Hindi Story: मुरझाया मन – जब प्यार के बदले मिला दर्द

Hindi Story: ‘‘कोई घर अपनी शानदार सजावट खराब होने से नहीं, बल्कि अपने गिनेचुने सदस्यों के दूर चले जाने से खाली होता है,’’ मां उस को फोन करती रहीं और अहसास दिलाती रहीं, ‘‘वह घर से निकला है तो घर खालीखाली सा हो गया है.’’

‘मां, अब मैं 20 साल का हूं, आप ने कहा कि 10 दिन की छुट्टी है तो दुनिया को समझो. अब वही तो कर रहा हूं. कोई भी जीवन यों ही तो खास नहीं होता, उस को संवारना पड़ता है.’

‘‘ठीक है बेबी, तुम अपने दिल की  करो, मगर मां को मत भूल जाना.’’ ‘मां, मैं पिछले 20 साल से सिर्फ आप की ही बात मानता आया हूं. आप जो कहती हो, वही करता हूं न मां.’

‘‘मैं ने कब कहा कि हमेशा अच्छी बातें करो, पर हां मन ही मन यह मनोकामना जरूर की,’’ मां ने ढेर सारा प्यार उडे़लते हुए कहा. वह अब मां को खूब भावुक करता रहा और तब तक जब तक कि मां की किटी पार्टी का समय नहीं हो गया.

जब मां ने खुद ही गुडबाय कहा, तब जा कर उस ने चैन पाया. बस कुछ घंटों में वह भवाली पहुंचने वाला था. अभी बस रामपुर पहुंची थी, किला दूर से दिखाई दे रहा था. कितनी चहलपहल और रौनक थी रामपुर में. उस ने बाहर  झांक कर देखा. बहुत ही मजेदार नजारे थे.

एक किशोरी नीबू पानी बेच रही थी. उस ने भी खरीदा और गटागट पी गया. बस फिर चल पड़ी थी. इस बार वह अपनी मरजी से बस में ही आया था. मां ने 50,000 रुपए उस के खाते में डाले थे कि टैक्सी कर लेना. पर वह टैक्सी से नहीं गया. दरअसल, वह सफर के पलपल का भरपूर मजा लेना चाहता था.

नीबू पानी पी कर उस को मीठी सी  झपकी आ गई और कहा कि रामपुर के बाद पंतनगर, टांडा का घनघोर जंगल, रुद्रपुर, बिलासपुर, काठगोदाम कब पार किया, उस को खबर ही नहीं लगी.

‘भवालीभवाली’ का शोर सुन कर उस की आंख खुली. वह पहली बार किसी पहाड़ी सफर पर गया था. जब उस ने सफेद बर्फ से संवरे ऊंचेऊंचे पहाड़ देखे, तो अपलक  निहारता ही रह गया. वह मन भर कर इस खूबसूरती को पी लेना चाहता था.

उधर एक लड़की रेडीमेड नाश्ता बेच रही थी. उस पहाड़ी नजर ने उस के इश्किया अंदाज को भांप लिया और   उस चाय बेचने वाले नौजवान से उस को संदेश भिजवाया और वह नौजवान मस्ती में  जा कर फुसफुसाया उस के कानों में.

‘‘पलकें भी नहीं  झपका रहे हो, ये कैसे देख रहे हो मु झे.’’

‘‘हां, क्या…?’’ वह चौंक ही पड़ा, पर उस से पहले नौजवान ने उस के ठंड से कंपकंपाते हुए हाथों में गरमागरम चाय थमा दी.

उस ने चाय सुड़कते हुए उस नौजवान की आवाज को फिर याद किया और अभीअभी कहे गए शब्द दोहराए, तो पहाड़ी लड़की के सुर को उस के दिल ने भी सुन और सम झ लिया. पहले तो उस को कुछ संकोच सा हुआ और मन ही मन उस ने सोचा कि अभी इस जमीन पर पैर रखे हुए 10 मिनट ही हुए हैं, इतनी जल्दी भी ठीक नहीं.

मगर अगले ही सैकंड उस को याद आया कि बस 10 दिन हैं उस के पास, अब अगर वह हर बात और हर मौका टालता ही जाएगा, तो कुछ तजरबा होगा कैसै? इसलिए वह एक संतुलन बनाता हुआ  नजरें हटाए बगैर ही बुदबुदाया.

बचपन में मैं ने अनुभव से एक बात सीखी थी कि फोटो लेते समय शरीर के किसी अंग को हरकत नहीं करनी है, सांस भी रोक कर रखना है.

‘‘अब मेरी जो आंखें हैं, वे अपनी सांस रोक कर मेरे दिल में बना रही हैं तुम्हारा स्कैच,’’ उस की यह बात वहां उसी नौजवान ने जस की तस पहुंचा दी.

उस के आसपास वाले एक स्थानीय लड़के ने भी यह सब सुना और उस को मंदमंद मुसकराता देख कर पहाड़ी लड़की शर्म से लाल हो गई. इस रूहानी इश्क को महसूस कर वहां की बर्फ भी  जरा सी पिघल गई और पास बह रही पहाड़ी नदी के पानी में मिल गई.

पर, 10 मिनट बाद ही उन दोनों की गपशप शुरू हो गई, वह लड़की टूरिस्ट गाइड थी. 4 घंटे के 300 रुपए वह मेहनताना लेती थी.

‘वाह, क्या सचमुच,’ उस ने मन ही मन सोचा. मगर आगे सचमुच बहुत सुविधा हो गई. उसी लड़की ने वाजिब दामों पर एक गैस्ट हाउस दिलवा दिया और अगले दिन नैनीताल पूरा घुमा लाई.

नैनीताल में एक साधारण भोजनालय में खाना और चायनाश्ता दोनों ने साथसाथ ही किया. 30 रुपए बस का किराया और दिनभर खानाचाय चना जोर गरम सब मिला कर 500 रुपए भी पूरे खर्च नहीं हुए थे.

कमाल हो गया. यह लड़की तो उस के लिए चमत्कार थी. दिनभर में वह सम झ गया था कि लड़की बहुत सम झदार भी थी. वे लोग शाम को वापस भवाली लौट आए थे. कितनी ऊर्जा थी उस में कमाल. वह मन ही मन उस के लिए कहता रहा. एकाध बार उस के चेहरे पर कुछ अजीब सी उदासी देख कर वह बोली थी, ‘‘यह लो अनारदाना… मुंह में रखो और सेहत बनाओ.’’

उस ने अनारदाना चखा. सचमुच बहुत ही जायकेदार था, वह कहने लगी, ‘‘सुनो, जो निराश हो गई है, वह अगर तुम्हारा मन है, तो किसी भी  उपाय  से कोई फर्क नहीं पड़ेगा पहाड़समंदर घूमने से, संगीतकलासाहित्य से भी बस थोड़ा फर्क पड़ेगा, और वह भी कुछ देर के लिए निराशा की बेचैनी तो बस उदासी तोड़ कर जीने से दूर होती है, अपने मूड के खिलाफ बगावत करने से दूर होती है, हर माहौल आंखों से आंखें मिला कर खड़े होने से दूर होती है.

‘‘शान से, असली इनसान की तरह जीने के मजे लूटने हैं, तो जागरूक हो जाओ. अपने भीतर जितना भी जीवन है, औरों को बांटते चलो, फिर देखो, कितना अनदेखा असर होता है. और अपनी बात पूरी कर के उस ने 6 घंटे के पूरे पैसे उस को थमा दिए.

वह लड़की उस से उम्र में कुछ  बड़ी थी. आगे रानीखेत, अलमोड़ा वगैरह की बस यात्रा उस ने अच्छी तरह सम झा दी थी. उस ने कुछ भी ठीक से नहीं सुना. यही सोच कर कि वह लड़की भी साथ तो चलेगी ही. मगर वह हर जगह अकेला ही गया. उस के बाद वह 4 दिन उस को  बिलकुल नजर नहीं आई. अब कुल  4 दिन और बचे थे, उस ने पिथौरागढ़ घूमने का कार्यक्रम बनाया और लड़की साथ हो ली. उस को उस लड़की में कुछ खास नजर आया. सब से कमाल की बात तो यह थी कि मां के दिए हुए रुपए काफी बच गए थे या यों कहें कि उस में से बहुत सी रकम वैसे की वैसी ही पड़ी थी.

उस ने चीड़ और देवदार की सूखी लकड़ी से बनी कुछ कलाकृतियां खरीद लीं और वहां पर शाल की फैक्टरी से मां, उन की कुछ सहेलियां और अपने दोस्तों के लिए शाल, मफलर, टोपियां वगैरह पसंद कर खरीद लीं. 2 दिन बाद वे दोनों पिथौरागढ़ से वापस आ गए.

यात्रा बहुत रोमांचक रही और सुकूनदायक भी. वह उस से कुछ कहना चाहता था, पर वह हमेशा ही उलझी हुई मिलती थी.

मन की बात कहने का मौका अपने बेकरार दिल के सामने बेकार कर देने का समय नहीं था. अब एक दिन और बचा था. उस ने आसपास के इलाके ज्योलीकोट और 2 गांव घूमने का निश्चय किया. वह यह सब नक्शे पर देख ही रहा था कि वह लड़की उस के पास भागीभागी चली आई. हांफते हुए वह बोली, ‘‘जरा सी ऐक्टिंग कर दो न.’’

‘‘क्या… पर, क्यों…?’’ वह  चौंक पड़ा.

‘‘अरे, सुनो. तुम कह रहे थे न, तुम बहुत अच्छी आवाज भी निकाल लेते हो.’’

‘‘यह क्या कह रही हो? मैं ऐक्टिंग और अभी… यह सब क्या है?’’

‘‘ओह, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं फिदा हूं. तुम बस मस्तमगन रहते हो और फालतू कुछ सोचने में समय खराब नहीं करते. चलोचलो, शुरू हो जाओ न.

‘‘हांहां ठीक है, अभी करता हूं.’’

‘‘सुनो, अभी यहां एक लफंगा आएगा. उस को कह दो न कि तुम फिल्म डायरैक्टर हो और अब मैं तुम्हारी अगली हीरोइन.’’

‘‘पर, मैं तो अभी बस 20 साल का  हूं?’’ कह कर वह टालने लगा.

‘‘हांहां, उस से कुछ नहीं होता, बस इतना कर दो. यह पुराना आशिक है मेरा, मगर तंग कर रहा है. इसे जरा बता दो कि तुम मुझे कितना चाहते हो.

‘‘फिर, मुझे तसल्ली से सगाई करनी है. वह देखो, वह बस चालक, वह उधर देखो, वही जो हम को पिथौरागढ़ अपनी बस में ले कर गया और वापस भी लाया.’’

वह बोलती जा रही थी और उस का दिमाग चकरघिन्नी बना जा रहा था.

वह अचानक गहरे सदमे में आ गया. पर उस की बात मान ली और उम्दा ऐक्टिंग की. लड़की ने दूर से सारा तमाशा देखा और उंगली का इशारा भी करती रही.

वह उसी समय बैग ले कर दिल्ली की तरफ जाती हुई एक बस में चढ़ा और पलट कर भी नहीं देखा. उस को लगा कि उस के दिल में गहरे घाव हो गए हैं और उस ने खुद बहुत सारा नमक अपने किसी घाव में लगा दिया है.

Hindi Story: चोट – पायल ने योगेश को कैसी सजा दी

Hindi Story: योगेश की निगाहें तो एकटक पायल पर लगी हुई थीं. उस का खूबसूरत चेहरा योगेश की आंखों से हो कर दिल में उतर गया था, जिस से उस के दिल में एक हलचल सी मच गई थी.

योगेश की क्लास के सभी छात्र अपना काम पूरा करने में लगे हुए थे और वह कुरसी पर बैठा एकटक पायल को देखे जा रहा था.

पायल कुछ ही महीने पहले योगेश के स्कूल में आई थी. उस की उम्र 16 साल थी और उस ने 10 वीं क्लास में दाखिला लिया था.

योगेश शहर के एक नामचीन स्कूल में अंगरेजी का मास्टर था. उस की उम्र तकरीबन 45 साल थी.  वह शादीशुदा और एक बच्ची का बाप था.

स्वभाव से रंगीनमिजाज योगेश की निगाहें स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों के बदन को टटोलती रहती थीं. ऐसे में जो लड़की उस के मन को भा जाती थी, वह उस के पीछे पड़ जाता था. प्यार से, मनुहार से या फिर इम्तिहान में फेल करने का डर दिखा कर वह उस का जिस्मानी शोषण करता था.

ऐसा करते हुए योगेश उस लड़की के मन में इतना डर भर देता था कि पीडि़त लड़की चाह कर भी उस के खिलाफ मुंह नहीं खोल पाती थी.

योगेश की निगाहें पायल पर थीं. जब भी मौका मिलता, वह उसे छूनेसहलाने की कोशिश करता. ऐसे में पायल चौंक कर उसे देखती, फिर न जाने क्यों उस के होंठों पर एक मुसकान फैल जाती. पायल की यह मुसकान योगेश की वासना को हवा देती थी.

दरअसल, पायल के रसीले होंठ जब भी मुसकराते, तो ऐसा लगता मानो उस से रस टपक पड़ेगा. ऐसे में योगेश का दिल चाहता कि वह उस के होंठों पर अपने होंठ रख कर रस को पी ले.

स्कूल में ज्यादा से ज्यादा योगेश पायल को छू सकता था, सहला सकता था, पर उस के होंठों और बदन से छलकती जवानी का पान नहीं कर सकता था. इस के लिए एकांत की जरूरत थी और यह एकांत उसे अपने घर पर ही मिल सकता था.

पर घर पर योगेश की पत्नी थी, पर उस से उसे कोई खास डर न था. वह एक सीधीसादी और घरेलू औरत थी. वह आएदिन मायके जाती रहती थी. वह इस मौके का फायदा उठा सकता था और अपनी इच्छा पूरी कर सकता था. पर इस के लिए उसे पायल को अपने जाल में फांसना जरूरी था.

‘‘पायल, तुम्हारी अंगरेजी तो बहुत ही कमजोर है,’’ एक दिन योगेश उस की कौपी देखते हुए बोला, ‘‘अगर ऐसा ही रहा, तो तुम इम्तिहान में अच्छे नंबर नहीं ला पाओगी.’’

योगेश की बातें सुन कर पायल के चेहरे पर उदासी छा गई. वह बोली, ‘‘सर, मैं कोशिश तो बहुत करती हूं, पर अंगरेजी मेरी समझ में ही नहीं आती है.’’

‘‘आ जाएगी, अगर मैं तुम्हें पढ़ाऊंगा…’’ योगेश अपने असली मकसद पर आता हुआ बोला, ‘‘ऐसा करो, तुम मेरे घर आ जाया करो, मैं तुम्हें पढ़ा दिया करूंगा.’’

‘‘पर, मैं आप की फीस नहीं दे पाऊंगी…’’ पाय ने मजबूरी जाहिर की.

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘थैंक्यू सर…’’ पायल बोली, ‘‘तो मैं कब से आ जाऊं?’’

‘‘कल से ही आ जाओ.’’

‘‘ठीक है.’’

पायल योगेश के घर जा कर उस से पढ़ने लगी. शुरूशुरू में सबकुछ ठीकठाक रहा, फिर उसे थोड़ी उलझन सी होने लगी.

दरअसल, योगेश पढ़ातेपढ़ाते उस के बदन को जहांतहां छूने लगता था. वह दिखाता तो ऐसा था कि ऐसा जानेअनजाने में हो जाता है, पर धीरधीरे पायल को यह बात समझ में आने लगी थी कि वह जानबूझ कर ऐसा करता है. पर चूंकि योगेश ने कभी मर्यादा की सीमा पार करने की कोशिश न की थी, सो वह उस की इन हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

योगेश की यह हरकत आगे चल कर उसे कितनी महंगी पड़ने वाली है, तब पायल को इस बात का एहसास न था.

उस दिन रविवार था. पायल उस शाम जब योगेश से पढ़ने घर पहुंची, तो उस के घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. पूछने पर योगेश ने बताया कि उस की पत्नी अपनी बेटी के साथ मायके गई हुई है और 3 दिन बाद लौटेगी.

आज योगेश ने उसे अपने बैडरूम में बिठाया था. वह थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर निकला, फिर आ कर कमरे में बिछावन पर उस के करीब बैठ गया था.

न जाने क्यों पायल का मन किसी अनजान मुसीबत से घबरा रहा था, पर वह अपनेआप को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, आज मुझे क्या पढ़ाएंगे?’’

‘‘आज मैं तुम्हें प्यार का सबक पढ़ाऊंगा,’’ योगेश वासना की निगाहों से पायल के उभारों को घूरता हुआ बोला.

‘‘क्या मतलब है सर?’’ पायल थोड़ा चौंकते हुए बोली.

‘‘मतलब यह कि तुम बहुत ही खूबसूरत हो और मेरा मन तुम्हारी खूबसूरती पर आ गया है.’’

‘‘आप कैसी बातें कर रहे हैं सर?’’ पायल कठोर आवाज में बोली, ‘‘यह मत भूलिए कि आप मेरे गुरु हैं.’’

‘‘आज मैं न तो तुम्हारा गुरु हूं और न तुम मेरी शिष्या. इस समय मैं प्यार की आग में झुलसता एक मर्द हूं और तुम यौवन रस से भरपूर एक औरत…

‘‘आओ, मेरी बांहों में आओ. मेरे तनमन पर प्यार की ऐसी बरसात करो कि मेरी महीनों की प्यास बुझ जाए,’’ कहते हुए योगेश ने पायल को अपनी बांहों में भींच लिया.

पायल रोई, छटपटाई, गुरुशिष्या के पवित्र रिश्ते की दुहाई दी, पर योगेश ने उस की एक न सुनी. वह वासना के मद में इतना अंधा हो चुका था कि उस ने पायल को तभी छोड़ा, जब उस की आबरू की चादर को तारतार कर दिया.

पायल कुछ देर तक तो उसे नफरत से घूरती रही, फिर अपने कपड़े संभालती हुई कमरे से निकल गई.

उस रात जब पायल अपने घर पर बिछावन पर लेटी, तो नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

पायल ने सोचा कि वह अपनी मां को इस हादसे के बारे में बता दे, पर अगले ही पल उसे विचार आया कि वे यह सब सुनते ही जीतेजी मर जाएंगी. वे तो इस आस में मेहनतमजदूरी कर पायल को पढ़ा रही थीं, ताकि वह पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके. ऐसे में इस हादसे के बारे में सुन कर वे बुरी तरह टूट जाएंगी.

पायल सारी रात अपने मन में उठे विचारों से लड़ती रही और जब सुबह हुआ, तो इस बात का फैसला कर चुकी थी कि वह योगेश के किए की सजा जरूर दे कर रहेगी, चाहे इस के लिए उसे कुछ भी करना पड़े.

योगेश ने पायल को अपनी वासना का शिकार बना तो डाला था, पर अब इस बात से डरा हुआ था कि कहीं वह उस की करतूत किसी और को न बता दे.

इस घटना के बाद 2 दिन तक पायल स्कूल नहीं आई. इस बीच योगेश एक अनजाने डर से घिरा रहा. तीसरे दिन पायल स्कूल आई. उसे स्कूल आया देख योगेश के मन को थोड़ी राहत मिली.

योगेश ने उसे डरतेडरते देखा तो पाया कि वह पहले की ही तरह सामान्य दिख रही थी. उस की ऐसी हालत देख योगेश के होंठों पर मक्कारी भरी मुसकान तैर गई. उसे पक्का यकीन हो गया कि पायल पर उस की धमकी काम कर गई है.

योगेश को तेज झटका तब लगा, जब अगले दिन शाम को पायल उस से पढ़नेघर आ गई. पढ़ाने को तो वह उसे पढ़ाता रहा, पर उस के मन में एक अजीब सी हलचल मची रही.

पढ़ाई खत्म करने के बाद योगेश पायल को गौर से देखता हुआ बोला, ‘‘पायल, तुम्हें मेरे उस दिन की हरकत बुरी तो नहीं लगी?’’

‘‘लगी,’’ पायल उस की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘पर एक अजीब सा मजा भी मिला,’’ कहते हुए पायल के होंठों पर एक मादक मुसकान उभरी.

‘‘सच?’’ योगेश की आंखों में हैरानी भरी चमक उभरी.

‘‘बिलकुल.’’

‘‘क्या तुम फिर से वैसा मजा पाना चाहोगी?’’

‘‘हां,’’ कह कर पायल तेजी से कमरे से निकल गई.

योगेश कई पल तक तो हैरान सा कमरे में खड़ा रहा, फिर उस के मन में वासना की तरंगें उठने लगीं. इस के बाद तो योगेश की जब इच्छा होती, पायल को बिस्तर पर लिटा लेता. यह खेल वह या तो किसी होटल के कमरे में खेलता या फिर एकांत मिलने पर अपने घर पर. वह अपनी इस कामयाबी पर बेहद खुश था.

एक शाम पायल योगेश के घर पढ़ने आई हुई थी. योगेश उसे पढ़ा कम छेड़छाड़ ज्यादा कर रहा था. जब उस ने पायल को अपनी बांहों में भर लेना चाहा, तो पायल मुसकराते हुए बोली, ‘‘सर, मैं आज आप को एक चीज दिखाना चाहती हूं. सच कहती हूं, इसे देख कर आप को बड़ा मजा आएगा.’’

‘‘क्या?’’

पायल ने अपनी किताब से कुछ फोटो निकाले और योगेश को थमा दिए. योगेश की निगाह जैसे ही उन फोटो पर पड़ी, वह ऐसे उछला, मानो किसी बिच्छु ने उसे डंक मार दिया हो.

‘‘यह क्या है?’’ योगेश ने डरते हुए पूछा.

‘‘यह उन पलों के फोटो हैं, जब आप अपनी एक शिष्या की आबरू से खेल रहे थे…’’ पायल के मुंह से नफरत भरी आवाज फूटी, ‘‘जरा सोचिए, अगर ये फोटो आप की पत्नी या पुलिस तक पहुंच गए, तो आप की क्या गत होगी?’’

‘‘नहीं,’’ योगेश के मुंह से चीख निकल गई.

‘‘मैं ऐसा नहीं करूंगी, अगर आप ने मेरी मांग पूरी कर दी तो…’’ पायल इतराते हुए अदा से बोली.

‘‘कैसी मांग?’’ योगेश पायल को यों देख रहा था, मानो वह दुनिया का आठवां अजूबा हो.

‘‘आप ने मेरी इज्जत से खिलवाड़ किया है. मुझे पत्नी की तरह भोगा है, तो मुझे सचमुच की पत्नी बना लीजिए.’’

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’ योेगेश चीखा, ‘‘मैं पहले से ही शादीशुदा हूं और एक बच्ची का बाप भी हूं.’’

‘‘यह बात आप को मेरी इज्जत से खेलते समय सोचनी चाहिए थी.’’

‘‘पर मेरी पत्नी यह बात कभी नहीं मानेगी.’’

‘‘तो फिर उसे घर से निकाल दीजिए. वैसे भी आप जिस ढंग से प्यार का खेल खेलते हैं, वह उस के बस की बात नहीं है.’’

‘‘यह नहीं हो सकता.’’

‘‘तो फिर वह होगा, जो मैं चाहती हूं. मैं इस फोटो के साथ पुलिस के पास जाऊंगी और वहां इस बात की रिपोर्ट लिखवा दूंगी कि आप ने मेरे साथ रेप किया है. उस के बाद क्या होगा? आप समझें.’’

योगेश ने अपना सिर पीट लिया. एक तरफ कुआं था, तो दूसरी तरफ खाई. काफी देर तक वह परेशानी से अपना माथा मलता रहा, फिर बोला, ‘‘मुझे सोचने के लिए थोड़ा वक्त दो.’’

‘‘ठीक है, सोच लीजिए. पर सोचने में इतना ज्यादा समय मत लगाइएगा कि मैं पुलिस के पास पहुंच जाऊं.’’

योगेश ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस नतीजे पर पहुंचा कि उस की भलाई इसी में है कि वह पत्नी को घर से निकाल दे. वैसे भी पायल की खिलती जवानी के आगे अब पत्नी उसे बासी लगने लगी थी.

योगेश ने उलटेसीधे आरोप लगा कर अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया और पायल को पत्नी की तरह अपने घर में रख लिया. पर पायल के मन में तो कुछ और था. वह योगेश को पूरी तरह बरबाद कर देना चाहती थी. वह दोनों हाथों से उस की दौलत लुटाने लगी.

पायल तो उस के घर को ऐयाशी का अड्डा बनाने पर तुल गई थी. वह यारदोस्तों को अपने साथ उस के घर में लाने लगी थी और उस की मौजूदगी में ही बंद कमरे में उन के साथ मौजमस्ती करने लगी थी.

योगेश यह सब देख कर मन ही मन कुढ़ता रहता. वह उस समय को कोसता, जब उस ने पायल की जवानी से खेलने का फैसला किया था. उस ने अपनी हंसतीखेलती दुनिया उजाड़ ली थी. उस ने अपनी पत्नी और बच्ची को घर से निकाल दिया था और अब वह पछतावे की आग में जल रहा था.

पायल ने न केवल उस के मकान पर कब्जा जमा लिया था, बल्कि योगेश की जिंदगी को नरक बना दिया था.पर एक रात योगेश का सब्र जवाब दे गया. उस रात पायल अपने एक दोस्त के साथ आई थी और आते ही कमरे में बंद हो गई थी. जब तक दरवाजा खुलता, तब तक योगेश की हालत अजीब हो गई थी.

जैसे ही पायल का दोस्त घर से बाहर निकला, योगेश पायल पर बरस पड़ा, ‘‘बहुत हुआ, अब यह सब बंद करो. मैं अपने घर को ऐयाशी का अड्डा बनते नहीं देख सकता.’’

‘‘यह सबक तो मैं ने आप से ही सीखा है सर…’’ पायल बोली, ‘‘और अब आप के लिए अच्छा यही होगा कि आप यह सब देखने की आदत डाल लें.’’ योगेश के मुंह से बोल न फूटे. वह खून के आंसू पी कर रह गया.

Hindi Story: दोस्ती – क्या एक हो पाए आकांक्षा और अनिकेत ?

Hindi Story, लेखिका – रश्मि वर्मा

आकांक्षा खुद में सिमटी हुई दुलहन बनी सेज पर पिया के इंतजार में घडि़यां गिन रही थी. अचानक दरवाजा खुला, तो उस की धड़कनें और बढ़ गईं. मगर यह क्या? अनिकेत अंदर आया.

दूल्हे के भारीभरकम कपड़े बदल नाइटसूट पहन कर बोला, ‘‘आप भी थक गई होंगी. प्लीज, कपड़े बदल कर सो जाएं. मुझे भी सुबह औफिस जाना है.’’

आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, यह सुन कर और झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली. अपने सूटकेस से खूबसूरत नाइटी निकाल कर पहनी और फिर वह भी बिस्तर पर एक तरफ लुढ़क गई.

अजीब थी सुहागसेज. 2 अनजान जिस्म जिन्हें एक करने में दोनों के परिवार वालों ने इतनी जहमत उठाई थी, बिना एक हुए ही रात गुजार रहे थे. फूलों को भी अपमान महसूस हुआ. वरना उन की खुशबू अच्छेअच्छों को मदहोश कर दे.

अगले दिन नींद खुली तो देखा अनिकेत औफिस के लिए जा चुका था. आकांक्षा ने एक भरपूर अंगड़ाई ले कर घर का जायजा लिया.

2 कमरों का फ्लैट, बालकनी समेत अनिकेत को औफिस की तरफ से मिला था. अनिकेत एअरलाइंस कंपनी में काम करता है. कमर्शियल विभाग में. आकांक्षा भी एक छोटी सी एअरलाइंस कंपनी में परिचालन विभाग में काम करती है. दोनों के पिता आपस में दोस्त थे और उन का यह फैसला था कि अनिकेत और आकांक्षा एकदूसरे के लिए परफैक्ट मैच रहेंगे.

आकांक्षा को पिता के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं थी, पर अनिकेत ने पिता के दबाव में आ कर विवाह का बंधन स्वीकार किया था. आकांक्षा ने औफिस से 1 हफ्ते की छुट्टी ली थी. सब से पहले किचन में जा कर चाय बनाई, फिर चाय की चुसकियों के साथ घर को संवारने का प्लान बनाया.

शाम को अनिकेत के लौटने पर घर का कोनाकोना दमक रहा था. जैसे ही अनिकेत ने घर में कदम रखा, करीने से सजे घर को देख कर उसे लगा क्या यह वही घर है जो रोज अस्तव्यस्त होता था? खाने की खुशबू भी उस की भूख को बढ़ा रही थी.

आकांक्षा चहकते हुए बोली, ‘‘आप का दिन कैसा रहा?’’

‘‘ठीक,’’ एक संक्षिप्त सा उत्तर दे कर अनिकेत डाइनिंग टेबल पर पहुंचा. जल्दी से खाना खाया और सीधा बिस्तर पर. औरत ज्यादा नहीं पर दो बोल तो तारीफ के चाहती ही है, पर आकांक्षा को वे भी नहीं मिले. 5 दिन तक यही दिनचर्या चलती रही.

छठे दिन आकांक्षा ने सोने से पहले अनिकेत का रास्ता रोक लिया, ‘‘आप प्लीज 5 मिनट बात करेंगे?’’

‘‘मुझे सोना है,’’ अनिकेत ने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

‘‘प्लीज, कल से मुझे भी औफिस जाना है. आज तो 5 मिनट निकाल लीजिए.’’

‘‘बोलो, क्या कहना चाहती हो,’’ अनिकेत अनमना सा बोला.

‘‘आप मुझ से नाराज हैं या शादी से?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप जानते हैं मैं क्या जानना चाहती हूं?’’

‘‘प्लीज डैडी से बात करो, जिन का फैसला था.’’

‘‘पर शादी तो आप ने की है? आकांक्षा को भी गुस्सा आ गया.’’

‘‘जानता हूं. और कुछ?’’ अनिकेत चिढ़ कर बोला.

आकांक्षा समझ गई कि अब सुलझने की जगह बात बिगड़ने वाली है. बोली, ‘‘क्या यह शादी आप की मरजी से नहीं हुई है?’’

‘‘नहीं. और कुछ?’’

‘‘अच्छा, ठीक है पर एक विनती है आप से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘क्या हम कुछ दिन दोस्तों की तरह रह सकते हैं?’’

‘‘मतलब?’’ अनिकेत को आश्चर्य हुआ.

‘‘यही कि 1 महीने बाद मेरा इंटरव्यू है. मुझे लाइसैंस मिल जाएगा और फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली जाऊंगी 3 सालों के लिए. उस दौैरान आप को जो उचित लगे, वह फैसला ले लीजिएगा… यकीन मानिए आप को परेशानी नहीं होगी.’’

अनिकेत को इस में कोई आपत्ति नहीं लगी. फिर दोनों साथसाथ नाश्ता करने लगे. शाम को घूमने भी जाने लगे. होटल, रेस्तरां यहां तक कि सिनेमा भी. आकांक्षा कालेजगर्ल की तरह ही कपड़े पहनती थी न कि नईनवेली दुलहन की तरह. उन्हें साथ देख कर कोई प्रेमी युगल समझ सकता था, पर पतिपत्नी तो बिलकुल नहीं.

कैफे कौफीडे हो या काके दा होटल, दोस्तों के लिए हर जगह बातों का अड्डा होती है और आकांक्षा के पास तो बातों का खजाना था. धीरेधीरे अनिकेत को भी उस की बातों में रस आने लगा. उस ने भी अपने दिल की बातें खोलनी शुरू कर दी.

एक दिन रात को औफिस से अनिकेत लेट आया. उसे जोर की भूख लगी थी. घर में देखा तो आकांक्षा पढ़ाई कर रही थी. खाने का कोई अतापता नहीं था.

‘‘आज खाने का क्या हुआ?’’ उस ने पूछा.

‘‘सौरी, आज पढ़तेपढ़ते सब भूल गई.’’

‘‘वह तो ठीक है… पर अब क्या?’’

‘‘एक काम कर सकते हैं, आकांक्षा को आइडिया सूझा,’’ मैं ने सुना है मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे आधी रात तक परांठे और चाय मिलती है. क्यों न वहीं ट्राई करें?

‘‘क्या?’’ अनिकेत का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.

‘‘हांहां, मेरे औफिस के काफी लोग जाते रहते हैं… आज हम भी चलते हैं.’’

‘‘ठीक है, कपड़े बदलो. चलते हैं.’’

‘‘अरे, कपड़े क्या बदलने हैं? ट्रैक सूट में ही चलती हूं. बाइक पर बढि़या रहेगा… हमें वहां कौन जानता है?’’

मूलचंद पर परांठेचाय का अनिकेत के लिए भी बिलकुल अलग अनुभव था. आखिर वह दिन भी आ ही गया जब आकांक्षा का इंटरव्यू था. सुबहसुबह घर का काम निबटा कर वह फटाफट डीजीसीए के लिए रवाना हो गई. वहां उस के और भी साथी पहले से मौजूद थे. नियत समय पर इंटरव्यू हुआ.

आकांक्षा के जवाबों ने एफआईडी को भी खुश कर दिया. उन्होंने कहा, ‘‘जाइए, अपने दोस्तों को भी बताइए कि आप सब पास हो गए हैं.’’

आकांक्षा दौड़ते हुए बाहर आई और फिल्मी अंदाज में टाई उतार कर बोली, ‘‘हे गाइज, वी औल क्लीयर्ड.’’ फिर क्या था बस, जश्न का माहौल बन गया. खुशीखुशी सब बाहर आए. आकांक्षा सोच रही थी कि बस ले या औटो तभी उस का ध्यान गया कि पेड़ के नीचे अनिकेत उस का इंतजार कर रहा है. आकांक्षा को अपने दायरे का एहसास हुआ तो पीछे हट कर बोली, ‘‘आप आज औफिस नहीं गए?’’

‘‘बधाई हो, आकांक्षा. तुम्हारी मेहनत सफल हो गई. चलो, घर चलते हैं. मैं तुम्हें लेने आया हूं,’’ अनिकेत ने मुसकराते हुए बाइक स्टार्ट की.

आकांक्षा चुपचाप पीछे बैठ गई. घर पहुंच कर खाना खा कर थोड़ी देर के लिए दोनों सो गए. शाम को आकांक्षा हड़बड़ा कर उठी और फिर किचन में जाने लगी तो अनिकेत ने रोक लिया, ‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं है. हम आज खाना बाहर खाएंगे या मंगा लेंगे.’’

‘‘ओके,’’ आकांक्षा अपने कमरे में आ कर अपना बैग पैक करने लगी.

‘‘यह क्या? तुम कहीं जा रही हो?’’ अनिकेत ने पूछा.

‘‘जी, आप के साथ 1 महीना कैसे कट गया, पता ही नहीं चला. अब बाकी काम डैडी के पास जा कर ही कर लूंगी. और वहीं से 1 हफ्ते बाद अमेरिका चली जाऊंगी.’’

‘‘तो तुम मुझे छोड़ कर जा रही हो?’’

‘‘जी नहीं. आप से जो इजाजत मांगी थी, उस की आखिरी रात है आज, आकांक्षा मुसकराते हुए बोली.’’

‘‘जानता हूं, आकांक्षा मैं तुम्हारा दोषी हूं. पर क्या आज एक अनुरोध मैं तुम से कर सकता हूं? अनिकेत ने थोड़े भरे गले से कहा.’’

‘‘जी, बोलिए.’’

‘‘हम 1 महीना दोस्तों की तरह रहे. क्या अब यह दोस्ती प्यार में बदल सकती है? इस 1 महीने में तुम्हारे करीब रह कर मैं ने जाना कि अतीत की यादों के सहारे वर्तमान नहीं जीया जाता… अतीत ही नहीं वर्तमान भी खूबसूरत हो सकता है. क्या तुम मुझे माफ कर सकती हो?’’

उस रात आकांक्षा ने कुछ ही पलों में दोस्त से प्रेमिका और प्रेमिका से पत्नी का सफर तय कर लिया, धीरधीरे अनिकेत के आगोश में समा कर.

Romantic Story: प्रेम की सूरत

Romantic Story, कहानी- धीरज राणा भायला

उसका कद लंबा था. अभिनेत्रियों जैसे नयन और रंग जैसे दूध और गुलाब का मिश्रण. वह लोगों की अपने इर्दगिर्द घूमती नजरों की परवा किए बिना बाजार में शौपिंग कर रही थी. उस के दोनों हाथ बैगों से भरे थे.

पिछले आधे घंटे में उस के पापा का 4 बार फोन आ चुका था और हर बार वह बस इतना बोलती, ‘‘पापा, बस 10 मिनट और.’’

आखिरकार वह बाजार की गली से बाहर मेन रोड पर खड़ी गाड़ी के पास पहुंची और सामान गाड़ी की डिकी में रखने लगी.

मौल से शौपिंग करने के बाद प्रीति थक गई थी. लंबी, पतली प्रीति देखने में बेहद खूबसूरत थी. उस का गोरा रंग उसे और मोहक बना देता था. उस के लंबे बाल बड़े सलीके से उस के मुंह पर गिर रहे थे.

उसी वक्त एक मोटरसाइकिल उस के करीब आ कर रुकी.

बाइकसवार ने जैसे ही हैल्मैट उतारा, वह चिल्लाई, ‘‘अब क्या लेने आए हो? अब तो मैं शौपिंग कर भी चुकी. 2 घंटे पहले फोन किया था. मैं कपड़े तुम्हारी पसंद के लेना चाहती थी मगर सब सत्यानाश कर दिया.’’

‘‘आ ही तो रहा था, मगर जैसे ही औफिस से निकला, बौस गेट पर आ धमका. उस को पता चल जाता तो डिसमिस कर देता. छिप कर आना पड़ता है, और रही बात पसंद की, वह तो हम दोनों की एकजैसी ही है.’’

‘‘राहुल, कब तक बहकाते रहोगे? प्रेम की बड़ीबड़ी बातें करते हो और जब भी तुम्हारी जरूरत पड़ी, बेवक्त ही मिले,’’ वह आगे बोली, ‘‘सरप्राइज भी तो देना था तुम्हें.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’

‘‘मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं?’’

सुनते ही राहुल के चेहरे का रंग जैसे उड़ गया. उस ने हाथ में थामा हैल्मैट बाइक के ऊपर रखा और प्रीति के पास जा कर उस का हाथ थाम कर बोला, ‘‘प्रीति, मजाक की भी हद होती है. लेट क्या हो गया, तुम तो जान लेने पर ही आ गईं.’’

‘‘क्या करूं, तुम्हारे बिना किसी काम में दिल जो नहीं लगता? जाने कितने लड़कों में नुक्स निकाल कर अभी तक तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं. मगर कब तक?’’

‘‘बस, एक साल और, बहन की शादी हो जाए, फिर ले जाऊंगा तुम को दुलहन बना कर.’’

प्रीति ने गहरी सांस ली. उस ने धीरे से राहुल की पकड़ से अपना हाथ आजाद किया और गाड़ी में बैठ कर चल दी. जिस गति पर गाड़ी दौड़ रही थी उसी गति से पुरानी यादें प्रीति के दिमाग में आजा रही थीं.

राहुल 4 साल पहले अचानक से उस के जीवन में आया था तब, जब उस ने कालेज में दाखिला लिया था. कालेज की रैगिंग प्रथा से उस की जान बचाने वाला राहुल ही था. राहुल की इस दरियादिली ने प्रीति के दिल में राहुल के लिए एक अलग जगह बना दी थी. वे दोनों अकसर एकसाथ रहने लगे. कालेज कैंटीन तो ऐसी जगह थी जहां खाली समय में दोनों रोज घंटों बातें करते रहते. महीनों तक उन में से किसी ने उस प्रेम का इजहार न किया जो पता नहीं कब दोस्ती से प्रेम में बदल गया था. राहुल कुछ था भी ऐसा कि उस की दिलकश अंदाज में की गईं बातें सब को उस का दीवाना बना देती थीं. प्रीति तो उसे पहले दिन ही अपना दिल दे बैठी थी.

एक दिन दोनों कैंटीन में साथ बैठे बातें कर रहे थे कि राहुल ने कहा, ‘‘2 महीने बाद परीक्षा हो जाएगी और मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’ प्रीति खोई सी बोली.

‘‘घर और कहां? आखिरी साल है मेरा. परीक्षा के बाद तो जाना ही होगा.’’

‘‘मेरा क्या होगा?’’ पहली बार प्रीति ने राहुल का हाथ थाम कर पूछा. राहुल ने भी दोनों हाथों से उस का हाथ थाम लिया.

प्रीति की नजर झुक गई थी. उस ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रेम का इजहार जो कर दिया था. फिर परीक्षा हो गई और साथ जीनेमरने का वादा कर राहुल ने कालेज छोड़ दिया. अब जब भी दोनों को समय मिलता, किसी पार्क या होटल में मिल लेते.

कभीकभी राहुल काम से छुट्टी ले कर उसे सिनेमा दिखाने ले जाता. कालेज आने और जाने तक तो दोनों साथ ही रहते. जिंदगी बड़ी हंसीखुशी गुजर रही थी. इस बीच, एक दिन उस के पापा ने खबर दी कि उस के लिए एक रिश्ता आया है. लड़का सरकारी डाक्टर था. लेकिन प्रीति ने लड़के को बिना देखे ही रिजैक्ट कर दिया था. उस के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा.

हर महीने रिश्ते वाले आते और प्रीति कोई न कोई बहाना बना कर मना कर देती.

एक दिन पापा ने मम्मी से कह कर पुछवाया कि वह किसी लड़के को पसंद करती हो, तो बता दे. लेकिन, प्रीति ने राहुल का जिक्र नहीं किया क्योंकि वह एक प्राइवेट कंपनी में छोटा सा मुलाजिम जो था.

प्रीति खयालों में इस कदर खोई थी कि उसे पता ही न चला कि कब गाड़ी गलत रास्ते पर चली गई. उस ने आसपास गौर से देखा, बहुत दूर निकल आई थी. खुलाखुला सा रोड संकरी गली में कब तबदील हो गया, उसे तो आभास ही न हुआ. किसी से रास्ता पूछने की गरज में उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई तो कुछ फासले पर 2 लड़के सिगरेट फूंकते दिखे. उस ने गाड़ी वहीं रोक दी और पैदल उन के पास पहुंची. दिन था इसलिए उसे जरा भी भय महसूस न हुआ, मगर अपनी ओर आते उन लड़कों के बदलते हावभाव देख कर गलती का एहसास हुआ.

‘‘मोहननगर जाना था, रास्ता भटक गई हूं. प्लीज हैल्प,’’ प्रीति ने विनयपूर्ण लहजे में कहा.

प्रीति उन लड़कों की आंखों में बिल्ली के जैसे भाव देख कर सिहर उठी. दोपहर का वक्त था और कालोनी की सड़कें सुनसान पड़ी थीं. तसल्ली यह कि दिन ही तो है.

एक लड़का सिगरेट फेंक कर आगे बढ़ा और अपने शिकार पर झपट पड़ने जैसे भाव छिपाता सहानुभूतिपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘आगे से राइट टर्न ले कर फिर लैफ्ट ले कर मेन रोड आ जाएगा, वहां से सीधे मोहननगर चली जाओगी.’’ उन लड़कों का आभार जता कर प्रीति गाड़ी में बैठ कर बताई दिशा में चल दी.

वह सोच रही थी कि कितने सज्जन थे वे लड़के और वह खामखां डर रही थी. आगे मोड़ घूमते ही सड़क इतनी तंग हो गई कि बराबर में साइकिल तक की जगह न थी. शुक्र था कि आवाजाही नहीं थी. पता नहीं कालोनी में कोई रहता भी था या नहीं.

फिर सामने वह मोड़ दिखा जिस के बाद मेन रोड आ जाना था. प्रीति ने राहत की सांस ली. फिर जैसे ही गाड़ी मोड़ पर दाएं मुड़ी, प्रीति का गला खुश्क हो गया और पैडल पर रखे पांव में कंपन होने लगा.

मोड़ घूमते ही सड़क 4 कदम आगे एक मकान के दरवाजे पर बंद थी.

उस ने पलभर कुछ सोच कर गाड़ी को रिवर्स करने के लिए पीछे गरदन घुमाई तो पीछे मोटरसाइकिल खड़ी दिखी. उस ने हौर्न बजाया, लेकिन कोई नहीं था. अचानक बगल से किसी ने दरवाजा खोल कर उस के मुंह पर हाथ रखा और अगले पल चेतना लुप्त हो गई.

आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बैड पर पड़े पाया. उस का सारा शरीर ऐसे दुख रहा था जैसे उस के शरीर के ऊपर से कोई भारी वाहन गुजर गया हो.

धीरेधीरे चेतना लौटी तो उसे याद आने लगा कि वह किसी अनजान जगह किन्हीं अनजान बांहों के शिकंजे में फंस गई थी. आगे जो उस के साथ बीती उस की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी.

तभी मां के हाथ का स्पर्श अपने माथे पर महसूस कर आंखें छलछला आईं.

‘‘मत रो, बेटी. जो हुआ वह एक दुर्घटना थी. हम चाहते हैं कि तू इस बात को भुला कर नई जिंदगी की शुरुआत करे,’’ कहतेकहते मां जोर से सिसकने लगी.

प्रीति अब होश में थी. जैसेजैसे उसे अपने साथ बीती घटना याद आती वैसेवैसे उस का दिल बैठता जाता. जीवन की सारी उम्मीदें, सारे सपने छोटी सी घटना की भेंट चढ़ गए थे. बस, बाकी बची थी तो एक शून्यता जिस के सहारे इतना बड़ा जीवन बिताना किसी तप से कम न था.

3 दिनों बाद अस्पताल से घर लौट आई. जो लोग उस के रिश्ते की बात करते थे, उसे देखने तक न आए. संकेत साफ था.

दिनभर प्रीति घर से बाहर न निकलती. अंधेरा घिर आता जब टैरेस पर खड़े हो कर बाहर की दुनिया को नजर भर कर देखती.

एक सुबह वह कमरे में लेटी थी. पापा और मम्मी बाहर बैठे वस्तुस्थिति पर विलाप करते गुमसुम बैठे थे. उस ने सुना, दरवाजे पर दस्तक हुई थी.

पिछले 10 दिनों में पहली बार था कि कोई उस घर में आया था.

पता नहीं किस ने दरवाजा खोला होगा. बाहर कोई वार्त्तालाप भी न हुआ, जिस से प्रीति अनुमान लगाती कि कौन आया था.

फिर कमरे में कोई दाखिल हुआ तो वह सिमट कर उठ बैठी. उस ने डरतेझिझकते सिर उठाया. राहुल उस के करीब खड़ा था हाथ में प्रीति की पसंद के फूल थामे. पीछे दरवाजे पर मम्मीपापा खामोश जड़वत खड़े थे.

राहुल ने फूल प्रीति के करीब बैड पर रख दिए और एक किनारे पर बैठ गया.

‘‘मैं काम के सिलसिले में शहर से बाहर था. कल ही लौटा हूं. काश कि मैं बाहर न गया होता? ऐसा हम अकसर सोचते हैं, हम सोचते हैं कि हम हर जगह रह कर किसी भी अनहोनी को होने से रोक देंगे. यह सोचना अपनेआप को दिलासा देने की कोशिश के सिवा कुछ नहीं. एक घटना जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देती है लेकिन जिधर भी दिशा मिले, चलते जाना है, यही जीवन है. मैं काफी मुसीबतों के दौर से गुजरा हूं. अब कुछ कमा रहा हूं और इस मुकाम पर हूं कि जीवन को ले कर सपने बुन सकूं. मैं सपने बुनता हूं और उन सपनों में हमेशा तुम रही हो, प्रीति. मैं चाहता हूं कि वे सपने जस के तस रहें, जिन में हंसतीमुसकराती प्रीति हो. ऐसी मायूस और हारी हुई नहीं,’’ कहतेकहते राहुल भावुक हो गया. उस ने प्रीति का हाथ थाम लिया.

एक पल के लिए प्रीति को कुछ समझ न आया कि क्या प्रतिक्रिया दे. लेकिन राहुल के बेइंतहा प्रेम को देख कर उस की आंखें भर आईं. वह राहुल से लिपट कर रो पड़ी. दिल में दबी उम्मीदों के ऊपर पड़ी पश्चात्ताप की बर्फ आंसुओं के रूप में बह रही थी.

Romantic Story: प्यार एक एहसास

Romantic Story: पिता की 13वीं से लौटी ही थी सीमा. 15 दिन के लंबे अंतराल के बाद उस ने लैपटौप खोल कर फेसबुक को लौग इन किया. फ्रैंड रिक्वैस्ट पर क्लिक करते ही जो नाम उभर कर आया उसे देख कर बुरी तरह चौंक गई.

‘‘अरे, यह तो शैलेश है,’’ उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया. समय के इतने लंबे अंतराल ने उस की याद पर धूल की मोटी चादर बिछा दी थी. लैपटौप के सामने बैठेबैठे ही सीमा की आंखों के आगे शैलेश के साथ बिताए दिन परतदरपरत खुलते चले गए.

दोनों ही दिल्ली के एक कालेज में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे. शैलेश पढ़ने में अव्वल था. वह बहुत अच्छा गायक भी था. कालेज के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में वह बढ़चढ़ कर भाग लेता था. सीमा की आवाज भी बहुत अच्छी थी. दोनों कई बार डुएट भी गाते थे, इसलिए अकसर दोनों का कक्षा के बाहर मिलना हो जाता था.

एक बार सीमा को बुखार आ गया. वह 10 दिन कालेज नहीं आई तो शैलेश पता पूछता हुआ उस के घर उस का हालचाल पूछने आ गया. परीक्षा बहुत करीब थी, इसलिए उस को अपने नोट्स दे कर उस की परीक्षा की तैयारी करने में मदद की. सीमा ने पाया कि वह एक बहुत अच्छा इनसान भी है. धीरेधीरे उन की नजदीकियां बढ़ने लगीं. कालेज में खाली

समय में दोनों साथसाथ दिखाई देने लगे. दोनों को ही एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. 1 भी दिन नहीं मिलते तो बेचैन हो जाते. दोनों के हावभाव से आपस में मूक प्रेमनिवेदन हो चुका था. इस की कालेज में भी चर्चा होने लगी.

यह किशोरवय उम्र ही ऐसी है, जब कोई प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए अपनी मूक भाषा में प्रेमनिवेदन करता है, तो दिल में अवर्णनीय मीठा सा एहसास होता है, जिस से चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकने लगता है. सारी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगती है. चिलचिलाती गरमी की दुपहरी में भी पेड़ के नीचे बैठ कर उस से बातें करना चांदनी रात का एहसास देता है.

लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे हैं, इस की ओर से भी वे बेपरवाह होते हैं. जब खुली आंखों से भविष्य के सपने तो बुनते हैं, लेकिन पूरे होने या न होने की चिंता नहीं होती. एकदूसरे की पसंदनापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता है. बारिश के मौसम में भीग कर गुनगुनाते हुए नाचने का मन करता है. दोनों की यह स्थिति थी.

पढ़ाई पूरी होते ही शैलेश अपने घर बनारस चला गया, यह वादा कर के कि वह बराबर उस से पत्र द्वारा संपर्क में रहेगा. साल भर पत्रों का आदानप्रदान चला, फिर उस के पत्र आने बंद हो गए. सीमा ने कई पत्र डाले, लेकिन उत्तर नहीं आया. उस जमाने में न तो मोबाइल थे न ही इंटरनैट. धीरेधीरे सीमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और कर भी क्या सकती थी?

सीमा पढ़ीलिखी थी तथा आधुनिक परिवार से थी. शुरू से ही उस की आदत रही थी कि वह किसी भी रिश्ते में एकतरफा चाहत कभी नहीं रखती. जब कभी उसे एहसास होता कि उस का किसी के जीवन में अस्तित्व नहीं रह गया है तो स्वयं भी उस को अपने दिल से निकाल देती थी. इसी कारण धीरेधीरे उस के मनमस्तिष्क से  शैलेश निकलता चला गया. सिर्फ उस का नाम उस के जेहन में रह गया था. जब भी ‘वह’ नाम सुनती तो एक धुंधला सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर जाता था, इस से अधिक और कुछ नहीं.

समय निर्बाध गति से बीतता गया. उस का विवाह हो गया और 2 प्यारेप्यारे बच्चों की मां भी बन गई. पति सुनील अच्छा था, लेकिन उस से मानसिक सुख उसे कभी नहीं मिला. वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता कि सीमा के लिए उस के पास समय ही नहीं था. वह पैसे से ही उसे खुश रखना चाहता था.

15 साल के अंतराल पर फेसबुक पर शैलेश से संपर्क होने पर सीमा के मन में उथलपुथल मच गई और अंत में वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट न करने में ही भलाई लगी.

अभी इस बात को 4 दिन ही बीते होंगे कि  उस का मैसेज आ गया. किसी ने सच ही कहा है कि कोई अगर किसी को शिद्दत से चाहे तो सारी कायनात उन्हें मिलाने की साजिश करने लगती है और ऐसा ही हुआ. इस बार वह अपने को रोक नहीं पाई. मन में उस के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. मैसेज का सिलसिला चलने लगा, जिस से पता लगा कि वह पुणे में अपने परिवार के साथ रहता है. फिर मोबाइल नंबरों का आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद प्राय: बात होने लगी. उन का मूक प्रेम मुखर हो उठा था. पहली बार शैलेश की आवाज फोन पर सुन कर कि कैसी हो नवयौवना सी उस के दिल की स्थिति हो गई थी. उस का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया था.

उस ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘अच्छी हूं. तुम्हें मैं अभी तक याद हूं?’’

‘‘मैं भूला ही कब था,’’ जब उस ने प्रत्युत्तर में कहा तो, उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

उस ने पूछा, ‘‘फिर पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘तुम्हारा एक पत्र मां के हाथ लग गया था, तो उन्होंने भविष्य में

तुम्हारामेरा संपर्क में रहने का दरवाजा ही बंद कर दिया और मुझे अपना वास्ता दे दिया था. उन का इकलौता बेटा था, क्या करता.’’

उस ने सीमा से कभी भविष्य में साथ रहने का वादा तो किया नहीं था, इसलिए वह शिकायत भी करती तो क्या करती. एक ऐसा व्यक्ति जिस ने अपने प्रेम को भाषा के द्वारा कभी अभिव्यक्त नहीं किया था, उस का उसे शब्दों का जामा पहनाना उस के लिए किसी सुखद सपने का वास्तविकता में परिणत होने से कम नहीं था. यदि वह उस से बात नहीं करती तो इतनी मोहक बातों से वंचित रह जाती.

समय का अंतराल परिस्थितियां बदल देता है, शारीरिक परिवर्तन करता है, लेकिन मन अछूता ही रह जाता है. कहते हैं हर इनसान के अंदर बचपना होता है, जो किसी भी उम्र में उचित समय देख कर बाहर आ जाता है.

उन की बातें दोस्ती की परिधि में तो कतई नहीं थीं. हां मर्यादा का भी उल्लंघन कभी नहीं किया. शैलेश की बातें उसे बहुत रोमांचित करती थीं. बातों से लगा ही नहीं कि वे इतने सालों बाद मिले हैं. फोन से बातें करते हुए उन्होंने उन पुराने दिनों को याद कर के भरपूर जीया. कुछ शैलेश ने याद दिलाईं जो वह भूल गई थी, कुछ उस ने याद दिलाई. ऐसे लग रहा था जैसेकि वे उन दिनों को दोबारा जी रहे हैं.

15 सालों में किस के साथ क्या हुआ वह भी शेयर किया. आरंभ में इस तरह बात करना उसे अटपटा अवश्य लगता था, संस्कारगत थोड़ा अपराधबोध भी होता था और यह सोच कर भी परेशान होती थी कि इस तरह कितने दिन रिश्ता निभेगा.

इसी ऊहापोह में 5-6 महीने बीत गए. दोनों ही चाहते थे कि यह रिश्ता बोझ न बन जाए. यह तो निश्चित हो गया था कि आग लगी थी दोनों तरफ बराबर. पहले यह आग तपिश देती थी, लेकिन धीरेधीरे यही आग मन को ठंडक तथा सुकून देने लगी. उन की रस भरी बातें उन दोनों के ही मन को गुदगुदा जाती थीं.

एक बार शैलेश ने एक गाने की लाइन बोली, ‘‘तुम होतीं तो ऐसा होता, तुम यह कहतीं…’’

उस की बात काटते हुए सीमा बोली, ‘‘और तुम होते तो कैसा होता…’’

कभी सीमा चुटकी लेती, ‘‘चलो भाग चलते हैं…’’

शैलेश कहता, ‘‘भाग कर जाएंगे कहां?’’

एक दिन शैलेश ने सीमा को बताया कि औफिस के काम से वह बहुत जल्दी दिल्ली आने वाला है. आएगा तो वह उस से और उस के परिवार से अवश्य मिलेगा. यह सुन कर उस का मनमयूर नाच उठा. फिर कड़वी सचाई से रूबरू होते ही सोच में पड़ गई कि अब सीमा किसी और की हो चुकी है.

क्या इस स्थिति में उस का शैलेश से मिलना उचित होगा? फिर अपने सवाल का उत्तर देते हुए बुदबुदाई कि ऊंह, तो क्या हुआ? समय बहुत बदल गया है, एक दोस्त की तरह मिलने में बुराई ही क्या है… सुनील की परवाह तो मैं तब करूं जब वह भी मेरी परवाह करता हो. खुश रहने के लिए मुझ भी तो कोई सहारा चाहिए. देखूं तो सही इतने सालों में उस में कितना बदलाव आया है. अब वह शैलेश के आने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगी थी.’’

अंत में वह दिन भी आ पहुंचा, जिस का वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी. सुनील बिजनैस टूअर पर गया हुआ था. दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. उन्होंने कनाट प्लेस के कौफी हाउस में मिलने का समय निश्चित किया. वह शैलेश से अकेले घर में मिल कर कोई भी मौका ऐसा नहीं आने देना चाहती थी कि बाद में उसे आत्मग्लानि हो.

उसे लग रहा था कि इतने दिन बाद उस को देख कर कहीं वह भावनाओं में बह कर कोई गलत कदम न उठा ले, जिस की उस के संस्कार उसे आज्ञा नहीं देते थे. शैलेश को देख कर उसे लगा ही नहीं कि वह उस से इतने लंबे अंतराल के बाद मिल रही है. वह बिलकुल नहीं बदला था. बस थोड़ी सी बालों में सफेदी झलक रही थी. आज भी वह उसे बहुत अपना सा लग रहा था. बातों का सिलसिला इतना लंबा चला कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

इधरउधर की बातें करते हुए जब शैलेश ने सीमा से कहा कि उसे अपने वैवाहिक जीवन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन उस की जगह कोई नहीं ले सकता तो उसे अपनेआप पर बहुत गर्व हुआ.

अचानक शैलेश को कुछ याद आया. उस ने पूछा, ‘‘अरे हां, तुम्हारे गाने के शौक का क्या हाल है?’’

बात बीच में काटते हुए सीमा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या हाल होगा. मुझे समय ही नहीं मिलता. सुनील तो बिजनैस टूअर पर रहते हैं और न ही उन को इस सब का शौक है.’’

‘‘अरे, उन को शौक नहीं है तो क्या हुआ, तुम इतनी आश्रित क्यों हो उन पर? कोशिश और लगन से क्या नहीं हो सकता? बच्चों के स्कूल जाने के बाद समय तो निकाला जा सकता है.’’

सीमा को लगा काश, सुनील भी उस को इसी तरह प्रोत्साहित करता. उस ने तो कभी उस की आवाज की प्रशंसा भी नहीं की. खैर, देर आए दुरुस्त आए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी इस कला को लोगों के सामने उजागर करेगी.

उस को चुप देख कर शैलेश ने कहा, ‘‘चलो, हम दोनों मिल कर एक अलबम तैयार करते हैं. सहकर्मियों की तरह तो मिल सकते हैं न. इस विषय पर फोन पर बात करेंगे.’’

सीमा को लगा उस के अकेलेपन की समस्या का हल मिल गया. दिल से वह शैलेश के सामने नतमस्तक हो गई थी.

फिर से बिछड़ने का समय आ गया था. लेकिन इस बार शरीर अलग हुए थे केवल, कभी न बिछड़ने वाला एक खूबसूरत एहसास हमेशा के लिए उस के पास रह गया था, जिस ने उस की जिंदगी को इंद्रधनुषी रंग दे कर नई दिशा दे दी थी. इस एहसास के सहारे कि वह इतने सालों बाद भी शैलेश की यादों में बसी है. वह शैलेश का सामीप्य हर समय महसूस करती थी. दूरी अब बेमानी हो गई थी.

एक कवि ने प्रेम की बहुत अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो. कहते हैं प्यार कभी दोस्ती में नहीं बदल सकता और यदि बदलता है तो उस से अच्छी दोस्ती नहीं हो सकती. इस दोस्ती का अलग ही आनंद है. सीमा को बहुत ही प्यारा दोस्त मिला.

Hindi Story: नवंबर का महीना – सोनाली किसी और की हो गई

Hindi Story: नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी.

‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’ मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.

इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.

मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था. उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था.

2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा. मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, रा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था.

तब तक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

Romantic Story: धागा प्रेम का – रंभा-आशुतोष का वैवाहिक जीवन

Romantic story: आज सलोनी विदा हो गई. एअरपोर्ट से लौट कर रंभा दी ड्राइंगरूम में ही सोफे पर निढाल सी लेट गईं. 1 महीने की गहमागहमी, भागमभाग के बाद आज घर बिलकुल सूनासूना सा लग रहा था. बेटी की विदाई से निकल रहे आंसुओं के सैलाब को रोकने में रंभा दी की बंद पलकें नाकाम थीं. मन था कि आंसुओं से भीग कर नर्म हुई उन यादों को कुरेदे जा रहा था, जिन्हें 25 साल पहले दफना कर रंभा दी ने अपने सुखद वर्तमान का महल खड़ा किया था.

मुंगेर के सब से प्रतिष्ठित, धनाढ्य मधुसूदन परिवार को भला कौन नहीं जानता था. घर के प्रमुख मधुसूदन शहर के ख्यातिप्राप्त वकील थे. वृद्धावस्था में भी उन के यहां मुवक्किलों का तांता लगा रहता था. वे अब तक खानदानी इज्जत को सहेजे हुए थे. लेकिन उन्हीं के इकलौते रंभा के पिता शंभुनाथ कुल की मर्यादा के साथसाथ धनदौलत को भी दारू में उड़ा रहे थे. उन्हें संभालने की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं. पिता ने किसी तरह वकालत की डिगरी भी दिलवा दी थी ताकि अपने साथ बैठा कर कुछ सिखा सकें. लेकिन दिनरात नशे में धुत्त लड़खड़ाती आवाज वाले वकील को कौन पूछता?

बहू भी समझदार नहीं थी. पति या बच्चों को संभालने के बजाय दिनरात अपने को कोसती, कलह करती. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे या उन का क्या भविष्य होगा, यह दादाजी समझ रहे थे. पोते की तो नहीं, क्योंकि वह लड़का था, दादाजी को चिंता अपनी रूपसी, चंचल पोती रंभा की थी. उसे वे गैरजिम्मेदार मातापिता के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते थे. इसी कारण मैट्रिक की परीक्षा देते ही मात्र 18 साल की उम्र में रंभा की शादी करवा दी.

आशुतोषजी का पटना में फर्नीचर का एक बहुत बड़ा शोरूम था. अपने परिवार में वे अकेले लड़के थे. उन की दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. मां का देहांत जब ये सब छोटे ही थे तब ही हो गया था. बच्चों की परवरिश उन की बालविधवा चाची ने की थी.

शादी के बाद रंभा भी पटना आ गईं. रिजल्ट निकलने के बाद उन का आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला पटना में ही हो गया. आशुतोषजी और रंभा में उम्र के साथसाथ स्वभाव में भी काफी अंतर था. जहां रंभा चंचल, बातूनी और मौजमस्ती करने वाली थीं, वहीं आशुतोषजी शांत और गंभीर स्वभाव के थे. वे पूरा दिन दुकान पर ही रहते. फिर भी रंभा दी को कोई शिकायत नहीं थी.

नया बड़ा शहर, कालेज का खुला माहौल, नईनई सहेलियां, नई उमंगें, नई तरंगें. रंभा दी आजाद पक्षी की तरह मौजमस्ती में डूबी रहतीं. कोई रोकनेटोकने वाला था नहीं. उन दिनों चाचीसास आई हुई थीं. फिर भी उन की उच्छृंखलता कायम थी. एक रात करीब 9 बजे रंभा फिल्म देख कर लौटीं. आशुतोषजी रात 11 बजे के बाद ही घर लौटते थे, लेकिन उस दिन समय पर रंभा दी के घर नहीं पहुंचने पर चाची ने घबरा कर उन्हें बुला लिया था. वे बाहर बरामदे में ही चाची के साथ बैठे मिले.

‘‘कहां से आ रही हो?’’ उन की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘क्लास थोड़ी देर से खत्म हुई,’’ रंभा दी ने जवाब दिया.

‘‘मैं 5 बजे कालेज गया था. कालेज तो बंद था?’’

अपने एक झूठ को छिपाने के लिए रंभा दी ने दूसरी कहानी गढ़ी, ‘‘लौटते वक्त सीमा दीदी के यहां चली गई थी.’’ सीमा दी आशुतोषजी के दोस्त की पत्नी थीं जो रंभा दी के कालेज में ही पढ़ती थीं.

आशुतोषजी गुस्से से हाथ में पकड़ा हुआ गिलास रंभा की तरफ जोर से फेंक कर चिल्लाए, ‘‘कुछ तो शर्म करो… सीमा और अरुण अभीअभी यहां से गए हैं… घर में पूरा दिन चाची अकेली रहती हैं… कालेज जाने तक तो ठीक है… उस के बाद गुलछर्रे उड़ाती रहती हो. अपने घर के संस्कार दिखा रही हो?’’

आशुतोषजी आपे से बाहर हो गए थे. उन का गुस्सा वाजिब भी था. शादी को 1 साल हो गया था. उन्होंने रंभा दी को किसी बात के लिए कभी नहीं टोका. लेकिन आज मां तुल्य चाची के सामने उन्हें रंभा दी की आदतों के कारण शर्मिंदा होना पड़ा था.

रंभा दी का गुस्सा भी 7वें आसमान पर था. एक तो नादान उम्र उस पर दूसरे के सामने हुई बेइज्जती के कारण वे रात भर सुलगती रहीं.

सुबह बिना किसी को बताए मायके आ गईं. घर में किसी ने कुछ पूछा भी नहीं. देखने, समझने, समझाने वाले दादाजी तो पोती की विदाई के 6 महीने बाद ही दुनिया से विदा हो गए थे.

आशुतोषजी ने जरूर फोन कर के उन के पहुंचने का समाचार जान लिया. फिर कभी फोन नहीं किया. 3-4 दिनों के बाद रंभा दी ने मां से उस घटना का जिक्र किया. लेकिन मां उन्हें समझाने के बजाय और उकसाने लगीं, ‘‘क्या समझाते हैं… हाथ उठा दिया… केस ठोंक देंगे तब पता चलेगा.’’ शायद अपने दुखद दांपत्य के कारण बेटी के प्रति भी वे कू्रर हो गई थीं. उन की ममता जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रही थी. रंभा दी अपनी विगत जिंदगी की कहानी अकसर टुकड़ोंटुकड़ों में बताती रहतीं, ‘‘मुझे आज भी जब अपनी नादानियां याद आती हैं तो अपने से ज्यादा मां पर क्रोध आता है. मेरे 5 अनमोल साल मां के कारण मुझ से छिन गए. लेकिन शायद मेरा कुछ भला ही होना था…’’ और वे फिर यादों में खो जातीं…

इंटर की परीक्षा करीब थी. वे अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं चाहती थीं, इसलिए परीक्षा देने पटना में दूर के एक मामा के यहां गईं. वहां मामा के दानव जैसे 2 बेटे अपनी तीखी निगाहों से अकसर उन का पीछा करते रहते. उन की नजरें उन के शरीर का ऐसे मुआयना करतीं कि लगता वे वस्त्रविहीन हो गई हैं. एक रात अपनी कमर के पास किसी का स्पर्श पा कर वे घबरा कर बैठ गईं. एक छाया को उन्होंने दौड़ते हुए बाहर जाते देखा. उस दिन के बाद से वे दरवाजा बंद कर के सोतीं. किसी तरह परीक्षा दे कर वे वापस आ गईं.

मां की अव्यावहारिक सलाह पर एक बार फिर वे अपनी मौसी की लड़की के यहां दिल्ली गईं. उन्होंने सोचा था कि फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर के बुटीक वगैरह खोल लेंगी. लेकिन वहां जाने पर बहन को अपने 2 छोटेछोटे बच्चों के लिए मुफ्त की आया मिल गई. वे अकसर उन्हें रंभा दी के भरोसे छोड़ कर पार्टियों में व्यस्त रहतीं. बच्चों के साथ रंभा को अच्छा तो लगता था, लेकिन यहां आने का उन का एक मकसद था. एक दिन रंभा ने मौसी की लड़की के पति से पूछा, ‘‘सुशांतजी, थोड़ा कोर्स वगैरह का पता करवाइए, ऐसे कब तक बैठी रहूंगी.’’

बहन उस वक्त घर में नहीं थी. बहनोई मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, आराम से रहिए न… यहां किसी चीज की कमी है क्या? किसी चीज की कमी हो तो हम से कहिएगा, हम पूरी कर देंगे.’’

उन की बातों के लिजलिजे एहसास से रंभा को घिन आने लगी कि उन के यहां पत्नी की बड़ी बहन को बहुत आदर की नजरों से देखते हैं… उन के लिए ऐसी सोच? फिर रंभा दी दृढ़ निश्चय कर के वापस मायके आ गईं.

मायके की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. पिताजी का लिवर खराब हो गया था. उन के इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे. रंभा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं थी. रंभा ने अपने सारे गहने बेच कर पैसे बैंक में जमा करवाए और फिर बी.ए. में दाखिला ले लिया. एम.ए. करने के बाद रंभा की उसी कालेज में नौकरी लग गई.

5 साल का समय बीत चुका था. पिताजी का देहांत हो गया था. भाई भी पिता के रास्ते चल रहा था. घर तक बिकने की नौबत आ गई थी. आमदनी का एक मात्र जरीया रंभा ही थीं. अब भाई की नजर रंभा की ससुराल की संपत्ति पर थी. वह रंभा पर दबाव डाल रहा था कि तलाक ले लो. अच्छीखासी रकम मिल जाएगी. लेकिन अब तक की जिंदगी से रंभा ने जान लिया था कि तलाक के बाद उसे पैसे भले ही मिल जाएं, लेकिन वह इज्जत, वह सम्मान, वह आधार नहीं मिल पाएगा जिस पर सिर टिका कर वे आगे की जिंदगी बिता सकें.

आशुतोषजी के बारे में भी पता चलता रहता. वे अपना सारा ध्यान अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगाए हुए थे. उन की जिंदगी में रंभा की जगह किसी ने नहीं भरी थी. भाई के तलाक के लिए बढ़ते दबाव से तंग आ कर एक दिन बहुत हिम्मत कर के रंभा ने उन्हें फोन मिलाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, कौन?’’

आशुतोषजी की आवाज सुन कर रंभा की सांसों की गति बढ़ गई. लेकिन आवाज गुम हो गई.

हैलो, हैलो…’’ उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कौन? रंभा.’’

‘‘हां… कैसे हैं? उन की दबी सी आवाज निकली.’’

‘‘5 साल, 8 महीने, 25 दिन, 20 घंटों के बाद आज कैसे याद किया? उन की बातें रंभा के कानों में अमृत के समान घुलती जा रही थीं.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ रंभा ने प्रश्न किया.

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ उन्होंने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘मैं तलाक नहीं चाहती.’’

‘‘तो लौट आओ, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’ और सचमुच दूसरे दिन बिना किसी को बताए जैसे रंभा अपने घर लौट गईं. फिर साहिल पैदा हुआ और फिर सलोनी.

रंभा दी मुंगेर के जिस कालेज में इकोनौमिक्स की विभागाध्यक्ष और सहप्राचार्या थीं, उसी कालेज में मैं हिंदी की प्राध्यापिका थी. उम्र और स्वभाव में अंतर के बावजूद हम दोनों की दोस्ती मशहूर थी.

रंभा दी को पूरा कालेज हिटलर के नाम से जानता था. आभूषण और शृंगारविहीन कठोर चेहरा, भिंचे हुए होंठ, बड़ीबड़ी आंखों को ढकता बड़ा सा चश्मा. बेहद रोबीला व्यक्तित्व था. जैसा व्यक्तित्व था वैसी ही आवाज. बिना माइक के भी जब बोलतीं तो परिसर के दूसरे सिरे तक साफ सुनाई देता.

लेकिन रंभा दी की सारी कठोरता कक्षा में पढ़ाते वक्त बालसुलभ कोमलता में बदल जाती. अर्थशास्त्र जैसे जटिल विषय को भी वे अपने पढ़ाने की अद्भुत कला से सरल बना देतीं. कला संकाय की लड़कियों में शायद इसी कारण इकोनौमिक्स लेने की होड़ लगी रहती थी. हर साल इस विषय की टौपर हमारे कालेज की ही छात्रा होती थी.

मैं तब भी रंभा दी के विगत जीवन की तुलना वर्तमान से करती तो हैरान हो जाती कि कितना प्यार, तालमेल है उन के परिवार में. अगर रंभा दी किसी काम के लिए बस नजर उठा कर आशुतोषजी की तरफ देखतीं तो वे उन की बात समझ कर जब तक नजर घुमाते साहिल उसे करने को दौड़ता. तब तक तो सलोनी उस काम को कर चुकी होती.

दोनों बच्चे रूपरंग में मां पर गए थे. सलोनी थोड़ी सांवली थी, लेकिन तीखे नैननक्श और छरहरी काया के कारण बहुत आकर्षक लगती थी. वह एम.एससी. की परीक्षा दे चुकी थी. साहिल एम.बी.ए. कर के बैंगलुरु में एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर नियुक्त था. उस ने एक सिंधी लड़की को पसंद किया था. मातापिता की मंजूरी उसे मिल चुकी थी मगर वह सलोनी की शादी के बाद अपनी शादी करना चाहता था.

लेकिन सलोनी शादी के नाम से ही बिदक जाती थी. शायद अपनी मां के शुरुआती वैवाहिक जीवन के कारण उस का शादी से मन उचट गया था.

फिर एक दिन रंभा दी ने ही समझाया, ‘‘बेटी, शादी में कोई शर्त नहीं होती. शादी एक ऐसा पवित्र बंधन है जिस में तुम जितना बंधोगी उतना मुक्त होती जाओगी… जितना झुकोगी उतना ऊपर उठती जाओगी. शुरू में हम दोनों अपनेअपने अहं के कारण अड़े रहे तो खुशियां हम से दूर रहीं. फिर जहां एक झुका दूसरे ने उसे थाम के उठा लिया, सिरमाथे पर बैठा लिया. बस शादी की सफलता की यही कुंजी है. जहां अहं की दीवार गिरी, प्रेम का सोता फूट पड़ता है.’’

धीरेधीरे सलोनी आश्वस्त हुई और आज 7 फेरे लेने जा रही थी. सुबह से रंभा दी का 4-5 बार फोन आ चुका था, ‘‘सुभि, देख न सलोनी तो पार्लर जाने को बिलकुल तैयार नहीं है. अरे, शादी है कोई वादविवाद प्रतियोगिता नहीं कि सलवारकमीज पहनी और स्टेज पर चढ़ गई. तू ही जरा जल्दी आ कर उस का हलका मेकअप कर दे.’’

5 बज गए थे. साहिल गेट के पास खड़ा हो कर सजावट वाले को कुछ निर्देश दे रहा था. जब से शादी तय हुई थी वह एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह घरबाहर दोनों के सारे काम संभाल रहा था. मुझे देख कर वह हंसता हुआ बोला, ‘‘शुक्र है मौसी आप आ गईं. मां अंदर बेचैन हुए जा रही हैं.’’

मैं हंसते हुए घर में दाखिल हुई. पूरा घर मेहमानों से भरा था. किसी रस्म की तैयारी चल रही थी. मुझे देखते ही रंभा दी तुरंत मेरे पास आ गईं. मैं ठगी सी उन्हें निहार रही थी. पीली बंधेज की साड़ी, पूरे हाथों में लाल चूडि़यां, पैरों में आलता, कानों में झुमके, गले में लटकी चेन और मांग में सिंदूर. मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाई.

‘‘रंभा दी, कहीं समधी तुम्हारे साथ ही फेरे लेने की जिद न कर बैठें,’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘आशुतोषजी पीली धोती में मंडप में बैठे कुछ कर रहे थे. यह सुन कर ठठा कर हंस पड़े. फिर रंभा दी की तरफ प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘आज कहीं, बेटी और बीवी दोनों को विदा न करना पड़ जाए.’’

रंभा दीदी शर्म से लाल हो गईं. मुझे खींचते हुए सलोनी के कमरे में ले गईं. शाम कोजब सलोनी सजधज कर तैयार हुई तो मांबाप, भाई सब उसे निहार कर निहाल हो गए. रंभा दी ने उसे सीने से लगा लिया. मैं ने सलोनी को चेताया, ‘‘खबरदार जो 1 भी आंसू टपकाया वरना मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

सलोनी धीमे से हंस दी. लेकिन आंखों ने मोती बिखेर ही दिए. रंभा दी ने हौले से उसे अपने आंचल में समेट लिया.

स्टेज पर पूरे परिवार का ग्रुप फोटो लिया जा रहा था. रंभा दी के परिवार की 4 मनकों की माला में आज दामाद के रूप में 1 और मनका जुड़ गया था.

उन लोगों को देख कर मुझे एक बार रंभा दी की कही बात याद आ गई. कालेज के सालाना जलसे में समाज में बढ़ रही तलाक की घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम का धागा मत तोड़ो, अगर टूटे तो फिर से जोड़ो.

आज उन्हें और उन के परिवार को देख कर यह बात सिद्ध भी हो रही थी. रंभा दी के प्रेम का धागा एक बार टूटने के बावजूद फिर जुड़ा और इतनी दृढ़ता से जुड़ा कि गांठ की बात तो दूर उस की कोई निशानी भी शेष नहीं है. उन के सच्चे, निष्कपट प्यार की ऊष्मा में इतनी ऊर्जा थी जिस ने सभी गांठों को पिघला कर धागे को और चिकना और सुदृढ़ कर दिया.

Hindi Short Story: सच्चा प्रेम

Hindi Short Story: 6 साल पहले की बात है. सोशल मीडिया ने पूरी रफ्तार से गति पकड़ ली थी. श्यामली ने भी फेसबुक पर अपना एकाउंट बना लिया था. उसी साल उस का ग्रैजुएशन पूरा हुआ था. ग्रैजुएशन पूरा होते ही उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

स्वभाव से चंचल, शांत और हमेशा दूसरे के बारे में पहले सोचने वाली श्यामली औफिस का काम पूरा कर के फेसबुक लौगइन कर के बैठ जाती थी. श्यामली की प्रोफाइल में उस की एक फ्रैंड प्रियंका थी. प्रियंका और श्यामली अकसर फेसबुक पर कोई न कोई पोस्ट डालती रहती थीं. उस के बाद उन पर आए कमेंट्स और लाइक भी वे ध्यान से पढ़तीं और जरूरी होता तो जवाब भी देतीं. फेसबुक चलाने में उन्हें इतना मजा आता था कि वे उस की दीवानी बन गई थीं.

उस दिन औफिस से निकलते ही श्यामली ने फेसबुक पर एक पोस्ट शेयर की. देखते ही देखते उस पर लाइक और कमेंट्स आने लगे. प्रियंका और श्यामली आने वाले कमेंट्स पर आपस में बातें कर रही थीं कि तभी प्रियंका के एक कौमन फ्रैंड ने भी उस पोस्ट पर कमेंट किया. उस का नाम था दुष्यंत. इस के बाद दुष्यंत, प्रियंका और श्यामली कमेंट बौक्स में ही बातें करने लगे थे.

2 दिन बाद जब श्यामली ने फेसबुक खोला तो उस में दुष्यंत की फ्रैंड रिक्वेस्ट आई थी. 2 दिनों तक सोचनेविचारने के बाद श्यामली ने उस की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली. यहीं से शुरू हुई उस प्यार की शुरुआत, जो कभी श्यामली को मिल नहीं सका.

दुष्यंत ने कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई अभी जल्दी ही पूरी की थी. स्वभाव से शांत और भावनात्मक दुष्यंत हमेशा सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहता था. सोशल मीडिया पर ही श्यामली से उस की मुलाकात हुई थी. श्यामली और दुष्यंत अब फेसबुक फ्रैंड बन गए थे. हायहैलो से शुरू हुआ यह संबंध अब पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था.

मार्निंग शिफ्ट होने की वजह से दुष्यंत सुबह जल्दी 5 बजे ही उठ जाता था. और उठने के साथ ही वह श्यामली को गुडमौर्निंग का मैसेज भेजता था. यह उस का रोजाना का नियम बन गया था.  दुष्यंत की सुबह श्यामली को मैसेज भेजने के साथ ही शुरू होती थी. इस के बाद श्यामली के मैसेज के इंतजार में उस का आधा दिन बीत जाता. उसे श्यामली अच्छी लगने लगी थी. किसी न किसी बहाने वह उस से बात करने का मौका खोजता रहता था. वह यही सोचता रहता था कि श्यामली कब औनलाइन हो और वह उसे मैसेज करे.

दुष्यंत एक संस्कारी घर का युवक था, इसलिए श्यामली को उस पर विश्वास करने में ज्यादा समय नहीं लगा. विश्वास होने के बाद श्यामली ने दुष्यंत को अपना फोन नंबर दे दिया था. वैसे तो श्यामली आज के जमाने की आधुनिक लड़की थी. फिर भी वह खुद को इस आधुनिक जमाने से दूर रखती थी. क्योंकि उसे पता था कि सोशल मीडिया पर दुनिया भर के गलत काम भी होते हैं.

दुष्यंत को उस ने एक महीने तक परखा था, उस के बाद उस ने उसे दोस्त के रूप में दिल से स्वीकार किया था. बाकी तो उसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आता था.

नंबर मिलने के बाद वाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के आगे भी बात बढ़ गई थी. जबकि श्यामली अभी भी उसे अच्छा दोस्त ही मान रही थी. दुष्यंत तो श्यामली के ही सपनों में दिनरात खोया रहता था. इस के बावजूद दुष्यंत कभी श्यामली से अपने प्यार का इजहार नहीं कर सका था. दूसरी ओर दुष्यंत के स्वभाव से प्रभावित हो कर श्यामली के मन में भी उस के लिए प्रेम का बीज अंकुरित होने लगा था. पर कोई संस्कारी लड़की कहां जल्दी अपने प्यार का इजहार करती है. फिर श्यामली तो वैसे भी अपने मन की बात जल्दी किसी से कहने वाली नहीं थी.

उसी तरह दुष्यंत भी हमेशा सोचता रहता था कि वह अपने मन की बात कैसे श्यामली से कहे. प्यार की बात कहने पर कहीं श्यामली नाराज न हो जाए. पता नहीं वह उस के बारे में क्या सोचती होगी, क्या वह भी उसी की तरह उसे प्यार करती है या नहीं. अगर वह अपने मन की बात उस से कहेगा तो वह कहीं बुरा तो नहीं मानेगी?

यही सब सोचतेसोचते दिन बीत रहे थे. दुष्यंत हमेशा इसी सोच में डूबा रहता था कि आखिर वह करे तो क्या करे, किस तरह वह श्यामली से अपने मन की बात कहे.

आखिर एक दिन उस ने हिम्मत कर के श्यामली से मन की बात कह ही दी. श्यामली ने कहा, ‘‘अरे… अरे अभी रुको, अभी तो दूसरा अध्याय बाकी है.’’

दुष्यंत श्यामली से अपने मन की पूरी बात यानी प्रेम का इजहार तो नहीं कर पाया, पर इतना तो जता ही दिया कि वह उसे पसंद करता है. उस ने यह भी कह दिया था, ‘‘मैं तुम्हें तुम्हारे घर देखने आना चाहता हूं. तुम अपने मम्मीपापा से कह देना. मैं अपने मम्मीपापा के साथ आऊंगा.’’

इतना कह कर दुष्यंत सपनों की दुनिया में खो गया.

आखिर वह घड़ी आ ही गई, जब दुष्यंत जा कर श्यामली से आमनेसामने मिला. दोनों परिवारों में आपस में बातचीत हुई. श्यामली को भी दुष्यंत अच्छा लगा. पर बौडीगार्ड जैसा शरीर होने की वजह से श्यामली के पिता को दुष्यंत पसंद नहीं आया.

श्यामली एकदम स्लिम और ट्रिम थी. दूसरी ओर 90 किलोग्राम वजन वाले 25 साल के युवक दुष्यंत को श्यामली के पिता ने रिजेक्ट कर दिया. इस बात से दुष्यंत को लगा कि वह श्यामली को पसंद नहीं है, इसलिए श्यामली ने उस के साथ शादी से मना कर दिया है.

समय समुद्र की लहरों की तरह पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था. अब श्यामली और दुष्यंत के बीच बातें कम होने लगी थीं. कुछ दिनों में श्यामली की भी शादी हो गई और दुष्यंत को भी जीवनसाथी मिल गई थी.

दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी में बहुत खुश थे. फिर भी जब कभी दुष्यंत एकांत में होता, तो उसे श्यामली की याद आ ही जाती थी. उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहता कि वह श्यामली से अपने दिल की बात खुल कर कह नहीं सका. किसी तरह अपने मन को मना कर उस का पहला प्रेम पूरा नहीं हुआ, इस दर्द को दिल में छिपा कर अतीत से वर्तमान में आ जाता.

पूरे 3 साल बाद अचानक एक मौल में दुष्यंत और श्यामली की मुलाकात हो गई. दोनों के बीच हायहैलो हुई. दुष्यंत ने पूछा, ‘‘कैसी हो श्यामली?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं. अपनी बताओ?’’ वह बोली.

दोनों ने एकदूसरे के बारे में पूछा. हालचाल जानने के बाद दोनों के बीच नौरमल बातें होने लगीं. बातचीत करते हुए दोनों अतीत में खो गए. उसी बातचीत में दुष्यंत ने हिम्मत कर के कह दिया कि वह उस से बहुत प्यार करता था, है और हमेशा करता रहेगा.

यह सुन कर श्यामली के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. यह बात तो वह 3 साल पहले सुनना चाहती थी. पर उस समय यह बात दुष्यंत नहीं कह सका था. उस समय श्यामली भी इस बात को नहीं समझ सकी थी. दोनों का यह अनकहा प्रेम 3 साल से हृदय में जीवंत रहा. पर दोनों ही अपने इस प्रेम को एकदूसरे से कह नहीं सके थे.

आज पूरे 3 साल बाद जब दोनों ने अकेले में बात की तो दुष्यंत ने अपने प्रेम का इकरार कर लिया. वह बहुत अच्छा दिन था. दोनों के ही मन में एकदूसरे के लिए अनहद प्रेम था.  पर समय उन के हाथ से निकल गया था. अब दोनों की ही शादी हो गई थी और दोनों ही उम्र से अधिक समझदार हो चुके थे.

दोनों ही अपने जीवनसाथी के साथ विश्वासघात करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. पर दोनों ने ही एकदूसरे को वचन दिया कि वे जीवन के अंत तक एकदूसरे के संपर्क में बने रहेंगे.

दुष्यंत और श्यामली आज भी एकदूसरे से बातें करते हैं, प्रेम व्यक्त करते हैं, एकदूसरे की भावनाओं को समझते हैं, पर दोनों ही अपनेअपने जीवनसाथी के प्रति पूरी तरह से वफादार बने हुए हैं. वे जीवनसाथी नहीं बन सके तो क्या हुआ, दोनों ही एकदूसरे से मन से जुड़ कर जीवन का आनंद ले रहे हैं.

तो क्या अपने पहले प्रेम से दिल से जुड़े रहना अपराध है? क्या शादी के बाद अपने जीवनसाथी के प्रति वफादारी दिखाते हुए मनपसंद आदमी से बात करना अपराध है?

अपने जीवनसाथी के प्रति वफादार रहते हुए दो प्रेमी जब अपने अधूरे रह गए प्रेम को एकदूसरे से इकरार करते हैं तो लोग इस संबंध को खराब नजरों से देखते हैं. पर दुष्यंत और श्यामली का कहना है कि अगर एकदूसरे से बात करने से दुख कम होता हो और खुशी मिलती हो तो इस में गलत क्या है.

प्रेम तो प्रेम होता है. शादी के पहले करो या बाद में, उस में पवित्रता, विश्वास और बिना स्वार्थ का लगाव होना चाहिए, जो केवल हृदय के भाव को जानसमझ सके.

Hindi Story: तू मुझे कबूल

Hindi Story, लेखक- धीरज राणा भायला

शायरा और सुहैल एकसाथ खेलते बड़े हुए थे. उन्होंने पहले दर्जे से 7वें दर्जे तक एकसाथ पढ़ाई की थी. शायरा के अब्बा बड़ी होती लड़कियों के बाहर निकलने के सख्त खिलाफ थे, इसलिए उसे घर बैठा दिया गया.

उस समय शायरा और सुहैल को लगा था, जैसे उन की खुशियों पर गाज गिर गई हो, मगर दोनों के घर गांव की एक ही गली में होने के चलते उन्हें इस बात की खुशी थी कि शायरा की पढ़ाई छूट जाने के बाद भी वे दोनों एकदूसरे से दूर नहीं थे.

उन दोनों के अब्बा मजदूरी कर के घर चलाते थे, मगर माली हालात के मामले में दोनों ही परिवार तंगहाल नहीं थे. शायरा के चाचा खुरशीद सेना में सिपाही थे, बड़ी बहन नाजनीन सुहैल के बड़े भाई अरबाज के साथ ब्याही थी, जो सौफ्टवेयर इंजीनियर थे और बैंगलुरु में रहते थे. शायरा का एकलौता भाई जफर था, उस से बड़ा, जिस की गांव में ही परचून की दुकान थी.

सुहैल 3 भाइयों में बीच का था. अरबाज बैंगलुरु में सैटल था. गुलफान और सुहैल अभी पढ़ रहे थे. सुहैल खूब  मन लगा कर पढ़ रहा था, ताकि सेना में बड़ा अफसर बन सके.

स्कूल से आते ही सुहैल का पहला काम होता शायरा के घर पहुंच कर उस से खूब बातें करना. उस समय घर में शायरा के अलावा बस उस की अम्मी हुआ करती थीं.

शायरा कोई काम कर रही होती तो सुहैल उसे बांह पकड़ कर छत पर ले जाता. जब वे छोटे थे, तब उन की योजनाओं में गुड्डेगुडि़यों और खिलौनों से खेलना शामिल था, मगर अब वे बड़े हो गए थे तो योजनाएं भी बदल गई थीं.

वह शायरा से अपने प्यार का इजहार कर दे

अब सुहैल को लगता था कि वह शायरा से अपने प्यार का इजहार कर दे, मगर उस के मासूम बरताव को देख कर वह ठहर जाता.

एक दिन स्कूल से छुट्टी ले कर सुहैल ने शहर जा कर कोई फिल्म देखी. वापस लौटते हुए फिल्म की प्यार से सराबोर कहानी उस के जेहन पर छाई हुई थी. जैसे ही वह और शायरा छत पर पंहुचे, उस ने बिना कोई बात किए शायरा का हाथ पकड़ लिया.

ऐसा नहीं था कि उस ने शायरा का हाथ पहली बार पकड़ा हो, मगर उस की आंखों में तैर रहे प्यार के भाव को महसूस कर के शायरा घबरा गई और हाथ छुड़ा कर नीचे चली गई.

सुहैल चुपचाप अपने घर लौट आया. अब हालात बदल गए थे. स्कूल से आते ही वह अपना होमवर्क खत्म करता और उस के बाद शायरा के घर जा कर बस उसे देखभर आता.

समय बीतता गया. सुहैल की ग्रेजुएशन खत्म हो चुकी थी. घर वाले शादी की बात करने लगे थे, मगर सुहैल कह देता, ‘‘अभी मु?ो सीडीएस की तैयारी करनी है और फिर नौकरी लग जाने के बाद शादी करूंगा.’’

एक शाम सुहैल सीडीएस का इम्तिहान दे कर लौटा और सीधा शायरा के घर पहुंच गया. शायरा खाना बना रही थी. सुहैल ने हाथ पकड़ कर उसे उठाया, तो वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करते हो… रोटी बनानी है मु?ो.’’

सुहैल ने शायरा की एक न सुनी और छत पर ले आया

सुहैल ने शायरा की एक न सुनी और छत पर ले आया. वहां दोनों हाथों से उस का चेहरा ऊपर कर के बोला, ‘‘मेरी जल्द ही नौकरी लग जाएगी और फिर हम दोनों शादी कर लेंगे.’’

शायरा चुप खड़ी रही. उस का दिल तो कह रहा था कि सुहैल उसे अपनी बांहों में भर कर खूब प्यार करे.

‘‘मैं अब्बा से कहूंगा कि वे तेरे घर आ कर हमारे रिश्ते की बात करें,’’ कह कर सुहैल अपने घर चला आया.

कई दिन बाद शायरा को खबर लगी कि सुहैल की नौकरी लग गई है और उसे श्रीनगर भेज दिया गया है. यह सुनते ही शायरा को लगा जैसे घरमकान, गलीकूचा सब बदरंग हो गए हों. न खाने का मन करता था और न ही किसी से बात करने को दिल करता. दिनभर या तो वह काम करती रहती या छत पर चली जाती. रात तो तारे गिनते कब बीत जाती, उसे पता ही न चलता.

शायरा की यह हालत देख कर एक रात उस की अम्मी ने अपने शौहर से कहा कि वे सुहैल के अब्बा से उन दोनों के रिश्ते की बात कर आएं.

अगले दिन शायरा के अब्बू घर लौटे, तो शायरा ने उन्हें पानी दिया. जब वह जाने लगी, तो उन्होंने उसे रोक लिया और बोले, ‘‘मैं ने निजाम से बात कर ली है. कहते हैं कि जैसे ही सुहैल छुट्टी पर आएगा, तुम दोनों का निकाह कर देंगे.’’

शायरा भाग कर कमरे में चली गई और तकिए में मुंह छिपा कर खूब मुसकराई. उस दिन उस ने भरपेट खाना खाया और कई दिनों के बाद अच्छी नींद आई. अब इंतजार था तो सुहैल के घर लौट आने का.

एक दिन अब्बू ने बताया कि एक महीने बाद सुहैल घर लौट कर आ रहा है. यह सुन कर शायरा की खुशी का ठिकाना न रहा. अब तो बस दिन गिनने थे. महीने का समय ही कितना होता है? मगर जल्द ही उसे एहसास हो गया कि अगर किसी अजीज का इंतजार हो, तो एक दिन भी सदियों सा बड़ा हो जाता है.

शायरा सुबह उठती तो खुश होती कि चलो एक दिन बीता, मगर दिनभर बस घड़ी की तरफ निगाहें जमी रहतीं.

आखिर वह दिन भी आया, जब उसे पता चला कि सुहैल घर लौट आया  है. मेरठ नजदीक था तो चाचा भी घर  आ गए.

शाम को मौलवी की हाजिरी में दोनों परिवार के लोगों ने बैठ कर 10 दिन बाद का निकाह तय कर दिया.

शायरा को यकीन ही न था कि उसे मनमांगी मुराद मिल गई थी. घर में चूंकि चहलपहल थी, इसलिए सुहैल से मिलने का तो सवाल ही न था. बस, तसल्ली यह थी कि 10 ही दिनों की तो बात थी.

शादी में अभी 3 दिन बचे थे. घर में हर तरफ खुशी का माहौल था. अचानक एक बुरी खबर आई कि बैंगलुरु वाली बहन नाजनीन को बच्चों को स्कूल से लाते समय एक बस ने कुचल दिया. उन की मौके पर ही मौत हो गई.

एक पल में जैसे खुशियां मातम में बदल गईं. कुछ लोग तुरंत बैंगलुरु रवाना हो गए. हालात की नजाकत देखते  हुए उन्हें बैंगलुरु में ही दफना कर सब लौटे, तो अरबाज भी दोनों बच्चों के साथ आए.

शादी का समय नजदीक था, मगर शायरा ऐसे माहौल में शादी करने के हक में नहीं थी. उस ने जब यह बात सुहैल को बताई, तो उस ने शायरा का साथ दिया, मगर दोनों जानते थे कि कोई भी फैसला करना तो बड़ों को ही है.

शायरा दिनभर नाजनीन के बच्चों को अपने साथ रखती, उन के खानेपीने, नहलाने जैसी हर जरूरत का खयाल रखती. अरबाज दिन में 2-3 बार आ कर उस से बच्चों के बारे में जरूर जानते, उन का हालचाल लेते.

शादी की तैयारियां भी चुपचाप जारी थीं. शायरा भी कबूल कर चुकी थी कि बहन की मौत कुदरत की मरजी थी और यह शादी भी. उस ने मन ही मन खुद को तैयार भी कर लिया था.

शाम का समय था. सब लोग घर के आंगन में बैठे थे कि अरबाज और उस के अब्बू एकसाथ वहां पहुंचे. उन्हें बैठा कर चाय दी गई. शायरा उठ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘क्या बात है मियां, कुछ परेशान हो?’’ शायरा के अब्बू ने अरबाज के अब्बा से पूछा.

निजाम कुछ पल खामोश रहे, फिर कहा, ‘‘नाजनीन चली गई. अभी उस की उम्र ही कितनी थी. उस के बच्चे भी अभी बहुत छोटे हैं. अरबाज की हालत भी मु?ा से देखी नहीं जाती.’’

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘अरबाज अभी जवान है. लंबी उम्र पड़ी है. कैसे कटेगी? और इन बच्चों को कौन पालेगा? आखिर इन सब के बारे में भी तो हमें ही सोचना है.’’

‘‘अब क्या किया जा सकता है?’’

‘‘नाजनीन के बच्चे शायरा के साथ घुलमिल गए हैं. अगर अरबाज और शायरा का निकाह कर दें तो कैसा रहे?’’

एक पल के लिए खामोशी छा गई. शायरा ने सुना तो उस के शरीर से जैसे जान निकल गई.

‘‘वह सुहैल से प्यार करती है. वह नहीं मानेगी,’’ शायरा के अब्बा बोले.

‘‘औरत जात की मरजी के माने ही क्या हैं? जानवर की तरह जिस के हाथ रस्सी थमा दी गई उसी से बंध गई. तुम अपनी कहो. मंजूर हो तो निकाह की तैयारी करें. अरबाज की भी नौकरी का सवाल है.’’

शायरा के अब्बा इसलाम ने अपनी बीवी जुबैदा की ओर देखा, तो जुबैदा ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी.’’

अगले ही दिन से शादी की तैयारी शुरू हो गई. सुहैल को इस निकाह की खबर लगी, तो उस ने अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया.

जब यह खबर शायरा ने सुनी, तो उसे लगा कि जाने से पहले सुहैल उस से मिलने जरूर आएगा. मगर वह नहीं आया. उन के घर से खबर ही आनी बंद हो गई.

शादी बहुत सादगी से हो रही थी. शायरा को जब निकाह के लिए ले जाया गया, तो उस की हालत ऐसी थी जैसे मुरदे को मैयत के लिए ले जाया जा रहा हो. उस के सारे सपने टूट गए थे. जीने की वजह ही खत्म हो गई थी.

शायरा को लग रहा था कि जब उस से पूछा जाएगा कि अरबाज वल्द निजाम आप को कबूल है, तो वह कैसे कह पाएगी कि कबूल है?

दूल्हे से पूछा गया, ‘‘शायरा वल्द इसलाम आप को कबूल है?’’

आवाज आई, ‘‘कबूल है.’’

शायरा की जैसे धड़कन बढ़ गई. फिर शायरा से पूछा गया, ‘‘मोहतरमा, सुहैल वल्द निजाम आप को  कबूल है?’’

शायरा ने जैसे ही सुहैल का नाम सुना, तो उस ने धड़कते दिल और  चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘कबूल है.’’

दरअसल, अरबाज को पता चल चुका था कि शायरा सुहैल को चाहती है. उस ने सुहैल से बात की और शादी के दिन शायरा को यह खूबसूरत तोहफा देने की सोची. अब सुहैल और शायरा एक हो चुके थे.

Hindi Story: वही खुशबू – आखिर क्या थी उस की सच्चाई

Hindi Story: बहुत दिनों से सुनती आईर् थी कि भैरों सिंह अस्पताल के चक्कर बहुत लगाते हैं. किसी को भी कोई तकलीफ हो, किसी स्वयंसेवक की तरह उसे अस्पताल दिखाने ले जाते. एक्सरे करवाना हो या सोनोग्राफी, तारीख लेने से ले कर पूरा काम करवा कर देना जैसे उन की जिम्मेदारी बन जाती. मैं उन्हें बहुत सेवाभावी समझती थी. उन के लिए मन में श्रद्धा का भाव उपजता, क्योंकि हमें तो अकसर किसी की मिजाजपुरसी के लिए औपचारिक रूप से अस्पताल जाना भी भारी पड़ता है.

लोग यह भी कहते कि भैरों सिंह को पीने का शौक है. उन की बैठक डाक्टरों और कंपाउंडरों के साथ ही जमती है. इसीलिए अपना प्रोग्राम फिट करने के लिए अस्पताल के इर्दगिर्द भटकते रहते हैं. अस्पताल के जिक्र के साथ भैरों सिंह का नाम न आए, हमारे दफ्तर में यह नामुमकिन था.

पिछले वर्ष मेरे पति बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा. तब मैं ने भैरों सिंह को उन की भरपूर सेवा करते देखा तो उन की इंसानियत से बहुत प्रभावित हो गई. ऐसा लगा लोग यों ही अच्छेखासे इंसान के लिए कुछ भी कह देते हैं. कोई भी बीमार हो, वह परिचित हो या नहीं, घंटों उस के पास बैठे रहना, दवाइयों व खून आदि की व्यवस्था करना उन का रोज का काम था. मानो उन्होंने मरीजों की सेवा का प्रण लिया हो.

उन्हीं दिनों बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी भी बहुत बीमार रहती थी. उसे आर्थ्राइटिस था. उस का चलनाफिरना भी दूभर था. जब वह मेरे पति की सेवा में 4-5 घंटे का समय दे देते तो मैं उन्हें यह कहने पर मजबूर हो जाती, ‘आप घर जाइए, भाभीजी को आप की जरूरत होगी.’ पर वे कहते, ‘पहले आप घर हो आइए, चाहें तो थोड़ा आराम कर आएं, मैं यहां बैठा हूं.’

यों मेरा उन से इतनी आत्मीयता का संबंध कभी नहीं रहा. बाद में बहुत समय तक मन में यह कुतूहल बना रहा कि भैरों सिंह के इस आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या रहा होगा? धीरेधीरे मैं ने उन में दिलचस्पी लेनी शुरू की. वे भी किसी न किसी बहाने गपशप करने आ जाते.

एक दिन बातचीत के दौरान वे काफी संकोच से बोले, ‘‘चूंकिआप लिखती हैं, सो मेरी कहानी भी लिखें.’’मैं उन की इस मासूम गुजारिश पर हैरान थी. कहानी ऐसे हीलिख दी जाती है क्या? कहानी लायक कोई बात भी तो हो. परंतु यह सब मैं उन से न कह सकी. मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप अपनी कहानी सुनाइए, फिर लिख दूंगी.’’

बहुत सकुचाते और लजाई सी मुसकान पर गंभीरता का अंकुश लगाते हुए उन्होंने बताया, ‘‘सलोनी नाम था उस का, हमारी दोस्ती अस्पताल में हुई थी.’’

मुझे मन ही मन हंसी आई कि प्यार भी किया तो अस्पताल में. भैरों सिंह ने गंभीरता से अपनी बात जारी रखी, ‘‘एक बार मेरा एक्सिडैंट हो गया था. दोस्तों ने मुझे अस्पताल में भरती करा दिया. मेरा जबड़ा, पैर और कूल्हे की हड्डियां सेट करनी थीं. लगभग 2 महीने मुझे अस्पताल में रहना पड़ा. सलोनी उसी वार्ड में नर्स थी, उस ने मेरी बहुत सेवा की. अपनी ड्यूटी के अलावा भी वह मेरा ध्यान रखती थी.

‘‘बस, उन्हीं दिनों हम में दोस्ती का बीज पनपा, जो धीरेधीरे प्यार में तबदील हो गया. मेरे सिरहाने रखे स्टील के कपबोर्ड में दवाइयां आदि रख कर ऊपर वह हमेशा फूल ला कर रख देती थी. सफेद फूल, सफेद परिधान में सलोनी की उजली मुसकान ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला. मैं ने महसूस किया कि सेवा और स्नेह भी मरीज के लिए बहुत जरूरी हैं. सलोनी मानो स्नेह का झरना थी. मैं उस का मुरीद बन गया.

‘‘अस्पताल से जब मुझे छुट्टी मिल गई, तब भी मैं ने उस की ड्यूटी के समय वहां जाना जारी रखा. लोगों को मेरे आने में एतराज न हो, इसीलिए मैं कुछ काम भी करता रहता. वह भी मेरे कमरे में आ जाती. मुझे खेलने का शौक था. मैं औफिस से आ कर शौर्ट्स, टीशर्ट या ब्लेजर पहन कर खेलने चला जाता और वह ड्यूटी के बाद सीधे मेरे कमरे में आ जाती. मेरी अनुपस्थिति में मेरा कमरा व्यवस्थित कर के कौफी पीने के लिए मेरा इंतजार करते हुए मिलती.

‘‘जब उस की नाइट ड्यूटी होती तो वह कुछ जल्दी आ जाती. हम एकसाथ कौफी पीते. मैं उसे अस्पताल छोड़ने जाता और वहां कईकई घंटे मरीजों की देखरेख में उस की मदद करता. सब के सो जाने पर हम धीरेधीरे बातें करते रहते. किसी मरीज को तकलीफ होती तो उस की तीमारदारी में जुट जाते.

‘‘कभी जब मैं उस से ड्यूटी छोड़ कर बाहर जाने की जिद करता तो वह मना कर देती. सलोनी अपनी ड्यूटी की बहुत पाबंद थी. उस की इस आदत पर मैं नाराज भी होता, कभी लड़ भी बैठता, तब भी वह मरीजों की अनदेखी नहीं करती थी. उस समय ये मरीज मुझे दुश्मन लगते और अस्पताल रकीब. पर यह मेरी मजबूरी थी क्योंकि मुझे सलोनी से प्यार था.’’

‘‘उस से शादी नहीं हुई? पूरी कहानी जानने की गरज से मैं ने पूछा.’’

भैरों सिंह का दमकता मुख कुछ फीका पड़ गया. वे बोले, ‘‘हम दोनों तो चाहते थे, उस के घर वाले भी राजी थे.’’

‘‘फिर बाधा क्या थी?’’ मैं ने पूछा तो भैरों सिंह ने बताया, ‘‘मैं अपने मांबाप का एकलौता बेटा हूं. मेरी 4 बहनें हैं. हम राजपूत हैं, जबकि सलोनी ईसाई थी. मैं ने अपनी मां से जिद की तो उन्होंने कहा कि तुम जो चाहे कर सकते हो, परंतु फिर तुम्हारी बहनों की शादी नहीं होगी. बिरादरी में कोई हमारे साथ रिश्ता करने को तैयार नहीं होगा.

‘‘मेरे कर्तव्य और प्यार में कशमकश शुरू हो गई. मैं किसी की भी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं था. इस में भी सलोनी ने ही मेरी मदद की. उस ने मुझे मां, बहनों और परिवार के प्रति अपना फर्ज पूरा करने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया.

‘‘मां ने मेरी शादी अपनी ही जाति में तय कर दी. बड़ी धूमधाम से शादी हुई. सलोनी भी आई थी. वह मेरी दुलहन को उपहार दे कर चली गई. उस के बाद मैं ने उसे कभी नहीं देखा. विवाह की औपचारिकताओं से निबट कर जब मैं अस्पताल गया तो सुना, वह नौकरी छोड़ कर कहीं और चली गई है. बाद में पता चला कि  वह दूसरे शहर के किसी अस्पताल में नौकरी करती है और वहीं उस ने शादी भी कर ली है.’’

‘‘आप ने उस से मिलने की कोशिश नहीं की?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ भैरों सिंह ने जवाब दिया, ‘‘पहले तो मैं पगला सा गया. मुझे ऐसा लगता था, न मैं घर के प्रति वफादार रह पाऊंगा और न ही इस समाज के प्रति, जिस ने जातपांत की ये दीवारें खड़ी कर रखी हैं. परंतु शांत हो कर सोचने पर मैं ने इस में भी सलोनी की समझदारी और ईमानदारी की झलक पाई. ऐसे में कौन सा मुंह ले कर उस से मिलने जाता. फिर अगर वह अपनी जिंदगी में खुश है और चाहती है कि मैं भी अपने वैवाहिक जीवन के प्रति एकनिष्ठ रहूं तो मैं उस के त्याग और वफा को धूमिल क्यों करूं? अब यदि वह अपनी जिंदगी और गृहस्थी में सुखी है तो मैं उस की जिंदगी में जहर क्यों घोलूं?’’

‘‘अब अस्पताल में इतना क्यों रहते हैं? और यह कहानी क्यों लिखवा रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकता दिखाई.

भैरों सिंह ने गहरी सांस ली और धीमी आवाज में कहा, ‘‘मैं ने आप को बताया था न कि मैं उस का अधिक से अधिक साथ पाने के लिए उस की ड्यूटी के दौरान उस की मदद करता था, पर दिल में उस की कर्मनिष्ठा और सेवाभाव से चिढ़ता था. अब मुझे वह सब याद आता है तो उस की निष्ठा पर श्रद्धा होती है, खुद के प्रति अपराधबोध होता है. अब मैं मरीजों की सेवा, प्यार की खुशबू मान कर करता हूं और मुझे अपने अपराधबोध से भी नजात मिलती है.’’

भैरों सिंह की आवाज और धीमी हो गई. वह फुसफुसाते हुए से बोले, ‘‘अब मैं सिर्फ एक बात आप को बता रहा हूं या कहिए कि राज की बात बता रहा हूं. इस अस्पताल के समूचे वातावरण में मुझे अब भी वही खुशबू महसूस होती है, सलोनी के प्यार की खुशबू. रही बात कहानी लिखने की, तो मेरे पास उस तक अपनी बात पहुंचाने का कोई जरिया भी तो नहीं है. अगर वह इसे पढ़ेगी तो समझ जाएगी कि मैं उसे कितना याद करता हूं. उस की भावनाओं की कितनी इज्जत करता हूं. यही प्यार अब मेरी जिंदगी है.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें