Story In Hindi: कारखाने वाली – डर के साए में सलमा?

Story In Hindi: शाम को होटल वापस आते समय अचानक जब सलमा से सामना हो गया, तो अनवर एकदम घबरा गया. ‘‘अरे अनवर, तुम…?’’ उसे देखते ही सलमा के बदसूरत चेहरे पर पहचान की चमक और होंठों पर मुसकान आ गई. ‘‘हां… मैं…’’ अनवर को अपनी आवाज गले में फंसती महसूस हुई. ‘‘कब आए?’’ ‘‘2 दिन हुए.’’ ‘‘हमारे घर क्यों नहीं आए?’’ सलमा ने पूछा. ‘‘दफ्तर के काम में उलझा हुआ हूं.’’ ‘‘तो ठीक है, अब घर चलो,’’ सलमा बोली. ‘‘अभी?’’ अनवर का दिल उछल कर गले में आ गया, ‘‘अभी… अभी नहीं. फिर कभी…’’ ‘‘तो ठीक है…

कल तुम 10 बजे हर हाल में मेरे घर आओगे और… दोपहर का खाना हमारे साथ खाओगे…’’ सलमा बोली, ‘‘मैं भी जल्दी में हूं. ज्यादा देर भी नहीं रुक सकती. वे और मुन्नी राह देख रहे होंगे.’’ ‘‘वे कौन…?’’ अनवर ने पूछा. फिर उसे अपनी बेवकूफी का एहसास हुआ, ‘‘वे से मतलब शौहर से है न?’’ ‘‘हां,’’ सलमा का काला चेहरा शर्म से चमक उठा. ‘‘तो तुम्हारी शादी हो गई?’’ अनवर को यकीन नहीं हुआ. ‘‘हां… शादी हुए 2 साल हो चुके हैं. कल तुम घर आ रहे हो न? अच्छा अपना मोबाइल नंबर तो दो’’ ‘‘हांहां, जरूर आऊंगा… और मेरा मोबाइल नंबर है…’’ अनवर ने जवाब में नंबर दिया और आगे बढ़ गया. सलमा को देखते ही अनवर पर जो घबराहट छाई थी,

उस की शादी की बात सुनते ही वह दूर हो गई. कुछ पल पहले वह सलमा से पीछा छुड़ाने के लिए उस से वादा कर रहा था कि वह उस के घर जरूर आएगा. लेकिन अंदर ही अंदर यह सोच रहा था कि सलमा के घर जाने के बजाय वह यह शहर छोड़ कर भाग जाएगा. परंतु जैसे ही सलमा ने बताया कि उस की शादी हो चुकी है और उस की एक बच्ची भी है, तो अनवर का सारा डर दूर हो गया. उस ने तय कर लिया कि अब वह सलमा के घर जरूर जाएगा. सलमा की शादी हो गई?है, अनवर रास्तेभर इसी बारे में सोचता रहा. कोई और उस से यह बात कहता हो, वह यकीन नहीं करता. पर सलमा ने खुद कहा था, तो यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था. सलमा की शादी उस के लिए ही नहीं, हर उस आदमी के लिए हैरानी की बात हो सकती थी, जो सलमा को जानता था.

अनवर जब भी इस शहर में आता था, इस बात से डरता रहता था कि कहीं सलमा से आमनासामना न हो जाए. सलमा का सामना करना उस के बस की बात नहीं थी. उसे अचानक वह पुरानी वारदात याद हो आई. वह नहीं चाहता था कि फिर उसे एक बार उस तरह की किसी वारदात का सामना करना पड़े. इसलिए कादिर चाचा की मौत के बाद भी अफसोस करने वह उन के घर नहीं गया. पर उस वारदात के लिए न तो अनवर खुद को मुजरिम समझता है और न ही सलमा को. उसे तो उस दिन के बाद से सलमा से हमदर्दी हो गई थी. पहली बार उसे एक औरत की ख्वाहिशों को समझने का मौका मिला था. पर वह सलमा से सिर्फ हमदर्दी ही रख सकता था. वह न तो उस के लिए कुछ कर सकता था, न ही सोच सकता था. सलमा अनवर के पिता के एक दोस्त कादिर चाचा की लड़की थी. वह बहुत बदसूरत थी, काला रंग, पिचका हुआ चेहरा, छोटीछोटी आंखें, बड़ी सी भद्दी नाक और बाहर निकले दांत.

अनवर के अब्बा और कादिर चाचा की दोस्ती इतनी गहरी थी कि कादिर चाचा जब भी उन के शहर आते, तो उन के घर ही ठहरते थे. उस के अब्बा भी जब कभी कादिर चाचा के शहर जाते, उन के घर ही रुकते थे. अनवर का भी अकसर उस शहर में आनाजाना होता था. ऐसी हालत में उस के अब्बा उसे खासतौर से ताकीद करते थे कि वह कादिर चाचा से जरूर मिले और यदि वहां रुकना पड़े तो उन के घर ही रुके. कादिर चाचा से 2 बेटे थे, जिन की शादियां हो चुकी थीं. वे अपनेअपने कारोबार के लिए दूसरे शहरों में जा बसे थे. उस की मां की बहुत पहले ही मौत हो चुकी थी. कादिर चाचा की सेहत भी ठीक नहीं रहती थी. उन का जिंदगी से मोह खत्म हो गया था. केवल एक चिंता थी,

जो उस मोह की डोर को बांधे हुए थी. सलमा की शादी की चिंता उन्हें दिनरात सताती रहती थी. वह 22 साल की हो गई थी. पढ़नेलिखने में बहुत तेज थी, इसलिए अच्छे नंबरों से बीए पास करने के बाद उसे नौकरी भी मिल गई थी. इस तरह वह अपने पैरों पर खड़ी हो गई थी. लेकिन भला कौन बेवकूफ सलमा जैसी बदसूरत लड़की से शादी करने के लिए तैयार हो सकता था. माना कि वह एक कमाऊ लड़की थी, कादिर चाचा ने भी उस की शादी के लिए काफी पैसा जमा कर रखा था, सलमा के दोनों भाई अपनी बहन के दहेज में मुंहमांगी चीजें देने को तैयार थे, पर इन तमाम बातों के बावजूद भी कोई सलमा से ब्याह करने को तैयार नहीं होता था. भला जिस लड़की के चेहरे पर एक पल के लिए भी नजरें जमाना मुश्किल हो, उस के साथ जिंदगीभर का नाता जोड़ने के लिए कौन तैयार हो सकता था.

जब भी कादिर चाचा अनवर के अब्बा से दुख भरी आवाज में सलमा के ब्याह के बारे में बातें करते तो उस के अब्बा दिलासा देने के लिए, यही कहते थे, ‘तुम धीरज रखो कादिर, कुदरत ने सारी लड़कियों के जोड़े बनाए हैं… सलमा का भी जरूर बनाया होगा. दुनिया में कोई न कोई ऐसा नेक आदमी तो होगा ही, जो सलमा की बदसूरती के बावजूद उसे अपना लेगा.’ पर कादिर चाचा यही कहते थे, यह सब दिल को बहलाने की बातें हैं. मैं अपनी बेटी की शादी की तमन्ना सीने में लिए इस दुनिया से चला जाऊंगा. एक दिन अनवर को उस शहर में रुकना था. इसलिए वह कादिर चाचा के घर चला गया. रात का भोजन कर के वह घूमने के लिए बाहर चला गया. कादिर चाचा को कहीं बाहर जाना था, इसलिए वह कह गए थे कि रात को देर से घर आएंगे. सलमा ने खाना लाजवाब बनाया था. इसलिए अनवर कुछ ज्यादा ही खा गया था. इसलिए वह घूमने निकल गया. वह साढ़े 9 बजे के करीब वापस घर आया और पलंग पर लेट गया. सलमा शायद कोई काम कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब वह कमरे में आई, तो अनवर ने कोई ध्यान नहीं दिया. पर जब वह कमरे का दरवाजा भीतर से बंद करने लगी, तो वह चौंक पड़ा,

‘क्या बात है?’ वह घबरा कर बोला, ‘यह तुम क्या कर रही हो? तुम क्या चाहती हो?’ ‘वही, जो एक जवान लड़की एक लड़के से चाहती है,’ सलमा उस के करीब आ कर खड़ी हो गई. ‘सलमा, तुम पागल तो नहीं हो गई?’ अनवर बौखला गया. ‘अनवर, तुम मेरे जज्बातों को समझने की कोशिश करो,’ कहते हुए सलमा उस से लिपट गई, ‘माना कि मैं बदसूरत हूं… इतनी बदसूरत कि कोई मुझे एक नजर भर के लिए भी नहीं देख सकता है, पर फिर भी मैं एक औरत हूं. मेरे भी जज्बात हैं… मैं उन को मार कर किस तरह जिंदा रह सकती हूं. मैं अपने जज्बातों को पूरा करने के लिए कई आदमियों से कह चुकी हूं. पर वे मेरी ओर देखना भी पसंद नहीं करते. ‘अनवर, तुम मेरे जज्बातों को समझने की कोशिश करो. माना कि मेरा चेहरा बदसूरत है. पर मेरा शरीर तो वैसा ही है, जैसा एक आम औरत का होता?है. मैं तुम्हें वैसा ही सुख दे सकती हूं, जैसा कि कोई दूसरी औरत दे सकती है. मेरी प्यास बुझा दो… मैं अभी तक कुंआरी हूं…’ अनवर शादीशुदा था. एक मर्द के अंदर किसी औरत का जिस्म कैसा तूफान उठा सकता?है,

यह वह अच्छी तरह जानता था. सचमुच सलमा के जिस्म से उसे वही सुख मिल सकता था, जो उसे अपनी बीवी से मिलता था. तभी उस के भीतर का कोई चीखा, ‘यह गलत है.’ ‘हट जाओ,’ कहते उस ने एक जोरदार थप्पड़ सलमा को मारा और उसे दूर धकेल दिया. सलमा फर्श पर गिर कर सिसकने लगी. अनवर ने अपनी उखड़ी हुई सांसें दुरुस्त कीं और फिर अपना सामान उठा कर तेजी से घर से निकल गया. उस के बाद अनवर फिर कभी कादिर चाचा के घर नहीं आया. उस घटना के बाद से अनवर ने उस घर से सारे रिश्ते ही तोड़ लिए थे और सलमा के बारे में सोचना भी छोड़ दिया था. उसे महसूस होता था कि सलमा जिस हालात में गुजर रही है, वह काफी खतरनाक है. ऐसे में वह कभी भी भटक सकती है. अनवर जब भी इस शहर में आता, यही डर दिल में बना रहता कि कहीं सलमा से सामना न हो जाए. अभी तक ठीक था, पर आज सामना हो गया था. पर अब अनवर सलमा से बचना नहीं चाहता था. वह उस के घर जाना चाहता था. और उस के उस नेक पति से मिलना चाहता था, जिस ने सलमा जैसी बदसूरत लड़की को अपनाया था. दूसरे दिन सुबह 10 बजे जब अनवर सलमा के घर पहुंचा, तो वह उस की राह देख रही थी. ‘‘मुझे यकीन था कि तुम जरूर आओगे.

फिर भी शक तो था ही कि आते हो या नहीं,’’ कहते हुए सलमा ने उसे अंदर आने के लिए कहा. घर बहुत शानदार था. लगता है, कुछ काम हो रहा था, क्योंकि यह घर दूसरी मंजिल पर था और आवाजें निचली और ऊपर वाली मंजिलों से आ रही थीं. ‘‘इन से मिलो, यह हैं मेरे शौहर लतीफ साहब,’’ कहते हुए उस ने सोफे पर बैठे एक आदमी की तरफ इशारा किया. ‘‘अस्सलामु अलैकुम,’’ सोफे पर बैठे सलमा के शौहर ने अनवर को पहले सलाम कर दिया. ‘‘वालेकुम सलाम,’’ जवाब देते हुए अनवर हैरानी से सलमा के अंधे पति को देखने लगा. उस की उम्र 25-26 साल के आसपास थी. जिस्म गठीला और रंग गोरा था. ‘‘अनवर भाई, सलमा अकसर आप के और आप के घर वालों के बारे में बताया करती है. मैं आप को देख तो नहीं सकता, पर महसूस कर सकता हूं,’’ लतीफ बोला. इस बीच सलमा छोटी सी बच्ची को ले आई और बोली, ‘‘यह है मेरी बेटी मुन्नी.’’ अनवर ने बच्चे को देखा. वह सचमुच खूबसूरत थी. बच्ची उसे देख कर हंसने लगी, तो उस ने उसे चूम लिया. ‘‘अनवर भाई,

शादी से पहले मुझे चारों ओर से ठोकरें मिलती थीं. मेरी जिंदगी तो अंधेरों से भरी थी. अनाथ आश्रम में पला और बड़ा हो कर दरबदर की ठोकरें खाने सड़कों पर निकल आया. ‘‘अनाथ आश्रम में मुझे खराद का काम सिखाया गया था. ऐसे में सलमा ने मुझे सहारा दिया… मुझ से शादी कर के मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया. ‘‘लोग कहते हैं कि वह बहुत बदसूरत है, पर खूबसूरती और बदसूरती क्या?है, मैं तो कुछ भी नहीं जानता. मेरे लिए तो सलमा से खूबसूरत औरत इस दुनिया में है ही नहीं… सलमा ने ही मुझे खराद का काम लोगों को सिखा कर छोटा सा कारखाना खुलवा दिया.’’ सलमा चाय ले आई थी. प्याला लेते हुए अनवर उसे देखने लगा. जिंदगी के सुख और खुशियां उस के अंगअंग से फूट रही थीं. ‘‘इन के हाथों का कमाल है कि ये हर पुरजे को छू कर समझ लेते हैं और कारीगरों से बढि़या काम करा लेते हैं. हमारे यहां दूरदूर से लोग काम कराने आते हैं,’’ चाय रखते हुए सलमा बोली,

‘‘अब लोग मुझे बौड़म सलमा नहीं कारखाने वाली सलमा कह कर बुलाती हैं अनवर,’’ सलमा ने राज बताया. सलमा एक बदसूरत औरत थी, पर उस ने अपनी होशियारी से इतना शानदार समझौता किया था कि उस की जिंदगी खुशियों से भर गई. उस ने लतीफ जैसे एक अंधे नौजवान से शादी कर के उसे सहारा दिया था और बदले में उसे मिला था एक नेक पति. अगर वह समझौता नहीं करती तो शायद उम्रभर तरसती ही रहती. पहली बार सलमा को देख कर अनवर के दिल में खुशी और बेफिक्री की लहर दौड़ गई. Story In Hindi

Hindi Family Story: रिश्तों का तानाबाना – डरावनी यादों से भागती गीतिका

Hindi Family Story: एक महीने से गीतिका खुद को पूरी तरह भुला कर रातदिन अपने एक न‌ए प्रोजैक्ट पर काम कर रही है. यह प्रोजैक्ट उस के कैरियर को नया आयाम देने वाला है. प्रोजैक्ट के ऐप्रूव्ड होते ही कंपनी द्वारा उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक साल के लिए न्यूजर्सी जाने का मौका मिलने वाला है. और गीतिका यह मौका किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती.

गीतिका जितनी जल्दी हो सके इंडिया से बाहर चली जाना चाहती है. वह अपने काम में कुछ इस तरह गुम हो जाना चाहती है कि वह अपनेआप को भी भुला देना चाहती है और साथ ही, वह बचपन से जुड़ी हर कड़वी याद को अपने स्मृतिपटल से निकाल फेंकना चाहती है. जब से उस ने होश संभाला है तब से ले कर आज तक वह इसी कोशिश में रही है. इतने सालों बाद आज भी उसे अपना बचपन डरावना लगता है, लेकिन भला ऐसा कभी हुआ है. मनुष्य जिन यादों को जितना भूलना चाहता है वे उतना ही उस का पीछा करती हैं.

गीतिका का बचपन दूसरे बच्चों के बचपन से बिलकुल अलग रहा. वह चाह कर भी अपने बचपन को आम बच्चों की तरह जी नहीं पाई, जिसे ले कर आज भी उस के मन में गुस्सा और कसक है, जो उसे टीस की तरह चुभते हैं. उस की कोई गलती न थी, लेकिन सज़ा उसे मिली. स्कूल में, समाज में और फ्रैंड्स के बीच सदा उस का उपहास हुआ. अपने बड़े से मकान के एक छोटे से कोने में न जाने उस ने कितना ही वक्त अकेले रोते हुए गुज़ारा है.

हर रिश्ते से गीतिका का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है. वह न अब किसी पर भरोसा करती है और न ही कोई नया रिश्ता बनाना चाहती है. फिर भी उस का एक रिश्ता अपनी मैड रोज़ी आंटी और अपने कलीग विशिष्ट से बन ही गया है. रोज़ी आंटी सदा गीतिका का ध्यान ऐसे रखती आई है जैसा गीतिका हमेशा से चाहती थी कि उस की अपनी मां रखे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. उसे कभी भी अपनी मां से वह प्यार व दुलार न मिला जिस की उसे चाहत थी और वह पिता के स्नेह से भी सदा वंचित ही रही.

रात के 11 बजे अपने सहकर्मी विशिष्ट के साथ गीतिका घर पहुंची. घर के गेट पर पहुंच, विशिष्ट के कार रोकते ही गीतिका ने कहा-

“अंदर नहीं चलोगे, लेट्स हैव अ कप औफ कौफी.”

विशिष्ट ने कार स्टार्ट करते हुए कहा-

“नहीं गीतिका, आज नहीं, अभी काफी देर हो गई है, कल औफिस में मिलते हैं. वैसे भी, कल तुम्हारा प्रोजैक्ट फाइनल हो जाएगा. उस के बाद कौफी से काम नहीं चलेगा, तुम से पार्टी चाहिए”

गीतिका मुसकराती हुई कार की विंडो पर हाथ रखती हुई बोली-

” ओके, श्योर, व्हाय नौट.”

गीतिका के ऐसा कहते ही विशिष्ट वहां से चला गया और गीतिका घर की ओर मुड़ी. गीतिका बहुत अच्छे से जानती है कि विशिष्ट के दिल में उस के लिए जज्बात हैं. लेकिन वह किसी भी प्रकार के रिश्ते पर विश्वास नहीं करती, यह बात विशिष्ट भी अच्छी तरह जानता है. इसलिए, उस ने गीतिका से यह वादा किया है कि वह कभी भी उसे अपने साथ रिश्ते में बंधने के लिए मजबूर नहीं करेगा, जब तक वह स्वयं इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो जाती लेकिन वह आजीवन उस का इंतज़ार जरूर करेगा.

घर के अंदर पहुंचते ही रोज़ी गीतिका का औफिस बैग अपने हाथों में लेती हुई बोली-

“गीतिका बेबी, आप जल्दी से मुंहहाथ धो लो, मैं आप के लिए गरमागरम फुल्के बनाती हूं.”

गीतिका अपने दोनों हाथ रोज़ी के कंधे पर रखती हुई बोली-

“अरे आंटी, मैं ने आप से कितनी बार कहा है कि आप मेरा वेट मत किया करो, आप खाना खा कर सो क्यों नहीं जाती हैं, मैं खाना खा लूंगी.”

“हां, मुझे मालूम है, आप को अपने काम के अलावा कभी अपनी सुध रही है क्या… जिस दिन आप अपना ध्यान रखना शुरू कर दोगी न बेबी, उस दिन मैं सो जाऊंगी लेकिन तब तक नहीं,” रोज़ी डांटती हुई सी गीतिका से कहने लगी.

गीतिका चाहे कितना भी लेट क्यों न हो जाए, रोज़ी उसे बिना खाना खाए रात में सोने नहीं देती और सुबह बिना ब्रेकफास्ट के घर से निकलने नहीं देती. दोनों के बीच एक अलग ही रिश्ता है.

गीतिका के खाना खाने के बाद रोज़ी थोड़ा हिचकिचाती हुई बोली- “बेबी, मैडम का फोन आया था. आप से बात करना चाह रही थीं. शायद, मैडम ने आप के नंबर पर भी फोन किया था लेकिन आप ने फोन नही उठाया.”

“हां, नहीं उठाया क्योंकि मैं बिज़ी थी. वैसे भी, उन्हें क्या जरूरत है मुझे फोन करने की? जब 10 साल पहले वह हमें छोड़ कर जा चुकी है तो क्यों बारबार आ जाती है मेरी जिंदगी में मेरी दुखती रग पर हाथ रखने के लिए, क्यों चैन से मुझे जीने नहीं देती,” गीतिका गुस्से में चिढ़ती हुई बोली.

“नहीं बेबी, ऐसा नहीं कहते. आखिर, उन्होंने आप को जन्म दिया है, वे आप की मां हैं.”

“मां है, ऐसा आप कह रही हैं आंटी सबकुछ जानते हुए. आप अच्छी तरह से जानती हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दे कर छोड़ दिया मरने के लिए, कभी प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ नहीं फेरा, न ही कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं क्या चाहती हूं, मैं क्या सोचती हूं,” गीतिका गुस्से से डबडबाई आंखों से कहने लगी.

“बेटा, मैं यह सब जानती हूं. लेकिन मैडम जैसी भी हैं, आप की मां हैं, आप की जननी हैं, कल शाम की फ्लाइट से साहब और मैडम दोनों आ रहे हैं. आप दोनों से प्यार से मिलना, उन के साथ जरा भी बदतमीजी न करना,” गीतिका के सिर पर हाथ रखती हुई रोज़ी उसे समझाने की कोशिश करने लगी.

“आंटी, आप मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न रखें, तो बेहतर होगा,” ऐसा कहती हुई गीतिका वहां से अपने रूम में तेज़ी से चली गई.

अपने रूम की सारे लाइटें बंद कर गीतिका उन जगमगाती रोशन गलियों में अपने खोए हुए बचपन को देखने लगी जहां इतना ज्यादा शोरशराबा, चकाचौंध और चमक थी कि उस नन्ही सी जान को न कोई सुन पा रहा था और न ही समझ पा रहा था.

गीतिका की मां शालिनी गुप्ता शहर की जानीमानी हस्ती, प्रसिद्ध समाजसेविका होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित पद पर भी थी. पिता विनय गुप्ता भी अच्छे पद पर कार्यरत थे लेकिन गीतिका की मां और अपनी पत्नी के पद से शायद उन का ओहदा नीचे था, यह बात अकसर गीतिका अपने मातापिता के झगड़े के दौरान सुना करती थी, इसलिए वह यह जान चुकी थी कि उस के पिता का पद उस की मां के पद से नीचे है.

बचपन से ही वह एक और बात जान चुकी थी कि उस के मम्मी व पापा के बीच जिस की वजह से हर रोज़ लड़ाई झगडे होते हैं वह कोई और नहीं मम्मी के सहकर्मी व पुरुष मित्र हैं और शायद वह मित्र उस की मम्मी के लिए मित्र से भी कहीं ज्यादा माने रखता है, इसलिए तो उस की मम्मी अपने मित्र के लिए गीतिका और अपने पति को छोड़ने के लिए तैयार थी और यही हुआ भी जब गीतिका 16 साल की थी, गीतिका के माता और पिता के बीच तलाक हो गया.

कोर्ट में जब गीतिका से उस की मरजी पूछी गई कि वह किस के साथ रहना चाहती है- अपनी मम्मी के साथ या पापा के साथ. गीतिका चीखचीख कर कहना चाहती थी वह किसी के साथ नहीं रहना चाहती, लेकिन वह ऐसा कह नहीं पाई. वह बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि मम्मी के पास उसे देने के लिए बहुत पैसे हैं पर वक्त नहीं, वह यह भी जानती थी कि देने के लिए पापा के पास भी केवल पैसे ही हैं. लेकिन उसे अपने मातापिता दोनों से किसी एक को चुनना था, सो उस ने अपने पिता को चुना.

दूसरे बच्चों को जब वह अपने मातापिता के साथ देखती तो उस का मन तारतार हो जाता और वह क्रोध व आक्रोश से भर जाती. गीतिका भी अपने मातापिता के संग वैसे ही रहना चाहती थी जैसे उस के बाकी फ्रैंड्स रहते थे. लेकिन यह संभव नहीं था और इस बात ने गीतिका के मन को इतना प्रभावित किया कि वह अवसाद में चली गई और नशा करने लगी.

आज भी गीतिका भूली नहीं है वह दिन जब रोज़ी आंटी ने उसे ड्रग्स लेते हुए पकड़ लिया था. अपने मातापिता के तलाक के बाद जब वह अपने पापा के साथ रहने लगी थी तब उस के पापा ने रोज़ी को गीतिका की देखभाल के लिए रखा था, क्योंकि वे अकसर अपने काम के सिलसिले में बाहर ही रहते. अभी कुछ ही दिन हुए थे रोज़ी आंटी को घर में आए. एक दिन जब वह खाना ले कर उस के रूम में पहुंची तो गीतिका उसे नशे की हालत में मिली.

c तभी रोज़ी आंटी ने गीतिका को अपने सीने से लगा लिया. गीतिका को ऐसा लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई और वह रोज़ी के सीने से लग कर फूटफूट कर रोने लगी.

रोज़ी उस के आंसुओं को पोंछती हुई कस कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया जैसे एक मां अपने बच्चे को आंचल में छिपा लेती है. गीतिका को उसे शांत कराती हुई रोजी बोली, “गीतिका बेबी, नशा किसी भी समस्या का समाधान नहीं. यदि आप किसी से नाराज़ हैं तो सज़ा अपनेआप को क्यों दे रही हैं. आप के नशा करने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन आप को फर्क पड़ेगा. आप बीमार हो जाएंगी, कमजोर हो जाएंगी, क्लास में आप का परफौर्मेंस बिगड़ जाएगा. फिर जो बच्चे अभी आप पर हसंते हैं, आप का मजाक बनाते हैं, वे आपको और ज्यादा परेशान करेंगे. इसलिए आप अपनी सारी एनर्जी पढ़ाई पर लगा दीजिए, खूब पढ़ाई करिए ताकि कोई आप का मज़ाक न बना पाए. सब आप से प्यार करें और आप अपना निर्णय स्वयं लेने के काबिल बनें.”

उस दिन के बाद से गीतिका ने अपनी सारी ऊर्जा पढ़ाई में लगा दी और रोज़ी आंटी ने गीतिका की देखभाल में. अभी गीतिका अपने बचपन में मिले नासूर घावों के असहनीय दर्द के साथ कमरे में कराह रही थी कि आवाज़ आई, “गीतिका बेबी, गीतिका बेबी.” एक न‌ई सुबह ने दस्तक दे दी थी.

गीतिका के दरवाज़ा खोलते ही सामने हाथों में कौफी का कप लिए रोज़ी आंटी खड़ी थी. रूम के साइड टेबल पर कौफी का कप रख, आंटी गीतिका का माथा चूमती हुई बोली, “कौफी पी कर तैयार हो जाइए आज, आपका प्रजेंटेशन है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आप को सफलता जरूर मिलेगी.”

इतना कह रोज़ी कमरे से लौट ग‌ई. गीतिका तैयार हो नाश्ते की टेबल पर पहुंची और जब नाश्ता कर वह जाने लगी तो रोज़ी ने कहा, “बेबी, शाम को जल्दी आने की कोशिश करना.”

गीतिका बिना कुछ कहे रोज़ी को गले लगा कर चली गई.

शाम को जब गीतिका घर पहुंची तो उस के मातापिता आ चुके थे. गीतिका को देखते ही उस की मां ने उसे बांहों में लेना चाहा लेकिन गीतिका ने उन्हें झटक दिया और कहने लगी, “क्यों आए हैं आप दोनों यहां. जो भी कहना है, जल्दी कहिए. मुझे कुछ ही दिनों में न्यूजर्सी के लिए निकलना है. बहुत सी जरूरी फौर्मैलिटीज हैं जिन्हें पूरी करनी है. आई हैव नो टाइम, सो प्लीज़, जो कहना है, जल्दी कहिए.”

गीतिका को इस प्रकार बात करता देख गीतिका की मां बोली, “हमें मालूम है बेटा, रोज़ी ने हमें सब बता दिया है. तुम आउट औफ इंडिया जा रही हो, इसलिए तो हम आए हैं. तुम्हारे पापा और मैं ने मिल कर तुम्हारे बैटर फ्यूचर के लिए यह फैसला लिया है कि तुम्हारे जाने से पहले हम तुम्हारी शादी करा देते हैं. लड़का कोई और नहीं, हमारे शहर के जानेमाने व्यापारी और मेरी फ्रैंड मिसेज चंद्रा का बेटा है. वे लोग चाहते हैं कि तुम उन के घर की बहू बनो और हम भी यही चाहते हैं.”

यह सुनते ही गीतिका के सब्र का बांध टूट गया और वह ऊंची आवाज़ में बोली, “मेरे बैटर फ्यूचर के लिए…? किस ने कहा आप लोगों को मेरे फ्यूचर के बारे में सोचने के लिए या फैसला लेने के लिए कहा? उस वक्त कहां थे आप दोनों जब आप लोगों की वजह से मेरी क्लास के बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे, उस वक्त कहां थे आप लोग जब आप दोनों के तलाक की वजह से मैं डिप्रेशन में चली गई थी, ड्रग्स लेने लगी थी. उस समय आप दोनों को मेरे बैटर फ्यूचर का ख़याल नहीं आया और आज जब मैं अपना फ्यूचर खुद संवार सकती हूं, संभाल सकती हूं तो आप लोगों को मेरे भविष्य की चिंता हो रही. आप दोनों यहां से चले जाइए, मुझे वहां शादी नहीं करनी है.”

गीतिका के मुख से ये सब कड़वी बातें सुन गीतिका के पापा उस के सिर पर हाथ रख कर कहने लगे, “बेटा, हम तुम्हारे पेरैंट्स हैं और हम हर हाल में तुम्हारी भलाई चाहते हैं. वैसे भी, आज नहीं तो कल, तुम्हें किसी न किसी लड़के से शादी तो करनी ही है. तो फिर, इस लड़के से क्यों नहीं? ”

“पापा, किसी भी बच्चे की भलाई तब होती है जब मातापिता दोनों अपने बच्चों के मनोभाव को समझते हैं. ‌उन्हें गिफ्ट के साथसाथ अपना वक्त, प्यार और दुलार भी देते हैं. रही बात शादी की, तो शादी तो मैं जरूर करूंगी लेकिन उस लड़के से नहीं जिस से आप दोनों चाहते हैं बल्कि उस से जो मुझे चाहता है और जिसे मैं चाहती हूं.”

“जिसे तुम चाहती हो, मतलब?” गीतिका की मां ने आश्चर्य से पूछा.

गीतिका मुसकराती हुई बोली, “हां, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा कलीग विशिष्ट है, जिस ने मुझे दोबारा रिश्तों पर विश्वास करना सिखाया, रिश्तों का मतलब बताया, रिश्तों को निभाना सिखाया. विशिष्ट मेरे जज्बात को समझता है, मुझे समझता है. आज मेरा प्रोजैक्ट ऐप्रूव्ड होते ही मैं ने उस से अपने दिल की बात कह दी है. मेरे न्यूजर्सी से लौटते ही हम शादी कर लेंगे और हम जब भी शादी करेंगे, आप दोनों को जरूर इन्फौर्म कर दूंगी लेकिन तब तक आप लोग न मुझे फोन करेंगे और न ही यहां आएंगे. अब आप दोनों यहां से जा सकते हैं.” और गीतिका अपने रूम में चली गई. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: अविश्वास – अकेलेपन से जूझती रश्मि

Family Story In Hindi: अपने काम निबटाने के बाद मां अपने कमरे में जा लेटी थीं. उन का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. शिखा से फोन पर बात कर वे बेहद अशांत हो उठी थीं. उन के शांत जीवन में सहसा उथलपुथल मच गई थी. दोनों रश्मि और शिखा बेटियों के विवाह के बाद वे स्वयं को बड़ी हलकी और निश्ंिचत अनुभव कर रही थीं. बेटेबेटियां अपनेअपने घरों में सुखी जीवन बिता रहे हैं, यह सोच कर वे पतिपत्नी कितने सुखी व संतुष्ट थे.

शिखा की कही बातें रहरह कर उन के अंतर्मन में गूंज रही थीं. वे देर तक सूनीसूनी आंखों से छत की तरफ ताकती रहीं. घर में कौन था, जिस से कुछ कहसुन कर वे अपना मन हलका करतीं. लेदे कर घर में पति थे. वे तो शायद इस झटके को सहन न कर सकें.

दोनों बेटियों की विदाई पर उन्होंने अपने पति को मुश्किल से संभाला था. बारबार यही बोल उन के दिल को तसल्ली दी थी कि बेटी तो पराया धन है, कौन इसे रख पाया है. समय बहुत बड़ा मलहम है. बड़े से बड़ा घाव समय के साथ भर जाता है, वे भी संभल गए थे.

बड़ी बेटी रश्मि के लिए उन के दिल में बड़ा मोह था. रश्मि के जाने के बाद वे बेहद टूट गए थे. रश्मि को इस बात का एहसास था, सो हर 3-4 महीने बाद वह अपने पति के साथ पिता से मिलने आ जाती थी.

शादी के कई वर्षों बाद भी भी रश्मि मां नहीं बन सकी थी. बड़ेबड़े नामी डाक्टरों से इलाज कराया गया, पर कोईर् परिणाम नहीं निकला. हर बार नए डाक्टर के पास जाने पर रश्मि के दिल में आशा की लौ जागती, पर निराशारूपी आंधी उस की लौ को निर्ममता से बुझा जाती. किसी ने आईवीएफ तकनीक से संतान प्राप्ति का सुझाव दिया लेकिन आईवीएफ तकनीक में रश्मि को विश्वास न था.

अकेलापन जब असह्य हो उठा तो रश्मि ने तय किया कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखेगी.

‘सुनो, मैं एमए जौइन कर लूं?’

‘बैठेबैठे यह तुम्हें क्या सूझा?’

‘खाली जो बैठी रहती हूं, इस से समय भी कट जाएगा और कुछ ज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा.’

‘मुझे तो कोई एतराज नहीं, पर बाबूजी शायद ही राजी हों.’

‘ठीक है, बाबूजी से मैं स्वयं बात कर लूंगी.’

उस रात बाबूजी को खाना परोसते हुए रश्मि ने अपनी इच्छा जाहिर की तो एक पल को बाबूजी चुप हो गए. रश्मि समझी शायद बाबूजी को मेरी बात बुरी लगी है. अनुभवी बाबूजी समझ गए कि रश्मि ने अकेलेपन से ऊब कर ही यह इच्छा प्रकट की है. उन्होंने रश्मि को सहर्ष अनुमति दे दी.

कालेज जाने के बाद नए मित्रों और पढ़ाई के बीच 2 साल कैसे कट गए, यह स्वयं रश्मि भी न जान सकी. रश्मि ने अंगरेजी एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर ली. उस के ससुर ने उसे एक हीरे की सुंदर अंगूठी उपहार में दी.

शिखा की शादी तय हो गई थी. रश्मि के लिए शिखा छोटी बहन ही नहीं, मित्र व हमराज भी थी. शिखा ने व्हाट्सऐप पर लिखा कि, ‘सच में बड़ी खुशी की बात यह है कि तुम्हारे जीजाजी का तुम्हारे शहर में अपने व्यापार के संबंध में खूब आनाजाना रहेगा. मुझे तो बड़ी खुशी है कि इसी बहाने तुम्हारे पास हमारा आनाजाना लगा रहेगा.’

व्हाट्सऐप में मैसेज देख कर और उस में लिखा पढ़ कर रश्मि खिल उठी थी. कल्पना में ही उस ने अनदेखे जीजाजी के व्यक्तित्व के कितने ही खाके खींच डाले थे, पर दिल में कहीं यह एहसास भी था कि शिखा के चले जाने के बाद मां और बाबूजी कितने अकेले हो जाएंगे.

शिखा की शादी में रमेश से मिल कर रश्मि बहुत खुश हुई, कितना हंसमुख, सरल, नेक लड़का है. शिखा जरूर इस के साथ खुश रहेगी. रमेश भी रश्मि से मिल कर प्रभावित हुआ था. उस का व्यक्तित्व ही ऐसा था. शिखा की शादी के बाद एक माह रश्मि मांबाप के पास ही रही थी, ताकि शिखा की जुदाई का दुख उस की उपस्थिति से कुछ कम हो जाए.

शिखा अपने पति के साथ रश्मि के घर आतीजाती रही. हर बार रश्मि ने उन की जी खोल कर आवभगत की. उन के साथ बीते दिन यों गुजर जाते कि पता ही न लगता कि कब वे लोग आए और कब चले गए. उन के जाने के बाद रश्मि के लिए वे सुखद स्मृतियां ही समय काटने को काफी रहतीं.

शिखा शादी के बाद जल्द ही एकएक कर 2 बेटियों की मां बन गई थी. रश्मि ने शिखा के हर बच्चे के स्वागत की तैयारी बड़ी धूमधाम और लगन से की. अपने दिल के अरमान वह शिखा की बेटियों पर पूरे कर रही थी. मनोज भी रश्मि को खुश देख कर खुश था. उस की जिंदगी में आई कमी को किसी हद तक पूरी होते देख उसे सांत्वना मिली थी.

शिखा के तीसरे बच्चे की खबर सुन कर रश्मि अपने को रोक न सकी. शिखा की चिंता उस के शब्दों से साफ प्रकट हो रही थी. उस ने तय कर लिया कि वह शिखा के इस बच्चे को गोद ले लेगी. इस से उस के अपने जीवन का अकेलापन, खालीपन तथा घर का सन्नाटा दूर हो जाएगा. बच्चे की जरूरत उस घर से ज्यादा इस घर में है. रश्मि ने जब मनोज के सामने अपनी इच्छा जाहिर की तो मनोज ने सहर्ष अपनी अनुमति दे दी.

‘शिखा, घबरा मत, तेरे ऊपर यह बच्चा भार बन कर नहीं आ रहा है. इस बच्चे को तुम मुझे दे देना. मुझे अपने जीवन का अकेलापन असह्य हो उठा है. तुम अगर यह उपकार कर सको तो आजन्म तुम्हारी आभारी रहूंगी.’ रश्मि ने शिखा से फोन पर बात की.

शाम को जब रमेश घर आया तब शिखा ने मोबाइल पर हुई सारी बात उसे बताई.

‘रश्मि मुझे ही गोद क्यों नहीं ले लेती, उसे कमाऊ बेटा मिल जाएगा और मुझे हसीन मम्मी.’ रमेश ने मजाक किया.

‘क्या हर वक्त बच्चों जैसी बातें करते हो. कभी तो बात को गंभीरता से लिया करो.’

रमेश ने गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, ‘लो, हो गया गंभीर, अब शुरू करो अपनी बात.’

नाराज होते हुए शिखा कमरे से जाने लगी तो रमेश ने उस का आंचल खींच लिया, ‘बात पूरी किए बिना कैसे जा रही हो?’

‘रश्मि के दर्द व अकेलेपन को नारी हृदय ही समझ सकता है. हमारा बच्चा उस के पास रह कर भी हम से दूर नहीं रहेगा. हम तो वहां आतेजाते रहेंगे ही. ‘हां’ कह देती हूं.’

‘बच्चे पर मां का अधिकार पिता से अधिक होता है. तुम जैसा चाहो करो, मेरी तरफ से स्वतंत्र हो.’

शिखा ने रश्मि को अपनी रजामंदी दे दी. सुन कर रश्मि ने तैयारियां शुरू कर दीं. इस बार वह मौसी की नहीं, मां की भूमिका अदा कर रही थी. उस की खुशियों में मनोज पूरे दिल से साथ दे रहा था.

ऐसे में एक दिन उसे पता चला कि वह स्वयं मां बनने वाली है. रश्मि डाक्टर की बात का विश्वास ही न कर सकी.

उस ने अपने हाथों पर चिकोटी काटी.

मनोज ने खबर सुनते ही रश्मि को चूम लिया.

उसी रात रश्मि ने शिखा को फोन किया, ‘शिखा, तेरा यह बच्चा मेरे लिए दुनियाजहान की खुशियां ला रहा है. सुनेगी तो विश्वास नहीं आएगा. मैं मां बनने वाली हूं. कहीं तेरे बच्चे को गोद लेने के बाद मां बनती तो शायद तेरे बच्चे के साथ पूरा न्याय न कर पाती.’ रश्मि की आवाज में खुशी झलक रही थी.

‘आज मैं इतनी खुश हूं कि स्वयं मां बनने पर भी इतनी खुश न हुई थी. 14 साल बाद पहली बार तुम्हारे घर में खुशी नाचेगी,’ शिखा बहन की इस खुशी से दोगुनी खुश हो कर बोली.

मां और बाबूजी भी यह खुशखबरी सुन कर आ गए थे. रश्मि के ससुर की खुशी का ठिकाना ही न था.

रश्मि ने अपनी बेटी का नाम प्रीति रखा था. प्रीति घरभर की लाड़ली थी. शिखा व रमेश का आनाजाना लगा ही रहता. शिखा के तीसरा बच्चा बेटा था. रश्मि ने यही सोच कर कि घर में बेटा होना भी जरूरी है, शिखा से उस का बेटा नहीं मांगा.

रश्मि की खुशियां शायद जमाने को भायी नहीं. शिखा व रमेश रश्मि के पास आए हुए थे. उन की दूर की मौसी प्रीति को देखने आई थीं. रश्मि को बधाई देते हुए उन्होंने कहा, ‘रश्मि, तेरा रूप बिटिया न ले सकी. यह तो अपने मौसामौसी की बेटी लगती है.’

‘यह तो अपनेअपने समझने की बात है, मौसी, मैं प्रीति को अपनी बेटी से बढ़ कर प्यार करता हूं.’

मौसी का कथन और रमेश का समर्थन शिखा के दिल में तीर बन कर चुभ गए. जिन आंखों से प्रीति के लिए प्यार उमड़ता था, वही आंखें अब उस का कठोर परीक्षण कर रही थीं. प्रीति का हर अंग उसे रमेश के अंग से मेल खाता दिखाई देने लगा. प्रीति की नाक, उस की उंगलियां रमेश से कितनी मिलती हैं, तो क्या प्रीति रमेश की बेटी है? शिखा के दिल में संदेह का बीज पनपने लगा. मौसी का विषबाण अपना काम कर चुका था.

‘रश्मि बच्चे की चाह में इतना गिर सकती है और रमेश ने मेरे विश्वास का यही परिणाम दिया,’ शिखा सोचती रही, कुढ़ती रही.

घर  लौटते ही शिखा उबल पड़ी. सुनते ही रमेश सन्नाटे में आ गया. यह रश्मि की सगी बहन बोल रही है या कोई शत्रु?

‘तुम पढ़ीलिखी हो कर भी अनपढ़ों जैसा व्यवहार कर रही हो. तुम में विश्वास नाम की कोई चीज ही नहीं. इतना ही भरोसा है मुझ पर.’

‘अविश्वास की बात ही क्या रह जाती है? प्रीति का हर अंग गवाह है कि तुम्हीं उस के बाप हो. औरत सौत को कभी बरदाश्त नहीं कर पाती, चाहे वह उस की सगी बहन ही क्यों न हो.’

‘किसी के रूपरंग का किसी से मिलना क्या किसी को दोषी मानने के लिए काफी है? गर्भावस्था में मां की आंखों के सामने जिस की तसवीर होती है, बच्चा उसी के अनुरूप ढल जाता है.’

‘अपनी डाक्टरी अपने पास रखो, तुम्हारी कोई सफाई मेरे लिए पर्याप्त नहीं.’

‘डाक्टर राजेश को तो जानती हो न? उस की बेटी के बाल सुनहरे हैं, पर पतिपत्नी में से किस के बाल सुनहरे हैं? राजेश ने तो आज तक कोई तोहमत अपनी पत्नी पर नहीं लगाई.’

‘मैं औरत हूं, मेरे अंदर औरत का दिल है, पत्थर नहीं.’

बेचैनी में शिखा अपनी परेशानी मां को बता चुकी थी. उस की रातें जागते कटतीं, भूख खत्म हो गई थी. फोन करने के बाद मां कितनी बेचैन हो उठेंगी, यह उस ने सोचा ही न था.

मां अंदर ही अंदर परेशान हो उठीं. दोपहर को जब पति सोने चले गए तो उन्होंने शिखा को फोन किया, ‘‘तुम्हारी बात ने मुझे बहुत अशांत कर दिया है. रश्मि तुम्हारी बहन है, रमेश तुम्हारा पति, तुम उन के संबंध में ऐसा सोच भी कैसे सकती हो. रश्मि अगर 14 साल बाद मां बनी है तो इस का अर्थ यह तो नहीं कि तुम उस पर लांछन थोप दो. तुम्हारा अविश्वास तुम्हारे घर के साथसाथ रश्मि का घर भी ले डूबेगा. जिंदगी में सुख व खुशी हासिल करने के लिए विश्वास अत्यंत आवश्यक है. बसेबसाए घरों में आग मत लगाओ. रश्मि को इतने वर्षों बाद खुश देख कर कहीं तुम्हारी ईर्ष्या तो नहीं जाग उठी?’’

मां से बात करने के बाद शिखा के अशांत मन में हलचल सी उठी. सचाई सामने होते आंखें कैसे मूंदी जा सकती हैं. बातबात पर झल्ला जाना, पति पर व्यंग्य कसना शिखा का स्वभाव बन चुका था.

‘‘बचपना छोड़ दो, रश्मि सुनेगी तो कितनी दुखी होगी.’’

‘‘क्यों? तुम तो हो, उस के आंसू पोंछने के लिए.’’

‘‘चुप रहो, तमीज से बात करो, तुम तो हद से ज्यादा ही बढ़ती जा रही हो. जो सच नहीं है, उसे तुम सौ बार दोहरा कर भी सच नहीं बना सकतीं.’’

शिखा को हर घटना इसी एक बात से संबद्घ दिखाई पड़ रही थी. चाह कर भी वह अपने मन से किसी भी तरह इस बात को निकाल न सकी.

इधर रमेश को रहरह कर मौसीजी पर गुस्सा आ रहा था, जो उन के शांत जीवन में पत्थर फेंक कर हलचल मचा गई थीं. पढ़लिख कर इंसान का मस्तिष्क विकसित होता है, सोचनेसमझने और परखने की शक्ति आती है, पर शिखा तो पढ़लिख कर भी अनपढ़ रह गई थी.

एकदूसरे के लिए अजनबी बन पतिपत्नी अपनीअपनी जिंदगी जीने लगे. आखिर हुआ वही जो होना था. बात रश्मि तक भी पहुंच गई. सुन कर उसे गुस्सा कम और दुख अधिक हुआ. मनोज को भी इस बात का पता लगा, पर व्यक्ति व्यक्ति में भी कितना अंतर होता है. रश्मि के प्रति विश्वास की जो जड़ें सालों से जमी थीं, वे इस कुठाराघात से उखड़ न सकीं.

रश्मि ने मन मार कर शिखा को फोन कर कहा, ‘‘इसे तुम चाहो तो मेरी तरफ से अपनी सफाई में एक प्रयत्न भी समझ सकती हो. हमारा सालों का रिश्ता, खून का रिश्ता यों इतनी जल्दी तोड़ दोगी? शांत मन से सोचो, मैं तो तुम्हारा बच्चा गोद लेने वाली थी, फिर मुझे ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती? रमेश को मैं ने हमेशा छोटे भाई की तरह प्यार किया है, इस निश्चल प्यार को कलुषित मत बनाओ.

‘‘वैवाहिक जीवन की नींव विश्वासरूपी भूमि पर खड़ी है. अपनी बसीबसाई गृहस्थी में शंकारूपी कुल्हाड़ी से आघात क्यों करना चाहती हो? तनाव और कलह को क्यों निमंत्रण दे बैठी हो? रमेश को तुम इतने सालों में भी समझ नहीं सकी हो.’’

शिखा इन बातों से और जलभुन गई. रमेश उस की नजर में अभी भी अपराधी है. घर वह सोने और खाने को ही आता है. उस का घर से बस इतना ही नाता रह गया है. मां द्वारा पिता की उपेक्षा होते देख बच्चे भी उस से वैसा ही व्यवहार करते हैं.

शिखा ने स्वयं ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आज न वह स्वयं खुश है, न उस का पति रमेश. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: बदनाम गली – क्या थी उस गली की कहानी

Hindi Family Story: ‘‘हर माल 10 रुपए… हर माल की कीमत 10 रुपए… ले लो… ले लो… बिंदी, काजल, पाउडर, नेल पौलिश, लिपस्टिक…’ जोर से आवाज लगाते हुए राजू अपने ठेले को धकेल कर एक गली में घुमा दिया और आगे बढ़ने लगा. वह एक बदनाम गली थी. कई लड़कियां व औरतें खिड़की, दरवाजों और बालकनी में सजसंवर कर खड़ी थीं. कुछ लड़कियां खिलखिलाते हुए राजू के पास आईं और ठेले में रखे सामान को उलटपुलट कर देखने लगीं.

‘वह वाली बिंदी निकालो…

यह कौन से रंग की लिपस्टिक है…

बड़ी डब्बी वाला पाउडर नहीं है क्या…’

एकसाथ कई सवाल होने लगे. राजू जल्दीजल्दी उन सब की फरमाइशों के मुताबिक सामान दिखाने लगा.

जब राजू कोई सामान निकाल कर उन्हें देता तो वे सब उसे आंख मार देतीं और कहतीं, ‘पैसा भी चाहिए क्या?’ ‘‘बिना पैसे के कोई सामान नहीं मिलता,’’ राजू जवाब देता.

‘‘तू पैसा ही ले लेना. और कुछ चाहिए तो वह भी तुझे दे दूंगी,’’ तभी किसी लड़की ने ऐसा कहा तो बाकी सब लड़कियां भी खिलखिला कर हंस पड़ीं. राजू ने उन लड़कियों के ग्रुप के

पीछे थोड़ी दूरी पर एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की को देखा. घनी काली जुल्फें, दमकता हुआ गोरा रंग, पतली आकर्षक देह. राजू को लगा कि उस ने कहीं इस लड़की को देखा है.

राजू सामान बेचता रहा, पर लगातार उस लड़की के बारे में सोचता रहा. वह बारबार उसे अच्छी तरह देखने की कोशिश करता रहा, लेकिन सामान खरीदने वाली लड़कियों के सामने रहने की वजह से अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था. तभी राजू ने देखा कि एक बड़ीबड़ी मूंछों वाला अधेड़ आदमी आया और उस लड़की को ले कर मकान के अंदर चला गया. शायद वह आदमी ग्राहक था.

थोड़ी देर बाद राजू सामान बेच कर आगे बढ़ गया, लेकिन वह लड़की उस के ध्यान से हट ही नहीं रही थी. धीरेधीरे शाम होने को आई. जब वह घर के करीब एक दुकान के पास से गुजरा तो उस ने देखा कि दुकान पर रामू चाचा के बजाय उन की 10 साला बेटी काजल बैठी थी और ग्राहकों को सामान दे रही थी. यह देख उसे कुछ याद आया.

आधी रात हो गई थी. राजू अब फिर उस बदनाम गली में था. उस की आंखें उसी लड़की को ढूंढ़ रही थीं. वहां कई लड़कियां सजसंवर कर ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थीं. राजू को देख कर वे उस से नैनमटक्का करने लगीं. ‘‘क्या रे, तू फिर आ गया… रात को भी सामान बेचेगा क्या?’’ एक लड़की मुसकरा कर बोली.

‘‘नहीं, अब मैं ग्राहक बन कर आया हूं,’’ राजू ने कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. फिर बता, तुझे कौन सी वाली पसंद है?’’ एक लड़की ने पूछा.

राजू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे तो सब पसंद हैं, लेकिन…’’ ‘‘लेकिन क्या…? चल मेरे साथ.

मुझे सब रंगीली बुलाते हैं,’’ एक लड़की ने आगे आ कर राजू का हाथ पकड़ लिया.

‘‘आज रहने दे रंगीली. मुझे तो वह पसंद है…’’

राजू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दिन में जिस लड़की को देखा था, उस के बारे में पूछा. ‘‘बहुत पूछ रहा है उसे. नई है न…’’

रंगीली बोली, ‘‘एक आशिक उसे ले कर कमरे में गया है. वह उस का रोज का ग्राहक है. खूब पसंद करता है उसे. तुझे चाहिए तो थोड़ी देर ठहर. वह उसे निबटा कर आ जाएगी यहीं.’’

राजू बेचैनी से उस लड़की के बाहर आने का इंतजार करने लगा. तकरीबन आधा घंटे बाद एक ग्राहक कमरे से बाहर निकल कर एक तरफ चला गया.

कुछ देर बाद उस कमरे से एक लड़की बाहर आई और दरवाजे पर खड़ी हो गई. राजू ने उसे देखा तो पहचान गया. वह वही लड़की थी, जिस की तलाश में वह आया था.

‘‘जा मस्ती कर. तेरी महबूबा आ गई,’’ रंगीली ने कहा. राजू उस लड़की के पास जा कर बोला, ‘‘जब से तुम्हें देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं इसीलिए अभी आया हूं.’’

‘‘तो चलो,’’ वह लड़की राजू का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाने लगी. ‘पुलिस… पुलिस… भागो… भागो…’ तभी जोरदार शोर हुआ और चारों तरफ भगदड़ मच गई. सभी लड़कियां, ग्राहक और दलाल इधरउधर भाग कर छिपने की कोशिश करने लगे.

थोड़ी देर में ही पुलिस ने कोठेवाली, दलाल और कई ग्राहकों को गिरफ्तार कर लिया और थाने ले गई. कई लड़कियों को पुलिस ने आजाद करा कर नारी निकेतन भेज दिया. राजू को भी पुलिस ने उस लड़की के साथ गिरफ्तार कर लिया था, पर उस लड़की को नारी निकेतन नहीं भेजा गया. वह डर से थरथर कांप रही थी.

‘‘डरो नहीं खुशबू, अब तुम आजाद हो,’’ थाने पहुंच कर राजू ने उस लड़की से कहा. ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’’ उस लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘खुशबू, मेरी बेटी. कहां थी तू अब तक,’’ राजू के कुछ कहने से पहले वहां एक अधेड़ औरत आई और उस लड़की को अपने गले से लगा कर फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘मां, मुझे बचा लो. मैं उस नरक में अब नहीं जाऊंगी,’’ खुशबू भी उस औरत से लिपट कर रोने लगी और अपनी आपबीती सुनाने लगी कि कैसे 6 महीने पहले कुछ गुंडों ने उस की दुकान के आगे से रात 9 बजे उठा लिया था और कुछ दिन उस की इज्जत से खेलने के बाद चकलाघर में बेच दिया था.

‘‘अब आप के साथ कुछ गलत नहीं होगा. सारे बदमाशों को गिरफ्तार कर मैं ने जेल भेज दिया है…’’ तभी थानेदार ने कहा, ‘‘बस आप लोगों को कोर्ट आना होगा मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए.’’ ‘‘मैं कोर्ट जाऊंगी. उन सभी बदमाशों को सजा दिलवा कर रहूंगी जिन्होंने मेरी बेटी की जिंदगी खराब की है…’’ वह औरत आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘अब मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा?’’ खुशबू की मां ने कहा. ‘‘अब आप लोग घर जा सकते हैं. जाने से पहले इन कागजात पर दस्तखत कर दें,’’ थानेदार ने कहा तो खुशबू, उस की मां और राजू ने दस्तखत कर दिए.

‘‘पर, आप लोगों को मेरे बारे में कैसे पता चला?’’ थाने से बाहर निकल कर खुशबू ने पूछा. ‘‘यह सब राजू के चलते मुमकिन हुआ. इसी ने मुझे बताया कि तुम्हें एक कोठे पर देखा है…

‘‘फिर मैं राजू के साथ पुलिस स्टेशन गई. जहां तुझे छुड़ाने की योजना बनी,’’ खुशबू की मां बोली. ‘‘राजू मुझे कैसे जानता है?’’ खुशबू ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारी मां की परचून की दुकान पर मैं अकसर सौदा लेने जाता था वहीं तुम्हें देखा था. तब से ही मैं तुम्हें पहचानता था. जब तुम गायब हो गईं तो तुम्हारी मां दुकान पर हमेशा रोती रहती थीं. कहती थीं कि तुम्हारे बाबा जिंदा होते तो तुम्हें ढूंढ़ लाते. लेकिन वह अकेली कहां ढूंढ़ती फिरेंगी. ‘‘आज जब मैं अपना ठेला ले कर सामान बेचने गया तो कोठे पर तुम्हें देख कर तुम्हारी मां को सब बता दिया,’’ राजू बोल पड़ा.

‘‘आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ खुशबू ने रुंधे गले से शुक्रिया अदा करते हुए कहा. तभी राजू झिझकते हुए खुशबू की मां से बोला, ‘‘आप एक एहसान मुझ पर भी कर दीजिए.’’

‘‘कहो बेटा, मैं क्या कर सकती हूं तुम्हारे लिए?’’ खुशबू की मां ने पूछा. ‘‘मुझे खुशबू का हाथ दे दीजिए,’’ राजू अटकअटक कर बोला.

राजू की मांग सुन कर दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू आ गए. खुशबू ने आगे बढ़ कर राजू के पैर छू लिए. ‘‘तेरे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गई. पर यह तो बता कि तुझे जातपांत का वहम तो नहीं.’’

‘‘नहीं जी, हम गरीबों की क्या जाति. हमें तो दूसरों के लिए हड्डी तोड़नी ही है. फिर यह जाति का दंभ क्यों पालें. खुशबू जो भी हो, मुझे पसंद है,’’ राजू तमक कर बोला. नई सुबह के इंतजार में उन तीनों के कदम घर की ओर तेजी से बढ़ने लगे. Hindi Family Story

Story In Hindi: खुशामद का कलाकंद – क्या आप में है ये हुनर

Story In Hindi: जीवन जीना अपनेआप में एक कला है. जिसे यह कलाकारी नहीं आती वह बेचारा कुछ इस तरह से जीता है कि उसे देख कर कोई भी कह सकता है, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू.’ सफलतापूर्वक जीवन जीने वाले नंबर एक के कलाकार होते हैं. उन के सामने हर बड़े से बड़ा कलाकार पानी भरता नजर आता है. चमचागीरी या खुशामद करना शाश्वत कला है और जिस ने इस कला में स्वर्ण पदक प्राप्त कर लिया या फिर जिसे ‘पासिंग मार्क’ भी मिल गया, तो उस की जिंदगी आराम से गुजर जाती है.

खुशामद इस वक्त राष्ट्र की मुख्य धारा में है. इस धारा में बहने वाले के हिस्से की सुखसुविधाएं खुदबखुद दौड़ी चली आती हैं. हमारे मित्र छदामीजी कहां से कहां पहुंच गए. साइकिल पर चलते थे, आज कार में चलते हैं. यह खुशामद का ही चमत्कार है. खुशामद की कला के विशेषज्ञ हर कहीं पाए जाते हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक खुशामद करने वालों की भरमार है.

दरअसल, जीवन की हर सांस खुशामद की कर्जदार है. खुशामद और चमचागीरी में बड़ा बारीक सा अंतर है. चमचागीरी बदनामशुदा शब्द है, खुशामद अभी उतना बदनाम नहीं हुआ है, इसलिए लोग चमचागीरी तो करते हैं, लेकिन सफाई देते हैं कि भई थोड़ी सी खुशामद कर दी तो क्या बिगड़ गया. खुशामद कामधेनु गाय है, जिस की पूंछ पकड़ क र जाने कितने गधे घोड़े बन कर दौड़ रहे हैं. पद, पैसा या सुख आदि पाने की ललक में लोग खुशामद जैसे सात्विक हथियार का सहारा लेते हैं.

खुशामद एक तरह का अहिंसक हथियार है. सोचता हूं कि खुशामद की कला का इस्तेमाल कर के अगर कोई कुछ प्राप्त कर ले तो क्या बुराई है? यह तो जीवन जीने की कला है. इस के बिना आप जहां हैं, वहीं पड़े रह जाएंगे. जो लोग सड़ना नहीं चाहते हैं, वे कुछ करने के लिए खुशामद का सहारा ले कर आगे बढ़ते हैं.

इस के लिए पावरफुल लोगों का सम्मान करो, अकारण दाएंबाएं होते रहो, अभिनंदन करो और ऐश करो.  पिछले दिनों ऐसे ही एक सज्जन के बारे में पता चला. जब देखो वह आयोजनों में भिड़े रहते थे. मुझे लगा, बड़े महान प्राणी हैं. बड़े बिजी रहते हैं. देश और समाज की चिंता में निरंतर मोटे भी होते जा रहे हैं. यह देख कर मैं उन के नागरिक अभिनंदन के ‘मूड’ में आ गया. मैं उन से टाइम लेने जा रहा था कि रास्ते में एक महोदय मिल गए. पूछा, ‘‘कहां चल दिए?’’

मैं ने कहा, ‘‘फलानेजी का सम्मान करना चाहता हूं.’’ मेरी बात को सुन कर महोदय हंस पड़े तो मैं चौंका. मैं ने कहा, ‘‘हंसने की क्या बात है? फलानेजी समाजसेवी हैं. चौबीसों घंटे कुछ न कुछ करते रहते हैं. ऐसे लोगों का अभिनंदन तो होना ही चाहिए.’’ महोदय बोले, ‘‘चलिए, मैं सज्जन की पोल खोलता हूं, तब भी आप को लगे कि उन का अभिनंदन होना चाहिए तो ठीक है.’’ मेरे कान खड़े हो गए. महोदय बताने लगे कि इन्होंने पिछले साल मजदूरों का एक सम्मेलन करवाया था.

खूब चंदा एकत्र किया. एक मंत्री को बुलवा कर भाषण भी करवा दिया. सम्मेलन के बाद उन्हें 2 फायदे हुए, मंत्रीजी ने उन्हें एक समिति का सदस्य बनवा दिया और उन के घर पर दूसरी मंजिल भी तन गई. यह सज्जन हर दूसरे दिन किसी मंत्री का, किसी विधायक का या किसी अफसर का अभिनंदन करते रहते हैं. ऐसा करने से लोगों में धाक जमती चली जाती है.

पावरफुल आत्माओं से निकटता बढ़ती है तो सुविधाओं की गंगा अपनेआप बहने लगती है. देखते ही देखते कंगाल भी मालामाल हो जाता है. महोदय की बातें सुन कर मेरा माथा घूम गया और मैं ने अभिनंदन वाला आइडिया ड्राप कर दिया. अब यह और बात है कि सज्जन अपना अभिनंदन कराने के लिए मेरी खुशामद पर आमादा हैं तो भाई साहब, खुशामद के एक से एक रूप हैं, जुआ की तरह.

हम और आप कर रहे होते हैं और हमें पता नहीं चलता कि खुशामद कर रहे हैं, इसलिए कदम फूंकफूंक कर रखिए, वरना कब खुशामद की कीचड़ आप के मुंह पर लग जाए, कहना कठिन है. खुशामद की कला को अब तो सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई है. इसे क्या कहें जो खुशामद के जरिए घरपरिवार को खुश रखता है.

उस की आमद भी सब को खुश कर देती है, लेकिन जो खुशामद से दूर रहता है, उस की आमद घर वालों को नागवार गुजरने लगती है. हर कोई मुंह बनाते हुए बड़बड़ाता है, ‘आ गया आदर्शवादी, हुंह.’ तो साहबान, खुशामद ही जीवन का सार है. घरबाहर अगर इज्जत चाहिए तो खुशामदखोरों की बिरादारी में शामिल हो जाइए. खुशामद की कला में माहिर आदमी का बी.ए. पास होना भी जरूरी नहीं. आप खुशामद पास हैं तो कहीं भी टिक सकते हैं.

समाजवाद, पूंजीवाद, अध्यात्मवाद और बाजारवाद, न जाने कितने तो वाद हैं. सब का अपनाअपना महत्त्व है, लेकिन आजकल के जमाने में ‘खुशामदवाद’ तो वादों का वाद है. सारे वाद बारबार खुशामदवाद एक बार. एक बार जो खुशामद की सुरंग में घुसा, वह मालामाल हो कर ही लौटा. यह और बात है कि आत्मा पर थोड़ी कालिख पुत जाती है, लेकिन उस को क्या देखना? जिस ने की शरम, उस के फूटे करम. आत्मा के चक्कर में न जाने कितने महात्माओं ने आत्महत्याएं कर लीं, इसलिए आत्मा को घर के पिछवाड़े में कहीं दफन कर के खुशामदवाद का सहारा लो.

इस दिशा में जिस ने भी कदम बढ़ाए हैं, वह जीवन भर सुखी रहा है, इसीलिए तो धीरेधीरे खुशामद लोकप्रिय कला बनती जा रही है और जब कला बन रही है या बन चुकी है तो इस का पाठ्यक्रम भी तैयार कर दिया जाना चाहिए. किसी की प्रशस्ति में गीत, कविता लिखना, चालीसा लिखना, क्या है? मतलब यह कि साहित्य में खुशामद कला ने घुसपैठ कर ली है. आजकल विश्वविद्यालयों में नएनए पाठ्यक्रमों की पढ़ाई शुरू हो रही है.

फलाना मैनेजमेंट, ढिकाना मैनेजमेंट तो खुशामद मैनेजमेंट का नया कोर्स भी शुरू हो जाए. इस का बाकायदा ‘पाठ्यक्रम’ तैयार हो. सुव्यवस्थित तरीके से यह कोर्स लांच हो. इस के पढ़ाने वाले सैकड़ों इस शहर में मिल जाएंगे. ऐसे लोगों की तलाश की जाए जो ‘खुशामद वाचस्पति’ हों, ‘खुशामदश्री’ खुशामद कला में पीएच.डी. की उपाधि भी दी जा सकती है और यह मानद भी हो सकती है.

आप के शहर में ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं होगी. इधर तो खुशामद की प्रतिभा से लबालब लोगों की ऐसी नस्लें लहलहा रही हैं कि मत पूछिए. इसलिए समय के साथ दौड़ने वालों को इस सुझाव पर विचार करना चाहिए, क्योंकि यह सदी खुशामद को कला बनाने पर उतारू होने की सदी है, जो कोई खुशामद के विरोध में खड़ा हो, वह धकिया दिया जाएगा. वक्त के साथ चलो, खुशामद के साथ चलो.

छदामीजी हर दूसरे दिन अभिनंदन करते हैं. अभिनंदन प्रतिभाशाली लोगों का हो तो कोई बात नहीं, लेकिन अब ऐसे लोगों का अभिनंदन करता ही कौन है? अभिनंदन होता है मंत्री, नेता या अफसरों का या फिर ऐसे व्यक्ति का जिस के सहारे सुविधाओं के टुकड़े प्राप्त हो जाएं.

अभिनंदन करना भी खुशामद का ही एक तरीका है. कुछ लोग जीवन भर इसी को पवित्र काम मान कर दिनरात भिड़े रहते हैं. अभिनंदन करना और अभिनंदन कराना ऐसा शौक है कि मत पूछिए. जिसे इस का चस्का लगा, वह गया काम से. अभिनंदन के बगैर वह ठीक उसी तरह तड़पता है, जिस तरह मछली पानी के बगैर. खुशामद करना और खुशामदपसंद होना सब के बस की बात भी तो नहीं है.

खुशामदपसंद आदमी की चमड़ी मोटी होनी चाहिए और जेब भी हर वक्त ‘भरी’ रहे. जब तक जेब भरी रहेगी, अभिनंदन या सम्मान की झड़ी रहेगी. खुशामद करने वाला कंगाल हो तो चलेगा, लेकिन खुशामदपसंद का मालामाल होना जरूरी है. ऐसी जब 2 आत्माएं मिलती हैं, तब यही गीत बजना चाहिए, ‘दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात.’ सोचिए, खुशामद कितनी बड़ी चीज है कि इस नाचीज को इस पर कागज काले करने पड़ रहे हैं, लेकिन हालत यह है कि मर्ज बढ़ता गया ज्योंज्यों दवा की. खुशामद को ले कर आप लाख नाराजगी जाहिर करें, यह खत्म होने से रही.

यह तो द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती जा रही है, और क्यों न बढ़े साहब? जब हर दूसरातीसरा शख्स इस कला में हाथ आजमा रहा है, तब आप क्या कर लेंगे? आप को इस कला से प्रेम नहीं है तो न सही, और दूसरे लोग तो हैं, जिन की गाड़ी खुशामद के भरोसे ही चलती है. सत्ता के गलियारों में जा कर देखिए, खुशामद करने वाले कीड़ेमकोड़े की तरह बिलबिलाते हुए मिल जाएंगे.

वक्त की मार केवल मूर्तियों या स्मारकों पर ही नहीं पड़ती, शब्दों पर भी पड़ती है. ‘खुशआमद’ ऐसा बदनाम हो गया है कि शब्द का प्रयोग करते हुए डर लगता है. किसी को ‘नेताजी’ कह दो, ‘गुरु’ कह दो तो लगता है, व्यंग्य किया जा रहा है. खुशामद शब्द का यही हाल है लेकिन हाल है तो है. अब तो इसे लोग कला बनाने पर तुले हुए हैं.

वक्तवक्त की बात है, इसलिए साहेबान, मेहरबान, कद्रदान, वक्त की धड़कन को सुनो और इस नई कला को गुनो. सफल होना है तो खुशामद ही अंतिम चारा है. बिना खुशामद के हर कोई बेचारा है. यह और बात है कि जो इस जीवन को संघर्षों के बीच ही जीने के आदी हैं, जिन को मुसीबत झेलने में ही मजा आता है, जो सूखी रोटी खा कर, ठंडा पानी पी कर भी खुश रहते हैं, उन के लिए खुशामद कला विषकन्या के समान त्याज्य है, लेकिन जिन को ऐसेवैसे कैसे भी चाहिए सुविधा सम्मान और पैसे, वे खुशामद के बिना एक कदम नहीं चल सकते.

ऐसे लोग ही प्रचारित कर रहे हैं कि खुशामद एक कला है. इस की मार्केटिंग कर रहे हैं, नएनए आकर्षक रैपरों में. हर सीधासादा आदमी खुशामद के चक्कर में फंस जाता है, लेकिन खुशामद एक ऐसा भंवर है, जिस में कोई एक बार फंसा तो निकलना मुश्किल हो जाता है.  इस कला में बला का स्वाद है. जिस ने एक बार भी इस का स्वाद चख लिया, वह दीवाना हो गया.

नैतिकता से बेगाना हो गया. पता नहीं, आप ने खुशामद की कला का आनंद लिया है या नहीं, न लिया हो तो कोई बात नहीं, अगर इच्छा हो तो अपने ही शहर के किसी नेतानुमा प्राणी से मिल लीजिएगा या फिर ऐसे शख्स से, जिसे लोग ‘मिठलबरा’ (ऐसा व्यक्ति जो बड़ी ही मधुरता के साथ झूठा व्यवहार करता है) के नाम से जानते हों. ये लोग आप को बताएंगे कि खुशामद रूपी कलाकंद खाने का आनंद कैसे मनाएं?

बहरहाल, खुशामद को अगर कला का दर्जा मिल जाए तो कोई बुराई नहीं. कुछ लोग तो जेब काटने तक को कला मानते हैं. कला हमेशा भला काम ही कराए जरूरी नहीं. क्या कहा, आप खुशामद को कला नहीं, बला मानते हैं? तो भई, आप जैसे लोगों के कारण ही गलतसलत परंपराएं अपना स्थान नहीं बना पातीं.

आज कदमकदम पर खुशामदखोर मिल जाएंगे, चलतेपुर्जे, अपना काम निकालने में माहिर. आप अगर अब तक हम लोगों से कुछ नहीं सीख पाए हैं तो ठीक है, पड़े रहिए अपनी जगह. सारे लोग आप से आगे निकल जाएंगे तो फिर मत कहिएगा कि हम पीछे रह गए. आगे बढ़ना है तो शर्म छोडि़ए और खुशामदखोरी में भिड़ जाइए. शरमाइए मत, उलटे कहिए, ‘खुश-आमद-दीन’. Story In Hindi

Hindi Story: झूठी शान – शौर्टकट काम की वारंटी वाकई काफी शौर्ट होती है!

Hindi Story: सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी. Hindi Story

Family Story In Hindi: घर का सादा खाना – प्रिया की उलझन

Family Story In Hindi: अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रो कर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे.

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो

गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी.

उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना. Family Story In Hindi

Story In Hindi: अफसोस – बाबा के चंगुल में शादीशुदा सायरा

Story In Hindi: सायरा की शादी अब्दुल से  5 साल पहले हुई थी. अब्दुल की उम्र उस समय 30 साल थी और सायरा की उम्र सिर्फ 20 साल. अब्दुल देखने में सीधासादा, सांवले रंग का था, पर एक अच्छीखासी जायदाद का मालिक भी था. यही वजह थी कि सायरा और उस की मां ने अब्दुल को पसंद किया था.

शादी से पहले ही सायरा ने अब्दुल को अच्छी तरह देखभाल लिया था, जबकि सायरा के बाप और भाई इस शादी के खिलाफ थे. लेकिन सायरा और उस की मां की जिद के आगे उन की एक न चली और जल्द ही वे दोनों शादी के रिश्ते में बंध गए.सायरा जैसी बीवी पा कर अब्दुल की खुशी का ठिकाना न रहा. हो भी क्यों न… सायरा थी ही बला की खूबसूरत. उस के सुर्ख गुलाबी होंठ ऐसे लगते थे मानो गुलाब की पंखुड़ी खिलने के लिए बेताब हो.

जब सायरा हंसती थी तो उस सफेद दांत ऐसे लगते थे मानो मुंह से मोती बिखर रहे हों. लंबे, काले और घने बालों ने तो उस की खूबसूरती में चार चांद लगा दिए थे. उस की पतली कमर और गदराए बदन का तो कहना ही क्या था.शादी को अभी 4 साल ही गुजरे थे कि उन के घर में 3 बच्चों की किलकारियां गूंज चुकी थीं. सायरा की मां भी अपनी बेटी के साथ मुंबई में रहने के लिए आ गई थी.अब्दुल की दुकान भी बढि़या चल रही थी. घर में किसी बात की कोई कमी न थी.

अभी भी अब्दुल सायरा के साथ किराए के घर में रह रहा था, क्योंकि मुंबई में घर खरीदना इतना आसान न था. पर अब्दुल की कमाई इतनी थी कि बच्चों की अच्छी परवरिश और अच्छा खानपान आसानी से हो रहा था.पर एक बात बड़ी अजीब थी.

अब्दुल को देख कर कभी सायरा की दोस्त तो कभी सायरा के रिश्तेदार उसे यह तंज कसते रहते थे कि ‘तुम ने अब्दुल में क्या देख कर शादी की… कहां वह सांवला और बदसूरत, इतनी बड़ी उम्र का और कहां तुम बिलकुल हीरोइन सी खूबसूरत’.शुरूशुरू में तो सायरा उन सब की बातों को नजरअंदाज करती रही, लेकिन बारबार सब से यही बातें सुनसुन कर उस के भी दिल में भी अब्दुल के लिए नफरत जागने लगी. अब वह अब्दुल से कटीकटी सी रहने लगी.

एक दिन सायरा की मां ने उसे मशवरा दिया कि अब्दुल अपने गांव की सारी जमीन बेच दे और यहां मुंबई में अपना बड़ा फ्लैट खरीद ले. सायरा ने जैसे ही यह बात अब्दुल के सामने रखी, वह तुरंत तैयार हो गया और गांव जा कर अपने अब्बा और भाइयों से अपने हिस्से को बेचने की बात कही.

अब्दुल के अब्बा और भाइयों ने उसे काफी समझाया, पर उस ने किसी की न सुनी और अपनी बात पर अटल रहा. जल्द ही उस के अब्बा को उस के आगे झुकना पड़ा और अपना बाग, खेत और उस के हिस्से की दुकान बेचनी पड़ी. इस जल्दबाजी के सौदे में अब्दुल के भाई को काफी नुकसान उठाना पड़ा.

अब्दुल ने वापस आ कर मुंबई में  2 कमरों का फ्लैट खरीद लिया. कुछ महीनों तक तो सबकुछ सही चला, पर अब सायरा के दोस्तों की तादाद बढ़ चुकी थी. सायरा की मां भी ब्यूटीपार्लर जा कर स्मार्ट बन कर रहने लगी. अब आएदिन घर पर कोई न कोई इन दोनों की दोस्त आती रहती थीं और अब्दुल को देख कर उस पर तंज कसती रहती थीं.

अब तो खुद सायरा और उस की मां भी अब्दुल का मजाक उड़ाने में पीछे नहीं रहती थीं. अब्दुल इतना ज्यादा बेवकूफ था कि उस ने सायरा को तो पूरी आजादी दे रखी थी और खुद दिनरात काम में इतना बिजी रहता था कि उसे अपने हुलिए को सुधारने का भी खयाल नहीं आता था.

यही वजह थी कि सायरा धीरेधीरे उस से दूर होती जा रही थी. वह चाहती थी कि अब्दुल उस के नाम घर कर दे, पर अब्दुल तैयार न हुआ. सायरा ने अब्दुल से बातचीत बंद कर दी.सायरा की मां और उस की दोस्तों ने सायरा को एक बाबा का पता बताया और कहा कि बाबा ऐसा तावीज देंगे कि अब्दुल तुम्हारी उंगलियों पर नाचेगा.

अगले दिन सायरा और उस की मां बाबा के पास पहुंच गईं और सारी बात बताई. बाबा उन की बातों को सुन कर समझ चुका था कि ये लालची लोग हैं, इन्हें लूटा जाए. बाबा ने कहा, ‘‘काम तो हो जाएगा, लेकिन इस में एक महीना लगेगा और तकरीबन 5 लाख रुपए का खर्च आएगा. धीरेधीरे अब्दुल के दिमाग को काबू में करना पड़ेगा, जिस से वह तुम्हारी हर बात मान ले. इस में 7 बकरों की कुरबानी देनी पड़ेगी.

‘‘कुछ तावीज अब्दुल के तकिए के नीचे सावधानी से रखने होंगे. उसे पता न चले. कुछ तावीज तुम्हें पहनने होंगे, जो जाफरान से बनाए जाएंगे. पहले 2 लाख रुपए एडवांस और 3 लाख रुपए एक हफ्ते बाद देने पड़ेंगे.’’सायरा और उस की मां तैयार हो गईं.

अगले दिन सायरा ने उस ढोंगी बाबा को पैसे दिए और बाबा ने उसे 3 तावीज अब्दुल के तकिए के भीतर रखने के लिए दे दिए और 7 तावीज सायरा को देते हुए बोला, ‘‘ये तावीज पानी में डाल कर एकएक कर के 7 दिन तक पी लेना और हां, जब तक काम पूरा न हो जाए, तुम अपने शौहर के पास बिलकुल मत सोना.’’अब सायरा और उस की मां को पूरा भरोसा हो गया था कि अब्दुल उन का कहना मानेगा और वह घर हमारे नाम कर देगा.सायरा ने अब्दुल से बात करना बंद कर दिया. अब्दुल जब भी सायरा से बात करने की कोशिश करता, तो वह एक ही जवाब देती कि ‘पहले यह घर मेरे नाम करो. जब तक तुम मेरी बात नहीं मानोगे, मेरे साथ बात मत करना और न ही मेरे पास आना’.

अब्दुल ने सायरा को समझाने की पूरी कोशिश की, ‘‘हमारे इस झगड़े में बच्चों पर गलत असर पड़ रहा है. मेहरबानी कर के यह झगड़ा बंद कर दो.’’पर सायरा उस की एक भी बात सुनने को तैयार न थी. इस झगड़े से अब्दुल का कारोबार भी दिन ब दिन बिखरता जा रहा था.अब्दुल ने सोचा, ‘क्यों न सायरा के नाम वसीयत कर दूं… वह भी खुश हो जाएगी…’ और उस ने अगले दिन सायरा से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे नाम वसीयत कर देता हूं. इस के बाद तो तुम खुश हो जाओगी न?’’

यह सुन कर सायरा बोली, ‘‘ठीक है, मैं कल वकील को बुला लेती हूं. तुम मेरे नाम वसीयत कर दो.’’अब्दुल यह सुन कर खुश हो गया कि अब झगड़ा खत्म हो जाएगा और उस ने मुहब्बत भरी नजरों से सायरा को देखा और अपनी बांहों में भर लिया.सायरा एक ही झटके में अब्दुल से अलग होते हुए बोली, ‘‘पहले वसीयत तो करो, उस के बाद मेरे पास आना.’’अब्दुल खुश था कि एक ही दिन की तो बात है. कल वह सायरा के नाम वसीयत कर देगा, तो फिर उस से ढेर सारा प्यार करेगा.

पर अब्दुल इस बात से अनजान था कि कल क्या ड्रामा होने वाला है. सायरा ने जब अपनी मां से इस बात का जिक्र किया, तो वह झट से बोली, ‘‘बाबाजी के तावीज का असर हो रहा है. इस बारे में पहले बाबाजी से बात करते हैं, उस के बाद कोई फैसला लेना. जब वह वसीयत के लिए तैयार हो गया है तो जल्द ही तुम्हारे नाम घर करने के लिए भी तैयार हो जाएगा, बस तुम थोड़ा सब्र करो.’’

उन्होंने जब बाबा से इस बारे में बात की, तो उन्होंने यही बोला, ‘‘एक हफ्ते में इतना असर हो गया है, तुम बाकी रकम ले कर मेरे पास आ जाओ. मैं तुम्हें कल और तावीज देता हूं. 7 बकरों की कुरबानी भी देनी है, फिर देखना कि तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा.’’अगले दिन सायरा ने अपनी बांहें अब्दुल के गले में डालते हुए कहा, ‘‘वकील कल आएगा जानू. तुम अभी काम पर जाओ.

रात में बात करते हैं.’’अब्दुल के जाते ही दोनों मांबेटी ने अब्दुल के रखे हुए पैसों में से बाकी के पैसे भी उठा लिए और उस ढोंगी बाबा के पास पहुंच गईं. बाबा ने उन से पैसे लिए और तावीज देते हुए कहा, ‘‘अभी 7 दिन का और  इंतजार करो. उसे अपने पास बिलकुल मत आने देना. इस बीच अगर वह तुम्हारा कहना मान ले, तो जल्दी उस काम को अंजाम दे देना, उस के बाद ही अपनेआप को छूने देना.’’

शाम को जब अब्दुल घर आया, तो मौका देख कर उस ने सायरा को अपनी बांहों में जकड़ लिया. सायरा झल्लाते हुए फौरन अलग हो गई. उस की आवाज सुन कर मां भी वहां आ गईं और अब्दुल को बुराभला कहते हुए बोलीं, ‘‘क्यों मेरी लड़की को परेशान करता रहता है? जब इस ने मना कर दिया है, तो क्यों इस के कमरे में आता है?’’

अब्दुल यह सब देख कर हैरान था, पर वह कुछ न बोल सका और चुपचाप अपने कमरे में चला गया.अगले दिन वकील आया, तो सायरा ने अब्दुल को फोन कर के घर बुला लिया. अब्दुल ने वकील से कहा, ‘‘मुझे अपनी बीवी सायरा के नाम वसीयत बनानी है कि मेरे मरने के बाद यह घर मेरी बीवी को मिले.’’इस पर सायरा और उस की मां बिफर गईं. सायरा बोली, ‘‘कोई वसीयत नहीं… क्या पता कि तुम बाद में बदल जाओ. घर मेरे नाम पर करो.’’अब्दुल इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ.

अब्दुल ने सायरा को काफी समझाया. उस के हाथ जोड़े, पैर पकड़े. अपने मासूम बच्चों का वास्ता दिया, लेकिन सायरा अपनी जिद पर कायम रही और उस ने अब्दुल की एक न सुनी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि बाबाजी उस का दिमाग जरूर बदलेंगे और यह घर उस का हो जाएगा.इसी बीच सायरा की मुलाकात अपने पहले आशिक से हो गई, जो शादी से पहले उस से प्यार करता था.

सायरा अपनी मां की मौजूदगी में ही उस से मिलने जाने लगी, क्योंकि वह आशिक उस की मां की दूर की बहन का बेटा था. उस की मां भी उसे पसंद करती थी, मगर गरीब होने की वजह से इन दोनों की शादी न हो पाई थी. अब्दुल इस बात से अनजान था. वह इसी उम्मीद में था कि एक न एक दिन सायरा को अपनी गलती का अहसास होगा.लेकिन अब्दुल का ऐसा सोचना गलत था. सायरा अपने उस आशिक के साथ खुश थी, जो उस का ही हमउम्र और खूबसूरत था.

अब तो सायरा अब्दुल की सूरत भी देखना पसंद नहीं करती थी. वह तो इस ताक में थी कि किसी तरह यह घर मिल जाए, फिर इसे बेच कर जिंदगी की नई शुरुआत करे.अब्दुल काफी हताश हो चुका था. आखिर वह दिन भी आ गया, जब अब्दुल ने अपना घर सायरा के नाम कर दिया.

घर नाम होते ही सायरा और उस की मां की खुशी का ठिकाना न रहा. अब तो सायरा का आशिक खुलेआम उस के घर पर आने लगा. अब्दुल कुछ बोलता तो मांबेटी उसे धमका देती थीं.अब्दुल अपना दिमागी संतुलन खो रहा था. वह तो सायरा की याद में गुम रहता, लेकिन सायरा उसे कोई भाव न देती. आखिर सायरा और उस की मां ने अब एक नया दांव चला.

उन्हें किसी भी कीमत पर अब्दुल से छुटकारा चाहिए था. जब आसपड़ोस के लोग सायरा को समझाते तो वह उन से बोलती कि अब्दुल नामर्द है. अब्दुल इन सब बातों से अनजान पागलों की तरह जिंदगी गुजार रहा था. उस की इस हालत के बारे में जब अब्दुल के भाइयों को पता चला, तो वे उसे लेने मुंबई आ गए. उन्होंने सायरा से बात की, तो वह तपाक से बोली, ‘‘मैं एक नामर्द के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. मुझे इस से तलाक चाहिए.’’

अब्दुल ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया. कुछ ही दिनों में अब्दुल और सायरा का तलाक हो गया. अब्दुल के भाई उसे और उस के बच्चों को गांव ले गए. धीरेधीरे अब्दुल की तबीयत में सुधार आने लगा. अब उसे अपने बच्चों की फिक्र थी. वह उन के लिए कुछ करना चाहता था. एक दिन अब्दुल के पार्टनर का फोन आया और उस ने उस से वापस मुंबई आने को कहा. अब्दुल वापस मुंबई आ गया. उस के पार्टनर ने उस की दुकान और बचत उसे दी और काम संभालने को कहा.

इधर सायरा वह घर बेच कर कहीं और चली गई थी. उस का कुछ पता न था. वैसे, उड़तीउड़ती खबर अब्दुल को भी मिलती रहती थी. अब्दुल के दोस्तों ने मिल कर उस की दूसरी शादी एक बेवा औरत से करवा दी, जिस के 2 मासूम बच्चे थे और कुछ ही दिनों में अब्दुल अपने बच्चों को भी ले आया.अब्दुल ने कड़ी मेहनत की और एक छोटी सी खोली खरीद ली.

वह अपने बीवीबच्चों के साथ बेहतर जिंदगी गुजरने लगा और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा.उधर सायरा के आशिक ने सब पैसे घूमनेफिरने में उड़ा दिए और जब सब पैसे खत्म हो गए तो वह सायरा और उस की मां को छोड़ कर चला गया, क्योंकि उस ने सायरा से शादी नहीं की थी. वह तो केवल दौलत के लालच में उस के साथ रह रहा था.

सायरा और उस की मां को अब खाने के भी लाले पड़ने लगे और मजबूर हो कर दोनों मांबेटी को दूसरों के घरों में साफसफाई का काम करना पड़ रहा था.फिर एक दिन अचानक एक ऐसी घटना घटी, जिस ने सायरा को अपाहिज बना दिया. उसे लकवा मार गया था.

सायरा अब बिस्तर पर पड़ी सोचती रहती है कि अगर वह उस ढोंगी बाबा और अपनी मां के चक्कर में न पड़ती तो यह हालत न होती.सायरा की मां ने एक दिन अब्दुल को फोन किया और सारी बातें बताईं. अब्दुल उन के बताए हुए पते पर सायरा से मिलने गया. वहां का नजारा देख कर अब्दुल का दिल रो पड़ा. सायरा सूख कर कांटा हो चुकी थी. वह एक जिंदा लाश बन कर पलंग पर पड़ी थी. उस की एक गलती ने हंसताखेलता परिवार बरबाद कर दिया था. Story In Hindi

Hindi Romantic Story: इंतजार तो किया होता – आरिफ की मासूम बेवफाई

Hindi Romantic Story: कालेज का पहला दिन था, इसलिए शब्बी कुछ जल्दी ही आ गई थी. वह बहुत ही सुंदर और शर्मीली लड़की थी. उसे कम बोलना पसंद था.

धीरेधीरे कालेज में शब्बी की जानपहचान बढ़ती गई. लड़के तो उस की तारीफ करते न थकते, पर शब्बी किसी भी लड़के की तरफ अपनी नजर नहीं उठाती थी.

एक दिन आसमान पर बादल घिर आए थे. बिजली चमक रही थी. शब्बी तेज कदम बढ़ाते हुए अपने घर की तरफ जा रही थी. अचानक बूंदाबांदी शुरू हो गई, तो वह एक घर के बरामदे में जा कर खड़ी हो गई.

अचानक शब्बी की नजर एक खूबसूरत लड़के आरिफ पर पड़ी. वह उसे देख कर घबरा गई. तभी आरिफ ने मुसकान फेंकते हुए कहा, ‘‘शब्बीजी, आप अंदर आइए न… बाहर क्यों खड़ी हैं?’’

शब्बी यह बात सुन कर शरमा गई और बारिश में ही अपने घर की तरफ चलने लगी. आरिफ ने बांह पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया, ‘‘बुरा मान गई. मैं कोई पराया थोड़े ही हूं…’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ शब्बी ने झेंपते हुए कहा. बारिश धीरेधीरे कम होती जा रही थी. जल्दी ही शब्बी अपने घर की तरफ चल पड़ी.

शब्बी सारी रात करवटें बदलती रही. उस की आंखें आरिफ को खोज रही थीं. उस का बड़े ही प्यार से ‘शब्बीजी’ कहना उसे बहुत पसंद आया था. आरिफ भी उसी कालेज में पढ़ता था. धीरेधीरे दोनों की जानपहचान बढ़ी और फिर मुलाकातें होने लगीं.

एक दिन आरिफ ने कहा, ‘‘शब्बी, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं, अब एक पल की भी जुदाई मुझ से सहन नहीं होती… मैं तुम्हारे घर वालों से तुम्हें मांग लूंगा और दुलहन बना कर अपने घर ले आऊंगा.’’

उस दिन शब्बी ज्यों ही घर पहुंची, उस की नजर कुछ अनजानी औरतों पर पड़ी. पर वह नजरअंदाज करते हुए अपने कमरे की तरफ चली गई.

तभी उस की मां मिठाई का एक डब्बा लिए उस के कमरे में आईं, तो शब्बी झट पूछ बैठी, ‘‘मां, आज मिठाई किस खुशी में लाई हो?’’

सायरा बेगम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘बेटी, बहुत बड़ी खुशखबरी है. पहले मिठाई खाओ, फिर मैं बताऊंगी.’’

‘‘अच्छा, अब बताइए,’’ शब्बी ने मिठाई खाते हुए पूछा.

‘‘बेटी, खुशी की बात यह है कि तुम्हारा रिश्ता पक्का हो गया है.’’

मां की यह बात सुन कर शब्बी का दिल जोर से धड़कने लगा. उस की नजरों में आरिफ का मासमू चेहरा घूमने लगा. वह बेकरार हो उठी और आरिफ के घर की ओर चल पड़ी.

आरिफ उस वक्त कोई गीत गुनगुना रहा था. शब्बी को इस कदर परेशान और दुखी देख कर वह चौंक उठा, ‘‘क्या हुआ शब्बी? तुम इस तरह परेशान क्यों हो?

‘‘आरिफ…’’ शब्बी कांपते हुए बोली, ‘‘मां ने मेरी शादी पक्की कर दी है. मैं अब तुम्हारे बिन एक पल भी…’’

‘‘छोड़ो भी यह फिल्मी अंदाज…’’ आरिफ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘ठीक है, शादी कर लो… आखिर कब तक कुंआरी बैठी रहोगी. तुम अपनी मां की बात नहीं मानोगी क्या?’’

आरिफ की यह बात सुन कर शब्बी की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह कांपती आवाज में बोली, ‘‘आरिफ, मैं नहीं जानती थी कि तुम इस कदर बेवफा हो,’’ इतना कह कर शब्बी ने खिड़की के रास्ते नीचे छलांग लगा दी.

यह देख कर आरिफ चीख पड़ा. वह दौड़ता हुआ लहूलुहान शब्बी के पास पहुंचा. ‘‘शब्बी, यह तू ने क्या कर लिया… देखो शब्बी, मैं हूं… हां, मैं… तुम्हारा आरिफ… तुम्हारा हमराज… आंखें खोलो… कुछ पल तो इंतजार किया होता.

‘‘वह तो मैं ने ही अपनी मां को तुम्हारे घर भेजा था तुम्हें अपनी दुलहन बनाने के लिए. उठो शब्बी, मेरी दुलहन.’’

आरिफ दीवानों की तरह चिल्लाए जा रहा था, लेकिन शब्बी तो अब इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी. Hindi Romantic Story

Best Hindi Story: तपस्या – शादी को लेकर शैली का प्रयास

Best Hindi Story: शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डे – गुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था. दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था. Best Hindi Story

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