Hindi Kahani: इनाम – मोनू की कहानी

Hindi Kahani: मोनू की भाभी का पूरा बदन जैसे कच्चे दूध में केसर मिला कर बनाया गया था. चेहरा मानो ताजा मक्खन में हलका सा गुलाबी रंग डाल कर तैयार किया गया था. उन की आवाज भी मानो चाशनी में तर रहती थी.वे बिहार के एक बड़े जमींदार की बेटी थीं. उन की शादी भैया के फौज में चुने जाने से पहले ही हो गई थी.भैया के नौकरी पर जाने के बाद अम्मां और बस 2 जने ही परिवार में रह गए थे.

कभीकभी शादीशुदा बड़ी बहन भी आ जाती. भाभी के आ जाने से अब 3 जने हो गए थे. मोनू के पिताजी की मौत उस के पैदा होने के पहले ही एक कार हादसे में हो गई थी. उस के परिवार की गिनती इलाके के बड़े जमींदारों में होती थी. कोठिया के कुंवर साहब का नाम दूरदूर तक मशहूर था.पहले कुछ दिन मोनू भाभी से डरता था. तब वह छोटा भी था. डरता तो अब भी है, लेकिन अब डर इस बात का रहता है कि कहीं नाराज हो कर वे उस से बोलना ही बंद न कर दें.एक बार गरमी का मौसम था.

बगीचे में आम लदे हुए थे. भाभी ने कहा, ‘‘मोनू चलो बाग देख आएं. ?ोला ले चलो, आम भी ले आएंगे.’’मोनू ने कहा, ‘‘भाभी, थोड़ा रुको. मैं बगीचे से सभी को भगा दूं, तब आप को ले चलूंगा.’’थोड़ी देर बाद मोनू आया, तो बोला, ‘‘चलिए भाभी.’’भाभी ने पूछा, ‘‘कहां गए थे?’’मोनू बोला, ‘‘मैं सभी को बाग से भगा कर आया हूं.’’‘‘क्यों भगा दिया?’’ भाभी ने पूछा.‘‘भाभी,

आप नहीं जानतीं, किसी की नजर लग जाती तो…’’भाभी हंसने लगीं. अम्मां भी वहां आ गईं और पूछने लगीं, ‘‘क्या हुआ बहू?’’‘‘अम्मां, मोनू बगीचे में जा कर सभी को भगा आया है. कहता है कि आप नहीं जानतीं, किसी की नजर लग जाएगी.

’’यह सुन कर अम्मां भी हंसने लगीं और बोलीं, ‘‘तेरे पीछे पागल है बहू. इस की चले, तो किसी को देखने ही न दे.’’बगीचे में पहुंचे अभी थोड़ी ही देर हुई थी. मोनू आमों से ?ोला भर चुका था, तभी आंधी आ गई. मोनू बोला, ‘‘भाभी, पेड़ों के नीचे से इधर आ जाओ.’’भाभी बोलीं, ‘‘आंधी तो चली गई मोनू, शायद बवंडर था.’’मोनू की आंखें आंसुओं से भरी थीं.भाभी ने पूछा, ‘‘मिट्टी गिर गई है क्या आंख में?’’मोनू बोला, ‘‘आंखों में कुछ नहीं पड़ा है भाभी.’’‘‘तब रो क्यों रहे हो?’’‘‘आप के ऊपर कितनी धूलमिट्टी पड़ गई है.’’भाभी हंसने लगीं, ‘‘अभी चल कर नहा लूंगी.’’अम्मां पूछने लगीं, ‘‘चोट तो नहीं लगी बहू?’’भाभी बोलीं, ‘‘मां, मोनू रो रहा था. कहता है कि तुम्हारे ऊपर धूलमिट्टी पड़ गई है.’’

ऐसा सुन कर अम्मां भी हंसने लगीं.मई का महीना था. गरमी अपने शबाब पर थी. मोनू कहने लगा, ‘‘20 मई को मेरा रिजल्ट आएगा भाभी.’’भाभी बोलीं, ‘‘मोनू, अगर तू फर्स्ट डिविजन लाया, तो मैं तु?ो इनाम दूंगी.’’‘‘क्या दोगी भाभी?’’‘‘अभी नहीं बताऊंगी, लेकिन बहुत मजेदार तोहफा रहेगा.’’‘‘रुपयापैसा दोगी भाभी?’’ मोनू ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘हम लोग कोई जुआरी तो हैं नहीं और न ही बनियामहाजन हैं.’’‘‘तब क्या दोगी भाभी?’’ उस ने चिरौरी की, ‘‘बता दो भाभी.’’मोनू के जिद करने पर भाभी बोलीं, ‘‘मैं तु?ो अपने पास सुलाऊंगी.’’‘‘सोता तो मैं आप के पास रोज ही हूं. जब पढ़ते हुए मु?ो नींद आ जाती है, तो आप के पास ही तो मैं सो जाता हूं. फिर आप के जगाने पर ही मैं अपने बिस्तर पर जाता हूं.’’भाभी हंसने लगीं, ‘‘अरे, वैसा नहीं, जैसा तेरे भैया के साथ सोती हूं, वैसा…’’मोनू की सम?ा में ज्यादा कुछ तो नहीं आया, लेकिन वह 20 मई का बेसब्री से इंतजार करने लग गया.20 मई आई, तो सुबहसवेरे मोनू को दहीभात खिला कर अम्मां ने शहर भेज दिया. वह अपने किसी दोस्त की मोटरसाइकिल से रिजल्ट देखने चला गया था.

भाभी को तो चैन ही नहीं पड़ रहा था. दोपहर के 12 बजे के बाद से ही भाभी 4-5 जगह फोन कर के मोनू का रोल नंबर लिखवा चुकी थीं. 3 बजे किसी ने फोन पर बताया कि मोनू फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया है. उन की आंखों से खुशी के आंसू निकल आए.मोनू रात के 9 बजे घर लौटा, तो हाथ में अखबार लिए भाभी के पास जा रहा था. अम्मां बोलीं, ‘‘पहले खाना खा ले, तब भाभी के पास जाना. पड़ोस में रात का कीर्तन शुरू हो गया होगा. मैं 2 घंटे बाद ही लौटूंगी.

वैसे, तेरा रिजल्ट तो बहू को पता है कि तू पास हो गया है. हो गया है न…?’’मोनू जल्दीजल्दी खाना खाने लगा, तो अम्मां बोलीं, ‘‘बेटा, दरवाजा बंद कर लेना. मैं जा रही हूं.’’आधा खाना खा कर मोनू ने हाथमुंह धोए और अखबार उठा कर भाभी के पास पहुंच गया. भाभी सो रही थीं. गरमी होने की वजह से उन्होंने ब्लाउज भी नहीं पहना हुआ था. आंचल भी बिस्तर पर गिर गया था.

मोनू उन्हें इस हालत में ठगा सा खड़ा देख रहा था. वह सोच ही रहा था कि वह देखता रहे या लौट जाए, तभी भाभी को शायद आहट लगी, उन्होंने आंखें खोलीं और पूछा, ‘‘अभी तक कहां था मोनू?’’‘‘मोटरसाइकिल वाले दोस्त ने बहुत देर कर दी भाभी.’’‘‘खाना खा लिया क्या तुम ने?’’‘‘हां भाभी. अम्मां बोल कर गई हैं कि 2 घंटे बाद लौटेंगी.’’भाभी ने कहा, ‘‘तुम्हारा रिजल्ट तो मु?ो दोपहर में ही पता चल गया था. अब जा कर सो जाओ. मु?ो नींद आ रही है.’’

‘‘मेरा इनाम भाभी?’’यह सुन कर भाभी हंसने लगीं, ‘‘अच्छा जा कर दरवाजा लगा आ.’’‘‘वह तो लगा दिया है भाभी.’’‘‘तु?ो गरमी नहीं लगती मोनू? अपने सब कपड़े निकाल दे.’’‘‘कच्छी रहने दूं भाभी?’’‘‘नहीं, सब निकाल दे. इतनी तो उमस है अभी, फिर पहन लेना.’’‘‘ठीक है.’’‘‘अब आ कर इधर लेट जा.’’16 साल का गोराचिट्टा सेहतमंद किशोर मोनू बगल में लेटा था. भाभी ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया और होंठों को चूमने लगीं, फिर उसे उठा कर अपने ऊपर ही लिटा लिया और बोलीं,

‘‘जैसा मैं ने किया है, वैसा ही तू भी कर मोनू.’’मोनू ने डरतेडरते उन के गालों को चूमा, फिर होंठों को मुंह में ले कर चूसने लगा. थोड़ी ही देर में वह अपनी मंजिल तक पहुंच गया.अलग होने के बाद भाभी देर तक मोनू को दुलारती रहीं. वे बोलीं, ‘‘अब कपडे़ पहन लो मोनू और जा कर सो जाओ.’’भैया की शादी हुए 7 साल हो रहे थे, लेकिन अभी तक कोई बच्चा नहीं था. अम्मां अकसर कहतीं, ‘‘इस बार दोनों जा कर अपनी जांच करा लो.’’भाभी हंसने लगतीं, ‘‘मु?ो क्या तकलीफ है अम्मां? उन से कह दो, वे अपनी जांच करा लें.’’अम्मां कहतीं कि तु?ो कोई फिक्र नहीं है बहू,

तो भाभी बहुत दुखी हो जातीं. वे बोलतीं, ‘‘बताओ, मैं क्या करूं अम्मां?’’20 मई के बाद से ही भाभी के चेहरे की रौनक दोगुनी हो गई थी. वे कहतीं, ‘‘मोनू, अब मैं तु?ो पढ़ा नहीं पाऊंगी. तेरे लिए कोई मास्टर लगा दूंगी. अब मेरे पास सोने भी न आया करो. यहां अब तुम्हारा लड़का सोएगा.’’मोनू पूछता, ‘‘कहां है मेरा लड़का भाभी?’’ तो वे हंसने लगतीं और कहतीं,

‘‘जब आएगा, तब देख लेना.’’एक शाम को भैया आ गए. वे खुश होते हुए भाभी से बोले, ‘‘अब मोनू को मोटरसाइकिल दिला देते हैं, वह तुम्हें भी घुमा लाया करेगा.’’भाभी नाराज होने लगीं, ‘‘अभी रहने दो. अभी मोनू को बाइक दे कर आप उसे मौत के मुंह में ढकेल देंगे. जब इंटर पास करेगा, तब दिला देना मोटरसाइकिल.’’भैया ने पूछा, ‘‘तुम मोनू को पढ़ाती कैसे थीं? साइंस तो तुम ने पढ़ी ही नहीं है.’’भाभी बोलीं, ‘‘उस की किताबें पढ़ लेती थी. थोड़े नोट्स भी मिल गए थे.’’भैया हंसने लगे, ‘‘मैं तो सम?ाता था कि यह साल भी उस का बरबाद ही होगा, लेकिन तुम ने तो कमाल ही कर दिया.’’वे बोलीं,

‘‘अब नहीं पढ़ा पाऊंगी, कोई मास्टर लगा दूंगी.’’भैया को वापस गए 3 महीने से ज्यादा हो रहा था. मोनू कभी हाथ जोड़ कर चिरौरी कर के, पैर पकड़ कर या भूख हड़ताल कर के 3-4 बार ऐसा ही इनाम ले चुका था. एक दिन आंगन में लगे हैंडपंप के पास वे उलटी कर रही थीं. मोनू हैरान सा खड़ा उन्हें देख रहा था. पूछने लगा, ‘‘उलटी की दवा ले आऊं भाभी?’’वे हंसते हुए बोलीं, ‘‘सब शरारत तो तुम्हारी ही है मोनू. यह इनाम भी तो तुम ने ही दिया है.’’अम्मां भी वहां आ गईं. बहू को उलटी करते देखा, तो अनुभवी आंखें खुशी से चमक उठीं.अम्मां ने भैया को भी सूचना दे देने को कहा,

तो भाभी मुश्किल से ही तैयार हुई थीं.अम्मां ने कहा, ‘‘बहू, अब कामधाम रहने दो. कोई तकलीफ हो, तो मोनू को भेज कर दवा मंगा लेना.’’मोनू की सम?ा में यह बदलाव नहीं आ रहा था. भाभी से पूछा, तो वे बोलीं, ‘‘कुछ दिन बाद तुम खुद जान जाओगे.’’कसबे की डाक्टरनी भी आ कर बता गईं, ‘‘अम्मां, अब बहू को दिन में 4-5 बार हलका भोजन दिया करो. फल तो जितना मन हो खाए, दूधदही भी रोज देती रहना. कोई तकलीफ हो, तो मु?ो घर पर ही बुला लेना. बहू कोई दवा अपनेआप न खाए.’’एक दिन गांव का ही एक आदमी नगाड़ा लिए बधाई बजाने आ गया. तमाम औरतेंबच्चे उसे घेरे खड़े थे.मोनू ने पूछा, ‘‘भाभी, यह क्यों बजा रहा है?’’भाभी ने कहा, ‘‘शायद, अम्मां ने बुलाया होगा.’’‘‘क्यों?’’ मोनू ने पूछा.‘‘अरे, तुम्हारे लड़के का स्वागत नहीं करेंगी…’’ भाभी ने हंसते हुए बताया. Hindi Kahani

Story In Hindi: गुच्चूपानी – राहुल क्यों मायूस हो गया?

Story In Hindi: एकसाथ 3 दिन की छुट्टी देखते हुए पापा ने मसूरी घूमने का प्रोग्राम जब राहुल को बताया तो वह फूला न समाया. पहाड़ों की रानी मसूरी में चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़, उन पर बने छोटेछोटे घर, चारों ओर फैली हरियाली की कल्पना से ही उस का मन रोमांचित हो उठा.

राहुल की बहन कमला भी पापा द्वारा बनाए गए प्रोग्राम से बहुत खुश थी. पापा की हिदायत थी कि वे इन 3 दिन का भरपूर इस्तेमाल कर ऐजौंय करेंगे. एक मिनट भी बेकार न जाने देंगे, जितनी ज्यादा जगह घूम सकेंगे, घूमेंगे.

निश्चित समय पर तैयार हो कर वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए. सुबह पौने 7 बजे शताब्दी ऐक्सप्रैस में बैठे तो राहुल काफी रोमांचित महसूस कर रहा था, उस ने स्मार्टफोन उठाया और साथ की सीट पर बैठी कमला के साथ सैल्फी क्लिक की.

तभी पापा ने बताया कि वे रास्ते में हरिद्वार में उतरेंगे और वहां घूमते हुए रात को देहरादून पहुंच जाएंगे. फिर वहां रात में औफिस के गैस्ट हाउस में रुकेंगे और सुबह मसूरी के लिए रवाना होंगे.

यह सुन कर राहुल मायूस हो गया. हरिद्वार का नाम सुनते ही जैसे उसे सांप सूंघ गया. उसे लग रहा था सारा ट्रिप अंधविश्वास की भेंट चढ़ जाएगा. यह सुनते ही वह कमला से बोला, ‘‘शिट् यार, लगता है हम घूमने नहीं तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं.’’

‘‘हां, पापा आप भी न….’’ कमला ने कुछ कहना चाहा लेकिन कुछ सोच कर रुक गई.

लगभग 12 बजे हरिद्वार पहुंच कर उन्होंने टैक्सी ली, जो उन्हें 2-3 जगह घुमाती हुई शाम को गंगा घाट उतारती और फिर वहां से देहरादून उन के गैस्ट हाउस छोड़ देती.

राहुल ट्रिप के मजे में खलल से आहत चुपचाप चला जा रहा था. शाम को हरिद्वार में गंगा घाट पर घूमते हुए प्राकृतिक आनंद आया, लेकिन गंगा के घाट असल में उसे लूटखसोट के अड्डे ज्यादा लगे. जगहजगह धर्म व गंगा के प्रति श्रद्धा के नाम पर पैसा ऐंठा जा रहा था. उसे तब और अचंभा हुआ जब निशुल्क जूतेचप्पल रखने का बोर्ड लगाए उस दुकानदार ने उन से जूते रखने के 100 रुपए ऐंठ लिए. इस सब से उस के मन का रोमांच काफूर हो गया. फिर भी वह चुपचाप चला जा रहा था.

रात को वे टैक्सी से देहरादून पहुंचे और गैस्टहाउस में ठहरे. पापा ने गैस्टहाउस के रसोइए के जरिए मसूरी के लिए टैक्सी बुक करवा ली. टैक्सी सुबह 8 बजे आनी थी. अत: वे जल्दी खाना खा कर सो गए ताकि सुबह समय से उठ कर तैयार हो पाएं.

वे सफर के कारण थके हुए थे, सो जल्दी ही गहरी नींद में सो गए और सुबह गैस्टहाउस के रसोइए के जगाने पर ही जगे. तैयार हो कर अभी वे खाना खा ही रहे थे कि टैक्सी आ गई. राहुल अब भी चुप था. उसे यात्रा में कुछ रोमांच नजर नहीं आ रहा था.

टैक्सी में बैठते ही पापा ने स्वभावानुसार ड्राइवर को हिदायत दी, ‘‘भई, हमें कम समय में ज्यादा जगह घूमना है इसलिए भले ही दोचार सौ रुपए फालतू ले लेना, लेकिन देहरादून में भी हर जगह घुमाते हुए ले चलना.’’

ज्यादा पैसे मिलने की बात सुन ड्राइवर खुश हुआ और बोला, ‘‘सर, उत्तराखंड में तो सारा का सारा प्राकृतिक सौंदर्य भरा पड़ा है, आप जहां कहें मैं वहां घुमा दूं, लेकिन आप को दोपहर तक मसूरी पहुंचना है इसलिए एकाध जगह ही घुमा सकता हूं. आप ही बताइए कहां जाना चाहेंगे?’’

पापा ने मम्मी से सलाह की और बोले, ‘‘ऐसा करो, टपकेश्वर मंदिर ले चलो. फिर वहां से साईंबाबा मंदिर होते हुए मसूरी कूच कर लेना.’’

‘‘क्या पापा, आप भी न. हम से भी पूछ लेते, सिर्फ मम्मी से सलाह कर ली… और हम क्या तीर्थयात्रा पर हैं, जो मंदिर घुमाएंगे,’’ कमला बोली.

तभी नाराज होता हुआ राहुल बोल पड़ा, ‘‘क्या करते हैं आप पापा, सारे ट्रिप की वाट लगा दी. बेकार हो गया हमारा आना. अभी ड्राइवर अंकल ने बताया कि उत्तराखंड प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है और एक आप हैं कि देखने को सूझे तो सिर्फ मंदिर, जहां सिर्फ ठगे जाते हैं. आप की सोच दकियानूसी ही रहेगी.’’

पापा कुछ कहते इस से पहले ही ड्राइवर बोल पड़ा, ‘‘आप का बेटा ठीक कह रहा है सर, घूमनेफिरने आने वाले ज्यादातर लोग इसी तरह मंदिर आदि देख कर यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं और असली यात्रा के रोमांच से वंचित रह जाते हैं. तिस पर अपनी सोच भी बच्चों पर थोपना सही नहीं. तभी तो आज की किशोर पीढ़ी उग्र स्वभाव की होती जा रही है. हमें इन की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.

‘‘यहां प्राकृतिक नजारों की कमी नहीं. आप कहें तो आप को ऐसी जगह ले चलता हूं जहां के प्राकृतिक नजारे देख आप रोमांचित हुए बिना नहीं रहेंगे. इस समय हम देहरादून के सैंटर में हैं. यहां से महज 8 किलोमीटर दूर अनार वाला गांव के पास स्थित एक पर्यटन स्थल है, ‘गुच्चूपानी,’ जिसे रौबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा भी कहा जाता है.

‘‘गुच्चूपानी एक प्राकृतिक पिकनिक स्थल है जहां प्रकृति का अनूठा अनुपम सौंदर्य बिखरा पड़ा है. दोनों ओर ऊंचीऊंची पहाडि़यों के मध्य गुफानुमा स्थल में बीचोंबीच बहता पानी यहां के सौंदर्य में चारचांद लगा देता है. दोनों पहाडि़यां जो मिलती नहीं, पर गुफा का रूप लेती प्रतीत होती हैं.

‘‘यहां पहुंच कर आत्मिक शांति मिलती है. प्रकृति की गोद में बसे गुच्चूपानी के लिए यह कहना गलत न होगा कि यह प्रेम, शांति और सौंदर्य का अद्भुत प्राकृतिक तोहफा है.

‘‘गुच्चूपानी यानी रौबर्स केव लगभग 600 मीटर लंबी है. इस के मध्य में पहुंच कर तब अद्भुत नजारे का दीदार होता है जब 10 मीटर ऊंचाई से गिरते झरने नजर आते हैं. यह मनमोहक नजारा है. इस के मध्य भाग में किले की दीवार का ढांचा भी है जो अब क्षतविक्षत हो चुका है.’’

‘‘गुच्चूपानी…’’ नाम से ही अचंभित हो राहुल एकदम रोमांचित होता हुआ बोला, ‘‘यह गुच्चूपानी क्या नाम हुआ?’’

तभी साथ बैठी कमला भी बोल पड़ी, ‘‘और ड्राइवर अंकल, इस का नाम रौबर्स केव क्यों पड़ा?’’

मुसकराते हुए ड्राइवर ने बताया, ‘‘दरअसल, गुच्चूपानी इस का लोकल नाम है. अंगरेजों के जमाने में इसे ‘डकैतों की गुफा’  के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि उस समय डाकू डाका डालने के बाद छिपने के लिए इसी गुफा का इस्तेमाल करते थे. सो, अंगरेजों ने इस का नाम रौबर्स केव रख दिया.’’

‘‘तो क्या अब भी वहां डाकू रहते हैं. वहां जाने में कोई खतरा तो नहीं है?’’ कमला ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, अब वहां ऐसी कोई बात नहीं बल्कि इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिया गया है. अब इस का रखरखाव उत्तराखंड सरकार द्वारा किया जाता है,’’ ड्राइवर ने बताया, फिर वह हंसते हुए बोला, ‘‘हां, एक डर है, पैरों के नीचे बहती नदी का पानी. दरअसल, पिछले साल जनवरी में भारी बरसात के कारण अचानक इस नदी का जलस्तर बढ़ गया था, जिस से यहां अफरातफरी मच गई थी. यहां कई पर्यटक फंस गए थे, जिस से काफी शोरशराबा मचा.

‘‘फिर मौके पर पहुंची एनडीआरएफ की टीमों ने पर्यटकों को सकुशल बाहर निकाला था. इस में महिलाएं और बच्चे भी थे. इसलिए जरा संभल कर जाइएगा.’’

‘‘अंकल आप भी न, डराइए मत, बस पहुंचाइए, ऐसी अद्भुत प्राकृतिक जगह पर,’’ राहुल रोमांचित होता हुआ बोला.

‘‘पहुंचाइए नहीं, पहुंच गए बेटा,’’ कहते हुए ड्राइवर ने टैक्सी रोकी और इशारा कर बताया कि उस ओर जाएं. जाने से पहले अपने जूते उतार लें व यहां से किराए पर चप्पलें ले लें.’’

राहुल और कमला भागते हुए आगे बढ़े और वहां बैठे चप्पल वाले से किराए की चप्पलें लीं. इन चप्पलों को पहन कर वे पहुंच गए गुच्चूपानी के गेट पर. यहां 25 रुपए प्रति व्यक्ति टिकट था. पापा ने सब के टिकट लिए और सब ने पानी में जाने के लिए अपनीअपनी पैंट फोल्ड की व ऐंट्री ली.

चारों ओर फैले ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा यह क्षेत्र अद्भुत सौंदर्य से भरा था. पानी में घुसते ही दिखने वाला वह 2 पहाडि़यों के बीच का गुफानुमा रास्ता और मध्य में बहती नदी के बीच चलना, जैसा ड्राइवर अंकल ने बताया था, उस से भी अधिक रोमांचित करने वाला था.

मम्मीपापा भी यह नजारा देख स्तब्ध रह गए थे. पहाड़ों के बीच बहते पानी में चलना उन्हें किसी हौरर फिल्म के रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य की भांति लगा, जैसे अभी वहां छिपे डाकू निकलेंगे और उन्हें लूट लेंगे.

अत्यंत रोमांचक इस मंजर ने उन्हें तब और रोमांचित कर दिया जब बिलकुल मध्य में पहुंचने पर ऊपर से गिरते झरने ने उन का स्वागत किया. राहुल तो पानी में ऐसे खेल रहा था मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो. सामने खड़ी किले की क्षतविक्षत दीवार के अवशेष उन्हें काफी भा रहे थे. इस मनोरम दृश्य को देख किस का मन अभिभूत नहीं होगा.

इस पूरे नजारे की उन्होंने कई सैल्फी लीं. एकदूसरे के फोटो खींचे और वीडियो क्लिप भी बनाई. पानी में उठखेलियां करते जब वे बाहर आ रहे थे तो पापा भी कह उठे, ‘‘अमेजिंग राहुल, वाकई तुम ने हमारी आंखें खोल दीं. हम तो सिर्फ मंदिर आदि देख कर ही लौट जाते. प्रकृति का असली आनंद व यात्रा की पूर्णता तो वाकई ऐसे नजारे देखने में है.’’

फिर बाहर आ कर उन्होंने ड्राइवर का भी धन्यवाद किया ऐसी अनूठी जगह का दीदार करवाने के लिए. साथ ही हिदायत दी कि मसूरी में भी धार्मिक स्थलों पर आस्था के नाम पर लूट का शिकार होने के बजाय ऐसे स्थान देखेंगे. इस पर जब राहुल ने ठहाका लगाया तो पापा बोले, ‘‘बेटा, हमें मसूरी के ऐसे अद्भुत स्थल ही देखने चाहिए. जल्दी चलो, कहीं समय की कमी के कारण कोई नजारा छूट न जाए.’’

अब टैक्सी मसूरी की ओर रवाना हो गई थी. टैक्सी की पिछली सीट पर बैठे राहुल और कमला रहरह कर गुच्चूपानी में ली गईं सैल्फी, फोटोज और वीडियोज में वहां के अद्भुत दृश्य देख कर रोमांचित हो रहे थे, इस आशा के साथ कि मसूरी यानी पहाड़ों की रानी में भी ऐसा ही रोमांच मिलेगा. Story In Hindi

Story In Hindi: खोखले चमत्कार – कैसे दूर हुआ दादी का अंधविश्वास

Story In Hindi: संजू की दादी का मन सुबह से ही उखड़ा हुआ था. कारण यह था कि जब वे मंदिर से पूजा कर के लौट रही थीं तो चौराहे पर उन का पैर एक बुझे हुए दीए पर पड़ गया था. पास ही फूल, चावल, काली दाल, काले तिल तथा सिंदूर बिखरा हुआ था. वे डर गईं और अपशकुन मनाती हुई अपने घर आ पहुंचीं .

घर पर संजू अकेला बैठा हुआ पढ़ रहा था. उस की मां को बाहर काम था. वे घर से जा चुकी थीं. पिताजी औफिस के काम से शहर से बाहर चले गए थे. उन्हें 2 दिन बाद लौटना था.

दादी के बड़बड़ाने से संजू चुप न रह सका. वह अपनी दादी से पूछ बैठा, ‘‘दादी, क्या बात हुई? क्यों सुबहसुबह परेशान हो रही हो?’’

अंधविश्वासी दादी ने सोचा, ‘संजू मुझे टोक रहा है.’ इसलिए वे उसे डांटती हुई फौरन बोलीं, ‘‘संजू, तू भी कैसी बातें करता है. बड़ा अपशकुन हो गया. किसी ने चौराहे पर टोनाटोटका कर रखा था. उसी में मेरा पैर पड़ गया. उस वक्त से मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

संजू बोला, ‘‘दादी, अगर ऐसा है तो मैं डाक्टर को बुला लाता हूं.’’  पर दादी अकड़ गईं और बोलीं, ‘‘तेरा भेजा तो नहीं फिर गया कहीं. ऐसे टोनेटोटके में डाक्टर को बुलाया जाता है या ओझा को. रहने दे, मैं अपनेआप संभाल लूंगी. वैसे भी आज सारा दिन बुरा निकलेगा.’’

संजू ने उन की बात पर कोई ध्यान न दिया और अपना होमवर्क करने लगा. संजू स्कूल चला गया तो दादी घर पर अकेली रह गईं. पर दादी का मन बेचैन था. उन्हें लगा कि कहीं किसी के साथ कोई अप्रिय घटना न घट जाए, क्योंकि जब से चौराहे में टोनेटोटके पर उन का पैर पड़ा था, वे अपशकुन की आशंका से कांप रही थीं. तभी कुरियर वाला आया और उन से हस्ताक्षर करवा उन्हें एक लिफाफा थमा कर चला गया. अब तो उन का दिल ही बैठ गया. लिफाफे में एक पत्र था जो अंगरेजी में था और अंगरेजी वे जानती नहीं थीं. उन्हें लगा जरूर इस में कोई बुरी खबर होगी.

इसी डर से उन्होंने वह पत्र किसी से नहीं पढ़वाया. दिन भर परेशान रहीं कि कहीं इस में कोई बुरी खबर न हो. शाम को जब संजू और उस की मां घर लौटे, तब दादी कांपते हाथों से संजू की मां जानकी को पत्र देती हुई बोलीं, ‘‘बहू, जरूर कोई बुरी खबर है. अपशकुन तो सुबह ही हो गया था. अब पढ़ो, यह पत्र कहां से आया है और इस में क्या लिखा है? जरूर कोई संकट आने वाला है. हाय, अब क्या होगा?’’

जानकी ने तार खोल कर पढ़ा लिखा था, ‘‘बधाई, संजय ने छात्रवृत्ति परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है.’’

पढ़ कर जानकी खिलखिला उठीं और अपनी सास से बोलीं, ‘‘मांजी, आप बेकार घबरा रही थीं, खबर बुरी नहीं बल्कि अच्छी है. हमारे संजू को छात्रवृत्ति मिलेगी. उस ने जो परीक्षा दी थी, उत्तीर्ण कर ली.’’ तब दादी का चेहरा देखने लायक था. किंतु दादी अंधविश्वास पर टिकी रहीं. वे रोज मंदिर जाया करती थीं. एक रोज सुबहसुबह दादी मंदिर गईं. थाली में नारियल, केला और लड्डू ले गईं. थाली मूर्ति के सामने ही रख दी और आंखें बंद कर के मन ही मन जाप करने लगीं. इसी बीच वहीं पेड़ पर बैठा एक बंदर पेड़ से उतरा और चुपके से केला व लड्डू ले कर पेड़ पर चढ़ गया.

दादी ने जब आंखें खोलीं और थाली में से केला व लड्डू गायब पाया तो खुश हो कर अपनेआप से बोलीं, ‘‘प्रभु, चमत्कार हो गया. आज आप ने स्वयं ही भोजन ग्रहण कर लिया.’’ वे खुशीखुशी मंदिर से घर लौट आईं. घर पर जब उन्हें सब ने खुश देखा तो संजू कहने लगा, ‘‘दादी, आज तो लगता है कोई वरदान मिल गया?’’

दादी प्रसन्न थी, बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या?’’

फिर दादी ने सारा किस्सा कह सुनाया. संजू खिलखिला कर हंस पड़ा तथा यह कहता हुआ बाहर दौड़ गया, ‘‘इस महल्ले में चोरउचक्कों की भी कमी नहीं है. फिर पिछले कुछ समय से यहां काफी बंदर आए हुए हैं लगता है प्रसाद कोई बंदर ही ले गया होगा.’’ सुन कर दादी ने मुंह बिचकाया. फिर सोचने लगीं कि आज शुभ दिन है. आज मेरी मनौती पूरी हुई. मैं चाहती थी कि मेरा बुढ़ापा सुखचैन से बीते. रोज की तरह उस शाम को दादी टहलने निकल गईं. वे पार्क में जाने के लिए सड़क के किनारे चली जा रही थीं. साथ ही सुबह हुए चमत्कार के बारे में सोच रही थीं.

तभी एक किशोर स्कूटी सीखता हुआ आया और दादी को धकियाता हुआ आगे बढ़ गया. दादी को पता ही नहीं चला, वे लड़खड़ा कर हाथों के बल सड़क पर जा गिरीं. हड़बड़ाहट में उठ तो गईं, पर घर आतेआते उन के दाएं हाथ में सूजन आ गई. वे दर्द के मारे कराहने लगीं. उन्हें फौरन डाक्टर को दिखाया गया. एक्सरे करने पर पता चला कि कलाई की हड्डी चटक गई है

एक माह के लिए प्लास्टर बंध गया. दादी ‘हाय मर गई, हाय मर गई’ की दुहाई देती रहीं.संजू चुटकी लेता हुआ दादी से बोला, ‘‘दादी, यही है वह चमत्कार, जिस के लिए आप सुबह से ही खुश हो रही थीं. तुम्हारी दोनों बातें गलत निकलीं. इसलिए भविष्य में ऐसे अंधविश्वासों के चक्कर में मत पड़ना.’’  दादी रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘हां बेटा, तुम ठीक कहते हो. हम ने तो सारी जिंदगी ही ऐसे भ्रमों में बिता दी पर मैं अब कभी शेष जीवन में इन खोखले चमत्कारों के जाल में नहीं पडूंगी.’’ Story In Hindi

Family Story In Hindi: नई जिंदगी – क्या फिर नई जिदंगी जी पाई लता

Family Story In Hindi: मुझे आज भी अपने घर का पता ठीक से याद है. आज भी मुझे बाबूजी, अम्मां और लाड़ले भाई बिल्लू की बहुत याद आती है. आज भी हर रात मुझे जलता हुआ अपना घर, चीखते हुए लोग और नकाब पहन कर अपनी ओर आते काले साए दिखने लगते हैं.

यहां इस बदनाम बस्ती में लोग दिन में आते हुए घबराते हैं, क्योंकि वे शरीफ लोग होते हैं. लेकिन रात होते ही वही शरीफ अपने जिस्म की भूख मिटाने यहां चले आते हैं. यहां एक शरीफ घर की बेटी भी रहती है, जो कुछ साल पहले एकमुश्त रकम दे कर खरीदी गई थी और अब हर रात टुकड़ों में बिकती है.

हां, वह शरीफ घर की बेटी मैं ही हूं. पर लोग मेरे खानदान के बारे में जानने नहीं आते, बल्कि अपनी हवस मिटाने आते हैं. कई तो बाबूजी जैसे बूढ़े, कई मेरे सपनों के राजकुमार जैसे जवान और कई मेरे भाई बिल्लू जैसे मुझ से उम्र में छोटे लड़के भी यहां आए और गए.

मैं ने हर किसी को अपना पता बताया और विनती की कि मेरे घर खबर दे दो कि मैं इस गंदी नाली में फंसी हुई हूं. मुझे आ कर ले जाएं. पर लोग आते और अपनी भूख मिटा कर चले जाते.

एक दिन ‘मौसी’ ने बताया, ‘‘आज रात जरा सजसंवर के बैठियो बन्नो, नया दारोगा आ रहा है.’’

हम वहां 3 लड़कियां थीं. तीनों को दारोगा के सामने यों पेश किया गया, मानो पान की गिलौरियां हों. मैं ने नजर उठा कर देखना भी जरूरी नहीं समझा. सोचा, बूढ़ा, जवान या बच्चा, जो भी होगा, कि अपना काम कर के चला ही जाएगा.

दारोगा ने शायद मौसी को इशारा कर के बता दिया था कि मैं उसे पसंद हूं. मौसी उन दोनों लड़कियों को ले कर चली गई. कमरे में बाकी बची मैं और वह दारोगा. वह बोला, ‘‘बैठो, मुझ से डरो नहीं, अपना नाम बताओ.’’

पहली बार मैं ने नजरें उठा कर देखा. वह लंबा, तगड़ा, गोराचिट्टा नौजवान था. मैं हैरान सी उसे देखती रही, तो वह फिर बोला, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

मै ने सोचा कि उस से पूछूं, ‘तुम्हें नाम से क्या काम?’ पर जबान ने साथ नहीं दिया.

मुझे चुप देख कर वह कुछ झुंझला गया और बोला, ‘‘क्या तुम गूंगी हो?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मैं गूंगी नहीं हूं, पर बेजबान हूं,’’

वह धीरे से बोला, ‘‘मेरा नाम निरंजन सिंह है. मैं मैनपुरी का रहने वाला हूं. बेसहारा लोगों की मदद करने के लिए ही पुलिस में भरती हुआ हूं. घर पर जमींदारी है, शौकिया नौकरी कर रहा हूं. जानना चाहता हूं, तुम यह काम शौकिया कर रही हो या मजबूरी में?’’

मैं खामोश ही रही. दारोगा निरंजन सिंह बोला, ‘‘अपना पता बताओ.’’

न चाहते हुए भी मैं ने अलीगढ़ का अपने घर का पता बता दिया. इस से पहले भी कितने ही आए और बहलाफुसला कर आस का दीया मेरे दिल में जला कर चले गए. इसी तरह मुझे यहां से नजात दिलाने का वादा कर के और घर का पता पूछ कर, मेरे जिस्म से खेल कर कितने ही जा चुके थे.

मैं ने सोचा कि चलो, इसे भी सह ही लूंगी. मौत बुलाने से आती तो कब की आ गई होतीअचानक दारोगा की आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा. वह कह रहा था, ‘‘हाथमुंह धो कर ढंग के कपड़े पहन कर बाहर आओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

दूसरे कमरे से मौसी और दारोगा की बात करने की आवाज अंदर आ रही थी. वह पूछ रहा था, ‘‘कितने में खरीदा था इसे? आज बेच दो. मैं साथ लिए जा रहा हूं. कीमत बोलो?’’

मौसी ने कहा, ‘‘सरकार, ले जाइए, जब मन भर जाए तो लौटा देना.’’

अब मैं ने आईने में खुद को देखा. लिपीपुती मैं कितनी गंदी लग रही थी. बहुत समय बाद खुद से नफरत होने लगी. मैं ने जल्दीजल्दी हाथमुंह धोया. एक सादा सा सूट पहना और बाहर चली आई.

मौसी ने मुझे चूम कर कहा, ‘‘दारोगा को खुश कर देना.’’

बाहर निकल कर मैं ने देखा कि दारोगा जीप में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था. फिर एक लंबा सफर शुरू हुआ. सफर के दौरान मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

नींद तभी खुली, जब दारोगा ने कंधे से झकझोर कर उठाया और मेरे हाथ में चाय का एक गिलास पकड़ा दिया.

भौचक्की सी मैं कभी चाय तो कभी दारोगा को देख रही थी. सवेरा हो चुका था. सबकुछ एकदम अनोखा लग रहा था. हम एक ढाबे के बाहर थे.

‘‘अभी आधे घंटे में हम अलीगढ़ पहुंच जाएंगे. तुम एक बार फिर अपनों के बीच होगी,’’ दारोगा ने मुसकराते हुए कहा.

कैसे बताऊं, अपनी उस हालत को. ऐसा लगा, मानो मेरे कटे पंख फिर से उग आए हों. मैं अब आजाद हूं, उड़ने के लिए. मेरी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

जल्दी ही हम अलीगढ़ पहुंच गए. सुबह के लगभग 7 बजे जीप हमारे घर के सामने जा कर रुक गई. दारोगा ने मुझे घर की कुंडी खटखटाने को कहा.

अंदर से एक मर्दाना आवाज आई, ‘‘कौन है?’’ और फिर कुंडी खुल गई.

आंगन में मां अंगीठी के लिए कोयले तोड़ रही थीं. दरवाजा खोलने वाला शायद मेरा भाई बिल्लू था. पिताजी चारपाई पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. इन 8 सालों में मैं काफी बदल गई थी, तभी तो मुझे किसी ने नहीं पहचाना.

मैं ‘मां… मां’ कहती अंदर लपकी. मां मुझे पहचानते ही चीख पड़ीं, ‘‘अरे, मेरी लता? कहां थी बेटी? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा,’’ और हम दोनों मांबेटी गले मिल कर रोने लगीं.

पर बिल्लू और पिताजी अजनबी बने दूर खड़े रहे. जब मैं पिताजी की तरफ बढ़ी तो वे बोले, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया. निकल जा इसी वक्त यहां से.’’

अब दारोगाजी पहली बार बोले, ‘‘आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते. यह बेचारी किसी तरह लोगों के घरों में बरतन धोधो कर जिंदा रही, क्या आप की यही नफरत देखने के लिए?’’

पिताजी की कड़कदार आवाज गूंजी, ‘‘जी हां, इस के कई खरीदार आशिकों के खत मुझे पहले भी मिल चुके हैं. मैं जानता हूं कि यह बरतन नहीं हमारी इज्जत धोती रही है.’’

मुझे लगा कि जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. ‘तो मेरे जिस्म को नोचने वालों में से कुछ ने यहां मेरे बताए पते पर खत डाले थे.’

तब तक बिल्लू बोल उठा, ‘‘तू जाती है या धक्के मार कर निकालूं बाहर?’’

मां रो रही थीं और पिताजी से कह रही थीं, ‘‘तुम्हें पता था, यह कहां है? और तुम इसे लेने नहीं गए. तुम ने मुझे भी कभी नहीं बताया. मेरी लता का क्या कुसूर है? इसे घर में रहने दो.’’

बिल्लू गुस्से से बोला, ‘‘मां, तुम तो पागल हो गई हो. दीदी तो 8 साल पहले मर गई… यह जाने कौन घुस रही है, हमारे घर में.’’

अब दारोगाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे ला कर जीप में बिठाया. फिर से एक अनजाना सफर शुरू हो गया. मैं काफी रो चुकी थी. अब तो आंसू भी सूख गए थे और दिल भी पत्थर बन चुका था.

मैनपुरी पहुंच कर हमारा सफर खत्म हुआ. जीप एक हवेली के सामने रुकी. दारोगाजी ने मुझे अपने साथ आने को कहा. 7-8 कमरे पार करने के बाद उन्होंने एक औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी है, भानु… और भानु, यह लता है. इस के मांबाप और भाई सब एक हादसे में मारे गए. अब यह यहां रहेगी. इसे मेरी बहन समझ कर पूरी इज्जत देना.’’

फिर दारोगा मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘लता, आज से तुम भानु की देखरेख में यहीं रहोगी.’’

मेरी आंखों में फिर आंसू भर आए. भानु भाभी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपने साथ अंदर ले गईं. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: टेढ़ीमेढ़ी डगर – सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

Hindi Family Story: सुमोना रोरो कर अब शांत हो चुकी थी. आज फिर विक्रांत ने उस पर हाथ उठाया था और फिर धक्का दे कर व बुरीबुरी गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया था. 5 वर्षीय पिंकी और 4 वर्षीय पंकज हिचकियों के साथ रोते हुए उस से चिपके हुए थे. तीनों के आंसू मिल कर एक हो रहे थे. अब यह सब आएदिन की बात हो गई थी.

सुमोना सोच रही थी कि कौन कहेगा कि वे दोनों पढ़ेलिखे संपन्न परिवारों से हैं. दोनों के ही परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से समाज में अच्छी हैसियत रखते थे. कहने को तो उन का प्रेम विवाह था. सजातीय होने के कारण और शायद परिजनों के खुले हुए विचारों का होने के कारण भी उन्हें विवाह में कोई अड़चन नहीं आई थी. सभी की रजामंदी से, बहुत धूमधड़ाके के साथ उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ था. दोनों के ही मातापिता ने किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बल्कि अगर यह कहें कि कुछ जरूरत से ज्यादा ही दिखावा किया गया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

शादी के थोड़े दिनों बाद ही विक्रांत का यह रूप उस के सामने आ गया था. सुमोना चौंकी जरूर थी. दोनों ने एकसाथ एमबीए किया था. सुमोना अपने बैच की टौपर थी. पूरा जोर लगाने के बाद भी विक्रांत कक्षा में दूसरे स्थान पर ही रहता था. दोनों के बीच एक स्वस्थ स्पर्धा रहती थी.

विक्रांत का दोस्त अंगद अकसर कहता था, “अच्छा है तुम दोनों एकदूसरे को डेट नहीं कर रहे हो. नहीं तो एकदूसरे का सिर ही फोड़ देते.”

पल्लवी हंसते हुए उस में जोड़ती, “और कहीं यह दोनों शादी कर लेते तो एकदूसरे का गला ही दबा देते,” सब खिलखिला कर हंस पड़ते और बात हवा में उड़ जाती.

पता नहीं साथियों के कहने का असर था या क्या, धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे और जब विक्रांत पर प्रेम का भूत चढ़ा तो वह इतना अधिक रोमांटिक हो गया कि खुद सुमोना को ही विश्वास नहीं होता कि यह वही अकड़ू, गुस्सैल विक्रांत है. सहेलियां भी सुमोना से जलने लगीं. विक्रांत हर दिन सुमोना के लिए कुछ न कुछ सरप्राइज प्लान करता और सब देखते रह जाते. विक्रांत कभी भी कुछ छिपा कर नहीं करता सबकुछ सब के सामने खुलाखुला.

दोस्त कहते, “शादी के बाद विक्रांत तो जोरू का गुलाम बन जाएगा,”
विक्रांत हंस कर जवाब देता, “हां भाई बन जाऊंगा. तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? तुम भी बन जाना पर अपनी बीवी के मेरी नहीं,” और चारों ओर जलन भरी खिलखिलाहट बिखर जाती.

सुमोना को खुद भी विक्रांत का यह रूप बहुत भाता था. वह तो खुशियों के सतरंगे आकाश में विचरण कर रही थी मगर कहां जानती थी कि कुदरत उसे अंधेरे की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है.

पहला झटका सुमोना को शादी के बाद दूसरे महीने में ही लगा था. मात्र 15 दिनों के हनीमून ट्रिप से जब दोनों लौटे थे, 1 हफ्ता तो घर से बाहर ही नहीं निकले और विक्रांत तो जैसे चकोर की तरह उसे निहारता ही रहता था.

जौइंट फैमिली थी. घर में सासससुर के साथ जेठजेठानी भी थे पर जैसे विक्रांत को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. जेठानी जरूर इस बात पर ताना मारती रहती थी. वह एकांत में विक्रांत को समझाती तो वह कहता, “जो जलता है, उसे जलने दो.”

उस रात नई बहू के स्वागत में विक्रांत के चाचा ने पूरे परिवार को खाने पर बुलाया था. बहुत चाव से सजधज कर जब वह तैयार हुई और विक्रांत के सामने आई तो विक्रांत के चेहरे पर बल पड़ गया, “यह क्या पहना है तुम ने?”

“क्यों क्या हुआ? अच्छा तो है,” शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने पूछा.

“ब्लाउज का इतना गहरा गला किस को दिखाना चाहती हो?”

आहत हुई थी सुमोना, पर खुद को संभाल कर बोली, “अच्छा तो जनाब इनसिक्योर हो रहे हैं.”

“बदल कर नीचे आओ, मैं मां के पास इंतजार कर रहा हूं,” कहता हुआ विक्रांत कमरे से बाहर चला गया.

सुमोना का उखड़ा हुआ मूड, चाचा के घर में सब के स्नेहिल व्यवहार से फिर से खिल उठा था. खाना खा कर सब बैठक में बैठे हंसीमजाक कर रहे थे. बहुत ही खुशनुमा माहौल था. सब उस के रूप और व्यवहार की तारीफ कर रहे थे. थोड़ा हंसीमजाक भी चल रहा था. किसी बात पर सब के साथसाथ वह भी खिलखिला कर हंसी तो विक्रांत तेजी से चीखा, “क्या घोड़े की तरह हिनहिना रही हो… कायदे से हंस भी नहीं सकती हो क्या?”

सब चुप हो गए और उसी असहनीय शांति के बीच वापस घर चले आए. कोई कुछ नहीं बोला. कमरे में आ कर वह बहुत रोई. विक्रांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह करवट बदल कर आराम से सो गया. सुबह भी घर में इस बारे में कोई बात नहीं हुई. न ही किसी ने उस से कुछ कहा, न ही विक्रांत को कुछ समझाया. जेठानी के चेहरे पर जरूर व्यंग्य भरी मुसकान पूरे दिन तैरती रही.

कुछ ही दिनों बाद विक्रांत के किसी दोस्त की ऐनिवर्सरी की पार्टी थी. विक्रांत ने उसे शाम के लिए तैयार होने के साथसाथ यह भी हिदायत दी की देखो, यह मेरे दोस्त की पार्टी है, शराफत वाले कपड़े ही पहनना. बल्कि ऐसा करो की मुझे दिखा दो कि तुम क्या पहनने वाली हो. यह तो बस शुरुआत थी. उस के पहनने, बोलने पर टिप्पणी करना, टोकाटाकी करना, व्यंग्य करना अब अंगद के लिए आम बात हो गई थी.

उस दिन पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब संगीत की लहरों पर थिरक रहे थे. संगीत वैसे भी सुमोना की कमजोरी थी. वह भी पूरी तरह से संगीत में डूबी हुई थिरक रही थी. अचानक अंगद चिल्लाया, “क्या नचनिया की तरह ठुमके लगाए जा रही हो? अब पिछली बातें भूल जाओ, शरीफ घर की बहू बन गई हो तो शरीफों की तरह रहना सीखो.”

इस अपमान को वह सह नहीं पाई और रोते हुए बाहर की ओर भागी. विक्रांत भी उस के पीछेपीछे आया. घर पहुंचते ही उस ने अपनी सासूमां को पूरी बात बताई पर उन की प्रतिक्रिया से वह चकित रह गईं,”देख बहू, पतिपत्नी के बीच में ऐसी छोटीमोटी बातें होती रहती हैं. इन्हें तूल नहीं देना चाहिए. जाओ जा कर आराम करो,” कहते हुए उन्होंने उस की पीठ थपथपाई और अपने कमरे में चली गईं.

रात उस ने आंखों में ही काटी. सुबह होते ही वह अपने मायके चली आई. अपने मातापिता की प्रतिक्रिया से तो वह बुरी तरह आहत ही हो गई. पिता ने ठहरे हुए शब्दों में उसे समझाया, “देखो सुमोना, हर दंपति के बीच में ऐसे मौके आते ही हैं. बात को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है. पुरुष कभीकभार कुछ ऊंचानीचा बोल ही देते हैं. छोटीछोटी बातों को पकड़ कर बैठोगी तो खुद भी दुखी रहोगी और हमें भी दुखी करती रहोगी. अब बड़ी हो गई हो, अपनी जिम्मेदारियों को समझो. हमारी परवरिश पर उंगली उठाने का मौका उन लोगों को मत देना. बस, इतनी सी अपेक्षा है तुम से.“

पिता तो अपनी बात कह कर अपने कमरे में चले गए, उस ने आशा भरी नजरों से मां की ओर देखा. कुछ देर शांत रहने के बाद मां बोलीं, “तुम अगर यह सारी बातें अपना मन हलका करने के लिए हमारे साथ साझा कर रही हो, तो ठीक है. पर अगर तुम को लगता है कि हम लोग दामादजी से इस बारे में कोई बात करेंगे तो ऐसा नहीं होगा.”

“मां…”

बात बीच में काट कर मां बोलीं, “सुमी, हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है. इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि तुम लड़का बन जाओ. लड़की हो, लड़की की तरह रहना सीखो. लड़कियों को थोड़ा दबना पड़ता है, सहना पड़ता है. गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर चलती है.”

“मां, मुझे इस तरह अपमानित करने का अधिकार विक्रांत को नहीं है. ”

“सुमी, तुम ने तो खुद देखा है, तुम्हारे पापा कितनी बार मुझे क्या कुछ नहीं कह देते हैं. तो क्या मैं उन की शिकायत ले कर अपने मायके जाती हूं? नहीं न?”

“मां, पर मैं यह अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.”

“सुमी, यह शादी तुम्हारी पसंद से, तुम्हारी खुशी के लिए करी गई है. इसे निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. अभी हमें तुम्हारी दोनों छोटी बहनों की शादी भी करनी है. अगर बड़ी बहन का डाइवोर्स हो गया तो दोनों बहनों की शादी में बहुत दिक्कत आएगी. 2-4 चार दिन रहो आराम से मायके में और फिर अपने घर चली जाना. रात बहुत हो गई है, जाओ सो जाओ.”

शाम को औफिस से लौटते हुए विक्रांत उस के मायके चला आया. बिना कुछ कहेसुने वह विक्रांत के साथ अपने ससुराल चली आई. अपमानित होने का एक अनवरत सिलसिला आरंभ हो गया था. अब उसे अपने जीवन की सब से बड़ी भूल का एहसास हो रहा था. भावना में बह कर उस ने हनीमून पर से ही अपनी लगीलगाई नौकरी को इस्तीफा दे दिया था क्योंकि विक्रांत ने कहा था, “जानेमन, तुम दूसरे शहर में नौकरी करोगी तो मैं तो वियोग में ही मर जाऊंगा. 1-2 साल साथ में जी लेते हैं फिर तुम भी नौकरी कर लेना. तुम तो टौपर हो, तुम्हें तो कभी भी नौकरी मिल जाएगी.”

जाने उसे कब नींद आई. अगले दिन जब सुबह सो कर उठी तो उसे चक्कर आ रहे थे. उसे लगा कि उसे तनाव की वजह से ऐसा हो रहा है. पर सासूमां की अनुभवी आंखें शायद समझ गई थीं. उन्होंने डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवाई और खुशी से झूमती हुई घर वापस आईं. सालभर के भीतर ही पिंकी उस की गोद में खेलने लगी थी और लगभग 1 साल बाद ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. 2 बेटियों की मां, उस की जेठानी जलभुन गई थीं. अब वे भी उसे बातबात पर कुछ न कुछ बोलती रहतीं पर बेटा पा कर सास अब उस का ही पक्ष लेतीं पर बच्चों की मां को नौकरी करने की अनुमति इस घर में नहीं थी.

धीरेधीरे विक्रांत शराब पीने लगा. सब के बीच उस का अपमान करना अब रोज की बात थी. कमरे में अगर वे कुछ समझाने की कोशिश करतीं भी तो विक्रांत उस पर हाथ उठा देता. बच्चे सहम जाते.

कालेज में विक्रांत के परम मित्र थे अंगद. एक ही शहर में होने के कारण उन की दोस्ती अभी भी कायम थी . अगर उन के सामने कुछ भी घटित होता तो वे कभी विक्रांत को समझाते और कभी उसे. पर यह बात न तो विक्रांत को अच्छी लगती न ही परिजनों को इसलिए उन्होंने विक्रांत के घर आना कम कर दिया पर मोबाइल से वे सुमोना से संपर्क में रहते. सुमोना भी जब भी परेशान होती एकांत पा कर अंगदजी को ही फोन लगा लेती. अंगद हमेशा उस का हौसला बढ़ाते. अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते.

उस दिन भी अंगद घर आए थे. जब विक्रांत ने सुमोना को गाली दी तो अंगद बच्चों का वास्ता दे कर उसे समझाने लगे पर विक्रांत तो जैसे अपना आपा ही खो चुका था. उस ने उन दोनों के रिश्ते पर ही उंगली उठा दी. अपमान से तिलमिलाए हुए अंगद उठ कर चले गए और अंगद का सारा गुस्सा विक्रांत ने उस पर ही उतार दिया.

आज जिस तरह से विक्रांत ने उसे पीटा था, उसे देख कर पंकज सहम गया था और उस घटना के बाद घंटे भर तक पिंकी डर कर कांपती रही थी और उस के आंसू रुके ही नहीं थे. सुमोना को लगा ये मेरे बच्चे हैं उन्हें डर और उलझी हुई जिंदगी नहीं दे सकती हूं. अब अपने बच्चों के लिए मुझे ही कुछ करना होगा. यह निर्णय लेने के बाद सुमोना स्वयं को भविष्य में आने वाले कठिन समय के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी. अब उसे पता था कि यह लड़ाई उस की अकेले की है. इस युद्ध में कोई उस के साथ नहीं खड़ा होगा. पर फिर भी सुमोना हलका महसूस कर रही थी.

अगले दिन विक्रांत के जाने के बाद सुमोना लैपटौप ले कर बैठ गई और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेज कर ही अपने कमरे से बाहर आई. 2 दिनों तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया. पर वह निराश नहीं हुई, जानती थी कोर्स करने के बाद 5 साल का लंबा अंतराल लिया था उस ने, तो थोड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिलेगी ही. पर उसे विश्वास था कि उस की योग्यता को देखते हुए उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

मगर हमेशा अपना सोचा कहां होता है. इस से पहले कि सुमोना की नौकरी लगती विक्रांत ने उस के हाथ में तलाक के कागज थमा दिए. दूसरा विस्फोट यह था कि विक्रांत ने कोर्ट से अपने बच्चों की कस्टडी मांगी थी, क्योंकि सुमोना बेरोजगार थी. सुमोना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी. पर सुमोना ने रोनेचिल्लाने की बजाय आगे की रणनीति पर विचार करना आरंभ किया. उसे किसी से किसी सहारे की उम्मीद नहीं थी. एक ही व्यक्ति था जिस से वह कोई मदद मांग सकती थी. तो उस ने अंगद को फोन मिलाया. पूरी स्थिति बता कर उस ने किराए का मकान ढूंढ़ने का अनुरोध किया.

विक्रांत के आने से पहले ही सुमोना अपने दोनों बच्चों को ले कर एक अटैची के साथ घर से चली गई. अंगद उस के विश्वास पर खरा उतरा और उस ने अपने किसी परिचित के यहां उसे पेइंगगेस्ट बनवा दिया. अंगद ने उसे मायके जाने की भी सलाह दी पर सुमोना ने यह कह कर मना कर दिया कि यह मेरी लडाई है मैं इस में उन लोगों को परेशान नहीं करना चाहती.

रात में जब विक्रांत लौटा तो इस नए घटनाक्रम से बुरी तरह बौखला गया,
“आप लोगों ने उसे रोका क्यों नहीं? वह इस तरह से मेरे बच्चों को ले कर नहीं जा सकती.”

“हम लोगों को लगा कि आप लोगों की आपस में बात हो गई होगी,” भाभी मुंह बना कर बोलीं.

विक्रांत अपने कमरे में चला गया. उस के जीवन में इतना बड़ा भूचाल आया था और परिवार का कोई सदस्य उस के पास हमदर्दी दिखाने भी नहीं आया. समझ नहीं पा रहा था कि जिन परिजनों पर सुमोना जान छिड़कती थी, उस के जाने का किसी को कोई दुख नहीं था. आधी रात को विक्रांत को भूख लगी. उठ कर बाहर आया, डाइनिंग टेबल पर 2 रोटी और सब्जी ढकी रखी थी, वही खा कर वापस जा कर सो गया.

सुमोना होती तो गरम कर, मानमनुहार से सलाद, अचार के साथ उसे खिलाती. अगली सुबह भी सब कुछ सामान्य ढंग से होता रहा. जब वह बाहर निकलने लगा तब मां ने पूछा, “सुमोना से कुछ बात हुई क्या?”

“नहीं, खुद गई है तो खुद वापस आएगी. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है,” गुस्से में विक्रांत बोला.

“और वह तलाकनामा?” भाभी ने पूछा.

“उसी से उस की अक्ल ठिकाने आएगी आप देख लीजिएगा,” कहता हुआ विक्रांत बाहर चला गया.

समय के तो जैसे पंख होते हैं, तेजी से खिसकने लगा. दिन, महीना और फिर साल बीत गया. न सुमोना आई, न उस का कोई फोन आया. विक्रांत ने भी अपनी अकड़ में कोई फोन नहीं किया था पर इस दौरान विक्रांत ने सुमोना की कमी को शिद्दत से महसूस किया. अपनी उलझनों के कारण उस का काम में मन नहीं लगता था. प्राइवेट कंपनी उस को क्यों रखती अतः उसे नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार देवर अब भाभी पर अब बोझ था. वही भाभी जो उस के साथ मिल कर सुमोना को ताने सुनाया करती थीं, अब उसे ताने देती थीं, “जो अपनी पत्नी और बच्चों का नहीं हुआ वह किसी और का कैसे होगा.“

अपने ही घर में उस की स्थिति अनचाहे मेहमान जैसी हो गई थी. अब विक्रांत को अपने जीवन में सुमोना का महत्त्व समझ में आ रहा था. वह खुद को सुमोना से मिलने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि तभी उस के ताबूत में आखिरी कील के रूप में हस्ताक्षर किया हुआ तलाकनामा रजिस्टर्ड डाक से उस के पास आ गया. साथ ही सुमोना ने कोर्ट के पास अपने बच्चों की कस्टडी का दावा भी ठोका था क्योंकि अब वह बेरोजगार नहीं थी बल्कि एक बड़ी कंपनी की एचआर हैड थी. Hindi Family Story

Hindi Family Story: जीत – रमेश अपने मां-बाप के सपने को पूरा करना चाहता था

Hindi Family Story: रमेश चंद की पुलिस महकमे में पूरी धाक थी. आम लोग उसे बहुत इज्जत देते थे, पर थाने का मुंशी अमीर चंद मन ही मन उस से रंजिश रखता था, क्योंकि उस की ऊपरी कमाई के रास्ते जो बंद हो गए थे. वह रमेश चंद को सबक सिखाना चाहता था. 25 साला रमेश चंद गोरे, लंबे कद का जवान था. उस के पापा सोमनाथ कर्नल के पद से रिटायर हुए थे, जबकि मम्मी पार्वती एक सरकारी स्कूल में टीचर थीं. रमेश चंद के पापा चाहते थे कि उन का बेटा भी सेना में भरती हो कर लगन व मेहनत से अपना मुकाम हासिल करे. पर उस की मम्मी चाहती थीं कि वह उन की नजरों के सामने रह कर अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन पर खेतीबारी करे.

रमेश चंद ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपने मांबाप के सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भरती होगा और जहां कहीं भी उसे भ्रष्टाचार की गंध मिलेगी, उस को मिटा देने के लिए जीजान लगा देगा. रमेश चंद की पुलिस महकमे में हवलदार के पद पर बेलापुर थाने में बहाली हो गई थी. जहां पर अमीर चंद सालों से मुंशी के पद पर तैनात था. रमेश चंद की पारखी नजरों ने भांप लिया था कि थाने में सब ठीक नहीं है. रमेश चंद जब भी अपनी मोटरसाइकिल पर शहर का चक्कर लगाता, तो सभी दुकानदारों से कहता कि वे लोग बेखौफ हो कर कामधंधा करें. वे न तो पुलिस के खौफ से डरें और न ही उन की सेवा करें.

एक दिन रमेश चंद मोटरसाइकिल से कहीं जा रहा था. उस ने देखा कि एक आदमी उस की मोटरसाइकिल देख कर अपनी कार को बेतहाशा दौड़ाने लगा था.

रमेश चंद ने उस कार का पीछा किया और कार को ओवरटेक कर के एक जगह पर उसे रोकने की कोशिश की. पर कार वाला रुकने के बजाय मोटरसाइकिल वाले को ही अपना निशाना बनाने लगा था. पर इसे रमेश चंद की होशियारी समझो कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई थी. रमेश चंद ने कार में बैठे 2 लोगों को धुन डाला था और एक लड़की को कार के अंदर से महफूज बाहर निकाल लिया.

दरअसल, दोनों लोग अजय और निशांत थे, जो कालेज में पढ़ने वाली शुभलता को उस समय अगवा कर के ले गए थे, जब वह बारिश से बचने के लिए बस स्टैंड पर खड़ी घर जाने वाली बस का इंतजार कर रही थी. निशांत शुभलता को जानता था और उस ने कहा था कि वह भी उस ओर ही जा रहा है, इसलिए वह उसे उस के घर छोड़ देगा. शुभलता की आंखें तब डर से बंद होने लगी थीं, जब उस ने देखा कि निशांत तो गाड़ी को जंगली रास्ते वाली सड़क पर ले जा रहा था. उस ने गुस्से से पूछा था कि वह गाड़ी कहां ले जा रहा है, तो उस के गाल पर अजय ने जोरदार तमाचा जड़ते हुए कहा था, ‘तू चुपचाप गाड़ी में बैठी रह, नहीं तो इस चाकू से तेरे जिस्म के टुकड़ेटुकड़े कर दूंगा.’

तब निशांत ने अजय से कहा था, ‘पहले हम बारीबारी से इसे भोगेंगे, फिर इस के जिस्म को इतने घाव देंगे कि कोई इसे पहचान भी नहीं सकेगा.’ पर रमेश चंद के अचानक पीछा करने से न केवल उन दोनों की धुनाई हुई थी, बल्कि एक कागज पर उन के दस्तखत भी करवा लिए थे, जिस पर लिखा था कि भविष्य में अगर शहर के बीच उन्होंने किसी की इज्जत पर हाथ डाला या कोई बखेड़ा खड़ा किया, तो दफा 376 का केस बना कर उन को सजा दिलाई जाए. शुभलता की दास्तान सुन कर रमेश चंद ने उसे दुनिया की ऊंचनीच समझाई और अपनी मोटरसाइकिल पर उसे उस के घर तक छोड़ आया. शुभलता के पापा विशंभर एक दबंग किस्म के नेता थे. उन के कई विरोधी भी थे, जो इस ताक में रहते थे कि कब कोई मुद्दा उन के हाथ आ जाए और वे उन के खिलाफ मोरचा खोलें.

विशंभर विधायक बने, फिर धीरेधीरे अपनी राजनीतिक इच्छाओं के बलबूते पर चंद ही सालों में मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ गए. सिर्फ मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता ही इस बात को जानती थीं कि उन की बेटी शुभलता को बलात्कारियों के चंगुल से रमेश चंद ने बचाया था. बेलापुर थाने में नया थानेदार रुलदू राम आ गया था. उस ने अपने सभी मातहत मुलाजिमों को निर्देश दिया था कि वे अपना काम बड़ी मुस्तैदी से करें, ताकि आम लोगों की शिकायतों की सही ढंग से जांच हो सके. थोड़ी देर के बाद मुंशी अमीर चंद ने थानेदार के केबिन में दाखिल होते ही उसे सैल्यूट किया, फिर प्लेट में काजू, बरफी व चाय सर्व की. थानेदार रुलदू राम चाय व बरफी देख कर खुश होते हुए कहने लगा, ‘‘वाह मुंशीजी, वाह, बड़े मौके पर चाय लाए हो. इस समय मुझे चाय की तलब लग रही थी…

‘‘मुंशीजी, इस थाने का रिकौर्ड अच्छा है न. कहीं गड़बड़ तो नहीं है,’’ थानेदार रुलदू राम ने चाय पीते हुए पूछा.

‘‘सर, वैसे तो इस थाने में सबकुछ अच्छा है, पर रमेश चंद हवलदार की वजह से यह थाना फलफूल नहीं रहा है,’’ मुंशी अमीर चंद ने नमकमिर्च लगाते हुए रमेश चंद के खिलाफ थानेदार को उकसाने की कोशिश की.

थानेदार रुलदू राम ने मुंशी से पूछा, ‘‘इस समय वह हवलदार कहां है?’’

‘‘जनाब, उस की ड्यूटी इन दिनों ट्रैफिक पुलिस में लगी हुई है.’’

‘‘इस का मतलब यह कि वह अच्छी कमाई करता होगा?’’ थानेदार ने मुंशी से पूछा.

‘‘नहीं सर, वह तो पुश्तैनी अमीर है और ईमानदारी तो उस की रगरग में बसी है. कानून तोड़ने वालों की तो वह खूब खबर लेता है. कोई कितनी भी तगड़ी सिफारिश वाला क्यों न हो, वह चालान करते हुए जरा भी नहीं डरता.’’

इतना सुन कर थानेदार रुलदू राम ने कहा, ‘‘यह आदमी तो बड़ा दिलचस्प लगता है.’’

‘‘नहीं जनाब, यह रमेश चंद अपने से ऊपर किसी को कुछ नहीं समझता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि या तो इस का ट्रांसफर यहां से हो जाए या हम ही यहां से चले जाएं,’’ मुंशी अमीर चंद ने रोनी सूरत बनाते हुए थानेदार से कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. आज उस को यहां आने दो, फिर उसे बताऊंगा कि इस थाने की थानेदारी किस की है… उस की या मेरी?’’

तभी थाने के कंपाउंड में एक मोटरसाइकिल रुकी. मुंशी अमीर चंद दबे कदमों से थानेदार के केबिन में दाखिल होते हुए कहने लगा, ‘‘जनाब, हवलदार रमेश चंद आ गया है.’’

अर्दली ने आ कर रमेश चंद से कहा, ‘‘नए थानेदार साहब आप को इसी वक्त बुला रहे हैं.’’

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार रुलदू राम को सैल्यूट मारा.

‘‘आज कितना कमाया?’’ थानेदार रुलदू राम ने हवलदार रमेश चंद से पूछा.

‘‘सर, मैं अपने फर्ज को अंजाम देना जानता हूं. ऊपर की कमाई करना मेरे जमीर में शामिल नहीं है,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

थानेदार ने उसे झिड़कते हुए कहा, ‘‘यह थाना है. इस में ज्यादा ईमानदारी रख कर काम करोगे, तो कभी न कभी तुम्हारे गरीबान पर कोई हाथ डाल कर तुम्हें सलाखों तक पहुंचा देगा. अभी तुम जवान हो, संभल जाओ.’’

‘‘सर, फर्ज निभातेनिभाते अगर मेरी जान भी चली जाए, तो कोई परवाह नहीं,’’ हवलदार रमेश चंद थानेदार रुलदू राम से बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, तुम्हारे ये प्रवचन सुनने के लिए मैं ने तुम्हें यहां नहीं बुलाया था,’’ थानेदार रुलदू राम की आवाज में तल्खी उभर आई थी.

दरवाजे की ओट में मुंशी अमीर चंद खड़ा हो कर ये सब बातें सुन रहा था. वह मन ही मन खुश हो रहा था कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. हवलदार रमेश चंद के बाहर जाते ही मुंशी अमीर चंद थानेदार से कहने लगा, ‘‘साहब, छोटे लोगों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. आप ने हवलदार को उस की औकात बता दी.’’

‘‘चलो जनाब, हम बाजार का एक चक्कर लगा लें. इसी बहाने आप की शहर के दुकानदारों से भी मुलाकात हो जाएगी और कुछ खरीदारी भी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मैं जरा क्वार्टर जा कर अपनी पत्नी से पूछ लूं कि बाजार से कुछ लाना तो नहीं है?’’ थानेदार ने मुंशी से कहा.

क्वार्टर पहुंच कर थानेदार रुलदू राम ने देखा कि उस की पत्नी सुरेखा व 2 महिला कांस्टेबलों ने क्वार्टर को सजा दिया था. उस ने सुरेखा से कहा, ‘‘मैं बाजार का मुआयना करने जा रहा हूं. वहां से कुछ लाना तो नहीं है?’’

‘‘बच्चों के लिए खिलौने व फलसब्जी वगैरह देख लेना,’’ सुरेखा ने कहा.

मुंशी अमीर चंद पहले की तरह आज भी जिस दुकान पर गया, वहां नए थानेदार का परिचय कराया, फिर उन से जरूरत का सामान ‘मुफ्त’ में लिया और आगे चल दिया. वापसी में आते वक्त सामान के 2 थैले भर गए थे. मुंशी अमीर चंद ने बड़े रोब के साथ एक आटोरिकशा वाले को बुलाया और उस से थाने तक चलने को कहा. थानेदार को मुंशी अमीर चंद का रसूख अच्छा लगा. उस ने एक कौड़ी भी खर्च किए बिना ढेर सारा सामान ले लिया था. अगले दिन थानेदार के जेहन में रहरह कर यह बात कौंध रही थी कि अगर समय रहते हवलदार रमेश चंद के पर नहीं कतरे गए, तो वह उन सब की राह में रोड़ा बन जाएगा. अभी थानेदार रुलदू राम अपने ही खयालों में डूबा था कि तभी एक औरत बसंती रोतीचिल्लाती वहां आई.

उस औरत ने थानेदार से कहा, ‘‘साहब, थाने से थोड़ी दूरी पर ही मेरा घर है, जहां पर बदमाशों ने रात को न केवल मेरे मर्द करमू को पीटा, बल्कि घर में जो गहनेकपड़े थे, उन पर भी हाथ साफ कर गए. जब मैं ने अपने पति का बचाव करना चाहा, तो उन्होंने मुझे धक्का दे दिया. इस से मुझे भी चोट लग गई.’’

थानेदार ने उस औरत को देखा, जो माथे पर उभर आई चोटों के निशान दिखाने की कोशिश कर रही थी. थानेदार ने उस औरत को ऐसे घूरा, मानो वह थाने में ही उसे दबोच लेगा. भले ही बसंती गरीब घर की थी, पर उस की जवानी की मादकता देख कर थानेदार की लार टपकने लगी थी. अचानक मुंशी अमीर चंद केबिन में घुसा. उस ने बसंती से कहा, ‘‘साहब ने अभी थाने में जौइन किया है. हम तुम्हें बदमाशों से भी बचाएंगे और जो कुछवे लूट कर ले गए हैं, उसे भी वापस दिलाएंगे. पर इस के बदले में तुम्हें हमारा एक छोटा सा काम करना होगा.’’

‘‘कौन सा काम, साहबजी?’’ बसंती ने हैरान हो कर मुंशी अमीर चंद से पूछा.

‘‘हम अभी तुम्हारे घर जांचपड़ताल करने आएंगे, वहीं पर तुम्हें सबकुछ बता देंगे.’’

‘‘जी साहब,’’ बसंती उठते हुए बोली.

थानेदार ने मुंशी से फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बसंती से क्या बात करनी है?’’

मुंशी ने कहा, ‘‘हुजूर, पुलिस वालों के लिए मरे हुए को जिंदा करना और जिंदा को मरा हुआ साबित करना बाएं हाथ का खेल होता है. बस, अब आप आगे का तमाशा देखते जाओ.’’ आननफानन थानेदार व मुंशी मौका ए वारदात पर पहुंचे, फिर चुपके से बसंती व उस के मर्द को सारी प्लानिंग बताई. इस के बाद मुंशी अमीर चंद ने कुछ लोगों के बयान लिए और तुरंत थाने लौट आए. इधर हवलदार रमेश चंद को कानोंकान खबर तक नहीं थी कि उस के खिलाफ मुंशी कैसी साजिश रच रहा था.

थानेदार ने अर्दली भेज कर रमेश चंद को थाने बुलाया.

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार को सैल्यूट मारने के बाद पूछा, ‘‘सर, आप ने मुझे याद किया?’’

‘‘देखो रमेश, आज सुबह बसंती के घर में कोई हंगामा हो गया था. मुंशीजी अमीर चंद को इस बाबत वहां भेजना था, पर मैं चाहता हूं कि तुम वहां मौका ए वारदात पर पहुंच कर कार्यवाही करो. वैसे, हम भी थोड़ी देर में वहां पहुंचेंगे.’’

‘‘ठीक है सर,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

जैसे ही रमेश चंद बसंती के घर पहुंचा, तभी उस का पति करमू रोते हुए कहने लगा, ‘‘हुजूर, उन गुंडों ने मारमार कर मेरा हुलिया बिगाड़ दिया. मुझे ऐसा लगता है कि रात को आप भी उन गुंडों के साथ थे.’’ करमू के मुंह से यह बात सुन कर रमेश चंद आगबबूला हो गया और उस ने 3-4 थप्पड़ उसे जड़ दिए.

तभी बसंती बीचबचाव करते हुए कहने लगी, ‘‘हजूर, इसे शराब पीने के बाद होश नहीं रहता. इस की गुस्ताखी के लिए मैं आप के पैर पड़ कर माफी मांगती हूं. इस ने मुझे पूरी उम्र आंसू ही आंसू दिए हैं. कभीकभी तो ऐसा मन करता है कि इसे छोड़ कर भाग जाऊं, पर भाग कर जाऊंगी भी कहां. मुझे सहारा देने वाला भी कोई नहीं है…’’

‘‘आप मेरी खातिर गुस्सा थूक दीजिए और शांत हो जाइए. मैं अभी चायनाश्ते का बंदोबस्त करती हूं.’’

बसंती ने उस समय ऐसे कपड़े पहने हुए थे कि उस के उभार नजर आ रहे थे. शरबत पीते हुए रमेश की नजरें आज पहली दफा किसी औरत के जिस्म पर फिसली थीं और वह औरत बसंती ही थी. रमेश चंद बसंती से कह रहा था, ‘‘देख बसंती, तेरी वजह से मैं ने तेरे मर्द को छोड़ दिया, नहीं तो मैं इस की वह गत बनाता कि इसे चारों ओर मौत ही मौत नजर आती.’’ यह बोलते हुए रमेश चंद को नहीं मालूम था कि उस के शरबत में तो बसंती ने नशे की गोलियां मिलाई हुई थीं. उस की मदहोश आंखों में अब न जाने कितनी बसंतियां तैर रही थीं. ऐन मौके पर थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद वहां पहुंचे. बसंती ने अपने कपड़े फाड़े और जानबूझ कर रमेश चंद की बगल में लेट गई. उन दोनों ने उन के फोटो खींचे. वहां पर शराब की 2 बोतलें भी रख दी गई थीं. कुछ शराब रमेश चंद के मुंह में भी उड़ेल दी थी.

मुंशी अमीर चंद ने तुरंत हैडक्वार्टर में डीएसपी को इस सारे कांड के बारे में सूचित कर दिया था. डीएसपी साहब ने रिपोर्ट देखी कि मौका ए वारदात पर पहुंच कर हवलदार रमेश चंद ने रिपोर्ट लिखवाने वाली औरत के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. डीएसपी साहब ने तुरंत हवलदार रमेश चंद को नौकरी से सस्पैंड कर दिया. अब सारा माजरा उस की समझ में अच्छी तरह आ गया था, पर सारे सुबूत उस के खिलाफ थे. अगले दिन अखबारों में खबर छपी थी कि नए थानेदार ने थाने का कार्यभार संभालते ही एक बेशर्म हवलदार को अपने थाने से सस्पैंड करवा कर नई मिसाल कायम की. रमेश चंद हवालात में बंद था. उस पर बलात्कार करने का आरोप लगा था. इधर जब मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता को इस बारे में पता लगा कि रमेश चंद को बलात्कार के आरोप में हवालात में बंद कर दिया गया है, तो उस का खून खौल उठा. उस ने सुबह होते ही थाने का रुख किया और रमेश चंद की जमानत दे कर रिहा कराया. रमेश चंद ने कहा, ‘‘मैडम, आप ने मेरी नीयत पर शक नहीं किया है और मेरी जमानत करा दी. मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

चंद्रकांता बोली, ‘‘उस वक्त तुम ने मेरी बेटी को बचाया था, तब यह बात सिर्फ मुझे, मेरी बेटी व तुम्हें ही मालूम थी. अगर तुम मेरी बेटी को उन वहशी दरिंदों से न बचाते, तो न जाने क्या होता? और हमें कितनी बदनामी झेलनी पड़ती. आज हमारी बेटी शादी के बाद बड़ी खुशी से अपनी जिंदगी गुजार रही है.

‘‘जिन लोगों ने तुम्हारे खिलाफ साजिश रची है, उन के मनसूबों को नाकाम कर के तुम आगे बढ़ो,’’ चंद्रकांता ने रमेश चंद को धीरज बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं आज ही मुख्यमंत्रीजी से इस मामले में बात करूंगी, ताकि जिस सच के रास्ते पर चल कर अपना वजूद तुम ने कायम किया है, वह मिट्टी में न मिल जाए.’’ अगले दिन ही बेलापुर थाने की उस घटना की जांच शुरू हो गई थी. अब तो स्थानीय दुकानदारों ने भी अपनीअपनी शिकायतें लिखित रूप में दे दी थीं. थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद अब जेल की सलाखों में थे. रमेश चंद भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई जीत गया था. Hindi Family Story

Hindi Story: आलू वड़ा – मामी ने दीपक के साथ क्या किया

Hindi Story: ‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था. Hindi Story

खो गई जीनत : अम्मी और अब्बू में किसी हुई जीत

अम्मी और अब्बू की सिर्फ तसवीर ही देखी थी जीनत ने. उन का प्यार कैसा होता है, इस का उसे कोई अहसास ही नहीं था.

अम्मी और अब्बू के एक सड़क हादसे में मारे जाने के बाद मामी और मामू ही जीनत का सहारा थे.

मामू ने जीनत को पढ़ायालिखाया और इस लायक बनाया कि बड़ी हो कर वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके और मामू का सहारा बने.

मामू की माली हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. एक कमरे के मकान के बाहर मामू ने एक छोटा सा खोखा रख रखा था. वे उस में बिसातखाने का सामान रख कर बेचते थे.

जो औरतें सामान खरीदने आ भी जातीं, वे मामू से इतना मोलभाव करतीं कि किसी चीज पर मिलने वाला मुनाफा कम हो जाता और वैसे भी मामू को बाहर की औरतों से बहुत लगाव महसूस होता था और वे चाहते थे कि औरतें उन के खोखे पर

आ कर मामू से बातें करती ही रहें. उन की इसी कमजोरी का फायदा चालाक औरतें खूब उठाती थीं. वे मामू से खूब रसीली बातें करतीं और सामान सस्ते में खरीद लेतीं.

घर में 5 लोग थे. मामू, मामी, उन के 2 बच्चे और एक जीनत. इन सब का खर्च चलाने की जिम्मेदारी जीनत के कंधों पर ही थी, इसीलिए वह शहर के ही एक स्कूल में कंप्यूटर पढ़ाने का काम करने लगी थी.

जीनत के मामू जितने लापरवाह किस्म के थे, मामी उतनी ही सख्त थीं.

‘‘मैं तो कहती हूं कि घर में अगर लड़की हो तो उस पर एक नजर टेढ़ी ही रखनी चाहिए और घर की अंदरूनी बातों में लड़की जात को ज्यादा शामिल नहीं करना चाहिए,’’ मामी ने पड़ोस में रहने वाली शकीला से कहा और शकीला ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘हां… सही कहा आप ने और इसीलिए मैं ने अपनी बेटी सलमा का स्कूल जाना बंद करवा दिया है. अब 8वीं जमात तो पास हो ही गई है, आगे की पढ़ाई के लिए लड़कों वाले स्कूल में भेजना पड़ेगा और हम ने तो सुना है

कि वहां लड़का और लड़की एकसाथ बैठते हैं.’’

मामी की इसी सख्ती का नतीजा था कि जीनत ने अपनेआप को बहुत संभाल रखा था और हमेशा ही डरीसहमी सी रहती थी.

इस सहमेपन के साथ जीतेजीते जीनत 30 साल की हो गई थी और अभी तक कुंआरी थी. ऐसा नहीं था कि उस के लिए शादी के पैगाम नहीं आए, पर भला मामू उस की शादी करा देता तो घर के लिए पैसे कौन लाता.

मामूमामी की सोच यही थी कि जीनत इसी घर में ही रहे और पैसे लाती रहे.

मामू और मामी के दोनों बेटे भी अब जवान हो चले थे. उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भरपूर सम?ाते हुए कुछ पैसे जोड़े, कुछ पैसा बैंक से लोन लिया और अपने अब्बा की बिसातखाने की दुकान को अब एक बढि़या मेकअप  सैंटर में तबदील कर दिया था.

जीनत भी मेहनत से स्कूल में अपनी ड्यूटी पूरी करती और घर आ कर मामी के साथ रसोईघर में मदद करती.

जीनत ने अपनी जवान होती भावनाओं को अच्छी तरह से काबू कर रखा था, पर फिर भी जवानी में किसी की तरफ ?ाकाव होना बड़ा ही लाजिमी होता है और जीनत भी कोई अलग नहीं थी.

‘‘अरे जीनत मैडम… मैं ने एक शायरी लिखी है… जरा इस पर गौर तो फरमाइएगा,’’ जीनत के साथ ही स्कूल में पढ़ाने वाले एक साथी टीचर आफताब ने कहा.

‘‘अजी, आप की शायरी का क्या सुनना… वह तो हमेशा की तरह अच्छी ही होती हैं… हां, अगर आप फिर भी अपनी और तारीफ सुनना चाहते हैं तो सुना सकते हैं.’’

‘‘किसी आशिक के कलेजे को जलाया होगा, तब जा कर खुदा ने सूरज को बनाया होगा.’’

‘‘अरे वाह… क्या बात है… बहुत ही उम्दा… लगता है, सूरज से कुछ ज्यादा ही प्यार है आप को और तभी तो आप ने तखल्लुस भी सूरज ही रखा है.’’

‘‘जी, बिलकुल सही कहा आप ने, इसीलिए मेरा नाम तो आफताब भले ही है, पर मैं चाहता हूं कि अब लोग मुझे सूरज के नाम से ही पुकारें,’’ आफताब ने कहा.

‘‘हां जी… ऐसी बात है तो मैं

आप को सूरज के नाम से ही बुलाऊंगी,’’ जीनत ने कहा.

2 जवां दिलों के बीच प्यार को पनपने के लिए कुछ खास की जरूरत नहीं होती, बस थोड़ा सा अपनापन का पानी, खूबसूरती की खाद और प्यार के फल आने लगते हैं.

आफताब एक सीधासादा लड़का था, जो जिंदगी से जूझ रहा था, फिर भी हमेशा मुसकराता रहता और अपनी जिंदगी के गम को शायरी में कह कर उड़ा दिया करता था. पर माली हालत की बात करें तो आफताब जीनत से तो बेहतर ही था.

इस बार नए साल पर आफताब ने जीनत को एक मोबाइल फोन गिफ्ट कर दिया. जीनत ने बहुत नानुकर की, पर आफताब ने ऐसी दलील दी कि उसे चुप हो जाना पड़ा.

‘‘देखिए मैडम, यह मैं आप को इसलिए गिफ्ट कर रहा हूं, ताकि मैं आप को ह्वाट्सएप पर अपने शेर भेज सकूं और आप उस की अच्छाइयां और कमियां मुझे बताएं, जिस से मुझे और बेहतर शायर बनने में मदद मिल सकेगी. क्या अब भी आप यह मोबाइल नहीं लेंगी?’’

‘‘ठीक है, ठीक है… ले लेती हूं… पर जब मैं अपने घर पर रहूंगी, तब आप फोन नहीं करेंगे… हां, मैसेज में बात जरूर कर सकते हैं.’’

‘‘ठीक है जीनतजी.’’

जीनत और आफताब को एकदूसरे का साथ अच्छा लग रहा था और दोनों ही अपनी आगे की जिंदगी एकदूसरे के साथ गुजरने की बात सोच रहे थे, पर हमेशा ही इनसान का सोचा हुआ कहां होता है?

इतनी जिंदगी गुजरने के बाद एक बात तो जीनत मन ही मन जान चुकी थी कि मामू और मामी उस की शादी जानबूझ कर नहीं करना चाहते और वे लोग यही चाहते हैं कि जीनत उन के लिए बस ऐसे ही पैसे कमाती रहे और वे लोग आराम से मजे करते रहें, इसलिए जीनत इस बाबत मामी से खुद ही बात करने की सोचने लगी.

एक रात को आफताब ने कुछ शायरियां लिख कर जीनत के मोबाइल पर भेजीं और पूछा कि कोई सुधार की गुंजाइश हो तो बताए.

जीनत ने सारी शायरियां पढ़ीं और उन का जवाब भी आफताब को लिख दिया और सो गई. सुबह उठी तो स्कूल के लिए देर हो रही थी, इसलिए जल्दी में जीनत मोबाइल अपने बिस्तर पर ही भूल गई.

‘‘चलो फिर मैं आज तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं,’’ अपनी बाइक की तरफ इशारा करता हुआ आफताब बोला.

जीनत पहले तो हिचकिचाई, क्योंकि गली के नुक्कड़ पर ही तो मामू की दुकान है. बहुत मुमकिन है कि घर के लोग आफताब के साथ उसे देख लें.

‘देख लें तो देख लें, मैं कोई चोरी तो नहीं कर रही. और फिर आज तो मुझे वैसे भी आफताब के बारे में बात करनी ही है,’ ऐसा सोच कर जीनत ने बाइक पर जाने के लिए हां कर दी और आफताब के साथ बैठ कर चल दी.

जीनत कुछ देर बाद घर के सामने पहुंचने वाली थी. उस ने आफताब को उसे वहीं उतार देने को कहा और वह घर तक पैदल ही चली गई.

घर में अंदर का नजारा ही अलग था. मामू, उन का बेटा असलम और मामी एकसाथ बैठे हुए थे. वे जीनत को घूर रहे थे.

‘‘अरे जीनत बेटी… बहुत थक गई होगी,’’ मामू ने कहा.

‘‘हां… मामू… स्कूल में काम ही इतना होता है, थोड़ीबहुत थकान आना तो लाजिमी ही है,’’ जीनत ने कहा.

जीनत का इतना कहना ही था कि मामी बिफर उठीं, ‘‘हां… हां थकान तो आएगी ही, जब देर रात तक किसी दूसरे लड़के से चक्कर चलाया जाएगा.’’

जीनत को तुरंत ही याद आया कि आज वह अपना मोबाइल घर में ही भूल गई थी और इसीलिए मामी ऐसा बोल रही हैं.

‘‘वह मामी, मैं आप से बात करने ही वाली थी… आज,’’ जीनत हकला गई.

‘‘अरे, तू क्या बात करेगी… तू तो चक्कर चला रही है. और वह भी किसी गैरधर्म के लड़के के साथ…’’

‘‘अरे नहीं मामी… वह तो आफताब…’’

‘‘बता कौन है यह सूरज… जो तुझे से अपनी मुहब्बत का इजहार शेरोशायरी से कर रहा है? और जिस का जवाब भी तू खूब वाहवाह कर के दे रही है…

‘‘अरे, मैं कह रही हूं कि हमारी जात में कोई लड़के नहीं रह गए थे, क्या जो तू किसी हिंदू लड़के से…’’

‘‘नहीं मामी… वह सूरज नहीं, आफताब है और हमारे ही धर्म का है… मैं खुद ही आज आप से अपनी शादी के बारे में बात करने वाली थी,’’ जीनत बोलती चली गई.

‘‘अरे, तू दोचार शब्द पढ़ क्या गई है, मुझे ही शब्दों के मतलब समझाने लगी है… और तू समझ क्या रही है, तू किसी भी जात वाले से शादी करने को कहेगी और हम कर देंगे. तुझे ऐसे ही हमारे लिए पैसे कमाने होंगे. भूल जा कि तेरी कभी शादी भी होगी,’’ मामी का पारा चढ़ चुका था.

‘‘शादी तो मैं सूरज से ही करूंगी… और आप सब को बताना चाहूंगी कि मैं सूरज के बच्चे की मां बनने वाली हूं…’’ जीनत ने यह बात सिर्फ इसलिए कह दी थी कि ऐसा सुन कर मामू और मामी का पारा कम हो जाएगा, पर इस बात ने आग में घी डालने का काम किया था.

‘‘आप लोग नहीं मानोगे, तो जबरदस्ती ही सही… देखती हूं कि मुझे कौन रोकता है,’’ जीनत भी अड़ गई थी.

‘‘मैं रोकूंगी तु?ो… नमकहराम… हमारी नाक कटवाती है… महल्ले में हमारा जीना मुश्किल करना चाहती है,’’ मामी चिल्ला रही थीं.

जीनत ने सोचा कि जब बात इतनी बढ़ ही चुकी है, तो आफताब को भी फोन कर के यहीं बुला लेती हूं और इस गरज से उस ने मामी के हाथ से अपना मोबाइल छीन कर आफताब को फोन कर दिया.

‘‘हां… तुम मेरे घर आ जाओ… सब लोग घर पर ही हैं… आमनेसामने बैठ कर बात हो जाएगी.’’

आफताब अभी ज्यादा दूर नहीं गया था, वह तुरंत ही लौट पड़ा.

मामू ने जीनत के विद्रोही सुर देखे तो मामी को शांत कराने लगे.

‘‘ठीक है जीनत… तुम्हारे फैसले को हमारी भी हां है… जैसा तुम चाहो वैसा करो,’’ मामू ने कहा.

पर असलम को काटो तो खून नहीं, उसे यह बात कतई मंजूर नहीं हो पा रही थी कि किसी लड़के को घर बुला कर जीनत खुद ही अपनी शादी की बात करे.

कुछ देर बाद ही आफताब वहां आ गया. अभी उस ने दरवाजे के अंदर पहला कदम रखा ही था कि असलम उसे देख कर भड़क गया.

असलम ने तुरंत ही आफताब का कौलर पकड़ लिए और उस को जमीन पर गिरा कर लातघूंसे चलाने लगा.

आफताब को अचानक इस हमले की उम्म्मीद नहीं थी, इसलिए वह असलम का विरोध नहीं कर सका. अब तो मौका देख कर जीनत के मामू ने भी आफताब को मारना शुरू कर दिया. वे दोनों आफताब को मारते हुए बाहर ले आए, जीनत आफताब को बचाने दौड़ी, तो मामी ने उसे पकड़ लिया.

बाहर महल्ले के लोग जमा होने लगे थे.

‘‘दिनदहाड़े चोरी करने घुसता है. आज तुझे नहीं छोड़ेंगे,’’ असलम चीख रहा था.

एक चोर को पिटता देख कर जमा हुई भीड़ की हथेलियों में भी खुजली होने लगी थी. बिना जाने कि सच क्या है, भीड़ ने भी बेतहाशा आफताब को मारना शुरू कर दिया.

जीनत ने बड़ी कोशिशों से अपनेआप को मामी की गिरफ्त से आजाद किया और आफताब को बचाने दौड़ी.

भीड़ अब भी आफताब को मारे जा रही थी… जीनत आफताब तक पहुंच ही नहीं पा रही थी… वह लगातार चीख रही थी, ‘‘मत मारो इसे… यह चोर नहीं है…’’ पर भीड़ तो खुद ही वकील होती है और खुद ही जज…

इतने में जीनत पिटते हुए आफताब को बचाने की गरज से उस से जा चिपकी, पर गुस्साई भीड़ को वह दिखाई तक न दी और भीड़ लाठीडंडे बरसाती रही. कुछ ही देर बाद जीनत और आफताब के सिर से खून की धारा निकल पड़ी थी और उन दोनों की लाशें एकदूसरे से लिपटी हुई पड़ी थीं. भीड़ ने अपनी ताकत दिखाते हुए इंसाफ कर दिया था.

अब मैं नहीं आऊंगी पापा : पापा की सताई एक बेटी

मैं अपने जीवन में जुड़े नए अध्याय की समीक्षा कर रही थी, जिसे प्रत्यक्ष रूप देने के लिए मैं दिल्ली से मुंबई की यात्रा कर रही थी और इस नए अध्याय के बारे में सोच कर अत्यधिक रोमांचित हो रही थी. दूसरी ओर जीवन की दुखद यादें मेरे दिमाग में तांडव करने लगी थीं.

उफ, मुझे अपने पिता का अहंकारी रौद्र रूप याद आने लगा, स्त्री के किसी भी रूप के लिए उन के मन में सम्मान नहीं था. मुझे पढ़ायालिखाया, लेकिन अपने दिमाग का इस्तेमाल कभी नहीं करने दिया. पढ़ाई के अलावा किसी भी ऐक्टिविटी में मुझे हिस्सा लेने की सख्त मनाही थी. घड़ी की सुई की तरह कालेज से घर और घर से कालेज जाने की ही इजाजत थी.

नीरस जीवन के चलते मेरा मन कई बार कहता कि क्या पैदा करने से बच्चे अपने मातापिता की संपत्ति बन जाते हैं कि जैसे चाहा वैसा उन के साथ व्यवहार करने का उन्हें अधिकार मिल जाता है? लेकिन उन के सामने बोलने की कभी हिम्मत नहीं हुई.

मां भी पति की परंपरा का पालन करते हुए सहमत न होते हुए भी उन की हां में हां मिलाती थीं. ग्रेजुएशन करते ही उन्होंने मेरे विवाह के लिए लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद ही मेरा विवाह विवेक से हो पाया. मेरी इच्छा या अनिच्छा का तो सवाल ही नहीं उठता था. गाय की तरह एक खूंटे से खोल कर मुझे दूसरे खूंटे से बांध दिया गया.

मेरे सासससुर आधुनिक विचारधारा के तथा समझदार थे. विवेक उन का इकलौता बेटा था. वह अच्छे व्यक्तित्व का स्वामी तो था ही, पढ़ालिखा, कमाता भी अच्छा था और मिलनसार स्वभाव

का था. इकलौती बहू होने के चलते सासससुर ने मुझे भरपूर प्यार दिया. बहुत जल्दी मैं सब से घुलमिल गई. मेरे मायके में पापा की तानाशाही के कारण दमघोंटू माहौल के उलट यहां हरेक के हक का आदर किया जाता था, जिस से पहली बार मुझे पहचान मिली, तो मुझे अपनेआप पर गर्व होने लगा था.

विवाह के बाद कई बार पापा का, पगफेरे की रस्म के लिए, मेरे ससुर के पास मुझे बुलाने के लिए फोन आया. लेकिन मेरे अंदर मायके जाने की कोई उत्सुकता न देख कर उन्होंने कोई न कोई बहाना बना कर उन को टाल दिया. उन के इस तरह के व्यवहार से पापा के अहं को बहुत ठेस पहुंची. सहसा एक दिन वे खुद ही मुझे लेने पहुंच गए और मेरे ससुर से नाराजगी जताते हुए बोले, ‘मैं ने बेटी का विवाह किया है, उस को बेचा नहीं है, क्या मुझे अपनी बेटी को बुलाने का हक नहीं है?’

‘अरे, नहीं समधी साहब, अभी शादी हुई है, दोनों बच्चे आपस में एकदूसरे को समझ लें, यह भी तो जरूरी है. अब हमारा जमाना तो है नहीं…’

‘परंपराओं के मामले में मैं अभी भी पुराने खयालों का हूं,’ पापा ने उन की बात बीच में ही काट कर बोला तो सभी के चेहरे उतर गए.

मुझे पापा के कारण की तह तक गए बिना इस तरह बोलना बिलकुल अच्छा नहीं लगा, लेकिन मैं मूकदर्शक बनी रहने के लिए मजबूर थी. उन के साथ मायके आने के बाद भी उन से मैं कुछ नहीं कह पाई, लेकिन जितने दिन मैं वहां रही, उन के साथ नाराजगी के कारण मेरा उन से अनबोला ही रहा.

परंपरानुसार विवेक मुझे दिल्ली लेने आए, तो पापा ने उन से उन की कमाई और उन के परिवार के बारे में कई सवालजवाब किए. विवेक को अपने परिवार के मामले में पापा का दखल देना बिलकुल नहीं सुहाया. इस से उन के अहं को बहुत चोट पहुंची. पापा से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे सबकुछ बता दिया. मुझे पापा पर बहुत गुस्सा आया कि वे बात करते समय यह भी नहीं सोचते कि कब, किस से, क्या कहना है.

मैं ने जब पापा से इस बारे में चर्चा की तो वे मुझ पर ही बरस पड़े कि ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा, जिस से विवेक को बुरा लगे. बात बहुत छोटी सी थी, लेकिन इस घटना के बाद दोनों परिवारों के अहं टकराने लगे. उस के बाद, पापा एक बार मुझे मेरी ससुराल से लेने आए, तो विवेक ने उन से बात नहीं की. पापा को बहुत अपमान महसूस हुआ. जब ससुराल लौटने का वक्त आया तो विवेक ने फोन पर मुझ से कहा कि या तो मैं अकेली आ जाऊं वरना पापा ही छोड़ने आएं.

पापा ने साफ मना कर दिया कि वे छोड़ने नहीं जाएंगे. मैं ने हालत की नजाकत को देखते हुए, बात को तूल न देने के लिए पापा से बहुत कहा कि समय बहुत बदल गया है, मैं पढ़ीलिखी हूं, मुझे छोड़ने या लेने आने की किसी को जरूरत ही क्या है? मुझे अकेले जाने दें. मां ने भी उन्हें समझाया कि उन का इस तरह अपनी बात पर अड़ना रिश्ते के लिए नुकसानदेह होगा. लेकिन वे टस से मस नहीं हुए. मेरे ज्यादा जिद करने पर वे अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए बोले, ‘तुम्हें मेरे मानसम्मान की बिलकुल चिंता नहीं है.’

मैं अपने पति को भी जानती थी कि जो वे सोच लेते हैं, कर के छोड़ते हैं. न विवेक लेने आए, न मैं गई. कई बार फोन से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बात नहीं की.

पापा के अहंकार के कारण मेरा जीवन त्रिशंकु बन कर रह गया. इन हालात को न सह सकने के कारण मां अवसाद में चली गईं और अचानक एक दिन उन की हृदयाघात से मृत्यु हो गई. इस दुखद घटना के बारे में भी पापा ने मेरी ससुराल वालों को सूचित नहीं किया तो मेरा मन उन के लिए वितृष्णा से भर उठा. इन सारी परिस्थितियों के जिम्मेदार मेरे पापा ही तो थे.

मां की मृत्यु की खबर सुन कर आए हुए सभी मेहमानों के वापस जाते ही मैं ने गुस्से के साथ पापा से कहा, ‘क्यों हो गई तसल्ली, अभी मन नहीं भरा हो तो मेरा भी गला घोंट दीजिए. आप तो बहुत आदर्श की बातें करते हैं न, तो आप को पता होना चाहिए कि हमारी परंपरानुसार दामाद को और उस के परिजनों को बहुत आदर दिया जाता है और बेटी का कन्यादान करने के बाद उस के मातापिता से ज्यादा उस के पति और ससुराल वालों का हक रहता है. जिस घर में बेटी की डोली जाती है, उसी घर से अर्थी भी उठती है. आप ने अपने ईगो के कारण बेटी का ससुराल से रिश्ता तुड़वा कर कौन सा आदर्श निभाया है. मेरी सोच से तो परे की बात है, लेकिन मैं अब इन बंधनों से मुक्त हो कर दिखाऊंगी. मेरा विवाह हो चुका है, इसलिए मेरी ससुराल ही अब मेरा घर है. मैं जा रही हूं अपने पति के पास. अब आप रहिए अपने अहंकार के साथ इस घर में अकेले. अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगी, पापा.’

इतना कह कर, पापा की प्रतिक्रिया देखे बिना ही, मैं घर से निकल आई और मेरे कदम बढ़ चले उस ओर जहां मेरा ठौर था और वही थी मेरी आखिरी मंजिल.

8वीं पास : कैसे थे आदित्य के पापा

‘‘देखिए सेठजी, मेरा बेटा आप का बहुत लिहाज करता है. वह आप पर मुझ से ज्यादा भरोसा करता है. हमेशा आप के कहे मुताबिक चलता रहा है. लेकिन वह अपना पैर तुड़वा बैठा है.

‘‘मैं मानता हूं कि उस से गलती हुई है. बच्चों से गलती हो जाती है. मगर उस के इलाज में काफी पैसे लग रहे हैं. बमुश्किल उसे आईसीयू में होश आया है. और अब वह जनरल वार्ड में पहुंच गया है,’’ रामनरेश हाथ जोड़े सेठ सुखसागर से कह रहे थे.

‘‘आप के कहे मुताबिक मैं ने उसे सरकारी अस्पताल के बजाय प्राइवेट अस्पताल में भरती कराया. वहां की भारीभरकम फीस का खर्च उठाना मेरे बस की बात तो थी नहीं. वह सब खर्च आप ने उठाया. इस के लिए मैं आप का बहुत आभारी हूं. मगर अभी उस के पैर का आपरेशन होना है, जिस के लिए वे ढाई लाख रुपए मांग रहे हैं. अब आप ही का आसरा है,’’ उन्होंने आगे कहा.

‘‘मैं तो तुम्हारे बेटे के चक्कर में गजब की मुसीबत में फंस गया. ठीक है कि मैं ने उसे प्राइवेट अस्पताल में भरती कराने के लिए कहा था, मगर मुझे क्या पता था कि इस में मेरे लाखों रुपए खर्च हो जाएंगे.

‘‘खर्च की तो मैं परवाह नहीं करता. मगर डाक्टर कह रहा था कि उस का पैर ठीक होना मुश्किल है. उसे काटना ही होगा. और बताइए इस अपाहिज को ले कर मैं क्या करूंगा?’’ सेठ सुखसागर बोले.

‘‘मेरा बेटा अपाहिज नहीं है सेठजी,’’ रामनरेश चिल्लाए, ‘‘मैं मानता हूं कि उस से गलती हुई है और उसे इस की सजा भी मिल गई है. मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं उस के इलाज से

मुंह मोड़ लूं. मेरे बेटे का पैर अच्छा हो जाए, इस के लिए मैं अपना घरबार तक बेच दूंगा.’’

‘‘अब आप को जो भी करना हो कीजिए. अब मैं कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘वह तो मैं करूंगा ही. अगर आप उसे इस महंगे अस्पताल में भरती नहीं कराते, तो मैं उस का सस्ते सरकारी अस्पताल में ही इलाज कराता. अब भी देर नहीं हुई है. मैं उसे वहीं ले जाऊंगा.’’

अब आदित्य सरकारी अस्पताल में था. यहां उस के पापा रामनरेश के परिचित और बुजुर्ग डाक्टर कमल ने उन्हें भरोसा दिलाया कि सबकुछ ठीक से हो जाएगा.

इस बात को तो सभी जानते हैं कि प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने में कितना बड़ा खर्च आता है. मगर अब वहां के खर्चों को कौन उठाएगा, क्योंकि सेठ सुखसागर ने आगे और खर्च देने से इनकार कर दिया था, इसलिए वहां रहने का कोई मतलब नहीं था.

आदित्य तो यह जान कर हैरान रह गया कि सेठ सुखसागर ने उस के इलाज से अपना मुंह मोड़ लिया है.

‘‘देख ली न अपने चार्टर्ड अकांउंटैंट सेठजी की करामात. जब तक उन के लिए तुम जान देते रहे, तुम बहुत अच्छे थे. डाक्टर अब तुम्हारा पैर काटने को कह रहा है. अब उन्हें लग रहा है कि इस अपंगअपाहिज पर खर्च करने से क्या फायदा? अपंगअपाहिज उन के पीछे भागेगा कैसे. सो, इलाज से पीछे हट रहे हैं,’’ रामनरेश गुस्से में आ चुके थे.

‘‘मगर, मैं ऐसा कुछ होने नहीं दूंगा. अभी तो तुम्हें सरकारी अस्पताल में लिए चलता हूं. वहां मेरे एक परिचित डाक्टर कमल हैं. मु?ो पूरा भरोसा है कि वे तुम्हारा इलाज अच्छे से करेंगे. और जहां तक खर्चे की बात है, मैं अपना घर बेच दूंगा, मगर तुम्हें अपाहिज होने नहीं दूंगा. सेठ अपनेआप को सम?ाता क्या है,’’ उन्होंने आगे कहा.

सारे कागजात और एक्सरे रिपोर्ट देखने के बाद डाक्टर कमल बोले, ‘‘एक्सीडैंट हुआ है और चोट तो लगी ही है. थोड़ा समय लगेगा. मगर सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘मगर, वहां तो डाक्टर पैर काटने की बात बता रहे थे.’’

‘‘वहां इलाज करने का अपना ढंग है और मेरा इलाज करने का ढंग अलग है. मैं कोशिश करूंगा कि ऐसी नौबत ही न आए.’’

‘‘मैं कम पढ़ालिखा सही, मगर मेरा सहारा यही है डाक्टर साहब,’’ रामनरेश गिड़गिड़ाते हुए बोल रहे थे, ‘‘मैं अपनी सारी जमापूंजी खर्च कर दूंगा. घरमकान भी बेच दूंगा. भले ही बाद में मुझे मजदूरी क्यों न करनी पड़े. मगर, मैं यही चाहता हूं कि आदित्य अपाहिज न बने.’’

‘‘आप बिलकुल बेफिक्र रहें. वह ठीक हो जाएगा. मैं ने उस की सारी रिपोर्ट देखसमझ ली है. उस के पैर काटने की नौबत नहीं आएगी. वह पहले की तरह चलने और फुटबाल के पीछे भागने भी लगेगा. और आप तो यही चाहते हैं न? हां, उसे कुछ समय तक आराम करना होगा.’’

‘‘क्या आदित्य सचमुच ठीक हो जाएगा?’’ रामनरेश हैरानी से उन का मुंह देखते हुए बोले, ‘‘मैं आप का पूरे जन्म तक आभारी रहूंगा साहब.’’

आदित्य सारी बात को देख समझ रहा था, ‘तो क्या वह ठीक हो जाएगा. आइंदा ऐसी गलती मुझे से नहीं होगी,’ उस ने मन ही मन कहा.

फिर आदित्य सेठ सुखसागर के बारे में सोचने लगा कि उन के पीछे वह क्यों भागता रह गया, सिर्फ इसलिए कि वे पैसे वाले थे और पढ़ेलिखे भी थे. हमेशा वे उसे ले कर अपनी योजनाएं बनाते थे, जिस में वे उसे मोहरे की तरह इस्तेमाल करते आए थे. उस ने अपने प्लास्टर चढ़े पैर को देखा, तो उस के मुंह से आह सी निकल गई.

ओह, इस पैर को तो डाक्टर काटने को कह रहा था. इसे काटने के बाद तो वह हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएगा. नहींनहीं, ऐसा कुछ होगा, तो वह कहीं का नहीं रहेगा. बिना पैर के वह दुनिया की इस दौड़ में कैसे आगे बढ़ेगा? और उस के सामने जैसे अपनी पुरानी यादें ताजा होने लगी थीं. पिछले कुछ समय पहले की ही तो बात थी.

‘‘वाह, आदित्य तुम ने तो कमाल कर दिया,’’ आदित्य की गर्लफ्रैंड सुरेखा

उसे देख कर मुसकराई थी, ‘‘दहीहांड़ी प्रतियोगिता में तो तुम ने कमाल कर दिया. 5 लाख रुपए का अवार्ड पाने के लिए बधाई. वैसे, इतने रुपए पा कर तुम क्या करोगे?’’

‘‘शुक्रिया सुरेखा. वैसे, मैं ने इसे अकेले नहीं जीता है, बल्कि मेरी टीम ने जीता है. ये रुपए तो सभी के बीच ही बंटेंगे.’’

आदित्य उसे देख कर मुसकराया था, ‘‘वैसे, तुम्हें भी इस में से कुछ हिस्सा दे दूंगा, क्योंकि तुम को देख कर ही मैं ने यह हिम्मत जुटाई थी. लेकिन जरा ठहरो, पहले मैं सेठ सुखसागर को तो शुक्रिया कह दूं.’’

एंकर बारबार माइक से अनाउंस कर रहा था कि विजेता टीम के सभी सदस्य मंच की ओर इकट्ठा हों. मगर जीत के जोश में वहां सभी जोश में थे और खुश थे. सो, उस की सुनता कौन. आदित्य को उस की टीम अपने कंधे पर उठा

कर विशाल गांधी मैदान का चक्कर काटने लगे थे. जीत का सुरूर कुछ ऐसा ही होता है.

आदित्य मन ही मन खुश हो रहा था. उसे जैसे खुद पर यकीन नहीं हो रहा था कि उस ने वह कारनामा कर दिखाया है, जिस की किसी को उम्मीद नहीं थी.

सेठ सुखसागर एंकर को समझ रहे थे, ‘‘अभी जीत का नशा है. जरा मैदान का चक्कर लगा लेने दो. हम भागे थोड़े ही जा रहे हैं. अपना ही लड़का और उस की टीम है. हमारे काम आता रहता है.’’

आखिरकार आदित्य अपनी टीम के साथ वापस मंच की ओर लौटा. उस ने और उस की टीम के सभी लड़कों ने नीली हाफ पैंट और सफेद टीशर्ट पहन रखी थी. दूर से ही देखने से लगता था कि ये सभी एक टीम के सदस्य हैं.

सुरेखा ने अब आदित्य को ध्यान से देखा. मिट्टीकीचड़ से सने आदित्य का चेहरा चमक से भरा जा रहा था. उस के गठीले बदन की मांसपेशियां जैसे धूप में सोने सी चमक रही थीं. बांहों में खिल रही मछलियां मचल रही थीं और उस का चौड़ा सीना टीशर्ट में से जैसे निकलना ही चाह रहा था और यह आदित्य उस का है, यह विचार मन में आते ही उस में गुदगुदी सी फैल गई.

अचानक ही अपनी टीम से घिरे आदित्य के जीत की ट्रौफी लेते ही पूरा गांधी मैदान जयकारों से गूंज उठा.

सेठ सुखसागर के होंठों पर गहरी मुसकान खेल गई. पिछले साल वे मुंबई गए थे, तो वहीं उन्होंने दहीहांड़ी प्रतियोगिता देखी थी. तभी उन के मन में विचार आया था कि वह पटना में भी इस का आयोजन करें, तो कैसा रहे. और फिर उन्होंने इसे पूरा भी कर दिया था.

सेठजी का धंधा कई तरह का था. इस के अलावा वे धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक आयोजन करते रहते थे. इस में उन्हें काफी सुख और संतोष भी मिलता था. पहली बार उन्हें ऐसा लगा कि नौजवानों के लिए ऐसा आयोजन कर के उन्होंने एक अच्छा काम किया है.

आदित्य उन के महल्ले का ही लड़का था और स्थानीय कौमर्स कालेज से बीकौम की पढ़ाई कर रहा था.

पिछले साल की बात थी, जब एक दिन कुछ बदमाश सेठ सुखसागर के बंगले में उन के चैंबर में घुस गए थे. उसी समय वह उधर से ही गुजर रहा था, तो उसे शोरगुल सुनाई दिया. वह चैंबर में घुसा और थोड़ी ही देर में उन बदमाशों को खदेड़ दिया.

बाद में उस से एक स्टाफ ने दबी जबान से कहा भी कि उसे इस तरह बदमाशों से भिड़ना नहीं चाहिए था. आजकल तमंचेबंदूक मिलते हैं. अगर किसी ने गोली चला दी होती तो क्या होता. सेठ का क्या है. उस के पास तो अपने बौडीगार्ड और सिक्योरिटी हैं. सो, उसे रिस्क नहीं लेना था.

आदित्य हंस कर रह गया था. लेकिन सेठ सुखसागर उस से बहुत प्रभावित हुए थे. उसे अपने चैंबर में बैठा कर बढि़या चायनाश्ता कराने के बाद 2,000 रुपए दिए और शाबाशी दी थी. और इसी के साथ वह उन का शागिर्द सा बन गया था. वह उधर कभी भी आएजाए, उसे कोई रोकताटोकता नहीं था और सेठ उसे

500-1,000 रुपए यों पकड़ा दिया करते थे, जिस से उस का अपना शाहखर्ची चलता था.

आदित्य का खुद पर तो कुछ खास खर्च था भी नहीं. बस सुरेखा के लिए उसे कभीकभार गिफ्ट खरीदने होते या रैस्टोरैंट जाना होता, तो उसी का खर्च था.

आदित्य के पापा की फ्रैजर रोड में एक छोटी सी पान की दुकान थी. उन्होंने भी उस से यही कहा कि उसे बदमाशों से उलझाने की क्या जरूरत थी. सेठ का क्या है, लाखोंकरोड़ों में खेलता है. गुंडेबदमाश से उस का रोज का पाला पड़ता होगा. अगर उसे कुछ हो जाता, तो वे क्या कर लेते?

सेठ सुखसागर ने इस होनहार हीरे को पहचान लिया था. वे उसे गाहेबगाहे बुला भी लिया करते थे. वे थोड़ीबहुत मदद तो करते ही थे उस की, जिस से उस का जेबखर्च निकल आता था.

मगर उस के पापा कहते, ‘‘मैं इतनी मेहनत तुम्हारी खातिर करता हूं. तुम पढ़ाईलिखाई पर ध्यान दो. आगे यही काम देगा. ये पैसे वाले हम गरीबों का सिर्फ इस्तेमाल करते हैं.

‘‘ऐसी चर्चा है कि उन की नजर आने वाले विधानसभा चुनावों पर है, जिस के लिए वे उम्मीदवार होना चाहते हैं और इन चुनावों में तुम जैसों का वे लोग इस्तेमाल करेंगे,’’ वे इस के आगे डाक्टर भीमराव अंबेडकर के इस वाक्य को जोड़ देते, ‘‘पढ़ाईलिखाई शेरनी का वह दूध है, जिसे जो पीएगा, वह दहाड़ेगा.’’

यह सुन कर आदित्य हंस पड़ता था. पढ़ाई ही तो कर रहा हूं. मगर अभी सिपाहीचपरासी से ले कर लोक सेवा आयोग तक के इम्तिहान का जो हाल है, उसे वे भी तो पढ़तेसुनते होंगे. मगर 8वीं पास पापा को इस से क्या मतलब. उन्हें तो बस यही लगता है कि उस की पढ़ाई खत्म हुई नहीं कि वह गजटेड अफसर बन जाएगा.

रामनरेश ?ाल्ला कर कहते, ‘‘अभी कुछ ही दिनों बाद तुम्हारी ग्रेजुएशन के ऐग्जाम होने वाले हैं और तुम फालतू चक्कर में फंस कर अपना समय खराब कर रहे हो? कहीं ऐग्जाम खराब होंगे, तो तुम्हारी सारी मटरगश्ती हवा हो जाएगी, इसलिए अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो. तुम्हें ढंग की कोई नौकरी मिले, तो हमें भी चैन पड़े.

‘‘मैं ने तुम्हारे लिए कोई बहुत बड़ी इच्छा नहीं पाल रखी है. तुम साधारण ढंग से पढ़ोलिखो. कहीं टीचरक्लर्क भी लगे, तो मेरे लिए यही बहुत है. मैं तुम्हें कोई रिस्क लेते नहीं देखना चाहता. तुम ये सेठ के महल के चक्कर लगाने छोड़ो और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मगर जब से आदित्य की सुरेखा से जानपहचान हुई थी, उस के खर्चे बढ़ गए थे. आखिर गर्लफ्रैंड है उस की. उसे कुछ उपहार वगैरह तो देना बनता ही है. फिर अपने लिए कुछ बढि़या ड्रैस भी तो हो. लोगों पर, खासकर साथियों के बीच इसी ड्रैसिंग सैंस के वजह से ही तो रोबदाब बना रहता है.  वैसे, अपना कोई टूह्वीलर हो, तो क्या कहने.

मगर आदित्य के पास लेदे कर एक पुरानी, टूटी सी साइकिल थी, जिसे देख कर वह झल्ला उठता था. इस फास्ट लाइफ में आजकल साइकिल पर कौन चलता है. पापा तो टूह्वीलर खरीदने से रहे. उन्हें तो कहीं आनाजाना तो होता नहीं. कोई शौकमौज भी नहीं है उन की. आराम से घर से दुकान तक पैदल ही आतेजाते हैं. बहुत हुआ तो शेयरिंग आटोरिकशा से आए या गए. सारी जिंदगी बस खोखे में बिठा कर बिता दी. यह भी कोई जिंदगी है.

सेठ सुखसागर के यहां काम करने वालों के काम की सहूलियत और आनेजाने के लिए उन के मकान में कुछ स्कूटी और बाइकें थीं, जिन का इस्तेमाल उन का स्टाफ करता था. कभीकभार वह उन से मांग भी लेता था. उस में यह सहूलियत भी थी कि उसे उस में पैट्रोल भरवाने की चिंता नहीं रहती थी.

उधर सेठजी को भी लगता कि ऐसे फ्री के सिक्योरिटी गार्ड कहां मिलते हैं. थोड़े से ही काम चल जाता है, नहीं तो बाउंसर, शूटर कितनी डिमांड रखते हैं आजकल. दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा के समय भी वे उस के ग्रुप को मनचाही रकम दान में देते थे और इन सब से उन लोगों के नएनए शूज और ड्रैस के खर्चे निकल आते थे.

सचमुच सेठजी दयालु थे, मगर इस के साथ ही वे प्रैक्टिकल भी थे. वे जानते थे कि दान का लाभ परलोक में मिले या न मिले, इहलोक में तो निकल ही जाता है. इस तरह उन्होंने अपने इर्दगिर्द एक सुरक्षा घेरा बना लिया था.

सेठजी और शायद वह भी यही सोचता है कि दुनिया ऐसे ही चलती है. इस बार सेठजी ने जो दहीहांड़ी की प्लानिंग की थी, उस के केंद्र में वही था. अब नौजवान लड़का है, तो उस की टीम भी होगी ही.

आदित्य अपने कालेज में फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था और उस की अपनी टीम भी थी. उन्होंने अपनी योजना उसे समझाई, तो वह खुशी से उछल पड़ा. इस में करना कुछ खास नहीं और 5 लाख रुपए का इनाम है.

ऊपर से सेठजी यह भी कह रहे हैं कि उस की टीम के सभी सदस्यों के लिए नई ड्रैस का भी वे इंतजाम करेंगे. तो उसे और क्या चाहिए. यह भी तो एक तरह का खेल है, जिस में उसे भाग लेना चाहिए.

आदित्य की मम्मी को भी कुछ दिन अजीब लगा कि यह लड़का रोजरोज अपने कपड़े गंदे क्यों करता है, तो उस ने इस का राज खोला.

मां गंभीर हो कर बोलीं, ‘‘कितना खतरनाक है यह दहीहांड़ी का खेल. और जो ऊपर से गिरा और नाकामी हाथ लगी, तो इनाम तो मिलेगा नहीं, उलटे हाथपैर जो टूटेंगे, तो इलाज का खर्चा कहां से आएगा? तुम्हारे पापा अलग गुस्सा होंगे, सो तुम समझ लेना.’’

‘‘अरे मम्मी, कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में चिंता करती हो. सेठजी बड़े दयालु और समाजसेवी हैं. वे हमारा ध्यान रखते हैं. उन के रहते हमें जरा भी चिंता करने की जरूरत नहीं है. जानती हो, जब हम शाम को फील्ड में इस का अभ्यास करते हैं, तो उस समय सेठजी हमारे लिए चायनाश्ता भी भिजवा देते हैं.’’

लगभग बीसेक दिन तक आदित्य ने अपनी टीम के साथ मानव पिरामिड बनाने का मुश्किल अभ्यास किया था. इस बीच वह कई बार गिरा, चोटें भी आईं. मगर सभी जोश में थे. कुछ अलग, कुछ खास करने का जज्बा ही कुछ अलग होता है.

सुरेखा उन्हें देखती, तो शक में पड़ जाती. अगर ये नाकाम हुए, तो क्या होगा? कालेज के खेल टीचर भी अचरज से उन्हें देखते और कहते, ‘‘जो करना है, अपने रिस्क पर करना.’’

एक दिन तो मानव पिरामिड बनाने के चक्कर में आदित्य अपना बैलेंस संभाल नहीं पाया और औंधे मुंह गिर पड़ा. वह तो खैरियत थी कि मुंह पर चोट नहीं लगी, मगर दाएं हाथ की हथेली में मोच आ गई थी.

आदित्य ने सुरेखा से सलाहमशवरा किया, तो उस ने दवा बाजार जीएम रोड में अपने एक रिश्तेदार की दुकान में भेज दिया था. उन्होंने उसे कुछ दवाएं दीं, जिस से वह जल्दी ही ठीक हो गया था.

मगर इस बीच आदित्य के पापा ने तो हंगामा कर दिया, ‘‘इस लड़के को हुआ क्या है. पढ़ाईलिखाई तो करनी नहीं, खाली खेलकूद में लगा रहता है. क्या जरूरत है ऐसे खतरनाक खेल खेलने की, जिस में जान का खतरा हो?’’

‘‘इस में जान का खतरा कैसे हो सकता है?’’ आदित्य ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘मुंबई और महाराष्ट्र में तो इस का आयोजन हर गलीमहल्ले में होता है. जब वहां कुछ नहीं होता, तो यहां क्या हो जाएगा?’’

‘‘मैं भी थोड़ीबहुत जानकारी रखता हूं रे,’’ पापा चिल्लाए, ‘‘वहां हर साल हादसे होते रहते हैं. लोग अपने हाथपैर तो तुड़वाते हैं ही, जान से भी हाथ धो बैठते हैं. यहां लोग इकमंजिले से गिरने पर घायल हो जाते हैं और तुम 50 फुट के मानव पिरामिड बना कर चढ़ोगे, तो सोचिए क्या होगा…’’

‘‘अब तैयारी तो पूरी है. फिर सेठजी  की इज्जत का भी सवाल है. मुझे तो यह करना ही है.’’

‘‘तुम्हें सेठजी की इतनी चिंता है और मेरी नहीं? सेठजी को अपनी इज्जत की इतनी ही चिंता है, तो वे अपने बेटे को क्यों नहीं तैयार करते? उसे तो मुंबई में महंगी तालीम दिला रहे हैं और तुम्हें बलि का बकरा बना रहे हैं.’’

‘‘आप तो हर बात को उलटी दिशा में ले जाते हैं. आप से तो बात करना ही बेकार है,’’ आदित्य झल्ला कर वहां से उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘उन की हैसियत है, तो वे अपने बेटे को मुंबई क्या, अमेरिका, रूस, जापान या इंगलैंड भी भेज सकते हैं.

आदित्य के पापा पैर पटकते हुए बाहर निकल गए.

अब आदित्य के सामने उस की मां थीं. वे समझ नहीं पा रही थीं कि अपने बेटे को समझाएं कि पति को. मगर उन्हें यह ठीक ही लगता था कि बेटा भी कुछ गलत नहीं कर रहा. अरे, यही उम्र तो है, खेलनेखाने की. फिर तो बाद में हायहाय में जुटना ही है.

सेठ उस के कुछ खर्चे उठाता है, तो क्या बुरा करता है. इन की दुकान से दालरोटी चल जाए, यही बहुत है. फिर भी उसे अपने पापा से ढंग से बात करनी चाहिए थी.

मां ने आदित्य से यही कहा ही था कि वह बिफर पड़ा, ‘‘सेठ सुखसागर सिर्फ रुपएपैसे से ही नहीं भरेपूरे हैं, उन्होंने भी चार्टर्ड अकाउंटैंट की पढ़ाई दिल्ली से की है. पापा की तरह वे 8वीं पास नहीं हैं, जो दरदर की ठोकरें खाते फिरते हैं. एक छोटे से खोखे में जिंदगी गुजार दी हम ने. क्या मिला हमें? हमेशा गरीबी के बीच रोते?ांकते रहे हैं हम.’’

मां एकदम से सन्न रह गईं. बेटा यह क्या बोल रहा है. इस को कुछ खबर भी है कि इसी खोखे के बूते ही रामनरेश ने पूरा परिवार पाल दिया है. पहले गांव के परिवार को देखा और उन की भरपाई की, फिर यहां अपना छोटा सा ही सही, मकान बनाया है. आदित्य की भी जो यह पढ़ाई चल रही है, उस में भी तो खर्च हो रहा है.

आदित्य ने कोचिंग जौइन करने को कहा, तो उस के लिए भी उन्होंने कभी मना नहीं किया. और यह आदित्य आज क्या उलटीसीधी बक रहा है. कहीं उन्होंने सुन लिया तो हंगामा मच जाएगा.

मगर सवाल यह है कि आदित्य के दिमाग में आया कैसे कि उस के पापा सिर्फ 8वीं पास हैं. इस का क्या मतलब हुआ कि वे कमअक्ल हैं, कि वे बेचारे हैं. आज तक कभी उन्होंने किसी के आगे हाथ नहीं पसारा, बल्कि दूसरों को अपनी हैसियत से बढ़ कर कुछ दिया ही है. मगर इस आदित्य को क्या हुआ है…

इनाम के रुपयों में से आदित्य के हिस्से में महज 40,000 रुपए ही आए थे, जिस से उस ने एक सैकंडहैंड बाइक खरीद ली थी.

पापा ने आदित्य से कहा था, ‘‘ठीक है, टूह्वीलर ही खरीदना है, तो स्कूटी ले लो. इस से कभीकभार उन की दुकान के लिए वह कुछ सामान की खरीदारी कर के ला दिया करेगा. इस से उन्हें सहूलियत होगी. अभी से वह इसी बहाने खरीदफरोख्त भी सीख लेगा.

मगर स्कूटी के नाम से आदित्य चिढ़ गया. यह भी कोई सवारी है… यह तो फुटकर बनियों की गाड़ी है, जो इस से इधरउधर का सामान खरीद कर यहांवहां ढोते फिरते हैं. डिलीवरी बौय की तरह वह अपनी मेहनत के पैसों को इस में नहीं लगाने वाला.

बाइक की बात ही दूसरी है. स्कूटी तो ऐसा लगता है कि किसी टेबल के आगे बैठे हैं और बाइक पर अहसास होता है कि टांगों के नीचे कुछ दबा हुआ है.

कितना मजा आएगा, जब वह तेज रफ्तार से बाइक चलाएगा. लहरिया कट गाड़ी चलाने में तो वह पूरा उस्ताद है ही. उस के पापा अनपढ़ तो नहीं, मगर 8वीं पास पापा को इस सुख का क्या पता है.

सुरेखा ठीक कहती है, ‘‘यह जिंदगी तो मजे लेने के लिए है. बाकी तो सब रोना है ही जिंदगी में.’’

आदित्य रोते हुए अपनी जिंदगी नहीं बिता सकता. आखिरकार उस ने बाइक खरीद ही ली थी. सुरेखा के साथ जब वह गंगा पाथवे पर जाता, तो जैसे वह हवा में होता. जिंदगी जीना इसी को ही तो कहते हैं.

मगर पिछले हफ्ते रविवार की शाम को आदित्य का गंगा पाथवे पर एक्सीडैंट हो गया था. एक पिकअप वैन ने उसे ऐसी टक्कर मारी कि वह दूर तक घिसट गया. उसे होश तो तब आया, जब उस ने अपनेआप को अस्पताल में पाया. पूरे शरीर में जख्मों पर पट्टियां बंधी थीं. बायां पैर बुरी तरह फ्रैक्चर था.

पिकअप वैन वाला तो कब का भाग चुका था और पुलिस ने आदित्य के पर्स में रखे परिचयपत्र से उस के पापा और सेठ सुखसागर को भी जानकारी दी थी.

पुलिस का तो यह भी आरोप था कि एक तो उस की बाइक की स्पीड तय सीमा से ज्यादा थी और दूसरे वह लहरिया कट गाड़ी चला रहा था. इस आधार पर पुलिस ने उसी के खिलाफ आरोपपत्र तैयार कर दिए थे, जिसे बमुश्किल अपनी पहुंच के बल पर सेठ सुखसागर ने रफादफा कराया था.

सुरेखा भी एक दिन आदित्य को देखने आई थी और फिर जो वह लापता हुई, तो उस की खबर ही नहीं मिली. आजकल उस का फोन भी स्विच औफ हो चुका था.

वह सब तो अपनी जगह, मगर क्या आदित्य सचमुच अपाहिज हो जाएगा? सेठ सुखसागर तो यही कह रहे थे. मगर डाक्टर कमल ने उसे भरोसा दिलाया था कि वह पूरी तरह ठीक हो जाएगा. उस के पापा का चेहरा उस समय कैसा निरीह हो गया था, जब वह सेठ सुखसागर से बातें कर रहे थे.

ये पैसे वाले ऐसे ही होते हैं क्या? सिर्फ इस्तेमाल करना भर जानते हैं? मगर उस के पापा कितनी मजबूती से बोले थे कि वे अपनी सारी जमापूंजी और घरबार तक उस के इलाज के लिए बेच डालेंगे. वे मजदूरी करने तक को तैयार हैं उस के लिए और वह उन्हें बेवकूफ, गंवार, 8वीं पास कहता रहा.

अब आदित्य की आंखें सही माने में पूरी तरह खुल चुकी थीं. मगर इस के पहले उसे पूरी तरह ठीक होना है. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने पापा के लिए. यही उस का प्रायश्चित्त होगा. अब उसे जिंदगी में कुछ अच्छा कर के दिखाना ही है.

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