Social Story in Hindi: डुप्लीकेट- भाग 2: आखिर क्यों दुखी था मनोहर

नीलू भी मजबूर हो गई थी. उस का सब से पहला यौन शोषण मामा ने किया. स्क्रीन टैस्ट के नाम पर कई बार यौन शोषण हुआ, पर उसे किसी फिल्म में काम नहीं मिला.

शूटिंग देखतेदेखते नीलू की दोस्ती निशा से हो गई थी. निशा फिल्मों में डुप्लीकेट का काम करती थी. कभीकभी छोटामोटा रोल भी उसे मिल जाता था.

एक दिन एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. निशा के डुप्लीकेट के रूप में कुछ शौट फिल्माए जाने थे. अचानक निशा की तबीयत खराब हो गई तो उस ने अपना काम नीलू को दिला दिया.

इतने साल हो गए हैं डुप्लीकेट का रोल करतेकरते, पर किसी फिल्म में कोई ढंग का रोल नहीं मिला.

इस के बाद मनोहर व नीलू का मिलनाजुलना बढ़ता रहा. एक दिन वह आया जब उस ने नीलू से शादी कर ली.

शादी के बाद उस ने नीलू को किसी भी फिल्म में डुप्लीकेट का काम करने को बिलकुल मना कर दिया था.

2 साल बाद उन के घर में एक नन्हामुन्ना मेहमान आ गया. बेटे का नाम कमल रखा गया.

एक दिन नीलू ने उस से कहा, ‘मैं तो चाहती हूं कि तुम भी डुप्लीकेट का काम छोड़ दो. जब तुम शूटिंग पर चले जाते हो, मुझे बहुत डर लगता है. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम दोनों का क्या होगा?’

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‘हां नीलू, तुम ठीक कहती हो. मैं भी यही सोच रहा हूं. मेरा मन भी इस काम से ऊब चुका है. इस काम में इज्जत तो बिलकुल है ही नहीं. कभीकभी तो अपनेआप से ही नफरत होने लगती है.

क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘जब कोई मामूली सा डायरैक्टर भी सब के सामने डांट देता है तब लगता है कि क्या हम इतने गिरे हुए हैं जो हमारी इस तरह बेइज्जती कर दी जाती है? क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘अब तो यहां मुंबई में रहते हुए मेरा मन ऊब गया है,’ नीलू ने कहा था.

‘तुम ठीक कहती हो. हम जल्द ही यहां से चले जाएंगे किसी छोटे से शहर में या किसी पहाड़ी इलाके में. वहीं पर मैं कोई छोटामोटा काम कर लूंगा. हम अपने बेटे कमल को इस फिल्मी दुनिया से दूर ही रखेंगे.’

नीलू ने मुसकराते हुए उस की ओर देखा था.

एक दिन मनोहर की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. इलाज शुरू हुआ. कई डाक्टरों को दिखाया गया, पर बीमारी कम नहीं हो रही थी. जो भी पास में पैसा था, बीमारी की भेंट चढ़ गया.

एक स्पैशलिस्ट डाक्टर को दिखाया गया तो उस ने कुछ जरूरी जांच, दवा, इंजैक्शन वगैरह लिख दिए थे.

मनोहर बिस्तर पर लेटा हुआ कुछ सोच रहा था. उस की आंखों से पता नहीं कब आंसू बह निकले.

नीलू ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘आप अपना मन दुखी न करो. डाक्टर ने कहा है कि तुम ठीक हो जाओगे.’

‘नीलू, इतने रुपए कहां से आएंगे? तुम रहने दो, जो होगा वह हो जाएगा.’

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‘तुम किसी भी तरह की चिंता मत करो. मैं प्रकाश स्टूडियो जाऊंगी. वहां फिल्म ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही है. डायरैक्टर प्रशांत राय तुम्हें और मुझे जानता है.’

‘नहीं नीलू, तुम्हें चौथा महीना चल रहा है. तुम दोबारा पेट से हो. ऐसे में तुम्हें मैं कहीं नहीं जाने दूंगा.’

मनोहर  ने मन ही मन यह फैसला किया…

‘तुम्हारी यह नीलू कोई गलत काम कर के पैसे नहीं लाएगी. मुझे जाने दो,’ कह कर नीलू चली गई थी.

मनोहर चुपचाप लेटा रहा. उस ने मन ही मन यह फैसला कर लिया था कि बीमारी ठीक होते ही वह नीलू व बेटे कमल के साथ यहां से चला जाएगा. उसे नींद आने लगी थी.

रात के 3 बज रहे थे. दरवाजे पर खटखटाहट हुई तो उस ने उठ कर दरवाजा खोल दिया. सामने खड़े विजय को देख कर मनोहर बुरी तरह चौंका.

विजय एकदम बोल उठा, ‘मनोहर, जल्दी अस्पताल चलना है. भाभी बहुत सीरियस हैं.’

मनोहर ने घबराई आवाज में पूछा, ‘क्या हुआ नीलू को?’

‘प्रकाश स्टूडियो में ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही थी. नीलू भाभी ने तुम्हारी बीमारी की बता कर डायरैक्टर प्रशांत राय से काम मांगा. डायरैक्टर ने डुप्लीकेट का काम दे दिया. हीरोइन को सीढि़यों से लुढ़क कर नीचे फर्श पर गिरना था.

‘यही सीन नीलू भाभी पर फिल्माया गया. वे फर्श पर गिरीं तो फिर उठ न सकीं. बेहोश हो गईं. शायद वे पेट से थीं,’ विजय ने बताया था.

यह सुन कर मनोहर सन्न रह गया था. विजय ने एक टैक्सी की और उसे व कमल को साथ ले कर चल दिया.

विजय ने रास्ते में बताया था, ‘जब नीलू भाभी बेहोश हो गईं तो डायरैक्टर प्रशांत राय ने कहा था कि आजकल किसी के साथ हमदर्दी करना भी ठीक नहीं. इस ने हम को बताया नहीं था अपनी प्रैगनैंसी के बारे में. यह सीरियस है. इसे अभी अस्पताल ले जाओ और इस के घर पर खबर कर दो,’ कहते हुए डायरैक्टर ने मुझे कुछ रुपए भी दिए थे.

मनोहर के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था.

अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि नीलू आपरेशन थिएटर में है. कुछ देर बाद लेडी डाक्टर ने बाहर आ कर कहा था, ‘सौरी, ज्यादा खून बह जाने के चलते नीलू को नहीं बचाया जा सका. उसे इस हालत में यह काम नहीं करना चाहिए था.’

मनोहर चुपचाप सुनता रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था.

नीलू ने तो उस से यह डुप्लीकेट का काम न करने का वादा ले लिया था, पर यही काम नीलू को हमेशा के लिए उस से बहुत दूर ले गया था.

फिर उस की जिंदगी में आई निशा. वह निशा को भी कई सालों से जानता था. निशा नीलू की सहेली थी. निशा पड़ोस में ही रहती थी. उसे भी नीलू के इस तरह मरने का बहुत दुख था.

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नादानियां- भाग 1: उम्र की इक दहलीज

प्रथमा की शादी को 3 साल हो गए हैं. कितने अरमानों से उस ने रितेश की जीवनसंगिनी बन कर इस घर में पहला कदम रखा था. रितेश से जब उस की शादी की बात चल रही थी तो वह उस की फोटो पर ही रीझ गई थी. मांपिताजी भी संतुष्ट थे क्योंकि रितेश 2 बहनों का इकलौता भाई था और दोनों बहनें शादी के बाद अपनेअपने घरपरिवार में रचीबसी थीं. सासससुर भी पढ़ेलिखे व सुलझे विचारों के थे.

शादी से पहले जब रितेश उसे फोन करता था तो उन की बातों में उस की मां यानी प्रथमा की होने वाली सास एक अहम हिस्सा होती थी. प्रथमा प्रेमभरी बातें और होने वाले पति के मुंह से खुद की तारीफ सुनने के लिए तरसती रह जाती थी और रितेश था कि बस, मां के ही गुणगान करता रहता. उसी बातचीत के आधार पर प्रथमा ने अनुमान लगा लिया था कि रितेश के जीवन में उस की मां का पहला स्थान है और उसे पति के दिल में जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

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शादी के बाद हनीमून की योजना बनाते समय रितेश बारबार हरिद्वार, ऋ षिकेश, मसूरी जाने का प्लान ही बनाता रहा. आखिरी समय तक वह अपनी मम्मीपापा से साथ चलने की जिद करता रहा. प्रथमा इस नई और अनोखी जिद पर हैरान थी क्योंकि उस ने तो यही पढ़ा व सुना था कि हनीमून पर पतिपत्नी इसलिए जाते हैं ताकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त एकदूसरे के साथ बिता सकें और उन की आपसी समझ मजबूत हो. मगर यहां तो उलटी गंगा बह रही है. मां के साथ तीर्थ पर ही जाना था तो इसे हनीमून का नाम देने की क्या जरूरत है. खैर, ससुरजी ने समझदारी दिखाई और उन्हें हनीमून पर अकेले ही भेजा.

स्मार्ट और हैंडसम रितेश का फ्रैंडसर्किल बहुत बड़ा है. शाम को औफिस से घर आते ही जहां प्रथमा की इच्छा होती कि वह पति के साथ बैठ कर आने वाले कल के सपने बुने, उस के साथ घूमनेफिरने जाए, वहीं रितेश अपनी मां के साथ बैठ कर गप मारता और फिर वहां से दोस्तों के पास चला जाता. प्रथमा से जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं था. रात लगभग 9 बजे लौटने के बाद खाना खा कर वह सो जाता. हां, हर रात वह सोने से पहले प्रथमा को प्यार जरूर करता था. प्रथमा का कोमल हृदय इस बात से आहत हो उठता, उसे लगता जैसे पति ने उसे सिर्फ अपने बिस्तर में ही जगह दी है, दिल में नहीं. वह केवल उस की आवश्यकतापूर्ति का साधन मात्र है. ऐसा नहीं है कि उस की सास पुरानी फिल्मों वाली ललिता पंवार की भूमिका में है या फिर वह रितेश को उस के पास आने से रोकती है, बल्कि वह तो स्वयं कई बार रितेश से उसे फिल्म, मेले या फिर होटल जाने के लिए कहती. रितेश उसे ले कर भी जाता है मगर उन के साथ उस की मां यानी प्रथमा की सास जरूर होती है. प्रथमा मन मसोस कर रह जाती, मगर सास को मना भी कैसे करे. जब पति खुद चाहता है कि मां उन के साथ रहे तो फिर वह कौन होती है उन्हें टोकने वाली.

कई बार तो उसे लगता कि पति के दिल में उस का एकछत्र राज कभी नहीं हो सकता. वह उस के दिल की रानी सास के रहते तो नहीं बन सकती. उस की टीस तब और भी बढ़ जाती है जब उस की बहन अपने पति के प्यार व दीवानगी के किस्से बढ़ाचढ़ा कर उसे बताती कि कैसे उस के पति अपनी मां को चकमा दे कर और बहाने बना कर उसे फिल्म दिखाने ले जाते हैं, कैसे वे दोनों चांदनी रातों में सड़कों पर आवारगी करते घूमते हैं और चाटपकौड़ी, आइसक्रीम का मजा लेते हैं. प्रथमा सिर्फ आह भर कर रह जाती. हां, उस के ससुर उस के दर्द को समझने लगे थे और कभी बेकार में चाय बनवा कर, पास बैठा कर इधरउधर की बातें करते तो कभी टीवी पर आ रही फिल्म को देखने के लिए उस से अनुरोध करते.

दिन गुजरते रहे, वह सब्र करती रही. लेकिन जब बात सिर से गुजरने लगी तो उस ने एक नया फैसला कर लिया अपनी जीवनशैली को बदलने का. प्रथमा को मालूम था कि राकेश मेहरा यानी उस के ससुरजी को चाय के साथ प्याज के पकौड़े बहुत पसंद हैं, हर रोज वह शाम की चाय के साथ रितेश की पसंद के दूसरे स्नैक्स बनाती रही है और कभीकभी रितेश के कहने पर सासूमां की पसंद के भी. मगर आज उस ने प्याज के पकौड़े बनाए. पकौड़े देखते ही राकेश के चेहरे पर लुभावनी सी मुसकान तैर गई.

प्रथमा ने आज पहली बार गौर से अपने ससुरजी को देखा. राकेश की उम्र लगभग 55 वर्ष थी, मगर दिखने में बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व है उन का. रितेश अपने पापा पर ही गया है, यह सोच कर प्रथमा के दिल में गुदगुदी सी हो गई.

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राकेश ने जीभर कर पकौड़ों की तारीफ की और प्रथमा से बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मोगाम्बो खुश हुआ. अपनी एक इच्छा बताओ, बच्ची. कहो, क्या चाहती हो?’’ प्रथमा खिल उठी. फिलहाल तो उस ने कुछ नहीं मांगा मगर आगे की रणनीति मन ही मन तय कर ली. 2 दिनों बाद उस ने राकेश से कहा, ‘‘आज यह बच्ची आप से आप का दिया हुआ वादा पूरा करने की गुजारिश करती है. क्या आप मुझे कार चलाना सिखाएंगे?’’

‘‘क्यों नहीं, अवश्य सिखाएंगे बालिके,’’ राकेश ने कहा. जब वे बहुत खुश होते हैं तो इसी तरह नाटकीय अंदाज में बात करते हैं. अब हर शाम औफिस से आ कर चायनाश्ता करने के बाद राकेश प्रथमा को कार चलाना सिखाने लगा. जब राकेश उसे क्लच, गियर, रेस और ब्रेक के बारे में जानकारी देता तो प्रथमा बड़े मनोयोग से सुनती. कभीकभी घुमावदार रास्तों पर कार को टर्न लेते समय स्टीयरिंग पर दोनों के हाथ आपस में टकरा जाते. राकेश ने इसे सामान्य प्रक्रिया समझते हुए कभी इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया मगर प्रथमा के गाल लाल हो उठते थे.

Family Story- नादानियां: उम्र की इक दहलीज

हकीकत- भाग 1: क्या रश्मि की मां ने शादी की मंजूरी दी?

राइटर- सोनाली करमरकर

मौसम बड़ा खुशनुमा और प्यारा था. रिमझिम बारिश की फुहार, मन को रिझाने वाली ठंडी हवा… आज यों लग रहा था, जैसे मन की सारी मुरादें पूरी होने वाली हों. गोविंद और रश्मि के प्यार को गोविंद की मां ने कुबूल कर लिया था.

गोविंद एक फाइनैंस कंपनी में मैनेजर था और रश्मि उस की जूनियर. साथ काम करतेकरते जाने कब दोनों के दिल के तार जुड़ गए और दोस्ती चाहत में बदल गई, पता ही नहीं चला.

गोविंद के बाबूजी उस के बचपन में ही गुजर गए थे. मां ने ही उसे आंखों में सपने लिए बड़ी मशक्कत से पाला था. उस ने अपनी मां को चिट्ठी लिख कर रश्मि के बारे में सब बता दिया था और उस की तसवीर भी भेजी थी. मां का जवाब उस के पक्ष में आया था. अगले हफ्ते मां खुद आने वाली थीं, अपनी होने वाली बहू से मिलने.

औफिस आने के बाद गोविंद ने जल्दी से रश्मि को अपने केबिन में बुलाया.

“क्या हुआ गोविंद?” रश्मि ने आते ही पूछा.

“रश्मि, तुम्हें तो पता ही था कि मैं ने मां को तुम्हारे बारे में बताया है. कल घर जाने के बाद मुझे उन का खत मिला,” गोविंद ने उदास हो कर कहा.

“क्या लिखा था उस खत में और तुम इतने उदास क्यों हो?” रश्मि ने घबराते हुए पूछा.

“बात ही ऐसी है रश्मि… मां ने हमेशा के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बांधने का फैसला सुनाया है,” गोविंद ने गंभीरता से अपनी बात पूरी की.

गोविंद ने यह बात इतनी ज्यादा गंभीरता से कही थी कि पहले तो रश्मि समझ न सकी, पर जब समझी तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.

“रश्मि, अब तो मां ने भी हां कह दिया है, तो तुम्हें भी अपने घर वालों से बात कर लेनी चाहिए. मैं वापस आने के बाद उन से मिलता हूं. अब तुम जाओ.

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“जानती हो न आज रात मुझे टूर के लिए निकलना है. उस के पहले अपने काम जल्दी से निबटाने हैं,” गोविंद ने वहां से तकरीबन भगाते हुए उस से कहा.

रश्मि भी गोविंद को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने साथ गई. आते समय वह रास्तेभर सोचती रही कि शायद गोविंद ही उस के लिए बना है वरना 3 बार पक्की हुई उस की शादी टूटती नहीं. लेकिन इस बार उसे किसी तरह की अनहोनी का डर नहीं था. उस का प्यार… उस का गोविंद जो उस के साथ था.

पापा और मम्मी से किस तरह बात करे? इस बारे में रश्मि सोचती रही. उस की छोटी बहन की शादी हो चुकी थी. छोटे भाई ने भी अपनी पत्नी के साथ दूसरी जगह बसेरा बसा लिया था. अब अगर उस की शादी भी हो गई तो मम्मीपापा अकेले रहेंगे या भाई के पास रहेंगे, वह समझ नहीं पा रही थी. उसे कुछ पुराने दिन याद आ गए.

उन दिनों रश्मि घर में अकेली कमाने वाली थी. उसे जब कालेज की डिगरी मिली थी, उसी साल पापा की कंपनी बंद हो गई थी. वे सालों से उसी कंपनी में काम कर रहे थे. वे यह सदमा सह नहीं सके. वे दिनभर कमरे की छत को ताकते घर में पड़े रहते.

उस समय रश्मि के दोनों भाईबहन छोटे थे. रश्मि ने आगे बढ़ कर घर की जिम्मेदारी ली. उस ने एक नौकरी पकड़ ली. धीरेधीरे सब ‍ठीक हो गया.

शादी की तारीख भी तय हो गई, पर अचानक एक दिन लड़के वालों ने शादी तोड़ने का संदेशा भेज दिया.

“आखिर बात क्या है? आप उन के पास जा कर मिल आइए न,” मां ने बेचैन हो कर पापा से कहा.

“रिश्ता तोड़ते समय ही उन्होंने मिलने से मना कर दिया था. खैर, जाने दो. हमारी बेटी को इस से भी अच्छा लड़का मिलेगा,” पापा उन दोनों को समझाते रहे.

इस के बाद 2 बार रश्मि का रिश्ता जुड़ा और ‍फिर टूट गया. मन का बोझ बढ़ गया था. उस की जिंदगी जैसे एक ही ढर्रे पर चल रही थी, जिस में कोई रोमांचक मोड़ नहीं था.

सालभर तक तो यही सब चलता रहा और तभी अचानक कंपनी ने रश्मि का उसी शहर की दूसरी ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया. रश्मि भी एक ही जगह काम करकर के ऊब गई थी, सो वह भी खुशीखुशी दूसरी ब्रांच में चली गई.

नई ब्रांच में आना जैसे रश्मि के लिए फायदेमंद साबित हुआ. यहां की आबोहवा उसे अच्छे से रास आई. कंपनी का औफिस घर से दूर था, लेकिन बस सेवा उपलब्ध थी, इसलिए रश्मि को कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन अचानक रश्मि की गोविंद से मुलाकात हो गई जो वहां मैनेजर था. पहले उन दोनों की दोस्ती हुई और फिर दोस्ती चाहत में बदल गई. यह भी इत्तिफाक ही था कि अभी तक गोविंद की शादी भी नहीं हुई थी.

रश्मि अपने ही खयालों में खोई थी कि अचानक ड्राइवर ने बस को जोर से ब्रेक लगाया और वह हकीकत में लौट आई. बस में बैठेबैठे उस के खयालों में पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. आज कितने दिनों के बाद उस का मूड अच्छा था. जिंदगी को ले कर मन में फिर से उम्मीद जागी थी.

रश्मि घर पहुंची तो मम्मी चाय बना रही थीं और पापा टैलीविजन देख रहे थे. रश्मि कपड़े बदल कर आई और मम्मी का हाथ बंटाने लगी. चाह कर भी वह मम्मी से शादी की बात नहीं कर पाई. इसी ऊहापोह में अगला दिन ‍भी निकल गया. गोविंद के आने से पहले उसे घर में बात करना जरूरी था.

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रश्मि जब शाम को औफिस से घर पहुंची, तो पापा तैयार बैठे थे और मां अच्छी सी साड़ी पहने आईने के सामने सिंगार कर रही थीं.

“सुनो, अब बेटी के ‍लिए चाय बनाने मत बैठ जाना. देर हो रही है. जल्दी करो भई,” पापा ने मम्मी को आवाज लगाई.

“सुनो बेटा, मैं और तुम्हारे पापा फिल्म देखने जा रहे हैं. तुम चाय बना कर पी लेना. और हां, रात के लिए रोटी भी सेंक लेना. हम साढ़े 9 बजे तक वापस आ जाएंगे,” कहते हुए मम्मी ने चप्पल पहनीं और बाहर निकल गईं.

रश्मि को लगा कि जब हर कोई अपनी पसंद का खयाल रख रहा है, तो उसे झिझक क्यों? अगली सुबह बड़ी हिम्मत कर के वह मम्मी के सामने खड़ी हो गई और बोली, “मम्मी, मुझे आप से कुछ कहना है. शायद आप को अटपटा लगे सुनने में… पर मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है…”

यह सुन कर मम्मी इस कदर चौंकी कि उन के हाथ का कलछा नीचे गिर गया.

“मम्मी, गोविंद मेरे मैनेजर हैं और उन्होंने मेरे बारे में अपनी मां से बात कर ली है. अगले हफ्ते उन की मां हमारे घर आ रही हैं… आप से मेरा हाथ मांगने,” रश्मि ने छूटते ही सारी बात एक ही सांस में कह डाली. ‍

परख- भाग 1: प्यार व जनून के बीच थी मुग्धा

मुग्धा कैंटीन में कोल्डड्रिंक और सैंडविच लेने के लिए लाइन में खड़ी थी कि अचानक कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर यह चौंक कर पलटी तो पीछे प्रसाद खड़ा मुसकरा रहा था.

‘‘तुम?’’ मुग्धा के मुख से अनायास ही निकला.

‘‘हां मैं, तुम्हारा प्रसाद. पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ प्रसाद ने मुसकराते हुए प्रश्न किया.

‘‘जोर से भूख लगी थी, सोचा एक सैंडविच ले कर कैब में बैठ कर खाऊंगी,’’ मुग्धा हिचकिचाते हुए बोली.

‘‘चलो, मेरे साथ, कहीं बैठ कर चैन से कुछ खाएंगे,’’ प्रसाद ने बड़े अपनेपन से उस का हाथ पकड़ कर खींचा.

‘‘नहीं, मेरी कैब चली जाएगी. फिर कभी,’’ मुग्धा ने पीछा छुड़ाना चाहा.

‘‘कैब चली भी गई तो क्या? मैं छोड़ दूंगा तुम्हें,’’ प्रसाद हंसा.

‘‘नहीं, आज नहीं. मैं जरा जल्दी में हूं. मां के साथ जरूरी काम से जाना है,’’ मुग्धा अपनी बारी आने पर सैंडविच और कोल्डड्रिंक लेते हुए बोली. उसे अचानक ही कुछ याद आ गया था.

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‘‘क्या समझूं मैं? अभी तक नाराज हो?’’ प्रसाद ने उलाहना दिया.

‘‘नाराज? इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हें देख कर कैसा लग रहा है, कह नहीं सकती मैं. वैसे हमारी भावनाएं भी सदा एकजैसी कहां रहती हैं. वे भी तो परिवर्तित होती रहती हैं. ठीक है, फिर मिलेंगे. पर इतने समय बाद तुम से मिल कर अच्छा लगा,’’ मुग्धा पार्किंग में खड़ी कैब की तरफ भागी.

कैब में वह आंखें मूंदे स्तब्ध बैठी रही. समझ में नहीं आया कि यह सच था या सपना. 3 वर्ष बाद प्रसाद कहां से अचानक प्रकट हो गया और ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं. हर एक घटना उस की आंखों के सामने जीवंत हो उठी थी. कितना जीजान से उस ने प्रसाद को चाहा था. उस का पूरा जीवन प्रसादमय हो गया था. उस के जीवन पर मानो प्रसाद का ही अधिकार हो गया था. कोई भी काम करने से पहले उस की अनुमति जरूरी थी. घरबाहर सभी मानते थे कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने थे.

उस ने भी प्रसाद के साथ अपने भावी जीवन की मोहक छवि बना रखी थी. पर एक दिन अचानक उस के सपनों का महल भरभरा कर गिर गया था. उस के कालेज के दिनों का मित्र शुभम उसे एक पार्टी में मिल गया था. दोनों पुरानी बातों को याद कर के आनंदविभोर हुए जा रहे थे. तभी प्रसाद वहां आ पहुंचा था. उस की भावभंगिमा से उस की अप्रसन्नता साफ झलक रही थी. उस की नाराजगी देख कर शुभम भी परेशान हो गया था.

‘‘प्रसाद, यह शुभम है, कालेज में हम दोनों साथ पढ़ते थे,’’ हड़बड़ाहट में उस के मुंह से निकला था.

‘‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था. बड़ी पुरानी घनिष्ठता लगती है,’’ प्रसाद व्यंग्य से बोला था. बात बढ़ते देख कर शुभम ने विदा ली थी पर प्रसाद का क्रोध शांत नहीं हुआ था. ‘‘तुम्हें शुभम से इस तरह पेश नहीं आना चाहिए था. वह न जाने क्या सोचता होगा,’’ मुग्धा ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की थी.

‘‘ओह, उस की बड़ी चिंता है तुम्हें. पर तुम्हारा मंगेतर क्या सोचेगा, इस की चिंता न के बराबर है तुम्हें?’’

‘‘माफ करना अभी मंगनी हुई नहीं है हमारी. और यह भी मत भूलो कि भविष्य में होने वाली हमारी मंगनी टूट भी सकती है.’’

‘‘मंगनी तोड़ने की धमकी देती हो? तुम क्या तोड़ोगी मंगनी, मैं ही तोड़ देता हूं,’’ प्रसाद ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया था.

क्रोध और अपमान से मुग्धा की आंखें छलछला आई थीं. ‘‘मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से दे सकती हूं, पर मैं व्यर्थ ही कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती.’’ मुग्धा पार्टी छोड़ कर चली गई थी.

कुछ दिनों तक दोनों में तनातनी चली थी.दोनों एकदूसरे को देखते ही मुंह फेर लेते. मुग्धा प्रतीक्षा करती रही कि कभी तो प्रसाद उस से क्षमा मांग कर उसे मना लेगा

पर वह दिन कभी नहीं आया. फिर अचानक ही प्रसाद गायब हो गया. मुग्धा ने उसे ढूंढ़ने में दिनरात एक कर दिए पर कुछ पता नहीं चला. दोनों के सांझा मित्र उसे दिलासा देते कि स्वयं ही लौट आएगा. पर मुग्धा को भला कहां चैन था.

धीरेधीरे मुग्धा सब समझ गई थी. प्रसाद केवल प्यार का दिखावा करता था. सच तो यह था कि प्रसाद के लिए अपने अहं के आगे किसी की भावना का कोई महत्त्व था ही नहीं. पर धीरेधीरे परतें खुलने लगी थीं. वह अपनी नौकरी छोड़ गया था. सुना है अपने किसी मित्र के साथ मिल कर उस ने कंपनी बना ली थी. लंबे समय तक वह विक्षिप्त सी रही थी. उसे न खानेपीने का होश था न ही पहननेओढ़ने का. यंत्रवत वह औफिस जाती और लौट कर अपनी ही दुनिया में खो जाती. उस के परिवार ने संभाल लिया था उसे.

‘कब तक उस का नाम ले कर रोती रहेगी बेटे? जीवन के संघर्ष के लिए स्वयं को तैयार कर. यहां कोई किसी का नहीं होता. सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं,’ उस की मां चंदा गहरी सांस ले कर बोली थीं.

‘मैं तो कहता हूं कि अच्छा ही हुआ जो वह स्वयं ही भाग गया वरना तेरा जीवन दुखमय बना देता,’ पापा अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले थे.

‘जी पापा.’ वह केवल स्वीकृति में सिर हिलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं बोल पाई थी.

‘तो ठीक है. तुम ने अपने मन की कर के देख ली. एक बार हमारी बात मान कर तो देख लो. तुम्हारे सपनों का राजकुमार ला कर सामने खड़ा कर देंगे.’

‘उस की आवश्यकता नहीं है, पापा. मुझे शादी की कोई जल्दी भी नहीं है. कोई अपनी पसंद का मिल गया तो ठीक है वरना मैं जैसी हूं, ठीक हूं.’

‘सुना तुम ने? यह है इस का इरादा. अरे, समझाओ इसे. हम सदा नहीं बैठे रहेंगे,’ उस की मां चंदा बदहवास सी बोलीं.

‘मां, इतना परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे घर आते ही आप दोनों एक ही राग ले कर बैठ जाते हो. मैं तो सोचती हूं, कहीं और जा कर रहने लगूं.’

‘बस, यही कमी रह गई है. रिश्तेदारी में सब मजाक उड़ाते हैं पर तुम इस की चिंता क्यों करने लगीं,’ मां रो पड़ी थीं.

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‘मां, क्यों बात का बतंगड़ बनाती हो. जीवन में समस्याएं आती रहती हैं. समय आने पर उन का हल भी निकल आता है,’ मुग्धा ने धीरज बंधाया.

पता नहीं हमारी समस्या का हल कब निकलेगा. मुझे तो लगता है तुम्हें उच्चशिक्षा दिला कर ही हम ने गलती की है. तुम्हारी बड़ी बहनों रिंकी और विभा के विवाह इतनी सरलता से हो गए पर तुम्हारे लिए हमें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. विभा कल ही आई थी, तुम औफिस में थीं, इसलिए मुझ से ही बात कर के चली गई. उस का देवर परख इंगलैंड से लौट आया है. अर्थशास्त्र में पीएचडी कर के किसी बैंक में बड़ा अफसर बन गया है. तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रहा था. तुम कहो तो बात चलाएं.’

अटूट बंधन- भाग 1: प्रकाश ने कैसी लड़की का हाथ थामा

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. आधे घंटे से लगातार हो रही थी. 1 घंटा पहले जब वे दोनों रैस्टोरैंट में आए थे, तब तो मौसम बिलकुल साफ था. फिर यह अचानक बिन मौसम की बरसात कैसी? खैर, यह इस शहर के लिए कोई नई बात तो नहीं थी परंतु फिर भी आज की बारिश में कुछ ऐसी बात थी, जो उन दोनों के बोझिल मन को भिगो रही थी. दोनों के हलक तक कुछ शब्द आते, लेकिन होंठों तक आने का साहस न जुटा पा रहे थे.

घंटे भर से एकाध आवश्यक संवाद के अलावा और कोई बात संभव नहीं हो पाई थी. कौफी पहले ही खत्म हो चुकी थी. वेटर प्याले और दूसरे बरतन ले जा चुका था. परंतु उन्होंने अभी तक बिल नहीं मंगवाया था. मौन इतना गहरा था कि दोनों सहमे हुए स्कूली बच्चों की तरह उसे तोड़ने से डर रहे थे. प्रकाश त्रिशा के बुझे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता पर अगले ही पल सहम कर अपनी पलकें झुका लेता. कितनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें थीं त्रिशा की. त्रिशा कुछ कहे न कहे, उस की आंखें सब कह देती थीं.

इतनी उदासी आज से पहले प्रकाश ने इन आंखों में कभी नहीं देखी थी. ‘क्या सचमुच मैं ने इतनी बड़ी गलती कर दी, पर इस में आखिर गलत क्या है?’ प्रकाश का मन इस उधेड़बुन में लगा हुआ था. ‘होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है…’ दोनों की पसंदीदा यह गजल धीमी आवाज में चल रही थी. कोई दिन होता तो दोनों इस के साथसाथ गुनगुनाना शुरू कर देते पर आज…

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आखिरकार त्रिशा ने ही बात शुरू करनी चाही. उस के होंठ कुछ फड़फड़ाए, ‘‘तुम…’’ ‘‘तुम कुछ पूछना चाहती हो?’’ प्रकाश ने पूछ ही लिया.

‘‘हां, कल तुम्हारा टैक्स्ट मैसेज पढ़ कर मैं बहुत हैरान हुई.’’ ‘‘जानता हूं पर इस में हैरानी की क्या बात है?’’

‘‘पर सबकुछ जानते हुए भी तुम यह सब कैसे सोच सकते हो, प्रकाश?’’ इस बार त्रिशा की आवाज पहले से ज्यादा ऊंची थी. प्रकाश बिना कुछ जवाब दिए फर्श की तरफ देखने लगा.

‘‘देखो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. क्या है यह सब?’’ त्रिशा ने उखड़ी हुई आवाज से पूछा. ‘‘जो मैं महसूस करने लगा हूं और जो मेरे दिल में है, उसे मैं ने जाहिर कर दिया और कुछ नहीं. अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मुझे माफ कर दो, लेकिन मैं ने जो कहा है उस पर गौर करो.’’ प्रकाश रुकरुक कर बोल रहा था, लेकिन वह यह भी जानता था कि त्रिशा अपने फैसले पर अटल रहने वाली लड़की है.

पिछले 3 वर्षों से जानता है उसे वह, फिर भी न जाने कैसे साहस कर बैठा. पर शायद प्रकाश उस का मन बदल पाए. त्रिशा अचानक खड़ी हो गई. ‘‘हमें चलना चाहिए. तुम बिल मंगवा लो.’’

बिल अदा कर के प्रकाश ने त्रिशा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर चले आए. बारिश धीमी हो चुकी थी. बूंदाबांदी भर हो रही थी. प्रकाश बड़ी सावधानी से त्रिशा को कीचड़ से बचाते हुए गाड़ी तक ले आया.

त्रिशा और प्रकाश पिछले 3 वर्ष से बेंगलरु की एक प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में कार्य करते थे. त्रिशा की आंखों की रोशनी बचपन से ही जाती रही थी. अब वह बिलकुल नहीं देख सकती थी. यही वजह थी कि उसे पढ़नेलिखने व नौकरी हासिल करने में हमेशा बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. पर यहां प्रकाश और दूसरे कई सहकर्मियों व दोस्तों को पा कर वह खुद को पूरा महसूस करने लगी थी.

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वह तो भूल ही गई थी कि उस में कोई कमी है. वैसे भी उस को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता था कि वह देख नहीं सकती. उस का व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. वह बेहद हंसमुख और मिलनसार लड़की थी. वह मूलतया दिल्ली की रहने वाली थी. बेंगलुरु में वह एक वर्किंग वुमेन होस्टल में रह रही थी. प्रकाश अपने 2 दोस्तों के साथ शेयरिंग वाले किराए के फ्लैट में रहता था. प्रकाश का फ्लैट त्रिशा के होस्टल से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही था.

रोजाना त्रिशा जब होस्टल लौटती तो प्रकाश कुछ न कुछ ऐसी हंसीमजाक की बात कर देता, जिस कारण त्रिशा होस्टल आ कर भी उस बात को याद करकर के देर तक हंसती रहती. परंतु आज जब प्रकाश उसे होस्टल छोड़ने आया तो दोनों में से किसी ने भी कोई बात नहीं की. होस्टल आते ही त्रिशा चुपचाप उतर गई. उस का सिर दर्द से फटा जा रहा था. तबीयत कुछ ठीक नहीं मालूम होती थी.

डिनर के वक्त उस की सहेलियों ने महसूस किया कि आज वह कुछ अनमनी सी है. सो, डिनर के बाद उस की रूममेट और सब से अच्छी सहेली शालिनी ने पूछा, ‘‘क्या बात है त्रिशा, आज तुम्हें आने में देरी क्यों हो गई? सब ठीक तो है न.’’ ‘‘हां, बिलकुल ठीक है. बस, आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था,’’ त्रिशा ने जवाब तो दिया पर आज उस के बात करने में रोज जैसी आत्मीयता नहीं थी.

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 2

इस घटना के कुछ दिनों बाद शाम को मैं औफिस से घर लौटा तो वकील साहिबा मेरे घर पर मौजूद थीं और बेटियों से खूब घुममिल कर बातचीत कर रही थीं. मेरे पहुंचने पर बेटी ने चाय बनाई तो पहले तो उन्होंने थोड़ी देर पहले ही चाय पी है का हवाला दिया, मगर मेरे साथ चाय पीने की अपील को सम्मान देते हुए चाय पीतेपीते उन्होंने बेटियों से बड़ी मोहब्बत से बात करते हुए कहा, ‘देखो बेटी, मैं और तुम्हारी मम्मी एक ही शहर से हैं और एक ही कालेज में सहपाठी रही हैं, इसलिए तुम मुझे आंटी नहीं, मौसी कह कर बुलाओगी तो मुझे अच्छा लगेगा.

‘‘अब जब भी मुझे टाइम मिलेगा, मैं तुम लोगों से मिलने आया करूंगी. तुम लोगों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’ कह कर उन्होंने प्यार से बेटियों की ओर देखा, तो दोनों एकसाथ बोल पड़ीं, ‘अरे मौसी, आप के आने से हमें परेशानी क्यों होगी, हमें तो अच्छा लगेगा, आप आया करिए. आप ने तो देख ही लिया, मम्मी तो अभी बातचीत करना तो दूर, ठीक से बोलने की हालत में भी नहीं हैं. वैसे भी वे दवाइयों के असर में आधी बेहोश सी सोई ही रहती हैं. हम तो घर में रहते हुए किसी अपने से बात करने को तरसते ही रहते हैं और हो सकता है कि आप के आतेजाते रहने से फिल्मों की तरह आप को देख कर मम्मी को अपना कालेज जीवन ही याद आ जाए और वे डिप्रैशन से उबर सकें.’

‘‘मनोचिकित्सक भी ऐसी किसी संभावना से इनकार तो नहीं करते हैं. अपनी बेटियों के साथ उन का संवाद सुन कर मुझे उन के एकदम घर आ जाने से उपजी आशंकापूर्ण उत्सुकता एक सुखद उम्मीद में परिणित हो गई और मुझे काफी अच्छा लगा.

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‘‘इस के बाद 3-4 दिनों तक मेरा उन से मिलना नहीं हो पाया. उस दिन शाम को औफिस से घर के लिए निकल ही रहा था कि उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को अपने औफिस में आने को कहा तो थोड़ा अजीब तो लगा मगर उन के बुलावे की अनदेखी भी नहीं कर सका.

‘‘उन के औफिस में वे आज भी बेहद सलीके से सजी हुई और किसी का इंतजार करती हुई जैसी ही मिलीं. तो मैं ने पूछ ही लिया कि वे कहीं जा रही हैं या कोई खास मेहमान आने वाला है?

‘‘मेरा सवाल सुन कर वे बोलीं, ‘आप बारबार यही अंदाजा क्यों लगाते हैं.’ यह कह कर थोड़ी देर मुझे एकटक देखती रहीं, फिर एकदम बुझे स्वर में बोलीं, ‘मेरे पास अब कोई नहीं आने वाला है. वैसे आएगा भी कौन? जो आया था, जिस ने इस मन के द्वार पर दस्तक दी थी, मैं ने तो उस की दस्तक को अनसुना ही नहीं किया था, पता नहीं किस जनून में उस के लिए मन का दरवाजा ही बंद कर दिया था. उस के बाद किसी ने मन के द्वार पर दस्तक दी ही नहीं.

‘‘आज याद करती हूं तो लगता है कि वह पल तो जीवन में वसंत जैसा मादक और उसी की खुशबू से महकता जैसा था. मगर मैं न तो उस वसंत को महसूस कर पाई थी, न उस महकते पल की खुशबू का आनंद ही महसूस कर सकी थी,’ यह कह कर वे खामोश हो गईं.

‘‘थोड़ी देर यों ही मौन पसरा रहा हमारे बीच. फिर मैं ने ही मौन भंग किया, ‘मगर आप के परिवारजन, मेरा मतलब भाई वगैरह, तो आतेजाते होंगे.’ मेरी बात सुन कर थोड़ी देर वे खामोश रहीं, फिर बोलीं, ‘मातापिता तो रहे नहीं. भाइयों के अपनेअपने घरपरिवार हैं. उन में उन की खुद की व्यस्तताएं हैं. उन के पास समय कहां है?’ कहते हुए वे काफी निराश और भावुक होने लगीं तो मैं ने उन की टेबल पर रखे पानी के गिलास को उन की ओर बढ़ाया और बोला, ‘आप थोड़ा पानी पी लीजिए.’

‘‘मेरी बात सुन कर भी वे खामोश सी ही बैठी रहीं तो मैं गिलास ले कर उन की ओर बढ़ा और उन की कुरसी की बगल में खड़ा हो कर उन्हें पानी पिलाने के लिए गिलास उन की ओर बढ़ाया. तो उन्होंने मुझे बेहद असहाय नजर से देखा तो सहानुभूति के साथ मैं ने अपना एक हाथ उन के कंधे पर रख कर गिलास उन के मुंह से लगाना चाहा. उन्होंने मेरे गिलास वाले हाथ को कस कर पकड़ लिया. तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, और मैं ने सौरी बोलते हुए अपना हाथ खींचने की कोशिश की.

‘‘मगर उन्होंने तो मेरे गिलास वाले हाथ पर ही अपना सिर टिका दिया और सुबकने लगीं. मैं ने गिलास को टेबल पर रख दिया, उन के कंधे को थपथपाया. पत्नी की लंबी बीमारी के चलते काफी दिनों के बाद किसी महिला के जिस्म को छूने व सहलाने का मौका मिला था, मगर उन से परिचय होने के कम ही वक्त और अपने सरकारी पद का ध्यान रखते हुए मैं शालीनता की सीमा में ही बंधा रहा.

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‘‘थोड़ी देर में उन्हें सुकून महसूस हुआ तो मैं ने कहा, ‘आई एम सौरी वकील साहिबा, मगर आप को छूने की मजबूरी हो गई थी.’ सुन कर वे बोलीं, ‘आप क्यों अफसोस जता रहे हैं, गलती मेरी थी जो मैं एकदम इस कदर भावुक हो गई.’ कह कर थोड़ी देर को चुप हो गईं, फिर बोलीं, ‘आप से एक बात कहना चाहती हूं. आप ‘मैं जवान हूं, मैं सुंदर हूं’ कह कर मेरी झूठी तारीफ कर के मुझे यों ही बांस पर मत चढ़ाया करिए.’ यह कहते हुए वे एकदम सामान्य लगने लगीं, तो मैं ने चैन की सांस ली.

‘‘उस दिन के बाद मेरा आकर्षण उन की तरफ खुद ही बढ़ने लगा. कोर्ट से लौटते समय वे अकसर मेरी बेटियों से मिलने घर आ जाती थीं. फिर घर पर साथ चाय पीते हुए किसी केस के बारे में बात करते हुए बाकी बातें फाइल देख कर सोचने के बहाने मैं लगभग रोज शाम को ही उन के घर जाने लगा.

पत्नी की मानसिक अस्वस्थता के चलते उन से शारीरिक रूप से लंबे समय से दूर रहने से उपजी खीझ से तल्ख जिंदगी में एक समवयस्क महिला के साथ कुछ पल गुजारने का अवसर मुझे खुशी का एहसास देने लगा.

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प्रेम ऋण- भाग 1: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

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अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

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मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

हकीकत- भाग 2: क्या रश्मि की मां ने शादी की मंजूरी दी?

राइटर- सोनाली करमरकर

रश्मि घर की कमाने वाली अकेली सदस्य थी, जाहिर था कि हर बात उसे पूछ कर की जाती थी. लिहाजा, वह घर के हालात और ठीक करने के लिए जीजान से जुट गई.

समय ‍बीतता गया. भाईबहन बड़े हो गए. मम्मी ने रश्मि से सलाहमशवरा कर के छोटी बेटी की शादी सीधेसादे अभय से कर दी.

पहले तो रश्मि ने कभी इस बात पर गौर नहीं किया, लेकिन अब जब उस की छोटी बहन घर आती और अपने पति और ससुराल वालों के गुण गाती, तो रश्मि को भी शादी करने की चाहत होने लगी.

एक दिन रश्मि ने शरमाते हुए मम्मी से बात छेड़ी. पापा पीछे खड़े हो कर सब सुन रहे थे.

“कैसी बात करती हो बेटी? घर में तुम अकेली कमाने वाली हो. अभी तो तुम्हारा भाई पढ़ रहा है. तुम शादी कर के चली गई, तो हमारा सहारा चला जाएगा. 1-2 साल और रुक जाओ. जब तुम्हारे भाई की नौकरी लगेगी, तो हम तुम्हारा भी ब्याह कर देंगे,” पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

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दिन यों ही बीतते रहे, मौसम बदलते रहे. रश्मि हमेशा सोचती, ‘बस और थोड़ा इंतजार… फिर मेरी जिंदगी में भी बहारें होंगी…’

मगर… बहारें तो आईं, लेकिन रश्मि की जिंदगी में नहीं, भाई की जिंदगी में.

हालात ने अजीब सी करवट ली. घर में रहने वाली पैसों की तंगी के चलते भाई अलग रहना चाहता था. जिस दिन उसे पहली तनख्वाह मिली, उस ने मम्मी के सामने एक लड़की ला कर खड़ी कर दी और बोला, “मम्मी, यह है तुम्हारी होने वाली बहू. मैं अपनी नौकरी लगने तक रुका था. मैं दीदी पर एक और बोझ नहीं डालना चाहता. हम दोनों अगले महीने कोर्ट मैरिज कर रहे हैं…”

“अरे वाह बेटा, अच्छी है तुम्हारी पसंद. मुझे बहू अच्छी लगी. लेकिन बेटा, पहले हमें रश्मि के बारे में सोचना चाहिए. उस की भी तो उम्र बढ़ रही है. पहले उस के हाथ पीले कर दें, बाद में तुम्हारी शादी…”

“एक मिनट मम्मी, हम… मेरा मतलब है कि मैं और मेरी पत्नी शादी के बाद अलग रहने वाले हैं.”

“यह क्या कह रहा है तू ?” मां ने हैरानी से पूछा.

“हां मम्मी, मैं तंग आ गया हूं बचपन से गरीबी में रह कर. अब मैं खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं. दीदी की शादी की उम्र अब वैसे भी गुजर चुकी हे. उन के लिए तुम्हें कहां रिश्ता मिलने वाला है? जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो.

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“और हां, ध्यान से सुनो… हम दोनों शादी के बाद सीधे हमारे नए घर में चले जाएंगे. हम ने अपने लिए घर देख रखा है. मुझ से किसी बात की उम्मीद मत रखना. हम अब चलते हैं. सीमा को उस के घर छोड़ कर मुझे किसी काम से जाना है,” बात खत्म कर के भाई अपनी मंगेतर सीमा के साथ वहां से चलने को हुआ.

वे दोनों कमरे से बाहर आए तो रश्मि को वहां खड़ी देख कर आंखें चुरा कर निकल गए. भाई को इस तरह से जाते देख कर रश्मि निढाल सी सोफे पर गिर पड़ी. उसे जिंदगी की सारी खुशियां हाथों से छूटती नजर आईं… अपने लोगों का इस तरह रंग बदलना उस के मन में एक सवालिया निशान छोड़ गया.

जिस दिन भाई घर से निकला उस रात कोई भी नहीं सो सका. मम्मी पापा से कह रही थीं, “कैसे करेंगे अब? बेटे ने तो पल्ला झाड़ लिया. वह हमारे बुढ़ापे का सहारा था. बेटी की शादी कैसे करेंगे अब? हमारे पास तो पूंजी भी नहीं है…”

“यहां हमारे खाने के लाले पड़े हैं और तुम्हें बेटी की शादी की पड़ी है? भूल जाओ अब उस की शादी. जिंदगी जिस रफ्तार से चल रही है उसे ऐसे ही चलने दो. उम्र गुजर गई है अब रश्मि की शादी की.

“हर बार लड़का ही सहारा हो, यह जरूरी तो नहीं. लड़की भी तो घर का सहारा बन सकती है. बेटी को पालना अगर हमारा फर्ज है, तो उस का भी फर्ज है हमारा सहारा बनने का. अब सो जाओ,” कह कर उन्होंने करवट बदली, पर सामने रश्मि को देख कर वे चौंक गए.

“अरे, मैं तो बस यों ही गुस्से में कह रहा था. आज बेटे ने साथ छोड़ा है तो जरा सा मायूस हूं, लेकिन तू फिक्र मत कर. सब ठीक हो होगा. एक दिन तुम्हें भी विदा करूंगा. मैं कुछ न कुछ सोचता हूं…” पापा ने बात संभाल तो ली, पर उन के कौन से रूप पर भरोसा करे, रश्मि समझ नहीं पाई.

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घर के खर्चे अब काफी कम हो गए थे. रश्मि की तनख्वाह बढ़ गई थी. मम्मी थोड़ेथोड़े पैसे जमा करती रहीं. पति को हो न हो, उन्हें अपने बेटी की जरूर फिक्र थी.

एक दिन लड़के वाले रश्मि को देखने आए. लड़कलड़की ने एकदूसरे को पसंद किया. बात आगे बढ़ती गई.

रुह का स्पंदन

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