पगली: कैसे पति के धोखे का शिकार हुई नंदिनी

‘‘आजकल आप के टूर बहुत लग रहे हैं. क्या बात है जनाब?’’ नंदिनी संजय से चुहलबाजी कर रही थी.

‘‘क्या करूं, नौकरी का सवाल है, नहीं तो तुम्हें छोड़ कर जाने का मेरा मन बिलकुल भी नहीं करता है,’’ संजय ने भी हंसी का जवाब हंसी में दे दिया.

‘‘पहले तो ऐसा नहीं था, फिर अचानक इतने ज्यादा टूर क्यों हो रहे हैं?’’ इस बार नंदिनी ने संजीदगी से पूछा था.

‘‘तो क्या घर बैठ जाऊं?’’ संजय को गुस्सा आ गया.

‘‘इस में इतना गुस्सा होने की क्या बात है? मैं तो यों ही पूछ रही थी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘जैसा कंपनी कहेगी, वही करना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, पर…’’

‘‘तुम मु?ा पर शक कर रही हो…’’ संजय ने कहा, ‘‘जैसे मैं किसी और से मिलने जाता हूं… है न?’’

‘‘अरे, मैं तो मजाक कर रही थी,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘तुम्हारे मन में ऐसेऐसे खयाल आ जाते हैं, जिन का कुछ भी मतलब नहीं होता है.’’

‘‘अच्छा बाबा, माफ कर दो. मैं तो इसलिए कह रही थी कि गरमी की छुट्टियों में हम सब बच्चों के साथ कहीं बाहर घूमने चलें,’’ नंदिनी जैसे अपनी सफाई पेश कर रही थी.

‘‘ठीक है, देखते हैं,’’ संजय ने कहा.

एक दिन घर के कामकाज निबटा कर नंदिनी छत पर चली गई थी, तभी दरवाजे की घंटी बजी.

जब दरवाजा खोला, तो सामने पड़ोसन रागिनी खड़ी थी.

‘‘आओ रागिनी भाभी, अचानक कैसे आना हुआ?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘तुम्हें पता है नंदिनी कि आजकल कालोनी में क्या हो रहा है.’’

‘‘ऐसा क्या हो रहा है, जो मु?ो नहीं पता?’’

‘‘अरे, पिछले कई दिनों से एक पगली इस कालोनी में आई हुई है और सब बच्चे उसे छेड़ते रहते हैं.’’

‘‘हां, मैं ने भी उसे देखा है, पर बच्चों को ऐसा नहीं करना चाहिए.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि बाहर बहुत शोर सुनाई दिया. दोनों घर के बाहर आ गईं.

नंदिनी ने देखा कि एक लड़की भाग रही थी और कुछ बच्चे उस के पीछे भाग रहे थे.

नंदिनी ने उन बच्चों को डांट लगाई और उसे अपने साथ घर में ले आई.

अंदर आते ही वह लड़की बेहोश हो गई. नंदिनी ने उस के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. होश में आने पर वह नंदिनी से लिपट कर रोने लगी.

नंदिनी ने लड़की से उस का नाम पूछा, लेकिन वह चुप रही, फिर वह जोरजोर से चिल्लाने लगी और नंदिनी से ऐसे लिपट गई, जैसे उसे कुछ याद आ गया हो.

नंदिनी ने उसे आराम से बैठाया और उसे खाने को दिया, तो वह फटाफट    5-6 रोटियां खा गई, जैसे बहुत दिनों से भूखी हो.

‘‘कौन हो तुम?’’ पड़ोसन रागिनी ने उस लड़की से पूछा, तो वह चुप रही. कई बार पूछने पर वह बोली, ‘रेवा…रेवा…रेवा.’

‘‘नंदिनी, पता नहीं यह कहां से आई है? अब इसे यहां से जाने को कह दे,’’ रागिनी ने नंदिनी को सलाह दी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो भाभी?  कुछ देर आराम कर ले, फिर जाने को कह दूंगी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘देख, मैं कह रही हूं कि ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए,’’ रागिनी ने उसे फिर से सम?ाने की कोशिश की.

‘‘भाभी, आप को पता है कि मैं एक एनजीओ के साथ काम कर रही हूं. मैं उन से बात करूंगी. आप परेशान न हों,’’ नंदिनी बोली.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर रागिनी चली गई.

नंदिनी जब वापस आई, तो देखा कि वह लड़की कमरे के एक कोने में दुबकी डरीसहमी बैठी थी.

नंदिनी ने उसे आवाज लगाई, ‘‘रेवा…’’

वह कुछ नहीं बोली, बल्कि और सिमट कर बैठ गई.

नंदिनी उस के पास गई और पूछा, ‘‘रेवा नाम है न तुम्हारा?’’

उस लड़की ने धीरे से अपना सिर ‘हां’ में हिला दिया.

नंदिनी ने उस से कहा, ‘‘देखो, डरो नहीं. बताओ, तुम कहां से आई हो? हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देंगे.’’

वह लड़की इतना ही बोली, ‘‘मेरा कोई घर नहीं है बीबीजी.’’

नंदिनी को हैरानी हुई कि यह तो कहीं से पागल नहीं लग रही है.

अचानक उस लड़की ने नंदिनी के पैर पकड़ लिए. नंदिनी को उस का बदन गरम लगा. ऐसा लगता था, जैसे उसे बुखार हो.

‘‘अच्छा ठीक है, आज की रात तुम यहीं रह जाओ. कल मैं तुम्हें अपनी संस्था में ले जाऊंगी.’’

‘‘बीबीजी, आप मु?ो अपने पास रख लो. मैं घर का सारा काम करूंगी,’’ कह कर वह फिर से रोने लगी.

‘‘अच्छा, आज तो तुम यहीं रहो, फिर कल देखेंगे,’’ नंदिनी बोली.

संजय रात को काफी देर से आया था. सो, उसे उस लड़की के बारे में कुछ नहीं पता था.

अगली सुबह नंदिनी ने संजय को उस लड़की के बारे में बताया.

संजय ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘नंदिनी, इस को अभी घर से निकालो, पता नहीं कौन है….’’

‘‘हां संजय, लेकिन अभी मैं इसे अपनी संस्था में ले जाती हूं.’’

‘‘मैं रात को घर आऊं, तो मु?ो कोई बखेड़ा नहीं चाहिए,’’ कह कर संजय चला गया.

नंदिनी नीचे आई, तो देखा कि उस लड़की को तेज बुखार था.

रात को संजय ने नंदिनी से पूछा, ‘‘क्या वह लड़की चली गई?’’

नंदिनी ने कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों…?’’ संजय बोला.

‘‘संजय, उसे बहुत तेज बुखार है और ऐसी हालत में वह लड़की कहां जाएगी? अगर वह मर गई तो…’’

‘‘मु?ो नहीं पता,’’ कहते हुए संजय नीचे चला गया.

वहां वह लड़की बेहोश पड़ी थी. पता नहीं क्यों संजय उसे देख कर हैरानी में पड़ गया.

‘‘नंदिनी, शायद तुम ठीक कह रही हो. अगर यह यहां से गई और मर गई, तो क्या होगा?’’

‘‘फिर क्या करें?’’

‘‘ऐसा करते हैं, जब तक यह ठीक नहीं हो जाती, इसे अपने पास ही रख लेते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

आजकल करतेकरते कई दिन हो गए, पर रेवा वहां से न जा सकी.

वैसे, नंदिनी अब तक सिर्फ इतना ही जान पाई कि वह एक पहाड़ी लड़की थी और किसी बाबूजी से मिलने आई थी.

‘‘तुम्हें यहां कौन छोड़ गया है?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘मेरे गांव में कई लोग यहां पर फेरी लगाने आते हैं. उन्हीं लोगों के साथ मैं भी आ गई.’’

‘‘देखो, अगर तुम हमें अपने गांव का नामपता बता दोगी, तो हम तुम्हें वहां पहुंचा देंगे,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘मैं पहली बार अपने गांव से बाहर निकली हूं और मु?ो तो यह भी नहीं पता कि मेरे गांव का क्या नाम है.’’

पता नहीं, वह सच बोल रही थी या ?ाठ, पर नंदिनी को उस की बातों पर कभी भरोसा हो जाता, तो कभी नहीं.

अभी रेवा को आए हुए कुछ समय ही बीता था कि नंदिनी को पता चला कि वह मां बनने वाली है.

नंदिनी हैरानी में पड़ गई कि अब वह क्या करे. उस ने रेवा से पूछा कि यह सब क्या है? कौन है इस बच्चे का पिता? लेकिन रेवा का एक ही जवाब होता, ‘‘बीबीजी, मु?ो नहीं पता. शायद पागलपन के दौरे में मेरा किसी ने फायदा उठा लिया होगा.’’

‘‘तू याद करने की कोशिश तो कर, शायद याद आ जाए.’’

‘‘नहीं बीबीजी, क्योंकि जब मु?ो दौरा पड़ता है, तो उस वक्त की सारी बातें मैं भूल जाती हूं.’’

नंदिनी को कुछ भी सम?ा नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

उस ने संजय से बात की. यह सब सुन कर वह भड़क उठा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था कि इस ?ां?ाट में मत फंसो. अब भुगतो.’’

‘‘तो क्या उसे घर से निकाल दूं?’’

‘‘अब क्या घर से निकालोगी? रहने दो अब.’’

नंदिनी ने अपने पड़ोसियों से बात की. सब ने यही राय दी कि उसे फौरन घर से निकाल देना चािहए.

पर नंदिनी रेवा को वहां से जाने के लिए एक बार भी नहीं कह पाई.

रेवा के मां बनने का समय भी आ गया था. नंदिनी अब तक एक बड़ी बहन की तरह रेवा की देखभाल कर रही थी.

रेवा को एक बहुत ही प्यारा बेटा हुआ. उस बच्चे को देख कर नंदिनी को अपने बच्चों के बचपन याद आ गए.

ठीक होने के बाद रेवा ने फिर से घर के काम करने शुरू कर दिए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि अचानक एक दिन सुबह नंदिनी ने देखा कि रसोई बिखरी पड़ी है. इस का मतलब अभी तक रेवा नहीं आई थी.

कुछ देर उस का इंतजार करने के बाद नंदिनी उस के कमरे में आई, तो देखा कि रेवा कमरे में नहीं थी और उस का बच्चा पलंग पर सो रहा था.

नंदिनी ने बच्चे को गोद में उठा लिया. बच्चे के पास एक चिट्ठी रखी  थी. नंदिनी ने उसे पढ़ना शुरू किया:

‘दीदी, मैं पागल नहीं हूं, लेकिन मु?ो पागल बनना पड़ा, क्योंकि अगर मैं ऐसा नहीं करती, तो आप मु?ो अपने घर में नहीं रखतीं.

‘मैं बहुत गरीब घर से हूं. कुछ समय पहले संजय साहब मेरे गांव आए थे. उन्होंने मु?ो एक अच्छी जिंदगी के सपने दिखाए, लेकिन बदले में आप ने जान ही लिया होगा कि मैं ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है.

‘दीदी, मैं ने ही साहब को मजबूर किया था कि अगर वे मु?ो अपने घर में नहीं रहने देंगे, तो मैं आप को सबकुछ सच बता दूंगी.

‘साहब जैसे भी हैं, लेकिन वह अपना घर नहीं तोड़ना चाहते हैं. अगर मैं चाहती, तो आप के घर रह सकती थी, लेकिन मैं जानती हूं कि सच को ज्यादा दिनों तक नहीं छिपाया जा सकता.

‘दीदी, आप इतनी अच्छी हैं कि कभीकभी मु?ो लगता था कि मैं आप के साथ बेईमानी कर रही हूं, लेकिन इस बच्चे की वजह से चुप कर जाती थी.

‘दीदी, अब यह आप का बच्चा है. आप जैसे चाहें इस की परवरिश कर सकती हैं.

‘मैं ने साहब को माफ कर दिया है. आप भी उन को माफ कर दो.’

नंदिनी चिट्ठी पढ़ कर मानो आसमान से नीचे गिर पड़ी. इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा गुनाह. उस की आंखों के सामने सबकुछ होता रहा और उसे पता भी नहीं चला.

उस ने कभी भी संजय और रेवा को एकसाथ नहीं देखा था और न ही दोनों को कभी बातें करते सुना था, तो फिर कब…?

नंदिनी को लगा कि कमरे की दीवारें चीखचीख कर कह रही हैं, ‘नंदिनी, पगली वह नहीं तू थी, जो अपने पति और एक अनजान लड़की पर भरोसा कर बैठी. पगली…पगली…पगली…’

पिंकी खुराना

पार्ट टाइम जॉब : श्याम का व्यस्त जीवन

दुबलापतला श्याम श्रीवास्तव उर्फ पेपर वाला सवेरेसवेरे रोज की तरह मनोज के कमरे में अखबार देने के लिए दाखिल हुआ. उस ने दरवाजा खोलते ही मनोज की लाश पंखे से लटकी देखी.

इस के बाद अफरातफरी मच गई. कुछ ही समय में एंबुलैंस और पुलिस की गाडि़यों का काफिला, जिस में सीनियर इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश, सबइंस्पैक्टर परितेश शर्मा और हवलदार बहादुर सिंह जैसे कई काबिल अफसर शामिल थे, मौका ए वारदात पर पहुंचा.

घर के बाहर लोगों का हुजूम देख कर पुलिस को समझने में देर न लगी कि यही वह जगह है, जहां से उन्हें फोन किया गया था.

पुलिस को देख कर भीड़ एक ओर हट कर खड़ी हो गई. फोन करने वाले श्याम से जब पूछताछ की गई, तो उस ने बताया कि वह शुरू से ही हर रोज मनोज के कमरे में अखबार डालने आता है, पर आज जैसे ही उस ने अखबार देने के लिए दरवाजा खोला, वैसे ही सामने उसे मनोज पंखे से फांसी पर लटका हुआ मिला.

सीनियर इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश को अखबार वाले श्याम का बयान थोड़ा खटका. इतने में ही आसपास रह रहे छात्रों से सूचना मिली कि मनोज का पूरा नाम मनोज दास है और अभी कुछ ही महीनों पहले वह कोलकाता से दिल्ली पढ़ने के लिए आया था और आते ही इस स्टूडैंट हब में कमरा किराए पर ले कर रहना शुरू कर दिया था. उस के साथ यहां और कोई नहीं आया था.

मनोज के पिताजी ही उसे शुरू में यहां कमरा किराए पर दिलवा कर गए थे. मनोज यहीं पर अपनी कोचिंग किया करता था.

मनोज की लाश को फौरन जांच के लिए फौरैंसिक लैब भेज दिया गया और उस के कमरे के सामान की छानबीन शुरू कर दी गई.

साइबर ऐक्सपर्ट की मदद से मनोज की कौल हिस्ट्री निकाल ली गई. उन के पिता का नंबर तलाश कर उन्हें सूचना भिजवा दी गई.

पर, एक नंबर था, जिस से मनोज दिन में कई बार बातें किया करता. उस नंबर को ट्रेस करने के बाद सिर्फ  इतना ही मालूम हुआ कि वह नंबर दिल्ली का ही है. इस से ज्यादा पता लगाना मुश्किल था, क्योंकि वह नंबर बिना किसी आइडैंटिटी के खरीदा  गया था.

कमरे की छानबीन से कुछ खास सुबूत तो हाथ न लगा, पर एक बात अभी भी इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश के मन में किसी सवाल की तरह घूमे जा रही थी और वह थी अखबार वाले श्याम का बयान, क्योंकि अमूमन अखबार वाला अखबार बालकनी में फेंक देता है या दरवाजे के नीचे से सरका देता?है. उसे इतनी फुरसत कहां होती है, जो सब के हाथ में अखबार पकड़ाए और क्या मनोज ने दरवाजा खोल कर खुदकुशी की थी?

सीनियर इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश ने हवलदार को इस श्याम अखबार वाले पर नजर रखने को कहा और साथ ही, खबरियों को भी इस की जानकारी निकलवाने का आदेश दिया.

उधर अगले ही दिन की फ्लाइट से मनोज के मातापिता दिल्ली पहुंचे और थाने जा कर अपना परिचय दिया. अपने बेटे की चादर से ढकी लाश देख कर मनोज के मातापिता का रोरो कर बुरा हाल हो गया.

पुलिस ने मनोज के मातापिता को दिलासा दी और पूछताछ के लिए सीनियर इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश के पास ले आए.

मनोज के पिता पुरुषोत्तम दास और माता संगीता दास ने बताया कि मनोज बचपन से ही पढ़ाईलिखाई में काफी होशियार था, जिस के चलते उन्होंने उसे पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा था.

इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश ने मनोज से मिलतेजुलते और कई सवाल पूछे और फिर उन के बेटे की लाश उन्हें सौंप दी.

अभी मनोज के मातापिता को लाश के साथ विदा किया ही गया था कि एक खबरी से खबर मिली, जिस में उस ने बताया, ‘‘साहब, श्याम का असली रोजगार अखबार बेचना नहीं है. इस के अलावा वह और भी कई गैरकानूनी धंधों में शामिल है, पर पूरी तरह से नहीं.’’

हवलदार बहादुर सिंह ने भी यही बताया, ‘‘श्याम का पिछले कई सालों से छोटीमोटी चोरीचकारी और छीनाझपटी के लिए थानों में नाम आता रहा है, पर इस का नाम ऐसे किसी संगीन मामले में नहीं पाया गया है.’’

सीनियर इंस्पैक्टर श्रीप्रकाश के इशारे पर आधी रात को ही श्याम को घर से उठवा कर थाने में बुलवा लिया गया. शुरुआत में किसी भी सवाल का सही जवाब न मिलने पर श्याम को रिमांड में लेने को कहा गया, जिस से डर कर उस ने तोते की तरह सबकुछ सच उगलना शुरू कर दिया.

बात कुछ महीने पहले की है. श्याम छोटामोटा जेबकतरा था, पर इस काम में आगे जातेजाते उस की मुलाकात कई गैरकानूनी धंधे करने वाले गिरोह से हुई. उन्हीं में से एक था विकी छावरा उर्फ ‘सिकंदर’ जिस का काम बड़ेबड़े रईसजादों के लिए ड्रग्स और लड़कियों की तस्करी करना था. इस काम के लिए उसे दलाल की जरूरत थी.

श्याम भी जानता था कि बड़े कामों में पैसा भी बड़ा है, ऊपर से खुद का भी अलग ही रोब होता है महल्ले वालों में. उस ने धीरेधीरे सिकंदर के करीब  आना शुरू कर दिया और देखते ही देखते उस का खास और भरोसेमंद आदमी बन गया.

श्याम का काम ड्रग्स सप्लाई करने के लिए लड़के तलाशना था और किसी भी तरह उन्हें अपने साथ काम करने के लिए मजबूर करना था, जिस के चलते उस ने अखबार बेचने का काम शुरू कर दिया, जिस से घर से दूर यहां पढ़ने आए छात्रों से बातचीत कर उन के नजदीक आया जाए और नएनए लड़के तैयार किए जाएं.

तकरीबन 5 महीने पहले मनोज भी यहां पढ़ने के लिए आया था. यों तो सभी अपने साथियों के साथ रहा करते थे, पर मनोज अकेला था, जिस से  श्याम का काम कुछ हद तक आसान हो गया था.

कुछ दिनों की दोस्ती में बातों ही बातों में श्याम को पता लगा कि मनोज माली तंगी झेल रहा है, जिस के लिए उसे छोटेमोटे पार्टटाइम जौब की तलाश है.

श्याम ने भी लगे हाथ अपना पत्ता फेंक दिया और कहा, ‘देख मनोज, तुझे पार्टटाइम जौब चाहिए, तो मैं दिलवा सकता हूं. बस डिलीवरी का काम है. पैसा भी किसी फुलटाइम जौब से कम नहीं मिलेगा.’

‘भैया, फिर तो मैं तैयार हूं,’ मनोज ने कहा.

‘अरे, जहां का पता दिया जाए, वहां पर एक छोटी सी थैली पहुंचानी है,’ श्याम ने झूठी हंसी हंसते हुए कहा.

मनोज काम करने के लिए तैयार हो गया. उसे लिफाफे में कुछ दिया जाता और साथ ही एक परची पर पता भी लिख कर दे दिया जाता.

मनोज वह छोटी सी थैली पैंट की जेब में डाल कर उसे दिए गए पते पर छोड़ आता, जिस के बदले में उसे अच्छीखासी रकम नकद मिल जाती.

ऐसे ही कुछ महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा. एक दिन मनोज के जेहन में आया कि आखिर छोटी सी थैली में ऐसी क्या कीमती चीज है, जिस के लोग इतने रुपए दे देते हैं.

उस ने थैली को खोल कर देखा. उस के अंदर सफेद चूर्ण सा दिखने वाला कोई पदार्थ था.

मनोज पढ़ालिखा था. उसे शक हो गया कि कहीं यह उसी चीज की थैली तो नहीं, जिस के बारे में उस ने कई फिल्मों में देखा है. उस का शक तब और भी पक्का हुआ, जब उस ने उस सफेद चूर्ण से दिखने वाले पाउडर को सूंघ कर देखा और एहसास हुआ कि उस से इतने दिनों से एक गैरकानूनी काम करवाया जा रहा है.

उस ने तुरंत श्याम को फोन कर धमकी दी कि वह सुबह होते ही उस का भांड़ा फोड़ देगा और उस के खिलाफ केस करेगा.

इधर, श्याम ने यह सारा माजरा सिकंदर को फोन कर के बताया. सिकंदर एक शातिर मुजरिम था. उसे ऐसे हालात से भी मुनाफा कमाना खूब अच्छी तरह से आता था.

उस ने कुछ गुरगे भेज कर मनोज को अपने पास बुलवाया और खूब मीठीमीठी बातों से आदरसत्कार किया.

मनोज नहीं जानता था कि श्याम के भी ऊपर कोई है, जो इन चीजों का मास्टरमाइंड है. सिकंदर की दबंगई देख कर उस का भी दिल सहम गया. उसे महसूस हुआ कि वह ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में कैसे लोगों के चक्कर में फंस चुका है.

सिकंदर ने मीठी जबान में कहा, ‘अरे, क्या है भाई. पढ़ेलिखे हो, समझदार हो, यह पुलिस की धमकी देते हुए अच्छे लगते हो क्या? अच्छा, यह लो, इसे ले जाओ अपने साथ और मजे करो.’

सिकंदर ने अपने बगल में खड़ी एक खूबसूरत लड़की को पकड़ मनोज की ओर धकेल दिया. उस लड़की को देख मनोज का भी दिल बहक सा गया और वह सिकंदर के दिए हुए तोहफे को मना नहीं कर सका.

मनोज उसे अपने घर ले आया. उस लड़की ने मौका पा कर मनोज को बेहोश कर दिया और बाहर हाथ में रस्सी लिए उस लड़की के इशारे ओर देख रहे श्याम और सिकंदर को जैसे ही कमरे के अंदर से उस लड़की का फोन आया, वे दोनों चुपचाप मनोज को रस्सी के सहारे पंखे से लटका कर अपनेअपने ठिकाने पर लौट गए.

अगले दिन योजना के मुताबिक श्याम अनजान आदमी की तरह मनोज के कमरे में अखबार देने गया और खुद शक के घेरे से बाहर निकलने के लिए सामने से पुलिस को फोन कर दिया.

इतना बताने के बाद ही हवलदार बहादुर सिंह फौरैंसिक रिपोर्ट ले कर हाजिर हुआ, जिस में साफसाफ  लिखा था, ‘मौत बेहोशी की हालत में हुई है’.

जाल: आखिर अनस को गिरफ्तार क्यों किया गया

लल्लन मियां ने बहुत मेहनत से यह गैराज बनाया था और आज उन का यह काम इतना बढ़ गया था कि लल्लन मियां के सभी बेटे भी इसी काम में लग गए थे.

पर आजकल गैराज के काम में भी कंपीटिशन बहुत बढ़ गया था. ग्राहक भी यहांवहां बंट गए थे, जिस के चलते धंधा थोड़ा मंदा हो गया था. इस से लल्लन मियां थोड़ा परेशान भी रहते थे. उन की परेशानी की वजह थी कि उन का मकान अभी पूरी तरह से बन नहीं पाया था.  2 कमरे और एक रसोईघर ही थी.

लल्लन मियां के 3 बेटे थे, जिन में से 2 बेटों की शादी हो चुकी थी और तीसरा बेटा अनस अभी तक कुंआरा था.

दोनों बहुओं का दोनों कमरों पर कब्जा हो गया. अम्मीअब्बू बरामदे में सो जाते और अनस आंगन में.

पता नहीं क्यों, पर जब भी अनस के अब्बू उस से रिश्ते की बात करते, तो वह उन की बात सिरे से ही खारिज कर देता.

‘‘अब अनस से क्या कहूं…? तुम्हीं बताओ अनस की अम्मी कि वह अब  25 बरस का हो चुका है… शादी करने की सही उम्र है और फिर फरजाना जैसी अच्छी लड़की भी तो न मिलेगी… पर यह मानता ही नहीं,’’ लल्लन मियां अनस की अम्मी से मशवरा कर रहे थे.

‘‘अजी, आप इतनी गरमी से बात मत करो… जवान लड़का है… क्या पता, कहीं उस के दिमाग में किसी और लड़की का खयाल बसा हो…? मैं अपने हिसाब से पता लगाती हूं,’’ अनस की अम्मी ने शक जाहिर करते हुए कहा.

जुम्मे वाली रात को अम्मी ने अनस को अपने पास बिठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगीं, ‘‘देख अनस, तेरे अब्बू ने बड़ी मेहनत से इस परिवार की खुशियों को संजोया है. यह छोटा सा मकान बनवा कर उन्होंने अपने सपनों में सुनहरे रंग भरे हैं और अब हम दोनों ही यह चाहते हैं कि तेरी शादी अपनी इन आंखों से देख लें.’’

‘‘पर अम्मी, मैं तो अभी निकाह करना ही नहीं चाहता,’’ अनस बोला.

‘‘देख बेटा, हर चीज की एक उम्र होती है और तेरी शादी कर लेने की उम्र हो गई है. हां, अगर कोई लड़की खुद  के लिए पसंद कर रखी हो, तो मुझे बेफिक्र हो कर बता सकता है. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’’

‘‘नहीं अम्मी, ऐसी तो कोई बात नहीं है,’’ इतना कह कर अनस चला गया.

अगले दिन ही अनस ने शमा से मुलाकात की.

‘‘सब लोग मेरे पीछे पड़े हैं…  शादी कर लो, शादी कर लो,’’ अनस परेशान हालत में कह रहा था.

‘‘तो कर लो शादी… इस में हर्ज ही क्या है?’’ शमा ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम अच्छी तरह से जानती हो शमा कि अब्बू ने बड़ी मुश्किल से 2 कमरे का मकान बनवाया है. उन दोनों कमरों में दोनों बड़े भाई रह रहे हैं. अब तुम ही बताओ कि मैं शादी कर के भला क्या तुम्हें आंगन में बिठा दूं…’’ अनस काफी गुस्से में था.

‘‘अब तो ऐसे में हमारे सामने सिर्फ 2 ही रास्ते हैं… पहला रास्ता यह है कि हम शादी कर लें और उसी घर में जैसेतैसे गुजारा करें. दूसरा रास्ता यह है कि हमतुम पैसे जमा करें और जो छोटीमोटी रकम जमा हो सके, उस  से एक छोटा सा कमरा बनवा लें,’’ शमा ने कहा.

दरअसल, अनस ने अपनी जिंदगी में एक वह समय भी देखा था, जब अब्बू ने प्लाट खरीदने के बाद दीवारें तो खड़ी कर ली थीं, पर पैसों की तंगी के चलते कमरे बनवा पाना उन के बस में नहीं रह गया था.

इस से अनस के दोनों बड़े भाइयों कमर और जफर को दिक्कत हुई, क्योंकि दोनों शादीशुदा थे और दिनभर के काम के बाद अपनी बीवियों के साथ रात गुजारें भी तो कैसे?

हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों भाइयों की चारपाई अलग और उन की बीवियों की चारपाई अलग पड़ने लगी.

पर भला ऐसा कब तक चलता? उन सभी की जिस्मानी जरूरत उन लोगों को एकसाथ रात गुजारने को कहती थी, पर हालात के चलते ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं लग रहा था.

अपनी जिस्मानी जरूरत और रात गुजारने की मुहिम की शुरुआत करने में पहला कदम बड़े भाई कमर ने उठाया. बड़े ही करीने से कमर ने अपनी चारपाई को दीवार से सटा कर डाल दिया और उस के ऊपर आड़ेतिरछे बांस अड़ा कर एक खाका बनाया और उस के ऊपर से एक बेहतरीन टाट का परदा डाल दिया. अब यह जगह ही कमर और बीवी का ड्राइंगरूम थी और यही जगह उन का बैडरूम भी.

छोटे भाई जफर को यह सब थोड़ा अजीब भले ही लगा हो, पर उस ने कभी हावभाव से कुछ जाहिर नहीं होने दिया. अलबत्ता, कुछ दिनों के बाद उस ने भी दूसरी दीवार के पास अपनी चारपाई डाल कर उसे भी टाट से कवर कर के अपना बैडरूम बना लिया.

कमर और जफर और उन की बीवियां तो अब टाट के परदे के अंदर सोते और बाकी सब लोग आंगन में,

अनस के दोनों बड़े भाई बेफिक्री से रात में अपनी शादीशुदा जिंदगी का मजा लूटते, पर उन लोगों की चारपाई की चूंचूं की आवाज अनस की नींद खराब करने को काफी होती. भाभियों की खनकती चूडि़यां अनस को बिना कुछ देखे ही टाट के अंदर का सीन दिखा जातीं.

कुंआरा अनस आंगन में लेटेलेटे ही बेचैन हो उठता. कुछ समय तक एक खास अंदाज में चारपाई की चूंचूं होती और उस के बाद एक खामोशी छा जाती. कहने को तो हर काम परदे में हो रहा था, पर हर चीज बेपरदा हो रही थी.

अगर किसी रात में कमर की चारपाई पर खामोशी रहती, तो जफर की चारपाई पर आवाजें शुरू हो जातीं. अनस अकसर सोचता कि भला ये आवाजें अम्मीअब्बू को सुनाई नहीं देती होंगी क्या? क्या वे लोग जानबूझ कर इन आवाजों को अनसुना कर देते हैं?

रात में होने वाली इन आवाजों से अनस परेशान हो जाता. उस के भी कुंआरे मन में कई उमंगें जोर मारने लगतीं और वह कभीकभार तो अपने बिस्तर पर ही उठ कर बैठ जाता और जब सुबह के समय गैराज में नींद न पूरी होने के चलते काम में उस का मन नहीं लगता, तब अब्बू और उस के बड़े भाई उसे डांटते.

ये सारी परेशानियां कम जगह और पैसे की तंगी के चलते ही तो थीं. अनस हमेशा ही एक अलादीन के चिराग की खोज में रहता, जिस से उस की सारी माली तंगी दूर हो जाती.

हालांकि वक्त हमेशा एकजैसा नहीं रहता. कमर और जफर ने खूब मेहनत कर के पैसा इकट्ठा किया और छोटेछोटे 2 कमरे बनवा लिए, जिन्हें दोनों शादीशुदा भाइयों ने आपस में बांट लिया.

पर, अनस और अम्मीअब्बू के लिए अब भी कमरा नहीं था. वे सब अब भी बाहर बरामदे में ही सोते थे.

पैसे और जगह की तंगी के चलते ही अनस ने अपने मन में यह फैसला ले लिया था कि जब तक घर में रहने के लिए एक कमरा नहीं बनवा लेगा, तब तक वह शादी के लिए हामी नहीं भरेगा और इसीलिए अनस ने अब तक शादी के लिए हामी नहीं भरी थी.

उस दिन पता नहीं क्यों शमा फोन पर बहुत घबराई हुई थी, ‘हां अनस… आज ही तुम से मिलना जरूरी है… बताओ, कहां और कितनी देर में मिल सकोगे?’

‘‘हां… मिल तो लूंगा… पर सब खैरियत तो है?’’

पर उस की इस बात का शमा ने कोई जवाब नहीं दिया. फोन काटा जा चुका था.

दोपहर को 2 बजे शमा और अनस उसी पार्क में एकसाथ थे, जहां वे अकसर मिला करते थे.

‘‘अब्बू मेरा निकाह कहीं और करने जा रहे हैं… अगर मुझ से निकाह  नहीं करना है तो कोई बात नहीं,’’ शमा ने कहा.

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. पर जब तक मैं अपने घर में एक कमरा न बनवा लूंगा, तब तक कैसे निकाह कर लूं, तुम्हीं बताओ?’’ अनस ने अपनी परेशानी जाहिर की.

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‘‘हां… मैं तुम्हारे घर की परेशानी समझती हूं, पर एक कमरा न सही तो क्या हुआ, जहां दिलों में गुंजाइश होती है वहां सबकुछ हो जाता है… और फिर मेरे हाथों में भी हुनर है. शादी के बाद मैं भी कशीदाकारी का काम करूंगी और हम दोनों मिल कर पैसे कमाएंगे तो हम एक कमरा बहुत जल्दी ही बनवा लेंगे,’’ शमा ने राह सुझाई.

अनस बेचारा दोराहे पर फंस गया था. अगर वह शमा से निकाह करता है, तो उस के घर में कमरे की परेशानी है. और अगर यह बात सोच कर वह शादी नहीं करता है, तो शमा ही उस की जिंदगी से चली जाएगी… क्या करे और क्या न करे?

इसी ऊहापोह में अनस गैराज में आ कर काम करने लगा, पर उस का मन काम में न लगता था. बारबार उस की आंखों के सामने शमा का चेहरा घूम जाता था और वह खुद को एक हारा हुआ खिलाड़ी महसूस करने लगता था.

एक दिन जब अनस को और कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने अपनी और शमा की मुहब्बत के बारे में अम्मी को सबकुछ बता दिया.

अम्मी को अनस की यह साफगोई पसंद आई और उन्होंने भी अब्बू से बात कर के शमा के घर पैगाम भिजवा दिया.

शमा के घर वाले भी सुलझे हुए लोग थे. उन्होंने भी रिश्ता पक्का करने में कोई देरी नहीं की और अनस का निकाह शमा के साथ कर दिया गया.

घर के दोनों कमरों में बड़े भाईभाभियों का कब्जा था. लिहाजा, अपनी शादी की पहली रात में अनस को भी एक दीवार का ही सहारा लेना पड़ा. उस ने अपनी चारपाई एक दीवार के सहारे लगा कर उस पर एक सुनहरे रंग का परदा लगा दिया.

‘‘नई दुलहन के लिए कोई भाभी अपना कमरा 2-4 दिन के लिए खाली नहीं कर सकती थी क्या? पर नहीं… यहां तो बूढ़ों के भी रंगीन ख्वाब हैं,’’ भनभना रहा था अनस.

पूरी रात अनस ने शमा को हाथ भी नहीं लगाया, क्योंकि वह चारपाई से निकलने वाली आवाजों से अनजान न था. अपने मन को कड़ा किए वह चारपाई के एक कोने में बैठा रहा, जबकि शमा दूसरी तरफ. 2 दिल कितने पास थे, पर उन के जिस्म एकदूसरे से कितनी दूर.

अगले दिन से ही अनस को पैसे कमाने की धुन लग गई थी. वह जल्दी से जल्दी पैसे कमा कर अपने और शमा के लिए एक कमरा बनवा लेना चाहता था, इसीलिए गैराज में 12-12 घंटे काम करने लगा था.

एक दिन की बात है, अनस जब गैराज में काम कर रहा था, तभी एक बड़े आदमी की गाड़ी वहां आ कर रुकी. उस गाड़ी के एयरकंडीशनर की गैस निकल जाने के चलते एयरकंडीशनर नहीं चल रहा था और उस में बैठा हुआ आदमी बेहाल हुआ जा रहा था.

अनस ने उस की परेशानी समझी और फटाफट काम में लग गया. तकरीबन आधा घंटे में उस की गाड़ी का एयरकंडीशनर ठीक कर दिया.

‘‘बड़े मेहनती लगते हो… मुझे मेरे काम में भी तुम्हारे जैसे जवान और मेहनती लोगों की जरूरत रहती है… अगर तुम चाहो, तो मेरे साथ जुड़ सकते हो. मैं तुम्हें तुम्हारे काम की अच्छी कीमत दूंगा.’’

‘‘पर, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘एक गाड़ी वाले से गाड़ी का ही काम तो लूंगा न… उस की चिंता मत करो… अगर मन करे, तो मेरे इस पते  पर आ जाना,’’ इतना कह कर वह सेठ चला गया.

यह एजाज खान का कार्ड था, जो दवाओं का होलसेलर था.

अनस पैसे के लिए परेशान तो था ही, इसलिए एक दिन एजाज खान के पते पर जा पहुंचा और काम मांगा.

‘‘ठीक है, तुम्हें काम मिलेगा… पर, मैं तुम से कुछ छिपाऊंगा नहीं. मुझे तुम्हारे जैसे तेज ड्राइवर की जरूरत है, जो रात में ही इस गाड़ी को शहर के बाहर ले जा सके और सुबह होने से पहले वापस भी आ सके.’’

शहर के बाहर वाले पैट्रोल पंप पर एक आदमी तुम्हारे पास आएगा, जिसे तुम्हें ये दोनों डब्बे देने होंगे और वापस यहीं आना होगा.’’

‘‘पर, इन डब्बों में क्या है?’’

‘‘इन डब्बों में ड्रग्स हैं… मैं ड्रग्स का काम करता हूं और इस के शौकीन लोगों को इस की डिलीवरी करवाना मेरी जिम्मेदारी है.’’

अनस अच्छी तरह समझ गया था कि एजाज खान उस से गैरकानूनी काम कराना चाहता?है, पर अपनी शादीशुदा जिंदगी में रंग घोलने के लिए अनस को भी पैसे की जरूरत थी.

अनस को यह काम करने में थोड़ी हिचक तो हुई, पर उस ने इसे करना मंजूर कर लिया. उस ने एजाज खान की गाड़ी शहर से बाहर ले जा कर पैट्रोल पंप पर खड़ी कर के वे डब्बे एक शख्स को दे दिए और वापस आ गया.

एजाज खान ने उसे इस जरा से काम के 25,000 रुपए दिए, तो अनस बहुत खुश हुआ.

‘‘बस शमा… अब देर नहीं है… ये देखो 25,000 रुपए… मुझे एक नया काम मिल गया?है, जिस के जरीए मैं खूब सारे पैसे कमा लूंगा और फिर अपना एक अलग कमरा होगा, जिस में हम दोनों खूब प्यार कर सकेंगे,’’ घर आ कर अनस ने शमा के हाथ को हलके से दबाते हुए कहा. यह सुन कर एक अच्छे भविष्य की कल्पना से शमा की आंखें भी छलछला आईं. 2 दिन बाद अनस के मोबाइल  पर एजाज खान का फोन आया, जिस  में उस ने एक बार और गाड़ी से दवा  की डिलीवरी करने के लिए अनस  को बुलाया.

हालांकि इस बार दवाओं के डब्बों की मात्रा ज्यादा थी, लेकिन पिछली बार की तरह अनस इस बार भी आराम से दवाएं डिलीवर कर आया था और इस के बदले में एजाज खान ने उसे 40,000 रुपए दिए.

अनस से ज्यादा खुश आज कोई नहीं था. वह पैसे ले कर सीधा बाजार पहुंचा और वहां से एक मिस्त्री की सलाह से ईंट, सीमेंट और मौरंग का और्डर कर दिया. वह जल्द से जल्द अपना कमरा बनवा लेना चाहता था.

अनस बिस्तर पर लेटा हुआ था. उस के नथुने में सीमेंट और मौरंग की महक रचबस जाती थी. वह सोच रहा था कि जिंदगी में सारी तकलीफें पैसे की कमी से आती?हैं, पर आज अनस के पास पैसा भी था और मन ही मन में ये सुकून भी था कि अब उसे और शमा को टाट के साए में नहीं सोना पड़ेगा.

रात के 11 बजे होंगे कि अचानक अनस का मोबाइल बजा, उधर से  एजाज खान बोल रहा था, ‘तुम अभी  मेरे पास चले आओ और एक गाड़ी दवा की ले कर तुम्हें शहर के बाहर जाना  है. वहां पर एक आदमी तुम से माल  ले लेगा.’

‘‘पर, अभी तो आधी रात हो रही है. और फिर मैं सोया भी नहीं हूं… मैं कैसे जा सकता हूं.’’

‘ज्यादा चूंचपड़ मत करो और चले आओ… पिछली बार से दोगुना दाम दूंगा… और वैसे भी हमारे धंधे में आने का रास्ता तो है, पर जाने का कोई रास्ता नहीं,’

कह कर एजाज खान ने फोन  काट दिया.

‘‘इतनी रात गए जाना पड़ेगा…?’’ शमा ने पूछना चाहा.

‘‘बस मैं यों गया और यों आया.’’

एजाज खान से गाड़ी ले कर अनस चल पड़ा. हाईवे पर उस की कार तेजी से भागी जा रही थी. अचानक अनस चौंक पड़ा था. सामने पुलिस की

2 जीपें रोड के बीचोंबीच खड़ी थीं. न चाह कर भी अनस को अपनी कार रोकनी पड़ी.

‘‘हमें तुम्हारी गाड़ी चैक करनी है… पीछे का दरवाजा खोलो,’’ एक पुलिस वाले ने कहा.

अनस के माथे पर पसीना आ गया, ‘‘पीछे कुछ नहीं है सर… दवाओं के डब्बे हैं. बस इन्हें ही पहुंचाने जा रहा हूं,’’ अनस ने कहा.

‘‘हां तो ठीक है… जरा हम भी तो देखें कि कौन सी दवाएं हैं, जिन्हें तू इतनी रात को ले जा रहा हैं,’’ पुलिस वाला बोला.

अनस को अब भी उम्मीद थी कि वह बच जाएगा, पर शायद ऐसा नहीं था. पुलिस ने दवा के डब्बे में छिपी हुई चरस बरामद कर ली थी. अनस को गिरफ्तार कर लिया गया.

अनस के हाथपैर फूल गए थे.

अगले दिन खुद पुलिस वालों ने अनस के मोबाइल से उस के घर वालों को सारी सूचना दी. शमा यह खबर सुन कर बेहोश हो गई.

अब अनस को किसी कमरे की जरूरत नहीं थी. उस की बाकी की जिंदगी के लिए तो जेल का ही कमरा काफी था, क्योंकि ड्रग्स के जाल में वह फंस चुका था.

वह लड़का: क्या जतिन का सपना पूरा हुआ

रिवोली थिएटर, थिएटर के सामने एक सुंदर पार्क, पार्क में हर तरफ बिखरी हुई फूलों की छटा, सीमेंटकंकरीट के जंगलों सी फैली ऊंचीऊंची इमारतों के बीच, मुंबई की उमस से थोड़ी सी राहत पाने की एक जगह. शाम के समय घूमते हुए कुछ बुजुर्ग, शोर मचा कर खेलते हुए बच्चे. कुछ युवकयुवतियां हाथ में हाथ लिए, पार्क की बैंचों पर, जगहजगह सटे बैठे, अपने प्यार के सुखद लमहों को जीते हुए और कुछ लफंगे युवक इधरउधर ताकझांक करते हुए.

कामना पार्क के एक बैंच पर अकेली बैठी थी. पार्क के ये नजारे भी उस के अकेलेपन को दूर नहीं कर पा रहे थे. उस के ठीक सामने वाली बैंच पर एक लड़का भी अकेला बैठा हुआ था. कामना पिछले 10 मिनट से देख रही थी कि वह उसे नजरें चुराचुरा कर देख रहा है.

कामना उठी और उस लड़के के पास आ कर खड़ी हुई. जतिन समझ नहीं पाया कि वह लड़की क्यों खड़ी है. उस ने अपने आसपास और आगेपीछे देखा. उस के अलावा वहां कोई और जानपहचान का नहीं था. जब यह निश्चित हो गया कि वह लड़की उसी से मिलने आई है तो वह सकपका गया. शरीर के रोंगटे खड़े हो गए.

23-24 साल की जिंदगी में उस के साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. पैदल चलते, बसों में, मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफर करते समय, उस ने सैकड़ों लड़कियों के रूप को आंखों से भरते हुए मन में उतारा था. पर कभी कोई लड़की उसे इस प्रकार घूरते हुए देख कर खुद पास नहीं चली आई. उसे पहली नजर में वह लड़की शरीफ घराने की लगी थी. फिर शंका हुई कि वह कहीं चालचलन में खराब तो नहीं है. पर मन नहीं माना. वह जरूर शरीफ घराने की ही है, उस ने अपने मन को समझाया. अब लगा कि यदि उस की सोच सही है तो कहीं वह उसे थप्पड़ मारने का इरादा तो नहीं कर रही है? पार्क में उपस्थित लोगों के सामने शर्मिंदा तो नहीं करना चाहती? एकबारगी जी चाहा कि पार्क छोड़ कर चला जाए पर अंत में वह हिम्मत जुटा कर उस के सामने जा कर खड़ा हो गया.

‘‘बैठो,‘‘ बैंच पर खाली जगह पर बैठते हुए कामना बोली.

जतिन की सांसें जो कुछ देर पहले रुकने लगी थीं, फिर चल पड़ीं. जो कुछ उस ने लड़की के बारे में सोचा था, गलत सिद्ध हो गया. वह शरीफ घराने से ही थी. थप्पड़ मारने और शर्मिंदा करने का उस का कोई इरादा नहीं दिखाई दिया.

‘‘आप बहुत सुंदर हैं,’’ बैठते हुए जतिन ने कहा, ‘‘लाख कोशिशों के बावजूद भी मैं आप के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रहा था.’’

‘‘सच,’’ कामना ने अपनी नीलीनीली आंखें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

‘‘आप को वहां अकेले नहीं बैठना चाहिए था. ये जो लड़के आप के आसपास मंडरा रहे हैं, अच्छे नहीं हैं,’’ वह बोला.

‘‘मैं जानती हूं पर ये मुझे नहीं छेड़ते. मैं यहां रोज जो आती हूं. वैसे तुम्हारा नाम…’’

‘‘जतिन, और आप का?’’

‘‘कामना,’’ उसे गौर से देखते हुए कामना बोली, ‘‘जतिन, जानते हो मैं तुम्हारे पास क्यों आई? तुम में एक गजब का आकर्षण है. तुम्हें देख कर मुझे लगा, जैसे मेरी बरसों की तलाश पूरी होने जा रही है.’’

‘‘फ्लर्टिंग? ’’ जतिन को अपनी तारीफ सुन कर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ कामना ने कहा.

‘‘सच तो यह है कि आप जैसी सुंदर लड़की मैं ने इस पार्क में पहले कभी नहीं देखी,’’ जतिन बोला.

‘‘अब तुम फ्लर्ट कर रहे हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘गुड, मुझे साफ बात करने वाले लड़के ही पसंद हैं. एक बार मुझे फिर से देख कर बताओ कि मैं कैसी लग रही हूं? कोई लड़का यदि लड़की की तारीफ करे तो उसे अच्छा लगता है.’’

जतिन ने इस बार कामना को ऊपर से नीचे तक देखा. ‘‘स्मार्ट, सैक्सी, पार्टीवियर आउटफिट. बिलकुल बेपरवाह हुस्न,’’ उस ने कहा.

‘‘थैंक यू,’’ कामना ने पूछा, ‘‘वैसे करते क्या हो?’’

‘‘एमए कर चुका हूं. अच्छी नौकरी की तलाश में हूं.’’

‘‘मैं ने भी ग्रैजुएशन किया है. मेरी नौकरी करने की मजबूरी नहीं है. पिता हैं नहीं, सिर्फ मां हैं और पिताजी का छोड़ा हुआ खूब पैसा है. सारा दिन सजीसंवरी रहती हूं, दिन में 10 बार सुंदर से सुंदर आउटफिट चेंज करती हूं, मौजमस्ती करती हूं और पैसे लुटाती हूं. बस, यही मेरी जिंदगी है,’’ कामना कुछ गंभीर दिखाई दी.

‘‘फिर यहां पार्क में, अकेले?’’ जतिन ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘मां शादी के लिए पीछे पड़ी हैं. न कोई अच्छा लड़का उन्हें मेरे लिए मिला है और न ही मुझे, जिसे मैं पसंद कर सकूं. जब तनाव बढ़ जाता है तो यहां आ कर बैठ जाती हूं. तुम पहले लड़के हो, जो मुझे अच्छे लगे हो. खैर छोड़ो इन बातों को. यह बताओ कि कालेज में सिर्फ फ्लर्टिंग ही की या कभी किसी लड़की के साथ डेटिंग भी की?’’

जतिन ने कामना के पास खिसकते हुए कहा, ‘‘डियर, किस दुनिया में जी रही हो. फ्लर्टिंग, डेटिंग आज आउटडेटिड हो चुके हैं. जवान लोगों की नई मंजिल है, लिव इन रिलेशन की. वैसे अभी तक मुझे डेटिंग का मौका नहीं मिला पर तुम चाहो तो यह संभव हो सकता है,’’ जतिन अब खुलने लगा था.

‘‘कहां ले चलोगे? मुझे तेज रफ्तार पसंद है. पार्क के बाहर मेरी औडी खड़ी है. उसी से यहां आतीजाती हूं. मुश्किल से 50 किलोमीटर की स्पीड आ पाती है. सब तरफ कीड़ेमकोड़ों की तरह इंसानों की भीड़. 100 किलोमीटर से ऊपर स्पीड आए तो आए कैसे? तुम्हारे पास बाइक है? उसी पर चलेंगे. ड्राइव मैं करूंगी,’’ कामना बोली.

जतिन कामना के थोड़ा और करीब खिसक आया और बोला, ‘‘महाबलेश्वर कैसा रहेगा?’’

‘‘नाइस, परसों चलते हैं, लेकिन अभी से मेरे इतने नजदीक मत आओ. मुझ से इतना चिपक कर मत बैठो. मैं काफी समय से पार्क में आ रही हूं. बहुत लोग मुझे जानने लगे हैं. उन्हें थोड़ा अजीब लगेगा.’’

जतिन ने खिसक कर अपने और कामना के बीच फिर से उतनी ही दूरी बना ली, जितनी पहले थी.

‘‘पानीपूरी खाओगे?’’

‘‘श्योर, लेकिन एक शर्त पर.‘‘

‘‘कैसी शर्त?’’

‘‘पैसे मैं दूंगा.’’

‘‘नहीं, पैसे मैं दूंगी. जिंदगी में सिर्फ तुम हो, जो मुझे एक नजर में ही पसंद आ गए हो. क्या मैं इस खुशी को भी सैलिब्रेट नहीं कर सकती? इच्छा तो है किसी फाइवस्टार होटल में चलें. पर जल्दबाजी में कदम नहीं उठाने चाहिए. गिरने का डर रहता है.’’

‘‘पानीपूरी कहां खाओगी?’’

‘‘पार्क के बाहर एक चाट वाला है. वहीं चलते हैं,’’ कहते हुए कामना ने कलाई घड़ी की तरफ निगाह डाली. साढ़े 7 बज रहे थे. ‘‘ओफ, डेढ़ घंटा हो गया,’’ उस के मुंह से  निकला.

‘‘कहीं और जाना है क्या?’’ जतिन ने पूछा.

‘‘नहीं, मां ज्यादा चिकचिक न करें, यही खयाल रहता है. अभी वक्त है. चलो, चलते हैं,’’ कामना बैंच से उठ गई. जतिन भी उस के साथ ही उठ गया.

पानीपूरी खातेखाते जतिन सोच रहा था कि उस की तो लौटरी लग गई है. एक बार इस के दिल में पूरी तरह से समा गया तो फिर चांदी ही चांदी है. अजगर हो जाऊंगा. अजगर कहां नौकरी करते हैं? आराम ही आराम. ऐश और सिर्फ ऐश.

‘‘चलो, अब थोड़ा पार्क में घूमते हैं,’’ पानीपूरी खा कर लौटते हुए कामना ने कहा. दोनों पार्क में आ कर एक छोर से दूसरे छोर तक घूमने लगे. थोड़ी देर बाद कामना ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मुझ से शादी करोगे?’’

जतिन बोला, ‘‘तुम अच्छी तो लगने लगी हो पर मुझे जिंदगी में सैटल होने में अभी कुछ वक्त लगेगा. अच्छी नौकरी मिलना भी तो आसान नहीं है.’’

‘‘लेकिन मैं ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती. नौकरी न भी करोगे तो चलेगा. मुझे मां की चिकचिक हमेशा के लिए खतम कर के उन्हें खुश करना है.’’

‘‘फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. मैं शादी के लिए तैयार हूं.’’

‘‘एक दिन में जिंदगी के फैसले तो नहीं किए जा सकते. कुछ तुम्हें, मुझे समझना है और कुछ मुझे, तुम्हें. थोड़ा समय तो लगेगा. इसीलिए तो मैं ने डेटिंग के

लिए हामी भरी थी. बस, कुछ दिन डेटिंग, फिर फैसला.’’

‘‘तो फिर एक काम क्यों न करें?

1-2 महीने लिव इन रिलेशनशिप में रह लेते हैं. आजकल तो ट्रायल औफर्स का जमाना है. बिल्डर मकान बना कर बेचते हैं तो एक महीने तक का ट्रायल औफर देते हैं. महीने भर ट्रायल लो. पसंद आए तो खरीदो वरना नहीं. डाक्टर्स ट्रीटमैंट में ट्रायल औफर देते हैं तो होटल खाने में. आजकल हर फील्ड में ट्रायल औफर्स की भरमार है. कालेज में भी तो यही चलन लड़के और लड़कियों के बीच था. इस से एकदूसरे को समझने का मौका मिल जाएगा. बात जमी तो शादी, वरना रास्ते अलगअलग और एकदूसरे को अलविदा. कोई कानूनी कार्यवाही नहीं.’’

‘‘नहीं, यह असंभव है. अब मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती, लाइफ  में मैच्योरिटी आ गई है. ऐसा करते हैं, मैं तुम्हें अपनी मां से मिलवाती हूं. तुम्हारे बारे में उन की राय भी तो जरूरी है, कल एक अच्छी सी ड्रैस पहन कर आ जाना, बाल आज के फैशन के हिसाब से कटवा लेना. उन्हें आधुनिक लड़के पसंद हैं. बाकी मैं संभाल लूंगी,’’ कामना ने जतिन को समझाया.

‘‘कल कितने बजे?’’

‘‘7 या 8 बजे. क्यों टाइम सूट करेगा न? फोन नंबर और पता मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘तो चलो, फिर इसी खुशी में एक मूवी देख ली जाए. डर्टी पिक्चर रिवोली में ही लगी है. क्या बोल्ड डायलौग हैं और विद्या बालन की ऐक्टिंग, एकदम धांसू. तुम्हें पसंद आएगी.’’ जतिन ने शाम को रंगीन बनाने के लिए सुझाव दिया.

‘‘यह पिक्चर तो मैं जरूर देखूंगी, पर तुम्हारे साथ नहीं,’’ कामना ने कहा.

तभी एक सुंदर युवक दोनों के सामने आ खड़ा हुआ. उसे देखते ही कामना रुक गई.

कामना ने युवक से कहा, ‘‘सुहास, इन से मिलो. ये मेरे दोस्त हैं, जतिन. हम दोनों ने शादी करने का फैसला किया है. वास्तव में हम पिछले 2 घंटे से अपनी वैडिंग ही प्लान कर रहे थे.’’

सुहास ने बढ़ कर जतिन से हाथ मिलाया और उसे शादी के लिए बधाई दी.

अब कामना जतिन की तरफ मुड़ी. बोली, ‘‘जतिन, तुम्हारे और मेरे बीच पिछले 2 घंटे में जो कुछ बातें हुईं, सब मनगढ़ंत थीं. सिर्फ टाइमपास. सुहास के यहां पहुंचने तक के लिए. न तो मैं रईस हूं और न ही मेरी मां मेरी शादी के लिए किचकिच करने वाली हैं. मैं भी तुम्हारी तरह ही मध्यवर्गीय परिवार से हूं और सुहास मेरे मंगेतर हैं. जल्दी ही हमारी शादी होने वाली है.

आज मैं इन के साथ यहां डेटिंग के लिए आई हूं. रिवोली में हम डर्टी पिक्चर देखेंगे और डिनर करेंगे. इसीलिए तो मैं ने तुम से थोड़ी देर पहले कहा था कि मैं यह पिक्चर देखूंगी जरूर, पर तुम्हारे साथ नहीं.’’ कामना ने जतिन के चेहरे को पढ़ा, ठगे जाने के हजारों भाव उस के चेहरे पर आजा रहे थे. वह हक्काबक्का, बेजान सा खड़ा कामना की बातें सुने जा रहा था. उस के कानों से गरमगरम लावा बहने लगा था.

कामना ने आगे कहा, ‘‘दरअसल, आज सुहास और मेरी मुलाकात में इतनी देर इसलिए हो गई क्योंकि मैं यहां कुछ जल्दी पहुंच गई और सुहास की लोकल टे्रन लेट हो गई. पार्क में समय गुजारने के लिए जब मैं बैंच पर आ कर बैठी तो कई लफंगे युवकों को अपने आसपास चक्कर लगाते हुए पाया. मैं उन्हें देख कर डर गई.

अचानक मेरी निगाह तुम पर पड़ी. तुम भी मुझे घूर रहे थे. मैं एक नजर में ही पहचान गई कि तुम गुंडे किस्म के लड़के नहीं हो. फिर क्या था? मैं ने तुरंत एक कहानी गढ़ डाली. तुम्हें कहानी का नायक बनाते हुए, हाथ के इशारे से तुम्हें अपने पास बुला डाला. उस के बाद जो कुछ हुआ, तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘बहुत मजेदार,’’ सुहास बोल उठा.

कामना अब सुहास के हाथों में हाथ डाल कर चल पड़ी. जाते समय जतिन के हाथों में एक चाकलेट पकड़ा दी. उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाते हुए बोली, ‘‘बच्चे, जिस कालेज से तुम पढ़ कर निकले हो, वहां मैं प्रोफैसर हूं.’’

कामना जब सुहास के साथ पार्क से बाहर निकल गई तो जतिन की तंद्रा टूटी.

उस के मुंह से कालेज के दिनों वाली गालियां निकलती चली गईं, ‘‘साली… धोखेबाज… लुच्ची… लफंगन.’’

ब्रह्मपिशाच: क्या था ओझा का सच?

शारदा बाबू एक बैंक के कर्मचारी थे. शहर से थोड़ी दूर पर उन का गांव था. उन की पत्नी ज्यादातर अपने गांव में ही रहती थी. उन की बेटी पुनीता करीब 16 या 17 साल की रही होगी. प्राइवेट हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी.

शारदा बाबू के 4 बेटे थे. सब से बड़ा राजेंद्र कादीपुर ब्लाक में विकास अधिकारी था. शारदा बाबू के मकान की छत से लगी हुई मेरी भी छत थी. मैं भी बैंक में ही टाइपिस्ट थी.

एक दिन पुनीता खुशखुश मेरे पास आई, ‘‘भाभीजी, भैया की शादी तय हो गई है. सुना है कि भाभी का स्वभाव बहुत ही अच्छा है. कल हम सब लोग शादी में गांव जा रहे हैं. आप भी चलिए न.’’

‘‘तू जा, बेटी. मेरी छुट्टियां थोड़े ही हैं,’’ कह कर मैं ने उसे टाल दिया.

सब से छोटी और इकलौती बेटी होने के कारण पुनीता अपने मांबाप और भाइयों की बहुत दुलारी थी. बड़ा भाई राजेंद्र उसे बहुत प्यार करता था.

जब भी वह गांव से आता, भाभी लाने की बात चलने पर वह उसे बड़े प्यार से थपथपा कर कहता, ‘‘बहुत जल्दी आएगी तेरी भाभी. आते ही पहले ही दिन उस को समझा दूंगा मैं, ‘देखो भई, पुनीता मेरी प्यारी बहन है. इसे एक शब्द भी कभी कड़ा मत कहना. मेरे बच्चे की तरह है यह.’’’

पुनीता यह सुन कर खुशी से नाच उठती. यही कारण था कि भाभी के आने की बात सुन कर उस का तनमन खुशी से नाच उठा था. पुनीता को कई बार टाइफाइड हो चुका था. उस का मस्तिष्क बीमारी के कारण कुछ कमजोर हो चला था. यही कारण था कि शारदा बाबू परेशान हो कर स्कूल में कई बार फेल होने पर उस को प्राइवेट परीक्षा ही दिला रहे थे.

तीसरे दिन गांव से लौट कर पुनीता अपने स्वभाव के अनुसार मेरे पास आई तो उस के गुलाबी हंसमुख चेहरे पर परेशानी झलक रही थी. आंखें ऐसी लग रही थीं जैसे रात भर कोई भयानक स्वप्न देखा हो. उस के खूबसूरत चेहरे पर पीड़ा फैली हुई थी.

‘‘कैसी है तेरी भाभी? खूब मजा आया होगा न? मेरे लिए मिठाई लाई है?’’ मैं ने प्यार से पूछा.

‘‘मिठाई?…कभी नहीं. नई भाभी जो आ गई है. अब मिठाई कभी नहीं मिलेगी. भाभीजी ने मुझे बहुत डांटा. मुझ से दाल में ज्यादा हो गया था…अरे हां, नमक ज्यादा हो गया था. तब भी भैया और भाभी को ऐसा नहीं करना चाहिए था. आप ही बताइए, अब मैं क्या करूं? क्या नदी में कूद पड़ूं?’’ कह कर उस ने मुझे झिंझोड़ दिया.

‘‘पुनीता, तू क्या कह रही है? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. किसी भी छोटी सी बात का इतना बुरा नहीं मानते. तेरी तबीयत ठीक नहीं मालूम देती. अरे, तुझे तो तेज बुखार भी है. जा कर आराम कर.’’

मेरे कहने पर पुनीता चली गई

और मैं अपने काम में व्यस्त हो गई.

शाम को मैं दफ्तर से लौट कर कमरे में आई ही थी कि शारदा बाबू के घर

से चीखें और फिर बहुत शोरगुल सुनाई देने लगा.

मैं चाय पीना भूल कर उन की छत से लगी मुंडेर पर जा खड़ी हुई. शारदा बाबू की छत का दृश्य बहुत ही बुरा था. तिमंजिले की छत के किनारे पर बैठी पुनीता पागलों की तरह चीखचीख कर नीचे कूदने का प्रयास कर रही थी.

वह कभी हंसती, कभी रोती, अपना सिर झटकझटक कर कह रही थी, ‘‘मुझे छोड़ दो. नीचे वही बुला

रहा है…मैं नहीं कूदूंगी तो वह मुझे

खा जाएगा… वह हिंदुस्तान का राजा है. मुझे बहुत चाहता है, छोड़ दो मुझे, ह…ह…ह…’’

पुनीता को एक तरफ उस के पिताजी और दूसरी तरफ उस का छोटा भाई सुरेंद्र पकड़े हुए थे.

पुनीता की आंखें लाल सुर्ख और फूली हुई थीं. शायद उसे अब भी तेज बुखार था. उस के बाल खुले थे और चेहरे पर पूरे पागलपन के लक्षण थे.

उस को किसी प्रकार खींच कर शारदा बाबू नीचे ले गए और कमरे में बंद कर दिया.

पुनीता की मां जारजार रोती हुई बोलीं, ‘‘बहनजी, सुबह से यह कुछ बहकीबहकी बातें कर रही थी. मैं ने सोचा गांव में किसी से किसी बात पर नाराज हो कर बड़बड़ा रही होगी. लेकिन दोपहर के 12 बजतेबजते यह खूब जोर- जोर से रोने और बाहर भागने लगी. दरवाजे पर ताला लगा दिया तो सीढ़ी से चढ़ कर तिमंजिले पर भागी.

‘‘इस के पिताजी ने किसी काम के कारण छुट्टी ले रखी थी, नहीं तो अनर्थ हो जाता. पुनीता कूद कर आत्महत्या कर लेती. लड़की की जाति, अब मैं क्या करूं, बहनजी? कुछ भी समझ में नहीं  आ रहा है. आप ही बताइए न कोई उपाय…’’

यह कह कर पुनीता की मां दीनहीन सी बिलख पड़ीं. स्वाभाविक ही था

कि खूबसूरत जवान लड़की देखते ही देखते न जाने क्यों अपना संतुलन खो बैठी थी.

‘‘आप घबराइए नहीं. मुझे तो लगता है कि इसे किसी बात का धक्का पहुंचा है. कुछ दिमाग कमजोर तो है

ही इस का. बरदाश्त नहीं कर पाई और अपने दिमाग का संतुलन खो बैठी.

इस को जल्दी ही इलाहाबाद या लखनऊ ले जा कर किसी मानसिक इलाज

करने वाले डाक्टर को दिखाइए, नहीं तो इस की हालत खराब हो जाएगी. इस की जिंदगी आप को बचानी है तो जल्दी ही किसी बड़े डाक्टर के पास ले जाइए…’’

अभी मैं पुनीता की मां को सुझाव दे ही रही थी कि सामने रहने वाले नए किराएदार पंडितजी, हांफतेहांफते आ पहुंचे, ‘‘भाभीजी, काम हो गया, ओझा महाराज मिल गए. जरा सी देर में ही पुनीता ठीक हो जाएगी.’’

पंडितजी अपने शब्दों में करुणा भर कर बोल रहे थे, किंतु उन के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान खेल रही थी. एक क्षण चुप रह कर वह अपनी आंख के कोरों को पोंछने लगे, ‘‘भाभीजी, अब देर मत कीजिए. दानदक्षिणा, जो कुछ भी ओझा महाराज मांगें, वह सब पूरा कर के अपनी बिटिया के प्राण लौटा लीजिए. इतनी खूबसूरत इकलौती बेटी है आप की. इस के लिए तो लाखों न्योछावर किया जा सकता है. इस की हालत देख कर तो मेरा कलेजा फटा जा रहा है…’’

कह कर अपनी लंबी चोटी ऐंठते हुए पंडितजी मुंह पोंछ कर धीरे से मुसकरा उठे, जिसे मेरे सिवा और कोई न देख सका.

पंडितजी के हृदय में बेटी के लिए इतनी करुणा देख कर पुनीता की मां को विश्वास हो गया कि ओझा महाराज अवश्य उस की बेटी के अंदर का भूतपिशाच अपनी मुट्ठी में कर के उस की बेटी को स्वस्थ कर देंगे.

पंडितजी सब को ले कर नीचे उतर गए. मैं ने उन्हें रोक कर समझाना चाहा, किंतु इस समय तो उन लोगों पर पंडित और ओझा महाराज का पूरा विश्वास जम चुका था. जिज्ञासावश मैं भी छत पर से ही उन के आंगन का नजारा देखने लगी.

खद्दर का कुरताधोती, सिर पर पीली पगड़ी, एक फुट लंबी तोंद, कंधे पर लाल अंगोछा और बड़ा सा लटकता  झोला, ऐंठी सी खिचड़ी मूंछें और एक आंख पत्थर की. ऐसे थे ओझा महाराज.

उन की मनहूस सी सूरत देख कर पहले शारदा बाबू ने पत्नी को आंख के इशारे से मना किया, किंतु उन पर तो जैसे कोई जादू डाल दिया गया हो. ऐसी दृष्टि से उन्होंने शारदा बाबू को घूरा, जैसे कह रही हों, ‘चुप रहो, पैदा तो मैं ने किया है. फिर भला तुम क्या जानो संतान का दर्द?’

मरता क्या न करता. बेचारे शारदा बाबू चुप हो गए. अब ओझा महाराज ने अपना काम आरंभ किया.

उन्होंने एक थाली में फूल रख कर ढेर सारा गुग्गुल और लोबान सुलगा दिया. चारों तरफ धुआं फैलने लगा.

अब पुनीता को, जो कमरे में बंद थी, खोला गया. ओझा महाराज के सामने कई लोग उसे पकड़ कर बैठ गए. वह अपने को छुड़ाने के लिए हाथपैर मारने लगी और वहीं पास में रखे ओझा महाराज के डंडे को उठा कर उन्हीं की पीठ पर दे मारा.

अचानक इस मार से ओझा महाराज बिलबिला उठे, ‘‘देखा आप लोगों ने? यह कोई छोटामोटा भूतपिशाच नहीं है. पिशाचों में वरिष्ठ ब्रह्मपिशाच है. किसी निरपराध ब्राह्मण की हत्या होने पर उस की आत्मा ही ब्रह्मपिशाच बन जाती है. चलते समय ही मैं ने यह समझ लिया था कि यही होगा और एक मंत्र पढ़ कर मैं ने उस पर चोट कर दी थी. इसीलिए इस ने मुझे मारा है. अभी क्या, अभी तो यह ऐसी छलांग लगाएगी कि छत पर कूद जाएगी. जिस को यह पिशाच पकड़ता है, उस में हाथी की शक्ति आ जाती है. अरे बाबूजी, यह पिशाच कोई छोटीमोटी शक्ति नहीं है. चुटकी बजाते प्राण हर लेता है यह.’’

‘‘धन्य हैं, महाराज, आप बिलकुल ठीक बात कह रहे हैं. अभी यह छत से नीचे कूद रही थी…’’ पुनीता की मां अंतर्यामी ओझा महाराज पर पूरी तरह से न्योछावर होती हुई बोलीं.

वही नहीं, इस बात से वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह देखने लगे, सिर्फ पंडितजी मंदमंद मुसकरा रहे थे.

शारदा बाबू भी प्रभावित होते हुए बोले, ‘‘आप सच कह रहे हैं. इस के अंदर हाथी की ही शक्ति आ गई है. मुझे 2 जगह यह दांत भी काट चुकी है. जिस कमरे में यह बंद थी उस कमरे की सारी चीजों को तोड़फोड़ डाला है. कपड़ा देखिए, इस ने दांतों से फाड़फाड़ कर चिथड़ा कर दिया है. अब तो बेटी के प्राण आप ही बचा सकते हैं महाराज. अपनी मंत्र विद्या से जल्दी ही ब्रह्मपिशाच को अपनी मुट्ठी में कीजिए…’’ कहते- कहते शारदा बाबू भी रो पड़े.

‘‘आप चिंता न कीजिए, अभी मंत्र मार कर मैं इस की शक्ति अपनी मुट्ठी में जकड़ लेता हूं. हां, आप लोग इस को संभाल नहीं पाएंगे इसलिए चारपाई पर लिटा कर रस्सी से इस के हाथपैर इतने जकड़ दीजिए कि यह तनिक भी न हिलनेडुलने पाए. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो यह एकाध को घायल भी कर देगी.’’

‘‘नहीं…’’ पुनीता आंखें निकाल कर जोर से चीखी, लेकिन तभी ओझा महाराज का इतनी जोर का झापड़ उस के गाल पर पड़ा कि पांचों उंगलियों के निशान उभर आए.

पुनीता चीखती रही, किंतु ओझा महाराज की जादुई गिरफ्त में आने वाले लोग भला अब कहां कुछ भी सुन सकते थे? एक लड़की 4 मर्दों से भला कैसे अपने को छुड़ा पाती? नतीजा यह कि वह चीखती रही और लोग बेरहमी से उसे चारपाई में बांधते रहे. उस के दोनों पैर चारपाई तथा हाथ खिड़की की छड़ से बांध दिए गए.

अब ओझा महाराज अपने झोले में से एक दोना निकाल कर शारदा बाबू को देते हुए बोले, ‘‘लीजिए, यही मेरा प्रसाद है. इस में 5 बताशे हैं. इसे मैं घर से ही अभिमंत्रित कर के लाया हूं. बस, यही दवा है. इस में से 2 अभी, 2 कल सुबह और 1 परसों सुबह…’’

अब बताशा खिला कर ओझा महाराज पुनीता पर धीरेधीरे अपना मंत्र पढ़पढ़ कर फूंक मारने लगे.

और लोगों ने आश्चर्य से देखा कि ओझा के फूंक मारते ही बस 5 मिनट में पुनीता ने धीरेधीरे चुप हो कर अपनी आंखें बंद कर लीं.

पुनीता के शांत हो जाने पर ओझा महाराज मुसकराए और मूंछों पर ताव देते हुए बोले, ‘‘देखा आप ने, मंत्र ने काम करना शुरू कर दिया. ब्रह्मपिशाच शांत हो गया. लेकिन कम से कम 3 दिन इसी तरह इसे रखना होगा. मैं घर जा कर 3 दिन, 3 रात उपवास रख कर इस की पूजा करूंगा, तब जा कर इसे उतार पाऊंगा. जरा सी भूलचूक हुई तो यह मेरे ही प्राण हर लेगा.

‘‘अच्छा, अब चलूं बाबूजी. हां, 1 हजार रुपए पूजा के लिए चाहिए या मैं जो सामान कहूं, वह मंगवा दीजिए. बात ऐसी है कि अब 3 दिन ब्रह्मपिशाच के साथियों, बरातियों को न्योता खिलाना पड़ेगा, तब कहीं जा कर छोड़ेगा यह…अरे हां, हर चीज बिलकुल पवित्र होनी चाहिए.

‘‘जो भी खाना यह खाना चाहे, चम्मच से इस के मुंह में डाल दीजिए. जरूरी काम होने पर रस्सी खोल कर फिर इसी तरह बांध दी जाए. तीसरे दिन मैं ही आ कर इसे पूरी तरह खोलूंगा. किसी डाक्टर की दवा न खिलाएंपिलाएं, नहीं तो यह ब्रह्मपिशाच इसी को ही नहीं, सारे कुटुंब को निगल जाएगा,’’ कहतेकहते ओझा महाराज ने ऐसा भयंकर मुंह बनाया कि सारा परिवार भय से थरथर कांप उठा.

भयभीत शारदा बाबू उसी दिन रुपए के लिए बैंक जाने लगे तो मैं ने उन्हें रोका, ‘‘शारदा बाबू, पढ़ेलिखे इनसान हो कर भी आप इन ओझा और मौलवियों के चक्कर में पड़ रहे हैं. मेरी बात मानिए तो पुनीता को जल्दी ही टैक्सी से लखनऊ ले जाइए.’’

मेरी बात अनसुनी कर के शारदा बाबू ने कहा, ‘‘जिस पर मुसीबत आती है वही उस का दर्द जानता है, दूसरा नहीं,’’ और वह तेजी से ओझा महाराज के साथ बैंक की तरफ चल दिए.

शाम को दफ्तर से लौटी तो लोगों ने बताया कि पुनीता तब से बराबर आंखें बंद किए बड़बड़ा रही है. खायापिया कुछ भी नहीं, किंतु चीखीचिल्लाई भी नहीं. ओझा महाराज का प्रताप है कि उन्होंने अपने मंत्र के बल से ब्रह्मपिशाच को शांत कर दिया. 1,001 रुपए ही तो लिए बेचारे ने. बेटी के प्राण तो बचा दिए.

सुन कर विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन करती क्या? चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो गई.

दूसरे दिन शनिवार की शाम को दफ्तर से लौट कर अपने घर लखनऊ जाने के लिए मैं अपनी अटैची ठीक कर रही थी कि शारदा बाबू का बड़ा बेटा राजेंद्र रोतासिसकता आ खड़ा हुआ.

‘‘बहनजी, पुनीता अब नहीं बचेगी.’’

‘‘क्या बात है? वह तो अब ठीक हो रही थी,’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘अरे, वह साला फरेबी, जालसाज निकला. उसी को बुलाने तो मैं गया था.’’

‘‘तब?’’

‘‘पता चला कि वहां इस नाम का कोई आदमी नहीं रहता.’’

‘‘और पंडित?’’

‘‘वह भी कल से गायब है. मकान में एक ही महीने तो रहा वह. आधा किराया पेशगी दिया था, बाकी आधा किराया भी मार कर भाग गया. धोखा देने के लिए कोठरी में एक सड़ा सा ताला डाल गया.’’

‘‘अच्छा, मैं तो पहले ही समझ रही थी कि ये सब जरूर जालसाज हैं. अरे हां, अब पुनीता का क्या हाल है? क्या पुनीता उसी तरह बंधी पड़ी है?’’

‘‘नहीं, बहनजी, अब उसे खोल दिया गया है. लेकिन जगहजगह रस्सियों से उस के हाथपैर में नीले निशान पड़ गए हैं. उस का रंग काला हो गया है और शक्तिहीन सी आंखें बंद किए वह पड़ी है. न कुछ बोलती है और न कुछ खाती- पीती है. माताजी खूब रो रही हैं. पिताजी ने आप के पास मुझे भेजा है. आप का परिचय लखनऊ मेडिकल कालिज में जरूर होगा…’’

राजेंद्र ने ऐसी याचनाभरी दृष्टि से मुझे देखा कि मैं अंदर तक करुणा से भर उठी. नतीजा यह हुआ कि उसी वक्त हम लोग पुनीता को ले कर लखनऊ चल दिए.

वहां एक मनोचिकित्सा के विशेषज्ञ मेरे परिचित निकल आए. उन्होंने फौरन पुनीता को देखाभाला. उन्होंने बताया कि पुनीता को ओझा ने बताशा किसी ऐसी नशीली चीज में डुबो कर दिया था जिस से उसे नींद आ रही है. ब्रह्मपिशाच नहीं, इसे किसी बात का गहरा आघात लगा है. जो लोग दिमाग से कमजोर होते हैं, आघात खा कर अपना संतुलन खो बैठते हैं. आप लोगों की आंखें समय से खुल गईं, नहीं तो ओझा के चक्कर में आप की बेटी के प्राण निकल जाते और आप बस, हाथ मलते रह जाते.’’

1 माह तक उस डाक्टर की दवा करने से पुनीता बिलकुल ठीक हो गई. अब वह बाकायदा अपनी परीक्षा दे रही है. तब से उस के परिवार वालों ने कान पकड़ लिया है कि वे किसी ओझा और पंडित का विश्वास नहीं करेंगे.

अपनी राह: 40 की उम्र में जब दीया ने किया मीरा का कायाकल्प

देखतेही देखते मीरा ने अपनी उम्र का 40वां वसंत पार कर लिया. 5 साल पहले तक रिश्तेदार उस के लिए ढंगबेढंग के रिश्ते भेजते रहे थे, पर अब सभी ने किनारा कर लिया था. उस के मम्मीपापा भी उस से छोटी दोनों बहनों और भाई की शादी कर चुके थे.

‘‘अकेले हैं तो क्या गम है,’’ कह कर  15 सालों से मीरा सारे प्रस्तावों को ठुकराती रही थी. लेकिन अपने असफल प्यार के धधकते रेगिस्तान में नंगे पैर दौड़ती भी तो रही.  वह एक पल के लिए भी देव को भूल न सकी थी. मन में बसे देव को वह भूल भी कैसे सकती थी. तनमन को चुरा, वजूद को मिटा कर मीरा के उस गिरधर ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा था. मात्र 14 साल की कच्ची उम्र से मीरा ने उसे मन में छिपा लिया था और उस चोर ने भी छिपने में कोई आनाकानी नहीं की थी. मन, क्रम, वचन से उस का हाथ थामे उस के प्रेम रस में भीगती रही, छीजती  रही. सोतेजागते, उठतेबैठते, रोतेहंसते देवदेव उच्चारती रही.

समय के साथ दोनों के प्यार की खुशबू सर्वत्र फैल रही थी पर देव के प्रेम रस बूंदन में मीरा के मन की भीग रही चुनरिया तन को भी भिगो गई थी. होली के दिन भंग चढ़ा कर देव ने उस के तन की याचना क्या की कि गरजती, नाचती दामिनी की तरह वह उस पर बरस गई. फिर बारबार भीगती रही. कभी मोल ली हुई दासी की तरह तो कभी जोगन की तरह. प्रीत की चुनर ओढ़े मीरा नित नई होती गई.  दोनों ने आईआईटी दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बीटैक किया. एमबीए करने के लिए मीरा बैंगलुरु चली गई और देव बोस्टन के हार्वर्ड बिजनैस स्कूल में चला गया. देव तो बारबार जाने से मना कर रहा था पर मीरा ही नहीं मानी. पलक झपकते 2 साल गुजर जाएंगे, फिर हम और हमारा आशियाना. भविष्य के ढेर सारे सपने आंखों में ले कर भरे मन से मीरा ने देव को विदा किया.

कभी फोन पर बातें कर के तो कभी फेसबुक पर प्यारमनुहार करते समय बीतता रहा. न्यूयौर्क की एक बड़ी कंपनी में कैंपस सलैक्शन होने के बाद देव इंडिया आया भी. कन्याकुमारी में 2 हफ्ते तक दोनों एकदूजे में खोए रहे. सभी तरह से आश्वस्त करते हुए देव लौट गया. बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी ने मीरा को भारी पैकेज के साथ सलैक्ट कर लिया था. लेकिन उस की नौकरी भी न्यूयौर्क में हो जाए, इस के लिए देव हर तरह से प्रयत्नशील था. नहीं भी होने से कोई बात नहीं थी. शादी के बाद स्पाउस वीजा पर वह देव के साथ चली जाएगी.  लेकिन ऐसा कहां हो सका.

इधर मीरा प्रीत की धानी चुनर ओढ़े देव की प्रतीक्षा कर रही थी. उधर विषम परिस्थितियों में देव को उसी कंपनी में कार्यरत नैन्सी से शादी करनी पड़ी थी. विरह में डूबे जो दिन पावस और वसंत बने हुए थे, अग्नि बन कर उस पर बरस गए. देव पुरुष था, समाज ने उस के कदम को सराहा. स्त्री तन लिए मीरा ही कलंकित हुई. समय की चट्टान पर लिखित उस की प्रेमगाथा ने जीतेजी उसे सलीब पर टांग दिया. विवश मीरा को विरह की अनंत पीड़ा स्वीकारनी पड़ी पर अपनी प्रेम गठिया को छुआ तक नहीं. छूती भी कैसे? एक ही मन था, एक ही चुनर थी और वह भी देव प्रेम रंग में भीगी. दूसरा रंग कहां से चढ़ता और चढ़ता भी कैसे? चुनर का रंग न तो छीजा था और न सूखा था, वह तो दिनोंदिन गहराता गया था.

कितने रिश्ते आए, कितनों ने साथ के लिए हाथ बढ़ाया पर वह देव की जोगिन  ही बनी रही. मीरा अपने काम में ही अपना सुकून ढूंढ़ने का प्रयास करती रही. देखतेदेखते दोनों बहनों एवं भाई का घर बस गया पर मीरा अकेलेपन की मार भोगती रही.  जब से मीरा को दीया का साथ मिला था जीवन के प्रति उस का नजरिया सकारात्मक हो गया था. दीया का बारबार का समझाना कि जीवन में जो गुजर गया उसे भुला कर जीने का प्रयास कर के खुश रहना है.

‘‘अरे यार, कब तक देव की विरहण बनी रहोगी? वह तो सब कुछ भुला कर मस्ती भरा जीवन जी रहा है और तुम उस की यादों को संजोए हो. चलो, आज ब्यूटीपार्लर चलती हैं. अपने साथ तुम्हारे हुलिए को भी बदलवाऊंगी.’’  मीरा ने हंसते हुए कहा, ‘‘उम्र के 40 वसंत पार कर लिए. अब मुझे देखेगा भी कौन, जो ब्यूटीपार्लर जाऊं?’’  ‘‘यह भी कोई उम्र है जोगिन बनने की… 40 के बाद ही जीवन जीने का मजा रहता है… चुनौतियों से, झंझावातों से, बाधाओं से और अगर कोई साथी न हो तो अकेलेपन से जूझने का जज्बा रहता है. जब जागो तभी सबेरा. आज से अपने जीने का अंदाज बदल डालो… कैसी बहार छा जाती है जीवन में देखना.’’

दीया के शब्दों ने मीरा के अंदर तूफान उठा दिया… वह व्यग्र हो उठी… कितना दम है दीया के कथन में… इस तरह से क्यों न समझाया उस के अपनों ने उसे कभी. फिर मीरा ने कोईर् आनाकानी नहीं की.  ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद एक नई मीरा का जन्म हो गया था, जिस के समक्ष खुशियों का समंदर लहरा उठा था. कोई अकेलापन नहीं, उत्साह, उमंग से भरे नए एहसास के कलश चारों ओर छलक उठे थे.

15 सालों के दुखदर्द, टूटन, चुभन और अकेलेपन के पलों को एकसाथ जी लेना चाहती थी. अपार रूप की स्वामिनी थी ही, ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद हीरे से तरासे उस के सौंदर्य ने न जाने कितनी जोड़ी आंखों को बांध लिया था.  मौल में जा कर आधुनिक पोशाकें खरीदीं. फिर उन से मैच करती ज्वैलरी, सौंदर्य प्रसाधन का सामान, परफ्यूम आदि खरीदा. अगर दीया उसे समय का एहसास नहीं दिलाती तो शायद पल भर में अपनी दुनिया बदल लेने के जनून से बाहर ही न आ पाती.

1 हफ्ते के अंदर ही मीरा ने स्वयं को ही नहीं, अपने फ्लैट के कोनेकोने को भी सजा लिया. वार्डरोब से ले कर किचन तक मुसकरा उठे.  मीरा में आए अचानक परिवर्तन ने अपार्टमैंट से ले कर औफिस तक के लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था. अकेलेपन में घुटती मीरा हर पल चहकने लगी थी. सभी की अवहेलना करने वाली मीरा नए जोश से भर कर सब के साथ उन्मुक्त हो उठी थी.  देखतेदेखते सभी के साथ उस के दोस्ताना संबंध ही नहीं बने, बल्कि वह सब के दुखसुख के साथी भी बन गई. हर पल कुछ नया करने की उमंग से भरी रहती. प्रत्येक दिन सैंडविच निगलने वाली मीरा के खाने का डब्बा खुलते ही लजीज व्यंजनों की सुगंध से सभी के मुंह में पानी आ जाता. साथियों से अपना खाना भी शेयर करने लगी थी.

फिट और चुस्त रहने के लिए मीरा ने जिम जाना भी शुरू कर दिया था. वहां भी हर उम्र के उस के बहुत सारे दोस्त बन गए थे. पढ़ना तो पहले से ही उस की हौबी थी. प्रसिद्घ लेखकों की किताबों से रैक भर गया था.  आंतरिक प्रसन्नता एवं सुगढ़ मेकअप ने उस की उम्र के 10 साल चुरा लिए थे. अपने डाइरैक्टर अमन से हमेशा चिढ़ी रहने वाली मीरा अब उन से भी हिलमिल गई थी. वे भी मीरा में आए परिवर्तन पर चकित थे. उस की असीमित प्रतिभा और उदासी से भरे सौंदर्य पर वे मोहित तो थे ही, उस के जीने के अनोखे अंदाज से वे उस की निकटता के लिए व्याकुल हो उठे.

आननफानन में किसी बड़े प्रोजैक्ट की रूपरेखा तैयार  करते हुए मीरा को साथ लिए उन्होंने न्यूयौर्क के लिए उड़ान भर ली. 2 कमरों की बुकिंग होते हुए भी मीरा को अपने कमरे में रहने को बाध्य किया तो वह भी इनकार नहीं कर सकी. अमन के आकर्षक व्यक्तित्व पर वह भी मुग्ध थी. अब दोनों के दिन सोने के थे और रातें चांदी की.  दोनों एकदूसरे में समाए हाथों में हाथ लिए दुनिया के उस अनोखे खहर में घूमते रहे. वहां रोकटोक करने वाला भी कौन था. तनमन से वर्षों की प्यासी मीरा आनंद सागर में जी भर कर डुबकियां लगा रही थी.

मौल में घूमते समय किसी की घूरती नजरों को पहचान मीरा और उन्मुक्त हो उठी. वह अमन की बांहों में झूम उठी. वे नजरें थीं देव की.  वह अमन से लिपटी हुई देव के समक्ष जा खड़ी हुई.  ‘‘हाय देव, पहचाना नहीं? मैं मीरा… कभी की तुम्हारी दीवानी… सोचा भी नहीं था कि कभी तुम से कुछ यों मुलाकात होगी… सब कुछ ठीक चल रहा है न? कुछ दुबले हो गए हो.’’

अमन की बांहों में अपनेआप को लपेटते हुए उद्दंडता से बोली मानो देव के किए का सारा लेखाजोखा इसी पल ले लेगी.  ‘‘अमन. ये हैं देव, कभी के मेरे मंगेतर थे. मैं इन से तनमन से जुड़ी रही. इन के विश्वासघात के बाद भी इन की यादों में जीतीमरती रही.’’  ये तो मेरे देव नहीं बने पर मैं ने बेवकूफी में जीवन के कितने अनमोल वर्ष इन की पारो बन कर गुजारा दिए.

‘‘देव, ये हैं अमन,’’ कह कर सब से छिपा कर मीरा ने छलक आए आंसुओं को अमन की हथेलियों में मुंह छिपा कर पोछा और आगे बढ़ गई. अमन को उस पर और भी प्यार उमड़ आया. फिर पीछे मुड़ कर देव को घूरते हुए मीरा को अपनी जैकेट में छिपा लिया.

फटीफटी आंखों से देव तब तक अमन की बांहों में बंधी मीरा को देखता रहा जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गई.

गजरा: कैसे बदल गई अमित की जिंदगी

दफ्तर से छुट्टी होते ही अमित बाहर निकला. पर उसे घर जाने की जल्दी नहीं थी, क्योंकि घर का कसैला स्वाद हमेशा उस के मन को बेमजा करता रहता था.

अमित की घरेलू जिंदगी सुखद नहीं थी. बीवी बातबात पर लड़ती रहती थी. उसे लगता था कि जैसे वह लड़ने का बहाना ढूंढ़ती रहती है, इसीलिए वह देर रात को घर पहुंचता, जैसेतैसे खाना खाता और किसी अनजान की तरह अपने बिस्तर पर जा कर सो जाता.

वैसे, अमित की बीवी देखने में बेहद मासूम लगती थी और उस की इसी मासूमियत पर रीझ कर उस ने शादी के लिए हामी भरी थी. पर उसे क्या पता था कि उस की जबान की धार कैंची से भी ज्यादा तेज होगी.

केवल जबान की बात होती तो वह जैसेतैसे निभा भी लेता, पर वह शक्की भी थी. उस की इन्हीं दोनों आदतों से तंग हो कर अमित अब ज्यादा से ज्यादा समय घर से दूर रहना चाहता था.

सड़क पर चलते हुए अमित सोच रहा था, ‘आज तो यहां कोई भी दोस्त नहीं मिला, यह शाम कैसे कटेगी? अकेले घूमने से तो अकेलापन और भी बढ़ जाता है.’

धीरेधीरे चलता हुआ अमित चौराहे के एक ओर बने बैंच पर बैठ गया और हाथ में पकड़े अखबार को उलटपलट कर देखने लगा, तभी उस के कानों में आवाज आई. ‘‘गजरा लोगे बाबूजी. केवल 10 रुपए का एक है.’’

अमित ने बगैर देखे ही इनकार में सिर हिलाया. पर उसे लगा कि गजरे वाली हटी नहीं है.

अमित ने मुंह फेर कर देखा. एक लड़की हाथ में 8-10 गजरे लिए खड़ी थी और तरस भरे लहजे में गजरा खरीदने के लिए कह रही थी.

अमित ने फिर कहा, ‘‘नहीं चाहिए. और गजरा किस के लिए लूं?’’

लड़की को कुछ उम्मीद बंधी. वह बोली, ‘‘किसी के लिए भी सही, एक ले लो बाबूजी. अभी तक एक भी नहीं बिका है. आप के हाथ से ही बोहनी होगी.’’

अमित ने गजरे और गजरे वाली को ध्यान से देखा. मैलीकुचैली मासूम सी लड़की खड़ी थी, पर उस की आंखें चमकीली थीं.

‘‘लाओ, एक दे दो,’’ अमित ने गजरों की ओर देखते हुए कहा.

लड़की ने एक गजरा अमित के आगे बढ़ाया और उस ने जेब से 20 रुपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘खुले पैसे तो नहीं हैं. यह पहली ही बिक्री है.’’

अमित ने एक पल रुक कर उस से कहा, ‘‘लाओ, एक और गजरा दे दो.

20 रुपए पूरे हो जाएंगे.’’

लड़की ने खुश हो कर एक और गजरा उसे दे दिया.

जब वह जाने लगी, तो अमित ने कहा, ‘‘जरा ठहरो, मैं 2 गजरों का क्या करूंगा? एक तुम ले लो. अपने बालों में लगा लेना,’’ अमित ने धीरे से मुसकरा कर गजरा उस की ओर बढ़ाया.

लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो उठा. अमित को उस की आंखें बहुत काली और पलकें बहुत लंबी लगीं.

तभी वह संभला और मुसकरा कर बोला, ‘‘लो, रख लो. मैं ने तो यों ही कहा था. अगर बालों में नहीं लगाना, तो किसी को बेच देना या फुटकर पैसे मिल जाएं, तो 10 रुपए वापस कर जाना.’’

लड़की ने उस गजरे को ले लिया और धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए वहां से चली गई.

अमित कुछ देर वहीं बैठा रहा, फिर उठ कर इधरउधर घूमता रहा. जब अकेले दिल नहीं लगा, तो घर की ओर चल दिया.

जब वह घर पहुंचा, तो देखा कि बीवी पतीले में जोरजोर से कलछी घुमा रही थी.

अमित चुपचाप अपने कमरे में चला गया. कपड़े उतारते समय उसे गजरे का खयाल आया, तो उस ने सोचा कि जेब में ही पड़ा रहने दे. पर नहीं, बीवी ने देख लिया तो सोचेगी कि पता नहीं किसे देने के लिए खरीदा है. उस ने सोचा कि क्यों न जेब से निकाल कर कहीं और रख दिया जाए.

अमित के कदमों की आहट सुनते ही बीवी उठ खड़ी हुई थी. वह शाम से ही गुस्से से भरी बैठी थी कि आज तो इस का फैसला हो कर ही रहेगा कि वह क्यों देर से घर आता है. क्या इसी तरह जीने के लिए वह उसे ब्याह कर लाया है.

जब वह रसोई से बाहर आई, तो अमित के हाथ में गजरा देख कर एक पल के लिए ठिठक कर खड़ी हो गई.

हड़बड़ी में अमित गजरे वाला हाथ आगे बढ़ा कर बोला, ‘‘यह गजरा… यों ही ले आया हूं.’’

बीवी ने आगे बढ़ कर गजरा ले लिया, उसे सूंघा और फिर आईने के सामने खड़ी हो कर अपने जूड़े पर बांधने लगी.

अमित सबकुछ अचरज भरी नजरों से देखता रहा.

तभी बीवी ने कहा, ‘‘खूब महकता है. सारा कमरा खुशबू से भर गया है. ताजा कलियों का बना लगता है.’’

‘‘हां, बिलकुल ताजा कलियों का है. तभी तो सोचा कि लेता चलूं.’’

कई दिनों के बाद उस दिन अमित ने गरमगरम भोजन और बीवी की ठंडी बातों का स्वाद चखा.

दूसरे दिन वह शाम को छुट्टी होने पर दफ्तर से निकला, तो उस के साथ एक दोस्त भी था. दफ्तर में काम करते समय अमित ने सोचा था कि आज सीधे घर चला जाएगा, पर दोस्त के मिलने पर घर जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था.

दोनों दोस्तों ने पहले एक रैस्टोरैंट में चाय पी, फिर वे बाजार में घूमते रहे. आखिर में वे समुद्र के किनारे जा बैठे. शाम को सूरज के डूबने की लाली से सागर में कई रंग दिख रहे थे.

अमित का ध्यान टूटा. वही कल वाली लड़की उस के सामने खड़ी गजरा लेने के लिए कह रही थी.

अमित ने लड़की से गजरा ले लिया.

दोस्त ने कुछ हैरान हो कर कहा, ‘‘लगता है, भाभी आजकल खुश हैं.

खूब गजरे खरीद रहे हो.’’

अमित मुसकराया, ‘‘बस यों ही खरीद लिया है. अब चलें, काफी देर हो गई है.’’

अमित घर पहुंचा, तो उस की बीवी जैसे उस के ही इंतजार में बैठी थी. वह बोली, ‘‘आज तो बड़ी देर कर दी आप ने. सोच रही थी, जरा बाजार घूमने चलेंगे. आते हुए शीला के घर भी हो आएंगे.’’

अमित ने बगैर कुछ बोले ही जेब से गजरा निकाल कर उस की ओर बढ़ाया. बीवी ने बड़े चाव से गजरा लिया और सूंघा. फिर आईने के सामने खड़ी हो कर उसे जूड़े पर बांधने लगी.

अमित ने कपड़े उतारे, तो बीवी ने कपड़े ले कर सलीके से खूंटी पर टांग दिए. फिर तौलिया और पाजामा देते हुए वह बोली, ‘‘हाथमुंह धो लो. मैं रोटी बनाती हूं, गरमगरम खा लो, फिर बाजार चलेंगे.’’

अमित समझ नहीं पा रहा था कि बीवी में यह बदलाव कैसे आ गया. गजरा तो मामूली सी चीज है. कोई और ही बात होगी.

दिन बीतने लगे. अब अमित शाम को जल्दी घर चला आता. बीवी उसे देख कर खुश होती. जिंदगी ने एक नया रुख ले लिया था. अमित को लग रहा था कि बीवी में हर रोज बदलाव आ रहा है. उसे अपने में भी कुछ बदलाव होता महसूस हो रहा था.

अमित दफ्तर से घर आते समय एक दिन भी बीवी के लिए गजरा लेना नहीं भूला था. अब तो यह उस की आदत ही बन गई थी.

वैसे तो गजरे वाली और भी लड़कियां वहां होती थीं, पर अमित हमेशा उसी लड़की से गजरा खरीदता, जिस ने उसे पहले दिन गजरा दिया था.

एक दिन अमित चौक में बैठा सामने की इमारत को देख रहा था कि गजरे वाली लड़की आई. अमित ने रोज की तरह उस के हाथ से गजरा ले लिया. पैसे ले कर वह लड़की वहीं खड़ी रही.

अमित ने देखा, उस के चेहरे पर संकोच था, जैसे वह कुछ कहना चाहती है.

अमित ने उस की झिझक दूर करने के लिए पूछा, ‘‘कितने बिक गए अब तक?’’

‘‘4 बिक गए हैं. अभीअभी आई हूं. पर बाबूजी, आप के हाथ से बोहनी होने पर देखतेदेखते ही बिक जाते हैं.’’

‘‘फिर तो सब से पहले मुझे ही बेचा करो,’’ अमित ने कहा.

‘‘कभीकभी तो आप बहुत देर से आते हैं,’’ लड़की शिकायती लहजे में बोली.

अमित कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला, ‘‘कहां रहती हो?’’

लड़की ने बताया कि वह अपनी अंधी दादी के साथ एक झोंपड़ी में रहती है. झोंपड़ी के सामने 2 चमेली के पौधे हैं, जिन के फूलों से वह उस के लिए खास गजरा बनाती है.

‘‘अच्छा,’’ अमित बोला.

लड़की का चेहरा लाज से लाल हो गया. वह एक पल को चुप रही, फिर बोली, ‘‘तुम रोज गजरा खरीदते हो, इस का करते क्या हो?’’

अमित मुसकराया. फिर कुछ कहतेकहते वह चुप हो गया.

आखिर लड़की ने कहा, ‘‘अच्छा, मैं जाती हूं.’’

और अमित उसे तेज कदमों से जाते हुए देखता रहा.

अब अमित की अधिकतर शामें घर में ही बीतने लगी थीं. दोस्त शिकायत करते कि अब वह बहुत कम मिलता है, पर वह खुश भी था कि उस की घरेलू जिंदगी सुखद बन गई थी.

एक दिन अमित की बीवी ने उस के साथ सिनेमा देखने का मन बनाया. वह दोपहर को उस के दफ्तर पहुंची और दोनों सिनेमा देखने चल पड़े. सिनेमा से निकलने पर बीवी ने कहा, ‘‘चलो, आज सागर के किनारे चलते हैं. एक अरसा बीत गया इधर आए हुए.’’

वहां घूमते हुए अमित को गजरे वाली लड़की दिखाई दी. वह उस की तरफ ही आ रही थी. उस के हाथ में एक ही गजरा था, जो कलियों के बजाय फूलों का बना हुआ था.

लड़की के पास आने पर अमित ने कहा, ‘‘मैं हमेशा इसी लड़की से गजरा लिया करता हूं, क्योंकि यह मेरे लिए खासतौर पर मोटीमोटी कलियों का गजरा बना कर लाती है.’’

बीवी ने तीखी नजरों से लड़की को देखा, तो लड़की उस के सामने आंखें न उठा सकी.

गजरा लेने के लिए अमित ने हाथ बढ़ाया, तो लड़की ने हाथ का गजरा देने के बजाय अपनी साड़ी के पल्लू में बंधा एक गजरा निकाला. मोटीमोटी कलियों का बहुत बढि़या गजरा, जैसा कि वह रोज अमित को देती थी.

अमित का चेहरा खिल उठा, पर उस की बीवी तीखी नजरों से उस लड़की को देख रही थी.

अचानक अमित का ध्यान बीवी की ओर गया तो चौंका. उस ने फौरन लड़की के हाथ से गजरा ले लिया और जेब से पैसे निकाल कर उस की ओर बढ़ाए,

पर लड़की ने पैसे न लेते हुए उदास लहजे में कहा, ‘‘पिछली बार के बकाया पैसे मुझे आप को देने थे. हिसाब पूरा हो गया,’’ इतना कह कर वह एक तरफ को चली गई.

अमित की बीवी ने वहीं खड़ेखड़े जूड़े पर गजरा बांधा और अमित को दिखाते हुए पूछा, ‘‘देखो तो ठीक तरह से बंधा है न?’’

‘‘हां,’’ अमित ने पत्नी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज के जूड़े में तो तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो.’’

‘‘खूबसूरत चीज हर जगह ही खूबसूरत लगती है,’’ पत्नी ने शोखी से कहा और मुसकराई, पर अमित के होंठों पर मुसकराहट न थी.

ऑक्सीमीटर: आखिर गुड्डो इतने दिनों से घर में क्यों बंद थी?

कई दिनों के बाद गुड्डो को बाजार में देख कर  बेबी ने उसे आवाज लगाई. इस के बाद गुड्डो ने बेबी को जो बताया, उस से बेबी के होश उड़ गए.

बाजार आज भी सुनसान था. 2 दुकानों को छोड़ कर… पहली लालाजी की किराने वाली और दूसरी तरुण कैमिस्ट वाले की. कोरोना काल में इन दोनों की ही चांदी थी.

कोरोना के चलते बिका हुआ माल वापस नहीं होगा, यह हर ग्राहक जानता था, फिर भी हर कोई माल ज्यादा लेने की फिराक में दिख रहा था, भले ही दवाएं ही सही.

लालाजी और तरुण को सांस लेने की भी फुरसत नहीं थी. तरुण के यहां औक्सीमीटर और लालाजी का दलिया आते ही खत्म हो जाता था. बाकी सामान का भी तकरीबन यही हाल था.

तरुण ने अपनी कैमिस्ट शौप के आगे परदे टांगने का एक प्लास्टिक का पाइप अड़ा रखा था. उस के आगे आने की हर किसी को मनाही थी. लोग कुछ दूर खड़े हो कर अपनी बारी का इंतजार करते थे.

सब के चेहरे पर मास्क चढ़ा होता था. किसीकिसी ने तो 2-2 मास्क लगा रखे होते थे. उन सभी के घर में कोई न कोई कोरोना का शिकार मरीज था.

एक दिन की बात है. तरुण की शौप पर भीड़ जमा थी. लोगों से कुछ दूरी पर कई गरीब बच्चे भी खड़े थे. भिखारी नहीं थे, पर लोगों से घर के लिए दूध, राशन, बिसकुट कुछ भी मिल जाए, मांग रहे थे.

उन्हें कोई 10 तो कोई 5 रुपए थमा देता. कोईकोई फटकार भी लगा देता, ‘‘घर पर तो हम से मरीज संभलते नहीं, इन की और सेवा करो.’’

उन बच्चों में शामिल थी 12 साल की बेबी. नहाने का कोई मतलब नहीं. उस ने मुंह तक नहीं धोया था. अगर थोड़ा बनसंवर जाती तो कोई एक रुपया न देता, इसीलिए वह सुबह उठते ही वहां आ गई थी.

सुबह के 6 बजे से ले कर 11 बजे तक लालाजी की दुकान खुलती थी, वह तब तक वहां लोगों से मांगती थी, उस के बाद तरुण कैमिस्ट के आगे जम जाती थी, जो शाम के 6 बजे तक खुलती थी. लौकडाउन जो लगा था शहर में.

बेबी बड़ी दुबलीपतली लड़की थी. सलवारसूट मानो जैसे उस के बदन पर लटका हुआ था. बाल बेतरतीब और चालढाल एकदम लाचारों जैसी, पर नजर एकदम तेज. लोगों की शक्ल देख कर भांप जाती कि कौन अपनी अंटी जल्दी ढीली करेगा. उसी के आगे ज्यादा गिड़गिड़ाती थी.

तभी बेबी की नजर अपनी बड़ी दीदी पायल की सहेली गुड्डो पर पड़ी. वह खुशी से खिल उठी और चिल्लाई, ‘‘गुड्डो दीदी, रुको तो सही…’’

गुड्डो भी बाजार में किसी काम से आई थी. मुड़ कर देखा तो हलके से मुसकरा दी. रुक कर एक दुकान के चबूतरे पर बैठ गई. बड़ी थकीथकी सी लग रही थी.

दरअसल, गुड्डो और पायल दोनों लोगों के घरों में  झाड़ूपोंछे का काम करती थीं. पायल ने तो कई घर पकड़ रखे थे, पर गुड्डो शर्माजी के घर पर परमानैंट नौकरानी थी.

अरे, वही 56 नंबर वाले शर्माजी, जो अपनी पत्नी नूतन के साथ 250 गज की कोठी में अकेले रहते हैं और उन के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. गुड्डो उन्हें ‘पापाजी’ और ‘मम्मीजी’ बुलाती है.

‘‘दीदी, आप कई दिनों से दिखी नहीं… कहां थीं?’’ बेबी ने गुड्डो के पास धमक कर बैठते हुए पूछा. अब वह लोगों से मदद मांगना भूल गई थी.

‘‘कहीं नहीं, यहीं थी…’’ इतना बोलने में ही गुड्डो की सांस फूल गई. उस ने अपने सूखते गले को तर करने के लिए बोतल से थोड़ा पानी पीया और ढक्कन लगा कर बोतल बगल में रख दी.

बेबी ने ध्यान से देखा तो उस के होश उड़ गए. पिछले 15 दिन के भीतर ही गुड्डो के चेहरे का रंग उतर गया था. आंखों के नीचे काले गड्ढे और बदन चुसे हुए आम सा हो गया था.

दीदी तो ऐसी न थीं. जब भी उस से मिलती थीं तो हंसीमजाक करती थीं, पर अब ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने  15 साल की उम्र में बच्चा जन दिया हो.

बेबी की आंखों में उठते सवालों को सम झ कर गुड्डो ने बताया, ‘‘मु झे कोरोना हो गया था. पहले  2 दिन तो हलका बुखार और खांसी थी, फिर सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी.

‘‘पापाजी ने जैसे मेरे लक्षण भांप लिए थे और मम्मीजी को कोने में ले जा कर धीरे से कुछ कहने लगे थे. मम्मीजी ने मु झे अजीब सी निगाहों से देखा और फिर जल्दी से पापाजी को ले कर घर से बाहर चली गईं…’’

‘‘हाय रे… कोरोना…’’ बेबी के मुंह से बस इतना ही निकला.

‘‘थोड़ी देर में मम्मीजी और पापाजी पड़ोस के सरदारजी डाक्टर को घर ले आए. उन्होंने मु झे चैक किया और इंगलिश में कुछ पापाजी को बोले.

‘‘पापाजी थोड़े चिंतित लगे और मु झ से बोले, ‘चल गुड्डो, अस्पताल…’

‘‘मैं सम झ नहीं पाई कि हलकी सी खांसी और बुखार में अस्पताल जाने की क्या जरूरत पड़ गई. पर पापाजी ने जो कह दिया, वह पत्थर की लकीर.

‘‘जैसी थी वैसी ही मैं गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी. इतने में मम्मीजी घर से भागती सी आईं, मु झे एक नया मास्क दिया और बोलीं, ‘इसे मत उतारना…’

‘‘थोड़ी ही देर में हम सरकारी अस्पताल में थे. वहां मेरा अजीब सा टैस्ट हुआ. नर्स ने मेरी नाक में एक सिलाई सी घुसा दी, तो गुदगुदी होने के साथ मैं ने छींक मार दी. पर, नर्स अपना काम कर चुकी थी.

‘‘इस के बाद पापाजी मु झे घर ले आए. तब तक मम्मीजी ने किचन के पीछे का कमरा मेरे लिए तैयार कर दिया था. फोल्डिंग चारपाई, गद्दा, चादर, तकिया, एक स्टूल, जिस पर पानी की बोतल रखी थी…’’

‘‘इतना सारा इंतजाम… क्या दीदी, कोरोना वाकई इतना खतरनाक है?’’ बेबी ने बीच में ही टोकते हुए पूछा.

‘‘मत पूछ बहन, मर कर बची हूं. अगर मम्मीजी और पापाजी…’’ इतना कहते ही गुड्डो रो पड़ी. खूब सुबकियां लीं.

बेबी भी भावुक हो गई. उस ने गुड्डो का हाथ थाम लिया.

गुड्डो थोड़ा संभली, फिर आगे बोली, ‘‘2 घंटे बाद पापाजी मेरे कमरे के बाहर आ कर खड़े हुए और दूर से ही बोले, ‘गुड्डो, अब कैसी तबीयत है?’

‘‘तब तक मेरी खांसी बढ़ गई थी और सांसें भी तेज चलने लगी थीं. दम सा घुट रहा था.

‘‘पापाजी ने एक थैली मु झे पकड़ाई और बोले, ‘जैसे बोलूं, वैसे ये दवाएं लेती रहना.’

‘‘मैं ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.’’

‘‘तो फिर दवा लेने से तुम ठीक हो गई?’’ बेबी ने सवाल दागा.

‘‘अरे, कहां… कोरोना ने तो अभी अपना असली रंग दिखाया ही नहीं था.  मेरी पूरी रात बेचैनी में कटी. लगा कि अब प्राण छूटे. सपने में गांव दिख रहा था, पर एकदम सुनसान. कोई नहीं बस मैं अकेली. चिल्लाऊं तो गले से आवाज न निकले.

‘‘अचानक मेरी नींद टूट गई. गला पानी मांग रहा था. मैं उठी तो एकदम चक्कर सा आया और मैं बिस्तर पर धड़ाम.’’

‘‘हाय मां…’’ बेबी बुदबुदाई.

‘‘सुबह उठी तो जैसे बदन में जान ही नहीं. पापाजी और मम्मीजी दूर खड़े दिखाई दिए. मेरी रुलाई फूट गई. फिर ऐसा लगा जैसे पापाजी दूर कहीं से बोल रहे हैं, ‘गुड्डो बेटी, हिम्मत कर. ले यह मशीन और अपनी उंगली पर लगा ले.’

‘‘मु झे कुछ होश नहीं था. पापाजी मेरे पास आए और किसी चीज से मेरे हाथ धोए, फिर एक छोटी सी मशीन मेरी बड़ी उंगली पर लगा दी.’’

‘‘उंगली की मशीन…? यह क्या बला है दीदी?’’ बेबी ने हैरानी से पूछा.

‘‘पता नहीं, क्या थी? चंद सैकंड में हटा कर पापाजी उस में कुछ देखने लगे, फिर मम्मीजी से कोई बात बोलने लगे.

‘‘मम्मीजी का ऐसा मायूस चेहरा मैं ने पहले कभी नहीं देखा था. वे किचन में गईं और एक कटोरी में दलिया ले आईं. मु झे देते हुए बोलीं, ‘थोड़ी देर में खा लेना. पूरा खत्म करना है.’

‘‘उस के बाद शुरू हुई असली कहानी. दोपहर को एक आदमी बड़ा सा सिलैंडर घर ले आया. उस पर कोई मशीन सी लगी थी और प्लास्टिक के एक पतले पाइप से मास्क जुड़ा था.

‘‘उस आदमी ने वह मशीन सैट की और मास्क मेरे मुंह पर लगा दिया. थोड़ी देर में मु झे लगा जैसे बदन में जान आ गई है. उस आदमी ने मेरे दाएं हाथ से ब्लड सैंपल लिया और कांच की पतली नली में भर कर ले गया.’’

‘‘खून निकाल लिया. यह कोरोना तो लोगों का खून चूस रहा है दीदी,’’ बेबी डर कर बोली.

‘‘खून क्या जान चूस लेता है. वह जो आदमी सिलैंडर लाया था न, उस ने थोड़ी देर बाद मेरी उंगली पर वही मशीन लगा दी, जो पापाजी ने लगाई थी.

‘‘फिर उस आदमी ने कुछ देखा और मेरी तरफ देख कर मुसकराया. मु झे सम झाते हुए बोला, ‘बेटी, इस सिलैंडर में औक्सीजन भरी है. कोरोना ने तेरे फेफड़ों पर हमला कर के तेरी औक्सीजन कम कर दी थी. अभी 92 पर है, जबकि होनी 94 से ज्यादा चाहिए… और यह जो छोटी सी मशीन है न, इसे औक्सीमीटर कहते हैं. औक्सीजन का लैवल नापने की डिबिया.

‘‘‘तेरे मुंह पर जो मास्क लगा है, वह तेरी औक्सीजन के लैवल को 94 से ऊपर रखेगा. अब अंकल और आंटी जैसा कहें, वही करती जाना. ठीक होना है न तु झे?’

‘‘हां…’’ मैं इतना ही बोल पाई.

‘‘उस के बाद क्या हुआ दीदी?’’ बेबी ने पूछा.

‘‘सच कहूं बेबी, मैं ने पापाजी और मम्मीजी जैसे इनसान नहीं देखे. इन  15 दिनों में उन्होंने अपनी सगी बेटी जैसी मेरी सेवा की. बेटी क्या पोती ही सम झ लो. कब क्या खाना है, कौन सी दवा लेनी है, औक्सीजन का लैवल कब चैक करना है, सब किया.

‘‘औक्सीमीटर तो जैसे मेरे भीतर नई जान फूंक देता था, जब उस में मेरा औक्सीजन लैवल 97-98 रहता था…’’

इतने में किसी ने तरुण से जोर से कहा, ‘‘तरुण भाई, जल्दी से एक औक्सीमीटर देना, एक मरीज को बहुत जरूरत है…’’

इतना सुनते ही गुड्डो उठ गई और बोली, ‘‘घर पर मम्मीजी और पापाजी चाय के लिए दूध का इंतजार कर रहे होंगे. फिर मु झे भी तो औक्सीमीटर से अपनी औक्सीजन चैक करनी है.

‘‘अभी थोड़ी कमजोरी है, पर जल्दी ही ठीक हो जाऊंगी. अपनी बहन को बोल देना कि गुड्डो अभी जिंदा है, जल्दी ही मिलेगी.’’

इतना कहते ही गुड्डो वहां से चली गई.

मजबूरी: समीर को फर्ज निभाने का क्या इनाम मिला?

समीर एक कोने में चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों के आंसू बह कर सूख चुके थे. कुछ ही दूरी पर पड़ोसियों ने सर्दी के सितम को देख कर आग जलाने के लिए लकड़ियों का इंतजाम कर के आग जला दी थी. सामने ही एक टूटी खाट पर समीर की बेटी शाहीन की लाश पड़ी हुई थी, जिस के शरीर पर लिबास के नाम पर जगहजगह से फटापुराना एक सूट ही था.

समीर के पास ही बैठी उस की बीवी रजिया का रोना उस के कलेजे में तीर की तरह चुभ रहा था. घर में पासपड़ोस वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी और औरतें लगातार रजिया को दिलासा दे रही थीं. देर रात से रोतीबिलखती रजिया के आंसू भी अब सूख चुके थे.

सुबह सूरज की किरणें धूप के रूप में समीर के आंगन में उतर चुकी थीं और शाहीन की मुरदा देह को न जाने कैसी तपिश देने की कोशिश कर रही थीं. धूप से सर्दी का सितम थोड़ा सा कम हो गया था, पर यह सब हुआ समीर की बेटी शाहीन के जाने के बाद. अगर उस के पास भी पहननेओढ़ने के लिए कुछ होता, तो शायद शाहीन जिंदा होती.

समीर ने लाख कोशिश की कि कहीं से पैसों का इंतजाम कर गरम कपड़े खरीद ले, लेकिन कुछ भी मुमकिन न हो सका. उस की झोंपड़ी भी ऐसी न थी कि ठंड से बचाव हो सके.

समीर अब उस दिन को कोस रहा था जब उस ने एक मासूम बच्चे की जान बचाने का फर्ज निभाया था. कितना खुश था वह अपनी बीवी रजिया और बेटी शाहीन के साथ.

समीर एक ईंटभट्ठे पर मजदूरी करता था. हर रोज उसे मजदूरी में ज्यादा रुपए तो नहीं मिल पाते थे, लेकिन फिर भी वह अपना और अपने परिवार का भरणपोषण किसी तरह सुकून से कर लेता था. उस के मजदूर साथी हमेशा यही कहते थे कि समीर जितना भी परेशान रहता हो, पर हमेशा हंसता ही रहता है, पर उस की खुशियों भरी जिंदगी में ऐसा बवाल मचा कि उस के चेहरे से हंसी हमेशा के लिए गायब हो गई.

समीर उस दिन भी हमेशा की तरह मजदूरी करने ईंटभट्ठे पर जा रहा था कि तभी उस ने देखा सामने की कालोनी से निकल कर एक बच्चा अपनी छोटी सी साइकिल चलाता हुआ सड़क पर आ गया था. शायद उस बच्चे की देखभाल करने वाली आया उसे छोड़ कर अंदर चली गई थी.

इन बड़े लोगों के ठाठ भी बड़े अजीब होते हैं कि अपने खुद के बच्चे को पालने के लिए भी इन्हें किसी और की जरूरत पड़ती है, शायद अपने पैसों का रुतबा दिखाने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं.

तभी तेज बजते हौर्न से समीर का ध्यान सड़क की तरफ गया. एक ट्रक तेजी से उस बच्चे की ओर आ रहा था. समीर समझ गया कि उस बच्चे को बचाने के लिए शोर मचाना फुजूल है और वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ा. जैसे ही वह बच्चे के करीब पहुंचा और उसे उठा कर दौड़ा कि तभी उसे ट्रक की एक जोरदार टक्कर लगी और उस के हाथ से बच्चा उछल कर दूर जा गिरा. समीर चीख पड़ा. उसे कुछ शोर सुनाई दिया और उस के बाद वह बेहोश हो गया.

जब समीर को होश आया तो उस के नथुनों में दवाओं की अजीब सी गंध भर गई. उस ने एक नजर कमरे के चारों ओर डाली और दीवार पर लगे खस्ताहाल कलैंडर से अंदाजा लगा लिया कि वह किसी सरकारी अस्पताल में है. तभी उस ने हिलने की कोशिश की, तो उस के शरीर में एक दर्द की लहर सी दौड़ गई. इस के बाद उसे बच्चे की याद आई.

कुछ ही पलों में कमरे में रजिया शाहीन को ले कर आ गई. रजिया के उलझे बाल और सूजी आंखें देख कर ऐसा लग रहा था कि वह कई रातों से सोई नहीं थी.

समीर को नहीं पता था कि वह कितने दिनों से अस्पताल में था और रजिया ने कैसे उस के इलाज के लिए पैसों का इंतजाम किया होगा. तभी उस के पैर में तेज दर्द उठा. उस ने पैर हिलाने की कोशिश की, तो पाया कि उस का पैर था ही नहीं. यह महसूस होते ही वह अंदर तक सिहर गया.

“मेरा पैर…” समीर के मुंह से बहुत ही मुश्किल से ये 2 शब्द निकले.

“ट्रक की टक्कर से आप का एक पैर कई जगह से फैक्चर हो गया था, जो किसी तरह से भी जुड़ने के हालात में नहीं था, लिहाजा हमें आप का पैर काट कर अलग करना पड़ा वरना शरीर में जहर फैलने की वजह से आप की जान भी जा सकती थी,” अंदर आते हुए एक डाक्टर ने बताया.

कुछ दिनों बाद ही समीर को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. घर के हालात बद से बदतर हो चुके थे. रजिया भी अब आसपड़ोस के घरों में चौकाबरतन करने लगी थी, जिस से जैसेतैसे गुजरबसर हो रही थी.

रजिया ने ही समीर को बताया कि ट्रक ड्राइवर ट्रक ले कर वहां से भाग गया था. उस बच्चे के मातापिता ने यह एहसान कर दिया था कि ऊंची पहुंच के चलते उसे उठा कर सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया था, पर उस के बाद उन लोगों ने उस का हालचाल पूछने की भी जरूरत नहीं समझी और नातेरिश्तेदारों ने तो 2-4 दिन के बाद ही आना बंद कर दिया था कि कहीं कुछ देना न पड़ जाए.

समीर अब बैसाखियों के सहारे ही था. रजिया को देख कर उसे ऐसा लग रहा था जैसे उस ने खुद अपने हाथों उस की खुशियों और जवानी दोनों पर ग्रहण लगा दिया था. 26 साल की उम्र में वह 46 साल की लगने लगी थी. उस के शरीर में अब हड्डियों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था.

घर की हालत कुछ ज्यादा ही खराब हो चुकी थी. रजिया द्वारा कमाए गए रुपयों से जैसेतैसे दो वक्त का खाना ही मिल पा रहा था. इसी बीच समीर को घने अंधकार के बीच रोशनी की एक किरण चमकती दिखाई दी. पता चला कि सरकार की ओर से जरूरतमंदों और गरीबों के लिए कई योजनाएं शुरू कर दी गई हैं, जिस के लिए वह सभासद, चेयरमैन से ले कर विधायक और सरकारी अफसरों की चौखट के चक्कर लगाता रहा, लेकिन हर जगह उसे बस आश्वासन ही दिया गया कि जल्द ही आप को सरकारी सुविधाएं दे दी जाएंगी, पर उसे कुछ नहीं मिल पाया, क्योंकि वह किसी भी जांच अधिकारी को अपनी बेबसी और मजबूरी के अलावा और कुछ न दे सका.

इस बार की सर्दी समीर की परेशानियों को बढ़ाने आई थी. कड़ाके की सर्दी होने के बावजूद उस के पास गरम कपड़े के नाम पर कुछ भी नहीं था. और तो और उस की बेटी शाहीन के लिए भी कुछ नहीं था. रजिया ने बहुत कोशिश की थी कि गरम कपड़ों का इंतजाम हो सके, लेकिन कुछ न हो सका.

सर्दी का कहर सितम पर था. घना कोहरा और चल रही शीतलहर समीर के परिवार पर पूरी तरह से कहर बरपा कर रही थी. इसी बीच शाहीन को सर्दी ने अपने आगोश में ले लिया. रजिया जैसेतैसे पैसों का इंतजाम कर महल्ले के नीमहकीम डाक्टर से दवा ले कर शाहीन को खिला रही थी, लेकिन तबीयत में सुधार न होते देख उस डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए और शाहीन को किसी बड़े डाक्टर को दिखाने के लिए कहा, जिस के बाद समीर शाहीन के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल भी गया, पर वहां भी सही इलाज न हो पाया, क्योंकि सरकारी डाक्टर बाहर की दवा ही लिख कर देते थे, जिन्हें खरीदने में वह पूरी तरह नाकाम था.

रजिया ने डाक्टर साहब से विनती भी की थी कि उस की बेटी को बाहर की दवा न लिख कर अंदर से ही दवा दे दी जाए, लेकिन डाक्टर ने उस की एक न सुनी.

समीर अपने बचपन के दोस्त शफीक से रुपए उधार लेने गया, लेकिन उस ने भी कामधंधा न चलने का बहाना बना कर उसे टाल दिया. वह बुझे मन से वापस चला आया. उस का मन कर रहा था कि इस से अच्छा तो वह उसी दिन मर गया होता, जब वह सड़क हादसा हुआ था.

आज जब समीर ने घर की चौखट पर कदम रखा तभी रजिया की जोर से रोने की आवाज सुनाई दी. उस ने अंदर जा कर देखा कि शाहीन अपना इलाज होने का इंतजार करतेकरते हमेशा के लिए सो गई थी. यह देख कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया. वह खुद को ही शाहीन का कातिल समझ रहा है. उस के पास तो शाहीन के कफनदफन के लिए भी पैसे नहीं थे.

“अरे, यह सब कैसे हो गया… हमें तो पता ही नहीं चला. एक बार कुछ बताया तो होता,” तभी किसी के ऊंचे स्वर में बोलने की आवाज सुन कर समीर की तंद्रा टूटी.

समीर ने देखा कि महल्ले का सभासद किसी बड़े नेता को अपने साथ लाया था. उस नेता के साथ उस के कुछ कार्यकर्ता भी थे, जो रजिया से पूछ रहे थे. दूसरी ओर कुछ लोग मोबाइल फोन से धड़ाधड़ उन के फोटो खींच रहे थे.

“ये लो 5,000 रुपए और बच्ची के कफनदफन का इंतजाम करो,” उस नेता जैसे दिखने वाले आदमी ने पैसे समीर के हाथ में पकड़ा दिए.

‘निकल जाओ यहां से… कोई जरूरत नहीं यह सब दिखावा करने की और ले जाओ अपने ये रुपए…’ समीर का मन जोर से चीखने को कर रहा था, पर सामने पड़ी बेटी की लाश को देख कर उस की चीख न जाने कहां गुम हो गई थी.

प्रेरणा: क्या अंकिता ने अपने सपनों को दोबारा पूरा किया?

‘‘बड़ी मुद्दत हुई तुम्हारा गाना सुने. आज कुछ सुनाओ. कोई भी राग उठा लो,  बागेश्वरी, विहाग या मालकोश, जो इस समय के राग हैं,’’ रात का भोजन करने के बाद मनोहर लाल ने अंकिता से इच्छा व्यक्त की. वे बड़े लंबे समय के बाद अपनी बेटी और दामाद के यहां उन से मिलने आए थे.

इस से पहले कि अंकिता कुछ कहती, उस की 14 साल की बेटी चहक पड़ी, ‘‘सुना तो है कि मां बड़ा अच्छा गाती थीं, संगीत विशारद भी हैं, लेकिन मैं ने तो आज तक इन के मुख से कोई गाना नहीं सुना.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं? तुम तो इतना बढि़या गाती थीं. कुछ और समय लखनऊ में रहना हो गया होता तो तुम ने संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली होती.’’

‘‘अभ्यास छूटे एक युग बीत गया. अब गला ही नहीं चलता. मेरे पास शास्त्रीय संगीत के अनेक कैसेट पड़े हैं, उन में से कोई लगा दूं?’’

‘‘नहीं, वह सब कुछ नहीं. इतने परिश्रम से सीखी हुई विद्या तुम ने गंवा कैसे दी? शाम 4 बजे के बाद कालेज से लौटती थीं तो जल्दीजल्दी कुछ नाश्ता कर रिकशे से भातखंडे कालेज चल देती थीं. वहां से लौटतेलौटते रात के साढ़े 7 बज जाते थे. थक जाने पर भी रियाज करती थीं. जाड़ों में रात जल्दी घिर आती है. तब मैं तुम्हें लेने साइकिल से कालेज पहुंचता था. उस ओर से रिकशे के पैसे बचाने के लिए तुम कितने उत्साह से पैदल ही उछलतीकूदती चली आती थीं. हम लोगों के कैसे कठिन दिन थे वे. वह सारी साधना धूल में मिल गई.’’

‘‘पिताजी, आप तो समझते नहीं. शादी के बाद बराबर तो असम में रहना पड़ा. उस पर नौकरी के आएदिन के तबादले और दौरे. उस अनजाने क्षेत्र में अकेली कलपती मैं क्या अभ्यास करती. मुझे तो हर समय डर लगा रहता था. आप ने देख तो लिया, इतने सालों के बाद आप आए हैं, लेकिन फिर भी इन का दौरे पर जाना जरूरी है.’’

‘‘यह तो नौकरी की विवशता है. इस में तुम दोनों क्या कर सकते हो? अकेलेपन की जो समस्या तुम ने उठाई, उस में तो संगीत या पुस्तकों से उत्तम और कोई साथी होता ही नहीं. अच्छा, यह बताओ कि तुम ने संगीत सीखा क्यों था?’’

‘‘मां और आप को शास्त्रीय संगीत का शौक था. जिस काम से आप लोग प्रसन्न हों उसे करने में हम सभी भाईबहनों को तब आनंद आता था.’’

‘‘यह सही नहीं है. रुचि न होने पर कहीं पुरस्कार जीते जाते हैं? अच्छा, अब कुछ शुरू करो.’’

‘‘पिताजी, घर में तानपूरा तक तो है नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बिना तानपूरे के भी चलेगा. किसी संगीत सभा में थोड़े ही गा रही हो?’’

कुछ देर शांत रहने के बाद अंकिता ने गला साफ कर के खांसा. तुहिना किलक उठी, ‘‘आज आईं मां पकड़ में.’’

कुछ गुनगुनाने के बाद अंकिता का स्वर उभरा :

‘कौन करत तोसों विनती पियरवा,

मानो न मानो मोरी बात.’

गाने की इस प्रथम पंक्ति को 3-4 बार दोहराने के बाद अंकिता ने राग के अंतरे को उठाया :

‘जब से गए मोरी सुधि हू न लीनी,

कल न परत दिनरात.’

लेकिन वह खिंच नहीं सका और अंकिता हताशा में सिर झटकते हुए चुप हो गई.

मनोहर लाल, जो आंखें बंद किए बेटी का गायन सुन रहे थे, बोले, ‘‘अगर मुझे ठीक याद है तो बागेश्वरी के इसी गीत पर तुम्हें अंतरविद्यालय संगीत समारोह में पुरस्कार मिला था. आज यह हालत है कि तुम यह भी भूल गईं कि बागेश्वरी में 2 स्वर कोमल लगते हैं. तुम ने तो उन की जगह शुद्ध स्वर लगा दिए. अंतरा भी तुम इसलिए नहीं खींच पाईं क्योंकि अभ्यास छूटा हुआ है.’’

‘‘अब क्या करूं, पिताजी?’’ अंकिता ने झींक कर कहा.

‘‘मेरी बात मानो तो एक तानपूरा खरीद लो. तुहिना अब बड़ी हो गई है. उसे तबला सिखवा दो. मैं सच कहता हूं कि यह जो तुम्हें हर समय बोरियत सी महसूस होती रहती है, सब दूर भाग जाएगी.’’

‘‘कोशिश करूंगी.’’

‘‘कोशिश नहीं, समझ लो कि यह तो करना ही है. लोग इस देश से प्रतिभा पलायन को ले कर हंगामा खड़ा करते हैं. लेकिन यहां तो प्रत्यक्ष प्रतिभा पराभव को देख रहा हूं. यह कहां तक उचित है?’’

अगले दिन अचल भी दौरे से लौट आए. उन्होंने जब तुहिना से अंकिता की छीछालेदर की बात सुनी तो अपने ससुर को सफाई देने लगे, ‘‘पिताजी, मैं ने तो न जाने कितनी बार इन से कहा कि अपने संगीत ज्ञान को नष्ट न होने दें और रुचि बनाए रखें. कैसेट तो घर में दर्जनों आ गए हैं लेकिन गाने के नाम पर हमेशा यही सुनने को मिला कि गला ही साथ नहीं देता. शायद अब आप के कहने का कुछ असर पड़े.’’

मनोहर लाल तो 4 दिन रहने के बाद लौट गए परंतु अपने पीछे बेटी के घर में मोटरकार के पीछे उठे धूल के गुबार जैसा वातावरण छोड़ गए. अंकिता खिसियानी बिल्ली की तरह कई दिनों तक बातबात पर नौकर और तुहिना पर बरसती रही.

अभी इस घटना को बीते एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि एक शाम चपरासी ने अंदर आ कर अंकिता को सूचना दी, ‘‘छोटे साहब आए हैं. साथ में उन की पत्नी भी हैं. उन को बैठक में बैठा दिया है.’’

‘‘ठीक किया. हम लोग अभी आते हैं. रसोई में चंदन से कहना कि कुछ खाने की चीजें और 4 गिलास शरबत बैठक में पहुंचा जाए.’’

ठीक है कहता हुआ चपरासी रसोईघर की ओर चला गया.

‘‘अभी नए असिस्टैंट इंजीनियर की नियुक्ति हुई है. शायद वही मिलने आए होंगे,’’ अचल ने अंकिता को बताया.

अचल और अंकिता ने बैठक में जा कर देखा कि एक आकर्षक युवा दंपती बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं. शुरुआती शिष्टाचार के बाद दोनों पुरुषों में तो बातचीत शुरू हो गई लेकिन आगंतुक महिला को चुप देख अंकिता ने उस से पूछा, ‘‘आप कहां की हैं?’’

‘‘मेरी ससुराल तो बरेली में है लेकिन मायका लखनऊ में है.’’

‘‘मैं भी लखनऊ की हूं. इसलिए तुम मुझे ‘दीदी’ कह सकती हो. वैसे तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, सिकता.’’

फिर तो अंकिता ने उस से उस के महल्ले, स्कूल, कालेज आदि सभी के बारे में पूछ डाला. यह भी पता चला कि सिकता ने भी भातखंडे संगीत विद्यालय में संगीत की शिक्षा पाई थी.

‘‘जब भी खाली समय हुआ करे और मन न लगे तो मेरे पास चली आया करो. अब संकोच न करना.’’

‘‘खाली समय तो बहुत रहता है क्योंकि ये तो जब देखो तब दौरे पर जाते रहते हैं और मैं अकेली घर में पड़ी ऊबती रहती हूं. अकेले घर में गाया भी नहीं जा सकता. नौकरचाकर न जाने क्या सोचें?’’

अंकिता के मस्तिष्क में सहसा बिजली सी कौंधी. वह बोली, ‘‘हम लोगों के क्लब में एक महिला समिति भी है, जिस में अफसरों की पत्नियां या तो ताश खेलती रहती हैं या फिर कभी ‘हाउसी’. क्यों न हम दोनों मिल कर कालोनी की लड़कियों के लिए संगीत की कक्षाएं शुरू करें. तुम्हारा तो अभी सबकुछ नया सीखा हुआ है. तुम्हारे सहारे मैं भी अपने पुराने अभ्यास पर धार लगाने का प्रयास करूंगी.’’

‘‘सच दीदी, आप ने तो मेरी बिन मांगी मुराद पूरी कर दी. आप जैसा भी कहेंगी, मैं करती रहूंगी. आप शुरू तो करें,’’ सिकता उत्साह से चहक उठी.

अंकिता ने अपने प्रभाव से क्लब की महिला समिति में एक कमरे में संगीत कक्षाएं चालू करा दीं, लेकिन शुरूशुरू में तथाकथित संभ्रांत महिलाओं ने खूब नाकभौं सिकोड़ी. कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि यह 4 दिन की चांदनी है, फिर तो टांयटांय फिस्स होना ही है.

परंतु अंकिता को यह सब सुनने की फुरसत नहीं थी. सिकता और स्वयं के अतिरिक्त उस ने एक अन्य अध्यापक तथा तबलावादक को वेतन दे कर 3 घंटे प्रतिदिन के लिए नियुक्त कर लिया. कालोनी से संगीत सीखने की इच्छुक 10-12 लड़कियां और महिलाएं भी एकत्र हो गईं.

सिकता को तो संगीत सिखाना सहज लगता था लेकिन अंकिता को कुछ कक्षाएं पढ़ाने के लिए पहले घर पर घंटों अभ्यास करना पड़ा. उस पर एक नशा सा छाया हुआ था और वह जीतोड़ परिश्रम में लगी हुई थी. महिला समिति के फंड के अलावा वह अपने पास से भी काफी धन संगीत विद्यालय के लिए खर्च कर चुकी थी.

अंकिता को जैसेजैसे संगीत विद्यालय की आलोचना सुनने को मिलती, वैसेवैसे उस का संकल्प और दृढ़ होता जाता. देखतेदेखते 2 साल के अंदर ही इस संगीत विद्यालय ने अपनी पहचान बनानी आरंभ कर दी. महल्ले में क्या, पूरे शहर में उस की चर्चा होने लगी.

जहां किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता वहां संगीत विद्यालय की छात्राओं को भेजने के अनुरोध भी अंकिता को प्राप्त होने लगे. उस को इस से काफी आत्मसंतोष मिलता. वह इस तरह के सभी प्रस्तावों का स्वागत करती और हरेक कार्यक्रम को प्रस्तुत करने से पहले भाग लेने वाली छात्राओं को जम कर अभ्यास कराती. अधिकांश कार्यक्रमों का संचालन वह खुद ही करती.

क्लब में होली, तीज, ईद, दीवाली तथा राष्ट्रीय पर्वों पर होने वाले समारोहों में वह संगीत विद्यालय के विशेष कार्यक्रम रखती, जिन की सभी प्रशंसा करते. स्थानीय अखबारों में उन की रिपोर्ट छपती. कभीकभी आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी निमंत्रण मिलने लगा.

अचल का जल्द ही होने वाला तबादला अंकिता को अब चिंतित करने लगा था क्योंकि इस स्थान पर उन के 4 साल पूरे हो चुके थे. उसे डर था कि कहीं उस के जाने के बाद विद्यालय बंद न हो जाए, इसलिए अंकिता ने संगीत विद्यालय की संचालन समिति के मुख्य पदों को पदेन रूप से परिवर्तित कर दिया था, जिस से किसी व्यक्ति विशेष के रहने अथवा न रहने से विद्यालय के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. स्थानीय वेतनभोगी अध्यापकों की संख्या भी बढ़ा दी थी. कुछ प्रमुख रुचिसंपन्न महिलाओं को उस ने विद्यालय का संरक्षक भी बना दिया था.

अचल अकसर अंकिता को खिजाते, ‘‘तुम तो अब पूरी तरह संगीत विद्यालय को समर्पित हो गई हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी काट दिया जाऊं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं. आप के ही सहयोग से तो मुझे सार्थक जीवन की ये घडि़यां देखने को मिली हैं.’’

‘‘मेरे कहने की तुम ने कब चिंता की? यह तो पिताजी की झिड़की का प्रभाव है.’’

‘‘सच, हमारे विद्यालय के कार्यक्रमों में बड़ा निखार आ रहा है. डर यही लगता है कि कहीं हमारे तबादले के बाद यह उत्साह ठंडा न पड़ जाए.’’

‘‘तुम ने नींव तो इतनी मजबूत डाली है कि अब उसे चलते रहना चाहिए.’’

‘‘क्यों जी, हम लोगों का तबादला 1-2 साल के लिए रुक नहीं सकता?’’

‘‘इस बार तबादला तरक्की के साथ होगा. उसे रुकवाना हानिकारक होगा. चिंता क्यों करती हो, जिस जगह भी जाएंगे, वहां एक नया विद्यालय शुरू किया जा सकता है.’’

‘‘यहां सब जम गया था. कहांकहां नए गड्ढे खोदें और पौधे रोपें.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब तो माली निपुण हो गया है. फिर वहां तुम्हारा स्तर ऊंचा होने का भी तो लाभ मिलेगा. वहां कौन काट सकेगा तुम्हारी बात?’’

‘‘अब जो होगा, देखूंगी. पर जगहजगह तंबू गाड़ना मुझे भाता नहीं.’’

‘‘भई, हम लोग तो गाडि़या लुहार हैं. दिन में सड़क किनारे गाड़ी रोकी, कुदाल, खुरपी, हंसिए बनाए, बेचे और बढ़ चले. इस जीवन का अपना अलग रस है.’’

‘‘हर कोई आप की तरह दार्शनिक नहीं होता.’’

बात पर तो विराम लग गया परंतु अंकिता के मन की चंचलता बनी रही.

वसंतपंचमी के अवसर पर दूरदर्शन के प्रादेशिक प्रसारण में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को अंकिता ने स्वीकार तो कर लिया परंतु उस के लिए 2 गीत तैयार कराने में उसे और छात्राओं को बड़ा परिश्रम करना पड़ा. कार्यक्रम का सफल मंचन हो जाने पर उसे बड़ा संतोष मिला.

अंकिता अभी वसंत के कार्यक्रम की अपनी थकान उतार भी नहीं पाई थी कि उसे अपने पिता का पत्र मिला.

‘‘टीवी के प्रादेशिक कार्यक्रम में तुम्हारे विद्यालय द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा. संचालिका के रूप में तुम्हें पहचान लिया. कार्यक्रम बहुत अच्छा था. मन बहुत प्रसन्न हुआ. लेकिन बेटी, एक बात याद रखना कि विद्या के क्षेत्र में प्रसाद वर्जित है.’’

पत्र पाने के बाद अंकिता आत्मसंतोष से भर उठी.

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