काश मेरा भी

लेखक-  सुनीता कपूर

आज फिर अनीता छुट्टी पर है. इस का अंदाज मैं ने इसी से लगा लिया कि वह अभी तक तैयार नहीं हुई. लगता है कल फिर वह बौस को अदा से देख कर मुसकराई होगी. तभी तो आज दिनभर उसे मुसकराते रहने के लिए छुट्टी मिल गई है. मेरे दिल पर सांप लोटने लगा.

काश, मेरा भी बौस होता…बौसी नहीं…तो मैं भी अपनी अदाओं के जलवे बिखेरती, मुसकराती, इठलाती हुई छुट्टी पर छुट्टी करती चली जाती और आफिस में बैठा मेरा बौस मेरी अटेंडेंस भरता होता…पर मैं क्या करूं, मेरा तो बौस नहीं बौसी है. बौस शब्द कितना अच्छा लगता है. एक ऐसा पुरुष जो है तो बांस की तरह सीधा तना हुआ. हम से ऊंचा और अकड़ा हुआ भी पर जब उस में फूंक भरो तो… आहा हा हा. क्या मधुर तान निकलती है. वही बांस, बांसुरी बन जाता है. ‘‘सर, एक बात कहें, आप नाराज तो नहीं होंगे.

कैसी है सीमा

आप को यह सूट बहुत ही सूट करता है, आप बड़े स्मार्ट लगते हैं,’’ मैं ऐसा कहती तो बौस के चेहरे पर 200 वाट की रोशनी फैल जाती है. ‘‘ही ही ही…थैंक्स. अच्छा, ‘थामसन एंड कंपनी’ के बिल चेक कर लिए हैं.’’ ‘‘सर, आधे घंटे में ले कर आती हूं.’’ ‘‘ओ के, जल्दी लाना,’’ और बौस मुसकराते हुए केबिन में चला जाता. वह यह कभी नहीं सोचता कि फाइल लाने में आधा घंटा क्यों लगेगा. पर मेरी तो बौसी है जो आफिस में घुसते ही नाक ऊंची कर लेती है. धड़मधड़म कर के दरवाजा खोलेगी और घर्रर्रर्रर्र से घंटी बजा देगी, ‘‘पाल संस की फाइल लाना.’’ ‘‘मेम, आज आप की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’

गृहस्थी की डोर

वह एक नजर मेरी आंखों में ऐसे घूरती है जैसे मैं ने उस की साड़ी का रेट कम बता दिया हो. ‘‘काम पूरा नहीं किया क्या?’’ ठां… उस ने गरम गोला दाग दिया. थोड़ी सी हवा में ठंडक थी, वह भी गायब हो गई, ‘‘फाइल लाओ.’’ दिल करता है फाइल उस के सिर पर दे मारूं. ‘‘सर, आज मैं बहुत थक गई हूं, रात को मेहमान भी आए थे, काफी देर हो गई थी सोने में. मैं जल्दी चली जाऊं?’’ मैं अपनी आवाज में थकावट ला कर ऐसी मरी हुई आवाज में बोलती जैसी मरी हुई भैंस मिमियाती है तो बौस मुझे देखते ही तरस खा जाता. ‘‘हां हां, क्यों नहीं. पर कल समय से आने की कोशिश करना,’’ यह बौस का जवाब होता.

लेकिन मेरे मिमियाने पर बौसी का जवाब होता है, ‘‘तो…? तो क्या मैं तुम्हारे पांव दबाऊं? नखरे किसी और को दिखाना, आफिस टाइम पूरा कर के जाना.’’ मन करता है इस का टाइम जल्दी आ जाए तो मैं ही इस का गला दबा दूं. ‘‘सर, मेरे ससुराल वाले आ रहे हैं, मैं 2 घंटे के लिए बाहर चली जाऊं,’’ मैं आंखें घुमा कर कहती तो बौस भी घूम जाता, ‘‘अच्छा, क्या खरीदने जा रही हो?’’ बस, मिल जाती परमिशन. पर यह बौसी, ‘‘ससुराल वालों से कह दिया करो कि नौकरी करने देनी है कि नहीं,’’ ऐसा जवाब सुन कर मन से बददुआ निकलने लगती है. काश, तुम्हारी कुरसी मुझे मिल जाती तो…लो इसी बात में मेरी बौसी महारानी पानी भरती दिखाई देती. उस दिन पति से लड़ाई हो गई तो रोतेरोते ही आफिस पहुंची थी. मेरे आंसू देखते ही बौसी बोली, ‘‘टसुए घर छोड़ कर आया करो.’’ लेकिन अगर मेरा बौस होता तो मेरे आंसू सीधे उस के (बौस के) दिल पर छनछन कर के गरम तवे पर ठंडी बूंदों की तरह गिरते और सूख जाते. वह मुझ से पूछता, ‘क्या हुआ है? किस से झगड़ा हुआ.’ तब मैं अपने पति को झगड़ालू और अकड़ू बता कर अपने बौस की तारीफ में पुल बांधती तो वह कितना खुश हो जाता और मेरी अगले दिन की एक और छुट्टी पक्की हो जाती.

उस रात अचानक

कोई भी अच्छी ड्रेस पहनूं या मेकअप करूं तो डर लगने लगता है. बौसी कहने लगती है, ‘‘आफिस में सज कर किस को दिखाने आई हो?’’ अगर बौस होता तो ऐसे वाहियात सवाल थोड़े ही करता? वह तो समझदार है, उसे पता है कि मैं उस के दिल के कोमल तारों को छेड़ने और फुसलाने के लिए ही तो ऐसा कर रही हूं. वह यह सब जान कर भी फिसलता ही जाएगा. फिसलता ही जाएगा और उस की इसी फिसलन में उस की बंद आंखों में मैं अपने घर के हजारों काम निबटा देती. पर मेरी किस्मत में बौस के बजाय बौसी है, बासी रोटी और बासी फूल सी मुरझाई हुई. उस के होेते हुए न तो मैं आफिस टाइम पर शौपिंग कर पाती हूं, न ही ससुराल वालों को अटेंड कर पाती हूं, न ही घर जा कर सो पाती हूं, न ही अपने पति की चुगली उस से कर के उसे खुश कर पाती हूं और न ही उस के रूप और कपड़ों की बेवजह तारीफ कर के, अपने न किए हुए कामों को अनदेखा करवा सकती हूं. अगर मेरा बौस होता तो मैं आफिस आती और आफिस आफिस खेलती, पर काम नहीं करती.

पर क्या करूं मैं, मेरी तो बौसी है. इस के होने से मुझे अपनी सुंदरता पर भी शक होने लगा है. मेरा इठलाना, मेरा रोना, मेरा आंसू बहाना, मेरा सजना, मेरे जलवे, मेरे नखरे किसी काम के नहीं रहे. इसीलिए मुझे कभीकभी अपने नारी होने पर भी संदेह होने लगा है. काश, कोई मेरी बौसी को हटा कर मुझे बौस दिला दे, ताकि मुझे मेरे होने का एहसास कराये.

गृहस्थी की डोर

लेखक- एन.के. सोमानी 

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

उस रात अचानक

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

कैक्टस के फूल

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं.

जिंदगी के रंग (अंतिम भाग)

पूर्व कथा

काम की तलाश में भटकती एक लड़की कालोनी के घरों में जा कर काम मांगती है तो सभी डांटडपट कर भगा देते हैं. अंत में वह एक कोठी में जाती है तो एक प्रौढ़ महिला श्रीमती चतुर्वेदी उस का नामपता पूछती हैं तो वह अपना नाम कमला बताती है और उन के घर कमला को काम मिल जाता है.

कुछ घंटे बाद कमला बाहर जाने की अनुमति मांगती है ताकि वह अपना सामान ले कर आ सके तो श्रीमती चतुर्वेदी उसे जाने की इजाजत दे देती हैं. शाम को श्रीमती चतुर्वेदी की बेटियां और पति आफिस से आते हैं तो नई काम वाली को देख खुश होते हैं और उस की जांचपड़ताल के बारे में श्रीमती चतुर्वेदी से पूछते हैं. श्रीमती चतुर्वेदी उसे स्टोर रूम में रहने की जगह देती हैं. बिस्तर पर लेटते ही अतीत की यादें ताजा हो जाती हैं.

आज की नौकरानी कल की डा. लता थी. पीएच.डी. करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर के पद के लिए आवेदन किया था. लेकिन एक रात कुछ अज्ञात लोग उस के घर में घुस आते हैं और सब को मार देते हैं पर लता को छोड़ देते हैं. वह तड़के ही अपनी जान बचा कर वहां से भाग जाती है और मुंबई आ जाती है काम की तलाश में.

और अब आगे…

एक बार सविता से मिलने उस की मामी होस्टल में आई थीं तो उन से लता की भी अच्छी जानपहचान हो गई थी. उस ने योजना बनाई कि धर्मशाला में सामान रख कर पहले वह सविता की मामी के यहां जा कर बात करेगी, क्योंकि उस ने मुंबई विश्वविद्यालय के फार्म पर मुरादाबाद का पता लिखा है और वहां के पते पर इंटरव्यू लेटर जाएगा तो इस की सूचना उसे किस तरह मिलेगी.

टे्रन से उतरने के बाद लता स्टेशन से बाहर आई और कुछ ही दूरी पर एक धर्मशाला में अपने लिए कमरा ले कर थैले में से उस डायरी को निकालने लगी जिस में सविता की मामी का पता उस ने लिख रखा था. फिर उस किताब में से रुपए ढूंढ़े और सविता की मामी के घर पहुंच गई.

मामी के सामने अपनी असलियत कैसे बताती इसलिए उस ने कहा कि उस की मुंबई में नौकरी लग गई है, लेकिन स्थायी पते का चक्कर है इसलिए मैं आप के घर का पता विश्वविद्यालय में लिखा देती हूं.

वहां से लौट कर काम की तलाश करते लता को श्रीमती चतुर्वेदी ने काम पर रख लिया था. वैसे लता मुंबई में किसी प्राइवेट कालिज में कोशिश कर के नौकरी पा सकती थी, पर एक तो प्राइवेट कालिजों में तनख्वाह कम, ऊपर से किराए का मकान ले कर रहना, खाने का जुगाड़, बिजली, पानी का बिल चुकाना, यह सब उस थोड़ी सी तनख्वाह में संभव नहीं था. दूसरे, वह अभी उस घटना से इतनी भयभीत थी कि उस ने 24 घंटे की नौकरानी बन कर रहना ही अच्छा समझा.

इस तरह लता से कमला बनी वह रोज सुबह उठ कर काम में लग जाती. दिन भर काम करती हुई उस ने बीबीजी और सभी घर वालों का मन मोह लिया था. कमला के लिए अच्छी बात यह थी कि वह लोग शाम का खाना 5 बजे ही खा लेते थे, इसलिए सारा काम कर के वह 7 बजे फ्री हो जाती थी.

काम से निबट कर वह अपने छोटे से कमरे में पहुंच जाती और फिर सारी रात बैठ कर इंटरव्यू की तैयारी करती. वैसे छात्र जीवन में वह बहुत मेहनती रही थी, इसलिए पहले से ही काफी अच्छी तैयारी थी. लेकिन फिर भी मुंबई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति पाना और वह भी बिना किसी सिफारिश के बहुत ही मुश्किल था. वह तो केवल अपनी योग्यता के बल पर ही इंटरव्यू में पास होने की तैयारी कर रही थी. आत्मविश्वास तो उस में पहले से ही काफी था. दिल्ली विश्वविद्यालय में भी उस ने कितने ही सेमिनार अटेंड किए थे. अब तो वह बस, सारे कोर्स रिवाइज कर रही थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के घर 4 दिन उस के बहुत अच्छे गुजरे. 5वें दिन धड़कते दिल से उस ने पूछा, ‘‘आप ने क्या सोचा बीबीजी, मुझे काम पर रखना है या हटाना है?’’

बीबीजी और घर के सभी सदस्य उस के काम से खुश तो थे ही, इसलिए मालकिन हंसते हुए बोलीं, ‘‘चल, तू भी क्या याद रखेगी कमला, तेरी नौकरी इस घर में पक्की, लेकिन एक बात पूछनी थी, तू पूरी रात लाइट क्यों जलाती है?’’

‘‘वह क्या है बीबीजी, अंधेरे में मुझे डर लगता है, नींद भी नहीं आती. बस, इसीलिए रातभर बत्ती जलानी पड़ती है,’’ बड़े भोलेपन से उस ने जवाब दिया.

कभीकभी तो लता को अपने कमला बनने पर ही बेहद आश्चर्य होता था कि कोई उसे पहचान नहीं पाया कि वह पढ़ीलिखी भी हो सकती है. एक दिन तो उस की पोल खुल ही जाती, पर जल्दी ही वह संभल गई थी.

हुआ यह कि मालकिन की छोटी बेटी, जो बी.एससी. कर रही थी, अपनी बड़ी बहन से किसी समस्या पर डिस्कस कर रही थी, तभी कमला के मुंह से उस का समाधान निकलने ही वाला था कि उसे अपने कमलाबाई होने का एहसास हो गया.

अब तो मालकिन उस से इतनी खुश थी कि दोपहर को खुद ही उस से कह देती थी कि तू दोपहर में थोड़ी देर आराम कर लिया कर.

कमला को और क्या चाहिए था. वह भी अब दोपहर को 2 घंटे अपनी स्टडी कर लेती थी. इतना ही नहीं उसे कमरे में एक सुविधा और भी हो गई थी कि रोज के पुराने अखबार ?मालकिन ने उसे ही अपने कमरे में रखने को कह दिया था. इस से वह इंटरव्यू की दृष्टि से हर रोज की खास घटनाओं के संपर्क में बनी रहने लगी थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के यहां काम करते हुए कमला को अब 2 महीने हो गए. एक दिन बीबीजी की तबीयत अचानक अधिक खराब हो गई, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था उन्होंने. उस दिन बीमार मालकिन को दिखाने के लिए घर के सभी लोग अस्पताल गए थे, तभी टेलीफोन की घंटी बजी, फोन सविता की मामी का था.

‘‘हैलो लता, तुम्हारा साक्षात्कार लेटर आ गया है, 15 दिन बाद इंटरव्यू है तुम्हारा. कहो तो इंटरव्यू लेटर वहां भिजवा दूं.’’

मामी को उस समय टालते हुए कमला ने कहा, ‘‘नहीं, मामीजी, आप भिजवाने का कष्ट न करें, मैं खुद ही आ कर ले लूंगी.’’

इंटरव्यू से 2 दिन पहले कमला ने मालकिन से बात की, ‘‘बीबीजी, परसों 15 सितंबर को मुझे छुट्टी चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ श्रीमती चतुर्वेदी बोलीं.

‘‘ऐसा है, बीबीजी, मेरी दूर के रिश्ते की बहन यहां रहती है, जब से आई हूं उस से मिल नहीं पाई. 15 सितंबर को उस की लड़की का जन्मदिन है, यहां हूं तो सोचती हूं कि वहां हो आऊं.’’

फिर बच्चे की तरह मचलते हुए बोली, ‘‘बीबीजी उस दिन तो आप को छुट्टी देनी ही पड़ेगी.’’

15 सितंबर के दिन एक थैला ले कर कमला चल दी. वह वहां से निकल कर उसी धर्मशाला में गई और वहां कुछ देर रुक कर कमला से लता बनी.

काटन की साड़ी पहन, जूड़ा बना कर, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर, हाथ में फाइल और थीसिस ले कर जब उस ने वहां लगे शीशे में अपने को देखा तो जैसे मानो खुद ही बोल उठी, ‘वाह लता, क्या एक्ंिटग की है.’

सविता की मामी के पास से इंटरव्यू लेटर ले कर वह विश्वविद्यालय पहुंच गई. सभी प्रत्याशियों में इंटरव्यू बोर्ड को सब से अधिक लता ने प्रभावित किया था.

लौटते समय लता सविता की मामी से यह कह आई थी कि अगर उस का नियुक्तिपत्र आए तो वह फोन पर उसी को बुला कर यह खबर दें, किसी और से यह बात न कहें.

धर्मशाला में जा कर लता कपड़े बदल कर कमला बन गई और फिर मालकिन के घर जा कर काम में जुट गई थी. मन बड़ा प्रफुल्लित था उस का. अपने इंटरव्यू से वह बहुत अधिक संतुष्ट थी, इस से अच्छा इंटरव्यू हो ही नहीं सकता था उस का.

खुशी मन से जल्दीजल्दी काम करती हुई कमला से श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘सच कमला, तेरे बिना अब तो इस घर का काम ही चलने वाला नहीं है. इसलिए अब जब भी तुझे अपनी बहन के यहां जाना हुआ करे तो हमें बता दिया कर, हम मिलवा कर ले आया करेंगे तुझे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ इतना कह कर वह काम में लग गई थी.

एक दिन सविता की मामी ने फोन पर उसे बुला कर सूचना दी कि उस का चयन हो गया है, अपना नियुक्तिपत्र आ कर उन से ले ले.

अब वह सोचने लगी कि बीमार बीबीजी से इस बारे में क्या और कैसे बात करे, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले बीबीजी को यह बात बताए. उसे डर था कहीं कोई अडं़गा न आ जाए.

वहां से जा कर ज्वाइन करने का पूरा गणित बिठाने के बाद कमला बीबीजी से बोली, ‘‘बीबीजी, आज जब मैं सब्जी लेने गई थी, तब मेरी उसी बहन की लड़की मिली थी, उस ने बताया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए बीबीजी मुझे उस की देखभाल के लिए जाना पड़ेगा.’’

‘‘और यहां मैं जो बीमार हूं, मेरा क्या होगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? यह सब सोचा है तू ने,’’ बीबीजी नाराज होते बोलीं, ‘‘देख, तनख्वाह तो तू यहां से ले रही है, इसलिए तेरा पहला फर्ज बनता है कि तू पहले हम सब की देखभाल करे.’’

‘‘बीबीजी, आप मेरी तनख्वाह से जितने पैसे चाहे काट लेना, मेरी देखभाल के बिना मेरी बहन मर जाएगी, हां कर दो न बीबीजी,’’ अत्यंत दीनहीन सी हो कर उस ने कहा.

कमला की दीनता को देख कर बीबीजी को तरस आ गया और उन्होंने जाने के लिए हां कर दी.

सारी औपचारिकताएं पूरी करते हुए लता ने मुंबई विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया था. उसे वहीं कैंपस में स्टाफ क्वार्टर भी मिल गया था. आज उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. इन 5 दिन में सविता की मामी के पास ही रहने का उस ने मन बना लिया था.

जाते ही उसे एम.एससी. की क्लास पढ़ाने को मिल गई थी. क्लास में भी क्या पढ़ाया था उस ने कि सारे विद्यार्थी उस के फैन हो गए थे.

5 दिनो के बाद 3 दिन की छुट्टियों में डा. लता फिर कमलाबाई बन कर बीबीजी के घर पहुंच गई.

‘‘अरी, कमला, तू इस बीमार को छोड़ कर कहां चली गई थी. तुझे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया. कितना भी कर लो पर नौकर तो नौकर ही होता है, तुझे तो तनख्वाह से मतलब है, कोई अपनी बीबीजी से मोह थोड़े ही है. अगर मोह होता तो 5 दिनों में थोड़ी देर के लिए ही सही खोजखबर लेने नहीं आती क्या? अब मैं कहीं नहीं जाने दूंगी तूझे, मर जाऊंगी मैं तेरे बिना, सच कहे देती हूं मैं,’’ मालकिन बोले ही जा रही थीं.

कमला खामोश हो कर बीबीजी से सबकुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थी. तभी शाम के समय चतुर्वेदीजी के एक मित्र घर आए. वह मुंबई विश्वविद्यालय में बौटनी विभाग के हेड थे और उस की ज्वाइनिंग उन्होंने ही ली थी. ड्राइंगरूम से ही बीबीजी ने आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘कमला, अच्छी सी 3 कौफी तो बना कर लाना.’’

‘‘अभी लाई, बीबीजी,’’ कह कर कमला कौफी बना कर जैसे ही ड्राइंगरूम में पहुंची, डा. भार्गव को देख कर उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे. लेकिन फिर भी वह अंजान ही बनी रही.

डा. भार्गव लता को देख कर चौंक कर बोले, ‘‘अरे, डा. लता, आप यहां?’’

‘‘अरे, भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं, यह तो हमारी बाई है, कमला. बड़ी अच्छी है, पूरा घर अच्छे से संभाल रखा है इस ने.’’

‘‘नहीं भाभीजी, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं, यह डा. लता ही हैं, जिन्होंने 5 दिन पहले मेरे विभाग में ज्वाइन किया है. डा. लता, आप ही बताइए, क्या मेरी आंखें धोखा खा रही हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप कैसे धोखा खा सकते हैं, मैं लता ही हूं.’’

‘‘क्या…’’ घर के सभी सदस्यों के मुंह से अनायास ही एकसाथ निकल पड़ा. सभी लता के मुंह की ओर देख रहे थे.

उन के अभिप्राय को समझ कर लता बोली, ‘‘हां, बीबीजी, सर बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’’ यह कहते हुए उस ने अपनी सारी कहानी सुनाते हुए कहा, ‘‘तो बीबीजी, यह थी मेरे जीवन की कहानी.’’

‘‘खबरदार, जो अब मुझे बीबीजी कहा. मैं बीबीजी नहीं तुम्हारी आंटी हूं, समझी.’’

‘‘डा. लता, वैसे आप अभिनय खूब कर लेती हैं, यहां एकदम नौकरानी और वहां यूनिवर्सिटी में पूरी प्रोफेसर. वाह भई वाह, कमाल कर दिया आप ने.’’

‘‘मान गई लता मैं तुम्हें, क्या एक्टिंग की थी तुम ने, कह रही थी कि मुझे लाइट बिना नींद ही नहीं आती. लेकिन लता, सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है…हम सभी को, कितने संघर्ष के बाद तुम इतने ऊंचे पद पर पहुंचीं. सच, तुम्हारे मातापिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसी साहसी लड़की को जन्म दिया.’’

‘‘पर बीबीजी…ओह, नहीं आंटीजी, मैं तो आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी, यदि आप ने मुझे शरण नहीं दी होती तो मैं कैसे इंटरव्यू की तैयारी कर पाती? मैं जहां भी रहूंगी, इस परिवार को सदैव याद रखूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है…तू कहीं नहीं रहेगी, यहीं रहेगी तू, सुना तू ने, जहां मेरी 2 बेटियां हैं, वहीं एक बेटी और सही. अब तक तू यहां कमला बनी रही, पर अब लता बन कर हमारे साथ हमारे ही बीच रहेगी. अब तो जब तेरी डोली इस घर से उठेगी तभी तू यहां से जाएगी. तू ने जिंदगी के इतने रंग देखे हैं, बेटी उन में एक रंग यह भी सही.’’

खुशी के आंसुओं के बीच लता ने अपनी सहमति दे दी थी.

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