डबल क्रौस : हैरान कर देगी ये कहानी

रोज की तरह सिटी पार्क में मौर्निंग वाक करते हुए इंद्र ने सोमेन को देखा तो उन्हें आवाज दी. इंद्र की आवाज सुन कर वह रुक गए. सोमेन कोलकाता के ही रहने वाले थे, जबकि इंद्र बिहार के. केंद्र सरकार की नौकरी होने की वजह से वह प्रमोशन और ट्रांसफर ले कर करीब 20 साल पहले कोलकाता आ गए थे और वहीं सैटल हो गए थे.

इंद्र और सोमेन एक ही औफिस में काम करते थे. सोमेन से इंद्र की जानपहचान हुई तो दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया. फिर तो दोनों परिवारों में काफी घनिष्ठता हो गई थी. दोनों इसी साल रिटायर हुए थे. सोमेन की एक ही बेटी थी, जो शादी के बाद पति के साथ अमेरिका चली गई थी.

इंद्र का भी एक ही बेटा था, जो आस्ट्रेलिया में नौकरी कर रहा था. बच्चों के बाहर होने की वजह से दोनों अपनीअपनी पत्नी के साथ रह रहे थे. इंद्र की आवाज सुन कर सोमेन रुके तो नजदीक पहुंच कर उन्होंने पूछा, ‘‘तुम तो 2 सप्ताह के लिए मसूरी गए थे. अभी तो 4-5 दिन हुए हैं. वहां मन नहीं लगा क्या, जो लौट आए?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. हम लोग वहां पहुंचे ही थे कि अमेरिका से बेटी का फोन आ गया. तुम्हें तो पता ही है कि वह मां बनने वाली है. उस की डिलिवरी में कौंप्लीकेशंस हैं, इसलिए उस ने मां को फौरन बुला लिया.’’ सोमेन ने कहा.

‘‘लेकिन तुम तो कह रहे थे कि अभी डिलीवरी में 3 महीने बाकी हैं. भाभीजी के लिए 2 महीने बाद की टिकट भी बुक करा रखी थी?’’

‘‘हां, लेकिन बेटी के बुलाने पर एजेंट से उस की तारीख चेंज करा कर कल रात को ही उन्हें कोलकाता एयरपोर्ट से भेज दिया. अब तो 6 महीने से पहले आने वाली नहीं है. जरूरत पड़ी तो और भी रुक सकती हैं. ग्रीन कार्ड है न, वीजा का भी कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘तुम क्यों नहीं गए?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘मैं कुछ दिनों पहले ही तो लौटा हूं. अब डिलिवरी के समय जाऊंगा. फिर घर में थोड़ा काम भी लगवा रखा है. एक 2 रूम का सेट बनवा रहा हूं. कुछ किराया आ जाएगा. देखो न, आजकल कितनी महंगाई है.’’

‘‘चलो ठीक है, हम दोनों ही हैं. एकदूसरे से मिल कर मन लगा रहेगा.’’ इंद्र ने कहा.

‘‘भाई, जरा कामवाली विमला को बता देना कि मैं आ गया हूं, इसलिए मेरे यहां भी काम करने आ जाएगी. उसे तो यही पता है कि मैं 2 हफ्ते बाद आऊंगा. और बताओ, भाभीजी कैसी हैं?’’ सोमेन ने पूछा.

‘‘मेरी पत्नी को भी अचानक मायके जाना पड़ा. उस की मां को लकवा मार गया है. वह बिस्तर पर पड़ी हैं. अब तुम्हारी भाभी भी 4-5 महीने से पहले आने वाली नहीं है. चलो, चाय मेरे यहां से पी कर जाना.’’ इंद्र ने कहा.

‘‘चाय तुम बनाओगे?’’ सोमेन ने पूछा.

‘‘तुम्हें चाय पीने से मतलब. कौन बनाएगा, इस की चिंता क्यों कर रहे हो?’’

वैसे भी मौर्निंग वाक के बाद दोनों दोस्त किसी एक के घर ही चाय पीते थे. सोमेन इंद्र के साथ उस के घर पहुंचा. इंद्र ने ताला खोल कर सोमेन को ड्राइंगरूम में बैठाया. सोमेन को किचन में बरतनों के खटरपटर की आवाज सुनाई दी तो पूछा, ‘‘इंद्र, देखो किचन में बिल्ली है क्या?’’

किचन से विमला की आवाज आई, ‘‘हां, मैं ही बिल्ली हूं.’’

इतना कह कर उस ने 2 कप चाय ला कर मेज पर रख दिया. इंद्र ने उस की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘तुम्हारी भाभी मेरे खानेपीने, कपड़े धोने आदि का काम इसे सौंप गई हैं. मैं ने इसे पीछे के दरवाजे की चाबी दे रखी है. मेरे न रहने पर यह पीछे से आ कर अपना काम करने लगती है. इसीलिए तो हमारे आते ही चाय मिल गई.’’ इस के बाद उन्होंने विमला से कहा, ‘‘तुम ने अपनी चाय हमें दे दी, अपने लिए दूसरी बना लेना.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं अपने लिए चाय बना लूंगी.’’ कह कर विमला जाने लगी तो सोमेन ने कहा, ‘‘विमला, मैं तुम्हें संदेश भिजवाने वाला था कि मेरे यहां भी आ जाना. बरतन, झाड़ू और पोंछा के अलावा मेरा भी खाना बना देना.’’

‘‘यहां के लिए तो मेमसाहब कह कर गई हैं कि साहब के सारे काम कर देना. आप की मेमसाहब के कहे बगैर मैं किचन का काम नहीं कर सकती.’’ विमला ने कहा.

‘‘ठीक है, अभी तो वह रास्ते में होंगी, कल आओगी तो मैं उन से तुम्हारी बात करा दूंगा.’’ सोमेन ने कहा.

इंद्र ने सोमेन को बताया कि उन की पत्नी के कहने पर ही विमला घर के सारे काम करने को तैयार हुई थी. पीछे वाले दरवाजे की चाबी देने का सुझाव भी उन्हीं का था, ताकि मैं घर में न भी रहूं तो यह आ कर काम कर दे. पहले तो इस ने बहुत नखरे दिखाए, पर जब उन्होंने कहा कि इसी के भरोसे साहब को छोड़ कर जा रही हूं, तब जा कर यह तैयार हुई.

अगले दिन सोमेन ने फोन पर वीडियो कालिंग कर के पत्नी की विमला से बात करा दी. सोमेन की पत्नी को भी उस की खुशामद करनी पड़ी. उन्होंने कहा कि साहब को बाहर का खाना बिलकुल सूट नहीं करता, इसलिए अपना घर समझ कर वह साहब का खयाल रखे.

इस पर विमला ने नखरे दिखाते हुए कहा था, ‘‘ठीक है, आप इतना कह रही हैं तो मैं आप के घर को अपने जैसा ही समझूंगी. आप इत्मीनान रखें, साहब को भूखा नहीं रहने दूंगी. पर इंदरजी के यहां भी सारा काम करना पड़ता है, इसलिए थोड़ी देरसबेर हो सकती है. फिर भी मैं सारे काम कर दूंगी.’’

विमला को दोनों घरों के बैक डोर की चाबी मिल गई. वह अंदर ही अंदर बहुत खुश थी, क्योंकि दोनों घरों में जम कर खानेपीने को मिल रहा था. अब वह थोड़ा बनठन कर साफसुथरे कपड़े पहन कर बालों में खुशबूदार तेल डाल कर आने लगी थी. वह हमेशा खुश दिखती थी और इंद्र तथा सोमेन से खूब हंसहंस कर बातें करती थी.

विमला देखने में साधारण थी. उस की उम्र 35 साल के करीब थी. उस का पति शंकर भी दोनों घरों में माली का काम करता था. वह काफी दुबलापतला मरियल सा था. अगर 3-4 लोग एक साथ जोर से फूंक दें तो वह उड़ सकता था. स्वभाव से वह भोलाभाला और एकदम सीधासादा था.

विमला दोनों दोस्तों से खूब चिकनीचुपड़ी बातें करती हुई अपनी अदाओं से उन्हें लुभाती रहती. कभी चायपानी देते वक्त जानबूझ कर पल्लू गिरा कर अपने वक्षस्थल दिखाने की कोशिश करती तो कभी किचन में बौलीवुड के भड़काऊ गीत ‘बीड़ी जलइले जिगर से…जिगर मा बड़ी आग है’ गुनगुनाने लगती. इसी तरह महीना बीत गया.

एक दिन विमला सुबह इंदर के यहां थोड़ा देर से आई. इंद्र ने वजह पूछी तो उस ने कहा, ‘‘कल रात आप के दोस्त के यहां देर हो गई. वह बहुत देर तक बातें करते रहे. कह रहे थे कि एक भूख तो मिट जाती है, लेकिन दूसरी का क्या करूं? यह दूसरी भूख क्या होती है साहब?’’

‘‘बस, यही समझ लो कि शंकर तुम से पेट और देह दोनों की भूख मिटा लेता है. वैसे दूसरी भूख तो सभी को लगती है, मुझे भी लगती है. पर मुझ बूढ़े को कौन पूछता है? क्या सचमुच हम इतने बूढ़े हो गए हैं?’’ इंद्र ने विमला को चाहत भरी नजरों से ताकते हुए कहा.

‘‘नहीं साहब, आप को देख कर तो कोई नहीं कह सकता कि आप रिटायर्ड हैं. रही बात मेरे मर्द की तो उस के शरीर में कहां दम है. फिर रात में पी कर आता है और लुढ़क जाता है. 5 साल हो गए, एक औलाद तक नहीं दे पाया. मैं अपना मर्द और एक बेटा छोड़ कर इस के साथ शहर आई थी कि यह मुझे उस से ज्यादा खुश रखेगा, लेकिन यह उस से भी बेकार निकला.’’

‘‘सचमुच.’’ इंद्र ने विमला को बांहों में भर कर कहा, ‘‘सोमेन से कुछ मत बताना. चलो, कमरे में चलते हैं.’’

इस के बाद जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया. इस के 2 दिनों बाद विमला सोमेन के यहां दिन में न जा कर रात में गई. सोमेन के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘आप के दोस्त के यहां आज बहुत काम था, इसलिए देर होने पर वहीं से अपने घर चली गई थी. मर्द भी तो भूखा बैठा था.’’

‘‘अच्छा चलो, बुड्ढे को दिन भर उपवास करा दिया, जल्दी खाना बना कर पेट की भूख मिटाओ.’’

‘‘बूढ़े हों आप के दुश्मन, आप का तो क्या गठीला बदन है. आप को सिर्फ पेट की ही भूख मिटानी है?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब क्या, आप ने ही तो कहा था कि एक और भूख होती है. फिर मेमसाहब ने भी अपने जैसा खयाल रखने को कहा था.’’

‘‘अरे भई, तू तो बड़ी समझदार हो गई है.’’ कह कर सोमेन ने विमला को बांहों में भर कर चूम लिया. उस ने भी कोई ऐतराज नहीं किया तो उन्होंने कहा, ‘‘चलो बैड पर, पेट की भूख की बाद में सोचेंगे.’’

उस दिन विमला सोमेन के साथ भी हमबिस्तर हो गई. रात को जाते समय सोमेन ने कहा, ‘‘देखो, इस बात की चर्चा इंद्र से भूल कर भी मत करना.’’

‘‘बिलकुल नहीं करूंगी, मैं इतनी बेवकूफ नहीं हूं कि इस तरह की बात किसी से कह दूं.’’ कह कर विमला चली गई.

एक दिन विमला ने अपने पति शंकर से कहा, ‘‘हमारे दोनों साहब आजकल कुछ ज्यादा ही रंगीनमिजाज हो रहे हैं. अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं इन दोनों का ठीक से इलाज कर दूं.’’

इस के बाद उस ने शंकर से अपनी योजना बता दी. उस ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘ऐसा हुआ तो अपने दिन सुधर जाएंगे.’’

इस तरह विमला 2 महीने के अंदर ही दोनों दोस्तों की घरवाली बन गई. उधर दोनों की पत्नियां विमला को फोन कर के समझाती रहती थीं कि साहब को किसी तरह की तकलीफ न होने पाए. विमला भी उन्हें निश्चिंत रहने को कहती थी. तीसरा महीना होतेहोते उस ने एक दिन सोमेन से कहा, ‘‘मैं ने सावधानी बरतने को कहा था, पर आप माने नहीं. मुझे गर्भ ठहर गया है.’’

‘‘इस में चिंता की क्या बात है, तुम शादीशुदा हो, यह बच्चा शंकर का होगा.’’

‘‘उस का कहां से होगा, उस नामर्द को तो 5 साल से झेल रही हूं. असली मर्द तो आप मिले हैं. इस में कोई शक नहीं कि मेरे पेट में आप का ही अंश है.’’

‘‘अच्छा चुप रह. यह जिस का भी हो, कहलाएगा तो शंकर का ही. अगर तुम चाहो तो मैं डाक्टर से कह कर इसे गिरवा दूं.’’

‘‘ना बाबा, बड़ी मुश्किल से तो यह दिन देखने को मिला है. आप चिंता न करें, आप का नाम नहीं लूंगी.’’

कुछ दिनों बाद विमला ने अपने गर्भवती होने की बात इंद्र से भी कह दी. उस ने भी कहा, ‘‘घबराती क्यों है, इस का शंकर ही बाप कहलाएगा.’’

विमला ने दोनों दोस्तों को अपने गर्भवती होने की बात बता कर ठगना शुरू कर दिया. अपना फूला हुआ पेट दिखा कर कभी डाक्टर से इलाज और दवादारू के पैसे लेती तो कभी छुट्टी ले कर बैठ जाती. धीरेधीरे उस के पेट का फूलना बढ़ता गया. एक दिन सोमेन ने कहा, ‘‘जरा पूजाघर की सफाई अच्छे से कर दे.’’

विमला ने कहा, ‘‘आज बहुत काम है, बाद में कर दूंगी.’’

एक महीने बाद फिर सोमेन ने पूजाघर साफ करने को कहा तो फिर वही जवाब मिला. सोमेन बेटी की डिलिवरी के समय एक महीने के लिए अमेरिका चला गया. डिलिवरी के बाद डाक्टर ने सलाह दी कि बेबी कमजोर है, इसलिए एक साल तक डे केयर में न दे कर उस की परवरिश घर में ही की जाए.

सोमेन ने इंडिया लौट कर इंद्र को बताया कि पत्नी के लौटने में अभी देर है. उधर इंद्र की पत्नी ने कहा था कि मां के पास किसी न किसी का रहना जरूरी है. उस के भाई का लड़का 12वीं कक्षा में है. बोर्ड की परीक्षा के बाद ही उन की भाभी आ कर संभालेंगी. इंद्र भी कुछ दिनों के लिए अपनी सास से मिलने चला गया था.

दोनों दोस्तों की पत्नियां बारबार फोन कर के विमला को दोनों का खयाल रखने के लिए कहती रहती थीं. विमला को और क्या चाहिए था. उस की तो पांचों अंगुलियां घी में थीं. विमला ने दोनों की पत्नियों से कहा था, ‘‘आप को पता होना चाहिए कि मैं उम्मीद से हूं. डिलिवरी के समय कुछ दिनों तक मैं काम पर नहीं आ सकूंगी. तब कोशिश करूंगी कि कोई कामवाली आ कर काम कर जाए.’’

विमला इंद्र और सोमेन से कहती थी कि डाक्टर ने फल और टौनिक लेने के लिए कहा है, क्योंकि बच्चा काफी कमजोर है. आखिर यह उन का ही तो खून है. भले ही शंकर का कहलाए, लेकिन इसे बढि़या खानापीना मिलते रहना चाहिए. डाक्टर कहते हैं कि पेट चीर कर डिलिवरी होगी. काफी पैसा लगेगा उस में.

इंद्र और सोमेन यही समझ रहे थे कि विमला के पेट में उन्हीं का अंश पल रहा है, इसलिए चुपचाप विमला को बरदाश्त कर रहे थे. हमेशा ही मन में डर बना रहता था कि अगर विमला का मुंह खुल गया तो वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे. उन्हें यह भी विश्वास था कि विमला को ज्यादा पैसों का लालच नहीं है, वरना वह चाहती तो और भी हथकंडे अपना कर ब्लैकमेल कर सकती थी.

एक दिन सोमेन ने कहा, ‘‘विमला, तेरे मर्द को भी तो बच्चे की चिंता होनी चाहिए न?’’

‘‘वह नशेड़ी कुछ नहीं करेगा. यह बच्चा आप ही का है, आप चाहें तो चल कर टेस्ट करा लें.’’

‘‘नहीं, टेस्ट की कोई जरूरत नहीं है.’’

विमला की डिलिवरी का समय नजदीक आ गया. उस ने इंद्र से कहा, ‘‘डाक्टर ने कहा है कि औपरेशन से बच्चा होगा. काफी खर्च आएगा साहब. हम कहां से इतना पैसा लाएंगे?’’

इसी बहाने विमला ने इंद्र और सोमेन से मोटी रकम वसूली. दोनों से 3 सप्ताह की छुट्टी मांगते हुए उस ने कहा कि वे कहें तो वह एक टेंपरेरी कामवाली का इंतजाम कर दे. रिश्ते में उस की चचिया सास लगती है, पर जरा बूढ़ी है. वह सफाई से भी नहीं रहती, लेकिन उन का काम चल जाएगा.

दोनों ने मना कर दिया कि किसी तरह वे काम चला लेंगे.

दोनों दोस्त अकसर देर तक साथ बैठ कर बातें करते और टोस्ट, खिचड़ी, पोहा आदि खा कर काम चलाते. कभीकभी होटल जा कर खा आते. इसी तरह 3 सप्ताह बीत गए. एक दिन विमला सोमेन के यहां आई. इंद्र भी वहीं बैठा था. उन्होंने कहा, ‘‘चलो भई, आज से अब विमला घर संभालेगी. हम लोग इतने दिनों में बिलकुल थक गए. अरे तेरा बच्चा कैसा है, बेटा हुआ या बेटी?’’

‘‘9 महीने पेट में पाला, मुआ बड़ा बेदर्द निकला. मरा हुआ पैदा हुआ. इतना बड़ा चीरा भी लगा पेट में.’’ विमला रोने का नाटक करते हुए साड़ी में हाथ लगा कर बोली, ‘‘दिखाऊं आप लोगों को?’’

लियो: आखिर जोया का क्या कुसूर था

राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं लेकिन जब यश भी उखड़ गया, तो रोने लगीं. ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी पसंद नहीं? इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती क्या? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? आखिर, ऐसा क्या किया है उस ने?

अहा, जोया आ रही है. उस के परफ्यूम की खुशबू को मैं पहचानता हूं और वह मेरे लिए मटन ला रही है, मुझे यह भी पता चल गया है. अब आई, अब आई और यह बजी डोरबैल. यश लैपटौप पर कुछ काम कर रहा था, जिस फुरती से उस ने दरवाजा खोला, हंसी आई मुझे. प्यार करता है जोया से वह और जोया भी तो जान देती है उस पर. दोनों साथ में कितने अच्छे लगते हैं जैसे एकदूसरे के लिए ही बने हैं.

जैसे ही यश ने दरवाजा खोला, जोया अंदर आई. आते ही यश ने उस के गाल पर किस कर दिया. वह शरमा गई. मैं ने लपक कर अपनी पूंछ जोरजोर से हिला कर अपनी तरह से जोया का स्वागत किया. वह मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए नीचे ही बैठ गई. पूछा, ‘‘कैसे हो, लिओ? देखो, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

मैं ने और तेजी से अपनी पूंछ हिलाई. फिर जोया ने आंगन की तरफ मेरे बरतनों के पास जाते हुए कहा, ‘‘आओ, लिओ.’’ मैं मटन पर टूट पड़ा, कितना अच्छा बनाती है जोया. उस के हाथ में कितना स्वाद है. राधारानी तो अपने मन का कुछ भी बनाखा कर अपनी खाली सहेलियों के साथ सत्संग, भजनों में मस्त रहती हैं. यश बेचारा सीधा है, मां जो भी बना देती है, चुपचाप खा लेता है. कभी कोई शिकायत नहीं करता. अच्छे बड़े पद पर काम करता है, पर घमंड नाम का भी नहीं. और जोया भी कितनी सलीकेदार, पढ़ीलिखी नरम दिल लड़की है. मैं तो इंतजार कर रहा हूं कि कब वह यश की पत्नी बन कर इस घर में आए.

यश के पापा शेखर भी बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. घर में क्लेश न हो, यह सोच कर ज्यादातर चुप रहते हैं. राधा की जिदों पर उन्हें गुस्सा तो खूब आता है पर शांत रह जाते हैं. शायद इसी कारण से राधारानी जिद्दी और गुस्सैल होती चली गई हैं. यश का स्वभाव बिलकुल अपने पापा पर ही तो है. घर में मुझे प्यार तो सब करते हैं, राधारानी भी, पर मुझे उन का अपनी जाति पर घमंड करना अच्छा नहीं लगता. उन की बातें सुनता हूं तो बुरा लगता है. बोल नहीं पाता तो क्या हुआ, सुनतासमझता तो सब हूं.

मैं यश और जोया को बताना चाहता हूं कि राधारानी यश के लिए लड़कियां देख रही हैं, यह अभी यश को पता ही नहीं है. वह तो सुबह निकल कर रात तक ही आता है. वह घर आने से पहले जब भी जोया से मिल कर आता है, मैं समझ जाता हूं क्योंकि यश के पास से जोया के परफ्यूम की खुशबू आ जाती है मुझे. एक दिन जोया यश को बता रही थी कि उस का भाई समीर फ्रांस से यह परफ्यूम ‘जा दोर’ लाया था. जब घर में शेखर और राधा नहीं होते, यश जोया को घर में ही बुला लेता है. मैं खुश हो जाता हूं कि अब जोया आएगी, यश की फोन पर बात सुन लेता हूं न. जोया मुझे बहुत प्यार करती है, इसलिए हमेशा मेरे लिए कुछ जरूर लाती है.

यश जोया को अपने बैडरूम में ले गया तो मैं चुपचाप आंगन में आ कर बैठ गया. इतनी समझ है मुझ में. दोनों को बड़ी मुश्किल से यह तनहाई मिलती है. शेखर और राधा को, बस, इतना ही पता है कि दोनों अच्छे दोस्त हैं. दोनों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करते हैं, इस की भनक भी नहीं है उन्हें. मैं जानता हूं, जिस दिन राधारानी को इस बात का अंदाजा भी हो गया, जोया का इस घर में आना बंद हो जाएगा. एक विजातीय लड़की से बेटे की बाहर की दोस्ती तो ठीक है पर इस के आगे राधारानी कुछ सह न पाएंगी. धर्मजाति से बढ़ कर उन के जीवन में कुछ भी नहीं है, पति और बेटे की खुशी भी नहीं.

थोड़ी देर बाद जोया ने अपने और यश के लिए कौफी बनाई. फिर दोनों ड्राइंगरूम में ही बैठ कर बातें करने लगे. अब मैं उन दोनों के पास ही बैठा था.  कौफी पीतेपीते अपने पास बिठा कर मेरे  सिर पर हाथ फेरते रहने की यश की आदत है. मैं भी खुद ही कौफी का कप देख कर उस के पास आ कर बैठ जाता हूं. मुझे भी यही अच्छा लगता है. उस के स्पर्श में इतना स्नेह है कि मेरी आंखें बंद होने लगती हैं, ऊंघने भी लगता हूं. पर अचानक जोया के स्वर में उदासी महसूस हुई तो मेरे कान खड़े हुए.

जोया कह रही थी, ‘‘यश, अगर मैं ने अपने मम्मीपापा को मना भी लिया तो तुम्हारी मम्मी तो कभी राजी नहीं होंगी, सोचो न यश, कैसे होगा?’’

‘‘तुम चिंता मत करो जो, अभी टाइम है, सब ठीक हो जाएगा.’’

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जो, यश भी न. जोया के पहले से ही छोटे नाम को उस ने ‘जो’ में बदल दिया है, हंसी आती है मुझे. खैर, मैं यश को कैसे बताऊं कि अब टाइम नहीं है, राधारानी लड़कियां देख रही हैं. मैं ने अपने मुंह से कूंकूं तो किया पर समझाऊं कैसे. मुझे जोया के उतरे चेहरे को देख कर तरस आया तो मैं जोया की गोद में मुंह रख कर बैठ गया.

जोया की आंखें भर आई थीं, बोली, ‘‘यश, मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकती.’’

‘‘ठीक है जो, मैं मम्मी से जल्दी ही बात करूंगा. तुम दुखी मत हो.’’

फिर यश अपने हंसीमजाक से जोया को हंसाने लगा. दोनों हंसते हुए कितने प्यारे लगते हैं. जोया की लंबी सी चोटी पकड़ कर यश ने उसे अपने पास खींच लिया था. वह हंस दी. मैं भी हंस रहा था. फिर जोया ने अपने फोन से हम तीनों की एक सैल्फी ली. वाह, ‘हैप्पी फैमिली’ जैसा फील हुआ मुझे. फिर जोया टाइम देखती हुई उठ खड़ी हुई, ‘‘अब आंटीअंकल के आने का टाइम हो रहा है, मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए यश ने खड़े हो कर उसे बांहों में भर लिया, फिर उस के होंठों पर किस कर दिया. मैं जानबूझ कर इधरउधर देखने लगा था.

जोया के जाने के 20 मिनट बाद शेखर और राधा आ गए. मैं ने सोचा, अच्छा हुआ, जोया टाइम से चली गई. जोया के परफ्यूम की जो खुशबू पूरे घर में आती रहती है, उसे शेखर और राधा महसूस नहीं करते. घंटों तक रहती है यह खुशबू घर में. कितनी अच्छी खुशबू है यह. पर आज शायद घर में मटन और परफ्यूम की अलग ही खुशबू राधारानी को महसूस हो ही गई, पूछा, ‘‘यश, कैसी महक है?’’

‘‘क्या हुआ, मम्मी?’’

‘‘कोई आया था क्या?’’

‘‘हां मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स आए थे.’’

शक्की तो हैं ही राधारानी, ‘‘अच्छा? कौनकौन?’’

‘‘अमित, महेश, अंजलि और जोया. जोया ही लिओ के लिए मटन ले आई थी.’’

शेखर ने जोया के नाम पर जिस तरह यश को देखा, मजा आ गया मुझे. बापबेटे की नजरें मिलीं तो यश मुसकरा दिया, वाह. बापबेटे की आंखोंआंखों में जो बातें हुईं, उन से मुझे मजा आया. दोनों का बढि़या दोस्ताना रिश्ता है. शेखर गरदन हिला कर मुसकराए, यश मुंह छिपा कर हंसने लगा. अचानक राधा ने कहा, ‘‘यश, अगले वीकैंड का कुछ प्रोग्राम मत रखना. फ्री रहना.’’

‘‘क्यों, मम्मी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, ज्योति, उसे देखने चलेंगे.’’

‘‘नहीं मम्मी, मुझे नहीं देखना है किसी को.’’

‘‘क्यों?’’ राधारानी के माथे पर त्योरियां उभर आईं.

‘‘बस, नहीं जाना मुझे.’’

‘‘कारण बताओ.’’

यश ने पिता को देखा, शेखर ने सस्नेह पूछा, ‘‘तुम्हारी कोईर् पसंद है?’’

यश साफ बात करने वाला सच्चा इंसान है. उसे लागलपेट नहीं आती, बोला, ‘‘मम्मी, मुझे जोया पसंद है, मैं उसी से मैरिज करूंगा.’’

जोया के नाम पर जो तूफान आया, पूरा घर हिल गया. राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं. जब यश भी उखड़ गया, तो रोने पर आ गईं. वैसा ही दृश्य हो गया जैसा फिल्मों में होता है. यश जब घर में कोई मूवी देखता है, मैं भी देखता हूं उस के साथ बैठ कर, ऐसा दृश्य तो खूब घिसापिटा है पर अब तो मेरे यश से इस का संबंध था तो मैं बहुत दुखी हो रहा था. मुझे बारबार जोया की आज की ही आंसुओं से भरी आंखें याद आ रही थीं.

मैं चुपचाप शेखर के पास बैठ कर सारा तमाशा देख रहा था और सोच रहा था, ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी अजीज नहीं?

इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? ऐसा क्या किया उस ने?

यश अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गया तो मैं झट उठ कर उस के पीछे चल दिया. वह बैड पर औंधेमुंह पड़ गया. मैं ने उस के पैर चाटे. अपना मुंह उस के पैरों पर रख कर उसे तसल्ली दी. वह मुझे अपनी गोद में उठा कर वापस अपने पास लिटा कर एक हाथ अपनी आंखों पर रख कर सिसक उठा तो मुझे भी रोना आ गया. यश को तो मैं ने आज तक रोते देखा ही नहीं था. ये कैसी मां हैं? इतने में शेखर यश के पास आ कर बैठ गए.

यश के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,  ‘‘बेटा, तुम्हारी मां जोया को किसी सूरत में स्वीकार नहीं करेंगी.’’

‘‘और मैं उस के सिवा किसी और से विवाह नहीं करूंगा, पापा.’’

घर का माहौल अजीब हो गया था. अगले कई दिन घर का माहौल बेहद तनावपूर्ण रहा. राधा और यश दोनों अपनी बात पर अड़े थे. शेखर कभी राधा को समझा रहे थे, कभी यश को. यश कभी घर में खाता, कभी बाहर से खा कर आता और चुपचाप अपने कमरे में बंद हो जाता. वह जोया से तो बाहर मिलता ही था, मुझे तो जोया के परफ्यूम की खुशबू अकसर यश के पास से आ ही जाती थी.

मैं ने जोया को बहुत दिनों से नहीं देखा था. मुझे जोया की याद आती थी. यश का उदास चेहरा देख कर भी राधा का हठ कम नहीं हो रहा था और मेरा यश तो मुझे आजकल बिलकुल रूठारूठा फिल्मी हीरो लगता था.

एक दिन राधा यश के पास आईं, टेबल पर एक लिफाफा रखती हुई बोलीं, ‘‘यह रही ज्योति की फोटो. एक बार देख लो, खूब धनी व समृद्ध परिवार है.  ज्योति परिवार की इकलौती वारिस है. तुम्हारा जीवन बन जाएगा और एक बात कान खोल कर सुन लो, यह इश्क का भूत जल्दी उतार लो, वरना मैं अन्नजल त्याग दूंगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा, झूठी. आप तो भूखी रह ही नहीं सकतीं. व्रत में भी आप का मुंह पूरा दिन चलता है. मेरे यश को झूठी धमकियां दे रही हैं राधारानी. झूठी बातें कर के यश को परेशान कर रही हैं, बेचारा फंस न जाए. अन्नजल त्यागने की धमकी से सचमुच यश का मुंह उतर गया.

अब मैं कैसे बताऊं कि यश, इस धमकी से डरना मत, तुम्हारी मां कभी भूखी नहीं रह सकतीं. जोया को न छोड़ना, तुम दोनों साथ बहुत खुश रहोगे. पिछली बार जो मेरे फेवरेट पौपकौर्न तुम मेरे लिए लाए थे, आधे तो राधारानी ने ही खा लिए थे. 4 अपने मुंह में डाल रही थीं तो एक मेरे लिए जमीन पर रख रही थीं. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे फेवरेट पौपकौर्न हैं और तुम मेरे लिए लाए थे. तुम ने जोया के साथ मूवी देखते हुए खरीदे थे और आ कर झूठ बोला था कि एक दोस्त के साथ मूवी देख कर आए हो. हां, ठीक है, ऐसी मां से झूठ बोलना ही पड़ जाता है. गपड़गपड़ सारे पौपकौर्न खा गई थीं राधारानी. ये कभी भूखी नहीं रहतीं, तुम डरना मत, यश.

फोटो पटक कर राधा शेखर के साथ कहीं बाहर चली गई थीं. यश सिर पकड़ कर बैठ गया था. मैं तुरंत उस के पैरों के पास जा कर बैठ गया. इतने दिनों से घर में तूफान आया हुआ था. यश के साथ मैं भी थक चुका था. मैं ने उसे कभी अपने मातापिता से ऊंची आवाज में बात करते हुए भी नहीं सुना था. उसे अपनी पसंद की जीवनसंगिनी की इच्छा का अधिकार क्यों नहीं है? इंसानों में यह भेदभाव करता कौन है और क्यों? क्यों एक इंसान दूसरे इंसान से इतनी नफरत करता है? मेरा मन हुआ, काश, मैं बोल सकता तो यश से कहता, ‘दोस्त, यह तुम्हारा जीवन है, बेकार की बहस छोड़ कर अपनी पसंद का विवाह तुम्हारा अधिकार है. राधारानी ज्यादा दिनों तक बेटे से नाराज थोड़े ही रहेंगी. तुम ले आओ जोया को अपनी दुलहन बना कर. जोया को जाननेसमझने के बाद वे तुम्हारी पसंद की प्रशंसा ही करेंगी.’ यश मुझे प्यार करने लगा तो मैं  भी उस से चिपट गया.

मैं बेचैन सा हुआ तो यश ने कहा, ‘‘लिओ, क्या करूं? प्लीज हैल्प मी. बताओ, दोस्त. मां की पसंद देखनी है? मुझे भी पता है तुम्हें भी जोया पसंद है, है न?’’

मैं ने खूब जोरजोर से अपनी पूंछ हिला कर ‘हां’ में जवाब दिया. वह भी समझ गया. हम दोनों तो पक्के दोस्त हैं न. एकदूसरे की सारी बातें समझते हैं, फिर उसे पता नहीं क्या सूझा, बोला, ‘‘आओ, तुम्हें मां की पसंद दिखाता हूं.’’

यश ने मेरे आगे उस लड़की की फोटो की. मुझे धक्का लगा, मेरे हीरो जैसे हैंडसम दोस्त के लिए यह भीमकाय लड़की. पैसे व जाति के लिए राधारानी इसे बहू बना लेंगी. छिछि, लालची हैं ये. यश को भी झटका लगा था. वह चुपचाप अपनी हथेलियों में सिर रख कर बैठ गया. उस की आंखों की कोरों से नमी सी बह गई. मैं ने उस के घुटनों पर अपना सिर रख कर उसे प्यार किया. मुंह से कुछ आवाज भी निकाली. वह थके से स्वर में बोला.

‘‘लिओ, देखा? मां कितनी गलत जिद कर रही हैं. बताओ दोस्त, क्या करना चाहिए अब?’’

मेरा दोस्त, मेरा यार मुझ से पूछ रहा था तो मुझे बताना ही था. राधारानी को पता नहीं आजकल के घर के दमघोंटू माहौल में चैन आ रहा था, यह तो वही जानें. यश की उदासी मुझे जरा भी सहन नहीं हो रही थी. मेरा दोस्त अब मुझ से पूछ रहा था तो मुझे तो अपनी राय देनी ही थी. क्या करूं, क्या करूं, ऐसे समय न बोल पाना बहुत अखरता है. मैं ने झट न आव देखा न ताव, उस फोटो को मुंह में डाला और चबा कर जमीन पर रख दिया. यश को तो यह दृश्य देख हंसी का दौरा पड़ गया. मैं भी हंस दिया, खूब पूंछ हिलाई. दोनों पैरों पर खड़ा भी हो गया. यश तो हंसतेहंसते जमीन पर लेट गया था. मैं भी उस से चिपट गया. हम दोनों जमीन पर लेटेलेटे खूब मस्ती करने लगे थे.

अब यश की हंसी नहीं रूक रही थी. मैं भांप गया था, अब यश जोया से दूर नहीं होगा. वह फैसला ले चुका था और मैं इस फैसले से बहुत खुश था. मुझ पर अपना हाथ रखते हुए यश कह रहा था, ‘‘ओह लिओ, आई लव यू.’’

‘मी टू,’ मैं ने भी उस का हाथ चाट कर जवाब सा दिया था.

बदला: सुगंधा ने कैसे लिया रमेश से बदला

‘‘सुगंधा, तुम बहुत खूबसूरत हो. तुम्हारी खूबसूरती पर मैं एक क्या कई जन्म कुरबान कर सकता हूं.’’ ‘‘चलो हटो, तुम बड़े वो हो. कुछ ही मुलाकातों में मसका लगाना शुरू कर दिया. मुझे तुम्हारी कुरबानी नहीं, बल्कि प्यार चाहिए,’’ फिर अदा से शरमाते हुए सुगंधा ने रमेश के सीने पर अपना सिर टिका दिया.

रमेश ने सुगंधा के बालों में अपनी उंगलियां उलझा दीं और उस के गालों को सहलाते हुए बोला, ‘‘सुगंधा, मैं जल्दी ही तुम से शादी करूंगा. फिर अपना घर होगा, अपने बच्चे होंगे…’’ ‘‘रमेश, तुम शादी के वादे से मुकर तो नहीं जाओगे?’’

‘‘सुगंधा, तुम कैसी बात करती हो? क्या तुम को मुझ पर भरोसा नहीं?’’ सुगंधा रमेश की बांहों व बातों में इस कदर डूब गई कि रमेश का हाथ कब उस के नाजुक अंगों तक पहुंच गया, उस को पता ही नहीं चला. फिर यह सोच कर कि अब रमेश से उस की शादी होगी ही, इसलिए उस ने रमेश की हरकतों का विरोध नहीं किया.

दोनों की मुलाकातें बढ़ती गईं और हर मुलाकात के साथ जीनेमरने की कसमें खाई जाती रहीं. रमेश ने शादी का वादा कर के सुगंधा के साथ जिस्मानी संबंध बना लिया और फिर अकसर दोनों होटलों में मिलते और जिस्म की भूख मिटाते. इस तरह दोनों जब चाहते जवानी का मजा लूटते.

रमेश इलाहाबाद के पास के एक गांव का रहने वाला था. उस के परिवार में मातापिता और एक छोटा भाई दिनेश था. छोटे से परिवार में सभी अपनेअपने कामों में लगे हुए थे. पिताजी पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हो कर अब घर पर ही रह कर खेतीबारी का काम देखने लगे थे. छोटा भाई दिनेश दिल्ली यूनिवर्सिटी से एमए कर रहा था.

लखनऊ में एक विदेशी फर्म में कैशियर के पद पर काम करने की वजह से रमेश लखनऊ में एक फ्लैट ले कर रह रहा था. चूंकि घरपरिवार ठीक था और नौकरी भी अच्छी थी, इसलिए उस की शादी भी हो गई थी. बीवी को वह साथ नहीं रखता था, क्योंकि मां से घर का काम नहीं होता था. रमेश जिस फर्म में काम करता था, उसी फर्म में सुगंधा क्लर्क के पद पर काम करने आई थी.

सुगंधा को देखते ही रमेश उस पर मोहित हो गया और डोरे डालना शुरू कर दिया. रमेश की शराफत, पद और हैसियत देख कर सुगंधा भी उसे पसंद करने लगी. रमेश ने सुगंधा को बताया कि वह कुंआरा है और उस से शादी करना चाहता है. अब चूंकि रमेश ने उस से शादी का वादा किया, तो वह पूरी तरह उस की बातों में ही नहीं, आगोश में भी आ गई.

समय सरकता गया. रमेश सुगंधा की देह में इस कदर डूब गया कि घर भी कम जाने लगा. वह घर वालों को पैसा भेज देता और चिट्ठी में छुट्टी न मिलने का बहाना लिख देता था. एक दिन पार्क में जब वे दोनों मिले, तो सुगंधा ने रमेश से कहा, ‘‘रमेश, अब हमें शादी कर लेनी चाहिए. अभी तक आप ने मुझे अपने घर वालों से भी नहीं मिलाया है. मुझे जल्दी ही अपने मातापिता से मिलवाइए और उन्हें शादी के बारे में बता दीजिए.’’

रमेश सुगंधा को आगोश में लेते हुए बोला, ‘‘अरी मेरी सुग्गो, अभी शादी की जल्दी क्या है? शादी भी कर लेंगे, कहीं भागे तो जा नहीं रहे हैं?’’ ‘‘नहीं, मुझे शादी की जल्दी है. रमेश, अब मुझे अकेलापन अच्छा नहीं लगता है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘ठीक है, कल शाम को मेरे कमरे पर आ जाना. वहीं शादी के बारे में बात करेंगे,’’ रमेश ने सुगंधा के नाजुक अंगों से खेलते हुए कहा. ‘‘मैं शाम को 8 बजे आप के कमरे पर आऊंगी,’’ रमेश ने सुगंधा के होंठों का एक चुंबन ले कर उस से विदा ली.

रमेश ने अभी तक शादी का वादा कर सुगंधा के साथ खूब मौजमस्ती की, लेकिन उस की शादी की जिद से उसे डर लगने लगा था. सच तो यह था कि वह सुगंधा से छुटकारा पाना चाहता था, क्योंकि एक तो सुगंधा से उस का मन भर गया था. दूसरे, वह उस से शादी नहीं कर सकता था. शाम को 8 बजने वाले थे कि रमेश के कमरे पर सुगंधा ने दस्तक दी. रमेश ने समझ लिया कि सुगंधा आ गई है. उस ने दरवाजा खोला और उसे बैडरूम में

ले गया. ‘‘हां, अब बताओ सुगंधा, तुम्हें शादी की क्यों जल्दी है? अभी कुछ दिन और मौजमस्ती से रहें, फिर शादी करेंगे,’’ रमेश ने उसे सीने से चिपकाते हुए कहा.

‘‘नहीं, जल्दी है. उस की कुछ वजहें हैं.’’

‘‘क्या वजहें हैं?’’ रमेश ने चौंकते हुए पूछा. तभी बाहर दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों चौंके. रमेश सुगंधा को छोड़ कर दरवाजा खोलने के लिए चला गया. सुगंधा घबरा कर एक तरफ दुबक कर बैठ गई.

इतने में रमेश को धकेलते हुए 3 लोग बैडरूम में आ गए.

‘‘अरे, तू तो कहता था कि यहां अकेले रहता?है. ये क्या तेरी बीवी है या बहन,’’ उन में से एक पहलवान जैसे शख्स ने कहा. ‘‘देखो, जबान संभाल कर बात करो,’’ रमेश ने कहा.

तभी एक ने रमेश के गाल पर जोर का थप्पड़ मारा और उसे जबरदस्ती कुरसी पर बैठा कर बांध दिया. तीनों सुगंधा की ओर बढ़े और उसे बैड पर पटक दिया. सुगंधा चीखतीचिल्लाती रही. उन से हाथ जोड़ती रही, पर उन्होंने एक न सुनी और बारीबारी से तीनों ने उस के साथ बलात्कार किया. उधर रमेश कुरसी से बंधा कसमसाता रहा.

जब सुगंधा को होश आया, तो वह लुट चुकी थी. उस का अंगअंग दुख रहा था. वह रोने लगी. रमेश उसे हिम्मत बंधाता रहा. फिर सुगंधा के आंसू पोंछते हुए रमेश ने कहा, ‘‘सुगंधा, इस को हादसा समझ कर भूल जाओ. हम जल्दी ही शादी कर लेंगे, जिस से यह कलंक मिट जाएगा.’’

सुगंधा उठी और अपने घर चली गई. वह एक हफ्ता की छुट्टी ले कर कमरे पर ही रही और भविष्य के बारे में सोच कर परेशान होती रही थी, लेकिन रमेश द्वारा शादी का वादा उसे कुछ राहत दे रहा था. सुगंधा हफ्तेभर बाद रमेश से मिली, तब बोली कि अब वह जल्द ही उस से शादी कर ले, क्योंकि वह बहुत परेशान है और वह उस के बच्चे की मां बनने वाली है.

‘‘क्या कहा तुम ने? तुम मेरे बच्चे की मां बनने वाली हो? सुगंधा, तुम होश में तो हो. अब तो यह तुम मुझ पर लांछन लगा रही हो. मालूम नहीं, यह मेरा बच्चा है या किसी और का,’’ रमेश ने हिकारत भरी नजरों से देखते हुए कहा. ‘‘नहींनहीं रमेश, ऐसा मत कहो. यह तुम्हारा ही बच्चा है. हादसे वाले दिन मैं तुम से यही बात बताने वाली थी,’’ सुगंधा ने कहा, पर रमेश ने धक्का दे कर उसे निकाल दिया.

सुगंधा जिंदगी के बोझ से परेशान हो उठी. जब लोगों को मालूम होगा कि वह बगैर शादी के मां बनने वाली है, तो लोग उसे जीने नहीं देंगे. अब वह जान दे देगी. अचानक रमेश का चेहरा उस के दिमाग में कौंधा, ‘धोखेबाज ने आखिर अपना असली रूप दिखा ही दिया.’

एक दिन जब सुगंधा बाजार जा रही थी, तो देखा कि रमेश किसी से बातें कर रहा था. उस आदमी का डीलडौल उसे कुछ पहचाना सा लगा. सुगंधा ने छिपते हुए नजदीक जा कर देखा, तो रमेश जिन लोगों से हंस कर बातें कर रहा था, वे वही लोग थे, जिन्होंने उस रात उस के साथ बलात्कार किया था.

अब सुगंधा रमेश की साजिश समझ गई थी. उस ने मन में ठान लिया कि अब वह मरेगी नहीं, बल्कि रमेश जैसे भेडि़ए से बदला लेगी. रमेश से बदला लेने की ठान लेने के बाद सुगंधा ने पहले परिवार के बारे में पता लगाया. जब मालूम हुआ कि रमेश शादीशुदा है, तो वह और भी जलभुन गई. उसे पता चला कि उस का छोटा भाई दिनेश दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था. उस ने लखनऊ की नौकरी छोड़ दी.

दिल्ली जा कर सब से पहले सुगंधा ने अपना पेट गिराया, फिर उस ने वहीं एक कमरा किराए पर ले लिया, जहां दिनेश रहता था. धीरेधीरे उस ने दिनेश पर डोरे डालना शुरू किया. दिनेश को जब सुगंधा ने पूरी तरह अपने जाल में फांस लिया, तब उस ने दिनेश को शादी के लिए उकसाया. उस ने शादी की रजामंदी दे दी.

दिनेश ने रेलवे परीक्षा में अंतिम रूप से कामयाबी पा ली. अब वह अपनी मरजी का मालिक हो गया. उस ने सुगंधा से शादी के लिए अपने मातापिता को लिख दिया. लड़का अपने पैरों पर खड़ा हो गया है, इसलिए उन्होंने भी शादी की इजाजत दे दी. सुगंधा ने भी शर्त रखी कि शादी कोर्ट में ही करेगी. दिनेश को कोई एतराज नहीं हुआ.

जब दिनेश ने अपने मातापिता को लिखा कि उस ने कोर्ट में शादी कर ली है, तो उन्हें इस बात का मलाल जरूर हुआ कि घर में शादी हुई होती, तो बात ही कुछ और थी. अब जो होना था हो गया. उन्होंने गृहभोज के मौके पर दोनों को घर बुलाया. पूरा घर सजा था. बहुत से मेहमान, दोस्त, सगेसंबंधी इकट्ठा थे. रमेश भी उस मौके पर अपने दोस्तों के साथ आया था. दुलहन घूंघट में लाई गई.

मुंह दिखाई के समय रमेश और उस के दोस्त उपहार ले कर पहुंचे. रमेश ने जब दुलहन के रूप में सुगंधा को देखा, तो उस के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई. रमेश और उस के दोस्त जिन्होंने सुगंधा के साथ बलात्कार किया था, सब का चेहरा शर्म से झुक गया. इस तरह सुगंधा ने अपना बदला लिया.

प्यार : निखिल अपनी पत्नी से क्यों दूर होने लगा था

कहने को निखिल मुझ से बहुत प्यार करते हैं. सभी कहते हैं कि निखिल जैसा पति संयोग से मिलता है. घर में सभी सुखसुविधाएं हैं. मैं जो चाहती हूं वह मुझे मिल जाता है लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि मैं इनसान हूं. मुझे घर में सजी रखी वस्तुओं से ज्यादा छोटेछोटे खुशी के पलों की जरूरत है.

शादी के इतने साल बाद भी मुझे यह याद नहीं पड़ता कि कभी निखिल ने मेरे पास बैठ कर मेरा हाथ पकड़ कर यह पूछा हो कि मेघा, तुम खुश तो हो या मैं तुम्हें उतना समय नहीं दे पाता जितना मुझे देना चाहिए लेकिन फिर भी मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. निखिल और मुझ में हमेशा एक दूरी ही रही. मैं अपने उस दोस्त को निखिल में कभी नहीं देख पाई जो एक लड़की अपने पति में ढूंढ़ती है. मैं कभी अपने मन की बात निखिल से नहीं कह पाई. मुझे निखिल के रूप में हमसफर तो मिला लेकिन साथी कभी नहीं मिला. इतने अपनों के होते हुए भी आज मैं बिलकुल अकेली हूं. जिस रिश्ते में मैं ने प्यार की उम्मीद की थी, मेरे उसी रिश्ते में इतनी दूरी है कि एक समुद्र भी छोटा पड़ जाए. मैं अपने इस रिश्ते को कभी प्यार का नाम नहीं दे पाई. मेरे लिए वह बस, एक समझौता ही बन कर रह गया जिसे मुझे निभाना था…चाहे घुटघुट कर ही सही. मैं ने धीरेधीरे अपने हालात से समझौता करना सीख लिया था.

 

अपने आसपास से छोटीछोटी खुशियों के पल समेट कर उन्हीं को अपने जीने की वजह बना लिया था. मैं ने इस के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली थी, जहां बच्चों की छोटीछोटी खुशियों में मैं अपनी खुशियां भी ढूंढ़ लेती थी. बच्चों की प्यारी और मासूमियत भरी बातें मुझे जीने का हौसला देती थीं. किसी इनसान के पास अगर उस के अपनों का प्यार होता है तो वह बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना भी आसानी से कर लेता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उस के अपने उस के साथ हैं. लेकिन उसी प्यार की कमी उसे अंदर से तोड़ देती है, बिखरने लगता है सबकुछ…मैं भी टूट कर बिखर रही थी लेकिन मेरे अंदर का टूटना व बिखरना किसी ने नहीं देखा. जिंदगी का यह सफर सीधा चला जा रहा था कि अचानक उस में एक मोड़ आ गया और मेरी जिंदगी ने एक नई राह पर कदम रख दिया. मेरे दिल की सूखी जमीन पर जैसे कचनार के फूल खिलने लगे और उसी के साथ मेरे अरमान भी महकने लगे. स्कूल में एक नए टीचर समीर की नियुक्ति हुई. वह विचारों से जितने सुलझे थे उन का व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था. उन से बात कर के दिल को न केवल बहुत राहत मिलती थी बल्कि वक्त का भी एहसास नहीं रहता था. समीर कहा करते थे कि इनसान जो चाहता है उसे हासिल करने की हिम्मत खुद उस में होनी चाहिए. एक दिन बातों ही बातों में समीर ने पूछ लिया, ‘मेघा, तुम इतनी अलगअलग सी क्यों रहती हो? किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती हो. क्यों तुम ने अपने अंदर की उस लड़की को कैद कर के रखा है, जो जीना चाहती है? क्या तुम्हारा दिल नहीं करता कि उड़ कर उस आसमान को छू लूं…एक बार अपने अंदर की उस लड़की को आजाद कर के देखो, जिंदगी कितनी खूबसूरत है.’ समीर की बातें सुनने के बाद मुझे लगने लगा था कि मेरा भी कुछ अस्तित्व है और मुझे भी अपनी जिंदगी खुशियों के साथ जीने का हक है.

यों घुटघुट कर जीने के लिए मैं ने जन्म नहीं लिया है. इस तरह मुझे मेरे होने का एहसास दिया समीर ने और मुझे लगने लगा था जैसे मुझे वह दोस्त व साथी मिल गया है जिस की मुझे तलाश थी, जिसे मैं ने हमेशा निखिल में ढूंढ़ा लेकिन मुझे कभी नहीं मिला. मैं फिर से सपने देखना चाहती थी लेकिन मन में एक डर था कि यह सही नहीं है. समीर की आंखों में एक कशिश थी जो मुझे मुझ से ही चुराती जा रही थी. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था और मैं कहीं न कहीं अपने को बचाने की कोशिश कर रही थी लेकिन असफल होती जा रही थी. मन कह रहा था कि सभी पिंजरे तोड़ कर खुले आकाश में उड़ जाऊं पर इस दुनिया की रस्मोरिवाज की बेडि़यां, जिन में मैं इस कदर जकड़ी हुई थी कि उन्हें तोड़ने की हिम्मत नहीं थी मुझ में. मेरे अंदर एक द्वंद्व चल रहा था. दिल और दिमाग की लड़ाई में कभी दिल दिमाग पर हावी हो जाता तो कभी दिमाग दिल पर. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. समीर का बातें करतेकरते मेरे हाथ को पकड़ना, मुझे छूने की कोशिश करना, मुझे अच्छा लगता था. उन के कहे हर एक शब्द में मुझे अपनी जिंदगी आसान करने की राह नजर आती थी. मेरा मन करने लगा था कि मैं दुनिया को उन की नजरों से देखूं, उन के कदमों से चल कर अपनी राहें चुन लूं. भुला दूं कि मेरी शादी हो चुकी है. पता नहीं वह सब क्या था जो मेरे अंदर चल रहा था. एक अजीब सी कशमकश थी.

अपने अंदर की इस हलचल को छिपाने की मैं कोशिश करती रहती थी. डरती थी कि कहीं मेरे जज्बात मेरी आंखों में नजर न आ जाएं और कोई कुछ समझे, खासकर समीर को कुछ समझ में आए. समीर जब भी मेरे सामने होते थे तो मन करता था कि उन्हें अपलक देखती रहूं और यों ही जिंदगी तमाम हो जाए. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं और क्या न करूं. दिमाग कहता था कि मुझे समीर से दूरी बना कर रखनी चाहिए और दिल उन की ओर खिंचता ही जा रहा था. दिमाग कहता था कि नौकरी ही छोड़ दूं और दिल मेरे कदमों को खुद ब खुद उस राह पर डाल देता था जो समीर की तरफ जाती थी. बहुत सोचने के बाद मैं ने दिमाग की बात मानने में ही भलाई समझी और फैसला किया कि अपने बढ़ते कदमों को रोक लूंगी. मैं ने समीर से कतराना शुरू कर दिया. अब मैं बस, काम की ही बात करती थी. समीर ने कई बार मुझ से बात करने की कोशिश की लेकिन मैं ने टाल दिया. वह परेशानी जो अब तक मैं ने अपने मन में छिपा रखी थी अब समीर की आंखों में दिखने लगी थी और मैं अपनेआप को यह कह कर समझाने लगी थी कि क्या हुआ अगर समीर मेरे पास नहीं हैं, कम से कम मेरे सामने तो हैं. क्या हुआ अगर हमसफर नहीं बन सकते, मगर वह मेरे साथ हमेशा रहेंगे मेरी यादों में…मेरे जीने के लिए तो इतना ही काफी है. मैं अपने विचारों में खोई समीर से दूर, बहुत दूर जाने के मनसूबे बना रही थी कि अगले दिन समीर स्कूल नहीं आए. मेरी नजरें उन्हें ढूंढ़ रही थीं लेकिन किसी से पूछने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि जब अपने मन में ही चोर हो तो सारी दुनिया ही थानेदार नजर आने लगती है. किसी तरह वह दिन बीता पर घर आने के बाद भी अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी.

अगले दिन भी समीर स्कूल नहीं आए और इसी तरह 4 दिन निकल गए. मेरी बेचैनी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी फिर बहुत हिम्मत कर के सोचा कि फोन ही कर लेती हूं. कुछ तो पता चलेगा. मैं ने फोन किया तो उधर से सीमा ने फोन उठाया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘अरे, सीमा तुम, कब आईं होस्टल से?’’ ‘‘दीदी, मुझे तो आए 2 दिन हो गए,’’ सीमा ने बताया. ‘‘सब ठीक तो है न…समीरजी भी 4 दिन से स्कूल नहीं आ रहे हैं.’’ ‘‘दीदी, इसीलिए तो मैं यहां आई हूं. भैया की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है और मेरी बातों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा. न तो ठीक से कुछ खा रहे हैं और न ही समय पर दवा ले रहे हैं. मैं तो कहकह कर थक गई. आप ही आ कर समझा दीजिए न.’’ मैं सीमा को मना नहीं कर पाई और अगले दिन आने को कह दिया. अगले दिन समीर के घर जा कर घंटी बजाई तो सीमा ने ही दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह बोली, ‘‘अंदर आइए न, मेघाजी, मैं तो आप का ही इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘कैसी हो, सीमा,’’ मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है.’’ ‘‘पढ़ाई तो ठीक चल रही है, मेघाजी,’’ सीमा बोली, ‘‘बस, समीर भैया की चिंता है. हम दोनों का एकदूसरे के सिवा है ही कौन और मैं तो होस्टल में रहती हूं और भैया यहां पर बिलकुल अकेले. जब से मैं घर आई हूं देख रही हूं कि भैया बहुत उदास रहने लगे हैं. आप ही देखो न कितना बुखार है लेकिन ढंग से दवा भी नहीं लेते. आप तो उन की दोस्त हैं, आप ही बात कीजिए, शायद उन की समझ में आ जाए.’’ मैं सीमा के साथ समीर के कमरे में गई तो वह लेटे हुए थे. बहुत कमजोर लग रहे थे. मैं ने माथे पर हाथ रखा तो बुखार अभी भी था. मैं ने सीमा से कुछ खाने के लिए और ठंडा पानी लाने के लिए कहा और समीर को बैठने में मदद करने लगी. सीमा खिचड़ी ले आई.

मैं खिलाने लगी तो समीर बच्चों की तरह न खाने की जिद करने लगे. मैं ने कहा, ‘‘समीरजी, आप अपना नहीं तो कम से कम सीमा का तो खयाल कीजिए… वह कितनी परेशान है.’’ खैर, उन्हें खिचड़ी खिला कर दवा दी और लिटा दिया. मैं माथे पर पानी की पट्टियां रखने लगी. कुछ देर बाद बुखार कम हो गया. समीर सो गए तो मैं ने सीमा से कहा, ‘‘सीमा, मैं जा रही हूं. तुम अपने भैया का ध्यान रखना. अगर हो सका तो मैं कल फिर आने की कोशिश करूंगी.’’ मैं घर आ गई लेकिन दिमाग में एक सवाल घूम रहा था कि क्या समीर की इस हालत की जिम्मेदार मैं हूं? क्या मेरी बेरुखी से वह इतने आहत हो गए कि उन की तबीयत खराब हो गई. मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. ये बातें सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. फोन की घंटी की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. घड़ी में सुबह के 8 बज चुके थे. आज भी स्कूल की छुट्टी हो गई, यह सोचते हुए मैं ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ सीमा थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘समीरजी की तबीयत कैसी है?’’ ‘‘मेघाजी, भैया ठीक हैं. बस, मुझे एक जरूरी काम से अपनी सहेली के साथ बाहर जाना है और भैया अभी इस लायक नहीं हैं कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सके इसलिए आप की मदद की जरूरत है. क्या आप कुछ देर के लिए यहां आ सकती हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ और फोन रख दिया. मैं तैयार हो कर वहां पहुंची तो सीमा और उस की सहेली मेरा ही इंतजार कर रही थीं. वह मुझे थैंक्स कहती हुई चली गई. मैं ने समीर के कमरे में जा कर देखा तो वह सो रहे थे. मैं ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ गई और मेज पर रखी किताब के पन्ने पलटने लगी. थोड़ी देर बाद समीर के कमरे में कुछ आवाज हुई…मैं ने जा कर देखा तो समीर अपने बिस्तर पर नहीं थे. शायद बाथरूम में थे, मैं वहां से आ गई और रसोई में जा कर चाय का पानी चूल्हे पर रख दिया. चाय बना कर जब मैं बाहर आई तो समीर नहा चुके थे. उन की तबीयत पहले से ठीक लग रही थी लेकिन कमजोरी बहुत थी. मुझे देख कर वह चौंक गए. शायद उन्हें पता नहीं था कि मैं वहां पर हूं. ‘‘मेघाजी…आप, सीमा कहां है?’’ ‘‘उसे किसी जरूरी काम से जाना था, आप की तबीयत ठीक नहीं थी. अकेला छोड़ कर कैसे जाती इसलिए मुझे बुला लिया. आप चाय पीजिए, वह आ जाएगी.’’ ‘‘सीमा भी पागल है. अगर उसे जाना था तो चली जाती…आप को क्यों परेशान किया,’’ समीर बोले. मैं ने समीर की तरफ देखा और चुपचाप चाय का प्याला उन्हें थमा दिया.

हम खामोशी से चाय पीने लगे. कुछ भी कहने की हिम्मत न तो मुझ में थी और न शायद उन में. चाय पी कर मैं बर्तन रसोई में रखने के लिए उठी तो समीर ने मेरा हाथ पकड़ लिया. एक सिहरन सी दौड़ गई मेरे पूरे शरीर में. टे्र हाथ से छूट जाती अगर मैं उसे मेज पर न रख देती. मैं ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो उन्होंने और कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे लिए यह सबकुछ क्यों किया?’’ समीर के मुंह से अपने लिए पहली बार मेघाजी की जगह मेघा और आप की जगह तुम का उच्चारण सुन कर मैं चौंक गई. इस तरह से मुझे पुकारने का अधिकार उन्होंने कब ले लिया. मैं कुछ बोल ही नहीं पा रही थी कि उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. तुम ने मेरे लिए यह सब क्यों किया?’’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने अपना हाथ छुड़ाया और कहा, ‘‘एक दोस्त होने के नाते मैं इतना तो आप के लिए कर ही सकती थी, इतना भी अधिकार नहीं है मेरा?’’ ‘‘पहले तुम यह बताओ कि क्या हमारे बीच अभी भी सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है? मेघा, तुम्हारा अधिकार क्या है और कितना है इस का फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ समीर बोले. मैं ने अपनी नजरें उठाईं तो समीर मुझे ही देख रहे थे. कितना दर्द, कितना अपनापन था उन की आंखों में. दिल चाह रहा था कि कह दूं…समीर, मैं आप से बेइंतहा प्यार करती हूं…नहीं जी सकती मैं आप के बिना. अपने सभी जज्बात, सभी एहसास उन के सामने रख दूं…उन की बांहों में समा जाऊं और सबकुछ भुला दूं लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे. बिना कुछ कहे ही हम एकदूसरे के जज्बात और हालात समझ रहे थे. मुझे भी यह एहसास हो चुका था कि समीर भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं जितना मैं उन्हें करती हूं. वह भी अपने प्यार की मौन सहमति मेरी आंखों में पढ़ चुके थे और शायद उस अस्वीकृति को भी पढ़ लिया था उन्होंने. कुछ नहीं बोल पाए…हम बस, यों ही जाने कितनी देर बैठे रहे. फिर अचानक समीर ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और मेरे माथे को चूम लिया. अब मैं खुद को रोक नहीं पाई और उन की बांहों में समा गई. कितनी देर हम रोते रहे मुझे नहीं पता. दिल चाह रहा था कि यह पल यहीं रुक जाए और हम यों ही बैठे रहें. फिर समीर ने कहा, ‘‘मेघा, तुम जहां भी रहो खुश रहना और एक बात याद रखना कि मुझे तुम्हारी आंखों में आंसू और उदासी अच्छी नहीं लगती.

मैं चाहे तुम्हारे पास न रहूं, लेकिन तुम्हारे साथ हमेशा रहूंगा. बहुत देर हो गई है, अब तुम जाओ.’’ मैं ने अपना बैग उठाया और वहां से अपने घर आने के लिए निकल पड़ी. इसी प्यार ने एक बार फिर मुझे नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं समीर से कभी नहीं मिलूंगी. आज तो उस तूफान को हम पार कर गए, खुद को संभाल लिया, लेकिन दोबारा मैं ऐसा शायद न कर पाऊं और मैं नहीं चाहती थी कि समीर के आगे कमजोर पड़ जाऊं. मैं अपने प्यार को अपना तो नहीं सकती थी लेकिन उसी प्यार को अपनी शक्ति बना कर अपने फर्ज के रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी थी

मैं ने अगले दिन स्कूल में अपना इस्तीफा भेज दिया. मैं ने एक बार फिर प्यार और समझौते में से समझौते को चुन लिया. मेरे अंदर जो प्यार समीर ने जगाया वह एहसास, उन की कही हर एक बात, उन के साथ बिताए हर एक पल मेरी जिंदगी का वह अनमोल खजाना है, जो न तो कभी कोई देख सकता है और न ही मुझ से छीन सकता है. कितना अजीब सा एहसास है न यह प्यार, कब किस से क्या करवाएगा, कोई नहीं जानता. यह एहसास किसी के लिए जान देने पर मजबूर करता है तो किसी की जान लेने पर भी मजबूर कर सकता है. अब आप ही बताइए कि आप प्यार को किस तरह से परिभाषित करेंगे, क्योंकि मेरे लिए तो यह एक ऐसी पहेली है जो कम से कम मैं तो नहीं सुलझा पाई. मैं नहीं जानती कि मैं ने इतना प्यार करते हुए भी समीर को क्यों नहीं अपनाया और अपनी शादी के समझौते.

जलन: क्यों प्रिया के मां बनने की खुशी कोई बांटना नही चाहता था

प्रिया बहुत खुश थी. उस ने कंफर्म कर लिया था कि वह मां बनने वाली है. इस खुशी के समाचार को अपने पति और घरवालों के साथ शेयर करने के बाद सब से पहले उस ने अपनी पक्की सहेली नेहा को फोन लगाया. नेहा और प्रिया बचपन से अपनी सारी खुशियां एकदूसरे से बांटती आई थीं. आज भी नेहा से बात कर वह इस खुशी को शेयर करना चाहती थी.

प्रिया ने फोन कर के नेहा को बताया, “यार नेहा, तू मौसी बनने वाली है.”

“मौसी?” अनजान बनते हुए नेहा ने पूछा.

“हां मौसी. अरे पगली, मैं मां बनने वाली हूं,” प्रिया ने उत्साहित स्वर में कहा.

मगर अपेक्षा के विपरीत नेहा ने बहुत ठंडा रिस्पौंस दिया, “ओ रियली, ग्रेट यार. मगर तेरी शादी को तो अभी चारपांच महीने भी नहीं हुए और तू …? ”

“हां यार, शायद फर्स्ट अटैम्प्ट में ही…,” कहते हुए वह शरमा गई.

“अच्छा है, तुझे मेरी तरह इंतजार नहीं करना पड़ेगा. मैं तो पिछले 4 साल से इंतजार में थी कि कब तुझे यह खुशखबरी सुनाऊं पर तू ने बाजी मार ली. वेरी गुड यार. अच्छा सुन, मैं बाद में फोन करती हूं तुझे. अभी जाना पड़ेगा. सासुमां बुला रही है,” बहाना बना कर नेहा ने फोन काट दिया.

नेहा के व्यवहार से प्रिया थोड़ी अचंभित हुई. फिर अपने मन को समझाया कि वाकई कोई जरूरी काम आ गया होगा, बाद में बात कर लेगी.

सहेली के बाद प्रिया ने अपनी बड़ी बहन को फोन लगाया. अपनी बहन के साथ भी प्रिया बहुत अटैच्ड थी. मगर बहन ने भी बहुत ठंडा रिस्पौंस दिया. उलटा, वह तो उसे डांटने ही लगी, “इतनी जल्दी करने की क्या जरूरत थी? अभी शादी को दिन ही कितने हुए हैं? थोड़ी जिंदगी जी कर तो देखती, घूमतीफिरती, ससुराल में ठीक से एडजस्ट हो जाती, वहां के तौरतरीके सीखती, तब जा कर बेबी प्लान करना था. मुझे देख, 3 साल हो गए, फिर भी बेबी नहीं किया. थोड़ी प्लानिंग से चलना पड़ता है और एक तू है कि अकल ही नहीं तुझे.”

“पर दीदी, बेबी तो जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है न. और फिर, जहां तक बात ससुराल में एडजस्ट करने की है, तो वह तो ऐसे भी प्रैग्नैंसी के इन महीनों में सब सीख ही जाऊंगी. वैसे भी सासुमां बहुत प्यार करती हैं. मुझे जो भी समझ नहीं आता, उन से पूछ लेती हूं.”

“मैं तो तेरे भले के लिए ही समझा रही थी पर बात तुझे समझ आती नहीं. अच्छा चल, मैं रखती हूं फोन. अब अपना ज्यादा ख़याल रखना होगा तुझे. अभी खुद को संभालना तो आया नहीं था, अब बच्चे की जिम्मेदारी और सिर पर ले ली,” कह कर बहन ने फोन काट दिया.

न कोई बधाई, न शुभकामना. बस, उलाहने मारना. बहन का यह रवैया महसूस कर वह बहुत देर तक गुमसुम बैठी रही. इस बातचीत के बाद तो उसे ऐसा लगने लगा था जैसे उस ने वाकई कोई गलती कर दी हो.

तब तक दूध का गिलास लिए सास कमरे में दाखिल हुईं और प्यार से बोलीं, “चल बहू, दूध पी ले. हमारा वारिस आने वाला है. उस का खयाल रख,” कह कर मुसकराती हुई वे चली गईं.

कुछ देर तक प्रिया दूध के गिलास की तरफ एकटक देखती रही. उस के दिमाग में बहन की बातें घूम रही थीं. तभी भाभी का फोन आ गया.

“बधाई हो प्रिया, मम्मीजी का फोन आया था. वे कह रही थीं कि तुम मां बनने वाली हो.”

“जी दीदी.”

“चल अच्छा है. मैं अब तक यह खुशी नहीं दे सकी. अब तू ही दे ले,” उदास स्वर में भाभी ने कहा.

प्रिया जल्दी से बोली, “दीदी, उदास क्यों होती हो? आप का ही बच्चा है यह भी.”

“अरे नहीं प्रिया, अपना तो अपना ही होता है. और फिर, मैं बड़ी बहू हूं. शादी के 4 साल होने वाले हैं. सब इस खुशी की बाट जोहते रह गए. पर मैं उन की यह इच्छा पूरी नहीं कर सकी. बच्चे के लिए कहांकहां नहीं गई. मंदिरों में जा कर मत्था टेका, बाबाओं के चरण पकड़े, मगर नतीजा कुछ भी नहीं निकला.”

भाभी की आवाज से ऐसा लग रहा था जैसे वे अभी रो देंगी. प्रिया कुछ कह नहीं पा रही थी. उस की खुशी किसी के दुख का कारण बन गई थी.

वह भाभी को सांत्वना देने लगी, “भाभी, आप दिल छोटा न करो. अभी समय ही कितना हुआ है? 4 साल कोई लंबा वक्त नहीं होता. आप बहुत जल्द मां बनोगी.”

” यह सब मन बहलाने की बातें होती हैं प्रिया. अच्छा चल, मैं फोन रखती हूं.”

प्रिया फोन की तरफ देखती हुई कुछ देर तक सोचती रही. उस के चेहरे पर खुशी के बजाय उदासी की रेखाएं घनीभूत हो गईं.

प्रिया की प्रैग्नैंसी का 8वां महीना चढ़ चुका था. इतने दिनों में भाभी, बहन या सहेली ने उसे बहुत कम फोन किया. कोई मिलने भी नहीं आई. कोविड का बहाना बना दिया. प्रिया फोन करती, तो तीनों का रिऐक्शन अलग होता. बहन उलाहने के रूप में बातें सुना देती. सहेली काम का बहाना बना कर जल्दी से फोन काट देती और भाभी अपना ही रोना ले कर बैठ जातीं. न तो किसी ने उस से मां बनने के पहलेपहले एहसास के बारे में पूछा और न ही उसे क्या खाना चाहिए या क्या करना चाहिए, इस पर ढंग से डिस्कशन किया या टिप्स दिए.

वह बहन या सहेली से कोई सवाल पूछती, तो वे सपाट सा जवाब दे देती, “मुझे क्या पता, मैं ने कौन से कई बच्चे पैदा कर लिए. डाक्टर से पूछ ले.”

प्रिया की इच्छा होती कि वह बच्चे के सुनहरे, प्यारे सपने उन के साथ शेयर करे. पर कुछ सोच कर ठहर जाती. प्रैग्नैंट होने की उस की खुशियां भी आधीअधूरी सी रह गई थीं.

उस दिन सुबहसुबह वह बालकनी पर खड़ी थी कि तभी उस के घर के आगे एक कैब आ कर रुकी. कैब में से मां को निकलता देख वह ख़ुशी से चीख पड़ी. मां के गले लग कर देर तक रोती रही.

मां ने उसे चुप कराते हुए पूछा, “इतने खुशी के पलों में रो क्यों रही है पगली?”

प्रिया कुछ कह नहीं सकी. उस के अंदर जो तकलीफ थी उसे कैसे बयां करती.

अगले 20- 25 दिन मां का साथ पा कर वह काफी खुश रही और फिर वह दिन भी आ गया जब डिलीवरी की मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद नर्स ने उस की बांहों में उस का अंश थमाया. उस पल वह अपना सारा दर्द भूल गई थी. उस के हाथों में नन्हामुन्ना राजकुमार खिलखिला रहा था, किलकारियां मार रहा था. बेटे को गोद में उठाए जब उस ने अपने घर में प्रवेश किया तो उसे लगा जैसे सारा जहां उस की बांहों में सिमट आया हो.

बच्चे को देखने के लिए सब से पहले उस की बहन आई. मां के आगे बहन ने पहले की तरह कोई कड़वे वचन नहीं कहे. बस, देर तक बेबी को हाथों में लिए देखती रही. फिर मुसकरा कर बोली, “बिलकुल मुझ पर गया है.”

उस की बात सुन कर घर में सब हंसने लगे. प्रिया को भी यह बात बहुत प्यारी लगी. बहन ज्यादा देर तक रुकी नहीं. सुबह आई और शाम को निकल गई. करीब 10 दिन बच्चे और प्रिया की देखभाल कर मां भी अपने घर चली गई. इस बीच प्रिया की भाभी भी आ कर बच्चे को आशीर्वाद दे गई.

मां के जाने के बाद सासुमां उस का और बच्चे का पूरा खयाल रखने लगी. प्रैग्नैंसी और डिलीवरी के बाद वह काफी कमजोरी महसूस कर रही थी. उसे इस बात का भी दुख था कि उस की प्यारी सहेली बच्चे को देखने नहीं आई थी. उस ने तबीयत सही न होने का बहाना बना दिया था. वीडियो कौल पर ही उस ने बेबी को देख लिया था.

प्रिया का अकसर दिल करता कि बच्चे की प्यारीप्यारी हरकतों को अपनी सहेली या बहन से शेयर करे. उस के मन में ढेर सारी बातें थीं जिन्हें वह उन से डिस्कस करना चाहती थी. मगर उन की उदासीनता महसूस कर वह खामोश रह जाती. एक दिन हालचाल जानने के लिए प्रिया ने सहेली को फोन किया. थोड़ी देर दोनों के बीच नौर्मल बातचीत होती रही.

फिर जैसे ही उस ने बच्चे की बातें बतानी शुरू कीं, नेहा ने तुरंत बहाना बनाया, “यार, बहुत सिरदर्द हो रहा है मुझे. बाद में करती हूं तुझ से बात.”

इस एक छोटे से वाक्य ने प्रिया के दिल की उमंग और खुशियों पर फिर से पानी उड़ेल दिया. वह सोचने लगी कि यदि नेहा को अब तक बेबी नहीं हुआ तो भला इस में उस की क्या गलती है? वह क्यों अपनी खुशियों को एंजौय नहीं कर पा रही है? सच कहते हैं कि खुशियां तभी बढ़ती हैं जब उन्हें बांटा जाए, पर वह क्या करे जब कोई उस की खुशियों को बांटना ही नहीं चाहता. बहन भी तो अकसर ऐसे ही उस का दिल तोड़ देती है.

अभी 2 दिन पहले की बात थी. उस दिन प्रिया ने फोन कर के अपनी बहन को बताया था, “दीदी, पता है, आज मुझे मुन्ने ने पहली दफा मां कह कर पुकारा. बहुत खुश हूं मैं.”

“मां शब्द का मतलब समझती हो? मां सुन कर खुश होने के साथसाथ आने वाली जिम्मेदारियों के लिए भी तैयार होना पड़ता है. एक मां को बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ते हैं, तब जा कर बच्चा बड़ा होता है. चल रखती हूं फोन.”

बहन का रिऐक्शन देख कर उस का सारा जोश ठंडा पड़ गया था. प्रिया की बहन वैसे तो पहले भी उस पर रोब झाड़ती थी मगर कभीकभी और साथ में बहनों के बीच मीठी चुहलबाजियां भी होती थीं. मगर जब से बच्चा हुआ था, प्रिया को लगने लगा था कि बहन उस से हमेशा तेवर में ही बात करती है. ऐसा जताती है जैसे उस ने बहुत बड़ी गलती कर दी हो. प्रिया समझती है कि साइकोलौजिकली बहन के दिल में बच्चा न होने की वजह से तकलीफ है और इसी तकलीफ को वह इस तरह प्रकट करती रहती है. मगर बहन इस बात को नहीं समझती थी कि ऐसे व्यवहार से प्रिया पर क्या गुजरती होगी.

धीरेधीरे बच्चा एक साल का हो गया. प्रिया के मन की कसक नहीं गई. उस की सब से प्यारी सहेली, सगी बहन और भाभी, तीनों ने एक बार मिलने आ कर, फिर न अपनी तरफ से कौल किया और न ही दोबारा मिलने आई थीं. आने की बात कहने पर बड़ी सहजता से तीनों कोविड-19 मुद्दा बना देतीं जबकि ऐसा नहीं था कि वे दूसरों के घर जाती नहीं थीं.

जब प्रिया का मन नहीं लगता था तो वह फोन लगा लेती थी. मगर उन का रिस्पौंस इतना ठंडा होता कि वह अंदर से टूट जाती. धीरेधीरे प्रिया ने भी उन्हें फोन करना छोड़ दिया.

कई दफा उसे ऐसा महसूस होता जैसे अपनों को ही उस की खुशी से जलन हो गई हो और वह इस जलन का उपचार भी नहीं जानती थी. न चाहते हुए भी इस का असर प्रिया के मन पर पड़ता जा रहा था और वह अकसर दुखी रहने लगी थी. पति और सास सवाल करते, तो वह सहज होने का नाटक करती और मुसकरा कर कहती कि ऐसी कोई बात नहीं. वह तो बहुत खुश है. वह ऊपर से मुसकरा रही होती मगर उस के दिल के अंदर गम का सागर लहरा रहा होता. अंदर ही अंदर यह गम उसे तकलीफ दे रहा था.

फिर एक दिन सुबहसुबह उस की बड़ी बहन की कौल आई. वह बहुत खुश थी, चहकती हुई बोली, “जानती है प्रिया, तू भी मौसी बनने वाली है. आज मुझे लग रहा है जैसे मैं आसमान में उड़ रही हूं. यह एहसास कितना खूबसूरत है, मैं बता नहीं सकती.”

“दीदी, मैं बहुत खुश हूं आप के लिए. कौंग्रैट्स,” प्रिया ने खुश हो कर कहा.

इस के बाद तो सुबहशाम हर रोज बहन का फोन आता. वह उस से अपनी खुशियां शेयर करती. धीरेधीरे प्रिया, जिसे अपनी खुशियां खुद तक सीमित रखना पड़ा था, भी खुलने लगी. उसे भी बहन के रूप में एक साथी मिल गया जिस से वह अपनी खुशियां शेयर कर सकती थी. दोनों एकदूसरे से बच्चे की बातें करतीं, भविष्य के सुनहरे सपने संजोतीं. प्रिया समझ गई थी कि वाकई खुशियां बांटने से बढ़ती हैं, मगर बांटने का मौका तब मिलता है जब सामने वाला भी उसी मैंटल स्टेटस में हो.

चलो एक बार फिर से : अमित का नेहा के लिए प्यार

‘कुछ तो था हमारे दरमियां… आज भी तुम्हें देख कर दिल की बस्ती में हलचल हो गई है…’

नेहा को देखते ही यह शायरी अमित के होठों पर खुद ब खुद आ गई थी. वही खुले लंबे बाल, बड़ीबड़ी झील सी गहरी आंखें, माथे पर लंबी सी बिंदिया और आंखों में कितने ही सवाल…अपनी साड़ी का पल्लू संभालती हुई नेहा मुड़ी तभी दोनों की नजरें टकरा गई थीं.

अमित एकटक उसे ही निहारता रह गया. नेहा की आंखों ने भी पल भर में उसे पहचान लिया था. अमित कुछ कहना चाहता था मगर नेहा ने खुद को संभाला और निगाहें फेर लीं.

अमित को लगा जैसे एक पल में मिली हुई खुशी अगले ही पल छिन गई हो. नेहा ने चोर नजरों से फिर उसे देखा. अमित अबतक उसी की तरफ देख रहा था.

“हैलो नेहा” अमित से रहा नहीं गया और वह उस के पास पहुंच गया.

“हैलो कैसे हो ?” धीमे स्वर में नेहा ने पूछा.

“जैसा छोड़ कर गई थीं.” अमित ने जवाब दिया तो नेहा ने एक भरपूर निगाह उस पर डाली और हौले से मुस्कुराती हुई बोली, “ऐसा तो नहीं लगता. थोड़े तंदुरुस्त हो गए हो.”

“अच्छा” अमित हंस पड़ा.

दोनों करीब 4 साल बाद एकदूसरे से मिले थे. 4 साल पहले ऐसे ही स्टेशन पर नेहा को गाड़ी में बिठा कर अमित ने विदा किया था. नेहा उस की जिंदगी से दूर जा रही थी. अमित उसे रोकना चाहता था मगर दोनों का ईगो आड़े आ गया था. वह गई तो मायके थी पर दोनों को ही पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही है. लौट कर नहीं आएगी और फिर 2 महीने के अंदर ही तलाक के कागजात अमित के पास पहुंच गए. एक लंबी अदालती कार्यवाही के बाद दोनों की जिंदगी के रास्ते अलग हो गए.

“चाय पीओगी या कॉफी ?” पुरानी यादों का साया परे करते हुए अमित ने पूछा था.

“हां कॉफी पी लूंगी. तुम तो चाय पियोगे न. बट आई विल प्रेफर कॉफी.”

“ऑफकोर्स. अभी लाता हूं.”

नेहा अमित को जाता हुआ पीछे से देर तक देखती रही. तलाक के बाद उस ने शादी कर ली थी पर अमित अब तक अकेला था. वह नेहा को अपने दिलोदिमाग से निकाल नहीं सका था. शायद यही हालत नेहा की भी थी. मगर शादी के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और वैसा ही नेहा के साथ भी हुआ था.

“और बताओ कैसी हो? सब कैसा चल रहा है? ”

अमित चाय और कॉफी ले आया था. नेहा के पास बैठते हुए उस ने पूछा तो एक लंबी सांस ले कर नेहा बोली,” सब ठीक ही चल रहा है. बस आजकल अपनी तबीयत को ले कर थोड़ी परेशान रहती हूं.”

“क्यों क्या हुआ तुम्हें?” चिंतित स्वर में अमित ने पूछा.

“कुछ नहीं बस अस्थमा से थोड़ी प्रॉब्लम हो रही है. सांस की तकलीफ रहती है.”

“आजकल तो वैसे भी कोरोना फैल रहा है. तुम्हें तो फिर अपना खास ख्याल रखना चाहिए.”

“हां वह तो रखती हूं. बस 2 दिन का देहरादून में काम है और फिर वापस नागपुर लौटना है. सुजय अभी नागपुर में ही शिफ्टेड है न.”

“अच्छा. मैं भी दिल्ली काम से आया था. मुझे भी वापस कोटा जाना है.*

“मेरी ट्रेन सुबह 6.40 की है. अमित जरा तुम देखो न, ट्रेन कब आएगी? स्टेशन मास्टर से पूछ कर बताओ न जरा. ट्रेन टाइम पर है या लेट है?”

“हां अभी पूछता हूं.” कह कर अमित चला गया.

पूछताछ करने पर पता चला कि लॉकडाउन हो गया है और इस वजह से ट्रेनें रद्द हो गई हैं. नेहा घबरा गई.
“अब क्या होगा ट्रेन कब चलेगी?”

“देखो नेहा. अभी तो यही पता चल रहा है कि 31 मार्च तक ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं. सब कुछ बंद है. लौकडाउन में ट्रेनों के परिचालन पर पाबंदी लग गई है.”

“अरे अब मैं कहां जाऊंगी? ऐसा कैसे हो गया? होटल खुले हैं या नहीं?”

नेहा घबरा गई थी. उसे शांत कराते हुए अमित बोला,” नेहा परेशान मत हो. मेरे कजिन ब्रदर का घर है यहां. वह आजकल मुंबई में जॉब कर रहा है. इसलिए घर की चाबी मुझे दी हुई है. मुझे अक्सर यहां आना पड़ता है तो मैं उसी घर में ठहर जाता हूं. डोंट वरी. तुम भी मेरे साथ चलो. अभी तुम्हें वहीं ठहरा देता हूं. इतना तो विश्वास कर ही सकती हो मुझ पर. ”

“ओके डन. चलो.” नेहा अमित के साथ चल दी.

अमित उसे ले कर कजिन के घर पहुंचा. एक बेडरूम के इस घर में बाहर बड़ी सी बालकनी और झूला भी था. अच्छाखासा लौन था. गलियारे में सुंदर पेड़पौधे भी लगे हुए थे. घर छोटा मगर काफी खूबसूरत था.

अमित के घर पहुंच कर नेहा ने सारी बातें अपने वर्तमान पति यानि सुजय को बता दीं. परेशानी के वक्त पुराने पति की मदद लेने और उस के घर पर ठहरने के फैसले को सुजय ने पॉजिटिव वे में लिया और उस के सुरक्षित होने की खबर पर खुशी जाहिर की.

“गुड. थैंक्स अमित.” नेहा ने घर का मुआयना करते हुए कहा

” चलो तुम फ्रेश हो जाओ. मैं खाना बनाता हूं. तुम मेरी गेस्ट हो ना.”

“अच्छा तो अब तुम बनाओगे खाना? जब हम साथ थे तब तो कभी किचन में झांकते भी नहीं थे.”

“वक्त और परिस्थितियां बहुत कुछ सिखा देती हैं नेहा मैडम. आप हमारे हाथ का खाना खा कर देखना. उंगलियां चाटती रह जाओगी.”

“क्या बात है. बातें बनाना तो तुम्हें खूब आता है.” न चाहते हुए भी नेहा की जुबान पर पुरानी यादों की तल्खी आ ही गई थी.

तुरंत बात सुधारती हुई बोली,” वैसे अमित काफी अच्छे बदलाव नजर आ रहे हैं तुम में.”

“थैंक्यू” अमित मुस्कुरा कर काम में लग गया. वाकई उस ने बहुत स्वादिष्ट खाना बनाया था.

नेहा ने स्वाद से खाना खाया. थोड़ी देर बातचीत करते हुए पुरानी यादें ताजा करने के बाद सोने की बारी आई. बेडरूम एक ही था. अमित ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा,” नेहा तुम आराम से सो जाओ यहां.”

“तुम कहां सोओगे?”

“मेरा क्या है? मैं बैठक में सोफे पर एडजस्ट हो जाऊंगा.”

“ओके”

नेहा आराम से बैड पर लुढ़क गई. बहुत नींद आ रही थी उसे. थकी हुई भी थी फिर भी रात भर करवटें बदलती रही. मन के आंगन में पुरानी यादें, कुछ कड़वी और कुछ मीठी, घेरा डाले जो बैठी थीं. अमित का भी यही हाल था. सुबह 8 बजे नेहा की नींद टूटी. बाहर आई तो देखा कि अमित नहाधो कर नाश्ता बना रहा है.

“क्या बात है. आई एम इंप्रैस्ड. पूरी गृहिणी बन गए हो.”

“घरवाली छोड़ कर चली जाए तो यही हाल होता है मैडम जी.”

अमित ने माहौल को हल्का बनाते हुए कहा. नेहा लौन में टहलने लगी तभी अमित चाय ले कर आ गया. नेहा ने चाय पीते हुए कहा,” अमित मुझे अजीब लग रहा है. सारे काम तुम कर रहे हो. देखो कहे देती हूं. दोपहर का खाना मैं बनाऊंगी और रात का भी. तुम केवल बर्तन साफ कर देना.”

“जैसी आप की आज्ञा मोहतरमा.” हंसते हुए अमित बोला.

इस तरह दोनों मिल कर लौकडाउन के इस समय में एकदूसरे की सहायता करते हुए वक्त बिताने लगते हैं. अमित जितना संभव होता सारे काम खुद करता. उसे नेहा की तबीयत को ले कर चिंता रहती थी. झाड़ू पौंछा या सफाई का काम नेहा को छूने भी नहीं देता.

एक दिन सुबहसुबह नेहा की तबीयत ज्यादा ही खराब हो गई. नेहा ने बताया कि उस का इनहेलर नहीं मिल रहा है. अमित उसी वक्त बाजार भागा. बड़ी मशक्कत के बाद उसे एक मेडिकल शॉप खुली मिली. वहीं से इनहेलर और जरूरी दवाइयां खरीद कर भागाभागा घर लौटा. इस समय एकएक पल महत्वपूर्ण था. नेहा की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. मगर समय पर इनहेलर मिल जाने से वह बेहतर महसूस करने लगी.

तब तक अमित ने जल्दी से एक बाउल में पानी गर्म किया और उस में लैवेंडर ऑयल की 5-6 बूंदें डालीं. इसे वह नेहा के पास ले आया और 5 -10 मिनट तक स्टीम लेने को कहा. इस से नेहा को काफी आराम मिला.

अब अमित ने एक गिलास गर्म पानी में शहद मिला कर उसे धीरेधीरे पीने को कहा. कुल मिला कर नेहा की तबीयत में काफी सुधार आ गया. अमित ने प्यार से नेहा का माथा सहलाते हुए कहा,” आज के बाद तुम्हें रोज शहद या हल्दी डाल कर गर्म पानी पीना है. इस से तुम्हें आराम मिलेगा.”

उस दिन नेहा को महसूस हुआ कि अमित वाकई उस से प्यार करता है और अलग हो कर भी वह दिल से उस से जुड़ा हुआ है. यह बात उस ने शिद्दत से महसूस की.

वह अमित के पास आ कर बैठ गई और उस के हाथों को थामते हुए बोली,” मैं अपना अतीत पूरी तरह भूल जाना चाहती हूं. आज से मैं केवल तुम्हारे साथ बिताए हुए ये खूबसूरत और प्यारे लम्हे याद रखूंगी. रियली आई मीन इट.”

“नेहा कौन कहता है कि एक्स हसबैंडवाइफ दोस्त नहीं हो सकते. अब तुम तो जिंदगी में आगे बढ़ चुकी हो. हमारा पुराना रिश्ता तो अब जुड़ नहीं सकता. फिर भी दोस्ती का एक नया रिश्ता तो हम बना ही सकते हैं न.”

उस दिन पहली बार दोनों गले लग कर खुशी के आंसू रोए थे.

अगले दिन सुबह नेहा एक फूल ले कर अमित के पास पहुंची.

“यह क्या है?” वह अचकचाया.

“फूल है गुलाब का.”

” वह तो है मगर इस नाचीज पर आज इतनी मेहरबान क्यों?”

“क्यों कि आज ही हम पहली दफा मिले थे. ईडियट भूल गए तुम?” शरारत से देखते हुए नेहा बोली.

“ओह याद आया. रियली मैं सरप्राइज्ड हूं. तुम्हें आज का दिन याद रह गया?”

“हां चलो, आज का दिन कुछ खास मनाते हैं.”

“फाइन ”

फिर दोनों ने मिल कर घर में एक शानदार डेट ऑर्गेनाइज की. घर को फूलों से सजाया. बरामदे में टेबल और कुर्सी लगा कर दोनों ने लंच किया. एकदूसरे की पसंद के कपड़े पहने. लंच में एकदूसरे की पसंद की चीजें ही ऑर्डर कीं गई. एक आर्डर करता और दूसरा किचन से सामान ले कर आता. दोनों ने पहली मुलाकात याद करते हुए एकदूसरे के लिए गाने गाए. शायरियां सुनाईं. गिफ्ट का आदानप्रदान किया. मजेदार बातें कीं और फिर एक खुशनुमा शाम का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

यह सब दोनों ने इतने मजे लेते हुए और फ्रेंडली अप्रोच के साथ किया कि उन के लिए यह डेट यादगार बन गई.

रात में नेहा ने अमित को अपने पास ही सो जाने का न्योता दिया और बोली,” आज मैं एक खूबसूरत भूल करना चाहती हूं . बस केवल आज के लिए अपने हस्बैंड को चीट करूंगी अपने दोस्त की खातिर.”

“तुम तो बड़ी पाप पुण्य की बातें करती थीं कि विवाह के बाद परपुरुष को देखने पर भी नर्क मिलता है या सती सावित्री ही आदर्श होती है वगैरह-वगैरह.” अमित बोला.

नेहा मुंह बिचकाकर बोली, “वे सब पाखंड तो मैं अपनी मौसी से सीख कर आई थी. पता  है उन्होंने मां को ही चूना लगा डाला था. उनका पैसा एक ऐसी जमीन में लगवा दिया था जो थी ही नहीं और सिर्फ कागज थे. बचपन से हम समझते थे कि वे सुबह तीन घंटे पूजा करतीं हैं तो सही ही होंगीं. उन्होंने मां का वह कागजी हिस्सा भी बेच कर पैसे बेटे बहू को दे दिए. मां बहुत रोई थीं. तब से मैंने फैसला कर लिया कि इस झूठ फरेब में नहीं पड़ूंगी और अपनी शर्तों पर अपनी समझ से जिऊंगी.”

“काश तुम्हें यह समझ पहले होती” कहता हुआ अमित कपड़े फेंकते हुए नेहा के साथ बिस्तर पर लेट गया.

दोनों की जिंदगी में लौकडाउन का वह पूरा दिन उम्र भर के लिए यादगार बन गया था. पुरानी गलतफहमियां और कड़वाहट दूर हो गई थीं. एकदूसरे के ऊपर अधिकार न होते हुए भी वे एकदूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. एक अलग सा कंफर्ट लेवल था जिस ने तकलीफ के उन दिनों को भी नए रंग में रंग दिया था.

जातपांत : निर्मला से क्यों नाराज था उसका परिवार

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई.

निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो.

इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं.

तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं.

मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

अपारदर्शी सच: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

रात के 11 बज चुके थे. तनुजा की आंखें नींद और इंतजार से बोझिल हो रही थीं. बच्चे सो चुके थे. मम्मीजी और मनीष लिविंगरूम में बैठे टीवी देख रहे थे. तनुजा का मन हो रहा था कि मनीष को आवाज दे कर बुला ले, लेकिन मम्मी की उपस्थिति के लिहाज के चलते उसे ठीक नहीं लगा. पानी पीने के लिए किचन में जाते हुए उस ने मनीष को देखा पर उन का ध्यान नहीं गया. पानी पी कर भी अतृप्त सी वह वापस कमरे में आ गई.

बिस्तर पर बैठ कर उस ने एक नजर कमरे पर डाली. उस ने और मनीष ने एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल रख कर इस कमरे को सजाया था.

हलके नीले रंग की दीवारों में से एक पर खूबसूरत पहाड़ी, नदी से गिरते झरने और पेड़ों की पृष्ठभूमि से सजी पूरी दीवार के आकार का वालपेपर. खिड़कियों पर दीवारों से तालमेल बिठाते नैट के परदे, फर्श से छत तक की अलमारियां, तरहतरह के सौंदर्य प्रसाधनों से भरी अंडाकार कांच की ड्रैसिंगटेबल, बिस्तर पर साटन की रौयल ब्लू चादर और टेबल पर सजा महकते रजनीगंधा के फूलों का गुलदस्ता. उसे लगा, सभी मनीष का इंतजार कर रहे हैं.

तनुजा की आंख खुली, तब दिन चढ़ आया था. उस का इंतजार अभी भी बदन में कसमसा रहा था. मनीष दोनों हाथ बांधे बगल में खर्राटे ले कर सो रहे थे. उस का मन हुआ, उन दोनों बांहों को खुद ही खोल कर उन में समा जाए और कसमसाते इंतजार को मंजिल तक पहुंचा दे. लेकिन घड़ी ने इस की इजाजत नहीं दी. फुरफुराते एहसासों को जूड़े में लपेटते वह बाथरूम चली गई.

बेटे ऋषि व बेटी अनु की तैयारी करते, सब का नाश्ताटिफिन तैयार करते, भागतेदौड़ते खुद की औफिस की तैयारी करते हुए भी रहरह कर एहसास कसमसाते रहे. उस ने आंखें बंद कर जज्बातों को जज्ब करने की कोशिश की, तभी सासुमां किचन में आ गईं. वह सकपका गई. उस ने झटके से आंखें खोल लीं और खुद को व्यस्त दिखाने के लिए पास पड़ा चाकू उठा लिया पर सब्जी तो कट चुकी थी, फिर उस ने करछुल उठा लिया और उसे खाली कड़ाही में चलाने लगी. सासुमां ने चश्मे की ओट से उसे ध्यान से देखा.

कड़ाही उस के हाथ से छूट गई और फर्श पर चक्कर काटती खाली कड़ाही जैसे उस के जलते एहसास उस के जेहन में घूमने लगे और वह चाह कर भी उन्हें थाम नहीं पाई.

एक कोमल स्पर्श उस के कंधों पर हुआ. 2 अनुभवी आंखों में उस के लिए संवेदना थी. वह शर्मिंदा हुई उन आंखों से, खुद को नियंत्रित न कर पाने से, अपने यों बिखर जाने से. उस ने होंठ दबा कर अपनी रुलाई रोकी और तेजी से अपने कमरे में चली गई.

बहुत कोशिश करने के बावजूद उस की रुलाई नहीं रुकी, बाथरूम में शायद जी भर रो सके. जातेजाते उस की नजर घड़ी पर पड़ी. समय उस के हाथ में न था रोने का. तैयार होतेहोते तनुजा ने सोते हुए मनीष को देखा. उस की बेचैनी से बेखबर मनीष गहरी नींद में थे.

तैयार हो कर उस ने खुद को शीशे में निहारा और खुद पर ही मुग्ध हो गई. कौन कह सकता है कि वह कालेज में पढ़ने वाले बच्चों की मां है? कसी हुई देह, गोल चेहरे पर छोटी मगर तीखी नाक, लंबी पतली गरदन, सुडौल कमर के गिर्द लिपटी साड़ी से झांकते बल. इक्कादुक्का झांकते सफेद बालों को फैशनेबल अंदाज में हाईलाइट करवा कर करीने से छिपा लिया है उस ने. सब से बढ़ कर है जीवन के इस पड़ाव का आनंद लेती, जीवन के हिलोरों को महसूस करते मन की अंगड़ाइयों को जाहिर करती उस की खूबसूरत आंखें. अब बच्चे बड़े हो कर अपने जीवन की दिशा तय कर चुके हैं और मनीष अपने कैरियर की बुलंदियों पर हैं. वह खुद भी एक मुकाम हासिल कर चुकी है. भविष्य के प्रति एक आश्वस्ति है जो उस के चेहरे, आंखों, चालढाल से छलकती है.

मनीष उठ चुके थे. रात के अधूरे इंतजार के आक्रोश को परे धकेल एक मीठी सी मुसकान के साथ उस ने गुडमौर्निंग कहा. मनीष ने एक मोहक नजर उस पर डाली और उठ कर उसे बांहों में भर लिया. रीढ़ में फुरफुरी सी दौड़ गई. कसमसाती इच्छाएं मजबूत बांहों का सहारा पा कर कुलबुलाने लगीं. मनीष की आंखों में झांकते हुए तपते होंठों को उस के होंठों के पास ले जाते शरारत से उस ने पूछा, ‘‘इरादा क्या है?’’ मनीष जैसे चौंक गए, पकड़ ढीली हुई, उस के माथे पर चुंबन अंकित करते, घड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘इरादा तो नेक ही है, तुम्हारे औफिस का टाइम हो गया है, तुम निकल जाना.’’ और वे बाथरूम की तरफ बढ़ गए.

जलते होंठों की तपन को ठंडा करने के लिए आंसू छलक पड़े तनुजा के. कुछ देर वह ऐसे ही खड़ी रही उपेक्षित, अवांछित. फिर मन की खिन्नता को परे धकेल, चेहरे पर पाउडर की एक और परत चढ़ा, लिपस्टिक की रगड़ से होंठों को धिक्कार कर वह कमरे से बाहर निकल गई.

करीब सालभर पहले तक सब सामान्य था. मनीष और तनुजा जिंदगी के उस मुकाम पर थे जहां हर तरह से इतमीनान था. अपनी जिंदगी में एकदूसरे की अहमियत समझतेमहसूस करते एकदूसरे के प्यार में खोए रहते.

इस निश्चितता में प्यार का उछाह भी अपने चरम पर था. लगता, जैसे दूसरा हनीमून मना रहे हों जिस में अब उत्सुकता की जगह एकदूसरे को संपूर्ण जान लेने की तसल्ली थी. मनीष अपने दम भर उसे प्यार करते और वह पूरी शिद्दत से उन का साथ देती. फिर अचानक यों ही मनीष जल्दी थकने लगे तो उसी ने पूरा चैकअप करवाने पर जोर दिया.

सबकुछ सामान्य था पर कुछ तो असामान्य था जो पकड़ में नहीं आया था. वह उन का और ध्यान रखने लगी. खाना, फल, दूध, मेवे के साथ ही उन की मेहनत तक का. उस की इच्छाएं उफान पर थीं पर मनीष के मूड के अनुसार वह अपने पर काबू रखती. उस की इच्छा देखते मनीष भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते लेकिन वह अतृप्त ही रह जाती.

हालांकि उस ने कभी शब्दों में शिकायत दर्ज नहीं की, लेकिन उस की झुंझलाहट, मुंह फेर कर सो जाना, तकिए में मुंह दबा कर ली गई सिसकियां मनीष को आहत और शर्मिंदा करती गईं. धीरेधीरे वे उन अंतरंग पलों को टालने लगे. तनुजा कमरे में आती तो मनीष कभी तबीयत खराब होने का बहाना बनाते, कभी बिजी होने की बात कर लैपटौप ले कर बैठ जाते.

कुछकुछ समझते हुए भी उसे शक हुआ कि कहीं मनीष का किसी और से कोई चक्कर तो नहीं है? ऐसा कैसे हो सकता है जो व्यक्ति शाम होते ही उस के आसपास मंडराने लगता था वह अचानक उस से दूर कैसे होने लगा? लेकिन उस ने यह भी महसूस किया कि मनीष

अब भी उस से प्यार करते हैं. उस की छोटीछोटी खुशियां जैसे सप्ताहांत में सिनेमा, शौपिंग, आउटिंग सबकुछ वैसा ही तो था. किसी और से चक्कर होता तो उसे और बच्चों को इतना समय वे कैसे देते? औफिस से सीधे घर आते हैं, कहीं टूर पर जाते नहीं.

शक का कीड़ा जब कुलबुलाता है तब मन जितना उस के न होने की दलीलें देता है उतना उस के होने की तलाश करता. कभी नजर बचा कर डायरी में लिखे नंबर, तो कभी मोबाइल के मैसेज भी तनुजा ने खंगाल डाले पर शक करने जैसा कुछ नहीं मिला.

उस ने कईकई बार खुद को आईने में निहारा, अंगों की कसावट को जांचा, बातोंबातों में अपनी सहेलियों से खुद के बारे में पड़ताल की और पार्टियों, सोशल गैदरिंग में दूसरे पुरुषों की नजर से भी खुद को परखा. कहीं कोई बदलाव, कोई कमी नजर नहीं आई. आज भी जब पूरी तरह से तैयार होती है तो देखने वालों की नजर एक बार उस की ओर उठती जरूरी है.

हर ऐसे मौकों पर कसौटी पर खरा उतरने का दर्प उसे कुछ और उत्तेजित कर गया. उस की आकांक्षाएं कसमसाने लगीं. वह मनीष से अंतरंगता को बेचैन होने लगी और मनीष उन पलों को टालने के लिए कभी काम में, कभी बच्चों और टीवी में व्यस्त होने लगे.

अधूरेपन की बेचैनी दिनोंदिन घनी होती जा रही थी. उस दिन एक कलीग को अपनी ओर देखता पा कर तनुजा के अंदर कुछ कुलबुलाने लगा, फुरफुरी सी उठने लगी. एक विचार उस के दिलोदिमाग में दौड़ कर उसे कंपकंपा गया. छी, यह क्या सोचने लगी हूं मैं? मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती. मेरे मन में यह विचार आया भी कैसे? मनीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, प्यार का मतलब सिर्फ यही तो नहीं है. कितना धिक्कारा था तनुजा ने खुद को लेकिन वह विचार बारबार कौंध जाता, काम करते हाथ ठिठक जाते, मन में उठती हिलोरें पूरे शरीर को उत्तेजित करती रहीं.

अतृप्त इच्छाएं, हर निगाह में खुद के प्रति आकर्षण और उस आकर्षण को किस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, वह यह सोचने लगी. संस्कारों के अंकुश और नैसर्गिक प्यास की कशमकश में उलझी वह खोईखोई सी रहने लगी.

उस दिन दोपहर तक बादल घिर आए थे. खाना खा कर वह गुदगुदे कंबल में मनीष के साथ एकदूसरे की बांहों में लिपटे हुए कोई रोमांटिक फिल्म देखना चाहती थी. उस ने मनीष को इशारा भी किया जिसे अनदेखा कर मनीष ने बच्चों के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया. वे नासमझ बन तनुजा से नजरें चुराते रहे, उस के घुटते दिल को नजरअंदाज करते रहे. वह चिढ़ गई. उस ने जाने से मना कर दिया, खुद को कमरे में बंद कर लिया और सारा दिन अकेले कमरे में रोती रही.

तनुजा ने पत्रपत्रिकाएं, इंटरनैट सब खंगाल डाले. पुरुषों से जुड़ी सैक्स समस्याओं की तमाम जानकारियां पढ़ डालीं. परेशानी कहां है, यह तो समझ आ गया लेकिन समाधान? समाधान निकालने के लिए मनीष से बात करना जरूरी था. बिना उन के सहयोग के कोई समाधान संभव ही नहीं था. बात करना इतना आसान तो नहीं था.

शब्दों को तोलमोल कर बात करना, एक कड़वे सच को प्रकट करना इस तरह कि वह कड़वा न लगे, एक ऐसी सचाई के बारे में बात करना जिसे मनीष पहले से जानते हैं कि तनुजा इसे नहीं जानती और अब उन्हें बताना कि वह भी इसे जानती है, यह सब बताते हुए भी कोई आक्षेप, कोई इलजाम न लगे, दिल तोड़ने वाली बात पर दिल न टूटे, अतिरिक्त प्यारदेखभाल के रैपर में लिपटी शर्मिंदगी को यों सामने रखना कि वह शर्मिंदा न करे, बेहद कठिन काम था.

दिन निकलते गए. कसमसाहटें बढ़ती गईं. अतृप्त प्यास बुझाने के लिए वह रोज नए मौकेरास्ते तलाशती रही. समाज, परिवार और बच्चे उस पर अंकुश लगाते रहे. तनुजा खुद ही सोचती कि क्या इस एक कमी को इस कदर खुद पर हावी होने देना चाहिए? तो कभी खुद ही इस जरूरी जरूरत के बारे में सोचती जिस के पूरा न होने पर बेचैन होना गलत भी तो नहीं. अगर मनीष अतृप्त रहते तो क्या ऐसा संयम रख पाते? नहीं, मनीष उसे कभी धोखा नहीं देते या शायद उसे कभी पता ही नहीं चलने देते.

निशा उस की अच्छी सहेली थी. उस से तनुजा की कशमकश छिपी न रह सकी. तनुजा को दिल का बोझ हलका करने को एक साथी तो मिला जिस से सहानुभूति के रूप में फौरीतौर पर राहत मिल जाती थी. निशा उसे समझाती तो थी पर क्या वह समझना चाहती है, वह खुद भी नहीं समझ पाती थी. उस ने कई बार इशारे में उसे विकल्प तलाशने को कहा तो कई बार इस के खतरे से आगाह भी किया. कई बार तनुजा की जरूरत की अहमितयत बताई तो कई बार समाज, संस्कार के महत्त्व को भी समझाया. तनुजा की बेचैनी ने उस के मन में भी हलचल मचाई और उस ने खुद ही खोजबीन कर के कुछ रास्ते सुझाए.

धड़कते दिल और डगमगाते कदमों से तनुजा ने उस होटल की लौबी में प्रवेश किया था. साड़ी के पल्लू को कस कर लपेटे वह खुद को छिपाना चाह रही थी पर कितनी कामयाब थी, नहीं जानती. रिसैप्शन पर बड़ी मुश्किल से रूम नंबर बता पाई थी. कितनी मुश्किल से अपने दिल को समझा कर वह खुद को यहां तक ले कर आई थी. खुद को लाख मनाने और समझाने पर भी एक व्यक्ति के रूप में खुद को देख पाना एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है, यह जान रही थी.

अपनी इच्छाओं को एक दायरे से बाहर जा कर पूरा करना कितना मुश्किल होता है, लिफ्ट से कमरे तक जाते यही विचार उस के दिमाग को मथ रहे थे. कमरे की घंटी बजा कर दरवाजा खुलने तक 30 सैकंड में 30 बार उस ने भाग जाना चाहा. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. दरवाजा खुला, उस ने एक बार आसपास देखा और कमरे के अंदर हो गई. एक अनजबी आवाज में अपना नाम सुनना भी बड़ा अजीब था. फुरफुराते एहसास उस की रीढ़ को झुनझुना रहे थे. बावजूद इस के, सामने देख पाना मुश्किल था. वह कमरे में रखे एक सोफे पर बैठ गई, उसे अपने दिमाग में मनीष का चेहरा दिखाई देने लगा.

क्या वह ठीक कर रही? इस में गलत क्या है? आखिर मैं भी एक इंसान हूं. अपनी इच्छाएं, अपनी जरूरतें पूरी करने का हक है मुझे. मनीष को पता चला तो?

कैसे पता चलेगा, शहर के इस दूसरे कोने में घरऔफिस से दसियों किलोमीटर दूर कुछ हुआ है, इस की भनक तक इतनी दूर नहीं लगेगी. इस के बाद क्या वह खुद से नजरें मिला पाएगी? यह सब सोच कर उस की रीढ़ की वह सनसनाहट ठंडी पड़ गई, उठ कर भाग जाने का मन हुआ. वह इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती. मनीष, मम्मी, बच्चे, जानपहचान वाले, रिश्तेदार सब की नजरों में वह नहीं गिर सकती.

वेटर 2 कौफी रख गया. कौफी की भाप के उस पार 2 आंखें उसे देख रही थीं. उन आंखों की कामुकता में उस के एहसास फिर फुरफुराने लगे. उस ने अपने चेहरे से हो कर गरदन, वक्ष पर घूमती उन निगाहों को महसूस किया. उस के हाथ पर एक स्पर्श उस के सर्वांग को थरथरा गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. वह स्पर्श ऊपर और ऊपर चढ़ते बाहों से हो कर गरदन के खुले भाग पर मचलने लगा. उस की अतृप्त कामनाएं सिर उठाने लगीं. अब वह सिर्फ एक स्त्री थी हर दायरे से परे, खुद की कैद से दूर, अपनी जरूरतों को समझने वाली, उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखने वाली.

सहीगलत की परिभाषाओं से परे अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने को तत्पर वह दुनिया के अंतिम कोने तक जा सकने को तैयार, उस में डूब जाने को बेचैन. तभी वह स्पर्श हट गया, अतृप्त खालीपन के झटके से उस ने आंखें खोल दीं. आवाज आई, ‘कौफी पीजिए.’

कामुकता से मुसकराती 2 आंखें देख उसे एक तीव्र वितृष्णा हुई खुद से, खुद के कमजोर होने से और उन 2 आंखों से. होटल के उस कमरे में अकेले उस अपरिचित के साथ यह क्या करने जा रही थी वह? वह झटके से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. लगभग दौड़ते हुए वह होटल से बाहर आई और सामने से आती टैक्सी को हाथ दे कर उस में बैठ गई. तनुजा बुरी तरह हांफ रही थी. वह उस रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

दोनों ओर स्थितियां चरम पर थीं. दोनों ही अंदर से टूटने लगे थे. ऐसे ही जिए जाने की कल्पना भयावह थी. उस रात तनुजा की सिसकियां सुन मनीष ने उसे सीने से लगा लिया. उस का गला रुंध गया, आंसू बह निकले. ‘‘मैं तुम्हारा दोषी हूं तनु, मेरे कारण…’’

तनु ने उस के होंठों पर अपनी हथेली रख दी, ‘‘ऐसा मत कहो, लेकिन मैं करूं क्या? बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बरदाश्त नहीं कर पाती.’’

‘‘मैं तुम्हारी बेचैनी समझता हूं, तनु,’’ मनीष ने करवट ले कर तनुजा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया, ‘‘तुम चाहो तो किसी और के साथ…’’ बाकी के शब्द एक बड़ी हिचकी में घुल गए.

वह बात जो अब तक विचारों में तनुजा को उकसाती थी और जिसे हकीकत में करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाई थी, वह मनीष के मुंह से निकल कर वितृष्णा पैदा कर गई.

तनुजा का मन घिना गया. उस ने खुद ऐसा कैसे सोचा, इस बात से ही नफरत हुई. मनीष उस से इतना प्यार करते हैं, उस की खुशी के लिए इतनी बड़ी बात सोच सकते हैं, कह सकते हैं लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी? क्या ऐसा करना ठीक होगा? नहीं, कतई नहीं. उस ने दृढ़ता से खुद से कहा.

जो सच अब तक संकोच और शर्मिंदगी का आवरण ओढ़े अपारदर्शी बन कर उन के बीच खड़ा था, आज वह आवरण फेंक उन के बीच था और दोनों उस के आरपार एकदूसरे की आंखों में देख रहे थे. अब समाधान उन के सामने था. वे उस के बारे में बात कर सकते थे. उन्होंने देर तक एकदूसरे से बातें कीं और अरसे बाद एकदूसरे की बांहों में सो गए एक नई सुबह मेें उठने के लिए.

बट स्टिल आई लव हिम

‘‘बटस्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम, बट आई…’’  मंजू के ये शब्द तीर की तरह मेरे कानों में चुभ रहे थे. मैं यह सोच कर हैरान थी कि शहर की जानीमानी डाक्टर मंजू सिंह, जो प्रतिदिन न जाने कितने लोगों के दुखदर्द मिटाती है, खुद कितने गहरे दर्द में डूबी है और उस से उबरना भी नहीं चाहती है. पुरानी यादों के पन्ने

1-1 कर के मेरी आंखों के सामने फड़फड़ाने लगे…

हम दोनों बचपन की गहरी सखियां, एक ही महल्ले में रहती थीं तथा ही कक्षा में पढ़ती थीं. हमारी मित्रता उस दिन हुई जब बस में एक बड़ी दीदी ने मुझे सीट से उठा दिया और स्वयं उस पर बैठ गई.

यह देख मंजू उन से भिड़ गई, ‘‘दीदी, आप ने उस की सीट ले ली. वह इतना भारी बैग टांग कर कैसे खड़ी रहेगी?’’

दीदी के धमकाने पर उस ने कंडक्टर से शिकायत कर के मुझे मेरी सीट दिलवा कर ही दम लिया और फिर हम मित्रता की डोर से ऐसे बंधे जो समय के साथ और मजबूत हो गई.

इस घटना के बाद से हम बच्चों के बीच मंजू दबंग गर्ल के नाम से मशहूर हो गई. वह स्कूल की हर गतिविधि में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती. उस की संगत के प्रभाव से मुझे भी

कुछ अवसर प्राप्त हो जाते थे. अपने नैसर्गिक सौंदर्य, नेतृत्व क्षमता, अभिनय कौशल व वाकपटुता से वह सब की चहेती थी. जो उस से ईर्ष्या करते थे, वे भी मन ही मन उस की प्रशंसा करते थे.

फर्स्ट ईयर तक पहुंचतेपहुंचते न जाने कितने लड़के उस पर जान छिड़कने लगे. हर कोई उसे अपनी गर्लफ्रैंड बनाने के लिए आतुर रहता पर वह किसी को घास नहीं डालती.

मैं उसे छेड़ती, ‘‘मंजू, क्या तुझे कोई

भी पसंद नहीं आता? किसी का तो दिल रख लिया कर.’’

वह मुझे समझाती, ‘‘प्यारव्यार के लिए तो सारी जिंदगी पड़ी है, मुझे तो पापा की तरह प्रसिद्ध डाक्टर बनना है.’’

हम दोनों साथसाथ पढ़ते. कभी वह मेरे घर आ जाती, कभी मैं उस के घर चली जाती. हम दोनों को संयोगवश एक ही मैडिकल कालेज में प्रवेश भी मिल गया. वहां पहुंचते ही वह सभी शिक्षकों व जूनियरसीनियर विद्यार्थियों की लाडली बन गई.

कालेज के वार्षिकोत्सव में मंजू राधा बनी और सुधीर कृष्ण. सुधीर में न जाने कैसा सम्मोहन था कि मंजू उस की ओर खिंचती चली गई. मैं उस का प्यार व समय बंट जाने पर स्वयं को जितना अकेला महसूस कर रही थी, उस से अधिक चिंता मुझे इस बात की थी कि जब उस के घर वालों को पता चलेगा तो क्या होगा. सुधीर यादव था और वह परंपरावादी क्षत्रिय परिवार की.

जब तक कालेज में थे किसी को कुछ नहीं पता चला पर एमबीबीएस पूरा होने के बाद जब उस के विवाह की चर्चा शुरू हुई तब मंजू ने डरतेडरते मां को सुधीर के बारे में बताया. उस के बाद तो मानों घर में विस्फोट हो गया. सब ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया पर उस ने दृढ़तापूर्वक अपना निर्णय सुना दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ सुधीर से वरना जीवन भर विवाह नहीं करेगी.

सारे प्रयास विफल होने के बाद उस के पापा ने एक सादे विवाह समारोह में उसे बिदा कर उस से सदा के लिए मुंह मोड़ लिया. मां कभीकभी हालचाल पूछ लेती थी. मैं भी एक एनआरआई से विवाह होने के बाद आस्ट्रेलिया चली गई पर हम सदैव फेसबुक, व्हाट्सऐप से संपर्क में बने रहते.

मैं जब भी इंडिया आती उस से जरूर मिलती. वह भी 2 बार आस्ट्रेलिया घूमने आई.

15 वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला. जब मैं इंडिया आई तो हर बार की तरह इस बार भी मां व परिवार के अन्य लोगों से मिलने के बाद कानपुर से सीधे मुंबई उस के पास पहुंची. मंजू और सुधीर के स्वागत में इस बार पहले जैसा उत्साह व गर्मजोशी नजर नहीं आई. सुधीर आवश्यक काम बता कर बाहर चला गया तो मनीष भी अपने कुछ जानपहचान वालों से मिलने चले गए.

उस के चेहरे पर छाई उदासीनता का कारण जानने के लिए जब मैं ने उसे कुरेदा तो थोड़ी नानुकुर के बाद उस के सब्र का बांध टूट गया. वह मेरे गले लग फफकफफक कर बच्चों की तरह रो पड़ी.

थोड़ा दिल हलका होने के बाद उस ने मुझे बताया, ‘‘सुधीर का उस के नर्सिंगहोम की एक नर्स के साथ अफेयर चल रहा है. पहले तो पूछने पर कहता था कि मैं बेवजह उस पर शक करती हूं पर अब वह ढीठ हो गया है. कहता है कि, तुम्हें जो करना है कर लो, जहां जाना है जाओ, पर मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’’

यह सुन कर तो जैसे मुझ पर वज्रपात ही हो गया. मुझे कालेज का वह जमाना याद

आ गया कि कैसे सुधीर मंजू से दोस्ती करने के लिए दीवानों की तरह उस के पीछेपीछे घूमता रहता था और किस प्रकार से मंजू ने सब का विरोध सह कर उस से विवाह किया था.

मैं ने उसे समझाया कि यदि वह शहर का प्रतिष्ठित चाइल्ड स्पैशलिस्ट है तो तू भी प्रसिद्ध गाइनोकोलौजिस्ट. तू पढ़ीलिखी, आत्मनिर्भर नारी है, तेरी समाज में अलग पहचान है, तू अपनी

व अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम है.

तू ऐसे बेवफा, चरित्रहीन इंसान को छोड़ क्यों

नहीं देती?

वह रोते हुए बोली, ‘‘मम्मीपापा से दूर हो कर मैं ने जीवन में अपनों के प्यार एवं संरक्षण का महत्त्व जाना. आज भी मेरा मन मायके जाने को तरसता है. मायके के दरवाजे मेरे लिए बंद नहीं हैं, पर मेरी भूल मेरे स्नेह पर ज्यादा भारी पड़ती है. पापा के आशीर्वाद के लिए उठे हाथ मेरे सिर तक पहुंचतेपहुंचते रुक जाते हैं. मां के आलिंगन में भी वह गरमाहट महसूस नहीं होती जो प्रांजू को गले लगाते समय होती है. अपना घर अब मुझे अपना नहीं लगता. तुझे याद है न पापा ने कैसे धूमधाम से प्रांजू की शादी की थी.

घर व संपत्ति का बंटवारा करते समय मां ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘पापा अपनी संपत्ति तुम दोनों बहनों के बीच बांटना चाहते हैं, आ जाओ.’’

मैं ने मां से कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस मुझे अपना आशीर्वाद दे दो. पर मां के बहुत जोर देने पर मैं कानपुर चली गई. वहां पहुंच कर देखा पापा ने वह नर्सिंगहोम, जिस में वे अपनी जगह सदा अपनी डाक्टर बेटी को बैठा हुआ देखना चाहते थे, वह घर जिस से मेरी यादें जुड़ी थीं, सब प्रांजू व देवेश के नाम कर दिया था. मुझे उन्होंने कैश, जेवर व प्लाट्स दिए थे. यह देख मैं अपने कमरे की दीवारों से चिपक कर फूटफूट कर रोई थी. मन में आया कि कह दूं कि पापा मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस आप मेरे पहले वाले पापा बन कर मुझे गले लगा लो, अपनी मंजू को माफ कर दो.

‘‘जड़ से विच्छिन्न शाखा के समान स्वयं को अकेला महसूस कर रही थी. फिर सोचा दोष तो मेरा ही है. मैं ने ही उन के मानसम्मान, भरोसे और सपनों को धूमिल किया था. भौतिक संपदा तो उन्होंने बराबर बांटी पर स्नेह नहीं. श्वेता, तू नहीं जानती कि अपनों से अलग होना व उन की उपेक्षा सहना कितनी पीड़ा पहुंचाता है.

‘‘सुधीर मुझ से प्यार नहीं करता, वह मेरे साथ रहना भी नहीं चाहता पर मैं उस के बिना नहीं रह सकती. आई हैव लौस्ट माई लव बट स्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम. उस के बिना मैं जी नहीं पाऊंगी. उसे अपने बच्चों के साथ हंसताखेलता देख कर, उन की परवाह करते देख कर ही मैं खुश हो लेती हूं. अपना न होते हुए भी अपना होने के एहसास के साथ जी लेती हूं,’’ कहने के बाद वह मेरे कांधे पर सिर रख कर बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी.

हम ने सुधीर को समझाने की कोशिश की पर वह न समझा. मैं दुखी मन से अपने घर लौट आई, पर उस के ये शब्द अब भी मेरे कानों को पिघला रहे हैं, ‘‘बट स्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम…’’

घबराना क्या: जिंदगी जीने का क्या यह सही फलसफा था

‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा. ‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो. कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी. आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया. ‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए. ‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’ इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’ ‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’ क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता. मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा?

ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं. दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता. गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं. ‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’ ‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने. ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी. ‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’ हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’ पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’ ‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’ सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी. ‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’ ‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’ पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया. ‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’ ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का. ‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’ सुनता रहा मैं सब.

सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं?

जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

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