‘‘अरे, तुम्हारी तबीयत अचानक कैसे खराब हो गई?’’ इंद्रजीत जैसे सुरेखा की हालत देख कर एकदम से घबरा गया, ‘‘बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर हम यहां बुद्ध पार्क में आए थे और तुम्हें एकदम से क्या हो गया? रुको, मैं तुम्हें घर छोड़ आता हूं.’’

‘‘पता नहीं, बहुत दर्द कर रहा है...’’ सुरेखा बेचैन होते हुए बोली, ‘‘नहीं, मैं आटोरिकशा से चली जाऊंगी. वहां तुम्हें मेरे साथ देख कर मेरे घर वाले पता नहीं क्या सोचें. मैं तुम्हारी बेइज्जती नहीं करा सकती.’’

‘‘समय हमेशा एक सा नहीं रहता. समाज की सोच एक दिन में नहीं बदल सकती. तुम्हारे घर वाले भी कैसे इस बात को मान लें कि एक दलित लड़के के साथ कोई ऊंची जाति की लड़की प्यार करे. बेइज्जती सहने की तो मुझे आदत सी है. तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी सहन कर लूंगा. मगर मुझे लगता है कि तुम्हारी जो हालत है, ऐसे में हमें सीधे डाक्टर के पास जाना चाहिए.’’

इंद्रजीत अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर सुरेखा को शहर की भीड़भाड़ से बचतेबचाते एक प्राइवेट क्लिनिक में ले आया.

डाक्टर ने सुरेखा को देखा और कुछ दर्दनिवारक दवा दे दीं, तो वह कुछ ठीक हुई. आधा घंटे बाद इंद्रजीत उसे घर छोड़ आया.

अगले दिन सुरेखा की तकलीफ और ज्यादा बढ़ गई. घर वाले तत्काल उसे अस्पताल ले गए. वहां उसे दाखिल कराना पड़ गया.

इंद्रजीत को जब पता चला, तो वह भी उसे देखने चला आया. सुरेखा के भाई ने उसे देखा, तो बुरा सा मुंह बना लिया.

‘‘सुरेखाजी को क्या हुआ है?’’ अपनी अनदेखी की परवाह न करते हुए इंद्रजीत ने भाई से पूछा, ‘‘कल तक तो तो वह ठीक ही थी.’’

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