Beautiful Story: शायद बर्फ पिघल जाए

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में.

पराकाष्ठा: एक विज्ञापन ने कैसे बदली साक्षी की जिंदगी

आज भी मुखपृष्ठ की सुर्खियों पर नजर दौड़ाने के पश्चात वह भीतरी पृष्ठों को देखने लगी. लघु विज्ञापन तथा वर/वधू चाहिए, पढ़ने में साक्षी को सदा से ही आनंद आता है.

कालिज के जमाने में वह ऐसे विज्ञापन पढ़ने के बाद अखबार में से उन्हें काट कर अपनी सहेलियों को दिखाती थी और हंसीठट्ठा करती थी.

शहर के समाचार देखने के बाद साक्षी की नजर वैवाहिक विज्ञापन पर पड़ी जिसे बाक्स में मोटे अक्षरों के साथ प्रकाशित किया गया था, ‘30 वर्षीय नौकरीपेशा, तलाकशुदा, 1 वर्षीय बेटे के पिता के लिए आवश्यकता है सुघड़, सुशील, पढ़ीलिखी कन्या की. गृहकार्य में दक्ष, पति की भावनाओं, संवेदनाओं के प्रति आदर रखने वाली, समझौतावादी व उदार दृष्टिकोण वाली को प्राथमिकता. शीघ्र संपर्र्ककरें…’

साक्षी के पूरे शरीर में झुरझुरी सी होने लगी, ‘कहीं यह विज्ञापन सुदीप ने ही तो नहीं दिया? मजमून पढ़ कर तो यही लगता है. लेकिन वह तलाकशुदा कहां है? अभी तो उन के बीच तलाक हुआ ही नहीं है. हां, तलाक की बात 2-4 बार उठी जरूर है.

शादी के पश्चात हनीमून के दौरान सुदीप ने महसूस किया कि अंतरंग क्षणोें में भी वह उस की भावनाओं का मखौल उड़ा देती है और अपनी ही बात को सही ठहराती है. सुदीप को बुरा तो लगा लेकिन तब उस ने चुप रहना ही उचित समझा.

शादी के 2 महीने ही बीते होंगे, छुट्टी का दिन था. शाम के समय अचानक साक्षी बोली, ‘सुदीप अब हमें अपना अलग घर बसा लेना चाहिए, यहां मेरा दम घुटता है.’

सुदीप जैसे आसमान से नीचे गिरा, ‘यह क्या कह रही हो, साक्षी? अभी तो हमारी शादी को 2 महीने ही हुए हैं और फिर मैं इकलौता लड़का हूं. पिताजी नहीं हैं इसलिए मां की और कविता की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है. तुम ने कैसे सोच लिया कि हम अलग घर बसा लेंगे.’

साक्षी तुनक कर बोली, ‘क्या तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी मां और बहन हैं? मेरे प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं?’

‘तुम्हारे प्रति कौन सी जिम्मेदारी मैं नहीं निभा रहा? घर में कोई रोकटोक, प्रतिबंध नहीं. और क्या चाहिए तुम्हें?’ सुदीप भी कुछ आवेश में आ गया.

‘मुझे आजादी चाहिए, अपने ढंग से जीने की आजादी, मैं जो चाहूं पहनूं, खाऊं, करूं. मुझे किसी की भी, किसी तरह की टोकाटाकी पसंद नहीं.’

‘अभी भी तो तुम अपने ढंग से जी रही हो. सवेरे 9 बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़तीं फिर भी मां चुप रहती हैं, भले ही उन्हें बुरा लगता हो. मां को तुम से प्यार है. वह तुम्हें सुंदर कपड़े, आभूषण पहने देख कर अपनी चाह, लालसा पूरी करना चाहती हैं. रसोई के काम तुम्हें नहीं आते तो तुम्हें सिखा कर सुघड़ बनाना चाहती हैं. इस में नाराजगी की क्या बात है?’

‘बस, अपनी मां की तारीफों के कसीदे मत काढ़ो. मैं ने कह दिया सो कह दिया. मैं उस घर में असहज महसूस करती हूं, मुझे वहां नहीं रहना?’

‘चलो, आज खाना बाहर ही खा लेते हैं. इस विषय पर बाद में बात करेंगे,’ सुदीप ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा.

‘बाद में क्यों? अभी क्यों नहीं? मुझे अभी जवाब चाहिए कि तुम्हें मेरे साथ रहना है या अपनी मां और बहन के  साथ?’

सुदीप सन्न रह गया. साक्षी के इस रूप की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर के उस ने कहा, ‘ठीक है, घर चल कर बात करते हैं.’

‘मुझे नहीं जाना उस घर में,’ साक्षी ने अकड़ कर कहा. सुदीप ने उस का हाथ खींच कर गाड़़ी में बैठाया और गाड़ी स्टार्ट की.

‘तुम ने मुझ पर हाथ उठाया. यह देखो मेरी बांह पर नीले निशान छप गए हैं. मैं अभी अपने मम्मीपापा को फोन कर के बताती हूं.’

साक्षी के चीखने पर सुदीप हक्काबक्का रह गया. किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण रख कर गाड़ी चलाता रहा.

घर पहुंचते ही साक्षी दनदनाती हुई अपने कमरे की ओर चल पड़ी. मां तथा कविता संशय से भर उठीं.

‘सुदीप बेटा, क्या बात है. साक्षी कुछ नाराज लग रही है?’ मां ने पूछा.

‘कुछ नहीं मां, छोटीमोटी बहसें तो चलती ही रहती हैं. आप लोग सो जाइए. हम बाहर से खाना खा कर आए हैं.’

साक्षी को समझाने की गरज से सुदीप ने कहा, ‘साक्षी, शादी के बाद लड़की को अपनी ससुराल में तालमेल बैठाना पड़ता है, तभी तो शादी को समझौता भी कहा जाता है. शादी के पहले की जिंदगी की तरह बेफिक्र, स्वच्छंद नहीं रहा जा सकता. पति, परिवार के सदस्यों के साथ मिल कर रहना ही अच्छा होता है. आपस में आदर, प्रेम, विश्वास हो तो संबंधों की डोर मजबूत बनती है. अब तुम बच्ची नहीं हो, परिपक्व हो, छोटीछोटी बातों पर बहस करना, रूठना ठीक नहीं…’

‘तुम्हारे उपदेश हो गए खत्म या अभी बाकी हैं? मैं सिर्फ एक बात जानती हूं, मुझे यहां इस घर में नहीं रहना. अगर तुम्हें मंजूर नहीं तो मैं मायके चली जाऊंगी. जब अलग घर लोगे तभी आऊंगी,’ साक्षी ने सपाट शब्दों में धमकी दे डाली.

अमावस की काली रात उस रोज और अधिक गहरी और लंबी हो गई थी. सुदीप को अपने जीवन में अंधेरे के आने की आहट सुनाई पड़ने लगी. किस से अपनी परेशानियां कहे? जब लोगों को पता लगेगा कि शादी के 2-3 महीनों में ही साक्षी सासननद को लाचार, अकेले छोड़ कर पति के साथ अलग रहना चाहती है तो कितनी छीछालेदर होगी.

सुदीप रात भर इन्हीं तनावों के सागर में गोते लगाता रहा. इस के बाद भी अनेक रातें इन्हीं तनावों के बीच गुजरती रहीं.

मां की अनुभवी आंखों से कब तक सुदीप आंखें चुराता. उस दिन साक्षी पड़ोस की किसी सहेली के यहां गई थी. मां ने पूछ ही लिया, ‘सुदीप बेटा, तुम दोनों के बीच कुछ गलत चल रहा है? मुझ से छिपाओगे तो समस्या कम नहीं होगी, हो सकता है मैं तुम्हारी मदद कर सकूं?’

सुदीप की आंखें नम हो आईं. मां के प्रेम, आश्वासन, ढाढ़स ने हिम्मत बंधाई तो उस ने सारी बातें कह डालीं. मां के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह तो साक्षी को बेटी से भी अधिक प्रेम, स्नेह दे रही थीं और उस के दिल में उन के प्रति अनादर, नफरत की भावना. कहां चूक हो गई?

एक दिन मां ने दिल कड़ा कर के फैसला सुना दिया, ‘सुदीप, मैं ने इसी कालोनी में तुम्हारे लिए किराए का मकान देख लिया है. अगले हफ्ते तुम लोग वहां शिफ्ट हो जाओ.’ सुदीप अवाक् सा मां के उदास चेहरे को देखता रह गया. हां, साक्षी के चेहरे पर राहत के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे.

‘लेकिन मां, यहां आप और कविता अकेली कैसे रहेंगी?’ सुदीप का स्वर भर्रा गया.

‘हमारी फिक्र मत करो. हो सकता है कि अलग रह कर साक्षी खुश रहे तथा हमारे प्रति उस के दिल में प्यार, आदर, इज्जत की भावना बढ़े.’

विदाई के समय मां, कविता के साथसाथ सुदीप की भी रुलाई फूट पड़ी थी. साक्षी मूकदर्शक सी चुपचाप खड़ी थी. कदाचित परिवार के प्रगाढ़ संबंधों में दरार डालने की कोशिश की पहली सफलता पर वह मन ही मन पुलकित हो रही थी.

अलग घर बसाने के कुछ ही दिनों बाद साक्षी ने 2-3 महिला क्लबों की सदस्यता प्राप्त कर ली. आएदिन महिलाओं का जमघट उस के घर लगने लगा. गप्पबाजी, निंदा पुराण, खानेपीने में समय बीतने लगा. साक्षी यही तो चाहती थी.

उस दिन सुदीप मां और बहन से मिलने गया तो प्यार से मां ने खाने का आग्रह किया. वह टाल न सका. घर लौटा तो साक्षी ने तूफान खड़ा कर दिया, ‘मैं यहां तुम्हारा इंतजार करती भूखी बैठी हूं और तुम मां के घर मजे से पेट भर कर आ रहे हो. मुझे भी अब खाना नहीं खाना.’

सुदीप ने खुशामद कर के उसे खाना खिलाया और उस के जोर देने पर थोड़ा सा स्वयं भी खाया.

पति को बस में करने के नएनए तरीके आजमाने की जब उस ने कोशिश की तो सुदीप का माथा ठनका. इस तरह शर्तों पर तो जिंदगी नहीं जी जा सकती. आपस में विश्वास, समझ, प्रेम व सामंजस्य की भावना ही न हो तो संबंधों में प्रगाढ़ता कहां से आएगी? रिश्तों की मधुरता के लिए दोनों को प्रयास करने पड़ते हैं और साक्षी केवल उस पर हावी होने, अपनी जिद मनवाने तथा स्वयं को सही ठहराने के ही प्रयास कर रही है. यह सब कब तक चल पाएगा. इन्हीं विचारों के झंझावात में वह कुछ दिन उलझा रहा.

एक दिन अचानक खुशी की लहर उस के शरीर को रोमांचित कर गई जब साक्षी ने उसे बताया कि वह मां बनने वाली है. पल भर के लिए उस के प्रति सभी गिलेशिकवे वह भूल गया. साक्षी के प्रति अथाह प्रेम उस के मन में उमड़ पड़ा. उस के माथे पर प्रेम की मोहर अंकित करते हुए वह बोला, ‘थैंक्यू, साक्षी, मैं तुम्हारा आभारी हूं, तुम ने मुझे पिता बनने का गौरव दिलाया है. मैं आज बहुत खुश हूं. चलो, बाहर चलते हैं. लेट अस सेलीब्रेट.’

मां को जब यह खुशखबरी सुदीप ने सुनाई तो वह दौड़ी चली आईं. अपने अनुभवों की पोटली भी वह खोलती जा रही थीं, ‘साक्षी, वजन मत उठाना, भागदौड़ मत करना, ज्यादा मिर्चमसाले, गरम चीजें मत लेना…’ कह कर मां चली गईं.

एकांत के क्षणों में सुदीप सोचता, बच्चा होने के बाद साक्षी में सुधार आ जाएगा. बच्चे की सारसंभाल में वह व्यस्त हो जाएगी, सहेलियों के जमघट से भी छुटकारा मिल जाएगा.

प्रसवकाल नजदीक आने पर मां ने आग्रह किया कि साक्षी उन के पास रहे मगर साक्षी ने दोटूक जवाब दिया, ‘मुझे यहां नहीं रहना, मां के पास जाना है. मेरी मम्मी, मेरी व बच्चे की ज्यादा अच्छी देखभाल कर सकती हैं.’

हार कर उसे मां के घर भेजना ही पड़ा था सुदीप को.

3 माह के बेटे को ले कर साक्षी जब घर लौटी तो सब से पहले उस ने आया का इंतजाम किया. चूंकि उस का वजन भी काफी बढ़ गया था इसलिए हेल्थ सेंटर जाना भी शुरू कर दिया. उसे बच्चे को संभालने में खासी मशक्कत करनी पड़ती. दिन भर तो आया ही उस की जिम्मेदारी उठाती थी. कई दफा मुन्ना रोता रहता और वह बेफिक्र सोई रहती. एक दिन बातों ही बातों में सुदीप ने जब इस बारे में शिकायत कर दी तो साक्षी भड़क उठी, ‘हां, मुझ से नहीं संभलता बच्चा. शादी से पहले मैं कितनी आजाद थी, अपनी मर्जी से जीती थी. अब तो अपना होश ही नहीं है. कभी घर, कभी बच्चा, बंध गई  हूं मैं…’

सुदीप के पैरों तले जमीन खिसक गई, ‘साक्षी, यह क्या कह रही हो तुम? अरे, बच्चे के बिना तो नारी जीवन ही अधूरा है. यह तो तुम्हारे लिए बड़ी खुशी की बात है कि तुम्हें मां का गौरवशाली, ममता से भरा रूप प्राप्त हुआ है. हम खुशकिस्मत हैं वरना कई लोग तो औलाद के लिए सारी उम्र तरसते रह जाते हैं,’ सुदीप ने समझाने की गरज से कहा.

‘तुम आज भी उन्हीं दकियानूसी विचारों से भरे हो. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है. अभी भी तुम कुएं के मेढक बने हुए हो. घर, परिवार, बच्चे, बस इस के आगे कुछ नहीं.’

साक्षी के कटाक्ष से सुदीप भीतर तक आहत हो उठा, ‘साक्षी, जबान को लगाम दो. तुम हद से बढ़ती जा रही हो.’

‘मुझे भी तुम्हारी रोजरोज की झिकझिक में कोई दिलचस्पी नहीं. मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना, तलाक चाहिए मुझे…’

साक्षी के इतना कहते ही सुदीप की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, ‘क्या कहा तुम ने, तलाक चाहिए? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?’

‘बिलकुल ठीक है. मैं अपने मम्मीपापा के पास रहूंगी. वे मुझे किसी काम के लिए नहीं टोकते. मुझे अपने ढंग से जीने देते हैं. मेरी खुशी में ही वे खुश रहते हैं…’

उन के संबंधों में दरार आ चुकी थी. मुन्ने के माध्यम से यह दरार कभी कम अवश्य हो जाती लेकिन पहले की तरह प्रेम, ऊष्मा, आकर्षण नहीं रहा.

तनावों के बीच साल भर का समय बीत गया. इस बीच साक्षी 2-3 बार तलाक की धमकी दे चुकी थी. सुदीप तनमन से थकने लगा था. आफिस में काम करते वक्त भी वह तनावग्रस्त रहने लगा.

मुन्ना रोए जा रहा था और साक्षी फोन पर गपशप में लगी थी. सुदीप से रहा नहीं गया. उस का आक्रोश फट पड़ा, ‘तुम से एक बच्चा भी नहीं संभलता? सारा दिन घर रहती हो, काम के लिए नौकर लगे हैं. आखिर तुम चाहती क्या हो?’

‘तुम से छुटकारा…’ साक्षी चीखी तो सुदीप भी आवेश में हो कर बोला, ‘ठीक है, जाओ, शौक से रह लो अपने मांबाप के घर.’

साक्षी ने फौरन अटैची में अपने और मुन्ने के कपड़े डाले.

‘इसे कहां लिए जा रही हो. यह यहीं रहेगा, मेरी मां के पास. तुम से नहीं संभलता न…’

सुदीप मुन्ने को लेने आगे बढ़ा.

‘यह मेरे पास रहेगा. मेरे मम्मीपापा इस की बेहतर परवरिश करेंगे…’ कह कर साक्षी मुन्ने को ले कर मायके चली गई.

मां से सारी घटना कहते हुए सुदीप की रुलाई फूट पड़ी थी. पत्नी के कारण मां व बहन के प्रति अपने फर्ज ठीक से न निभाने के कारण वह पहले ही अपराधबोध से ग्रस्त था. अब तो साक्षी के व्यवहार ने उन की इज्जत, मानमर्यादा पर भी बट्टा लगा दिया था.

सदा की तरह साक्षी के मातापिता ने उस की हरकत को हलके ढंग से लिया था. साक्षी के अनुसार सुदीप उस के तथा मुन्ना के बगैर नहीं रह सकता था अत: वह स्वयं आ कर उसे मना कर ले जाएगा. लेकिन जब एकएक दिन कर के 4-5 महीने बीत गए, सुदीप नहीं आया तो साक्षी के साथसाथ उस के मातापिता का भी माथा ठनका. कहीं सुदीप हकीकत में तलाक को गंभीरता से तो नहीं लेने लगा? हालांकि साक्षी तलाक नहीं चाहती थी. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था साक्षी का तनाव भी बढ़ता जा रहा था. अब उसे सुदीप का प्यार, मनुहार, उस की जिद के आगे झुकना, उस के कारण मांबहन से अलग हो कर रहना, रातों को उठ कर मुन्ने को संभालना, उस की ज्यादतियां बरदाश्त करना, समयसमय पर उस के लिए उपहार लाना, उसे खुश रखने का हरसंभव प्रयास करना बेइंतहा याद आने लगा था. सोच कर उसे कंपकंपी सी छूटने लगी. नहीं, वह सुदीप के बिना नहीं रह सकती. पर यह सब किस से कहे, कैसे कहे? उस का अहं भी तो आडे़ आ रहा था.

आज विज्ञापन पढ़ कर तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. तभी याद आया, सुलभा के मामा उसी अखबार में काम करते हैं. पता लगवाया तो उस का शक सही था, विज्ञापन सुदीप ने ही दिया था. अब क्या किया जाए? रात भर साक्षी विचारों के घेरे में उलझी रही. सुबह तक उस ने निर्णय ले लिया था. पति को फोन मिलाया, ‘‘सुदीप, मैं वापस आ रही हूं तुम्हारे पास…’’

मांबाप ने सुना तो उन्होंने भी राहत की सांस ली. कुछ समय से वे भी अपराधबोध महसूस कर रहे थे.

सुदीप के आगोश में साक्षी सुबक रही थी, ‘‘सुदीप, मुझे माफ कर दो…अपनी हरकतों के लिए मैं शर्मिंदा हूं… क्या सचमुच तुम दूसरी शादी करने वाले थे…’’

‘‘पगली, बस, इतना ही मुझे समझ सकीं? काफी सोचविचार के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक करारा झटका ही तुम्हारा विवेक जगा सकता है, तुम्हारी लापरवाही, अपरिपक्वता को गंभीरता में बदल सकता है, अपनी गलती का एहसास करा सकता है. मैं जानता था तुम्हें वैवाहिक विज्ञापन पढ़ने का बहुत शौक है. बस, इसी का फायदा उठा कर मैं ने यह चाल चली. अगर इस में सफल न होता तो शायद सचमुच ही…’’

‘‘बस, आगे कुछ मत कहना,’’ साक्षी ने सुदीप के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘सुबह का भूला शाम से पहले घर लौट आयाहै.’’

सुदीप ने उसे आलिंगनबद्ध कर आंखें बंद कर लीं. मानो पिछले 3 वर्ष के समय को दुस्वप्न की तरह भूल जाने का प्रयास कर रहा हो.

बंद किताब : अभिषेक की चाहत

‘‘तुम…’’

‘‘मुझे अभिषेक कहते हैं.’’

‘‘कैसे आए?’’

‘‘मुझे एक बीमारी है.’’

‘‘कैसी बीमारी?’’

‘‘पहले भीतर आने को तो कहो.’’

‘‘आओ, अब बताओ कैसी बीमारी?’’

‘‘किसी को मुसीबत में देख कर मैं अपनेआप को रोक नहीं पाता.’’

‘‘मैं तो किसी मुसीबत में नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम्हारे पति बीमार नहीं हैं?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘मैं अस्पताल में बतौर कंपाउंडर काम करता हूं.’’

‘‘मैं ने तो उन्हें प्राइवेट नर्सिंग होम में दिखाया था.’’

‘‘वह बात भी मैं जानता हूं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘तुम ने सर्जन राजेश से अपने पति को दिखाया था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन्होंने तुम्हारी मदद करने के लिए मुझे फोन किया था.’’

‘‘तुम्हें क्यों?’’

‘‘उन्हें मेरी काबिलीयत और ईमानदारी पर भरोसा है. वे हर केस में मुझे ही बुलाते हैं.’’

‘‘खैर, तुम असली बात पर आओ.’’

‘‘मैं यह कहने आया था कि यही मौका है, जब तुम अपने पति से छुटकारा पा सकती हो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बनो मत. मैं ने जोकुछ कहा है, वह तुम्हारे ही मन की बात है. तुम्हारी उम्र इस समय 30 साल से ज्यादा नहीं है, जबकि तुम्हारे पति 60 से ऊपर के हैं. औरत को सिर्फ दौलत ही नहीं चाहिए, उस की कुछ जिस्मानी जरूरतें भी होती हैं, जो तुम्हारे बूढ़े प्रोफैसर कभी पूरी नहीं कर सके.

‘‘10 साल पहले किन हालात में तुम्हारी शादी हुई थी, वह भी मैं जानता हूं. उस समय तुम 20 साल की थीं और प्रोफैसर साहब 50 के थे. शादी से ले कर आज तक मैं ने तुम्हारी आंखों में खुशी नहीं देखी है. तुम्हारी हर मुसकराहट में मजबूरी होती है.’’

‘‘वह तो अपनाअपना नसीब है.’’

‘‘देखो, नसीब, किस्मत, भाग्य का कोई मतलब नहीं होता. 2 विश्व युद्ध हुए, जिन में करोड़ों आदमी मार दिए गए. इस देश ने 4 युद्ध झेले हैं. उन में भी लाखों लोग मारे गए. बंगलादेश की आजादी की लड़ाई में 20 लाख बेगुनाह लोगों की हत्याएं हुईं. क्या यह मान लिया जाए कि सब की किस्मत

खराब थी?

‘‘उन में से हजारों तो भगवान पर भरोसा करने वाले भी होंगे, लेकिन कोई भगवान या खुदा उन्हें बचाने नहीं आया. इसलिए इन बातों को भूल जाओ. ये बातें सिर्फ कहने और सुनने में अच्छी लगती हैं. मैं सिर्फ 25 हजार रुपए लूंगा और बड़ी सफाई से तुम्हारे बूढ़े पति को रास्ते से हटा दूंगा.’’

अभिषेक की बातें सुन कर रत्ना चीख पड़ी, ‘‘चले जाओ यहां से. दोबारा अपना मुंह मत दिखाना. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मैं इतनी नीचता पर उतर आऊंगी?’’

‘‘अभी जाता हूं, लेकिन 2 दिन के बाद फिर आऊंगा. शायद तब तक मेरी बात तुम्हारी समझ में आ जाए,’’ इतना कह कर अभिषेक लौट गया.

रत्ना अपने बैडरूम में जा कर फफकफफक कर रोने लगी. अभिषेक ने जोकुछ कहा था, वह बिलकुल सही था.

रत्ना को ताज्जुब हो रहा था कि वह उस के बारे में इतनी सारी बातें कैसे जानता था. हो सकता है कि उस का कोई दोस्त रत्ना के कालेज में पढ़ता रहा हो, क्योंकि वह तो रत्ना के साथ कालेज में था नहीं. वह उस की कालोनी में भी नहीं रहता था.

रत्ना के पति बीमारी के पहले रोज सुबह टहलने जाया करते थे. हो सकता है कि अभिषेक भी उन के साथ टहलने जाता रहा हो. वहीं उस का उस के पति से परिचय हुआ हो और उन्होंने ही ये सारी बातें उसे बता दी हों. उस के लिए अभिषेक इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाना चाहता है. आखिर यह तो एक तरह की हत्या ही हुई. बात खुल भी सकती है. कहीं अभिषेक का यह पेशा तो नहीं है? बेमेल शादी केवल उसी की तो नहीं हुई है. इस तरह के बहुत सारे मामले हैं. अभिषेक के चेहरे से तो ऐसा नहीं लगता कि वह अपराधी किस्म का आदमी है. कहीं उस के दिल में उस के लिए प्यार तो नहीं पैदा हो गया है.

रत्ना को किसी भी तरह के सुख की कमी नहीं थी. प्रोफैसर साहब अच्छीखासी तनख्वाह पाते थे. उस के लिए काफीकुछ कर रखा था. 5 कमरों का मकान, 3 लाख के जेवर, 5 लाख बैंक बैलेंस, सबकुछ उस के हाथ में था. 50 हजार रुपए सालाना तो प्रोफैसर साहब की किताबों की रौयल्टी आती थी. इन सब बातों के बावजूद रत्ना को जिस्मानी सुख कभी नहीं मिल सका. प्रोफैसर साहब की पहली बीवी बिना किसी बालबच्चे के मरी थी. रत्ना को भी कोई बच्चा नहीं था. कसबाई माहौल में पलीबढ़ी रत्ना पति को मारने का कलंक अपने सिर लेने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

रत्ना ने अभिषेक से चले जाने के लिए कह तो दिया था, लेकिन बाद में उसे लगने लगा था कि उस की बात को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता था. रत्ना अपनेआप को तोलने लगी थी कि 2 दिन के बाद अभिषेक आएगा, तो वह उस को क्या जवाब देगी. इस योजना में शामिल होने की उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

अभिषेक अपने वादे के मुताबिक 2 दिन बाद आया. इस बार रत्ना उसे चले जाने को नहीं कह सकी. उस की आवाज में पहले वाली कठोरता भी नहीं थी. रत्ना को देखते ही अभिषेक मुसकराया, ‘‘हां बताओ, तुम ने क्या सोचा?’’

‘‘कहीं बात खुल गई तो…’’

‘‘वह सब मेरे ऊपर छोड़ दो. मैं सारी बातें इतनी खूबसूरती के साथ करूंगा कि किसी को भी पता नहीं चलेगा. हां, इस काम के लिए 10 हजार रुपए बतौर पेशगी देनी होगी. यह मत समझो कि यह मेरा पेशा है. मैं यह सब तुम्हारे लिए करूंगा.’’

‘‘मेरे लिए क्यों?’’

‘‘सही बात यह है कि मैं तुम्हें  पिछले 15 साल से जानता हूं. तुम्हारे पिता ने मुझे प्राइमरी स्कूल में पढ़ाया था. मैं जानता हूं कि किन मजबूरियों में गुरुजी ने तुम्हारी शादी इस बूढ़े प्रोफैसर से की थी.’’

‘‘मेरी इज्जत तो इन्हीं की वजह से है. इन के न रहने पर तो मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘जब से तुम्हारी शादी हुई है, तभी से तुम अकेली हो गई रत्ना, और आज तक अकेली हो.’’

‘‘मुझे भीतर से बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है. अगर भेद खुल भी जाता है, तो मैं सबकुछ अपने ऊपर ले लूंगा, तुम्हारा नाम कहीं भी नहीं आने पाएगा. मैं तुम्हें सुखी देखना चाहता हूं रत्ना. मेरा और कोई दूसरा मकसद नहीं है.’’

‘‘तो ठीक है, तुम्हें पेशगी के रुपए मिल जाएंगे,’’ कह कर रत्ना भीतर गई और 10 हजार रुपए की एक गड्डी ला कर अभिषेक के हाथों पर रख दी. रुपए ले कर अभिषेक वापस लौट गया.

तय समय पर रत्ना के पति को नर्सिंग होम में भरती करवा दिया गया. सभी तरह की जांच होने के बाद प्रोफैसर साहब का आपरेशन किया गया, जो पूरी तरह से कामयाब रहा. बाद में उन्हें खून चढ़ाया जाना था. अभिषेक सर्जन राजेश की पूरी मदद करता रहा. डाक्टर साहब आपरेशन के बाद अपने बंगले पर चले गए थे. खून चढ़ाने वगैरह की सारी जिम्मेदारी अभिषेक पर थी. सारा इंतजाम कर के अभिषेक अपनी जगह पर आ कर बैठ गया था. रत्ना भी पास ही कुरसी पर बैठी हुई थी. अभिषेक ने उसे आराम करने को कह दिया था.

रत्ना ने आंखें मूंद ली थीं, पर उस के भीतर उथलपुथल मची हुई थी. उस का दिमाग तेजी से काम कर रहा था. दिमाग में अनेकअनेक तरह के विचार पैदा हो रहे थे. अभिषेक ड्रिप में बूंदबूंद गिर कर प्रोफैसर के शरीर में जाते हुए खून को देख रहा था. अचानक वह उठा. अब तक रात काफी गहरी हो गई थी. वह मरीज के पास आया और ड्रिप से शरीर में जाते हुए खून को तेज करना चाहा, ताकि प्रोफैसर का कमजोर दिल उसे बरदाश्त न कर सके. तभी अचानक रत्ना झटके से अपनी सीट से उठी और उस ने अभिषेक को वैसा करने से रोक दिया.

वह उसे ले कर एकांत में गई और फुसफुसा कर कहा, ‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, रुपए भले ही अपने पास रख लो. मैं अपने पति को मौत के पहले मरते नहीं देख सकती. जैसे इतने साल उन के साथ गुजारे हैं, बाकी समय भी गुजर जाएगा.’’ अभिषेक ने उस की आंखों में झांका. थोड़ी देर तक वह चुप रहा, फिर बोला, ‘‘तुम बड़ी कमजोर हो रत्ना. तुम जैसी औरतों की यही कमजोरी है. जिंदगीभर घुटघुट कर मरती रहेंगी, पर उस से उबरने का कोई उपाय नहीं करेंगी. खैर, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ इतना कह कर अभिषेक ने पेशगी के रुपए उसे वापस कर दिए. इस के बाद वह आगे कहने लगा, ‘‘जिस बात को मैं ने इतने सालों से छिपा रखा था, आज उसे साफसाफ कहना पड़ रहा है.

‘‘रत्ना, जिस दिन मैं ने तुम्हें देखा था, उसी दिन से तुम्हें ले कर मेरे दिल में प्यार फूट पड़ा था, जो आज बढ़तेबढ़ते यहां तक पहुंच गया है. ‘‘इस बात को मैं कभी तुम से कह नहीं पाया. प्यार शादी में ही बदल जाए, ऐसा मैं ने कभी नहीं माना.

‘‘मैं उम्मीद में था कि तुम अपनी बेमेल शादी के खिलाफ एक न एक दिन बगावत करोगी. मेरी भावनाओं को खुदबखुद समझ जाओगी या मैं ही हिम्मत कर के तुम से अपनी बात कह दूंगा.

‘‘इसी जद्दोजेहद में मैं ने 15 साल गुजार दिए. आज तक मैं तुम्हारा ही इंतजार करता रहा. जब बरदाश्त की हद हो गई, तब मौका पा कर तुम्हारे पति को खत्म करने की योजना बना डाली. रुपए की बात मैं ने बीच में इसलिए रखी थी कि तुम मेरी भावनाओं को समझ न सको.

‘‘तुम ने इस घिनौने काम में मेरी मदद न कर मुझे एक अपराध से बचा लिया. वैसे, मैं तुम्हारे लिए जेल भी जाने को तैयार था, फांसी का फंदा भी चूमने को तैयार था.

‘‘मैं तुम्हें तिलतिल मरते हुए नहीं देख सकता था रत्ना, इसलिए मैं ने इतना बड़ा कदम उठाने का फैसला लिया था.’’

अपनी बात कह कर अभिषेक ने चुप्पी साध ली. रत्ना उसे एकटक देखती रह गई.

इंसाफ हम करेंगे :क्यो टूटा माही का दिल

माही बेहाल पड़ी थी. रहरह कर शरीर में दर्द उभर रहा था. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. माही का पति निहाल सिंह शराब पीने के बाद बिलकुल जानवर बन जाता था, फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता था कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं. जब कभी उस की बेटी रूबी मां को बचाने आती तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब निहाल सिंह शराब पी कर घर में गालियां देने लगा, तो माही ने उसे सम?ाया, ‘बस करो, अब खाना खा लो. सुबह काम पर भी जाना है.’

निहाल सिंह चीखते हुए बोला, ‘अब तुम रोकोगी मुझे. अभी बताता हूं तुझे,’ फिर तो उस का हाथ न थमा. आखिर रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘पापा, अब बस कीजिए. गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?’

इस के बाद रूबी ने मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों पर दवा लगाई और बोली, ‘मम्मी, बहुत हो गया अब. पापा नहीं सुधरेंगे.’

दर्द सहती माही बोली, ‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ चुका है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तुम बुलाओ पुलिस को, अब मैं दूंगी इन के खिलाफ बयान.’

रूबी ने झूट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे.

माही ने जब काम करना चाहा तो निहाल सिंह ने उस से कहा, ‘तुम घर संभालो, मैं बाहर संभालता हूं.’

कुछ समय तो बहुत अच्छा बीता, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक बच्चे भी हो चुके थे.

निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों में भी माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का लोड बढ़ जाता, वह झल्ला कर कहता, ‘मुझ से नहीं होता इतना काम, मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.’

अगर माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. बच्चे डरते हुए मां के पीछे छिप जाते थे. वह अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला कराना जरूरी हो गया था. खर्चा बढ़ गया था, तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को देखती.

निहाल सिंह का मन करता तो माही को प्यार करता नहीं, तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से बाहर निकाल देता. इतना सबकुछ होने के बावजूद माही निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वे दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों पर लग सकें.

1-2 बार ऐसे ही किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. वह उसे फोन करती और वह उसे ले कर अपने घर चला जाता.

फिर उस ने माही को सम?ाया कि ऐसे तो यह कभी नहीं सुधरेगा, तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी. उस ने खुद ही पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी.

जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए मना लिया. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो वह भी पीछे हट गया.

माही को पता था कि निहाल सिंह गुस्सैल है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर वह उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते वक्त अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है तो उस ने बताया, ‘यह प्रीति है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमा और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.’

माही भोली थी. वह बोली, ‘अच्छा है. आप इन की मदद कर रहे हो, वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.’

अब तो जब भी प्रीति का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से जल्दी लौट आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बैडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली रह गईं, जब उस ने उन दोनों को बैड पर देखा. शर्मिंदा होने के बजाय वे दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो उस के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

माही का दिल टूट चुका था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसे इस तरह धोखा देगा.

एक दिन माही को पास बिठा कर निहाल सिंह बोला, ‘तू हां करे, तो मैं इसे भी साथ रख लूं.’ माही चुप रही. उस ने पक्का मन बना लिया कि अब वह उस के साथ नहीं रहेगी.

बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरियों पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते थे. वह मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह रही थी.

आजकल छुट्टियों में रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीति के संबंधों के बारे में भी बता दिया.

रूबी को अपने पिता पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी.

थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए जुल्म की साफ गवाही दे रही थी. माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी तो निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था. रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने माही की चोटों के फोटो भी खींच कर साथ लगा दिए.

पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां 2 दिन उसे हिरासत में रखा. फिर उस को चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नहीं फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था, माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है. मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘मम्मी इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’

माही ने निहाल सिंह का फोन उठाना भी बंद कर दिया. रूबी पिता को फोन पर धमकी देते हुए बोली, ‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो पुलिस आप को 2 साल के लिए जेल में डाल देगी.

‘मम्मी अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. आज तक जो बेइज्जती मम्मी की हुई है, उस की सजा तो आप को भुगतनी पड़ेगी. मम्मी को उन के बच्चे इंसाफ दिलवाएंगे.’

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो खर्चा किया वह मुझे वापस चाहिए.’

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए, उस का पिता इतना गिर सकता है उस ने कभी नहीं सोचा था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को साफ करते हुए बोली, ‘पापा, कोई बात नहीं. हमारी नौकरी लग चुकी है. हम दोनों हर महीने आप को खर्चा भेज दिया करेंगे, पर अब मम्मी की और बेइज्जती बरदाश्त नहीं करेंगे,’ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और माही को अपने गले से लगा लिया.

ख्वाहिश: ‘बांझ’ होने का ठप्पा

ट्रिंग… ट्रिंग… फोन की घंटी बज रही थी. घड़ी में देखा, तो रात के साढ़े 12 बजे थे. इतनी रात में किस का फोन हो सकता है. किसी बुरी आशंका से मन कांप उठा. रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से अशोक की भर्राई हुई आवाज थी, “दीदी शोभा शांत हो गई. वह हम सब को छोड़ कर दिव्यलोक को चली गई.”

कुछ पल को मैं ठगी सी बैठी रही. फोन की आवाज से मेरे पति सुनील भी जाग गए थे. मैं ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया. हम ने आपस में सलाह की और फिर मैं ने अशोक को फोन मिलाया, “अशोक, हम जल्दी ही सुबह जयपुर पहुंच जाएंगे, हमारा इंतजार करना.”

सुबह 5 बजे हम दोनों अपनी गाड़ी से जयपुर के लिए रवाना हो गए. दिल्ली से जयपुर पहुंचने में 5 घंटे लगते हैं. वैसे भी सुबहसुबह सड़कें खाली थीं. अत: 4 घंटे में ही पहुंच जाने की आशा थी. रास्तेभर शोभा का खयाल आता रहा.

अतीत की यादें चलचित्र की भांति आंखों के आगे घूमने लगीं.

शोभा मेरे छोटे भाई अशोक की पत्नी थी. वह बहुत मृदुभाषी, कार्यकुशल और खुशमिजाज की थी. याद हो आया वह दिन, जब विवाह के बाद वरवधू का स्वागत करने के लिए मां ने पूजा का थाल मेरे हाथ में पकड़ा दिया. वैसे, बड़ी भाभी का हक बनता था वरवधू को गृहप्रवेश करवाने का. किंतु बड़ी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी, वह पेट से थीं और डाक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट के लिए कहा हुआ था. अत: आरती का थाल सजा कर मैं ने ही वरवधू को गृहप्रवेश कराया था. बनारसी साड़ी में लिपटी हुई सिमटी सी संकुचित सी खड़ी थी.

अशोक ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा, “ये मेरी बड़ी दीदी हैं, मुझ से 10 साल बड़ी हैं, मेरे लिए मां समान हैं.”

दोनों ने मेरे पैर छुए. मैं ने भी दोनों को प्यार से गले लगा लिया. विवाह के बाद की प्रथाएं संपन्न करवा कर मैं वापस दिल्ली लौट आई.
2 महीने बाद भाभी की जुड़वा बच्चियों हुईं, जिन का नाम सिया और जिया रखा गया.

प्रसव के बाद भाभी बहुत कमजोर हो गई थीं. अत: घर का सारा कार्यभार शोभा ने संभाल लिया. उसे बच्चों से बहुत प्यार था. वह बच्चों का खयाल बहुत उत्साहित हो कर रखती थी.

मां सारी रिपोर्ट विस्तार से मुझे फोन पर बतलाया करती थीं. बच्चों के प्रति शोभा का अपनत्व देख कर भाभी को बहुत अच्छा लगता था.

जब सिया और जिया का नर्सरी स्कूल में दाखिला हुआ तो शोभा उन्हें तैयार करने से ले कर उन के जूते पौलिश करती, उन्हें नाश्ता करवा के टिफिन पैक कर के उन के स्कूल बैग में रख देती और टिफिन पूरा खत्म करना है, यह भी हिदायत दे देती थी. कभीकभी उन को होमवर्क करने में भी वह मदद करती थी. घर में सब सुचारू रूप से चल रहा था.
शोभा के विवाह को 4 वर्ष हो गए थे. मां जब भी मुझे फोन करती थीं, उन की बातों में कुछ बेचैनी का आभास होता था. वे दिल की मरीज थीं. मैं ने जोर दे कर उन की बेचैनी का कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बताया, “अब अशोक की शादी को 4 साल हो गए हैं. अगर उस को एक बेटा हो जाता तो मैं पोते का मुंह देख कर दुनिया से जाती.

“न जाने कब मुझे बुला लें,” मैं उन्हें सांत्वना देती रहती थी कि धैर्य रखो. सब ठीक हो जाएगा.

मैं ने मां की इच्छा शोभा तक पहुंचा दी तो वह हंस कर बोली, “दीदी आजकल पोता और पोती में कोई फर्क नहीं होता. सिया और जिया भी तो अपनी हैं. वही मेरे बच्चे हैं,” बच्चों के प्रति उस की आत्मीयता मुझे बहुत अच्छी लगी.

जिस बात का डर था, वही हुआ. अचानक मां को दिल का दौरा पड़ा और पोते की चाहत लिए हुए वे इस दुनिया से चल बसीं.

शोभा के विवाह को 6 वर्ष हो चुके थे. मैं ने लक्ष्य किया कि अब उस के मन में संतान की चाह प्रबल हो रही थी. अशोक ने कई डाक्टरों से संपर्क किया. कुछ डाक्टरी जांच भी हुई, किंतु नतीजा संतोषप्रद नहीं था. मेरे आग्रह पर दोनों दिल्ली भी आए. मेरी जानकार डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर यही निष्कर्ष निकाला कि शोभा मां नहीं बन सकती.

अशोक ने सब तरह के उपचार किए, चाहे आयुर्वेदिक हो या होमियोपैथी. यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों के कहने पर झाड़फूंक का भी सहारा लिया, किंतु निराश ही होना पड़ा. इस का असर शोभा के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
शोभा प्राय: फोन कर के मुझे इधरउधर की बहुत सी खबरें देती रहती थी. उस ने एक घटना का जिक्र किया कि कुछ दिन पहले उस के किसी दूर के रिश्तेदार के यहां पुत्र जन्म का उत्सव था. वहां अशोक और शोभा के साथसाथ बड़े भैयाभाभी भी आमंत्रित थे. वहां पहुंच कर जब शोभा ने नवागत शिशु को पालने में झूलते देखा तो वह अपने को रोक ना पाई और आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में उठा लिया. तभी पीछे से बच्चे की दादी ने उस के हाथ से बच्चे को छीन लिया और अपनी बहू को डांटते हुए कहा, “तेरा ध्यान कहां है? देख नहीं रही बच्चे को बांझ ने उठा लिया है.”

शोभा ने बताया कि बड़ी भाभी भी वहीं खड़ी थीं. यह बात बतलाते समय शोभा की आवाज में पीड़ा झलक रही थी. मेरा मन संवेदना से भर उठा.

आशोभा ने बतलाया कि अब सिया और जिया उस के पास नहीं आती हैं. या यों कहिए कि भाभी उन बच्चों को शोभा के पास नहीं आने देतीं. इस का कारण भी वह समझ गई थी.

बांझपन का एहसास शोभा को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा था. मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई थी. मेरे दोनों बच्चे विवाह योग्य थे. अगले वर्ष मेरे पति रिटायर होने वाले थे. अतः हम भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गए थे. कभीकभी मैं शोभा को फोन कर के उन की कुशलक्षेम जान लेती थी.
फिर एक दिन अशोक का फोन आया. बातचीत से लगा कि वह बहुत परेशान है. मैं ने 3-4 दिन के लिए जयपुर का प्रोग्राम बना लिया. फीकी मुसकराहट से शोभा ने स्वागत किया. वह बहुत कमजोर हो गई थी. अशोक उस की स्थिति से बहुत चिंतित हो गया था. मुझे लगा कि ‘बांझ’ शब्द ने उस को भीतर तक आहत कर दिया है. वह बोली, “अब तो सिया और जिया भी मेरे पास नहीं आती.”

मैं ने प्यार से शोभा को अपने पास बैठाया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो और समझने की कोशिश करो. मैं चाहती हूं कि तुम किसी नवजात शिशु को गोद ले लो या कुछ अच्छी संस्थाएं हैं, जहां से बच्चे को लिया जा सकता है. ऐसा करने से एक बच्चे का भला हो जाएगा. उसे एक प्यारी मां मिल जाएगी और तुम्हें एक प्यारा बच्चा मिल जाएगा. यह एक नेक कार्य होगा. एक बच्चे का जीवन अच्छा बन जाएगा. तुम चाहो तो इस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं.”

लेकिन शोभा ने गंभीरता से उत्तर दिया, “दीदी, मैं अपनी तकदीर तो बदल नहीं सकती. यदि मेरी तकदीर में संतान का सुख लिखा ही नहीं है तो गोद ले कर भी मैं सुखी नहीं रह पाऊंगी,” कुछ रुक कर वह फिर बोली, “दीदी, मैं अपनी कोख से जन्मा बच्चा चाहती हूं, गोद लिया हुआ नहीं.”

वह अपने फैसले पर अडिग थी और मैं उस के फैसले के आगे निरुतर हो गई.

15 दिन बाद अशोक का फोन आया, वह आवाज से बहुत परेशान लग रहा था. उस ने बताया कि शोभा अब अकसर बीमार रहती है. उसे भूख नहीं लगती है और जबरदस्ती कुछ खाती है तो हजम नहीं होता उलटी हो जाती है. मैं ने सलाह दी कि तुरंत डाक्टरी जांच करवाओ. शोभा की तरफ से मुझे चिंता हो गई. अत: अशोक को सहारा देने के मकसद से मैं ने 3-4 दिन का जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया.

अशोक ने शोभा के सारे टेस्ट करवा लिए थे. मेरे पहुंचने के अगले दिन वह अस्पताल से रिपोर्ट ले आया. वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि शोभा की किडनी में कैंसर है, जो बहुत फैल गया है. अगर एक महीने पहले जांच करवा लेते तो शायद आपरेशन द्वारा किडनी निकाल देते, लेकिन अब तो कैंसर किडनी के बाहर तक फैल गया है. एक और विशेष बात जो डाक्टर ने बतलाई, वह यह कि शोभा प्रेग्नेंट भी है. प्रेगनेंसी की अभी शुरुआत ही है. एक हफ्ते बाद निश्चित तौर पर पता चल पाएगा. अचरज से मेरा मुंह खुला रह गया. समझ नहीं आया कि दुखी होऊं या खुशी मनाऊं.

शोभा ने मेरी और अशोक की बातें सुन ली थीं. वह मुसकराते हुए बोली, “दीदी, अशोक तो यों ही घबरा जाते हैं. मैं सहज में इन का पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं और अब तो मुझे जीना ही है. उस की बातें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं.
बाद में अशोक ने मुझे बतला दिया था कि डाक्टरों के अनुसार गर्भ को गिरा देने में ही बेहतरी है, क्योंकि कैंसर किडनी से बाहर निकल कर फैल रहा है, अगर तुरंत आपरेशन कर के किडनी निकाल भी दें, फिर भी शोभा का जीवन एक वर्ष से अधिक नहीं होगा और अगर गर्भपात नहीं करवाया तो कैंसर के आपरेशन के बाद की थेरेपी से बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है. या तो वह बचेगा ही नहीं और अगर बच भी जाए तो एब्नार्मल भी हो सकता है. अत: डाक्टर की राय में गर्भपात ही उचित होगा.

शोभा ने सबकुछ सुन लिया था. वह खुश नजर आ रही थी. वह बोली, ”दीदी, मुझे यही खुशी है कि अब मुझे कोई बांझ नहीं कहेगा. डाक्टरों का निर्णय ठीक ही है. मेरे जीवन का सूर्य अस्त हो रहा है. मैं बच्चे को देख पाऊंगी या नहीं, पता नहीं. अगर बच्चा बच भी गया और विकलांग हो गया तो और भी दुःख होगा. तसल्ली यही है कि अब मेरे ऊपर से ‘बांझ’ होने का लांछन हट गया. अब मैं शांतिपूर्वक मर सकूंगी.”

सहसा कार एक झटके के साथ रुक गई. सुनील ने ब्रेक मारा था, क्योंकि सामने एक बड़ा सा गड्ढा आ गया था. मेरी विचार श्रृंखला टूट गई. अब हम जयपुर की सीमा में पहुंच गए थे. बाजार के बीच से गुजरते हुए याद आया कि यहां कई बार शोभा के साथ चाट खाने आती थी, फिर खूब शौपिंग कर के हम दोनों शाम तक घर पहुंचते थे. अब तो केवल याद ही बाकी है.

ठीक साढ़े 9 बजे हम घर पहुंच गए. गाड़ी की आवाज सुन कर अशोक बाहर आ गया. सहारा दे कर उस ने गाड़ी से उतारा और मेरे गले से लग कर जोर से रो पड़ा. अंदर पहुंच कर देखा, शोभा का शव भूमि पर रखा था, बड़ी शांत मुख मुद्रा थी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मैं अपने को ना रोक सकी और फफक कर रो पड़ी.
वह समाप्त हो गई. 2 दिन बाद बहुत बोझिल मन से हम दोनों वापस लौट आए. रास्तेभर सोचती रही कि समाज के उलाहनों ने शोभा को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन मरने से पहले उसे यह खुशी थी कि वह बांझ नहीं थी, पर बच्चे की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.

मुराद : सास बिना ससुराल, बहू हुई बेहाल

बचपन में एक लोक गीत ‘यह सास जंगल घास, मुझ को नहीं सुहाती है, जो मेरी लगती अम्मां, सैयां की गलती सासू मुझ को वही सुहाती है…’ सुन कर सोचा शायद सास के जुल्म से तंग आ कर किसी दुखी नारी के दिल से यह आवाज निकली होगी. कालेज में पढ़ने लगी तो किसी सीनियर को कहते हुए सुना, ‘ससुराल से नहीं, सास से डर लगता है.’ यह सब देखसुन कर मुझे तो ‘सास’ नामक प्राणी से ही भय हो गया था. मैं ने घर में ऐलान कर दिया था कि पति चाहे कम कमाने वाला मिले मंजूर है, पर ससुराल में सास नहीं होनी चाहिए. अनुभवी दादी ने मुझे समझाने की कोशिश की कि बेटी सुखी जिंदगी के लिए सास का होना बहुत जरूरी होता है, पर मम्मी ने धीरे से बुदबुदाया कि चल मेरी न सही तेरी मुराद तो पूरी हो जाए.

शायद भगवान ने तरस खा कर मेरी सुन ली. ग्रैजुएशन की पढ़ाई खत्म होते ही मैं सासविहीन ससुराल के लिए खुशीखुशी विदा कर दी गई. विदाई के वक्त सारी सहेलियां मुझे बधाई दे रही थीं. यह कहते हुए कि हाय कितनी लकी है तू जो ससुराल में कोई झमेला ही नहीं, राज करेगी राज.

लेकिन वास्तविक जिंदगी में ऐसी बात नहीं होती है. सास यानी पति की प्यारी और तेजतर्रार मां का होना एक शादीशुदा स्त्री की जिंदगी में बहुत माने रखता है, इस का एहसास सब से पहले मुझे तब हुआ जब मैं ने ससुराल में पहला कदम रखा. न कोई ताना, न कोई गाना, न कोई सवाल और न ही कोई बवाल बस ऐंट्री हो गई मेरी, बिना किसी झटके के. सच पूछो तो कुछ मजा नहीं आया, क्योंकि सास से मिले ‘वैल्कम तानों’ के प्लाट पर ही तो बहुएं भावी जीवन की बिल्डिंग तैयार करती हैं, जिस में सासूमां की शिकायत कर सहानुभूति बटोरना, नयनों से नीर बहा पति को ब्लैकमेल करना, देवरननद को उन की मां के खिलाफ भड़काना, ससुरजी की लाडली बन कर सास को जलाना जैसे कई झरोखे खोल कर ही तो जिंदगी में ताजा हवा के मजे लिए जा सकते हैं.

क्या कहूं और किस से कहूं अपना दुखड़ा. अगले दिन से ही पूरा घर संभालने की जिम्मेदारी अपनेआप मेरे गले पड़ गई. ससुरजी ने चुपचाप चाभियों को गुच्छा थमा दिया मुझे. सखियो, वही चाभियों का गुच्छा, जिसे पाने के लिए टीवी सीरियल्स में बहुओं को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. कहते हैं न कि मुफ्त में मिली चीज की कोई कद्र नहीं होती. बिलकुल ठीक बात है, मेरे लिए भी उस गुच्छे को कमर में लटका कर इतराने का कोई क्रेज नहीं रहा. आखिर कोई देख कर कुढ़ने वाली भी तो होनी चाहिए.

मन निराशा से भर उठता है कभीकभी तो. गुस्से और झल्लाहट में कभी बेस्वाद खाना बना दिया या किसी को कुछ उलटापुलटा बोल दिया, तो भी कोईर् प्रतिक्रिया या मीनमेख निकालने वाला नहीं है इस घर में. कोई लड़ाईझगड़ा या मनमुटाव नहीं. अब आप सब सोचो किसी भी खेल को खेलने में मजा तो तब आता है जब खेल में द्वंद्वी और प्रतिद्वंद्वी दोनों बराबरी के भागीदार हों. एकतरफा प्रयास किस काम का? अब तो लगने लगा है लाइफ में कोई चुनौती नहीं रही. बस बोरियत ही बोरियत.

एक बार महल्ले की किसी महान नारी को यह कहते सुना था कि टीवी में सासबहू धारावाहिक देखने का अलग ही आकर्षण है. सासबहू के नित्य नए दांवपेच देखना, सीखना और एकदूसरे पर व्यवहार में लाना सचमुच जिंदगी में रोमांच भर देता है. उन की बातों से प्रभावित हो कर मैं ने भी सासबहू वाला धारावाहिक देखना शुरू कर दिया. साजिश का एक से बढ़ कर एक आइडिया देख कर जोश से भर उठी मैं पर हाय री मेरी किस्मत आजमाइश करूं तो किस पर? बहुत गुस्सा आया अपनेआप पर. अपनी दादी की बात याद आने लगी मुझे. उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की थी कि बेटा सास एक ऐसा जीव है, जो बहू के जीवनरूपी स्वाद में चाटमसाले का भूमिका अदा करता है, जिस से पंगे ले कर ही जिंदगी जायकेदार बनाईर् जा सकती है. काश, उस समय दादी की बात मान ली होती तो मजबूरन दिल को यह न गाना पड़ता, ‘न कोई उमंग है, न कोई तरंग है, मेरी जिंदगी है क्या, सासू बिना बेरंग है…’

मायके जाने का भी दिल नहीं करता अब तो. क्या जाऊं, वहां बैठ कर बहनें मम्मी से जहां अपनीअपनी सास का बखान करती रहती हैं, मुझे मजबूरन मूक श्रोता बन कर सब की बातें सुननी पड़ती हैं. बड़ी दीदी बता रही थीं कि कैसे उन की सास ने एक दिन चाय में कम चीनी डालने पर टोका तो दूसरे दिन से किस तरह उन की चाय में डबल चीनी मिला कर उन्होंने उन का शुगर लैवल बढ़ा दिया. लो अब पीते रहो बिना चीनी की चाय जिंदगी भर. मूवी देखने की शौकीन दूसरी बहन ने कहा कि मैं ने तो अपनी सास को सिनेमाघर में मूवी देखने का चसका लगा दिया है. ससुरजी तो जाते नहीं हैं, तो एहसान जताते हुए मुझे ही उन के साथ जाना पड़ता है मूवी देखने. फिर बदले में उस दिन रात को खाना सासू अम्मां ही बनातीं सब के लिए तथा ससुरजी बच्चों का होमवर्क करवाते हैं. यह सब सुन कर मन में एक टीस सी उठती कि काश ऐसा सुनहरा मौका मुझे भी मिला होता.

अब कल की ही बात है. मैं किट्टी पार्टी में गई थी. सारी सहेलियां गपशप में व्यस्त थीं. बात फिल्म, फैशन, स्टाइल से शुरू हो कर अंतत: पति, बच्चों और सास पर आ टिकी. 4 वर्षीय बेटे की मां मीनल ने कहा, ‘‘भई मैं ने तो मम्मीजी (सास) से ऐक्सचेंज कर लिया है बेटों का. अब उन के बेटे को मैं संभालती हूं और मेरे बेटे को मम्मीजी,’’ सुन कर कुढ़ गई मैं.

सुमिता ने मेरी तरफ तिरछी नजर से देखते हुए मुझे सुनाते हुए कहा, ‘‘सुबह पति और ससुरजी के सामने मैं अपनी सास को अदरक और दूध वाली अच्छी चाय बना कर दे देती हूं फिर उन के औफिस जाने के बाद से घर के कई छिटपुट कार्य जैसे सब्जी काटना, आटा गूंधना, चटनी बनाना, बच्चों को संभालने में दिन भर इतना व्यस्त रखती हूं कि उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती कि मुझ में कमी निकाल सकें. शाम को फिर सब के साथ गरमगरम चाय और नमकीन पेश कर देती हूं बस.’’

उस के इतना कहते ही एक जोरदार ठहाका लगाया सारी सखियों ने.

बात खास सहेलियों की कि जाए तो पता चला कि सब ने मिल कर व्हाट्सऐप पर एक गु्रप बना रखा है, जिस का नाम है- ‘सासूमां’ जहां सास की खट्टीतीखी बातें और उन्हें परास्त करने के तरीके (मैसेज) एकदूसरे को सैंड किए जाते हैं, जिस से बहुओं के दिल और दिमाग में दिन भर ताजगी बनी रहती है, पर मुझ जैसी नारी को उस गु्रप से भी दूर रखा गया है अछूत की तरह. पूछने पर कहती हैं कि गु्रप का मैंबर बनने के लिए एक अदद सास का होना बहुत जरूरी है. मजबूरन मनमसोस कर रह जाना पड़ा मुझे.

अपनी की गई गलती पर पछता रही हूं मैं, मुझे यह अनुभव हो चुका है कि सास गले की फांस नहीं, बल्कि बहू की सांस होती है. बात समझ में आ गई मुझे कि सासबहू दोनों का चोलीदामन का साथ होता है. दोनों एकदूसरे के बिना अधूरी और अपूर्ण हैं. कभीकभी दिल मचलता है कि काश मेरे पास भी एक तेजतर्रार, दबंग और भड़कीली सी सास होती पर ससुरजी की अवस्था देख कर यह कहने में संकोच हो रहा है कि पापा एक बार फिर घोड़ी पर चढ़ने की हिम्मत क्यों नहीं करते आप?

नई लड़कियों और अविवाहित सखियो, मेरा विचार बदल चुका है. अब दिल की जगह दिमाग से सोचने लगी हूं मैं कि पति चाहे कम कमाने वाला हो पर ससुराल में एक अदद सास जरूर होनी चाहिए. जय सासूमां की.

कायर : क्या घना को मिल पाया श्यामा का प्यार

घना जानता था कि श्यामा निचली जाति की लड़की है, पर उस के अच्छे बरताव की वजह से वह उस के प्रति खिंचता चला गया था. यहां तक कि वह श्यामा से शादी करने को भी तैयार था.

वैसे, घना जाति प्रथा को भारतीय समाज के लिए अभिशाप मानता था और अकसर अपने दोस्तों के साथ अंधविश्वास, जाति प्रथा जैसी बुराइयों पर बड़ीबड़ी बातें भी करता था.

घना कई बार अपने मन की बात श्यामा तक पहुंचाने की कोशिश कर चुका था, पर श्यामा ने उसे कभी भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया था.

आज घना को श्यामा से अकेले में बात करने का मौका मिल गया था और वह इस मौके को खोना नहीं चाहता था.

श्यामा आ रही थी. घना ने अपने गांव के दोस्तों को पहले ही चले जाने के लिए कह दिया था और खुद श्यामा का इंतजार कर रहा था.

जैसे ही श्यामा उस के करीब से गुजरी, घना ने उसे रुकने को कहा.

‘‘श्यामा,’’ घना ने अपना गला साफ करते हुए कहा.

‘‘जी,’’ श्यामा ने एक पल के लिए घना की ओर देखा और आगे बढ़ गई.

‘‘आज मौसम बहुत खराब है,’’ घना बोला.

श्यामा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘श्यामा, मैं तुम से कुछ बात कहना चाहता हूं.’’

श्यामा फिर भी चुप रही. घना श्यामा के बहुत करीब आ गया.

श्यामा घना की बात को अच्छी तरह से सम?ा रही थी. उस ने गुस्से से घना की तरफ देखा.

घना थोड़ा सा सहम गया था, पर वह सोचने लगा कि अगर आज नहीं कहेगा, तो वह अपनी बात कभी नहीं कह पाएगा.

‘‘श्यामा… मैं…मैं… तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ जैसे कि श्यामा घना की बात का मतलब न सम?ा हो.

‘‘श्यामा, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं.’’

‘‘यह जानते हुए भी कि मैं निचली जाति की हूं और आप ऊंची जाति वाले.’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं इस तरह की किसी भी बहस

में नहीं उल?ाना चाहती. अगर किसी ने यह सब सुन लिया, तो आप की बहुत बदनामी होगी.’’

‘‘श्यामा, मैं तुम से बहुत प्यार

करता हूं और तुम्हीं से शादी भी करना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम्हारे गांव के सब बराती निचली जाति वालों के हाथ का पका खाना खाएंगे? जो लोग निचली जाति वालों की छाया से भी दूर रहते हैं, क्या वे एक अछूत लड़की को अपने घर की बहू बनाएंगे?

‘‘घना, मु?ा गरीब पर दया करो. मैं किसी किस्सेकहानी का पात्र नहीं

बनना चाहती हूं. आप ऊंची जाति वालों की नजर में भले ही हमारी कोई इज्जत नहीं है, पर अपनी नजर में हमारी बहुत इज्जत है.

‘‘मेरे पिता एक स्कूल में मास्टर हैं. समाज में उन की भी कुछ इज्जत है. मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं कि मेरे साथ आगे से ऐसी हरकत कभी मत करना.’’

श्यामा का ऐसा चेहरा देख कर घना सकते में आ गया. वह कुछ न बोल सका और चुपचाप वहीं खड़ा रह गया. श्यामा तेज कदमों से आगे बढ़ गई.

श्यामा जा चुकी थी, पर उस के कहे गए शब्द घना के कानों मेें बारबार गूंज रहे थे.

घना ने आसमान की ओर देखा. आसमान में घने बादल छाए हुए थे. वह सोचने लगा कि आज की रात फिर बर्फबारी होने वाली है. वह बहुत निराश था. क्या करे? कहां जाए? खुदकुशी कर ले? समाज की रूढि़यों, जाति प्रथा के चलते ही तो श्यामा ने उस के प्यार

को ठुकरा दिया था, वरना उस में क्या कमी थी.

घना को लगा कि यह जिंदगी ही बेकार है. वह बदहवास सा रास्ते से हट कर ऊपर पहाड़ी पर चढ़ने लगा. चारों तरफ अंधेरा बढ़ने लगा था. जब वह चलतेचलते थक गया, तो सुस्ताने के लिए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया.

रात अब काफी हो चुकी थी. काफला और खड़कोट, दोनों गांवों के बीच, जहां पर खेत खत्म हो जाते हैं, वहां पर एक बेसिक स्कूल था. इस के बाद जंगल शुरू हो जाता था. बस्ती से दूर होने के चलते रात में स्कूल में कोई नहीं रहता था.

घना सोचने लगा कि आज की रात वह इसी स्कूल में बिता देगा. कल देखा जाएगा. अंधेरे में चलते, गिरतेपड़ते, ?ाडि़यों से गुजरते हुए उस का बदन बुरी तरह से छिल गया था. कई खरोंचें भी लग गई थीं.

जब घना स्कूल में पहुंचा, तब वहां भयंकर सन्नाटा पसरा हुआ था. वह स्कूल के बरामदे के एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया. ठंड से उस की हड्डियां तक कांप रही थीं. श्यामा का एहसास उस के दिलोदिमाग से हटने का नाम नहीं ले रहा था.

घना सोचने लगा कि श्यामा का गांव यहां से थोड़ी ही दूर पर है. क्यों न एक बार फिर कोशिश की जाए. आज उसे किसी बात का डर नहीं था. न मरने का डर, न जंगली जानवरों का डर. लिहाजा, वह श्यामा के घर की तरफ चल पड़ा.

घना मास्टर बिछन दास के घर के सामने रुक गया.

खड़कोट गांव के एक हिस्से में ब्राह्मण और एक हिस्से में दलित रहते हैं. इसी गांव के दलित टोले के बिछन दास मास्टर की बेटी श्यामा सेंदुल कालेज में बीए के आखिरी साल में पढ़ रही थी.

मास्टर बिछन दास नजदीक के ही एक गांव में मिडिल स्कूल के हैडमास्टर थे. खेतीबारी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पत्नी भी अकसर उन के साथ ही

रहती थी.

बिछन दास का स्कूल बहुत ज्यादा दूर न होने के चलते वे हर 15 दिन बाद घर आ जाते थे. श्यामा अपनी बूढ़ी दादी मां के साथ गांव में रहती थी.

करीब के गांव का होने की वजह से और श्यामा में घना की खास दिलचस्पी होने के चलते उसे श्यामा और उस के घर के बारे में बहुतकुछ पता था.

घना जानता था कि श्यामा की मां अकसर उस के पिता के साथ ही रहती हैं. घर में उस की बूढ़ी दादी मां न साफ देखती हैं और न साफ सुनती हैं. उसे यह भी पता था कि श्यामा घर की अलग कोठरी में पढ़ाई करती है. हो सकता है कि वह अभी भी पढ़ रही हो.

घना जब श्यामा के घर के चौक में पहुंचा, तब उस ने देखा कि ऊपरी मंजिल की एक कोठरी में अभी भी रोशनी थी. वह जानता था कि श्यामा इसी कोठरी में पढ़ रही होगी.

घना ने दरवाजा खटखटाया. कमरे में कोई भी हलचल नहीं हुई. उस ने फिर दरवाजा खटखटाया.

‘‘कौन है?’’ कोठरी से श्यामा की आवाज आई.

‘‘मैं… घना.’’

‘‘घना?’’

‘‘हां, घना.’’

‘‘इतनी रात में…’’

‘‘हां, दरवाजा खोल दो. अपनी बात कर के मैं यहां से चला जाऊंगा.’’

श्यामा ने घड़ी की ओर देखा. रात के 2 बज रहे थे. वह सोचने लगी, ‘क्या करूं? दरवाजा खोलूं, तो कहीं यह कोई ?ां?ाट न खड़ा कर दे. अपनी बात कहने के अलावा यह और क्या कर सकता है? यह मेरा घर है. एक दलित लड़की के घर में इतनी रात को… इसे भी तो अपनी इज्जत का खयाल होगा.’

श्यामा ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजे पर घना खड़ा था. कपड़े फटे हुए, चेहरे पर खरोंचों के निशान, जिन से खून निकल रहा था.

श्यामा को उस पर तरस आ गया. उस ने उसे अंदर आने दिया. वह ठंड से बुरी तरह कांप रहा था. उस के चेहरे पर पीड़ा साफ ?ालक रही थी.

‘‘यह सब क्या है?’’ श्यामा ने हैरान होते हुए पूछा.

घना ने श्यामा के साथ कालेज से घर आते समय रास्ते में जो बातचीत हुई थी, उस के बाद की सारी घटना बता दी.

‘‘मैं क्या करूं श्यामा? मैं अपने को संभाल नहीं पा रहा हूं. तुम्हारे बिना मैं अब जी नहीं सकूंगा.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? यह तो जबरदस्ती है. मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती. ऐसा कभी नहीं हो सकता. मैं ने आप से पहले भी कहा था.’’

‘‘ठीक है, तब फिर चलता हूं. मैं तुम्हारा नुकसान नहीं करना चाहता. ज्यादा क्या कहूं… शायद यह मेरी जिंदगी की आखिरी रात है,’’ कह कर घना उठने को हुआ.

‘‘इतनी रात को तुम कहां जाओगे?’’ श्यामा ने डर कर पूछा.

‘‘कहां जाऊंगा? जहां एक दिन सभी को जाना है. क्यों न मैं आज ही भिलंगना नदी में डूब जाऊं. मैं जी कर क्या करूंगा, खुद भी नहीं जानता. पर मैं तुम से माफी मांगता हूं. मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ दी है, मु?ो माफ कर देना.’’

घना ने दरवाजे की तरफ कदम रखा ही था कि श्यामा ने उस की बांह थाम कर उसे कुरसी पर बैठा दिया.

श्यामा सोचने लगी, ‘इसे अगर मैं आज ठुकरा दूं, तो हो सकता है कि यह सचमुच भिलंगना नदी में छलांग मार दे. जो शख्स इस बर्फीली रात में घने जंगल से हो कर मेरे घर आने की हिम्मत कर सकता है, वह खुदकुशी कर ले, तो इस में क्या हैरानी है. और खुदकुशी क्या, इसे तो कोई जंगली जानवर रास्ते में ही अपना निवाला बना सकता है. तब शायद किसी को कुछ पता न चले, पर मैं तो सबकुछ जानती हूं. तब मैं क्या खुद को कभी माफ कर पाऊंगी?

‘नहीं, मैं जिंदगीभर अपने को अपराधी सम?ाती रहूंगी और यह तो मु?ा से प्यार करता है और शादी भी करने को तैयार है. क्या हमारा समाज यह सब होने देगा? नहीं, समाज तो ऐसा कभी नहीं होने देगा. पर हम कहीं दूर दिल्लीमुंबई चले जाएंगे. वहां हमारी जातपांत से किसी को क्या मतलब होगा?’

श्यामा बहुत दूर की बात सोचने लग गई थी.

‘‘श्यामा, तुम डरो मत. मैं तुम्हारा कोई नुकसान करने नहीं आया हूं. मैं तो केवल तुम्हें अपने मन की बात बताने आया था, तुम पर खुद को थोपने नहीं. तुम चिंता मत करो. अब मु?ो जाना ही चाहिए,’’ इतना कह कर घना दोबारा उठ कर जाने लगा.

‘‘रुको…’’ श्यामा ने कहा. घना जैसा था, वैसे ही बैठ गया.

‘‘अच्छा सुनो, आप ने कहा कि आप मु?ा से बहुत प्यार करते हो. क्या आप मु?ा से शादी कर के समाज का सामना कर पाओगे?’’

‘‘हां, जरूर करूंगा. मैं जानता हूं कि यह समाज ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने देगा, पर हम यहां से कहीं दूर अपनी दुनिया बसाएंगे.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘एक साल बाद मैं कालेज पास कर लूंगा, फिर देखना मु?ो कहीं न कहीं अच्छी नौकरी मिल ही जाएगी और फिर हम किसी मंदिर में शादी कर लेंगे.’’

‘‘ठीक है, जब आप इतना खतरा मोल ले कर इस बर्फीली रात में मेरे

घर तक आए हो, तब मैं आप पर पूरा

भरोसा करती हूं कि आप अपने वचनों को जरूर निभाओगे…’’ फिर कुछ सोच कर श्यामा ने पूछा, ‘‘आप ने कुछ खाया तो होगा नहीं?’’

‘‘नहीं, कुछ भी नहीं खाया. सुबह कालेज जाते समय खाया था, उस के बाद मुरली की दुकान पर एक कप चाय पी थी. मु?ो बहुत भूख लगी है,’’ भूख और ठंड का असर घना के चेहरे से साफ ?ालक रहा था.

‘‘क्या करूं? रोटी और आलू की सब्जी बची हुई है, पर मैं आप को खाने को दे भी नहीं सकती.’’

‘‘अरे, लाओ न फिर.’’

‘‘यह ठीक नहीं होगा. एक अछूत के घर में ब्राह्मण भोजन करेगा, यह नामुमकिन है. ऐसा नहीं हो सकता.’’

‘‘मैं तो भूख से मरा जा रहा हूं और तुम्हें छुआछूत की पड़ी है.’’

‘‘तुम्हारा धर्म बिगड़ जाएगा. अगर ब्राह्मणों को पता चल गया, तो गजब हो जाएगा.’’

‘‘तुम्हारे साथ जीनेमरने के लिए मैं ने आज इतना बड़ा जोखिम उठाया है. अब जबकि तुम्हारे हाथ का बनाया ही जिंदगीभर खाना है, तब आज की रात परहेज क्यों? और तुम तो जानती हो कि मैं जातपांत, छुआछूत में जरा भी यकीन नहीं करता हूं.’’

‘‘खाओगे?’’ श्यामा ने डरे मन

से पूछा.

‘‘हां, जरूर खाऊंगा. तुम लाओ तो सही.’’

‘‘चलो फिर, रसोईघर में चलो, वहीं गरमागरम खिलाऊंगी…’’ फिर कुछ सोच कर वह बोली, ‘‘अच्छा, मैं यहीं पर लाती हूं. बाहर बहुत ठंड है.’’

श्यामा रसोईघर से खाना लाने चली गई. घना भविष्य के तानेबाने बुनने में खो गया. श्यामा थोड़ी ही देर में सब्जीरोटी ले कर आ गई. घना रोटी खाने लगा.

श्यामा को घना की इस हालत पर तरस आ रहा था. वह घना को देख रही थी और सोच रही थी, ‘यह मु?ो कितना चाहता है? एक ब्राह्मण का बेटा हो कर किस तरह अपने पुरखों के बनाए उसूलों को ताक पर रख कर एक अछूत के घर पर अपने पेट की भूख मिटा रहा है. इस बर्फीली रात में किस तरह भयानक जंगल से हो कर मेरे दरवाजे पर प्यार की भीख मांगने आया है,’ उस का सहज और सरल मन पिघल गया.

सुबह होने से पहले ही घना श्यामा के घर से निकल गया था. लेकिन अब उस के मन में एक उमंग थी, एक जोश था. वह सोचने लगा, ‘घर में कोई भी बहाना बना दूंगा.’

गांव के बीचोंबीच एक छोटी नदी बहती थी. घना ने उस नदी में हाथमुंह धोए और अपने घर की ओर चल पड़ा.

अब घना अकसर रात में बहुत ही सावधानी के साथ श्यामा के घर जाने लगा. दोनों अपनी भावी जिंदगी के बारे में खूब बातें करते, योजनाएं बनाते. इस बीच जब रिजल्ट निकला, तो घना फर्स्ट डिविजन के साथ अपने कालेज में अव्वल आया था. श्यामा की भी फर्स्ट डिविजन आई थी. दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं था.

अपने मामा की सलाह पर घना ने दिल्ली में एक साल के कंप्यूटर कोर्स में दाखिला ले लिया. इस बीच घना जब भी गांव आता, दोनों सावधानी से मिलते रहे.

श्यामा ने एमए का पहला साल भी अच्छे नंबरों से पास कर लिया. घना का कंप्यूटर का कोर्स भी पूरा हो गया था. एक कंपनी में उसे अच्छी नौकरी मिल गई. नईनई नौकरी थी, इसलिए वह दिल्ली में बहुत मसरूफ हो गया.

श्यामा ने अब की बार भी बहुत मेहनत की थी, इसलिए उस ने एमए भी फर्स्ट डिविजन से पास किया थी.

श्यामा को लगा कि अब उस के सपने सच होने वाले हैं. वह बहुत

खुश थी. उस के पिता उस के लिए लड़का ढूंढ़ने के लिए जल्दबाजी करने लगे, जबकि श्यामा इस बात से बहुत बेचैन थी.

काफला गांव का शिवप्रसाद उर्फ शिबी घना का दोस्त था. वह श्यामा और घना की प्रेम कहानी का एकमात्र गवाह भी था.

शिबी कई बार घना और श्यामा का संदेशवाहक भी रह चुका था, इसलिए श्यामा ने शिबी से अपनी चिंता घना तक पहुंचाने को कहा और घना को तुरंत गांव आने के लिए कहलवाया.

ऋषिकेश और घनसाली के रास्ते पर घनसाली से 5 किलोमीटर पहले भिलंगना नदी के तट पर पिलखी के पिलखेश्वर महादेव के मंदिर में बैसाखी के दिन एक विशाल मेला लगता है. घना इस मेले में श्यामा से मिलने के लिए आया था. वे दोनों इधरउधर की बातें करते हुए मेले से दूर सीढ़ीनुमा खेतों के किनारे जंगल में एक बुरांस के पेड़ के नीचे बैठ गए.

जंगल में सन्नाटा था. दूर नीचे सड़क पर कभीकभार किसी गाड़ी के गूंजने की आवाज आ जाती थी. चीड़ के पेड़ों से हवा छन कर सनसन की आवाज करती हुई बह रही थी और घाटी में बह रही भिलंगना नदी की आवाज से अपनी आवाज मिला रही थी.

धूप अभी भी सुहावनी थी, पर माहौल में बेखुदी का सा आलम था. घना बहुत ही उदास और खोएखोए मन से श्यामा को देख रहा था.

‘‘तुम कैसी हो श्यामा?’’ घना ने बात शुरू की, लेकिन उस के चेहरे पर निराशा झलक रही थी.

आज घना के चेहरे पर श्यामा से मिलने की कोई चमक नजर नहीं आ रही थी. वह पहले की तरह चंचल नहीं लग रहा था.

‘‘ठीक हूं, आप सुनाओ. जब से आप की नौकरी लगी है, आप तो हमारे लिए दुर्लभ जीव हो गए हैं,’’ श्यामा ने शिकायत भरे लहजे में कहा था, पर वह आज बहुत खुश थी, क्योंकि घना को देखते ही वह मानो सारी चिंताओं से छुटकारा पा गई थी.

‘‘अच्छा हुआ, आप ठीक समय पर आ गए. आप को पता है कि पिताजी मेरा रिश्ता एक जगह पक्का कर रहे हैं. मुझे और लड़के को मिलाने भर की देर है. मैं कई दिनों से टाल रही हूं. मैं आप का ही इंतजार कर रही थी. अब आगे का प्लान आज ही तैयार करना है,’’ कह कर उस ने घना की ओर देखा. घना दूर कहीं अपने में ही खोया हुआ था.

‘‘सुन रहे हो… कहां खो गए हो?’’

‘‘काश, खो पाता,’’ घना ने बहुत ही दुखी मन से कहा. ‘‘यह भावुक होने का समय नहीं है. सामने हमारी मंजिल है, बस आगे बढ़ने की देरी है. अब हमारे सपने सच होने वाले हैं,’’ श्यामा ने चुलबुले मन से कहा.

‘‘काश, सच हो पाते.’’

‘‘अब आप ऐन मौके पर ऐसा क्यों बोले जा रहे हैं? आप अब अपने पैरों पर खड़े हो और हम ने जो ख्वाब देखे थे, वे सच होने के लिए हमें देख रहे हैं,’’ श्यामा ने हैरान हो कर कहा.

‘‘अपने पैरों पर तो मैं जरूर खड़ा हूं, पर… पर जिन्होंने इन पैरों पर खड़ा होने के लायक बनाया है, मैं उन का क्या करूं?’’

‘‘क्या मतलब है आप का?’’

‘‘मेरे घर वालों ने भी मेरे लिए एक रिश्ता पक्का कर दिया है.’’

‘‘आप ने मना नहीं किया?’’ श्यामा ने घबराहट में पूछा.

‘‘मैं ने कहा था कि मैं ने अपने लिए एक दलित लड़की पसंद कर ली है और मैं उसी से शादी करूंगा. पर यह सुनते ही घर में भूचाल आ गया था, जैसे घर में कोई मर गया हो. वे गांवबिरादरी की बात करने लगे. मां अपने दूध की कसम देने लगीं. हम कहीं के नहीं रहेंगे और दहाड़ें मारमार कर रोने लगीं.’’

‘‘लेकिन यह सब तो होना ही था. इस की तो हमें पहले से ही जानकारी थी. हम इस ऊंचनीच की दुनिया से दूर अपना घर बसाएंगे. हम ने यही ख्वाब तो देखे थे. और अब तो आप अपने पैरों पर खड़े भी हो गए हो. मुझे भी कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘श्यामा, आज तो हम चले जाएंगे, पर अपनी जड़ों से कट कर हम कब तक अलग रह पाएंगे. कभी न कभी तो हमें यहां वापस आना ही पड़ेगा, और तब… क्या ये लोग हमें भूल जाएंगे? क्या हमें चैन से जीने देंगे?

‘‘मैं भी चाहता था कि हमारे सपने सच हों, पर नदी में रह कर मगर से बैर भी तो नहीं कर सकते. अब भलाई इसी में है कि हम एकदूसरे को भूल जाएं और…’’

‘‘और क्या? आप को यह सब पहले नहीं सूझा था. घना, आप उस रात जिस बहादुरी से मेरे घर प्यार की भीख मांगने आए थे, मैं आप की उस बहादुरी की कायल थी. मैं मरमिटी थी आप पर उस दिन. उस दिन मुझे लगा था कि आप जरूर समाज की इन सड़ीगली रीतियों के खिलाफ लड़ोगे. मुझे क्या पता था कि वह आप की बहादुरी नहीं, बल्कि पागलपन था.

‘‘अच्छा हुआ कि समय से पहले ही आप की औकात का पता चल गया. कितना भरोसा किया था मैं ने आप पर. मैं आप को सामाजिक बुराइयों से लड़ने वाला एक शेर समझती थी, पर आप तो कायर हो. आप ने मेरे साथ विश्वासघात किया है.’’

घना अपराधी की तरह जमीन पर नजरें गड़ाए सुनता रहा. श्यामा के लिए अब वहां पर ठहरना मुश्किल हो गया था. उस ने नफरत से घना की ओर देखा और तेज कदमों से वहां से चली गई.

श्यामा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही थी. वह मेले के बजाय सीधे अपने घर चली गई. उस ने दरवाजा बंद किया. वह आज खूब रोना चाहती थी.

शाम को श्यामा की मां ने उसे रोटी खाने के लिए उठाया, ‘‘श्यामा उठ, रोटी खा ले.’’

‘‘नहीं मां, मन नहीं कर रहा है.’’

‘‘अरे बेटी, एक रोटी तो खा ले. भूखे पेट सोना अच्छा नहीं होता. कल लड़के वाले भी तुझे देखने आ रहे हैं,’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

श्यामा न चाहते हुए भी उठी. उस ने मां का दिल रखने के लिए आधी रोटी खाई और फिर बिस्तर पर पड़ गई. नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. घना के शब्दों से उसे इतनी पीड़ा हो रही थी, मानो उस के कानों में घना के शब्द नहीं, बल्कि गरमगरम सीसा पिघला कर डाला गया हो. उस का मन घना के लिए नफरत से  भर गया.

सुबह जब श्यामा की नींद खुली, तो धूप खिड़की के अंदर आ चुकी थी. उस ने एक अंगड़ाई ली और झटके के साथ पिछली बातों को भुला कर अपनी जिंदगी से दूर फेंकते हुए नए दिन का स्वागत करने के लिए अपने कमरे से बाहर निकल गई.

लड़के वाले दोपहर से पहले ही आ गए थे. उन का स्वागतसत्कार होने लगा. श्यामा मिठाई और चाय ले कर आई. उस ने सभी मेहमानों का स्वागत किया और मां के इशारे से वहीं पर बैठ गई.

श्यामा देखने में खूबसूरत तो थी ही, कदकाठी भी ठीक थी और सब से

बड़ी बात तो यह कि वह पढ़ीलिखी भी खूब थी.

बाद में लड़के के पिता ने कहा, ‘‘भाई, नया जमाना है. पढ़ेलिखे बच्चे हैं. उन्हें भी एकदूसरे के बारे में जानने का हक है.’’

वे सब बाहर चले गए. ‘‘मेरा नाम माधव है. सुना है, आप ने एमए किया है?’’ लड़के ने सन्नाटा तोड़ा.

‘‘जी हां, और मेरा नाम श्यामा है,’’ श्यामा ने सकुचाते हुए जवाब दिया.

‘‘एमए किस विषय में किया है

आप ने?’’

‘‘जी, समाजशास्त्र में.’’

‘‘मैं ने एमफार्मा किया है और मैं एक दवा कंपनी में सर्विस करता हूं,’’ कुछ देर रुक कर और श्यामा की आंखों में झांकते हुए वह हलके से मुसकराते हुए फिर बोला, ‘‘तो क्या विचार है? मेरा मतलब है कि आप मुझे अपने काबिल समझती हैं या नहीं?’’

‘‘जी, जैसा मेरे मांबाप उचित समझेंगे.’’

‘‘जी नहीं, मैं आप की बात से सहमत नहीं हूं. आप के मांबाप को जब ठीक लगा, तभी तो उन्होंने हमें घर पर बुलाया है, आप की पसंदनापसंद जानने के लिए.’’

‘‘जी, पसंदनापसंद…? इस गांव में यह पहली बार हो रहा है कि लड़के और लड़की को उन की पसंदनापसंद जानने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है, वरना आज तक तो लड़का ही लड़की देख कर चला जाता था और अपनी पसंद बता देता था.’’

‘‘कुछ बातें समाज में तेजी से बदल रही हैं. हां, तो बताइए कि आप ने मुझे पसंद किया या नहीं?’’

‘‘जी, मुझे तो आप पसंद हैं…’’ श्यामा ने शरमाते हुए कहा था, ‘‘पर आगे जैसा मेरे पिताजी कहेंगे.’’

‘‘हां, यह हुई न बात. अब ठीक है.’’

उस दिन बात पक्की हो गई और फिर चट मंगनी और पट ब्याह भी हो गया. श्यामा सबकुछ भूल कर अपनी नई जिंदगी में मसरूफ हो गई. इस तरह एक साल कब बीता, पता ही नहीं चला.

श्यामा एक सामाजिक संस्था से जुड़ गई थी. इस बीच माधव को 2 महीने की ट्रेनिंग के लिए विदेश जाना पड़ा. श्यामा बहुत दिनों से मायके नहीं गई थी, इसलिए वह मायके जाने की तैयारी करने लगी.

श्यामा अपने गांव आ गई. इस बीच उसे शिबी से पता चला कि घना पागल हो गया है. दिल्ली में उस के मामा ने उस की शादी किसी अमीर घर की लड़की से करवा दी थी.

बाद में पता चला कि उस की पत्नी का कालेज के दिनों में किसी ईसाई लड़के से चक्कर था. लड़की के घर वालों ने जबरदस्ती उस की शादी घना से करवा दी थी, लेकिन कुछ ही दिन बाद उन में अनबन शुरू हो गई और एक दिन वह घर से गहनेपैसे ले कर उसी लड़के के साथ भाग गई.

घना यह सदमा सहन न कर सका और दिमागी संतुलन खो बैठा. उस के पिता उसे गांव ले आए. गांव में उस को ठीक करने के लिए कई देवीदेवताओं की पूजा होने लगी.

पागलपन के दौरे में घना लोगों को कभी जाति की खोखली बातों पर और कभी अंधविश्वास पर भाषण देता है, इसलिए लोग समझते हैं कि उस पर भूत का साया है. घना के बारे में सुन कर श्यामा को बहुत दुख हुआ, पर वह कर भी क्या सकती थी?

श्यामा को मायके में 2 महीने से भी ज्यादा समय हो गया था. उस का पति उसे लेने के लिए आ गया था. 1-2 दिन रहने के बाद जब वे लोग जा रहे थे, तो रास्ते में कुछ लोग घना को पकड़ कर अस्पताल ले जा रहे थे. शायद पागलखाने…

अचानक घना की नजर श्यामा पर पड़ी. उस ने गौर से श्यामा को देखा, वह श्यामा को पहचानने की कोशिश कर रह था. उस के साथ के लोग घना को खींच कर ले जा रहे थे. उस ने श्यामा की तरफ हाथ जोड़े, मानो वह श्यामा से माफी मांग रहा हो.

श्यामा फफक कर रो पड़ी. माधव ने उसे रोने दिया. वह जानता था कि श्यामा बहुत ही कोमल मन की है. वह किसी का बुरा नहीं देख सकती.

उन की बस का समय हो रहा था. थोड़ी देर बाद वह उठी और उस ने अपने पति से चलने को कहा.

दिल्ली पहुंच कर एक दिन माधव ने उस से घना के बारे में पूछा. श्यामा ने सच छिपाते हुए बस उस के शादी वाले किस्से को बता दिया.

माधव ने एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘बेचारे के साथ बहुत बुरा हुआ.’’

‘‘हां, एक कायर के साथ इस से ज्यादा और क्या हो सकता था?’’ श्यामा ने बहुत ही लापरवाही से कहा.

माधव को श्यामा का यह जवाब अच्छा नहीं लगा.

‘‘हां, कायर नहीं तो और क्या? जो समस्याओं का सामना मजबूती से न कर सके, वह कायर नहीं तो और क्या है? कभी कालेज के दिनों में बड़ीबड़ी बातें करता था, जब समस्याओं का सामना करने का समय आया, तो हिम्मत ही जवाब दे गई.’’

‘‘परंतु अगर कभी तुम मुझे छोड़ कर चली गई, तो मैं भी पागल हो जाऊंगा,’’ माधव ने मजाक किया.

‘‘मुझ पर इतना ही विश्वास करते हो,’’ फिर एक पल के लिए शरारत भरी नजरों से माधव की ओर देख कर उस ने घुड़की दी, ‘‘कायर कहीं के.’’

इतना कह कर उस ने माधव की छाती पर सिर टिका दिया. माधव ने उसे अपनी बांहों में कस लिया.

अंधेरी रात का जुगनू: रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

राजकुमारी: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

उस का नाम ही राजकुमारी था. वैसे तो वह कहीं की राजकुमारी नहीं थी, लेकिन वह सचमुच राजकुमारी लगती थी. उस की खूबसूरती, रखरखाव, बातचीत करने का अंदाज और उस की शाही चाल उसे वाकई राजकुमारी बनाए हुए थे, जबकि वह एक मामूली घर की लड़की थी. जब उस ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा, तो न केवल कुंआरों के, बल्कि शादीशुदा लोगों के दिलों की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल’, जैसी गजल उन के सामने आ गई थी. सपनों की हसीन शहजादी उन के सामने थी.

दफ्तर की दूसरी लड़कियों और औरतों ने भी जलन और तारीफ भरी नजरों से देखा था उसे. वह सब से अलग नजर आ रही थी. उस पर जवानी ही कुछ ऐसी टूट कर बरस रही थी कि दफ्तर में सभी चौंक पड़े थे. लंबा कद, घने बाल, भरी छातियां, पतली कमर और चाल में कोमलता. लेकिन वह वहां नौकरी करने आई थी, इश्क करने नहीं. उसे औरों से ज्यादा अपने काम से लगाव था. उस ने किसी की तरफ नजर भर कर मुसकरा कर भी नहीं देखा. उस के चेहरे पर खामोशी छाई रहती थी और आंखों में चिंता तैरती रहती थी. ऐसा लगता था कि वह बहुत सी परेशानियों से एकसाथ लड़ रही है. वह एक मामूली साड़ी बांधे हुए थी, लेकिन दूसरी औरतों और लड़कियों के मुकाबले उस की वह मामूली साड़ी भी खूब जंच रही थी उस पर. कई दिन बीत गए. वह सिर्फ अपने काम से काम रखती.

यदि वह किसी की माशूका न होती तो किसी न किसी को अपना दिल दे बैठती. खूबसूरत नौजवानों की इस दफ्तर में भी कमी नहीं थी. आमतौर पर उस तरह की खूबसूरत लड़कियां सहयोगियों पर दाना फेंक कर अपना काम निकालती हैं, पर राजकुमारी उन में से न थी. यह ऐसा सैंटर था, जिस में छोटीछोटी सैकड़ों मेजें लगी थीं. इस कंपनी का मालिक था निर्मल कुमार. अच्छीखासी दौलत होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. अपनी पसंद की लड़की उसे अभी तक नहीं मिली थी. वह रोशन खयाल और गहरी सोच रखने वाला इनसान था. उस की उम्र 32 साल की थी. वह लंदन से पढ़ कर लौटा था.  उस ने आज तक वहां काम कर रही किसी लड़की की ओर ध्यान नहीं दिया था.

तकरीबन 4 साल से बड़ी सूझबूझ और लगन से वह कंपनी को चला रहा था. उस की कई दोस्त थीं, पर वह किसी से भी प्रेम नहीं करता था, क्योंकि उस की सब दोस्त लड़कियां खुले विचारों की थीं और कितनों के साथ रह चुकी थीं. निर्मल कुमार खुद भी कभी किसी के साथ नहीं सोया था उसे ऐसी लड़की चाहिए थी, जो कहीं भी मुंह मार ले. निर्मल कुमार ने जब पहली बार राजकुमारी को देखा था, तो उस का दिल भी धड़का था. आखिर वह उस के हुस्न की खुशबू से कैसे बच सकता था? वह लाखों में एक थी. निर्मल कुमार पहले मर्द था, मालिक बाद में. राजकुमारी जब भी किसी काम से निर्मल कुमार के सामने जाती, तो वह दो नजर भर देखे बगैर नहीं रह सकता था. इस से पहले भी उस की मुलाकात कई खूबसूरत पढ़ीलिखी ऊंचे घराने वालियों से होती रही थी. लंदन और मुंबई में भी वह कई हसीन लड़कियों से मिल चुका था, लेकिन उस ने उन में से किसी एक के लिए भी अपने दिल में तड़प महसूस नहीं की थी. उसे लगा कि राजकुमारी उतनी ही साफ थी जितना दिखती थी.

उस ने कभी काम के अलावा कुछ बात करने की कोशिश नहीं की, जबकि उस के स्टार्टअप में हर लड़की हर दूसरेतीसरे हफ्ते कोई पर्सनल प्रौब्लम लिए खड़ी होती थी. राजकुमारी में उस ने जैसे कोई खास बात महसूस की थी. वह दिन में 2-3 बार उसे जरूर बुलाता. राजकुमारी की मौजूदगी उसे तड़पाने लगती थी. जब वह कमरे से चली जाती तो उस की पीड़ा और बढ़ जाती. वह अपनी मेज  पर सिर टेक देता और आंखें बंद हो जातीं. फिर वह सोचता कि यह उसे क्या  होता जा रहा है, वह क्यों दीवानगी के खयाल पालने लगा है? इसी तरह कई हफ्ते बीत गए. राजकुमारी को भी अब महसूस होने लगा था कि निर्मल कुमार उस में दिलचस्पी लेने लगा है. लेकिन वह जल्दी ही दिमाग से यह बात निकाल देती. वह अपने और निर्मल कुमार के बीच के फासले को जानती थी.

वह 12,000 रुपए पाने वाली मामूली नौकर थी और निर्मल कुमार करोड़ों का मालिक था. उस के दिल में निर्मल कुमार को पाने या अपनाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, क्योंकि उस का राजकुमार तो राजेश था, जो उस के दिल का मालिक था. उस का और राजेश का साथ उसी समय से था, जब वह 10वीं में पढ़ती थी. लगभग 10 साल पहले की सी ताजगी थी. फिलहाल दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी की परेशानियों में उलझे हुए थे. इसी कारण वे अपने सपनों की दुनिया को आबाद नहीं कर सके थे. राजेश भी बहुत सुंदर और गठीला नौजवान था. वह जहां काम करता था, वहां उस की बड़ी इज्जत थी. फैक्टरी का मालिक भी उस पर बहुत मेहरबान था. राजकुमारी और राजेश रोजाना शाम को किसी छोटे से ढाबे या पार्क में मिलते थे. वे देर तक बातें करते रहते थे. हर रोज एक ही परेशानी उन के सामने होती थी.

वे दोनों बातें कर के दिल की भड़ास निकाल लेते थे और अपने दुखों को जैसे बांट लेते थे.  ऐसा करने से उन को बड़ी शांति मिलती थी. कभीकभार जब मौका मिलता, तो दोनों एकदूसरे के साथ रातभर रहते, पर दोनों ने वादा कर रखा था कि वे पक्का शादी करेंगे. दोनों एक ही जाति के थे और घर वाले मंजूर कर लेंगे. यह भी उन्हें मालूम था. निर्मल कुमार ने एक रोज अपने दफ्तर के साथी लोगों को रात के खाने की दावत दी. नवंबर का महीना था. सर्दी शुरू हो चुकी थी. राजकुमारी पार्टी में आई, तो बादामी रंग की साड़ी पहने हुए थी. उस पर चौकलेटी रंग का शाल देखने वालों को बड़ी भली मालूम हो रही थी.  उस के अंगअंग से जवानी उबल रही थी. जब वह हंसती थी तो देखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाता था.

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

तुम टूट न जाना : बचपन की दोस्त से ले कर दिल की रानी तक कौन थी वाणी

‘हैलो… हैलो… प्रेम, मुझे तुम्हें कुछ बताना है.’

‘‘क्या हुआ वाणी? इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ फोन में वाणी की घबराई हुई आवाज सुन कर प्रेम भी परेशान हो गया.

‘प्रेम, तुम फौरन ही मेरे पास चले आओ,’ वाणी एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम अपनेआप को संभालो. मैं तुरंत तुम्हारे पास आ रहा हूं,’’ कह कर प्रेम ने फोन काट दिया. वह मोबाइल फोन जींस की जेब में डाल कर मोटरसाइकिल बाहर निकालने लगा.

वाणी और प्रेम के कमरे की दूरी मोटरसाइकिल से पार करने में महज 15 मिनट का समय लगता था. लेकिन जब कोई बहुत अपना परेशानी में अपने पास बुलाए तो यह दूरी मीलों लंबी लगने लगती है. मन में अच्छेबुरे विचार बिन बुलाए आने लगते हैं.

यही हाल प्रेम का था. वाणी केवल उस की क्लासमेट नहीं थी, बल्कि सबकुछ थी. बचपन की दोस्त से ले कर दिल की रानी तक.

दोनों एक ही शहर के रहने वाले थे और लखनऊ में एक ही कालेज से बीटैक कर रहे थे. होस्टल में न रह कर दोनों ने कमरे किराए पर लिए थे. लेकिन एक ही कालोनी में उन्हें कमरे किराए पर नहीं मिल पाए थे. उन की कोशिश जारी थी कि उन्हें एक ही घर में या एक ही कालोनी में किराए पर कमरे मिल जाएं, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ गुजार सकें.

बहुत सी खूबियों के साथ वाणी में एक कमी थी. छोटीछोटी बातों को ले कर वह बहुत जल्दी परेशान हो जाती थी. उसे सामान्य हालत में आने में बहुत समय लग जाता था. आज भी उस ने कुछ देखा या सुना होगा. अब वह परेशान हो रही होगी. प्रेम जानता था. वह यह भी जानता था कि ऐसे समय में वाणी को उस की बहुत जरूरत रहती है.

जैसे ही प्रेम वाणी के कमरे में घुसा, वाणी उस से लिपट कर सिसकियां भरने लगी. प्रेम बिना कुछ पूछे उस के सिर पर हाथ फेरने लगा. जब तक वह सामान्य नहीं हो जाती कुछ कह नहीं पाएगी.

वाणी की इस आदत को प्रेम बचपन से देखता आ रहा था. परेशान होने पर वह मां के आंचल से तब तक चिपकी रहती थी, जब तक उस के मन का डर न निकल जाता था. उस की यह आदत बदली नहीं थी. बस, मां का आंचल छूटा तो अब प्रेम की चौड़ी छाती में सहारा पाने लगी थी.

काफी देर बाद जब वाणी सामान्य हुई तो प्रेम उसे कुरसी पर बिठाते हुए बोला, ‘‘अब बताओ… क्या हुआ?’’

‘‘प्रेम, सामने वाले अपार्टमैंट्स में सुबह एक लव कपल ने कलाई की नस काट कर खुदकुशी कर ली. दोनों अलगअलग जाति के थे. अभी उन्होंने दुनिया देखनी ही शुरू की थी. लड़की

17 साल की थी और लड़का 18 साल का…’’ एक ही सांस में कहती चली गई वाणी. यह उस की आदत थी. जब वह अपनी बात कहने पर आती तो उस के वाक्यों में विराम नहीं होता था.

‘‘ओह,’’ प्रेम धीरे से बोला.

‘‘प्रेम, क्या हमें भी मरना होगा? तुम ब्राह्मण हो और मैं यादव. तुम्हारे यहां प्याजलहसुन भी नहीं खाया जाता. मेरे घर अंडामुरगा सब चलता है. क्या तुम्हारी मां मुझे कबूल करेंगी?’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो वाणी? मेरी मां तुम्हें कितना प्यार करती हैं. तुम जानती हो,’’ प्रेम ने उसे समझाने की भरपूर कोशिश की.

‘‘पड़ोसी के बच्चे को प्यार करना अलग बात होती?है, लेकिन दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने में सोच बदल जाती?है,’’ वाणी ने कहा.

वाणी की बात अपनी जगह सही थी. जो रूढि़वादिता, जातिधर्म के प्रति आग्रह इनसानों के मन में समाया हुआ है, वह निकाल फेंकना इतना आसान नहीं है. वह भी मिडिल क्लास सोच वाले लोगों के लिए.

प्रेम की मां भी अपने पंडित होने का दंभ पाले हुए थीं. पिता जनेऊधारी थे. कथा भी बांचते थे. कुलमिला कर घर का माहौल धार्मिक था. लेकिन वाणी के घर से उन के संबंध काफी घरेलू थे. एकदूसरे के घर खानापीना भी रहता था. यही वजह थी कि वाणी और प्रेम करीब आते गए थे. इतने करीब कि वे अब एकदूसरे से अलग होने की भी नहीं सोच सकते थे.

प्रेम को खामोश देख कर वाणी ने दोबारा कहा, ‘‘क्या हमारे प्यार का अंत भी ऐसे ही होगा?’’

‘‘नहीं, हमारा प्यार इतना भी कमजोर नहीं है. हम नहीं मरेंगे,’’ प्रेम वाणी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला.

‘‘बताओ, तुम्हारी मां इस रिश्ते को कबूल करेंगी?’’ वाणी ने फिर से पूछा.

‘‘यह मैं नहीं कह सकता लेकिन हम अपने प्यार को खोने नहीं देंगे,’’ प्रेम ने कहा.

‘‘आजकल लव कपल बहुत ज्यादा खुदकुशी कर रहे हैं. आएदिन ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मुझे भी डर लगता है,’’ वाणी अपना हाथ प्रेम के हाथ पर रखते हुए बोली. वह शांत नहीं थी.

‘‘तुम ने यह भी पढ़ा होगा कि उन की उम्र क्या थी. वे नाबालिग थे. वे प्यार के प्रति नासमझ होते हैं, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. हर चीज का एक समय होता है. समय से पहले किया गया काम कामयाब कहां होता है. पौधा भी लगाओ तो बड़ा होने में समय लगता है. तब फल आता है. अगर फल भी कच्चा तोड़ लो तो बेकार हो जाता है. उस पर भी आजकल के बच्चे प्यार की गंभीरता को समझ नहीं पाते हैं. एकदूसरे के साथ डेटिंग, फिर शादी. पर वे शादी के बाद की जिम्मेदारियां नकार जाते हैं.’’

‘‘यानी हम लोग पहले पढ़ाई पूरी करें, फिर नौकरी, उस के बाद शादी.’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘अब लेकिन, क्या?’’

‘‘तुम्हारी मां…’’

अब प्रेम को पूरी बात समझ में आई कि वाणी का डर उस की मां, समाज और जातपांत को ले कर था. थोड़ी देर चुप रह कर वह बोला, ‘‘कोई भी बदलाव विरोध के बिना वजूद में आया है भला? मां के मन में भी यह बदलाव आसानी से नहीं आएगा. मैं जानता हूं. लेकिन मां में एक अच्छी बात है. वे कोई भी सपना पहले से नहीं संजोतीं.

‘‘उन का मानना है कि समय बदलता रहता है. समय के मुताबिक हालात भी बदलते रहते हैं. पहले से देखे हुए सपने बिखर सकते हैं. नए सपने बन सकते हैं, इसलिए वे मेरे बारे में कोई सपना नहीं बुनतीं. बस वे यही चाहती हैं कि मैं पढ़लिख कर अच्छी नौकरी पाऊं और खुश रहूं.

‘‘वे मुझे पंडिताई से दूर रखना चाहती हैं. उन का मानना है कि क्यों हम धर्म के नाम पर पैसा कमाएं जबकि इनसानों को जोकुछ मिलता है, वह उन के कर्मों के मुताबिक ही मिलता है. क्या वे गलत हैं?’’

‘‘नहीं. विचार अच्छे हैं तुम्हारी मां के. लेकिन विचार अकसर हकीकत की खुरदरी जमीन पर ढह जाते हैं,’’ वाणी बोली.

‘‘शायद, तुम मेरे और अपने रिश्ते की बात को ले कर परेशान हो,’’ प्रेम ने कहा.

‘‘हां, जब भी कोई लव कपल खुदकुशी करता है तो मैं डर जाती हूं. अंदर तक टूट जाती हूं.’’

‘‘लेकिन, तुम तो यह मानती हो कि असली प्यार कभी नहीं मरता है और हमारा प्यार तो विश्वास पर टिका है. इसे शादी के बंधन या जिस्मानी संबंधों तक नहीं रखा जा सकता है.’’

तब तक प्रेम चाय बनाने लगा था. वह चाय की चुसकियों में वाणी की उलझनों को पी जाना चाहता था. हमेशा ऐसा ही होता था. जब भी वाणी परेशान होती, वह चाय खुद बनाता था. चाय को वह धीरेधीरे तब तक पीता रहता था, जब तक वाणी मुसकरा कर यह न कह दे, ‘‘चाय को शरबत बनाओगे क्या?’’

जब पे्रम को यकीन हो जाता कि वाणी नौर्मल?है, तब चाय को एक घूंट में खत्म कर जाता.

‘‘मैं अपनी थ्योरी पर आज भी कायम हूं. मैं ने तुम्हें प्यार किया है. करती रहूंगी. चाहे हमारी शादी हो पाए या नहीं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या…?’’ चाय का कप वाणी को थमाते हुए प्रेम ने पूछा.

‘‘लड़की हूं न, इसलिए अकसर शादी, घरपरिवार के सपने देख जाती हूं.’’

‘‘मैं भी देखता हूं… सब को हक है सपने देखने का. पर मुझे पक्का यकीन है कि ईमानदारी से देखे गए सपने भी सच हो जाते हैं.’’

‘‘क्या हमारे भी सपने सच होंगे…?’’ वाणी चाय का घूंट भरते हुए बोली.

‘‘हो भी सकते हैं. मैं मां को समझाने को कोशिश करूंगा. हो सकता है, मां हम लोगों का प्यार देख कर मान जाएं.’’

‘‘न मानीं तो…?’’ यह पूछते हुए वाणी ने अपनी नजरें प्रेम के चेहरे पर गढ़ा दीं.

‘‘अगर वे न मानीं तो हम अच्छे दोस्त बन कर रहेंगे. हमारे प्यार को रिश्ते का नाम नहीं दिया जा सकता तो मिटाया भी नहीं जा सकता. हम टूटेंगे नहीं.

‘‘तुम वादा करो कि अपनी जान खोने जैसा कोई वाहियात कदम नहीं उठाओगी,’’ कहते हुए प्रेम ने अपना दाहिना हाथ वाणी की ओर बढ़ा दिया.

‘‘हम टूटेंगे नहीं, जान भी नहीं देंगे. इंतजार करेंगे समय का, एकदूसरे का,’’ वाणी प्रेम का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर भींचती चली गई, कभी साथ न छोड़ने के लिए.

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