लड़कियां हों या महिलाएं, 5 समस्याएं गायनोकोलौजिस्ट से न छिपाएं

हमेशा हंसती रहने वाली मेघा पिछले 2 महीने से काफी उदास रहने लगी थी. उसे किसी से बात करना तक अच्छा नहीं लगता था. उस ने कालेज जाना भी कम कर दिया था. एक दिन उस की मां ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है मेघा, आजकल मैं देख रही हूं कि तू बहुत उदास रहने लगी है. न हंसती है न किसी से बात करती है?’’

इस पर मेघा ने कहा, ‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है, बस यों ही.’’

मेघा की रमेश के साथ पिछले एक साल से दोस्ती थी. दोनों कालेज के बाद अकसर गार्डन या मौल में घूमने जाते थे. उन के शारीरिक संबंध भी बन गए थे. रमेश जब चाहता उसे एकांत जगह पर ले जाता और फिर दोनों सैक्स करते.

2 महीने से मेघा को पीरियड्स नहीं हुए थे. उसे लग रहा था कि वह प्रैग्नैंट हो गई है. इसीलिए वह उदास रहने लगी थी. उसे डर था कि अगर वह मां को यह बताएगी कि रमेश के साथ उस के शारीरिक संबंध हैं और पीरियड्स नहीं हो रहे हैं तो मां उसे डांटेगी और गायनोकोलौजिस्ट के पास ले जाएगी जहां उस की पोलपट्टी खुल जाएगी.

लेकिन ऐसा कब तक चलता. एक दिन उस ने मां को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं. यह सुन कर पहले तो मां का माथा ठनका कि कहीं मेघा प्रैग्नैंट तो नहीं हो गई है. खैर, मां ने उसे कुछ नहीं कहा. एक दिन वह उसे ले कर एक गायनोकोलौजिस्ट के पास गई. मेघा थरथर कांपने लगी जब गायनोकोलौजिस्ट ने मेघा से उस की समस्या पूछी. पहले तो मेघा सकुचाई पर फिर उस ने डाक्टर को बताया कि उसे पिछले 2 महीने से पीरियड्स नहीं हुए हैं.

डाक्टर ने पूछा कि इस से पहले भी कभी ऐसा हुआ है? तो उस ने जवाब दिया कि पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ.

लेडी डाक्टर बुजुर्ग थी. उस के पास ऐसे कई केस आते थे. डाक्टर ने इस बारे में उस से ज्यादा पूछना उचित नहीं समझा. उस ने मेघा का प्रैग्नैंसी टैस्ट किया, लेकिन रिपोर्ट नैगेटिव निकली, इस का मतलब था कि मेघा प्रैग्नैंट नहीं थी. किसी और वजह से उसे पीरियड्स नहीं हो रहे थे.

इस बार तो मेघा बालबाल बच गई लेकिन अब उस ने फैसला कर लिया कि वह अब अपने बौयफ्रैंड के साथ कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाएगी.

लेडी डाक्टर ने मेघा का इलाज शुरू किया और जल्दी ही उस के पीरियड्स नियमित हो गए.

युवतियों की शारीरिक संरचना काफी जटिल होती है. हमेशा कुछ न कुछ समस्या लगी रहती है. अधिकतर युवतियों को इस बारे में सही जानकारी नहीं होती, इसलिए वे डर जाती हैं. उन्हें लगने लगता है कि वे प्रैग्नैंट हो गई हैं, क्योंकि आजकल युवकयुवतियां सैक्स को ले कर काफी बोल्ड हो गए हैं. वे इस में कोई बुराई नहीं समझते. वे खुल कर सैक्स एंजौय करते हैं.

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युवतियों की शारीरिक समस्याएं

अनियमित माहवारी : युवतियों की यह समस्या आम है, पर इसे ले कर वे काफी भयभीत रहती हैं. अनियमित माहवारी के कई कारण हैं. गायनोकोलौजिस्ट डा. रेनू शर्मा के अनुसार, ‘‘जो युवतियां सोचती हैं कि माहवारी प्रैग्नैंसी की वजह से रुकती है, तो यह गलत है. ऐसे अनेक कारण हैं जिन की वजह से अकसर युवतियां इस शारीरिक समस्या का शिकार होती हैं.’’

वास्तव में यह कोई बीमारी नहीं है. यदि समय पर इलाज किया जाए और खानपान पर ध्यान दिया जाए तो यह समस्या जल्दी ही खत्म हो जाती है. कभी कुछ युवतियों को महीने में 2 बार भी माहवारी हो जाती है, जिस से शरीर का काफी खून निकल जाता है और उन में कमजोरी आ जाती है. यह समस्या हार्मोन की गड़बड़ी की वजह से होती है. टैस्टों के जरिए समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सकता है और फिर उस के अनुसार ही इलाज किया जाता है.

स्तन में गांठें बनना : युवतियों में यह समस्या कौमन है. अकसर उन के स्तन में गांठें पड़ जाती हैं, जिस की वजह से स्तन को स्पर्श करते ही उन्हें काफी दर्द महसूस होता है. यदि आप को भी यह समस्या है तो आप बिना संकोच के तुरंत अपनी लेडी डाक्टर से मिलें और पूरी समस्या उन्हें सहीसही बता दें. स्तन में गांठें पड़ने के कई कारण हो सकते हैं.

खून की जांच व अल्ट्रासाउंड से समस्या की वजह पता चल जाती है और फिर इलाज से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है. बड़ी उम्र की महिलाओं के स्तनों में गांठों की समस्या हो जाती है जो कभीकभी ब्रैस्ट कैंसर के रूप में सामने आती है. ऐसे में कीमोथेरैपी की जाती है और कभीकभी तो जिस ब्रैस्ट में यह समस्या है, उसे काटना भी पड़ सकता है. युवतियों में ब्रैस्ट कैंसर का प्रतिशत बहुत कम होता है, इसलिए उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है.

ल्यूकोरिया : ल्यूकोरिया यानी वेजाइना से निकलने वाला सफेद या चिपचिपा गाढ़ा पदार्थ. ल्यूकोरिया की शिकायत उन युवतियों में अधिक होती है जो अपने जननांगों की साफसफाई नहीं रखतीं या फिर किसी दूसरी युवती के अंदरूनी कपड़े पहनती हैं. यह एक छूत की बीमारी है. यदि समय पर इस का इलाज नहीं कराया जाए तो यह बीमारी काफी बढ़ जाती है. इस से पीडि़त युवती कमजोर हो जाती है. इसलिए अगर आप के साथ ऐसी समस्या है तो तुरंत किसी डाक्टर से संपर्क करें और उन्हें अपनी समस्या बताएं. इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि समस्या छिपाने से और बढ़ती है.

ओवरी में गांठ (पीसीओडी) : युवतियों में पीसीओडी की समस्या भी आम है. इस समस्या में ओवरी में गांठ (सिस्ट) बन जाती है, जिस से माहवारी तो रुक ही जाती है, साथ ही पेट में भी दर्द रहता है. कभीकभी अंडाशय में बना अंडा, जो हर महीने फूट कर खून (माहवारी) के रूप में बाहर निकल जाता है, वह फूट नहीं पाता और अंडाशय के चारों ओर जमा हो कर दीवार सी बना देता है, जिस से पेट में सूजन आ जाती है. अगर माहवारी बंद हो जाए तो अल्ट्रासाउंड कराना जरूरी होता है. इस से मालूम हो जाता है कि युवती को पीसीओडी की समस्या है या नहीं. वैसे, इस में कोई घबराने वाली बात नहीं है. यदि समय पर डाक्टर को दिखाया जाए तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है.

जो युवतियां संकोचवश समय रहते गायनोकोलौजिस्ट को नहीं दिखातीं उन की यह समस्या बढ़ जाती है. समस्या के बढ़ने पर उन में बांझपन का खतरा भी बढ़ जाता है. इसलिए ऐसी स्थिति में युवतियों को तुरंत डाक्टर से संपर्क करना चाहिए और उन्हें खुल कर अपनी समस्या बतानी चाहिए.

बिना शादी के प्रैग्नैंसी : युवतियां अपनी गलतियों की वजह से प्रैग्नैंसी का शिकार हो जाती हैं. यदि आप कुंआरी हैं और प्रैग्नैंट हो गई हैं तो पहले अपनी मां या बड़ी बहन को कौन्फिडैंस में लें और उन्हें सबकुछ सचसच बता दें.

बहुत सी लड़कियां प्रैग्नैंट होने पर बदनामी के डर से डाक्टर के पास नहीं जातीं और अपनेआप गर्भ गिराने वाली दवाएं खाती रहती हैं, लेकिन कभीकभी ये दवाएं जिंदगी के लिए खतरा भी बन जाती हैं.

पुण्य और फल : पैसा बटोरने का धंधा

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां धर्म के नाम पर जो भी किया जाए, सब जायज माना जाता है. अपनी तथाकथित आस्था और बेसिरपैर के विश्वास के लिए यहां के रूढ़िवादी लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं. वे तथाकथित देवताओं को भी खुश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते.

‘पुण्य’ कमाने और ‘फल’ पाने के लोगों ने कई साधन अपना रखे हैं, इन्हीं में से एक है, भगवती जागरण. इस से रातभर जाग कर अन्य किसी को कुछ हासिल होता हो या न होता हो, मगर जागरण करने वाली पार्टियों और धंधेबाजों के लिए यह बड़े फायदे का आयोजन बन कर रह गया है.

अब तो भगवती जागरण करने वाली पार्टियां भी पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं. पहले जहां 500 रुपए में भी ऐसा आयोजन हो जाता था वहीं अब छोटेमोटे गायक ही 2 से 10 हजार रुपए आराम से ले लेते हैं. इस के अलावा अन्य खर्चों की तो बात ही अलग है.

कहींकहीं गुफा बना कर बर्फ की सिल्लियां भी रख दी जाती हैं, जिन पर से बहुत से लोग फिसल कर गिर पड़ते हैं, कई बार तो गंभीर दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. मगर इन सब से बेपरवाह आयोजक पुण्य कमाने के लिए आंखें बंद किए रहते हैं. दरबार किसी पुरोहित के बिना शोभा नहीं देता इसलिए वहां पर अपना एक आदमी बैठा दिया जाता है, ताकि चढ़ावे का ध्यान रखा जाए.

बड़े आयोजनों के लिए महीनों पहले चंदा इकट्ठा किया जाता है. शहरों में मुनादी करवाई जाती है, अखबारों में विज्ञापन दे कर लोगों को सूचित किया जाता है कि वे इस अवसर पर एकत्र हो कर पुण्य कमाने में पीछे न रहें. कई बार आयोजकों को पैसे के कारण आपस में लड़तेझगड़ते भी देखा गया है.

यहां गायक व गायिकाएं फिल्मी तर्जों पर ‘भेंटें’ गाते दिखाई देते हैं. यह सिलसिला सारी रात चलता रहता है और कानफोड़ू आरकेस्ट्रा से बेहद शोर उत्पन्न कर आसपास के लोगों को परेशान किया जाता है. फिर इस से ध्वनि प्रदूषण की जो समस्या उत्पन्न होती है, वह तो अलग ही है. समाज सुधारक भी यहां आ कर खूब तालियां पीटते देखे जाते हैं.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस शोर को सुन कर आम आदमी भी खुश नहीं होता, वहां देवी का प्रसन्न होना तो दूर की बात है. भगवती जागरण के अधिकांश कार्यक्रमों में ऐसे भक्त मिल जाएंगे, जो बिना किसी नशे के गा ही नहीं पाते. जब खुद में ही कोई श्रद्धा और भक्ति की भावना नहीं जगा पाए तो उन का गायन दूसरों को कैसे प्रभावित कर सकता है.

इसलिए अब ऐसे आयोजनों का मंतव्य सिर्फ नाम, शोहरत और पैसा कमाना ही रह गया है. यही इन की मुख्य आस्था और यकीन है और इसी यकीन के बल पर कई गायकों ने अपने आडियो कैसेट निकाले हैं. कुछ व्यावसायिक भक्तों ने तो वीडियो कैसेट भी जारी किए हैं. इसी ‘भक्तिभाव’ से प्रेरित हो कर दिन प्रतिदिन ऐसे लोगों की जमात बढ़ती जा रही है.

चिंतपूर्णी मंदिर के पास एक धर्मशाला में एक बार ऐसे आयोजन करने गई 2 देवियों में चढ़ावे की रकम को ले कर विवाद पैदा हो गया. एक देवी ने अपने पास रखे त्रिशूल से दूसरी ‘माता’ पर वार कर दिया और उसे लहूलुहान कर दिया. बाद में थाने में इन में समझौता करवाया गया. जागरण के पीछे लगभग हर जगह यही मानसिकता दिखाई देती है.

जितना धन ऐसे आयोजनों पर खर्च किया जाता है, उस से कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं. परंतु धर्म के ठेकेदारों को यह सब मंजूर नहीं, क्योंकि पैसा बटोरने का इस से सरल रास्ता और कोई उन्हें दिखाई नहीं देता. इस ‘जागरण संस्कृति’ ने अब व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है. फिर ऐसे फलतेफूलते कारोबार को कौन बेवकूफ बंद करना चाहेगा.

जाति से बाहर शादी पर होता बवाल

हमारे देश में इंटरकास्ट लवमैरिज यानी जाति से बाहर शादी करने वालों की तादाद आज भी महज 5 फीसदी ही है. 95 फीसदी लोग अपनी जाति में ही शादी करते हैं. नैशनल काउंसिल औफ एप्लाइड इकोनौमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी औफ मैरीलैंड की एक हालिया स्टडी से पता चलता है कि भारत में 95 फीसदी शादियां अपनी जाति के अंदर होती हैं. यह स्टडी 2011-12 में इंडियन ह्यूमन डवलपमैंट द्वारा कराए गए सर्वे पर आधारित है. इस सर्वे में 33 राज्यों व केंद्रशासित शहरी व गंवई इलाकों में बने 41,554 घरों को शामिल किया गया था.

जब इन घरों की औरतों से पूछा गया कि क्या आप की इंटरकास्ट मैरिज हुई थी, तो महज 5 फीसदी औरतों ने ही हां में जवाब दिया. गंवई इलाकों की तुलना में कसबों के हालात थोड़ा बेहतर हैं.

अपनी ही जाति में शादी करने वालों में मध्य प्रदेश के लोगों की तादाद सब से ज्यादा यानी 99 फीसदी रही, जबकि हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह तादाद 98 फीसदी थी.

भारत में कानूनी तौर पर जाति से बाहर शादी करने को मान्यता मिली हुई है. इंटरकास्ट मैरिज को ले कर 50 साल पहले ही कानून पास किया जा चुका है, फिर भी लोग ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. इस की अहम वजह यह है कि ऐसा करने पर अपने ही समुदाय के लोग इन लोगों का जीना मुश्किल कर देते हैं.

झारखंड की रहने वाली काजल के घर वालों के साथ महज इस वजह से मारपीट की गई, क्योंकि काजल ने दूसरी जाति के सुबोध कुमार नामक लड़के से लवमैरिज की थी.

इस बात को 2 साल हो चुके हैं. शादी के वक्त दोनों बालिग थे और इस रिश्ते को उन के परिवार वालों की हामी भी मिली हुई थी, फिर भी यह बात उन के समुदाय के दूसरे लोगों को हजम नहीं हो रही थी. गांव के कुछ दबंगों द्वारा उन्हें धमकियां दी जाती थीं. जुर्माने के तौर पर उन्होंने रुपयों की भी मांग रखी थी.

16 मई, 2016 को समाज का गुस्सा इतना उबला कि 4-5 लोग लाठियां ले कर काजल के पिता एस. प्रजापति के घर पहुंच गए. काजल के मांबाप और दोनों भाइयों को पहले बंधक बनाया गया और फिर उन की जम कर पिटाई की गई. घायल परिवार रोताबिलखता थाने पहुंचा.

दिल की आवाज सुनने का यह हश्र सिर्फ काजल का ही नहीं हुआ है, बल्कि ऐसे हजारों नौजवान जोड़े हैं, जिन्हें अपनी जाति से बाहर शादी करने की सजा भुगतनी पड़ी है. उन्हें जिस्मानी व दिमागी रूप से इतना सताया जाता है कि कई दफा थकहार कर वे खुदकुशी तक कर लेते हैं और यह सब करने वाले आमतौर पर उन के घर वाले नहीं, बल्कि उन की जाति और गांव के लोग होते हैं.

जरा सोचिए, भारत में तकरीबन 3 हजार जातियां और 25 हजार उपजातियां हैं. शादी के वक्त न सिर्फ जाति, बल्कि उपजाति का भी खयाल रखना पड़ता है. इस के बाद जाहिर है कि हर इनसान की अपनी खास पसंद होती है. उसे खास भाषा, माली हालत, प्रोफैशन, उम्र, सामाजिक बैकग्राउंड वगैरह भी देखना होता है. जाहिर है, इन सब के बीच अपने जीवनसाथी का चुनाव करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है.

इस का नतीजा यह निकलता है कि डिमांड और सप्लाई का सिद्धांत काम करने लगता है और शादी के बाजार में लड़कों की कीमत आसमान छूने लगती है. यहीं से दूसरी सामाजिक बुराइयां भी पनपने लगती हैं.

कहां हैं गूगल फेसबुक के देसी विकल्प

एक दौर था जब आईटी सैक्टर में भारत की तूती बोलती थी. दावा किया जाता था कि आईटी यानी सूचना तकनीक की मशीनी दुनिया में भारतीय युवा प्रतिभाओं ने जो कमाल किया है, उस के दम पर भारत पूरे विश्व का ग्रोथ इंजन बना हुआ है. इस की 2 वजहें थीं, पहली-कंप्यूटर, इंटरनैट विषयों को समझने की सही वक्त पर शुरुआत और दूसरी, युवाओं का अंगरेजी ज्ञान.

इन 2 वजहों से भारतीय युवा देखतेदेखते पूरी दुनिया पर छा गया, लेकिन यह कमाल सिर्फ सर्विस सैक्टर में हुआ यानी हम ने जो ज्ञान हासिल किया वह अमेरिका, ब्रिटेन आदि मुल्कों में नौकरी पाने में लगाया. कुछ मानो में यह कमाल आज तक जारी है. गूगल के सीईओ के रूप में सुंदर पिचाई की मौजूदगी यह बात साबित करती है.

लेकिन ऐसा चमत्कार भारत और भारतीय प्रतिभाएं वहां नहीं कर सकतीं, जहां चीन ने बाजी मार ली. यह मामला गूगल, फेसबुक, ट्विटर, अलीबाबा और माइक्रोसौफ्ट जैसी इंटरनैट सेवाएं विकसित करने का है. इन ज्यादातर चीजों में किसी न किसी स्तर पर भारतीय आईटी पेशेवरों ने अपना योगदान दिया है, लेकिन ऐसा ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कोई कारनामा भारतीय जमीन पर नहीं हो सका. इस के लिए जहां एक ओर हमारे देश के नीतिनिर्धारक नेता जिम्मेदार हैं जो देश और समाज को ऐसे मामलों में कोई नई दृष्टि व योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए वैसा मंच नहीं दे पाते हैं, तो दूसरी ओर बड़ी समस्या जनता के स्तर पर है.

भारत की जनता एक ओर तो भेड़चाल में विश्वास करती है, विदेशी चीजों के विकल्प के रूप में किसी नए प्रयोग को आजमाने में नाकभौं सिकोड़ती है तो दूसरी तरफ, देश की भलाई के लिए कोई पाबंदी लगाई जाएगी, तो लोकतंत्र की दुहाई दे कर वह सरकार को कोसने में जुट जाती है.

दिक्कतें देसी, हल भी हों देसी

देश में गूगल, फेसबुक आदि के देसी विकल्प बनाने का इस संबंध में एक उदाहरण हो सकता है. इस की बात देश में गाहेबगाहे उठती रही है. दिसंबर 2017 में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री जयंत सिन्हा ने ऐसी ही एक बात पुणे में आयोजित कार्यक्रम ‘इंडिया आइडियाज कौन्क्लेव’ में कही थी. भारतीय उद्यमियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर समस्याएं देसी हैं, तो उन के समाधान भी देसी होने चाहिए. इस के लिए भारत को गूगल, फेसबुक, अलीबाबा जैसी अंतर्राष्ट्रीय महारथी कंपनियों जैसी कामयाबी के समकक्ष अपना मौडल खड़ा करना चाहिए. ताकि जब देसी समस्याओं के समाधान की बात उठे, तो उन्हें हल करने के तरीके हमारे अपने हों.

उल्लेखनीय है कि हमारी सरकारें इस मसले को ले कर लगातार चिंता व्यक्त करती रही हैं. प्रकाश जावड़ेकर भी वर्ष 2017 में लोकसभा में फेसबुक, ट्विटर, गूगल और माइक्रोसौफ्ट आदि के देसी विकल्प बनाने की बात कह चुके हैं.

लोकसभा में आईआईआईटी बिल (प्राइवेटपब्लिक मोड) 2017 पेश करते वक्त केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेड़कर ने यह अफसोस जताया था कि भारतीय आईटी प्रतिभाओं को भले ही दुनिया सलाम ठोकती हो, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस में कई कमियां और विसंगतियां हैं, जिन का खमियाजा आईटी सैक्टर भुगत रहा है. सब से बड़ी खामी यह है कि भारत आज तक न तो अपना माइक्रोसौफ्ट बना पाया, न फेसबुक, न ट्विटर, न गूगल. ऊपर से विडंबना यह है कि इन सारी कंपनियों में भारतीय पेशेवर ही नौकरी कर रहे हैं और शीर्ष पदों पर काबिज हैं. ये प्रतिभाएं भी उन अमेरिकी, यूरोपीय चुनौतियों का विकल्प नहीं पेश कर पाईं जिन का आज दुनिया में सिक्का चल रहा है.

पिछली यूपीए सरकार के समय तत्कालीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने भी इंटरनैट के लिए गूगल की तरह स्वदेशी सर्च इंजन की जरूरत बताई थी.

मालिक नहीं महज ग्राहक हैं हम

यह सच है कि आईटी सैक्टर के अगुआ देश (भारत) के लोग अभी भी इंटरनैट के उपभोक्ता बने हुए हैं, आविष्कारक नहीं. इस से रोजगार, कमाई, बौद्धिक संपदा अधिकार आदि कई मुद्दों पर देश को पिछड़ना पड़ रहा है. हम सिर्फ बाजार, ग्राहक हैं. यह बात इस से साबित होती है कि देश में सामान और सेवाएं बेचने वाले ई-कौमर्स सरीखे काफी इंतजाम हुए हैं, जैसे फ्लिपकार्ट, मिंत्रा, जबौंग, बिग बास्केट और शादीडौटकौम जैसी वैबसाइटों की भरमार है. लेकिन ये सभी सामान और सेवाएं खरीदनेबेचने के प्रबंधों से ज्यादा कुछ नहीं हैं.

ये अमेजोन और इसी तरह की अन्य विदेशी ई-कौमर्स कंपनियों की नकल पर खड़ी की गई हैं. इन में आविष्कार वाली कोई बात नहीं है. इन से कुछ रोजगार तो अवश्य मिले पर देश की आविष्कार वाली वह छवि नहीं बनी, जो हमारी कथित पूरब का ज्ञान वाली इमेज के हिसाब से बौद्धिक अधिकारों (पेटैंट) की फीस से मिलने वाली बेशुमार पूंजी पैदा करती. यह काम तभी हो सकता था जब भारत में ही गूगल, फेसबुक जैसी चीजों के देसी मौडल खड़े किए जाते और उन्हें अपनाया जाता.

देश को इंटरनैट के ऐसे देसी विकल्प सिर्फ इसलिए नहीं चाहिए कि इसी मामले में हम अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे, बल्कि इस की जरूरत कई अन्य वजहों से है, जिस का एक खुलासा वर्ष 2017 में पीडब्ल्यूसी ग्लोबल 100 सौफ्टवेयर लीडर्स के चयन वाली रिपोर्ट से हो चुका है. इस रिपोर्ट में दुनिया की शीर्ष 100 आईटी कंपनियों का वैश्विक चयन किया गया था, जिस में भारत की 16 कंपनियां स्थान बना सकती थीं.

रिपोर्ट के मुताबिक, आईटी सैक्टर में कमाई के मामले में साल 2011 में उभरते बाजार में भारत की 5वीं रैंकिंग थी, जबकि सौफ्टवेयर रैवेन्यू के मामले में 2,738 मिलियन डौलर की कमाई के साथ चीन इस लिस्ट में सब से ऊपर था. चीन के बाद इसराईल, रूस, ब्राजील का नंबर था और उस के बाद भारत का. 100 देशों की लिस्ट में 5वीं रैंकिंग बहुत बुरी नहीं मानी जा सकती, लेकिन यह उपलब्धि हमारे लिए गौरव का विषय नहीं है. कुछ समय पहले तक युवा प्रतिभाओं के बल पर भारत ने अमेरिका की सिलिकौन वैली से ले कर दुनिया के कई विकसित देशों में जिस तरह आईटी सैक्टर में अपनी योग्यता का परचम लहराया था, उस से लगता था कि दशकों तक भारत को कम से कम इस मामले में कोई चुनौती नहीं मिल सकेगी.

भारत में पिछले 2 दशकों में जो बीपीओ इंडस्ट्री खड़ी हुई, कहा जाता था कि उस में उसे कोई चुनौती नहीं है. लेकिन न सिर्फ इस सैक्टर में भारत धीरेधीरे अपनी चमक खो रहा है, बल्कि इनोवेशन (नवाचार) के मामले में भी भारत पिछड़ गया है.

हालात यह है कि आज हम माइक्रोसौफ्ट विंडोज, गूगल, फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसी तमाम चीजों के ग्राहक या उपभोक्ता मात्र बन कर रह गए हैं. इस मामले में हमारे आविष्कार जरा भी नहीं हैं. हालांकि, यहां एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि भारतीय आईटी उद्योग में ऐसी क्या समस्याएं पैदा हुईं जिन्होंने उसे ऐसे सैक्टर में आगे बढ़ने से रोक दिया, जिस में कभी उस की तूती बोलती थी.

गूगल की नहीं चलने दी चीन ने

आईटी तकनीक के साथसाथ अंगरेजी सीख कर इस क्षेत्र में भी अब चीन, फिलीपींस जैसे देश भी प्रतिस्पर्धा देने की हैसियत में आ गए हैं. ये देश कभी अंगरेजी बोलचाल की शैली और लहजे में कमियों के कारण काफी पिछड़े हुए थे. आईटी संबंधी ग्लोबल कामकाज में उन का दखल अब आईटी ज्ञान की बदौलत बढ़ा है. चीन जैसे मुल्क सौफ्टवेयर में ही नहीं, बल्कि हार्डवेयर के कामकाज में कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं. ये मुल्क ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि इन्होंने न केवल भारत जैसे देशों को उन क्षेत्रों मेें कड़ी टक्कर दी जिन का इन्हें विशेषज्ञ माना जाता था बल्कि उन्होंने आईटी के सभी क्षेत्रों में नए अवसरों को तलाशा और उन का दोहन किया.

उल्लेखनीय यह भी है कि चीन ने दुनिया के अग्रणी ब्रैंडों को अपने यहां हावी नहीं होने दिया और उन के बेहतरीन देसी विकल्पों को पेश कर के दिखा दिया कि न तो वह अपने बाजार का किसी अन्य देश या विदेशी कंपनी को दोहन करने देगा और न ही खुद होड़ में बने रहने का कोई मौका गंवाएगा. चीन ने अपने यहां न तो गूगल की एक चलने दी और न ही ट्विटरफेसबुक की. इन के विकल्प उस ने पेश कर दिए हैं और वे बेहद प्रचलित हैं.

एक इलाज है पाबंदी

आतंकी गतिविधियों पर रोक, साइबर सुरक्षा, खोज की नई तकनीक विकसित करने और कमाई जैसे कुछ कारण हैं जिन के आधार पर देसी फेसबुक, ट्विटर और सर्च इंजन गूगल की इस जरूरत को वाजिब ठहराया जा सकता है. हमारे देश में इस आवश्यकता को परखने का एक प्रमुख नजरिया यह भी हो सकता है कि चीन की तरह भारत में इंटरनैट एक दायरे में रह कर काम करे. इसलिए बहुत से लोग इस हदबंदी के पैरोकार होंगे.

आतंकी गतिविधियों से ले कर अश्लील सामग्रियों के प्रसार तक कई ऐसी आपत्तिजनक बातें और चीजें भारत जैसे लोकतांत्रिक  देश में भी इंटरनैट के लिए कुछ बंदिशों और कायदेकानूनों की मांग करते हैं. पर इंटरनैट पर जैसी लगाम पड़ोसी मुल्क चीन में लगाई गई है, क्या वैसा सबकुछ भारत में मुमकिन है? फिलहाल नहीं.

चीन इंटरनैट पर ऐसी पाबंदी इसलिए लगा पा रहा है क्योंकि वहां इन चीजों के विकल्प बनाए गए हैं. वहां अगर गूगल को काम नहीं करने दिया जाए, तो उस का बेहतर विकल्प बायदु डौटकौम हाजिर है. इसी तरह  यदि ट्विटर बंद कर दिया जाता है तो चीन उस के बदले वेईबो पर वही सेवा देने लगता है. यही नहीं, चीन की सरकार इंटरनैट के हर डाटा कोे संचालित करने वाले विशालकाय सर्वर भी बीजिंग में स्थापित करना चाहती है ताकि सारे डाटा को जब चाहे रोका और खंगाला जा सके.

साफ है कि यदि भारत को चीन जैसा नियंत्रित इंटरनैट चाहिए तो उसे गूगल, ट्विटर और फेसबुक जैसी चीजों का विकल्प देना होगा क्योंकि अब इन के बिना दुनिया चल नहीं सकती. पर देसी इंटरनैट विकल्पों की मांग का अकेला यही औचित्य नहीं है. कहने को तो इस के लिए सीधे गूगल, ट्विटर, फेसबुक से बात की जा सकती है कि वे हमारे देश के लिए अलग से गूगल आदि ला दें. चीन में ऐसा प्रयोग किया जा चुका है.

चीनी सरकार की बंदिशों के आगे झुकते हुए गूगल ने 2006 में चीन में अपना सैल्फ सैंसर्ड सर्च इंजन लौंच किया था. तब उस ने चीन सरकार के कुछ दिशानिर्देशों का पालन करने की हामी भरी थी, लेकिन इस से काम नहीं चला. लिहाजा, विशुद्ध चीनी सर्च इंजन बायदु डौटकौम लाया गया, जो उसी तरह काम करता है जैसा चीनी सरकार चाहती है.

हैकिंग का मसला भी सुलझेगा

देसी विकल्पों की खोज का दूसरा मकसद साइबर सुरक्षा को मजबूत बनाना है. अभी साइबर सिक्योरिटी का आलम यह है कि सरकारी संस्थानों की वैबसाइटों को तो जब चाहे, जो चाहे हैक कर लेता है. वहां से डाटा चुराना कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन सरकार भी जानती है कि इन चुनौतियों के मद्देनजर माइक्रोसौफ्ट जैसे एक स्वदेशी औपरेटिंग सिस्टम  (ओएस) को विकसित करने की जरूरत है. हालांकि दावा किया जाता रहा है कि इस मोरचे पर अपने देश में काम शुरू हो चुका है.

डीआरडीओ यानी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के करीब 150 कंप्यूटर इंजीनियर विंडोज और लाइनैक्स जैसे विदेशी व आयातित ओएस जितना ही सक्षम व ताकतवर औपरेटिंग सिस्टम विकसित कर रहे हैें.

इंटरनैट की किसी उपयोगिता के देसी अवतार के बारे में विचार करने के साथसाथ जरूरी यह भी है कि उस की व्यावहारिकता के पहलू पर भी गौर किया जाए. कहीं ऐसा न हो कि सरकारी मदद से विकसित होने और चलने वाली अन्य परियोजनाओं की तरह देसी इंटरनैट, आईटी के विकास का काम सरकारी गति से ही आगे बढे़ और सिर्फ जनता से वसूले गए टैक्स की बरबादी का सबब बन जाए.

सरकार को ऐसी किसी भी परियोजना में हाथ डालने से पहले यह गौर करना चाहिए कि वे योजनाएं आम जनता को आकर्षित करने वाली और देश के आईटी उद्योग को मजबूत करने वाली साबित हों. जनता को भी इस में सहयोग करना होगा. कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन सरकार अपनी ओर से गूगलफेसबुक पर प्रतिबंध लगाते हुए उन के बेहतर औप्शन पेश करे, तो जनता उन्हें आजमाए बिना ही सरकार की लानतमलामत में जुट जाए.

आजकल तो यह ट्रैंड भी खूब चल निकला है कि देश के फायदे की किसी भी सरकारी बात पर जनता बिना जांचेपरखे टीकाटिप्पणी करने लगती है और टीवी चैनल वाले 8-10 लोगों को स्टूडियो में बिठा कर दिनरात आलोचना का कीर्त चालू कर देते हैं. ऐसे में सरकार को जनमत के दबाव में अपना फैसला बदलना पड़ता है क्योंकि सत्ता में बैठी पार्टी को लगता है कि  उसे आगे भी सरकार बनानी है, तो जनता जैसा चाहती है, वैसा ही करना होगा.

इस में नेताओं का दोष यह है कि वे जनता को समझा नहीं पाते हैं कि सरकार जो फैसला कर रही है, वह आखिरकार पूरे देश के लिए अच्छा होगा.

चीन ने कब क्या बैन किया

चीनी सरकार की यह नीति रही है कि विदेश से आने वाली कोई भी सूचना उस के नागरिकों तक सीधे नहीं पहुंच सकती. यह पहले विदेशी कंपनियों के स्वामित्व वाली सभी चीजों को फिल्टर करती है ताकि पता लगाया जा सके कि कहीं कोई चीन की आलोचना तो नहीं कर रहा है. इस के लिए चीन की सरकार ने पूरी दुनिया में मशहूर कई ऐप्स (अप्लीकेशंस) अपने यहां प्रतिबंधित कर रखे हैं.

चीन ने अपने बेहद कड़े साइबर सुरक्षा कानूनों का हवाला देते हुए मुफ्त में औनलाइन बातचीत और मैसेजिंग की सुविधा देने वाले स्काइप पर अक्तूबर 2017 में रोक लगा दी थी. दावा किया गया कि इस के स्वामित्व वाली कंपनी माइक्रोसौफ्ट ऐप्पल के चीन स्थित ऐप स्टोरों से स्काइप को पूरी तरह हटा दिया गया था.

स्काइप जैसे ऐप पर पाबंदी वर्ष 2017 की शुरुआत में ही वहां लग चुकी है. चीन में व्हाट्सऐप की जगह उस के चीनी विकल्प वीचैट को पेश किया गया, जिस के वहां करीब 9 करोड़ उपभोक्ता हैं.

वर्ष 2014 में जब युवाओं के कुछ संगठनों ने हौंगकौंग में बेहद चर्चित आंदोलन ‘अंबे्रला रिवोल्यूशन’ चलाया तो इस के लिए फोटो शेयरिंग ऐप इंस्टाग्राम को अपने आंदोलन का जरिया बनाया. यह देखते हुए चीन ने अपने यहां इस ऐप को बैन कर दिया.

कुछ ऐसा ही नजारा तब दिखा जब जुलाई 2009 में चीन के शिंजिंयाग प्रांत में हुए उरुमक्वी दंगों में फेसबुक के बढ़चढ़ कर इस्तेमाल की बात पता चली. इस के बाद चीन ने तुरंत फेसबुक पर रोक लगा दी, हालांकि हौंगकौंग और मकाऊ के कुछ इलाकों में कुछ शर्तों के साथ इस के प्रयोग की छूट दी गई.

चीन ने जून 2009 में ट्विटर के साथसाथ ब्लौगिंग के प्लेटफौर्म ब्लौगर और वर्डप्रैस पर भी रोक लगा दी थी. हालांकि, कुछ चीनियों ने इस पाबंदी को धता बताते हुए जुगाड़ के जरिए इन का इस्तेमाल जारी रखा.

यूट्यूब पर भी चीन में सब से पहले 2007-08 के कुछ महीनों के लिए रोक लगाई गई थी, पर इस पर बाद में पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई. अब यूट्यूब सिर्फ हौंगकौंग, मकाऊ, शंघाई फ्री टे्रड जोन में ही देखा जा सकता है.

चीन में सब से ज्यादा चर्चा वर्ष 2014 में गूगल व जीमेल पर रोक लगाने की हुई. असल में गूगल और चीन के रिश्तों में हर समय उतारचढ़ाव आता रहा है. फिलहाल वहां इस पर पाबंदी है. लेकिन वर्ष 2010 से गूगल ने अपना कामकाज हौंगकौंग की ओर शिफ्ट कर दिया जहां इस पर सैंसर की कोई पाबंदी नहीं है.

कैरियर इन क्रिएटिव फील्ड

यदि आप क्रिएटिविटी और फैशन को ले कर पैशनिस्ट हैं तो ग्लैमर वर्ल्ड में अपना कैरियर तलाश सकते हैं. इस में थोड़ा रिस्क तो है, लेकिन अगर कामयाब हो गए तो पौपुलैरिटी के साथसाथ पैसा भी खूब है. आज फैशन की दुनिया का दायरा काफी बढ़ गया है. रैंप शो, फैशन शो, ब्रैंड प्रमोशन इवैंट सभी बड़े और मेगा बजट के होने लगे हैं. इन के बढ़ने से आज की जैनरेशन ग्लैमर को बतौर कैरियर अपनाने के लिए उत्सुक है.

युवाओं के लिए यह फील्ड काफी आकर्षक है, क्योंकि इस में क्रिएटिविटी और इमैजिनेशन में ग्लैमर का तड़का लगाने की जरूरत होती है. यंग जैनरेशन हर बार कुछ नया करना चाहती है, इस फील्ड में इस की सब से ज्यादा जरूरत भी है. आइए जानते हैं कुछ ऐसे ही ग्लैमरस कैरियर औप्शंस के बारे में :

फैशन कोरियोग्राफी

आमतौर पर यों तो फैशन कोरियोग्राफी को ही फैशन डिजाइनिंग समझा जाता है, जबकि ऐसा नहीं है. कोरियोग्राफर पर ही पूरे शो की जिम्मेदारी होती है. किस मौडल को क्या पहनना है, रैंप पर कब किस मौडल को कैसे कैटवाक करनी है, साथ ही शो स्टौपर के साथ मौडल्स की पोजिशंस को भी कोरियोग्राफर ही मैनेज करता है.

डिमांड : आएदिन फैशन शोज और प्रमोशन इवैंट होते रहते हैं. ऐसे में यह इवैंट फैशन इंडस्ट्री में हो रहे अपडेट्स को जानने का भी एक बेहतरीन सोर्स है. साथ ही फैशन कोरियोग्राफर्स की डिमांड भी लगातार बढ़ रही हैं. इतना ही नहीं, कालेज इवैंट्स के अलावा कौर्पाेरेट इवैंट्स में भी फैशन शोज काफी पौपुलर हो रहे हैं.

स्टडी से ज्यादा लाइव ऐक्सपीरियंस: इस फील्ड की खास बात यह है कि इस में थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल पर जोर दिया जाता है. अगर आप में क्रिएटिविटी है तो किसी फैशन कोरियोग्राफर के साथ काम सीख सकते हैं. शुरुआत में कम सैलरी मिलती है. लेकिन जैसेजैसे आप के शोज हिट होते जाते हैं, वैसेवैसे आप की इनकम बढ़ती जाती है. आप चाहें तो आगे चल कर एक ब्रैंड के रूप में भी काम कर सकते हैं. यह आप को अपनी एक अलग पहचान देगा.

नौलेज जरूरी : फैशन कोरियोग्राफर में म्यूजिक के सेलैक्शन और कलैक्शन की समझ के साथसाथ शो के लिए लुक और थीम तैयार करने की भी समझ होनी चाहिए. कोरियोग्राफर को एक ही समय पर कई सारे काम करने पड़ते हैं, जैसे मौडल और डिजाइनर से ड्रैस की फिटिंग चैक कराना, शो को डायरैक्ट करना, डीजे म्यूजिक और लाइट इंजीनियर के साथ कोओर्डिनेट करना.

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मौडलिंग

अट्रैक्टिव लुक और बेहतर कम्युनिकेशन स्किल्स इस क्षेत्र में सफलता का मूलमंत्र है. बीटाउन में ऐंट्री करने वाले कई ऐक्टरऐक्ट्रैस मौडलिंग से ही ऐक्टिंग में आए हैं. ऐश्वर्या राय से ले कर जौन अब्राहम तक सभी पहले मौडलिंग करते थे. यदि आप का चेहरा फोटोजैनिक है और फैशन, ग्लैमर आप को शुरू से ही अट्रैक्ट करता रहा हो तो मौडलिंग आप के लिए बढि़या कैरियर औप्शन होगा.

 टैलीविजन मौडलिंग : इस में आप को मूवी कैमरों के सामने मौडलिंग करनी पड़ती है, जिस का इस्तेमाल टीवी विज्ञापनों, सिनेमा, वीडियो और इंटरनैट में किया जाता है. आजकल डिजिटल मीडियम में भी इस के अवसर बढ़े हैं.

प्रिंट मौडलिंग : इस में स्टिल फोटोग्राफर्स मौडल्स की तसवीरें लेते हैं, जिन का इस्तेमाल अखबार, ब्रोशर्स, पत्रिकाओं, कैटलौग, कैलेंडरों आदि में किया जाता है.

शोरूम मौडलिंग : शोरूम मौडल्स आमतौर पर निर्यातकों, गारमैंट निर्माताओं और बडे़ रिटेलरों के लिए काम करते हुए फैशन को प्रदर्शित करते हैं.

रैंप मौडलिंग : इस में मौडल्स को रैंप पर वाक करते हुए किसी नामी फैशन डिजाइनर के कपड़ों की झलक दिखानी होती है. रैंप मौडल की खड़े होने की अदा, चलने की शैली और बौडी लैंग्वेज का बेहतर होना जरूरी है.

क्या है जरूरी : मौडलिंग के क्षेत्र में आने के लिए यों तो किसी खास तरह की योग्यता का होना जरूरी नहीं है, हां, लड़कियों के लिए इस फील्ड में लंबाई 5 फुट 7 इंच और लड़कों के लिए 5 फुट 10 इंच होनी जरूरी है. इसी के साथ ही अगर आप ने किसी मौडलिंग इंस्टिट्यूट से ट्रेनिंग ले रखी है तो सोने पर सुहागा. 12वीं के बाद आप सीधे इस क्षेत्र में दाखिला ले सकते हैं.

कहां से करें : जे डी इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइन मुंबई, नैशनल इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइन चंडीगढ़, आर के फिल्म्स ऐंड मीडिया एकेडमी, नई दिल्ली.

फैशन डिजाइनिंग

आज डिजाइनर कपड़ों की बढ़ती मांग के चलते फैशन इंडस्ट्री में तेजी से उछाल आया है. इंडियन फैशन इंडस्ट्री ग्लोबल रूप ले चुकी है. हर महीने करोड़ों का कारोबार होता है. यहां तक कि भारत में तैयार होने वाले कपड़ों की मांग विदेशों में भी खूब है.

ऐसे में फैशन डिजाइनिंग में कैरियर की काफी अच्छी संभावनाएं हैं. ऐक्सपोर्ट हाउस, फैशन डिजाइनर, गारमैंट चेन स्टोर, टैक्सटाइल मिल, लाइफस्टाइल मैग्जीन के साथ आप फैशन मर्चेंडाइजर के रूप में फैशन डिजाइनर के साथ काम कर सकते हैं या ऐक्सपोर्ट हाउस के साथ जुड़ सकते हैं. अगर आप कुछ हट कर करना चाहते हैं तो शू डिजाइनिंग या फिर ज्वैलरी डिजाइनिंग से ले कर ऐक्सैसरी डिजाइनिंग जैसे कैरियर भी चुन सकते हैं. फैशन और ग्लैमर का तालमेल तो हमेशा ही रहा है, यही कारण है कि यह क्षेत्र यूथ को बेहद आकर्षित करता है.

कोर्स : यह प्रोफैशनल कोर्स 12वीं के बाद किया जा सकता है. इस के तहत अपेरल डिजाइनिंग, फैशन डिजाइनिंग, प्रोडक्शन मैनेजमैंट, क्लौथिंग टैक्नोलौजी, टैक्सटाइल साइंस, अपेरल कंस्ट्रक्शन मैथड, फैब्रिक ड्राइंग और प्रिंटिंग, कलर मिक्सिंग तथा कंप्यूटर एडेड डिजाइन आदि क्षेत्रों में से किसी एक का चुनाव कर सकते हैं. इस में सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, एडवांस डिप्लोमा, फाउंडेशन डिगरी, डिगरी और पीजी डिगरी तक कोर्स उपलब्ध हैं. निफ्ट जैसे संस्थान में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा, ग्रुप डिस्कशन और इंटरव्यू के दौर से गुजरना पड़ता है.

कहां से करें : नैशनल इंस्टिट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी दिल्ली, एमिटी स्कूल औफ फैशन टैक्नोलौजी नोएडा, नैशनल इंस्टिट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी मुंबई, सिंबायोसिस इंस्टिट्यूट औफ डिजाइन पुणे.

क्या कहना है मौडलिंग से ऐक्टिंग में आए सितारों का

वानी सूद : श्रीदेवी के साथ फिल्म ‘मौम’ और कई टीवी शोज में आने वाली दिल्ली गर्ल वानी सूद कहती हैं, ‘‘ मैं अपने कालेज के फैशन वीक में हिस्सा लेती थी. जब लोगों ने एप्रिशिएट किया तब कई ब्रैंड्स और फैशन शोज में मौडलिंग की. मैं मुंबई मौडलिंग के लिए ही आई थी लेकिन साथ में ऐक्टिंग प्रोजैक्ट्स के लिए औडिशन देती रही, चांस मिला तो ऐक्टिंग में आ गई.’’

अर्जित तनेजा : अर्जित ने भी अपनी शुरुआत मौडलिंग से की थी. वे कहते हैं, ‘‘मैं ने कभी ऐक्टिंग में कैरियर बनाने की नहीं सोची थी. शौकिया मौडलिंग करता था. एक बार किसी फैशन शो के लिए मुंबई जाना पड़ा तो मेरा पोर्टफोलियो वहां शेयर हुआ और मुझे एक टीवी शो के औडिशन के लिए बुला लिया गया.’’

क्रिएटिव सोच वाले ही सक्सैसफुल हैं

दिल्ली एनसीआर में कई बड़े फैशन शोज की कोरियोग्राफी कर चुके पुष्कर कहते हैं, ‘‘फैशन कोरियोग्राफी का क्षेत्र बहुत बड़ा है, इस में हार्डवर्क और कई चैनलों में एकसाथ काम और कोऔर्डिनेशन करना पड़ता है. मेरी टीम कई बार 12 घंटे से भी ज्यादा काम करती है. यह फैशन क्रिएटिव सोच रखने वाले के लिए बिलकुल सही जगह है.’’

भीख घोटाला : इन की इजाजत के बिना एक चवन्नी नहीं मांग सकता भिखारी

भारत में ट्रैफिक सिगनल की लाल बत्ती पर किसी फटेहाल औरत का अपनी गोद में बच्चा लिए किसी कार की तरफ दौड़ना या किसी छोटे बच्चे के साथ विकलांग बूढ़े का भीख मांगना दिखाई देना आम बात है. आप को रेलवे स्टेशनों, मैट्रो स्टेशनों, पर्यटन स्थलों, मंदिरों में भीख मांगते हुए कई लोग मिलेंगे और कई ऐसी जगहों पर तो रोजाना मिलेंगे जहां भीड़ ज्यादा होती है.

ऐसी ही कुछ वजहों के चलते भारत में भीख मांगना सब से गंभीर सामाजिक बुराइयों में से एक है. देश में कुछ भिखारी असली हैं, जो काम करने में नाकाम हैं क्योंकि वे बूढ़े या शरीर से लाचार हैं. उन्हें बुनियादी जरूरतों के लिए पैसे की जरूरत है, इसीलिए वे भीख मांगते हैं. ऐसे कई लोग हैं जो गरीबी रेखा से नीचे हैं और अपना पेट भरने के लिए भीख मांगते हैं.

कुछ मामले ऐसे हैं जिन में पूरे परिवार के सदस्य भीख मांगने में शामिल हैं. इस तरह के परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते, बल्कि भीख मांगते हैं. वे भीख इसलिए भी मांगते हैं क्योंकि उन के परिवार की एक दिन की आमदनी में पूरे परिवार को खिलाने के लिए जरूरत के मुताबिक पैसा नहीं है.

भीख मांगना एक घोटाला

भारत में भीख मांगने वालों का एक बड़ा रैकेट बन गया है. कई लोगों के लिए भीख मांगना किसी दूसरे पेशे की तरह है. वे पैसे कमाने के लिए बाहर जाते हैं. वे काम कर के नहीं बल्कि भीख मांग कर कमाना चाहते हैं.

ऐसे लोग गिरोह के साथ दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में भीख मांग रहे हैं. इन गिरोहों के अपने नेता होते हैं. हर नेता भिखारियों के एक समूह को खास इलाका बांटता है और रोजाना की कमाई उन के बीच साझा करता है.

भिखारियों का नेता अपने पास बड़ा हिस्सा रखता है और बाकी हिस्सा भिखारियों में बांट देता है. ये भिखारी भीख मांगने में इतने लीन हो जाते हैं कि इस के अलावा और कोई काम नहीं करना चाहते हैं.

यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन असली भिखारी है और कौन बनावटी भिखारी है क्योंकि दोनों देखने में एकजैसे ही लगते हैं. यहां तक कि उन के बच्चों को भीख मांगने और असली दिखने के लिए ठीक से ट्रेंड किया जाता है. जब हम एक जवान को उस के छोटे बच्चे को पकड़े हुए सड़कों पर भीख मांगते हुए देखते हैं तो कभीकभी उन के चेहरे को देख कर हमारे दिल पसीज जाते हैं.

ज्यादातर मामलों में बच्चे को सोते (नशे की हालत में) हुए पाया जाता है, यकीनी तौर पर यह एक घोटाला है. कई स्टिंग औपरेशनों से पता चला है कि भीख मंगवाने में बच्चों को किराए पर लिया जाता है. कभीकभी बच्चों को पूरे दिन के लिए नशा दे दिया जाता है ताकि वे बीमार लगें.

भिखारी को बहुत अच्छे ढंग से ट्रेनिंग दी जाती है ताकि जब वह भीख मांग रहा हो तो आप उन्हें पैसे देने के लिए राजी हो जाएं, खासतौर पर विदेशियों के लिए.

भिखारी देश में असामाजिक तत्त्व बन जाते हैं. वे सभी ड्रग्स का सेवन करने लगते हैं. ड्रग्स खरीदने के लिए पहले वे भीख मांगना शुरू करते हैं, फिर जब जेबखर्च धीरेधीरे बढ़ता है तो वे लूट और हत्या जैसे बड़े अपराधों में शामिल हो जाते हैं.

देश में 4 लाख से भी ज्यादा भिखारी हैं. सब से ज्यादा भिखारी पश्चिम बंगाल में हैं और सब से कम भिखारी के मामले में लक्षद्वीप हैं. वहां महज 2 भिखारी हैं.

लोकसभा में एक लिखित सवाल का जवाब देते हुए सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने यह जानकारी दी. उन्होंने बताया कि जनसंख्या सर्वे 2011 में जमा किए गए आंकड़ों के आधार पर यह जानकारी मुहैया कराई गई है.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में कुल 4 लाख, 13 हजार, 670 भिखारी हैं, जिस में से 2 लाख, 21 हजार, 673 मर्द और एक लाख, 91 हजार, 997 औरतें हैं.

देशभर में पश्चिम बंगाल में भिखारियों की तादाद सब से ज्यादा 81 हजार, 224 है. इस के बाद नंबर आता है उत्तर प्रदेश का जहां 65 हजार, 835 भिखारी हैं. तीसरे नंबर पर बिहार है जहां 29 हजार, 723 भिखारी हैं. मध्य प्रदेश में 28 हजार, 695 भिखारी हैं.

पूर्वोत्तर के राज्यों में भिखारियों की तादाद असम में सब से ज्यादा है और मिजोरम में सब से कम. दक्षिण के राज्यों में सब से कम भिखारी केरल में हैं तो सब से ज्यादा भिखारी आंध्र प्रदेश में हैं.

इस आंकड़े के मुताबिक, पश्चिम बंगाल सहित असम, मणिपुर जैसे राज्यों में मर्द भिखारियों के मुकाबले औरत भिखारियों की तादाद ज्यादा है.

केंद्रशासित प्रदेशों में सब से ज्यादा भिखारी दिल्ली में हैं. दिल्ली में कुल 12,187 भिखारी हैं, जबकि चंडीगढ़ में कुल 723.

क्या करना चाहिए

भारत में तेजी से भिखारियों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है. सरकार, विभिन्न संगठन, कार्यकर्ता दावा करते हैं कि भिखारियों को खत्म करने के लिए कई उपाय किए गए हैं और कुछ हद तक कामयाब भी हुए हैं. लेकिन भीख मांगने की आदत अभी भी जारी है.

हमें भी इस के लिए कुसूरवार ठहराया जाना चाहिए क्योंकि हम भारतीयों के रूप में बहुत रूढ़िवादी और ऊपर वाले से डरने वाले हैं. हम ने अपने मन को धार्मिक सीमा में बांध कर रखा है. यह हमें दान करने के लिए मजबूर करता है और दान करने का सब से आसान तरीका है कि पास के मंदिर में जाएं और वहां पर भिखारियों को भीख दें. यह उन्हें निकम्मा बनाता है और आम आदमी को रिश्वत देने की आदत डालता है.

यह सेवा का काम नहीं है. भीख देना बंद करना चाहिए. भले ही चाहे ऐसा लगे कि हम बेरहम हैं, पर जब कोई छोटा बच्चा सड़क पर भीख मांगने के लिए आए तो उसे पैसा न दिया जाए. यह एक ऐसा कदम है जिस से भिखारियों को कम करने में कुछ हद तक मदद मिल सकती है.

गरीब पिछड़े दलितों की कब्र बनते टैंक और गटर

हर किसी को यह एहसास है कि अब होना जाना कुछ नहीं है और जो होना था वह हो चुका है, लेकिन जो हुआ उस पर कोई हल्ला नहीं मचा, जबकि यह दिल दहला देने वाला हादसा है. रक्षाबंधन क्या कोई भी त्योहार गरीबों के लिए खास माने नहीं रखता, उलटे रोज कमानेखाने वालों को तो कोफ्त ही होती है, क्योंकि छुट्टी के दिन दिहाड़ी नहीं मिलती और अगर टैंपरेरी नौकरी वाले हो तो पगार कट जाती है.

चंबल इलाके के मुरैना जिले के गांव धनेला के तिलहन संघ के दफ्तर के नजदीक एक फैक्टरी साक्षी फूड प्रोडक्ट्स है, जिस में चैरी बनाने और सप्लाई करने का काम होता है. इस फैक्टरी के मालिक इलाके के नामी और रसूखदार रईस कौशल गोयल हैं, जिन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर यह फैक्टरी खोली है.

कौशल गोयल के रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन की फैक्टरी एक ऐसे इलाके में चल रही थी, जो इंडस्ट्रियल नहीं है.

रक्षाबंधन की दोपहर साक्षी फूड के इर्दगिर्द काफी गहमागहमी थी. कलक्टर और एसपी समेत छोटेबड़े सरकारी मुलाजिमों के अलावा सैकड़ों गांव वाले जमा थे, जिस की वजह थी टैंक में 5 मजदूरों का मर जाना.

फैक्टरी के टैंक ने एकएक कर के जब 5 लाशें उगलीं तो वहां मौजूद लोगों का कलेजा कांप उठा. कुछ ने अपना गुस्सा भी जताया, जिसे बड़ी चतुराई से अफसरों ने ‘मैनेज’ कर लिया.

पांचों लाशों के निकलने के बाद इस हादसे की पूरी कहानी सामने आई, जिस के मुताबिक मरने वालों के नाम वीर सिंह, राजेश, रामावतार, गिरिराज और रामनरेश थे.

रामावतार, रामनरेश और वीर सिंह टिकटोली गांव के बाशिंदे थे और सगे भाई थे, जबकि राजेश और गिरिराज घुरैया वसई गांव के रहने वाले थे. इन सभी की उम्र 40 साल से कम थी. गिरिराज तो महज 28 साल का था. ये पांचों इस लालच या उम्मीद में टैंक की सफाई करने के लिए राजी हो गए थे कि इस मेहनत से जो पैसा मिलेगा उस से शाम को अपनी बहनों के लिए तोहफा और मिठाई वगैरह घर लेते जाएंगे.

एक के बाद एक इस फैक्टरी में पपीते से चैरी और गुलकंद बनते हैं. फलों का खराब मैटिरियल और पानी एक टैंक में जमा होता जाता है, लेकिन इस टैंक की कई दिनों से साफसफाई नहीं हुई थी, इसलिए इस बाबत हादसे वाले दिन इन पांचों को फैक्टरी वालों ने बुलाया था.

टैंक जो पांचों की कब्र बन गया तकरीबन 9 फुट गहरा है. पहले इन में से कोई 2 आदमी टैंक की सफाई के लिए नीचे उतरे, लेकिन टैंक में पानी गहरा था और कोई जहरीली गैस भी उस में से रिस रही थी, इसलिए वे जान बचाने की गरज से मदद के लिए चिल्लाए तो बाकी 3 भी एकएक कर के टैंक में कूद पड़े.

ऐसे दूसरे सैकड़ोंहजारों हादसों की तरह इन पांचों को भी मास्क और दस्तानों समेत हिफाजत के दूसरे सामान या औजार मुहैया नहीं कराए गये थे, जिस से इन का दम घुट गया. हल्ला मचा तो फैक्टरी में मौजूद लोग और गांव वाले टैंक के पास पहुंच गए.

किसी ने पुलिस को खबर कर दी, जिस ने आ कर इन्हें बाहर निकाला और इलाज के लिए जिला अस्पताल पहुंचाया, जहां डाक्टरों ने उन्हें मरा घोषित कर लाशों का पोस्टमार्टम किया.

अब तक अस्पताल में भी भीड़ जमा हो चुकी थी और कार्यवाही की मांग करने लगी थी, लेकिन भारीभरकम पुलिस ने कोई ‘अनहोनी’ नहीं होने दी.

हादसे की खबर चंबल इलाके में आग की तरह फैली. तरहतरह की बातों के बीच पता चला कि मरने वाले गुर्जर समाज के नौजवान थे, जिस की गिनती उन पिछड़ों में होती है, जिन्हें छूने से सवर्णों को पाप नहीं लगता और उन्हें नहाना नहीं पड़ता. माली हालत की तरह इन की सामाजिक हैसियत भी धार्मिक किताबों के मुताबिक शूद्रों सरीखी ही है.

मौके की नजाकत को भांपते हुए कलक्टर ने मरने वालों के घर वालों को 50,000-50,000 रुपए की इमदाद देने की घोषणा कर डाली, लेकिन अब तक गुर्जर समाज के लोग फैक्टरी मालिक

के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग करने लगे थे, इसलिए प्रशासन की तरफ से खबर आई कि फैक्टरी मालिक एकएक लाख रुपए और मरने वाले के घर के एकएक मैंबर को नौकरी देने को तैयार हो गया है, तो लोगों का गुस्सा कुछ कम हुआ.

मारे गए पांचों की बहनें राखी का थाल सजाए भाइयों का इंतजार करती रहीं, लेकिन खबर उन की मौत की पहुंची तो दोनों गांवों में मातम पसर गया. इन बहनों पर क्या गुजरी होगी, इस का कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता, जिन्होंने राखी के दिन अपने भाइयों को खो दिया.

आएदिन की बात है धन्ना सेठों का लिहाज और खौफ ही इसे कहा जाएगा कि गुर्जर समाज के विरोध के बाद भी पुलिस प्रशासन ने फैक्टरी मालकिन के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज नहीं किया.

6 दिन बाद समाज के लोगों ने कलक्ट्रेट का घेराव कर मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन दिया, लेकिन गुर्जर समाज के लोगों को दुख और हैरत इस बात का भी रहा कि कोई मंत्री, विधायक, सांसद या दूसरा कोई बड़ा नेता उन के साथ खड़ा नहीं हुआ, जबकि माहौल पूरी तरह से चुनावी था.

तय है कि इस से उन्हें समझ आ गया होगा कि दौर दबंगों और अमीरों का है. दलित पिछड़े गरीबों की जिंदगी की कीमत महज एक लाख रुपए होती है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी ट्वीट कर हादसे पर दुख जताने की सियासी रस्म निभा दी.

मुरैना के जैसे सैकड़ों हादसे आएदिन होते रहते हैं, जिन पर 2-4 दिन तो हल्ला मचता है, लेकिन बात फिर आईगई हो जाती है. टैंकों, सीवरों, बौयलरों और गटरों में मरने वालों पर कोई गंभीर है, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. ऐसे कुछ हादसों पर नजर डालें, तो समझ आता है कि चूंकि मरने वाले ज्यादातर सफाई मुलाजिम दलित, पिछड़े, गरीब होते हैं, इसलिए किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती :

* इसी साल 15 जून को मुरैना के ही नजदीक ग्वालियर के पुराने रेशम मिल इलाके की एक सीवर लाइन के गटर को साफ करते समय 2 सफाई मुलाजिम अमन और विक्रम करोसिया बेमौत मारे गए थे. इन दोनों की हिफाजत के भी कोई इंतजाम नहीं थे.

हादसे की जिम्मेदारी नगरनिगम ने सफाई ठेकेदार के सिर फोड़ दी, क्योंकि मरने वाले आउट सोर्स मुलाजिम थे यानी ठेके पर काम कर रहे थे.

* भोपाल के गांधीनगर इलाके में पिछले साल दिसंबर महीने में सीवर की सफाई के दौरान एक इंजीनियर और एक मजदूर की मौत हुई थी. इन दोनों को 20 फुट गहरे गड्ढे में सफाई के लिए उतारा गया था, जहां सांस लेने के लिए औक्सीजन न मिलने से दोनों का दम घुट गया था. इन दोनों को भी हिफाजत के औजार नहीं दिए गए थे.

नगरनिगम ने सफाई का ठेका गुजरात की एक कंपनी अंकिता कंस्ट्रक्शन को दिया था, जिस ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया था कि हमें नहीं पता कि दोनों क्यों नीचे उतरे और कैसे मरे. इन दोनों की तो लाशों का भी पता न चलता, अगर लोगों की नजर चैंबर के बाहर रखे इन के जूतों पर न पड़ी होती.

* मध्य प्रदेश के ही सिंगरौली में 25 सितंबर, 2021 को इस से भी भयानक हादसा हुआ था, जिस में 3 सफाई मुलाजिम कन्हैया लाल यादव, इंद्रभान सिंह और नागेंद्र रजक को जान से हाथ धोना पड़ा था. ये तीनों भी गटर की जहरीली गैस का शिकार हुए थे.

* इसी साल 24 जनवरी को इंदौर में सीवेज लाइन डालते समय दिलान सिंह नाम के मजदूर की मौत हुई थी. यह मजदूर 25 फुट गहरे गड्ढे में गिरा था और उस का सिर धड़ से अलग हो गया था.

* बीती 25 जून को राजस्थान के कोटा के एक 25 फुट गहरे सीवेज में 3 मजदूरों कमल, किर सिंह और गलिया की भी जहरीली गैस के कारण दम घुटने से मौत हो गई थी. ये सब मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ के रहने वाले थे. तीनों को चैंबर के नीचे की पाइप लाइन से रस्सी के जरीए बाहर निकाला गया था. बन रही इमारत सरकारी थी, लेकिन यह काम भी ठेके पर चल रहा था. इस हादसे में भी मुरैना की तरह किर सिंह और गलिया सगे भाई थे. गलिया तो 4 बच्चों का पिता था, जिसे सीवेज ने निगल लिया या सिस्टम ने, बात एकही है.

* अहमदाबाद के ढोलका में भी एक बड़ा हादसा इसी साल 25 अप्रैल को हुआ था, जिस में सीवेज लाइन की सफाई के दौरान 2 मजदूर 24 साला गोपाल पाथर और 32 साला विजय पाथार मारे गए थे. इन दोनों की मौत भी गटर में दम घुटने से हुई थी.

इस हादसे पर हल्ला मचा तो पता चला कि इसी साल तकरीबन 11 सफाई मुलाजिम गटर में मारे गए हैं. गुजरात की एक एनजीओ मानव गरिमा ने दावा किया था कि गुजरात में साल 1993 से ले कर साल 2014 के बीच मरने वाले 16 मजदूरों को मुआवजा नहीं दिया है. राज्य में ऐसे कुल 45 हादसों में 95 लोग मारे गए हैं.

* पटना के जकारियापुर इलाके में इसी साल 11 अप्रैल को 2 सफाई मुलाजिम 24 साला रंजन रविदास और 23 साला मुन्ना रजक की मौत भी सीवेज की सफाई के दौरान हुई थी.

जैसा कि ऐसे ज्यादातर मामलों में होता है, इस में भी देखने में आया कि पहले एक सफाई के लिए गटर में उतरा और काफी देर तक तक वापस नहीं आया तो दूसरा भी उसे देखने उतर गया और वह भी मारा गया. रविदास को देखने मुन्ना गया, तो फिर लाश की शक्ल में ही बाहर आया. ये दोनों नमामि गंगे प्रोजैक्ट के तहत कंपनी के लिए मजदूरी कर रहे थे. इन के पास भी हिफाजत के औजार नहीं थे.

* कानपुर के बिठूर के गांव चक्रतनपुर में पिछले साल 30 अक्तूबर को 3 मजदूरों की मौत भी सीवर टैंक में गिरने से हो गई थी. मरने वालों में से एक साहिल तो नाबालिग ही था, जबकि 2 अन्य मोहित 25 साल का और नंदू 18 साल का था. ये तीनों एक बन रहे मकान की सीवर शटरिंग खोलने गटर में उतरे थे और जहरीली गैस की चपेट में आने से मारे गए.

* 22 सितंबर, 2022 को कानपुर के ही बर्रा इलाके के मालवीय विहार में भी 3 मजदूर 28 साला अंकित पाल,

25 साला शिवा तिवारी और 26 साला अमित कुमार भी एकएक कर के मारे गए थे. ये तीनों भी एक मकान का सैप्टिक टैंक साफ करने उतरे थे.

* बीती 4 अगस्त को बिहार के समस्तीपुर के मगरदही महल्ले में सैप्टिक टैंक में दम घुटने से 2 मजदूरों अमरजीत कुमार और सनी कुमार की मौत हो गई थी.

वजह वही कि दोनों एक मकान का सैप्टिक टैंक साफ करने उतरे थे और जहरीली गैस का शिकार बन गए. इन दोनों को भी मकान मालिक ने हिफाजत के लिए कोई औजार मुहैया नहीं कराए थे.

देशभर में ऐसे हादसों की तादाद बता पाना मुश्किल है, लेकिन सभी में समान बात यह है कि मरने वालों को हिफाजत के लिए औजार नहीं दिए गए थे और तकरीबन सभी गटर की जहरीली गैस के चलते दम घुटने से मरे.

समान बात यह भी है कि किसी भी मामले में सख्त कार्यवाही करने की जरूरत नहीं समझी गई, क्योंकि ये लोग गरीब थे और इन में से 90 फीसदी दलितपिछड़े तबके के थे, जिन्हें कीड़ेमकोड़ों से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता.

सरकार का सफेद झूठ

गटर और टैंकों में इस तरह मरने वालों की तादाद को ले कर सरकार हमेशा सच छिपाने की कोशिश करती रही है, जिस से उस का दामन पाकसाफ दिखे.

इसी साल जून महीने में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रामदास अठावले ने एक सवाल के जवाब में लोकसभा में बताया था कि साल 2023 में अब तक इस तरह की कुल 9 मौतें हुई हैं, जबकि साल 2022 में 66, साल 2021 में 58, साल 2020 में 22, साल 2019 में 117 और साल 2018 में

67 मौतें दर्ज की गईं. इस तरह सीवर और सैप्टिक टैंकों में सफाई करते समय साल 2018 में और जून महीने तक कुल 339 लोग मारे गए.

इस आंकड़े पर यकीन करने की कोई वजह नहीं है, जिसे कई एनजीओ ने चुनौती भी दी है, लेकिन कोई भी गूगल पर सर्च करे तो हकीकत उसे पता चल जाएगी.

लोकसभा में ही सरकार ने जानकारी दी थी कि देश में मैला ढोने की प्रथा पर पूरी तरह रोक है. इस रिवाज को रोकने के लिए कानून है, लेकिन हर कोई जानता है कि हकीकत में आज भी देश के कुछ हिस्सों में सिर पर मैला ढोने का शर्मनाक सिलसिला बदस्तूर जारी है.

खुद सरकार का सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय इसी साल जून में संसद में मान चुका है कि देश के 766 जिलों में से अब तक 508 ने ही खुद को मैला ढोने से मुक्त घोषित किया है.

इस का सीधा सा मतलब यह निकलता है कि 35 फीसदी जिलों में अभी भी मैला ढोया जा रहा है. जाहिर है कि यह काम कोई तो कर रहा होगा, नहीं तो जादू के जोर से तो मैला साफ होने से रहा.

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक बेजवाड़ा विल्सन ने मुंबई में 2 लोगों की मौत का हवाला देते हुए कहा था कि संसद में कोई कैसे कह सकता है कि हाथ से मैला ढोने से होने वाली किसी की मौत की खबर नहीं दी जा रही. इसी आंदोलन ने कुछ साल पहले अदालत को बताया था कि इस काम में तकरीबन 12 लाख लोग आज भी लगे हुए हैं.

यहां यह समझना जरूरी है कि हाथ से मैला ढोने और सीवर व सैप्टिक टैंक की सफाई के बीच में फर्क है. मुरैना जैसे हादसे बेहद आम हैं और इस के कुछ उदाहरण ऊपर बताए भी गए हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ों में इन की गिनती नहीं होती. यह एक बहुत बड़ा पेंच और कमी है.

साल 1993 में सूखे यानी शुष्क शौचालयों के बनाने और ऐसे शुष्क शौचालयों को साफ करने के लिए मैनुअल मैला ढोने वालों के रोजगार पर रोक लगाई गई थी.

साल 2013 में सीवर, खाई, गड्ढों और सैप्टिक टैंकों की सीधी सफाई के लिए मानव श्रम के इस्तेमाल पर रोक को शामिल करने के लिए कानून को और स्पष्ट किया गया था.

कानून होने के बावजूद भी कई राज्यों, जिन में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात वगैरह खासतौर से शामिल हैं, में मैनुअल स्केवेंजिंग के मामले मिले थे, जिस का कानूनी मतलब है कि मानव मल को मैनुअल रूप से ढोना और मैनुअल स्केवेंजर का मतलब होता है, वह मजदूर या सफाई मुलाजिम, जिस से स्थानीय प्राधिकारी हाथों से मैला ढुलवाने का काम करवाए, मैला साफ कराए, ऐसी खुली नालियां या गड्ढे, जिस में किसी भी तरह से इनसानों का मलमूत्र इकट्ठा होता हो, उसे हाथों से साफ कराए.

फिर साल 2013 में इस शब्द का दायरा बढ़ाते हुए जो कहा गया, उस का मतलब यह है कि किसी भी तरीके से किसी अस्वच्छ शौचालय में या किसी खुली नाली या गड्ढे में मानव मल का निबटान किया जाता है. इस में रेलवे और राज्य सरकारों को यह हक दिया गया था कि वे ऐसी खुली जगहों की पहचान तय कर सकती हैं.

यह टेढ़ीमेढ़ी सांपसीढ़ी सरीखी कानूनी भाषा अच्छेअच्छों को आसानी से समझ नहीं आने वाली, खासतौर से उन 90 फीसदी दलितों को तो कतई नहीं, जो पुश्तों से मैला ढोने के काम में ढकेल दिए गए हैं, क्योंकि धार्मिक किताबों के मुताबिक सेवा का यह काम भी ऊपर वाले ने उन्हें सौंप रखा है.

सफाई कर्मचारी आंदोलन ने साल 2018 में बताया था कि सफाई कर्मचारियों की औसत उम्र तकरीबन 32 साल ही होती है, क्योंकि सफाई के काम के दौरान उन्हें तरहतरह की बीमारियां घेर लेती हैं. इस तरह वे अपनी रिटायरमैंट की उम्र तक भी नहीं जी पाते.

सफाई मुलाजिमों के हितों से ताल्लुक रखते कानून में समयसमय पर बदलाव होते रहे, लेकिन मौतों का सिलसिला उन से थमा नहीं है. हर कहीं होने वाले हादसे इस की गवाही देते हैं. ये कानून बहुत उलझे हुए हैं. प्रोहिबिशन औफ ऐंप्लौयमैंट एंड देयर रिहैबिलिटेशन ऐक्ट 2013 सीवर और नालों की मैनुअल स्केवेंजिंग के लिए सफाई मुलाजिमों को काम करने से रोकता है.

साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में हिदायत दी थी और सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को साल 2013 का कानून पूरी तरह से लागू करने का आदेश दिया था.

अदालत ने यह भी कहा था कि सैप्टिक टैंकों में होने वाली मौतों को रोका जाए. खास बात यह भी है कि सैप्टिक टैंकों और सीवर में सफाई के दौरान मरने वालों के आश्रितों को बतौर मुआवजा 10 लाख रुपए देने का इंतजाम है.

सुप्रीम कोर्ट की यह बात ही हकीकत बताती हुई थी कि दुनिया में कहीं नहीं लोगों को मरने के लिए गैस चैंबरों में भेजा जाता है. आजादी के 76 साल गुजर जाने के बाद भी जातिगत भेदभाव कायम है.

अदालत ने कई तरह के और अफसोस जताते हुए यह भी कहा था कि मैनुअल स्केवेंजिंग में लगे लोगों को औक्सीजन गैस सिलैंडर और मास्क जैसे औजार क्यों नही दिए जा रहे? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चिथड़े देश में हर कहीं उड़ते देखे जा सकते हैं.

जमीनी हकीकत

सीवेज और गटर में सफाई के दौरान मरने वालों में से मुरेना समेत किसी भी शहर के मजदूर के पास हिफाजत के औजार नहीं थे. इस बारे में भोपाल के कुछ सफाई वालों से बात की गई तो पता चला कि न तो नगरनिगम इन्हें मुहैया कराता है और न ही ठेकेदार देते हैं.

एक ठेकेदार से यह सवाल किया गया, तो वह बेहद नफरत भरे लहजे में बोला, ‘‘हम तो देते हैं, लेकिन ये लोग ही  नहीं लेते और ले भी लेते हैं, तो इस्तेमाल नहीं करते. इन का असली औजार तो शराब है, जिसे बिना पिए सफाई के लिए सीवर, नालियों और  गड्ढों में नहीं उतर पाते.’’

सफाई मुलाजिमों ने पूछने पर ईमानदारी से बताया कि हां, यह सच है कि हम वहां बिना नशे के नहीं जा सकते, क्योंकि चैंबरों, सीवेज और टैंकों में भयंकर बदबू आती है और तरहतरह के कीड़ेमकोड़े भी रहते हैं. होश में यह काम नहीं किया जा सकता.

एक सफाई मुलाजिम के मुताबिक, प्राइवेट तौर पर चैंबर या टैंक साफ करने के एवज में 500 रुपए तक मिल जाते हैं, जबकि नगरनिगम का ठेकेदार 8,000 से 10,000 रुपए महीना देता है यानी कुछ पैसों के लिए सफाई मुलाजिम अपनी जान पर खेलने को तैयार हो जाते हैं, तो यह उन की मजबूरी भी है और जरूरत भी.

सफाई के काम में लगे 90 फीसदी से भी ज्यादा लोग दलित होते हैं, जो पीढि़यों से मैला ढोते आ रहे हैं, बस तरीका बदल गया है. साल 2021 में इस बात को केंद्र सरकार भी संसद में मान चुकी है कि मैला ढोने के काम में लगे 97 फीसदी लोग अनुसूचित जातियों के हैं.

इन लोगों से ताल्लुक रखती सुकून देने वाली एकलौती बात यह है कि ये लोग अपने बच्चों को इस घटिया और जानलेवा पेशे में नहीं लाना और लगाना चाहते, इसलिए उन्हें पढ़ा रहे हैं. हालांकि हालात हाहाकारी तरीके से बदलेंगे, ऐसा लगता नहीं.

जब भोपाल के ही दूसरे लोगों से मुरैना जैसे हादसों पर राय मांगी गई, तो उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि अब तो ऊंची जाति वाले भी सफाई मुलाजिम बनने लगे हैं, लेकिन पूछने पर कोई भी तीन से ज्यादा नाम नहीं बता पाया.

सवाल यह भी अहम नहीं है कि ऊंची जाति वाले कुछ लोग इस पेशे में आ गए हैं, अहम सवाल उन की जिंदगी का है, जिस की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं.

हर गली में शराबी फिल्में चसका लगाएं, सरकारें चुप्पी साध जाएं

साल 2013 में एक फिल्म आई थी ‘ये जवानी है दीवानी’. रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की इस फिल्म में 4 जवान दोस्तों की जिंदगी पर फोकस किया गया था, जिस में महंगी डैस्टिनेशन शादी को बड़े जोरशोर से दिखाया गया था.

साथ ही, उस शादी में शराब पानी से ज्यादा परोसी गई थी.फिल्म के हर दूसरे सीन में कोई न कोई शराब का गिलास हाथ में लिए खड़ा होता है और किसी को इस बात से परहेज नहीं था कि मर्द शराब पी रहा है या औरत. बूआ, चाचा, मामा और भानजेभतीजी सब नशे के आगोश में थे.

ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी शराब कंपनी ने फिल्म में पैसा लगाया हो.साल 1984 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘शराबी’ में तो एक गाना ही था कि जहां ‘चार यार मिल जाएं वहीं रात हो गुलजार…’ इस फिल्म का हीरो शराबी का किरदार निभा रहा था.

जब वही ऐसा गाना गाएगा, तो समझ जाइए कि शराब ही रात गुलजार करने का एकलौता सहारा होगी. उस की कार की डिक्की में ही बार बना हुआ था, जिस में शराब की बोतलें सजी थीं.और तो और, फिल्म ‘दबंग’ में पुलिस चुलबुल पांडे का किरदार निभा रहे सलमान खान ‘हम का पीनी है, पीनी है, पीनी…’ कहते हुए जरा भी नहीं झिझकते हैं.

खाकी वरदीधारी सिर पर बोतल धर कर बेहूदगी से मटक रहे होते हैं.शराब के गाने पर तो हनी सिंह ने हद ही कर दी. ‘चार बोतल वोडका, काम मेरा रोज का…’ गा कर उन्होंने नई पीढ़ी को जता दिया कि शराब किस तरह हमारी जिंदगी में घुस चुकी है.

कव्वाली हो या गजल, रैप हो या दुख भरा गीत या फिर शादी के डीजे पर बजने वाले गाना, शराब का गुणगान इस तरह करते नजर आ रहे हैं, जैसे किसी ने अगर शराब नहीं पी है तो उसे जीने का सलीका ही नहीं आया है.

फिल्मों में काम करने वाले सैलेब्रिटी असल जिंदगी में भी शराब के चसके से दूर नहीं रह पाते हैं. इन की पार्टियों में शराब की खूब खपत होती है. रात को बहुत से फिल्म कलाकार नशे में झूमते कैमरे में कैद होते देखे गए हैं.

अब तो उन के बच्चे भी ऐसी स्टार पार्टियों में शराब के शौकीन होते जा रहे हैं. संजय दत्त, रणबीर कपूर, मनीषा कोइराला, सुष्मिता सेन ने तो कबूल किया हुआ है कि एक समय वे सब शराब की गिरफ्त में रह चुके हैं.

शराब को इस तरह ग्लैमराइज कर के फिल्म वाले तो करोड़ों रुपए कमा लेते हैं, पर ऐसी फिल्में देख कर शराब पीने वाले आम लोगों खासकर नई पीढ़ी का जिस तरह बेड़ा गर्क हो रहा है, वह चिंता की बात है. हमारे देश में शराब की खपत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि इस तस्करी हद पर है. एक बानगी देखिए :

* अगस्त, 2023. पंजाब से गुजरात शराब ले जाते एक ट्रक को अहमदाबाद हाईवे पर पकड़ा गया. ट्रक से 940 कार्टन शराब जब्त करने के साथसाथ 2 लोगों को भी गिरफ्तार किया गया. उस शराब की कीमत तकरीबन एक करोड़ रुपए आंकी गई. ट्रक में बुरादा भर कर उस के भीतर शराब छिपाई गई थी.

* अगस्त, 2023. बिहार के पूर्वी चंपारण जिले की पुलिस ने भारी मात्रा में विदेशी शराब से लदे एक ट्रक को जब्त किया. इस दौरान ट्रक का मालिक और ड्राइवर भी गिरफ्तार हुआ. जब्त ट्रक समेत शराब की कीमत सवा करोड़ रुपए बताई गई.

* जुलाई, 2023. पुलिस और स्पैशल टास्क फोर्स ने हरियाणा से तस्करी कर बिहार जा रहे एक ट्रक से गैरकानूनी शराब पकड़ी. पुलिस ने तस्करों को भी गिरफ्तार किया. कीटनाशक दवाओं के नीचे शराब की पेटियां भरी हुई थीं. इन चंद खबरों से अंदाजा हो जाता है कि भारत में शराब की इतनी ज्यादा खपत है कि यहां शराब की तस्करी धड़ल्ले से होती है.

आंकड़ों की बात मानें, तो एक स्वैच्छिक संगठन कंज्यूमर वौइस के मुताबिक, भारत में प्रति व्यक्ति शराब (42 फीसदी से ज्यादा अलकोहल) की खपत 13.5 लिटर सालाना है, जो दुनिया में सब से ज्यादा है.एक और रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकरीबन 16 करोड़ लोग अलकोहल का सेवन करते हैं. इन में 95 फीसदी मर्द हैं, जिन की उम्र 18 से 49 साल के बीच है.

एक सर्वे कंपनी क्रिसिल द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में 5 राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल के लोग देश में बिकी कुल शराब का तकरीबन 45 फीसदी सेवन कर गए थे.सरकार को टैक्स से मतलबदिक्कत यह है कि ‘शराब है खराब’ की बात तो हर कोई जानता है, इस के बावजूद भारत में इस सामाजिक बुराई की खपत में पिछले कुछ साल में (साल 2010 और साल 2017 के बीच) 38 फीसदी बढ़ोतरी देखी गई थी.

एक तरफ शराब से मिलने वाले मुनाफे से सरकार अपना खजाना भरने में बिजी है, वहीं दूसरी तरफ घर नशे की इस आफत से टूट रहे हैं, खत्म हो रहे हैं, पर किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है.सरकार के रेवैन्यू कलैक्शन में 10 से 15 फीसदी तक की हिस्सेदारी शराब की बिक्री से मिलने वाले टैक्स की होती है.

उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों के टैक्स रेवैन्यू में तो 20 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी शराब की है.मार्चअप्रैल, 2020 में कोरोना की वजह से जब लौकडाउन लगा तो शराब की दुकानें भी बंद कर दी गई थीं.

इस से सरकारों को बहुत नुकसान हुआ था. लेकिन जब शराब की दुकानें फिर खुलीं तो एक दिन में ही सरकारों ने खूब कमाई की.‘आज तक’ की एक खबर के मुताबिक, अकेले उत्तर प्रदेश में एक दिन में 100 करोड़ रुपए से ज्यादा की शराब बिकी थी.

वहीं, महाराष्ट्र सरकार को भी एक दिन में 11 करोड़ रुपए से ज्यादा का रेवैन्यू मिला, जबकि दिल्ली सरकार ने हफ्तेभर में 235 करोड़ रुपए की शराब बेच दी थी.परिवार होते बरबाद‘शराब की लत’ ये 3 ऐसे भयावह शब्द हैं, जो हर तीसरे घर को लीलते दिख रहे हैं.

चूंकि शराब पीने का चसका कम उम्र में लग जाता है और चढ़ती जवानी में ही यह लोगों को अपनी चपेट में ले लेती है. लिहाजा, यह शराबी के साथसाथ उस के परिवार को भी तबाह कर देती है.‘अमर उजाला’ अखबार में साल 2020 में पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में शराब के कहर पर एक रिपोर्ट छपी थी.

उस में बड़ी गंभीर जानकारी दी गई थी कि एचएनबी केंद्रीय गढ़वाल यूनिवर्सिटी के शिक्षा संकाय ने 2 साल पहले उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली के एक इलाके में शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक दशा पर एक रिसर्च कराई थी.

इस में बेहद चौंकाने वाली बात यह थी कि पुरुषों की औसतन मृत्यु आयु 37.5 साल (सामान्य मृत्यु आयु 50 साल से ऊपर को छोड़ कर) आई थी.इस की वजह शराब से बीमारी लगना थी. यूनिवर्सिटी के गैस्ट टीचर आशु रौलेट ने चमोली के जोशीमठ इलाके में परिवारों के सामाजिक लैवल की स्टडी की थी, जिस में पिछले 25 सालों में 50 फीसदी लोगों की मौत घर में बनाए जाने वाली कच्ची शराब से हुई थी.किसी घर में शराब के सेवन से 35 साल में, तो किसी घर में 40 साल में घर के कमाऊ सदस्य की मौत हो गई थी.

इस वर्ग में सिर्फ 3 फीसदी ही ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं. 21 फीसदी ने प्राइमरी और 18 फीसदी ने मिडिल के बाद पढ़ाई छोड़ दी. शराब पीने से कमाऊ सदस्य की अचानक मौत ने इन की पढ़ाई छुड़ा दी. माली हालत बिगड़ने पर बच्चों को पढ़ाई छोड़ कर मजबूरन कोई रोजगार करना पड़ा.ये हालात सिर्फ तथाकथित ‘देवभूमि उत्तराखंड’ के ही नहीं हैं, कमोबेश भारत के हर राज्य में शराब ने अपनी जानलेवा जड़ें जमाई हुई हैं.

शर्म और दुख की बात तो यह है कि देश की तमाम सरकारें इस दानव की ‘होम डिलीवरी’ कराने पर आमादा दिखती हैं, जबकि शराब की लत एक ऐसी बुराई है, जो न सिर्फ पीने वाले पर ही असर डालती है, बल्कि हत्या, रेप, खुदकुशी या मोटरगाड़ी हादसों की एक बड़ी वजह है. इस ‘बेहया नशे’ की खासीयत यह है कि यह हर तबके को अपने में डुबो कर उस का दम घोंट देने की ताकत रखती है.

साइकोलौजिस्ट तबके ने अपनी स्टडी में पाया है कि शराबी के खून में अलकोहल की मात्रा एक फीसदी हो जाती है, तो उसे मदहोश समझा जाता है. 12 फीसदी मात्रा होने पर शराबी की चालढाल बदल या बिगड़ जाती है, जबकि यही मात्रा 15 फीसदी होने के बाद हद से ज्यादा मदहोश हो जाता है. ऐसे लोग अपनी जिंदगी की बाजी हार चुके होते हैं.

उन की सामाजिक इज्जत की धज्जियां उड़ चुकी होती हैं और उन पर हमेशा डर हावी रहता है.सरकार मंदिरों में उलझी हैपिछले 10 साल से इस देश में एक ही समस्या रह गई है कि किस तरह यह हिंदू राष्ट्र बन जाए. इस के लिए हर गलीमहल्ले में मंदिरों की बाढ़ सी आ गई है, जहां औरतों का जमावड़ा लगा रहता है.

दावा किया जाता है कि मंदिर लोगों की जिंदगी सुधार रहे हैं, पर जो औरतें उन में सिर नवाती फिरती हैं, उन्हीं के घर शराब से बरबाद हो रहे हैं, पर मजाल है कि कहीं कोई सुनवाई हो रही हो. पंडेपुजारी इन्हीं औरतों से व्रतउपवास के नाम पर पैसे तो बटोर लेते हैं, पर शराब से जुड़ी उन की समस्या पर मुंह से दो कड़े बोल नहीं फूटते हैं.

सरकार अगर यह मानती है कि पंडे समाजसुधारक होते हैं, तो वह क्यों नहीं उन्हें शराबबंदी के काम में लगाती है? क्यों नहीं पुजारी घरघर जाएं और शराबियों को शराब से दूर रहने की बात कहें? फिर देखते हैं कि ऊपर वाले के इन नुमाइंदों की शराबी कितनी सुनते हैं.याद रखिए कि शराब ऐसा नशा है, जो लोगों को धीरेधीरे अपनी चपेट में लेता है.

यह पैसे, सेहत, सामाजिक इज्जत के साथसाथ जिंदगी पर भी वार करता है. इस सब के बावजूद इस ‘डायन’ से पीछा छुड़ाया जा सकता है, बस कुछ बातों को गांठ बांध कर रखना होता है, जैसे :* आप अपने शराब छोड़ने के फैसले के बारे में अपने परिवार और दोस्तों को जरूर बताएं और उन से यह कहने में कतई न झिझकें कि वे आप पर नजर रखें.

कभी शराब पीने की ललक उठे तो वे आप को सपोर्ट करें कि इस से बचा जाए.* अपनेआप को बिजी रखें. ऐसे काम करें, जिन में आप को शारीरिक मेहनत करनी पड़े. ऐसा करने से आप तंदुरुस्त रहेंगे. आप को अच्छी नींद भी आएगी.

* अपने शराबी दोस्तों की संगत से बचें. उन के शराब पीने के समय उन के पास कतई न जाएं.* शराब छोड़ने के पहले 2-3 हफ्ते के दौरान आप को शराब के आकर्षण से बचना होगा. आप घर पर रखी बोतलें फेंक दें और उन जगहों पर न जाएं, जहां आप बैठ कर शराब पीते थे.

* आप उन सारी बातों की लिस्ट बनाएं, जो आप को शराब पीने के लिए उकसाती हैं. उन्हें करने से बचें.

* अपनी सेहत सुधारने के साथसाथ परिवार को भी देखें कि आप के इस बुराई से दूर होने पर उन्हें कितनी दिमागी राहत मिलती है.शराब सेहत से ज्यादा गरीब के पैसे को चूसती है. इस तबके में इतना सोचनेसमझने की ताकत नहीं होती है कि जिस फिल्म को वह मनोरंजन के नजरिए से देखता है, वहां कोई हीरो शराब को हीरो बना कर पेश करे, तो वह गरीब भी यह मान लेता है कि ‘अंगूर की बेटी’ इतनी भी नुकसानदेह नहीं है.

धीरेधीरे वह शराब पीता है और फिर बाद में शराब उसे पीती है. उसे तन, मन और धन से कंगाल कर देती है.रहीसही कसर वर्तमान सरकार के नएनए बनते मंदिर पूरी कर रहे हैं. वहां से मोक्ष का रास्ता तो मिलने की गारंटी है, पर किसी शराबी का नशा छुड़ाने का कोई उपाय नहीं बताया जाता है.

शर्मनाक : जनता की कमाई, ओहदेदारों ने उड़ाई

धर्म के ठेकेदार, भ्रष्ट नेता व घूसखोर अफसर भले ही हर दिन अंधी कमाई करते हों, लेकिन मेहनतकश व ईमानदार लोग गुजारे लायक पैसा भी कड़ी मशक्कत कर के कमा पाते हैं. इस के बावजूद बहुत से कौए, गिद्ध, चील, घुन व दीमक जैसे लोग गाढ़े पसीने की उन की कमाई नोचने में लग जाते हैं. मसलन, धर्म की आड़ में दाढ़ीचोटी वाले, रिश्वत के नाम पर सरकारी अफसर और मुलाजिम व सहूलियतों के नाम पर सरकारें जनता की जेबें हलकी करती रहती हैं.

हालांकि टैक्स के रूप में वसूले गए जनता के पैसे का पूरा व सही इस्तेमाल बेशक जनता को सुविधाएं मुहैया कराने के लिए होना चाहिए, लेकिन अफसोस यह है कि ऐसा नहीं होता.

कुरसी पर काबिज नेता व अफसर जनता के पैसे को अपना समझते हैं व मनमाने तरीकों से खूब अनापशनाप खर्च करते हैं. दौरों व बैठकों की आड़ में सैरसपाटे, मौजमस्ती करने का चलन कोई नया नहीं है, लेकिन सरकारी फुजूलखर्ची रोकना जरूरी है.

society

माले मुफ्त दिले बेरहम

जनता का पैसा सरकारी दफ्तरों और महंगी गाडि़यों वगैरह पर बड़ी बेरहमी से खर्च किया जाता है. सरकारी इमारतों को आलीशान बनाया जाता है. सरकारी महकमे व उन के दफ्तर जनता को काबू करने, उन्हें सहूलियतें देने, नियमकानून चलाने के लिए हैं. उन्हें कामचलाऊ किफायती व सादा होना चाहिए, लेकिन वे सरकारी मंदिर बन रहे हैं. जनता की पीठ पर बेहिसाब बोझ डाल कर मजे लूटना कहां की अक्लमंदी है

जनता के पैसे से तो जनता को ही सुविधाएं मिलनी चाहिए, लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता, इसलिए पैसे की कमी से वक्त पर काम नहीं होता. टूटी सड़कें व पुरानी रेल पटरियां चटकी पड़ी रहती हैं. नदियों व रेलवे स्टेशनों पर पुराने, छोटे व कमजोर पुलों पर अकसर जानलेवा हादसे होते रहते हैं.

पैसे की कमी से एक ओर जनता के फायदे की बहुत सी सरकारी स्कीमें आधीअधूरी रह जाती हैं, वहीं दूसरी ओर जनसेवकों के लिए सरकारी इमारतों में कीमती फर्नीचर, कालीन, परदे वगैरह लगा कर उन्हें सजाया जाता है. इस तरह के खर्चे करना सरकारी खजाने को लुटाना है.

उत्तर प्रदेश की एक मुख्यमंत्री ने अपने विवेकाधीन कोष से 80 करोड़ रुपए बांटे, तो उस से अगले मुख्यमंत्री ने 5 सौ करोड़ रुपए से भी ज्यादा की रकम अपने चहेतों को बांट दी.

अपने राजनीतिक फायदे के लिए जनता के पैसों से धार्मिक यात्राएं कराई जाती हैं. धार्मिक आयोजनों के इश्तिहार दिए जाते हैं. लैपटौप व साइकिलें बांटी जाती हैं. ओहदेदारों की शानोशौकत में कहीं कोई कमी न आए, इस के लिए सरकारी घर व दफ्तर जनता के पैसों से महलों की तरह सजेधजे रहते हैं.

कोई लगाम नहीं

सरकारी कामकाज के नाम पर होने वाले भारीभरकम खर्च को घटाने पर कहीं कोई सख्ती होती नहीं दिखती. उस पर नकेल कसने के उपाय भी सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं, इसलिए वे कारगर होते नहीं दिखते. नतीजतन, जनता से वसूल की गई टैक्स की रकम का एक बड़ा हिस्सा गैरजरूरी खर्चों व भ्रष्टाचार की नदी में बह कर ओहदेदारों के पाले में चला जाता है.

सरकारी अंधेरगर्दी का बड़ा अजब हाल है. बहुत से सरकारी दफ्तर व स्कूल वगैरह खंडहरनुमा इमारतों में चलते हुए दिखते हैं. बरसों तक उन की मरम्मत के लिए रकम मंजूर नहीं होती. सालाना बजट में रखी गई तयशुदा रकम को खर्च करने की गरज से कई बार सरकारी संस्थाओं की अच्छीखासी मजबूत इमारतों को तोड़ कर नए सिरे से बना दिया जाता है. नैनीताल के एक सरकारी ट्रेनिंग सैंटर में यही हुआ था.

सरकारी दफ्तरों में रखरखाव व साजसज्जा के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, जबकि जनता की मांग वाले बहुत से जरूरी काम पैसे की कमी के चलते रुके रहते हैं. सरकारी महकमों में खरीदबिक्री व काम कराने में कमीशनखोरी आम है. इस में भी हेराफेरी की जाती है. कई काम सिर्फ कागजों पर ही होते हैं.

भ्रष्टाचार के चलते जनता अपने हक से बेदखल है. बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा व सेहत की बुनियादी सहूलियतें बस नाम की हैं.

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बीते दिनों उत्तर प्रदेश में यही हुआ. गोरखपुर के मैडिकल कालेज में भुगतान रुकने से औक्सिजन सप्लाई रुकी और दर्जनों बच्चे मर गए थे, वहीं दूसरी तरफ बीते दिनों ऐलान हुआ था कि अयोध्या में राम की मूर्ति लगेगी. इस के अलावा इलाहाबाद के कुंभ मेले में 5 अरब रुपए खर्च होंगे.

ऐसे खर्चों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. करोड़ों रुपए की लागत से महाराष्ट्र में शिवाजी व गुजरात में सरदार पटेल की ऊंची व महंगी मूर्तियां लगेंगी. सवाल इस बात का है कि खर्च की फेहरिस्त में तरजीह किसे दी जाए  तरक्की व खुशहाली के लिए आखिर क्या जरूरी है और क्या गैरजरूरी है

भाग्य, भगवान, धार्मिक अंधविश्वास व रूढि़यों में जकड़े ज्यादातर लोग यही गलती करते हैं. वे तालीम, सफाई व सेहत वगैरह की अनदेखी कर के मुंडन, तेरहवीं, कथा, कीर्तन व तीर्थयात्राओं के लिए कर्ज लेने में भी नहीं हिचकते, इसलिए देश में गरीबी, गंदगी जैसी समस्याएं मौजूद हैं.

यह है उपाय

कम पढ़ेलिखे लोग जागरूकता की कमी से बेवजह के कामों में पैसा खर्च करें, तो बात समझ में आती है, लेकिन अगर सरकारें भी उसी राह पर चलें, तो हैरत व अफसोस होना लाजिम है.

सरकार चाहे तो क्या काम नहीं हो सकता  मसलन, मोदी सरकार ने पुराने व बेअसर हो चुके बहुत से कानून खत्म कर के अच्छा काम किया है. बहुत से सरकारी महकमों में तो कोई खास काम ही नहीं होता. इसलिए अब वक्त आ गया है कि बेवजह चल रहे बहुत से सरकारी महकमे बंद किए जाएं, ताकि सरकारी खर्च व जनता की पीठ पर लदा टैक्स का बोझ घट सके.

नशा करता है जिंदगी का नाश

प्रसिद्व साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन के काव्यसंग्रह मधुशाला में मदिरा सेवन का खूबसूरती से महिमामंडन किया गया है. मदिरा के अतिरिक्त चरस, गांजा, स्मैक, अफीम, हीरोइन जैसे अनेक ऐसे नशीले पदार्थ हैं जिन से मनुष्य अपनी नशे की लत को पूर्ण करता है. अपनी मौजमस्ती और यारीदोस्ती निभाने के लिए किए गए किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ के जहर का सेवन न जाने कितने परिवारों की सुखशांति को छीन लेता है और कितने ही घर बरबाद कर देता है. मदिरा का सेवन तो आजकल स्टेटस सिंबल माना जाता है. कभी कभार किया जाने वाला नशा जब

लत में परिवर्तित हो जाता है तो नशा करने वाले का शरीर अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है. इस से वह स्वयं तो परेशान रहता ही है, उस के घरपरिवार वालों को भी अनेक आर्थिक व मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

इंदौर का राहुल दवे पिछले 5 सालों से स्मैक पी रहा है. उस का शरीर स्मैक का इतना आदी हो गया है कि अगर उसे स्मैक की डोज नहीं मिले तो उस के हाथ पैर कांपने लगते हैं. और उसे लगता है कि जान ही निकल जाएगी. उस के परिवार में

10 साल का बेटा और 4 साल की बेटी के अलावा पत्नी, मातापिता और एक भाई हैं. परिवार वाले पिछले कई सालों में न जाने कितने मंदिर, मसजिद और गुरुद्वारे गए कि किसी प्रकार राहुल की नशे की लत छूट जाए पर इन जगहों पर क्या किसी को कोई लाभ हुआ है? झाड़फूंक करने वालों और गंडेताबीज बनाने वालों की शरण में भी गए पर ये तमाम अंधविश्वासी टोटके नाकाम साबित हुए.

कालू सिंह 20 साल से गांजे का सेवन कर रहे थे. घर वाले परेशान रहते थे परंतु उन की लत के आगे बेबस थे. प्रारंभ में उन की पत्नी उन्हें हर रोज एक महाराज के सत्संग में ले जाती थी क्योंकि महाराज जी ने उन की नशे की लत छुड़ाने की गारंटी ली थी. उन्होंने कहा था कि प्रतिदिन सत्संग में लाने से उन की नशे की लत भगवान भक्ति में लग जाएगी. सुबह पत्नी उन्हें जबरदस्ती सत्संग में ले जाती और शाम को वे नशे में धुत हो कर पत्नी को ही गाली देते और घर से निकल जाते. पड़ोसी उन्हें किसी तरह घर ले कर आते. अंत में पत्नी ने हार मान कर उन्हें उन के हाल पर छोड़ दिया.

रमेश त्यागी बहुत अच्छे घर से हैं. घर में कोई भी नशा नहीं करता. प्रारंभ में दोस्त जबरदस्ती उन्हें पिलाते थे पर धीरेधीरे उन्हें भी मजा आने लगा. फिर तो यह स्थिति हो गई कि जिस दिन उन्हें शराब नहीं मिलती थी, न भूख लगती थी न प्यास. बस, एक शराब ही थी जो उन्हें संतुष्टि देती थी. मातापिता बहुत परेशान रहते थे, घर में कलह होता था, और एक दिन गुस्से में आ कर उन के पिता ने उन्हें घर से ही निकाल दिया. उन की मां ने शराब की लत छुड़ाने के लिए कई उपवास किए. घर में हवन, कथा करवाई. पर नतीजा सिर्फ नशा मुक्ति केंद्र उपरोक्त सभी नशा करने वाले लोग उज्जैन के नशा मुक्ति केंद्र में भरती हैं. जब एक नशा करने वाला इस अवस्था में पहुंच जाता है कि नशे के बिना वह रह नहीं पाता तो ऐसी अवस्था में फंसे लोगों की लत छुड़ाने के लिए सरकार ने नशा मुक्ति केंद्रों की स्थापना की है. इन आवासीय नशा मुक्ति केंद्रो में विभिन्न प्रकार के नशा करने वालों को काउंसलिंग, डाक्टरी सहायता और मनोरंजन द्वारा ठीक करने का प्रयास किया जाता है. यहां मरीज या तो स्वयं आते हैं अथवा मित्र या परिवार वाले ले कर आते हैं. लगभग 15 से 20 दिनों के उपचार के बाद यहां से मरीजों को छुट्टी दे दी जाती है.

मरीज की यातनाएं

नशा मुक्ति केंद्र में मरीज आता तो अपनी या परिवार वालों की मर्जी से है परंतु यहां रह कर उसे कम तकलीफों का सामना नहीं करना पड़ता है.

-यहां पर सब से बड़ी कमी उसे परिवार की खलती है. परिवार के साथ न होने से मनोबल कमजोर हो जाता है और कई बार वह स्वयं को इस संसार में एकाकी महसूस करने लगता है.

-नशे के आदी हो चुके शरीर को जब उस की डोज नहीं मिलती तो मरीज को मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की परेशानी होनी प्रारंभ हो जाती है. परिवार के साथ न होने से उतनी अच्छी देखभाल भी नहीं हो पाती.

-जब नशे की लत को छुड़ाने की दवा दी जाती है तो शरीर पर उस का प्रतिरोधी असर होता है और उन्हें उलटी, दस्त, बुखार व डिप्रैशन जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस से शरीर बहुत कमजोर हो जाता है.

-अक्सर नशेड़ी बाहरी लोगों से बातचीत करने में कतराते हैं क्योंकि नशा इन का आत्मविश्वास समाप्त कर देता है.

-मनचाहे भोजन, पारिवारिक वातावरण का अभाव, आर्थिक परेशानी और यहां की तयशुदा दिनचर्या से चलना कई बार उन के लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बन जाता है.

-कोई काम न होने से मन नहीं लगता और वे बड़ी कठिनता से यहां समय व्यतीत कर पाते हैं.

परिवार की यातनाएं

नशा करने वाले का परिवार पूरी तरह निर्दोष होता है परंतु बीमार के साथसाथ परिवारजन भी अनेक प्रकार की परेशानियों का सामना करते हैं. अपने दिल पर पत्थर रख कर वे अपने परिवार के सदस्य को यहां छोड़ कर जाते हैं. क्योंकि यहां सिर्फ मरीज के रहने की ही व्यवस्था होती है. दूर से प्रतिदिन मिलने आना संभव नहीं होता. ऐसे में दिन में कई बार फोन द्वारा वे अपने रिश्तेदार का हालचाल लेते रहते हैं. कईर् घरों के तो मुखिया ही नशे के शिकार होते हैं, ऐसे में घर वालों के सामने रोजीरोटी का ही प्रश्न खड़ा हो जाता है.

-एक व्यक्ति जब नशा कर के आता है तो घर में कलह करता है. कई बार तो पत्नी और बच्चों के साथ मारपीट भी करता है. जिस से छोटे बच्चे सहम जाते हैं और उन के मन में पिता के प्रति सम्मान ही समाप्त हो जाता है.

-मेरी एक सहेली के पति को शराब की लत है. जब उन की बेटी की 12वीं की बोर्ड परीक्षा हो रही थी, उन्होंने घर में आ कर सहेली के साथ मारपीट की. देररात तक दोनों में कहासुनी होती रही. फलस्वरूप, बेटी अगले दिन की परीक्षा की तैयारी नहीं कर पाई. उस विषय में उस के बहुत कम अंक आने से परीक्षा परिणाम खराब हो गया.

-कई बार पिता का अनुसरण कर के बच्चे भी नशा करना प्रारंभ कर देते हैं. जिस से उन का पूरा जीवन बरबाद हो जाता है.

-बच्चों के दोस्त उन के पिता के नशे को ले कर मजाक उड़ाते हैं जिस से उन का बालमन आहत हो जाता है. वे तनाव के शिकार हो जाते हैं.

आर्थिक संकट

नशे की लत जब एक बार शरीर को लग जाती है तो उसे किसी भी कीमत पर नशे की डोज की आवश्यकता होती है.

एक नशा मुक्ति केंद्र के प्रभारी राजेश ठाकुर बताते हैं कि यों तो सभी प्रकार के नशे खर्चीले होते हैं परंतु स्मैक का नशा सर्वाधिक खतरनाक और खर्चीला होता है. 10 ग्राम स्मैक की पुडि़या 200 रुपए में आती है और एक नशेड़ी एक दिन में 2 पुडि़यों का सेवन तो करता ही है. यानी प्रतिदिन 400 रुपए का खर्चा.

-जब नशा करने वाले को पैसे नहीं मिलते तो वह बेचैन हो जाता है और पत्नी, मां के गहने व घर का सामान तक बेच देता है.

-नशा कोई भी हो, उसे करने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है और जब नशेडि़यों को सुगमता से पैसे प्राप्त नहीं होते तो वे चोरी, डकैती और लूटमार जैसी घटनाओं को अंजाम देने लगते हैं.

-नशा मुक्ति केंद्र में भेजने के बाद भी मरीज के भोजन, चायनाश्ता, और कई बार दवाओं व फल आदि का इंतजाम भी परिवारीजनों को करना पड़ता है. इस से उन पर अतिरिक्त आर्थिक भार आ जाता है.

प्रतिष्ठा को ठेस

समाज में नशा करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. नशा करने वालों और उन के परिवार के प्रति लोगों का सम्मान समाप्त हो जाता है. परिवार के सदस्य स्वयं भी आत्मविश्वास की कमी के कारण लोगों से बातचीत करने में कतराते हैं. मेरी एक परिचित कालेज में प्रोफैसर है. उस के पति नशे की लत के इस कदर शिकार हैं कि अकसर सड़क पर पड़े मिल जाते हैं. इस कारण उस को सब के सामने शर्मिंदगी उठानी पड़ती है. परेशान हो कर उस ने लोगों से मिलनाजुलना ही छोड़ दिया है.

नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो, नुकसान दायक ही होता है. बेहतर है कि इस का शौक पालने से ही बचा जाए. आमतौर पर इस प्रकार का शौक यारीदोस्ती में उत्पन्न होता है. इसलिए आवश्यक है कि ऐसे लोगों से समय रहते दूरी बना ली जाए. कई बार नशा मुक्ति केंद्र में रहने के बाद नशे की लत से मुक्ति मिल जाती है परंतु घर जा कर यार दोस्तों के प्रभाव में आ कर व्यक्ति फिर से नशा प्रारंभ कर देता है. नशा करने वाला तो अपनी मौजमस्ती करता है परंतु मानसिक, आर्थिक और सामाजिक तकलीफ व परेशानी उस के परिवार को सहनी पड़ती है.

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