अधूरे प्यार की टीस: क्यों हुई पतिपत्नी में तकरार – भाग 1

राकेशजी अपनी पत्नी सीमा को भरपूर प्यार व सम्मान देते थे और उस की जरूरतों का भी काफी खयाल रखते थे पर सीमा के मन में एक ऐसी शंका ने जन्म ले लिया जिस की वजह से उन की गृहस्थी बिखर गई.

आज सुबह राकेशजी की मुसकराहट में डा. खन्ना को नए जोश, ताजगी और खुशी के भाव नजर आए तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, ‘‘लगता है, अमेरिका से आप का बेटा और वाइफ आ गए हैं, मिस्टर राकेश?’’

‘‘वाइफ तो नहीं आ पाई पर बेटा रवि जरूर पहुंच गया है. अभी थोड़ी देर में यहां आता ही होगा,’’ राकेशजी की आवाज में प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे.

‘‘आप की वाइफ को भी आना चाहिए था. बीमारी में जैसी देखभाल लाइफपार्टनर करता है वैसी कोई दूसरा नहीं कर सकता.’’

‘‘यू आर राइट, डाक्टर, पर सीमा ने हमारे पोते की देखभाल करने के लिए अमेरिका में रुकना ज्यादा जरूरी समझा होगा.’’

‘‘कितना बड़ा हो गया है आप का पोता?’’

‘‘अभी 10 महीने का है.’’

‘‘आप की वाइफ कब से अमेरिका में हैं?’’

‘‘बहू की डिलीवरी के 2 महीने पहले वह चली गई थी.’’

‘‘यानी कि वे साल भर से आप के साथ नहीं हैं. हार्ट पेशेंट अगर अपने जीवनसाथी से यों दूर और अकेला रहेगा तो उस की तबीयत कैसे सुधरेगी? मैं आप के बेटे से इस बारे में बात करूंगा. आप की पत्नी को इस वक्त आप के पास होना चाहिए,’’ अपनी राय संजीदा लहजे में जाहिर करने के बाद डा. खन्ना ने राकेशजी का चैकअप करना शुरू कर दिया.

डाक्टर के जाने से पहले ही नीरज राकेशजी के लिए खाना ले कर आ गया.

‘‘तुम हमेशा सही समय से यहां पहुंच जाते हो, यंग मैन. आज क्या बना कर भेजा है अंजुजी ने?’’ डा. खन्ना ने प्यार से रवि की कमर थपथपा कर पूछा.

‘‘घीया की सब्जी, चपाती और सलाद भेजा है मम्मी ने,’’ नीरज ने आदरपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘गुड, इन्हें तलाभुना खाना नहीं देना है.’’

‘‘जी, डाक्टर साहब.’’

‘‘आज तुम्हारे अंकल काफी खुश दिख रहे हैं पर इन्हें ज्यादा बोलने मत देना.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब.’’

‘‘मैं चलता हूं, मिस्टर राकेश. आप की तबीयत में अच्छा सुधार हो रहा है.’’

‘‘थैंक यू, डा. खन्ना. गुड डे.’’

डाक्टर के जाने के बाद हाथ में पकड़ा टिफिनबौक्स साइड टेबल पर रखने के बाद नीरज ने राकेशजी के पैर छू कर उन का आशीर्वाद पाया. फिर वह उन की तबीयत के बारे में सवाल पूछने लगा. नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि वह राकेशजी को बहुत मानसम्मान देता था.

करीब 10 मिनट बाद राकेशजी का बेटा रवि भी वहां आ पहुंचा. नीरज को अपने पापा के पास बैठा देख कर उस की आंखों में खिं चाव के भाव पैदा हो गए.

‘‘हाय, डैड,’’ नीरज की उपेक्षा करते हुए रवि ने अपने पिता के पैर छुए और फिर उन के पास बैठ गया.

‘‘कैसे हालचाल हैं, रवि?’’ राकेशजी ने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया.

‘‘फाइन, डैड. आप की तबीयत के बारे में डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘बाईपास सर्जरी की सलाह दे रहे हैं.’’

‘‘उन की सलाह तो आप को माननी होगी, डैड. अपोलो अस्पताल में बाईपास करवा लेते हैं.’’

‘‘पर, मुझे आपरेशन के नाम से डर लगता है.’’

‘‘इस में डरने वाली क्या बात है, पापा? जो काम होना जरूरी है, उस का सामना करने में डर कैसा?’’

‘‘तुम कितने दिन रुकने का कार्यक्रम बना कर आए हो?’’ राकेशजी ने विषय परिवर्तन करते हुए पूछा.

‘‘वन वीक, डैड. इतनी छुट्टियां भी बड़ी मुश्किल से मिली हैं.’’

‘‘अगर मैं ने आपरेशन कराया तब तुम तो उस वक्त यहां नहीं रह पाओगे.’’

‘‘डैड, अंजु आंटी और नीरज के होते हुए आप को अपनी देखभाल के बारे में चिंता करने की क्या जरूरत है? मम्मी और मेरी कमी को ये दोनों पूरा कर देंगे, डैड,’’ रवि के स्वर में मौजूद कटाक्ष के भाव राकेशजी ने साफ पकड़ लिए थे.

‘‘पिछले 5 दिन से इन दोनों ने ही मेरी सेवा में रातदिन एक किया हुआ है, रवि. इन का यह एहसान मैं कभी नहीं उतार सकूंगा,’’ बेटे की आवाज के तीखेपन को नजरअंदाज कर राकेशजी एकदम से भावुक हो उठे.

‘‘आप के एहसान भी तो ये दोनों कभी नहीं उतार पाएंगे, डैड. आप ने कब इन की सहायता के लिए पैसा खर्च करने से हाथ खींचा है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, नीरज?’’

‘‘नहीं, रवि भैया. आज मैं इंजीनियर बना हूं तो इन के आशीर्वाद और इन से मिली आर्थिक सहायता से. मां के पास कहां पैसे थे मुझे पढ़ाने के लिए? सचमुच अंकल के एहसानों का कर्ज हम मांबेटे कभी नहीं उतार पाएंगे,’’ नीरज ने यह जवाब राकेशजी की आंखों में श्रद्धा से झांकते हुए दिया और यह तथ्य रवि की नजरों से छिपा नहीं रहा था.

‘‘पापा, अब तो आप शांत मन से आपरेशन के लिए ‘हां’ कह दीजिए. मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं,’’ व्यंग्य भरी मुसकान अपने होंठों पर सजाए रवि कमरे से बाहर चला गया था.

‘‘अब तुम भी जाओ, नीरज, नहीं तो तुम्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

राकेशजी की इजाजत पा कर नीरज भी जाने को उठ खड़ा हुआ था.

‘‘आप मन में किसी तरह की टेंशन न लाना, अंकल. मैं ने रवि भैया की बातों का कभी बुरा नहीं माना है,’’ राकेशजी का हाथ भावुक अंदाज में दबा कर नीरज भी बाहर चला गया.

नीरज के चले जाने के बाद राकेशजी ने थके से अंदाज में आंखें मूंद लीं. कुछ ही देर बाद अतीत की यादें उन के स्मृति पटल पर उभरने लगी थीं, लेकिन आज इतना फर्क जरूर था कि ये यादें उन को परेशान, उदास या दुखी नहीं कर रही थीं.

अपनी पत्नी सीमा के साथ राकेशजी की कभी ढंग से नहीं निभी थी. पहले महीने से ही उन दोनों के बीच झगड़े होने लगे थे. झगड़ने का नया कारण तलाशने में सीमा को कोई परेशानी नहीं होती थी.

शादी के 2 महीने बाद ही वह ससुराल से अलग होना चाहती थी. पहले साल उन के बीच झगड़े का मुख्य कारण यही रहा. रातदिन के क्लेश से तंग आ कर राकेश ने किराए का मकान ले लिया था.

अलग होने के बाद भी सीमा ने लड़ाईझगड़े बंद नहीं किए थे. फिर उस ने मकान व दुकान के हिस्से कराने की रट लगा ली थी. राकेश अपने दोनों छोटे भाइयों के सामने सीमा की यह मांग रखने का साहस कभी अपने अंदर पैदा नहीं कर सके. इस कारण पतिपत्नी के बीच आएदिन खूब क्लेश होता था.

3 बार तो सीमा ने पुलिस भी बुला ली थी. जब उस का दिल करता वह लड़झगड़ कर मायके चली जाती थी. गुस्से से पागल हो कर वह मारपीट भी करने लगती थी. उन के बीच होने वाले लड़ाईझगड़े का मजा पूरी कालोनी लेती थी. राकेश को शर्म के मारे सिर झुका कर कालोनी में चलना पड़ता था.

फिर एक ऐसी घटना घटी जिस ने सीमा को रातदिन कलह करने का मजबूत बहाना उपलब्ध करा दिया.

उन की शादी के करीब 5 साल बाद राकेश का सब से पक्का दोस्त संजय सड़क दुर्घटना का शिकार बन इस दुनिया से असमय चला गया था. अपनी पत्नी अंजु, 3 साल के बेटे नीरज की देखभाल की जिम्मेदारी दम तोड़ने से पहले संजय ने राकेश के कंधों पर डाल दी थी.

राकेशजी ने अपने दोस्त के साथ किए वादे को उम्र भर निभाने का संकल्प मन ही मन कर लिया था. लेकिन सीमा को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वे अपने दोस्त की विधवा व उस के बेटे की देखभाल के लिए समय या पैसा खर्च करें. जब राकेश ने इस मामले में उस की नहीं सुनी तो सीमा ने अंजु व अपने पति के रिश्ते को बदनाम करना शुरू कर दिया था.

इस कारण राकेश के दिल में अपनी पत्नी के लिए बहुत ज्यादा नफरत बैठ गई थी. उन्होंने इस गलती के लिए सीमा को कभी माफ नहीं किया.

सीमा अपने बेटे व बेटी की नजरों में भी उन के पिता की छवि खराब करवाने में सफल रही थी. राकेश ने इन के लिए सबकुछ किया पर अपने परिवारजनों की नजरों में उन्हें कभी अपने लिए मानसम्मान व प्यार नहीं दिखा था.

अपनी जिंदगी के अहम फैसले उन के दोनों बच्चों ने कभी उन के साथ सलाह कर के नहीं लिए थे. जवान होने के बाद वे अपने पिता को अपनी मां की खुशियां छीनने वाला खलनायक मानने लगे थे. उन की ऐसी सोच बनाने में सीमा का उन्हें राकेश के खिलाफ लगातार भड़काना महत्त्वपूर्ण कारण रहा था.

उन की बेटी रिया ने अपना जीवनसाथी भी खुद ढूंढ़ा था. हीरो की तरह हमेशा सजासंवरा रहने वाला उस की पसंद का लड़का कपिल, राकेश को कभी नहीं जंचा.

कपिल के बारे में उन का अंदाजा सही निकला था. वह एक क्रूर स्वभाव वाला अहंकारी इनसान था. रिया अपनी विवाहित जिंदगी में खुश और सुखी नहीं थी. सीमा अपनी बेटी के ससुराल वालों को लगातार बहुतकुछ देने के बावजूद अपनी बेटी की खुशियां सुनिश्चित नहीं कर सकी थी.

शादी करने के लिए रवि ने भी अपनी पसंद की लड़की चुनी थी. उस ने विदेश में बस जाने का फैसला अपनी ससुराल वालों के कहने में आ कर किया था.

राकेश को इस बात से बहुत पीड़ा होती थी कि उन के बेटाबेटी ने कभी उन की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की. वे अपनी मां के बहकावे में आ कर धीरेधीरे उन से दूर होते चले गए थे.

इन परिस्थितियों में अंजु और उस के बेटे के प्रति उन का झुकाव लगातार बढ़ता गया. उन के घर उन्हें मानसम्मान मिलता था. वहां उन्हें हमेशा यह महसूस होता कि उन दोनों को उन के सुखदुख की चिंता रहती है.

इस में कोई शक नहीं कि उन्होंने नीरज की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का लगभग पूरा खर्च उठाया था. सीमा ने इस बात के पीछे कई बार कलहक्लेश किया पर उन्होंने उस के दबाव में आ कर इस जिम्मेदारी से हाथ नहीं खींचा था. वह अंजु से उन के मिलने पर रोक नहीं लगा सकी थी क्योंकि उसे कभी कोई गलत तरह का ठोस सुबूत इन के खिलाफ नहीं मिला था.

राकेशजी को पहला दिल का दौरा 3 साल पहले और दूसरा 5 दिन पहले पड़ा था. डाक्टरों ने पहले दौरे के बाद ही बाईपास सर्जरी करा लेने की सलाह दी थी. अब दूसरे दौरे के बाद आपरेशन न कराना उन की जान के लिए खतरनाक साबित होगा, ऐसी चेतावनी उन्होंने साफ शब्दों में राकेशजी को दे दी थी.

पिछले 5 दिनों में उन के अंदर जीने का उत्साह मर सा गया था. वे खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहे थे. उन्हें बारबार लगता कि उन का सारा जीवन बेकार चला गया है.

मोबाइल फोन की घंटी बजी तो राकेशजी यादों की दुनिया से बाहर निकल आए थे. उन की पत्नी सीमा ने अमेरिका से फोन किया था.

‘‘क्या रवि ठीकठाक पहुंच गया है?’’ सीमा ने उन का हालचाल पूछने के बजाय अपने बेटे का हालचाल पूछा तो राकेशजी के होंठों पर उदास सी मुसकान उभर आई.

‘‘हां, वह बिलकुल ठीक है,’’ उन्होंने अपनी आवाज को सहज रखते हुए जवाब दिया.

‘‘डाक्टर तुम्हें कब छुट्टी देने की बात कह रहे हैं?’’

समस्या का अंत : बेचारा अंबर, करे तो क्या करे -भाग 2

2 दिन के लिए अंबर फिर घर गया, तो रूपाली का गुस्सा और भी बढ़ा हुआ पाया. भाभी से रूठते हुए बोला,  ‘‘भाभी, तुम कुछ नहीं कर रही हो. मां को समझाओ.’’

‘‘मांजी टेढ़ी खीर हैं भैया, फिरभी देखती हूं, बर्फ को थोड़ाथोड़ा कर के ही पिघलाना होगा. देखती हूं कब तक सफलता मिलती है.’’

अंबर खाली हाथ लौट आया था. इधर घर में दीदी की सासननदों की खातिरदारी का आतंक. वह आराम से अपने गेस्ट हाउस में रह सकता है पर मां की डांट, दीदी के आंसू, जीजाजी का आग्रह, जाए तो कैसे?

कभीकभी अंबर को लगता है कि वह यहां से भाग जाए. उस दिन ऐसे ही भारी मन से आफिस में बैठा काम कर रहा था कि मोबाइल बज उठा :

‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘इस समय और क्या करूंगा, काम कर रहा हूं.’’

‘‘लंच में निकल पाओगे?’’

‘‘निकल लूंगा पर जाऊंगा कहां?’’

‘‘तुम्हारे दफ्तर के सामने, रेस्तरां है, उस में आ जाओे. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’

‘‘रूपाली, तुम यहां… इंदौर में… कैसे?’’

‘‘मैं ने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया है जनाब, और पिछले 1 सप्ताह से मैं यहीं हूं.’’

‘‘और मुझे नहीं बताया.’’

‘‘बता तो दिया, बाकी बातें मिलने के बाद,’’ इतना कह कर रूपाली ने फोन रख दिया.

अंबर का समय मानो काटे नहीं कट रहा था. लंच के समय उस ने आधे दिन की छुट्टी ले ली और महक रेस्तरां पहुंच गया. रूपाली दरवाजे पर खड़ी थी. दोनों कोने की एक सीट पर जा बैठे. बैरा पानी रख गया तो रूपाली ने गिलास उठाया. पानी का घूंट गले के नीचे उतार कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल है जनाब का.’’

‘‘अभी तक तो बेहाल था पर अब तुम्हारे आने से हाल सुधर जाएगा.’’

‘‘अंबर, तुम ने मुझे क्या समझ रखा है? मैं तमाम उम्र कुंआरी रह कर तुम को इसी तरह रिझाती रहूंगी. अब मैं अपने घर वालों को ज्यादा दिन रोक नहीं पाऊंगी. तुम हमारी शादी को गंभीरता से लो और कुछ करो.’’

‘‘रूपाली, विश्वास करो मेरा, मैं जल्दी ही कुछ करूंगा.’’

‘‘मैं तुम पर पूरा विश्वास करती हूं लेकिन मुझे लगता है तुम पर विश्वास रख कर मुझे कुंआरी ही बूढ़ी होना पड़ेगा.’’

यह सुन कर अंबर का मुंह उतर गया.

‘‘छोड़ो इन बातों को, यह बताओ, बिन्नी दीदी, बच्चे व जीजाजी कैसे हैं?’’

‘‘दीदी पर तरस आता है. सासननद ने मिल कर उन के जीवन को नरक बना दिया है. जीजाजी दुखी तो होते हैं पर बोल कुछ नहीं पाते.’’

इतने में बैरा आया और चाय के साथ पकौड़ों का आर्डर ले गया.

‘‘कुछ दिनों से घर में बड़ी अजीब सी बात हो रही है. मैं परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘रूपाली, जब मैं यहां आया था तो दीदी के साथसाथ मुझे भी उस की सास के ताने मिलते थे पर अब, अचानक ही दीदी की सास मुझ पर जान छिड़कने लगी हैं.’’

‘‘समझ गई,’’ रूपाली बोली, ‘‘अरे, वह बुढि़या तुम को अपना दामाद बनाना चाहती है.’’

‘‘क्या वो भैंस…असंभव. रूपाली, मुझे तो लगता है कि मुसीबत के साथ मेरा गठबंधन हो गया है.’’

‘‘इतने परेशान क्यों हो रहे हो?’’

‘‘और क्या करूं. कितनी बार तुम को समझाया कि चलो, कोर्ट मैरिज कर लें पर तुम भी सब की आज्ञा, आशीर्वाद ले पारंपरिक विवाह कीजिद पर अड़ी हो. अभी भी मान जाओ तो मैं कल ही अर्जी लगा दूं.’’

‘‘नहीं, कागज की पत्नी बनना मुझे पसंद नहीं. पारंपरिक ढंग से विवाह, हंसीठिठोली, आशीर्वाद, इन सब का मेरे लिए बहुत मूल्य है. भले ही ऊपर से बहुत आधुनिक दिखती हूं.’’

‘‘तब मुझ से अब एक शब्द भी मत कहना. बैठी रहो मेरे इंतजार में या अपने घर वालों की पसंद से कहीं और शादी कर लो.’’

‘‘शांति…शांति…मैं ने तुम को इतना समय दिया, अब तुम भी मुझे थोड़ा समय दो.’’

अंबर घर लौटा तो उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है. आज जीजाजी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए वह घर में ही थे. दीदी की सास का कमरा भी उसे बंद दिखा. आज दीदी ही चायनाश्ता लाई थीं. आंखें सूजी देख कर अंबर को लगा कि वह खूब रोई हैं.

‘‘मुन्ना, चाय ले.’

‘‘दीदी, कुछ हुआ है क्या?’’

दीदी के मुंह खोलने से पहले ही उन की सास आ गईं.

‘‘बहू, अपने भाई से बात की…’’

आज पहली बार देखा कि मां की बात को बीच में काटते हुए जीजाजी ने पत्नी की तरफ मुंह खोला था, ‘‘काम से थक कर लौटा है. दम तो लेने दो.’’

‘‘इसे कौन से पहाड़ ढोने पड़ते हैं. चाय पीतेपीते बात कर लो.’’

‘‘देखो मां, मैं पहले भी कह चुका हूं, फिर कह रहा हूं कि जिस घर से बेटी लाए हैं वहां अपनी बेटी नहीं देंगे.’’

‘‘वह सब परंपरा अब नहीं मानी जाती. फिर कौन सा यह सगा भाई है.’’

‘‘इस के घर में कोई तैयार न हुआ तो?’’

‘‘तेरी सास इस की सगी बूआ है, रिश्ते के लिए उन से दबाव डलवा.’’

जीजाजी भड़के, ‘‘बेटी के लिए मतलब? ब्याह नहीं हुआ तो क्या बिन्नी को मार डालोगी?’’

बिन्नी ने डरतेडरते कहा, ‘‘बूआ को ढेर सारा दहेज चाहिए.’’

‘‘हम से दहेज मांगा तो भतीजी मरी.’’

‘‘होश में तो हो? बिन्नी को कुछ भी हुआ तो मैं ही सब से पहले पुलिस बुलाऊंगा, उस का भाई भी यहां है.’’

मां पैर पटकती, धमकी देती अपने कमरे में चली गईं तो जीजाजी चिंतित से बोले, ‘‘अंबर, मान ही जाओ…दोनों मिल कर बिन्नी का जीवन नरक बना देंगी.’’

बिन्नी दीदी झल्ला कर बोलीं, ‘‘हरगिज नहीं, अगर लाली के साथ मेरे भाई का ब्याह हुआ तो उस का जीवन नरक बन जाएगा. मैं अपने भाई के जीवन को ऐसे बरबाद नहीं होने दूंगी. चाहे मैं मर ही क्यों न जाऊं. आप अपनी बहन को नहीं जानते हैं क्या?’’

समस्या का अंत : बेचारा अंबर, करे तो क्या करे – भाग 1

तबादला हो कर इंदौर आने के बाद अंबर ने कई बार हफ्ते भर की छुट्टी लेने का प्रयास किया पर छुट्टी नहीं मिली. इस बार उस के बौस ने छुट्टी मांगते ही दे दी तो अंबर जैसे हवा में उड़ता हुआ इंदौर से ग्वालियर पहुंचा था. सुबह नाश्ता कर अंबर अपने स्कूटर पर मित्रों से भेंट करने निकल पड़ा तो पीछे से मां चिल्ला कर बोली थीं, ‘‘अरे, जल्दी लौटना. तेरी पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

अंबर की मित्रमंडली बहुत बड़ी है और उस के सभी दोस्त उसे बहुत पसंद करते हैं. उसे देखते ही सब उछल पडे़. मित्रों ने ऐसा घेरा कि उसे रूपाली को फोन करने का भी मौका नहीं मिला. बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाया और फिर एकांत में जा कर रूपाली को फोन किया. उस का फोन पाते ही वह भी उछल पड़ी.

‘‘अरे, अंबर तुम? इंदौर से कब आए?’’

‘‘आज सुबह ही. सुनो, तुम बैंक से छुट्टी ले लो और अपनी पुरानी जगह पर आ जाओ, वहीं बैठते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम पहुंचो, मैं आती हूं.’’

अंबर रेस्तरां की पार्किंग में अपना स्कूटर लौक क र जैसे ही गेट पर पहुंचा उस ने देखा रूपाली आटो से उतर रही है. दूर से ही हाथ हिलाती रूपाली पास आई तो दोनों रेस्तरां के एक केबिन में जा बैठे. बैठते ही रूपाली ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाओ, कितनी गर्लफ्रेंड बनीं?’’

‘‘मान गए तुम को…जवाब नहीं तुम्हारा. इतने दिन कैसे रहा, तबीयत कैसी थी, मन लगा कि नहीं? यह सबकुछ पूछने के बजाय मुंह खुला भी तो गर्लफ्रेंड की खोजखबर करने के लिए. निहाल हो गया मैं तो…’’

रूपाली भी गुस्से में थी.

‘‘मैं ही कौन अच्छी थी यहां,’’ गुस्से में तमक कर रूपाली बोली, ‘‘तुम ने कितनी बार पूछा?’’

‘‘अब तुम्हें कैसे समझाऊं कि इंदौर में जिम्मेदारियों के साथसाथ काम भी बहुत है.’’

‘‘प्रमोशन पर गए हो तो दायित्व ज्यादा होगा ही. वैसे अंबर, तुम्हारे जाने के बाद अब मुझे उस शहर में सबकुछ सूनासूना लगता है.’’

‘‘मुझे भी वहां बहुत अकेलापन महसूस होता है. क्या तुम्हारा ट्रांसफर वहां नहीं हो सकता?’’

‘‘मैं कोशिश कर रही हूं. फिर भी काम बनतेबनते 3-4 महीने तो लग ही जाएंगे,’’ अचानक गंभीर हो कर रूपाली बोली.

‘‘अंबर, हंसबोल कर बहुत समय गुजार लिया. अब कहो, तुम अपनी मां से हमारी शादी के बारे में खुल कर बात करोगे या नहीं?’’

‘‘घुमाफिरा कर मैं कई बार मां से कह चुका हूं पर तुम तो जानती हो कि वह कितनी रूढि़वादी हैं. जातिपांति की बेडि़यां तोड़ने को वह कतई तैयार नहीं हैं.’’

‘‘देखो, अगर तुम अम्मां की आज्ञा न ले पाए तो मेरे लिए बस, 2 ही रास्ते हैं कि या तो सब को ठेंगा दिखा कर मैं तुम को घसीट कर अदालत ले जाऊं और वहीं शादी कर लूं, नहीं तो मेरे घर वाले जिस को भी चुनें उस के साथ फेरे ले लूं.’’

‘‘पर डार्लिंग, संतोष का फल मीठा होता है. अभी ऐसा कुछ मत करो, मैं देखता हूं. मुझे कुछ दिनों की मोहलत और दे दो.’’

‘‘तुम को तो 2 वर्ष हो गए पर आज तक देख ही नहीं पाए कुछ.’’

घूमतेफिरते 7 दिन बीत गए पर चाहते हुए भी अंबर मां से अपनी शादी की बात नहीं कर पाया. उस ने भाभी से बात भी की तो भाभी ने यह कह कर रोक दिया कि तुम्हारे  तबादले से अम्मां का मिजाज बिगड़ा बैठा है. वह फौरन समझेंगी कि ठाकुर की बेटी ने योजना बना कर तुम्हें यहां से हटाया है. इस से रहीसही उम्मीद भी हाथ से जाती रहेगी. 3-4 महीने और गुजरने दो, तब बात करेंगे. वैसे भी देवरजी, प्रेम के मजबूत बंधन इतनी जल्दी नहीं टूटते.

अंबर इंदौर लौट आया. यहां वह अपनी दीदी के घर रहता है पर दीदी की दशा देख कर उसे बड़ी दया आती है. असल में बिन्नी दीदी से उस का लगाव बचपन से है. वह अम्मां की चहेती भतीजी महीनों अपनी बूआ के पास आ कर रहती थी. बड़ा हो कर अंबर जब भी अपने मामा के घर जाता, बिन्नी दीदी उस का खूब ध्यान रखती थीं.

जीजाजी तो बहुत ही अच्छे हैं. दीदी का खयाल भी खूब रखते हैं पर उन की बस, यही कमजोरी है कि अपनी मां व बहन के सामने कुछ बोल नहीं पाते, चाहे वे उन की पत्नी पर कितना भी अत्याचार क्यों न करें.

जीजाजी के 2 भाई और भी हैं. दोनों संपन्न हैं. बडे़बड़े घर हैं दोनों के पास पर उन की पत्नियां बिन्नी दीदी की तरह मुंह बंद कर के सारे अत्याचार नहीं सहतीं. मांबेटी के मुंह खोलते ही उन को उन के स्थान पर खड़ा कर देती हैं. चूंकि बिन्नी दीदी सीधी हैं, रोतीबिलखती हैं, सब सह लेती हैं और जीजाजी भी कुछ नहीं कहते, सो दोनों मांबेटी यहीं डेरा डाले रहती हैं.

मामा ने खाली हाथ बिन्नी का ब्याह नहीं किया था. मोटा दहेज दिया था फिर भी उठतेबैठते उसे ताने और गालियां ही मिलती हैं. दोनों मांबेटी दिन भर बैठी, लेटी टीवी देखती हैं, एक गिलास पानी भी खुद ले कर नहीं पीतीं. बेचारी बिन्नी दीदी काम करतेकरते बेहाल हो जाती हैं. उस पर भी दोनों के हुक्म चलते ही रहते हैं.

बिन्नी दीदी पर अंबर जान छिड़कता है. उन की यह दशा देख वह बौखला उठता है. तब दीदी ही झगड़े के भय से उसे शांत करती हैं. दीदी पर भी उसे गुस्सा आता है कि वह बिना विरोध के सारे अत्याचार क्यों सहन करती हैं. एक दिन सिर उठा दें तो मांबेटी को अपनी जगह का पता चल जाएगा पर दीदी घर में क्लेश के भय से चुप ही रहती हैं.

दीदी की ननद अभी तक कुंआरी बैठी है. एक तो कुरूप उस पर से बनावशृंगार  में सलीके का अभाव, चटकीले कपडे़ और चेहरे की रंगाईपुताई कर के तो वह एकदम चुडै़ल ही लगती है. मोटी, नाटी, स्याह काला रंग. अंबर तो देखते ही जलभुन जाता है.

अचानक अंबर ने महसूस किया कि चुडै़ल अब कुछ ज्यादा ही उस का खयाल रखने लगी है. शाम को काम से लौटते ही चायनाश्ते के साथ खुद भी सजधज कर तैयार मिलती है. अंबर आतंकित हो उठा है क्योंकि इन सब बातों का साफ मतलब है कि वह चुडै़ल अंबर को फंसाना चाहती है.

दीदी की सास भी अपनी कर्कश आवाज को नरम कर के  ‘बेटा, बेटा’ करने लगी हैं. अंबर को खतरे की घंटी सुनाई दी. उस रात सब खाने बैठे. पनीर कोफ्ता मुंह में रखते ही जीजाजी चौंके.

‘‘वाह, यह तो तुम्हारे हाथ के कोफ्ते हैं. मां तुम रसोई में कैसे पहुंच गईं?’’

दीदी की सास ने मुंह बनाया और बोलीं, ‘‘चल हट, मैं तो कमर दर्द में पड़ी हूं. लाली ने बनाए हैं कोफ्ते.’’

‘‘अच्छा, लाली को पता है कि रसोई का दरवाजा किधर खुलता है.’’

लाली ने अदा के साथ कंधे झटके और बोली, ‘‘ओह, भइया…’’

‘‘तू क्या जानता है,’’ दीदी की सास बोलीं, ‘‘मुझ से अच्छा खाना मेरी बेटी बनाती है. इस ने तो मन लगा कर पकवान, मिठाई बनाना भी मुझ से सीखा है,’’ फिर अंबर की तरफ मुड़ कर बोलीं, ‘‘अंबर बेटा, मैं इतना काम करती थी कि सब देख कर हैरान होते थे. मेरी सास कहती थीं कि अरी, थोड़ा आराम कर ले, मरेगी क्या काम करतेकरते. अब तो कमर दर्द ने अपाहिज बना दिया है. और अपनी दीदी को देखो, इतनी सुस्त कि 10 मिनट के काम में 2 घंटे लगा देगी.’’

यह सुन कर अंबर की आत्मा जल उठी, स्वादिष्ठ कोफ्ता कड़वा हो गया.

खिलाड़ियों के खिलाड़ी : मीनाक्षी की जिंदगी में कौन था आस्तीन का सांप – भाग 1

विशाल की बातें सुन कर मीनाक्षी अपने सुरक्षित एवं सुखद भविष्य की कल्पना करने लगी थी. उसे लगा कि अब अपनी पुरानी घिनौनी जिंदगी से उसे छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन वह खुद के गिरेबां में कहां झांक रही थी, उसे अपनी गलतियों का एहसास ही नहीं था. फिर एक दिन…

राज्यके चीफ सैक्रेटरी विशाल दिल्ली से आए कुछ उच्च अधिकारियों के साथ हाईलेवल और मोस्ट सीक्रेट मीटिंग में अपना मोबाइल साइलैंट तथा वाइब्रेट मोड पर रख कर बैठे हुए थे. मीटिंग की अध्यक्षता राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे थे. मीटिंग शुरू हुए आधा घंटा हुआ था कि उन के सामने उन का रखा मोबाइल वाइब्रेट हुआ.

विशाल ने देखा कि मोबाइल की एक्स्ट्रा लार्ज स्क्रीन पर ‘एम एन’ ये 2 अक्षर बारबार उभर रहे थे. विशाल को यह सम?ाने में देर न लगी कि यह मीनाक्षी नाईक की कौल है. एसी रूम होने के बावजूद विशाल के माथे पर पसीने की बूंदें फैल गईं, उस ने धीरे से अपनी जेब से रूमाल निकाल कर माथे पर फेर दिया, फिर सब से नजरें चुराते हुए ‘मैं मीटिंग में हूं’ लिख कर मैसेज भेज दिया.

विशाल की आंखों के सामने ‘एम एन’ अर्थात मीनाक्षी नाईक की मदहोश करने वाली मोहक छवि उभर आई जिस ने पिछले कुछ समय से उस की नींद हराम कर दी थी. शहर के एक कुख्यात गुंडे अरुण नाईक की पत्नी मीनाक्षी अपने पति के मुकदमे के सिलसिले में करीब 4 साल पहले एक दिन उस से मिलने उस के औफिस आई थी जब वह राज्य के सचिव के पद पर आसीन था.

जब मीनाक्षी नाईक पहली बार उस की केबिन में दाखिल हुई थी तब वह उसे देखते ही रह गया था. विशाल की नजरें मीनाक्षी के चेहरे से हटने का नाम नहीं ले रही थीं. उस ने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी खूबसूरत महिला देखी थी. बड़ेबड़े कजरारे नशीले नैन, गुलाब की पंखुडियों से रसभरे होंठ, उफनता वक्षस्थल जहां से साड़ी का पल्लू किंचित नीचे खिसक गया था जिसे वह उचित स्थान पर स्थिर करने की असफल कोशिश कर रही थी. काली और घनी रेशमी जुल्फों की लटें उस के चांद से चेहरे पर अठखेलियां करते हुए कभी आंखों, तो कभी गालों, तो कभी लरजते लबों को छू रही थीं जिन्हें वह बारबार कभी अपने कोमल हाथ से तो कभी अपनी सुराही सी गरदन से झटक कर हटाने की कोशिश कर रही थी लेकिन हर बार उसे नाकामयाबी ही मिल रही थी.

मीनाक्षी ने मुसकराते हुए कहा, ‘गुडमौनिंग सर.’

मीनाक्षी नाईक की मधुर और खनकती आवाज से विशाल की तंद्रा टूटी, वह संभलते हुए बोला, ‘यस, यस वैरी गुडमौर्निंग, प्लीज हैव ए सीट.’

‘थैंक्यू सर,’ कहते हुए मीनाक्षी कुरसी पर बैठ गई. अब मीनाक्षी विशाल के बिलकुल समीप आ गई थी.

‘बोलिए मैडम, मैं आप की क्या सहायता कर सकता हूं,’ मीनाक्षी के चेहरे से नजर हटाते हुए विशाल ने कहा.

‘सर, मैं पहले अपना परिचय देना चाहूंगी. मैं मीनाक्षी नाईक, अरुण नाईक की पत्नी हूं. मैं अपने पति पर चल रहे मुकदमे के सिलसिले में आप से सहायता मांगने आई हूं.’

अरुण नाईक का नाम सुनते ही विशाल की भौंहें तन गईं. वह क्रोधित होते हुए बोला, ‘तो तुम नाईक गैंग के मुखिया अरुण नाईक की पत्नी हो जिस ने पुलिस और सरकार की नाक में दम कर रखा है. शार्पशूटर अरुण नाईक के अपराधों का कोई हिसाब नहीं है. मु?ो माफ करना इस बारे में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता,’ कहते हुए विशाल ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘सर, मेरी बात तो सुनिए. इस मामले को प्रैस ने जरूरत से ज्यादा उछाला है. दरअसल,’ मीनाक्षी अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि तभी विशाल की केबिन में उन के सहायक ने आ कर बताया कि मुख्यमंत्री ने उन्हें तुरंत बुलाया है. इसी बीच मीनाक्षी ने विशाल का विजिटिंग कार्ड ले लिया और उन से विदा लेते हुए वह केबिन से बाहर आ गई.

मीनाक्षी नाईक केबिन से बाहर जरूर चली गई थी मगर उस की मादक और मोहक छवि युवा अफसर विशाल की नजरों के सामने बारबार आ रही थी. विशाल की पत्नी दिल्ली में थी, वह मायानगरी में अकेला ही रह रहा था. बैठेबैठे न जाने उस के मन में ऐसेवैसे विचार आने लग गए. वह अपनेआप को संयमित रखने की नाकाम कोशिश करता रहा. उस का काम में भी मन नहीं लग रहा था. विशाल सोचने लगा कि राज्य के ज्यादातर मंत्री भी तो भ्रष्ट हैं. वे कई बार उस से अपने रिश्तेदारों या यारदोस्तों के फेवर में काम करवाते रहते हैं. फिर उस के विभाग के छोटेमोटे अफसर भी तो दूध के धुले नहीं हैं.

काश, वह मीनाक्षी की पूरी बात सुन लेता. उसे अपनेआप पर गुस्सा आने लगा. दोचार दिन बीत गए. न तो मीनाक्षी का फोन आया न ही वह दोबारा मिलने औफिस में आई. शिकार खुद चल कर आया था और उस ने सुनहरा मौका गंवा दिया था. उस की फाइल ले कर रख लेता, फिर टिपिकल सरकारी अफसर की तरह ‘अभी देख रहा हूं’, ‘कोशिश कर रहा हूं’, ‘मैं ने ऊपर बात कर ली है’, ‘आगे बात हो रही है’, ‘कुछ वक्त लगेगा’, ‘मामला थोड़ा पेचीदा है मगर तुम्हारा काम हो जाएगा’ आदि जुमलों में तो वह भी माहिर है.

एक दिन दोपहर में विशाल लंच से फारिग हो कर अपनी केबिन में सुस्ताते हुए किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था. तभी टेबल के एक कोने में रखे मोबाइल की घंटी बजी. उस ने लपक कर मोबाइल उठाया. उधर से आवाज आई-

‘हैलो सर, मैं मीनाक्षी बोल रही हूं.’

मधुर आवाज सुन विशाल की सुस्ती पलभर में फुरती में बदल गई. ‘हां, बोलो मीनाक्षी, उस दिन मु?ो मुख्यमंत्री ने बुला लिया था, इसलिए मैं तुम्हारी बात ध्यान से नहीं सुन सका. फिर औफिस में दिनभर काम का टैंशन भी रहता है.’

‘कोई बात नहीं सर, मैं दोबारा आ जाती हूं. अगर आप बुरा न मानें तो मैं फाइल ले कर शाम को आप के बंगले पर आ जाऊं?’

विशाल मन ही मन खुश होते हुए बोला, ‘नेकी और पूछपूछ.’ फिर उस ने अपने उतावलेपन व उत्साह पर अंकुश रखते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘ठीक है, वैसे मैं बंगले पर किसी को बुलाता नहीं हूं, पर तुम आ जाना.’

‘ओके सर, मैं आज शाम को आती हूं,’ कहते हुए मीनाक्षी ने फोन काट दिया.

बंगले पर पहुंच कर विशाल ने सब से पहले अपने किचन स्टाफ को वीआईपी गैस्ट के आने की सूचना दी. फिर अन्य कर्मचारियों को बारबार यहांवहां न घूमने की सख्त हिदायत दी. रात को 8 बजे मीनाक्षी खूबसूरत गुलदस्ते के साथ विशाल के बंगले पर पहुंच गई.

विशाल ने धन्यवाद देते हुए गुलदस्ता स्वीकार किया. गुलदस्ता लेते वक्त मीनाक्षी के कोमल हाथों का जादुई स्पर्श उस के रोमरोम को रोमांचित कर गया. विशाल ने गुलदस्ता मेज पर रखा और मीनाक्षी को सोफे पर अपने करीब बैठने का इशारा किया. मीनाक्षी ?ाक कर सोफे पर बैठने लगी तो उस की साड़ी का पल्लू उस के उभरे हुए वक्षस्थल से हट गया, जिसे उस ने तुरंत संभाला. पर विशाल की पैनी नजरों ने इस नजारे को कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

औपचारिक बातों के बाद मीनाक्षी अपने बैग से मुकदमे से संबंधित फाइल निकालने लगी. तो विशाल ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘अरे, रहने दो मीनाक्षी. इसे बाद में देख लेंगे. तुम पहली बार हमारे आशियाने में आई हो, पहले डिनर करेंगे, फिर तुम्हारी फाइल देख लेंगे.’

डाइनिंग हौल में डिनर लग चुका था. डिनर करने से पहले हौट डिं्रक की भी व्यवस्था थी. विशाल ने मीनाक्षी को डिं्रक की ओर चलने का इशारा किया तो पहले तो उस ने आनाकानी की, मगर विशाल के खास आग्रह करने पर वह मना नहीं कर सकी और अपने हाथ में पैग ले लिया.

अनोखी जोड़ी: विशाल ने अवंतिका को तलाक देने से क्यों मना कर दिया? -भाग 1

दिल्ली की एक अदालत में विशाल अपनी मुसीबतों का बखान कर रहा था और इस में भी वह अपने को कठिनाइयों में घिरा पा रहा था, क्योंकि कहानी 8 वर्षों से चली आ रही थी.

विशाल मुंबई की एक मशहूर तेलशोधक कंपनी में अधिकारी था. किसी काम से दिल्ली आया तो चांदनी चौक में अवंतिका से मुलाकात हो गई…वह भी रात के 1 बजे.

खूबसूरत अवंतिका रात में सीढ़ी पर खड़ी हो कर दीवार पर ‘कांग्रेस गिराओ’ का एक चित्र बना रही थी. नीचे खड़ा विशाल उस की दस्तकारी को देख रहा था. तभी बड़ी तूलिका ने अवंतिका के हाथ से छूट कर विशाल के चेहरे को हरे रंग से भर दिया.

उस छोटी सी मुलाकात ने दोनों के दिलों को इस कदर बेचैन किया कि उन्होंने ‘चट मंगनी पट ब्याह’ कहावत को सच करने के लिए अगले ही दिन अदालत में जा कर अपने विवाह का पंजीकरण करवा लिया.

प्रेम में कई बार ऐसा भी होता है कि वह पारे की तरह जिस तेजी से ऊपर चढ़ता है उसी तेजी से नीचे भी उतर जाता है. अवंतिका के 2 कमरों के मकान में दोनों का पहला सप्ताह तो शयनकक्ष में बीता किंतु दूसरे सप्ताह जब जोश थोड़ा ठंडा हुआ तो विशाल को लगा कि उस से शादी करने में कुछ जल्दी हो गई है, क्योंकि अवंतिका का आचरण घरेलू औरत से हट कर था. नईनवेली पत्नी यदि पति व घर की परवा न कर अपनी क्रांतिकारी सक्रियता पर ही डटी रहे तो भला कौन पति सहन कर पाएगा.

विवाह के 10वें दिन से ही विवाद में घर के प्याले व तश्तरियां शहीद होने लगे तो स्थिति पर धैर्यपूर्वक विचार कर विशाल ने पत्नी को छोड़ना ही उचित समझा.

8 वर्ष बीत गए. इस बीच विशाल की कंपनी ने कई बार उसे शेखों से सौदा करने के लिए सऊदी अरब व कुवैत भेजा. अपनी वाक्पटुता व मेहनत से विशाल ने लाखों टन तेल का फायदा कंपनी को कराया तो कंपनी के मालिक मुंशी साहब बहुत खुश हुए और उसे तरक्की देने का निर्णय लिया, किंतु अफवाहों से उन्हें पता चला कि विशाल का पत्नी से तलाक होने वाला है. कंपनी के मालिक नहीं चाहते थे कि उन के किसी कर्मचारी का घर उजडे़. अत: विशाल के टूटते घर को बचाने के लिए उन्होंने उस के मित्र विवेक को इस काम पर लगाया कि वह इस संबंध  विच्छेद को बचाए. जाहिर है कहीं न कहीं कंपनी की प्रतिष्ठा का सवाल भी इस से जुड़ा था.

विशाल से मिलते ही विवेक ने जब उस के तलाक की खबर पर चर्चा शुरू की तो वह तमक कर बोला, ‘‘यह किस बेवकूफ के दिमाग की उपज है.’’

‘‘खुद मुंशी साहब ने फरमान जारी किया है. प्रबंध परिषद चाहती है कि कंपनी के सब उच्चाधिकारी पारिवारिक सुखशांति से रहें, कंपनी की इज्जत बढ़ाएं.’’

‘‘क्या बेवकूफी का सिद्धांत है. कंपनी को अधिकारियों की निपुणता से मतलब है कि उन के बीवीबच्चों से?’’‘‘भैया, वातानुकूलित बंगला, कंपनी की गाड़ी, नौकरचाकर आदि की सुविधा चाहते हो तो परिषद की बात माननी ही होगी. वार्षिक आम सभा में केवल 1 महीना ही बाकी है. तुम अवंतिका को ले कर आम बैठक में शक्ल दिखा देना, पद तुम्हारा हो जाएगा. बाद में जो चाहे करना.’’

‘‘अवंतिका इस छल से सहमत नहीं होगी…विवेक और मैं उसे मना नहीं सकता. औंधी खोपड़ी की जो है,’’ इतना कह कर विशाल अपने तलाक को अंतिम रूप देने के लिए निकल पड़ा.

अदालत में दोनों के वकील तलाक की शर्तों पर आपस में बहस करते रहे जबकि वे दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे. पुराना प्रेम फिर से दिल में उमड़ने लगा, बहस बीच में रोक दी गई क्योंकि जज उठ कर जा चुके थे. मुकदमे की अगली तारीख लगा दी गई.

अदालत के बाहर बारिश हो रही थी. एक टैक्सी दिखाई दी तो विशाल ने उसे रोका. अवंतिका का हाथ भी उठा हुआ था. दोनों बैठ गए. रास्ते में बातें शुरू हुईं:

‘‘क्या करती हो आजकल?’’

‘‘ड्रेस डिजाइनिंग की एक कंपनी में काम करती हूं और सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों से भी जुड़ी हूं…जैसे पहले करती थी.’’

‘‘अच्छा, किस के साथ?’’

‘‘हेमंतजी के साथ. वह मेरे अधिकारी भी हैं. वैसे तो उन से मेरी शादी भी होने वाली थी किंतु अचानक तुम मिले और मेरे दिलोदिमाग पर छा गए. याद है न तुम्हें?’’

‘‘कैसे भूल सकता हूं उन हसीन पलों को,’’ विशाल पुरानी यादों में खो गया. फिर बोला, ‘‘तुम अभी भी उसी घर में रहती हो?’’

इसी को कहते हैं जीना : कैसा था नेहा का तरीका – भाग 1

‘‘नेहा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’

नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’ आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

अपने जैसे लोग : नीरज के मन में कैसी थी शंका – भाग 1

इस नए फ्लैट में आए हमें 6 महीने हो गए हैं. आते ही जैसे एक नई जिंदगी मिल गई है. कितना अच्छा लग रहा है यहां. खुला व स्वच्छ वातावरण, एक ही डिजाइन के बने 10-12 पंक्तियों में खड़े एक ही रंग से पुते फ्लैट. सामने लंबाचौड़ा खुला पार्क, जिस में शाम के समय खेलने के लिए बच्चों की भीड़ लगी रहती है. पार्क से ही लगती हुई दूरदूर तक फैली सांवली, नई बनी चिकनी नागिन सी सड़क, जिस पर एकाध कार के सिवा अधिक भीड़ नहीं रहती. कितना अच्छा लगता है यह सब. हंसतेखेलते हम दूर तक घूम आते हैं. इन 6 महीनों से पहले जिस जगह 3 महीने गुजार कर आई थी, वहां तो ऐसा लगता था जैसे बदहाली में कोई एक कोना हमें रहने के लिए मिल गया हो.

पुरानी दिल्ली में दोमंजिले मकान के नीचे के हिस्से में कमरा रहने को मिला था. धूप का तो वहां नामोनिशान नहीं था. प्रकाश भी नीचे की मंजिल तक पहुंचने में असमर्थ था. आधे कमरे में मैं ने रसोई बनाईर्र्र् हुई थी, आधे में सोना होता. एक छोटी सी कोठरी में नल लगा था, जिसे बरतन साफ करने व कपड़े धोने के अलावा नहाने के काम लाया जाता था. यह तो अच्छा हुआ कि दिल्ली आने के कुछ महीनों बाद ही ये सरकारी फ्लैट बन कर तैयार हो गए, नहीं तो शायद जीवन या तो उसी बदहाली में बिताना पड़ता या नीरज को नौकरी ही कहीं और तलाश करनी पड़ती.

अपने इस नए मकान को मैं और नीरज थोड़ाथोड़ा कर के इस तरह सजाते रहते जैसे हमें अपने सपनों का महल मिल गया हो और हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस में अपनी संपूर्ण कल्पनाओं को साकार होते हुए देखना चाहते हों. हम दोनों बहुत खुश थे. पर एक दिन शाम को नीरज ने पीछे वाले बरामदे में खड़े हो कर अपने सामने की विशाल कोठियों पर नजर गड़ाते हुए कहा, ‘‘यहां और तो सबकुछ ठीक ही है, लेकिन अपनी पिछली तरफ की ये जो बड़ेबड़े लोगों की कोठियां हैं न, इतनी बड़ीबड़ी… न जाने क्यों आंखों से उतर कर मन के भीतर कहीं चुभ सी जाती हैं. इन के सम्मुख रह कर हीनता का आभास सा होने लगता है. इन के अंदर झांक कर देखने की कल्पना मात्र से बदन सिहर उठता है, सोचता हूं कि कहां हम और कहां ये लोग.’’

मैं आश्चर्य से नीरज के मुंह की ओर ताकती रह गई, ‘‘अरे, ये विचार कैसे आए आप के दिमाग में कि हम इन लोगों से हीन हैं? बड़ी कोठी में रहने और धनवान होने को ही आप महत्त्व क्यों देते हैं? असली महत्त्व तो इस बात का है कि हम जीवन को किस प्रकार से जीते हैं और थोड़ा पा कर भी किस तरह अधिक से अधिक सुखी रह सकते हैं.’’ ‘‘आज के युग में धन का महत्त्व बहुत अधिक है, शीला. कई बार तो यही सोच कर मुझे बहुत दुख होता है कि हमें भी किसी बड़े धनवान के यहां जन्म क्यों नहीं मिला या फिर हम इतने योग्य क्यों नहीं हो सके कि हम इतना पैसा कमा सकते कि दिल खोल कर खर्च करते.’’

‘‘यह सब आप के दिल का वहम है. यह सोचना ही निरर्थक है कि हम किसी से कम हैं. देखिए, हमारे पास सबकुछ तो है. हमें इस से अधिक और क्या चाहिए? आराम से गुजर हो रही है.’’

मुझे लगा मैं नीरज को आश्वस्त करने में काफी सफल हो गई हूं. क्योंकि उस के चेहरे पर संतोष के भाव दिखाई देने लगे थे. हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक शाम की चाय पीने लगे. इतने में 5 वर्षीय बेटा पंकज दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी, देखो यह सामने वाली कोठी का सनी है न. उस के लिए आज उस के पापा एक नई साइकिल लाए हैं 3 पहियों वाली. हमें भी ला दोगी न?’’

चाय का घूंट मेरे गले में ही अटक गया. मैं नीरज की आंखों में झांकने लगी. उस की जीभ तैयार मिली, ‘‘अब ला दो न, सौ रुपए की साइकिल या अभी जो लैक्चर झाड़ रही थीं उस से खुश करो अपने लाड़ले को. कह रही थीं सबकुछ है हमारे पास.’’ पंकज अनुनयभरी दृष्टि से मेरी ओर निहारे जा रहा था, ‘‘सच बताओ मम्मी, लाओगी न मेरे लिए भी साइकिल?’’

मैं ने खींच कर उसे गले से लगा लिया, ‘‘देखो बेटा, तुम राजा बेटा हो न? दूसरों की नकल नहीं करते. हां, जब हमारे पास रुपए होंगे, हम जरूर ला देंगे.’’ मैं ने उसे बहलाना चाहा था. ‘‘क्यों हमारे पापा भी तो दफ्तर में काम करते हैं, रुपए लाते हैं. फिर आप के पास क्यों नहीं हैं रुपए?’’ वह अपनी बात पूरी करवाना चाहता था.

‘‘अच्छा, ज्यादा नहीं बोलते, कह तो दिया ला देंगे. अब जाओ तुम यहां से,’’ मैं ने क्रोधभरे शब्दों में कहा और पंकज धीरेधीरे वहां से खिसक गया. इधर नीरज का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो उस के मुंह पर. अपमान और क्रोध से झल्लाते हुए बोला, ‘‘देखूंगा डांटडपट कर कब तक तुम चुप करवाओगी उसे. आज तो यह पहली फरमाइश है. आगे देखना क्याक्या फरमाइशें होती हैं.’’ मैं चुप रही. बात सच ही थी. पहली वास्तविकता सामने आते ही दिमाग चक्कर खा गया था. कैसे गुजारा होगा ऐसे अमीर लोगों के बीच. हमारे सामने पूरी 6 कोठियां हैं. उन में दर्जन से भी ऊपर बच्चे हैं. सभी नित्य नई वस्तुएं व खिलौने लाते रहेंगे और पंकज देख कर जिद करता रहेगा. कहां तक मारपीट कर उस की भावनाओं को दबाया जाएगा. मैं पंकज के भविष्य के बारे में चिंतित हो उठी. कितने ही अक्ल के घोड़े दौड़ाए, पर कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया.

अगले ही दिन शाम को नीरज ने सुझाव दिया, ‘‘एक बात हो सकती है. पंकज को उधर खेलने ही न जाने दो. पीछे से जाने वाला दरवाजा हर समय बंद ही रखा करो. सामने वाले फ्लैट हैं न, उन में सब अपने ही जैसे लोग रहते हैं. उन्हीं के बच्चों के साथ सामने के पार्क में खेलने दिया करो पंकज को.’’ बात मेरी भी समझ में आ गई, न इन बड़े लोगों के बच्चों में खेलेगा न, जिद करेगा. मैं ने पिछला दरवाजा खोलना ही छोड़ दिया. लेकिन पंकज सामने की ओर कभी न निकलता. ऊपर बरामदे में खड़ा हो कर, पीछे की कोठियों वाले उन्हीं लड़कों को देखता रहता, जिन में से कोई तो अपनी नई साइकिल पर सवार होता, कोई रेसिंग कार पर, तो कोई लकड़ी के घोड़े पर. कई बार वह पीछे का दरवाजा खोलने की भी जिद करता और मुझे उसे डांट कर चुप कराना पड़ता. अजीब मुसीबत थी बेचारे की.

परवरिश : सोचने पर क्यों विवश हुई सुजाता – भाग 1

मानसी दीदी की चिट्ठी मिलते ही मैं एक ही सांस में पूरी चिट्ठी पढ़ गई. चिट्ठी पढ़ कर दो बूंद आंसू मेरे गालों पर लुढ़क गए. मानसी दीदी के हिस्से में भी कभी सुख नहीं रहा. कुछ दुख उन्हें उन के हिस्से के मिले, कुछ कर्मों से और कुछ स्वभाव से. इन तीनों में से कुछ भी यदि उन का ठीक होता तो शायद उन्हें इतने दुख नहीं भुगतने पड़ते. दीदी के बारे में सोचती मैं अतीत में खो सी गई.

हम दोनों बहनें मातापिता की लाड़ली थीं. पिता ने हमें ही बेटा मान हमारे लालनपालन व शिक्षादीक्षा में कोई कमी नहीं रखी. दीदी सुंदरता में मां पर व स्वभाव से पापा पर गई थीं. वह दबंग व उग्र स्वभाव की थीं. वह दूसरे के अनुसार ढलने के बजाय दूसरे को अपने अनुसार ढालने में विश्वास रखती थीं. परिस्थितियों के अनुसार ढलने के बजाय परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेती थीं. यह उन का स्वभाव भी था और इस की उन में क्षमता भी थी.

इस के विपरीत मेरा स्वभाव मां पर व शक्लसूरत पापा पर गई थी. मैं देखने में ठीकठाक थी. शालीन व लुभावना सा व्यक्तित्व था. हर एक के साथ समझौता करने वाला लगभग शांत स्वभाव था. जब तक बहुत परेशानी न हो तब तक मैं खुश ही रहती थी. हर तरह की परिस्थिति के साथ समझौता करना जानती थी. मेरे स्वभाव में दबंगता तो नहीं थी पर मैं दब्बू स्वभाव की भी नहीं थी.

दीदी का दबंग स्वभाव सब को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता. जो करे उन की मन की करे. जो उन को ठीक लगे वह करे. विवाह के बाद भी पति व बच्चों पर उन का ही शासन रहा. यहां तक कि सासससुर ने भी उन की ही सुनी. किसी की क्या मजाल कि कोई उन की इच्छा के विपरीत घर में कुछ कर दे.

‘दीदी, इतना मत दबाया करो सब को, बच्चों पर इतनी अधिक बंदिश रखना ठीक नहीं है…’ मैं अकसर दीदी को समझाने का प्रयास करती.

‘तू अपनी समझ अपने पास रख…जैसे तू ने खुल्ला छोड़ा हुआ है बच्चों को…मेरे दोनों बच्चे, मजाल है मेरे सामने जोर से हंस भी दें…कितने आज्ञाकारी बच्चे हैं…मेरे ही नियंत्रण का फल है…वरना इन के पापा तो इन को बिगाड़ कर रख देते,’ दीदी बडे़ गर्व से कहतीं.

‘दीदी, आप के बच्चे आज्ञाकारी नहीं बल्कि डरते हैं आप से. आज्ञा प्यार से मानें बच्चे, तब तो ठीक लेकिन यदि वे डर कर मानें, तो जिस दिन वे आत्मनिर्भर हो जाएंगे आप की सुनेंगे भी नहीं,’ मैं दलील देती तो दीदी मुझे जोर से झिड़क देतीं.

दीदी के इस दबंग रूप को अगर सकारात्मक पहलू से देखा जाए तो पूरी गृहस्थी का भार उन के ही कंधों पर था. जीजाजी अकसर बीमार रहते थे. उन्हें दिल की बीमारी थी. किसी तरह वह नौकरी कर लेते थे बस, बाकी समस्याएं दीदी के जिम्मे थीं.

दीदी हिम्मत वाली थीं. हर मुश्किल का सामना वह किसी तरह कर लेती थीं. इसीलिए जीजाजी बीमार होने के बावजूद थोड़ा जी गए, लेकिन बीमार दिल के साथ आखिर वह कितने दिन जी पाते. एक दिन परिवार को आधाअधूरा छोड़ वह इस दुनिया से कूच कर गए. दीदी की हिम्मत ने परिवार की पतवार फिर से चलानी शुरू कर दी. उन्होंने बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया.

‘दीदी, आमना पढ़ने में तेज है, उस की इतनी जल्दी शादी क्यों कर रही हो…उसे पढ़ने दो,’ मैं बोली.

‘तू अपनी गृहस्थी के बारे में सोच, सुजाता. मेरी बेटी मेरी जिम्मेदारी है,’ उन्होंने मुझे दोटूक जवाब दे दिया. दीदी न किसी की सुनती थीं, न किसी की मानती थीं. आमना भी बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, बेटे ने भी बहुत कहा पर दीदी ने बी.काम. खत्म करते ही उस का विवाह कर दिया.

अपनी सफलता पर दीदी बहुत खुश थीं कि उन्होंने अकेले होते हुए भी बेटी का विवाह कर दिया और बेटी ने चूं भी नहीं की. आमना को खुश देख कर मैं ने भी अपने दिल को समझा लिया. हालांकि उस के सपनों की कोंपलों को झुलसते हुए मैं ने साफ महसूस किया था.

दीदी कभीकभी बच्चों के साथ हमारे घर रहने आ जाती थीं. उन का बेटा अक्षत इतना आज्ञाकारी था कि उन दिनों मुझे अपना राहुल कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ और उद्दंड दिखाई देता. उन दोनों मांबेटे में मैंने कभी बहस होते नहीं देखी. मांबेटे के बीच झगड़ा तो दूर की बात थी, जबकि मेरे और मेरे बेटे के बीच बिना कारण हमेशा ठनी ही रहती. मेरे बेटे को मुझ में कमी ही कमी दिखाई देती.

दीदी अकसर मुझे टोकतीं, ‘तू राहुल पर थोड़ी सख्ती रखा कर सुजाता, अभी से ऐसा लड़ता है तुझ से तो बड़ा हो कर क्या करेगा? तेरी जगह पर मैं होती तो थप्पड़ लगा देती.’

‘इतने बड़े बच्चे थप्पड़ से कहां काबू होते हैं, दीदी…किशोरावस्था से गुजर रहे हैं बच्चे इस समय, थोड़ीबहुत समस्याएं तो होती ही हैं उन के साथ इस दौर में,’ मैं दीदी से बात करते हुए बीच का रास्ता अपनाती.

‘नहीं, जैसे हम तो इस दौर से कभी गुजरे ही नहीं थे,’ दीदी तुनक कर कहतीं. मैं कैसे कहती कि मैं ने तो मां के साथ झगड़ा नहीं भी किया होगा पर तुम तो हमेशा झगड़ती थीं.

दीदी के बेटे अक्षत ने इंजीनियरिंग के बाद एम.बी.ए. किया और प्रतिष्ठित कंपनी में उसे जौब मिल गई. दीदी बहुत खुश थीं. उन को देख कर हम सभी खुश थे. अक्षत को देख कर दिल खुश हो जाता. अक्षत खूबसूरत, स्मार्ट, आज्ञाकारी, नम्र स्वभाव का प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत युवक था. उसे देख कर कोई भी रश्क कर सकता था. एक से एक लड़कियों के रिश्ते उस के लिए आते. दीदी खुद ही सब जगह बात करतीं.

दीदी से कई बार कहा भी मैं ने, ‘दीदी हर किसी पर अंधा भरोसा मत किया करो…जिस ने भी रिश्ता बताया, आप सोचती हो अक्षत पसंद कर ले…बस, हां बोल दे.’

‘तो और क्या देखना है, सबकुछ तो बायोडाटा में लिखा रहता है. शक्ल अक्षत देख ही लेता है, मैं अधिक प्रपंच में नहीं पड़ती.’

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

नौकरी पर लग जाने के बाद भी मेरे बेटे व मुझ में किसी न किसी बात पर ठन ही जाती. जब घर आता तब आने के कुछ दिन तक और जाने के कुछ दिन पहले तक हमारे बीच में कुछ ठीक रहता. बाकी दिन किसी न किसी कारण से हम मांबेटे के बीच अनबन चलती रहती. शादी के लिए हां बोलने में भी उस ने मुझे बहुत परेशान किया.

उस के पापा ने एक दिन उसे खूब जोर की डांट लगा दी, ‘राहुल, यदि तुम अभी शादी के लिए हां नहीं बोलोगे तो तुम्हारी शादी करने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं, तब तुम खुद ही कर लेना…बच्चों की शादी करना मातापिता की जिम्मेदारी है और हम तुम्हारी शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते हैं.’

तब जा कर उस ने मौन स्वीकृति दी और रहस्योद्घाटन किया कि उसे एक लड़की पसंद है और वह उसी से शादी करेगा. उस के रहस्योद्घाटन से बचीखुची आशा भी टूट गई. ऐसे लगा जैसे बेटे ने हम से मांबाप होने का हक भी छीन लिया. मैं ने कुछ समय तक बेटे से बात भी नहीं की. किसी तरह मौन रह कर मैं अपने दुख पीती रही और खुद को आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार करती रही.

पहल: क्या शीला अपने मान-सम्मान की रक्षा कर पाई? – भाग 1

धनबाद बर्दवान के बीच चलने वाली लोकल ईएमयू ट्रेनों की सवारियों को दूर से ही पहचाना जा सकता है. इन रेलगाडि़यों में रोज अपडाउन करते हैं ग्रामीण मजदूर, सरकारी व निजी संस्थानों में लगे चतुर्थ श्रेणी के बाबू, किरानी, छोटीछोटी गुमटियों वाले व्यवसायी, यायावर हौकर्स और स्कूलकालेजों के छात्रछात्राएं. उस रोज दोपहर का वक्त था. लोकल ट्रेन में भीड़ न थी. यात्रियों की भनभनाहट, इंजनों की चीखपुकार और वैंडरों की चिल्लपों का लयबद्ध संगीत पूरे वातावरण में रसायन की तरह फैला हुआ था. आमनेसामने वाली बर्थों पर कुछ लोग बैठे थे. उन में एक नेताजी भी थे. अभी ट्रेन छूटने में कुछ समय बाकी था कि  एक भरीपूरी नवयुवती सीट तलाशती हुई आई. कसा बदन, धूसर गेहुआं रंग, तनिक चपटी नाक. हाथ में पतली सी फाइल. उस की चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी पर शहरी लड़कियों सा बिंदासपन नहीं था. एक किस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से और यही बात उस के आकर्षण को बढ़ा रही थी.

उसे देखते ही नेताजी हुलस कर तुरंत ऐक्शन में आ गए. गांधी टोपी को आगेपीछे सरका कर सेट किया और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिनाए, ‘‘अरे, यहां आओ न बेटी. खिड़की के पास हवा मिलेगी.’’

युवती एक क्षण को ठिठकी, फिर आगे बढ़ कर नेताजी के बगल में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गई.

सामने की बर्थ पर बैठे प्रोफैसर सान्याल का मन ईर्ष्या से सुलग उठा. थोड़ी देर तक तो वे चोर नजरों से लड़की के मासूम सौंदर्य को निहारते रहे. फिर नहीं रहा गया तो युवती से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत में बोल उठे, ‘‘कालेज से आ रही हैं न?’’

‘‘जी हां, नया ऐडमिशन लिया है,’’ युवती हौले से मुसकराई तो प्रोफैसर  निहाल हो गए.

फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘‘मुझे पहचान रही हैं? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण व स्वतंत्रता पर मेरे आलेख ने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी है. आप ने देखा है आलेख?’’

‘‘न,’’ युवती के इनकार में सिर हिलाते ही प्रोफैसर को कसक का एहसास हुआ. शिक्षा जगत की इतनी महत्त्वपूर्ण घटना से युवती वाकिफ नहीं, प्रोफैसर के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईं.

नेताजी ने जब देखा कि लड़की प्रोफैसर की ओर ही उन्मुख बनी हुई है तो क्षुब्ध हो उठे और उस का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बोल पड़े, ‘‘अरे बेटी, आराम से बैठो न. कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है?’’ फिर जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर लड़की को देते हुए उस की उंगलियों को थाम लिया, ‘‘हमरा कार्डवा रख लो. धनबाद क्षेत्र के भावी विधायक हैं हम. अगला चुनाव में उम्मीदवार घोषित हो चुके हैं, बूझी? बर्दवान से ले कर धनबाद तक का हर थाना में हमरा रुतबा चलता है. कभी कोई कठिनाई आए तो याद कर लेना.’’

युवती की उंगलियां नेताजी के हाथों में थीं. असमंजस से भर कर उस ने झट से हाथ नीचे कर लिया. प्रोफैसर की नजरों से नेताजी की चालाकी छिपी न रह सकी. शर्ट के तले उन की धुकधुकी भी रोमांच से भरतनाट्यम् करने लगी. आननफानन अटैची खोल कर आलेख की जेरौक्स प्रति निकाली और युवती को थमाते हुए उस की पूरी हथेली को अपनी हथेलियों में भर लिया, ‘‘इस आलेख में आप जैसी युवतियों की समस्याओं का ही तो जिक्र किया है मैं ने. नारी स्वावलंबी बने, घर की चारदीवारी से मुक्त हो कर खुले में सांस ले, समाज के रचनात्मक कार्यों से जुड़े. जोखिम तो पगपग पर आएंगे ही. जोखिम से आप युवतियों की रक्षा समाज करेगा. समाज यानी हम सब. यानी मैं, ये नेताजी, ये भाईसाहब, ये… और ये…’’

प्रोफैसर अपनी धुन में पास बैठे यात्रियों की ओर बारीबारी से संकेत कर ही रहे थे कि नजरें घोर आश्चर्य से सराबोर हो कर पास बैठी शकीला पर जा टिकीं.

सांवला रंग, काजल की गहरी रेखा. लगातार पान चबाने से कत्थई हुए होंठ. पाउडर की अलसायी परत. कंधे से झूलती पुरानी ढोलक. अरे, भद्र लोगों की जमात में यह नमूना कहां से घुस आया भाई. अभी तक किसी की नजरें गईं कैसे नहीं इस अजूबे पर.

प्रोफैसर की नजरों की डोर थाम कर अन्य यात्री भी शकीला की ओर देखने लगे.

‘‘तू इस डब्बे में कैसे घुस आई रे?’’ प्रोफैसर फनफना उठे. इसी बीच उस युवती ने कसमसा कर अपनी हथेली प्रोफैसर के पंजे से छुड़ा ली.

‘‘हिजड़े न तीन में होते हैं न तेरह में, हुजूर. सभी जगह बैठने की छूट मिली हुई है इन्हें,’’ पास बैठे पंडितजी ने टिप्पणी की तो जोर का ठहाका फूट पड़ा.

‘‘ऐ जी,’’ शकीला विचलित और उत्तेजित हुए बिना चिरपरिचित अदा से ताली ठोंकती हुई हंस पड़ी, ‘‘अब हम हिजड़ा नहीं, किन्नर कहे जाते हैं, हां.’’

‘‘किन्नर कहे जाने से जात बदल जाएगी, रे?’’ नेताजी ने हथेली पर खैनी रखते हुए व्यंग्य कसा.

‘‘जात न सही, रुतबा तो बदला ही है,’’ शकीला का चेहरा एक अजीब सी ठसक से चमक उठा.

‘‘असल में जब से तुम लोगों की मौसियां विधायक बनी हैं, दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ कर नाचने लगा है, हंह,’’ नेताजी के भीतर एक तीव्र कचोट फुफकारने लगी. उन्हें राजनीति के अखाड़े में कूदे 25 साल हो गए थे. क्याक्या सपने देखे थे. विधायक का गुलीवर कद, लालबत्ती वाली कार, स्पैशल सुरक्षा गार्ड, भीड़ की जयजयकार. पर हाय, 3-3 बार प्रयास के बावजूद विधानसभा तो दूर, स्थानीय नगरनिगम का चुनाव तक नहीं जीत पाए और ये नचनिया सब विधायक बनने लगे. हाय रे विधाता.

‘‘बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप,’’ प्रोफैसर के लहजे में क्षोभ घुला हुआ था, ‘‘क्या होता जा रहा है इस देश की जनता को? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का क्या गौरवपूर्ण समरसता का इतिहास रहा है हमारा. पहले राजा प्रताप, शिवाजी, भामाशाह, कौटिल्य आदि. उस के बाद गांधी, नेहरू, अंबेडकर, शास्त्री वगैरह. देश पूरी तरह सुरक्षित था इन के हाथों में. पर अब जनता की सनक तो देखिए, हिजड़ों के हाथों में शासन की लगाम देने लगी है.’’

‘‘अब छोड़िए भी ये बातें,’’ शकीला खीखी कर के हंसी. शकीला के वक्ष से छींटदार नायलोन की पारदर्शी साड़ी का आंचल ढलक गया था.

बातों का सिलसिला अभी चल ही रहा था कि टे्रन की सीटी की कर्कश आवाज फिजा में गूंज गई. फिर टे्रन के चक्कों ने गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिया. ठीक उसी समय 3 युवक भी डब्बे में चढ़ आए. कसीकसी जींस, अजीबोगरीब स्लोगन अंकित टीशर्ट, हाथों में एकाध कौपी या फाइल. एकदूसरे को धकियाते, हल्ला मचाते तीनों डब्बे के उसी हिस्से में आ गए जहां प्रोफैसर और नेताजी बैठे हुए थे. युवती पर नजर जाते ही उन के पांव थम गए और बाछें खिल गईं.

‘‘अतुल, क्यों न यहीं बैठा जाए?’’ पिंटू चहक उठा. फिर युवती से मुखातिब हो कर पूछ बैठा, ‘‘हैलो, आप स्टुडैंट हैं न? किस कालेज में हैं?’’

सवाल इतने आकस्मिक रूप में आया था कि युवती को सोचने का तनिक भी मौका नहीं मिला और वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘जी हां, बीसी कालेज में फर्स्ट ईयर साइंस की स्टुडैंट.’’

‘‘ओह, वंडरफुल,’’ यादव ने उड़ती नजरों से बैठे हुए लोगों का मुआयना किया, ‘‘ई बुढ़वन सब देश का कबाड़ा कर के छोड़ेंगे. हर जगह पर, चाहे सत्ता हो या साहित्य, ई लोग कुंडली मार कर बैठ गए हैं और हिलने का नाम ही नहीं ले रहे, हंह.’’

‘‘भाईसाहब, आप का परिचय?’’ अतुल प्रोफैसर से संबोधित था.

प्रोफैसर भड़क उठे, ‘‘आप छात्र हैं न? मुझे नहीं पहचान रहे? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण पर उसी परचे का प्रख्यात लेखक जिस की चर्चा आज हर बुद्धिजीवी और हर छात्र की जबान पर है.’’

‘‘प्रोफैसर हैं? चलिए, एगो पहेली बुझिए तो…’’ पिंटू बोली बदलबदल कर बोलने में माहिर था, खालिस बिहारी अंदाज में प्रोफैसर की ओर मुंह कर के हुंकार भर उठा, ‘‘एगो है जो रोटी बेलता है, दूसरा एगो है जो रोटी खाता है. एगो तीसरा अऊर है ससुर जो न बेलता है, न खाता है, बल्कि रोटी से कबड्डी खेलता है. ई तीसरका को कोई भी नय जानत. हमारी संसद भी नहीं. आप जानत हैं?’’

प्रोफैसर चुप. अन्य यात्रीगण भी चुप. युवती मन ही मन खुश हुई. प्रश्न क्लासरूम में किया गया होता तो वह हाथ अवश्य उठा देती. यादव दोनों ओर की बर्थ के भीतर तक चला आया और खिड़की की ओर इशारा कर के प्रोफैसर से बोला, ‘‘यहां बैठने दीजिए तो.’’

प्रोफैसर इन लोगों के व्यंग्य से खिन्न तो थे ही, चीखते हुए फट पड़े, ‘‘कपार पर बैठोगे? जगह दिख रही है कहीं? और ये बोली कैसी है?’’

यादव ने लैक्चर खत्म होने का इंतजार नहीं किया. वह प्रोफैसर को ठेलठाल कर ऐन युवती के सामने बैठ ही गया.

पिंटू बोली में ‘खंडाला’ स्टाइल का बघार डालते हुए नेताजी की ओर मुड़ा, ‘‘ऐ, क्या बोलता तू? बड़े भाई को यहां बैठने को मांगता, क्या? बोले तो थोड़ा सरकने को,’’ पिंटू की आवाज में कड़क ही ऐसी थी कि नेताजी अंदर ही अंदर सकपका गए. लेकिन फिर सोचा, इस तरह भय खाने से काम नहीं चलेगा. यही तो मौका है युवती पर रौब गांठने का.

‘‘तुम सब स्टुडैंट हो या मवाली? जानते हो हम कौन हैं? धनबाद विधानसभा क्षेत्र के भावी विधायक. विधायक से इसी तरह बतियाया जाता है?’’

‘‘विधायक हो या एमपी, स्टुडैंट फर्स्ट,’’ अतुल के बदन पर कपड़े नए स्टाइल के थे. कीमती भी. संपन्नता के रौब से चमचमा रहा था चेहरा. पिंटू ने उसे ‘बडे़ भाई’ का संबोधन यों ही नहीं दिया था. वह इन दोनों का नायक था. अतुल ने आगे बढ़ कर नेताजी की बगलों में हाथ डाला और उन्हें खींच कर खड़ा करते हुए खाली जगह पर धम्म से बैठ गया. नेताजी ‘अरे अरे’ करते ही रह गए. अंदर ही अंदर सभी लोग आतंकित हो उठे थे. ये लड़के ढीठ ही नहीं बदतमीज व उच्छृंखल भी हैं. इन से पंगा लेना बेकार है. शकीला स्वयं ही अपनी सीट से खड़ी हो गई और पिंटू से बोली, ‘‘अरे भाई, प्यार से बोलने का था न कि हम कालेज वाले एकसाथ बैठेंगे. आप यहां बैठो, मैं उधर बैठ जाती.’’

फिर जैसे सबकुछ सामान्य हो गया. तीनों युवती के इर्दगिर्द बैठने में सफल हो गए. गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही.

‘‘आप का नाम जान सकते हैं? कहां रहती हैं आप?’’ थोड़ी देर बाद अतुल ने युवती को भरपूर नजरों से निहारते हुए सवाल किया. उस का लहजा विनम्रता की चाशनी से सराबोर था.

‘‘जी शीला मुर्मू. काशीपुर डंगाल में रहती हूं. धनबाद से 60 किलोमीटर दूर.’’

‘‘वाह,’’ तीनों लड़के चौंक पड़े.

‘‘कोई उपाय भी तो नहीं. हमारे कसबे में इंटर तक की ही पढ़ाई है.’’

‘‘बहुत खूब. मोगैम्बो खुश हुआ,’’ पिंटू ने नई बोली का नमूना पेश किया.

एक क्षण का मौन.

‘‘जाहिर है, कोई पसंदीदा सपना भी जरूर होगा ही?’’ अतुल उस की आंखों में भीतर तक झांक रहा था, ‘‘ऐसा सपना जो अकसर रात की नींदों में आ कर परेशान करता रहता हो.’’

रिश्ता : कैसे आई सूनी बगिया में बहार -भाग 3

रोहन ने अपनी मां से पूछा, ‘‘मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर अब जो आप कह रही हैं, उस के पीछे कारण क्या है, मां?’’ ‘‘मैं इन को दुखी और चिंतित नहीं देखना चाहती हूं,’’ मीनाक्षी ने अशोकजी की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया.

‘‘आप की नजरों में यह कैसे इनसान हैं?’’ ‘‘बडे़ नेक…बडे़ अच्छे.’’

‘‘गुड, वेरी गुड,’’ ऐसा जवाब दे कर रोहन ने अर्थपूर्ण नजरों से मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘इन बदली परिस्थितियों को देखते हुए हमें सोचविचार के लिए एक बार फिर बाहर चलना चाहिए.’’ ‘‘चलो,’’ अलका फौरन उठ कर दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

‘‘कहां जा रहे हो दोनों?’’ मीनाक्षी और अशोकजी ने चौंक कर साथसाथ सवाल किए. ‘‘करीब आधे घंटे में आ कर बताते हैं,’’ रोहन ने जवाब दिया और अलका का हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकल गया.

कुछ पलों की खामोशी के बाद अशोकजी ने टिप्पणी की, ‘‘इन दोनों का व्यवहार मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’ ‘‘अगर दोनों बच्चे शादी के लिए तैयार हो गए तो मजा आ जाएगा,’’ मीनाक्षी की आंखों में आशा के दीप जगमगा उठे.

अलका और रोहन करीब 45 मिनट के बाद जब लौटे तो सोमनाथ और गायत्री उन के साथ थे. इन चारों की आंखों में छाए खुशी व उत्तेजना के भावों को पढ़ कर मीनाक्षी और अशोकजी उलझन में पड़ गए. ‘‘आप दोनों का उचित मार्गदर्शन करने व हौसला बढ़ाने के लिए ही हम इन्हें साथ लाए हैं,’’ रोहन ने रहस्यमयी अंदाज में मुसकराते हुए मीनाक्षी व अशोकजी की आंखों में झलक रहे सवाल का जवाब दिया.

सोमनाथ अपने दोस्त की बगल में उस का हाथ पकड़ कर बैठ गए. गायत्री अपनी सहेली के पीछे उस के कंधों पर हाथ रख कर खड़ी हो गई.

रोहन ने बातचीत शुरू की, ‘‘अलका के पापा का दिल न दुखे इस के लिए मां ने मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर मुझ से यह वादा मांगा है कि मैं अलका को कभी तंग नहीं करूंगा. लेकिन मैं अभी भी इस घर से रिश्ता जोड़ना चाहता हूूं.’’ मीनाक्षी या अशोकजी के कुछ बोलने से पहले ही अलका ने कहा, ‘‘मैं रोहन से प्रेम नहीं करती पर फिर भी दिल से चाहती हूं कि हमारे बीच मजबूत रिश्ता कायम हो.’’

‘‘तुम शादी से मना करोगी तो ऐसा कैसे संभव होगा?’’ अशोकजी ने उलझन भरे लहजे में पूछा. ‘‘एक तरीका है, पापा.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’ ‘‘वह मैं बताता हूं,’’ सोमनाथजी ने खुलासा करना शुरू किया, ‘‘मुझे बताया गया है कि ़तुम मीनाक्षीजी से इतने प्रभावित हो कि अलका से इस घर की बहू बनने की इच्छा जाहिर की है तुम ने.’’

‘‘मीनाक्षीजी बहुत अच्छी और सहृदय महिला हैं और अलका…’’ ‘‘मीनाक्षीजी, आप की मेरे दोस्त के बारे में क्या राय बनी है?’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त को टोक कर चुप किया और मीनाक्षी से सवाल पूछा.

‘‘इन का दिल बहुत भावुक है और मैं नहीं चाहती कि इन का स्वास्थ्य रोहन की किसी हरकत के कारण बिगड़े. तभी मैं ने अपने बेटे से कहा कि अलका अगर शादी के लिए मना करती है तो…’’ ‘‘यानी कि आप दोनों एकदूसरे को अच्छा इनसान मानते हैं और यही बात आधार बनेगी दोनों परिवारों के बीच मजबूत रिश्ता कायम करने में.’’

‘‘मतलब यह कि जीवनसाथी अलका और मैं नहीं बल्कि आप दोनों बनो,’’ रोहन ने साफ शब्दों में सारी बात कह दी. ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’ अशोकजी चौंक पड़े.

‘‘यह क्या कह रहा है तू?’’ मीनाक्षी घबरा उठीं. ‘‘रोहन और मेरी यही इच्छा रही है,’’ अलका बोली, ‘‘आंटी और पापा को मिलाने के लिए हमें कुछ नाटक करना पड़ा. हम दोनों ही विदेश जाने के इच्छुक हैं. मेरे पापा की देखभाल की जिम्मेदारी आप संभालिए, प्लीज.’’

‘‘अंकल, विदेश में मैं अलका का खयाल रखूंगा और आप यहां मां का सहारा बन कर हमें चिंता से मुक्ति दिलाइए.’’ ‘‘लेकिन…’’ अशोकजी की समझ में नहीं आया कि आगे क्या कहें और मीनाक्षी भी आगे एक शब्द नहीं बोल पाईं.

‘‘प्लीज, अंकल,’’ रोहन ने अशोकजी से विनती की. ‘‘आंटी, प्लीज, मुझे वह खुशी भरा अवसर दीजिए कि मैं आप को ‘मम्मी’ बुला सकूं,’’ अलका ने मीनाक्षी के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर विनती की.

‘‘हां कह दे मेरे यार,’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त पर दबाव डाला, ‘‘अपनी अकेलेपन की पीड़ा तू ने कई बार मेरे साथ बांटी है. अच्छे जीवनसाथी के प्रेम व सहारे की जरूरत तो उम्र के इसी मुकाम पर ज्यादा महसूस होती है जहां तुम हो. इस रिश्ते को हां कह कर बच्चों को चिंतामुक्त कर इन्हें पंख फैला कर ऊंचे आकाश में उड़ने को स्वतंत्र कर मेरे भाई.’’

गायत्री ने अपनी सहेली को समझाया, ‘‘मीनू, हम स्त्रियों को जिंदगी के हर मोड़ पर पुरुष का सहारा किसी न किसी रूप में लेना ही पड़ता है. बेटा विदेश चला जाएगा तो तू कितनी अकेली पड़ जाएगी, जरा सोच. तुझे ये पसंद हों तो फौरन हां कह दे. मुझे इन्हें ‘जीजाजी’ बुला कर खुशी होगी.’’ ‘‘चुप कर,’’ मीनाक्षी के गाल शर्म से गुलाबी हो गए तो सब को उन का जवाब मालूम पड़ गया.

अशोकजी पक्के निर्णय पर पहुंचने की चमक आंखों में ला कर बोले, ‘‘मैं इस पल अपने दिल में जो खुशी व गुदगुदी महसूस कर रहा हूं, सिर्फ उसी के आधार पर मैं इस रिश्ते के लिए हां कह रहा हूं.’’ ‘‘थैंक यू, अंकल,’’ रोहन ने हाथ जोड़ कर उन्हें धन्यवाद दिया.

‘‘थैंक यू, मेरी नई मम्मी,’’ अलका, मीनाक्षी के गले से लग गई. सोमनाथ और गायत्री ने तालियां बजा कर इस रिश्ते के मंगलमय होने की प्रार्थना मन ही मन की.

‘‘मेरी छोटी बहना, बधाई हो. हमारी योजना इतनी जल्दी और इस अंदाज में सफल होगी, मैं ने सोचा भी न था,’’ रोहन ने शरारती अंदाज में अलका की चोटी खींची तो मीनाक्षी और अशोकजी एकदूसरे की तरफ देख बडे़ प्रसन्न थे.

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