जरा सी आजादी- भाग 1: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

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कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

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हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

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‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

मेरा कुसूर क्या है: भाग 3

लेखक- एस भाग्यम शर्मा

जब तक मैं ने बीएड किया. मम्मी पूरे साल इन्हीं चक्करों में पड़ी रहीं और रुपयों को बरबाद करती रहीं. पापा बहुत नाराज होते. मम्मी कभीकभी उन से छिप कर ऐसे काम करने लगीं कि मेरे मम्मीपापा में भी तकरार होने लगी.

पंडितों और ज्योतिषियों ने मम्मी से कह दिया कि इन का डाइवोर्स कभी नहीं होगा. ये दोनों हमेशा साथ रहेंगे, तो मम्मी को विश्वास हो गया कि सब ठीक हो जाएगा.

मु झे लगता कि इन सब का कारण मैं ही हूं. मु झे खुद पर शर्म महसूस होती.

फिर भी मैं राजीव के साथ जाने को तैयार नहीं थी. पर ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान…’ कुछ लोग भी बीच में पड़ कर मु झे सम झौता करने के लिए मजबूर करने लगे.

मेरे पापा की हालत भी ठीक नहीं थी. उस का दोष भी मेरा भाई मु झ पर ही मढ़ना चाहता था.

मेरा बीएड पूरा हो चुका था और राजीव ने अपना ट्रांसफर दूसरे प्रदेश में करा लिया था ताकि दोनों फैमिली का हस्तक्षेप न रहे.

मु झे नौकरी करने की परमिशन मिल गई थी. शहर भी बड़ा था तो मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई.

वहां पर मु झे तुरंत नौकरी मिल गई. अच्छी नौकरी थी. मेरा बेटा भी मेरे साथ ही जाने लगा. पर राजीव अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. हरेक बात पर लड़ाई झगड़ा करना, बातबात पर हाथ उठाना उन के लिए बड़ी बात नहीं थी.

अब मैं मां को पत्र लिख सकती थी. स्कूल जाने से मेरा मन भी बदल गया था. इन बातों को मैं ने बड़ा नहीं लिया. मैं ने भी सोचा कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

इस बीच, मैं फिर प्रैग्नैंट हो गई. एक बार तो गर्भपात करा दिया. जब दूसरी बार प्रैग्नैंट हुई तो गर्भपात कराने के लिए मैं ने ही मना कर दिया.

पापा को लगता कि मम्मी मु झे ससुराल में रहने नहीं देतीं. पर ऐसी बात नहीं थी. पापा और मम्मी के बीच में तकरारें होने लगीं. मम्मी मेरी बहुत चिंता करतीं.

मु झे सर्विस करने की परमिशन तो दे दी पर जौइंट अकाउंट में पैसा जमा होता था, जिस में से मैं निकाल नहीं सकती. राजीव सब ले कर खर्च कर देते. मैं कुछ नहीं कर पाती.

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मु झे अपने खर्चे के लिए उन के आगे हाथ फैलाना पड़ता. घर की सारी जरूरतें मेरी सैलरी से ही पूरी करते. कह दूं तो लड़ाई झगड़ा होता.

जब डिलीवरी कराने की बात आई, फिर पीहर ही गई. मांबाप तो मजबूर थे. एक बच्चा और पैदा हो गया. अब हम 4 लोग हो गए.

इस बीच, पापा का देहांत हो गया. मम्मी पढ़ीलिखी, सक्षम थीं. पर भैया ने घर की बागडोर अपने हाथों में ले ली. मम्मी ऐसी परिस्थिति में डिप्रैशन में रहने लगीं.

मु झे लगा ऐसी परिस्थिति में मैं यहां से चली जाऊं तो ज्यादा ठीक है. राजीव तो बुला ही रहे थे.

मैं ने मम्मी से कहा, ‘मम्मी, आप मेरी प्रेरणास्रोत हो. आप सम झदार हो. मैं भी पढ़ीलिखी हूं. मैं अपनेआप को संभाल लूंगी. आप मेरी चिंता मत करो. मैं जा रही हूं. आप अपनेआप को संभालो.’

मम्मी धीरेधीरे अपनेआप को संभालने लगीं. पर मैं ने कोई भी शिकायत राजीव की मम्मी से नहीं की.

मेरी तकलीफें दिनप्रतिदिन बढ़ती रहीं. राजीव का ट्रांसफर अलगअलग जगहों पर होता रहा. मु झे कई बोल्ड स्टैप उठाने पड़े. मैं जहां जाती थी, मु झे नौकरी आराम से मिल जाती थी. सो, नौकरी को ही अपना मनोरंजन सम झ कर मैं बराबर काम करती रही.

राजीव तो वैसे ही रहे, ‘अभी तक  झाड़ ू नहीं लगी. आज सिर क्यों नहीं धोया? आज तो चौथ का व्रत है. तुम्हारे संस्कार ठीक नहीं. तुम्हारी मां ने तुम्हें कुछ नहीं सिखाया, सुबह उठते ही पहले नहाना चाहिए, फिर रसोई में जाना चाहिए…’

अब मैं स्वयं 40 साल की हो गई थी. वे मेरी मम्मी के बारे में ही बोलते रहते हैं कि उन्होंने मु झे कुछ नहीं सिखाया. अब  तो मेरी बहू आने के दिन आ रहे हैं. पर क्या करूं…

मु झे 6:30 बजे सुबह स्कूल के लिए रवाना होना होता है. मैं नहाधो कर खाना बनाती तो पसीने से तरबतर हो जाती. ऐसी स्थिति में स्कूल जाना मुश्किल हो जाता. मगर यह बात उन के दिमाग में नहीं आती. घर में चाय के लिए दूध भले ही न हो, बच्चे के लिए दूध न हो पर एक लिटर दूध सोमवार को शिवमंदिर में चढ़ाने का ढकोसला जरूर करना है.

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पहले तो राजीव मु झे और बच्चों को भी साथ ले कर मंदिर जाते थे. वहां करीब एक घंटा लगता. हम बुरी तरह थक जाते. फिर बहुत कह कर मना किया.

मैं ने कहा, ‘आप को जो करना है करो, मैं मंदिर नहीं जाऊंगी.’

फिर ससुरजी ने कहा कि उस को नहीं जाना तो छोड़ दे. फिर इस से तो मु झे मुक्ति ही मिली.

राजीव तो अब भी, जब मेरे बच्चे बड़ेबड़े हो गए, यही कहते हैं, ‘‘मेरा दिया खाती हो, शर्म नहीं आती? निकल जा मेरे घर से.’’

अब निकल कर कहां जाऊंगी. मेरे बच्चे पढ़ रहे हैं. उन को बीच म झधार में छोड़ कर मैं कैसे जा सकती हूं.  बच्चों को तो मम्मी की आवश्यकता है न, मेरे भी अपने कर्तव्य हैं न.

मैं एक बच्चे का खर्चा स्वयं वहन करती हूं. इस के बाद भी मेरी इंसल्ट करता रहता है.

मैं समाज से नहीं डरती. उसे जो कहना है कहे. मु झे अपने बच्चों की चिंता है. कोर्टकेस, तलाक… इन सब के बीच में जो होशियार और होनहार बच्चे हैं उन का भविष्य मैं खराब नहीं करना चाहती. यही सोच कर मैं साथ रह रही हूं. जैसे ही मेरे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो सोचती हूं मैं अलग हो जाऊंगी. उस समय भी मेरे लिए संभव होगा, यह मैं वक्त पर छोड़ती हूं…

बहुत से लोग कहते हैं कि आजकल ऐसा नहीं होता. पढ़ीलिखी, आत्मनिर्भर लड़कियों के साथ ऐसा नहीं होता. अब मैं उन्हें क्या कहूं?

आज भी समाज में ऐसी बहुत लड़कियां हैं जो खून के आंसू रोती हैं पर दुनिया में अपने को प्रसन्न दिखाती हैं. उसी में से मैं भी एक हूं. जब तक पितृसत्तात्मक समाज रहेगा, लड़कियों के साथ ऐसा होता रहेगा.

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18वीं शताब्दी काल के मराठा वीर पेशवा बाजीराव (प्रथम) की प्रेयसी मस्तानी की तरह उसी शताब्दी काल में जोधपुर रियासत के नरेश महाराजा विजय सिंह की चहेती थी गुलाबराय पासवान. वह अद्वितीय सुंदर थी. न तो मस्तानी ही कभी विधिवत परंपरा के अनुसार बाजीराव के साथ विवाह रचा सकी और न ही गुलाबराय कभी विजय सिंह की पत्नी का दरजा पा सकी. जोधपुर रियासत में गुलाबराय का सिक्का चलता था.

गुलाबराय ने जोधपुर में कई अहम विकास कार्य करवाए. उस की सलाह के बिना विजय सिंह कोई भी कार्य नहीं करवाते थे. गुलाबराय ने पानी की समस्या दूर करने के लिए परकोटे के भीतर गुलाबसागर बनवाया. इस के अलावा कुंजबिहारी मंदिर, महिला बाग, गिरदीकोट आदि का निर्माण भी गुलाबराय की प्रेरणा से हुआ था. वहीं सोजत शहर का परकोटा और जालौर किले में कुछ निर्माण भी उन्होंने करवाया था.

महाराजा विजय सिंह का गुलाबराय से अत्यधिक प्रेम था, इस के चलते उन्होंने अपनी अन्य सभी रानियों को नाराज तक कर लिया था. गुलाबराय के मुंह से निकला हर वाक्य राजा का आदेश बन गया था. गुलाबराय बुद्धिमान और सरल हृदय की थी. उस ने वैष्णव धर्म को अपना रखा था. गुलाबराय ने राजा के माध्यम से पूरी रियासत में वैष्णव धर्मावलंबियों के नियमउपनियम लागू कर रखे थे.

गुलाबराय की इच्छा से राज्य में पशुवध पर सख्ती से पाबंदी लगी. इस आज्ञा का पालन नहीं करने वालों को किले में बुला कर मृत्युदंड दिया जाता था.

जोधपुर राजमहल की रानियों और रियासत के पंडितों ने गुलाबराय के साथ महाराजा विजय सिंह के संबंधों को स्वीकृति नहीं दी. गुलाबराय के बढ़ते प्रभाव से राजकुमार और राजपूत सरदार अकसर नाराज रहते थे. राजमहल गुलाबराय के विरोध में था और यहां अकसर षडयंत्र रचे जाने लगे. आखिर एक रात सरदारों ने गुलाबराय की हत्या करवा दी.

महाराजा विजय सिंह और गुलाबराय पासवान महाराजा के छोटे बेटे मानसिंह को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे. मगर पोकरण ठाकुर सवाईसिंह आदि बड़े बेटे कुंवर भीमसिंह के पक्ष में थे. इसीलिए महाराजा के निर्णय से नाराज सरदारों ने गुलाबराय पासवान की हत्या कर दी थी. महाराजा विजय सिंह को इस से बड़ा आघात लगा था.

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उन्हीं दिनों एक रोज महाराजा विजय सिंह की गैरमौजूदगी में भीमसिंह ने दुर्ग और नगर पर अधिकार कर लिया, लेकिन महाराजा के पुन: लौटने पर भीमसिंह को दुर्ग छोड़ कर भागना पड़ा था. महाराजा विजय सिंह ने उस का पीछा करने के लिए सेना भी भेजी. फिर झंवर के पास महाराजा की सेना और भीमसिंह की सेना के बीच युद्ध भी हुआ. लेकिन पोकरण ठाकुर सवाईसिंह भीमसिंह को ले कर पोकरण चले गए. इस के बाद जब सवाईसिंह तथा भीमसिंह को मारवाड़ में अपना जीवन संकट में दिखाई दिया तो वे जैसलमेर चले आए.

जैसलमेर महारावल मूलराज ने उन्हें अत्यंत आदर सहित शरण दी. थोड़ा समय बीता ही था कि जैसलमेर खबर पहुंची कि जोधपुर के मेहते सिंघवी के नीचे लगभग 100 की संख्या में जोधपुर फौज ने बीजोराई गांव पर कब्जा कर लिया है और जोधपुर की

इस सेना का इरादा जैसलमेर की तरफ बढ़ने का है.

कुंवर भीमसिंह को शरण देने के कारण जोधपुर की सेना ने आक्रमण तो नहीं कर दिया.

इस समाचार ने महारावल मूलराज को हतप्रभ कर दिया. वह सोचने लगे कि जोधपुर ने ऐसा क्यों किया? हमारा तो उन से कोई बैर नहीं है? फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया.

‘‘हम ने भीमसिंह जी को शरण दी है हुकुम.’’ दीवान ने कहा.

‘‘मांगने वाले को शरण देना हमारा धर्म है और उस की अंतिम सांस तक रक्षा करना हमारा फर्ज है.’’ महाराज मूलराज ने कहा, ‘‘आप मुकाबले की तैयारी करो. हां, सेनापति जोरावर सिंह कहां है?’’

‘‘हुकुम वह पासवानजी के डेरे पर हैं.’’ दीवान बोला.

‘‘उन्हें तुरंत बुलाओ.’’

हलकारा पासवान के डेरे पर गया और सेनापति जोरावर सिंह को बुला लाया. जोरावर के आने की हलकारे ने सूचना दी.

महारावल मूलराज ने सेनापति जोरावर सिंह से कहा, ‘‘जोरावर, जोधपुर रियासत ने हम पर हमला कर दिया है. बीजोराई गांव पर उन्होंने कब्जा कर लिया है जो काम करना है फटाफट कर के युद्ध की तैयारी करो.’’

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इस के बाद हाबुर ऊबड़ों की 200 की फौज जैसलमेर बुलाई गई. एक ऊंट सवार उसी समय हाबुर गया और अगले दिन ऊबड़ भाटियों की फौज जैसलमेर आ गई.

दूसरे दिन हथियार तैयार करवाए गए. बारूद की कूडि़यां, पेटियां, तलवारें, तोपें, घोड़े, ऊंट, खानेपीने का सामान सारी तैयारी की गई. रात होने तक सारी फौज आ गई. राज रसोड़े से खानापीना हुआ. ऊंट और घोड़ों के लिए चारा, दाना, पानी का इंतजाम हुआ. रात में थोड़ा आराम कर के और भोर होते ही पूजाअर्चना हुई. योद्धाओं की आरती उतारी गई और ‘लक्ष्मीनाथ की जय’ और ‘स्वांगियां देवी की जय’ के साथ फौज को खुद महारावल मूलराज ने विदा किया.

नादानियां- भाग 2: उम्र की इक दहलीज

लगभग महीनेभर की प्रैक्टिस के बाद प्रथमा ठीकठाक कार चलाने लगी थी. एक दिन उस ने भी राकेश के ही अंदाज में कहा, ‘‘जहांपनाह, कनीज आप को गुरुदक्षिणा देने की चाह रखती है.’’ ‘‘हमारी दक्षिणा बहुत महंगी है बालिके,’’ राकेश ने भी उसी अंदाज

में कहा. ‘‘हमें सब मंजूर है, गुरुजी,’’ प्रथमा ने अदब से झुक कर कहा तो राकेश को हंसी आ गई और यह तय हुआ कि आने वाले रविवार को सब लोग चाट खाने बाहर जाएंगे.

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चूंकि ट्रीट प्रथमा के कार चलाना सीखने के उपलक्ष्य में थी, इसलिए आज कार वही चला रही थी. रितेश अपनी मां के साथ पीछे वाली सीट पर और राकेश उस की बगल में बैठा था. आज प्रथमा को गुडफील हो रहा था. चाट खाते समय जब रितेश अपनी मां को मनुहार करकर के गोलगप्पे खिला रहा था तो प्रथमा को बिलकुल भी बुरा नहीं लग रहा था बल्कि वह तो राकेश के साथ ही ठेले पर आलूटिकिया के मजे ले रही थी. दोनों एक ही प्लेट में खा रहे थे. अचानक मुंह में तेज मिर्च आ जाने से प्रथमा सीसी करने लगी तो राकेश तुरंत भाग कर उस के लिए बर्फ का गोला ले आया. थोड़ा सा चूसने के बाद जब उस ने गोला राकेश की तरफ बढ़ाया तो राकेश ने बिना हिचक उस के हाथ से ले कर गोला चूसना शुरू कर दिया. न जाने क्या सोच कर प्रथमा के गाल दहक उठे. आज उसे लग रहा था मानो उस ने अपने मिशन में कामयाबी की पहली सीढ़ी पार कर ली.

इस रविवार राकेश को अपने रूटीन हैल्थ चैकअप के लिए जाना था. रितेश औफिस के काम से शहर से बाहर टूर पर गया है. राकेश ने डाक्टर से अगले हफ्ते का अपौइंटमैंट लेने की बात कही तो प्रथमा ने कहा, ‘‘रितेश नहीं है तो क्या हुआ? मैं हूं न. मैं चलूंगी आप के साथ. हैल्थ के मामले में कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.’’ दोनों ससुरबहू फिक्स टाइम पर क्लिनिक पहुंच गए. वहां आज ज्यादा पेशेंट नहीं थे, इसलिए वे जल्दी फ्री हो गए. वापसी में घर लौटते हुए प्रथमा ने कार मल्टीप्लैक्स की तरफ घुमा दी. तो राकेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कुछ काम है क्या यहां?’’

‘‘जी हां, काम ही समझ लीजिए. बहुत दिनों से कोई फिल्म नहीं देखी थी. रितेश को तो मेरे लिए टाइम नहीं है. एक बहुत ही अच्छी फिल्म लगी है, सोचा आज आप के साथ ही देख ली जाए,’’ प्रथमा ने गाड़ी पार्किंग में लगाते हुए कहा. राकेश को उस के साथ यों फिल्म देखना कुछ अजीब सा तो लग रहा था मगर उसे प्रथमा का दिल तोड़ना भी ठीक नहीं लगा, इसलिए फिल्म देखने को राजी हो गया. सोचा, ‘सोचा बच्ची है, इस का भी मन करता होगा…’

प्रथमा की बगल में बैठा राकेश बहुत ही असहज सा महसूस कर रहा था, क्योंकि बारबार सीट के हत्थे पर दोनों के हाथ टकरा रहे थे. उस से भी ज्यादा अजीब उसे तब लगा जब उस के हाथ पर रखा अपना हाथ हटाने में प्रथमा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि बहुत ही सामान्य भाव से फिल्म का मजा लेती रही. उन्होंने ही धीरे से अपना हाथ हटा लिया. ऐसा ही एक वाकेआ उस दिन भी हुआ जब प्रथमा उसे पिज्जा हट ले कर गई थी. दरअसल, उन की बड़ी बेटी पारुल की ससुराल घर से कुछ ही दूरी पर है. पिछले दिनों पारुल के ससुरजी ने अपनी आंख का औपरेशन करवाया था. आज शाम राकेश को उन से मिलने जाना था. प्रथमा ने पूछा, ‘‘मैं भी आप के साथ चलूं? इस बहाने शहर में मेरी कार चलाने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी.’’ सास से अनुमति मिलते ही प्रथमा कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ कर राकेश के साथ चल दी. वापसी में उस ने कहा, ‘‘चलिए, आज आप को पिज्जा हट ले कर चलती हूं.’’

‘‘अरे नहीं, तुम तो जानती हो कि मुझे पिज्जा पसंद नहीं,’’ राकेश ने टालने के अंदाज में कहा. ‘‘आप से पिज्जा खाने को कौन कह रहा है. वह तो मुझे खाना है. आप तो बस पेमैंट कर देना,’’ प्रथमा ने अदा से मुसकराते हुए कहा. न चाहते हुए भी राकेश को गाड़ी से उतरना ही पड़ा. पास आते ही प्रथमा ने अधिकार से उस की बांहों में बांहें डाल कर जब कहा, ‘‘दैट्स लाइक अ परफैक्ट कपल,’’ तो राकेश से मुसकराते भी नहीं बना.

पिज्जा खातेखाते प्रथमा बीचबीच में उसे भी आग्रह कर के खिला रही थी. मना करने पर भी जबरदस्ती मुंह में ठूंस देती. राकेश समझ नहीं पा रहा था कि उस के साथ क्या हो रहा है. वह प्रथमा की इस हरकत को उस का बचपना समझ कर नजरअंदाज करता रहा. प्रथमा कुछ और जिद करे, इस से पहले ही वह रितेश का फोन आने का बहाना बना कर उसे घर ले आया.

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‘‘यह देखिए. मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं,’’ प्रथमा ने एक दिन राकेश को एक पैकेट पकड़ाते हुए कहा. ‘‘क्या है यह?’’ राकेश ने उसे उलटपलट कर देखा.

‘‘यह है ज्ञान का खजाना यानी बुक्स. आज से हम दोनों साथसाथ पढ़ेंगे,’’ प्रथमा ने नाटकीय अंदाज में कहा. वह जानती थी कि नौवेल्स पढ़ना राकेश की कमजोरी है. राकेश ने एक छोटी सी लाइब्रेरी भी घर में बना रखी थी और सब को सख्त हिदायत थी कि जब वह लाइब्रेरी में हो तो कोई भी उसे डिस्टर्ब न करे. मगर अब प्रथमा का भी दखल उस में होने लगा था. शाम का वह समय जो वे दोनों कार चलाना सीखने को जाया करते थे, अब बंद लाइब्रेरी में किताबों को देने लगे. राकेश ने जब प्रथमा के लाए नौवेल्स को पढ़ना शुरू किया तो उसे महसूस हुआ कि इन में लगभग सभी नौवेल्स में एक बात कौमन थी. वह यह कि सभी में घुमाफिरा कर विवाहेतर संबंधों की वकालत की गई थी. विभिन्न परिस्थितियों में नजदीकी रिश्तों में बनने वाले इन ऐक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन को अपराध या आत्मग्लानि की श्रेणी से बाहर रखा गया था. एक दिन तो राकेश से कुछ भी कहते नहीं बना जब प्रथमा ने ऐसे ही एक किराएदार का उदाहरण दे कर उस से पूछा जिस के अजीबोगरीब हालात में अपनी बहू से अंतरंग संबंध बन गए थे, ‘‘मुझे लगता है इस का फैसला गलत नहीं था. आप इस की जगह होते तो क्या करते?’’

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 5

‘‘कुछ समय बाद मैं और तुम सेवानिवृत्त हो गए. मैं अब वकील साहिबा को देखने के लिए नियमितरूप से मानसिक अस्पताल जाने लगा और उन के साथ काफी समय गुजारने लगा. एक दिन अस्पताल की डाक्टर ने मुझ से कहा, ‘देखिए, अब वह बिलकुल स्वस्थ हो गई है. वह वकालत फिर से कर पाएगी, यह तो नहीं कहा जा सकता मगर एक औरत की सामान्य जिंदगी जी पाएगी, बशर्ते उसे एक मित्रवत व्यक्ति का सहारा मिल सके जो उसे यह यकीन दिला सके कि वह उसे तन और मन से संरक्षण दे सकता है.

‘‘पत्नी की मृत्यु के बाद मैं ने अपनी संतानों द्वारा मुझे लगभग पूरी तरह इग्नोर कर दिए जाने के चलते गहराए अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए उन का दिल से मित्र बनने का संकल्प लिया. इस बारे में बच्चों से बात की, तो पुत्र ने तो केवल इतना कहा, ‘आप तो हमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक नैतिकता की बातें सिखाया करते थे, अब हम क्या कहें.’ मगर बड़ी पुत्री ने कहा, ‘आया का देर से आने की सूचना देने के बावजूद आप का औफिस चले जाना और इस बीच उसी दिन मम्मी की दवाइयों का असर समय से पहले ही खत्म होने के कारण उन का बीच में जाग जाना व अपनी दवाइयां घातक होने की हद तक अपनेआप खा लेना पता नहीं कोई कोइंसीडैंट था या साजिश. ऐसी क्या मजबूरी थी कि आप पूरे दिन की नहीं, तो आधे दिन की छुट्टी नहीं ले सके उस दिन. लगता है मम्मी ने डिप्रैशन में नींद की गोलियों के साथ ब्लडप्रैशर कम करने की गोलियां इतनी ज्यादा तादाद में खुद नहीं ली थीं. किसी ने उन्हें जान कर और इस तरह दी थीं कि लगे कि ऐसा उन्होंने डिप्रैशन की हालत में खुद यह सब कर लिया.’

‘‘यह सुन कर तो मैं स्तब्ध ही रह गया. छोटी पुत्री ने, ‘अब मैं क्या कहूं, आप हर तरह आजाद हैं. खुद फैसला कर लें,’ जैसी प्रतिक्रिया दी. तो एक बार तो लगा कि पत्नी की बची पड़ी दवाइयों की गोलियां मैं भी एकसाथ निगल कर सो जाऊं, मगर यह सोच कर कि इस से किसी को क्या फर्क पड़ेगा, इरादा बदल लिया और पिछले कुछ दिनों से सब से अलग इस गैस्टहाउस में रहने लगा हूं. परिचितों को इसी उपनगर में चल रहे किसी धार्मिक आयोजन में व्यस्त होने की बात कह रखी है.’’ यह सब कह कर मेरे मित्र शायद थक कर खामोश हो गए.

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काफी देर मौन पसरा रहा हमारे बीच, फिर मित्र ने ही मौन भंग किया, और बड़े निर्बल स्वर में बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि तुम बताओ, मैं क्या करूं?’’

मित्र के सवाल करने पर मुझे अपना फैसला सुनाने का मौका मिल गया. सो, मैं बोला, ‘‘अभिनव तुम्हें क्या करना है, तुम दोनों अकेले हो. वकील साहिबा के अंदर की औरत को तुम ने ही जगाया था और उन के अंदर की जागी हुई औरत ने तुम्हारे हताशनिराश जीवन में नई उमंग पैदा की और तुम्हारे परिवार को तनमन से अपने प्यार व सेवा का नैतिक संबल दे कर टूटने से बचाया. ऐसे में उसे जीवन की निराशा से टूटने से उबार कर नया जीवन देने की तुम्हारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है. उस के द्वारा तुम्हारे परिवार पर किए गए एहसानों को चुकाने का समय आ गया है. तुम वकील साहिबा से रजिस्ट्रार औफिस में बाकायदा विवाह करो, जिस से वे तुम्हारी विधिसम्मत पत्नी का दर्जा पा सकें और भविष्य में कभी भी तुम्हारी संतानें उन्हें सता न सकें. तुम्हारे संतानों की अब अपनी दुनिया है, उन्हें उन की दुनिया में रहने दो.’’

मेरी बात सुन कर मित्र थोड़ी देर कुछ फैसला लेने जैसी मुद्रा में गंभीर रहे, फिर बोले, ‘‘चलो, उन के पास अस्पताल चलते हैं.’’

मित्र के साथ अस्पताल पहुंच कर डाक्टर से मिले, तो उन्होंने सलाह दी कि आप उन के साथ एक नई जिंदगी शुरू करेंगे, इसलिए उन्हें जो भी दें, वह एकदम नया दें और अपनी दिवंगत पत्नी के कपड़े या ज्वैलरी या दूसरा कोई चीज उन्हें न दें. साथ ही, कुछ दिन उस पुराने मकान से भी कहीं दूर रहें, तो ठीक होगा.

डाक्टर से सलाह कर के और उन्हें कुछ दिन अभी अस्पताल में ही रखने की अपील कर के हम घर लौटे तो पड़ोसी ने घर की चाबी दे कर बताया कि उन की छोटी बेटी सरकारी गाड़ी में थोड़ी देर पहले आई थी. आप द्वारा हमारे पास रखाई गई घर की चाबी हम से ले कर बोली कि उन्होंने मां की मृत्यु के बाद आप को अकेले नहीं रहने देने का फैसला लिया है, और काफी बड़े सरकारी क्वार्टर में वह अकेली ही रहती है, इसलिए अभी आप का कुछ जरूरी सामान ले कर जा रही है. आप ने तो कभी जिक्र किया नहीं, मगर बिटिया चलते समय बातोंबातों में इस मकान के लिए कोई ग्राहक तलाशने की अपील कर गई है.

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ताला खोल कर हम अंदर घुसे तो पाया कि प्रशासनिक अधिकारी पुत्री उन के जरूरी सामान के नाम पर सिर्फ उन की पत्नी का सामान सारे वस्त्र, आभूषण यहां तक कि उन की सारी फोटोज भी उतार कर ले गई थी. एक पत्र टेबल पर छोड़ गई थी. जिस में लिखा था, ‘हम अपनी दिवंगता मां की कोई भी चीज अपने बाप की दूसरी बीवी के हाथ से छुए जाना भी पसंद नहीं करेंगे. इसलिए सिर्फ अपनी मां के सारे सामान ले जा रही हूं. आप का कोईर् सामान रुपयापैसा मैं ने छुआ तक नहीं है. मगर आप को यह भी बताना चाहती हूं कि अब हम आप को इस घर में नहीं रहने देंगे. भले ही यह घर आप के नाम से है और बनवाया भी आप ने ही है, मगर इस में हमारी मां की यादें बसी हैं. हम यह बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे बाप की दूसरी बीवी इस घर में हमारी मां का स्थान ले. आप समझ जाएं तो ठीक है. वरना जरूरत पड़ी तो हम कानून का भी सहारा लेंगे.’

पत्र पढ़ कर मित्र कुछ देर खिन्न से दिखे. तो मैं ने उन्हें थोड़ा तसल्ली देने के लिए फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर उन्हें थोड़ा पानी पीने को कहा तो वे बोले, ‘‘आश्चर्य है, तुम मुझे इतना कमजोर समझ रहे हो कि मैं इस को पढ़ कर परेशान हो जाऊंगा. नहीं, पहले मैं थोड़ा पसोपेश में था, मगर अब तो मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं इस मकान को जल्दी ही बेच दूंगा. पुत्री की धमकी से डर कर नहीं, बल्कि अपने फैसले को पूरा करने के लिए. इस की बिक्री से प्राप्त रकम के 4 हिस्से कर के 3 हिस्से पुत्र और पुत्रियों को दे दूंगा, और अपने हिस्से की रकम से एक छोटा सा मकान व सामान्य जीवन के लिए सामान खरीदूंगा. उस घर से मैं उन के साथ नए जीवन की शुरुआत करूंगा. मगर तब तक तुम्हें यहीं रुकना होगा. तुम रुक सकोगे न.’’ कह कर उन्होंने मेरा साथ पाने के लिए मेरी ओर उम्मीदभरी नजर से देखा. मेरी सांकेतिक स्वीकृति पा कर वे बड़े उत्साह से, ‘‘किसी ने सही कहा है, अ फ्रैंड इन नीड इज अ फ्रैंड इनडीड,’’ कहते हुए कमरे के बाहर निकले, दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी पड़ोसी को दी और सड़क पर आ गए. नई जिंदगी की नई राह पर चलने के उत्साह में उन के कदम बहुत तेजी से बढ़ रहे थे.

जरा सी आजादी- भाग 2: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘नेहाजी, क्या बात है? कोई परेशानी है?’’

गरदन हिला दी नेहा ने, न ‘न’ में न ‘हां’ में. कंधे पर हाथ रखा उस ने. सहसा रोना निकल गया. उस के साथ ही चली आई वह भीतर.

‘‘घर इतना बंदबंद क्यों रखा है? खिड़कियांदरवाजे खोलो न. ताजी हवा अंदर आने दो. उस दिन आईं क्यों नहीं?’’ सहसा थोड़ा रुक कर पूछा.

आंखें मिलीं नेहा से. भीगी आंखों में न जाने क्या था, न कुछ कहा न कुछ सुना. नेहा ने नहीं, शायद आने वाली महिला ने ही एक नाता सा बांध लिया.

‘‘मेरा नाम शुभा है. तुम मुझे जैसे चाहो पुकार सकती हो. दीदी कहो, भाभी कहो, नाम भी ले सकती हो. मेरी उम्र 53 साल है, हिसाब लगा लो, कैसे बुलाना चाहती हो. तुम छोटी लग रही हो मुझ से.’’

‘‘जी, मेरी उम्र 50 साल है.’’

‘‘वैसे किसी खूबसूरत महिला से उस की उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए थी मगर महिला तुम जैसी हो तो कहना ही क्या, जो खुद अपने को 50 की बता रही हो. तुम इतनी बड़ी तो नहीं लगती हो. मैं नाम ले कर पुकारूं? नेहा पुकारूं तुम्हें?’’

‘‘जी, जैसा आप को अच्छा लगे.’’

‘‘मुझे अच्छा लगे क्यों. तुम्हें क्या अच्छा लगता है, यह तो बताओ.’’

चुप रही नेहा. शुभा ने कंधे पर हाथ रखा. झिलमिलझिलमिल करती आंखों में ढेर सारा नमकीन पानी शुभा को न जाने क्याक्या बता गया.

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‘‘जो तुम्हें अच्छा लगे मैं वही पुकारूंगी तुम्हें. तुम से पहले जो इस घर में रहती थी उस से मेरा बहुत प्यार था. यह घर मेरे लिए पराया नहीं है, उसी अधिकार से चली आई हूं. मीरा नाम था उस का जो यहां रहती थी. बहुत प्यारी सखी थी वह मेरी. तुम भी उतनी ही प्यारी हो. जरा दरवाजे- खिड़कियां तो खोलो.’’

‘‘उन को दरवाजेखिड़कियां खोलना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘उन को किसी के साथ हंसनाबोलना भी पसंद है कि नहीं? उस दिन तुम किट्टी पार्टी में भी नहीं आईं.’’

‘‘उन्हें किट्टी डालना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे कहां हैं. बाहर होस्टल में पढ़ते हैं क्या?’’

‘‘एक ही बेटा है. अभी 4 महीने पहले ही उस की शादी हुई है.’’

‘‘अरे वाह, सास हो तुम. सास हो कर भी उदास हो. भई, बहू को 2-4 जलीकटी सुनाओ, अपनी भड़ास निकालो और खुश रहो. टीवी सीरियल में यही तो सिखाते हैं. शादी होती है, उस के बाद एक तो रोती ही रहती है, या बहू रुलाती है या सास. तुम्हारे यहां क्या सीन है?’’

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‘‘मैं तो यहां अकेली हूं. बहू आगरा में है. दूरदूर रहना है जब, तब लड़ाई कैसी?’’

‘‘बहू तुम ने पसंद की थी या भाईसाहब ने?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. उन दोनों ने ही एकदूसरे को पसंद कर लिया था.’’

‘‘चलो, मेहनत कम हुई. मुझे तो अपने बच्चों के लिए साथी ही ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. कहीं परिवार अच्छा नहीं था, कहीं लड़की पसंद नहीं आती थी.’’

शुभा ने धीरेधीरे घर की खिड़कियां खोलनी शुरू कर दीं. ताजी हवा घर में आने लगी.

‘‘आज खाने में क्या बनाया था तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ नहीं, मतलब. भूखी हो सुबह से? अभी शाम के 6 बज रहे हैं. तुम ने कुछ भी खाया नहीं है.’’

शुभा ने हाथ पकड़ा नेहा का. रोक कर रखा बांध बह निकला. एक अनजान पड़ोसन के गले लग नेहा फूटफूट कर रो पड़ी. शुभा भी उस का माथा सहलाती रही.

‘‘चलो, तुम्हारी रसोई में चलें. बेसन है न घर में. पकौड़े बनाते हैं. आटा तो गूंध रखा होगा, चपाती के साथ पकौड़े और गरमगरम चाय पीते हैं.’’

आननफानन ही सब हो गया. आधे घंटे के बाद ही दोनों मेज पर बैठी चाय पी रही थीं.

‘‘क्यों इतना उदास हो, नेहा? खुश होना चाहिए तुम्हें. नए शहर में आई हो, उदासी स्वाभाविक है, मैं मानती हूं मगर इतनी नहीं कि भूखे ही मरने लगो. एक ही बच्चा है जिसे पालपोस दिया, उस का घर बसा दिया. तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया, और क्या चाहिए?’’

‘‘बहुत खालीपन लगता है, दीदी. जी चाहता है कि अपने साथ कुछ कर लूं. जीवन और क्यों जीना, अब क्या करना है मुझे, किसे मेरी जरूरत है?’’

‘‘अपने साथ कुछ कर लूं, क्या मतलब?’’ शुभा का स्वर तनिक ऊंचा हो गया.

‘‘कुछ खा कर मर जाऊं.’’

‘‘क्या?’’ अवाक् रह गई शुभा. अनायास उस के सिर पर चपत लगा दी.

‘‘पागल हो क्या. अपने परिवार और अपनी बहू को सजा देना चाहती हो क्या? मर कर उन का क्या बिगाड़ लोगी. तुम्हें क्या लगता है वे उम्रभर रोते रहेंगे? जो जाएगा तुम्हारा जाएगा, किसी का क्या जाएगा.

खालीपन लगता है तो क्या मर कर भरोगी उसे? पति, बेटा और बहू के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ है, नेहा. तुम्हारे पास तुम हो, अपनी इज्जत करना सीखो. पति को खिड़की खोलना पसंद नहीं तो तुम खिड़कीदरवाजे बंद कर के बैठी हो. पति को किट्टी डालना पसंद नहीं तो उस दिन तुम मेरे घर ही नहीं आईं. इतना कहना क्यों मान रही हो कि घुट कर मर जाओ?’’

‘‘शुरू से… शुरू से ऐसा ही है. मैं चाहती थी दूसरा बच्चा हो, ये माने ही नहीं. जीवन में मैं ने तो कभी सांस भी खुल कर नहीं ली. सोचा था मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाऊंगी, सोचा था बेटी की इच्छा पूरी हो जाएगी. बेटे ने अपनी पसंद की ढूंढ़ ली. मेरी पसंद मन में ही रह गई.’’

‘‘अच्छा किया बेटे ने. अपनी पसंद से तो जी रहा है न. क्या चाहती हो कि आज से 20-30 साल बाद वह भी वही भाषा बोले जो आज तुम बोल रही हो. तुम आज कह रही हो न अपने तरीके से जी नहीं पाई, क्या चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा भी तुम्हारी तरह अपना जीवन खालीपन से भरा पाए. अपनी पसंद से जी नहीं पाई और मर जाना चाहती हो. क्या तुम्हारा बच्चा भी…’’

‘‘नहीं… नहीं तो दीदी,’’ सहसा जैसे कुछ कचोटा नेहा को, ‘‘मेरे बच्चे को मेरी उम्र भी लग जाए.’’

‘‘अपने बच्चे को अपनी उम्र देना चाहती हो लेकिन चैन से जीने देना नहीं चाहती. कैसी मां हो? मर कर उम्रभर का अपराधबोध देना चाहती हो. तुम तो मर कर चली जाओगी लेकिन तुम्हारा परिवार चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए उम्रभर किसकिस के प्रश्न का उत्तर देता रहेगा. अरे, मन में जो है आज ही कह कर भड़ास निकाल लो. सुन लो, सुना दो, किस्सा खत्म करो और जिंदा रहो.’’

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सहसा शुभा का हाथ नेहा के हाथ पर पड़ा. कलाई में रूमाल बांध रखा था नेहा ने.

‘‘यह क्या हुआ, जरा दिखाना तो,’’ झट से रूमाल खींच लिया. हाथ सीधा किया, ‘‘अरे, यह क्या किया? यहां काटा था क्या? कब काटा था? ताजे खून के निशान हैं. क्या आज ही काटा? क्या अभी यही काम कर रही थीं जब मैं आई थी?’’

काटो तो खून नहीं रहा शुभा में. यह क्या देख लिया उस ने. यह अनजानी औरत जिस से वह पड़ोसी धर्म निभाने चली आई, क्या भरोसे लायक है? अभी अगर इस के जाने के बाद इस ने यह असफल प्रयास सफल बना लिया तो क्या से क्या हो जाएगा? आत्महत्या या हत्या, इस का निर्णय कौन करेगा? वही तो होगी आखिरी इंसान जो नेहा से मिली. कहीं उसी पर कोई मुसीबत न आ जाए.

‘‘नहीं तो दीदी. चूड़ी टूट कर लग गई थी.’’

‘‘भाईसाहब वापस कब आते हैं औफिस से?’’

‘‘वे तो 9-10 बजे से पहले नहीं आते. आजकल ज्यादा काम रहता है, मार्च का महीना है न.’’

‘‘तुम चलो मेरे साथ, मेरे घर. जब वे आएंगे, तुम्हें उधर से ही लेते आएंगे. तुम अकेली मत रहो.’’

‘‘मैं तो पिछले कई सालों से अकेली हूं. अब थक गई हूं. एक ही बेटे में सब देखती रही. आज वह भी मुझे एक किनारे कर पराई लड़की का हो गया. मैं खाली हाथ रह गई हूं, दीदी. पति तो पहले ही अपने परिवार के थे. मेरी इच्छा उन के लिए न कल कोई मतलब रखती थी न आज रखती है. बेटा अपनी पत्नी की इच्छा पर चलता है, पति अपने तरीके से चलते हैं. दम घुटता है मेरा. सांस ही नहीं आती. इन से कुछ कहती हूं तो कहते हैं, मेरा घर है, जैसा मैं कहता हूं वैसा ही होगा. बहू का घर उस का घर होना ही चाहिए. तो फिर मेरा घर कहां है, दीदी?

‘‘मायके जाती हूं तो वहां लगता है यह भाभी का घर है. वहां मन नहीं लगता. पति कहते हैं कि क्या कमी है, साडि़यां हैं, गहने हैं. भला साडि़यां, गहनों से क्या कोई सुखी हो जाता है? मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो अपने घर में एक पत्ता भी हिला नहीं सकती. यह सोफासैट इधर से उधर कर लूंगी तो भी तूफान आ जाएगा. बेजान गुडि़या हूं मैं, जिसे चूं तक करने का अधिकार नहीं है.’’

अवाक् रह गई शुभा. नेहा की परेशानी समझ रही थी वह. इस की जगह अगर वह भी होती तो शायद उस की भी यही हालत होती.

‘‘कल सोफासैट से ही शुरुआत करते हैं.’’

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‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अभी खिड़कियां खोली हैं न. इन्हें आज बंद मत करना. कहना मेरा दम घुटता है इसलिए इन्हें बंद मत करो. थोड़ा सा विरोध भी करो. कल बाई के साथ मिल कर जरा सा सामान अपनी मरजी से सजाना. कुछ कहेंगे तो कहना, तुम्हें इसी तरह अच्छा लगता है. अपनी भी कहना सीखो, नेहा. कई बार ऐसा भी होता है, हम ही अपनी बात नहीं कहते या हम ही अपनी इच्छा का सम्मान किए बिना दूसरे की हर इच्छा मानते चले जाते हैं, जिसे सामने वाला हमारी हां ही मानता है. इस में उन का भी क्या दोष.

अटूट बंधन- भाग 3: प्रकाश ने कैसी लड़की का हाथ थामा

त्रिशा ने रुकरुक कर बोलना शुरू किया, ‘‘देखो, 3 वर्ष में हम एकदूसरे को पूरी तरह जानने लगे हैं. मेरा तो कोई काम तुम्हारे बगैर नहीं होता. सच तो यह है, इस शहर में आ कर मैं तो अपनी जिम्मेदारियां ही भुला बैठी हूं. मैं ने तो अभी सोचा भी नहीं कि यहां से जाने के बाद मैं कैसे मैनेज करूंगी. पर प्रकाश, आजाद को मैं ने अपने जीवनसाथी के रूप में देखा है. उन के सिवा मैं किसी और के बारे में सोच भी कैसे…’’ प्रकाश बीच में ही बोल उठा, ‘‘मैं सब जानता हूं, लेकिन जिंदगी इतनी आसान भी नहीं होती, जितना तुम लोग सोच रहे हो. मुझे तुम्हारी फिक्र सताती है. पैसे खर्च कर के ही क्या सबकुछ मिल सकता है? इन सब बातों से अलग, सच तो यह भी है कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए चाहत कब पैदा हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता. प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश करो, त्रिशा.’’

अगले कुछ पल रुक कर त्रिशा ने कहा, ‘‘मैं अच्छी तरह जानती हूं, तुम मेरी कितनी फिक्र करते हो लेकिन जो प्रस्ताव तुम्हारा है, उस के बारे में सोचने का मेरे लिए सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं ने हमेशा यही चाहा था कि मैं जिस कमी के साथ जी रही हूं, जीवनसाथी भी वैसा ही चुनूंगी ताकि हम एकदूसरे की ताकत बन कर कदमकदम पर हौसलाअफजाई कर सकें और आत्मनिर्भर हो कर जी सकें. फिर, आजाद तो मेरे जीवन में एक अलग ही खुशी ले कर आए हैं. मैं यकीन के साथ कह सकती हूं, उन की खूबियां और जीवन के प्रति उन का पौजिटिव रुख ही हमारे घर को खुशियों से भर देगा. जानती हूं, जीवन के हर मोड़ पर चुनौतियां होंगी, लेकिन हम दोनों का एकदूसरे के प्रति विश्वास, सम्मान और प्यार ही हमें उन चुनौतियों से उबरने की ताकत देगा. रही बात तुम्हारी, तो मैं अपने इतने अच्छे दोस्त को कभी खोना नहीं चाहती. मेरे लिए, प्लीज, मेरे लिए मुझे मेरा सब से अच्छा दोस्त वापस दे दो. अगले महीने मेरी इंगेजमैंट है. अगर तुम इसी तरह परेशान रहोगे तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?’’ इतने दिनों का सैलाब अब प्रकाश की आंखों से बह चला.

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त्रिशा की जिद और कोशिशों के चलते प्रकाश धीरेधीरे नौर्मल होने लगा. त्रिशा की इंगेजमैंट हुई और फिर शादी के दिन भी करीब आ गए. त्रिशा ने आधी से ज्यादा शौपिंग प्रकाश और शालिनी के साथ ही कर ली थी.

एक शाम त्रिशा के पास प्रकाश के मम्मीपापा का फोन आया. लंबी बातचीत के बाद प्रकाश के पापा ने त्रिशा से कहा, ‘‘बेटा, प्रकाश को शादी के लिए तुम ही तैयार कर सकती हो. हो सके तो उसे समझाओ, इतनी देर करना भी अच्छी बात नहीं. हमारी तो बात ही टाल देता है.’’ त्रिशा हंस पड़ी, ‘‘बस, इतनी सी बात है, अंकल. आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. मैं उसे राजी कर लूंगी.’’

यों तो त्रिशा ने पहले भी उस से शादी का जिक्र छेड़ा था, पर हर बार वह उस की बात अनसुनी कर देता था. एक दिन प्रकाश ने त्रिशा से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ, तुम्हें शादी पर क्या गिफ्ट दूं?’’ त्रिशा का उत्तर था, ‘‘तुम मुझे जो चाहे गिफ्ट दे देना, पर तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारी हां मेरे लिए सब से कीमती गिफ्ट होगा.’’

प्रकाश उस दिन खामोश रहा. त्रिशा की शादी की तैयारियों में प्रकाश ने खुद को इतना उलझा लिया कि उसे अपनी सुध ही नहीं रही. हफ्तेभर पहले छुट्टी ले कर प्रकाश भी त्रिशा के साथ दिल्ली चला आया. यहां आ कर शादी की लगभग सभी जिम्मेदारियां प्रकाश ने संभाल लीं. मेहंदी, हलदी, कोर्ट मैरिज और फिर ग्रैंड रिसैप्शन पार्टी. यह तय था कि शादी के बाद आजाद भी कुछ दिनों के लिए बेंगलुरु घूम आएंगे. त्रिशा की कंपनी का औफिस लखनऊ में नहीं था, इसलिए बेंगलुरु आ कर त्रिशा ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उस ने सोच रखा था कि लखनऊ जा कर कुछ दिन घरगृहस्थी ठीकठाक कर के थोड़ा उस शहर के बारे में समझने के बाद वहीं किसी दूसरी नौकरी की तलाश करेगी.

‘‘भई, हम जानते हैं, आप बहुत थक गए हैं, पर हमें बेंगलुरु तो आप ही घुमाएंगे,’’ आजाद ने प्रकाश से कहा तो प्रकाश बोला, ‘‘सोच लीजिए, बदले में आप को हमें लखनऊ की सैर करवानी पड़ेगी.’’ ‘‘कब आ रहे हैं आप?’’

‘‘बहुत जल्द, अपनी शादी के बाद.’’ ‘‘अच्छा, तो जनाब ने शादी का फैसला कर लिया और हमें खबर तक नहीं हुई. सुन रही हो त्रिशा.’’

त्रिशा को भी यह सुन कर तसल्ली हुई, ‘‘फैसला तो नहीं किया पर…’’ प्रकाश बोलतेबोलते रुक गया और फिर उस ने बात बदल दी. बेंगलुरु में वह हफ्ता तो जैसे चुटकियों में कट गया.

प्रकाश ने त्रिशा और आजाद को गाड़ी में बैठा कर उन का सारा सामान व्यवस्थित करवा दिया. गाड़ी यहीं से बन कर चलती थी, इसलिए लेट होने का तो सवाल ही नहीं था. जैसे ही गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ने लगी, सभी का मन भारी हो गया. प्रकाश शायद बिना कुछ बोले ही चला गया था. त्रिशा की आंखें भी नम हो आईं. तभी अचानक सामने बैठे पैसेंजर ने आजाद का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आप का छोटा बैग मैं इस साइड टेबल पर रख देता हूं. मैं भी लखनऊ जा रहा हूं. आप के सामने की लोअर बर्थ मेरी ही है. कोई भी जरूरत हो तो आप लोग बेझिझक मुझे आवाज दे दीजिएगा. मेरा नाम प्रकाश है.’’ अनजाने ही त्रिशा के होंठों पर मुसकान छा गई.

अगली सुबह घर पहुंचने के कुछ ही देर बाद उन्हें एक कूरियर मिला. यह त्रिशा के नाम का कूरियर था. ‘‘हैप्पी बर्थडे त्रिशा. तुम्हारा सब से कीमती तोहफा भेज रहा हूं,’’ प्रकाश ने लिखा था. उस में त्रिशा के लिए खूबसूरत सी ब्रेल घड़ी थी और एक शादी का कार्ड. त्रिशा उछल पड़ी, ‘‘वाह, इतना बड़ा सरप्राइज. इतनी जल्दी कैसे होगा सब? महीनेभर बाद की ही तो तारीख है.’’

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शादी से 2 दिन पहले आजाद और त्रिशा भोपाल पहुंचे तो प्रकाश ने रचना से उन का परिचय करवाया. ‘‘इतने कम समय में प्रकाश को तो कुछ बताने की फुरसत ही नहीं मिली. अब तुम ही कुछ बताओ न रचना अपने बारे में?’’ त्रिशा ने उत्सुकतावश पूछा. ‘‘बस, अभी आई. पहले जरा मुंह तो मीठा कीजिए, फिर बैठ कर ढेर सारी बातें करते हैं,’’ कहते हुए रचना उठी तो दाहिनी तरफ के सोफे पर बैठे आजाद से टकरातेटकराते बची. अचानक लगने वाले धक्के से आजाद के हाथ से मोबाइल छूट कर फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘अरे, आराम से,’’ कहते हुए प्रकाश आजाद का मोबाइल उठाने के लिए झुका. अपनी गलती पर अफसोस जताते हुए अनायास ही रचना के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, माफी चाहती हूं, डाक्टर साहब. दरअसल, मैं देख नहीं सकती.’’

चेतावनी- भाग 2: मीना उन दोनों के प्रेमसंबंध में क्यों दिलचस्पी लेने लगी?

लेखक- अवनिश शर्मा

रास्ते में अर्चना ने उलझन भरे लहजे में पूछा, ‘‘मीना आंटी, क्या संदीप के विदेश जाने से पहले उस के साथ सगाई की रस्म हो जाने की मेरी जिद गलत है?’’

‘‘इस सवाल का सीधा ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब नहीं दिया जा सकता है,’’ मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ से इस समस्या के 2 महत्त्वपूर्ण पहलू हैं.’’

‘‘कौनकौन से, आंटी?’’

‘‘पहला यह कि क्या संदीप का तुम्हारे प्रति प्रेम सच्चा है? अगर इस का जवाब ‘हां’ है तो वह लौट कर तुम से शादी कर ही लेगा. दूसरी तरफ वह ‘रोकने’ की रस्म से इसलिए इनकार कर रहा हो कि तुम से शादी करने का इच्छुक ही न हो.’’

‘‘ऐसी दिल छू लेने वाली बात मुंह से मत निकालिए, आंटी,’’ अर्चना का गला भर आया.

‘‘बेटी, यह कभी मत भूलो कि तथ्यों से भावनाएं सदा हारती हैं. हमारे चाहने भर से जिंदगी के यथार्थ नहीं बदलते,’’ मैं ने उसे कोमल लहजे में समझाया.

‘‘मुझे संदीप पर पूरा विश्वास है,’’ उस ने यह बात मानो मेरे बजाय खुद से कही थी.

‘‘होना भी चाहिए,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई.

‘‘आंटी, मेरी समस्या का दूसरा पहलू क्या है?’’ अर्चना ने मुसकराने की कोशिश करते हुए पूछा.

‘‘तुम्हारी खुशी…तुम्हारे मन की सुखशांति,’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं, आंटी.’’

‘‘अभी इस बारे में मुझ से कुछ मत पूछो. पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि संदीप के विदेश जाने में अभी 2 सप्ताह बचे हैं और इस समय के अंदर ही तुम्हारी समस्या का उचित समाधान मैं ढूंढ़ लूंगी.’’

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ऐसा आश्वासन पा कर अर्चना ने मुझ से आगे कुछ नहीं पूछा.

अर्चना की मां सावित्री एक आम घरेलू औरत थीं. मेरी 2 सहेलियां उन की भी परिचित निकलीं तो हम जल्दी सहज हो कर आपस में हंसनेबोलने लगे.

मैं ने अर्चना की शादी का जिक्र छेड़ा तो सावित्री ने बताया, ‘‘मीना बहनजी, इस के लिए इस की बूआ ने बड़ा अच्छा रिश्ता सुझाया है पर यह जिद्दी लड़की हमें बात आगे नहीं चलाने देती.’’

‘‘क्या कहती है अर्चना,’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘यही कि एम.बी.ए. के बाद कम से कम साल भर नौकरी कर के फिर शादी के बारे में सोचूंगी.’’

‘‘उस के ऐसा करने में दिक्कत क्या है, बहनजी?’’

‘‘अर्चना के पापा इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहते. अपनी बहन का भेजा रिश्ता उन्हें बहुत पसंद है.’’

मैं समझ गई कि आने वाले दिनों में अर्चना पर शादी का जबरदस्त दबाव बनेगा. अर्चना की जिद कि संदीप सगाई कर के विदेश जाए, मुझे तब जायज लगी.

‘‘अर्चना, कल तुम पार्क में मुझे संदीप से मिलाना. तब तक मैं तुम्हारी परेशानी का कुछ हल सोचती हूं,’’ इन शब्दों से उस का हौसला बढ़ा कर मैं अपने घर लौट आई.

अगले दिन पार्क में अर्चना ने संदीप से मुझे मिला दिया. एक नजर मेरे साधारण से व्यक्तित्व पर डालने के बाद संदीप की मेरे बारे में दिलचस्पी फौरन बहुत कम हो गई.

मैं ने उस से थोड़े से व्यक्तिगत सवाल सहज ढंग से पूछे. उस ने बड़े खिंचे से अंदाज में उन के जवाब दिए. यह साफ था कि संदीप को मेरी मौजूदगी खल रही थी.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं दूर घास पर आराम करने चली गई.

संदीप को विदा करने के बाद अर्चना मेरे पास आई. उस की उदासी मेरी नजरों से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उस के बोलने का इंतजार खामोशी से करने लगी.

कुछ देर बाद हारे हुए लहजे में उस ने बताया, ‘‘आंटी, वह सगाई करने के लिए तैयार नहीं है. उस की दलील है कि जब शादी एक साल बाद होगी तो अभी से दोनों परिवारों के लिए तनाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने मुसकराते हुए विषय परिवर्तन किया, ‘‘देखो, परसों मेरे बड़े बेटे अंकित की कोठी में शानदार पार्टी होगी. मेरी पोती शिखा का 8वां जन्मदिन है. तुम्हें उस पार्टी में मेरे साथ शामिल होना होगा.’’

अर्चना ने पढ़ाई का बहाना कर के पार्टी में आने से बचना चाहा, पर मेरी जिद के सामने उस की एक न चली. उस की मां से इजाजत दिलवाने की जिम्मेदारी मैं ने अपने ऊपर ले ली थी.

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मेरा बेटा अमित व बहू निशा दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं. उन्होंने प्रेम विवाह किया था. मेरे मायके या ससुराल वालों में दोनों तरफ दूरदूर तक कोई भी उन जैसा अमीर नहीं है.

अमित ने पार्टी का आयोजन अपनी हैसियत के अनुरूप भव्य स्तर पर किया. सभी मेहमान शहर के बड़े और प्रतिष्ठित आदमी थे. उन की देखभाल के लिए वेटरों की पूरी फौज मौजूद थी. शराब के शौकीनों के लिए ‘बार’ था तो डांस के शौकीनों के लिए डी.जे. सिस्टम मौजूद था.

मेरी छोटी बहू सीमा, अर्चना और मैं खुद इस भव्य पार्टी में मेहमान कम और दर्शक ज्यादा थे. जो 1-2 जानपहचान वाले मिले वे भी हम से ज्यादा बातें करने को उत्सुक नहीं थे.

अमित और निशा मेहमानों की देखभाल में बहुत व्यस्त थे. हम ठीक से खापी रहे हैं, यह जानने के लिए दोनों कभीकभी कुछ पल को हमारे पास नियमित आते रहे.

रात को 11 बजे के करीब उन से विदा ले कर जब हम अपने फ्लैट में लौटे, तब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा मेहमानों ने डिनर खाना भी नहीं शुरू किया था.

पार्टी के बारे में अर्चना की राय जानने के लिए अगले दिन मैं 11 बजे के आसपास उस के घर पहुंच गई थी.

‘‘आंटी, पार्टी बहुत अच्छी थी पर सच कहूं तो मजा नहीं आया,’’ उस ने सकुचाते हुए अपना मत व्यक्त किया.

‘‘मजा क्यों नहीं आया तुम्हें?’’ मैं ने गंभीर हो कर सवाल किया.

‘‘पार्टी में अच्छा खानेपीने के साथसाथ खूब हंसनाबोलना भी होना चाहिए. बस, वहां जानपहचान के लोग न होने के कारण पार्टी का पूरा लुत्फ नहीं उठा सके हम.’’

‘‘अर्चना, हम दूसरे मेहमानों के साथ जानपहचान बढ़ाने की कोशिश करते तो क्या वे हमें स्वीकार करते? मैं चाहूंगी कि तुम मेरे इस सवाल का जवाब सोचसमझ कर दो.’’

कुछ देर सोचने के बाद अर्चना ने जवाब दिया, ‘‘आंटी, वहां आए मेहमानों का सामाजिक व आर्थिक स्तर हम से बहुत ऊंचा था. हमें बराबर का दर्जा देना उन्हें स्वीकार न होता.’’

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‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘क्या ऐसा ही अंतर तुम्हारे व संदीप के परिवारों में नहीं है?’’

‘‘है,’’ अर्चना का चेहरा उतर गया.

‘‘तब क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि उस के घर वाले तुम्हें बहू के रूप में आदरसम्मान देंगे या नहीं?’’

‘‘आंटी, क्या संदीप का प्यार मुझे ये सभी चीजें उन से नहीं दिलवा सकेगा?’’

‘‘अर्चना, कल की पार्टी में अमित की मां, भाईभतीजा व भाई की पत्नी मौजूद थे. लगभग सभी मेहमान हमें पहचानने के बावजूद हम से बोलना अपनी तौहीन समझते रहे. सिर्फ संदीप की पत्नी बन जाने से क्या तुम्हारे अमीर ससुराल वालों का तुम्हारे प्रति नजरिया बदल जाएगा?’’

अनुभव के आधार पर मैं ने एकएक शब्द पर जोर दिया, ‘‘तुम्हें संदीप के घर वालों से मिलना होगा. वे तुम्हारे साथ सगाई करें या न करें, पर इस मुलाकात के लिए तुम अड़ जाओ, अर्चना.’’

मेरे कुछ देर तक समझाने के बाद बात उस की समझ में आ गई. मेरी सलाह पर अमल करने का मजबूत इरादा मन में ले कर वह संदीप से मिलने पार्क की तरफ गई.

करीब डेढ़ घंटे बाद जब वह लौटी तो उस की सूजी आंखों को देख कर मैं संदीप का जवाब बिना बताए ही जान गई.

‘‘वह अपने घर वालों से तुम्हें मिलाने को नहीं माना?’’

‘‘नहीं, आंटी,’’ अर्चना ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘मैं उस के साथ लड़ी भी और रोई भी, पर संदीप नहीं माना. वह कहता है कि इस मुलाकात को अभी अंजाम देने का न कोई महत्त्व है और न ही जरूरत है.’’

‘‘उस के लिए ऐसा होगा पर हम ऐसी मुलाकात को पूरी अहमियत देते हुए इसे बिना संदीप की इजाजत के अंजाम देंगे, अर्चना. संदीप की जिद के कारण तुम अपनी भावी खुशियों को दांव पर नहीं लगा सकतीं,’’ मेरे गुस्से से लाल चेहरे को देख कर वह घबरा गई थी.

डरीघबराई अर्चना को संदीप की मां से सीधे मिलने को राजी करने में मुझे खासी मेहनत करनी पड़ी पर आखिर में उस की ‘हां’ सुन कर ही मैं उस के घर से उठी.

ये लम्हा कहां था मेरा- भाग 1

‘‘हमारी बात मान लो न निकिता… मिल तो लो आज अभिनव से. मैनेजर है मल्टीनैशनल कंपनी में और फोटो में भी अच्छा दिख रहा है. तुम्हें पसंद आए तभी हां करना… उस के घर से फोन आया है. पापा पूछ रहे हैं क्या कहना है उन्हें?’’ मीनाक्षी अपनी बेटी से मनुहार करते हुए बोलीं.

‘‘मम्मी, शादी करने के लिए नहीं करता मेरा मन… सोचा भी नहीं जाता मुझ से शादी के बारे में… आप तो जानती हैं सब,’’ निकिता का स्वर निराशा में डूबा था.

‘‘कब तक तुम्हारी दुनिया को अंधेरे में रखेगा वह हादसा? पापा अपनेआप को कुसूरवार समझ दिनरात गमगीन रहते हैं… निकाल दो बेटा अपने दिमाग से वे सब बातें.’’

‘‘मेरी तो कुछ समझ नहीं आता कि क्या करूं मम्मी? आप जो ठीक समझें कर लें,’’ कह कर निकिता गुमसुम सी फिर लैपटौप में खो गई.

‘‘तुम कितनी समझदार हो… ठीक है बेटा, फिर बुला लेते हैं आज उन लोगों को,’’ निकिता के सिर पर प्यार से हाथ फेर मीनाक्षी उस के कमरे से निकल गईं.

अपना काम निबटा निकिता न चाहते हुए भी आज शाम पहनने के लिए कपड़ों का चुनाव करने चल दी. शादी के लिए किसी रिश्ते की बात शुरू होते ही वह अनमनी सी हो जाती थी.

मेहमानों के लिए हो रही तैयारी से घर में रौनक दिख रही थी. उसी रौनक की छाया सुदीप पर भी पड़ रही थी वरना 2 सालों से बेटी निकिता का दर्द उन्हें चैन से सोने नहीं दे रहा था.

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शाम को आ गए वे लोग. औसत कदकाठी और आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी अभिनव की सादगी मीनाक्षी और सुदीप के मन में अंदर तक उतर गई. अभिनव और निकिता के बीच औपचारिक बातचीत हुई. एक नामी पब्लिशिंग हाउस में कंटैट राइटर की पोस्ट पर कार्य कर रही निकिता का गोरा रंग और खूबसूरत नैननक्श देख अभिनव के मम्मीपापा रिश्ता जोड़ने को बेताब हो रहे थे. डिनर के बाद जाते समय दोनों के मातापिता ने जल्द ही बच्चों से पूछ कर रिश्ता पक्का करने की बात कह खुशीखुशी एकदूसरे से बिदा ली.

उन के चले जाने के बाद मीनाक्षी और सुदीप अभिनव के विषय में निकिता की राय जानने को आतुर थे. निकिता सोच कर जवाब देने की बात कह अपने कमरे में चली गई. बिस्तर पर लेटते ही नींद की जगह विचारों का कारवां उसे घेरने लगा कि क्या करूं अब मना करती हूं शादी के लिए तो मम्मीपापा की परेशानी कम न कर पाने की गुनहगार बन जाती हूं. हां भी कैसे करूं? सोच कर ही सिहर उठती हूं कि अपना तन किसी को सौंप रही हूं.

मम्मीपापा का कहना है कि अभिनव समझदार लग रहा है. मैं खुश रह सकूंगी उस के साथ. पर क्या होगा अगर हर रात मुझे उस में राजन अंकल… नहीं… दरिंदा राजन दिखाई देने लगेगा… निकिता के दिमाग को एक बार फिर झकझोर गया वह दिन…

दिल्ली के नामी कालेज से एमए करने के बाद जब निकिता की प्लेसमैंट पुणे हुई तो मम्मी उस के दूर जाने की बात से चिंतित हो उठी थीं. तब पापा ने याद दिलाया कि उन के एक कुलीग राजन, जो पिछले साल नौकरी छोड़ गए थे, वहीं रह रहे हैं तो मीनाक्षी की सांस में सांस आ गई.

पुणे में निकिता के रहने की व्यवस्था एक पीजी में करवाने के बाद सुदीप निकिता को साथ ले राजन के घर पहुंच गए. राजन का इकलौता बेटा यूके में रह रहा था. राजन की पत्नी भी उन दिनों वहीं गई हुई थी. राजन ने कहा कि निकिता इसे अपना घर समझ कभी भी यहां आ सकती है. पूरा आश्वासन भी दिया था कि उस के रहते निकिता को किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी.

निकिता और राजन की फोन पर कभीकभी बात हो जाती थी, लेकिन निकिता की व्यस्तता के कारण दोबारा मिलना नहीं हुआ था उन का. एक दिन निकिता के पास राजन का फोन आया कि पत्नी की तबीयत अचानक खराब हो जाने के कारण उसे यूके जाना पड़ रहा है, अत: जाने से पहले एक बार वह निकिता से मिलना चाहता है. निकिता शाम को राजन के घर चली गई.

राजन का व्यवहार उस दिन निकिता को बदलाबदला सा लग रहा था. उस के नमस्ते करने पर राजन ने उस के हाथों को अपने दोनों हाथों में ले कर चूम लिया. निकिता को यह बहुत अखर रहा था. कुछ देर बातचीत करने के बाद निकिता जाने लगी तो राजन ने कौफी पी कर जाने का आग्रह किया. फिर उसे कमरे में बैठने को कह कौफी बनाने चल दिया. कामवाली के बारे में निकिता के पूछने पर बोला कि वह आज जल्दी छुट्टी ले कर चली गई है.

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कुछ देर बाद कौफी ला कर टेबल पर रख राजन निकिता के सामने बैठ गया. निकिता को चुपचाप कौफी पीते देख हंसता हुआ बोला, ‘‘अरे, कुछ तो बात करो… अच्छा बताओ, मैं कैसा लगता हूं तुम्हें?’’

निकिता को कौफी का घूंट हलक से उतारना मुश्किल हो गया.

‘‘आप अच्छे लगते हैं, अंकल,’’ कह कर वह जल्दीजल्दी कौफी पीने लगी ताकि वहां से निकल पाए. मगर तभी बैठेबैठे उसे चक्कर सा आने लगा. ‘कहीं कौफी में कुछ नशीला तो नहीं?’ सोच कर आधा भरा हुआ मग टेबल पर रख वह उठने लगी तो राजन उस के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘पता नहीं तुम क्यों मुझे अंकल कह कर बुला रही हो? लोग तो कहते हैं मैं अभी भी किसी बौलीवुड हीरो से कम नहीं लगता.’’

‘‘जी… अच्छा है अगर लोग ऐसा कहते हैं, आप ने फिट रखा हुआ है अपने को,’’ घबराई हुई सी निकिता खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘तो फिर जी नहीं चाहता मेरे पास आने का?’’ कहते हुए राजन निकिता से सट कर बैठ गया.

निकिता भीतर तक कांप उठी. इस से पहले कि हिम्मत जुटा वह उठ भागती राजन उसे अपनी गिरफ्त में ले चुका था. निकिता ने खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कौफी में मिलाए गए नशीले पदार्थ के असर से वह लड़खड़ा रही थी.

‘‘पता है मुझे, तुम भी यही चाहती हो… पर झिझकती हो कहने में. तभी तो एक बार बुलाते ही दौड़ी चली आई मिलने.’’

‘‘नहीं अंकल…’’ चीख उठी थी निकिता.

‘‘औरत की न का मतलब हां होता है,’’ कहते हुए अपना वहशियाना रूप दिखा दिया राजन ने.

अपनी हवस मिटा कर राजन सोफे पर ही औधे मुंह गिर गया. निकिता अपने कपड़े व्यवस्थित कर गिरतीपड़ती पीजी लौटी तो कुछ सोचनेसमझने की स्थिति में नहीं थी. उस की सहेली अदीबा ने मीनाक्षी को फोन किया. अगले दिन सुदीप और मीनाक्षी वहां पहुंच गए. निकिता से सब सुन कर वे अवाक रह गए. क्रोध से तमतमाया सुदीप राजन के घर पहुंचा, पर वह तो यूके निकल चुका था. पुलिस में शिकायत करने से भी तब कोई लाभ नहीं था. निकिता को साथ ले दोनों टूटेबिखरे से वापस आ गए.

सुदीप और मीनाक्षी निकिता का सहारा बन उसे दिनरात समझाते रहते. लगभग 2 महीने बाद वह इस हादसे से कुछ दूर हुई तो नई नौकरी की तलाश में जुट गई.

अदीबा के भाई की दिल्ली में अच्छी जानपहचान थी. उस की मदद से

कई जगह उसे रिक्त पदों के विषय में जानकारी मिली. अंतत: एक पब्लिशिंग हाउस में बतौर कंटैंट राइटर चुन लिया गया. फिर वहां काम संभालते हुए वह खुद को व्यस्त रखने लगी.

कुछ माह बाद सुदीप और मीनाक्षी ने विवाह की बात छेड़ी तो निकिता ने साफ मना कर दिया. उस का व्यथित मन किसी को भी अपना मानने को तैयार नहीं था, पर मम्मीपापा चाहते थे कि वह सब भूल कर नई जिंदगी शुरू करे.

आज भी तो नहीं मिलना चाह रही थी निकिता अभिनव से, लेकिन पापा की निराशा भी नहीं देखी जाती थी उस से. अभिनव से मिल कर उसे बुरा भी नहीं लगता था, परंतु पतिपत्नी संबंध के विषय में सोचते ही लगने लगता था कि अपनी देह कहां छिपा लूं कि किसी पुरुष की नजर ही न पड़े उस पर. अतीत के काले दलदल में फंसी निकिता रातभर बिस्तर पर करवटें बदलती रही.

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सुबह औफिस जाने लगी तो मीनाक्षी उस के जवाब के इंतजार में थीं. ‘‘अभी देर हो रही है, बाद में बात करते हैं,’’ कहते हुए वह भारी मन से औफिस चली गई.

औफिस में उस के पास अलगअलग विषयों पर लिखने के लिए कई मेल आए हुए थे, लेकिन काम में मन ही नहीं लग रहा था उस का. किसी तरह मन बना कर एक टौपिक पर सोच लिखना शुरू ही किया था कि मोबाइल बज उठा.

फोन मीनाक्षी का था. उन की आवाज में मनुहार की जगह आज बेबसी झलक रही थी, ‘‘बेटा, तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ सकती हूं पर ऐसे कैसे अकेली रहोगी जिंदगीभर? इसी सोच में पापा दिनरात घुलते रहते हैं… कैसे समझाऊं तुम्हें कि मेरी तबीयत भी अब…’’ और बात पूरी होने से पहले ही मीनाक्षी के सिसकने की आवाजें आने लगीं.

हक्कीबक्की सी निकिता बिना कुछ सोचे बोल उठी, ‘‘मम्मी मैं आप को अभी फोन करने ही वाली थी… मुझे अभिनव पसंद है,’’ और फिर फोन काट धम्म से कुरसी पर बैठ गई. ‘शायद मुझे यही करना चाहिए था… इस के अलावा और कोईर् ऐसा रास्ता भी तो नहीं है जो मम्मीपापा को खुशियां दे पाए.’

हरिराम- भाग 2: शशांक को किसने सही राह दिखाई

शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था. कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.

रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा. ‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’

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‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’ ‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.

दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.

लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए. खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.

उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई. शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.

हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला. ‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले. शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.

‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’ शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.

‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’ ‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’

‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’ अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.

शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई. एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.

‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.

शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की. ‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.

शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी. ‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.

‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’ ‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.

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दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’

दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना. ‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.

‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था. ‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.

‘‘यों ही बैठी हूं.’’ ‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’

एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी. शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.

‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’ ‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.

शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी. ‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’

शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया. ‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’

रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’

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