शाम के 5 बज रहे थे. मेरी सास के श्राद्ध में आए सभी मेहमान खाना खा चुके थे. ननदें भी एकएक कर के विदा हो चुकी थीं.
सासू मां की मौत के बाद के इन 13 दिनों तक तो मु झे किसी की तरफ देखने का मौका ही नहीं मिला, पर आज सारा घर सासू मां के बगैर बहुत खाली लग रहा था.
मेरे पति शायद अपने दफ्तर के कुछ कागजात ले कर बैठे थे और बेटा अगले महीने होने वाले इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. रसोई में थोड़ा काम बाकी था, जो बसंती कर रही थी.
मैं सासू मां के कमरे में आ कर थोड़ा सुस्ताने के लिए उन के पलंग पर बैठी ही थी कि फुलमतिया की आवाज सुनाई दी, ‘‘मेमसाहब, मैं जाऊं?’’
मैं ने पलट कर देखा, तो वह कमरे की चौखट के सहारे खड़ी थी. थकीथकी सी फुलमतिया आज कुछ ज्यादा ही बूढ़ी लग रही थी.
मेरे हिसाब से फुलमतिया की उम्र 40-45 से ज्यादा नहीं है, जबकि इस उम्र की मेरी सहेलियां तो पार्टी में यों फुदकती हैं कि उर्मिला मातोंडकर और माधुरी दीक्षित भी शरमा जाएं, पर यहां इस बेचारी को देखो.
वह फिर से बोली, ‘‘मेमसाहब, और कोई काम बाकी तो नहीं रह गया है? अच्छी तरह सोच लो.’’
‘‘नहीं फुलमतिया, अब जितना काम बाकी है, वह बसंती कर लेगी. वैसे भी तुम ने पिछले 10-12 दिनों से मेहमानों की देखभाल में बहुत मेहनत की है, अब घर जा कर आराम करो.
‘‘तुम ने खाना तो खा लिया था न ठीक से? मु झे तो कुछ देखने का मौका ही नहीं मिला. एक तरफ श्राद्ध, दूसरी तरफ मेहमानों का आनाजाना. ऊपर से भंडार संभालना. लोग सिर्फ एकलौती बहू के सुख को देखते हैं, उस के झं झट और जिम्मेदारी को नहीं.’’