हवस की मारी : रेशमा और विजय की कहानी – भाग 1

‘‘श्यामाचरन, तुम मेरी दौलत देख कर हैरान रह जाओगे. मेरे पास सोनेचांदी के गहनों के अलावा बैंक में रुपया भरा पड़ा है. अगर मैं खुल कर खर्च करूं, तो भी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए कम न होगा. तुम मेरी हैसियत का मुकाबला नहीं कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारी कोई हैसियत ही नहीं है.’’

श्यामाचरन सिर नीचा किए मन ही मन मुसकराता रहा. वह सोचने लगा, ‘विवेक राय अचानक ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं?’

‘‘श्यामाचरन, मैं चाहूं तो अपनी एकलौती बेटी रेशमा को सोनेचांदी के गहने से लाद कर किसी ऊंचे करोड़पति के यहां उस के लड़के से ब्याह दूं. लेकिन जानबूझ कर फटे बोरे में पैबंद लगा रहा हूं, क्योंकि तुम्हारा बेटा विजय मुझे पसंद आ गया है, जो अभी ग्रेजुएशन ही कर रहा है.

‘‘मेरी दूर तक पहुंच है. तुम्हारा बेटा जहां भी नौकरी करना चाहेगा, लगवा दूंगा. तुम तो उस की जिंदगीभर कोई मदद नहीं कर पाओगे. तुम जितना दहेज मांगोगे, उस से दोगुनातिगुना मिलेगा…’’

थोड़ी देर बाद कुछ सोच कर विवेक राय आगे बोले, ‘‘क्या सोचा है तुम ने श्यामाचरन? मेरी बेटी खूबसूरत है, पढ़ीलिखी है, जवान है. इस से बढ़ कर तुम्हारे बेटे को क्या चाहिए? ‘‘वैसे, मैं ने तुम्हारे बेटे को अभी तक देखा नहीं है. वह तो मेरा मुनीम राघव इतनी ज्यादा तारीफ करने लगा, इसलिए तुम को बुलाया.

‘‘मैं चाहूंगा कि 2-4 दिन बाद उसे यहां ले कर आओ. खुद मेरी बेटी को देखो और उसे भी दिखला दो. समझो, रिश्ता पक्का हो गया.’’ ‘‘आप बहुत बड़े आदमी हैं सेठजी.

गाजियाबाद के बड़े कारोबारियों में आप का नाम है, जैसा मैं ने सुना. आप की तारीफ करूंगा कि आप ने मेरे बेटे को देखे बिना ही रिश्ता पक्का करने का फैसला कर लिया. पर मुझे अपने बेटे और पत्नी से भी सलाहमशवरा करने का मौका दें, तो मेहरबानी होगी.’’

‘‘जाइए, लेकिन मना मत कीजिएगा. मेरी ओर से 2 हजार रुपए का नजराना लेते जाइए,’’ विजय राय कुटिल हंसी हंस दिए. बिंदकी गांव पहुंच कर श्यामाचरन ने विवेक राय की लच्छेदार बातें अपनी पत्नी सत्यवती को सुनाईं. वह बहुत खुश हुई, मानो उस के छोटे से मामूली मकान में पैसों की बरसात अचानक होने वाली हो.

जब सत्यवती ने अपने बेटे विजय के मन को टटोलना चाहा, तो वह बिगड़ गया. ‘‘पैसे के लालच ने आप को इतना मजबूर कर दिया कि आप मेरी पढ़ाई बंद कराने पर उतारू हो गए. पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी जो कमाई होगी, उस पर पूरा हक आप का ही तो होगा.

आप के लिए जल्दी दुलहन ला कर मैं अपना भविष्य खराब नहीं करना चाहूंगा,’’ विजय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा.

‘‘इतने पैसे वाले आदमी की एकलौती बेटी तुम्हें ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगी. तुम मुझे सौतेली मां समझते रहो, लेकिन मैं तो तुम्हें अपने छोटे लड़के राजू और बेटी लीला से भी ज्यादा समझती हूं.

‘‘तुम्हारा गरीब बाप मुझे एक अच्छी साड़ी नहीं खरीद सका, सोने की जंजीर नहीं दे सका. खाने के लाले पड़े रहते हैं. तुम्हारी पढ़ाई में ही सारा पैसा खर्च कर देता रहा है. कभी सोचा है कि मैं घर कैसे चला रही हूं. अमीर की बेटी यहां आ कर सोना बरसाएगी, तो सभी का भला हो जाएगा,’’ सत्यवती ने विजय को समझाया.

श्यामाचरन की पहली औरत मर चुकी थी. उस ने दूसरी शादी सत्यवती से रचाई थी, जिस से 2 बच्चे हुए थे. ‘‘बेटा, एक बार चल कर उस लड़की को देख तो लो. पसंद आए, तो हां कर देना.

‘‘मैं विवेक राय के यहां रिश्ता मांगने नहीं गया था, बल्कि उन्होंने खुद बुलाया था. अगर उन की लड़की हमारी बहू बनने लायक है, तो घर में आने वाली लक्ष्मी को ठुकराया नहीं जाता,’’ श्यामाचरन ने अपने बेटे विजय को समझाते हुए कहा. ‘‘आप लोग समझते क्यों नहीं?

मेरी पढ़ाई रुक जाएगी, तब क्या होगा. आजकल नौकरी भी इतनी जल्दी नहीं मिलती. आप को धनदौलत मिली, तो कितने दिन तक उसे इस्तेमाल कर पाएंगे? हर मांबाप लड़की को अपने घर से जल्दी निकालना चाहते हैं, इसलिए हम गरीब लोगों के पल्ले बांध कर वे भी फुरसत पा लेना चाहते होंगे.’’

‘‘उन के पास काफी पैसा है. अकेली लड़की है. सबकुछ तुम्हें ही मिलेगा, जिंदगीभर मौज से रहना.’’ ‘‘शादी के बाद अगर कल को उन्होंने मुझे घरजमाई बना कर रखना चाहा, तो क्या आप उम्मीद करते हैं कि उन का पैसा यहां पहुंच पाएगा? मुझे उन के यहां गुलाम बन कर रहना पड़ेगा, जो मैं कभी पसंद नहीं करूंगा.’’

‘‘ये सब बातें छोड़ो. ऐसा कुछ नहीं होगा. वे तुम्हारी तारीफ सुन कर, फोटो देखते ही शादी करने को तैयार हो गए.’’ ‘‘आगे उन की क्या मंसा है आप नहीं जानते. कोई लड़की वाला आज के जमाने में इस तरह अपनी बेटी किसी गरीब घराने में देने को तैयार नहीं हो जाता. मुमकिन है, इस के पीछे उन की कोई चाल हो.

‘‘शायद लड़की बुरे चरित्र की हो, जिसे जल्दी से जल्दी घर से निकालना चाहते हों. आप को पहले उन सब बातों का पता लगा लेना चाहिए.’’ ‘‘बेटा, मैं सब समझता हूं. विवेक राय मुंहमांगा दहेज देंगे, ऐसा रिश्ता मैं मना नहीं कर सकता.’’

‘‘आप जिद करेंगे, तो मैं इस घर को छोड़ कर कहीं और चला जाऊंगा,’’ गुस्से में विजय बोला. ‘‘तो तुम भी कान खोल कर सुन लो. अगर तुम ने ऐसा किया, तो मैं भी आत्महत्या कर लूंगा,’’ कहते हुए श्यामाचरन रोने लगे.

आखिरकार विजय को झुकना पड़ा. गाजियाबाद में विजय अपने पिता के साथ जा कर विवेक राय की बेटी रेशमा को देखने के लिए राजी हो गया. सच में श्यामाचरन पैसों का लालची था. उस ने रेशमा के बारे में किसी के द्वारा पूरी जानकारी हासिल करना जरूरी नहीं समझा.

सत्यवती ने भी अपने सौतेले बेटे विजय के भविष्य के बारे में सोचना जरूरी नहीं समझा. वह तो चाहती थी कि जल्द से जल्द उस के यहां छप्पर फाड़ कर रुपया बरसे, लड़की जैसी भी हो, उस से सरोकार नहीं. फिर भी उस के मन में शंका बनी थी कि बिना किसी ऐब के एक रईस अपनी बेटी को इतनी जल्दी गरीब घराने में शादी के लिए दबाव क्यों डालने लगा था?

फिर उस ने सोचा, उसे लड़की से क्या लेनादेना, उसे तो गहने, धनदौलत से मतलब रहेगा, जिसे पा कर वह खुद राज करेगी. विवेक राय ने श्यामाचरन को यह भी बतला दिया था कि उन के पास केवल दौलत ही नहीं, बल्कि सत्ता की ताकत भी है. कई बड़े सरकारी अफसर, नेता, मंत्री और विधायकों से भी याराना है, जिस की वजह से उस का शहर में दबदबा है.

उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि विजय को दामाद बनाते ही उसे अच्छी नौकरी दिलवा देंगे. विवेक राय चरित्रहीन था. उस ने 4 शादियां की थीं. पहली पत्नी से रेशमा हुई थी. जब रेशमा 4 साल की हुई, तो उस की मां मर गई. उस के बाद धीरेधीरे विवेक राय ने 3 शादियां और की थीं. पर वे तीनों ही संदिग्ध हालात में मर गई थीं.

रेशमा को उन तीनों की मौत के बारे में भनक थी, पर जान कर भी वह अनजान बनी रही और दब कर रहने की आदी हो चुकी थी. विवेक राय की सब से बड़ी कमजोरी बाजारू औरतें और शराब की लत थी. जब विवेक राय पर नशे का जुनून सवार हो जाता, तो वे भूखे भेडि़ए की तरह औरत पर टूट पड़ते और दरिंदे की तरह रौंद डालते.

विजय ने रेशमा को देखा. वह बहुत खूबसूरत थी. सजा कर बापबेटे के सामने ला कर बैठा दी गई थी. गले में मोतियों की माला, नाक में हीरे की नथ, बालों में जूही के फूल. उस खूबसूरती को देख कर विजय ठगा सा रह गया. रेशमा ने भी अपनी चितचोर निगाहों से विजय को देखा. वह रेशमा के मन को भा गया. लेकिन एक बार भी उस के होंठों पर मुसकराहट नहीं आई, जैसे वह किन्हीं खयालों में खोई थी.

विजय के कुछ पूछने पर सिर झुका देती, मानो उस में लाजशर्म हो. विवेक राय ने दोनों की भावनाओं को समझा. नाश्तापानी होने के बाद श्यामाचरन और विजय को एक महीने के अंदर रेशमा से शादी करने को विवेक राय मजबूर करते रहे कि वे लोग बरात ले कर गाजियाबाद में फलां तारीख की अमुक जगह पर पहुंच जाएं.

उसी समय विवेक राय ने 50 हजार रुपए श्यामाचरन के हाथ में नजराने की रस्म अदा कर दी और भरोसा दिलाया कि उन्हें मुंहमांगी कीमत मिलेगी. घर लौटने पर विजय ने शादी करने से मना कर दिया, लेकिन पिता की धमकी और जोर डालने पर उसे मजबूर होना पड़ा.

तय समय पर कुछ लोगों के साथ श्यामाचरन अपने बेटे विजय को दूल्हा बना कर बरात गाजियाबाद ले जाना पड़ा. वहां आलीशान होटल में उन लोगों के ठहरने का इंतजाम किया गया था. बरात की शोभा बढ़ाने के लिए उन्हीं की ओर से इंतजाम किया गया था, क्योंकि विवेक राय शहर के रुतबेदार शख्स थे. देखने वाले यह न समझें कि बेटी का रिश्ता ऐसेवैसे घर में जोड़ा था. बरात धूमधाम से उन के घर के पास पहुंची.

दुलहन की तरह उन की बड़ी सी कोठी को बिजली की तमाम रोशनी द्वारा सजाया गया था. शहनाइयों की आवाज गूंज रही थी, बड़ेबड़े लोग, नातेरिश्तेदार, विधायक, मंत्री और शहर के जानेमाने लोग वहां मौजूद थे. रेशमा को कमरे के अंदर बैठाया गया था.

वह लाल सुर्ख लहंगे, दुपट्टे और गहनों से सजाई गई थी. सहेलियां तारीफ करते छेड़छाड़ कर रही थीं, पर वह शांत और गंभीर थी. शहनाई की आवाज मानो उस के दिल पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे.

शादी के बाद तीसरे दिन बरात वापस लौटी. कीमती तोहफे, घरेलू सामान और दूसरी चीजों से कई बक्से भरे थे, जिसे देख कर नातेरिश्तेदार खुशी से सराबोर हो गए.

बहू का भव्य स्वागत किया गया. रातभर के जागे दूल्हादुलहन थके थे, इसलिए दोनों को अलगअलग कमरों में आराम करने के लिए घरेलू रस्मअदाई के बाद छोड़ दिया गया. शाम तक दूसरे रिश्तेदार भी चले गए.

 

सुबह की किरण : दो सहेलियों का प्यार

‘‘आ ओ, तुम यहां बैठ जाओ,’’ समीर ने प्रीति को अपने बगल में खड़ा देखा तो अपनी सीट से उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो, मुझे अगले स्टैंड पर उतरना है.’’

‘‘तुम बैठो, तुम्हें खड़ा होने में तकलीफ हो रही है,’’ उस ने फिर आग्रह किया तो प्रीति उस की सीट पर बैठ गई.

बस में खचाखच भीड़ थी. तिल भर भी पैर रखने की जगह नहीं थी. प्रीति का एक पैर जन्मजात खराब था. इसलिए थोड़ा लंगड़ा कर चलती थी. नीलम ठीक उस के पीछे खड़ी थी. मुसकराती हुई बोली, ‘‘चलो तुम्हारी तकलीफ समझाने वाला कोई तो मिला.’’

अगले स्टैंड पर दोनों सहेलियां उतर गईं. समीर भी उन के पीछेपीछे उतरा.

‘‘तुम्हारी सहेली के साथ मैं ने अन्याय किया,’’ वह प्रीति को देखते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन क्या करूं, सीट एक थी और तुम दो.’’

‘‘कोई बात नहीं, अगली बार तुम मुझे लिफ्ट दे देना,’’ नीलम भी मुसकराते हुए बोली तो समीर ने पूछा, ‘‘वैसे, तुम दोनों यहां कहां रहती हो?’’

‘‘बगल में ही, गौरव गर्ल्स होस्टल में,’’ नीलम ने बताया.

‘‘अच्छा है, अब तो हमारा इसी स्टैंड से कालेज आनाजाना होता रहेगा. मैं भी थोड़ी दूर पर ही रहता हूं. मेरे बाबूजी एक कंपनी में जौब करते हैं और यहीं उन्होंने एक अपार्टमैंट खरीदा हुआ है.’’ समीर, प्रीति और नीलम एक ही कालेज में थे. आज कालेज में उन का पहला दिन था.

प्रीति आगरा की रहने वाली थी और नीलम लखनऊ की. दोनों गौरव गर्ल्स होस्टल में एक रूम में रहती थीं. प्रीति के पिताजी एक अच्छे ओहदे वाली सर्विस में थे, किंतु असमय उन का देहांत हो गया था जिस के कारण उस की मां को अनुकंपा के आधार पर उसी औफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी.

प्रीति के बाबूजी बहुत पहले अपना गांव छोड़ कर आगरा में आ गए थे और यहीं उन्होंने एक छोटा सा मकान बना लिया था. गांव की जमीन और मकान उन्होंने बेच दिया था. प्रीति की मां चाहती थीं कि वह आईएएस की तैयारी करे ताकि एक ऊंची पोस्ट पर जा कर अपनी विकलांगता के दर्द को भुला सके, इसलिए उन्होंने उसे दिल्ली में एमए करने के लिए भेजा था. प्रीति को शुरू से ही साइकोलौजी में गहरी रुचि थी और बीए में भी उस का यह फेवरेट सब्जैक्ट था इसलिए उस ने इसी सब्जैक्ट से एमए करने का विचार किया. प्रीति को शुरू से ही कुछ सीखने और अधिकाधिक ज्ञानार्जन करने की इच्छा थी. वह साइकोलौजी में शोध कार्य करना चाहती थी और भविष्य में किसी कालेज में लैक्चरर बनने की ख्वाहिश पाले हुए थी.

नीलम एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस के पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी दिल्ली के किसी कालेज से एमए कर ले और उस की सोसायटी मौडर्न हो जाए क्योंकि आजकल बिजनैसमैन के लड़के भी एक पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की को शादी के लिए प्रेफर करते थे. इसलिए उस ने दिल्ली के इसी कालेज में ऐडमिशन ले लिया था और ईजी सब्जैक्ट होने के कारण साइकोलौजी से एमए करना चाहती थी. समीर के पिताजी उसे आईएएस बनाना चाहते थे और समीर भी इस के लिए इच्छुक था, इसलिए वह भी साइकोलौजी से एमए करने के लिए कालेज में ऐडमिशन लिए हुए था.

प्रीति एक साधारण परिवार की थी और स्वभाव से भी बहुत ही सरल, इसलिए उस की वेशभूषा और पोशाकें भी साधारण थीं. पर वह सुंदर व स्मार्ट थी. उसे बनावशृंगार और मेकअप पसंद नहीं था किंतु दूसरी ओर नीलम सुंदर और छरहरे बदन की गोरी लड़की थी और अपने शरीर की सुंदरता पर उस का सब से ज्यादा ध्यान था. वह मेकअप करती और प्रतिदिन नईनई ड्रैस पहनती. कालेज में जहां प्रीति अपनी किताबों में उल?ा रहती वहीं नीलम अपनी सहेलियों के साथ गपें मारती और मस्ती करती.

एक दिन प्रीति लंच के समय कालेज की लाइब्रेरी में कुछ किताबों से कुछ नोट्स तैयार कर रही थी. तभी नीलम उस के पास आई और बोली, ‘‘अरे पढ़ाकू, यह लंच का समय है और तुम किताबों से माथापच्ची कर रही हो जैसे रिसर्च कर रही हो. चलो चल कर कैफेटेरिया में चाय पीते हैं.’’

‘‘तुम जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आऊंगी,’’ प्रीति ने कहा तो नीलम चली गई.

तभी उस ने महसूस किया कि उस के पीछे कोई खड़ा है. उस ने पलट कर पीछे की ओर देखा तो समीर था.

बस में मिलने के बाद समीर आज पहली बार उस के पास आ कर खड़ा हुआ था. क्लास में कभीकभी उस की ओर देख लिया करता था, किंतु बात नहीं करता था.

‘‘प्रीति सभी लोग कैफेटेरिया में चाय पी रहे हैं और तुम यहां बैठ कर नोट्स बना रही हो? अभी तो परीक्षा होने में काफी देर है. चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘बाद में आऊंगी समीर, थोड़े से नोट्स बनाने बाकी हैं, पूरा कर लेती हूं.’’

‘‘अब बंद भी करो,’’ समीर ने उस की नोटबुक को समेटते हुए कहा.

‘‘अच्छा चलो,’’ प्रीति भी किताबों को नोटबुक के साथ हाथ में उठाते हुए उठ खड़ी हुई.

जब समीर और प्रीति कैफेटेरिया में पहुंचे तो वहां पहले से ही नीलम अपनी कुछ क्लासमेट्स के साथ बैठ कर चाय पी रही थी. अगलबगल और भी कई लड़केलड़कियां थीं.

‘‘आ गई पढ़ाकू,’’ सविता ने उस को देखते हुए चुटकी ली.

‘‘मैं ने कहा, तो मेरे साथ नहीं आई. अब समीर के एक बार कहने पर आ गई. हां भई, उस दिन बस में उठ कर अपनी सीट जो तुम्हें औफर की थी. अब उस का कुछ खयाल तो रखना ही पड़ेगा न.’’ नीलम की बात सुन कर उस की सहेलियां हंसने लगीं.

समीर कुछ झोंप सा गया. बात आईगई हो गई किंतु इस के बाद प्रीति और समीर अकसर आपस में मिलते. प्रीति को साइकोलौजी के कई टौपिक्स पर बहुत ही अच्छी पकड़ थी. उस ने साइकोलौजी में कई जानेमाने लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया था. जब कभी क्लास में कोई लैक्चरर आता तो उस विषय के ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाती कि सभी उस की ओर ताकने लगते.

समीर को उस के पढ़ने में काफी मदद मिलती. समय के साथसाथ उन के बीच आपसी लगाव बढ़ रहा था. उन के बीच का गहराता संबंध कालेज में चर्चा का विषय था. कुछ साथी उस पर चुटकियां लेने से नहीं चूकते.

‘लंगड़ी ने समीर को अपने रूपजाल में फंसा लिया है,’ कोई कहता तो कोई उन दोनों की ओर इशारा करते हुए अपने मित्र के कान में कुछ फुसफुसाता, जिस का एक ही मतलब होता था कि उन दोनों के बीच कुछ पक रहा है. अब वह किसकिस को जवाब देता. इसलिए चुप रहता.

वैसे भी समीर अपने कैरियर के प्रति सीरियस था. उसे आईएएस की तैयारी करनी थी जिस में साइकोलौजी को मुख्य विषय रखना था. वह इस विषय के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था. उधर प्रीति को इसी विषय के किसी टौपिक पर रिसर्च करना था. इसलिए दोनों के अपनेअपने इंटरैस्ट थे. किंतु लगातार एकदूसरे के साथ संपर्क में रहने के कारण उन के अंदर प्रेम का भी अंकुरण होने लगा था जिस को दोनों महसूस तो करते किंतु इस की आपस में कभी चर्चा नहीं करते.

ऐसे ही कब 2 वर्ष गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला. दोनों ने एमए फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया. फिर समीर ने आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली में ही एक कोचिंग जौइन कर ली और प्रीति एक प्रोफैसर के अंडर पीएचडी करने लगी.

नीलम ने किसी तरह एमए किया और घर चली गई. उस के पिता ने उस की शादी एक बिजनैसमैन से कर दी. उस के निमंत्रण पर प्रीति उस की शादी में गई. उस ने समीर को भी निमंत्रण दिया था लेकिन किसी कारणवश समीर नहीं पहुंच पाया. नीलम ने प्रीति से वादा किया था कि भले ही वह उस से दूर है लेकिन जब कभी वह याद करेगी वह जरूर उस से मिलेगी. बिछुड़ते वक्त दोनों सहेलियां खूब रोईं.

इधर समीर और प्रीति के बीच दूरी बढ़ी तो लगाव भी कम होने लगा. उन के बीच कुछ महीनों तक तो फोन पर संपर्क होता रहा, फिर धीरेधीरे वह समाप्त हो गया. यही दुनियादारी है. कभी समीर जब तक उस से एक बार नहीं मिल लेता उसे चैन न मिलता, अब उसे उस की याद ही नहीं रही. प्रीति ने भी उस से बात करनी बंद कर दी.

जीवन किसी का भी हर वक्त एकजैसा कहां रहता है. यह कोई जानता भी तो नहीं कि कब किस के साथ क्या घट जाए. प्रीति अभी दिल्ली में ही थी कि एक दिन सुबह सुबह ही उसे खबर मिली कि उस की मां को हार्टअटैक आया है और वह अस्पताल में भरती है. सुनते ही वह आगरा के लिए भागी किंतु वहां पहुंचने पर मालूम हुआ कि उस की मां अब दुनिया में नहीं रहीं.

प्रीति पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. वह फफक कर रोने लगी. अब उस का एकमात्र सहारा मां भी उसे छोड़ गई थीं. अस्पताल में वह मां के शव को पकड़ कर रो रही थी. उस को सांत्वना देने वाला कोई नहीं था. उस की मां के औफिस वाले आए हुए थे. उन लोगों ने कहा, ‘‘बेटी, अब अपने को संभाल…यह समय रोने का नहीं है. उठो, अब मां का दाहसंस्कार करने की सोचो…अब आग भी तुम्हें ही देनी है.’’

इस दुखभरी घड़ी में अपनों की कितनी याद आती है. उस ने समीर को फोन लगाया लेकिन उस का फोन तो डैड था. शायद उस ने नंबर बदल लिया था. अंतिम बार जब उस से भेंट हुई थी तो कहा था, अब दूसरा सिम लेगा. हारथक कर उस ने नीलम को याद किया. नीलम से उस की शादी में अंतिम बार भेंट हुई थी. वैसे भी उस से कभीकभी बातें होती रहती थीं. उस के हस्बैंड की प्रयागराज में एक बड़ी कपड़े की दुकान थी. वह खुले विचारवाला युवक था, इसलिए नीलम को कहीं आनेजाने में रोक नहीं थी.

नीलम खबर सुनते ही आगरा के लिए अपनी गाड़ी से चल पड़ी. प्रीति के जिम्मे अभी काफी काम थे. अस्पताल का बिल चुकाना, मां का दाहसंस्कार क्रिया करना और अकेले पड़े घर को संभालना. एक युवती जिस को दुनियादारी का भी कोई ज्ञान न हो और जिस की जिंदगी मां पिता की छत्रछाया में बीती हो, व जिस को घर संभालने का कोई व्यावहारिक ज्ञान न हो, अचानक इस तरह की विपत्ति पड़ने पर क्या स्थिति हो सकती है, यह तो वही समझा सकती है जिस के सिर पर यह अचानक बोझ आ पड़ा हो.

इस स्थिति में पड़ोसी भी बहुत काम नहीं आते सिवा सांत्वना के कुछ शब्द बोल देने के. और जिस का कोई अपना न हो उस के लिए तो यह क्षण बड़े ही धैर्य रखने और आत्मबल बनाए रखने का होता है और वह भी तब जब कोई अपना बहुत ही करीबी उसे छोड़ कर चला गया हो. सब से बड़़ी दिक्कत यह थी कि उस के पास पैसे नहीं थे और मां के बैंक अकाउंट का उस के पास कोई लेखाजोखा न था. पिछले महीने मां ने उस के खाते में जो पैसा ट्रांसफर किया था वह अब तक खर्च हो चुका था.

नीलम से वह कुछ मांगना तो न चाहती थी किंतु उस के पास इस के सिवा कोई रास्ता भी नहीं बचा था, इसलिए उस ने उस से कुछ मदद करने के लिए कहा. नीलम ने चलते वक्त चैकबुक और अपना डैबिट कार्ड भी पास में रख लिया. नीलम ने गांव के अपने सहोदर चाचाजी को बुला लिया जिन्होंने प्रीतिकी मां के दाहसंस्कार करवाने में बहुत मदद की. नीलम ने अस्पताल के सारे बिल भर दिए और मां के दाहसंस्कार व पारंपरिक विधि में होने वाले दूसरे आवश्यक खर्च को वहन किया.

प्रीति दकियानूसी विचारों वाली युवती नहीं थी, इसलिए उस ने विद्युत शवदाह द्वारा अपनी मां का दाहसंस्कार किया और अन्य पारंपरिक क्रियाएं भी बहुत सादे ढंग से संपन्न कीं. जब तक प्रीति सारी क्रियाओं से निबट नहीं गई तब तक नीलम उस के साथ रही.

परिस्थितियां चाहे जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों मनुष्य को उस से तो बाहर निकलना ही पड़ता है और प्रीति भी इस से निकल तो गई किंतु वह जिस खालीपन का एहसास कर रही थी उसे भरना बहुत ही मुश्किल था.

कुछ समय बाद नीलम प्रयागराज लौट गई और प्रीति अपने मकान को एक विश्वस्त आदमी को किराए पर दे कर अपना रिसर्च वाला काम पूरा करने के लिए दिल्ली लौट आई. उसे पता चला कि उस की मां ने अपने नाम से एक इंश्योरैंस भी कराया था जिस का अच्छाखासा पैसा नौमिनी होने के कारण उसे मिल गया.

मां के बैंक अकाउंट में भी काफी पैसे थे, इसलिए उस को अपने रिसर्च के काम में कोई दिक्कत न आई. उस ने नीलम का सारा पैसा लौटा दिया. समय बीतता गया और उस के साथसाथ प्रीति भी पहले से ज्यादा सम?ादार व परिपक्व होती गई. उसे आगरा के ही एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

इस दुनिया में कहां किसी को किसी से मतलब होता है. वह अकेली थी. समीर जो कभी उस के दिल के करीब आ चुका था उस से भी उस का संपर्क टूट गया था. नीलम अपने घर चली गई थी जिस से कभीकभी फोन पर बातचीत होती रहती थी.

लड़कियों की शादी में तो वैसे ही काफी दिक्कतें होती हैं और उस का तो एक पैर भी खराब था. और उस की शादी के बारे में सोचने वाला भी कोई नहीं था. जो लोग उस के संपर्क में आते थे, वे उस की सुंदरता से आकर्षित हो कर आते थे न कि उस का जीवनसाथी बनने के लिए. इसलिए ऐसे लोगों से वह हमेशा ही अपने को दूर रखती थी. अब तो उस की जिंदगी का एक ही मकसद था घर से कालेज जाना, वहां मनोयोग से छात्रों को पढ़ाना और शाम को घर लौट कर मनोविज्ञान की पुस्तकों का गहरा अध्ययन करना.

इधर, वह मनोविज्ञान पर एक किताब लिख रही थी जिस से उस का खालीपन कट जाता था. कालेज के उस के सहकर्मी पढ़ाने में कम कालेज की आपसी राजनीति में ज्यादा इंटरैस्ट लेते थे और उन की इन बेवजह की चर्चाओं से वह अपने को हमेशा ही दूर रखती थी, इसलिए उन लोगों से भी उस का ज्यादा संबंध नहीं था.

किंतु कालेज के प्रिंसिपल उस को बहुत सम्मान देते थे क्योंकि उन की निगाहों में उसे इतनी कम उम्र में काफी अच्छी जानकारी थी, इसलिए वे उस की हर संभव मदद भी करते थे. कालेज के छात्र भी उस की कक्षाओं को कभी भी नहीं छोड़ते थे क्योंकि उस से अच्छा लैक्चर देने वाला कालेज में कोई अन्य लैक्चरर नहीं था.

एक दिन सुबह उस ने अखबार में देखा कि समीर नाम का कोई आईएएस अधिकारी उस के शहर में जिला अधिकारी बन कर आया हुआ है.

समीर नाम ने ही उस के दिल में हलचल पैदा कर दी. वह सोचने लगी यह वही समीर तो नहीं जो कभी उस के दिल के बहुत करीब हुआ करता था और घंटों मनोविज्ञान के किसी टौपिक पर उस से चर्चा करता था. क्या समीर आईएएस बन गया?

यह प्रश्न उस के जेहन में कौंध रहा था और वह बहुत देर तक समीर के साथ बिताए गए उन पलों को याद कर रही थी जो 5 वर्ष बाद भी अभी तक वैसे ही तरोताजा थे जैसे यह बस कुछ पलों पहले की बात हो.

यही पता लगाने के लिए एक दिन वह उस के औफिस पहुंची तो पता लगा कि साहब अभी मीटिंग में व्यस्त हैं. दूसरे दिन समीर से मिलने के लिए उस के चैंबर में जाना चाहा तो, दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे रोक दिया और उस से स्लिप मांगी. उस ने सोचा, पता नहीं वही समीर है या कोई और, इसलिए उस ने चैंबर में उस से मिलने का विचार त्याग दिया. वह सोचने लगी वैसे तो जिलाधिकारी आम आदमी के हितों के लिए जिला में पदस्थापित होता है और उस से मिलने के लिए कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र है लेकिन अफसरशाही ने आम आदमी से जिलाधिकारी को कितना दूर कर दिया है.

वैसे जिलाधिकारी से उस के द्वारा समयसमय पर लगाए जाने वाले जनता दरबार में भी आसानी से भेंट हो सकती थी किंतु उस के बारे में जानने की तीव्र जिज्ञासा इतनी थी कि वह बहुत समय तक इस के लिए इंतजार नहीं कर सकती थी. सो, जिलाधिकारी द्वारा राजस्व से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए किए जाने वाले कोर्ट के दौरान उस ने उसे देखने का मन बनाया.

उसे किसी ने बताया था कि उस दिन जिलाधिकारी न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई करेंगे. जब वह उस के न्यायालय में पहुंची तो समीर मुकदमे की कोई फाइल देख रहा था. वह न्यायालय में खड़ी थी किंतु समीर ने उसे नहीं देखा और वह ?ाट न्यायालय के कमरे से बाहर आ गई. फिर अपने घर पहुंची. अब उस ने सोचा कि वह उस के आवास में जा कर मिलेगी. जब वह उस के आवास पहुंची तो फिर चपरासी ने स्लिप मांगी. उसे लगा, वह तो लड़की है, लोग जाने उस के बारे में क्याक्या सोचने लगें, इसलिए उस से बिना मिले ही वापस घर लौट आई.

समीर को जिला में पदस्थापित हुए 4 महीने से अधिक हो गए थे, किंतु उन दोनों की मुलाकात नहीं हुई थी. अब तक मनोविज्ञान पर प्रीति की लिखी पुस्तक ‘आने वाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ को छापने के लिए दिल्ली का पाठ्यपुस्तकों से संबंधित एक प्रकाशक तैयार हो गया था. पुस्तक की पांडुलिपि उस ने प्रकाशक को सौंप दी थी जो अब मुद्रण के लिए भेजी जा चुकी थी.

अगले महीने उस की प्रतियां तैयार हो कर आ जाने वाली थीं और पुस्तक का विमोचन उस के कालेज के हौल में होना तय हुआ था. प्रिंसिपल के आग्रह पर जिलाधिकारी समीर ने भी विमोचन समारोह में आना स्वीकार कर लिया था और उसी के हाथों उस की पुस्तक का विमोचन होना था.

काम की बहुत ज्यादा व्यस्तता के कारण समीर का ध्यान इस ओर नहीं गया था कि इस की लेखिका वही प्रीति है जो कभी दिल्ली में उस के साथ मनोविज्ञान में एमए कर रही थी. पिंसिपल साहब खुद इन्विटेशन ले कर गए थे और प्रीति ने उन से कभी समीर की चर्चा नहीं की थी.

प्रीति यह सोच कर काफी उत्सुक और रोमांचित थी कि उस की पुस्तक का विमोचन समीर के हाथों होगा और उसी के द्वारा वह सम्मानित की जाएगी. वह सोच रही थी कि वह क्षण कैसा होगा जब वह पहली बार इतने दिनों के बाद समीर के सामने जाएगी. आज वह दिन आ ही गया था.

रात में उसे नींद ठीक से नहीं आई थी. बारबार उसे समीर की बातें, उस के साथ घंटों मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर हुई चर्चाएं याद आ रही थीं. उस समय समीर उस से बारबार कहता था कि वह आईएएस बन कर समाज की सेवा करना चाहता है और अब उस की मनोकामना पूरी हो गईर् थी. उस ने जो सोचा था उसे वह मिल गया था.

क्या समीर की शादी हो गई है या अभी भी वह कुंआरा है, यह प्रश्न भी उस के मन में बारबार कौंध रहा था. वह सोच रही थी कि यदि समीर की शादी हो गई है तो उस की पत्नी कैसी होगी. यदि समीर ने उसे देख कर पुरानी बातों को कुरेदना शुरू किया तो उस की पत्नी की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं वह उस के संबंधों को ले कर आशंकित तो न हो जाएगी.

उस के मन में पहली बार इतना उत्साह था. दिल में हलचल थी. वहीं, अंदर से समीर से मिलने का एक मधुर एहसास भी था. उस ने अपनी सब से अच्छी साड़ी निकाली और पहली बार अपना इतनी देर तक शृंगार किया. आज सच में वह काफी सुंदर लग रही थी.

पुस्तक विमोचन समारोह के लिए कालेज के हौल को काफी सजाया गया था. शहर के कई गणमान्य व्यक्तियों को भी बुलाया गया था. दूसरे कालेजों के शिक्षक और कई विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया था. सब के खानेपीने का इंतजाम पुस्तक के प्रकाशक की ओर से था.

वह कालेज रिकशा से जाती थी, किंतु आज प्रिंसिपल ने उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी ड्राइवर के साथ भेजी थी और कालेज के एक जूनियर लैक्चरर को भी साथ लगा दिया था.

जब वह कालेज के हौल में पहुंची तो अधिकतर मेहमान आ चुके थे. लाउडस्पीकर पर कोई पुराना संगीत काफी कम आवाज में बज रहा था. पुस्तक विमोचन की सारी आवश्यक तैयारियां कर ली गई थीं. अब जिलाधिकारी के आने की प्रतीक्षा थी.

तभी जिलाधिकारी समीर के आने का माइक पर अनाउंसमैंट हुआ. समीर के स्टेज पर पहुंचते ही सभी उपस्थित मेहमान उस के सम्मान में खड़े हो गए.  प्रिंसिपल ने समीर का स्टेज पर स्वागत किय??ा और उन्हें अपनी बगल में विशेष अतिथि के रूप में बैठाया. ठीक उस के बगल में प्रीति भी बैठी हुई थी. प्रीति ने समीर को देख कर हाथ जोड़े तो वह अप्रत्याशित रूप से उस को स्टेज पर देख कर विस्मित होते हुए बोला, ‘‘अरे तुम, प्रीति?…यहां?’’

‘‘क्या आप एकदूसरे को पहचानते हैं?’’ प्रिंसिपल ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने एक ही साथ दिल्ली में एक ही कालेज से साइकोलौजी में एमए किया है.’’

‘‘लेकिन प्रीति ने यह कभी नहीं बताया,’’ प्रिंसिपल ने अब प्रीति की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘क्यों प्रीति, इतना बड़ा राज तुम छिपाए हुए हो. मुझे तो कम से कम बताया होता.’’

प्रीति प्रिंसिपल को क्या बताती कि उस ने कई बार समीर से मिलने की कोशिश की थी लेकिन कुछ संकोच, कुछ झिझक और परिस्थितियों ने उसे उस से नहीं मिलने दिया और चाह कर भी वह समीर से अपने संबंधों को अपने सहकर्मियों के साथ साझा न कर पाई.

‘‘समीर तुम से मिलने की मैं ने बहुत बार कोशिश की, लेकिन मिल नहीं पाई,’’ वह सकुचाते हुए धीरे से बोली.

‘‘अब यह बहानेबाजी न चलेगी प्रीति. फंक्शन के बाद मैं तुम्हारे घर पर आऊंगा. मां कैसी हैं?’’

सुनते ही प्रीति की आंखें नम होने लगीं और वह इस का कोई जवाब नहीं दे पाई तो प्रिंसिपल ने मामले की नाजुकता को समझाते हुए, बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘इत्मीनान से इस संबंध में बातें होंगी. अभी हम लोग पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम शुरू करते हैं.’’

पुस्तक का विमोचन करते हुए समीर ने प्रीति की सादगी, नम्रता और उस के कोमल भावों की विस्तृत चर्चा करते हुए अपने कालेज के दिनों की यादों को सब के साथ सा?ा करते हुए कहा कि प्रीति कालेज में एक ऐसी लड़की थी जिस से हमारे प्रोफैसर भी बहुत प्रभावित थे. प्रीति को साइकोलौजी पर जितनी पकड़ है उतनी बहुत कम लोगों को होती है. हमें गर्व है कि इस शहर में हमारे बीच प्रीति जैसी एक विदुषी हैं.’’

समीर की बातों से पूरा हौल तालियों से गड़गड़ाने लगा तब प्रीति ने महसूस किया कि समीर, जिस के बारे में उस ने सोचा था कि वह उसे भूल गया है, बिलकुल उस की थोथी समझा थी. उस के दिल में उस के प्रति अभी भी उतना ही लगाव और प्रेम है जितना कालेज के दिनों में हुआ करता था.

फंक्शन के बाद समीर ने उस से उस का फोन नंबर लिया और उस के घर की लोकेशन नोट करते हुए कहा कि इस रविवार को वह उस के साथ ही लंच करेगा. अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए उस ने रविवार को इंतजार करने के लिए कहा.

फंक्शन के बाद उस के सभी सहकर्मी उस को आंखें फाड़ कर देख रहे थे. समीर ने सभी लोगों के बीच जिस प्रकार प्रीति की प्रशंसा की थी और सम्मान दिया था उस का किसी को भी अनुमान नहीं था. प्रीति ने घर आ कर पूरे घर को साफ किया, ड्राइंगरूम में सोफे को करीने से लगाया और घर के बाहर पड़े हुए गमलों को ठीक से लगाया और उन में पानी दिया.

मां के गुजर जाने के बाद प्रीति अंदर से काफी टूट गई थी. घर में कोई नहीं था और उस का जीवन अकेलेपन के दौर से गुजर रहा था, इसलिए पूरा घर ही अस्तव्यस्त पड़ा हुआ था. किंतु समीर ने जब से कहा था कि रविवार को उस के घर आ कर उस के साथ लंच करेगा उस के शरीर में एक नया ही उत्साह पैदा हो गया था, मनमयूर नाचने लगा था और जीवन के प्रति एक नया नजरिया पैदा हो गया था.

रविवार को सुबह से ही प्रीति समीर के लिए लंच की तैयारी में लगी हुई थी. इस बीच फोन पर उस ने प्रयागराज से नीलम को भी बुला लिया था. वह पुस्तक विमोचन समारोह में कुछ जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण नहीं आ पाई थी. नीलम भी समीर से मिलने के लिए उत्साहित थी. एक लंबे समय के बाद तीनों एकसाथ एक टेबल पर मिलने वाले थे.

समीर ने उसे फोन पर सूचना दी थी कि वह रविवार को 2 बजे के बाद आएगा, उसे एक जरूरी मीटिंग में शामिल होना है क्योंकि जिले में सोमवार को सीएम का दौरा होने वाला था. किंतु वह उस दिन 12 बजे ही आ गया.

‘‘सीएम साहब का दौरा रद्द हो गया तो मैं जल्दी आ गया,’’ आते ही वह बोला. उस का घर एक संकरी गली में था. उस की गाड़ी सड़क पर खड़ी थी. बौडीगार्ड साथ में था.

उसे अचानक आया देख प्रीति और नीलम दोनों उठ खड़ी हुईं.

नीलम को देख कर उस ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अरे तुम कब आईं. तुम भी आगरा में ही रहती हो क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में प्रीति ने बताया तो मिलने आ गई,’’ नीलम मुसकराते हुए बोली.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं इस शहर में पिछले 4 महीने से हूं लेकिन प्रीति को मेरी कभी याद न आई.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है समीर, तुम से मिलने का मैं ने कई बार सोचा लेकिन मिलने की हिम्मत न हुई.’’ प्रीति ने कहा.

‘‘क्यों, मैं तुम्हारे लिए गैर कब से हो गया. यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम मु?ा से मिलना ही नहीं चाहती थीं.’’ अब प्रीति उस से क्या कहती और कहती भी तो क्या उस की सफाई से समीर की उलाहना दूर हो जाती?

‘‘अच्छा, अब बता मां जी कहां हैं?’’

‘‘समीर, अब प्रीति की मां इस दुनिया में नहीं हैं,’’ नीलम ने बताया.

कुछ देर तक समीर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘सौरी प्रीति, मैं ने तुम्हारे दिल के दर्द को कुरेदा. अब घर में कौन रहता है?’’

‘‘इस के साथ अब कोई रहने वाला नहीं है समीर. यह नितांत अकेलापन का जीवन जीती है. अपनी दुनिया में खोई हुई. जिस तरह कालेज में किताबों में खोई रहती थी, अब भी किताबें ही इस की साथी हैं,’’ नीलम बोली.

समीर थोड़ी देर तक घर में इधरउधर देखते रहा. उस की मां और बाबूजी का फोटो सामने की दीवार पर टंगा हुआ था. उस ने सोचा उस का ध्यान अब तक उन फोटो पर क्यों नहीं गया जो वह प्रीति को बारबार मां की याद दिलाता रहा. उस ने हाथ जोड़ कर उस के मातापिता के फोटो के सामने जा कर उन्हें प्रणाम किया और प्रीति से बोला, ‘‘जिंदगी इसी का नाम है. यह कोई नहीं जानता कि किस की जिंदगी उस को किस तरह जीने के लिए मजबूर करेगी. तुम से बिछुड़ने के बाद मैं एक बौयज होस्टल में शिफ्ट कर गया जहां सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले लड़के रहते थे. घर में पढ़ने का माहौल नहीं था.

‘‘वहां एक दिन किसी ने मेरा स्मार्टफोन चुरा लिया. उस फोन में बहुत सारी इन्फौर्मेशन थीं, उसी में तुम्हारा फोन नंबर भी था. मैं ने तुम्हें खोजने का प्रयास किया किंतु तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाया. फिर मेरी कोचिंग की क्लासेज चलने लगीं और परीक्षा की तैयारी में इतनी बुरी तरह उल?ा कि फिर तुम्हारी ओर ध्यान ही नहीं गया और इसी बीच मेरे बाबूजी का तबादला कंपनी वालों ने दूसरे शहर में कर दिया जहां वे मां के साथ शिफ्ट कर गए.

‘‘मैं इकलौती संतान था. घर में कोई रहने वाला नहीं था, इसलिए पिताजी ने 3 कमरों के इस अपार्टमैंट में एक कमरा निजी उपयोग के लिए रख कर 2 कमरे किराए पर दे दिए. लेकिन प्रीति तुम चाहतीं तो मेरे घर जा कर मेरे किराएदार से मेरा फोन नंबर मांग सकती थीं क्योंकि कभीकभी मैं वहां जाया करता था और किराएदार को मेरा फोन नंबर मालूम था. तुम तो मेरे घर आई थीं. मेरे मातापिता तुम्हें बहुत ही लाइक करते थे. मां तो हमेशा ही तुम्हारे सरल स्वभाव की प्रशंसा करती थीं और पिताजी अकसर कहा करते थे कि किसी भी व्यक्ति का गुण प्रधान होता है न कि उस का शरीर.

‘‘मेरे मांबाबूजी इसी हफ्ते यहां घूमने आने वाले हैं. मैं तुम्हें उन से मिलवाऊंगा.’’

‘‘हां समीर, मुझे भी उन से मिलने की बहुत इच्छा है. उन से मिले हुए काफी दिन हो गए हैं. उन के आने के बाद तुम मुझे फोन करना, मैं उन से मिलने जरूर आऊंगी. लेकिन तुम अपनी पत्नी को ले कर क्यों नहीं आए?’’

समीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तुम्हारी जैसी कोई मिली नहीं.’’

‘‘क्यों मजाक करते हो समीर. मेरे जैसी कोई मिले भी नहीं. हैंडीकैप होना एक अभिशाप से कम नहीं है.’’

‘‘ऐसा न कहो प्रीति, आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में तुम्हारा मुकाबला करने वाला इस शहर में कोई नहीं है.’’

यह तो प्रीति नहीं जानती थी कि समीर के साथ उस का क्या रिश्ता है किंतु अंदर ही अंदर यह जान कर कि वह अब तक कुंआरा है उस के मन के तार झांकृत हो उठे.

इस बीच समीर के मांबाबूजी के आने का वह बेसब्री से इंतजार करती रही और फिर कुछ ही दिनों बाद समीर ने उसे फोन कर बताया कि उस के मांबाबूजी आए हुए हैं और उस से मिलना चाहते हैं. आज रात का डिनर उन के साथ करोगी तो उसे खुशी होगी.

प्रीति तो इसी अवसर का इंतजार कर रही थी, इसलिए उस ने उस के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उसे अंदर आने से कोई न रोके, इसलिए समीर ने उस को लाने के लिए अपनी प्राइवेट कार भेज दी थी.

प्रीति को लेने समीर अपने आवास के गेट तक स्वयं आया. जब वह उस के साथ ड्राइंगरूम में पहुंची तो उस के मांबाबूजी उस का इंतजार कर रहे थे. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने उसे अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘समीर तुम्हारी हमेशा चर्चा करता है. सुना मां भी नहीं रहीं. घर में अकेली हो. बेटी मैं समझा सकती हूं तुम्हारी तकलीफ को. लड़की वह भी अकेली,’’ समीर की मां बोलीं.

‘‘बेटी, अब आगे क्या करना है?’’ समीर के बाबूजी ने पूछा.

‘‘क्या करूंगी बाबूजी. दिन में कालेज में पढ़ाती हूं, रात में अध्ययन, कुछ लेखन.’’ उस ने नम्रता से कहा.

‘‘अभी क्या लिख रही हो?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं. इस पुस्तक का रिस्पौंस देख लेती हूं कैसा है, फिर आगे का प्लान बनाऊंगी.’’

‘‘यह पुस्तक ‘आनेवाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ मैं ने पढ़ी. समीर ने दी थी. यह सच है कि मनोविज्ञान के स्थापित सिद्धांत आने वाली पीढि़यों के संदर्भ में वैसे ही न रहेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप भी क्या न… आते ही पुस्तक की चर्चा में लग गए. घर और बाहर रातदिन यही तो यह करती है. आज तो हम एंजौय करें. वैसे प्रीति, मैं तुम से पूछना भूल गया था, सारे आइटम वेज ही रखे हैं. मांबाबूजी वैजिटेरियन हैं.’’

‘‘मैं भी वैजिटेरियन ही हूं.’’

खाना खाने के बाद जब प्रीति जाने को हुई तो मां ने उसे रोका.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी की कहीं बात चल रही है क्या?’’

प्रीति कुछ न बोल पाई. जवाब देती भी क्या. उस की शादी के लिए कौन बात करने वाला था.

‘‘सम?ा गई बेटी. अब तो तुम्हारे घर में तुम्हारे सिवा कोई है नहीं जिस से तुम्हारी शादी के बारे में बात की जाए. समीर तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता है. आईएएस में उस के सिलैक्शन के बाद कई अमीर घराने के लोग अपनी बेटियों की शादी के लिए आए. वे सभी अपनी दौलत के बल पर समीर को खरीदना चाहते थे.

‘‘समीर का इस संबंध में स्पष्ट मत था कि शादी मन का मिलन होता है, सिर्फ शरीर का नहीं और जो लड़की अपने बाप की हैसियत के बल पर इस घर में आएगी वह कभी भी अपना दिल उसे न दे पाएगी. बेटी, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो और समीर से तुम्हारा मन मिलता हो तो इस घर में तुम्हारी जैसी बहू पा कर हम प्रसन्न होंगे. समीर के पिताजी की भी यही इच्छा है. समीर भी यही चाहता है. अब सबकुछ तुम पर निर्भर करता है. तुम इत्मीनान से फैसला ले कर बताना. कोई जल्दी नहीं है, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे.’’

‘‘लेकिन मांजी, कहां समीर की पोस्ट और कहां मैं एक साधारण कालेज की लेक्चरार.’’

‘‘अब लज्जित न करो प्रीति,’’ समीर बोला, ‘‘मेरे और तुम्हारे संबंधों के बीच हमारी पोस्ट और हैसियत बीच में कहां से आ गई, इसी से बचने के लिए तो मैं ने

अब तक किसी शादी का प्र्रस्ताव स्वीकार नहीं किया.’’

प्रीति ने लज्जा से सिर झांका लिया.

उस ने समीर के मांबाबूजी के पैर छूते हुए कहा, ‘‘आप लोगों का आदेश मेरे लिए आज्ञा से कम नहीं.’’

फिर उस की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.

समीर उसे छोड़ने उस के घर तक गया. जब वह लौटने लगा तो उस ने प्रीति को अपने गले से लगा लिया. और बोला, ‘‘प्रीति पतिपत्नी का रिश्ता बराबर का होता है, आज भी मैं वही समीर हूं जो कालेज के दिनों में हुआ करता था और आगे भी ऐसे ही रहूंगा.’’

समीर के गले लगी प्रीति को ऐसा लग रहा था मानो सारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हैं. रात का सियाह अंधेरा अब समाप्त हो चुका था. सुबह की नई किरणें फूटने लगी थीं.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त

Story in Hindi

दूसरी शादी : परवेज की बेबसी

अफरोज के जाने के बाद परवेज की जिंदगी थम सी गई थी. बच्चे अकेले से हो गए थे. अपनों ने जो रंग दिखाया था, उस ने परवेज को झकझोर कर रख दिया था. बच्चों की आंखों में मां की तड़प, उन की बेबसी, उन की मासूमियत भरी आवाज और अपनों से मिले दर्द से वे सहम गए थे.

चाची का बच्चों की औकात से ज्यादा काम करवाना, उन के बच्चों का मारना, तंग करना, खाना न देना, उन को बारबार ‘तुम्हारी तो मां भी नहीं है’ कह कर मजाक उड़ाना, कहीं बाहर जाओ तो बच्चों का दिनभर चड्डी में ही टौयलैट किए हुए ही भूखेप्यासे रहना… बच्चों की ऐसी बुरी दशा और बेबसी देख कर परवेज पूरी तरह टूट चुका था.

कोरोना की दूसरी लहर ने देशभर में मौत का जो नंगा नाच नचाया था, उस से कोई शहर ही नहीं, बल्कि गांवमहल्ला और शायद कोई खानदान ऐसा बचा हो, जो इस की चपेट में न आया हो.

अफरोज के जाने के बाद परवेज अकेला अपने मासूम बच्चों के साथ गांव में रहता था. उस की बड़ी बेटी 8 साल की, उस से छोटी बेटी 5 साल की और उस से छोटा बेटा डेढ़ साल का था.

जो लोग कल तक परवेज की इज्जत करते थे, उस के बच्चों की देखभाल भी करते थे, आज अफरोज के जाने के बाद वे उन से आंखें चुराने लगे थे. लौकडाउन की वजह से परवेज का कामधंधा चौपट हो गया था. कहीं से कोई आमदनी का जरीया न था, ऊपर से इन बच्चों को छोड़ कर वह कहीं जा भी नहीं सकता था.

परवेज के बच्चे अपने चाचा के बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करते, तो वे इन्हें मार कर भगा देते. उन की चाची मासूम बच्ची से घर का झाड़ूपोंछा करवाती थीं. जब वह थक जाती तो रोते हुए परवेज के पास आती और कहती कि चाची अपने बच्चों को तो खाना देती हैं, हमें नहीं देतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई. परवेज किसी काम से बाहर गया था. लौटा तो देखा कि उस की छोटी बेटी और बेटा कमरे में बैठे रो रहे थे. परवेज ने उन से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

बेटी ने बताया, ‘‘चाची मुझ से बड़ा कुकर धुलवा रही थीं. वह मुझ से नहीं उठ रहा था, तो मुझे डांटने लगीं. उन्होंने मुझे खाना नहीं दिया, तो कोई बात नहीं. कम से कम मेरे भाई को तो खाने को कुछ दे देतीं, वह सुबह से भूखा था.’’

यह सुनते ही परवेज का दिल रोने लगा, पर वह कर भी क्या सकता था. कुछ दिनों बाद उसे काम के सिलसिले में वापस मुंबई जाना था. घर पर पड़ेपड़े कई महीने गुजर गए थे.

जब परवेज ने अपनी बड़ी बेटी को बताया, तो वह बोली, ‘‘अब्बा, हम अकेले कैसे रहेंगे? हमें भी साथ ले चलो.’’ परवेज ने उसे समझाया, ‘‘मैं वहां पहुंच कर कुछ ही दिनों में तुम सब को भी ले जाऊंगा.’’

अचानक बेटी बोली, ‘‘आप नई अम्मी ले आओ. हमें भी अम्मी चाहिए. आप दूसरी शादी कर लो.’’

परवेज अफरोज को नहीं भुला पा रहा था और फिर नई मां बच्चों की सही ढंग से देखभाल कर पाएगी या नहीं, इस की कोई गारंटी नहीं थी. लेकिन बच्ची की जिद ने उसे मजबूर कर दिया और वह भी यही सोचने लगा कि कम से कम बच्चों को वक्त पर खाना तो मिलेगा और देखभाल करने वाला कोई तो होगा.

इस तरह परवेज दिल पर पत्थर रख कर मुंबई आ गया और कुछ ही दिन हुए थे कि उस का काम भी चल निकला और जल्द ही उस के लिए एक रिश्ता आ गया, जो उस के एक दोस्त ने बताया था.

उस ने परवेज को एक फोटो दिखाया और बोला, ‘‘यह हिना है. इस के 2 बच्चे हैं. शौहर का अभी एक साल पहले इंतकाल हुआ है. यह अभी अपनी मां के घर है. तुम हां बोलो, तो मैंबात चलाऊं?’’

परवेज ने हिना के मासूम बच्चों के बारे में सुन कर हां कर दी, क्योंकि वह भी अपने बच्चों की मां के न होने का दुख जानता था.

अगले दिन परवेज ने हिना, उस के मांबाप और दोनों बच्चों को अपने ही घर बातचीत करने के लिए बुला लिया. उन्होंने परवेज से काम और बच्चों के बारे मे पूछा, उस के बाद उन्होंने बताया कि हिना के दोनों बच्चों को बचपनसे ही डायबिटीज है. इन्हें इंसुलिन लगती है. अगर तुम्हें यह रिश्ता मंजूर हो तो बताओ.

परवेज ने उन मासूम बच्चों को देखा, जो महज 8 साल और 6 साल के थे. फिर मासूम से चेहरे वाली हिना पर नजर डाली जो अभी जवान ही थी, हां कर दी और अगले ही हफ्ते उन का निकाह हो गया.

निकाह के तीसरे ही दिन हिना ने परवेज को बच्चों को लाने के लिए गांव भेज दिया. कुछ ही दिनों में वह अपने बच्चों को मुंबई ले आया.

हिना जैसी मां पा कर परवेज के बच्चे भी खुश हो गए. हिना ने दिलोजान से बच्चों का खयाल रखना शुरू कर दिया. वह अपने हाथों से उन्हें खाना खिलाती, उन की देखभाल करती और उन्हें कभी मां की कमी महसूस न होने देती. परवेज ने भी उस के बच्चों का अच्छे प्राइवेट स्कूल में दाखिल करा दिया था.

एक दिन हिना ने परवेज को अपनी कहानी सुनाई कि उस के रोंगटे खड़े हो गए. उस ने बताया, ‘‘जब मेरे शौहर का इंतकाल हुआ, तो हम घूमने गुजरात गए थे. उन्हें पहले से ही डायबिटीज थी. वहां पर हम और उन के दोस्तों के परिवार घूमने गए थे कि अचानक इन की तबीयत खराब हो गई. दोस्तों ने इलाज कराने में कोई कमी न छोड़ी, फिर भी वे न बच पाए.

‘‘जब मेरी सास को पता चला, तो वे मुझे धक्का देते हुए बोलीं कि तू ने मेरे बेटे को मार दिया. मैं तो अपने होश में न थी, उन के ये अल्फाज सुन कर बेहोश हो गई. जब होश आया तो मेरा सबकुछ लुट चुका था. मेरा अपनी सुसराल में रहना दूभर हो चुका था.

‘‘मेरे बच्चे भी डायबिटीज के मरीज थे, जो सूख कर कांटा हो गए थे. जेठानी सारा काम मुझ से करवाती थीं. मेरे बच्चों को कभी खाना मिलता, कभी नहीं मिलता. सास ने जीना मुश्किल कर रखा था. आखिर में मुझे अपने मांबाप के घर जाना पड़ा.

‘‘वहां मुझे दो वक्त का खाना तो मिल रहा था, लेकिन शौहर की कमी ने झकझोर कर रख दिया था. अम्मीअब्बा को हमेशा यही बात सताती रहती थी कि बिना शौहर के मेरा और बच्चों का क्या होगा. मेरी भाभी भी बच्चों पर गुस्सा होती रहती थीं. उन्हें कभी किचन में नहीं घुसने दिया जाता था.’’

पर, अब हिना बहुत खुश थी. शादी के एक साल बाद परवेज के घर एक चांद सा बेटा हुआ. जो रिश्तेदार उन्हें दुत्कारते थे, आज खुशीखुशी मिलते हैं. हिना की सास भी मिलने आती रहती हैं. परवेज का भाईभाभी रोज फोन पर बच्चों से बात करते हैं और छुट्टियों में मुंबई आ जाते हैं.

आज परवेज का घरपरिवार खुशहाल है. उस का कामधंधा भी अच्छा चल रहा है. घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं है. बुरा वक्त कब निकल गया, पता ही नहीं चला.

प्यार का धागा : कैसे धारावी की डौल बन गई डौली

सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’

उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन…

लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे

हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था.

वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास.

धारावी की झोपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी.

काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था.

इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था.

जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था.

जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज ?ागड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’

जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी.

कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझसे कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया.

रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं.

उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख

कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं.

आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मु?ो याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था.

उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी

2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया.

मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा.

‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी.

‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसम?ाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’

‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’

इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा.

‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया सम?ा लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बो?ा उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

प्यार के राही-भाग 4 : हवस भरे रिश्ते

इधर चाचा के न रहने पर चाची खुश हो गई. वह मासूम पर अपने पालतू गुंडों से कहर ढाने लगीं. फिर भी मासूम ने शादी के लिए ‘हां’ नहीं कहा. उस ने उन के पैर पकड़ कर रोतेरोते कहा, ‘‘मां, मुझ पर रहम कीजिए, मैं तो बचपन से ही आप को अपनी मां की तरह मानता आया हूं. मेरी शादी गजाला से हो गई है. मैं गजाला को अपनी नजरों से गिराना नहीं चाहता.’’

चाची के आसपास के लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि मासूम की जिंदगी बरबाद मत कीजिए, लेकिन चाची ने किसी की बात नहीं सुनी. मासूम के सीने पर बंदूक रख कर निकाह कबूल करवा ही लिया.

निकाह के बाद मासूम ने 2-3 बार खुदकुशी करने की कोशिश की, लेकिन चाची ने हर बार उस की कोशिश को नाकाम कर दिया. उस के बाद अपने भरोसेमंद नौकरों और गुंडों का कड़ा पहरा लगा दिया, ताकि मासूम खुदकुशी न कर सके. चाची ने मासूम को जिंदा लाश बना दिया था.

इस बीच चाची अपने हवस की प्यास मासूम से बुझाती रही. इधर मैं कैद थी, इसलिए अपने दिल का दर्द उसे बता नहीं सकती थी. मेरे पैर पर प्लास्टर

2 दिनों के बाद खुलने वाला था, तभी मासूम राही को किसी तरह पता चला कि मैं अपने घर में कैद हूं.

तब मासूम का खून खौल उठा. उस ने तूफान की तरह हमारे घर की तरफ आना चाहा, लेकिन चाची के भरोसेमंद नौकरों और गुंडों ने रोक लिया. लेकिन उस समय मासूम के सीने में आग

सुलग रही थी. नौकरों और गुंडों से जम कर मुकाबला किया और सभी को जमीन सुंघा दी. उस समय चाची कहीं गई हुई थीं.

मासूम तेजी से मेरे घर में आया. उस समय अम्मी और अब्बा बाजार गए हुए थे. मैं लेटी हुई थी. मासूम को अपने कमरे में देखते ही मैं उस से लिपट कर रोने लगी.

मासूम ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘रो मत गजाला. मैं तुम्हें यहां से निकालने आया हूं. चलो, मेरे साथ चलो. आज दुनिया की कोई ताकत मुझे तुम से जुदा नहीं कर सकती. वैसे मैं तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं रहा. अब मेरा मर जाना ही अच्छा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, मासूम,’’ मैं ने भरे कलेजे से कहा. ‘‘खैर, छोड़ो. आओ, चलो मेरे साथ,’’ कहते हुए मासूम ने मेरा हाथ थाम लिया.

मैं चलफिर नहीं सकती थी. मेरे पैर में लगा प्लास्टर देख कर मासूम ने पिछली जेब से एक चमकदार चाकू निकाला, जिसे उस ने शायद गुंडों से छीना था. प्लास्टर कट जाने के बाद मैं आजाद हो गई. हम दोनों जैसे कमरे से बाहर निकले, अब्बा और अम्मी को देख कर दंग रह गए.

अब्बा का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ने लगा. वे गुस्से में बोले, ‘‘तुझ बेगैरत की हिम्मत कैसे हुई हमारे घर में आने की? मासूम, तू चला जा, नहीं तो मैं यहां खून की नदियां बहा दूंगा. बदजात, अपनेआप को समझता क्या है?’’

मुझे मासूम की बेइज्जती बरदाश्त नहीं हुई. मैं ने कहा, ‘‘अब्बा, हम दोनों मरेंगे साथसाथ और जिएंगे भी साथसाथ. मैं ने मासूम से शादी कर ली है.’’

‘‘नहीं, इस की जाति और खानदान का पता नहीं. यह इस घर का दामाद नहीं बन सकता. जिसे तुम अपना शौहर होने का दावा कर रही हो, वह अब तुम्हारा चाचा है और चाचा बाप के समान होता है,’’ अब्बा ने गरज कर कहा.

‘‘चलो मासूम, हमें इस महल्ले में नहीं रहना है. हम दोनों कहीं और चलें,’’ मैं ने यह कहा और हम दोनों घर से निकल गए.

जब चाची घर आईं, तो गुंडों और नौकरों के सिर पर कई जगह पट्टी बंधी देख कर वे चौंकीं.

‘‘मासूम गजाला के साथ कहीं भाग गया है,’’ एक नौकर ने कहा.

चाची का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे नौकरों और गुंडों पर बहुत बिगड़ीं और थाने में मेरे खिलाफ अपहरण की रिपोर्ट लिखाई.

हम दोनों जानते थे कि पुलिस हमें जरूर खोजेगी, इसलिए हम लोग जल्द से जल्द पुलिस की पकड़ से दूर निकल जाना चाहते थे. लेकिन हम लोगों के पास एक भी पैसा नहीं था. फिर भी हम दोनों ने हिम्मत की और स्टेशन पहुंच कर बिना टिकट लिए ही दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गए.

हम दोनों दिल्ली पहुंचते ही कान की बालियां बेच कर एक दिन छोटे होटल में रहे. फिर मासूम ने एक कालोनी में 2,000 रुपए किराए पर 2 कमरे ले लिए. हम दोनों बीए तक पढ़ चुके थे.

मासूम रोज नौकरी खोजने जाते, लेकिन निराश हो कर लौट आते. अब पैसे भी खत्म होने पर थे. तभी मासूम को एक कारखाने में बड़े बाबू के

रूप में 15,000 रुपए महीना पर नौकरी मिल गई.

एक दिन पड़ोस की जरीना से जानपहचान हुई, जो डाक्टर थी. वह हम दोनों को अपनी सगी जैसी समझने लगी.

एक दिन उस ने मुझ से पूछा, ‘‘तुम तो बीए पास हो. हमारे क्लिनिक में नर्स की नौकरी कर लो. तनख्वाह 5,000 रुपए दूंगी.’’

मैं ने वह नौकरी करनी शुरू कर दी. अब हम दोनों अपनी जिंदगी मौजमस्ती से गुजारने लगे. बाद में फिर जरीना और उस के शौहर ने मिल कर हम दोनों का निकाह धूमधाम से करा दिया.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त – भाग 3

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड और रात के 11 बजे महल्ले वाले अपनेअपने घरों की रजाइयों में दुबके होंगे. जबकि प्रेम की अगन, हम दोनों को एकदूसरे से मिलने के लिए बेकरारी बढ़ा रही थी. मैं अपने घर की छत पर पहुंचा. धीरे से उस की छत पर पहुंचा पूरी सावधानी से. मन में डर था. कोई देख न ले. प्रेम आदमी में हिम्मत और जोश भर देता है. यह बात तो आज पक्की हो गई थी.

मैं उस के बैडरूम में था उस के साथ. मैं उसे जीभर कर देख रहा था. और वह मु झे. मैं उस से लिपट गया. उस ने विरोध नहीं किया. मैं उसे चूमने लगा. उस ने मेरा साथ दिया. मैं ने उस के कपड़े उतारने की कोशिश की. उस ने कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या? मन तो मिल चुके हैं,’’ मैं ने अपने हाथ वापस खींच लिए. उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर फूल की तरह रखा और उस से लिपट गया. मैं उसे फिर से चूमने लगा. वह भी मु झे चूमने लगी. सर्दी में गरमी का एहसास होने लगा. मैं ने फिर आगे बढ़ना चाहा. उस ने फिर कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या?’’

‘‘तुम डर रही हो. घबराओ मत. मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा. और मेरे हाथ फिर से उस के वस्त्र उतारने की ओर बढ़े.

‘‘यह सब तो तुम अपनी पत्नी के साथ कई बार कर चुके होगे. मैं तुम से सैक्स नहीं, केवल प्यार चाहती हूं.’’

‘‘सैक्स भी तो प्यार प्रदर्शित करने का एक माध्यम है. क्या तुम मु झे नहीं चाहती. यदि प्रेम करती हो तो फिर संबंध बनाने से इनकार क्यों?’’ उस के जिस्म पर मेरे होंठ और हाथ हरकत कर रहे थे. उस का शरीर समर्पण मुद्रा में था.

‘‘अगर तुम यही चाहते हो तो यही सही. मैं आप की खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं. आगे कुछ हो तो आप संभाल लेना.’’

मैं शिकारी की मुद्रा में था. इस अनमोल समय को मैं किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. एकदो बार दिमाग ने सम झाने की कोशिश की. लेकिन इस स्थिति में दिमाग की कौन सुनता है. दिमाग खुदबखुद शरीर के बाकी हिस्से के साथ शामिल हो जाता है. वह शरमाती रही. मैं उसे निर्वस्त्र करता रहा. उस ने कहा, ‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

मैं ने कहा, ‘आई लव यू’ और मैं आगे बढ़ता रहा. वह धीरेधीरे कराहती रही और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ समय बाद वह मेरा साथ देने लगी. मेरे चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. उस के चेहरे पर संतुष्टि के साथ डर भी था. मैं ने उसे गोली निकाल कर दी.

‘‘इसे खा लो.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आए हो,’’ उस ने गोली हाथ में ले ली. फिर वह मु झ से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मु झे छोड़ना मत. मैं ने अपना सबकुछ तुम्हें सौंप दिया.’’

मैं ने उसे कभी न छोड़ने का वादा किया. सुबह 4 बजे में वापस लौटा. मेरे मन पर भी कुछ बो झ सा आ गया था. मैं भी सही और गलत पर विचार करने लगा था. और वह तो अब जैसे मु झ पर ही निर्भर हो चुकी थी. मु झे ही अपना सबकुछ मान बैठी थी. उस का बारबार फोन आना. अपना अधिकार जता कर बात करना. भविष्य के बारे में बात करना. बातबात पर रो देना. कभी भी मेरे कालेज चले आना. फिर मिलने की बात करना. इन सब बातों ने मु झे भारी दबाव में ला दिया था.

मैं स्वयं को मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त सा पा रहा था. मैं ने उसे सम झाया कि देखो, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं. इस तरह तुम्हारी जिद और अधिकार हमारे प्रेमभरे संबंधों के लिए घातक हैं. हम बिना किसी बंधन के ज्यादा सुखी रह सकते हैं. तुम्हें अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिए. मेरी बात पर उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मैं कहां अधिकार जता रही हूं. प्रेम के बदले प्रेम ही तो मांग रही हूं. पहले आप मिलने के लिए कितने उतावले रहते थे. अब तो बस हां या न में उत्तर देते हो. पहले की तरह सुबह आते भी नहीं हो.’’

‘‘इन दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है,’’ कहने को तो मैं ने कह दिया. लेकिन सच बात यही थी कि मैं अपने अंदर अब वह जोश वह उत्साह नहीं पा रहा था, चाह कर भी. उस की बारबार की शिकायतों से तंग आने लगा था मैं. तो क्या मु झे उस से जो चाहिए था उस की पूर्ति हो चुकी थी? क्या उस के प्रति मेरी दीवानगी मात्र उस के शरीर को पाने तक सीमित थी? क्या चंद रातों के लिए मैं ने अपना सुकून और एक लड़की का जीवन दांव पर लगा दिया था? क्या मु झे अपनी पत्नी से ऐसा कुछ नहीं मिल रहा था जो मैं ने इस लड़की में तलाशना चाहा? कहीं यह मेरी अधेड़ावस्था के कारण तो नहीं.

प्यार तो उस समय करता था मैं उस से. आज भी करता हूं लेकिन वह बात नहीं रही अब? क्यों नहीं रही वह बात? क्या मैं उस के शरीर का भूखा था मात्र? अब क्यों उस के पीछेपीछे नहीं जाता मैं? क्यों उस से कतराता रहता हूं. इस के लिए कहीं न कहीं वह भी दोषी है. एकदम से पीछे पड़ जाना, बारबार फोन करना, हरदम मिलने की कोशिश करना कहां तक उचित है? लेकिन मु झे उसे सम झाना होगा. उस पर ध्यान भी देना होगा. कमउम्र की लड़की है. न जाने गुस्से या नाराजगी में क्या कर बैठे? वह जबजब मिली, नईपुरानी शिकायतों के साथ मिली. और मैं प्रेम से उसे प्रेम की परिभाषा सम झाता रहा. जिस में त्याग की भावना मुख्य थी. लेकिन सम झाना व्यर्थ ही रहता. वह अधिकार चाहती थी. जो मैं उसे नहीं दे सकता था.

‘‘आप ने ही तो कहा था कि मेरे लिए सबकुछ कर सकते हो.’’

‘‘हां, तो कर तो रहा हूं. तुम से मिलता हूं, बात करता हूं.’’

‘‘मु झे अपना अधिकार चाहिए.’’

‘‘हमारे बीच अधिकार की बात कहां से आ गई?’’

‘‘प्यार है तो अधिकार तो आएगा ही, मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं, अरमान हैं. मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. घर बसाना चाहती हूं.’’

‘‘अब वह शादी की बात कहां से आ गई? तुम क्या चाहती हो? मैं अपने बीवी, बच्चे छोड़ दूं? क्या वे मु झे इतनी आसानी से छोड़ देंगे? समाज, कानून भी कोईर् चीज है.’’

‘‘आप ने जो वादे किए थे उन का क्या?’’

‘‘मैं ने प्यार करने का, निभाने का वादा किया था.’’

‘‘तो ले चलो मु झे कहीं दूर अपने साथ. मत करना शादी. मैं ऐसे ही रहने को तैयार हूं.’’

‘‘उफ यह क्या मुसीबत मोल ले ली मैं ने. कहां ले जाऊं इसे? कहां रखूं? लोगों को पता चलेगा. पत्नी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी मेरे बारे में. मैं उस से स्पष्ट नहीं कह सकता था कि मेरा पीछा छोड़ो. वह कुछ भी कर सकती थी. इन दिनों उस के तेवर ठीक नजर नहीं आ रहे थे मु झे. वह मेरा नाम लिख कर आत्महत्या कर सकती थी. वह पुलिस थाने जा कर यौनशोषण का आरोप लगा सकती थी मु झ पर. मु झे ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए उसे यह एहसास दिलाना जरूरी था कि मैं जल्द ही उस की इच्छा पूरी करने के लिए कोई कदम उठाने जा रहा हूं. क्या करूं, कैसे पीछा छुड़ाऊं? जिस लड़की के लिए मैं मरा जा रहा था आज उस से पीछा छुड़ाने के विषय में सोच रहा था.’’

मैं भूल गया था कि वह कोई सैक्स का खिलौना नहीं थी कि जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल कर दिया और रख दिया एक तरफ. वह जीवित हाड़मांस की 25 वर्षीया नौजवान लड़की थी. उस की इच्छाएं, अरमान होना स्वाभाविक था. लेकिन मेरा अपना जीवन था. मैं प्रोफैसर था. विवाहित था. 2 बच्चों का बाप था. यह बात मु झे उस रात उस के घर में जा कर उस से संबंध बनाने से पहले सोचनी चाहिए थी. तो क्या करूं पीछा छुड़ाने के लिए. ले जाऊं कहीं दूर और फेंक दूं मार कर उस की लाश को कहीं. क्या मैं यह कर सकता हूं? क्या यह मु झे करना चाहिए? तो क्या उसे अपनी गैरकानूनी पत्नी बना कर रख लूं. लोग यही तो कहेंगे कि दूसरी औरत रख ली है. हत्यारा बनने से तो बचूंगा. फिर मेरी उम्र और उस की उम्र में 20 वर्ष का अंतर है. जब मु झ से शारीरिक सुखों की पूर्ति नहीं होगी, तो खुद ही चली जाएगी छोड़ कर. सारा प्यार एक तरफ धरा रह जाएगा. नहीं…नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

एक दिन उस ने रोते हुए कहा, ‘‘जल्दी कुछ करो, मेरे घर वाले शादी के लिए लड़का तलाश रहे हैं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है. तुम्हारी उम्र का पढ़ालिखा, अच्छी नौकरी वाला जीवनसाथी मिलेगा. जो सिर्फ तुम्हारा होगा.’’

‘‘मैं किसी से शादी नहीं करूंगी. मेरी शादी होगी तो सिर्फ तुम से… वरना सारा जीवन कुंआरी रहूंगी.’’

मैं ने उसे सम झाते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है तुम अपने पैरों पर खड़ी हो. यदि शादी की तुम्हारी शर्त है तो मेरी भी एक शर्त है. तुम्हें प्रोफैसर की पत्नी बनना है तो पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

मैं ने दांव चलाया. दांव चल गया. उस ने जोश में कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं आप को अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाऊंगी. लेकिन प्यार कम नहीं होना चाहिए.’’

उस के आखिरी वाक्य से मैं आहत

सा हुआ. लेकिन मु झे रास्ता मिल गया.

अच्छा रास्ता जो लड़की के भविष्य के लिए उचित था.

‘‘हां, प्यार कम नहीं होगा. वादा रहा. लेकिन तुम्हें किसी बड़ी कंपनी या सरकारी नौकरी में ऊंची पोस्ट पर आना होगा. इस के लिए तुम्हें खूब तैयारी करनी होगी. सबकुछ भूल कर कम से कम 12 घंटे पढ़ना होगा. चाहो तो किसी बड़े शहर में कोचिंग जौइन कर लो. साथ ही, अपनी पढ़ाई भी जारी रखो. मैं इस में तुम्हारी मदद करूंगा.’’

‘‘लेकिन मेरे घर वाले मु झे बाहर भेजने के लिए राजी नहीं होंगे.’’

‘‘तुम पढ़ाई पर ध्यान दो. तुम्हारी लगन और मेहनत देख कर वे खुद तुम्हें भेजेंगे. मैं भी सम झाऊंगा उन्हें.’’

‘‘लेकिन अपना वादा याद रखना.’’

‘‘तुम अपना वादा तो निभाओ.’’

‘‘मैं बीचबीच में मिलती रहूंगी. मिलना होगा आप को. फोन पर बात भी करनी होगी.’’

‘‘मु झे मंजूर है,’’ मैं ने खुशी के साथ कहा.

यदि लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो कर भी मु झ से जुड़ी रहना चाहे तो मु झे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. ऐसा मेरा मानना था. धीरेधीरे उम्र बढ़ेगी. सम झ भी बढ़ेगी. लड़की नौकरी में होगी तो उस का अपना स्टेटस भी होगा. वह अपने बराबर का रिश्ता देखेगी. चार लोगों में उसे भी तो अपने पति से मिलवाना होगा. मु झे नहीं लगता कि वह आज से 5 वर्ष बाद मु झे किसी से अपने पति के रूप में मिलवाना पसंद करेगी.

इस बीच मेरी पत्नी का शक मजबूत हो चुका था. अब वह उसे घर आने की बात पर टाल देती. उस से ठीक से बात नहीं करती. मु झ से भी कई बार उसे ले कर  झगड़ा हो चुका था. मेरे मोबाइल की घंटी बजते ही  झट से पत्नी आ कर मोबाइल उठा कर पूछती. जब उसे यकीन हो जाता कि दूसरी तरफ मेरी प्रेमिका है तो वह उलटीसीधी बातें सुनाती. गालियां देती और मोबाइल पटक देती. कई बार मेरे कालेज भी आ जाती. एकदो बार उस ने बात करते हुए पकड़ भी लिया और उसे और मु झे खूब खरीखोटी सुनाई. मैं ने अपनी पत्नी को कई बार सम झाया कि वह कम उम्र की नादान लड़की है. पढ़ाईलिखाई में मदद मांगने आती है. लेकिन पत्नी का स्पष्ट कहना था कि मु झे बेवकूफ बनाने की जरूरत नहीं है. मैं सब सम झती हूं. घर में मेरे सम्मान की धज्जियां उड़ने लगीं. पत्नी बातबात पर व्यंग्य करने से नहीं चूकती.

मैं ने अपनी पत्नी की आड़ ले कर उसे डराते हुए सम झाया, ‘‘मेरे मोबाइल पर बात मत करना. खासकर जब मैं घर में रहूं. तुम्हारे घर वालों से शिकायत कर दी, तो तुम्हारे घर वाले तुम्हें चरित्रहीन सम झेंगे. तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हारा विवाह कर देंगे. यदि तुम हम दोनों का भला चाहती हो, सुखी भविष्य देखना चाहती हो तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाओ. इसी दिन के लिए मैं बारबार फोन करने, मिलने के लिए मना करता था. यह दुनिया शुरू से प्यार की दुश्मन रही है. लेकिन तुम ने प्यार को प्यार न सम झ कर अधिकार सम झ लिया.’’

उस ने रोंआसे स्वर में कहा, ‘‘जब तुम्हारी पत्नी ने मु झे भलाबुरा कहा, तब तुम ने क्यों कुछ नहीं कहा. अपने प्यार का अपमान होते देखते रहे.’’

मैं ने गुस्से से कहा, ‘‘यदि मैं कुछ कहता तो वह तुम्हारा तमाशा बना कर रख देती. जो मैं नहीं चाहता था. तुम सम झतीं क्यों नहीं बात?’’

वह सम झ गई. उदास हो कर घर चली गई. मैं ने लड़की के पिता बिहारीलालजी को एक पत्र लिखा और उन के बैंक के पते पर पोस्ट कर दिया. पत्र में बहुत विश्वसनीयता से उन की पुत्री के गैर लड़के से संबंधों की जानकारी लिखी थी. बिहारीलालजी बैंक में अंकाउंटैंट थे. उन के परिवार में इस बेटी के अलावा एक बेटी, एक बेटा और पत्नी थी. मैं जानता था कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में लड़की बाहर चाहे जो करे लेकिन प्रेम के नाम पर यदि मातापिता उसे डांटेंमारें तो वह किसी अपराधी की तरह सिर  झुका कर सब सुनतीसहती रहेगी. यही हुआ भी. उस के मातापिता डांट रहे थे. उन की आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं. मेरी पत्नी ने मु झ पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘लो, लड़की ने तो तुम जैसे न जाने कितने फंसा रखे हैं.’’

मैं ने पत्नी को जम कर लताड़ते हुए कहा, ‘‘गंवार, बेवकूफ औरत. वह एक सीधीसाधी लड़की है. कम उम्र की है. बचपना है उस में. मैं तो उसे टीचर बन कर पढ़ाता था. तुम ने मु झे भी नहीं बख्शा. इस उम्र में हो जाता है लगाव. मैं उस के पिता से बात कर के उन्हें सम झाऊंगा. दोबारा मेरा नाम उस के साथ जोड़ने की गलती मत करना. वह सिर्फ मेरे लिए एक स्टूडैंट है. और ऐसी न जाने कितनी छात्राएं मु झ से पढ़ाई संबंधी सवाल पूछती हैं. कभीकभी कम उम्र के बच्चों को लगाव हो जाता है. इस का अर्थ यह तो नहीं कि मैं उस का प्रेमी हो गया.’’

पत्नी खामोश हो गई. कभीकभी तेज स्वर में सचाई से  झूठ बोलना सच को छिपा देता है. दूसरे ही दिन मैं बैंक में जा कर बिहारीलालजी से मिला. मु झे देख कर वे आश्चर्य में पड़ गए. मैं ने कहा, ‘‘कुछ बात करनी थी. थोड़ा सा समय लूंगा आप का.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘थोड़ा एकांत में.’’

वे बैंक से बाहर आ गए. मैं ने कहा, ‘‘कल आप के घर से तेज आवाजें आ रही थीं.’’ उन के चेहरे पर तनाव आ गया.’’

‘‘मैं पहले ही इस संबंध में आप को बताना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं हुई. अब जब आप को सब पता चल ही चुका है तो मेरी सलाह मानिए. आप की बेटी पढ़ने में होशियार है. किसी लड़के के बहकावे में आ गई है. लड़की सभ्य, संस्कारी, पढ़ने में तेज है. इस तरह की बातों पर शोर करने से मामला बिगड़ता है. कल गुस्से में लड़की ने कोई गलत कदम उठा लिया तो मुश्किल हो जाएगी आप के लिए.’’

‘‘आप ही बताइए, क्या करूं मैं?’’

‘‘मेरी मानिए, लड़की को कुछ समय कोचिंग और कालेज की पढ़ाई के लिए बाहर भेज दीजिए. यदि नौकरी में आ गई तो आप के दोनों बच्चों को भी मार्गदर्शन मिल जाएगा. घर की मदद भी हो जाएगी. यह सारा  झमेला भी खत्म हो जाएगा.’’

‘‘आप जानते हैं उस लड़के को?’’

‘‘नहीं, मैं ने एकदो बार उसे मोटरसाइकिल पर घूमते देखा है आप की लड़की को. आप यह सब छोडि़ए और लड़की के भविष्य व परिवार के सम्मान की खातिर उसे दिल्ली भेज दीजिए. दोतीन साल की बात है. इस बीच कोई अच्छा रिश्ता आ जाए तो बुला कर शादी कर दीजिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ बिहारीलालजी मेरी बात से सहमत थे.

उन्होंने तब तक लड़की का घर से निकलना बंद कर दिया. उस का मोबाइल छीन लिया. जब तक कि वे उसे दिल्ली के एक अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में नहीं छोड़ आए. मैं ने राहत की सांस ली. एक प्यारभरी गलती, एक विवाहित पुरुष की प्यार करने की गलती, एक कम उम्र की लड़की से प्यार करने का अपराध और बाद में उस से अपने सुखद भविष्य, शांतिपूर्ण गृहस्थी और लड़की की भलाई के लिए मु झे जो करना था, वह मैं ने किया. इसे गुनाह छिपाने का सकारात्मक तरीका भी कहा जा सकता है.

कालेज के समय पर उस के फोन आते. वह ‘आई लव यू’, ‘आई मिस यू’ के मैसेज करती. मु झे बेइंतहा प्यार करने की बात कहती और साथ ही अपना वादा याद रखने की बात कहती. मैं बदले में यही कहता, ‘कुछ बन कर दिखाओ, प्यार के लिए, पहले.’

वह शायद पढ़ाई में व्यस्त होती गई. अब फोन आते, लेकिन पहले वह पढ़ाई संबंधी मार्गदर्शन लेती, उस के बाद अंत में आई लव यू पर अपनी बात खत्म करती. मैं जानता हूं होस्टल का खुलापन, हमउम्र लड़केलड़कियों की एक कालेज में पढ़ाई के साथ मौजमस्ती. धीरेधीरे उस का मेरी तरफ से ध्यान हटेगा. अपने हमउम्र किसी लड़के पर उस का  झुकाव बढ़ेगा.

उस ने एक दिन फोन कर के बताया कि वह बैंक के साथसाथ पीएससी की तैयारी भी कर रही है. कालेज की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. उस ने यह भी बताया कि पिताजी को किसी ने मेरे बारे में उलटासीधा पत्र लिखा था. इसलिए उन्होंने मु झे दिल्ली भेज दिया. जबकि ऐसा नहीं था. उस ने यह भी बताया कि शादी के लिए पिताजी ने एक लड़का पसंद किया है. मु झे बुलाया है. लेकिन मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, वापस नहीं आऊंगी. यदि वे रुपए न भी भेजें, तो कोई पार्टटाइम जौब कर लूंगी. फिर धीरेधीरे फोन अंतराल से आने लगे. कईकई दिनों में. फोन आते भी तो आई लव यू भी कई बार नहीं कहा जाता.

मेरी उम्र 50 वर्ष हो चुकी थी. उसे गए हुए 5 वर्ष बीत चुके थे. मु झे पता चला उस के पिता से कि उस ने पीएचडी कर ली है. नैट निकाल लिया है. वह साथ ही आईपीएस की तैयारी भी कर रही है. मु झे खुशी हुई कि उस ने मु झे फोन लगा कर नहीं बताया. इच्छा हुई कि एक बार उस से मिलूं, इस मिलने में कोई प्रेम नहीं था, वासना नहीं थी. बस, देखना था कि कितना भूल चुकी है वह.

मैं ने 3 माह लगातार साबुन से बाल धोए. न बाल कटवाए, न डाई करवाई. इस से मेरे बालों की पिछली सारी ब्लैक डाई निकल चुकी थी. मेरे सारे बाल सफेद थे. और चेहरे पर सफेद चमचमाती दाढ़ी. आंखों में पावर का चश्मा. मैं इग्नू के काम से दिल्ली आया हुआ था. सोचा, मिलता चलूं और परिवर्तन देखूं. होस्टल का पता उसी के द्वारा मु झे मालूम था. मैं होस्टल के बाहर था. वह गु्रप में लड़कियों के साथ हंसीमजाक कर रही थी. मु झे देख कर वह सकते में आ गई.

मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने अपनी साथ की लड़कियों से कहा, ‘‘यह मेरे अंकल हैं,’’ सभी लड़कियों ने मु झे ‘हाय अंकल,’ ‘नमस्ते अंकल’ कहा. उसे लगा मैं कुछ कह न दूं. वह मु झे फौरन होस्टल के गैस्टरूम में ले गई. उस समय वहां कोई नहीं था. वह मु झ पर भड़क कर बोली, ‘‘आप बिना बताए कैसे आ गए? आए थे तो कम से कम हुलिया ठीक कर के आते. इस समय आप अंकल नहीं, दादाजी लग रहे हैं. क्या जरूरत थी आप को यहां आने की?’’

मु झे खुशी हुई उस की बात सुन कर. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘तुम से मिलने की इच्छा हुई, तो चला आया.’’

‘‘ऐसे कैसे चले आए? यह गर्ल्स होस्टल है. फिर आशिकी का भूत सवार तो नहीं हो गया ठरकी बुड्ढे. जो हुआ मेरा बचपना था. अगर वह बात किसी को बता कर बदनाम करने की कोशिश की तो जेल भिजवा दूंगी यौनशोषण का केस लगा कर.’’

तभी उस का फोन बजा. वह एक तरफ जा कर बात करने लगी.

‘‘हां, रमेश, कल की पार्टी मेरी तरफ से. उस के बाद पिक्चर का भी प्रोग्राम है. हां, मेरा सलैक्शन हो गया है कालेज में.’’

‘‘यह रमेश कौन है?’’ मैं ने पूछा, हालांकि मु झे पूछने की जरूरत नहीं थी.

‘‘मेरा बौयफ्रैंड है,’’ फिर उस ने मु झे सम झाया, ‘‘प्लीज, पुरानी बातें भूल जाओ. मैं ने गुस्से में जो कहा, उस के लिए माफ करना. यहां मेरा अपना टौप का सर्कल है. यदि किसी को तुम्हारे बारे में पता चलेगा तो मेरा मजाक उड़ाएंगे सब.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ मैं पूरी तरह निश्ंिचत हो कर उठा.

‘‘अंकल, आप ने पढ़ाई में मेरी जो मदद की है, उस के लिए धन्यवाद. एक बार गलती हम दोनों से हुई थी. उसे याद करने की जरूरत नहीं. प्लीज, आप जाइए. कोई पूछे तो कहना आप मेरे अंकल हैं. घर के लोगों ने कहा था कि दिल्ली जा रहे हो, तो बेटी के हालचाल पूछते हुए आना.’’

‘‘हां, बिलकुल यही कहूंगा.’’

मैं होस्टल के गैस्टरूम से बाहर निकला. उस का मु झे भूलना, मु झ से चिढ़ना, मु झ से बचना, यही तो चाहता था मैं. जो हो चुका था. मेरी गलती का, अपराध का सफल प्रायश्चित्त हो चुका था. मैं खुश था, मेरे मन का सारा बो झ उतर चुका था. मैं अपनी सफाई, सम झदारी से बच तो निकला था लेकिन दाग फिर भी धुला नहीं था पूरी तरह.

घर पर जब कभी कोई नैतिकता, प्रेम, विश्वास की बात करता तो पत्नी के मुंह से निकल ही जाता, तुम तो रहने ही दो. तुम्हारे मुंह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं. और मैं चुप रह जाता. चुप रहने में ही भलाई सम झता. कहने को अपनी सफाई में बहुतकुछ कह सकता था मैं. लेकिन, मैं खामोश रहता क्योंकि अंदर से मैं जानता था कि कहीं न कहीं से गुनहगार हूं मैं. द्य

यह कैसा प्यार – भाग 3 : मर्यादा की दहलीज

‘‘अंकल, आप कैसी बातें कर रहे हैं? आप की इज्जत मेरी इज्जत. रमा मेरी पत्नी बने, मेरे लिए गर्व की बात होगी.’’

विजय की बात सुन कर रमा के मन में फिर से एक बार कंपन हुई. इस कंपन में प्यार के साथ सम्मान भी था और आभार भी. विजय ने अपने घर में दोटूक उत्तर दिया, ‘‘मैं रमा से ही शादी करूंगा. यह मेरा पहला और आखिरी फैसला है. आप मना करेंगे तो भी मैं शादी करूंगा, चाहे कोर्ट में ही क्यों न करनी पडे़?’’

विजय के परिवार के लोग भी सहमत हो गए. शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. रमा खुश थी, बहुत खुश. उसे बचपन से जवानी तक देखाभला युवक पति के रूप में मिल रहा था. रही विजय के बेरोजगार होने की बात, तो रमा के पिता ने स्पष्ट कह दिया कि ऐसे नेक लड़के के रोजगार लगने की प्रतीक्षा की जा सकती है. यदि नौकरी नहीं मिली तो अपनी जमा पूंजी से विजय के लिए रोजगार की व्यवस्था मैं करूंगा.

रमा के मोबाइल की रिंगटोन बजी. रमा ने मोबाइल उठा कर पूछा ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘आप का शुभचिंतक.’’

‘‘नाम बताइए.’’

‘‘मैं बंगाली बाबा. आप को वशीभूत करने के लिए एक व्यक्ति ने मु?ो रुपए दिए थे. यदि आप नाम जानना चाहें तो 10 हजार रुपए मेरे अकाउंट में जमा करवा दीजिए.’’

‘‘मु?ो नहीं जानना.’’

‘‘हो सकता है जो तंत्रमंत्र के द्वारा आप का वशीकरण चाहता हो, कल आप को दूसरे तरीके से भी नुकसान पहुंचा दे.’’

‘‘कौन है वह?’’

‘‘पहले अकाउंट में रुपए.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, इस का क्या सुबूत है?’’

‘‘मेरे पास आप का फोटो, घर का पता, मातापिता का नाम, सारी जानकारी है आप की.’’

रमा का माथा ठनका. पिछले दिनों जो कुछ उस के साथ हुआ कहीं ये सब उसी व्यक्ति का कियाधरा तो नहीं है. रमा ने उस के अकाउंट में रुपए जमा करवा कर नाम पूछा. नाम सुन कर रमा भौचक्की रह गई. रमा सीधे पुलिसस्टेशन पहुंची. थाना इंचार्ज सीमा तिवारी से मिली. अपनी बदनामी और उन पत्रों की जानकारी दे कर बाबा द्वारा बताया गया नाम भी बताया.

‘‘आप चिंता मत करिए. मैं बारीकी से जांच कर के अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगी.’’

पुलिस ने अपनी जांच शुरू की. रमा की शादी जिस लड़के से होने वाली थी उस लड़के और उस के परिवार वालों को थाने बुला कर पूछताछ की. लड़के को जिस नंबर से फोन पर जान से मारने की धमकी मिली थी, उस नंबर की जांच के साथ उन तमाम पत्रों की भी जांच की गई जो रमा के विरुद्ध महल्ले, कालेज में और लड़के वालों के घर भेजे गए थे. जांच का परिणाम यह निकला कि सबकुछ विजय द्वारा किया गया था. पुलिस की थर्ड डिगरी के आरंभिक दौर में ही विजय ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. रमा ने गुस्से में आ कर कई थप्पड़ विजय को जड़ दिए.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा?’’

‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम्हें पाने के लिए, तुम से शादी करने के लिए किया सब.’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम्हें. जिस से प्यार करते हो उसी को सारे शहर में बदनाम कर दिया. यह कैसा प्यार है? यह प्यार है तो नफरत किसे कहते हो? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मैं तुम्हें अपना दोस्त सम?ाती रही. तुम पर भरोसा करती रही और तुम ने भरोसा तोड़ा, मेरी शादी तुड़वाई. गिर चुके हो तुम मेरी नजरों से. मैं चाहूं तो जेल भिजवा सकती हूं अभी लेकिन फिर तुम्हारी बहन की शादी कैसे होगी? तुम्हारे मातापिता कैसे जी पाएंगे?’’

रमा ने थाना प्रभारी सीमा तिवारी से निवेदन किया, ‘‘मैडम, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. मैं इस व्यक्ति के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करना चाहती. इसे क्षमा करना ही इस की सब से बड़ी सजा होगी.’’

विजय नजरें झकाएं हवालात में खड़ा था. रमा की डांट से, थप्पड़ से वह अंदर ही अंदर टूट चुका था. रमा थाने के बाहर आई. सामने शादी तोड़ने वाला परिवार खड़ा था. रमा से माफी मांग कर लड़के ने कहा, ‘‘दूसरे के बहकावे में आ कर मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी. मैं शादी करने को तैयार हूं.’’

‘‘लेकिन मैं तैयार नहीं हूं. किसी के बहकावे में आ कर शादी तोड़ने वालों पर विश्वास नहीं कर सकती. शादी के बाद यदि यही बातें तुम तक पहुंचतीं तब क्या करते, तलाक दे देते? विवाह के लिए भरोसा जरूरी है. पहले विश्वास करना सीखिए.’’

रमा ने अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर चल दी. धीरेधीरे यह बात सब जगह पहुंच गई कि रमा को बदनाम करने में विजय का हाथ था. वह तो रमा भली लड़की है जिस ने विजय के परिवार को ध्यान में रख कर उस पर कोई केस नहीं किया.

रमा अब सरकारी नौकरी करती है. इसी शहर में उस का विवाह हो चुका है एक डाक्टर से. रमा के 2 बच्चे हैं. वह खुशहाल भरापूरा जीवन जी रही है. पुलिस थाने से निकलने के बाद विजय न घर आया न किसी ने उसे देखा. विजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज है.

 

प्यार के राही-भाग 3 : हवस भरे रिश्ते

वे यह भी जानते थे कि मासूम से मैं प्यार करती हूं, इसलिए उन्होंने एक दिन मौका पा कर मासूम से कहा, ‘‘बेटे, अब तू इस घर में ज्यादा दिनों तक बचा नहीं रह सकता. मैं अधेड़ हूं, अकसर बीमार रहता हूं. न जाने कब मेरे प्राण निकल जाएं. मेरे मरने के बाद तुम बिना माली के गुलशन की तरह हो जाओगे, इसलिए अभी ही तुम किसी मनपसंद लड़की से शादी कर लो. वैसे, गजाला बहुत अच्छी लड़की है. मैं ने उसे बचपन से अपनी गोद में खिलाया है. उस के साथ तुम हमेशा खुश रहोगे.’’

‘‘लेकिन मैं गजाला से मिलूंगा कैसे? अम्मी ने तो मुझ पर इतना सख्त पहरा लगा दिया है कि मैं घर से भी बाहर नहीं निकल पाता,’’ मासूम ने अपना दर्द कहा.

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. मैं आज रात तुम दोनों को मिलवा दूंगा, तब तुम दोनों आपस में तय कर लेना.’’

उस रात मौका पा कर चाचा ने मासूम राही से मेरी मुलाकात कराई. मैं ने रोतेरोते मासूम से कहा, ‘‘अब मैं एक पल भी तुम से जुदा नहीं रह सकती. वह घर मेरे लिए कैदखाने के समान हो गया है. मेरी हालत पिंजरे में कैद उस

पंछी की तरह हो गई है, जो किसी

दरिंदे से बचने के लिए सिर्फ पंख फड़फड़ा सकता है, लेकिन उड़ नहीं सकता. अब यही उपाय है कि हम दोनों निकाह कर लें.’’

‘‘तुम फिक्र मत करो, मैं ने तुम से प्यार किया है. मैं तुम्हारा दर्द मिटाने के लिए अपनी जान भी गंवा सकता हूं. मैं भी यह चाहता हूं कि हम दोनों जल्द ही शादी कर लें,’’ मासूम ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

अगले दिन मसजिद में मासूम राही के साथ मैं ने निकाह कर लिया. हम दोनों ने बीवीशौहर के रूप में एकदूसरे को सौंप दिया. उस समय मासूम राही की उम्र 21 साल और मेरी उम्र 20 साल थी. वह रात हम दोनों ने एक फुलवारी में बिताई.

मैं जानती थी कि मेरे घर वाले किसी भी कीमत पर मासूम को अपना दामाद नहीं मानेंगे और चाची डौली जरूर कोई न कोई बवाल खड़ा करेंगी. ऐसी हालत में शादी के बाद इस महल्ले में हम दोनों का रहना खतरे से खाली नहीं था, इसलिए भोर होने से पहले ही हम दोनों महल्ले की सरहद से पार हो गए. हम दोनों पैदल ही शहर की ओर बढ़ने लगे.

सुबह होने पर जब चाची ने मासूम को घर से गायब पाया, तो वे बेहद घबरा गईं. उन के गुस्से का पारा चढ़ने लगा. उन्होंने चाचा को अपने भाइयों से पिटवाने की धमकी दी और कहा कि तुम ने ही मासूम को भगा दिया है.

चाचा ने जबान नहीं खोली. चाची ने अपने गुंडों से महल्ले का चप्पाचप्पा छनवा मारा, लेकिन हम दोनों का कहीं कुछ पता नहीं लग सका.

चाची को शक था कि गजाला मासूम के अलावा किसी और के साथ नहीं जा सकती. उन्हें जब पता लगा कि गजाला भी घर से गायब है, तो उन का शक यकीन में बदल गया. वे गुस्से में हमारे घर आईं और पूछा, ‘‘गजाला कहां है?’’

अब्बाजान भी इस बारे में नहीं जानते थे, इसलिए अपनी इज्जत बचाने के लिए चुप्पी ही साधे रखी.

तब चाची ने उलटा इलजाम लगाया. अब्बाजान ने जानबूझ कर गजाला और मासूम को कहीं भगा दिया है, यह सोच कर चाची ने धमकी देते हुए कहा, ‘‘तुम सबकुछ जानते हुए भी कुछ नहीं बता रहे हो. मैं तुम्हें 12 घंटे का समय दे रही हूं. तब तक मासूम को मेरे हवाले कर दो, वरना मैं तुम लोगों पर मासूम को अगवा करने के इलजाम में थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दूंगी. इस का अंजाम क्या होगा, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

अब्बाजान तो सचमुच में ये सब नहीं जानते थे. वे लड़खड़ाई जबान में बोले, ‘‘एक हफ्ते से गजाला मामू के यहां गई हुई है.’’

तब चाची गुस्से से आगबबूला हो कर बोलीं, ‘‘तुम झूठ मत बोलो. हमें

12 घंटे का इंतजार है. उस के बाद भी अगर तुम ने मासूम का पता नहीं बताया, तो ठीक नहीं होगा.’’

आखिर चाची ने अब्बाजान और हमारे खिलाफ अगवा के इलजाम में रिपोर्ट दर्ज करवा ही दी. पुलिस ने तुरंत अब्बाजान के खिलाफ वारंट जारी कर गिरफ्तार कर लिया.

जब पुलिस ने उन से पूछताछ की, तो उन्होंने बताया, ‘‘इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता. न ही हम ने मासूम को अगवा किया. शादी की भी कोई बात नहीं है. मैं तो खुद नहीं चाहता कि हमारी बेटी की शादी उस बिन जात से हो.

‘‘2 महीने पहले हमें खबर मिली कि गजाला और मासूम प्यार करते हैं, तो मैं ने और मेरी बेगम ने गजाला को बहुत कड़ी सजा दी, जिस के चलते गजाला को अस्पताल में रहना पड़ा. कल रात गजाला और मासूम कहां चले गए, यह मुझे पता नहीं.’’

पुलिस इंस्पैक्टर ने एक बाप की बेबसी समझी और बात को सच्चा समझ कर अब्बा को छोड़ दिया. उस के बाद पुलिस तुरंत हरकत में आई और आसपास के इलाके में पूरी सरगर्मी के साथ हम दोनों को तलाश करने लगी. चाची भी पुलिस के साथ थीं.

हम दोनों पैदल ही अपना सफर तय कर रहे थे. इसलिए हम लोग पुलिस की पकड़ से बच नहीं सके. पुलिस ने हमें उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब हम दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हो रहे थे.

पुलिस हमें गिरफ्तार कर थाना में ले आई. चाची ने पुलिस को घूस के रूप में भरपूर रुपए दे कर खुश कर दिया. इसलिए पुलिस ने मासूम को चाची के हवाले कर दिया और मुझे कैद रखा.

मासूम से बिछुड़ कर मैं रोतेरोते पागल सी हो गई थी. थोड़ी देर बाद अब्बा को यह मालूम हुआ, तो वे तुरंत भागेभागे थाना में आए और मुझे जमानत पर छुड़ा कर ले गए.

मेरे आने पर अम्मी और अब्बा मुझ पर जुल्मों का कहर ढाने लगे, जैसे मैं उन की औलाद नहीं, बल्कि कोई भेड़बकरी होऊं. अब्बा ने तो मुझे ऐसा थप्पड़ मारा कि मेरे मुंह से खून निकलने लगा.

मेरी देखभाल छोटी बहन अफसाना करने लगी. उधर चाची ने मासूम को मकान के एक कमरे में कैद कर लिया और शादी करने के लिए रातदिन उस पर दबाव डालने लगीं.

चाचा जशीम राही को चाची की इस हरकत का पता लगा,

तो उन को बहुत गहरा सदमा

पहुंचा, जिस से उन की हालत और बिगड़ गई.

चाची 42 साल की थीं ही. वे चाचा से छुटकारा पाना चाहती थीं, क्योंकि वही उन के रास्ते का कांटा थे, इसलिए उन की बेबसी की हालत में भी उन की दवादारू नहीं कराई और उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिस के चलते वे कुछ दिनों के बाद चल बसे. तब मासूम पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा.

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