंड्स की मम्मियां रोज नएनए स्टाइल में उन के हेयर डिजाइन करती हैं.

‘‘बस, सब को अपनीअपनी पड़ी रहती है. कोई यह नहीं पूछता कि मैं ने नाश्ता किया या नहीं? टिफिन में क्या ले जा रही हूं? मेरी डै्रस कैसी है? कहीं मुझे लेट तो नहीं हो रहा है? सब को बस अपनीअपनी चिंता है,’’ कहतेकहते दीपिका की आंखों में आंसू भर गए.

‘‘अरे, परेशान मत हो मेरी ब्यूटी क्वीन, अव्वल तो तू खुद इतनी खूबसूरत है कि कुछ भी पहन ले तो भी हीरोइन ही लगेगी और घर के जो सारे लोग तुझ से फरमाइशें करते हैं, उस की वजह उन का तुझ से लगाव है. वे तुझ पर भरोसा करते है,’’ सलोनी प्यार से समझाते हुए बोली.

‘‘बसबस रहने दो. मैं सब समझती हूं. यह सब कहने की बात है. यहां मेरी जान भी जा रही होगी न, तो किसी न किसी को जरूर मुझ से कोई काम पड़ा होगा,’’ दीपिका का उबाल कम होने का नाम नहीं ले रहा था.

इसी बीच अगले स्टौप पर बस के रुकते ही उस के औफिस में डेली वेज पर काम करने वाली चपरासी कांति किसी तरह जगह बनाते हुए भी उस में दाखिल हो गई. लेडीज सीट की ओर पहुंच कर बस के हैंगिंग हुक को पकड़ कर वह खड़ी हो गई.

अभी वह आंचल से अपना पसीना पोंछ रही थी कि दीपिका ने पूछा, ‘‘अरे कांति, कैसी हो?’’

दीपिका की आवाज सुन कर कांति चौंक कर उस की ओर मुड़ते हुए बोली, ‘‘अरे मैडम, आप भी इसी बस में… नमस्ते,’’ दीपिका को देख कर उस के चेहरे पर हमेशा छाई रहने वाली मुसकान कुछ और खिल आई थी.

दीपिका बोली, ‘‘नमस्ते. तुम तो रोज 9 बजे दफ्तर पहुंच जाती हो, पर आज लेट कैसे?’’

कांति ने कहा, ‘‘दरअसल मैडम, आज से बेटे की 10वीं की बोर्ड परीक्षा शुरू हुई है. वह जिद कर रहा था कि सब के मम्मीपापा उन्हें छोड़ने एग्जाम सैंटर पर आएंगे, तो आप भी मेरे साथ चलिए. वह इतने लाड़ से बोल रहा था कि मैं उसे मना नहीं कर पाई. उसे पहुंचाने चली गई, इसलिए थोड़ी देर हो गई… सौरी.’’

दीपिका बोली, ‘‘अरे, कोई बात नहीं. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रही थी. लेकिन एक बात बताओ, तुम्हारे पति भी तो बेटे के साथ जा सकते थे न?’’

अभी कांति कोई जवाब दे पाती कि दीपिका सलोनी की ओर मुड़ते हुए बोली, ‘‘देखो, हर घर की यही कहानी है. औरत घर का भी काम करे और बाहर भी मरे और पति एक भी काम ऐक्स्ट्रा नहीं कर सकते, क्योंकि वे मर्द हैं.’’

‘‘नहीं मैडम, ऐसी बात नहीं है,’’ अभी कांति आगे कुछ और बोल पाती कि दीपिका ने कहा, ‘‘अब पति की तरफदारी करना छोड़ो. पति को हमेशा परमेश्वर मानने और उन की ज्यादतियों पर परदा डालने का ही यह नतीजा है कि उन की मनमानी बढ़ती जा रही है,’’ वह बिफरने सी लगी थी.

‘‘नहीं मैडम, मैं उन्हें बचा नहीं रही हूं. दरअसल, पिछले साल आटोरिकशा चलाते समय उन का बुरी तरह से एक्सीडैंट हो गया था, जिस में उन का दाहिना हिस्सा बुरी तरह खराब हो गया था, इसलिए बाहर के काम में उन्हें बहुत ही दिक्कत होती है. पर, वे घरेलू काम में मेरी पूरी मदद करते हैं और मुझे अपने परिवार के लिए कुछ भी करना बहुत अच्छा लगता है.’’

कांति की बात से हैरान दीपिका एकदम सन्नाटे में आ गई. दिव्यांग और बेरोजगार पति, छोटी सी तनख्वाह में पूरे परिवार का गुजारा करने वाली कांति क्या उस से कम चुनौतियों का सामना कर रही है, लेकिन एक इंच की मुसकान लिए घर और बाहर दोनों जगह का काम कितनी हंसीखुशी से संभाल रही है.

इधर कांति बोले जा रही थी, ‘‘मैडम, बच्चे और पति जब अपनी इच्छा और परेशानी मेरे सामने रखते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं इस घर की धुरी हूं. उन का मुझ से कुछ उम्मीद रखना मुझे मेरे होने का अहसास कराता रहता है.’’

कांति की सहज बातों ने अनजाने में ही दीपिका के अंदर धधक रही गुस्से की आग को मीठी फुहार से बुझा दिया. सच में कांति ने कितनी आसानी से उसे समझा दिया था कि पति और बच्चों की फरमाइशें और उन का उस पर निर्भर होना उसे परेशान करना नहीं, बल्कि उस से जुड़े रहने की निशानी है.

एक पल के लिए दीपिका ने कल्पना कर यह देखा कि पति और बच्चे अपनाअपना काम करने में बिजी हैं. कोई अपनी डिमांड पूरी करने के लिए न तो उस की चिरौरी कर रहा है और न ही कोई तुनक कर मुंह फुलाए बैठा है.

अभी कुछ पल पहले तक इन्हीं फरमाइशों से बुरी तरह खीझी हुई दीपिका का दिल इस कल्पना से ही घबरा उठा था. वह खुद से दृढ़तापूर्वक बोली, ‘‘चलो, आज से ही एक नई शुरुआत करते हैं.’’

पछतावे की बूंदें गुस्से और खीझ से उपजे उस की आंखों के सूखेपन को तर कर रही थीं. तभी उस के मोबाइल फोन की रिंगटोन बजी. देखा तो पति अश्विनी की काल थी. उस के ‘हैलो’ कहते ही वे बोले, ‘दीपू, आज सुबह सोते समय तुम बिलकुल इंद्रलोक की परी लग रही थीं. तुम्हें नींद से जगा कर मैं यह मौका खोना नहीं चाहता था.’

अश्विनी की बातें सुन कर इस भीड़ भरी बस में भी दीपिका के गाल शर्म से गुलाबी हो उठे. वह धीरे से बोली, ‘‘बसबस, ठीक है. शाम को समय से घर आ जाना. आज मैं आप के पसंद के केले के कोफ्ते और लच्छा परांठा बनाऊंगी और तरुण के लिए मशरूम… बाय.’’

अश्विनी ने कहा, ‘बाय स्वीटहार्ट.’

फोन रखते ही उस ने सलोनी के साथ मिल कर 2 सीट वाली बर्थ पर थोड़ी सी जगह बनाई और कांति का हाथ पकड़ कर उसे सीट पर बैठाते हुए बोली, ‘‘आओ, कांति बैठो, तुम भी खड़ेखड़े काफी थक गई होगी. हम सब साथसाथ चलेंगे.’’

कांति पहले थोड़ा सा हिचकी, लेकिन दीपिका के न्योते से उस का संकोच चला गया.

कांति बोली, ‘‘थैक्स दीदी. आप का परिवार बहुत भाग्यशाली है.’’

दीपिका ने कहा, ‘‘धन्यवाद. पर भला वह क्यों?’’

कांति ने कहा, ‘‘जब आप बाहरी लोगों का ही इतना ध्यान रखती हैं, तो आप के घर वालों को तो किसी बात की चिंता करने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती होगी.’’

कांति की हथेली को धीमे से दबा कर उसे मौन धन्यवाद देते हुए दीपिका बोली, ‘‘थैक्स, कांति. मेरे संसार में मुझे अपने इस वजूद का अहसास कराने के लिए.’’

दीपिका के चेहरे पर भी अब कांति की तरह एक इंच की सच्ची वाली मुसकान खिल आई थी. उसे मुसकराते हुए देख कर सलोनी बोली, ‘‘तुम अब लग रही हो न सच्ची ब्यूटी क्वीन.’’

दुनिया से बेखबर बस की इस लेडीज बर्थ पर एकसाथ 3 मुसकान खिल आईं. इधर अच्छी और चिकनी सड़क पा कर बस की रफ्तार भी तेज हो गई थी.

मैं जीत गई : कौर्ट मैरिज की कहानी

कोर्ट में रुतबा और उस का शौहर आसिम खड़े थे. एक तरफ आसिम के तो दूसरी तरफ रुतबा के अम्मीअब्बू भी वहां मौजूद थे. देखने पर लग रहा था कि शायद वे दोनों कोर्टमैरिज करने यहां आए थे.

जैसे ही वकील ने कोर्टमैरिज के लिए कुछ पेपर दोनों के सामने रखे, रुतबा की आंखों से आंसू बहने लगे.

अम्मी ने रुतबा को संभालते हुए कहा, ‘‘रुतबा, फिक्र मत करो. आसिम बहुत ही नेक लड़का है और तुम्हें बहुत खुश रखेगा. पिछली सारी बातें भूल कर तुम एक नई जिंदगी की ओर कदम आगे बढ़ाओ.’’

आसिम के अम्मीअब्बू ने भी रुतबा के सिर पर प्यार से हाथ रखा और उसे दस्तखत करने की ओर इशारा किया.

रुतबा और आसिम दोनों ने उन पेपरों पर अपनेअपने दस्तखत कर दिए. दोनों के अम्मीअब्बू के चेहरों पर खुशी साफतौर पर देखी जा सकती थी.

कोर्ट से बाहर आ कर आसिम रुतबा और अम्मीअब्बू के साथ एक कार में बैठ गया और रुतबा के मांबाप दूसरी कार में बैठ कर चले गए.

ससुराल में आ कर रुतबा ने जिन 2 बच्चों का सब से पहले सामना किया, वे बच्चे आसिम के थे, जिस की पहली पत्नी मर चुकी थी और अब इन बच्चों को रुतबा को ही संभालना था.

रुतबा ने घर आते ही दोनों बच्चों को अपने गले से लगा लिया और फूटफूट कर रोने लगी. आसिम और उस के मांबाप ने उसे संभाला, अंदर ले गए और खानेपीने का इंतजाम किया.

अगले दिन की शाम को घर में एक पार्टी रखी गई थी, जिस में रुतबा की सहेलियां, कुछ रिश्तेदार और आसिम के भाईबहन व खास मेहमान शामिल होने वाले थे.

रुतबा ने खुद को तैयार करने के साथसाथ बच्चों को भी तैयार किया. लड़के का नाम मुश्ताक था और लड़की मुसकान थी. मुसकान और मुश्ताक दोनों अपनी नई मां को पा कर बेहद खुश थे. वे दोनों रुतबा के साथ थे.

शाम की पार्टी में आसिम, रुतबा और मुसकान व मुश्ताक चारों एकसाथ सब के सामने आए. सब मेहमानों ने आसिम व रुतबा को मुबारकबाद दी और रुतबा की हिम्मत की दाद दी कि उस ने इन दोनों बच्चों को आते ही संभाल लिया.

आसिम ने भी सब के सामने माइक पर रुतबा का शुक्रिया अदा किया, ‘‘रुतबा, तुम्हारा बहुत शुक्रिया. तुम ने मेरे घर को बचा लिया, वरना मेरी जिंदगी वीरान हो चुकी थी.’’

मुसकान 9 साल की थी और मुश्ताक 7 साल का. वे दोनों भी सामने आए. मुसकान खिले चेहरे के साथ बोली, ‘‘आई लव यू नई मम्मा, अब हमें दोबारा छोड़ कर कहीं मत जाना.’’

रुतबा ने बच्चों को गले से लगा लिया. सब मेहमानों ने ताली बजा कर अपनी खुशी जाहिर की. इस के बाद डिनर चला और सब ने खूब ऐंजौय किया.

अगले हफ्ते रुतबा अपनी ससुराल के सभी सदस्यों के साथ कुल्लूमनाली घूमने गई. वहां सब उसे खुश रखने की कोशिश कर रहे थे. रुतबा हंसती, पर फिर गंभीर हो जाती थी.

आसिम ने उसे सम?ाया, ‘‘देखो, अब तुम सबकुछ भूल जाओ. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं. मुसकान और मुश्ताक तुम्हारे साथ हैं. यह परिवार तुम्हारा अपना है. तुम किसी बात की फिक्र मत करो.’’

यह सुन कर रुतबा रोने लगी और आसिम के गले से लग गई. वह बोली, ‘‘आसिम, क्या करूं… वह अंधेरा मु?ो अब भी बहुत डराता है. लगता है, जैसे कोई मेरा पीछा कर रहा है. मेरा बेटा जो अब भी उस के चंगुल में है.’’

आसिम ने प्यार से रुतबा के सिर को अपने सीने से लगाया और सम?ाया, ‘‘रुतबा, तुम्हारी जान बच गई, यह क्या कम है. तुम कभी परेशान मत होना.’’

आसिम के अम्मीअब्बू भी वहां आ गए. अब्बू बोले, ‘‘बेटी, हम सब तुम्हारे साथ हैं. सब ठीक हो जाएगा.’’

रुतबा को हिम्मत मिली और अब वह कुल्लूमनाली में नया परिवार पा कर खुश रहने लगी.

एक दिन अचानक रुतबा के घर उस की बहुत पुरानी सहेली विमला आई, जो कभी उस के साथ कालेज में पढ़ा करती थी. रुतबा ने उसे सब से मिलवाया और अपने कमरे में ले गई.

विमला ने हैरानी से पूछा, ‘‘रुतबा, तुम आस्ट्रेलिया से कब आई और यह शादी? शब्बीर कहां है?’’

‘‘एकसाथ इतने सवाल… थोड़ा सांस ले लो, फिर एकएक कर के बताती हूं,’’ रुतबा ने मुसकराते हुए कहा.

थोड़ा रुक कर रुतबा ने बताना शुरू किया, जो कुछ इस तरह था :

रुतबा अपने 3 भाइयों की एकलौती बहन थी. पढ़ाई में ढीली थी. लाड़ली होने के चलते घर में किसी बात का प्रैशर नहीं था. मांबाप दिल खोल कर उस पर खर्च करते थे.

रुतबा खूबसूरत भी बहुत थी. जो देखता, पसंद कर लेता था. पर एक कमी थी कि वह जल्दी लोगों की बातों में आ जाती थी.

विमला और रुतबा एक ही कालेज में पढ़ती थीं. पढ़ाई भी क्या करती थीं, सिर्फ नाम के लिए कालेज जाती थीं. उन्हीं की क्लास में एक लड़का जुबैर भी पढ़ता था.

एक दिन जुबैर ने रुतबा से कहा, ‘‘रुतबा, मेरा भाई शब्बीर अहमद आस्ट्रेलिया में कंप्यूटर इंजीनियर है और उस ने तुम्हें सोशल मीडिया पर पसंद कर लिया है.’’

रुतबा ने हैरान होते हुए पूछा, ‘‘सोशल मीडिया पर कहां?’’

‘‘एक मैट्रीमोनियल साइट पर.’’

‘‘पर, मैं ने तो वहां अपने लिए

ऐसा कुछ भी पोस्ट नहीं डाला,’’ रुतबा बोली.

‘‘शायद तुम्हारे भाइयों या अब्बा ने डाल दिया हो.’’

‘‘हो सकता है.’’

इस के बाद रुतबा ने घर आ कर इस बात का जिक्र किया, तो सब ने ‘हां’ में सिर हिला दिया और उसे बताया भी कि कोई लड़का आस्ट्रेलिया में रहता है, जिस ने तुम्हें पसंद किया है.

रुतबा ने बताया, ‘‘उस लड़के का भाई जुबैर मेरी ही क्लास में है.’’

एक दिन शब्बीर अहमद और उस के अम्मीअब्बा रुतबा को देखने आए और शादी भी पक्की हो गई.

शब्बीर अहमद ने कहा, ‘‘मु?ो आस्ट्रेलिया जल्दी जाना है. प्लीज, यह शादी जल्दी करवा दीजिए. मैं रुतबा को अपने साथ ही ले कर जाऊंगा.’’

शब्बीर अहमद और उस के घर वालों ने मिल कर जितनी जल्दी हो सकता था, रुतबा का पासपोर्ट बनवाया और शादी भी बहुत जल्दी में हुई.

शब्बीर रुतबा को ले कर आस्ट्रेलिया चला गया. रुतबा के परिवार वालों ने शब्बीर के मांबाप से अच्छी तरह से बातचीत की. उन्हें सब बहुत अच्छा लगा.

उधर आस्ट्रेलिया में शब्बीर रुतबा को बहुत प्यार करता था. वह सुबह औफिस जाता था और रुतबा घर में ही रहती थी. शब्बीर रुतबा को अकेले कहीं नहीं जाने देता था और न ही किसी से बात करने देता था. वैसे भी रुतबा को इंगलिश बोलना नहीं आता था.

शब्बीर अहमद ने एक घर खरीदा हुआ था, जो ज्यादा बड़ा तो नहीं था, पर आरामदायक था. एक साल ऐसे ही हंसीखुशी में बीत गया. इस बीच रुतबा और शब्बीर भारत अपने परिवार वालों से मिलने आए.

एक दिन शब्बीर ने रुतबा से कहा, ‘‘रुतबा, हमें मम्मीपापा बन जाना चाहिए. अब हमारी शादी को पूरे 2 साल हो चुके हैं.’’

रुतबा बोली, ‘‘शब्बीर, हम लोग कोई प्रिकोशन भी नहीं ले रहे हैं, जब बेबी हो ही नहीं रहा तो क्या करें?’’

शब्बीर थोड़ा परेशान हो कर बोला, ‘‘नहीं रुतबा, मेरे लिए बच्चा बहुत ही जरूरी है.’’

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?’’ रुतबा हैरान हो कर बोली.

शब्बीर थोड़ा घबरा गया, फिर बात संभालते हुए बोला, ‘‘मेरे कहने का मतलब है कि बच्चा हमारे लिए बहुत खास है.’’

रुतबा मुसकरा कर बोली, ‘‘कोई बात नहीं, हो जाएगा.’’

रुतबा शब्बीर की मीठीमीठी बातों में आ गई और शादी के तीसरे साल में पेट से हो गई.

शब्बीर रुतबा को अपने घर भारत ले आया और यहां ससुराल में उस की पूरी तरह से देखभाल की गई और यहीं पर रुतबा ने एक बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम आमिर रखा गया.

जब आमिर 4 महीने का हुआ, तो शब्बीर अहमद रुतबा और आमिर को आस्ट्रेलिया ले गया. इस बीच रुतबा कई बार मायके भी आई. कोई भी ऐसी बात नहीं हुई. सबकुछ ठीक चल रहा था. आस्ट्रेलिया में शब्बीर आमिर का पूरा ध्यान रखता था.

अब आमिर स्कूल जाने लगा था. शब्बीर पीटीएम पर जाता था, पर रुतबा को साथ नहीं ले जाता था. शब्बीर का बरताव अब रुतबा की तरफ से थोड़ा बदल चुका था. वह औफिस से घर देर से आने लगा था. रुतबा ने वजह पूछी, तो घर में लड़ाई?ागड़े होने लगे.

रुतबा को अब कुछकुछ सम?ा में आने लगा था कि शब्बीर ने शायद बच्चे के लिए ही उस से शादी की थी.

शब्बीर और रुतबा की एक दिन काफी बहस भी हुई. वजह, रात को शब्बीर घंटों फोन पर किसी से बात करता रहता था. रुतबा पूछती तो कह देता कि उस के औफिस का मामला है, वह बीच में न आए. शब्बीर रुतबा के कमरे में भी रहना पसंद नहीं करता था. उसे लड़ाई करने का कोई बहाना चाहिए होता था.

हद तो तब हो गई, जब शब्बीर चुपके से आमिर को स्कूल से ले आया और यही नहीं, वह 2 दिन घर भी नहीं आया. औफिस फोन किया तो पता चला कि वह भारत चला गया है. वहां से रुतबा को अपनी जिंदगी बरबाद होती नजर आई.

रुतबा ने अपने घर फोन किया, पर घंटी जा ही नहीं रही थी. ससुराल फोन किया, तो वहां किसी ने नहीं उठाया. पता नहीं, शब्बीर आखिर फोन के साथ क्या कर के गया था कि रुतबा का फोन उस के मायके लग ही नहीं रहा था.

विदेश में अकेली रुतबा बुरी तरह से फंस गई थी. 2 घंटे लगातार रोने के बाद उस ने अपनेआप को मजबूत किया और अपने पड़ोस में रहने वाले एक परिवार से मिली. पहले तो वह उन्हें कुछ सम?ा नहीं पाई, पर बाद में धीरेधीरे उस ने उन्हें अपनी परेशानी बताई.

रुतबा एक बात तो अच्छी तरह से सम?ा चुकी थी कि शब्बीर उसे जानबू?ा कर बाहर किसी से भी मिलने इसलिए ही नहीं देता था, जिस से वह सबकुछ सीख न जाए और उस के इरादों पर पानी फेर दे.

रुतबा ने अपने पड़ोसियों की मदद ली और किसी तरह शब्बीर के औफिस पहुंच गई. भाषा की बहुत दिक्कत आई. उसे अपनी बात वहां के स्टाफ को सम?ाने में सुबह से शाम हो गई. बहुत मुश्किल से वह शब्बीर के बारे में कुछ जानकारी जमा कर पाई.

औफिस में एक सफाई मुलाजिम था, जो थोड़ीबहुत हिंदी सम?ा लेता था. उस ने रुतबा की बात सम?ा कर औफिस वालों को बताई.

वहां के बौस ने बताया कि शब्बीर तो नौकरी छोड़ कर चला गया है.

यह सुन कर रुतबा के होश उड़ गए और उसे चक्कर आने लगे. बड़ी मुश्किल से किसी तरह वह अपने घर पहुंची. उसे कुछ भी सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? यह तो सरासर धोखाधड़ी का केस था, जिस में अपराधी का पता लगाना आसान नहीं था.

रुतबा की पूरी रात बेचैनी में निकली. बहुत मुश्किल से उस की आंख लगी होगी कि किसी ने डोरबैल बजा दी.

‘‘इतनी सुबह कौन हो सकता है?’’ बुदबुदाते हुए रुतबा बाहर दरवाजे पर निकल कर आई.

दरवाजा खोलते ही रुतबा ने

2 औरतों और 2 मर्दों को हाथ में कुछ पेपर ले कर सामने खड़ा पाया.

रुतबा ने टूटीफूटी इंगलिश में उन से कुछ पूछा, तो उन्होंने बताया कि शब्बीर अहमद यह घर उन्हें बेच कर चला गया है. शब्बीर अहमद ने बैंक बैलेंस सब अपने नाम करवा लिया है. इस के साथ ही रुतबा से तलाक के कागजात भी वे लोग साथ लाए थे, जो शब्बीर उन्हें दे कर गया था.

यह सुन कर रुतबा को इतना बड़ा ?ाटका लगा कि वह वहीं गिर कर बेहोश हो गई. पड़ोसियों को बुलाया गया और उन से बातचीत की गई.

जब रुतबा को होश आया, तो सब ने सम?ाया कि अब यह घर उस का नहीं रहा, उसे यहां से जाना होगा. पर कहां जाएगी बेचारी? सब तो खत्म ही हो चुका था.

पड़ोसी रुतबा को पुलिस के पास ले गए. उस ने सारी घटना उन्हें सुनाई और शब्बीर अहमद के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई.

आज रुतबा को पढ़ाई की अहमियत का अहसास हो रहा था कि काश, वह अच्छी तरह से पढ़ लेती तो इस तरह शब्बीर अहमद उसे बेवकूफ बना कर यों उस के बेटे आमिर को ले कर अकेले भारत न चला गया होता.

खैर, अब पछताने से क्या फायदा. पुलिस ने रुतबा के पास कोई ठहरने की जगह न हो सकने के चलते उसे वुमन सैल भेज दिया. वहां जा कर उस ने नौकरी की, क्योंकि उस के पास अपने फोन को चार्ज करने तक के पैसे नहीं थे.

उधर पुलिस भी शब्बीर अहमद की तलाश कर रही थी. कोई सुराग हाथ नहीं लग रहा था, क्योंकि वह बहुत चालाक था, जो भोलीभाली खूबसूरत लड़कियों को मैट्रीमोनियल साइट के नाम से ठगा करता था.

एक दिन वुमन सैल में एक औरत ने रुतबा से उस के परिवार के बारे में पूछा, तो रुतबा ने बताया कि भारत में उस का फोन मायके वालों तक पहुंच ही नहीं रहा है. तब फोन चैक करवाया गया, तो पता चला कि शब्बीर ने लौक किया हुआ था.

तकरीबन एक साल बाद जा कर रुतबा की अपने मायके में बात हुई. खूब फूटफूट कर रोई रुतबा ने सब सच बता दिया.

उधर रुतबा के परिवार वाले शब्बीर के घर गए. पता लगा कि 2 साल पहले ही वे लोग कहीं बाहर चले गए थे. उन्हें भी बहुत ?ाटका लगा और रुतबा के भाइयों ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवा दी.

रुतबा के भाइयों ने बिना देर किए आस्ट्रेलिया जाने की फ्लाइट बुक करवाई और सीधे वुमन सैल पहुंचे. वहां से सारी जानकारी ली, फिर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई और शब्बीर अहमद व उस के परिवार के बारे में सारी जानकारी दी.

एक पुलिस वाले ने कहा, ‘‘यह मामला भारत का है. हम वहां जा कर तो कुछ नहीं कर पाएंगे, पर अगर शब्बीर अहमद यहां आएगा, तो हम उसे गिरफ्तार जरूर करेंगे.’’

रुतबा के भाइयों ने वुमन सैल वालों का बहुत शुक्रिया अदा किया और रुतबा को अपने साथ भारत ले आए.

भारत आ कर रुतबा को ऐसा लगा मानो किसी जेल से छूट कर आई हो. वह बहुत रोई. सब को शब्बीर अहमद पर बहुत गुस्सा आ रहा था. पुलिस उस की जांच में जुट गई.

धीरेधीरे वक्तगुजरता गया, पर रुतबा के जख्म हमेशा हरे रहे. अब तक हंसतीखेलती रुतबा बहुत शांत हो चुकी थी. उस की सारी नादानियां खत्म हो चुकी थीं. इतना बड़ा ?ाटका, वह भी इतनी कम उम्र में, कोई छोटी बात नहीं थी रुतबा के लिए. ऊपर से उस का बच्चा उस से छीन लेना कहां का इंसाफ था?

अपने गम को कम करने के लिए रुतबा ने अपने अब्बू से कह कर वहीं कालेज में दाखिला ले लिया और अब उस ने पढ़ाई की अहमियत को सम?ाते हुए लगन के साथ पढ़ना शुरू कर दिया.

रुतबा के कालेज में एक टीचर थे, जो रूतबा की मेहनत से काफी प्रभावित थे. वे रुतबा के बारे में सबकुछ जानते थे. जब रुतबा की पोस्ट ग्रेजुएशन पूरी हुई, तब उन्होंने रुतबा के अब्बू से अपने भतीजे आसिम के लिए रुतबा की शादी की बात की.

आसिम की बीवी की 4 साल पहले मौत हो चुकी थी और उस के 2 बच्चे थे. पहले तो रुतबा के भाइयों और परिवार वालों ने मना कर दिया, पर बाद में घर की औरतों ने आपस में सलाह करते हुए कहा कि अभी रुतबा की पूरी जिंदगी पड़ी है. कैसे काटेगी अकेले?

‘‘पर, 2 बच्चों के बाप के साथ शादी? नहीं, हम बहन को एक अंधेरे से निकाल कर दूसरे अंधेरे में नहीं डाल सकते,’’ बड़े भाई ने कहा.

अम्मी बोलीं, ‘‘एक बार रुतबा को उन बच्चों से मिलवा देते हैं और आसिम से बात करवा देते हैं.’’

पहले तो रुतबा ने भी मना कर दिया, पर जब बच्चों ने आ कर उस से बात की और उस की गोद में बैठ गए, तब उसे अपना बेटा आमिर याद आ गया और वह रोने लगी.

आसिम ने रुतबा को सम?ाया और कहा कि वह उसे जिंदगी में कभी दुख नहीं देगा और वह अपनी इच्छा से रह सकती है, जी सकती है.

देखते ही देखते कुछ महीने और निकल गए. अब रुतबा शादी के लिए तैयार थी. वह बच्चों के चलते ही शादी के लिए राजी हुई थी. उस ने शादी में कोई सजावट नहीं करवाई. उस की साधारण तरीके से शादी हुई और आज अपनी दोस्त विमला को वह यह सब बता रही थी, जिस को सुन कर विमला की आंखों में आंसू आ गए.

इतने में मुश्ताक और मुसकान वहां आ गए. विमला उन के लिए गिफ्ट लाई थी. उस ने उन्हें गिफ्ट दिया. खाना खा कर वह अपने घर चली गई.

रुतबा ने आसिम को अपनी सहेली विमला के आने के बारे में बताया.

आसिम ने खुश हो कर कहा, ‘‘अगर कहीं बाहर जाने का मन किया करे, तो चली जाया करो.’’

रुतबा ने ‘हां’ कहा और वहां से बाहर आ गई.

एक दिन अचानक रुतबा के घर पुलिस आई, क्योंकि शब्बीर वाला केस चल रहा था और रुतबा, आसिम और उस के भाइयों को पूछताछ के लिए थाने ले गई. वहां एक आदमी को पुलिस ने पकड़ा हुआ था, जिस को देख कर रुतबा को बताना था कि क्या यही शब्बीर है?

रुतबा ने उसे देखा और उस के नजदीक जा कर उस के गाल पर एक चांटा मारते हुए पूछा, ‘‘मेरा बेटा आमिर कहां है?’’

आसिम सम?ा गया कि यही शब्बीर है. पुलिस ने शब्बीर को जेल में डाल दिया और बच्चे के बारे में पूछने लगी.

केस अदालत में पहुंच गया. शब्बीर ने अपना बयान दिया, ‘‘रुतबा से शादी करने से पहले मैं शादीशुदा था. मेरी बीवी को बच्चा नहीं हो सकता था, इसलिए मु?ो उसे बच्चा देना था.

‘‘मैं ने उसे सम?ाया कि बच्चा अनाथालय से ले लेते हैं, पर वह मेरा ही बच्चा चाहती थी, इसलिए मैं ने ?ाठा नाटक रचा और रुतबा से शादी कर ली.

‘‘रुतबा से पहले भी मैं ने कई लड़कियों को अपने जाल में फंसाया था. कालेज में मेरा कोई भाई नहीं था, न ही मेरे सगे मांबाप थे, वे तो दूर गांव में रहते हैं, जिन को इन सब बातों का पता भी नहीं है.

‘‘मैं ने रुतबा से बच्चा पैदा करवाया और अपनी बीवी को ला कर दे दिया. मु?ो नहीं पता था कि एक मां को उस के बच्चे से अलग करने का नतीजा कितना बुरा होगा.

‘‘पिछले साल मेरी बीवी को कैंसर हुआ और वह मर गई. बच्चे को मैं ने गांव में छोड़ दिया और बाहर दूसरे देश जाने की सोच ही रहा था कि पुलिस ने मु?ो पकड़ लिया.’’

जज साहब ने पुलिस को तुरंत गांव जा कर बच्चे को लाने का और्डर दिया. 2 दिन बाद अदालत में सब के सामने बच्चा रुतबा को सौंप दिया गया.

आसिम, उस के अम्मीअब्बा और रुतबा का पूरा मायका आज सब साथ में थे. मुश्ताक और मुसकान ने आमिर का हाथ थामा और उसे गले से लगा लिया.

रुतबा आज खुश थी. एक अपराधी को उस के किए की सजा मिली और उस का बेटा आमिर उसे मिल चुका था.

रुतबा ने आसिम से कहा, ‘‘आसिम, आप ने मेरे लिए बहुत परेशानी उठाई. आप की मेहनत व कोशिश का फल है, जो आज मैं आमिर से मिल पाई. मै जीत गई,’’ कहते हुए रुतबा आसिम के गले से लग गई और रोने लगी.

सब ने कहा कि अब रोने के दिन गए, अपने नए परिवार के साथ हंसीखुशी रहो. रुतबा अपने शौहर व तीनों बच्चों के साथ अपनी ससुराल आ गई.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

बदनाम गली : संतो के नाम

दरवाजा खुला तो उस की नजरें बाहर की ओर उठ गईं. हलकी रोशनी में एक आदमी साफ दिखाई दे रहा था. वह सहम कर सिकुड़ गई थी. एक कोने में दुबकी डरीडरी आंखों से वह उसे घूरने लगी.

‘‘क्यों घबरा रही हो संतो रानी?’’ उस आदमी की आवाज में हवस की बू थी. शराब के नशे में झूमता हुआ एक हाथ में बोतल थामे और दूसरे में एक गजरा लिए वह आदमी उस की ओर बढ़ रहा था.

‘‘मैं कहती हूं, चले जाओ. चले जाओ यहां से,’’ संतो चीख रही थी.

लेकिन संतो की चीख की अहमियत ही कितनी थी. वह किसी परकटे परिंदे की तरह फड़फड़ा रही थी और वह आदमी शातिर बहेलिए की तरह खुश हो रहा था.

वह आदमी आला दर्जे का घटिया इनसान था. संतो की चीखों का उस पर कोई असर न हुआ. उस पर तो वहशीपन सवार था. वह बोला, ‘‘चला जाऊंगा, जरूर चला जाऊंगा… बस तू एक बार ‘हां’ कह दे.’’

‘‘नहीं… मैं हरगिज तेरे इशारे पर काम नहीं करूंगी. नहीं करूंगी वह काम, जो मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘करेगा तो तुम्हारा मरा हुआ बाप भी. देखता हूं, कब तक इनकार करती हो?’’ उस आदमी की आवाज सख्त हो उठी थी, आंखें लाल हो उठी थीं. वह आगे बोला, ‘‘और 4 दिन भूखीप्यासी रही तो होश ठिकाने आ जाएगा. जब भूख से अंतडि़यां कुलबुलाएंगी, तब सबकुछ मंजूर हो जाएगा.’’

इतना कह कर वह आदमी बाहर चला गया. संतो ने दरवाजा बंद कर दिया. पर उस के जाने के बाद भी उस की आवाज कमरे में गूंज रही थी.

संतो फूटफूट कर रोने लगी, पर उस की फरियाद घुट कर रह गई. वह सोचने लगी, ‘एक हद तक उस ने ठीक ही तो कहा है. भूख की वजह से ही तो मैं यहां तक आई हूं.’

संतो बीते दिनों को याद करने लगी. 2-3 महीने पहले उस के गांव केशवगढ़ और आसपास के इलाके में सूखा पड़ा था. खेतों की खड़ी फसलें झुलस कर बरबाद हो गईं. धरती फट गई. कुओं, तालाबों का पानी नीचे जमीन में समा गया. अन्न के साथसाथ पानी की परेशानी भी होने लगी.

जानवरों ने भी अपने मालिकों से विदा ले ली. बूढ़ों में चंद कदम चलने भर की ताकत न रही. मदद के नाम पर जोकुछ मिला, वह बहुत थोड़ा था.

लोग उस इलाके को छोड़ कर जाने लगे. ऐसे में कुछ दलाल किस्म के लोग जवान लड़कियों को पैसों का लालच दे कर शहरों में ले गए. उन से कहा गया था कि वे उन्हें काम पर लगाएंगे. वे मेहनत करेंगी और अपना और अपने घर वालों का पेट भरेंगी. इन बातों पर उन्हें यकीन हो गया था.

केशवगढ़ में सब से खराब हालत संतो की थी. उस का बूढ़ा पिता भूख से तड़पतड़प कर मर गया था. तंगी तो यों ही बनी रहती थी, उस पर बाप का साया भी उठ गया. अब वह बिलकुल टूट सी गई थी.

अचानक एक दिन सेवादास नाम का एक आदमी उस के पास आया. उस ने बताया कि वह उस के दूर के रिश्ते का चाचा है. वह बनारस में रहता है और केशवगढ़ में अकाल की खबर पा कर उस से मिलने आया है.

तब संतो मुसीबत में फंसी हुई थी. फरेबी सेवादास भी उसे बिलकुल अपना लगने लगा.

अगले दिन सेवादास उसे ले कर बनारस चला आया था. रास्ते में उसे अच्छे कपड़े भी खरीद दिए और खूब खातिरदारी करता रहा था.

उस ने संतो को पहले अपने घर में रखा. वह भी इतमीनान से उस के साथ रहने लगी.

एक दिन सेवादास के पास एक मोटी सी औरत आई. आते ही वह संतो का आगापीछा देखने लगी.

उस की निगाहें संतो को चुभ रही थीं. उस से रहा न गया तो पूछ बैठी, ‘‘चाचा, यह कौन है? यह मुझे ऐसे क्यों देख रही है?’’

सेवादास शरारतभरी मुसकान होंठों पर लाते हुए बोला, ‘‘चाचा नहीं संतो रानी, हमारा नाम तो सेवादास है… सेवादास. लोगों की सेवा करना ही हमारा काम है. क्यों चमेलीबाई?’’

चमेलीबाई बोली, ‘‘कहां से लाया रे सेवादास, इस हीरे के टुकड़े को? अनारकली है, अनारकली. अब देखना, पूरे बनारस में चमेलीबाई का ही सिक्का चलेगा.’’

संतो सकते में आ गई थी. उस की अजीब हालत थी. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी.

चमेलीबाई उस की ओर निगाहें फेर कर बोली, ‘‘मैं तुम्हारे जिस्म का मुआयना कर रही हूं. क्या तुम्हें सेवादास ने कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘क्यों रे, इसे कुछ बताया नहीं?’’ चमेलीबाई ने सवाल किया.

‘‘बताने की तो जरूरत ही नहीं है चमेलीबाई. सुना है, यह बहुत अच्छा गाती है. जब यह नाचती है तो समय भी ठहर जाता है. तुम्हारे कोठे पर तो नोटों की बरसात हो जाएगी… बरसात…’’

‘कोठा’ लफ्ज सुनते ही संतो कांप उठी. उस ने यह शब्द भी सुन रखा था और वहां की घिनौनी करतूतों को भी खूब समझती थी. उसे लगा कि वह बुरी फंसी है.

संतो का गुस्सा फूट पड़ा, ‘‘चाचा बने फिरते थे. सेवादास, तुम तो मुझे काम दिलाने के लिए लाए थे. क्या यही काम कराना था? कोठे पर नचवाना था… मेरे जिस्म का सौदा करना था? पर, कान खोल कर सुन लो तुम दोनों, मैं कोठे पर हरगिज नहीं नाचूंगी.’’

फिर उसी दिन से संतो पर जुल्म ढाना शुरू हो गया. पहले तो उसे डरायाधमकाया गया, पर बाद में पीटा भी गया और भूखाप्यासा भी रखा गया. आखिर पेट की आग के आगे वह टूटती चली गई.

भूख और प्यास से संतो तिलतिल कर मर रही थी. वह एक बार में ही मर जाना चाहती थी, पर सेवादास न उसे मरने दे रहा था और न जीने. एक दिन वह बेहोश हो गई. तब उस ने मजबूर हो कर सेवादास की बात मान ली.

देखते ही देखते संतो के पैरों में घुंघरू बंध गए. पर उन की झंकार से उस का दिल चकनाचूर हो गया. टूटे दिल के तारों से जो दर्दीला स्वर फूटा तो लोग झूम उठे. उस पर नोटों की बारिश करने लगे. पर असलियत किस ने जानी थी. काश, कोई आंखों के झरोखे से उस के दिल में झांक कर देखता तो उसे सचाई का पता चलता.

कितने अरमान संजोए थे संतो ने. सोचा था कि कोई साजन होगा, कोई मनमीत होगा, जिस के सीने पर वह अपना सिर रख कर अपना हर गम भूल जाएगी. उस का बालम हौलेहौले उस की जुल्फों को संवारेगा, उस में फूल लगाएगा, तब खिले गुलाब की तरह उस का तनमन महक उठेगा.

कोठे पर हर तरह के लोग आते थे. पर ज्यादातर की आंखों में संतो ने जिस्म की भूख ही देखी थी. उसे लगता, हर कोई उस के बदन को नोचना चाहता है, उसे कच्चा निगल जाने को तैयार है.

उन्हीं दिनों सुंदर नाम का एक नौजवान भी चमेलीबाई के कोठे पर आने लगा था. वह अपने नाम की तरह सुंदर भी था. दिल का बेहद भोला, फरेब नाम की किसी भी चीज से अनजान.

संतो धीरेधीरे सुंदर की ओर खिंचती चली गई. सुंदर से आंखें मिलते ही उस के दिल में हलचल होने लगती, पर किसी को कुछ बताना भी बेकार था. सुंदर आता तो संतो को नाचने का मन होता, नहीं तो वह उदास ही रहती.

एक दिन सुंदर नहीं आया. संतो सिंगार करने के बावजूद अपने कमरे में बैठी रही. चमेलीबाई के बुलावे पर बुलावे आते रहे, पर उस पर कोई असर न हुआ. मजबूर हो कर चमेलीबाई को खुद बुलाने आना पड़ा, क्योंकि कई लोग वहां बैठे उस का इंतजार कर रहे थे.

‘‘आजकल नखरे बहुत करने लगी है हमारी महारानी. बाहर हुस्न के मतवाले तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं और तुम यहां सजधज कर बैठी हो,’’ आते ही चमेलीबाई बरस पड़ी.

‘‘आज नाचने का मेरा दिल नहीं है,’’ संतो बोली.

‘‘नाचेगी नहीं, तो इतने लोगों का पेट कैसे भरेगा? क्या तेरा बाप पैसे दे जाएगा?’’ चमेलीबाई बोली.

फिर रुक कर वह बोली, ‘‘चल, जल्दी… नखरे मत दिखा.’’

संतो ने आह भर कर कहा, ‘‘मेरा असली कद्रदान तो आज आया ही नहीं.’’

‘‘असली कद्रदान… किस की बातें कर रही है?’’ चमेलीबाई चौंक उठी.

‘‘उस की आंखों में मैं ने प्यार देखा है,’’ संतो भावुक हो उठी थी.

पर चमेलीबाई को यह गवारा न था. उस का पेशा चौपट हो जाता. वह उबल पड़ी, ‘‘सुन संतो, हमारे पेशे में प्यारमुहब्बत नाम की कोई चीज ही नहीं है. यहां लोग प्यार करते हैं, सिर्फ एक रात के लिए. सुबह बीच चौराहे पर छोड़ कर चले जाते हैं. एक रात की दुलहन हर कोई बना लेता है, पर उम्रभर के लिए कोई नहीं अपने घर ले जाता.

‘‘कोठे तक तो चारों ओर से रास्ते आते हैं, पर यहां से कोई रास्ता ‘घर’ तक नहीं जाता. फिर हमारा पेशा ही ऐसा है कि हम ऐसा करने की हिमाकत कर ही नहीं सकतीं. दिन में ख्वाब देखना छोड़ दो और चलो उठो.’’

चमेलीबाई ने कोई सख्त धमकी तो नहीं दी, पर बहुतकुछ कह गई थी. संतो बेमन से लोगों का मनोरंजन करने लगी. पर उस के तौरतरीकों से चमेलीबाई को मालूम हो गया कि वह सुंदर से बेहद प्यार करने लगी है.

चमेलीबाई को लग रहा था कि दबाने से संतो बगावत करने पर उतर आएगी, इसलिए वह सिर्फ इतना बोली, ‘‘संतो, अगर तुम समझती हो कि बाहर की दुनिया में जा कर तुम खुश रह सकोगी, तो जा सकती हो. पर सबकुछ इतना आसान नहीं है. लोग तुम्हें वहां जीने नहीं देंगे.’’

पर प्यार तो अंधा होता है. संतो ने अपनी दुलहन बनने की सब से बड़ी ख्वाहिश पूरी कर ली. सुंदर की बीवी बन कर वह उस के घर आ गई.

सुंदर भी अकेला था. संतो की नजरों से प्यार का पैगाम पा कर उस का दिल भी बेकाबू हो गया. वह संतो के प्यार के सागर में गोते लगाने लगा.

यों ही मजे से प्यार भरे दिन बीत रहे थे. अचानक एक दिन संतो की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया. उस दिन शाम को सुंदर शराब पी कर आया था. आते ही वह घर के सामान को इधरउधर फेंकने लगा और चीखने लगा.

‘‘यह आप को क्या हो गया है?’’ संतो तड़प उठी.

‘‘कुछ नहीं… यह शराब है जानी, शराब, यह बेवफा नहीं होती. यह धोखा नहीं देती. यह जूठन नहीं होती,’’ सुंदर बड़बड़ाता गया.

‘‘आखिर हुआ क्या है…? आप ने शराब क्यों पी?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रही हो? अपनी औकात मत भूलो. निकल जाओ, मेरे घर से. तुम एक धंधेवाली हो… धंधेवाली. तुम्हारी वजह से मेरा जीना मुश्किल हो गया है.’’

संतो को लगा कि जिस तख्ते को पकड़ कर वह जिंदगी का दरिया पार करना चाहती थी, वह डूबता जा रहा है. आगे का रास्ता अंधेरों से भरा है.

सुंदर ने संतो को घर से निकाल दिया. अब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था. उसे कुछ दरिंदे अपनी ओर बढ़ते महसूस हुए. उस के आगे एक ही रास्ता बचा था, कोठे का रास्ता. पर वहां वह जाना नहीं चाहती थी.

वह तेज कदम उठाती चलने लगी. पर अगले ही मोड़ पर सेवादास ने उस की बांह पकड़ ली और उसे दोबारा उसी बदनाम गली में पहुंचा दिया.

‘‘आओ मेरी संतो रानी, आओ,’’ चमेलीबाई मुसकराते हुए बोली.

संतो नजरें नीची किए खड़ी थी. ‘‘संतो, हम कोठेवालियों का यही अंजाम होता है. यह दुनिया हमें किसी की ‘घरवाली’ बन कर चैन से जीने नहीं देती. हमारा पेशा ही ऐसा है. अगर कोई हिम्मत कर के हाथ थाम भी लेता है, तो साथ नहीं निभा पाता.

‘‘बदनाम गली में रहनेवालियों के लिए घर एक सपना हो सकता है, हकीकत नहीं, क्योंकि दुनिया का नजरिया जब तक नहीं बदलता, तब तक कुछ नहीं हो सकता.’’

संतो को दोबारा उसी गली में जिंदगी के बाकी दिन गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा.

आफ्टर औल बराबरी का जमाना है

शाम को घर लौटने पर सारा घर अस्तव्यस्त पा कर गिरीश को कोई हैरानी नहीं हुई. शायद अब उसे आदत सी हो चुकी थी. उसे हर बार याद हो आता प्रसिद्ध लेखक चेतन भगत का वह लेख, जिस में उन्होंने जिक्र किया है कि यदि घर का मर्द गरम रोटियों का लालच त्याग दे तभी उस घर की स्त्री घरेलू जिम्मेदारियों के साथसाथ अपने कैरियर पर भी ध्यान देते हुए उसे आगे बढ़ा सकती है. इस लेख का स्मरण गिरीश को शांतचित्त रहने में काफी मददगार साबित होता. जब शुमोना से विवाह हेतु गिरीश को परिवार से मिलवाया गया था तभी उसे शुमोना के दबंग व्यक्तित्व तथा स्वतंत्र सोच का आभास हो गया था.

‘‘मेरा अपना दिमाग है और वह अपनी राह चलता है,’’ शुमोना का यह वाक्य ही पर्याप्त था उसे यह एहसास दिलाने हेतु कि शुमोना के साथ निर्वाह करना है तो बराबरी से चलना होगा.

गिरीश ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी. घर के कामकाज में जितना हो सकता मदद करता. उदाहरणस्वरूप, सुबह दफ्तर जाने से पूर्व वाशिंग मशीन में कपड़े धो जाता या फिर कभी कामवाली के छुट्टी मार जाने पर शुमोना घर की साफसफाई करती तो वह बरतन मांज देता. हां, खाना बनाने में उस का हाथ तंग था. कभी अकेला नहीं रहा तो स्वयं खाना बनाना सीखने की नौबत ही नहीं आई. मां के हाथ का खाना खाता रहा. किंतु नौकरी पर यहां दूसरे शहर आया तो पहले कैंटीन का खाना खाता रहा और फिर जल्द ही घर वालों ने सुखसुविधा का ध्यान रखते हुए शादी करवा दी.

घर में घुसने के साथ ही गिरीश ने एक गिलास ठंडा पानी पिया और फिर घर को व्यवस्थित करने में जुट गया. शुमोना अभी तक दफ्तर से नहीं लौटी थी. आज कामवाली फिर नहीं आई थी. अत: सुबह बस जरूरी काम निबटा कर दोनों अपनेअपने दफ्तर रवाना हो गए थे.

‘‘अरे, तुम कब आए? आज मैं थोड़ी लेट हो गई,’’ घर में प्रवेश करते हुए शुमोना बोली.

‘‘मैं भी बस अभी आया. करीब 15 मिनट पहले,’’ गिरीश घर को व्यवस्थित करते हुए बोला.

‘‘आज फिर हमारी टीम में जोरदार बहस छिड़ गई, बस इसीलिए थोड़ी लेट हो गई. वह संचित है न कहने लगा कि औरतों के लिए प्रमोशन पाना बस एक मुसकराहट फेंकने जितना कठिन है. बताओ जरा, यह भी कोई बात हुई. मैं ने भी खूब खरीखरी सुनाई उसे कि ये मर्द खुद को पता नहीं क्या समझते हैं. हम औरतें बराबर मेहनत कर शिक्षा पाती हैं, कंपीटिशन में बराबरी से जूझ कर नौकरी पाती हैं और नौकरी में भी बराबर परिश्रम कर अपनी जौब बचाए रखती हैं. उलटा हमें तो आगे बढ़ने के लिए और भी ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है. ग्लास सीलिंग के बारे में नहीं सुना शायद जनाब ने.’’

‘‘तुम मानती हो ग्लास सीलिंग? लेकिन तुम्हें तो कभी किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा?’’

‘‘मुझे इसलिए नहीं करना पड़ा, क्योंकि मैं एक सशक्त स्त्री हूं, एक सबला हूं, कोई अबला नहीं. कोई मर्द मुझ से जीत कर तो दिखाए.’’

‘‘अब इस मर्द पर तो जुल्म मत करो, डार्लिंग. कुछ खानावाना खिला दो,’’ गिरीश से भूख बरदाश्त नहीं हो रही थी.

‘‘अभी तुम ही ग्लास सीलिंग न होने की बात कर रहे थे न? मैं भी तुम्हारी तरह दफ्तर से आई हूं. तुम्हारी तरह थकी हूं और तुम हो कि…’’

‘‘क्या करूं, खाने के मामले में मैं तुम पर आश्रित जो हूं वरना तुम्हारी कामवाली के न आने पर बाकी सारा काम मैं तुम्हारे साथ करता हूं. अब ऐसा भी लुक मत दो जैसे तुम पर कोई जुल्म कर रहा हूं. चाहे तो खिचड़ी ही बना दो.’’

शुमोना ने मन मार कर खाना बनाया, क्योंकि पहले ऐसा होने पर जबजब उस ने बाहर से खाना और्डर किया, तबतब गिरीश का पेट खराब हो गया था. गिरीश को सफाई का मीनिया था. किंतु शुमोना को अस्तव्यस्त सामान से कोई परेशानी नहीं होती थी. वह खाना खाते समय टेबल पर रखा सामान उठा कर सोफे पर रख देती और सोफे पर पसरने से पूर्व सोफे का सामान उठा कर टेबल पर वापस पहुंचा देती.

गिरीश टोकता तो पलटवार कर कहती, ‘‘तुम्हें इतना अखरता है तो खुद ही उठा दिया करो न. आखिर मैं भी तुम्हारी तरह कामकाजी हूं, दफ्तर जाती हूं. आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

एक बार गिरीश की मां आई हुई थीं. दोनों के बीच ऐसी बातचीत सुन उन से बिना टोके रहा नहीं गया.

बोलीं, ‘‘बराबरी की बात तो ठीक है और होनी भी चाहिए, लेकिन समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ काम अलगअलग मर्द और औरत में बांट दिए गए हैं. मसलन, घर संभालना, खानेपीने की जिम्मेदारी औरतों पर, जबकि घर से बाहर के काम, ताकत, बोझ के काम मर्दों पर डाल दिए गए.’’

लेकिन उन की बात को शुमोना ने एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया. यहां तक कि कमरे के अंदर जब गिरीश शुमोना को बांहों में भरता तो वह अकसर यह कह कर झटक देती, ‘‘तुम मेरी शुरुआत का इंतजार क्यों नहीं कर सकते, गिरीश?’’

‘‘मैं तो कभी जोरजबरदस्ती नहीं करता, शुमोना. तुम्हारा मन नहीं है तो कोई बात नहीं.’’

‘‘मुझ से जबरदस्ती कोई नहीं कर सकता. तुम भी नहीं.’’

‘‘मैं भी तो वही कह रहा हूं कि मैं कोई जबरदस्ती नहीं करता. इस में बहस का मुद्दा क्या है?’’ शुमोना की बेबात की अकड़ में गिरीश परेशान हो उठता.

कुछ माह बाद शुमोना की मां उन के घर रहने आईं. अपनी बेटी की गृहस्थी को देख कर वे बहुत खुश हुईं. मगर उन के समक्ष भी गिरीश शुमोना के बीच होती रहती बराबरी की बहस छिड़ी. गिरीश को अचानक टूअर पर जाना पड़ा. उस ने अपने औफिस से शुमोना को फोन कर के कहा कि उस का बैग तैयार कर दो.

‘‘ऊंह, बस, दे दिया और्डर. मेरे भी अपने काम हैं. अपना काम खुद क्यों नहीं करता गिरीश? अगर उसे कल टूअर पर जाना है, तो जल्दी घर आए और अपना बैग लगाए. शादी से पहले भी तो सब काम करता था न. आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

‘‘यह क्या बात हुई, शुमोना? तुम उस की पत्नी हो. यदि तुम उस का घरबार नहीं संभालोगी तो और कौन संभालेगा? अगर अकेलेअकेले ही जीना है तो शादी किसलिए करते हैं? कल को तुम कहने लगोगी कि मैं बच्चे क्यों पैदा करूं, गिरीश क्यों नहीं,’’ शुमोना की मां को उस का यह रवैया कतई रास न आया.

‘‘आप तो मेरी सास की भाषा बोलने लगी हो,’’ उन के मुख से भी ऐसी वाणी सुन शुमोना विचलित हो उठी.

अब उन्होंने थोड़ा नर्म रुख अपनाया, ‘‘बेटी, सास हो या मां, बात दोनों पते की करेंगी. बुजुर्गों ने जमाना देखा होता है. उन के पास तजरबा होता है. होशियारी इसी में है कि छोटों को उन के अनुभव का फायदा उठाना चाहिए.’’

‘‘पर मां, मैं ने भी तो उतनी ही शिक्षा प्राप्त की है जितनी गिरीश ने. मेरी जौब भी उतनी ही कठिन है जितनी गिरीश की. फिर मैं ही क्यों गृहस्थी की जिम्मेदारी ओढ़ूं? आप तो जानती हैं कि मैं शुरू से नारीवाद की पक्षधर रही हूं.’’

‘‘तुम ज्यादती कर रही हो, शुमोना. नारीवाद का अर्थ यह नहीं कि औरतें हर बात में मर्दों के खिलाफ मोरचा खोलना शुरू कर दें. घरगृहस्थी पतिपत्नी की आपसी सूझबूझ तथा तालमेल से चलती है. जहां तक संभव है, गिरीश तुम्हारी पूरी मदद करता है. अब कुछ काम जो तुम्हें संभालने हैं, वे तो तुम ही देखोगी न.’’

मगर मां की मूल्यवान सीख भी शुमोना की नजरों में बेकार रही.

शादी को साल बीततेबीतते गिरीश ने स्वयं को शुमोना के हिसाब से ढाल लिया

था. वह अपनी पत्नी से प्यार करता था और बस यह चाहता था कि उस की पत्नी खुश रहे. किंतु शुमोना का नारीवाद थमने का नाम नहीं ले रहा था. गिरीश के कुछ सहकर्मी, दोस्त घर आए. उन की नई बौस की बात चल निकली, ‘‘पता नहीं इतनी अकड़ू क्यों है हमारी बौस? किसी भी बात को बिना अकड़ के कह ही नहीं पाती.’’

गिरीश के एक सहकर्मी के यह कहते ही शुमोना बिफर पड़ी, ‘‘किसी भी औरत को अपने बौस के रूप में बरदाश्त करना मुश्किल हो रहा होगा न तुम मर्दों के लिए? कोई आदमी होता तो बुरा नहीं लगता, मगर औरत है इसलिए उस की पीठ पीछे उस का मजाक उड़ाओगे, उस की खिल्ली उड़ाओगे, उस के साथ तालमेल नहीं बैठाओगे.’

‘‘अरे, भाभी को क्या हो गया?’’

‘‘शुमोना, तुम हम सब की फितरत से भलीभांति वाकिफ हो, जबकि हमारी बौस को जानती भी नहीं हो. फिर भी तुम उन की तरफदारी कर रही हो?’’ शुमोना के इस व्यवहार से गिरीश हैरान था.

अब तक वह जान चुका था कि शुमोना के मन में मर्दों के खिलाफ बेकार की रंजिश है. वह मर्दों को औरतों का दुश्मन समझती है और इसीलिए घर के कामकाज में बेकार की बराबरी व होड़ रखती है.

उस रात गिरीश तथा शुमोना डिनर पर बाहर गए थे. खापी कर जब अपनी गाड़ी में घर लौट रहे थे तब कुछ मनचले मोटरसाइकिलों पर पीछे लग गए. करीब 3 मोटरसाइकिलों पर 6-7 लड़के सवार थे, जो गाड़ी के पीछे से सीटियां बजा रहे थे और हूहू कर चीख रहे थे.

‘‘मैं ने पहले ही कहा था कि इस रास्ते से गाड़ी मत लाओ पर तुम्हें पता नहीं कौन सा शौर्टकट दिख रहा था. अब क्या होगा?’’ शुमोना काफी डर गई थी.

‘‘क्या होगा? कुछ नहीं. डर किस बात का? आफ्टर औल बराबरी का जमाना है.’’

गिरीश के यह कहते ही शुमोना की हवाइयां उड़ने लगीं. वह समझ गई कि उस की बारबार कही गई यह बात गिरीश को भेद गई है.

अब तक वह बहुत घबरा गई थी. अत: बोली, ‘‘गिरीश, तुम मेरे पति हो. मेरा ध्यान रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है. बराबरी अपनी जगह है और मेरी रक्षा करना अपनी जगह. तुम अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकते.’’

गिरीश ने बिना कोई उत्तर दिए गाड़ी इतनी तेज दौड़ाई कि सीधा पुलिस स्टेशन के पास ला कर रोकी. वहां पहुंचते ही मोटरसाइकिल सवार नौ दो ग्यारह हो गए. घर पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली, किंतु किसी ने भी एकदूसरे से कोई बातचीत नहीं की. गिरीश चुप था, क्योंकि वह तो शुमोना को सोचने का समय देना चाहता था और शुमोना खामोश थी, क्योंकि वह आहत थी. उस ने अपने मुंह से अपनी कमजोरी की बात कही थी.

अगली सुबह गिरीश अपने दफ्तर चला गया और शुमोना अपने औफिस. कंप्यूटर पर काम करते हुए शुमोना ने देखा कि उस के ईमेल पर गिरीश का मैसेज आया है. लिखा था-

‘दुलहन के सिंदूर से शोभित हुआ ललाट, दूल्हेजी के तिलक को रोली हुई अलौट.

रोली हुई अलौट, टौप्स, लौकेट, दस्ताने, छल्ला, बिछुआ, हार, नाम सब हैं मर्दाने.

लालीजी के सामने लाला पकड़े कान, उन का घर पुर्लिंग है, स्त्रीलिंग दुकान.

स्त्रीलिंग दुकान, नाम सब किस ने छांटे, काजल, पाउडर हैं पुर्लिंग नाक के कांटे.

कह काका कवि धन्य विधाता भेद न जाना, मूंछ मर्दों की मिली किंतु है नाम जनाना…

‘‘शायद तुम ने काका हाथरसी का नाम सुना होगा. यह उन्हीं की कविता है. मर्द और औरत का द्वंद्व बहुत पुराना है, किंतु दोनों एकदूसरे के पूरक हैं यह बात उतनी ही सही है जितना यह संसार. यदि आदमी और औरत सिर्फ एकदूसरे से लड़ते रहें, होड़ करते रहें तो किसी भी घर में कभी शांति नहीं होगी. कभी कोई गृहस्थी फूलेगी फलेगी नहीं और कभी किसी बच्चे का बचपन खुशहाल नहीं होगा. इस बेकार की भावना से बाहर आओ शुमोना और मेरे प्यार को पहचानो.’’

उस शाम गिरीश के घर आते ही डाइनिंग टेबल पर गरमगरम भोजन उस की राह देख रहा था. मुसकराती शुमोना उस की बाट जोह रही थी. उसे देखते ही हंसी और फिर उस के गले में बांहें डालते हुए बोली, ‘‘अपना काम मैं कर चुकी हूं. अब तुम्हारी बारी.’’

खाने के बाद गिरीश शुमोना को बांहों में उठाए कमरे में ले चला. शुमोना उस के कंधे पर झुकी मुसकराए जा रही थी.

तालीम: क्या वारसी साहब की तमन्ना पूरी हुई?

अमन अपने पिता का लख्तेजिगर था, क्योंकि उस खानदान में एक भी बेटा नहीं था. वैसे, वहां धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. वारसी साहब खानदानी रईस थे. कई गाडि़यां कीं और कई बंगले थे. वे राजामहाराजा की जिंदगी जी रहे थे, लेकिन बेटे जैसी नेमत से महरूम थे.

वारसी साहब की शादी मुद्दत पहले हो गई थी, पर फिर भी कोई औलाद नहीं हुई. बेटा होने की तमन्ना दिल में बहुत थी. कई मिन्नतों के बाद अमन जैसा चांद सा बेटा वारसी साहब को हुआ. लेकिन शक्ल से तो पर अक्ल से नहीं. उसे अपने पिता की धनदौलत पर ज्यादा ही नाज था. उसे लगता था कि दुनिया में धनदौलत ही सबकुछ है.

वारसी साहब अपने एकलौते बेटे से बहुत ज्यादा लाड़प्यार करते थे, पर उन्हें कंपनी के कामों से इतनी भी फुरसत नहीं मिलती थी कि वे अपने बेटे को तालीम हासिल करने के लिए बोल सकें. वारसी साहब की यही मुहब्बत धीरेधीरे अमन के लिए घातक साबित हो रही थी.

‘‘तुम्हारे पास क्या है छोटू? देखो, मेरे पास कई गाडि़यां हैं, कई बंगले हैं, चहलकदमी के लिए कई बाग है, जबकि तुम्हारे पास खाने के लिए तो दो कौडि़यां होंगी,’’ एक दिन अमन ने अपने पिता के ड्राइवर के बेटे से कहा.

रजा उर्फ छोटू की मां भी वारसी साहब के घर बरतन साफ करती थी, पर वह अच्छे स्कूल में पढ़ता था, क्योंकि उस के मांबाप उस के भविष्य के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

रजा ने अमन के सवाल का जवाब दिया, ‘‘मेरे पास वह सबकुछ है, जो शायद तुम्हारे पास नहीं है.’’

अमन यह सुन कर गुस्से से आगबबूला हो कर बोला, ‘‘अरे, जरा बता तो सही कि ऐसी क्या ऐसी चीज है तेरे पास, जो मेरे पास नहीं है? तुम्हारी मां मेरे घर पर काम करती है. तुम्हारे पिता मेरे पिताजी के कार ड्राइवर हैं. आखिर ऐसी भी तुम्हारे पास क्या जायदाद है?’’

‘‘मेरे पास तालीम जैसी नेमत है, लेकिन तुम्हारे पास नहीं है. तालीम के बिना इनसान गरीब की तरह है. तुम चाहो तो पैसों से डिगरियां खरीद सकते हो, लेकिन सच्ची और अच्छी तालीम नहीं.’’

उन दोनों की बहस को बगीचे में बैठी अमन की दादी सुन रही थीं. अपनी लाठी पकड़ते हुए उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘अरे, तुम दोनों मेरे पास आ जाओ. खेलतेखेलते आपस में नाहक झगड़ क्यों रहे हो?’’

अमन ने फरियाद रखी, ‘‘दादी, देखो न छोटू को कि यह क्या बोल रहा है. इस के पास खाने के लिए सही से राशन भी नहीं होगा, पहनने के लिए कपड़े भी नहीं होंगे, लेकिन देखो कैसे बोल रहा है कि जो इस के पास है, वह मेरे पास नहीं है.’’

बूढ़ी दादी ने अपने पोते को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, छोटू की बात बिलकुल सही है. तालीम की तुलना धनदौलत से नहीं और धनदौलत की तुलना तालीम से नहीं की जा सकती, क्योंकि तालीम दौलतों की दौलत है. हर कोई इसे हासिल नहीं कर सकता.

‘‘रजा के मातापिता गरीब तो हैं और वे अपने घर में नौकरी करते हैं, पर गरीब होने के बाद भी उन्होंने इसे अच्छी तालीम देने की कोशिश की है.

‘‘पर, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हें अच्छी तालीम देने में लापरवाही की है, क्योंकि उन दोनों को यही लगता है कि वे इतनी धनदौलत छोड़ कर जाएंगे कि अगर तुम्हारी आने वाली सात नस्लें भी बैठ कर खाएंगी तो खत्म नहीं होगी.’’

‘‘दादी, तुम छोटू की तरफदारी क्यों कर रही हो? मैं आप का पोता हूं या छोटू?’’ अमन ने दादी से पूछा.

‘‘बेटा, अभी मैं तुम्हारी दादी नहीं हूं, बल्कि तुम दोनों की बात का फैसला करने वाली हूं. फैसला करने के समय रिश्तेदारी खत्म. अगर मैं तुम्हारे हक में फैसला करूंगी, तो छोटू के साथ नाइंसाफी होगी. जो सच है, वही मैं कहूंगी.

‘‘आओ, तुम दोनों एक जगह बैठ जाओ. एक बार बचपन में जब मैं अपनी सहेली के साथ झगड़ रही थी, तो मेरी दादी ने एक कहानी सुनाई थी. आज वही कहानी मैं तुम दोनों को सुनाती हूं.

‘‘कई साल पहले एक राजा हुआ करते थे. वे बहुत पढ़ेलिखे थे और उन के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. उन का एक बेटा भी था, पर वह अव्वल दर्जे का बेवकूफ था. वह पढ़ाईलिखाई को कुछ नहीं समझता था.

‘‘एक दिन राजा की तबीयत खराब हो गई. कई हकीमों ने राजा का इलाज किया, पर वे राजा को नहीं बचा पाए. अब राजा के मरने के बाद सिंहासन पर उस का बेवकूफ और अनपढ़ बेटा बैठ गया, क्योंकि वह राजा का वारिस जो था.

‘‘वह राजा तो बन बैठा, पर ज्यादा दिन तक नहीं. उस की बेवकूफी का फायदा उठा कर लोगों ने उसे ठग लिया और उसे राजा से रंक बनते देर नहीं लगी.

‘‘कहने का मतलब यह है कि तुम बिना तालीम के अपनी जायदाद को ज्यादा समय तक के लिए नहीं बचा पाओगे. पर अगर तुम्हारे पास अच्छी तालीम होगी, तो बहुत सी जायदाद बना सकते हो…’’

अमन की समझ में दादी की सारी बातें आ चुकी थीं. उसे अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था.

‘‘दादी, मुझे माफ कर देना. मैं आज से ही तालीम हासिल करने स्कूल जाया करूंगा. छोटू, तुम भी मुझे माफ कर दो.’’

इस के बाद अमन अब छोटू के साथ तालीम हासिल करने स्कूल जाने लगा था. वे दोनों अच्छे दोस्त भी बन गए थे.

थोड़ा सा इंतजार: क्या मिल पाया तनुश्री और वेंकटेश को परिवार का प्यार

बरसों बाद अभय को उसी जगह खड़ा देख कर तनुश्री कोई गलती नहीं दोहराना चाहती थी. कई दिनों से तनुश्री अपने बेटे अभय को कुछ बेचैन सा देख रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी छोटी से छोटी बात मां को बताने वाला अभय अपनी परेशानी के बारे में कुछ बता क्यों नहीं रहा है. उसे खुद बेटे से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा.

आजकल बच्चे कुछ अजीब मूड़ हो गए हैं, अधिक पूछताछ या दखलंदाजी से चिढ़ जाते हैं. वह चुप रही. तनुश्री को किचन संभालते हुए रात के 11 बज चुके थे. वह मुंहहाथ धोने के लिए बाथरूम में घुस गई. वापसी में मुंह पोंछतेपोंछते तनुश्री ने अभय के कमरे के सामने से गुजरते हुए अंदर झांक कर देखा तो वह किसी से फोन पर बात कर रहा था. वह एक पल को रुक कर फोन पर हो रहे वार्तालाप को सुनने लगी. ‘‘तुम अगर तैयार हो तो हम कोर्ट मैरिज कर सकते हैं…नहीं मानते न सही…नहीं, अभी मैं ने अपने मम्मीपापा से बात नहीं की…उन को अभी से बता कर क्या करूं? पहले तुम्हारे घर वाले तो मानें…रोना बंद करो. यार…उपाय सोचो…मेरे पास तो उपाय है, तुम्हें पहले ही बता चुका हूं…’’ तनुश्री यह सब सुनने के बाद दबेपांव अपने कमरे की ओर बढ़ गई. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलते गुजरी.

अभय की बेचैनी का कारण उस की समझ में आ चुका था. इतिहास अपने आप को एक बार फिर दोहराना चाहता है, पर वह कोशिश जरूर करेगी कि ऐसा न हो, क्योंकि जो गलती उस ने की थी वह नहीं चाहती थी कि वही गलती उस के बच्चे करें. तनुश्री अतीत की यादों में डूब गई. सामने उस का पूरा जीवन था. कहने को भरापूरा सुखी जीवन. अफसर पति, जो उसे बेहद चाहते हैं. 2 बेटे, एक इंजीनियर, दूसरा डाक्टर. पर इन सब के बावजूद मन का एक कोना हमेशा खाली और सूनासूना सा रहा. क्यों? मांबाप का आशीर्वाद क्या सचमुच इतना जरूरी होता है? उस समय वह क्यों नहीं सोच पाई यह सब? प्रेमी को पति के रूप में पाने के लिए उस ने कितने ही रिश्ते खो दिए. प्रेम इतना क्षणभंगुर होता है कि उसे जीवन के आधार के रूप में लेना खुद को धोखा देने जैसा है. बच्चों को भी कितने रिश्तों से जीवन भर वंचित रहना पड़ा.

कैसा होता है नानानानी, मामामामी, मौसी का लाड़प्यार? वे कुछ भी तो नहीं जानते. उसी की राह पर चलने वाली उस की सहेली कमला और पति वेंकटेश ने भी यही कहा था, ‘प्रेम विवाह के बाद थोड़े दिनों तक तो सब नाराज रहते हैं लेकिन बाद में सब मान जाते हैं.’ और इस के बहुत से उदाहरण भी दिए थे, पर कोई माना? पिछले साल पिताजी के गुजरने पर उस ने इस दुख की घड़ी में सोचा कि मां से मिल आती हूं. वेंकटेश ने एक बार उसे समझाने की कोशिश की, ‘तनु, अपमानित होना चाहती हो तो जाओ. अगर उन्हें माफ करना होता तो अब तक कर चुके होते. 26 साल पहले अभय के जन्म के समय भी तुम कोशिश कर के देख चुकी हो.’ ‘पर अब तो बाबा नहीं हैं,’ तनुश्री ने कहा था.

‘पहले फोन कर लो तब जाना, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं.’ तनुश्री ने फोन किया. किसी पुरुष की आवाज थी. उस ने कांपती आवाज में पूछा, ‘आप कौन बोल रहे हैं?’ ‘मैं तपन सरकार बोल रहा हूं और आप?’ तपन का नाम और उस की आवाज सुनते ही तनुश्री घबरा सी गई, ‘तपन… तपन, हमारे खोकोन, मेरे प्यारे भाई, तुम कैसे हो. मैं तुम्हारी बड़ी दीदी तनुश्री बोल रही हूं?’ कहतेकहते उस की आवाज भर्रा सी गई थी. ‘मेरी तनु दीदी तो बहुत साल पहले ही मर गई थीं,’ इतना कह कर तपन ने फोन पटक दिया था. वह तड़पती रही, रोती रही, फिर गंभीर रूप से बीमार पड़ गई. पति और बच्चों ने दिनरात उस की सेवा की. सामाजिक नियमों के खिलाफ फैसले लेने वालों को मुआवजा तो भुगतना ही पड़ता है. तनुश्री ने भी भुगता. शादी के बाद वेंकटेश के मांबाप भी बहुत दिनों तक उन दोनों से नाराज रहे. वेंकटेश की मां का रिश्ता अपने भाई के घर से एकदम टूट गया.

कारण, उन्होंने अपने बेटे के लिए अपने भाई की बेटी का रिश्ता तय कर रखा था. फिर धीरेधीरे वेंकटेश के मांबाप ने थोड़ाबहुत आना- जाना शुरू कर दिया. अपने इकलौते बेटे से आखिर कब तक वह दूर रहते पर तनुश्री से वे जीवन भर ख्ंिचेख्ंिचे ही रहे. जिस तरह तनुश्री ने प्रेमविवाह किया था उसी तरह उस की सहेली कमला ने भी प्रेमविवाह किया था. तनुश्री की कोर्ट मैरिज के 4 दिन पहले कमला और रमेश ने भी कोर्ट मैरिज कर ली थी. उन चारों ने जो कुछ सोचा था, नहीं हुआ. दिनों से महीने, महीनों से साल दर साल गुजरते गए. दोनों के मांबाप टस से मस नहीं हुए. उस तनाव में कमला चिड़चिड़ी हो गई. रमेश से उस के आएदिन झगड़े होने लगे. कई बार तनुश्री और वेंकटेश ने भी उन्हें समझाबुझा कर सामान्य किया था. रमेश पांडे परिवार का था और कमला अग्रवाल परिवार की. उस के पिताजी कपड़े के थोक व्यापारी थे. समाज और बाजार में उन की बहुत इज्जत थी. परिवार पुरातनपंथी था. उस हिसाब से कमला कुछ ज्यादा ही आजाद किस्म की थी.

एक दिन प्रेमांध कमला रायगढ़ से गाड़ी पकड़ कर चुपचाप नागपुर रमेश के पास पहुंच गई. रमेश की अभी नागपुर में नईनई नौकरी लगी थी. वह कमला को इस तरह वहां आया देख कर हैरान रह गया. रमेश बहुत समझदार लड़का था. वह ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहता था, पर कमला घर से बाहर पांव निकाल कर एक भूल कर चुकी थी. अब अगर वह साथ न देता तो बेईमान कहलाता और कमला का जीवन बरबाद हो जाता. अनिच्छा से ही सही, रमेश को कमला से शादी करनी पड़ी. फिर जीवन भर कमला के मांबाप ने बेटी का मुंह नहीं देखा. इस के लिए भी कमला अपनी गलती न मान कर हमेशा रमेश को ही ताने मारती रहती. इन्हीं सब कारणों से दोनों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी. तनुश्री के बाबा की भी बहुत बड़ी फैक्टरी थी. वहां वेंकटेश आगे की पढ़ाई करते हुए काम सीख रहा था. भिलाई में जब कारखाना बनना शुरू हुआ, वेंकटेश ने भी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया. नौकरी लगते ही दोनों ने भाग कर शादी कर ली और भिलाई चले आए. बस, उस के बाद वहां का दानापानी तनुश्री के भाग्य में नहीं रहा.

सालोंसाल मांबाप से मिलने की उम्मीद लगाए वह अवसाद से घिरती गई. जीवन जैसे एक मशीन बन कर रह गया. वह हमेशा कुछ न कर पाने की व्यथा के साथ जीती रही. शादी के बाद कुछ महीने इस उम्मीद में गुजरे कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा. जब अभय पेट में आया तो 9 महीने वह हर दूसरे दिन मां को पत्र लिखती रही. अभय के पैदा होने पर उस ने क्षमा मांगते हुए मां के पास आने की इजाजत मांगी. तनुश्री ने सोचा था कि बच्चे के मोह में उस के मांबाप उसे अवश्य माफ कर देंगे. कुछ ही दिन बाद उस के भेजे सारे पत्र ज्यों के त्यों बंद उस के पास वापस आ गए.

वेंकटेश अपने पुराने दोस्तों से वहां का हालचाल पूछ कर तनुश्री को बताता रहता. एकएक कर दोनों भाइयों और बहन की शादी हुई पर उसे किसी ने याद नहीं किया. बड़े भाई की नई फैक्टरी का उद्घाटन हुआ. बाबा ने वहीं हिंद मोटर कसबे में तीनों बच्चों को बंगले बनवा कर गिफ्ट किए, तब भी किसी को तनु याद नहीं आई. वह दूर भिलाई में बैठी हुई उन सारे सुखों को कल्पना में देखती रहती और सोचती कि क्या मिला इस प्यार से उसे? इस प्यार की उसे कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी. एक वेंकटेश को पाने के लिए कितने प्यारे रिश्ते छूट गए. कितने ही सुखों से वह वंचित रह गई.

बाबा ने छोटी अपूर्वा की शादी कितने अच्छे परिवार में और कितने सुदर्शन लड़के के साथ की. बहन को भी लड़का दिखा कर उस की रजामंदी ली थी. कितनी सुखी है अपूर्वा…कितना प्यार करता है उस का पति…ऐसा ही कुछ उस के साथ भी हुआ होता. प्यार…प्यार तो शादी के बाद अपने आप हो जाता है. जब शादी की बात चलती है…एकदूसरे को देख कर, मिल कर अपनेआप वह आकर्षण पैदा हो जाता है जिसे प्यार कहते हैं. प्यार करने के बाद शादी की हो या शादी के बाद प्यार किया हो, एक समय बाद वह एक बंधाबंधाया रुटीन, नमक, तेल, लकड़ी का चक्कर ही तो बन कर रह जाता है. कच्ची उम्र में देखा गया फिल्मी प्यार कुछ ही दिनों बाद हकीकत की जमीन पर फिस्स हो जाता है पर अपने असाध्य से लगते प्रेम के अधूरेपन से हम उबर नहीं पाते. हर चीज दुहराई जाती है. संपूर्ण होने की संभावना ले कर पर सब असंपूर्ण, अतृप्त ही रह जाता है. अगले दिन सुबह तनुश्री उठी तो उस के चेहरे पर वह भाव था जिस में साफ झलकता है कि जैसे कोई फैसला सोच- समझ कर लिया गया है. तनुश्री ने उस लड़की से मिलने का फैसला कर लिया था. उसे अभय की इस शादी पर कोई एतराज नहीं था. उसे पता है कि अभय बहुत समझदार है. उस का चुनाव गलत नहीं होगा. अभय भी वेंकटेश की तरह परिपक्व समझ रखता है.

पर कहीं वह लड़की उस की तरह फिल्मों के रोमानी संसार में न उड़ रही हो. वह नहीं चाहती थी कि जो कुछ जीवन में उस ने खोया, उस की बहू भी जीवन भर उस तनाव में जीए. अभय ने मां से काव्या को मिलवा दिया. किसी निश्चय पर पहुंचने के लिए दिल और दिमाग का एकसाथ खड़े रहना जरूरी होता है. तनुश्री काव्या को देख सोच रही थी क्या यह चेहरा मेरा अपना है? किस क्षण से हमारे बदलने की शुरुआत होती है, हम कभी समझ नहीं पाते. तनुश्री ने अभय को आफिस जाने के लिए कह दिया. वह काव्या के साथ कुछ घंटे अकेले रहना चाहती थी. दिन भर दोनों साथसाथ रहीं.

काव्या के विचार तनुश्री से काफी मिलतेजुलते थे. तनु ने अपने जीवन के सारे पृष्ठ एकएक कर अपनी होने वाली बहू के समक्ष खोल दिए. कई बार दोनों की आंखें भी भर आईं. दोनों एकमत थीं, प्रेम के साथसाथ सारे रिश्तों को साथ ले कर चलना है. एक सप्ताह बाद उदास अभय मां के घुटनों पर सिर रखे बता रहा था, ‘‘काव्या के मांबाप इस शादी के खिलाफ हैं. मां, काव्या कहती है कि हमें उन के हां करने का इंतजार करना होगा. उस का कहना है कि वह कभी न कभी तो मान ही जाएंगे.’’ ‘‘हां, तुम दोनों का प्यार अगर सच्चा है तो आज नहीं तो कल उन्हें मानना ही होगा. इस से तुम दोनों को भी तो अपने प्रेम को परखने का मौका मिलेगा,’’ तनुश्री ने बेटे के बालों में उंगलियां फेरते हुए कहा, ‘‘मैं भी काव्या के मांबाप को समझाने का प्रयास करूंगी.’’ ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आता, मैं क्या करूं, मां,’’ अभय ने पहलू बदलते हुए कहा. ‘‘बस, तू थोड़ा सा इंतजार कर,’’ तनुश्री बोली. ‘‘इंतजार…कब तक…’’ अभय बेचैनी से बोला.

‘‘सभी का आशीर्वाद पाने तक का इंतजार,’’ तनुश्री ने कहा. वह सोचने लगी कि आज के बच्चे बहुत समझदार हैं. वे इंतजार कर लेंगे. आपस में मिलबैठ कर एकदूसरे को समझाने और समझने का समय है उन के पास. हमारे पास वह समय ही तो नहीं था, न टेलीफोन और न मोबाइल ताकि एकदूसरे से लंबी बातचीत कर कोई हल निकाल सकते. आज बच्चे कोई भी कदम उठाने से पहले एकदूसरे से बात कर सकते हैं…एकदूसरे को समझा सकते हैं. समय बदल गया है तो सुविधा और सोच भी बदल गई है. जीवन कितना रहस्यमय होता है. कच्चे दिखने वाले तार भी जाने कहांकहां मजबूती से जुड़े रहते हैं, यह कौन जानता है.

लाइफ पार्टनर: अवनि की अनोखी दुविधा

अवनि की शादी को लगभग चार महीने बीत चुके थे, परंतु अवनि अब तक अभिजीत को ना मन से और ना ही‌ तन‌ से‌ स्वीकार कर पाई थी. अभिजीत ने भी इतने दिनों में ना कभी पति होने का अधिकार जताया और ना ही अवनि को पाने की चेष्टा की. दोंनो एक ही छत में ऐसे रहते जैसे रूम पार्टनर .

अवनि की परवरिश मुंबई जैसे महानगर में खुले माहौल में हुई थी.वह स्वतंत्र उन्मुक्त मार्डन विचारों वाली आज की वर्किंग वुमन (working woman) थी. वो चाहती थी कि उसकी शादी उस लड़के से हो जिससे वो प्यार करे.अवनि शादी से पहले प्यार के बंधन में बंधना चाहती थी और फिर उसके बाद शादी के बंधन में, लेकिन ऐसा हो ना सका.

अवनि जिसके संग प्यार के बंधन में बंधी और जिस पर उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, वो अमोल उसका लाइफ पार्टनर ना बन सका लेकिन अवनि को इस बात का ग़म ना था.उसे इस बात की फ़िक्र थी कि अब वो अमोल के संग अपना संबंध बिंदास ना रख पाएगी.वो चाहती थी कि अमोल के संग उसका शारीरिक संबंध शादी के बाद भी ऐसा ही बना रहे.इसके लिए अमोल भी तैयार था.

अवनि अब तक भूली‌ नही ‌अमोल से उसकी वो पहली मुलाकात.दोनों ऑफिस कैंटीन में मिले थे.अमोल को देखते ही अवनि की आंखों में चमक आ गई थी.उसके बिखरे बाल, ब्लू जींस और उस पर व्हाईट शर्ट में अमोल किसी हीरो से कम नहीं लग रहा था.उसके बात करने का अंदाज ऐसा था कि अवनि उसे अपलक निहारती रह गई थी. उसे love at first sight वाली बात सच लगने लगी. सुरभि ने दोनों का परिचय करवाया था.

अवनि और अमोल ऑफिस के सिलसिले में एक दूसरे से मिलते थे.धीरे धीरे दोनों में दोस्ती हो गई और कब दोस्ती प्यार में बदल गई पता ही नही चला.प्यार का खुमार दोनों में ऐसा ‌चढ़ा की सारी मर्यादाएं लांघ दी गई.

अमोल  इस बात से खुश था की अवनि जैसी खुबसूरत लड़की उसके मुठ्ठी में है‌ और अवनि को भी इस खेल में मज़ा आ रहा  था.मस्ती में चूर अविन यह भूल ग‌ई कि उसे पिछले महीने पिरियड नहीं आया है जब उसे होश आया तो उसके होश उड़ गए.वो ऑफिस से फौरन लेडी डॉक्टर के पास ग‌ई. उसका शक सही निकला,वो प्रेग्नेंट थी.

अवनि ने हास्पिटल से अमोल को फोन किया पर अमोल का फोन मूव्ड आउट आफ कवरेज एरिया बता रहा था.अवनि घर आ गई.वो सारी रात बेचैन रही. सुबह ऑफिस पहुंचते ही वो अमोल के सेक्शन में ग‌ई जहां सुरभि ने उसे बताया कि अमोल तो कल‌ ही अपने गांव के लिए निकल गया.उसकी पत्नी का डीलीवरी होने वाला है,यह सुनते ही अवनि के चेहरे का रंग उड़ गया.अमोल ने उसे कभी बताया नहीं कि वो शादीशुदा है. इस बीच अवनि के आई – बाबा ने अभिजीत से अवनि की शादी तय कर दी.अवनि यह शादी नहीं करना चाहती थी.

पंद्रह दिनों बाद अमोल के लौटते ही अवनि उसे सारी बातें बताती हुई बोली-“अमोल मैं किसी और से शादी नहीं करना चाहती तुम अपने बीबी,बच्चे को छोड़ मेरे पास आ जाओ हम साथ रहेंगे ”

अमोल इसके लिए तैयार नही हुआ और अवनि को पुचकारते हुए बोला-“अवनि तुम  एबार्शन करा लो और जहां तुम्हारे आई बाबा चाहते हैं वहां तुम शादी कर लो और बाद में तुम कुछ ऐसा करना कि कुछ महीनों में वो तुम्हें  तलाक दे दे और फिर हमारा संबध यूं ही बना रहेगा”.

अवनि मान गई और उसने अभिजीत से शादी कर ली.शादी के बाद जब अभिजीत ने सुहाग सेज पर अवनि के होंठों पर अपने प्यार का मुहर लगाना‌ चाहा तो अवनि ने उसी रात अपना मंतव्य साफ कर दिया कि जब ‌तक वो अभिजीत को दिल से स्वीकार नही कर लेती, उसके लिए उसे शरीर से स्वीकार कर पाना संभव नही होगा.उस दिन से अभिजीत ने अविन‌ को कभी छूने का प्रयास नही किया.केवल दूर से उसे देखता.ऐसा नही था की अभिजीत देखने में बुरा था.अवनि जितनी खूबसूरत ‌थी.अभिजीत उतना ही सुडौल और आकर्षक व्यक्तित्व का था.

अभिजीत वैसे तो माहराष्ट्र के जलगांव जिले का रहने वाला था,लेकिन अपनी नौकरी के चलते नासिक में रह रहा था.शादी के ‌बाद अवनि को भी अपना ट्रांसफर नासिक के ब्रान्च ऑफिस में परिवार वालों और अमोल  के कहने पर करवाना पड़ा.अमोल ने वादा किया था कि वो नासिक आता रहेगा.अवनि के नासिक‌ पहुंचने की दूसरी सुबह,अभिजीत ने चाय‌ बनाने से पहले अवनि से कहा-” मैं चाय बनाने जा रहा हूं क्या तुम चाय पीना पसंद करोगी .

अवनि ने बेरुखी से जवाब दिया-“तुम्हें तकल्लुफ करने की कोई जरुरत नहीं.मैं अपना ध्यान स्वयं रख सकती हूं.मुझे क्या खाना‌ है,पीना है ,ये मैं खुद देख लुंगी”.

अवनि के ऐसा कहने पर अभिजीत वहां से बिना कुछ कहे चला गया.दोनों एक ही छत में ‌रहते हुए एक दूसरे से अलग ‌अपनी‌ अपनी‌ दुनिया में मस्त थे.

शहर और ऑफिस दोनों ही न‌ए होने की वजह से अवनि ‌अब तक ज्यादा किसी से घुलमिल नहीं पाई थी.ऑफिस का काम और ऑफिस के लोगों को समझने में अभी उसे  थोड़ा वक्त चाहिए था.अभिजीत और अवनि दोनों ही सुबह अपने अपने ऑफिस के लिए निकल जाते और देर रात घर लौटते.सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना दोनों अपने ऑफिस कैंटीन में खा लेते.केवल रात का खाना ही घर पर बनता.दोंनो में से जो पहले घर पहुंचता खाना बनाने की जिम्मेदारी उसकी होती.ऑफिस से आने के बाद अवनि अपना ज्यादातर समय मोबाइल पर देती या फिर अपनी क्लोज  फ्रैंड सुरभि को,जो उसकी हमराज भी थी और अभिजीत को अवनि का room partner संबोधित किया करती थी. अभिजीत अक्सर न्यूज या फिर  एक्शन-थ्रिलर फिल्में देखते हुए बिताता.

अवनि और अभिजीत दोनों मनमौजी की तरह अपनी जिंदगी अपने-अपने ढंग से जी रहे थे, तभी अचानक एक दिन अवनि का पैर बाथरूम में फिसल गया और उसके पैर में मोच आ गई. दर्द इतना था ‌कि अवनि के लिए हिलना डुलना मुश्किल हो गया. डॉक्टर ने अवनि को पेन किलर और कुछ दवाईयां दी साथ में पैर पर मालिस करने के लिए लोशन भी, साथ ही यह हिदायत भी दी कि वो दो चार दिन घर पर ही रहे और ज्यादा चलने फिरने से बचे.

अवनि को इस हाल में देख अभिजीत ने भी अवनि के साथ अपने ‌ऑफिस से एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और पूरे दिन अवनि की देखभाल करने लगा.उसकी हर जरूरतों का पूरा ध्यान रखता.अवनि के मना करने के बावजूद दिन में दो बार उसके पैरों की मालिश करता.अभिजीत जब उसे छूता ‌अवनि को अमोल के संग बिताए अपने अंतरंग पलों की याद ताज़ा हो जाती और वो रोमांचित हो उठती.अभिजीत भी तड़प उठता लेकिन फिर संयम रखते हुए अवनि से दूर हो जाता.अभिजीत सारा दिन अवनि को खुश रखने का प्रयास करता उसे हंसाता उसका दिल बहलाता.

इन चार दिनों में अवनि ने यह महसूस किया की अभिजीत देखने में जितना सुंदर है उससे कहीं ज्यादा खुबसूरत उसका दिल है.वो अमोल से ज्यादा उसका ख्याल रखता है. अभिजीत ने अपने सभी जरूरी काम स्थगित कर दिए थे.इस वक्त अवनि ही अभिजीत की प्रथमिकता थी. इन्हीं सब के बीच ना जाने कब अवनि के मन में अभिजीत के लिए प्रेम का पुष्प पुलकित होने लगा पर इस बात ‌से अभिजीत बेखबर था.

अवनि अब ठीक हो चुकी थी.एक हफ्ते गुजरने को थे.अवनि अपने दिल की बात  कहना चाहती थी, लेकिन कह‌ नही पा रही थी.अवनि चाहती थी अभिजीत उसके करीब आए उसे छूएं लेकिन अभिजीत भूले से भी उसे हाथ नहीं लगाता बस ललचाई आंखों से उसकी ओर देखता.एक सुबह मौका पा अवनि, अभिजीत से बोली-“मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूं”

” हां कहो,क्या कहना है ?”अभिजीत न्यूज पेपर पर आंखें गढ़ाए अवनि की ओर देखे बगैर ही बोला.

अवनि गुस्से में अभिजीत के हाथों से न्यूज पेपर छीन उसके दोनों बाजुओं को पकड़ अपने होंठ उसके होंठों के एकदम करीब ले जा कर जहां दोनों को एक-दूसरे की गर्म सांसें महसूस होने लगी अवनि बोली-“मैं तुमसे प्यार करने लगी हूं मुझे तुम से प्यार हो गया है”.

यह सुनते ही अभिजीत ने अवनि को अपनी बाहों में भर लिया और बोला-“तुम मुझे अब प्यार करने लगी हो,मैं तुम्हें उस दिन से प्यार करता हूं जिस दिन से तुम मेरी जिंदगी में आई हो और तब से तुम्हें पाने के लिए बेताब हूं. तभी अचानक अवनि का मोबाइल बजा.फोन पर सुरभि थी.हाल चाल पूछने के बाद सुरभि ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-“and what about your room partner”

यह सुनते ही अवनि गम्भीर स्वर में बोली- “No सुरभि he is not my room partner.now he is my life partner”.

ऐसा कह अवनि अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर सब कुछ भूल अभिजीत की बाहों में समा गई.

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