रिवाजों की दलदल: भाग 2

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दादी ने कदाचित अपने मन को संभाल लिया था. बोलीं, ‘कायस्थ घराने में एक मद्रासी लड़की तो आजकल चलता है लेकिन अच्छी तरह सुन लो, कुंडली मिलवाए बिना हम ब्याह नहीं होने देंगे.’

रजनी ने धीरे से कहा, ‘अम्मांजी, अब कुंडली कौन मिलवाता है. जो होना होता है वह तो हो कर ही रहता है.’

‘चुप रहो, बहू. हमारा इकलौता पोता है. हम जरा भी लापरवाही नहीं बरतेंगे,’ फिर सुभग से बोलीं, ‘तू इस की मां से कुंडली मांग लेना.’

‘दादी, जैसे आप को अपना पोता प्यारा है, उन्हें भी तो अपनी बेटी उतनी ही प्यारी होगी. अगर मेरी कुंडली खराब हुई और उन्होंने मना कर दिया तो.’

‘कर दें मना, तुझे किस बात की कमी है?’

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‘लेकिन दादी…’

उसे बीच में ही टोक कर दादी बोलीं, ‘अब कोई लेकिनवेकिन नहीं. चल, अब खाना खा ले.’

सुभग का मन उखड़ गया था. धीरे से बोला, ‘अभी भूख नहीं है, दादी.’

रजनी जानती थी कि सुभग ने अपने बड़ों से कभी बहस नहीं की. उस की उदासी रजनी को दुखी कर गई थी. एकांत में बोलीं, ‘क्यों डर रहा है. सब ठीक हो जाएगा. तुम दोनों की कुंडली जरूर मिल जाएगी.’

‘और यदि नहीं मिली तो क्या करेंगे आप लोग?’ उस ने सीधा प्रश्न ठोक दिया था.

‘इतना निराशावादी क्यों हो गया है. दादी का मन रह जाने दे, बाकी सब ठीक होगा,’ फिर धीरे से बोलीं, ‘श्री मुझे भी पसंद है.’

गाड़ी धीरेधीरे हिचकोले खा रही थी. शायद कोई स्टेशन आ गया था. गाड़ी तो समय पर अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाती है पर इनसान कई बार बीच राह में ही गुम हो जाता है. आखिर ये रिवाजों के दलदल कब तक पनपते रहेंगे?

वह फिर अतीत की उस खाई में उतरने लगीं जिस से बाहर निकलने की कोई राह ही नहीं बची थी.

दादी के हठ पर वह श्री की कुंडली ले आया था लेकिन उस ने रजनी से कह दिया था, ‘मम्मा, मैं यह सब मानूंगा नहीं. अगर श्री से शादी नहीं तो कभी भी शादी नहीं करूंगा.’

फिर सब बदलता ही चला गया. श्री की कुंडली में मंगली दोष था और भी अनेक दोष पंडित ने बता दिए. दादी ने साफ कह दिया, ‘बस, फैसला हो गया. यह शादी नहीं होगी, एक तो लड़की मंगली है दूसरे, कुंडली में कोई गुण भी नहीं मिल रहे हैं.’

‘मैं यह सब नहीं मानता हूं,’ सुभग ने कहा.

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‘मानना पड़ेगा,’ दादी ने जोर दिया.

‘हमारे पोते पर शादी के बाद कोई भी मुसीबत आए यह नहीं हो सकता है.’

‘आप को क्या लगता है दादी, उस से शादी न कर के मैं अमर हो जाऊंगा.’

‘कैसे बहस कर रहा है उस मामूली सी लड़की के लिए. कितनी सुंदर लड़कियों के रिश्ते हैं तेरे लिए.’

‘दादी, सुंदरता समाप्त हो सकती है पर अच्छा स्वभाव सदा बना रहता है.’

सुभग का तर्क एकदम ठीक था पर उस की दादी का हठ सर्वोपरि था. सुभग के हठ को परास्त करने के लिए उन्होंने आमरण अनशन पर जाने की धमकी दे दी.

दिन भर दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे. दादी बिना अन्नजल के शाम तक बेहाल होने लगीं. वह मधुमेह की रोगी थीं. पापा ने घबरा कर सुभग के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘बेटा, तुम्हें तो बहुत अच्छी लड़की फिर भी मिल ही जाएगी पर मुझे मेरी मां नहीं मिलेगी.’

सुभग ने पापा की जुड़ी हथेली पर माथा टिका दिया.

‘पापा, दादी मुझे भी प्यारी हैं. यदि इस समस्या का हल किसी एक को छोड़ना ही है तो मैं श्री को छोड़ता हूं.’

पापा ने उसे गले से लगा लिया. जब उस ने सिर उठाया तो उस का चेहरा आंसुआें में डूबा हुआ था.

पापा से अलग हो कर उस ने कहा, ‘पापा, एक वादा मैं भी चाहता हूं. अब आप लोग कहीं भी मेरे विवाह की बात नहीं चलाएंगे. अगर श्री नहीं तो और कोई भी नहीं?’

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पापा व्यथित से उसे देखते रह गए. बेटे से कुछ कह पाने की स्थिति में तो वह भी नहीं थे. जब दादी कुछ स्वस्थ हुईं तो पापा ने कहा, ‘मां, उसे संभालने का अवसर दीजिए. कुछ मत कहिए अभी.’

1 माह बाद दादी ने फिर कहना आरम्भ कर दिया तो सुभग ने कहा, ‘दादी, जब तक मैं नई पोस्ट और नई जगह ठीक से सैटल नहीं होता, प्लीज और कुछ मत कहिए.’

बहुत शीघ्र अपने पद व प्रतिष्ठा से वह शायद ऊब गया और नौकरी छोड़ कर दुबई चला गया. शायद विवाह से पीछा छुड़ाने की यह राह चुनी थी उस ने.

इसी तरह टालते हुए 3 वर्ष और बीत गए थे. सुभग दुबई में अकेले रहता था. फोन भी कम करता था. वहां की तेज रफ्तार जिंदगी में पता नहीं ऐसा क्या हुआ, एक दिन उस के आफिस वालों ने फोन से दुर्घटना में उस की मृत्यु का समाचार दिया.

जाने कब रजनी की आंख लग गई थी. कुछ शोर से आंख खुली तो पता चला दिल्ली का स्टेशन आने वाला है.

उन्होंने झट से चादर तहाई, बैग व पर्स संभाला और बीच की सीट गिरा कर बैठ गईं. श्री भी परिवार सहित सामान समेट कर स्टेशन आने की प्रतीक्षा कर रही थी. उन की आंखों में पछतावे के छोटेछोटे तिनके चुभ रहे थे. दादी का सदमे से अस्वस्थ हो जाना और उन का वह पछतावा कि अगर उसे इतना ही जीना था तो मैं ने क्यों उस का दिल तोड़ा?

दादी का वह करुण विलाप उन की अंतिम सांस तक सब के दिल दहलाता रहा था. काश, कभीकभी इस से आगे कुछ होता ही नहीं, सब शून्य में खो जाता है.

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स्टेशन आ गया था. जातेजाते श्री ने उन का बैग थाम लिया था. स्टेशन पर उतर कर बैग उन्हें थमाया. उन की हथेली दबा कर धीरे से कहा, ‘‘धीरज रखिए, आंटी. मुझे मालूम है कि आप अकेली रह गई हैं,’’ उस ने अपना फोन नंबर व पते का कार्ड दिया और बोली, ‘‘मैं पटेल नगर में रहती हूं. जबजब अपने भाई के यहां दिल्ली आएं हमें फोन करिए. एक बार तो आ कर मिल ही सकती हूं.’’

रजनी ने भरी आंखों से उसे देखा. लगा, श्री के रूप में सुभग उस के सामने खड़ा है और कह रहा है, ‘मैं कहीं नहीं गया मम्मा.

मेरी मां के नाम

लेखिका- रेनू खटोर

इस बात को लगभग 1 साल हो गया लेकिन आज भी एक सपना सा ही लगता है. अमेरिका के एक बड़े विश्वविद्यालय, यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन के बोर्ड के सामने मैं इंटरव्यू के लिए जा रही थी. यह कोई साधारण पद नहीं था और न ही यह कोई साधारण इंटरव्यू था. लगभग 120 से ज्यादा व्यक्ति अपने अनुभव और योग्यताओं का लेखाजोखा प्रस्तुत कर चुके थे और अब केवल 4 अभ्यर्थी मैदान में चांसलर का यह पद प्राप्त करने के लिए रह गए थे.

मुझे इस बात का पूरा आभास था कि अब तक न तो किसी भी अमेरिकन रिसर्च यूनिवर्सिटी में किसी भारतीय का चयन चांसलर की तरह हुआ है और न ही टैक्सास जैसे विशाल प्रदेश ने किसी स्त्री को चांसलर की तरह कभी देखा है. इंटरव्यू में कई प्रश्न पूछे जाएंगे. हो सकता है वे पूछें कि आप में ऐसी कौन सी योग्यता है जिस के कारण यह पद आप को मिलना चाहिए या पूछें कि आप की सफलताएं आप को इस मोड़ तक कैसे लाईं?

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इस तरह की चिंताओं से अपना ध्यान हटाने के लिए मैं ने जहाज की खिड़की से बाहर अपनी दृष्टि डाली तो सफेद बादल गुब्बारों की तरह नीचे दिख रहे थे. अचानक उन के बीच एक इंद्रधनुष उभर आया. विस्मय और विनोद से मेरा हृदय भर उठा…अपनी आंखें ऊपर उठा कर तो आकाश में बहुत इंद्रधनुष देखे थे लेकिन आंखें झुका कर नीचे इंद्रधनुष देखने का यह पहला अनुभव था. मैं ने अपने पर्स में कैमरे को टटोला और जब आंख उठाई तो एक नहीं 2 इंद्रधनुष अपने पूरे रंगों में विराजमान थे और मेरे प्लेन के साथ दौड़ते से लग रहे थे.

आकाश की इन ऊंचाइयों तक उठना कैसे हुआ? कैसे जीवन की यात्रा मुझे इस उड़ान तक ले आई जहां मैं चांसलर बनने का सपना भी देख सकी? किसकिस के कंधों ने मुझे सहारा दे कर ऊपर उठाया है? इन्हीं खयालों में मेरा दिल और दिमाग मुझे अपने बचपन की पगडंडी तक ले आया.

यह पगडंडी उत्तर प्रदेश के एक शहर फर्रुखाबाद में शुरू हुई जहां मैं ने अपने बचपन के 18 साल रस्सी कूदते, झूलाझूलते, गुडि़यों की शादी करते और गिट्टे खेलते बिता दिए. कभी अमेरिका जाने के बारे में सोचा भी नहीं था, वहां के आकाश में उड़ने की तो बात ही दूर थी. बचपन की आवाजें मेरे आसपास घूमने लगीं:

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‘अच्छा बच्चो, अगर एक फल वाले के पास कुछ संतरे हैं. अब पहला ग्राहक 1 दर्जन संतरे खरीदता है, दूसरा ग्राहक 2 दर्जन खरीदता है और तीसरा ग्राहक सिर्फ 4 संतरे खरीदता है. इस समय फल वाले के पास जितने संतरे पहले थे उस के ठीक आधे बचे हैं. जरा बताओ तो कि फल वाले के पास बेचने से पहले कितने संतरे थे?’ यह मम्मी की आवाज थी.

‘मम्मी, हमारी टीचर ने जो होमवर्क दिया था, उसे हम कर चुके हैं. अब और नहीं सोचा जाता,’ यह मेरी आवाज थी.

‘अरे, इस में सोचने की क्या जरूरत है? यह सवाल तो तुम बिना सोचे ही बता सकती हो. जरा कोशिश तो करो.’

सितारों वाले नीले आसमान के नीचे खुले आंगन में चारपाइयों पर लेटे सोने से पहले यह लगभग रोज का किस्सा था.

‘जरा यह बताओ, बच्चो कि अमेरिका के राष्ट्रपति का क्या नाम है?’

‘कुछ भी हो, हमें क्या करना है?’

‘यह तो सामान्य ज्ञान की बात है और सामान्य ज्ञान से तो सब को काम है.’

फिर किसी दिन होम साइंस की बात आ जाती तो कभी राजनीति की तो कभी धार्मिक ग्रंथों की.

‘अच्छा, जरा बताओ तो बच्चो कि अंगरेजी में अनार को क्या कहते हैं?’

‘राज्यसभा में कितने सदस्य हैं?’

‘गीता में कितने अध्याय हैं?’

‘अगले साल फरवरी में 28 दिन होंगे या 29?’

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हम कार में हों या आंगन में, गरमी की दोपहर से बच कर लेटे हों या सर्दी की रात में रजाई में दुबक कर पड़े हों, मम्मी के प्रश्न हमारे इर्दगिर्द घूमते ही रहते थे. न हमारी मम्मी टीचर हैं, न कालिज की डिगरी की हकदार, लेकिन ज्ञान की प्यास और जिज्ञासा का उतावलापन उन के पास भरपूर है और खुले हाथों से उन्होंने मुझे भी यही दिया है.

एक दिन की बात है. हमसब कमरे में बैठे अपनाअपना होमवर्क कर रहे थे. मम्मी हमारे पास बैठी हमेशा की तरह स्वेटर बुन रही थीं. दरवाजे की आहट हुई और इस से पहले कि हम में से कोई उठ पाए, पापा की गुस्से वाली आवाज खुले हुए दरवाजे से कमरे तक आ पहुंची.

‘कोई है कि नहीं घर में, बाहर का दरवाजा खुला छोड़ रखा है.’

‘तुझ से कहा था रेनु कि दरवाजा बंद कर के आना, फिर सुना नहीं,’ मम्मी ने धीरे से कहा लेकिन पापा ने आतेआते सुन लिया.

‘आप सब इधर आइए और यहां बैठिए, रेशमा और टिल्लू, तुम दोनों भी.’ पापा गुस्से में हैं यह ‘आप’ शब्द के इस्तेमाल से ही पता चल रहा था. सब शांत हो कर बैठ गए…नौकर और दादी भी.

‘रेनु, तुम्हारी परीक्षा कब से हैं?’

‘परसों से.’

‘तुम्हारी पढ़ाई सब से जरूरी है. घर का काम करने के लिए 4 नौकर लगा रखे हैं.’ उन्होंने मम्मी की तरफ देखा और बोले, ‘सुनो जी, दूध उफनता है तो उफनने दीजिए, घी बहता है तो बहने दीजिए, लेकिन रेनु की पढ़ाई में कोई डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए,’ और पापा जैसे दनदनाते आए थे वैसे ही दनदनाते कमरे से निकल गए.

मैं घर की लाड़ली थी. इस में कोई शक नहीं था लेकिन लाड़ में न बिगड़ने देने का जिम्मा भी मम्मी का ही था. उन का कहना यही था कि पढ़ाई में प्रथम और जीवन के बाकी क्षेत्रों में आखिरी रहे तो कौन सा तीर मार लिया. इसीलिए मुझे हर तरह के कोर्स करने भेजा गया, कत्थक, ढोलक, हारमोनियम, सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग और कुकिंग. आज अपने जीवन में संतुलन रख पाने का श्रेय मैं मम्मी को ही देती हूं.

अमेरिका में रिसर्च व जिज्ञासा की बहुत प्रधानता है. कोई भी नया विचार हो, नया क्षेत्र हो या नई खोज हो, मेरी जिज्ञासा उतावली हो चलती है. इस का सूत्र भी मम्मी तक ही पहुंचता है. कोई भी नया प्रोजेक्ट हो या किसी भी प्रकार का नया क्राफ्ट किताब में निकला हो, मेरे मुंह से निकलने की देर होती थी कि नौकर को भेज कर मम्मी सारा सामान मंगवा देती थीं, खुद भी लग जाती थीं और अपने साथ सारे घर को लगा लेती थीं मानो इस प्रोजेक्ट की सफलता ही सब से महत्त्वपूर्ण कार्य हो.

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मैं छठी कक्षा में थी और होम साइंस की परीक्षा पास करने के लिए एक डिश बनाना जरूरी था. मुझे बनाने को मिला सूजी का हलवा और वह भी बनाना स्कूल में ही था. समस्या यह थी कि मुझे तो स्टोव जलाना तक नहीं आता था, सूजी भूनना तो दूर की बात थी. 4 दिन लगातार प्रैक्टिस चली…सब को रोज हलवा ही नाश्ते में मिला. परीक्षा के दिन मम्मी ने नापतौल कर सामान पुडि़यों में बांध दिया.

‘अब सुन, यह है पीला रंग. सिर्फ 2 बूंद डालना पानी के साथ और यह है चांदी का बरक, ऊपर से लगा कर देना टीचर को. फिर देखना, तुम्हारा हलवा सब से अच्छा लगेगा.’

‘जरूरी है क्या रंग डालना? सिर्फ पास ही तो होना है.’

‘जरूरी है वह हर चीज जिस से तुम्हारी डिश साधारण से अच्छी लगे बल्कि अच्छी से अच्छी लगे.’

‘साधारण होने में क्या खराबी है?’

‘जो काम हाथ में लो, उस में अपना तनमन लगा देना चाहिए और जिस काम में इनसान का तनमन लग जाए वह साधारण हो ही नहीं सकता.’

आज लोग मुझ से पूछते हैं कि आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है? मेरी मां की अपेक्षाएं ही रहस्य हैं. जिस से बचपन से ही तनमन लगाने की अपेक्षा की गई हो वह किसी कामचलाऊ नतीजे से संतुष्ट कैसे हो सकता है? उस जमाने में एक लड़के और एक लड़की के पालनपोषण में बहुत अंतर होता था, लेकिन मेरी यादों में तो मम्मी का मेरे कोट की जेबों में मेवे भर देना और परीक्षा के लिए जाने से पहले मुंह में दहीपेड़ा भरना ही अंकित है.

मेरी सफलताओं पर मेरी मम्मी का गर्व भी प्रेरणादायी था. परीक्षा से लौट कर आते समय यह बात निश्चित थी कि मम्मी दरवाजे की दरार में से झांकती हुई चौखट पर खड़ी मिलेंगी. जिस ने बचपन से अपने कदमों के निशान पर किसी की आंखें बिछी देखी हों, उसे आज जीवन में कठिन से कठिन मार्ग भी इंद्रधनुष से सजे दिखते हों तो इस में आश्चर्य कैसा? इस का श्रेय भी मैं अपनी मम्मी को ही देती हूं.

मैं 18 वर्ष की थी कि जिंदगी में अचानक एक बड़ा मोड़ आ गया. अचानक मेरी शादी तय हो गई और वह भी अमेरिका में पढ़ रहे एक लड़के के साथ. जब मैं ने रोरो कर घर सिर पर उठा दिया तो मम्मी बोलीं, ‘बेटा, शादी तो होनी ही थी एक दिन…कल नहीं तो आज सही. तुम्हारे पापाजी जो कर रहे हैं, सोचसमझ कर ही कर रहे हैं.’

‘सब को अपनी सोचसमझ की लगती है. मेरी सोचसमझ कोई क्यों नहीं देखता. मुझे पढ़ना है और बहुत पढ़ना है. अब कहां गया उफनता हुआ दूध और बहता हुआ घी का टिन?’

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‘तुम्हें पढ़ना है और वे लोग तुम्हें जरूर पढ़ाएंगे.’

‘आज तक पढ़ाया है किसी ने शादी के बाद जो वे पढ़ाएंगे? कौन जिम्मेदारी लेगा मेरी पढ़ाई की?’

‘मैं लेती हूं जिम्मेदारी. मेरा मन है… एक मां का मन है और यह मन कहता है कि वे तुझे पढ़ाएंगे और बहुत अच्छे से रखेंगे.’

मुझे पता था कि यह सब बहलाने की बातें थीं. मेरा रोना तभी रुका जब मेरा एडमिशन अमेरिका के एक विश्व- विद्यालय में हो गया. मम्मी के पत्र बराबर आते रहे और हर पत्र में एक पंक्ति अवश्य होती थी, ‘यह सुरेशजी की वजह से आज तुम इतना पढ़ पा रही हो…ऊंचा उठ पा रही हो.’ जिंदगी का यह पाठ कि ‘हर सफलता के पीछे दूसरों का योगदान है,’ मम्मी ने घुट्टी में घोल कर पिला दिया है मुझे. इसीलिए आज जब लोग पूछते हैं कि ‘आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है?’ तो मैं मुसकरा कर इंद्रधनुष के रंगों की तरह अपने जीवन में आए सभी भागीदारों के नाम गिना देती हूं.

‘‘वी आर स्टार्टिंग अवर डिसेंट…’’ जब एअर होस्टेस की आवाज प्लेन में गूंजी तो मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. खिड़की से बाहर झांका तो इंद्रधनुष पीछे छूट चुके थे और नीचे दिख रहा था अमेरिका का चौथा सब से बड़ा महानगर- ह्यूस्टन. मेरा मन सुबह की ओस के समान हलका था, मेरा मस्तिष्क सभी चिंताओं से मुक्त था.

ठीक 8 घंटे के बाद चांसलर और प्रेसीडेंट का वह दोहरा पद मुझे सौंप दिया गया था. मैं ने सब से पहले फोन मम्मी को लगाया और अपने उतावलेपन में सुबह 5 बजे ही उन्हें उठा दिया.

‘‘मम्मी, एक बहुत अच्छी खबर है… मैं यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन की प्रेसीडेंट बन गई हूं.’’

?‘‘फोन जरा सुरेशजी को देना.’’

‘‘मम्मी, आप ने सुना नहीं क्या, मैं क्या कह रही हूं.’’

‘‘सब सुना, जरा सुरेशजी से तो बात कर लूं.’’

मैं ने एकदम अनमने मन से फोन अपने पति के हाथ में थमा दिया.

‘‘बहुतबहुत बधाई, सुरेशजी, रेनु प्रेसीडेंट बन गई. मैं तो यह सारा श्रेय आप ही को देती हूं.’’

हमेशा दूसरों को प्रोत्साहन देना और श्रेय भी खुले दिल से दूसरों में बांट देना – यही है मेरी मां की पहचान. आज उन की न सुन कर, अपनी हर सफलता और ऊंचाई मैं अपनी मम्मी के नाम करती हूं.

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रिवाजों की दलदल: भाग 1

गाड़ी छूटने वाली थी तभी डब्बे में कुछ यात्री चढ़े. आगेआगे कुली एक व्यक्ति को उस की सीट दिखाने में सहायता कर रहा था और पीछे से 2 बच्चों के साथ जो महिला थी उसे देख कर रजनी स्तब्ध रह गईं.

अपना सामान आरक्षित सीट पर जमा कर उस महिला ने अगलबगल दृष्टि घुमाई और रजनी को देख कर वह भी चौंक सी उठी. एक पल उस ने सोचने में लगाया फिर निकट आ गई.

‘‘नमस्ते, आंटी.’’

‘‘खुश रहो श्री बेटा,’’ रजनी ने कुछ उत्सुकता, कुछ उदासी से उसे देखा और बोलीं, ‘‘कहां जा रही हो?’’

श्री ने मुसकरा कर अपने परिवार की ओर देखा फिर बोली, ‘‘हम दिल्ली जा रहे हैं.’’

‘‘कहां हो आजकल?’’

‘‘दिल्ली में यश एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. लखनऊ तो मम्मी के पास गए थे,’’ इतना कह कर वह उठ कर अपनी सीट पर चली गई. यश ने सीट पर अखबार बिछा कर एक टोकरी रख दी थी. बच्चे टोकरी से प्लेट निकाल कर रख रहे थे.

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‘‘अभी से?’’ श्री ने यश को टोका था.

‘‘हां, खापी कर चैन से सोएंगे,’’ यश ने कहा तो वह मुसकरा कर बैठ गई. सब की प्लेट लगा कर एक प्लेट उस ने रजनी की ओर बढ़ा दी, ‘‘खाइए, आंटी.’’

‘‘अरे, नहीं श्री, मैं घर से खा कर चली हूं. तुम लोग खाओ,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा और फिर आंखें मूंद कर वह अपनी सीट पर पैर उठा कर बैठ गईं.

कुछ यात्री उन की बर्थ पर बैठ गए थे. शायद ऊपर की बर्थ पर जाने का अभी उन लोगों का मन नहीं था इसलिए रजनी भी लेट नहीं पा रही थीं.

श्री का परिवार खातेखाते चुटकुले सुना रहा था. रजनी ने कई बार अपनी आंखें खोलीं. शायद वह श्री की आंखों में अतीत की छाया खोज रही थीं पर वहां बस, वर्तमान की खिलखिलाहट थी. श्री को देखते ही फिर से अतीत के साए बंद आंखों में उभरने लगे है.

श्रीनिवासन और उन का बेटा सुभग कालिज में एकसाथ पढ़ते थे. जाने कब और कैसे दोनों प्यार के बंधन में बंध गए. उन्हें तो पता भी नहीं था कि उन के पुत्र के जीवन में कोई लड़की आ गई है.

सुभग ने बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद प्रशासनिक सेवा का फार्म भर दिया और पढ़ाई में व्यस्त हो गया. सुभग की दादी तब तक जीवित थीं. उन के सपनों में सुभग पूरे ठाटबाट से आने लगा. कहतीं, ‘देखना, कितने बड़ेबड़े घरानों से इस का रिश्ता आएगा. हमारा मानसम्मान और घर सब भर जाएगा.’

उन के सपनों में अपने पोते का भविष्य घूमता रहता. सुभग के पापा तब कहते, ‘अभी तो सुभग ने खाली फार्म भरा है मां, अगर उस का चुनाव हो गया तो कुछ साल ट्रेनिंग में जाएंगे.’

‘अरे तो क्या? बनेगा तो जरूर एक दिन कलेक्टर,’ मांजी अकड़ कर कह देतीं.

श्री के पति ने खापी कर बर्थ पर बिस्तर बिछा लिया था. रजनी ने देखा अपनी गृहस्थी में श्री इतनी अधिक मग्न है कि उस ने एक बार भी रजनी से सुभग के बारे में नहीं पूछा. क्या उसे सुभग के बारे में कुछ भी पता नहीं है. मन ने तर्क किया, वह क्यों सुभग के बारे में जानने की चेष्टा करेगी. जो कुछ हुआ उस में श्री का क्या दोष. आह सी निकल गई. दोष तो दोनों का नहीं था, न श्री का न सुभग का. तो फिर वह सब क्यों हुआ, आखिर क्यों? कौन था उन बातों का उत्तरदायी?

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‘‘बहनजी, बत्ती बुझा दीजिए,’’ एक सहयात्री ने अपनी स्लीपिंग बर्थ पर पसरने से पहले रजनी से कहा.

रजनी को होश आया कि ज्यादातर यात्री अपनीअपनी सीट पर सोने की तैयारी में हैं. वह अनमनी सी उठीं और तकिया निकाल कर बत्ती बुझाते हुए लेट गईं.

हलकीहलकी रोशनी में रजनी ने आंखें बंद कर लीं पर नींद तो कोसों दूर लग रही थी. कई वर्ष लगे थे उन हालात से उबर कर अपने को सहज करने में पर आज फिर एक बार वह दर्द हर अंग से जैसे रिस चला है. यादों की लहरें ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा समुद्र उफन रहा था.

सुभग ने जिस दिन प्रशासनिक अधिकारी का पद संभाला था उसी दिन से मांजी ने शोर मचा दिया. रोज कहतीं, ‘इतने रिश्ते आने लगे हैं हम लड़कियों के चित्र मंगवा लेते हैं. जिस पर सुभग हाथ रख देगा वही लड़की ब्याह लाएंगे.’

सुभग ने भी हंस कर अपनी दादी के कंधे पर झूलते हुए कहा था, ‘सच दादी. फिर वादे से पलट मत जाइएगा.’

‘चल हट.’

घर के आकाश में सतरंगे सपनों का इंद्रधनुष सा सज गया था. खुशियां सब के मन में फूलों सी खिल रही थीं.

पापा ने अपने बेटे के लिए एक बड़ी पार्टी दे रखी थी. उन के बहुत से मित्रों में कई लड़कियां भी थीं. रजनी ने बारबार अनुभव किया कि सुभग के मित्र उसे श्री की ओर संकेत कर के छेड़ रहे थे. सुभग और श्री की मुसकराहट में भी कुछ था जो ध्यान खींच रहा था.

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पार्टी के बाद सुभग उसे घर तक छोड़ने भी गया था. लौटा तो रजनी ने सोचा कि बेटे से श्री के बारे में पूछ कर देखें. पर उस से पहले उस की दादी एक पुलिंदा ले कर आ पहुंचीं.

सुभग ने कहा, ‘दादी, यह मुझे क्यों दिखा रही हैं?’

‘शादी तो तुझे ही करनी है फिर और किसे दिखाएं.’

‘शादी…अभी से…’ सुभग कुछ परेशान हो उठा.

‘शादी का समय और कब आएगा?’ दादी का प्यार सागर का उफान मार रहा था.

‘नहीं, दादी, पहले मुझे सैटल हो जाने दीजिए फिर मैं स्वयं ही…’ वह बात अधूरी छोड़ कर जाने लगा तो दादी ने रोका, ‘हम कुछ नहीं जानते. कुछ तसवीरें पसंद की हैं. तू भी देख लेना फिर उन की कुंडली मंगवा लेंगे.’

‘कुंडली,’ सुभग चौंक कर घूम गया था. जैसेजैसे उस की दादी का उत्साह बढ़ता गया वैसेवैसे सुभग शांत होता गया.

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एक दिन वह अपने मन के सन्नाटे को तोड़ते हुए श्री को ले कर घर आ गया. रजनी चाय बनाने जाने लगीं तो सुभग ने बड़े अधिकार से श्री से कहा, ‘श्री, तुम बना लो चाय.’ तो वह झट से उठ खड़ी हुईं. उस के साथ ही सुभग ने भी उठते हुए कहा, ‘‘इसे रसोई में सब दिखा दूं जरा.’’

उस दिन उस की दादी का ध्यान भी इस ओर गया. श्री के जाने के बाद उन्होंने कहा, ‘शुभी, यह मद्रासी लड़की तेरी दोस्त है या कुछ और भी है?’

वह धीरे से मुसकराया.

प्रायश्चित्त: भाग 3

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लेखिका- किरण डी. कुमार

अब सुशांत बारबार घर जाने की जिद करने लगा. हालांकि उस जैसे मरीज की अस्पताल में ही अच्छी देखभाल हो सकती थी पर पति की इच्छा को देखते हुए नलिनी ने सब को आश्वासन दिया कि वह घर में सुशांत की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ेगी बल्कि घर के माहौल में सुशांत जल्दी ठीक हो जाएगा. अंत में डाक्टरों ने उसे घर ले जाने की इजाजत दे दी.

घर पर सुशांत की देखरेख का सारा जिम्मा नलिनी के सिर पर डाल कर भानुमति बेन तो मुक्त हो गईं. घर पर ही फिजियोेथेरैपी चिकित्सा देने के लिए एक डाक्टर आते.

सुशांत की नौकरी तो छूट गई थी. दोनों भाइयों का कारोबार अच्छा चल रहा था. सुशांत और नलिनी का खर्च भी उन्हें ही वहन करना पड़ रहा था. प्रत्यक्षत: तो कोई कुछ न कहता, पर घर के ऊपरी काम करने के लिए जो महरी आती थी, उसे निकाल दिया गया था. सुशांत को नहलानेधुलाने, खिलानेपिलाने के बाद जो वक्त बचता था, वह नलिनी कपड़े धोने, बर्तन साफ करने, झाडूपोंछा करने और रसोई का काम करने में बिता देती. वह बेचारी दिन भर घर के कामों में लगी रहती.

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मैं कभी उन के घर बैठने जाती तो मुझे नलिनी को देख कर तरस आता कि किस तरह यह समय की मार झेल रही है. दिनभर घर के कामों के साथ अपाहिज पति की देखभाल करती है पर चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आती. मैं कभी आंटीजी से कहती तो वह खीज उठतीं, ‘इस के कर्मों का फल तो सुशांत भुगत रहा है. उस की सेवा कर के यह अपने पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित्त ही कर रही है,’ मुझे उन की बातों का बुरा जरूर लगता पर मैं सोचती कि सुशांत वक्त के साथ ठीक होगा तो सब के मुंह अपनेआप बंद हो जाएंगे.

फिजियोथेरैपिस्ट और नलिनी की अथक मेहनत से सुशांत अब उठताबैठता, बैसाखी की मदद से चलता. अपने तमाम छोटेमोटे काम वह खुद ही करता. अब नलिनी उसे जयपुर फुट लगवाने की सलाह देने लगी. जब जयपुर फुट की मदद से सुशांत चलने का प्रयास करने लगा तो नलिनी को तो मानो सारे जहान की खुशियां  मिल गईं.

एक दिन मैं दोपहर के खाली समय में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि किसी ने दरवाजा खट- खटाया. दरवाजा खोलने पर सामने नलिनी को देख कर मैं खुश हो गई और बोली, ‘आओ, नलिनी, कितने दिनों बाद तुम घर से बाहर निकली हो. मैं कल आशुतोष से तुम्हारी ही बात कर रही थी. किस तरह तुम ने विपरीत परिस्थितियों में हार न मानी. मौत के मुंह से अपने पति को बाहर ले आईं. सच, सारे विश्व में एक हिंदुस्तानी नारी इसलिए ही पतिव्रता मानी जाती होगी.’

‘बस, दीदी, अब मेरी तारीफ करना छोडि़ए, मैं आप को यह बताने आई थी कि सुशांत ने फिर से नौकरी कर ली है. भूकंप में दुर्घटनाग्रस्त होने के पहले सुशांत जिस प्रेस में काम करते थे, उस के मालिक ने उन को फिर से काम पर बुलाया है. सुशांत को पहले भी घर के व्यापार में दिलचस्पी नहीं थी. प्रेस का प्रिय काम पा कर वह खुश हैं.’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है, नलिनी…2-3 साल बहुत कष्ट सह लिए तुम ने, अब जल्दी से सुशांत को वह प्यारा तोहफा देने की तैयारी करो जिस के आने से जीवन में बहार आ जाती है. वैसे भी सुशांत को बच्चे बहुत पसंद हैं.’

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मेरे यह कहते ही नलिनी की आंखों में आंसू भर आए, ‘दीदी, पति के जिस प्यार को पाने के लिए मैं ने इतने कष्ट सहे, वह तो आज तक मेरे हिस्से में नहीं आया. सुशांत काफी समय से मुझ से कटेकटे रहते थे. पहले तो मैं समझती थी कि दुर्घटना के कारण उन में बदलाव आया होगा. पर आजकल मुझ से बात करना तो दूर वह मेरी तरफ देखते तक नहीं हैं.

‘कल रात को मैं ने जब उन से इस बेरुखी की वजह पूछी तो वह मुझ पर बिफर उठे कि क्या बात करूं, मैं तुम से? अरे, तुम से शादी कर के तो अब मैं पछता रहा हूं. कैसी मनहूस पत्नी हो तुम? तुम्हारे मांगलिक होने के कारण मेरी तो जान ही जाने वाली थी. वह तो जोशी बाबा की पूजा, अम्मां की मन्नतें, घर वालों का प्यार ही था, जो मैं बच गया.

‘मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. पहली बार पता चला कि सुशांत के दिल में मेरे लिए इतना जहर भरा है. मैं ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की. मैं ने यह भी कहा कि आप तो जन्मकुंडली मांगलिक अमांगलिक यह सब नहीं मानते थे.

‘मेरी बात सुनते ही सुशांत गुस्से में भड़क गए थे कि उसी का तो अंजाम भुगत रहा हूं. अम्मां और पिताजी तो तुम से शादी करने के पक्ष में ही नहीं थे. काश, उस वक्त मैं ने उन का और जोशी बाबा का कहा माना होता तो कम से कम मेरी जान पर तो न बन आती.

‘आप यह क्या कह रहे हैं? 2 साल मैं ने कितने जी जान से आप की सेवा की, इस उम्मीद में कि हम आप के ठीक होने के बाद, अपने प्यार की दुनिया बसाएंगे. अब आप ठीक हो गए तो अंधविश्वास को आधार बना कर मुझ से इतनी नफरत कर रहे हैं? मैं सबकुछ सह सकती हूं, पर आप की नफरत नहीं सह सकती.

‘वह बोले कि नहीं सह सकतीं तो चली जाओ अपने बाप के घर, रोका किस ने है? तुम से जितनी जल्दी पीछा छूटे, उसी में मेरी बेहतरी है और ऐसी क्या सेवा की है तुम ने? जो तुम ने किया है वह तो चंद पैसों के बदले कोई नर्स भी तुम से बेहतर कर सकती थी. यह कह सुशांत बिना कुछ खाए ही काम पर चले गए.’

इतना बता कर नलिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

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धुंध: भाग 2

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‘‘उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है,’’ रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

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‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

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‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

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‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

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‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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प्रायश्चित्त: भाग 2

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लेखिका- किरण डी. कुमार

जेठानियां तो पहले से ही नलिनी से मन ही मन जलती थीं, पर भानुमति बेन को भी जेठानियों के सुर में बोलते हुए देख कर मुझे बड़ी हैरत हुई. वह बोलीं, ‘सुशांत नलिनी को अपनी पसंद से ब्याह कर लाया था. शादी से पहले दोनों की कुंडलियां मिलाई गईं तो पाया गया कि नलिनी मांगलिक है. हम ने सुशांत को बहुत समझाया कि नलिनी से विवाह कर के उस का कोई हित न होगा.

पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा कि अगर विवाह करेगा तो केवल नलिनी से वरना किसी से नहीं. अंत में हम ने बेटे की जिद के आगे हार मान ली. 2 साल तक नलिनी की गोद नहीं भरी. पर बाकी सब ठीक था. अब तो सुशांत शारीरिक रूप से अपंग हो गया है. वह कोमा से बाहर आएगा, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है. यह तो पति के लिए अपने साथ दुर्भाग्य ले कर आई है. जोशी बाबा भी यही कह गए हैं.’

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भानुमति बेन के घर में एक जोशी बाबा हर दूसरेतीसरे दिन चक्कर लगाते थे. उन के आते ही सारा घर उन के चारों ओर घूमने लगता. वह किसी की कुंडली देखते, किसी का हाथ. जोशी बाबा का कई परिवारों से संबंध था इसलिए उस के माध्यम से बहुत से सौदे हो जाते थे. जिसे जोशी बाबा ऊपर वाले की कृपा कहने पर अपनी दक्षिणा जरूर वसूलते थे.

नलिनी उन से सदा कतराती थी क्योंकि वह उसे सदा तीखी निगाहों से घूरते थे. दोनों जेठानियों को आशीर्वाद देते समय उन का हाथ कहीं भी फिसल जाए, वे उसे धन्यभाग समझती थीं पर नलिनी ने पहली ही बार में उन की नीयत भांप ली थी. वह हमेशा कटीकटी रहती थी. अब जोशी बाबा हर सुबह पंचामृत ले कर आते थे और डाक्टरों के विरोध के बावजूद एक बूंद सुशांत के मुंह में डाल ही जाते थे.

‘पर आंटीजी, भूकंप में तो जितने आदमियों की जानें गईं, क्या उन सब की बीवियां मांगलिक थीं? फिर अंकल भी तो नहीं रहे, क्या आप की कुंडली में कुछ दोष था? सुशांत फिर से पूर्ववत हो जाएगा, कम से कम मेरा दिल तो यही कहता है,’ मैं ने कहा.

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‘बेटी, अंकल के साथ मेरे विवाह को 40 वर्ष से ऊपर हो चुके थे. मेरा और तुम्हारे अंकल का इतना लंबा साथ भी तो रहा है. औरोें के घरों का तो मैं नहीं जानती, पर नलिनी के ग्रह सुशांत पर जरूर भारी पड़े हैं.’

भानुमति बेन को अपनी बातों पर अड़ा जान कर मैं चुप हो गई.

भूकंप की तबाही को 8 महीने बीत चुके थे. एक दिन मेरा बेटा रिंकू बाहर से दौड़ते हुए घर में आया और कहने लगा, ‘मम्मी, सुशांत अंकल को होश आया है. उन के घर के सभी लोग अस्पताल गए हैं.’

रिंकू की बातें सुन कर मैं भी जाने के लिए निकली ही थी कि आशुतोष ने मुझे रोका, ‘पहले, उस के घर वालों को तो मिल लेने दो. कितने अरसे से तरस रहे थे कि सुशांत को होश आ जाए. जब सभी मिल लें, फिर कलपरसों जाना,’ मुझे आशुतोष की बात ठीक लगी.

2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो माहौल खुशी का न था. बाकी सब पहले से ज्यादा गमगीन थे. सुशांत होश में तो आया था और घर के सभी लोगों को पहचान भी रहा था पर वह सामान्य रूप से बात करने में और हाथपैर हिलाने में असमर्थ था. उस की देखरेख गुजरात के जानेमाने न्यूरोलोजिस्ट डा. नवीन देसाई कर रहे थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि सिर पर लगी गंभीर चोट के कारण सुशांत धीरेधीरे ही सामान्य हो पाएगा.

नलिनी मुझे देखते ही मेरी ओर लपकी और बोली, ‘दीदी, आप ने जो कहा था अब सच हो गया है. सुशांत ठीक हो रहे हैं.’

‘देखना, सुशांत धीरेधीरे पूरी तरह ठीक हो जाएगा,’ मैं ने उत्तर दिया.

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सुशांत के होश में आने से नलिनी का हौसला बुलंद हो गया था. अस्पताल में नर्सों के होते हुए भी उस ने अपनी खुशी से पति की देखरेख का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. वह हर रोज उस की दाढ़ी बनाती, कपड़े बदलती. घर के बाकी सदस्य हर दूसरेतीसरे दिन अस्पताल आते और 5-10 मिनट सुशांत का हालचाल पूछने की खानापूर्ति कर के चले जाते.

करीब 2 महीने बाद सुशांत स्पष्ट रूप से बात करने लगा. हिलनेडुलने की आत्मनिर्भरता अब तक उस में नहीं आई थी, लेकिन उसे कुदरती तौर पर ही पता चल गया था कि उस की दाईं टांग घुटने तक आधी काट दी गई थी.

हुआ यों कि एक दिन वह कहने लगा, ‘नलिनी, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि मैं दाएं पैर की उंगलियों को हिला नहीं पा रहा हूं, जरा चादर तो उठाओ, मैं अपना पैर देखना चाहता हूं,’ बेचारी नलिनी क्या जवाब देती, वह सुशांत के आग्रह को टाल गई, तो सुशांत ने पास से गुजरती एक नर्स से अनुरोध कर के चादर हटाई तो अपने कटे हुए पैर को देख कर हतप्रभ रह गया.

उस की आंखों से बहते आंसुओं को पोंछ कर नलिनी ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया. डा. देसाई ने सुशांत को समझाया कि किन हालात में उन्हें उस का पैर काटने का निर्णय लेना पड़ा. सुशांत ने ऐसी चुप्पी साध ली कि किसी से बात न करता. मैं ने नलिनी को समझाया, ‘तुम्हीं को धैर्य से काम लेना होगा. वह बच गया. 8 महीने कोमा में रहने के बाद होश में आया है…क्या इतना कम है. अभी तो उसे अपने पिता की मौत का सदमा भी बरदाश्त करना है. तुम्हें हर हाल में उस का साथ निभाना है.’

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

धुंध: भाग 1

घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

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‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

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‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

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‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

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‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में- 

एक रिश्ता किताब का: भाग 3

दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- एक रिश्ता किताब का: भाग 2

जैसा मैं था वैसा ही सोमेश को भी बनाता गया…बेहद जिद्दी और सब पर अपना ही अधिकार समझने वाला…ऐसा इनसान जीवन में कभी सफल नहीं होता बेटी. न मेरी शादी सफल हुई न मेरी परवरिश. न मैं अच्छा पति बना न अच्छा पिता. अच्छा किया जो तुम ने शादी से मना कर दिया. कम से कम तुम्हारे इनकार से मेरी इस जिद पर एक पूर्णविराम तो लगा.’’

निरंतर रो रहे थे जगदीश चाचा. पापा भी रो रहे थे. शायद हम सब भी. इस कथा का अंत इस तरह होगा किस ने सोचा था. जगदीश चाचा सब रिश्तों को खो कर इतना तो समझ ही गए थे कि अकेला इनसान कितना असहाय, कितना असुरक्षित होता है. सब गंवा कर दोस्ती का रिश्ता बचाना सीख लिया यही बहुत था, एक शुरुआत की न जगदीश चाचा ने. पापा ने माफ कर दिया जगदीश चाचा को. सिर से भारी बोझ हट गया, एक रिश्ता तोड़ एक रिश्ता बचा लिया, सौदा महंगा नहीं रहा.

तूफान के बाद की शांति घर भर में पैर पसारे थी. दोपहर का समय था जब मेरे एक सहयोगी ने दरवाजा खटखटाया. कंधे पर बैग और हाथ में शादी का तोहफा लिए मामा ने उन्हें अंदर बिठाया. मैं मिलने गई तो विजय को देख कर सहसा हैरान हो गई.

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‘‘अरे, शादी वाला घर नहीं लग रहा आप का…आप भी मेहंदी से लिपीपुती नहीं हैं…पंजाबी दुलहन के हाथ में तो लंबेलंबे कलीरे होते हैं न. मुझे तो लगा था कि पहुंच ही नहीं पाऊंगा. सीधा स्टेशन से आ रहा हूं. आप पहले यह तोहफा ले लीजिए. अभी फुरसत है न. रात को तो आप बहुत व्यस्त होंगी. जरा खोल कर देखिए न, आप की पसंद का है कुछ.’’

एक ही सांस में विजय सब कह गए. उन के चेहरे पर मंदमंद मुसकान थी, जो सदा ही रहती है. आफिस के काम से उन को मद्रास में नियुक्त किया गया था. अच्छे इनसान हैं. मेरी शादी के लिए ही इतनी दूर से आए थे. आसपास भी देख रहे थे.

‘‘क्या बात है शुभाजी, घर में शादी की चहलपहल नहीं है. क्या शादी का प्रबंध कहीं और किया गया है? आप जरा खोल कर देखिए न इसे…माफ कीजिएगा, मुझे रात ही वापस लौटना होगा. आप को तो पता है कि छुट्टी मिलना कितना मुश्किल है…मैं तो किसी तरह जरा सा समय खींच पाया हूं. आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था. आप के हाथों में वह सब कैसा लगता वह सब देखने का लोभ मैं छोड़ ही नहीं पाया.’’

विजय के शब्दों की बेलगाम दौड़ कभी मेरे हाथ में दिए गए तोहफे पर रुकती और कभी आसपास के चुप माहौल पर. इतनी दूर से मुझे बस दुलहन के रूप में देखने आए थे. चाहते थे तोहफा अभी खोल कर देख लूं.

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‘‘आप बहुत अच्छी हैं शुभाजी, सोेमेशजी बहुत किस्मत वाले हैं जो आप उन्हें मिलने वाली हैं. आप सदा सुखी रहें. मेरी यह दिली ख्वाहिश है.’’

सहसा उन का हाथ मेरे सिर पर आया. सिहर गया था मेरा पूरा का पूरा अस्तित्व. नजरें उठा कर देखा कुछ तैर रहा था आंखों में.

‘‘क्या बात है, शुभाजी, सब ठीक तो है न…घबराहट हो रही है क्या?’’

क्या कहूं मैं सोेमेश के बारे में, और विजय को भी क्या समझूं. विजय तो आज भी वहीं खड़े हैं जहां तब खड़े थे जब मेरी सोमेश के साथ सगाई हुई थी. एक मीठा सा भाव रहता था सदा विजय की आंखों में. कुछ छू जाता था मुझे. इस से पहले मैं कुछ समझ पाती सोमेश से मेरी सगाई हो गई और जितना समय सगाई को हुआ उतने ही समय से विजय की नियुक्ति भी मद्रास में है, जिस वजह से यह प्रकरण पुन: कभी उठा ही नहीं था. भूल ही गई थी मैं विजय को.

तभी पापा भीतर चले आए और मैं तोहफा वहीं मेज पर टिका कर भीतर चली आई. अपने कमरे में दुबक सुबक- सुबक कर रो पड़ी. जाहिर सा था पापा ने सारी की सारी कहानी विजय को सुना दी होगी. कुछ समय बीत गया…फिर ऐसा लगा बहुत पास आ कर बैठ गया है कोई. कान में एक मीठा सा स्वर भी पड़ा, ‘‘आप ने अभी तक मेरा तोहफा खोल कर नहीं देखा शुभाजी. जरा देखिए तो, क्या यह वही किताब है जिसे सोमेश ने जला दिया था…देखिए न शुभाजी, क्या इसी किताब को आप पिछले साल भर से ढूंढ़ रही थीं. देखिए तो…

‘‘शुभा, आप मेरी बात सुन रही हैं न. जो हो गया उसे तो होना ही था क्योंकि सोमेश इतनी अच्छी तकदीर का मालिक नहीं था और जिस रिश्ते की शुरुआत ही धोखे और खराब नीयत से हो उस का अंत कैसा होता है. सभी जानते हैं न. आप कमरे में दुबक कर क्यों रो रही हैं. आप ने तो किसी को धोखा नहीं दिया, तो फिर दुखी होने की क्या जरूरत. इधर देखिए न…’’

मेरा हाथ जबरदस्ती अपनी तरफ खींचा विजय ने. स्तब्ध थी मैं कि इतना अधिकार विजय को किस ने दिया? दोनों हाथों से मेरा चेहरा सामने कर आंसू पोंछे.

‘‘इतनी दूर से मैं आप के आंसू देखने तो नहीं आया था. आप बहुत अच्छी लगती थीं मुझे…अच्छे लोग सदा मन के किसी न किसी कोने में छिपे रहते हैं न. यह अलग बात है कि आप ने मन का कोई कोना नहीं पूरा मन ही बांध रखा था… आप का हाथ मांगना चाहता था. जरा सी देर हो गई थी मुझ से. आप की सगाई हो गई और मैं जानबूझ कर आप से दूर चला गया. सदा आप का सुख मांगा है…प्रकृति से यही मांगता रहा कि आप को कभी गरम हवा छू भी न जाए.

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‘‘आप की एक नन्ही सी इच्छा का पता चला था.

‘‘याद है एक शाम आप बुक शाप में यह किताब ढूंढ़ती मिल गई थीं. आप से पता चला था कि आप इसे लंबे समय से ढूंढ़ रही हैं. मैं ने भी इसे मद्रास में ढूंढ़ा… मिल गई मुझे. सोचा शादी में इस से अच्छा तोहफा और क्या होगा…इसे पा कर आप के चेहरे पर जो चमक आएगी उसी में मैं भी सुखी हो लूंगा इसीलिए तो बारबार इसे खोल कर देख लेने की जल्दी मचा रहा था मैं.’’

पहली बार नजरें मिलाने की हिम्मत की मैं ने. आकंठ डूब गई मैं विजय के शब्दों में. मेरी नन्ही सी इच्छा का इतना सम्मान किया विजय ने और इसी इच्छा का दाहसंस्कार सोमेश के पागलपन को दर्शा गया जिस पर इतना बड़ा झूठ तारतार कर बिखर गया.

‘‘आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था, तभी तो इतनी दूर से आया हूं. आज का दिन आप की शादी का दिन है न. तो शादी हो जानी चाहिए. आप के पापा और मां ने पूछने को भेजा है. क्या आप मेरा हाथ पकड़ना पसंद करेंगी?’’

क्या कहती मैं? विजय ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. झट से एक प्रगाढ़ चुंबन मेरे गाल पर जड़ा और सर थपक दिया. शायद कुछ था जो सदा से हमें जोड़े था. बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने. कुछ ऐसा जिसे सोमेश के साथ कभी महसूस नहीं किया था.

विजय बाहर चले गए. पापा और मां से क्याक्या बातें करते रहे मैं ने सुना नहीं. ऐसा लगा एक सुरक्षा कवच घिर आया है आसपास. मेरी एक नन्ही सी इच्छा मेरी वह प्रिय किताब मेरे हाथों में चली आई. समझ नहीं पा रही हूं कैसे सोमेश का धन्यवाद करूं?

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