Hindi Story : मान अभिमान

Hindi Story : अपने बच्चों की प्रशंसा पर कौन खुश नहीं होता. रमा भी इस का अपवाद न थी.ं अपनी दोनों बहुओं की बातें वह बढ़चढ़ कर लोगों को बतातीं. उन की बहुएं हैं ही अच्छी. जैसी सुंदर और सलोनी वैसी ही सुशील व विनम्र भी.

एक कानवेंट स्कूल की टीचर है तो दूसरी बैंक में अफसर. रमा के लिए बच्चे ही उन की दुनिया हैं. उन्हें जितनी बार वह देखतीं मन ही मन बलैया लेतीं. दोनों लड़कों के साथसाथ दोनों बहुओं का भी वह खूब ध्यान रखतीं. वह बहुओं को इस तरह रखतीं कि बाहर से आने वाला अनजान व्यक्ति देखे तो पता न चले कि ये लड़कियां हैं या बहुएं हैं.

सभी परंपराओं और प्रथाओं से परे घर के सभी दायित्व को वह खुद ही संभालतीं. बहुओं की सुविधा और आजादी में कभी हस्तक्षेप नहीं करतीं. लड़के तो लड़के मां के प्यार और प्रोत्साहन से पराए घर से आई लड़कियों ने भी प्रगति की.

मां का स्नेह, सीख, समझदारी और विश्वास मान्या और उर्मि के आचरण में साफ झलकता. देखते ही देखते अपने छोटे से सीमित दायरे में उन्हें यश भी मिला और नाम भी. कार्यालय और महल्ले में वे दोनों ही अच्छीखासी लोकप्रिय हो गईं. जिसे देखो वही अपने घर मान्या और उर्मि का उदाहरण देता कि भाई बहुएं हों तो बस, मान्या और उर्मि जैसी.

‘‘रमा, तू ने मान्या व उर्मि के रूप में 2 रतन पाए हैं वरना आजकल के जमाने में ऐसी लड़कियां मिलती ही कहां हैं और इसी के साथ कालोनी की महिलाओं का एकदूसरे का बहूपुराण शुरू हो जाता.

रमा को तुलना भली न लगती. उन्हें तो इस की उस की बुराई भी करनी नहीं आती पर अपनी बहुओं की बड़ाई उन्हें खूब सुहाती थी. वह खुशी से फूली न समातीं.

इधर कुछ समय से रमा की सोच बदल रही है. मान्या और उर्मि की यह हरदम की बड़ाई उन्हें कहीं न कहीं खटक रही है. अपने ही मन के भाव रमा को स्तब्ध सा कर देते हैं. वह लाख अपने को धिक्कारेफटकारे पर विचार हैं कि न चाहते हुए भी चले आते हैं.

‘मैं जो दिन भर खटती हूं, परिवार में सभी की सुखसुविधाओं का ध्यान रखती हूं. दोनों बहुओं की आजादी में बाधक नहीं बनती…उन पर घरपरिवार का दायित्व नहीं डालती…वो क्या कुछ भी नहीं…बहुओं को भी देखो…पूरी की पूरी प्रशंसा कैसे सहजता के साथ खुद ही ओढ़ लेती हैं…मां का कहीं कोई जिक्र तक नहीं करतीं. उन की इस सफलता में मेरा काम क्या कुछ भी नहीं?’

अपनी दोनों बहुओं के प्रति रमा का मन जब भी कड़वाता तो वह कठोर हो जातीं. बातबेबात डांटडपट देतीं तो वे हकबकाई सी हैरान रह जातीं.

मान्या और उर्मि का सहमापन रमा को कचोट जाता. अपने व्यवहार पर उन्हें पछतावा हो आता और जल्द ही सामान्य हो वह उन के प्रति पुन: उदार और ममतामयी हो उठतीं.

मांजी में आए इस बदलाव को देख कर मान्या और उर्मि असमंजस में पड़ जातीं पर काम की व्यस्तता के कारण वे इस समस्या पर विचार नहीं कर पाती थीं. फिर सोचतीं कि मां का क्या? पल में तोला पल में माशा. अभी डांट रही हैं तो अभी बहलाना भी शुरू कर देंगी.

क्रिसमस का त्योहार आने वाला था. ठंड खूब बढ़ गई थी. उस दिन सुबह रमा से बिस्तर छोड़ते ही नहीं बन रहा था. ऊपर से सिर में तेज दर्द हो रहा था. फिर भी मान्या का खयाल आते ही रमा हिम्मत कर उठ खड़ी हुईं.

किसी तरह अपने को घसीट कर रसोईघर में ले गईं और चुपचाप मान्या को दूध व दलिया दिया. रात की बची सब्जी माइक्रोवेव में गरम कर, 2 परांठे बना कर उस का लंच भी पैक कर दिया. मां का मूड बिगड़ा समझ कर मान्या ने बिना किसी नाजनखरे के नाश्ता किया. लंचबौक्स रख टाटाबाई कहती भागती हुई घर से निकल गई. 9 बजे तक उर्मि भी चली गई. सुयश और सुजय के जाने के बाद अंत में राघव भी चले गए थे.

10 बजे तक घर में सन्नाटा छा जाता है. पीछे एक आंधीअंधड़ छोड़ कर सभी चले जाते हैं. कहीं गीला तौलिया पलंग पर पड़ा है तो कहीं गंदे मोजे जमीन पर. कहीं रेडियो बज रहा है तो किसी के कमरे में टेलीविजन चल रहा है. किसी ने दूध अधपिया छोड़ दिया है तो किसी ने टोस्ट को बस, जरा कुतर कर ही धर दिया है, लो अब भुगतो, सहेजो और समेटो.

कभी आनंदअनुराग से किए जाने वाले काम अब रमा को बेमजा बोझ लगते. सास के जीतेजी उन के उपदेशों पर उस ने ध्यान न दिया…अब जा कर रमा उन की बातों का मर्म मान रही थीं.

‘बहू, तू तो अपनी बहुओं को बिगाड़ के ही दम लेगी…हर दम उन के आगेपीछे डोलती रहती है…हर बात उन के मन की करती है…अरी, ऐसा तो न कहीं देखा न सुना…डोर इतनी ढीली भी न छोड़…लगाम तनिक कस के रख.’

‘अम्मां, ये भी तो किसी के घर की बेटियां हैं. घोडि़यां तो नहीं कि उन की लगाम कसी जाए.’ सास से रमा ठिठोली करतीं तो वह बेचारी चुप हो जातीं.

तब मान्या और उर्मि उस का कितना मान करती थीं. हरदम मांमां करती आगे- पीछे लगी रहती थीं. अब तो सारी सुख- सुविधाओं का उन्होंने स्वभाव बना लिया है…न घर की परवा न मां से मतलब. एक के लिए उस की टीचरी और दूसरी के लिए उस की अफसरी ही सबकुछ है. घर का क्या? मां हैं, सुशीला है फिर काम भी कितना. पकाना, खाना, सहेजना, समेटना, धोना और पोंछना, बस. शरीर की कमजोरी ने रमा के अंतस को और भी उग्र बना दिया था.

सुशीला काम निबटा कर घर से निकली तो 2 बज चुके थे. रमा का शरीर टूट रहा था. बुखार सा लग रहा था. खाने का बिलकुल भी मन न था. उन्होंने मान्या की थाली परोस कर मेज पर ढक कर रख दी और खुद चटाई ले कर बरामदे की धूप में जा लेटीं.

बाहर के दरवाजे का खटका सुन रमा चौंकीं. रोज की तरह मान्या ढाई बजे आ गई थी.

‘‘अरे, मांजी…आप धूप सेंक रही हैं…’’ चहकती हुई मान्या अंदर अपने कमरे में चली गई और चाह कर भी रमा आंखें न खोल पाईं.

हाथमुंह धो कर मान्या वापस पलटी तो रमा अभी भी आंखें मूंदे पड़ी थीं.

‘मेज पर एक ही थाली?’ मान्या ने खुद से प्रश्न किया फिर सोचा, शायद मांजी खा कर लेटी हैं. थक गई होंगी बेचारी. दिन भर काम करती रहती हैं…

रमा को झुरझुरी सी लगी. वह धीरे से उठीं. चटाई लपेटी दरवाजा बंद किया और कांपती हुई अपनी रजाई में जा लेटीं.

उधर मान्या को खाने के साथ कुछ पढ़ने की आदत है. उस दिन भी वही हुआ. खाने के साथ वह पत्रिका की कहानी में उलझी रही तो उसे यह पता नहीं चला कि मांजी कब उठीं और जा कर अपने कमरे में लेट गईं. बड़ी देर बाद वह मेज पर से बरतन समेट कर जब रमा के पास पहुंची तो वह सो चुकी थीं.

‘गहरी नींद है…सोने दो…शाम को समझ लूंगी…’ सोचतेसोचते मान्या भी जा लेटी तो झपकी लग गई.

रोज का यही नियम था. दोपहर के खाने के बाद घंटा दो घंटा दोनों अपनेअपने कमरों में झपक लेतीं.

शाम की चाय बनाने के बाद ही रमा मान्या को जगातीं. सोचतीं बच्ची थकी है. जब तक चाय बनती है उसे सो लेने दिया जाए.

बहुत सारे लाड़ के बाद जाग कर मान्या चाय पीती स्कूल की कापियां जांचती और अगले दिन का पाठ तैयार करती.

इस बीच रमा रसोई में चली जातीं और रात का खाना बनातीं. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटातीं ताकि शाम का कुछ समय अपने परिवार के साथ मिलबैठ कर गुजार सकें.

संगीत के शौकीन पति राघव आते ही टेपरिकार्ड चला देते तो घर चहकने लगता.

उर्मि को आते ही मांजी से लाड़ की ललक लगती. बैग रख कर वह वहीं सोफे पर पसर जाती.

सुजय एक विदेशी कंपनी में बड़ा अफसर था. रोज देर से घर आता और सुयश सदा का चुप्पा. जरा सी हायहेलो के बाद अखबार में मुंह दे कर बैठ जाता था. उर्मि उस से उलझती. टेलीविजन बंद कर घुमा लाने को मचलती. दोनों आपस में लड़तेझगड़ते. ऐसी खट्टीमीठी नोकझोंक के चलते घर भराभरा लगता और रमा अभिमान अनुराग से ओतप्रोत हो जातीं.

लगातार बजती दरवाजे की घंटी से मान्या अचकचा कर उठ बैठी. खूब अंधेरा घिर आया था.

दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला तो सामने तमतमायी उर्मि खड़ी थी.

‘‘कितनी देर से घंटी बजा रही हूं. आप अभी तक सो रही थीं. मां, मां कहां हैं?’’ कह कर उर्मि के कमरे की ओर दौड़ी.

मांजी को कुछ खबर ही न थी. वह तो बुखार में तपी पड़ी थीं. डाक्टर आया, जांच के बाद दवा लिख कर समझा गया कि कैसे और कबकब लेनी है. घर सुनसान था और सभी गुमसुम.

मान्या का बुरा हाल था.

‘‘मैं तो समझी थी कि मांजी थक कर सोई हुई हैं…हाय, मुझे पता ही न चला कि उन्हें इतना तेज बुखार है.’’

‘‘इस में इतना परेशान होने की क्या बात है…बुखार ही तो है…1-2 दिन में ठीक हो जाएगा,’’ पापा ने मान्या को पुचकारा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘अरे, इस में रोने की कौन सी बात है,’’  राघव बिगड़ गए.

अगले दिन, दिनचढ़े रमा की आंख खुली तो राघव को छोड़ सभी अपनेअपने काम पर जा चुके थे.

घर में इधरउधर देख कर रमा अकुलाईं तो राघव उन बिन बोले भावों को तुरंत ताड़ गए.

‘‘मान्या तो जाना ही नहीं चाहती थी. मैं ने ही जबरदस्ती उसे स्कूल भेज दिया है. उर्मि को तो तुम जानती ही हो…इतनी बड़ी अफसरी तिस पर नईनई नौकरी… छुट्टी का तो सवाल ही नहीं…’’

‘‘हां…हां…क्यों नहीं…सभी काम जरूरी ठहरे. मेरा क्या…बीमार हूं तो ठीक भी हो जाऊंगी,’’ रमा ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा था.

राघव ने बताया, ‘‘मान्या तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर गई है. और उर्मि ने सूप बना कर रख दिया है.’’

रमा ने बारीबारी से दोनों चीजें चख कर देखीं. खिचड़ी उसे फीकी लगी और सूप कसैला…

3 दिनों तक घर मशीन की तरह चलता रहा. राघव छुट्टी ले कर पत्नी की सेवा करते रहे. बाकी सब समय पर जाते, समय पर आते.

आ कर कुछ समय मां के साथ बिताते.

तीसरे दिन रमा का बुखार उतरा. दोपहर में खिचड़ी खा कर वह भी राघव के साथ बरामदे में धूप में जा बैठी.

राघव पेपर देखने लगे तो रमा ने भी पत्रिका उठा ली. ठीक तभी बाहर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ. रमा ने मुड़ कर देखा तो मान्या थी. साथ में 2-3 उस के स्कूल की ही अध्यापिकाएं भी थीं.

‘‘अरे, मांजी, आप अच्छी हो गईं?’’ खुशी से मान्या ने आते ही उन्हें कुछ पकड़ाया और खुद अंदर चली गई.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ रमा ने पैकेट को उलटपलट कर देखा.

‘‘आंटी, मान्या को बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला है.’’

‘‘क्या? इनाम…अपनी मनु को?’’

‘‘जी, आंटी, छोटामोटा नहीं, यह रीजनल अवार्ड है.’’

रोमांचित रमा ने झटपट पैकेट खोला. अंदर गोल डब्बी में सोने का मैडल झिलमिला रहा था. प्रमाणपत्र के साथ 10 हजार रुपए का चेक भी था. मारे खुशी के रमा की आवाज ही गुम हो गई.

‘‘आंटी, देखो न, मान्या ने कोई ट्रीट तक नहीं दी. कहने लगी, पहले मां को दिखाऊंगी…अब देखो न कब से अंदर जा छिपी है.’’ खुशी के लमहों से निकल कर रमा ने मान्या को आवाज लगाई, ‘‘मनु, बेटा…आना तो जरा.’’

अपने लिए मनु का संबोधन सुन मान्या भला रुक सकती थी क्या? आते ही सहजता से उस ने अपनी सहेलियों का परिचय कराया, ‘‘मां, यह सौंदर्या है, यह नफीसा और यह अमरजीत. मां, ये आप से मिलने नहीं आप को देखने आई हैं. वह क्या है न मां, यह समझती हैं कि आप संसार का 8वां अजूबा हो…’’

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’ रमा के माथे पर बल पड़ गए.

मान्या की सहेलियां कुछ सकपकाईं फिर सफाई देती हुई बोलीं, ‘‘आंटी, असल में मान्या आप की इतनी बातें करती है कि हम तो समझते थे कि आप ही मान्या की मां हैं. हमें तो आज तक पता ही न था कि आप इस की सास हैं.’’

‘‘अब तो पता चल गया न. अब लड्डू बांटो…’’ मान्या ने मुंह बनाया.

‘‘लड्डू तो अब मुझे बांटने होंगे,’’ रमा ने पति को आवाज लगाई, ‘‘अजी, जरा फोन तो लगाइए और इन सभी की मनपसंद कोई चीज जैसे पिज्जा, पेस्ट्री और आइसक्रीम मंगा लीजिए.’’

रमा ने मान से मैडल मान्या के गले में डाला और खुद अभिमान से इतराईं. मान्या लाज से लजाई. सभी ने तालियां बजाईं.

वीना टहिल्यानी

Hindi Story : समझौता – राजीव ने अपने प्यार के साथ क्यों किया समझौता

Hindi Story : वेल्लूर से कोलकाता वापस आ कर राजीव सीधे घर न जा कर एअरपोर्ट से आफिस आ गया था. उसे बौस का आदेश था कि कर्मचारियों की सारी पेमेंट आज ही करनी है.

पिछले कई दिनों से उस के आफिस में काफी गड़बड़ी चल रही थी. अपने बौस अमन की गैरमौजूदगी में सारा प्रबंध राजीव ही देखता था. कर्मचारियों को भुगतान पूरा करने के बाद राजीव ने तसल्ली से कई दिनों की पड़ी डाक छांटी. फिर थोड़ा आराम करने की मुद्रा में वह आरामकुरसी पर निढाल सा लेट गया. राजीव ने आंखें बंद कीं तो पिछले दिनों की तमाम घटनाएं एक के बाद एक उसे याद आने लगीं. उसे काफी सुकून मिला.

वैशाली को अचानक आए स्ट्रोक के कारण उसे आननफानन में बेलूर ले जाना पड़ा था. कई तरह के टैस्ट, बड़ेबड़े और विशेषज्ञ डाक्टरों ने आपस में सलाह कर कई हफ्तों की जद्दोजहद के बाद यह नतीजा निकाला कि अब वैशाली अपने पैरों पर कभी खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि उस के शरीर का निचला हिस्सा हमेशा के लिए स्पंदनहीन हो चुका है. वह व्हील चेयर की मोहताज हो गई थी. पत्नी की ऐसी हालत देख कर राजीव का दिल हाहाकार कर उठा, क्योंकि अब उस का वैवाहिक जीवन अंधकारमय हो गया था.

एक तरफ वैशाली असहाय सी अस्पताल में डाक्टरों और नर्सों की निगरानी में थी दूसरी तरफ राजीव को अपनी कोई सुधबुध न थी. कभी खाता, कभी नहीं खाता.

एक झटके में उस की पूरी दुनिया उजड़ गई थी. उस की वैशाली…इस के आगे उस का संज्ञाशून्य दिमाग कुछ सोच नहीं पा रहा था.

मोबाइल बजने से उस की सोच को दिशा मिली.

लंदन से बौस अमन का फोन था. वैशाली के बारे में पूछ रहे थे कि वह कैसी है?

‘‘डा. सुरजीत से बात हुई? वह तो बे्रन स्पेशलिस्ट हैं,’’ अमन बोले.

‘‘हां, उन को भी सारी रिपोर्ट दिखाई थी. मैं ने अभी डा. अभिजीत से भी बात की है. उन्होंने भी सारी रिपोर्ट देख कर कहा कि ट्रीटमेंट तो ठीक ही चल रहा है. पार्किन्सन का भी कुछ सिम्टम दिखाई दे रहा है.’’

‘‘जीतेजी इनसान को मारा तो नहीं जा सकता. जब तक सांस है तब तक आस है.’’

‘‘जी सर.’’

अपने बौस अमन से बात करने के बाद राजीव का मन और भी खट्टा हो गया. घर लौट कर कपड़े भी नहीं बदले, अपने बेडरूम में आ कर लेट गया. मां ने खाने के लिए पूछा तो मना कर दिया. बाबूजी नन्ही श्रेया को सुला रहे थे. आ कर पूछा, ‘‘बेटा, अब कैसी है, वैशाली? कुछ उम्मीद…’’

राजीव ने ना की मुद्रा में गरदन हिला दी तो बाबूजी गमगीन से वापस चले गए.

राजीव के मानसपटल पर वैशाली के साथ की कई मधुर यादें चलचित्र की तरह चलने लगीं.

उस दिन एम.बी.ए. का सेमिनार था. राजीव को घर से निकलने में ही थोड़ी देर हो गई थी. इसलिए वह सेमिनार हाल में पहुंचने के लिए जल्दीजल्दी सीढि़यां चढ़ रहा था. इतने में ऊपर से आती जिस लड़की से टकराया तो अपने को संभाल नहीं सका और जनाब चारों खाने चित.

लड़की ने रेलिंग पकड़ ली थी इसलिए गिरने से बच गई पर राजीव लुढ़कता चला गया. वह तो श्ुक्र था कि अभी 5-6 सीढि़यां ही वह चढ़ा था इसलिए उसे ज्यादा चोट नहीं आई.

लड़की ने उस के सारे बिखरे पेपर समेट कर उसे दिए तो राजीव अपलक सा उस वीनस की मूर्ति को देखता ही रह गया. उस का ध्यान तब टूटा जब लड़की ने उसे सहारा दे कर उठाना चाहा. औपचारिकता में धन्यवाद दे कर राजीव सेमिनार हाल की ओर चल दिया.

सेमिनार के दौरान दोनों नायक- नायिका बन गए.

सेमिनार के बाद राजीव उस लड़की से मिला तो पता चला कि जिस मूर्ति से वह टकराया था उस का नाम वैशाली है.

राजीव का फाइनल ईयर था तो वैशाली भी 2-4 महीने ही उस से पीछे थी. एक ही पढ़ाई, एक जैसी सोच, रोजरोज का मिलना, एकसाथ बैठ कर चायनाश्ता करते. दोनों की दोस्ती प्यार में बदल गई. कसमें, वादे, एकसाथ खाना, एक ही कुल्हड़ में चाय पीना. प्रोफेसरों की नकलें उतारना, बरसात में भीग कर भुट्टे खाना उन की दिनचर्या बन गई.

एक बार पुचके (गोलगप्पे) खाते वक्त वैशाली की नाक बहने लगी तो राजीव बहुत हंसा…तब वैशाली बोली, ‘खुद तो मिर्ची खाते नहीं…कोई दूसरा खाता है तो तुम्हारे पेट में जलन क्यों होती है?’

‘अरे, अपनी शक्ल तो देखो. ज्यादा तीखी मिर्ची की वजह से तुम्हारी नाक बह रही है?’

‘तो पोंछ दो न,’ वैशाली ठुनक कर बोली.

और अपना रुमाल ले कर सचमुच राजीव ने वैशाली की नाक साफ कर दी.

पढ़ाई खत्म होते ही राजीव ने तपसिया के लेदर की निजी कंपनी में सहायक के रूप में कार्यभार संभाल लिया और वैशाली को भी एक प्राइवेट फर्म में सलाहकार के पद पर नियुक्ति मिल गई.

सुंदर, तीखे नैननक्श की रूपसी वैशाली पर सारा स्टाफ फिदा था पर वह दुलहन बनी राजीव की.

मधुमास कब दिनों और महीनों में गुजर गया, पता ही नहीं चला.

वैशाली अपने काम के प्रति बहुत संजीदा थी. उस की कार्यकुशलता को देखते हुए उस की कंपनी ने उसे प्रमोशन दिया. गाड़ी, फ्लैट सब कंपनी की ओर से मिल गया.

इधर राजीव का भी प्रमोशन हुआ. उसे भी तपसिया में ही फ्लैट और गाड़ी दी गई. अब दिक्कत यह थी कि वैशाली का डलहौजी ट्रांसफर हो गया था.

सुबह की चाय पीते समय वैशाली बुझीबुझी सी थी. प्रमोशन की कोई खुशी नहीं थी. उस ने राजीव से पूछा, ‘राजीव, हम डलहौजी कब शिफ्ट होंगे?’

‘हम?’

‘हम दोनों अलग कैसे रहेंगे?’

‘नौकरी करनी है तो रहना ही पड़ेगा,’ राजीव बोला.

‘राजीव, यह मेरे कैरियर का सवाल है.’

‘वह तो ठीक है,’ राजीव बोला, ‘पर वहां के सीनियर स्टाफ के साथ तुम कैसे मिक्स हो पाओगी?’

‘मजबूरी है…और कोई चारा भी तो नहीं है.’

राजीव चाय पीतेपीते कुछ सोचने लगा, फिर बोला, ‘तपसिया से डलहौजी बहुत दूर है. दोनों का सारा समय तो आनेजाने में ही व्यतीत हो जाएगा. मुझे एक आइडिया आया है. बोलो, मंजूर है?’

‘जरा बताओ तो सही,’ बड़ीबड़ी आंखें उठा कर, वैशाली बोली.

‘देखो, तुम्हारे प्रजेंटेशन से मेरे बौस बहुत प्रभावित हैं, वह तो मुझे कितनी बार अपनी फर्म में तुम्हें ज्वाइन कराने के लिए कह चुके हैं. पर अचानक तुम्हारा प्रमोशन होने से बात दब गई.’

‘जरा सोचो…अगर तुम हमारी फर्म को ज्वाइन कर लेती हो तो कितना अच्छा होगा. तुम्हारा सीनियर स्टाफ का जो फोबिया है उस से भी तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी.’

वैशाली कुछ सोचने लगी तो राजीव फिर बोला, ‘इसी बहाने हम पतिपत्नी एकसाथ कुछ एक पल बिता सकेंगे और तुम्हारा कैरियर भी हैंपर नहीं होगा. अब सोचो मत…कुछ भी हो, कोई भी कारण दिखा कर वहां की नौकरी से त्यागपत्र दे दो.’

वैशाली ने तपसिया में मार्केटिंग मैनेजर का पद संभाल लिया. बौस निश्ंिचत हो कर महीनों विदेश में रहते. अब तो दोनों फर्म के सर्वेसर्वा से हो गए. 6 महीने में ही लेदर मार्केट में अमन अंसारी की कंपनी का नाम नया नहीं रह गया. उन के बनाए लेदर के बैग, बेल्ट, पर्स आदि की मार्केटिंग का सारा काम वैशाली देखती तो सेलपरचेज का काम राजीव.

देखतेदेखते अब कंपनी काफी मुनाफे में चल रही थी और सबकुछ अच्छा चल रहा था. दोनों की जिंदगी में कोई तमन्ना बाकी नहीं रह गई थी. 2 साल यों ही बीत गए. सुख के बाद दुख तो आता ही है.

वैशाली को मार्केटिंग मैनेजर होने की वजह से कभी मुंबई, दिल्ली, जयपुर तो कभी विदेश का भी टूर लगाना पड़ता था. 2-3 बार तो राजीव व वैशाली यूरोप के टूर पर साथसाथ गए. फिर जरूरत के हिसाब से जाने लगे.

इसी बीच कंपनी के मालिक अमन अंसारी लंदन का सारा काम कोलकाता शिफ्ट कर के तपसिया के गेस्ट हाउस में रहने लगे. पता नहीं कब, कैसे वैशाली राजीव से कटीकटी सी रहने लगी.

कई बार वैशाली को बौस के साथ काम की वजह से बाहर जाना पड़ता. राजीव छोटी सोच का नहीं था पर धीरेधीरे दबे पांव बौस के साथ बढ़ती नजदीकियां और अपने प्रति बढ़ती दूरियां देख हकीकत को वह नजरअंदाज भी नहीं कर सकता था.

उस दिन शाम को वैशाली को बैग तैयार करते देख राजीव ने पूछा, ‘कहां जा रही हो?’

‘प्रजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है.’

‘लेकिन 2-3 दिन से तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. तुम्हें तो छुट्टी ले कर डाक्टर स्नेहा को दिखाने की बात…’

बात को बीच में ही काट कर वैशाली उखड़ कर बोली, ‘तबीयत का क्या, मामूली हरारत है. काम ज्यादा जरूरी है, रुपए से ज्यादा हमारी फर्म की प्रतिष्ठा की बात है. वर्षों से मिलता आया टेंडर अगर हमारी प्रतिद्वंद्वी फर्म को मिल गया तो हमारी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मैं नहीं चाहती कि मेरी जरा सी लापरवाही से अमनजी को तकलीफ पहुंचे.’

दिल्ली से आने के बाद वैशाली काफी चुपचुप रहती. उस के व्यवहार में आए इस बदलाव को राजीव ने बहुत करीब से महसूस किया.

इसी बीच वैशाली की वर्षों की मां बनने की साध भी पूरी हुई. बड़ी प्यारी सी बच्ची को उस ने जन्म दिया. श्रेया अभी 2 महीने की हुई भी तो उसे सास के सहारे छोड़ वैशाली ने फिर से आफिस ज्वाइन किया.

‘वैशाली, अभी श्रेया छोटी है. उसे तुम्हारी जरूरत है,’ राजीव के यह कहने पर वैशाली तपाक से बोली, ‘आफिस को भी तो मेरी जरूरत है.’

देर से आना, सुबह जल्दी निकल जाना, काम के बोझ से वैशाली के स्वभाव में काफी चिड़चिड़ापन आ गया था लेकिन उस की सुंदरता, बरकरार थी. एक दिन आधी रात को ‘यह गलत है… यह गलत है’ कह कर वैशाली चीख उठी. वह पूरी पसीने में नहाई हुई थी. मुंह से अजीब सी आवाजें निकल रही थीं. जोरजोर से छाती को पकड़ कर हांफ रही थी.

राजीव घबरा गया, ‘क्या हुआ, वैशाली? ऐसे क्यों कर रही हो? क्या गलत है? बताओ मुझे.’

वैशाली उस की बांहों में बेहोश पड़ी थी. उस की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? उसे फौरन अस्पताल में भर्ती किया गया. डाक्टरों ने बताया कि इन का बे्रन का सेरेब्रल अटैक था, जिसे दूसरे शब्दों में बे्रन हेमरेज का स्ट्रोक भी कह सकते हैं. कई दिनों तक वह आई.सी.यू. में भरती रही. अमन ने पानी की तरह रुपए खर्च किए. डाक्टरों की लाइन लगा दी. वैशाली के शरीर का दायां हिस्सा, जो अटैक से बेकार हो गया था, धीरेधीरे विशेषज्ञ डाक्टरों व फिजियोथैरेपिस्ट की देखरेख में ठीक होने लगा था.

‘अरे, आज तो तुम ने श्रेया को भी गोद में उठा लिया?’ राजीव बोला तो ‘हां,’ कह कर वैशाली नजरें चुराने लगी. यानी कोई फांस थी जिसे वह निकाल नहीं पा रही थी.

राजीव वैशाली से बहुत प्यार करता था. उस की ऐसी हालत देख कर उस का दिल खून के आंसू रो पड़ता.

वेल्लूर ले जा कर महीनों इलाज चला. डाक्टरों की फीस, इलाज आदि सभी खर्चों में बौस ने कोई कमी नहीं रखी. राजीव का आत्मसम्मान आहत तो होता था, पर वैशाली को बिना इलाज के यों ही तो नहीं छोड़ सकता था.

कितनी बार सोचा कि अब यह नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी कर लूंगा, लेकिन लेदर उद्योग में अमन अंसारी का इतना दबदबा था कि उन के मुलाजिम को उन की मरजी के खिलाफ कोई अपनी फर्म में रख कर उन से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता था. इसलिए भी राजीव के हाथ बंधे थे, आंखों से सबकुछ देखते हुए भी वह खामोश था.

श्रेया अपनी दादी के पास ज्यादा रहती थी इसलिए वह उन्हें ही मां कहती.

दवा और परहेज से वैशाली अब सामान्य जीवन जीने लगी. उस के ठीक होने पर बौस ने पार्टी दी. इसे न चाहते हुए भी राजीव ने बौस का एक और एहसान मान लिया. अपने कुलीग के तीखे व्यंग्य सुन कर उस के बदन पर सैकड़ों चींटियां सी रेंग गई थीं.

उस पार्टी में वैशाली ने गुलाबी शिफौन की साड़ी पहनी थी जिस पर सिल्वर कलर के बेलबूटे जड़े थे. उस पर गले में हीरों का जगमगाता नेकलेस उस के रूप में और भी चार चांद लगा रहा था. सब मंत्रमुग्ध आंखों से वैशाली के रूपराशि और यौवन से भरे शरीर को देख रहे थे और दबेदबे स्वर में खिल्ली भी उड़ा रहे थे कि क्या नसीब वाला है मैनेजर बाबू. इन के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं.

शर्म से गड़ा राजीव अमन अंसारी के बगल में खड़ी अपनी पत्नी को अपलक देख रहा था.

‘अब तुम घर पर रहो. तुम्हें काम करने की कोई जरूरत नहीं है. श्रेया को संभालो. मांबाबा अब उसे नहीं संभाल सकते. अब वह बहुत चंचल हो गई है.’

वैशाली बिना नानुकूर किए राजीव की बात मान गई तो सोचा, बौस से बात करूंगा.

एक दिन अमनजी ने पूछ लिया, ‘अरे, राजीव. मेरी मार्केटिंग मैनेजर को कब तक तुम घर में बैठा कर रखोगे?’

‘सर, मैं नहीं चाहता कि अब वैशाली नौकरी करे. उस का घर पर रह कर श्रेया को संभालना बहुत जरूरी हो गया है. यहां मैं सब संभाल लूंगा.’

‘अरे, ऐसे कैसे हो सकता है?’ अमन थोड़े घबरा गए. फिर संभल कर बोले, ‘राजीव, मैं ने तो तुम्हारे लिए मुंबई वाला प्रोजेक्ट तैयार किया है. इस बार सोचा कि तुम्हें भेजूंगा.’

‘पर सर, वैशाली व श्रेया को ऐसी हालत में मेरी ज्यादा जरूरत है,’ वह धीरे से बोला, ‘नहीं, सर, मैं नहीं जा सकूंगा.’

‘देख लो, मैं तुम्हारे घर की परिस्थितियों से अवगत हूं. सब समझता हूं और मुझे बहुत दुख है. मुझ से जो भी होगा मैं तुम्हारे परिवार के लिए करूंगा. यार, मैं ही चला जाता पर मेरे मातापिता हज करने जा रहे हैं. इसलिए मेरा उन के पास होना बहुत जरूरी है.’

अब नौकरी का सवाल था…मना नहीं कर सकता था.

2 दिन बाद बाबा का फोन आया कि वैशाली आफिस जाने लगी है, देर रात भी लौटी. राजीव ने बात करनी चाही तो अपना मोबाइल नहीं उठाया. दोबारा किया तो स्विच औफ मिला.

लौट कर राजीव ने पूछा, ‘वैशाली, मैं ने तुम्हें काम पर जाने के लिए मना किया था न?’

‘मेरा घर बैठे मन नहीं लग रहा था,’ वैशाली का संक्षिप्त सा उत्तर था.

राजीव की समझ में नहीं आ रहा था कि अमन अंसारी के चंगुल से कैसे वह वैशाली को छुड़ाए. आज वह मान रहा था कि पत्नी को अपनी फर्म में रखवाना उस की बहुत बड़ी भूल थी जिस का खमियाजा आज वह भुगत रहा है.

उसे यह सोच कर बहुत अजीब लगता कि साल्टलेक के अपने आलीशान बंगले को छोड़ कर अमनजी जबतब गेस्ट हाउस में कैसे पड़े रहते हैं? सुना था कि उन की बीवी उन्हें 2 महीने में ही तलाक दे कर अपने किसी प्रेमी के साथ चली गई थी. कारण जो भी रहा हो, यह बात तो साफ थी कि अमन एक दिलफेंक तबीयत का आदमी है.

वैशाली का जो व्यवहार था वह दिन पर दिन अजीब सा होता जा रहा था. कभी वह रोती तो कभी पागलों की तरह हंसती. उस की ऐसी हालत देख कर राजीव उसे समझाता, ‘वैशाली, तुम कुछ मत सोचो, तुम्हारे सारे गुनाह माफ हैं, पर प्लीज, दिल पर बोझ मत लो.’

तब वह राजीव के सीने से लग कर सिसक पड़ती. जैसे लगता कि वह आत्मग्लानि की आग में जल रही हो?

राजीव की समझ में नहीं आ रहा था कि वह पत्नी को कैसे समझाए कि वह जिस हालात की मारी है वह गुनाह किसी और ने किया और सजा उसे मिली.

अपने ही खयालों में उलझा राजीव हड़बड़ा कर उठ बैठा, उस के मोबाइल पर घर का नंबर आ रहा था. उस ने फोन उठाया तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, वैशाली बाथरूम में गिर गई है.’’

अस्पताल में भरती किया तो पता चला कि फिर मेजर स्ट्रोक आया था. यहां कोलकाता के डाक्टरों ने जवाब दे दिया, तब उसे दोबारा वेल्लूर ले जाना पड़ा. बौस अमन अंसारी भी साथ गए. इस बार भी सारा खर्चा उन्होंने किया. राजीव के पास जितनी जमापूंजी थी वह सब कोलकाता में ही लग चुकी थी. क्या करता? इलाज भी करवाना जरूरी था. वह अपनी आंखों के सामने वैशाली को बिना इलाज के मरते भी तो नहीं देख सकता? बिना पैसे के वह कुछ भी नहीं कर सकता था. न उस के पास सिफारिश है न पैसा. आजकल बातबात पर पैसे की जरूरत पड़ती है.

लाखों रुपए इलाज में लगे. 2 महीने से वैशाली वेल्लूर के आई.सी.यू. में थी जिस का रोज का खर्च हजारों में पड़ता था. डाक्टरों की विजिट फीस, आनेजाने का किराया, कहांकहां तक वह चुकाता? इसलिए पैसे की खातिर राजीव ने अपनी वैशाली के लिए हालात से समझौता कर लिया. उसे इस को स्वीकार करने में कोई हिचक महसूस नहीं होती.

अब तो वैशाली बेड पर पड़ी जिंदा लाश थी, जो बोल नहीं सकती थी, पर उस की आंखें, सब बता गईं जो वह मुंह से न कह सकी. राजीव रो पड़ा था. मन करता था कि जा कर अमन को गोली मार कर जेल चला जाए पर वही मजबूरियां, एक आम आदमी होने की सजा भोग रहा था.

वैशाली के शरीर का निचला हिस्सा निर्जीव हो चुका था लेकिन राजीव ने तो उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार किया है…करता है और ताउम्र प्यार करता रहेगा. उस से कैसे नफरत करे?

Funny Story : प्यार की तलाश में – क्या सोहनलाल को मिला प्यार

Funny Story : सोहनलाल बचपन से ही सच्चे प्यार की खोज में यहांवहां भटक रहे हैं. वैसे तो वे 60 साल के हैं, पर उन का मानना है कि दिल एक बार जवान हुआ तो जिंदगीभर जवान ही रहता है. रही बात शरीर की तो उस महान इनसान की जय हो जिस ने मर्दाना ताकत बढ़ाने वाली दवाओं की खोज की और जो उन्हें ‘साठा सो पाठा’ का अहसास करा रही हैं.

उन्होंने कसरत कर के अपने बदन को भी अच्छाखासा हट्टाकट्टा बना रखा है और नएनए फैशन कर के वे हीरो टाइप दिखने की भी लगातार कोशिश करते रहते हैं.

सोहनलाल का रंग भले ही सांवला हो, पर खोपड़ी के बाल उम्र से इंसाफ करते हुए विदाई ले चुके हैं, पान खाखा कर दांत होली के लाल रंग में रंगी गोपी से हो चुके हैं, पर ठीकठाक आंखें, नाक और कसरती बदन… कुलमिला कर वे हैंडसम होने के काफी आसपास हैं. उन के पास रुपएपैसों की कमी नहीं है इसलिए उन की घुमानेफिराने से ले कर महंगे गिफ्ट देने तक की हैसियत हमेशा से रही है. लिहाजा, न तो कल लड़कियां मिलने में कमी थी और न ही आज है.

ऐसी बात नहीं है कि सोहनलाल को प्यार मिला नहीं. प्यार मिलने में तो न बचपन में कमी रही, न जवानी में और न ही अब है, क्योंकि प्यार के मामले में हमारे ये आशिक मैगी को भी पीछे छोड़ दें. मैगी फिर भी 2 मिनट लेगी पकने में, पर इन्हें सैकंड भी नहीं लगता लड़की पटाने में. इधर लड़की से आंखें चार, उधर दिल ‘गतिमान ऐक्सप्रैस’ हुआ.

कुलमिला कर लड़की को देखते ही प्यार हो जाता है और लड़की को भी उन से प्यार हो, इस के लिए वे भी प्रेमपत्र से ले कर फेसबुक और ह्वाट्सऐप जैसी हाईटैक तकनीक तक का इस्तेमाल कर डालते हैं.

सोहनलाल अनेक बार कूटे भी गए हैं, पर ‘हिम्मत ए मर्दा, मदद ए खुदा’ कहावत पर भरोसा रखते हुए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.

प्यार के मामले में सोहनलाल ने राष्ट्रीय एकता को दिखाते हुए ऊंचनीच, जातिभेद, रंगभेद जैसी दीवारों को तोड़ते हुए अपनी गर्लफ्रैंड की लिस्ट लंबी कर डाली, जिस में सब हैं जैसे धोबन की बेटी, मेहतर की भांजी, पंडितजी की बहन, कालेज के प्रोफैसर की बेटी, स्कूल मास्टर की भतीजी वगैरह.

सोहनलाल की पहली सैटिंग मतलब पहले प्यार का किस्सा भी मजेदार है. उन के महल्ले की सफाई वाली की भांजी छुट्टियों में ननिहाल आई हुई थी और अपनी मामी के साथ शाम को खाना मांगने आती थी (उन दिनों मेहतर शाम को घरघर बचा हुआ खाना लेने आते थे).

उन्हीं दिनों ये महाशय भी एकदम ताजेताजे जवान हो रहे थे. लड़कियों को देख कर उन के तन और मन दोनों में खनखनाहट होने लगी थी. हर लड़की हूर नजर आती थी. सो, जो पहली लड़की आसानी से मिली, उसी पर लाइन मारना शुरू हो गए.

दोनों के नैना चार हुए और इशारोंइशारों में प्यार का इजहार भी हो गया.

लड़की भी इन के नक्शेकदम पर चल रही थी यानी नईनई जवान हो रही थी इसलिए अहसास एकदम सेम टू सेम थे.

कनैक्शन एकदम सही लगा. दोनों के बदन में करंट बराबर दौड़ रहा था. सो, आसानी से पट गई. बाकी काम मां की लालीलिपस्टिक ने कर दिया जो इन्होंने चुरा कर लड़की को गिफ्ट में दी थी.

एक दिन मौका देख कर सोहनलाल उस लड़की को ले कर घर के पिछवाड़े की कोठरी में खिसक लिए, यह सोच कर कि किसी ने नहीं देखा.

अभी प्यार का इजहार शुरू ही हुआ था कि लड़की की मामी आ धमकीं और झाड़ू मारमार कर इन की गत बिगाड़ डाली और धमकी भी दे डाली, ‘‘आगे से मेरी छोरी के पीछे आया तो झाड़ू से तेरा मोर बना दूंगी और तेरे मांबाप को भी बता कर तेरी ठुकाई करा डालूंगी.’’

बेचारे आशिकजी का यह प्यार तो हाथ से गया, पर जान में जान आई कि घर वालों को पता नहीं चला.

इस के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. वे पूरी हिम्मत से नईनई लड़कियों पर हाथ आजमाने लगे. कभी पत्थर में प्रेमपत्र बांध कर फेंके तो कभी आंखें झपका कर मामला जमा लिया और सच्चे प्यार की तलाश ही जिंदगी का एकमात्र मकसद बना डाला.

वैसे भी बाप के पास रुपएपैसों की कमी नहीं थी और जमाजमाया कारोबार था. सो, लाइफ सैट थी.

यह बात और है कि लड़की के साथ थोड़े दिन घूमफिर कर सोहनलाल को अहसास हो जाता था कि यह सच्चा प्यार नहीं है और फिर वे दोबारा जोरशोर से तलाश में जुट जाते.

सोहनलाल की याददाश्त तो इतनी मजबूत है कि शंखपुष्पी के ब्रांड एंबेसडर बनाए जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर उन की गर्लफ्रैंड की लिस्ट पढ़ कर किसी भी भले आदमी को चक्कर आ जाएं, पर मजाल है सोहनलाल एक भी गर्लफ्रैंड का नाम और शक्लसूरत भूले हों.

कृपया सोहनलाल को चरित्रहीन टाइप बिलकुल न समझें. उन का मानना है कि हम कपड़े खरीदते वक्त कई जोड़ी कपड़े ट्राई करते हैं तब जा कर अपनी पसंद का मिलता है. तो बिना ट्राई करे सच्चा प्यार कैसे मिलेगा?

एक बार तो लगा भी कि इस बार तो सच्चा प्यार मिल ही गया. सो, उन्होंने चटपट शादी कर डाली.

सोहनलाल बीवी को ले कर घर पहुंचे तो मां और बहनों ने खूब कोसा. बाप ने तो पीट भी डाला… दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने की वजह से. पर उन पर कौन सा असर होने वाला था, क्योंकि इतनी बार लड़कियों के बापभाई जो उन्हें कूट चुके थे, इसलिए उन का शरीर यह सब झेलने के लिए एकदम फिट हो चुका था.

सब सोच रहे थे कि प्यार का भूत सिर पर सवार था इसलिए शादी की, पर बेचारे सोहनलाल किस मुंह से बताते कि इस बार वे सच्ची में फंस चुके थे. यह रिश्ता प्यार का नहीं, बल्कि मजबूरी का था.

दरअसल, कहानी में ट्विस्ट यह था कि वह लड़की यानी वर्तमान पत्नी सोहनलाल के एक खास दोस्त की बहन थी और दोस्त से मिलने अकसर उस के घर जाना होता था, इसलिए इन का नैनमटक्का भी दोस्त की बहन से शुरू हो गया.

दोस्त चूंकि उन पर बहुत भरोसा करता था और उस कहावत में विश्वास रखता था कि ‘चुड़ैल भी सात घर छोड़ कर शिकार बनाती है’ तो बेफिक्र था.

लेकिन सोहनलाल तो आदत से मजबूर थे और ऐसे टू मिनट मैगी टाइप आशिक का किसी चुड़ैल से मुकाबला हो भी नहीं सकता, इसलिए उन्होंने लड़की पूरी तरह पटा भी ली और पा भी ली जिस के नतीजे में सोहनलाल ने कुंआरे बाप का दर्जा हासिल करने का पक्का इंतजाम कर लिया था.

पर चूंकि मामला दोस्त के घर की इज्जत का था और दोस्त पहलवान था इसलिए छुटकारा पाने के बजाय पत्नी बनाने का रास्ता सेफ लगा. इस में दोस्त की इज्जत और अपनी बत्तीसी दोनों बच गए.

प्यार का भूत तो पहले ही उतर चुका था सोहनलाल का, अब जो मुसीबत गले पड़ी थी, उस से छुटकारा भी नहीं पा सकते थे… इसलिए मारपीट और झगड़ों का ऐसा दौर शुरू हुआ जो आज तक नहीं थमा और न ही थमी है सच्चे प्यार की तलाश.

इन लड़ाईझगड़ों के बीच जो रूठनेमनाने के दौर चलते थे, उन्होंने सोहनलाल को 4 बच्चों का बाप भी बना डाला. उन की बीवी ने भी वही नुसखा आजमाया जो अकसर भारतीय बीवियां आजमाती हैं यानी बच्चों के पलने तक चुपचाप भारतीय नारी बन कर जितना हो सके सहन करो और बच्चों के लायक बनते ही उन के नालायक बाप को ठिकाने लगा डालो.

सोहनलाल की हालत घर में पड़ी टेबलकुरसी से भी बदतर हो गई.

बीवी ने घर में दानापानी देना बंद कर दिया था. अब बेचारे ने पेट की आग शांत करने के लिए ढाबों की शरण ले ली और बाकी की भूख मिटाने के लिए फेसबुक व दूसरे जरीयों से सहेलियों की तलाश में जुट गए, जिस में काफी हद तक वे कामयाब भी रहे.

वैसे भी 60 पार करतेकरते बीवी के मर्डर और सच्चे प्यार की तलाश 2 ही सपने तो हैं जो वे खुली आंखों से भी देख सकते थे.

सोहनलाल में एक सब से बड़ी खासीयत यह है, जिस से लोग उन्हें इज्जत की नजर से देखते हैं. उन्होंने हमेशा अपनी हमउम्र लड़की या औरत के अलावा किसी को भी आंख उठा कर नहीं देखा. छिछोरों या आशिकमिजाज बूढ़ों की तरह हर किसी को देख कर लार नहीं टपकाते, न ही छेड़खानी में यकीन रखते हैं.

बस, जो औरत उन के दिल में उतर जाए, उसे पाने के सारे हथकंडे आजमा डालते हैं. वह ऐसा हर खटकरम कर डालते हैं जिस से उस औरत के दिल में उतर जाएं.

प्यार की कला में तो वे इतने माहिर?हैं कि कोई भी तितली माफ कीजिए औरत एक बार उन के साथ कुछ वक्त बिता ले तो उन के प्यार के जाल में खुदबखुद फंसी चली आएगी और तब तक नहीं जाएगी जब तक सोहनलाल खुद आजाद न कर दें.

वैसे भी महोदय को इस खेल को खेलते हुए 40 साल से ऊपर हो चुके हैं इसलिए वे इस कला के माहिर खिलाड़ी बन चुके हैं. साइकिल के डंडे से लेकर कार की अगली सीट तक अनेक लड़कियों और लड़कियों की मांओं को वे घुमा चुके हैं.

आज सोहनलाल जिस तरह की औरत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहते हैं, उसे छोड़ कर हर तरह की औरत उन्हें मिल रही है.

सब से बड़ी बात तो यह है कि वे अपनी वर्तमान पत्नी को छोड़े बिना ही किसी का ईमानदार साथ चाहते हैं.

एक बार धोखा खा चुके हैं इसलिए इस बार अपनी ही जाति की सुंदर, सुशील, भारतीय नारी टाइप का वे साथ पाना चाहते हैं.

अब कोई उन से पूछे कि कोई सुंदर, सुशील और भारतीय नारी की सोच रखने वाली औरत इस उम्र में नातीपोते खिलाने में बिजी होगी या प्रेम के चक्कर में पड़ेगी? लेकिन सोहनलाल पर कोई असर होने वाला नहीं. वे बेहद आशावादी टाइप इनसान हैं और खुद को कामदेव का अवतार मानते हुए अपने तरकश के प्रेम तीर को छोड़ते रहते हैं, इस उम्मीद के साथ कि किसी दिन तो उन का निशाना सही बैठेगा ही और उस दिन वे अपने सच्चे प्यार के हाथों में हाथ डाल कर कहीं ऐसी जगह अपना आशियाना बनाएंगे जहां यह जालिम दुनिया उन्हें तंग न कर पाए.

हमारी तो यही प्रार्थना है कि हमारे सोहनलालजी को उन की खोज में जल्दी ही कामयाबी मिले.

Family Story : ऐसा तो होना ही था

Family Story : आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे : ‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’ भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

Social Story : लैला और मोबाइल मजदूर

Social Story : ‘‘अरे वाह रे भैया… यह पुल का काम तो द्रौपदी के चीर की तरह हो गया है… एक बार शुरू तो हो गया, पर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता है,’’ पेड़ के नीचे बैठे लड़कों से एक बूढ़े चाचा ने कहा.

‘‘हां चाचा… यह सब तो सरकारी कामकाज है… कभी काम शुरू तो कभी काम बंद.’’

‘‘पर कुछ भी कहो… जब भी इस पुल का काम शुरू होता है, तो फायदा तो गांव के बेरोजगार मजदूर लड़के और लड़कियों का होता है, जो उन को घर बैठे ही कामधाम मिल जाता है.’’

गांव के कुछ ही दूर पर बहने वाली नदी पर पुल बनने का काम चल रहा था, जिस में कई इंजीनियर, ठेकेदार और मजदूर आते थे, दिनभर काम करते और अस्थायी रूप से घर बना कर रहते.

इन्हीं मजदूरों में एक मजदूर रणबीर नाम का भी था. पता नहीं क्यों पर वह ठेकेदार का मुंह लगा हुआ मजदूर था, तभी तो कामधाम तो बस दिखावे का और दिनभर गांव में घूमघूम कर तसवीरें उतारा करता पूरे गांव की.

और कभी किसी ने कुछ पूछ भी लिया कि भाई ये तसवीरें क्यों खींचते रहते हो तो बड़ी होशियारी से जवाब देता कि मैं तो शहरी मजदूर हूं, पर थोड़ाबहुत मोबाइल का शौक है, इसलिए गांवों की तसवीरें फेसबुक पर डालता रहता हूं… इस से तुम्हारे गांव को लोग शहर में भी जानेंगे और तुम्हारी भी पहचान बनेगी.

रणबीर हमेशा ही मोबाइल हाथ में रखता था, इसलिए उस का नाम ही पड़ गया था मोबाइल मजदूर.

रणबीर को जब भी कभी राह में गांव की लड़कियां मिल जातीं तो उन के फोटो भी उन की नजर बचा कर उतार लेता.

रणबीर की यह हरकत गांव की कुछ लड़कियों को सख्त नागवार थी, पर उन के पास कोई सुबूत नहीं था और एक अजनबी का तसवीर खींच लेना उन के शरीर को रोमांच से भी भर देता था, इसलिए वे सीधा विरोध न कर पाती थीं.

‘‘सुरीली… एक बात तो बता… यह जो मोबाइल वाला मजदूर है न… इस की शक्ल देख कर ऐसा लगता है कि इस को पहले भी कहीं देखा है,’’ लैला ने अपनी आंखों को गोल करते हुए कहा.

‘‘हां यार, लगता तो मुझे भी है… और यह वैसे भी मुझे फूटी आंख नहीं भाता है, जब देखो यहांवहां के फोटो खींचता रहता है,’’ सुरीली ने अपनी सहेली लैला से कहा.

पता नहीं क्यों लैला को उस मोबाइल वाले मजदूर का चेहरा बारबार पहचाना सा लग रहा था और बड़ी देर से वह उसे पहचानने के लिए अपने दिमाग पर जोर डाल रही थी.

अचानक से लैला को जैसे कुछ याद आया हो, ‘‘अरे सुनो सब की सब… यह जो मोबाइल वाला मजदूर है न, इस के चेहरे को ध्यान से देखो और अगर इस की घनी दाढ़ी हटा दें, तो ये वही मजदूर लगता है, जो पिछली बार भी आया था जब पुल का काम शुरू हुआ था और कुछ दिन बाद हमारी प्यारी सहेली शन्नो को भगा कर ले गया था. तब से शन्नो कभी वापस नहीं लौटी. आखिर लफड़ा क्या है?’’ लैला ने कहा.

‘‘नहींनहीं… लैला, हमारा भला उस से क्या लफड़ा होगा… हां, इतना जरूर है कि एक बार जब हम भूसे के ढेर के पास बैठे थे, तब वह मोबाइल अपने हाथों में ले कर आया और बड़े अदब से मेरी एक तसवीर खींचते हुए बोला कि अगर मैं शहर में होती तो किसी फिल्म की हीरोइन होती…’’ शरमाते हुए सांवरी ने कहा.

‘‘और उस से कोई भी मदद मांगो तो पीछे न हटता है वह… और ऐसे कैसे किसी भले आदमी पर तुम्हारा यों आरोप लगा देना ठीक भी नहीं है,’’ सांवरी की बातें बड़ी हमदर्दी भरी थीं उस मोबाइल मजदूर के लिए.

सांवरी का एक अजनबी मजदूर के प्रति इतनर प्यार भरी बातें बोलना लैला और उस की सहेलियों को कुछ अजीब सा जरूर लग रहा था.

बरसात हो रही थी, पुल पर चल रहा काम भी आज बंद था, गांव और कसबे के स्कूलकालेजों में भी छुट्टी थी.

लैला भी अपने कमरे की खिड़की पर फुरसत में बैठी थी कि तभी उस ने देखा कि सांवरी छतरी ताने बरसात में कहीं जा रही है. एक जवान लड़की इतनी तेज बरसात में कहां जा रही है, वह भी गांव से बाहर जाने वाले रास्ते पर.

अपने मन में कुछ सोच कर, मां को अभी वापस आने को बोल कर लैला सांवरी का पीछा करने लगी.

सांवरी गांव के बाहर बने पुराने स्कूल में आ गई थी.

लैला का शक ठीक निकला. वहां पर रणबीर बैठा हुआ पहले से इंतजार कर रहा था, सांवरी स्कूल के अंदर एक खाली क्लास में घुस गई और रणबीर उस के पीछेपीछे घुस गया.

लैला ने उन की जासूसी करने की गरज से अपनी एक आंख दरवाजे में बनी दरार पर टिका दी. अंदर चल रहे दृश्य देख कर उस के कुंआरे जिस्म में भी झुरझुरी दौड़ गई.

रणबीर सांवरी को अपनी बांहों में कस कर उस के गीले होंठों को अपने होठों से सुखाने की कोशिश कर रहा था और सांवरी भी किसी बेल की तरह रणबीर से चिपकी हुई थी.

लैला की आंखें हैरत से फैल गई थीं, अंदर कमरे में रणबीर और सांवरी दोनों ही लगातार एकदूसरे में समा जाने की कोशिश कर रहे थे. सांवरी और रणबीर के उत्साह में कोई कमी नहीं थी.

लैला समझ गई थी कि दोनों एकदूसरे के जिस्मानी सुख का मजा लेना चाहते हैं, इसलिए लैला ने वहां से हट जाना ही उचित समझा, पर इतने में उस की आंखों ने जो देखा, उस ने लैला को वहीं पर रुकने को मजबूर कर दिया.

सांवरी की आंखें जोश से बंद थीं और रणबीर अपना मोबाइल हाथ में  ले कर सांवरी के बदन का वीडियो बनाने लगा.

चौंक पड़ी थी लैला… प्यार में जिस्मानी संबंध बन जाना आम बात है, पर यह कोई प्रेमी नहीं, बल्कि यह तो कोई धोखेबाज है… नहीं तो भला सांवरी के जिस्म का वीडियो क्यों बनाता?

सांवरी तो घोर संकट में फंसने वाली?है. लैला का मन किया कि अभी कमरे में अंदर घुस जाए और चीखचीख कर गांव वालों को बुला ले और रणबीर का हिसाब अभी बराबर करवा दे, पर ऐसा करने में सांवरी की बदनामी का डर था.

लैला ने मन ही मन रणबीर का राज फाश करने की बात सोची. वह कोई भोलीभाली लड़की नहीं थी, जिस का कोई भी फायदा उठा सकता था, लैला भले ही गांव में रहती थी पर नए से नए मोबाइल का इस्तेमाल करना अच्छी तरह जानती थी और इसी के सहारे उस ने  इस मोबाइल मजदूर का राज खोलने की बात सोची.

इतने में रणबीर और सांवरी अपनी मंजिल पर पहुंच चुके थे और अंदर से बाहर आने की आहट हुई, तो लैला तेज कदमों से वहां से घर वापस लौट गई.

आज लैला जानबूझ कर रणबीर के आनेजाने वाले रास्ते पर खड़ी हो गई. कुछ देर बाद जब रणबीर वहां से गुजरा तो लैला जैसी खूबसूरत लड़की को देख कर उस के मुंह में पानी आ गया.

‘‘सुनो… मेरा नाम रणबीर है. मैं यहां बन रहे पुल पर मजदूरी करता हूं और खाली वक्त में इस गांव की खूबसूरत चीजों को अपने मोबाइल में कैद करता हूं… तुम कहो तो तुम्हारा एक फोटो अपने मोबाइल में खींच लूं.’’

रणबीर से तो मेलजोल बढ़ाना लैला का मकसद था, इसलिए वह फोटो खिंचवाने के लिए तैयार हो गई. इतना ही नहीं, बल्कि दोस्ती बढ़ाने की गरज से दोनों ने एकदूसरे से फेसबुक पर दोस्ती भी कर ली. इस के पीछे लैला की मंशा रणबीर की पर्सनल बातें जानने की  ही थी.

घर पहुंचते ही लैला ने रणबीर की फेसबुक प्रोफाइल खंगाली और उस पर डाली गई पुरानी तसवीरें देखीं. उस का शक सही निकला कि यह दाढ़ी वाला मजदूर वही था, जो कुछ समय पहले शन्नो को इसी गांव से भगा ले गया था.

फेसबुक पर दोस्त बन जाने के बाद तो रणबीर की बेचैनी और भी बढ़ गई थी. वह आएदिन लैला को प्यार भरे मैसेज भेजा करता. कभीकभी उन में कुछ बेहूदगी भी होती.

लैला को रणबीर की फेसबुक प्रोफाइल से यह भी पता चला कि रणबीर के संबंध शहर के कुछ दूसरे लोगों से भी हैं. कभी तो लैला को यह भी लगता कि रणबीर जो दिखता है, वह नहीं है.

तेजतर्रार लैला को शन्नो का पता लगाना था और रणबीर की हकीकत भी जाननी थी, इसलिए लैला ने अपनेआप को ही एक प्लान के तहत दांव पर लगा दिया.

‘‘हां, रणबीर… फेसबुक से पता चला कि आज तुम्हारा जन्मदिन है, तो सोचा बधाई दे दूं,’’ लैला ने रणबीर से फोन कर के कहा.

‘‘अरे धन्यवाद… पर खाली बधाई देने से क्या होगा… कुछ पार्टी दो तो बात बने. वैसे भी पुल का कामकाज 2 दिन के लिए बंद है,’’ रणबीर ने रोमांटिक मूड में लैला से कहा.

‘‘हांहां… दे दूंगी पार्टी… पर समय और जगह तुम बताओ,’’ लैला ने कहा.

‘‘शाम को 8 बजे… गांव के बाहर वाले स्कूल में आ जाओ, फिर जम कर पार्टी करते हैं.’’

रणबीर की आंखों में चमक आ गई थी. लैला को अभी शाम के प्लान की तैयारी करनी थी, इसलिए सब से पहले तो उस ने अपने मांबाप को विश्वास में लिया, उन्हें सारी बात बताई और यह भी बताया कि उसे शन्नो का पता लगाने के लिए यह सब करना जरूरी है.

मांबाप को अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने उसे जाने की इजादत दे दी.

लैला ने अपनी सहेलियों को भी बता दिया था कि वह कहां जा रही है और अगर रात 10 बजे तक वापस नहीं आए तो वे सब गांव वालों को ले कर पुराने स्कूल में आ जाएं.

उस का प्लान सुन कर उस की सहेलियां भी चिंतित हुईं, पर लैला ने उन को समझाया और अकेले ही स्कूल में आ गई.

ठीक 8 बजे लैला बाहर वाले स्कूल पहुंच गई. रणबीर वहां पर पहले से मौजूद था और सिगरेट के कश लगा रहा था. लैला को देख कर रणबीर उस की तरफ झपटा.

‘‘चलो हटो… अपनेआप को मजदूर कहते हो… दिन के 200 रुपए कमाने वाले इतनी महंगी सिगरेट नहीं पिया करते.’’

‘‘अरे… मैं कौन हूं, क्या हूं… यह सब छोड़ो… मेरी बांहों में आ जाओ और जवानी का मजा लो,’’ रणबीर कामुक आवाज में बोला.

‘‘पर, पहले मूड तो बना लो,’’ शराब से भरा गिलास रणबीर के होंठों से लगाते हुए लैला ने कहा.

‘‘वाह मेरी जान… तुम्हें कितना खयाल है मेरा,’’ शराब का गिलास खाली करते हुए रणबीर ने कहा.

आज रणबीर काफी जोश में था, क्योंकि उस के सामने लैला जैसी खूबसूरत और जवान लड़की थी, पर लैला ने अभी तक अपने शरीर को छूने तक नहीं दिया था, लेकिन एक काम वह लगातार कर रही थी कि रणबीर को लगातार पैग पर पैग दे रही थी और नजर बचा कर एक नींद की गोली भी उस ने शराब में मिला दी थी.

रणबीर भी अपनी शराब पीने की सीमा को पार कर चुका था, आंखें भारी हो रही थीं और जब वह बेहोश सा होने लगा, तो लैला उस से ऐसे प्यार जताने लगी जैसे कि वह भी उस के प्यार की प्यासी है.

कुछ ही देर में जब रणबीर पूरी तरह नींद में चला गया, तो लैला ने तेजी से अपना काम शुरू किया. सब से पहले उस ने रणबीर का मोबाइल चैक किया और उस में मौजूद फोन की रिकौर्डिंग सुनी. काफी फोन तो औपचारिक थे, कुछ और फोन की रिकौर्डिंग को लैला ने सुना, जिस से उसे पता चला कि शहर में रणबीर के एक बीवी और बच्चा भी है, जबकि रणबीर ने कभी भी यहां के लोगों को इस बारे में कुछ नहीं बताया था, बल्कि वह अपनेआप को कुंआरा ही बताया करता था.

लैला अब भी तेजी से फोन की रिकौर्डिंग चैक कर रही थी, एक नंबर की काल थी, जिसे ‘साहब’ के नाम से सेव किया गया था और उस की रिकौर्डिंग सुन कर दंग रह गई थी लैला.

वह साहब नाम का शहर में लड़कियों को बाहर के देशों में बेचने का काम करता था और इस के लिए वह रणबीर जैसे गुरगों को गांव में काम करने के बहाने से भेजता और रणबीर मजदूर के वेश में रहता, ताकि गांव के लोगों का विश्वास आसानी से जीत सके और वहां की सीधीसादी लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसा सके.

उस के बाद वह पहले तो उन का यौन शोषण करता और फिर उन के वीडियो भी बना लेता, जिन के बल पर वह उन्हें ब्लैकमेल करने का काम भी करता और अकसर तो लड़कियों से शादी करने के बहाने से उन्हें शहर ले आता और उस ‘साहब’ नाम के आदमी को पेश कर देता और इस के बदले में रणबीर को काफी पैसे भी मिलते, शन्नो को भी कहीं बेच दिया गया था.

लैला समझ गई थी कि यह कोई मजदूर नहीं, बल्कि एक आदमी की खाल में भेडि़या है, जो दलाली का काम करता है.

लैला ने देखा कि रणबीर के मोबाइल में गांव के बाहर की दूसरी लड़कियों के साथ सैक्स करने के वीडियो भी थे, जिन्हें भी रणबीर ने लड़कियों की नजर बचा कर बनाया गया था यानी रणबीर का प्लान अभी और लड़कियों का सौदा करने का भी था.

लैला को अब लगने लगा था कि सुबूत रणबीर को सजा दिलाने के लिए काफी हैं, तो वह रणबीर के मोबाइल के साथ वहां से पुलिस के पास गई.

सुबह जब रणबीर होश में आया, तब तक सूरज सिर पर चढ़ चुका था और लैला पुलिस में रिपोर्ट करने के बाद पुलिस को अपने साथ ले भी आई थी.

पुलिस ने मोबाइल की काल डिटेल्स को आधार मानते हुए रणबीर को गिरफ्तार कर लिया और रणबीर के माध्यम से ही पुलिस ने शहर में मौजूद ‘साहब’ नाम के आदमी को दबोच लिया.

इस तरह से लैला ने अपनी सूझबूझ से एक बड़े अपराधी गैंग का खात्मा कर दिया था और न जाने कितनी लड़कियों को देह धंधे के दलदल में जाने से बचा लिया था.

माना कि गांव की लड़कियां सीधीसादी होती हैं, पर बात अगर उन की इज्जत की होती है तो वे तेजतर्रार भी बनना जानती हैं और बोल्ड भी.

Love Story : मनचला – जवान लड़की को देख बेकाबू हुआ कपिल का मन

Love Story : इंद्राणी की मुसकान पर मुसकराते हुए कपिल जब लालबत्ती पर रुका तो वह कुछ गुनगुना रहा था. उम्र 50 भी हो तो क्या हुआ, मर्द हमेशा खुद को जवान महसूस करता है. कुछ सप्ताह पहले ही उस की पदोन्नति भी हुई थी. सबकुछ रंगीन था.

‘‘सर,’’ सहसा एक मीठे स्वर ने उस का ध्यान आकर्षित किया.

कपिल ने देखा, बिंदास और एक स्मार्ट लड़की उसे देख रही है. उस की छवि और अदा में अच्छा आकर्षण था, अंदाजन वह 20-22 वर्ष की होगी.

‘‘सर, क्या आप मुझे लिफ्ट देंगे?’’ लड़की ने पूछा.

लड़की अच्छी लगी और फिर कपिल का मूड भी अच्छा था, क्योंकि चलते समय ही उस का मन खुश हो गया था. उस समय वह अच्छे मूड में था क्योंकि इंद्राणी की मुसकान ने उस की मुसकान को दोहरा कर दिया था.

मनपसंद नाश्ता हो और घर की मुरगी मादक मुसकान फेंक कर विदा करे तो हर मौसम रोमानी लगता है. 45 वर्ष की उम्र में भी इंद्राणी उर्फ नूमा खुद को इतना चुस्तदुरुस्त रखती कि कोई आसानी से

भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि वह

2 जवान बच्चों की मां है. जब वह अपनी बेटी के साथ होती तो अकसर लोग दोनों को किसी सौंदर्य साबुन के विज्ञापन का मौडल कहते.

अत: उस ने पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘वैसे तो मैं साऊथ दिल्ली जा रही हूं,’’ लड़की ने अपनी मीठी मुसकान का लाभ उठाते हुए कहा, ‘‘आप मुझे रास्ते में कहीं भी उतार दीजिए.’’

‘‘बैठो,’’ कपिल हंसा, ‘‘पर मुझे ब्लैकमेल तो नहीं करोगी?’’

लड़की हंस पड़ी. उस की हंसी में मधुर खनखनाहट थी. उस ने ध्यान से कपिल को देखा, मानो उस के चरित्र का मूल्यांकन कर रही हो. फिर बैठने के लिए पीछे का दरवाजा खोलने लगी.

कपिल ने अपने पास का दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘पीछे नहीं, यहां बैठो. लोग मुझे कहीं तुम्हारा ड्राइवर न समझ बैठें.’’

लड़की फिर हंस पड़ी और अगली सीट पर जल्दी से बैठ गई.

हरीबत्ती हो चुकी थी और पीछे वाले बेचैनी से हौर्न पर हौर्न बजा रहे थे. कपिल ने जल्दी से कार आगे बढ़ा दी.

कपिल के दिमाग में बहुत सारी बातें एकसाथ चल रही थीं. कुछ दिनों पहले ही समाचारपत्रों में यौन अपराध संबंधी कई समाचार आए थे. साउथ दिल्ली और रोहिणी में कई लड़कियां धंधा करते रंगेहाथों पकड़ी गई थीं. इन में से अधिकतर लड़कियां शिक्षित व अच्छे घरों की थीं. यही नहीं, एक तो 2-3 वर्ष पहले मिस इंडिया भी रह चुकी थी. कालेज की लड़कियों को फैशन या मादक द्रव्यों की आदत के कारण ऊपरी आमदनी के अतिरिक्त कमाई का आसान रास्ता और क्या हो सकता है?

जब से फिल्म ‘आस्था’ परदे पर आई है, तब से पता चला कि शादीशुदा औरतें भी मौका पा कर, अपना जीवन स्तर ऊंचा करने के लिए, देहव्यापार करने लगी हैं.

कपिल ने सोचा, तो क्या यह लड़की भी उन में से एक है? क्या यह उपलब्ध है? क्यों न जानने की कोशिश की जाए? शारीरिक रिश्तों में विविधता का अपना अलग ही आकर्षण होता है.

टोह लेने के लिए कपिल ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘मारिया,’’ लड़की ने कहा.

‘‘अच्छा नाम है,’’ कपिल मुसकराया, ‘‘पढ़ती हो?’’

‘‘पढ़ती थी, पर अब कालेज छोड़ दिया,’’ मारिया ने नीचे देखते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ कपिल ने पूछा

‘‘पिता टीबी के मरीज हैं, नौकरी नहीं करते,’’ मारिया ने कहा, ‘‘और मां को दमा है. छोटा भाई स्कूल में पढ़ता है. सारे घर की जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी है.’’

‘‘बड़े दुख की बात है,’’ कपिल ने देखा, मारिया बहुत उदास दिखाई दे रही है.

अचानक मारिया मुसकरा दी, ‘‘सर, दुनिया है, सब चलता है… दुखी होने से क्या होगा?’’

‘‘सो तो ठीक है,’’ कपिल ने पूछा, ‘‘पर फिर करती क्या हो?’’

‘‘बस, ऐसे ही,’’ मारिया ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, ‘‘गुजारा कर लेती हूं…कुछ न कुछ काम मिल ही जाता है.’’

‘‘कैसा काम?’’ कपिल ने कुरेदा.

‘‘सर,’’ मारिया ने एक क्षण रुक कर कपिल को देखा और धीरे से कहा, ‘‘क्या आप 500 रुपए उधार देंगे?’’

कपिल का अनुमान सही था कि वह लड़की उपलब्ध है. उस के जीवन में यह पहला अनुभव है. शरीर में फुरफुरी दौड़ गई. जो केवल पढ़ा और सुना था, वास्तविक बन कर सामने आ गया था.

‘‘यह क्या तुम्हारी फीस है?’’ कपिल ने पूछा.

‘‘नहीं, हजार, 2 हजार रुपए भी मिल जाते हैं, पर आज बहुत जरूरत है. 500 रुपए से काम चला लूंगी…राशन नहीं लूंगी तो खाना नहीं बनेगा.’’

कपिल ने मारिया के शरीर पर नजर दौड़ाई. जो कुछ देखा, बहुत अच्छा लगा, फिर पूछा, ‘‘कोई ठिकाना है क्या?’’

‘‘है तो,’’ मारिया ने कहा, ‘‘साउथ दिल्ली में एक गैस्टहाउस है, पर किराए के अतिरिक्त वहां के प्रबंधकों को भी कुछ अलग से देना पड़ता है.’’

कपिल ने मन ही मन अनुमान लगाया कि ऐसे सौदे में क्रैडिट कार्ड से काम नहीं चलेगा. इस समय जेब में लगभग 1,200 रुपए हैं, क्या इतना काफी होगा?

इस से पहले कि कपिल आगे पूछता, उस के मोबाइल फोन की ‘पिप…पिप… पिप…’ ने चौंका दिया.

‘‘हैलो,’’ उस ने कहा.

‘‘हाय पप्पा,’’ बेटी मृदुला के स्वर में उत्साह था.

‘‘हाय, मेरी प्यारी गुडि़या,’’ कपिल ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘कैसे याद आ गई? अभीअभी तो घर से निकला हूं. रुपए चाहिए तो मां से ले लो.’’

‘‘अरे, नहीं पप्पा,’’ मृदुला ने कहा, ‘‘आप को याद दिला रही थी, मम्मा का जन्मदिन आ रहा है, एक सुंदर सा कार्ड और एक बहुत बढि़या उपहार खरीदने चलना है. आज चलेंगे न?’’

कपिल ने मारिया की ओर देखा. वह चुपचाप बैठी थी. बेटी मृदुला भी इतनी ही बड़ी होगी. अचानक एक अपराधबोध की भावना ने जन्म लिया, क्या जो वह करने जा रहा है, उचित है?

‘‘पापा,’’ मृदुला ने बेसब्री से पूछा, ‘‘सुन रहे हैं?’’

‘‘सुन रहा हूं, गुडि़या रानी,’’ कपिल ने उत्तर दिया, ‘‘पर आज नहीं, कल चलेंगे.’’

‘‘ठीक है.’’ कपिल ने फोन बंद कर दिया.

कुछ देर तक कार चलती रही. दोनों चुप थे.

‘‘सर,’’ सहसा मारिया ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘आप ने क्या सोचा?’’

‘‘तुम्हारे गैस्टहाउस वाले मैनेजर को कितना रुपया देना होगा?’’ कपिल ने पूछा. मारिया से संबंध बनाने की

इच्छा ने फिर जोर मारा. सोचा, क्या उचित है और क्या अनुचित, बाद में देखा जाएगा.

मारिया ने कहा, ‘‘कुछ ज्यादा रुपया नहीं लगेगा.’’

‘‘फिर भी,’’ कपिल ने कहा, ‘‘वहां पहुंच कर मूर्ख नहीं बनना है, वैसे जगह सुरक्षित तो है न?’’

यह प्रश्न वह रोज सुनती थी और उत्तर उस ने तोते की तरह रट रखा था. इस से पहले कि वह उत्तर देती, कपिल का मोबाइल फोन फिर से रिंग हुआ.

‘‘हैलो,’’ कपिल ने आहिस्ता से कहा.

‘‘हाय,’’ पत्नी नूमा का परिचित स्वर सुनाई दिया.

‘‘हाय,’’ कपिल ने पूछा, ‘‘क्या कोई आदेश देना बाकी रह गया?’’

‘‘एक अच्छी खबर है,’’ नूमा ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘सोचा, तुम्हें दफ्तर पहुंचने से पहले ही सुना दूं.’’

‘‘तुम से अच्छी खबर की उम्मीद तो नहीं है,’’ कपिल ने मंद मुसकान से कहा, ‘‘मुझे बहुत डर लगता है.’’

‘‘हिश्श…’’ नूमा ने कहा, ‘‘बेशर्म कहीं के. बल्लू का फोन अभीअभी आया था.’’

‘‘बल्लू का?’’ कपिल के स्वर में हर्ष और आश्चर्य का मिश्रण था, ‘‘क्या कहा, उस ने?’’

‘बल्लू’ यानी बलराम, उन का पुत्र सेना में कप्तान था और जोधपुर के पास सीमा पर तैनात था.

‘‘बोला…’’ नूमा ने गद्गद कंठ से कहा, ‘‘इस बार मेरे जन्मदिन पर अवश्य आएगा. एक सप्ताह की छुट्टी मिल गई है.’’

‘‘वाह,’’ कपिल ने खुश हो कर कहा, ‘‘ठीक है, खूब जश्न मनाएंगे.’’

‘‘सुनो,’’ नूमा ने कहा.

‘‘हां, सुन रहा हूं, पर जल्दी कहो, ट्रैफिक बहुत है,’’ कपिल ने कहा.

‘‘तो ठीक है, जब घर आओगे, तभी कहूंगी.’’

‘‘अब कह भी दो,’’ कपिल ने कहा.

‘‘बल्लू के लिए जो लड़कियां हम ने चुनी हैं, उन के अभिभावकों से हम मिलने का समय ले लेते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ कपिल ने कहा, ‘‘तुम जो ठीक समझो, वही करो. अब फोन बंद करता हूं.’’

कपिल ने फोन बंद कर दिया और सोचा, इतना सुनहरा अवसर मिला है और सब बाधाएं खड़ी कर रहे हैं. खैर, दफ्तर भी फोन करना है कि आने में

देर होगी. इतना दुर्लभ अवसर चूकना नहीं चाहिए?

‘‘तो फिर किधर चलना है?’’ कपिल ने कहा, ‘‘मुझे खेद है. यह फोन बहुत तंग कर रहा है.’’

मारिया ने मादक मुसकान से कहा, ‘‘तो फिर फोन बंद कर दीजिए या बैटरी निकाल लीजिए.’’

‘‘बहुत समझदार और चतुर हो,’’ कपिल ने हंसते हुए कहा, ‘‘बस, एक फोन दफ्तर में करना है, ताकि बाकी समय चैन से गुजरे.’’

इस से पहले कि कपिल दफ्तर का नंबर लगाता, फोन बज उठा.

‘‘अब कौन है?’’ कपिल ने नाराजगी दिखाते हुए कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘सर,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘मैं मनोहर बोल रहा हूं.’’

मनोहर महाप्रबंधक का निजी सचिव था. उस के स्वर में घबराहट थी.

‘‘हां, बोलो मनोहर, क्या बात है?’’ कपिल ने कहा, ‘‘जल्दी बोलो, मुझे

एक जरूरी काम है, आने में देर हो सकती है.’’

‘‘सर, आप तुरंत यहां आ जाइए,’’ मनोहर ने जरा ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मजदूरों ने साहब का घेराव कर रखा है और नारे लगा रहे हैं.’’

‘‘ओह,’’ कपिल ने क्रोध से कहा, ‘‘क्या सबकुछ आज ही होना है? ठीक है, मैं आ रहा हूं. तुम पुलिस को सूचना दे दो. शायद जरूरत पड़ जाए.’’

‘‘जी, सर,’’ मनोहर ने कहा, ‘‘पर आप जल्दी से जल्दी आइए.’’

कपिल ने खेदपूर्वक एक बार फिर मारिया को देखा और सोचा, क्या गजब की लड़की है, क्या फिर मुलाकात होगी?

‘‘मुझे खेद है,’’ कपिल ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘आज का मुहूर्त शायद ठीक नहीं है. तुम्हें कहां छोड़ दूं?’’

मारिया के चेहरे से कुछ पढ़ पाना कठिन था, न तो मायूसी का भाव था और न ही खेद का. उस ने हौले से कहा, ‘‘यहीं उतार दीजिए.’’

कपिल ने कार सड़क के किनारे ला कर रोक दी तो मारिया ने दरवाजा खोला और बाहर निकल गई.

‘‘एक मिनट रुको,’’ कपिल ने जेब से पर्स निकालते हुए कहा, ‘‘लो, कुछ रुपए रख लो.’’

सौसौ के नोट थे, जिन्हें न तो कपिल ने गिना और न ही मारिया ने.

मारिया ने नोट हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आप बहुत अच्छे हैं.’’

‘‘अब कहां मिलोगी?’’ कपिल ने पूछा.

‘‘ऐसे ही किसी चौराहे पर,’’ मारिया ने दोनों हाथ हवा में फैला दिए.

‘‘फिर भी, कोई टैलीफोन या मोबाइल नंबर तो होगा?’’ कपिल ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ मारिया ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘मेरा कोई फोन नंबर नहीं है.’’

‘‘ओह,’’ कपिल ने खेद से कहा.

‘‘हां, आप अपना नंबर दे दीजिए,’’ मारिया ने शरारतभरी मुसकान से कहा, ‘‘कभीकभी फोन करती रहूंगी.’’

कपिल की आंखों में चमक आ गई. सोचा, घर का नंबर देना तो ठीक नहीं होगा, मोबाइल नंबर…नहीं, यह भी ठीक नहीं है. कहीं ब्लैकमेल ही करने लगे तो? अपनी सुरक्षा की उतनी ही चिंता थी जितनी कि मारिया की संगति का आकर्षण.

‘‘सुनो, क्या कल इसी समय इसी जगह मिल सकती हो?’’

‘‘सर, कल की कौन जानता है,’’ मारिया ने खनखनाती हंसी से कहा, ‘‘कल इस राह से आप गुजरें और मुझे पहचानें तक नहीं?’’

‘‘तो फिर कहां?’’ कपिल हंसा, ‘‘बहुत शरारती हो.’’

‘‘कोशिश कर लीजिएगा,’’ मारिया ने कहा और भीड़ में गायब हो गई.

अगले 2-3 दिनों तक कपिल उसी जगह उसी समय बेकरारी से मारिया को ढूंढ़ता रहा. अचानक अच्छाखासा पारिवारिक आदमी नए यौनाकर्षण का शिकार हो गया. दिमाग पर धुंध सी छा गई थी.

चौथे दिन कुछ देर प्रतीक्षा के बाद…

‘‘सर, अच्छे तो हैं?’’ एक नई खुशबू का झोंका आया.

‘‘हाय,’’ कपिल ने कहा.

‘‘हाय,’’ मारिया ने मुसकरा कर कहा और बिना निमंत्रण के कार का दरवाजा खोल कर कपिल के पास बैठ गई.

‘‘तुम्हारी मां अब कैसी है?’’ कपिल ने पूछा.

‘‘छोडि़ए सर,’’ मारिया ने हाथ घुमाते हुए कहा, ‘‘आप तो सब समझते हैं. अपनी बताइए, क्या इरादा है?’’

‘‘तुम्हारा गुलाम हूं,’’ कपिल ने रोमानी अंदाज में कहा, ‘‘जहां चाहो, ले चलो.’’

‘‘आप को कोई डर तो नहीं है?’’ मारिया ने पूछा.

‘‘डर तो है, पर तुम्हारे ऊपर विश्वास करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है.’’

‘‘आप बहुत समझदार हैं,’’ मारिया ने कहा और गैस्टहाउस का रास्ता बताया.

जब कार गैस्टहाउस के आगे रुकी तो कपिल का मन गुदगुदा रहा था, पर दिल पहली बेवफाई के एहसास से कुछ अधिक गति से धड़क रहा था.

अंदर पहुंच कर मारिया ने एक आदमी से कुछ बातें कीं और फिर कपिल को एक कमरे में ले गई. ऐशोआराम का सारा सामान कमरे में मौजूद था. कपिल को सोफे पर बैठने का संकेत करते हुए मारिया ने फ्रिज का दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘बीयर चलेगी?’’

कपिल ने स्वीकृति में सिर हिलाया.

मारिया ने 2 गिलासों में बीयर डाली.

‘‘चीयर्स,’’ मारिया ने कहा.

‘‘चीयर्स,’’ कपिल मुसकराया.

तभी उसी आदमी ने, जो बाहर था, भीतर प्रवेश किया. कपिल ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखा.

‘‘अपना पहचानपत्र दिखाइए,’’ उस ने आदेश दिया.

‘‘पहचानपत्र?’’ कपिल ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘हमें यह देखना है कि आप पुलिस के आदमी तो नहीं हैं?’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘पर मारिया जानती है,’’ कपिल ने बौखला कर कहा, ‘‘मैं पुलिस का आदमी नहीं हूं.’’

‘‘आप को पहचानपत्र दिखाना होगा,’’ उस ने जोर दे कर कहा.

‘‘मेरे पास कोई पहचानपत्र नहीं है.’’

‘‘कोई और सुबूत होगा?’’

‘‘नहीं, मेरे पास कुछ नहीं है,’’ कपिल ने झूठ कहा.

तभी एक दूसरे आदमी ने भीतर प्रवेश किया. उस के हाथ में कैमरा था.

‘‘इन का फोटो ले लो,’’ पहले आदमी ने कहा.

‘‘मैं फोटो नहीं खिंचवाऊंगा,’’ कपिल ने घबरा कर कहा, ‘‘आप का मतलब क्या है?’’

‘‘20 हजार रुपए चाहिए,’’ उस ने कहा.

‘‘मेरे पास रुपए नहीं हैं,’’ कपिल ने कहा.

‘‘कोईर् बात नहीं,’’ उस आदमी ने शांति से कहा, ‘‘कपड़े उतार लेते हैं. मारिया, चलो अपना काम करो.’’

कपिल ने घबरा कर कहा, ‘‘ठहरो, मैं रुपए देता हूं, पर इतने नहीं हैं.’’

‘‘कितने हैं?’’

‘‘मेरे ब्रीफकेस में हैं, और ब्रीफकेस कार में है.’’

‘‘अपना पर्स और घड़ी दो,’’ उस आदमी ने कहा.

कपिल ने चुपचाप पर्स में से रुपए निकाल कर दे दिए. फिर घड़ी

उतार दी. उस की सांस तेजी से चल रही थी.

‘‘साहब के साथ जाओ,’’ उस आदमी ने मारिया से कहा, ‘‘और ब्रीफकेस ले कर आओ. होशियारी मत करना. मुन्ना साथ जा रहा है. हमें रुपए वसूल करना आता है.’’

कपिल ने गहरी सांस ले कर उन्हें देखा और फिर चुपचाप बाहर आ गया. उस के पीछे मारिया और मुन्ना भी थे.

कार के पास पहुंच कर कपिल ने चाबी से दरवाजा खोला और अंदर बैठ गया. पीछे की सीट पर रखे ब्रीफकेस की ओर देखा. इस से पहले कि वे कुछ करते, उस ने कार स्टार्ट कर दी. मुन्ना ने कार रोकने के लिए आगे पैर बढ़ा दिया, पर कपिल ने फौरन गति बढ़ा दी. चलती कार ने मुन्ना को पीछे फेंक दिया. कुछ ही क्षणों में वह आंखों से ओझल हो गया.

काफी दूर पहुंच कर कपिल ने गहरी सांस ली कि क्षणिक कमजोरी कितनी यातना देती है. अब मैं कभी इस चक्कर में नहीं पड़ूंगा.

शाम को जब वह घर पहुंचा तो ऐसा लग रहा था, मानो कोई कैदी जेल से भाग कर आया हो. कभी भी पुलिस द्वार पर दस्तक दे सकती है.

रात में जब घंटी बजी तो कपिल का दिल दहल गया.

‘‘इतनी रात गए कौन होगा?’’ इंद्राणी ने कहा.

‘‘देखता हूं,’’ कपिल ने उठते हुए कहा. दिल तेजी से धड़क रहा था. घबराते हुए दरवाजा खोला तो देखा, सामने बेटा बल्लू खड़ा है.

‘‘अरे,’’ कपिल ने उसे छाती से लगा लिया.

‘‘ऐसे ही आता है,’’ मां ने गदगद कंठ से कहा, ‘‘मुझे लग रहा था कि बल्लू ही होगा.’’

सुबह नाश्ते की मेज पर कहकहे लग रहे थे. अचानक कपिल की निगाह समाचारपत्र पर गई. पहले पृष्ठ पर ही समाचार छपा था कि साउथ दिल्ली के एक गैस्टहाउस में ब्लैकमेल करने व लूटने वाले एक गिरोह को गिरफ्तार किया गया. गिरोह में एक लड़की भी शरीक थी.

‘‘कोई खास बात है क्या?’’ पत्नी ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ कपिल ने समाचारपत्र नीचे फेंकते हुए कहा, ‘‘वही आम बातें…’’

Crime Story : डांसर के इश्क में – जिस्म की चाहत में हुई भूल

Crime Story : मैक्स बीयरबार में सैक्स रैकेट चलने की सूचना मिलते ही नौदर्न टाउन थाने के सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह ने अपने दलबल के साथ वहां छापा मारा. वहां किसी शख्स के जन्मदिन का सैलिब्रेशन हो रहा था. खचाखच भरे हाल में सिगरेट, शराब और तेज परफ्यूम की मिलीजुली गंध फैली हुई थी. घूमते रंगीन बल्बों की रोशनी में अधनंगी बार डांसरों के साथ भौंड़े डांस करते मर्द गदर सा मचाए हुए थे.

सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह हाल में घुसा और चारों ओर एक नजर फेरते हुए तेजी से दहाड़ा, ‘‘खबरदार… कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा. बंद करो यह तमाशा और बत्तियां जलाओ.’’

तुरंत बार में चारों ओर रोशनी बिखर गई. सबकुछ साफसाफ नजर आने लगा.

सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह एक बार डांसर के पास पहुंचा और उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए एक जोरदार तमाचा उस के गाल पर मारा. वह बार डांसर गिर ही पड़ती कि भीमा सिंह ने उसे बांहों का सहारा दे कर थाम लिया और बार मालिक को थाने में मिलने का आदेश देते हुए वह उस बार डांसर को अपने साथ ले र बाहर निकल गया.

भीमा सिंह ने सोचा कि उस लड़की को थाने में ले जा कर बंद कर दे, फिर कुछ सोच कर वह उसे अपने घर ले आया. उस रात वह बार डांसर नशे में चूर भीमा सिंह के बिस्तर पर ऐसी सोई, जैसे कई दिनों से न सोई हो.

दूसरे दिन भीमा सिंह ने उसे नींद से जगाया और गरमागरम चाय पीने को दी. उस ने चालाक हिरनी की तरह बिस्तर पर पड़ेपड़े अपने चारों ओर नजर फेरी. अपनेआप को महफूज जान उसे तसल्ली हुई. उस ने कनखियों से सामने खड़े उस आदमी को देखा, जो उसे यहां उठा लाया था.

भीमा सिंह उस बार डांसर से पुलिसिया अंदाज में पेश हुआ, तो वह सहम गई. मगर जब वह थोड़ा मुसकराया, तो उस का डर जाता रहा और खुल कर अपने बारे में सबकुछ सचसच बताने लगी कि वह जामपुर की रहने वाली है. वह पढ़ीलिखी और अच्छे घर की लड़की है. उस के पिता ने उस की बहनों की शादी अच्छे घरों में की है.

वह थोड़ी सांवली थी, इसलिए उस की अनदेखी कर दी. इस से दुखी हो कर वह एक लड़के के साथ घर से भाग गई. रास्ते में उस लड़के ने भी धोखा देते हुए उसे किसी और के हाथ बेचने की कोशिश की. वह किसी तरह से उस के चंगुल से भाग कर यहां आ गई और पेट पालने के लिए बार में डांस करने लगी.

भीमा सिंह बोला, ‘‘तुम्हारे जैसी लड़कियां जब रंगे हाथ पकड़ी जाती हैं, तो यही बोलती हैं कि वे बेकुसूर हैं. ‘‘ठीक है, तुम्हारा केस थाने तक नहीं जाएगा. बस, तुम्हें मेरा एक काम करना होगा. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगा.’’

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ उस बार डांसर के मासूम चेहरे पर चालाकी के भाव तैरने लगे थे. भीमा सिंह ने उसे घूरते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे लिए मुखबिरी करोगी.’’ उस बार डांसर को अपने बचाव का कोई उपाय नहीं दिखा. वह बेचारगी का भाव लिए एकटक भीमा सिंह की ओर देखने लगी.

भीमा सिंह एक दबंग व कांइयां पुलिस अफसर था. रिश्वत लिए बिना वह कोई काम नहीं करता था. जल्दी से वह किसी पर यकीन नहीं करता था. भ्रष्टाचार की बहती गंगा में वह पूरा डूबा हुआ था. लड़कियां उस की कमजोरी थीं. शराब के नशे में डूब कर औरतों के जिस्म के साथ खिलवाड़ करना उस की आदतों में शुमार था.

भीमा सिंह पकड़ी गई लड़कियों से मुखबिरी का काम कराता था. लड़कियां भेज कर वह मुरगा फंसाता था. पकड़े गए अपराधियों से केस रफादफा करने के एवज में उन से हजारों रुपए वसूलता था. शराब के नशे में कभीकभी तो वह बाजारू औरतों को घर पर भी लाने लगा था, जिस के चलते उस की पत्नी उसे छोड़ कर मायके में रहने लगी थी.

इस बार डांसर को भी भीमा सिंह यही सोच कर लाया था कि उसे इस्तेमाल कर के छोड़ देगा, पर इस लड़की ने न जाने कौन सा जादू किया, जो वह अंदर से पिघला जा रहा था.

भीमा सिंह ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘रेशमा.’’

‘‘जानती हो, मैं तुम्हें यहां क्यों लाया हूं?’’

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘क्योंकि थाने में औरतों की इज्जत नहीं होती. तुम्हारी मोनालिसा सी सूरत देख कर मुझे तुम पर तरस आ गया है. मैं ने जितनी लड़कियों को अब तक देखा, उन में एक सैक्स अपील दिखी और मैं ने उन से भरपूर मजा उठाया. मगर तुम्हें देख कर…’’

भीमा सिंह की बातों से अब तक चालाक रेशमा भांप चुकी थी कि यह आदमी अच्छी नौकरी करता है, मगर स्वभाव से लंपट है, मालदार भी है, अगर इसे साध लिया जाए… रेशमा ने भोली बनने का नाटक करते हुए एक चाल चली.

‘‘मैं क्या सचमुच मोनालिसा सी दिखती हूं?’’ रेशमा ने पूछा.

‘‘तभी तो मैं तुम्हे थाने न ले जा कर यहां ले आया हूं.’’

रेशमा को ऐसे ही मर्दों की तलाश थी. उस ने मन ही मन एक योजना तैयार कर ली. एक तिरछी नजर भीमा सिंह की ओर फेंकी और मचल कर खड़ी होते हुए बोली, ‘‘ठीक है, तो अब मैं चलती हूं सर.’’ ‘‘तुम जैसी खूबसूरत लड़की को गिरफ्त में लेने के बाद कौन बेवकूफ छोड़ना चाहेगा. तुम जब तक चाहो, यहां रह सकती हो. वैसे भी मेरा दिल तुम पर आ गया है,’’ भीमा सिंह बोला.

‘‘नहींनहीं, मैं चाहती हूं कि आप अच्छी तरह से सोच लें. मैं बार डांसर हूं और क्या आप को मुझ पर भरोसा है?’’

‘‘मैं ने काफी औरतों को देखा है, लेकिन न जाने तुम में क्या ऐसी कशिश है, जो मुझे बारबार तुम्हारी तरफ खींच रही है. तुम्हें विश्वास न हो, तो फिर जा सकती हो.’’

रेशमा एक शातिर खिलाड़ी थी. वह तो यही चाहती थी, लेकिन वह हांड़ी को थोड़ा और ठोंकबजा लेना चाहती थी, ताकि हांड़ी में माल भर जाने के बाद ले जाते समय कहीं टूट न जाए.

वह एकाएक पूछ बैठी, ‘‘क्या आप मुझे अपनी बीवी बना सकते हैं?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. मैं नहीं चाहता कि मैं जिसे चाहूं, वह कहीं और जा कर नौकरी करे. आज से यह घर तुम्हारा हुआ,’’ कह कर भीमा सिंह ने घर की चाबी एक झटके में रेशमा की ओर उछाल दी. रेशमा को खजाने की चाबी के साथ सैयां भी कोतवाल मिल गया था. उस के दोनों हाथ में लड्डू था. वह रानी बन कर पुलिस वाले के घर में रहने लगी.

भीमा सिंह एक फरेबी के जाल में फंस चुका था. अगले दिन रेशमा ने भीमा सिंह को फिर परखना चाहा कि कहीं वह उस के साथ केवल ऐशमौज ही करना चाहता है या फिर वाकई इस मसले पर गंभीर है. कहीं वह उसे मसल कर छोड़ न दे. फिर तो उस की बनीबनाई योजना मिट्टी में मिल जाएगी.

रेशमा घडि़याली आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मैं भटक कर गलत रास्ते पर चल पड़ी थी. मैं जानती थी कि जो मैं कर रही हूं, वह गलत है, मगर कर भी क्या सकती थी. घर से भागी हुई हूं न. और तो और मेरे पापा ने ही मेरी अनदेखी कर दी, तो मैं क्या कर सकती थी. मैं घर नहीं जाना चाहती. मैं अपनी जिंदगी से हारी हुई हूं.’’

‘‘रेशमा, तुम अपने रास्ते से भटक कर जिस दलदल की ओर जा रही थी, वहां से निकलना नामुमकिन है. तुम ने अपने मन की नहीं सुनी और गलत जगह फंस गई. खैर, मैं तुम्हें बचा लूंगा, पर तुम्हें मेरे दिल की रानी बनना होगा,’’ भीमा सिंह उसे समझाते हुए बोला.

‘‘तुम मुझे भले ही कितना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. मैं बार डांसर बन कर ही अपनी बाकी की जिंदगी काट लूंगी. तुम मेरे लिए अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. तुम एक बड़े अफसर हो और मैं बार डांसर. मुझे भूल जाओ,’’ रेशमा ने अंगड़ाई लेते हुए अपने नैनों के बाण ऐसे चलाए कि भीमा सिंह घायल हुए बिना नहीं रह सका.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो रेशमा? अगर भूलना ही होता, तो मैं तुम्हें उस बार से उठा कर नहीं लाता. तुम ने तो मेरे दिल में प्यार की लौ जलाई है.’’

रेशमा के मन में तो कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. उस ने भीमा सिंह को अपने रूपजाल में इस कदर फांस लिया था कि वह आंख मूंद कर उस पर भरोसा करने लगा था. भीमा सिंह के बाहर जाने के बाद रेशमा ने पूरे घर को छान मारा कि कहां क्या रखा है. वह उस के पैसे से अपने लिए कीमती सामान खरीदती थी. भीमा सिंह को कोई शक न हो, इस के लिए वह पूरे घर को साफसुथरा रखने की कोशिश करती थी.

भीमा सिंह को भरोसे में ले कर रेशमा अपना काम कर चुकी थी. अब भागने की तरकीब लगाते हुए एक शाम उस ने भीमा सिंह की बांहों में झूलते हुए कहा, ‘‘एक अच्छे पति के रूप में तुम मिले, इस से अच्छा और क्या हो सकता है. मैं तो जिंदगीभर तुम्हारी बन कर रहना चाहती हूं, लेकिन कुछ दिनों से मुझे अपने घर की बहुत याद आ रही है.

‘‘मैं तुम्हें भी अपने साथ ले जाना चाहती थी, मगर मेरे परिवार वाले बहुत ही अडि़यल हैं. वे इतनी जल्दी तुम्हें अपनाएंगे नहीं. ‘‘मैं चाहती हूं कि पहले मैं वहां अकेली जाऊं. जब वे मान जाएंगे, तब उन लोगों को सरप्राइज देने के लिए मैं तुम्हें खबर करूंगी. तुम गाड़ी पकड़ कर आ जाना.

‘‘ड्रैसिंग टेबल पर एक डायरी रखी हुई है. उस में मेरे घर का पता व फोन नंबर लिखा हुआ है. बोलो, जब मैं तुम्हें फोन करूंगी, तब तुम आओगे न?’’

‘‘क्यों नहीं जानेमन, अब तुम ही मेरी रानी हो. तुम जैसा ठीक समझो करो. जब तुम कहोगी, मैं छुट्टी ले कर चला आऊंगा,’’ भीमा सिंह बोला. रेश्मा चली गई. हफ्ते, महीने बीत गए, मगर न उस का कोई फोन आया और न ही संदेश. भीमा सिंह ने जब उस के दिए नंबर पर फोन मिलाया, तो गलत नंबर बताने लगा.

भीमा सिंह ने जब अलमारी खोली, तो रुपएपैसे, सोनेचांदी के गहने वगैरह सब गायब थे. घबराहट में वह रेशमा के दिए पते पर उसे खोजते हुए पहुंचा, तो इस नाम की कोई लड़की व उस का परिवार वहां नहीं मिला. भीमा सिंह वापस घर आया, फिर से अलमारी खोली. देखा तो वहां एक छोटा सा परचा रखा मिला, जिस में लिखा था, ‘मुझे खोजने की कोशिश मत करना. तुम्हारे सारे पैसे और गहने मैं ने पहले ही गायब कर दिए हैं.

‘मैं जानती हूं कि तुम पुलिस में नौकरी करते हो. रिपोर्ट दर्ज कराओगे, तो खुद ही फंसोगे कि तुम्हारे पास इतने पैसे कहां से आए? तुम ने पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी कब की?’

भीमा सिंह हाथ मलता रह गया.

Social Story : कहर – दोस्त ने अजीत की पत्नी के साथ लिया मजा

Social Story : अजीत की रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. क्या करे? टिकटघर से टिकट लेते वक्त रेलगाड़ी को महज एक घंटा लेट बताया गया था. अब एक के बाद एक हो रही एनाउंसमैंट से रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. टिकट वापस करने पर 10 फीसदी किराया कट जाता. बस स्टैंड जाने पर 50 रुपए खर्च होते, साथ ही समय ज्यादा लगता. टी स्टौल पर चाय की चुसकी लेता अजीत अभी सोच ही रहा था कि वह क्या करे, तभी उस का मोबाइल फोन घरघराया.

फोन अजीत की पत्नी का था, ‘तुम बस से चले आओ.’

‘‘देखता हूं,’’ अजीत बोला.

चाय के पैसे चुका कर अजीत जैसे ही मुड़ा, तभी उस से एक शख्स टकराया. दोनों एकदूसरे को देख कर चौंके. वह अजीत के स्कूल का सहपाठी कुलदीप था.

‘‘अरे अजीत,’’ इतना कह कर कुलदीप ने उसे गले लगा लिया और पूछा, ‘‘कहां जा रहा है?’’

‘‘अपने शहर और कहां… रेलगाड़ी 8 घंटे लेट है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘मेरे होते क्या दिक्कत है,’’ कुलदीप बोला.

‘‘मगर तू तो मालगाड़ी का ड्राइवर है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘तो क्या…? मेरे साथ इंजन में बैठ जाना. तेरे शहर से ही हो कर गुजरना है.’’

‘‘मेरे पास टिकट भी है.’’

‘‘वापस कर आ. तेरा किराया भी बचेगा.’’

अजीत टिकट खिड़की पर चला गया. कुलदीप चाय पीने लगा. 10 मिनट बाद मालगाड़ी चल पड़ी. मालगाड़ी के इंजन में बैठ कर सफर करना अजीत के लिएरोमांचक था. कुलदीप 12वीं जमात पास कर के रेलवे में भरती हो गया था. अजीत आगे पढ़ा व अब एक दवा कंपनी में मैडिकल प्रतिनिधि था. अजीत के शहर का रेलवे स्टेशन आने वाला था. आउटर पर गाड़ी एक पल को रुकी. अजीत अपना बैग पकड़ कर रेलवे पटरी के दूसरी तरफ कूद गया.

अजीत रेलवे लाइन के एक तरफ बनी पगडंडी पर आगे बढ़ा. रेलवे स्टेशन का चौराहा अभी दूर था. उस ने अपना मोबाइल फोन निकाला और पत्नी को फोन मिलाया. फोन स्विच औफ था. चौराहे पर कई आटोरिकशा खड़े थे. अजीत एक आटोरिकशा में बैठ गया. कालोनी के बाहर सन्नाटा पसरा था. अजीत ग्राउंड फ्लोर पर बने अपने फ्लैट के बाहर पहुंचा. वह घंटी बजाने को हुआ कि तभी उस के कानों में किसी अनजान मर्द की आवाज गूंजी.

अजीत ने घंटी पर से हाथ हटा लिया और दबे पैर फ्लैट के पिछवाड़े में पहुंचा. चारदीवारी ज्यादा ऊंची नहीं थी. वह दीवार फांद कर अंदर कूदा और चुपचाप बैडरूम के पिछवाड़े की खिड़की से अंदर झांका, तो हैरान रह गया.

भीतर अजीत की पत्नी उस के एक दोस्त के साथ रंगरलियां मना रही थी. अजीत कुछ देर तक भीतर का सीन देखता रहा, फिर धीरेधीरे पीछे हटता चारदीवारी के साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया. ऐसा तो उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.

अजीत स्वभाव का बड़ा सीधासादा था. उस की पत्नी सुंदर, सुघड़ और घरेलू थी. उन के 2 प्यारे बच्चे थे. अजीत के शहर से बाहर होने पर पत्नी मोबाइल फोन से उस का हालचाल पूछती थी. घर आने पर उस की सेवा में बिछ जाती थी. लेकिन अब जो सामने था, वह सब अजीत की सोच से बाहर था.

अजीत का माथा गुस्से से भिनभिनाने लगा था. वह बौखलाया हुआ सा इधरउधर देखने लगा. लौन में एक खुरपा पड़ा था. वह झुका और खुरपा उठा लिया. अजीत हाथ में खुरपा थामे आगे बढ़ा. कमरे के बंद दरवाजे को हलके से थपथपाया. सिटकिनी लगी थी. उस ने कंधे का एक तगड़ा वार किया. दरवाजा खुल कर एक तरफ हो गया.

सैक्स की मस्ती में डूबे वे दोनों घबरा कर अलग हो गए. अजीत खुरपा थामे आगे बढ़ा. उस का दोस्त पलंग से कूदा और उस को परे धकेल कर बिना कपड़ों के ही बाहर दौड़ गया. डर से थरथर कांपती अजीत की पत्नी कमरे के एक कोने में सिमटती सी खड़ी हो गई और बोली, ‘‘मुझे मत मारना.’’

‘‘भाग जा यहां से,’’ अजीत ने दांत भींचते हुए कहा.

सलवारकमीज उठा कर पत्नी भी बाहर दौड़ गई. अजीत थोड़ी देर खड़ा इधरउधर देखता रहा, फिर वह भी बाहर लौन में आया और खुरपा एक तरफ रख दिया. उस ने अपना बैग उठाया और अंदर आ गया.अजीत के दोनों बच्चे प्रियंका और एकांश सो रहे थे. इतने मासूम बच्चों की मां पति के दोस्त के साथ रंगरलि यां मना रही थी. पता नहीं, यह सिलसिला कब से चल रहा था.

इस के बाद वही हुआ, जिस का डर था. अजीत का अपनी पत्नी से तलाक हो गया. बच्चों की सरपरस्ती पत्नी को मिली. अजीत ने उसे भत्ता देना मंजूर किया और हर महीने एक तय रकम का चैक भेज देता था. एक दिन अजीत फ्लैट बेच कर दूसरे शहर में जा बसा. वह तरक्की करता हुआ मैनेजर बन गया. कंपनी के मालिक राजेंद्र की गैरहाजिरी में उन की पत्नी गीता कभीकभार दफ्तर में आ कर काम संभालती थीं. धीरेधीरे उन की अजीत से अच्छी जानपहचान हो गई.

‘‘अजीत, आप का तलाक हो गया है. आप दोबारा शादी क्यों नहीं करते?’’ एक शाम दफ्तर का काम खत्म होने पर गीता ने पूछा.

‘‘बस, दिल नहीं मानता,’’ अजीत बोला.

‘‘अकेले कब तक रहोगे?’’ गीता ने फिर पूछा.

अजीत खामोश रहा. उस के उदास चेहरे को गीता ने अपने हाथों में भरा और उस का माथा चूम लिया. अजीत हैरान सा खड़ा उन की तरफ देखने लगा. पत्नी के मुकाबले गीता भारी जिस्म की सांवले रंग की थीं. उन की आंखों में काम वासना के डोरे तैर रहे थे.

गीता ने अजीत की तुलना अपने पति से की. एक तरफ 30 साला नौजवान था, दूसरी ओर 50 साल की उम्र का अधेड़. अजीत को औरत की दरकार थी और गीता को अपनी संतुष्टि के लिए नौजवान मर्द की. कुछ ही दिनों में उन के बीच के सारे फासले मिट गए.

राजेंद्र कई कंपनियों के मालिक थे. काम के सिलसिले में वे ज्यादातर बाहर रहते थे. उन की गैरहाजिरी में गीता काम संभालती थीं. उन के 2 बच्चे थे, जो एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे. हैदराबाद में एक बड़ी कंपनी की मीटिंग खत्म हुई. राजेंद्र के सचिव ने ट्रैवल एजेंट को फोन किया.

‘सौरी सर, कल सुबह से पहले किसी फ्लाइट में भी सीट नहीं है,’ ट्रैवल एजेंट ने बताया.

इस पर राजेंद्र अपने होटल में चले गए. ‘घर आ रहे हो?’ गीता ने उन्हें फोन कर के पूछा.

‘‘कल सुबह आऊंगा,’’ राजेंद्र ने जवाब दिया.

अभी राजेंद्र होटल के कमरे में दाखिल हुए ही थे कि ट्रैवल एजेंट का फोन आ गया. ‘सर, एक पैसेंजर ने अपनी सीट कैंसिल कराई है. आप आधा घंटे में एयरपोर्ट आ जाएं.’

राजेंद्र तुरंत एयरपोर्ट पहुंचे. 2 घंटे बाद वे अपने शहर में थे. राजेंद्र ने मोबाइल फोन निकाला, फिर इरादा बदलते हुए सोचा कि अब आधी रात को क्यों ड्राइवर को तकलीफ दें. लिहाजा, वे टैक्सी से अपनी कोठी पहुंचे. वहां उन्हें अपने मैनेजर अजीत की कार खड़ी दिखी, तो वे चौंक गए. राजेंद्र ने इधरउधर देखा, फिर वे अपने घर के पिछवाड़े में पहुंचे. एक कार उन की कोठी के पिछवाड़े की दीवार को छूती खड़ी थी. वे उस की छत पर जा चढ़े और फिर दीवार पर चढ़ गए और लौन में कूद गए.

उन के अंदर कूदते ही पालतू कुत्ता भूंका, फिर मालिक को पहचानते हुए चुप हो कर उन के कदमों में लोटने लगा. राजेंद्र ब्रीफकेस थामे दबे पैर चोरी से पिछवाड़े के कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हुए. उन के कानों में ऊपर की मंजिल पर बने अपने बैडरूम से हंसनेखिलखिलाने की आवाज आई.

वे दबे पैर सीढि़यां चढ़ते हुए ऊपर पहुंचे. खिड़की से अंदर झांका. बैड पर मैनेजर अजीत के साथ उन की पत्नी गीता मस्ती कर रही थीं. अब वे क्या करें? दोनों को रंगे हाथ पकड़ें? नतीजा साफ था. शादी का टूटना. मैनेजर कहीं और नौकरी पा लेगा. पत्नी गुजारा भत्ता ले कर कहीं और जा बसेगी और उम्र के इस पड़ाव पर वे खुद क्या करेंगे?

दोबारा शादी करेंगे? दूसरी पत्नी भी ऐसी ही निकली तो? वे धीरेधीरे पीछे हटते गए. दूसरे कमरे में चले गए और कुरसी पर बैठ गए. उधर कमरे में जब वासना का ज्वार शांत हुआ, तो अजीत व गीता अलग हो गए.

‘‘क्या तुम्हारी बीवी ने दूसरी शादी कर ली?’’ गीता ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘औरत बदनाम हो जाए, तो दोबारा घर बसाना मुश्किल होता है.’’

‘‘और मर्द?’’

‘‘मर्द पर बदनामी का असर नहीं पड़ता.’’

‘‘तो तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मुझे किसी भी औरत पर अब भरोसा नहीं रहा.’’

इस पर गीता एकटक उस की तरफ देखने लगीं. साथ वाले कमरे में राजेंद्र उन की बातचीत सुन रहे थे. अजीत के जवाब ने गीता का सैक्स का मजा किरकिरा कर दिया था. वह उन के साथ जिस्मानी रिश्ता तो बना सकता था, पर उन्हें वफादार साथी नहीं मान रहा था. इस बीच राजेंद्र को शरारत सूझी. उन्होंने अपना मोबाइल फोन निकाला, पत्नी का नंबर मिलाया और धीमी आवाज में कहा, ‘मैं एयरपोर्ट पर हूं. दूसरी फ्लाइट में सीट मिल गई थी. 10 मिनट में घर पहुंच जाऊंगा.’

गीता ने अजीत को बताया. वे दोनों हड़बड़ाहट में कपड़े पहनने लगे. पालतू कुत्ता अभी तक मालिक के पास बैठा था. राजेंद्र ने उस को इशारा किया और धीमे से दरवाजा खोल कर उस को बाहर निकाल दिया.

अजीत सीढि़यां उतरता नीचे लौन में आया, तभी पालतू कुत्ता उस पर झपट पड़ा. बचाव के लिए गीता लपकीं, मगर तब तक कुत्ते ने अजीत को 3-4 जगह पर काट खाया था. अजीत किसी तरह अपनी कार में सवार हुआ. गेट बंद कर गीता कुत्ते की तरफ लपकीं और चेन पकड़ कर उस को एक जगह बांध दिया.

इस के बाद गीता अपने पति का इंतजार करने लगीं. ड्राइंगरूम में बैठेबैठे उन की आंख लग गई. मौका देखते ही राजेंद्र चुपचाप बैडरूम में जा कर सो गए. सुबह जब गीता जागीं, तो उन्होंने राजेंद्र को बैडरूम में पा कर घबराते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए?’’

‘‘3 बजे. तब तुम ड्राइंगरूम में सो रही थीं.’’

‘‘अपना डौगी अब खतरनाक हो गया है. उस को निकाल दो,’’ गीता ने बताया.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘कल एक पड़ोसी पर झपट पड़ा.’’

‘‘चेन से बांध कर रखना था…’’ इतना कह कर राजेंद्र बाथरूम में चले गए.

तैयार हो कर वे अपने दफ्तर पहुंचे. अब तक अजीत नहीं आया था. ‘‘कल किसी कुत्ते ने अजीत को काट खाया है,’’ असिस्टैंट मैनेजर ने राजेंद्र को बताया.

राजेंद्र के दफ्तर जाने के बाद गीता घर की सफाई करने लगीं. बैडरूम के साथ वाले कमरे में सिगरेट के जले टुकड़ों का ढेर लगा था. वे चौंकीं कि कल शाम तक तो कमरा साफसुथरा था, फिर इतनी सारी सिगरेटें किस ने पी? वे सारा माजरा समझ गईं. उन्होंने एयरपोर्ट इनक्वायरी फोन किया. वहां से पता चला कि राजेंद्र तो रात को ही घर आ गए थे. वे बेचैन हो गईं.

अजीत अस्पताल में था. उस के हाथपैरों पर पट्टियां बंधी थीं, तभी उस का मोबाइल फोन बजा. ‘मेरा अंदाजा है कि राजेंद्र को हमारे संबंध का पता चल चुका है. कल रात को वे 12 बजे ही घर आ गए थे,’ गीता ने बताया.

‘‘अब हम क्या करें?’’

‘खामोश रहो.’

7 दिन बाद अजीत दफ्तर आया.

‘‘आवारा कुत्ते आजकल कम होते हैं… आप पर कोई कुत्ता कैसे झपटा?’’ राजेंद्र के सवाल पर अजीत चुप रहा.

‘‘आप सिगरेट कौन सी पीते हैं?’’

अजीत ने अपना सिगरेट का पैकेट निकाल कर दिखाया. तब राजेंद्र ने अपनी मेज की दराज खोली और एक पैकेट निकाल कर सामने रखते हुए कहा, ‘‘यह पैकेट मेरी कोठी में कोई छोड़ गया था. आप का ही ब्रांड है. मेरा ब्रांड दूसरा है. आप ले लो.’’

अजीत को काटो तो खून नहीं. उस को राजेंद्र से ऐसे हमले की उम्मीद नहीं थी. वह चुपचाप अपने चैंबर में चला गया. अगले दिन उस ने इस्तीफा दे दिया. पत्नी को तलाक देने के बाद अजीत ने कभी उस के बारे में नहीं सोचा था. आज पहली बार सोच रहा था. अजीत का मालिक समझदार था. बदनामी और जगहंसाई से बचने के लिए उस ने कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिस से बात और बिगड़ जाए.

Romantic Story : खुद ही – नरेन और रेखा के बीच क्या था

Romantic Story : रात के साढ़े 10 बजे थे. नरेन के आने का कोई अतापता नहीं था. हालांकि उस ने विभा को फोन कर दिया था कि उसे आने में देर हो जाएगी, सो वह खाना खा कर, दरवाजा बंद कर सो जाए, उस का इंतजार न करे. चाबी उस के पास है ही. वह आ कर दरवाजा खोल कर जोकुछ खाने को रखा है, खा कर सो जाएगा. यह जानते हुए भी विभा नरेन के आने के इंतजार में करवटें बदल रही थी. वह देखना चाहती थी कि आखिर उस के आने में कितनी देर होती है, जबकि बेटी अंशिता सो चुकी थी.

समय काटने के लिए विभा ने रेडियो पर पुराने गाने लगा दिए थे, जिन्हें सुनतेसुनते उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला. एकाएक विभा की नींद टूटी. उस ने चालू रेडियो को बंद करना चाहा कि उस गाने को सुन कर उस के हाथ रेडियो बंद करतेकरते रुक गए. गाने के बोल थे, ‘अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं. बीच भंवर में नाव है मेरी कैसे पार लगाऊं…’ गाने ने जैसे मन की बात कह दी. गाने जैसी खींचातानी उस की जिंदगी में भी हो रही थी.

‘कोई कामधाम नहीं है, यह सब बहानेबाजी है,’ विभा ने मन ही मन कहा. दरअसल, नरेन उस रेखा के चक्कर में है जिस से वह उस से एक बार मिलवा भी चुका था. विभा से वह घड़ी आज भी भुलाए नहीं भूलती. कितना जोश में आ कर उस ने परिचय कराया था. ‘इन से मिलो विभा, ये मेरे औफिस में ही हैं, हमारे साथ काम करने वाली रेखा. बहुत अच्छा स्वभाव है इन का… और रेखा, ये हैं मेरी पत्नी विभा…’

विभा को शक हो गया था. एक पराई औरत के प्रति ऐसा खिंचाव. और तो और बाद में वह उसे छोड़ने भी गया था. चाहता तो किसी बस में बिठा कर विदा भी कर सकता था, पर नहीं. गाना खत्म हुआ तो विभा ने रेडियो बंद कर दिया और सोने की कोशिश करने लगी. आखिरकार नींद लग ही गई.

पता नहीं, कितना समय हुआ कि उस ने अपने शरीर पर किसी का हाथ महसूस किया. उसे लग गया था कि यह नरेन ही है. उस ने उस के हाथ को अपने पर से हटाया और उनींदी में कहने लगी, ‘‘सोने दो. नींद आ रही है. कहां थे इतनी देर से. समय से आना चाहिए न.’’ ‘‘क्या करूं डार्लिंग, कोशिश तो जल्दी आने की ही करता हूं,’’ नरेन ने विभा को अपनी ओर खींचते हुए कहा.

‘‘आप रेखा से मिल कर आ रहे हैं न…’’ विभा ने अपनेआप को छुड़ाते हुए ताना सा कसा, ‘‘इतनी अच्छी है तो मुझ से शादी क्यों की? कर लेते उसी से…’’ ‘‘विभा, छोड़ो भी न. यह भी कोई समय है ऐसी बातों का. आज अच्छा मूड है, आओ न.’’

‘‘तुम्हारा तो अच्छा मूड है, पर मेरा तो मूड नहीं है न. चलो, सो जाओ प्लीज,’’ विभा दूसरी ओर मुंह कर के सोने की कोशिश करने लगी. ‘‘तुम पत्नियां भी न… कब समझोगी अपने पति को,’’ नरेन ने निराश हो कर कहा.

‘‘पहले तुम मेरे हो जाओ.’’ ‘‘तुम्हारा ही तो हूं बाबा. पिछले

15 सालों से तुम्हारा ही हूं विभा. मेरा यकीन मानो.’’ ‘‘तो सच बताओ, इतनी देर तक उस रेखा के साथ ही थे न?’’

‘‘देखो, जब तक मैं उस कंपनी में था, उस के पास था. जब मैं वहां से जौब छोड़ कर अपनी खुद की कौस्मैटिक की मार्केटिंग का काम कर रहा हूं तो अब वह यहां भी कहां से आ गई?’’ ‘‘मुझे तो यकीन नहीं होता. अच्छा बताओ कि तुम ने नहीं कहा था कि अब जब मैं अपना काम कर रहा हूं तब तो मैं समय से आ जाया करूंगा. तुम तो अब भी ऐसे ही आ रहे हो जैसे उसी कंपनी में काम करते हो.’’

‘‘अपना काम है न. सैट करने में समय तो लगता ही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. मेरी बात मानो. अब सब तुम्हारे हिसाब से चलने लगेगा. ठीक है, अच्छा अब तो मान जाओ.’’ ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. मुझे तो बिलकुल यकीन नहीं होता. तुम एक नंबर के झूठे हो. मैं कई बार तुम्हारा झूठ पकड़ चुकी हूं.’’

‘‘तो तुम नहीं मानोगी?’’ ‘‘जब तक मुझे पक्का यकीन नहीं हो जाता,’’ निशा ने कहा.

‘‘तो तुम्हें यकीन कैसे होगा?’’ ‘‘बस, सच बोलना शुरू कर दो और समय से घर आना शुरू कर दो.’’

‘‘अच्छी बात है. कोशिश करता हूं,’’ रंग में भंग पड़ता देख नरेन ने अपने कदम पीछे खींच लेने में ही भलाई समझी. वह नहीं चाहता था कि बात आगे बढ़े. वह भी करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा. विभा का शक नरेन के प्रति यों ही नहीं था. दरअसल, कुछ महीने पहले की बात है. वह और विभा बच्ची अंशिता के साथ शहर के एक बड़े गार्डन में घूमने गए थे जहां वह रेखा के साथ भी घूमने जाता रहा था. वहां से वे अपने एक परिचित भेल वाले के यहां नाश्ते के लिए चले गए.

भेल वाले ने सहज ही पूछ लिया था कि आज आप के साथ वे बौबकट बालों वाली मैडमजी नहीं हैं? बस, यह सुनते ही विभा के तनबदन में आग लग गई थी और घर लौट कर उस ने नरेन की अच्छे से खबर ली थी.

नरेन ने लाख सफाई दी, पर विभा नहीं मानी थी. जैसेतैसे आगे न मिलने की कसम खा कर नरेन ने अपना पिंड छुड़ाया था. विभा की बातों में सचाई थी इसलिए नरेन कमजोर पड़ता था. नरेन रेखा के चक्कर में इस कदर पड़ा था कि वह चाह कर भी खुद को रेखा से अलग नहीं कर पा रहा था.

रेखा का खूबसूरत बदन और कटार जैसे तीखे नैन. नरेन फिदा था उस पर. अब एक ही रास्ता था कि रेखा शादी कर ले और अपना घर बसा ले, पर एक तरह से रेखा यह जानते हुए कि नरेन शादीशुदा है, वह खुद को उसे सौंप चुकी थी. नरेन में उसे पता नहीं क्या नजर आता था. यहां तक कि जब विभा गांव में कुछ दिनों के लिए अपनी मां के यहां जाती तो रेखा नरेन के यहां आ जाती और फिर दोनों मजे करते.

पर विभा को किसी तरह इस बात की भनक लग गई थी, इसलिए उस ने अब मां के यहां जाना कम कर दिया था. विभा संबंधों की असलियत को समझ नहीं पा रही थी क्योंकि जहां एक ओर वह मां बनने के बाद नरेन से प्यार में कम दिलचस्पी लेती थी या लेती ही नहीं थी, वहीं दूसरी ओर नरेन अब भी विभा से पहले वाले प्यार की उम्मीद रखता था. उस की तो इच्छा होती थी कि हर रात सुहागरात हो. पर जब विभा से उस की मांग पूरी नहीं होती तो वह रेखा की तरफ मुड़ जाता था. इस तरह नरेन का रेखा से जुड़ाव एक मजबूरी था जिसे विभा समझ नहीं पा रही थी.

विभा ने रेखा वाली सारी बातें अपने तक ही सीमित रखी थीं. अगर वह नरेन के रेखा से प्रेम संबंध वाली बात अपने मां या बाबूजी को बताती तो उन्हें बहुत दुख पहुंचता, जो वह नहीं चाहती थी. विभा के सामने यह जो रेखा वाली उलझन है वह इसे खुद ही सुलझा लेना चाहती थी.

2 बच्चों में से एक बच्चा यानी अंशिता से बड़ा लड़का अर्पित तो अपने ननिहाल में पढ़ रहा है, क्योंकि यहां पैसे की समस्या है. अभी मकान हो जाएगा, तो हो जाएगा, फिर बच्चों का कैरियर, उन की शादी का काम आ पड़ेगा. ऐसे में खुद का मकान तो होने से रहा. नरेन के प्यार के इस तेज बहाव को ले कर विभा एक बार डाक्टर से मिलने की कोशिश भी कर चुकी थी कि प्यार में अति का भूत उस पर से किसी तरह उतरे. ऐसा होने पर वह रेखा से भी दूर हो सकेगा. उस ने यह भी जानने की कोशिश की थी कि कहीं वह कुछ करता तो नहीं है, पर ऐसी कोई बात नहीं थी. अब वह अंशिता को ज्यादातर अपने आसपास ही रखती थी ताकि नरेन को भूल कर भी एकांत न मिले.

अगले दिन नरेन ने काम पर जाते हुए विभा के हाथ में 200 रुपए रखे और मुसकराते हुए उस की कलाई सहलाई. विभा ने आंखें तरेरीं. नरेन सहमते हुए बोला, ‘‘जानू, आज साप्ताहिक हाट है. सब्जी के लिए पैसे दे रहा हूं. भूलना मत वरना फिर रोज आलू खाने पड़ेंगे,’’ कहते हुए टीवी देख रही अंशिता को प्यार से अपने पास बुलाते हुए उस से शाम को आइसक्रीम खिलाने का वादा करते हुए अपने बैग को थामते हुए बाहर निकल गया. विभा दरवाजा बंद कर अपने काम में जुट गई. उसे तो याद ही नहीं था कि सचमुच आज तो हाट का दिन है और उसे हफ्तेभर की सब्जी भी लानी है. वह अंशिता की मदद ले कर फटाफट काम पूरा करने में जुट गई.

कामकाज खत्म कर अंशिता को पढ़ाई की हिदायत दे कर बड़ा सा झोला उठाए विभा दरवाजा लौक कर बाजार की ओर निकल गई. उसे अंशिता के चलते घर जल्दी लौटने की फिक्र थी. अभी विभा कुछ सब्जियां ही ले पाई थी और एक सब्जी का मोलभाव कर रही थी कि किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा. विभा पलटी तो एक अजनबी औरत को देख कर अचरज करने लगी.

‘‘तुम विभा ही हो न,’’ उस अजनबी औरत ने विभा को हैरानी में देखा तो पूछा, ‘‘जी. पर, आप कौन हैं? ‘‘अरे, तारा दीदी आप… दरअसल, आप को जूड़े में देखा तो…’’ झटपट विभा ने तारा टीचर के पैर छू लिए.

‘‘सही पहचाना तुम ने. कितनी कमजोर थी तुम पढ़ने में, जब तुम मेरे घर ट्यूशन लेने आती थी. इसी से तुम मुझे याद हो वरना एक टीचर के पास से कितने स्टूडैंट पढ़ कर निकलते हैं. कितनों को याद रख पाते हैं हम लोग,’’ आशीर्वाद देते हुए तारा दीदी ने कहा. ‘‘मेरा घर यहां नजदीक ही है. आइए न. घर चलिए,’’ विभा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर कभी. अब मैं रिटायर हो चुकी हूं और पास की कालोनी में रहती हूं. लो, यह है मेरा विजिटिंग कार्ड. घर आना. खूब बातें करेंगे. अभी इस वक्त थोड़ा जल्दी है वरना रुकती. अच्छा चलती हूं विभा.’’ विभा ने कार्ड पर लिखा पता पढ़ा और अपने पर्स में रख कर सब्जी के लिए आगे बढ़ गई.

विभा ने तय किया कि वह अगले दिन तारा दीदी से मिलने उन के घर जरूर जाएगी. उसे लगा कि तारा दीदी उस की उलझन को सुलझाने में मदद कर सकती हैं. अगले दिन सारा काम निबटा कर वह अंशिता को पड़ोस में रहने वाली उस की हमउम्र सहेली के पास छोड़ कर तारा दीदी के घर की ओर चल पड़ी. उसे घर ढूंढ़ने में जरा भी परेशानी नहीं हुई. उस ने डोर बेल बजाई तो दरवाजा खोलने वाली तारा दीदी ही थीं.

‘‘आओ विभा,’’ कह कर अपने साथ अंदर ड्राइंगरूम में ले जा कर बिठाया. सबकुछ करीने से सजा हुआ था. शरबत वगैरह पीने के बाद तारा दीदी ने विभा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा, ‘‘कहो, क्या बात है विभा. सबकुछ ठीकठाक है. जिंदगी किस तरह चल रही है? तुम्हारे मिस्टर, तुम्हारे बच्चे…’’ विभा फिर जो शुरू हुई तो बोलती चली गई. तारा दीदी बड़े गौर से सारी बातें सुन रही थीं. उन्हें लगा कि विभा की मुश्किल हल करने में अभी भी एक टीचर की जरूरत है. स्कूल में विभा सवाल ले कर जाती थी, आज वह अपनी उलझन ले कर आई है.

अपनी उलझन बता देने से विभा काफी हलका महसूस हो रही थी जैसे कोई सिर पर से बोझ उतर गया हो. तारा दीदी ने गहरी सांस ली. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे गर्व है कि तुम मेरी स्टूडैंट हो. अपना यह सब्र बनाए रखना. ऐसा कोई गलत कदम मत उठाना जिस से घर बरबाद हो जाए. आखिर ये 2 बच्चों के भविष्य का भी सवाल है.’’

‘‘तो बताओ न दीदी, मुझे क्या करना चाहिए?’’ विभा ने पूछा. ‘‘देखो विभा, समस्या होती तो छोटी है, केवल हमारी सोच उसे बड़ा बना देती है. एक तो तुम अपनी तरफ से किसी तरह से नरेन की अनदेखी मत करो. उसे सहयोग करो. आखिर तुम बीवी हो उस की. अगर वह तुम से प्यार चाहता है तो उसे दो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. रहा सवाल रेखा का तो इतना समझ लो इस मामले में जो भी मुझ से हो सकेगा मैं करूंगी.’’

‘‘मैं अब आप के भरोसे हूं दीदी. अच्छा चलती हूं क्योंकि घर पर अंशिता अकेली है.’’ ‘‘बिलकुल जाओ, अपना फर्ज, अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाओ.’’

विभा अब ठीक थी. उसे लगा नरेन पर से अब रेखा का साया उठ जाएगा और उस की जिंदगी में खुशहाली छा जाएगी. शाम को जब नरेन घर लौटा तो उन के साथ एक साहब भी थे. नरेन ने विभा से उन का परिचय कराया और बताया, ‘‘आज जब मैं एक बड़े मौल में मार्केटिंग के काम से गया था तो एक शौप पर इन से मुलाकात हुई.

‘‘दरअसल, इन का वडोदरा में कौस्मैटिक का कारोबार है और इन्हें वहां एक मैनेजर की सख्त जरूरत है. जब इन्होंने उस दुकानदार से मेरा बातचीत का लहजा और स्टाइल देखी तो ये बहुत प्रभावित हुए. मुझ से मेरा सारा जौब ऐक्सपीरियंस सुना. मेरी लाइफ के बारे में जाना और कहने लगे कि तुम में मुझे मैनेजर की सारी खूबियां दिखती हैं. मैं तुम्हें अपने यहां मैनेजर की पोस्ट औफर करता हूं. अच्छी तनख्वाह, फ्लेट, गाड़ी, सब सहूलियतें मिलेंगी. ‘‘मैं ने इन से कहा कि अपनी पत्नी से बात किए बिना मैं कोई फैसला नहीं ले सकता, इसलिए इन्हें यहां ले आया हूं. क्या कहती हो. क्या मैं इन का प्रस्ताव स्वीकार कर लूं?’’

‘‘पहले तुम कुछ दिनों के लिए वहां जा कर सारा कामकाज देख लो, समझ लो. अच्छा लगे तो स्वीकार कर लो,’’ विभा ने खुश होते हुए कहा. विभा को यह अच्छा लगा कि नरेन कितनी तवज्जुह देते हैं उसे. आज पहली बार उसे लगा कि वह अब तक नरेन से बुरा बरताव करती रही है, वह भी सिर्फ एक रेखा के पीछे. और यह उलझन भी अब उसे सुलझती नजर आ रही थी.

नरेन वडोदरा की ओर निकल पड़ा था. रोज रात को विभा से बात करने का नियम था उस का. विभा भी बातचीत में पूरी दिलचस्पी लेती. प्रतिदिन के कामकाज के बारे में, मालिक के बरताव के बारे में वह सबकुछ बताता. नए मिलने वाले फ्लैट जो वह देख भी आया था, के बारे में बताया और कहा कि अब वडोदरा शिफ्ट होने में फायदा ही है. विभा ने झटपट तारा दीदी के घर की ओर रुख किया. उन्हें नरेन के वडोदरा की जौब और वहीं शिफ्ट होने के बारे में बताया.

तारा दीदी के मुंह से निकला, ‘‘तब तो तुम्हारी सारी उलझनें अपनेआप ही सुलझ रही हैं विभा. जब तुम लोग शहर ही बदल रहे हो तो रेखा इतनी दूर तो वहां आने से रही.’’ सबकुछ इतना जल्दी तय हुआ कि विभा का इस पहलू की ओर ध्यान ही नहीं गया. तारा दीदी की इस बात में दम था. एक तीर से दो शिकार हो रहे थे. अब इस के पहले कि रेखा के पीछे नरेन का मन पलट जाए, उस ने वडोदरा जाना ही सही समझा.

रात को नरेन का फोन आया तो उस ने झटपट यह काम कर लेने को कहा. अभी छुट्टियां भी चल रही हैं. नए सैक्शन में बच्चों के एडमिशन में भी दिक्कत नहीं होगी. लगे हाथ अर्पित को भी मां के यहां से बुलवा लिया जाएगा. अब वह उस के पास ही रह कर आगे की पढ़ाईलिखाई करेगा. आननफानन यह काम कर लिया जाने लगा. पूरी गृहस्थी के साथ नरेन ने शिफ्ट कर लिया. विभा नए शहर में नया घर देख कर अवाक थी. ऐसे ही घर का तो उस ने कभी सपना देखा था. दोनों बच्चे तो यह सब देख कर चहक उठे.

नरेन में शुरूशुरू में उदासी जरूर नजर आई. विभा समझ गई थी कि ऐसा क्यों है. पर उस ने अब अपना प्यार नरेन पर उड़लेना शुरू कर दिया था. एक शाम जब नरेन काम से घर लौटा तो बुझाबुझा सा था. यह कामकाज की वजह से नहीं हो सकता था. उसे कुछ खटका हुआ जिसे उस ने जाहिर नहीं होने दिया. बालों में उंगलियां घुमाते हुए विभा ने बस इतना ही कहा, ‘‘क्यों न एकएक कप कौफी हो जाए.’’

नरेन ने हामी भरी. विभा कुछ सोचते हुए किचन में दाखिल हो गई. अगले ही दिन दोपहर में कामकाज से फुरसते पाते ही उस ने तारा दीदी को फोन घुमा दिया.

तब तारा दीदी ने उसे यह सूचना सुनाई कि रेखा की शादी हो गई है. सुन कर विभा उछल पड़ी, ‘‘थैंक्यू,’’ बस इतना ही कह पाई विभा और फोन बंद कर बिस्तर पर बिछ गई.

अब उसे नरेन के बुझे चेहरे की वजह भी समझ में आ गई थी. लेकिन अब सबकुछ ठीक भी हो गया था. गृहस्थी की गाड़ी बिना रुकावट एक बार फिर पटरी पर सरपट दौड़ने के लिए तैयार थी.

Social Story : टीसता जख्म – उमा पर अनवर ने लगाए दाग

Social Story : अचानक उमा की आंखें खुलती हैं. ऊपर छत की तरफ देखती हुई वह गहरी सांस लेती है. वह आहिस्ता से उठती है. सिरहाने रखी पानी की बोतल से कुछ घूंट अपने सूखे गले में डालती है. आंखें बंद कर वह पानी को गले से ऐसे नीचे उतारती है जैसे उन सब बातों को अपने अंदर समा लेना चाहती है. पर, यह हो नहीं पा रहा. हर बार वह दिन उबकाई की तरह उस के पेट से निकल कर उस के मुंह में भर आता है जिस की दुर्गंध से उस की सारी ज्ञानेंद्रियां कांप उठती हैं.

पानी अपने हलक से नीचे उतार कर वह अपना मोबाइल देखती है. रात के डेढ़ बजे हैं. वह तकिए को बिस्तर के ऊंचे उठे सिराहने से टिका कर उस पर सिर रख लेट जाती है.

एक चंदन का सूखा वृक्ष खड़ा है. उस के आसपास मद्धिम रोशनी है. मोटे तने से होते हुए 2 सूखी शाखाएं ऊपर की ओर जा रही हैं, जैसे कि कोई दोनों हाथ ऊपर उठाए खड़ा हो. बीच में एक शाखा चेहरे सी उठी हुई है और तना तन लग रहा है. धीरेधीरे वह सूखा चंदन का पेड़ साफ दिखने लगता है. रोशनी उस पर तेज हो गई है. बहुत करीब है अब… वह एक स्त्री की आकृति है. यह बहुत ही सुंदर किसी अप्सरा सी, नर्तकी सी भावभंगिमाएं नाक, आंख, होंठ, गरदन, कमर की लचक, लहराते सुंदर बाजू सब साफ दिख रहे हैं.

चंदन की खुशबू से वहां खुशनुमा माहौल बन रहा है कि तभी उस सूखे पेड़ पर उस उकेरी हुई अप्सरा पर एक विशाल सांप लिपटा हुआ दिखने लगता है. बेहद विशाल, गहरा चमकीला नीला, हरा, काला रंग उस के ऊपर चमक रहा है. सारे रंग किसी लहर की तरह लहरा रहे हैं. आंखों के चारों ओर सफेद चमकीला रंग है. और सफेद चमकीले उस रंग से घिरी गोल आंख उस अप्सरा की पूरी काया को अपने में समा लेने की हवस लिए हुए है. रक्त सा लाल, किसी कौंधती बिजली से कटे उस के अंग उस काया पर लपलपा रहे हैं.

वह विशाल सांप अपनी जकड़ को घूमघूम कर इतना ज्यादा कस रहा है कि वह उस पेड़ को मसल कर धूल ही बना देना चाह रहा है. तभी वह काया जीवित हो जाती है. सांप उस से दूर गिर पड़ता है. वह एक सुंदर सी अप्सरा बन खड़ी हो जाती है और सांप की तरफ अपनी दृष्टि में ठहराव, शांति, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति से ज्यों ही नजर डालती है वह सांप गायब हो जाता है और उमा जाग जाती है. सपने को दोबारा सोच कर उमा फिर बोतल से पानी की घूंट अपने हलक से उतारती है. अब उसे नींद नहीं आ रही.

भारतीय वन सेवा के बड़े ओहदे पर है उमा. उमा को मिला यह बड़ा सा घर और रहने के लिए वह अकेली. 3 तो सोने के ही कमरे हैं जो लगभग बंद ही रहते हैं. एक में वह सोती है. उमा उठ कर बाहर के कमरे में आ जाती है. बड़ी सी पूरे शीशे की खिड़की पर से परदा सरका देती है. दूरदूर तक अंधेरा. आईजीएनएफए, देहरादून के अहाते में रोशनी करते बल्ब से बाहर दृश्य धुंधला सा दिख रहा था. अभीअभी बारिश रुकी थी. चिनार के ढलाव से नुकीले पत्तों पर लटकती बूंदों पर नजर गड़ाए वह उस बीते एक दिन में चली जाती है…

उन दिनों वह अपनी पीएचडी के अध्ययन के सिलसिले में अपने शहर रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (कांके) आई हुई थी. पूरा बचपन तो यहीं बीता उस का. झारखंड के जंगलों में अवैध खनन व अवैध जंगल के पेड़ काटने पर रोक व अध्ययन के लिए जिला स्तर की कमेटी थी. आज उमा ने उस कमेटी के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया था. उसे जरा भी पता नहीं था, उस के जीवन में कौन सा सवाल उठ खड़ा होने वाला है.

मीटिंग खत्म हुई. सारे लोग चाय के लिए उठ गए. उमा अपने लैपटौप पर जरूरी टिप्पणियां लिखने लग गई. तभी उसे लगा कोई उस के पास खड़ा है. उस ने नजर ऊपर की. एक नजर उस के चेहरे पर गड़ी हुई थी. आप ने मुझे पहचाना नहीं?

उमा ने कहा, ‘सौरी, नहीं पहचान पाई.’ ‘हम स्कूल में साथ थे,’ उस शख्स ने कहा.

‘क्षमा करें मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है. स्कूल की बातें याद नहीं हैं,’ उमा ने जवाब दिया.

‘मैं अनवर हूं. याद आ रहा है?’

अनवर नाम तो सुनासुना सा लग रहा है. एक लड़का था दुबलापतला, शैतान. शैतान नहीं था मैं, बेहद चंचल था,’ वह बोला था.

उमा गौर से देखती है. कुछ याद करने की कोशिश करती है…और अनवर स्कूल के अन्य दोस्तों के नाम व कई घटनाएं बनाता जाता है. उमा को लगा जैसे उस का बचपन कहीं खोया झांकने लगा है. पता नहीं कब वह अनवर के साथ सहज हो गई, हंसने लगी, स्कूल की यादों में डूबने लगी.

अनवर की हिम्मत बढ़ी, उस ने कह डाला, ‘मैं तुम्हें नहीं भूल पाया. मैं साइलेंट लवर हूं तुम्हारा. मैं तुम से अब भी बेहद प्यार करता हूं.’

‘यह क्या बकवास है? पागल हो गए हो क्या? स्कूल में ही रुक गए हो क्या?’ उमा अक्रोशित हो गई.

‘हां, कहो पागल मुझे. मैं उस समय तुम्हें अपने प्यार के बारे में न बता सका, पर आज मैं इस मिले मौके को नहीं गंवाना चाहता. आइ लव यू उमा. तुम पहले भी सुंदर थीं, अब बला की खूबसूरत हो गई हो.’

उमा झट वहां से उठ जाती है और अपनी गाड़ी से अपने आवास की ओर निकल लेती है. आई लव यू उस के कानों में, मस्तिष्क में रहरह गूंज रहा था. कभी यह एहसास अच्छा लगता तो कभी वह इसे परे झटक देती.

फोन की घंटी से उस की नींद खुलती है. अनवर का फोन है. वह उस पर ध्यान नहीं देती. फिर घड़ी की तरफ देखती है, सुबह के 6 बज गए हैं. इतनी सुबह अनवर ने रिंग किया? उमा उठ कर बैठ जाती है. चेहरा धो कर चाय बनाती है. अपने फोन पर जरूरी मैसेज, कौल, ईमेल देखने में लग जाती है. तभी फिर फोन की घंटी बज उठती है. फिर अनवर का फोन है.

‘हैलो, हां, हैलो उठ गई क्या? गुडमौर्निंग,’ अनवर की आवाज थी.

‘इतने सवेरे रिंग कर दिया,’ उमा बोली.

‘हां, क्या करूं, रात को मुझे नींद ही नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा,’ अनवर बोला.

‘मुझे अभी बहुत काम है, बाद में बात करती हूं,’ उमा ने फोन काट दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया.

‘अरे, मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’

‘नहींनहीं, मुझे नहीं मिलना है. मुझे बहुत काम है,’ और उस ने फोन जल्दी से रख दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया और वह बोला, ‘सुनो, फोन काटना मत. बस, एक बार मिलना चाहता हूं, फिर मैं कभी नहीं मिलूंगा.’

‘ठीक है, लंच के बाद आ जाओ,’ उमा ने अनवर से कहा.

लंच के समय कमरे की घंटी बजती है. उमा दरवाजा खोलती है. सामने अनवर खड़ा है. अनवर बेखौफ दरवाजे के अंदर घुस जाता है.

‘ओह, आज बला की खूबसूरत लग रही हो, उमा. मेरे इंतजार में थी न? तुम ने अपनेआप को मेरे लिए तैयार किया है न?’

उमा बोली, ‘ऐसी कोई बात नहीं है? मैं अपने साधारण लिबास में हूं. मैं ने कुछ भी खास नहीं पहना.’

अनवर डाइनिंग रूम में लगी कुरसी पर ढीठ की तरह बैठ गया. उमा के अंदर बेहद हलचल मची हुई है पर वह अपनेआप को सहज रखने की भरपूर कोशिश में है. वह भी दूसरे कोने में पड़ी कुरसी पर बैठ गई. अनवर 2 बार राष्ट्रीय स्तर की मुख्य राजनीतिक पार्टी से चुनाव लड़ चुका था, लेकिन दोनों बार चुनाव हार गया था. अब वह अपने नेता होने व दिल्ली तक पहुंच होने को छोटेमोटे कार्यों के  लिए भुनाता है. उस के पास कई ठेके के काम हैं. बातचीत व हुलिया देख कर लग रहा था कि वह अमीरी की जिंदगी जी रहा है. अनवर की पूरी शख्सियत से उमा डरी हुई थी.

‘उमा, मैं तुम से बहुत सी बातें करना चाहता हूं. मैं तुम से अपने दिल की सारी बातें बताना चाहता हूं. आओ न, थोड़ा करीब तो बैठो प्लीज,’ अनवर अपनी कुरसी उस के करीब सरका कर कहता है, ‘तुम भरपूर औरत हो.’

अचानक उमा का बदन जैसे सिहर उठा. अनवर ने उस का हाथ दबा लिया था. अनवर की आंखें गिद्ध की तरह उमा के चेहरे को टटोलने की कोशिश कर रही थीं. उमा ने झटके से अपना हाथ खींच लिया.

‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’ कह कर उमा उठने को हुई तो अनवर बोल उठा.

‘नहींनहीं, तुम यहीं बैठो न.’

उमा पास रखी इलैक्ट्रिक केतली में चाय तैयार करने लगी. तभी उमा को अपने गले पर गरम सांसों का एहसास हुआ. वह थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गई.

‘क्या हुआ? तुम ने शादी नहीं की पर तुम्हें चाहत तो होती होगी न,’ अनवर ने जानना चाहा.

‘कैसी बकवास कर रहे हो तुम,’ उमा खीझ कर बोली.

‘हम कोई बच्चे थोड़े हैं अब. बकवास तो तुम कर रही हो,’ अनवर भी चुप नहीं हुआ और उस के होंठ उमा के अंगों को छूने लगे. उमा फिर दूर चली गई.

‘अनवर, बहुत हुआ, बस करो. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ उमा ने संजीगदी से कहा.

‘एक मौका दो मुझे उमा, क्या हो गया तुम्हें, अच्छा नहीं लगा क्या?  मैं तुम से प्यार करता हूं. सुनो तो, तुम खुल कर मेरे साथ आओ,’ उस ने उमा को गोद में उठा लिया. अनवर की गोद में कुछ पल के लिए उस की आंखें बंद हो गईं. अनवर ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और उस पर हावी होने लगा. तभी बिजली के झटके की तरह उमा उसे छिटक कर दूर खड़ी हो गई.

‘अभी निकलो यहां से,’ उमा बोल उठी.

अनवर हारे हुए शिकारी सा उसे देखता रह गया.

उमा बोली, ‘मैं कह रही हूं, तुम अभी जाओ यहां से.’

अनवर न कुछ बोला और न वहां से गया तो उमा ने कहा, ‘मैं यहां किसी तरह का हंगामा नहीं करना चाहती. तुम बस, यहां से चले जाओ.’

अनवर ने अपना रुमाल निकाला और चेहरे पर आए पसीने को पोंछता हुआ कुछ कहे बिना वहां से निकल गया. उमा दरवाजा बंद कर डर से कांप उठी. सारे आंसू गले में अटक कर रह गए. अपने अंदर छिपी इस कमजोरी को उस ने पहली बार इस तरह सामने आते देखा. उसे बहुत मुश्किल से उस रात नींद आई.

फोन की घंटी से उस की नींद खुली. फोन अनवर का था.

‘मैं बहुत बेचैन हूं. मुझे माफ कर दो.’

उमा ने फोन काट कर उस का नंबर ब्लौक कर दिया. फिर दोबारा एक अनजान नंबर से फोन आया. यह भी अनवर की ही आवाज थी.

‘मुझे माफ कर दो उमा. मैं तुम्हारी दोस्ती नहीं खोना चाहता.’

उमा ने फिर फोन काट दिया. वह बहुत डर गई थी. उमा ने सोचा कि उस के वापस जाने में 2 दिन बाकी हैं. वह बेचैन हो गई. किसी तरह वह खुद को संयत कर पाई.

कई महीने बीत गए. वह अपने कामों में इतनी व्यस्त रही कि एक बार भी उसे कुछ याद नहीं आया. हलकी याद भी आई तो यही कि वह जंग जीत गई है.

‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग

चंदन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग.’

एक दिन अचानक एक फोन आया. उस तरफ अनवर था, ‘सुनो, मेरा फोन मत काटना और न ही ब्लौक करना. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पा रहा है. बताओ न तुम कहां हो? मैं तुम से मिलना चाहता हूं. मैं मर रहा हूं, मुझे बचा लो.’

‘यह किस तरह का पागलपन है. मैं तुम से न तो बात करना चाहती हूं और न ही मिलना चाहती हूं,’ उमा ने साफ कहा.

‘अरे, जाने दो, भाव दिखा रही है. अकेली औरत. शादी क्यों नहीं की, मुझे नहीं पता क्या? नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली चली हज को. मजे लेले कर अब मेरे सामने सतीसावित्री बनती हो. तुम्हें क्या चाहिए मैं सब देने को तैयार हूं,’ अनवर अपनी औकात पर उतर आया था.

ऐसा लगा जैसे किसी ने खौलता लावा उमा के कानों में उडे़ल दिया हो. उस ने फोन काट दिया और इस नंबर को भी ब्लौक कर दिया. यह परिणाम बस उस एक पल का था जब वह पहली बार में ही कड़ा कदम न उठा सकी थी.

इस बात को बीते 4 साल हो गए हैं. अनवर का फोन फिर कभी नहीं आया. उमा ने अपना नंबर बदल लिया था. पर आज भी यह सपना कहीं न कहीं घाव रिसता है. दर्द होता है. कहते हैं समय हर घाव भर देता है पर उमा देख रही है कि उस के जख्म रहरह कर टीस उठते हैं

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