‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’
एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’
‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’
तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.
जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.
पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.
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कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.
रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र 4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.
‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.
हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.
बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.
‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.
नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.
‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.
सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.
‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’
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हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?
‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.
‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’
‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’
‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’
कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.
‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’
हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.
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‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.
‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’
आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.