सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम- भाग 1

मां की मौत के बाद ऋजुता ही अनुष्का का सब से बड़ा सहारा थी. अनुष्का को क्या करना है, यह ऋजुता ही तय करती थी. वही तय करती थी कि अनुष्का को क्या पहनना है, किस के साथ खेलना है, कब सोना है. दोनों की उम्र में 10 साल का अंतर था. मां की मौत के बाद ऋजुता ने मां की तरह अनुष्का को ही नहीं संभाला, बल्कि घर की पूरी जिम्मेदारी वही संभालती थी.

ऋजुआ तो मनु का भी उसी तरह खयाल रखना चाहती थी, पर मनु उम्र में मात्र उस से ढाई साल छोटा था. इसलिए वह ऋजुता को अभिभावक के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं था. तमाम बातों में उन दोनों में मतभेद रहता था. कई बार तो उन का झगड़ा मौखिक न रह कर हिंसक हो उठता था. तब अंगूठा चूसने की आदत छोड़ चुकी अनुष्का तुरंत अंगूठा मुंह में डाल लेती. कोने में खड़ी हो कर वह देखती कि भाई और बहन में कौन जीतता है.

कुछ भी हो, तीनों भाईबहनों में पटती खूब थी. बड़ों की दुनिया से अलग रह सकें, उन्होंने अपने आसपास इस तरह की एक दीवार खड़ी कर ली थी, जहां निश्चित रूप से ऋजुता का राज चलता था. मनु कभीकभार विरोध करता तो मात्र अपना अस्तित्व भर जाहिर करने के लिए.

अनुष्का की कोई ऐसी इच्छा नहीं होती थी. वह बड़ी बहन के संरक्षण में एक तरह का सुख और सुरक्षा की भावना का अनुभव करती थी. वह सुंदर थी, इसलिए ऋजुता को बहुत प्यारी लगती थी. यह बात वह कह भी देती थी. अनुष्का की अपनी कोई इच्छाअनिच्छा होगी, ऋजुता को कभी इस बात का खयाल नहीं आया.

अगर अविनाश को दूसरी शादी न करनी होती तो घर में सबकुछ इसी तरह चलता रहता. घर में दादी मां यानी अविनाश की मां थीं ही, इसलिए बच्चों को मां की कमी उतनी नहीं खल रही थी. घर के संचालन के लिए या बच्चों की देखभाल के लिए अविनाश का दूसरी शादी करना जरूरी नहीं रह गया था.

इस के बावजूद उस ने घर में बिना किसी को बताए दूसरी शादी कर ली. अचानक एक दिन शाम को एक महिला के साथ घर आ कर उस ने कहा, ‘‘तुम लोगों की नई मम्मी.’’

उस महिला को देख कर बच्चे स्तब्ध रह गए. वे कुछ कहते या इस नई परिस्थिति को समझ पाते, उस के पहले ही अविनाश ने मां की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘संविधा, यह मेरी मां है.’’

बूढ़ी मां ने सिर झुका कर पैर छू रही संविधा के सिर पर हाथ तो रखा, पर वह कहे बिना नहीं रह सकीं. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इस तरह अचानक… कभी सांस तक नहीं ली, चर्चा की होती तो 2-4 सगेसंबंधी बुला लेती.’’

‘‘बेकार का झंझट करने की क्या जरूरत है मां.’’ अविनाश ने लापरवाही से कहा.

‘‘फिर भी कम से कम मुझ से तो बताना चाहिए था.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ अविनाश ने उसी तरह लापरवाही से कहा, ‘‘नोटिस तो पहले ही दे दी थी. आज दोपहर को दस्तखत कर दिए. संविधा का यहां कोई सगासंबंधी नहीं है. एक भाई है, वह दुबई में रहता है. रात को फोन कर के बता देंगे. बेटा ऋजुता, मम्मी को अपना घर तो दिखाओ.’’

उस समय क्या करना चाहिए, यह ऋजुता तुरंत तय नहीं कर सकी. इसलिए उस समय अविनाश की जीत हुई. घर में जैसे कुछ खास न हुआ हो, अखबार ले कर सोफे पर बैठते हुए उस ने मां से पूछा, ‘‘मां, किसी का फोन या डाकवाक तो नहीं आई, कोई मिलनेजुलने वाला तो नहीं आया?’’

संविधा जरा भी नरवस नहीं थी. अविनाश ने जब उस से कहा कि हमारी शादी हम दोनों का व्यक्तिगत मामला है. इस से किसी का कोई कुछ लेनादेना नहीं है. तब संविधा उस की निडरता पर आश्चर्यचकित हुई थी. उस ने अविनाश से शादी के लिए तुरंत हामी भर दी थी. वैसे भी अविनाश ने उस से कुछ नहीं छिपाया था. उस ने पहले ही अपने बच्चों और मां के बारे में बता दिया था. पर इस तरह बिना किसी तैयारी के नए घर में, नए लोगों के बीच…

‘‘चलो,’’ ऋजुता ने बेरुखी से कहा.

संविधा उस के साथ चल पड़ी. उसे पता था कि विधुर के साथ शादी करने पर रिसैप्शन या हनीमून पर नहीं जाया जाता, पर घर में तो स्वागत होगा ही. जबकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था. अविनाश निश्चिंत हो कर अखबार पढ़ने लगा था. वहीं यह 17-18 साल की लड़की घर की मालकिन की तरह एक अनचाहे मेहमान को घर दिखा रही थी. घर के सब से ठीकठाक कमरे में पहुंच कर ऋजुता ने कहा, ‘‘यह पापा का कमरा है.’’

‘‘यहां थोड़ा बैठ जाऊं?’’ संविधा ने कहा.

‘‘आप जानो, आप का सामान कहां है?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बाद में ले आऊंगी. अभी तो ऐसे ही…’’

‘‘खैर, आप जानो.’’ कह कर ऋजुता चली गई.

पूरा घर अंधकार से घिर गया तो ऋजुता ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘मनु, तू जाग रहा है?’’

‘‘हां,’’ मनु ने कहा, ‘‘दीदी, अब हमें क्या करना चाहिए?’’

‘‘हमें भाग जाना चाहिए.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘कहां, पर अनुष्का तो अभी बहुत छोटी है. यह बेचारी तो कुछ समझी भी नहीं.’’

‘‘सब समझ रही हूं,’’ अनुष्का ने धीरे से कहा.

‘‘अरे तू जाग गई?’’ हैरानी से ऋजुता ने पूछा.

‘‘मैं अभी सोई ही कहां थी,’’ अनुष्का ने कहा और उठ कर ऋजुता के पास आ गई. ऋजुता उस की पीठ पर हाथ फेरने लगी. हाथ फेरते हुए अनजाने में ही उस की आंखों में आंसू आ गए. भर्राई आवाज में उस ने कहा, ‘‘अनुष्का, तू मेरी प्यारी बहन है न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘देख, वह जो आई है न, उसे मम्मी नहीं कहना. उस से बात भी नहीं करनी. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘वह अपनी मम्मी थोड़े ही है. वह कोई अच्छी औरत नहीं है. वह हम सभी को धोखा दे कर अपने घर में घुस आई है.’’

‘‘चलो, उसे मार कर घर से भगा देते हैं,’’ मनु ने कहा.

‘‘मनु, तुझे अक्ल है या नहीं? अगर हम उसे मारेंगे तो पापा हम से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘भले न करें बात, पर हम उसे मारेंगे.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते मनु, पापा उसे ब्याह कर लाए हैं.’’

‘‘तो फिर क्या करें?’’ मनु ने कहा, ‘‘मुझे वह जरा भी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘मुझे भी. अनुष्का तुझे?’’

मंदिर: क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस- भाग 1

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

सम्मान: क्यों आसानी से नही मिलता सम्मान- भाग 2

ऐसे कई खर्च उन्होंने गिनाते हुए कहा, ‘‘संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए हम सब से सहयोग लेते हैं. चंदा करते हैं. ऐसे में लेखकों का दायित्व भी है कि वे अपने ही सम्मान के लिए कुछ तो खर्च करें. आखिर नाम तो लेखकों का ही होता है. हमारी जेब से भी बहुत खर्च होता है. लेकिन साहित्य सेवा का बीड़ा उठाया है, तो कर रहे हैं साहित्य की सेवा. आप जल्दी करिए. हमें गर्व होगा आप को सम्मानित करने में. भविष्य में योजना है कि लेखकों को नकद पुरस्कार भी दिया जाए. आनेजाने का खर्च भी. अब आप से इतने सहयोग की तो अपेक्षा कर ही सकते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, बाकी तो सब भेज दूंगा लेकिन जिसे आप प्रविष्टि शुल्क या रजिस्ट्रेशन शुल्क कहते हैं वह भेज पाना संभव नहीं है.’’

उधर से कुछ नाराजगीभरी आवाज आई, ‘‘संस्था का नियम है कि बिना शुल्क के सम्मान पर विचार नहीं किया जाएगा. बाकी भले ही कुछ न भेजें लेकिन शुल्क जरूर भेजें. आजकल तो बड़ीबड़ी पत्रिकाएं छापने से पहले शर्त रखती हैं कि पत्रिका की वार्षिक, आजीवन सदस्यता लेने वालों की रचनाएं ही छापी जाएंगी. फिर, हमारी संस्था तो छोटी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘विचार कर के बताता हूं.’’

उन्होंने कहा, ‘‘जल्दी करिए.’’

मैं ने दूसरे पत्र को पढ़ कर उस के अंत में दिए फोन नंबर पर फोन लगाया.

मैं ने कहा, ‘‘महोदय, आप ने मुझे कविता पर सम्मान देने के लिए आमंत्रणपत्र भेजा है. लेकिन मैं तो कविताएं लिखता ही नहीं हूं.’’

‘‘अरे, तो साहब लिख डालिए. न लिख सकें तो जो लिखा है उसी पर सम्मान दे देंगे. फोटो, परिचय और 2,500 रुपए का मनीऔर्डर भेज दीजिए. जल्दी करिए.’’

ऐसा लगा जैसे किसी कंपनी का लुभावना औफर निकला हो. मैं ने प्रविष्टि/सहयोग/रजिस्ट्रेशन शुल्क के विषय में पूछा तो पहले सेवा करने वाले की तरह ही उत्तर मिला, ‘‘बिना शुल्क के कुछ नहीं. पहली और अनिवार्य शर्त है शुल्क.’’

समझ में तो सब आ रहा था लेकिन मन में सम्मान की इच्छा थी, तो सोचा, एक बार चल कर देखा जाए और मैं ने प्रविष्टि शुल्क सहित सबकुछ भेज दिया. कुछ समय बाद निमंत्रणपत्र आया कि आप को सम्मान 28 अगस्त, 2019 समय 2 बजे रामप्रसाद शासकीय विद्यालय में दिया जाएगा. हम अपने साथ 2 जोड़ी कपड़े ले कर ट्रेन में चढ़े. समयपूर्व रिजर्वेशन करवा लिया था. 500 किलोमीटर के लंबे सफर की थकान के बाद एक होटल पहुंचे. 1,000 रुपए एक दिन के हिसाब से होटल में कमरा मिला. 100 रुपए प्लेट के हिसाब से भोजन किया. फिर रिकशा कर के नियत समय पर कार्यक्रम में सम्मानित होने की लालसा लिए पहुंचे. वहां अपना परिचय दिया. संस्था के सचिव ने हाथ मिला कर बधाई देते हुए कहा, ‘‘आप बैठिए.’’

समारोह कब शुरू होगा?’’

‘‘मुख्य अतिथि के आने पर. वे ठहरे बड़े आदमी. आराम से आएंगे. तब तक बैनर, पोस्टर लग जाएंगे. आप चाहें तो थोड़ी मदद कर सकते हैं.’’

मैं ने हामी भर दी. उन्होंने मुझे मंच पर मुख्य अतिथियों की कुरसी लगाने में लगा दिया. धीरेधीरे लोग आते रहे. मैं अपना काम समाप्त कर के दर्शक दीर्घा में पड़ी कुरसी पर बैठ गया. छोटा सा हौल भर गया. हौल में 50 लोगों के बैठने की जगह थी. कैमरामैन भी आ गया.

मंच पर 8-10 लोगों को नाम ले कर बिठाया गया जिन में कोई शिक्षा विभाग का कुलपति, अखबार का प्रधान संपादक, राजनीति से जुड़े हुए स्थानीय नेता थे. एक वयोवृद्ध लेखक जिन का नाम तभी पता चला कि ये लेखक हैं, इस शहर के बहुत बड़े लेखक. एकदो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपने दिवंगत मातापिता के नाम पर पुरस्कार रखे थे.

सारा मंच मुख्य अतिथियों से भरा हुआ था और दर्शक दीर्घा में मेरे जैसे लेखक बैठे हुए थे.

जनता हम ही थे. दर्शक हम लेखक लोग ही थे. पढ़ने वाला, सुनने वाला कोई नहीं था. सब से पहले मुख्य अतिथियों महोदय ने दीप प्रज्ज्वलित किए. इसी बीच कुछ कन्याओं ने अपने गीतों से सब को मंत्रमुग्ध कर दिया. इस के बाद संस्था अध्यक्ष, जोकि मंच संचालक भी थे, ने एक घंटे तक संस्था के कार्यों पर, सेवा पर उल्लेखनीय प्रकाश डाला.

दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाते प्रतीक्षा करते रहे कि कब उन्हें सम्मान मिलेगा. लेकिन अभी तो कार्यक्रम की शुरुआत थी. इस के बाद अपनेअपने क्षेत्र के आमंत्रित 10 मुख्य अतिथियों को फूलमाला पहना कर उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया. अपनेअपने क्षेत्र के मुख्य अतिथि अपनेअपने क्षेत्र की बातें बोलते रहे. बोलते रहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने विरोधी लेखकों, दूसरी विचारधाराओं के लोगों, अपने शत्रुओं को जीभर कर कोसते रहे. अपने मन की भड़ास निकालते रहे.

संस्था के अध्यक्ष ने तमाम साहित्यिक संस्थाओं को जीभर कर कोसा. सब को उन्होंने फर्जी, झूठा और ठग करार दिया. भारत सरकार, राज्य सरकार और तमाम बड़े संगठनों को कोसा जिन्होंने उन की संस्था को आर्थिक सहायता देना मंजूर नहीं किया था. उन के आमंत्रण पर जो लोग नहीं आए थे और सहायता देने में असमर्थता जाहिर की थी, उन्हें भी मंच से आड़ेहाथों लिया. तमाम वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों को भरभर कर कोसा. क्योंकि मंच संचालक उर्फ संस्था अध्यक्ष स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय लेखक कह चुके थे और उन की रचनाओं को सभी बड़ीछोटी पत्रिकाएं अस्वीकृत कर चुकी थीं. उन्होंने उन सब को साहित्यविरोधी, राष्ट्रविरोधी कहा.

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?- भाग 3

बच्चे छोटे थे तो ठीक था. जो भी खरीद कर लाती थी खुशीखुशी पहन लेते थे. पर बड़े हो जाने पर पहनते वही हैं जो उन्हें पूरी तरह से पसंद हो. मगर शौपिंग के लिए साथ हरगिज नहीं जाएंगे. कई बार खीज कर कह बैठती कि तुम दोनों की जगह अगर 2 बेटियां होतीं मेरी तो वे मेरे साथ शौपिंग के लिए भी जातीं और घर के कामों में भी मेरा हाथ बंटातीं.

सब से अधिक असमंजस और परेशानी वाली स्थिति मेरे लिए तब बन जाती है जब कहीं जाने पर वहां पहुंच कर दूसरेतीसरे दिन पहनने के लिए कपड़े निकाल कर देती हूं और वे यह कह कर पहनने से इनकार कर देते कि यह तो अब टाइट होने लगा है या इस की तो चेन खराब है. तब मेरे पास अपना सिर पीटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. कई बार तो इस वजह से नई जगह में मुझे टेलर और कपड़ों की दुकान तक के चक्कर लगाने पड़ गए थे.

मैं ने मन ही मन तय किया कि मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिस से इन्हें मेरी स्थिति का अंदाज लगे और ये अपनी जिम्मेदारियां समझने लगें. मैं ने मन ही मन प्लान बनाया और फिर उस पर अमल करना शुरू कर दिया.

मुझे पता था कि इकलौते साले और इकलौते मामा की शादी के लिए अपूर्व और बच्चे भी बहुत उत्साहित हैं, साथ ही उन्हें मेरे उत्साह का भी अंदाजा है, बस इसी बात को हथियार बना कर मैं अपने प्लान पर अमल करने में जुट गई.

आयूष की शादी 1 महीने के बाद होनी तय हुई थी, इसलिए मुझे तैयारी ज्यादा करनी थी और समय कम था.

मैं ने तय यह किया कि मैं अपूर्व के औफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद बाजार जाऊंगी पर मैं शादी के लिए कोई तैयारी कर रही हूं, इस की भनक तीनों को नहीं लगने दूंगी. खरीदे सारे कपड़े और बाकी सारा सामान मैं लाने के बाद अलमारियों में रख देती. सब के सामने सामान्य रहने का नाटक करती. शादी के प्रति न ही सब के सामने अपनी खुशी और उत्साह को प्रकट करती और न ही शादी की कोई चर्चा उन के सामने करती.

10-15 दिन तो सभी अपनेअपने काम में मशगूल रहे. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मैं शादी के मसले पर शांत बैठी हूं. फिर एक दिन डिनर पर अपूर्व ने जब शादी का जिक्र छेड़ा तो मेरी ठंडी प्रतिक्रिया ने सब को चौकन्ना कर दिया. मैं ने कनखियों से देखा कि तीनों की सवालियां नजरें एकदूसरे से टकराईं.

‘‘क्या बात है बबीता आयूष की शादी के नाम पर तुम इतनी चुपचाप बैठी हो… अभी तक तुम ने कोई तैयारी भी शुरू नहीं की… सब कुछ ठीक तो है न?’’

‘‘हां ठीक है,’’ मैं ने जानबूझ कर संक्षिप्त जवाब दिया पर यह जवाब उन के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था.

‘‘कोई परेशानी है?’’ मेरी खामोशी से अपूर्व विचलित नजर आए.

तीर निशाने पर लगता देख मैं अपने प्लान की कामयाबी के प्रति आश्वस्त होते हुए गंभीर मुद्रा बना कर बोली, ‘‘मैं नहीं जा रही शादी में.’’

‘‘क्यों? क्या हो गया?’’ तीनों बुरी तरह चौंके.

‘‘भूल गए मेरी भीष्म प्रतिज्ञा?’’ मैं ने ऋतिक की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘अरे मम्मा, मामा की शादी हो जाने दो, फिर ले लेना प्रतिज्ञा,’’ नटखट ऋतिक अपनी शैतानी से बाज नहीं आ रहा था. पर मैं ने अपनी हंसी पर पूर्ण नियंत्रण रखा था.

‘‘मैं सीरियस हूं. मेरी बात को कौमेडी बनाने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर मैं जल्दीजल्दी अपना खाना खत्म कर प्लेट सिंक में रख बैडरूम में चली गई.

‘‘पापा, लगता है मम्मा नाराज हैं हम लोगों से,’’ गौरव की फुसफुसाती आवाज सुनाई दी मुझे.

‘‘तुम लोग चिंता न करो, अगर वह नाराज होगी तो मैं संभाल लूंगा,’’ अपूर्व ने बच्चों से कहा.

दूसरे ही दिन दोपहर में औफिस से अपूर्व का फोन आया. मेरे हैलो बोलते ही कहने लगे, ‘‘बबीता, आज सोच रहा हूं शाम को घर जल्दी आ जाऊं. आयूष की शादी की शौपिंग कर लेते हैं. मेरी भी सारी पैंटशर्ट्स पुरानी हो गई हैं.

2-4 जोड़ी कपड़े नए ही ले लेता हूं और तुम भी अपने लिए नईनई साडि़यां ले लो. आखिर इकलौते भाई की शादी है, पुरानी साडि़यां थोड़े ही जंचेंगी तुम पर.’’

बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी पर काबू रख पाई थी मैं अपूर्व से बात करते समय. सोचने लगी जब तक प्यार से मिन्नतें करती थी कि अपनेअपने कपड़ों की खरीदारी में तो कम से कम मेरा साथ दिया करो तुम सब तब तक किसी के ऊपर मेरी बात का असर नहीं हुआ पर जरा सी टेढ़ी हुई नहीं कि एक झटके में जिम्मेदारी का एहसास हो गया जनाब को.

उधर कालेज से आते ही गौरव ने कहा, ‘‘मम्मा, कल रात मैं ने नैट पर सर्च किया. औनलाइन बड़ी अच्छीअच्छी शर्ट्स मिल रही हैं. सोच रहा हूं मामा की शादी के लिए इस बार औनलाइन ही कपड़े मंगवा लूं. ख्वाहमख्वाह ही तुम्हें हम लोगों के कपड़ों के लिए बाजार के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.’’

मेरा तीर निशाने पर लगा था. अपूर्व और बच्चे दोनों ही अपनेअपने कपड़ों के इंतजाम में जुट गए तो मुझे भी लगा कि अपना रुख थोड़ा ढीला कर देना चाहिए.

एक दिन जब अपूर्व ने सूटकेस निकाल कर उस में कपड़े डालते हुए कपड़े पैक करने की पहल की तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं हंसते हुए बोली, ‘‘अब बस रहने दो. यह सब काम तुम्हारे वश का नहीं है. तुम लोगों ने अपने कपड़े अपनी पसंद के खरीद लिए और यह तय कर लिया कि किस अवसर पर क्या पहनोगे यही मेरे लिए बहुत है. कहीं जाने की तैयारी के लिए इस से अधिक की अपेक्षा नहीं करती मैं तुम लोगों से.’’

‘सच लोहा जब गरम हो तब वार करने पर वस्तु को मनपसंद आकार दिया जा सकता है.

कहने को उसके पास सब कुछ है अच्छी नौकरी, दिल्ली जैसे शहर में अपना घर, एक लाइफ पार्टनर, लेकिन फिर भी वह अकेली है पास बैठे पति से बात करने के बजाय वह सोशल साइट्स पर ऐसा कोई ढूँढती रहती है जिससे अपनी फीलिंग्स शेयर कर सके.

सम्मान: क्यों आसानी से नही मिलता सम्मान- भाग 1

यों तो इस तरह के पत्र आते रहते थे और मैं उन्हें अनदेखा करता रहता था, लेकिन इन पत्रों पर गौर करना तब से शुरू कर दिया जब से शहर के एक लेखक ने मित्रमंडली में बताया कि उसे अब तक देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से एक हजार सम्मान मिल चुके हैं. मित्र लोग वाहवाह कर उठे. एक दिन मुझ से पूछा, ‘‘तुम्हें कोई सम्मान नहीं मिला आज तक? तुम भी तो काफी समय से लिख रहे हो.’’ उस समय मैं ने स्वयं को अपमानित सा महसूस किया.

मेरे शहर के इस लेखक मित्र के बारे में अकसर अखबार में छपता रहता था कि शहर का गौरव बढ़ाने वाले लेखक को दिल्ली की एक प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था से एक और पुरस्कार. मैं ने अपने लेखक मित्र से पूछा, ‘‘इन पुरस्कारों की क्या योग्यता होती है?’’

उस ने गर्व से कहा, ‘‘मेहनत, लगन और लेखन. इस में कोई भाईभतीजावाद नहीं चलता. जो अच्छा लेखक होता है उसे सम्मान मिलता ही है.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप की आयु तो मुझ से बहुत कम है. आप ने शायद मेरे बाद ही लिखना शुरू किया है. अब तक कितना लिख चुके हो.’’

उन्होंने नाराज हो कर कहा, ‘‘ कितना लिखा है, यह जरूरी नहीं है और आयु का लेखन से लेनादेना नहीं है. मेरी 2 किताबें छप चुकी हैं. मैं ने 20 कविताएं और 10 के आसपास कहानियां लिखी हैं. लेकिन लेखन इतना शानदार है कि साहित्यिक संस्थाएं स्वयं को रोक नहीं पातीं मुझे सम्मान देने से.’’

मैंने कहा, ‘‘मुझे भी बताइए कहां से कैसे सम्मान मिलते हैं? क्या करना पड़ता है? पुस्तकें कैसे छपती हैं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘आप बड़े स्वार्थी हैं. साहित्य सेवा का काम है. साहित्य से यह उम्मीद मत रखिए कि आप को कुछ मिले. आप को देना ही देना होता है. 2 पुस्तकें मैं ने स्वयं के खर्च पर छपवाई हैं. और सम्मान मिलते हैं योग्यता पर.’’

खैर, दोस्त ने अपना उत्तर दे दिया. मैं ने फिर वे पत्र निकाले जिन्हें मैं अनदेखा करता रहता था. जो पत्र बचे हुए थे, उन्हें पढ़ना शुरू किया. काफी तो मैं फाड़ चुका था, बेकार समझ कर. ठीक वैसे ही जैसे अकसर मोबाइल पर एसएमएस आते रहते हैं कि आप को 10 करोड़ मिलने वाले हैं कंपनी की ओर से. आप इनकम टैक्स और अन्य खर्च के लिए हमारी बैंक की शाखा में फलां नंबर के अकाउंट में 10 हजार रुपए डिपौजिट करवा दें.

बाद में समाचारपत्रों से खबर मिलती है कि इन्हें ठग लिया गया है. इन की रकम डूब चुकी है. बैंक अकाउंट से सारे रुपए निकाल कर इनाम का लालच देने वाले गायब हो चुके हैं. खाता बंद हो चुका है. पुलिस की विवेचना जारी है. ऐसे ठगों से जनता सावधान रहे.

पहले पत्र में लिखा था कि हमारी अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था ने आप को श्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार देने का निर्णय लिया है. यदि आप इच्छुक हों तो कृपया अपना पासपोर्ट साइज कलर फोटो, संपूर्ण परिचयपत्र, साहित्यिक उपलब्धियां और 1,500 रुपए का एमओ या नीचे दिए बैंक खाते में राशि जमा करें. एक फौर्म भी संलग्न था. प्रविष्टि भेजने की अंतिम तारीख निकल चुकी थी. दूसरा पत्र भी इसी तरह था. बस, अंतर राशि की अधिकता और पुरस्कार श्रेष्ठ कविता पर था. साथ में पुस्तक की 2 प्रतियां भेजनी थीं. इस की भी अंतिम तिथि निकल चुकी थी.

सम्मान का लोभ हर लेखक को होता है, थोड़ा सा मुझे भी हुआ. मैं ने पत्र के अंत में दिए नंबरों पर बात करने की सोची. पहले को फोन किया, कहा, ‘‘महोदय, आप की संस्था अच्छा कार्य कर रही है. अंतिम तिथि निकल चुकी है. कुछ प्रश्न भी हैं मन में.’’

उन्होंने उधर से कहा, ‘‘आप भेज दीजिए. अंतिम तिथि की चिंता मत कीजिए. हम आप की प्रविष्टि को एडजस्ट कर लेंगे.’’

मैं ने दूसरा प्रश्न किया, ‘‘जनाब, साहित्यिक उपलब्धियों में क्या लिखूं? लिख तो पिछले 20 साल से रहा हूं लेकिन कोई उपलब्धि नहीं हुई. बस, कहानियां, लेख लिख कर अखबार में भेजता रहता हूं. फिर उसी अखबार, जिस में रचना छपी होती है, को खरीदता भी हूं क्योंकि समाचारपत्र वालों से पूछने पर यही उत्तर मिलता है, ‘हम छाप कर एहसान कर रहे हैं. आप 2 रुपए का अखबार नहीं खरीद सकते. हमारे पास और भी काम हैं.’

‘‘‘हम अखबार की प्रति नहीं भेज सकते. आप चाहें तो अपनी रचनाएं न भेजें. हमें कोई कमी नहीं है रचनाओं की. रोज 10-20 लेखकों की रचनाएं आती हैं और हां, भविष्य में रचनाएं छपवाना चाहें तो पहला नियम है कि अखबार की वार्षिक, आजीवन सदस्यता ग्रहण करें. साथ ही, समाचारपत्र में दिया साहित्य वाला कूपन भी चिपकाएं. आजकल नया नियम बना है लेखकों के लिए. आप लोगों को छाप रहे हैं तो अखबार को कुछ फायदा तो पहुंचे.’’’

उधर से साहित्यिक संस्था वाले ने अखबार वालों को कोसा. उन्हें व्यापारी बताया और खुद को लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला सच्चा उपासक. ‘‘आप उपलब्धि में जो चाहे लिख कर भेज दीजिए. जैसे, पिछले कई वर्षों से लगातार लेखन कार्य. चाहे तो अखबार में छपी रचनाओं की फोटोकौपी भेज दीजिए. ज्यादा नहीं, दोचार.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘श्रीमानजी, ये 1,500 रुपए किस बात के भेजने हैं?’’ उन्होंने समझाया. मैं ने समझने की कोशिश की. ‘‘देखिए सर, सम्मानपत्र छपवाने का खर्चा, संस्था के बैनरपोस्टर लगवाने का खर्चा और आप के लिए चायनाश्ता का इंतजाम भी करना होता है. आप को संस्था का स्मृतिचिह्न भी दिया जाएगा. शौल ओढ़ा कर माला पहनाई जाएगी. आप को जो सुंदर आमंत्रणपत्र भेजा है उस की छपवाई से ले कर डाक व्यय तक. फिर मुख्य अतिथि के रूप में बड़े अधिकारी, नेताओं को बुलाना पड़ता है. उन की खातिरदारी, सेवा में लगने वाला व्यय. बहुत खर्चा होता है साहब. जो हौल हम किराए पर लेते हैं उस का भी खर्चा.’’

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?- भाग 2

‘‘मैं भी तुम सब के साथ ही लंबा सफर कर के आई हूं. मैं भी इनसान हूं, इसलिए थकान मुझे भी होती है, पर तुम लोगों के हिसाब से आराम करने का हक मुझे नहीं है. तुम लोगों की सोच यह है कि बाहर बिखरे सारे काम निबटाना मुझ अकेली की जिम्मेदारी है. इसलिए मैं ने भी अब तय कर लिया है कि अब आगे से मैं तुम लोगों के साथ कहीं भी आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाऊंगी. प्रोग्राम बनाने में तो तुम तीनों आगे रहते हो पर जाने के समय की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही आने के बाद बिखरे कामों को समेटने में. जाते वक्त अपने कपड़े तक छांट कर नहीं देते हो तुम सब कि कौनकौन से रखूं. ऊपर से वहां पहुंच कर नखरे दिखाते हो कि मम्मा, यह शर्ट क्यों रख ली. यह तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं, यह जींस क्यों रख ली यह तो टाइट होती है. वापस आने के बाद इस समय कितने काम हैं करने को, जिन में तुम लोग मेरी मदद कर सकते हो पर तुम में से किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. तुम सब को आराम चाहिए. तुम सब को एसी चाहिए पर क्या मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही इन चीजों की?’’

मेरी बात का तीनों पर तुरंत असर पड़ा. गौरव तुरंत टीवी बंद कर के उठ गया. पति भी एसी बंद कर बाहर आ गए. उन दोनों की देखादेखी छोटा भी अनमना सा चादर फेंक कर हाल में आ कर खड़ा हो गया.

तीनों ही अपने करने लायक काम की तलाश में इधरउधर नजर डाल ही रहे थे कि अचानक मेरा सेलफोन बज उठा. गुस्से की वजह से मेरा फोन उठाने का मन नहीं कर रहा था पर मम्मी का नाम देख कर फोन उठाने को मजबूर हो गई.

‘‘हैलो बबीता, तुझे खुशखबरी देनी थी. आयूष की शादी पक्की हो गई है. लड़की वाले अभी यहीं बैठे हैं. हम सगाई और शादी की तारीख तय कर रहे हैं. तय होते ही तुम्हें दोबारा फोन करूंगी. तारीख बहुत जल्दी की तय करेंगे, इसलिए बस तुम फटाफट आने की तैयारी शुरू कर दो, क्योंकि जब तक तुम नहीं आओगी मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाऊंगी,’’ कह कर मम्मी ने फोन रख दिया.

मम्मी के फोन रखते ही मैं चहक उठी, ‘‘सुनो, आयूष की शादी पक्की हो गई है और शादी की बहुत जल्दी की तारीख भी निकलने वाली है. मम्मी ने हमें तैयारी शुरू कर देने को कहा है.’’

‘‘पर मम्मा आप जाएंगी क्या मामा की शादी में?’’ छोटे बेटे ने बड़ी मासूमियत से कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं जाऊंगी? क्या तुम लोगों को नहीं जाना मामा की शादी में?’’ मैं ने आश्चर्य से ऋतिक की ओर देखा.

‘‘जाना तो था पर अभीअभी तो आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि अब आप हम लोगों के साथ कहीं आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाएंगी, तो मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि मम्मा मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी. आप हम लोगों का इंतजार न करें.’’

बस फिर क्या था. अपूर्व को भी मौका मिल गया बच्चों के साथ मिल कर मेरी टांग खींचने का. उन्होंने ऋतिक के हाथ से फोन ले लिया और कहने लगे कि बेटा मेरे होते हुए तुम नानी को यह खबर दो, कुछ ठीक नहीं लगता. लाओ, मैं ठीक से समझा कर बता देता हूं नानी को कि वे अपनी प्यारीदुलारी बेटी का इंतजार न करें शादी में.

थोड़ी देर पहले ही मेरे गुस्से का जो असर तीनों पर पड़ा था और तीनों ही मेरी मदद के लिए आ गए थे उस पर मम्मी के फोन से पानी फिर गया.

मेरा मूड अच्छा हुआ देख थोड़ाबहुत इधरउधर कर के दोबारा फिर सब टीवी के सामने जा बैठे. अब दोबारा चीखनेचिल्लाने के बजाय मैं ने अकेले ही काम में जुट जाना बेहतर समझा.

दूसरे दिन से अपूर्व अपने औफिस और बच्चे स्कूल में व्यस्त हो गए. मैं भी बिखरे काम समेटने के साथसाथ आयूष की शादी की कल्पना में जुट गई.

लेकिन जब आयूष की शादी में जाने और शादी की तैयारी के बारे में सोचना शुरू किया तो जाने के पहले की तैयारी और आने के बाद के बिखरे काम के बारे में सोच कर मेरा मानसिक तनाव फिर से बढ़ गया.

अपूर्व और बच्चों के असहयोगात्मक रवैए के कारण कहीं आनेजाने के नाम पर सचमुच मुझे घबराहट होने लगी थी. मुझे दिलोजान से चाहने वाले मेरे पति और बच्चे कहीं भी आनेजाने की तैयारी में कोई भी मदद नहीं करते थे. सब से अधिक परेशानी मुझे होती है सब के कपड़ों के चयन में. कब और किस अवसर पर तीनों कौनकौन से कपड़े पहनेंगे यह भी मुझे अकेले ही तय करना पड़ता है. बच्चों को साथ बाजार चल कर पसंद के कपड़े लेने को कहती हूं तो जवाब मिलता है, ‘‘प्लीज मम्मा, तुम ले आओ. हमें शौपिंग पर जाना बिलकुल पसंद नहीं है. जब कहती हूं कि बेटा मुझे तुम लोगों की पसंदनापसंद समझ में नहीं आती है तो कहते हैं कि आप व्हाट्सऐप पर फोटो भेज देना हम बता देंगे कि पसंद हैं या नहीं.’’

मैं जब हार कर अपनी पसंद के कपड़े ले जाती तो कभी किसी को रंग पसंद नहीं आता तो कभी डिजाइन. मैं गुस्सा हो कर कहती कि इसीलिए कहती हूं कि अपने कपड़े खरीदने मेरे साथ चला करो पर कोई मेरी बात नहीं मानता. अब कल चलो मेरे साथ और इन्हें बदल कर अपनी पसंद के लेना.उन्हें क्या पता कि मां जब तक अपने बच्चों को नए कपड़े नहीं पहना लेती खुद अपने तन पर नए कपड़े नहीं डालती. बच्चों का पहनावा और संस्कार मां की परवरिश और सुघड़ता को उजागर करते हैं, इसलिए मेरे बच्चे और पति का पहनावा हर अवसर पर सलीकेदार हो, इस का मैं विशेष ध्यान रखती हूं

राजकुमारी- भाग 3: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?- भाग 1

अपूर्व और बच्चों को मेरी टांग खींचने का अच्छा मौका मिल गया था. सब से पहले छोटे बेटे ऋतिक ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मा, मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि आप मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी, क्योंकि आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि आप हम लोगों के साथ अब कहीं नहीं जाओगी.’’

ऋतिक की बात पूरी होते ही अपूर्व ने उस के हाथ से फोन लेते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा, मेरे होते हुए तुम नानी से बात करो यह मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. लाओ फोन मुझे दो. मैं नानी को ठीक से समझा देता हूं कि वे साले साहब की शादी की सारी तैयारी अकेले ही कर लें, क्योंकि उन की लाडली ने कहीं भी न जाने की प्रतिज्ञा कर ली है.’’

मेरे दिमाग के गरम पारे पर मां के फोन से पानी की जो ठंडी फुहार पड़ी थी वह पुन: इन लोगों की चुहलबाजी से ज्वलंत होने लगी.

हुआ यों था कि शिमला में 1 सप्ताह तक छुट्टियां बिता कर हम बस घंटा भर पहले ही घर आए थे. घर में घुसते ही अपूर्व और बच्चे एसी और टीवी औन कर के बैठ गए और फिर 1-1 कर के फरमाइशें शुरू कर दीं, ‘‘बबीता, फटाफट 1 कप चाय पिलाओ… होटल की चाय पी कर मन खराब हुआ पड़ा है.’’

‘‘मम्मा, प्लीज साथ में प्याज के पकौड़े भी बना देना. रास्ते में कहीं पकौड़े बन रहे थे. उन की महक मेरी नाक में ऐसी समाई कि मैं ने वहीं तय कर लिया था कि घर पहुंच कर सब से पहले मम्मा से पकौड़े बनवाऊंगा, बड़े बेटे गौरव ने अपनी इच्छा जताई.’’

‘‘मम्मा, आप ने मुझ से वादा किया था कि घर पहुंचते ही मुझे नूडल्स खिलाओगी. अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. फटाफट अपना वादा पूरा करो,’’ छोटे बेटे ऋतिक ने भी उन दोनों के सुर में सुर मिलाया.

मेरे कानों में उन तीनों की बातें पड़ तो रही थीं पर ध्यान घर में बिखरे काम पर था.

बालकनी में सप्ताह भर के पेपर्स के बंडल बिखरे पड़े थे, जिन्हें हमारी गैरमौजूदगी में भी पेपर वाला डालता गया था, क्योंकि उसे हम मना करना भूल गए थे. उन्हें उठा कर खोल कर अलमारी में रखना था. सामने और पीछे दोनों तरफ की बालकनियों के गमलों के पौधे 1 सप्ताह में पानी के अभाव में झुलस से गए थे. उन में पानी डालना था. घर में इतनी धूल दिखने लगी थी कि फर्श पर चप्पलों के निशान बन रहे थे. कामवाली तो कल सुबह ही आएगी. अत: झाड़ूपोंछा भी करना ही पड़ेगा. सारे कमरों की बैडशीटें बदलनी हैं. किचन समेत पूरे घर की डस्टिंग करनी पड़ेगी. सूटकेस और बैग्स को खाली कर के धूप दिखा कर ऊपर की अलमारी में रखना है. सब से बढ़ कर तो गंदे कपड़ों के अंबार से निबटना है. कपड़े मशीन में धुलने डालने हैं. धुलने के बाद सूखने डालना और फिर सूखने के बाद उठा कर अंदर लाने हैं.

इस सब के अलावा सप्ताह भर बाहर का खाना खा कर ऊब चुके अपूर्व और बच्चों की दिली तमन्ना कि आज घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाने को मिलेगा, बिना कहे ही मैं समझ रही थी.

2-4 दिन के लिए भी घर छोड़ कर कहीं चले जाओ तो आने के बाद काम का अंबार देख कर मन इतना घबरा जाता है कि यह सोचने लग जाती हूं कि गई ही क्यों? अपूर्व और बच्चे तो बस सूटकेस और बैग्स को घर के अंदर पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. उन्हें किसी और काम से मतलब नहीं रह जाता. मैं अकेली सारे काम निबटातेनिबटाते अधमरी हो जाती हूं.

अपूर्व और बच्चे तो अपनीअपनी फरमाइशें मुझे सुना कर टीवी के सामने बैठ गए और मैं किचन में खड़ी सोचने लगी कि कहां से काम शुरू करूं.

मुझे पता था कि जब तक तीनों की खानेपीने की फरमाइशें पूरी नहीं कर दूंगी तब तक ये शोर मचाते रहेंगे और मैं कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाऊंगी. हालांकि लंबे सफर से आने के बाद नहाए बिना कुछ करने का मन नहीं कर रहा था, पर नहाने का इरादा त्याग कर जल्दीजल्दी प्याज काटने में जुट गई. गैस पर एक तरफ 2 कप चाय चढ़ा दी और दूसरी तरफ भगौने में नूडल्स बनने रख दी. तीसरे आंच पर कड़ाही में तेल गरम होते ही फटाफट पकौड़े तल कर सारा सामान ट्रे में लगा कर उन के पास पहुंच गई.

सब के साथ खुद भी सफर की थकान कम करने के इरादे से बैठ कर मैं ने भी चाय पी और उस के बाद पल्लू कमर में ठूंस कर काम निबटाने उठ गई.

सोचा सब से पहले कपड़ों को मशीन में डाल दूं. मशीन में कपड़े अपनेआप धुलते रहेंगे और मैं उस दौरान दूसरे काम करती रहूंगी.

मशीन लगाने के नाम पर मुझे पानी का खयाल आया कि पता नहीं टंकी में कितना पानी है? पर जब मैं ने ऋतिक से कहा कि जा कर देख कर आ कि टंकी में कितना पानी है ताकि मैं अपना काम उसी हिसाब से शुरू करूं तो वह मुंह तक चादर ओढ़ कर सो गया और अपने बड़े भाई की ओर इशारा कर के मुझे सलाह दे डाली कि इसे भेज दो.

उस की हरकत पर गुस्सा तो बहुत आया पर मैं बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से बाहर निकल आई.

गौरव ने शायद मेरी नाराजगी को महसूस कर लिया. अत: उस ने बिना मेरे कुछ कहे ही उठते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं देख कर आता हूं.’’

‘शुक्र है, किसी को तो दया आई मुझ पर,’ सोचते हुए मैं ने सूटकेस और बैग खाली करना शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, टंकी पूरी भरी हुई है… अब प्लीज कम से कम 1 घंटे तक आप मुझ से कोई काम करने को मत कहिएगा,’’ कहते हुए वह फिर से टीवी के सामने बैठ गया.

मैं अकेली इतने सारे कामों को ले कर परेशान हो रही हूं पर मेरे पति और बच्चों को इस की कोई परवाह नहीं है. कोई झूठमूठ भी मदद के लिए नहीं उठ रहा है. कहीं जाने का प्रोग्राम बनाने में तो तीनों ही बहुत तेज रहते हैं पर जाने से पहले की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही वापस आने के बाद फैले कामों को समेटने में.

‘बस अब बहुत हो गया. ये सब मेरे सीधेपन का ही नतीजा है. मैं तो हरेक की सुविधा के लिए खटती रहती हूं पर इन्हें मेरी रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती. अब तो इन्हें इन की गलती का और घर के प्रति जिम्मेदारियों का एहसास कराना ही पड़ेगा,’ यह सोचते हुए मैं कमरे में पहुंच गई.

राजकुमारी- भाग 2: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

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