आस्था : कुंभ में स्नान करने का क्या मिला फल

रात के 8 बज चुके थे. पुष्पेंद्रजी अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. पत्नी बारबार घड़ी की तरफ बेचैनी से देख रही थीं. सोच रही थीं कि रोज शाम 6 बजे के पाबंद पतिदेव को आज क्या हो गया? इतनी देर तो कभी नहीं होती… तभी उन्हें सहसा याद आया कि सुबह उन्होंने गरज कर यही कहा था कि आज कुंभ के लिए कन्फर्म टिकट ले कर ही आना है.

इतने में बाहर गाड़ी के आने की आवाज कानों में पड़ी. गाड़ी की आवाज से पत्नी भलीभांति परिचित थीं और श्रीमानजी के आने का संकेत उन्हें मिल चुका था.

पुष्पी ने खीजते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आज भी रिजर्वेशन करा लाए या मुंह लटका कर चले आए?’’

शांत स्वभाव के पुष्पेंद्रजी ने कहा, ‘‘एजेंट से कह आया हूं कि टिकट के इंतजाम में कितने भी रुपए लगें, करवा देना, वरना घर पहुंच कर मेरी खैर नहीं.’’

यह सुन कर पत्नी ने कुछ राहत की सांस ली और यह सोच कर मुसकराईं, ‘चलो, मेरा कुछ तो इन पर असर है.’

सारा मामला कुंभ स्नान से जुड़ा हुआ था. उज्जैन में कुंभ शुरू होने वाला था. पत्नी चाहती थीं कि 14 को ही पहुंच कर कुंभ के पहले स्नान का लाभ ले लिया जाए.

चाय पी कर पुष्पेंद्रजी अखबार पकड़ने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी. सोच के मुताबिक फोन एजेंट का ही था. उस ने कहा, ‘सर, रिजर्वेशन तो हो गया है, लेकिन भक्तों की भीड़ के चलते 14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट मिले हैं, वे भी हर टिकट के एक हजार रुपए ज्यादा देने पर.’पुष्पेंद्रजी के लिए यह हैरानी की बात थी कि टिकट की कीमत है 8 सौ रुपए और ऐक्स्ट्रा हजार रुपए. उन्हें समझ नहीं आया कि हजार रुपए ज्यादा देने के लिए रोएं या टिकट मिलने की खुशी मनाएं. फिर उन्हें लगा कि एक पति को आदर्श पति का दर्जा हासिल करने के लिए पत्नी की मांगों को सिरआंखों पर रखना पड़ता है. फिर यहां तो धार्मिक आस्था का भी सवाल है.

पुष्पेंद्रजी गाड़ी उठा कर टिकट लाने चले गए और थोड़ी देर बाद उन्होंने टिकटों को पत्नी के सुपुर्द कर राहत की सांस ली. पर यह क्या, 20 तारीख के टिकट देख कर पुष्पेंद्रजी की पत्नी बिफर पड़ीं. घर का सारा माहौल अशांत हो गया.

14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट श्रीमतीजी को गंवारा नहीं थे. सो, गुस्से में उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप खुद टिकट लेने जाते, तो यह नौबत नहीं आती. अपना काम खुद करना चाहिए, एजेंटों  के भरोसे रहोगे, तो काम ऐसा ही होगा. आखिरकार दफ्तर में करते ही क्या हो, सिवा अपना और दूसरों का टिफिन खाने के?’’

पुष्पेंद्रजी शांत स्वभाव के जरूर थे, पर वे नटखट भी कम नहीं थे. उन्हें भी कभीकभी सांप की पूंछ पर पैर रखने में मजा आता था.

उन्होंने पत्नी के गले में प्यार से बांहें डाल कर कहा, ‘‘टिकट का रिजर्वेशन क्या मेरे ससुरजी के हाथ में है, जो हमारी मरजी से टिकट देगा. फिर प्राणप्यारी, अगर 14 की जगह 20 को स्नान कर लेंगे, तो न हमें पाप लगेगा और न ही हमारे पुण्य में कोई कमी हो जाएगी.’’

यह सुन कर पुष्पी ने आंखें लाल कीं, तो पुष्पेंद्रजी ने नजरें नीचे कीं.

पुष्पेंद्रजी के बड़े भाई गजेंद्रजी थे. खाने की चीजों के प्रति अटूट लालसा के चलते बचपन से ही लोग उन्हें प्यार से गजेंद्र कहने लगे थे. गजेंद्रजी आकार में गज के समान थे, तो उन की पत्नी गौरी की जबान गज भर की थी.

धार्मिकता के एकदम महीन कपड़े उन्होंने भी पहन रखे थे. भक्ति व धार्मिक कामों में दोनों देवरानीजेठानी एक से बढ़ कर एक थीं. इस मुद्दे पर किसी दूसरे को बोलने का हक नहीं था.

कुलमिला कर कहा जाए, तो धार्मिक नजरिए से उन का घर एक मंदिर था, दोनों भाइयों की पत्नियां पुजारिन थीं और बाकी सदस्य भक्त थे.

घर में धार्मिकता व पत्नीभक्ति का आलम यह था कि पत्नी के पदचिह्नों पर चलना पतियों के लिए जरूरी परंपरा थी.

इस की मजबूत नींव उन के पूज्य दादाजी व पिताजी ने पहले ही रख दी थी. पत्नीभक्ति की परंपरा उन तक ही नहीं सिमटी थी, बल्कि उन के दोनों बेटों ने भी इसी राह पर चलने का व्रत ले रखा था.

आखिरकार 20 तारीख आ ही गई. घर पर चौकीदार को छोड़ कर सारा परिवार कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ा.

कुंभ की भीड़ का यह नजारा था कि मुट्ठीभर रेत फेंकने पर वह नीचे न गिर कर लोगों के सिर पर ही गिरती. इन हालात में वहां ठहरने का इंतजाम करना आसान नहीं था. हर कारोबारी इस कुंभ में इतना कमा लेना चाहता था कि उस का मुनाफा आगे आने वाले कुंभ तक चले.

पंडे तो अपनेआप को भगवान का एजेंट बता र थे. वे इस बात का यकीन दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे कि उन के बिना भगवान तक पहुंचा ही नहीं जा सकता.

होटल, खानेपाने की चीजें व पूजा से संबंधित हरसामान, आभूषण वगैरह कई गुना ज्यादा दामों पर बेचे जा रहे थे. खरीदने वालों में भी कम जोश नहीं था. भले ही घर में झगड़ा कर के आए हों या जमीन गिरवी रख कर आए हों, लेकिन पुण्य कमाने की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था.

पुष्पेंद्रजी ने कुछ बुजुर्गों से उन के आने की वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि अगले 12 सालों तक उन के रहने की गारंटी नहीं है, इसीलिए वे तनमनधन से इसी कुंभ में स्नान कर के पुण्य कमाने आए हैं.

पुष्पेंद्रजी ने कहा कि लंबी जिंदगी की गारंटी व सारी इच्छाएं पूरी होने के लिए तो यहां आए हो, फिर कहते हो कि गारंटी नहीं है.

इस का मतलब है कि आप को कुंभ स्नान व भगवान में विश्वास नहीं है. मामला विश्वास और अविश्वास के बीच झूल रहा था. होटल वाले एक दिन के लिए  10 हजार रुपयों की मांग कर रहे थे. अमीर गजेंद्रजी को भी एक बार सोचना पड़ गया. उन्होंने महिला मंडली से कहा कि एक दिन स्नान कर के लौट आएंगे, लेकिन पत्नियों की भक्ति फिर आड़े आ गई.

दोनों ने एक आवाज में कहा कि इतनी दूर आने के बाद पति के साथ कम से कम 3 स्नान जरूरी हैं, नहीं तो सारा पुण्य मिट्टी में मिल जाएगा.

दूसरे दिन सब सुबहसुबह उठ गए और पंडे को खोजने की सोच रहे थे कि उन की इच्छा तुरंत पूरी हो गई, क्योंकि पंडे ने खुद ही उन्हें खोज लिया था.

पंडे ने सारे विधिविधान से स्नान और पूजा करने का ठेका 20 हजार रुपए में ले लिया. परिवार के सभी सदस्यों ने पंडे का साथ दिया, क्योंकि जीवन में अच्छे दिन जो आने वाले थे. नदी पर फैली गंदगी और पानी का रंग देख कर तो पुष्पेंद्रजी का मन कसैला हो गया.

उन्होंने गंदा पानी देख कर कहा कि इस में डुबकी लगा कर पुण्य कमाने की तुलना में पाप क्या बुरा है? पुण्य मिलेगा या नहीं, पर बीमारियों का आना तय है.

पंडे ने कुछ मंत्र पढ़ कर पतिपत्नी को एकदूसरे का हाथ पकड़ कर डुबकी लगाने व भगवान से अगले 7 जन्मों में भी पतिपत्नी बने रहने का वरदान मांगने को कहा.

गजेंद्रपुष्पेंद्रजी ने बुदबुदाते हुए कहा कि यही जन्म इन के साथ भारी पड़ रहा है और पंडा है कि 1-2, नहीं पूरे 7 जन्मों तक मारने पर तुला है.

पुष्पेंद्रजी ने मजाक भरे लहजे में पंडे से पूछा, ‘‘भैया, आप ने अपनी पत्नी के साथ अभी तक डुबकी लगाई है कि नहीं? क्योंकि धार्मिकता का पूरा ठेका आप ने ही ले रखा है.’’

पंडा भी घुटापिटा था. उस ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘डुबकी मैं भी रोज लगाता हूं, लेकिन अपनी पत्नी के साथ नहीं.’’

3 दिन जैसेतैसे कटे. होटल खाली कर जैसे ही स्टेशन पहुंचे, पता चला कि आगे मालगाड़ी पटरी से उतर गई है और 2 दिन तक गाडि़यां नहीं चलेंगी.

यह सुन कर दोनों भाइयों में पहाड़ टूट पड़ा, क्योंकि उन की हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गई, घर का न घाट का. भाइयों ने चिढ़ते हुए महिला मंडली पर आक्रामक मुद्रा में कहा कि लो, यहीं से अच्छे दिन शुरू हो गए.

सारा परिवार 2 दिन तक ठसाठस भरी धर्मशाला में रुका. धर्मशाला की भीड़ में गौरी की 2 तोले की सोने की चैन गायब हो गई. लेकिन उस ने डर और उलाहने की वजह से किसी को नहीं बताया.

2 दिन बाद वे सभी गाड़ी में चढ़े, तो पता चला कि रिजर्वेशन का डब्बा नहीं लग पाया और सब को जनरल डब्बे में सफर करना पड़ेगा. जनरल डब्बे की बात सुन कर गजेंद्रजी के होश उड़ गए, क्योंकि पिछले 20 सालों से उन्होंने हवाईजहाज या रेलगाड़ी में एयरकंडीशंड क्लास से कम में सफर नहीं किया था.

वे आधी दूर ही पहुंचे थे कि पड़ोसी का फोन आया कि सिक्योरिटी गार्ड घर का सामान ले कर चंपत हो गया है. यह सुन कर पुष्पेंद्रजी ने अपने बाल नोच कर कहा, ‘‘जिंदगी में इस से ज्यादा और बुराई क्या हो सकती है. जिस सिक्योरिटी गार्ड के भरोसे अपने घर को रखा, वही चोर निकला. और हम सब यहां अच्छाई बटोरने आए थे.’’

कुंभ स्नान के बाद उन्हें यह तीसरा झटका लग चुका था. पता नहीं, आगे और क्याक्या होगा. घर पहुंचे, तो पोतों ने कहा कि शरीर में जबरदस्त खुजली हो रही है.

पुष्पेंद्रजी ने मन ही मन कहा कि बेटा, मुझे भी माली व जिस्मानी खुजली हो रही है. गंदे व कीचड़ वाले पानी में नहाने पर खुजली नहीं होगी, तो क्या काया कंचन की हो जाएगी. फर्क यही है कि तुम कह रहे हो, लेकिन मैं बता नहीं पा रहा हूं.

पुण्य कमाने के चक्कर में अब तक डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा ही खर्च हो चुके थे. उन्होंने कहा कि इतने रुपए में पूरा परिवार घर में ही सालभर बोतलबंद पानी में डुबकी लगा सकता था, पर पत्नियों की धार्मिक आस्था का भी जवाब नहीं था.

उन्होंने कहा कि दुख मत मनाइए, ये सब दुर्घटनाएं पिछले कुंभ में स्नान न करने का फल हैं. इस बार के स्नान का फल आने वाले समय में जरूर मिलेगा, सब्र रखिए. यह सुन कर दोनों भाई हैरानी से एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

Valentine’s Day 2024: प्यार असफल है तुम नहीं रक्षित

एक हार्ट केयर हौस्पिटल के शुभारंभ का आमंत्रण कार्ड कोरियर से आया था. मानसी ने पढ़ कर उसे काव्य के हाथ में दे दिया. काव्य ने उसे पढ़ना शुरू किया और अतीत में खोता चला गया…

उस ने रक्षित का दरवाजा खटखटाया. वह उस का बचपन का दोस्त था. बाद में दोनों कालेज अलगअलग होने के कारण बहुत ही मुश्किल से मिलते थे. काव्य इंजीनियरिंग कर रहा था और रक्षित डाक्टरी की पढ़ाई. आज काव्य अपने मामा के यहां शादी में अहमदाबाद आया हुआ था, तो सोचा कि अपने खास दोस्त रक्षित से मिल लूं, क्योंकि शादी का फंक्शन शाम को होना था. अभी दोपहर के 3-4 घंटे दोस्त के साथ गुजार लूं. जीभर कर मस्ती करेंगे और ढेर सारी बातें करेंगे. वह रक्षित को सरप्राइज देना चाहता था.

उस के पास रक्षित का पता था क्योंकि अभी उस ने पिछले महीने ही इसी पते पर रक्षित के बर्थडे पर गिफ्ट भेजा था. दरवाजा दो मिनट बाद खुला, उसे आश्चर्य हुआ पर उस से ज्यादा आश्चर्य रक्षित को देख कर हुआ. रक्षित की दाढ़ी बेतरतीब व बढ़ी हुई थी. आंखें धंसी हुई थीं जैसे काफी दिनों से सोया न हो. कपड़े जैसे 2-3 दिन से बदले न हों. मतलब, वह नहाया भी नहीं था. उस के शरीर से हलकीहलकी बदबू आ रही थी, फिर भी काव्य दोस्त से मिलने की खुशी में उस से लिपट गया. पर सामने से कोई खास उत्साह नहीं आया.

‘क्या बात है भाई, तबीयत तो ठीक है न,’ उसे आश्चर्य हुआ रक्षित के व्यवहार से, क्योंकि रक्षित हमेशा काव्य को देखते ही चिपक जाता था.

‘अरे काव्य, तुम यहां, चलो अंदर आओ,’ उस ने जैसे अनमने भाव से कहा. स्टूडैंट रूम की हालत वैसे ही हमेशा खराब ही होती है पर रक्षित के रूम की हालत देख कर लगता था जैसे एक साल से कमरा बंद हो. सफाई हुए महीनों हो गए हों. पूरे कमरे में जगहजगह जाले थे. किताबों पर मिट्टी जमा थी. किताबें अस्तव्यस्त यहांवहां बिखरी हुई थीं. काव्य ने पुराना कपड़ा ले कर कुरसी साफ की और बैठा. उस से पहले ही रक्षित पलंग पर बैठ चुका था जैसे थक गया हो.

काव्य अब आश्चर्य से ज्यादा दुखी व स्तब्ध था. उसे चिंता हुई कि दोस्त को क्या हो गया है? ‘‘तबीयत ठीक है न? यह क्या हालत बना रखी है खुद की व कमरे की? 2-3 बार पूछने पर उस ने जवाब नहीं दिया, तो काव्य ने कंधों को पकड़ कर पूछा तो रक्षित की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ कहने की जगह वह काव्य से चिपक गया, तकलीफ में जैसे बच्चा अपनी मां से चिपकता है. वह फफकफफक कर रोने लगा. काव्य को कुछ भी समझ न आया. कुछ देर तक रोने के बाद वह इतना ही बोला, ‘भाई, मैं उस के बिना जी नहीं सकता,’ उस ने सुबकते हुए कहा.

‘किस के बिना जी नहीं सकता? तू किस की बात कर रहा है?’ दोनों हाथ पकड़ कर काव्य ने प्यार से पूछा.

‘आम्या की बात कर रहा हूं.’

‘ओह तो प्यार का मामला है. मतलब गंभीर. यह उम्र ही ऐसी है. जब काव्य कालेज जा रहा था तब उस के गंभीर पापा ने उसे एकांत में पहली बार अपने पास बिठा कर इस बारे में विस्तार से बात की. अपने पापा को इस विषय पर बात करते हुए देख कर काव्य को घोर आश्चर्य हुआ था. पर जब पापा ने पूरी बात समझाई व बताई, तब उसे अपने पापा पर नाज हुआ कि उन्होंने उसे कुएं में गिरने से पहले ही बचा लिया.

‘ओह,’ काव्य ने अफसोसजनक स्वर में कहा.

‘रक्षित, तू एक काम कर. पहले नहाधो और शेविंग कर के फ्रैश हो जा. तब तक मैं पूरे कमरे की सफाई करता हूं. फिर मैं तेरी पूरी बात सुनता हूं और समझाता हूं,’ काव्य ने अपने दोस्त को अपनेपन से कहा. काव्य सफाईपसंद व अनुशासित विद्यार्थी की तरह था. रो लेने के कारण उस का मन हलका हो गया था.

‘अरे काव्य, सफाई मैं खुद ही कर दूंगा. तू तो मेहमान है.’ काव्य को ऐसा बोलते हुए रक्षित हड़बड़ा गया.

‘अरे भाई, पहले मैं तेरा दोस्त हूं. प्लीज, दोस्त की बात मान ले.’ अब दोस्त इतना प्यार और अपनेपन से कहे तो कौन दोस्त की बात न माने. काव्य ने समझ कर उसे अटैच्ड बाथरूम में भेज दिया, क्योंकि ऐसे माहौल में न तो वह ढंग से बता सकता है और न वह सुन सकता है. पहले वह फ्रैश हो जाए तो ढंग से कहेगा.

काव्य ने किताब और किताबों की शैल्फ से शुरुआत की और आधे घंटे में एक महीने का कचरा साफ कर लिया. काव्य होस्टल में सब से साफ और व्यवस्थित कमरा रखने के लिए प्रसिद्ध था.

आधे घंटे बाद जब रक्षित बाथरुम से निकला तो दोनों ही आश्चर्य में थे. रक्षित एकदम साफ और व्यवस्थित कक्ष देख कर और काव्य, रक्षित को क्लीन शेव्ड व वैलड्रैस्ड देख कर.

‘वाऊ, तुम ने इतनी देर में कमरे को होस्टल के कमरे की जगह होटल का कमरा बना दिया भाई. तेरी सफाई की आदत होस्टल में जाने के बाद भी नहीं बदली,’ रक्षित सफाई से बहुत प्रभावित हो कर बोला.

‘और तेरी क्लीन शेव्ड चेहरे में चांद जैसे दिखने की,’ चेहरे पर हाथ फेरते हुए काव्य बोला. अब रक्षित काफी रिलैक्स था.

‘भैया चाय…’ दरवाजे पर चाय वाला चाय के साथ था.

‘अरे वाह, क्या कमरा साफ किया है आप ने,’ कमरे की चारों तरफ नजर घुमाते हुए छोटू बोला तो रक्षित झेंप गया. वह रोज सुबहसुबह चाय ले कर आता है, इसलिए उसे कमरे की हालत पता थी.

‘अरे, यह मेरे दोस्त का कमाल है,’ काव्य के कार्य की तारीफ करते हुए रक्षित मुसकराते हुए बोला, ‘अरे, तुम्हें चाय लाने को किस ने बोला?’

‘मैं ने बोला. दीवार पर चाय वाले का फोन नंबर था.’

‘थैंक्यू काव्य. चाय पीने की बहुत इच्छा थी,’ रक्षित ने चाय का एक गिलास काव्य को देते हुए कहा. दोनों चुपचाप गरमागरम चाय पी रहे थे.

चाय खत्म होने के बाद काव्य बोला, ‘अब बता, क्या बात है, कौन है आम्या और पूरा माजरा क्या है?’ आम्या की बात सुन कर रक्षित फिर से मायूस हो गया, फिर से उस के चेहरे पर मायूसी आ गई. हाथ कुरसी के हत्थे से भिंच गए.

‘मैं आम्या से लगभग एक साल पहले मिला था. वह मेरी क्लासमेट लावण्या की मित्र थी. लावण्या की बर्थडे पार्टी में हम पहली बार मिले थे. हमारी मुलाकात जल्दी ही प्रेम में बदल गई. वह एमबीए कर रही थी और बहुत ही खूबसूरत थी. मैं सोच भी नहीं सकता कि कालेज में मेरी इतनी सारी लड़कियों से दोस्ती थी पर क्यों मुझे आम्या ही पसंद आई. मुझे उस से प्यार हो गया. शायद वह समय का खेल था. हम लगभग रोज ही मिलते थे. मेरी फाइनल एमबीबीएस की परीक्षा के दौरान भी मुझ में उस की दीवानगी छाई हुई थी. वह भी मेरे प्यार में डूबी हुई थी.

‘मैं अभी तक प्यारमोहब्बत को फिल्मों व कहानियों में गढ़ी गई फंतासी समझता था. जिसे काल्पनिकता दे कर लेखक बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं. पर अब मेरी हालत भी वैसे ही हो गई, रांझा व मजनूं जैसी. मैं ने तो अपना पूरा जीवन उस के साथ बिताने का मन ही मन फैसला कर लिया था और आम्या की ओर से भी यही समझता था. मुझ में भी कुछ कमी नहीं थी, मुझ में एक परफैक्ट शादी के लिए पसंद करने के लिए सारे गुण थे.’

‘तो फिर क्या हुआ दोस्त?’ काव्य ने उत्सुकता से पूछा.

‘मेरी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं हृदयरोग विशेषज्ञ बनने के लिए आगे की तैयारी के लिए पढ़ाई कर रहा था. एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘सुनो, पापा तुम से मिलना चाहते हैं.’ वह खुश और उत्साहित थी.

‘क्यों?’ मुझे जिज्ञासा हुई.

‘हम दोनों की शादी के सिलसिले में,’ उस ने जैसे रहस्य खोलते हुए कहा.

‘शादी? वह भी इतनी जल्दी’ मैं ने हैरानगी से कहा.

‘मैं आम्या को चाहता था पर अभी शादी के लिए विचार भी नहीं किया था.

‘हां, मेरे दादाजी की जिद है कि मेरी व मेरी छोटी बहन की शादी जल्दी से करें,’ आम्या ने शादी की जल्दबाजी का कारण बताया और जैसी शांति से बता रही थी उस से तो ऐसा लगा कि उसे भी जल्द शादी होने में आपत्ति नहीं है.

‘अभी इतनी जल्दी यह संभव नहीं है. मेरा सपना हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का है और मैं अपना सारा ध्यान अभी पढ़ाई में ही लगाना चाहता हूं,’ मैं ने उसे अपने सपने के बारे में और अभी शादी नहीं कर सकता हूं, यह सम?ाया. ‘उस के लिए 2-3 साल और रुक जाओ. फिर हम दोनों जिंदगीभर एकदूसरे के हो जांएगे,’ मैं ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘नहीं रक्षित, यह संभव नहीं है. मेरे पिता इतने साल तक रुक नहीं सकते. मेरे पीछे मेरी बहन का भी भविष्य है,’ जैसे उस ने जल्दी शादी करने का फैसला ले लिया हो.

‘मैं ने उसे बहुत समझाया. पर उस ने अपने पिता के पसंद किए हुए एनआरआई अमेरिकी से शादी कर ली और पिछले महीने अमेरिका चली गई और पीछे छोड़ गई अपनी यादें और मेरा अकेलापन. मैं सोच नहीं सकता कि आम्या मुझे छोड़ देगी. मैं दुखी हूं कि मेरा प्यार छिन गया. मैं ने उसे मरने की हद तक चाहा. काव्य, मेरा प्यार असफल हो गया. मझ में कुछ भी कमी नहीं थी. फिर भी क्यों मेरे साथ समय ने ऐसा खेल खेला.’

रक्षित फिर से रोने लगा और रोते हुए बोला, ‘बस, तभी से मुझे न भूख लगती है न प्यास. एक महीने से मैं ने एक अक्षर की भी पढ़ाई नहीं की है. मेरा अभी विशेषज्ञ प्रवेश परीक्षा का अगले महीने ही एग्जाम है. यों समझ कि मैं देवदास बन गया हूं.’ वह फिर से काव्य के कंधे पर सिर रख कर बच्चों जैसा रोने लगा.

‘देखो रक्षित, इस उम्र में प्यार करना गलत नहीं है. पर प्यार में टूट जाना गलत है. तुम्हारा जिंदगी का मकसद हमेशा ही एक अच्छा डाक्टर बनना था न कि प्रेमी. देखो, तुम ने कितना इंतजार किया. बचपन में तुम्हारे दोस्त खेलते थे, तुम खेले नहीं. तुम्हारे दोस्त फिल्म देखने जाते, तो तुम फिल्म नहीं देखते थे. तुम्हारा भी मन करता था अपने दोस्तों के साथ गपशप करने का और यहां तक कि रक्षित, तुम अपनी बहन की शादी में भी बरातियों की तरह शाम को पहुंच पाए थे, क्योंकि तुम्हारी पीएमटी परीक्षा थी. वे सारी बातें अपने प्यार में  भूल गए.

‘आम्या तो चली गई और फिर कभी वापस भी नहीं आएगी तुम्हारी जिंदगी में. और यदि आज तुम्हें आम्या ऐसी हालत में देखेगी तो तुम पर उसे प्यार नहीं आएगा, बल्कि नफरत करेगी और सोचेगी कि अच्छा हुआ कि मैं इस व्यक्ति से बच गई जो एक असफलता के कारण, जिंदगी से निराश, हताश और उदास हो गया और अपना जिंदगी का सपना ही भूल गया. क्या वह ऐसे व्यक्ति से शादी करती?

‘सोचो रक्षित, एक पल के लिए भी. एक दिल टूटने के कारण क्या तुम भविष्य में लाखों दिलों को टूटने दोगे,  इलाज करने के लिए वंचित रखोगे. इस मैडिकल कालेज में आने, इस अनजाने शहर में आने, अपना घर छोड़ने का मकसद एक लड़की का प्यार पाना था या फिर बहुत सफल व प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का था? तुम्हें वह सपना पूरा करना है जो यहां आने से पहले तुम ने देखा था.

‘रक्षित बता दो दुनिया को और अपनेआप को भी कि तुम्हारा प्यार असफल हुआ है, पर तुम नहीं और न ही तुम्हारा सपना असफल हुआ है. और यह बात तुम्हें खुद ही साबित करनी होगी,’ काव्य ने उसे समझया.

‘तुम सही कहते हो काव्य, मेरा लक्ष्य, मेरा सपना, सफल प्रेमी बनने का नहीं, एक अच्छा डाक्टर बनने का है. थैंक्यू तुम्हें दोस्त, यह सब मुझे सही समय पर याद दिलाने के लिए,’ काव्य के गले लग कर, दृढ़ता व विश्वास से रक्षित बोला.

‘‘कार्ड हाथ में ले कर कब से कहां खो गए हो?’’ मानसी ने अपने पति काव्य को झिझड़ कर पूछा, ‘‘अरे, कब तक सोचते रहोगे. कुछ तैयारी भी करोगे? कल ही रक्षित भैया के हार्ट केयर हौस्पिटल के उद्घाटन में जोधपुर जाना है,’’ मानसी ने उस से कहा तो वह मुसकरा दिया.

मजाक: सरकार की पोल खोलता खिचड़ी वाला स्कूल

मैं हैरान हो गया ‘खिचड़ी’ शब्द को ले कर. उस मैसेज का मतलब था उन सरकारी स्कूलों से जिन में सरकार द्वारा मिड डे मील योजना लागू है और जिन में बच्चे केवल खिचड़ी खाने के लिए जाते हैं, पढ़ने के लिए नहीं.

खैर, वह तो मैसेज था खिचड़ी को ले कर, पर हकीकत पर ध्यान दिया जाए तो यह विचार आम लोगों की सोच से भी जुड़ा हो सकता है. सरकार करना कुछ और चाहती है, पर समाज में कुछ और मैसेज जाता है. सरकार तो बच्चों की पढ़ाई के साथसाथ उन के पोषण लैवल में सुधार करना चाहती है, पर कुछ लोगों की सोच ही बड़ी अजीब है.

उसी सोच के लोगों के घोर असर से मेरा घर भी बच न सका. मैं एक दिन जब औफिस से घर आया, तो मेरी पत्नी ने अपनी खिचड़ी अलग पकाई हुई थी. वह बोली, ‘‘आप ईशान को प्राइवेट स्कूल में क्यों नहीं डाल देते?’’

आप जरा सोचिए कि ईशान अभी  2 साल का ही है और उस की पढ़ाई की चिंता मेरी धर्मपत्नी को हो गई है, वह भी प्राइवेट स्कूल में.

अपने देश में स्कूलों पर सरकारी शब्द का ठप्पा लग जाने से न जाने क्यों लोगों को चिढ़ हो जाती है. सरकारी नौकरी तो सब करना चाहते हैं, पर सरकारी स्कूल में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है. जैसे प्यार तो सभी करना चाहते हैं या लिव इन रिलेशन में तो सभी रहना चाहते हैं, पर शादी के नाम से ही आज की तथाकथित नौजवान पीढ़ी को चिढ़ हो जाती है.

मैं ने दूसरे दिन ही एक प्राइवेट प्ले स्कूल में अपने लाड़ले को भरती करवा दिया था. वहां पर बच्चों के लिए खेलने का पार्क, स्विमिंग पूल व मनोरंजन की ढेर सारी सुविधाएं थीं. 15,000 रुपए तत्काल दे कर यह रस्म पूरी की गई थी. हर महीने 500 रुपए की स्कूल फीस और वैन का किराया 800 रुपए तय था.

रोजाना बच्चे के लिए अलग रंग का यूनिफौर्म, निर्देशित नाश्ता व और भी बहुत सारी गतिविधियां थीं.

2 साल बाद ईशान को प्ले स्कूल से निकाल रहा था, तो मैं ने यह महसूस किया कि यह तो सचमुच प्ले स्कूल था, जो आज तक ईशान एबीसीडी भी पूरी तरह नहीं सीख पाया था.

ईशान जरा सा बड़ा हुआ और मैं जन्म प्रमाणपत्र ले कर प्राइवेट स्कूलों के चक्कर लगाने लगा था. एक स्कूल के बाद दूसरा, फिर तीसरा.

मुझे इस बात का थोड़ा सा भी इल्म नहीं था कि अभी ईशान तो एबीसीडी या कखगघ ही सीखेगा, तो इतने हाईप्रोफाइल स्कूल की क्या जरूरत? पर मैं गलत था. आजकल की इंगलिश मिक्स खिचड़ी भाषा की संस्कृति लोगों के दिलोदिमाग पर छा गई थी, शायद यही जरूरत थी.

पूरे शहर को छान मारने के बाद मेरी तलाश खत्म हो गई. एक प्राइवेट स्कूल ही हाथ लगा. मैं बहुत ही लकी था कि मेरा ईशान सरकारी स्कूल में न पढ़ कर एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ेगा.

एडमिशन के लिए बच्चे का रिटर्न टैस्ट, इंटरव्यू व मम्मीपापा का भी इंटरव्यू (वह भी इंगलिश में) की खानापूरी के बाद एडमिशन हो गया.

तकरीबन 70,000 रुपए दे कर एडमिशन की रस्म निभा दी थी. मुझे एक स्लिप मिली, जिस पर कुछ जरूरी तारीखें लिखी थीं, जैसे किताबें कब मिलेंगी, कब स्कूल की यूनिफौर्म मिलेगी, कितने रुपए लगेंगे और कब से स्कूल खुलेगा वगैरह.

मेरे ऊपर तकरीबन 10,000 से 12,000 रुपए का और धक्का था और इस के अलावा हर महीने स्कूल फीस व बस किराया, कुलमिला कर तकरीबन 5,000 रुपए की और चपत थी.

वह दिन अब आ गया था, जब स्कूल की किताबें व यूनिफौर्म मिलने वाली थी. मैं दिए गए समय पर पहुंच गया था. जितना बजट स्कूल की स्लिप यानी नोटिस में था, उतना ही मैं इंतजाम कर के गया था, पर उस धक्के से जरा सा कुछ बड़ा धक्का था यानी 2,000 रुपए की और चपत लग गई थी, पर फिर भी मैं बहुत ही खुश था, क्योंकि अब मेरी और मेरी पत्नी की खिचड़ी एक थी.

यूनिफौर्म, किताबें, कोट, टाई, बैल्ट व बैज पा कर मेरी पत्नी बहुत ही ज्यादा खुश थी, क्योंकि पड़ोसी के बच्चे उस से ज्यादा अच्छे स्कूल में नहीं थे.

मेरी धर्मपत्नी पड़ोसी के बच्चों को मुंह चिढ़ा रही थी अपने बच्चे का एडमिशन ऐसे स्कूल में करा कर. यह बड़े ही गर्व की बात थी कि मैं अपने ईशान को सरकारी स्कूल में न पढ़ा कर प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहा था, जहां मुफ्त की किताबें, यूनिफौर्म, जूतेमोजे, स्कूल बैग, साइकिल, लैपटौप, स्कौलरशिप, महीने की फीस और खिचड़ी (तहरी) भी नहीं मिलती थी.

एक दिन बड़े गौर से देख रहा था कि स्कूल की हर चीजों पर स्कूल का नाम लिखा था. शर्ट, पैंट, कोट, टाई, बैज, बैग, कौपीकिताबों के ऊपर प्लास्टिक का कवर, नेम स्लिम यहां तक कि मोजे तक पर भी स्कूल का नाम ही लिखा था.

मैं तो सोच रहा था कि शायद अंडरवियर, बनियान पर भी स्कूल का नाम जरूरी न कर दिया जाए, पर गनीमत थी कि वे दायरे से बाहर थे.

स्कूल खुलने के साथ ईशान को रोज कोई न कोई एक नोटिस मिल जाया करता था. एक दिन एक नोटिस मिला जैसे कोई मैगा माल का बंपर औफर हो. नोटिस में लिखा हुआ था कि आप पूरे साल की फीस अगर एक बार में देते हैं, तो ट्यूशन फीस में एक महीने का डिस्काउंट मिल जाएगा.

मैं बहुत ही पसोपेश में था कि यह मैगा माल का औफर है या स्कूल. एक ही बार में तकरीबन 60,000 रुपए देना मुमकिन न हो पाया और न ही बंपर औफर का फायदा ले पाया.

कुछ दिन बाद ही पैरेंटटीचर मीटिंग का त्योहार आ गया. स्कूल को बहुत ही करीने से सजाया गया था.

पैरेंटटीचर मीटिंग में जब मैं गया, तो अपने बच्चे ईशान का तिमाही रिपोर्टकार्ड देखने को बोला गया, फिर टीचर से बात करने का मौका मिला. नंबर तो कोई खास नहीं आए थे.

मैं ने इस की शिकायत की, तो वे बोलने लगीं, ‘‘यह पढ़ता ही नहीं है. मैं सिलेबस देती हूं, तो बस उसी की प्रैक्टिस कराया करें. घर पर आप खुद पढ़ाएं. ऐसा नहीं है तो हो सके तो कोई ट्यूटर रख लें. आप तो देख ही रहे हैं कि कितना कंपीटिशन है.’’

सालभर तक त्योहारों का सिलसिला  रुका नहीं. स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे, पीटीएम डे, फेट डे, आर्ट गैलरी डे और बहुत सारे डे के बाद फिर रीएडमिशन डे भी आ गया, जिस में उसी स्कूल में दोबारा एडमिशन की जरूरत थी. इस में तकरीबन 20,000 रुपए का और हलका धक्का नहीं, एक छोटा हार्ट अटैक लगने वाला था. फिर भी इतना सब झेलने के बाद उस स्कूल में बने रहने के लिए हम खिचड़ी (शादी में होने वाली एक रस्म) खाने को मजबूर थे, क्योंकि सोसाइटी की बात थी.

कुछ दिन पहले ही मेरे ह्वाट्सएप पर एक कार्टून मैसेज आया था. टीचर के सामने एक बच्चा ले कर बाप खड़ा है और कुछ संदेश छपा है. टीचर बोलती?है, ‘सबकुछ स्कूल से मिलेगा, जैसे किताबें, यूनिफौर्म, जूते, टाईबैल्ट, स्पोर्ट्स यूनिफौर्म और स्कूल बैग भी.’

इस पर बाप ने पूछा, ‘और ऐजूकेशन…?’

टीचर ने जवाब दिया, ‘इस के लिए तो ट्यूशन है.’

यह कार्टून तो एक मजाकभर था, पर हकीकत से ज्यादा दूर न था. अब तो प्राइवेट स्कूल केवल मैगा माल बन कर रह गए?हैं और पढ़ाईलिखाई के लिए घर पर ट्यूशन लेना जरूरी हो गया है.

एक दिन किसी काम से मुझे स्कूल जाने का मौका मिला. मैं ने देखा कि रिसैप्शन पर खिचड़ी बाल लिए एक सुंदर महिला बैठी हुई थीं. उन्हीं के ऊपर की दीवार पर एक बड़े से सुनहरे फ्रेम में व्यापार कर के फौर्म की प्रतिलिपि टंगी हुई थी.

मैं सोच में पड़ गया कि यह तो सचमुच व्यापार है, जिस में प्राइवेट स्कूल (सोसाइटी के तहत) चाहे जितना मनमानी कमा लें, पर स्कूल की इनकम पर कोई टैक्स नहीं था.

हमें इस समस्या से उबरने की जरूरत है. क्या सचमुच सोच में बदलाव की जरूरत है? मैं ने सुना है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों से नाम कटा कर अभिभावक सरकारी स्कूलों में अपने बच्चे को भरती कर रहे हैं. दिल्ली सरकार की अच्छी सोच का ही नतीजा है. पूरे देश में जयजयकार हो रही है. दिल्ली स्कूल मौडल बन गया है.

दिल्ली सरकार ने दिल्ली में एक कोशिशभर की है, दिल्ली में अभीअभी ‘सुपर थर्टी’ के गुरु आनंद कुमार देख कर आए और बोले भी कि अगर ऐसा रहा तो सुपर थर्टी की जरूरत न पड़ेगी. अब तो दिल्ली में आनंद कुमार की दुकान खुलने की कोई उम्मीद न थी.

यकीन मानिए, अभी भी अपने देश की सब से बड़ी यूनिवर्सिटी, टैक्निकल ऐजूकेशन कालेज, सब से अच्छे कालेज, नवोदय विद्यालय, नेतरहाट विद्यालय मौडल व सिमुलतला स्कूल सरकारी ही हैं. अगर अभी भी यकीन नहीं आता तो जेएनयू, आईआईटी, सरकारी मैडिकल कालेज या नेतरहाट जैसे स्कूलों में दाखिला करा कर देख सकते हैं.

पर हमारी शिक्षा नीति में न जाने कहां से खिचड़ी पक गई कि आम जनमानस को क्यों यह लगने लगता है कि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई अच्छी होती है और सरकारी स्कूलों में खराब. मतलब यह कि हमें अपनी सोच में बदलाव लाने की जरूरत है. नई शिक्षा नीति, टीचर का वेतन सुधार, योग्य टीचर की कमी व टीचर भरती करने के तरीके में सुधार करना होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिस्कवरी चैनल पर आए ‘मैन वर्सेस वाइल्ड’ के प्रोग्राम में बीयर ग्रिल को एक इंटरव्यू दिया था. उस में उन्होंने खुद बोला था कि वे एक सरकारी स्कूल में पढ़े हैं. जरा सोचिए, सरकारी स्कूलों का कितना मान बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि सरकारी स्कूल में पढ़ा आदमी प्रधानमंत्री है.

आप समझ रहे हैं न कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार को खिचड़ी हो कर काम करना होगा, सरकारी योजनाओं को बीरबल की खिचड़ी नहीं बनाना होगा. शिक्षा का बजट किसी भी दूसरी योजनाओं से ज्यादा रखना होगा.

खिचड़ी (मिड डे मील योजना में तय सूची) की क्वालिटी, अच्छे स्कूल भवन, बिजली सप्लाई, पीने का साफ पानी, शौचालय, पंखे, टेबलकुरसी, टीचरों की कमी पूरी करना, प्रशिक्षित टीचर, खेल मैदान, लाइब्रेरी, प्रयोगशाला के साथसाथ और भी बहुत सारी सुविधाओं को ध्यान में रखना होगा.

यह संदेश भी देना होगा कि सरकारी स्कूल ही हैं, जो हमारे देश की जड़ (यानी गांवगांव में) में हैं और यही स्कूल हमारे पूरे देश को महान बना रहे हैं, जो पूरी दुनिया में एक मिसाल है.

जब मेरा देश इस तरह के सरकारी स्कूल में पढ़ेगा, तभी तो विश्व गुरु बन पाएगा.

काला दरिंदा: जब बहादुर लड़की ने किया रेपिस्ट का सामना

वह एक टैक्सी ड्राइवर था. उस का रंग जले तवे की तरह काला था, तभी तो उस के घर वालों ने सोचसमझ कर उस का नाम काला रखा था. उस ने कार के पिछले शीशे पर मोटेमोटे अक्षरों में ‘काला’ लिखवा दिया था.

19 साल की उम्र में वह माहिर ड्राइवर बन गया था. तभी से वह टैक्सी चला रहा था. अब उस की उम्र 35 साल के करीब थी.

थोड़ी देर पहले एक ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आ कर रुकी थी. कुछ सवारियां गेट से बाहर निकलीं, तो काला मुस्तैदी से खड़ा हो गया. कुछ सवारियों से उस ने टैक्सी के लिए पूछा भी था लेकिन सवारियों ने मना कर दिया.

कुछ सवारियों को टैक्सी की जरूरत नहीं थी और जिन्हें जरूरत थी, वे अपने परिवार के साथ थे. उन्होंने शक्ल देखते ही काला को मना कर दिया था, क्योंकि शराब के नशे में डूबा काला शक्ल से ही बदमाश लगता था.

काला ने कलाई में बंधी घड़ी की तरफ देखा. रात के 10 बज रहे थे. समता ऐक्सप्रैस ट्रेन के आने का समय हो गया था. शायद उसे कोई सवारी मिल जाए, यह सोच कर काला ने बीड़ी सुलगा ली.

काला का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. 3 भाइयों में वह अकेला जिंदा बचा था. उस ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था. उस की मां तो उसे स्कूल भेजना चाहती थी, पर उस का बाप उसे स्कूल भेजने के सख्त खिलाफ था.

काला की उम्र जब 10 साल की थी, तभी उस की मां मर गई थी और उस के बाप ने उसे एक लुहार के यहां काम पर लगा दिया था. सारा दिन भट्ठी के आगे बैठ कर वह लोहे का पंखा चलाता था. महीने में उसे मेहनत के जो पैसे मिलते थे, उन पैसों को उस का बाप शराब में उड़ा देता था.

7 साल तक काला ने लुहार की दुकान पर काम किया था. तभी उस के शराबी बाप की मौत हो गई थी. बाप के मरने का उसे जरा भी दुख नहीं हुआ था, क्योंकि अब वह पूरी तरह आजाद हो गया था.

कुछ गलत लड़कों के साथ काला का उठनाबैठना हो गया था. 20 साल का होतेहोते वह पक्का शराबीजुआरी बन चुका था. एक करीबी रिश्तेदार को उस पर दया आ गई थी. उसी ने भागदौड़ कर के उस की शादी करा दी थी. उस की औरत ज्यादा खूबसूरत तो नहीं थी, पर उस से कई गुना अच्छी थी.

काला ने हमेशा से ही अपनी बीवी को इस्तेमाल की चीज समझा था. अब वह 4 बच्चों का बाप बन चुका था. फिर भी बच्चों के लिए एक बाप की क्या जिम्मेदारियां होती हैं, इस का उसे पता नहीं था.

काला जितना शौकीन था, उस से कहीं ज्यादा मेहनती भी था. वह सुबह 7 बजे टैक्सी ले कर घर से निकल जाता था और रात 12 बजे के बाद ही लौटता था.

वह 300 से 500 रुपए तक रोजाना कमा लेता था. इतना कमाने के बाद भी उस के घर की माली हालत ठीक नहीं थी, क्योंकि उसे शराब पीने के अलावा कोठे पर जाने का भी शौक था.

रात 11 बजे समता ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आई. ट्रेन पूरे एक घंटा लेट थी. सवारियां जल्दीजल्दी स्टेशन के गेट से बाहर निकल रही थीं. काला सवारियों पर नजरें दौड़ाने लगा. अचानक उस की नजर एक लड़की पर पड़ी तो उस की आंखों में एक अजीब सी चमक उभर आई.

काला तेजी से उस लड़की की तरफ लपका और उस से पूछा, ‘‘मैडम क्या आप को टैक्सी चाहिए?’’

‘‘हां चाहिए,’’ लड़की ने उस की तरफ बिना देखे ही जवाब दिया.

‘‘कहां जाना है आप को?’’

‘‘विजय नगर,’’ लड़की ने बताया.

‘‘चलिए,’’ कह कर काला ने लड़की के हाथ से बैग ले लिया.

कुछ ही दूर टैक्सी स्टैंड पर काला की टैक्सी खड़ी थी.

काला ने डिक्की खोल कर बैग उस में रखा और फिर अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. तब तक लड़की पिछली सीट पर बैठ चुकी थी.

उस लड़की की उम्र 22-23 साल के आसपास थी. वह बेहद खूबसूरत थी. पहनावे से वह अमीर और हाई सोसायटी की लग रही थी. वह शायद किसी सोच में गुम थी, तभी तो उस ने काला के ऊपर ध्यान नहीं दिया था, वरना काला का चेहरा और शराब के नशे में डूबी उस की आंखें देख कर वह उस की टैक्सी में कभी न बैठती.

लड़की पिछली सीट पर अधलेटी सी आंखें बंद किए हुए थी. काला सामने लगे शीशे में से उसे बारबार देख रहा था.

रेलवे स्टेशन से विजय नगर का रास्ता महज आधे घंटे का था. काला धीमी रफ्तार से टैक्सी चला रहा था. उस लड़की ने काला के अंदर उथलपुथल मचा रखी थी.

काला का ध्यान टैक्सी चलाने में कम, उस लड़की पर ज्यादा था. वह जितना उस लड़की को देख रहा था, उस पर उतना ही एक नशा सा छा रहा था.

काला एक नंबर का आवारा था. जवान लड़कियों को देख कर उस के खून में गरमी पैदा हो जाती थी.

एक बार स्कूटर पर जा रही एक लड़की को घूरते हुए वह अपने होश खो बैठा था. नतीजतन, उस की टैक्सी एक बस के पिछले हिस्से से जा टकराई थी. इत्तिफाक से वह बच गया था, मगर टैक्सी को काफी नुकसान पहुंचा था. लेकिन इस के बाद भी वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया था.

काला का दिमाग और ध्यान कार में बैठी लड़की पर ही लगा था. अचानक

5 महीने पहले की एक घटना याद कर उस के अंदर धीरेधीरे वासना का शैतान जागने लगा.

हुआ यों था कि उस रात वह कुछ सवारियों को रेलवे स्टेशन छोड़ने आया था. रात के तकरीबन साढ़े 11 बज रहे थे. शायद कोई सवारी मिल जाए, इस उम्मीद के साथ वह सवारी मिलने का इंतजार करने लगा था.

कुछ ही देर में उसे एक सवारी मिल गई थी. वह एक लड़की थी और उसे अशोक नगर जाना था. उसे टैक्सी की जरूरत थी. उस ने कई टैक्सी वालों से बात की थी. रेलवे स्टेशन से अशोक नगर काफी दूर था, तकरीबन एक घंटे का रास्ता था.

ज्यादातर टैक्सी वालों ने रात को इतनी दूर जाने से मना कर दिया था. कुछ टैक्सी वाले वहां जाने के लिए तैयार हुए भी, मगर उन्होंने किराया बहुत ज्यादा मांगा.

आखिर में लड़की का सौदा काला से पट गया था. वह लड़की कम उम्र की व खूबसूरत थी. सफर में बोरियत से बचने के लिए लड़की टाइमपास करने की नीयत से काला को ‘अंकल’ पुकार कर बातें करने लगी थी.

काला उस के सवालों के जवाब देने के साथसाथ खुद भी उस के बारे में पूछताछ करने लगा था.

उस लड़की का नाम श्वेता था. वह एक अमीर घर की लड़की थी. श्वेता अपने घर से दूर एक शहर में पढ़ती थी. वहां वह होस्टल में रहती थी. कुछ दिनों की छुट्टियों में वह अपने घर चली आई थी. श्वेता ने अपने आने की खबर घर वालों को नहीं दी थी. अगर वह फोन कर देती, तो उसे स्टेशन पर लेने घर से कार आ जाती.

श्वेता ने जानबूझ नहीं बताया था, क्योंकि अगले दिन उस का जन्मदिन था और वह अचानक अपने घर पहुंच कर घर वालों को चौंका देना चाहती थी.

श्वेता अब तक अपने घर पहुंच भी चुकी होती, अगर ट्रेन 2 घंटे लेट नहीं हुई होती. रात का समय था. जाड़े का मौसम होने की वजह से सड़क पर दूरदूर तक सन्नाटा था.

श्वेता से बात करते हुए काला टैक्सी चला जरूर रहा था, मगर उस का मन कहीं और भटक रहा था. उस के साथ गोरी रंग की जवान और हसीन लड़की थी, जिस के जिस्म से भीनीभीनी मदहोश कर देने वाली खुशबू आ रही थी.

काला पर एक अजीब सा नशा हावी होता जा रहा था. काला ने एक बेहद घटिया और भयानक फैसला कर लिया.

उस रात काला ड्राइवर से दरिंदा बन गया था. उस ने टैक्सी एक सुनसान जगह पर रोक दी थी. इस से पहले कि श्वेता कुछ समझ पाती, काला कार के अंदर ही उस पर टूट पड़ा था. श्वेता तो जैसे एकदम से हैरान ही रह गई थी. उसे काला से ऐसी उम्मीद हरगिज नहीं थी.

श्वेता रोते हुए काला से छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ाने लगी थी, पर उस के रोनेगिड़गिड़ाने का असर काला पर नहीं हुआ था. फिर श्वेता रोनागिड़गिड़ाना छोड़ काला का विरोध करने लगी थी.

अचानक काला ने सीट के नीचे रखा चाकू निकाल लिया और बोला था, ‘सुन लड़की, अगर ज्यादा फड़फड़ाएगी तो इसी चाकू से तेरी गरदन काट डालूंगा. इस सुनसान जगह पर कोई तुझे बचाने नहीं आएगा. जान प्यारी है तो जैसा मैं कहता हूं वैसा ही कर.’

श्वेता पर इस धमकी का असर फौरन हुआ था. वह मासूम लड़की मौत के डर से बुत सी बन गई थी.

अपनी इच्छा पूरी करने के बाद काला बेहोशी की हालत में श्वेता और उस के सामान को सड़क के किनारे छोड़ कर रफूचक्कर हो गया था.

आज बहुत दिनों बाद काला को सुनहरा मौका मिला था, जिसे वह हाथ से नहीं जाने देना चाहता था. उस लड़की को अपना शिकार बनाने से पहले काला उस के और उस के घरपरिवार के बारे में जानना चाहता था.

काला ने अपनी तरफ से बातचीत की शुरुआत की, पर लड़की ने उस के किसी भी सवाल का जवाब ‘हां’ या ‘न’ से ज्यादा शब्दों में नहीं दिया.

पहले वाली लड़की श्वेता हंसमुख, चंचल और मिलनसार थी, जबकि यह उस के बिलकुल उलट, गंभीर, मगरूर और नकचढ़ी थी.

काफी सोचनेसमझने के बाद काला ने फैसला किया कि लड़की का संबंध चाहे किसी भी घर से हो, वह उस के साथ मनमानी जरूर करेगा, बाद में चाहे जो कुछ भी होता रहे.

सड़क पर सन्नाटा था. काला मन ही मन लड़की की इज्जत से खेलने का तानाबाना बुनने लगा था. विजय नगर से एक किलोमीटर पहले एक दूसरे शहर को सड़क जाती थी. वह सड़क ज्यादातर सुनसान रहती थी. काला ने टैक्सी उसी सड़क पर मोड़ दी थी.

कार में बैठी लड़की को अपने रास्ते का पता था, इसलिए उस ने फौरन काला से गलत रास्ता होने की बात की, पर काला ने उस की बात अनसुनी कर दी.

खतरा महसूस कर के लड़की विरोध करने लगी, तो काला ने एक जगह टैक्सी रोक दी और सीट के नीचे से चाकू निकाल कर दहाड़ा, ‘‘सुन लड़की, अगर जरा सी भी आनाकानी की तो पेट फाड़ दूंगा.’’

काला की भयानक आंखों में वासना के लाललाल डोरे तैर रहे थे. लड़की को धमकी दे कर काला उस पर टूट पड़ा.

अगले दिन जब काला को होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में देख कर वह चौंक पड़ा. दर्द से उस का पूरा बदन दुख रहा था. कल रात के सीन उस के जेहन में घूमे तो उस का पूरा जिस्म कांप उठा. वह 2 बार दरिंदा बना था, एक बार उस दिन जिस दिन उस ने मासूम श्वेता की इज्जत लूटी थी और दूसरी बार कल रात.

कल रात वह दरिंदा बना जरूर था, लेकिन कामयाब नहीं हो सका था, क्योंकि कल रात वाली लड़की पहले वाली लड़की की तरह कमजोर नहीं थी. वह लड़की मुक्केबाजी और कराटे में माहिर थी. उस लड़की ने काला को बहुत पीटा था.

लड़की ने एक जोरदार लात काला की दोनों टांगों के बीच मारी थी. इस के बाद उसे कुछ होश नहीं था. वह अस्पताल कैसे पहुंचा? कब पहुंचा और किस ने पहुंचाया? इस का उसे कुछ पता नहीं था.

काला ने डाक्टरों से जब यह खबर सुनी तो मानो उस की जान ही निकल गई. डाक्टरों ने उसे बताया कि उन्होंने उस की जान तो बचा ली, मगर अब वह कभी दरिंदा नहीं बन सकता था, क्योंकि टांगों के बीच चोट लग जाने से वह हमेशा के लिए नामर्द बन चुका था.

सस्ते में चूड़िया : आखिर क्या चाहती थी सुंदरी

पति के हाथ धुलाते हुए सुंदरी ने कहा, ‘‘अब की 2-2 सोने की चूड़ियां जरूर बनवा दो, नहीं तो राखी पर मायके वाले कहेंगे कि इतनी भी नहीं जुटा पाते कि…’’ तभी लू का एक जोरदार थपेड़ा सूरज की कनपटी पर तमाचा सा मारता हुआ ऊपर की ओर उड़ गया. कानों पर हथेलियां रख उस ने जवाब दिया, ‘‘आमों की फसल अच्छी आई है. कुदरत ने चाहा तो इस बार के शहर के चक्कर में ही चूड़ियां निकल आएंगी. तू अब घर जा. धूप तेज हो रही है.

’’ सुंदरी के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई. उठते हुए वह बोली, ‘‘हम इतने बुरे लगने लगे अब?’’ सूरज जानता था कि उस की बीवी के दिन चढ़े हैं. उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. घर की ओर लौटती हुई बीवी की ओर वह तब तक देखता रहा, जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई. उस ने सोचा, ‘सुंदरी सचमुच सुंदरी है. तन से ही नहीं, मन से भी.’ खलिहान उठ चुके थे. किसान किसी छप्पर अथवा पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे. परंतु सूरज इस साल आम की रखवाली में डट गया था. वैसे तो गांव में और भी आम के पेड़ थे, पर सूरज के आमों का स्वाद ही गजब का था.

सूरज ने इस बार बौर आने पर ही पेड़ के नीचे बसेरा कर लिया था. गांव वाले मन ही मन गुस्सा कर रहे थे. सूरज की यह पहरेदारी उन्हें अच्छी नहीं लग रही थी. सुंदरी के हाथों की रोटियों ने पेट में पहुंचते ही अपना काम दिखाना शुरू कर दिया. सूरज की आंखें झपकने लगीं. एक पेड़ के नीचे अधलेटा हो उस ने आंखें मूंद लीं. अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि खड़खड़ाहट सुन कर किसी जानवर को आया जान नींद की हालत में ही हाथ पसार उस ने मिट्टी का ढेला उठा कर मार फेंका.

अचानक जोर से ‘धम्म’ की एक आवाज ने उसे चौंका दिया. सूरज की नींद फुर्र हो गई. ढेला फूट कर चूरचूर हो चुका था और एक गाय धरती पर पड़ी छटपटा रही थी. सूरज को पसीना छूट गया. वह उठा, तो पैर डगमगा गए. उस ने पास जा कर देखा, तो गाय खामोश पड़ी थी. उस की जीभ बाहर निकल आई थी. सूरज ने सोचा, ‘हाय, गौहत्या. अब क्या करूं?’

तभी मंडन चौबे नदी से नहा कर लौटे. थोड़ी दूर हट कर वे रुक गए. उन्होंने सारी हालत का जायजा लिया. सूरज के चेहरे पर उड़ रही हवाइयां साफ बता रही थीं कि करतूत किस की है. वे बोले, ‘‘सूरज, तू बड़ा नीच है. तू ने गौहत्या कर डाली,’’

और ऊंची आवाज में ‘रामराम’ कहते हुए गांव की ओर चले गए. वह मरियल सी गाय एक हरिजन की थी. एक पल के लिए सूरज ने सोचा, ‘गई सुंदरी की चूड़ियां, रामू काका का हर्जाना ही पहले चुकाना होगा.’’ यह बात जल्दी ही पूरे गांव में फैल गई. सुंदरी के कानों ने सुना, तो मानो धरती पैरों के नीचे से सरक गई. लाज छोड़ ससुर के सामने जा रोई, ‘‘दादा, अब क्या होगा? सचझूठ का पता तो लगाओ.’’

दादा ने दुखी मन से कहा, ‘‘एक तो वैसे ही गरीबी से कमर टूटी जा रही है, तिस पर गौहत्या का कलंक.’’ सुंदरी की परेशानी कम होने के बजाय और बढ़ गई. सोचा, ‘क्यों न रामू काका के यहां जा कर विनती कर लूं.

उन की गाय मरी है, धीरेधीरे सब पैसा चुकता कर देंगे. अभी हाथ तंग है और आगे खर्चा भी लगा है,’ अपने बढ़े हुए पेट को देख कर आज न जाने क्यों पहली बार उसे खीज सी हुई. रामू काका बेरी की छाया में बैठे जूते सी रहे थे. थोड़ा सा घूंघट सरका कर सुंदरी कुछ कहे इस से पहले ही काका ने काकी को आवाज दे पीढ़ा लाने को कहा और काम छोड़ कर बैठ गए.

सुंदरी अपनेआप को बहुत छोटा महसूस करने लगी. उस की आंखें छलछला उठीं. बात करना भूल कर वह धरती कुरेदती रह गई. काका ने हलका सा चिलम का कश खींचा, तो खांसी आ गई. जब कुछ थमी तो हांफते से बोले, ‘‘बहुरिया, काहे को परेशान है. गाय बूढ़ी थी, मर गई. भैया के ढेले से आज नहीं तो कल भूख से मरती ही. छुट्टल फिरती थी, बांधूं तो तब जब उसे खिला सकूं.

परंतु यहां तो अपने लाले पड़े हैं. अच्छा हुआ, ठिकाने लग गई. मुसीबत तो यह है कि भाजपाइयों को खबर मिल गई तो बवाल कर देंगे. उस में भला क्या कर सकता हूं.’’ सुंदरी अब और चुप न रह सकी. बिलखती सी वह बोली, ‘‘काका, हम तुम्हारी भलमनसाहत का फायदा नहीं उठाएंगे. कुछ दिनों की बात है, पूरे पैसे दे देंगे…’’ रमुआ ने बात पूरी न होने दी. बीच में ही वह बोल उठे, ‘‘ऐसा पहले होता था सुंदरी.

हम छोटे भले ही हैं, पर इतने गिरे हुए तो नहीं, जो मरने का भोज लें और पैदा होने का भी. तू घर जा और सुन, अब से कभी यह मन में न आए कि काका को कुछ देना है. पर भाजपाइयों से तू कैसे निबटेगी और सूरज कैसे निबटेगा, मैं नहीं जानता.’’

सुंदरी लौट आई. रास्तेभर यही सोचती रही कि धरती पर आज भी कुछ इनसानियत बची है, वह गरीब की कुटिया में ही पल रही है. पर भाजपाइयों का डर उसे मन में सता रहा था. पिछले 10 सालों में गौहत्या के नाम पर हर बार बवाल मचता है. अब कैसे नहीं मचेगा. शाम तक चौपाल पर पंचायत जुट गई. 2-4 भगवे झंडे लग गए. सब के मुंह से लार ठपक रही थी.

बहुत दिनों से गांव में कोई ‘कांड’ नहीं हुआ था. विवाहशादी नहीं तो यही सही. मौका मुट्ठी में आता जान सब के मुंह में पानी आने लगा. सूरज और रमुआ को बुलाया गया. महंत बलदेव सरपंच भी थे. वे पार्टी के खास कार्यकर्ता थे. वे अपनी सख्ती के लिए आसपास के गांवों में ‘दुर्वासा’ के नाम से जाने जाते थे. उन्होंने एक बड़ा सा मंदिर बनवा लिया था चंदे पर, लेकिन उसे अपनी मिल्कीयत ही मानते थे. 10-12 लौंडे वहां पलते थे.

पंचायत के सामने रमुआ ने कहा भी कि हर्जाने की एक कौड़ी भी उसे मंजूर न होगी, क्योंकि गाय बूढ़ी थी और मरने को थी. सूरज ने भी बयान दिया कि उस का विचार गाय को मारने का बिलकुल नहीं था, वह तो उसे भगाना चाहता था. ढेला भी उस ने ढीले हाथ से नींद में फेंका था. परंतु वह गाय को कहां लगा और वह कैसे मर गई, वह अभी तक नहीं समझ पाया.

महंतों और पार्टी के पेशेवर वर्करों को यह आसान रास्ता रास नहीं आ रहा था. सब ने सलाहमशवरे के बाद तय किया कि रमुआ यदि हर्जाना नहीं लेना चाहता तो मजबूर नहीं किया जा सकता है. परंतु गऊ आखिर गऊ है. उस की हत्या करने के लिए सूरज को ‘ब्रह्मभोज’ देना पड़ेगा और गंगा स्नान भी करना होगा… तभी वह ‘शुद्ध’ हो सकेगा. पार्टी के लिए एक मंदिर भी अपनी जमीन पर बनवाना होगा, जिस का पट्टा महंतजी के नाम होगा. सूरज जवान था. थोड़ा पढ़ालिखा भी था.

उस ने पंचों के फैसले को नामंजूर करते हुए जब बहस करनी शुरू की, तो पंच ही नहीं बल्कि चौपाल में बैठे सभी लोग सन्न रह गए. सब की आंखें सरपंच की ओर उठ गईं. सूरज ने निडर हो कर कहा, ‘‘रामू काका की गाय मेरे द्वारा मारी गई. इसलिए उन्हें हर्जाना देने के लिए मैं जिम्मेदार हूं. यह उन का बड़प्पन है कि वे इसे लेने को तैयार नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि मैं अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लूं. वे 2 जने हैं. मैं भरी पंचायत में वादा करता हूं कि जब तक काकाकाकी जिंदा रहेंगे, मैं मातापिता की तरह उन की सेवा करता रहूंगा. ‘‘वे जाति से आप सब की नजर में जितने छोटे हैं, खयालों से उतने ही ऊंचे हैं.

वे अपने लिए कुछ नहीं चाहते, जबकि ‘ऊंचे’ कहाने वाले आप सब ठीकगलत सभी कुछ केवल अपने लिए ही चाहते हैं. ‘‘यह ‘ब्रह्मभोज’ क्यों? यह मंदिर क्यों? पार्टी के लिए पैसा क्यों?

इस ‘ब्रह्मभोज’ और मेरी ‘शुद्धि’ में ऐसा कौन सा सीधा रिश्ता है, यह मेरी समझ के बाहर की चीज है. ‘‘रमुआ आप लोगों के लिए अछूत हैं, परंतु उन की जूठन पर जिंदा रहने वाली गाय आप की पूज्या है, आप की नजर में पवित्र है. यह कैसी अक्लमंदी है? अगर पंचायत मुझे यह बात नहीं बताती, तो अपना फैसला वापस ले…’’ पंचों में कुछ खुसुरफुसुर हुई. तभी सरपंच के आसन से महंत बलदेव गरज कर बोले, ‘‘देखते क्या हो, घेर लो इस सूअर के बच्चे को… हाथपैर बांध कर चौपाल के नीम से कस दो. और मुनादी कर दो कि जो भी इधर से गुजरे, इस की खोपड़ी में 2 जूतियां जुड़ता जाए.

एक दिन में धरती पर आ जाएगा.’’ वहां एकदम सन्नाटा छा गया. सूरज का खून खौल उठा, भहें तन गईं. वह तमक कर बोलने को ही था कि बीच में रामू काका आ गए. वे उसे रोक कर बोले, ‘‘बेटा, गुस्से में किया काम अच्छा नहीं होता. फिर जब तुम ने मुझे पिता के बराबर माना है तो मेरा भी फैसला सुन लो.’’ सूरज का पिता और उस की बीवी हैरान से खड़े यह नजारा देख रहे थे. रामू काका पंचों की ओर हाथ जोड़ कर बोले,

‘‘मेरा घर और खेत इसी पल से पंचायत के हैं. जो भी कीमत आप ठीक समझें, दिला दें. मुझे उस में से एक पैसा भी नहीं चाहिए. जो मिलेगा वह ब्रह्मभोज में नहीं, बल्कि ‘ग्राम भोज’ के लिए दे दूंगा. मुझे इस बुढ़ापे में बेटा मिल गया, लक्ष्मी सी बहू मिली. इस के अलावा अब चाहिए ही क्या.’’ चारों ओर खामोशी छा गई. सब देख रहे थे. आंसू बहाता सूरज रामू काका के पैरों पर औंधा पड़ा था. पिता ने अपने बेटे के सिर पर हाथ रख कर उसे उठाया और सीने से लगा लिया. फिर वह पास खड़ी बहू से बोले, ‘‘ससुरजी के पांव छू बेटी.’’ काकी भी लाठी टेकते आ पहुंचीं.

सुंदरी ने आंचल का छोर पकड़ काकाकाकी के पैर छुए. इसी बीच मंडन चौबे कहते सुने गए, ‘‘भैया धरती से धर्म नहीं उठ सकता. गऊ माता को मार कर हाथ तक नहीं धोए और ऊपर से हरिजन के पैर धोधो पी रहे हैं. यह नहीं चलेगा.’’ देखतेदेखते पांचों जने घर की ओर चलने लगे कि महंत के लौंडे डंडों से पांचों की पिटाई करने लगे.

एक लौंडे ने सूरज के कान में कहा, ‘‘तू रात को सुंदरी को हमारे पास भेज दियो, सब सुलटा लेंगे.’’ सुंदरी ने सुन लिया और हामी भर दी. जीने के लिए आखिर कुछ तो देना पड़ेगा. पहले भी देते रहे थे. ये उस के दादा बताया करते थे. वे रजवाड़ों के दिन थे, जो लौट आए थे. अब सुंदरी के हाथों को चूडि़यों की जरूरत नहीं थी. रात को वहशियों ने उसे बुरी तरह हाथों और सारे बदन पर काटा था कि वह महीनों तक पट्टी बांधती रही. सारा पैसा तो इलाज में निकल गया. गनीमत यह रही कि मामला पुलिस में नहीं गया. महंत कई बार कहते, ‘‘सस्ते में छोड़ दिया.’

बाबा का सच : अंधविश्वास की एक सच्ची कहानी

मेरा तबादला उज्जैन से इंदौर के एक थाने में हो गया था. मैं ने बोरियाबिस्तर बांधा और रेलवे स्टेशन आया. रेल चलने के साथ ही उज्जैन के थाने में रहते हुए वहां गुजारे दिनों की यादें ताजा होने लगीं.

हुआ यह था कि एक दिन एक मुखबिर थाने में आ कर बोला, ‘‘सर, एक बाबा पास के ही एक गांव खाचरोंद में एक विधवा के घर ठहरा हुआ है. मुझे उस का बरताव कुछ गलत लग रहा है.’’

उस की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया. फिर मेरे पास उस बाबा के खिलाफ कोई ठोस सुबूत भी नहीं था.

लेकिन मुखबिर से मिली सूचना को हलके में लेना भी गलत था, सो उसी रात  मैं सादा कपड़ों में उस विधवा के घर जा पहुंचा. उस औरत ने पूछा, ‘‘आप किस से मिलना चाहते हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘दीदी, मैं ने सुना है कि आप के यहां कोई चमत्कारी बाबा ठहरे हैं, इसीलिए मैं उन से मिलने आया हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, अभी तो बाबा अपने किसी भक्त के घर गए हैं.’’

‘‘अगर आप को कोई एतराज न हो, तो क्या मैं आप से उन बाबा के बारे में कुछ बातें जान सकता हूं? दरअसल, मेरी एक बेटी है, जो बचपन से ही बीमार रहती है. मैं उस का इलाज इन बाबा से कराना चाहता हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, जितनी जानकारी मेरे पास है, वह मैं आप को बता सकती हूं.

‘‘एक दिन ये बाबा अपने 2 शिष्यों के साथ रात 8 बजे मेरे घर आए थे.

‘‘बाबा बोले थे, ‘तुम्हारे पति के गुजरने के बाद से तुम तंगहाल जिंदगी जी रही हो, जबकि उस के दादाजी परिवार के लिए लाखों रुपयों का सोना इस घर में दबा कर गए हैं.

‘‘‘ऐसा कर कि तेरे बीच वाले कमरे की पूर्व दिशा वाला कोना थोड़ा खोद और फिर देख चमत्कार.’

‘‘मैं अपने बीच वाले कमरे में गई, तभी उन के दोनों शिष्य भी मेरे पीछेपीछे आ गए और बोले, ‘बहन, यह है तुम्हारे कमरे की पूर्व दिशा का कोना.’

‘‘मैं ने कोने को थोड़ा उकेरा, करीब 7-8 इंच कुरेदने के बाद मेरे हाथ में एक सिक्का लगा, जो एकदम पीला था.

‘‘उस सिक्के को अपनी हथेली पर रख कर बाबा बोले, ‘ऐसे हजारों सिक्के इस कमरे में दबे हैं. अगर तू चाहे, तो हम उन्हें निकाल कर तुझे दे सकते हैं.’

‘‘मैं ने बाबा से पूछा, ‘बाबा, ये दबे हुए सिक्के बाहर निकालने के लिए क्या करना होगा?’

‘‘वे बोले, ‘तुझे कुछ नहीं करना है. जो कुछ करेंगे, हम ही करेंगे, लेकिन तुम्हारे मकान के बीच के कमरे की खुदाई करनी होगी, वह भी रात में… चुपचाप… धीरेधीरे, क्योंकि अगर सरकार को यह मालूम पड़ गया कि तुम्हारे मकान में सोने के सिक्के गड़े हुए हैं, तो वह उस पर अपना हक जमा लेगी और तुम्हें उस में से कुछ नहीं मिलेगा.’

‘‘आगे वे बोले, ‘देखो, रात में चुपचाप खुदाई के लिए मजदूर लाने होंगे, वह भी किसी दूसरे गांव से, ताकि गांव वालों को कुछ पता न चल सके. इस खुदाई के काम में पैसा तो खर्च होगा ही. तुम्हारे पति ने तुम्हारे नाम पर डाकखाने में जो रुपया जमा कर रखा है, तुम उसे निकाल लो.’

‘‘इस के बाद बाबा ने कहा, ‘हम महीने भर बाद फिर से इस गांव में आएंगे, तब तक तुम पैसों का इंतजाम कर के रखना.’

‘‘डाकखाने में रखे 4 लाख रुपयों में से अब तक मैं बाबा को 2 लाख रुपए दे चुकी हूं.’’

‘‘दीदी, क्या मैं आप के बीच वाले कमरे को देख सकता हूं?’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, वैसे तो बाबा ने मना किया है, लेकिन इस समय वे यहां नहीं हैं, इसलिए आप देख लीजिए.’’

मैं फौरन उठा और बीच के कमरे में जा पहुंचा. मैं ने देखा कि सारा कमरा 2-2 फुट खुदा हुआ था और उस की मिट्टी एक कोने में पड़ी हुई थी.

मुझे लगा कि अगर अब कानूनी कार्यवाही करने में देर हुई, तो इस औरत के पास बचे 2 लाख रुपए भी वह बाबा ले जाएगा.

मैं ने उस औरत से कहा, ‘‘दीदी, मैं इस इलाके का थानेदार हूं और मुझे उस पाखंडी बाबा के बारे में जानकारी मिली थी, इसलिए मैं यहां आया हूं.

‘‘आप मेरे साथ थाने चलिए और उस बाबा के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाइए, ताकि मैं उसे गिरफ्तार कर सकूं.’’

उस औरत को भी अपने ठगे जाने का एहसास हो गया था, इसलिए वह मेरे साथ थाने आई और उस के खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी.

चूंकि बाबा घाघ था, इसलिए उस ने उस औरत के घर के नुक्कड़ पर ही अपने एक शिष्य को नजर रखने के लिए  बैठा दिया था. इसलिए उसे यह पता चलते ही कि मैं उस औरत को ले कर उस के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने थाने ले गया हूं. वह बाबा उस गांव को छोड़ कर भाग गया.

इस के बाद मैं ने आसपास के गांवों में मुखबिरों से जानकारी भी निकलवाई, लेकिन उस का पता नहीं चल सका. मैं यादों की बहती नदी से बाहर आया, तब तक गाड़ी इंदौर रेलवे स्टेशन पर आ कर ठहर गई थी.

जब मैं ने इंदौर का थाना जौइन किया, तब एक दिन एक फाइल पर मेरी नजर रुक गई. उसे पढ़ कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. रिपोर्ट में लिखा था, ‘गडे़ धन के लालच में एक मां ने अपने 7 साला बेटे का खून इंजैक्शन से निकाला.’

उस मां के खिलाफ लड़के के दादाजी और महल्ले वालों ने यह रिपोर्ट लिखाई थी.

यह पढ़ कर मैं सोच में पड़ गया कि कहीं यह वही खाचरोंद गांव वाला बाबा ही तो नहीं है.

मैं ने सबइंस्पैक्टर मोहन से कहा, ‘‘मैं इस मामले में उस लड़के के दादाजी से बात करना चाहता हूं. उन्हें थाने आने के लिए कहिए.’’

रात के तकरीबन 10 बजे एक बुजुर्ग  मेरे क्वार्टर पर आए. मैं ने उन से उन का परिचय पूछा. तब वे बोले, ‘‘मैं ही उस लड़के का दादाजी हूं.’’

‘‘दादाजी, मैं इस केस को जानना चाहता हूं,’’ मैं ने पूछा.

वे बताने लगे, ‘‘सर, घर में गड़े धन के लालच में बहू ने अपने 7 साल के बेटे की जान की परवाह किए बगैर इंजैक्शन से उस का खून निकाला और तांत्रिक बाबा को पूजा के लिए सौंप दिया.’’

‘‘दादाजी, आप मुझे उस बाबा के बारे में कुछ बताइए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सर, यह बात तब शुरू हुई, जब कुछ दिनों के लिए मैं अपने गांव गया था. फसल कटने वाली थी, इसलिए मेरा गांव जाना जरूरी था. उन्हीं दिनों यह तांत्रिक बाबा हमारे घर आया और बहू से बोला कि तुम्हारे घर में गड़ा हुआ धन है. इसे निकालने से पहले थोड़ी पूजापाठ करानी पड़ेगी.’’

‘‘मेरी बहू उस के कहने में आ गई. फिर उस तांत्रिक बाबा ने रात को अपना काम करना शुरू किया. पहले दिन उस ने नीबू, अंडा, कलेजी और सिंदूर का धुआं कर उसे पूरे घर में घुमाया, फिर उस ने बीच के कमरे में अपना त्रिशूल एक जगह जमीन पर गाड़ा और कहा कि यहां खोदने पर गड़ा धन मिलेगा.

‘‘उस के शिष्यों ने एक जगह 2 फुट का गड्ढा खोदा. चूंकि रात के 12 बज चुके थे, इसलिए उन्होंने यह कहते हुए काम रोक दिया कि अब खुदाई कल करेंगे.

‘‘इसी बीच मेरी 5 साल की पोती उस कमरे में आ गई. उसे देख कर तांत्रिक गुस्से में लालपीला हो गया और बोला कि आज की पूजा का तो सत्यानाश हो गया है. यह बच्ची यहां कैसे आ गई? अब इस का कोई उपचार खोजना पड़ेगा.

‘‘अगले दिन रात के 12 बजे वह तांत्रिक अकेला ही घर आया और बहू से बोला, ‘तू गड़ा हुआ धन पाना चाहती है या नहीं?’

‘‘बहू लालची थी, इसलिए बोली, ‘हां बाबा.’

‘‘फिर बाबा तैश में आ कर बोला, ‘कल रात उस बच्ची को कमरे में नहीं आने देना चाहिए था. अब उस बच्ची को भी ‘पूजा’ में बैठा कर अकेले में तांत्रिक क्रिया करनी पड़ेगी. जाओ और उस बच्ची को ले आओ.

‘‘इस पर मेरी बहू ने कहा, ‘लेकिन बाबा, वह तो सो रही है.’

‘‘बाबा बोला, ‘ठीक है, मैं ही उसे अपनी विधि से यहां ले कर आता हूं.

‘‘अगले दिन सुबह उस बच्ची ने अपनी दादी को बताया, ‘रात को वह तांत्रिक बाबा मुझे उठा कर बीच के कमरे में ले गया और मेरे सारे कपड़े उतार कर उस ने मेरे साथ गंदा काम किया.’

‘‘जब मेरी पत्नी ने बहू से पूछा, तो वह बोली, ‘बच्ची तो नादान है. कुछ भी कहती रहती है. आप ध्यान मत दो.’

‘‘अगले दिन बाबा ने बीच का कमरा खोद दिया. लेकिन कुछ नहीं निकला. फिर वह बाबा बोला, ‘बाई, लगता है कि तुम्हारे ही पुरखे तुम्हारे वंश का खून चाहते हैं, तुम्हें अपने बेटे की ‘बलि’ देनी होगी या उस का खून निकाल कर चढ़ाना होगा.’

‘‘गड़े धन के लालच में मां ने बिना कोई परवाह किए अपने बेटे का खून ‘इंजैक्शन’ से खींचा और उस का इस्तेमाल तांत्रिक क्रिया करने के लिए बाबा को दे दिया.

‘‘यह सब देख कर मेरी पत्नी से रहा नहीं गया और उस ने फोन पर ये सब बातें मुझे बताईं. मैं तभी सारे काम छोड़ कर इंदौर आया और अपने पोते और महल्ले वालों को ले कर थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई.’’

‘‘दादाजी, इस समय वह तांत्रिक बाबा कहां है?’’

‘‘सर, मेरी बहू अभी भी उस के मोहपाश में बंधी है. चूंकि उसे मालूम पड़ चुका है कि मैं ने उस के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है, इसलिए वह हमारे घर नहीं आ रहा है, लेकिन मैं उस पर नजर रखे हुए हूं.’’

सुबह एक मुखबिर आया और बोला, ‘‘सर, एक सूचना मिली है कि अपने इलाके की एक मलिन बस्ती में एक तांत्रिक आज ही आ कर ठहरा है.’’

रात के 12 बजे मैं अपने कुछ पुलिस वालों को साथ ले कर सादा कपड़ों में वहां जा पहुंचा.

एक पुलिस वाले ने एक मकान से  धुआं निकलते देखा. हम ने चारों तरफ से उस मकान को घेर लिया.

जब मैं ने उस मकान का दरवाजा खटखटाया, तो एक अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘क्या है? यहां पूजा हो रही है. आप जाइए.’’

इतना सुनते ही मैं ने दरवाजे को जोर से धक्का दिया और बीच के कमरे में पहुंचा.

मुझे देखते ही वह तांत्रिक बाबा भागने की कोशिश करने लगा, तभी मेरे साथ आए पुलिस वालों ने उसे घेर लिया और गाड़ी में डाल कर थाने ले आए.

थाने में थर्ड डिगरी देने पर उस ने अपने सारे अपराध कबूल कर लिए, जिस में खाचरोंद गांव में की गई ठगी भी शामिल थी.

मैं थाने में बैठा सोच रहा था कि अखबारों में गड़े धन निकालने के बारे में ऐसे ठग बाबाओं की खबरें अकसर छपती ही रहती हैं, फिर भी न जाने क्यों लोग ऐसे बाबाओं के बहकावे में आ कर अपनी मेहनत की कमाई को उन के हाथों सौंप कर ठगे जाते हैं?

मैडमजी: गीता ने किसे सबक सिखाया

‘‘प्रमोदजी, मैं यह क्या सुन रही हूं…’’ गीता मैडम पार्टी के इलाकाई प्रभारी प्रमोदजी के दफ्तर में कदम रखते हुए बोली.

‘‘क्या हुआ मैडमजी… इतना गुस्सा क्यों हो?’’ प्रमोदजी के चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वे मैडमजी के गुस्से की वजह जानते हैं.

‘‘प्रमोदजी, बताएं कि पार्टी ने आने वाले इलैक्शन में मेरी जगह उस कल की आई लड़की सारिका को टिकट देने का फैसला किया है. कल की आई वह लड़की आज आप के लिए इतनी खास हो गई है कि उस को मेरी जगह दी जा रही है?’’

‘‘अरे मैडमजी, आप कहां सब की बातों में आ रही हैं. आप तो पार्टी की पुरानी कार्यकर्ता हैं. आप ने तो पार्टी के लिए बहुतकुछ किया है. हम भी आप के बारे में सोचते, पर नेताजी के निर्वाचन समिति को आदेश हैं कि इस बार सब नए लोगों को ही आगे करना है…

‘‘दूसरी पार्टियां रोज नएनए चेहरों के साथ अखबारों में बने रहना चाहती हैं. बस, जनता को दिखाने के लिए हमारी पार्टी भी खूबसूरत चेहरों को आगे लाना चाहती है. ये कल के आए बच्चे हमारी और आप की जगह थोड़े ही ले सकते हैं,’’ बात करतेकरते प्रमोदजी ने अपना हाथ मैडमजी के हाथ पर रख दिया, ‘‘मैडमजी, हमारी नजर से देखो, तो उस सारिका से लाख गुना खूबसूरत हैं आप. पर नेताजी को कौन समझाए.’’

प्रमोदजी के चेहरे की मुसकान उन के इरादे साफ बता रही थी, पर छोटू की चाय ने उन को अपना हाथ मैडमजी के हाथ से हटाने पर मजबूर कर दिया.

छोटू चाय रख कर चला गया, तो मैडमजी ने फिर अपनी नाराजगी जताई, ‘‘प्रमोदजी, आप इन बातों से मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए. आप के कहने पर मैं ने पिछली बार भी परचा नहीं भरा, क्योंकि आप चाहते थे कि आप की भाभी इलैक्शन लड़े. तब मैं भी नई थी और आप की बात मान गई थी. पर अब क्या? सारिका 2 साल पहले पार्टी से जुड़ी है और उस को टिकट मिल रहा है. यह गलत है. आप एक बार मेरी मुलाकात नेताजी से तो कराइए.

‘‘प्रमोदजी, मैं ने हमेशा वही किया है, जो आप ने कहा. कितनी बार आप के कहने पर झूठ भी बोला…यहां तक कि आप के कहने पर उस मनोहर पर गलत आरोप भी लगाए, ताकि आप इस कुरसी पर बने रहें. पर मुझे क्या मिला?

‘‘प्रमोदजी, आप जो कहेंगे, मैं करूंगी. बस, एक बार टिकट दिलवा दीजिए, फिर देखिए जीत तो मेरी पक्की है. आप समझ रहे हैं न,’’ इस बार मैडमजी ने प्रमोदजी का हाथ पकड़ लिया.

जब मैडमजी ने खुद प्रमोदजी का हाथ पकड़ लिया, तो उन की तो मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई. उन्होंने मैडमजी को भरोसा दिया कि वे आज ही नेताजी से उन के लिए बात करेंगे.

मैडमजी अपना धूप का चश्मा सिर से वापस आंखों पर लगा कर दफ्तर से घर चली आईं.

‘‘क्या बात है गीता, आज जल्दी घर आ गईं? कोई पार्टी या मीटिंगविटिंग नहीं थी आज?’’

घर में आते ही मैडमजी सिर्फ गीता बन जाती थीं, जो मैडमजी को बिलकुल पसंद नहीं था.

अपने पति की यह बात सुन कर वे एकदम चिढ़ गईं और बिना जवाब दिए अपने कमरे में चली गईं.

मैडमजी को पैसों की कोई कमी नहीं थी. उन को कमी थी तो एक पहचान की. मैडमजी सुनने की आदत हो गई थी उन को. उन का यही सपना था कि लोग सलाम करें, हाथ जोड़ कर आगेपीछे घूमें. वे सत्ता का नशा चखना चाहती थीं और इस के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थीं.

‘‘क्या बात है गीता, बहुत परेशान दिख रही हो?’’ कहते हुए समीर ने कमरे की बत्ती जलाई, तो मैडमजी को एहसास हुआ कि रात हो गई है.

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, सिरदर्द कर रहा है. दवा ली है. ठीक हो जाऊंगी. आप कहीं जा रहे हैं क्या?’’

‘‘हां… तुम को कल रात को बताया तो था कि मैं आज रात को 3 दिन के लिए बाहर जा रहा हूं. अगर ज्यादा तबीयत खराब हो, तो डाक्टर बुला लेना,’’ समीर इतना कह कर कमरे से बाहर चला गया.

समीर के जाते ही गीता ने फोन उठा कर प्रमोदजी को मिला दिया, ‘‘हैलो प्रमोदजी, मैं बोल रही हूं. क्या आप ने नेताजी से बात की?’’

‘‘अरे मैडमजी, मैं आप के बारे में ही सोच रहा था. आज आप गजब की लग रही थीं. क्या मदहोश खुशबू आती है…अभी तो घर पर हूं, कल दफ्तर जा कर आप से बात करता हूं,’’ प्रमोदजी के पास से शायद उन की पत्नी की आवाज आ रही थी, इसलिए उन्होंने फोन जल्दी रख दिया.

मैडमजी भी कच्ची खिलाड़ी नहीं थी. सारी रात जाग कर उन्होंने सोच लिया था कि आगे क्या करना है, जिस से सारिका को टिकट न मिले और प्रमोद को भी सबक मिल जाए.

अगले दिन अपनी अलमारी से नोटों की 3 गड्डियां पर्स में डाल कर मैडमजी जल्दी ही घर से निकल गईं. सीधे कौफी हाउस पहुंच कर वे पत्रकारों से मिलीं. उन्हें कुछ समझाया और एक नोट की गड्डी उन्हें दी.

फिर वे एक सुनसान जगह पर 6-7 लड़कों से मिलीं. नोटों की बाकी गड्डी और एक फोटो उन को दी. थोड़ी देर बात की और तेजी से निकल गईं. वहां से वे सीधे प्रमोदजी के दफ्तर पहुंच गईं.

वहां अभी कोई नहीं आया था. बस, छोटू सफाई कर रहा था. वे चुपचाप छोटू के पास गईं, उसे कुछ समझाया. उस के हाथ में सौ रुपए का एक नोट रख दिया.

अब इंतजार था प्रमोदजी का. बाथरूम में जा कर मैडमजी ने पर्स से लिपस्टिक निकाल कर दोबारा लगाई और प्रमोदजी का इंतजार करने लगीं.

दफ्तर में मैडमजी को देख कर प्रमोदजी पहले थोड़ा हैरान हुए, पर वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैडमजी, आप इतनी सुबहसुबह?’’

‘‘बस, क्या बताऊं प्रमोदजी, सारी रात सो नहीं पाई,’’ इतना कह कर मैडमजी ने साड़ी का पल्लू सरका दिया और बोलीं, ‘‘अरे, यह पल्लू भी न… माफ कीजिए,’’ फिर उन्होंने अदा से अलग पल्लू ठीक कर लिया.

‘‘मैडमजी, आज तो आप कहर बरपा रही हैं. यह रंग बहुत जंचता है आप पर,’’ प्रमोदजी मैडमजी के पास आ कर बोले.

‘‘आप भी न प्रमोदजी, बस कुछ भी…’’ मैडमजी ने अपना सिर प्रमोदजी के कंधे पर रख दिया.

उन्होंने मैडमजी की कमर पर हाथ रखना चाहा, पर उसी वक्त छोटू चाय ले कर आ गया और वे सकपका कर मैडमजी से दूर हो गए और बोले, ‘‘मैं ने तो चाय नहीं मंगवाई. चल, भाग यहां से.’’

‘‘प्रमोदजी, चाय मैं ने मंगवाई थी. रख दे यहां. चल, तू जा,’’ मैडमजी ने फिर अदा से प्रमोदजी की ओर देखा, पर प्रमोदजी को एहसास हो गया था कि वे पार्टी दफ्तर में हैं, इसलिए अपनी कुरसी पर जा कर बैठ गए.

मैडमजी खुश थीं कि छोटू एकदम सही वक्त पर आया.

‘‘प्रमोदजी, बातें तो होती ही रहेंगी. आप यह बताओ कि नेताजी से बात कब करोगे?’’

‘‘मैडमजी, बस आज ही… रैली के बारे में बात करने मैं आज ही पार्टी दफ्तर जा रहा हूं. आप के बारे में भी बात कर लूंगा.’’

‘‘पर आप को लगता है कि वे मानेंगे?’’ मैडमजी ने चिंता जताई.

‘‘अरे, वह सब आप मुझ पर छोड़ दो,’’ प्रमोदजी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘नहीं, आप ही कह रहे थे न कल कि नए चहरे… बस, इसलिए पूछा… और नेताजी अपना फैसला बदलेंगे,’’ मैडमजी फिर अदा से बोलीं.

‘‘इतने सालों में आप हमें ठीक से जान नहीं पाई हैं. पार्टी में अच्छी पकड़ है हमारी. हाईकमान के फैसले को बदलना मेरे लिए कोई मुश्किल बात नहीं,’’ प्रमोदजी अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे थे और मैडमजी कुरसी पर टेक लगा कर उन की बातें अपने फोन पर रिकौर्ड कर रही थीं.

प्रमोदजी आगे बोले, ‘‘मैडमजी, इतने साल तक पार्टी में झक नहीं मारी है मैं ने. हर किसी की कमजोरी जानता हूं. हर किसी को बोतल में उतार कर ही यहां तक पहुंचा हूं. आप ने तो देखा ही है कि जो मेरी बात नहीं मानता, उस का हाल उस मनोहर जैसा होता है.

‘‘बेचारा कुछ किए बिना ही जेल की हवा खा रहा है. और नेताजी के भी कई किस्से इस दिल में कैद हैं,’’ मैडमजी के सामने अपनी शान दिखाने के चक्कर में प्रमोदजी न जाने क्याक्या बोल गए.

मैडमजी का काम हो चुका था. वे किसी काम का बहाना कर के वहां से निकल गईं. अब उन्हें अगले काम के पूरा होने का इंतजार था. घर जाने का उन का मन नहीं था, इसलिए वे पास की कौफी शौप में जा कर बैठ गईं. समय देखा… अब तक तो खबर आ जानी चाहिए थी.

मैडमजी कौफी पी कर पैसे देने ही वाली थीं कि उन की नजर टैलीविजन पर गई. चेहरे पर हलकी मुसकान आ गई. पर्स उठा कर वापस प्रमोदजी के दफ्तर आ गईं.

प्रमोदजी फोन पर थे. वे काफी परेशान थे, ‘‘नहीं नेताजी, मुझे तो कुछ भी नहीं पता. यह खबर सच्ची है या नहीं… आप यकीन कीजिए, मुझे नहीं पता था कि सारिका कालेज में दाखिले के नाम पर छात्रों से पैसे लेती है…

‘‘पर नेताजी, आप मेरी बात तो सुनो. आप मुझे… ठीक है, जैसा आप कहो,’’ प्रमोदजी ने पलट कर के देखा, ‘‘अरे मैडमजी, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

‘‘क्या हुआ प्रमोदजी?’’ मैडमजी ने झूठी चिंता जताई.

‘‘हां मैडमजी, पार्टी दफ्तर से फोन था. कुछ लड़कों ने किसी टैलीविजन रिपोर्टर को इंटरव्यू दिया है कि कालेज में दाखिला करवाने के नाम पर सारिका ने उन से मोटी रकम ली है. अब देखो, इतना बड़ा कांड कर दिया और हमें कानोंकान खबर तक नहीं…’’

प्रमोदजी कुरसी पर बैठते हुए बोले, ‘‘नेताजी ने फिर हमें जिम्मेदारी दे दी है. उन का मानना है कि इस बार किसी भी बदनाम आदमी को टिकट तो क्या, पार्टी में भी जगह न दी जाए,’’ कहते हुए प्रमोदजी के चेहरे से एकदम चिंता के भाव गायब हो गए, जैसे उन के शैतानी दिमाग में कुछ आया हो.

‘‘मैडमजी, इस से पहले कि फिर कोई नया चेहरा सामने आए, मैं आप का नाम आगे कर देता हूं… कल नेताजी से मिलने जा रहा हूं, तो आज शाम को पहले आप से एक छोटी सी मुलाकात हो जाए… दफ्तर के पीछे वाले मेरे फ्लैट पर.’’

प्रमोदजी की बात सुन कर मैडमजी फिर मुसकारा दीं और बोलीं, ‘‘प्रमोदजी, नाम तो आप को मेरा ही लेना होगा और कान खोल कर सुन लो, अगर मेरे बारे में कोई गलत खयाल मन में भी लाए, तो आप भी इस पार्टी में नजर नहीं आएंगे.

‘‘…अब ध्यान से मेरी बात सुनो. जिन लड़कों ने सारिका पर इलजाम लगाया है, वे सारिका के साथसाथ आप का नाम भी ले सकते थे, पर मुझे इस पार्टी में लाने वाले आप थे, मैं ने हमेशा आप को अपने पिता जैसा माना, इसलिए अपनी परेशानी ले कर मैं आप के पास आई और आप मुझ पर ही गंदी नजर रखे हुए हैं. शर्म नहीं आई आप को…’’

इतना कह कर मैडमजी ने अपने मोबाइल फोन से अपनी और प्रमोदजी के बीच हुई सारी बातों की रिकौर्डिंग उन्हें सुना दी. प्रमोदजी को पसीने आ गए.

‘‘अब आप के लिए बेहतर होगा कि नेताजी को अभी फोन कर के मेरे नाम पर मुहर लगवा दीजिए, वरना कल आप की यह आवाज हर टैलीविजन चैनल पर सुनने को मिलेगी,’’ मैडमजी पर्स संभालते हुए तेज कदमों से कमरे से बाहर निकल गईं.

शाम होतेहोते मैडमजी के खास कार्यकर्ताओं के उन्हें टिकट मिलने की बधाई देने के फोन आने भी शुरू हो गए थे.

गणतंत्र दिवस स्पेशल: एक 26 जनवरी ऐसी भी

हर रविवार की तरह आज भी मयंक देर तक सोता रहा. दोपहर के तकरीबन 12 बजे आंख खुली तो उस ने अपना मोबाइल फोन टटोलना शुरू किया. मोबाइल फोन का लौक ओपन कर के ह्वाट्सएप चैक किया. देखा कि आज कुछ ज्यादा ही लोगों ने स्टेट्स अपडेट कर रखा है.

देखने से पता चला कि आज 26 जनवरी है, जिस की वजह से सब ने देशभक्ति से जुड़े स्टेटस डाले. तब उसे याद आई कि आज तो उस की पत्नी स्नेहा ने सोसाइटी में एक रंगारंग कार्यक्रम भी रखा है.

हर रविवार को उठने से पहले ही बिस्तर पर चाय मिल जाया करती थी, आज स्नेहा लेट कैसे हो गई? कुछ देर इंतजार करने के बाद उस ने आवाज लगाई, ‘‘स्नेहा, मेरी चाय कहां है?’’

पर कोई जवाब न मिलने से मयंक खीज गया. बैडरूम से निकल कर बाहर जा कर देखा तो कोई था ही नहीं. न बच्चे और न ही स्नेहा. मयंक और ज्यादा गुस्सा होते हुए तेज कदमों से वापस कमरे में गया और फोन उठाया.

जैसे ही उस ने स्नेहा को फोन लगाया, उस की नजर स्टडी टेबल पर बहुत ही बेहतरीन तरीके से सजाए हुए एक लिफाफे पर पड़ी, जिस पर बहुत ही खूबसूरत तरीके से लिखा हुआ था, ‘एक त्योहार ऐसा भी’.

मयंक ने बिना समय गंवाए वह लिफाफा खोला और पढ़ना शुरू किया:

‘डियर हसबैंड,

‘आज मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. मैं यह घर छोड़ कर जा रही हूं. हमेशा के लिए नहीं, लेकिन 2 महीने के लिए जरूर. कल रात तुम ने मुझ पर हाथ उठाया था. मुझे उस का कोई गम नहीं है, क्योंकि यह कोई पहली दफा नहीं हुआ था जो तुम ने मुझ पर हाथ उठाया, पर कल रात तुम ने बिना मुझे समझे यह दर्द दिया.

‘आप यह भी मत सोचो कि मैं आप से नाराज हूं, इसलिए जा रही हूं. मैं आप से नाराज नहीं हूं. बस मैं जा रही हूं लौट आने के लिए, क्योंकि जब हम बीमार होते हैं तो न चाहते हुए भी कड़वी दवा लेते हैं, क्योंकि हम अच्छे से जानते हैं कि कड़वी दवा ही हमें ठीक कर सकती है. शायद कुछ दिन की ये दूरियां हमारी जिंदगी में हमेशा के लिए नजदीकियां ला दें.

‘कल से जब आप औफिस जाएंगे, तो शायद आप को आप का सामान देने वाला कोई नहीं होगा. बाथरूम में तौलिया भी खुद ले जाना पड़ेगा. शायद आप की जुराब भी जगह पर न मिले, गाड़ी की चाबी भी खुद ही ढूंढ़नी पड़े, शाम को घर आते ही आप की नाइट डै्रस भी जगह पर न हो कर बाथरूम में ही उलटी टंगी मिले. बैड पर एक भी सिलवट पसंद न करने वाले को वैसा ही बैड मिलेगा, जैसा कि वह छोड़ कर गया था.

‘एक आवाज पर चायपानी हाथ में न मिले, खाना खाते वक्त कोई नहीं होगा जो रिमोट ढूंढ़ कर आप को दे दे, रात को नींद खुलने पर प्यास लगने पर पानी का जग भरा हुआ न मिले, सुबह मोबाइल फोन भी डिस्चार्ज मिले, क्योंकि कोई नहीं होगा, जो तुम्हारा मोबाइल फोन चार्ज कर दे.

‘मैं आप को यह नहीं जता रही हूं कि आप मेरे बिना यह काम नहीं कर पाएंगे. बेशक, आप सब हैंडल कर लेंगे, बस यही कि यह सब करते वक्त आप को अहसास होगा कि कोई था जो मेरे बिना कहे सब समझाया करता था कि मुझे कब किस चीज की जरूरत है. क्या मुझे भी उसे पूरा नहीं तो थोड़ा तो समझने की जरूरत है.

‘पिछले 8 सालों से मैं हर रोज तुम्हें और अपने बच्चों को हर तरह की खुशियां देने में ही लगी हूं. मैं तुम से शिकायत नहीं कर रही हूं. बस एक गुजारिश है कि मैं तुम्हारे लिए ही आई हूं, तो क्या तुम मुझे थोड़ा भी नहीं सम झ सकते.

‘मांबाबा के गुजर जाने के बाद जब भैयाभाभी ने मेरी तुम से शादी की थी, तब से तुम ही मेरे लिए सबकुछ हो. तुम्हारे औफिस में बिजी रहने के चलते इस अनजान शहर मैं हर सामान लेने के लिए भटकती हूं.

‘‘मैं तुम्हें कोई दोष नहीं दे रही हूं, बस यही कहना चाहती हूं कि तुम मुझे समझ जाओ, क्योंकि तुम ही हो जो मुझे समझ सकते हो. मेरे लिए भी यहां से जाना इतना आसान नहीं था, पर मैं यहां से जा रही हूं. अपना खयाल रखना.

‘तुम्हारी संगिनी.’

यह चिट्ठी पढ़ने के बाद मयंक के चेहरे का तो जैसे रंग ही उड़ गया. उस ने फौरन मोबाइल पर स्नेहा का नंबर डायल किया और आवाज आई, ‘जिस नंबर से आप संपर्क करना चाहते हैं, वह या तो अभी बंद है या नैटवर्क क्षेत्र से बाहर है. लगातार डायल करने पर भी यही जवाब मिला.

अलमारी चैक की तो स्नेहा का पर्स भी नहीं था. स्कूटी भी घर में ही थी. घर से बाहर निकल कर पड़ोसी मिश्राजी से पूछा कि स्नेहा कुछ बोल कर गई है क्या?

मिश्राजी ने जवाब दिया, ‘‘नहीं मयंक बेटा, कुछ बोल कर तो नहीं गई, पर जाते वक्त मैं ने उसे देखा था. दोनों बच्चों के साथ और एक बैग ले कर गई है.’’

मयंक के तो हाथपैरों ने जैसे जवाब ही दे दिया. उसे हर वह बात याद आ रही थी, जब उस ने स्नेहा पर अपना गुस्सा निकाला. उसे अपशब्द बोले.

बालों में हाथ फेरता हुआ मयंक वहीं बरामदे में बैठ गया. न जाने कौनकौन सी बातें उस के जेहन में आ रही थीं. वक्त का तो जैसे उसे पता ही नहीं चला. बेमन से उठ कर रूम में आया तो देखा कि गैलरी का गेट खुला होने के चलते रूम पर जैसे मच्छरों ने ही कब्जा कर लिया हो. मच्छर भागने की मशीन चालू करने गया तो देखा रिफिल खत्म हो चुकी है और कमरे में तो मच्छरों की पार्टी शुरू हो गई थी.

बहुत ढूंढ़ने के बाद फास्ट कार्ड मिला, उसे जलाया और लेट गया. पर फास्ट कार्ड की बदबू उसे और भी गुस्सा दिला रही थी. कुछ अजीब सा मुंह बनाने के बाद उसे अहसास हुआ कि कुछ अच्छी महक आ रही है. उस ने तेज कदमों के साथ नीचे जा कर देखा तो स्नेहा किचन में काम कर रही थी. उसे कुछ भी समझ नहीं आया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि खुश होवे या गुस्सा करे.

मयंक ने स्नेहा का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘तुम तो चली गई थी न, फिर वापस क्यों आई?’’

स्नेहा बोली, ‘‘कहां चली गई थी? मुझे कुछ सम झ नहीं आ रहा है. क्या बोल रहे हो? कहां चली गई थी?’’

मयंक चिढ़ते हुए बोला, ‘‘अच्छा तो दिनभर से कहां थी? बैग ले कर गई थी न, और वह चिट्ठी जो मेरे लिए छोड़ कर गई थी.’’

स्नेहा फिर बोली, ‘‘मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है कि तुम क्या बोल रहे हो और कौन सी चिट्ठी की बात कर रहे हो?’’

मयंक और गुस्से में आ कर बोला, ‘‘स्नेहा, अब मुझे गुस्सा मत दिलाओ. सचसच बताओ.’’

स्नेहा थोड़ा सा चिढ़ते हुए बोली, ‘‘क्या बताऊं?’’

मयंक ने बिना देर लगाए जेब से चिट्ठी निकाल कर स्नेहा को पकड़ाई और कहा, ‘‘यह चिट्ठी.’’

चिट्ठी हाथ में लेते ही स्नेहा की तो मानो हंसी ही नहीं रुक रही थी. मयंक आंखें फाड़फाड़ कर देख रहा था. कुछ देर तक स्नेहा को हंसते हुए देखकर मयंक ने कहा, ‘‘स्नेहा, जवाब दो मुझे.’’

स्नेहा कुछ मजाकिया अंदाज में बोली, ‘‘मैनेजर साहब, यह चिट्ठी आप के लिए नहीं है. यह तो आज 26 जनवरी पर हमारी महिला मंडली ने सुबह झंडा फहराने और उस के बाद उसे सैलिब्रेट करने और उस में मेहंदी या बैस्ट डै्रस प्रतियोगिता की जगह एक कहानी प्रतियोगिता रखी है, जिस में सब को एक कहानी लिखनी है.

‘‘जो चिट्ठी तुम ने पकड़ रखी है, वह मेरी लिखी हुई कहानी है. सुबह से सब 26 जनवरी को सैलिब्रेट करने की तैयारी के लिए इकट्ठा हुए थे, तो मैं वहां गई थी. और वैसे भी आज छुट्टी थी, तो बच्चे ख्वाहमख्वाह तुम्हें परेशान करते, तो मैं इन्हें भी अपने साथ ले गई.

‘‘पास में ही जाना था तो स्कूटी भी नहीं ले गई. अब प्रतियोगिता टाइम हुआ है तो तैयार होने और यह लिफाफा लेने आई हूं.

‘‘वैसे, तुम्हें क्या हो गया है? ऐसे क्यों बरताव कर रहे हो? चाय नहीं मिली इसलिए क्या? तुम सोए थे तो मैं ने तुम्हें जगाया नहीं… सौरी.’’

कुछ सोचने के बाद मयंक बोला, ‘‘तुम्हारा फोन क्यों स्विच औफ आ रहा था?’’

स्नेहा खीजते हुए बोली, ‘‘यह है न तुम्हारी औलाद, गेम खेलखेल कर बैटरी ही खत्म कर देती है.’’

मयंक मुसकराते हुए बोला, ‘‘ओके, कोई बात नहीं. तुम तैयार हो जाओ, मैं तुम्हें छोड़ आऊंगा और बच्चों को भी मैं संभाल लूंगा. वैसे भी आज तो तुम्हें थोड़ा ज्यादा ही सजना होगा.’’

स्नेहा तैयार हो कर जब सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी, तो मयंक ने कुछ आशिकाना अंदाज में कहा, ‘‘नजर न लग जाए मेरी जान को. बहुत खूबसूरत लग रही हो.’’

स्नेहा हलकी सी मुसकराहट के साथ बोली, ‘‘वैसे, मैं ने कुछ कहा ही नहीं, उस से पहले ही बोल दिए जनाब.’’

पूरे रास्ते मयंक मंदमंद मुसकराता रहा. स्नेहा के पूछने पर भी कुछ नहीं बोला.

जैसे ही स्नेहा कार्यक्रम वाली जगह पर पहुंची, तो मयंक ने पीछे से आवाज लगाई और उस का हाथ पकड़ कर माथे को चूम कर कहा, ‘‘आज तुम यह प्रतियोगिता जीतो या न जीतो, पर आज तुम ने मुझे जरूर जीत लिया है. तुम ने अपने नाम की तरह मुझे बहुत स्नेह दिया है. मैं भी आज तुम से वादा करता हूं कि तुम्हें कभी कोई दुख नहीं दूंगा. हमेशा तुम्हें खुश रखूंगा.’’

स्नेहा की आंखों से आंसू आ रहे थे. वह कुछ भी बोल नहीं पाई. बस उस का मन यही कह रहा था. एक 26 जनवरी ऐसी थी, जिस ने मुझे समझने वाला मेरा हमसफर लौटा दिया.

ऊपर तक जाएगी : कैसे हुआ ललन का काम

.‘‘बाबूजी, मुझ से खेती न होगी. थोड़े से खेत में पूरा परिवार लगा रहे, फिर भी मुश्किल से सब का पेट भरे.

‘‘मैं यह काम नहीं करूंगा. मैं तो हरि काका के साथ मछली पकड़ूंगा,’’ कहता हुआ ललन मछली रखने की टोकरी सिर पर रख कर घर से बाहर निकल गया.

ललन के बाबा बड़बड़ाए, ‘नालायक, कभी नदी में डूब कर मर न जाए.’

‘पहाडि़यों से उतरती नदी की धारा. नदी के किनारे देवदार के पेड़, कलकल करती नदियों का मधुर संगीत… कितना अच्छा नजारा है यह,’ ललन बड़बड़ाया, ‘अभी एक धमाका होगा और ढेर सारी मछलियां मेरी टोकरी में भर जाएंगी. एक घंटे में सारी मछलियां मंडी में बेच कर घर पहुंच जाऊंगा और मोबाइल फोन पर फिल्में देखूंगा… मगर यह ओमप्रकाश कहां मर गया…’

तभी ललन ने ओमप्रकाश को ढलान पर चढ़ते देखा तो वह खुश हो गया.

ललन ने जल्दी से थैले में से कांच की एक बोतल निकाली और उस में कुछ बारूद जैसी चीज भरी. दोनों नदी के किनारे पहुंच कर एक बड़े से पत्थर पर बैठ गए और पानी में चारा डाल कर मछलियों के आने का इंतजार करने लगे.

दरअसल, दोनों बोतल बम बना कर जहां ढेर सारी मछलियां इकट्ठा होतीं, वहीं पानी में फेंक देते, जिस से तेज धमाका हो जाता और मछलियां घायल हो कर किनारे पर आ जातीं. दोनों झटपट उन्हें इकट्ठा कर मंडी में बेच देते, जिस से तुरंत अच्छी आमदनी हो जाती.

‘‘जब मछलियां इकट्ठा हो जाएंगी, तो मैं इशारा कर दूंगा… तू बम फेंक देना,’’ ओमप्रकाश बोला.

हरि काका इसे कुदरत के खिलाफ मानते थे. उन्हें जाल फैला कर मछली पकड़ना पसंद था, इसीलिए ललन उन के साथ मछली पकड़ने नहीं जाता था. उसे ओमप्रकाश का तरीका पसंद था.

अभी भी इक्कादुक्का मछलियां ही चारा खाने पहुंची थीं. शायद बम वाले तरीके को मछलियों ने भांप लिया था.

नदी के किनारे एक बड़ा सा पत्थर था, जिस का एक हिस्सा पानी में डूबा हुआ था. ओमप्रकाश मछलियों के न आने से निराश हो कर पत्थर पर लेट गया और आसमान की ओर देखने लगा.

ललन थोड़ी दूरी पर दूसरे पत्थर पर खड़ा था एक बोतल बम हाथ में लिए. वह ओमप्रकाश के इशारे का इंतजार कर रहा था.

तभी ओमप्रकाश को सामने की पहाड़ी की तरफ से आता एक बाज दिखा, जिस के पंजों में कुछ दबा था.

‘‘अरे, बाज के पंजों में तो सांप है,’’ ज्यों ही बाज ओमप्रकाश के ऊपर पहुंचा, उस ने पहचान लिया. वह  चिल्लाया, ‘‘ललन, बाज के पंजों में सांप…’’

ललन ने तुरंत ऊपर निगाह उठाई तो देखा कि वह सांप बाज के पंजों से छूट कर नीचे गिर रहा था. जब तक वह कुछ समझ पाता, सांप ओमप्रकाश पर गिर गया और उसे डस लिया.

डर के मारे ललन की चीख निकल गई. वह संभलता, इस से पहले बोतल बम उस के हाथ से छूट कर गिर पड़ा.

तभी जोर का धमाका हुआ. ललन को उस धमाके से एक तेज झटका लगा और ललन का बायां हाथ उस के शरीर से टूट कर दूर जा गिरा.

जब होश आया तो ललन ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. बोतल बम ने उस का हाथ छीन लिया था.

ललन ने ओमप्रकाश के बारे में पूछा. पता चला कि वह सांप के डसने से मर चुका था.

ललन के घाव भरने में महीनाभर लग गया. लेकिन अपना एक हाथ और अपने दोस्त ओमप्रकाश को खोने का दुख उसे बहुत सताता था.

‘मैं कुदरत के खिलाफ काम कर रहा था, उसी की सजा है यह. हरि काका ठीक कहते थे. मैं जिंदा बच गया. मुझे गलतियां सुधारने का मौका मिल गया. लेकिन बेचारा ओमप्रकाश…’ एक सुबह ललन यह सब सोच रहा था कि उस के बाबा उस से बोले, ‘‘ललन, घर में खाने को नहीं है. तुम्हारे इलाज में सब पैसा खर्च हो गया. अब कुछ कामधंधे की सोचो, नहीं तो एक दिन हम सब भूख से मर जाएंगे.’’

बाबा की बात से ललन को ध्यान आया कि कोई कामधंधा शुरू किया जाए, लेकिन एक हाथ से वह क्या कर सकता था?

एक दिन गांव के मुखिया से ललन को मालूम हुआ कि सरकार विकलांग लोगों को कामधंधा शुरू करने के लिए आसानी से कम ब्याज पर लोन देती है. उस ने विकलांगता का प्रमाणपत्र बनवा कर लोन के लिए अर्जी दे दी.

एक दिन बैंक से ललन को बुलावा आया. वह खुश हो गया कि उसे आज लोन मिल जाएगा और वह 2 भैंसें खरीद कर दूध बेचने का धंधा शुरू कर देगा.

‘‘लोन का 10 फीसदी मुझे पहले देना होगा तभी लोन मिलेगा,’’ बैंक मुलाजिम ने उस के कान में कहा.

‘‘यह क्या अंधेरगर्दी है, तुम लोगों को तनख्वाह नहीं मिलती क्या…’’ ललन को गुस्सा आ गया.

‘‘यहां का यही कायदा है,’’ बैंक मुलाजिम ललन को समझाने लगा, ‘‘भैया, गुस्सा क्यों करते हो? मैं कोई अकेला थोड़े ही न यह पैसा लूंगा. सब का हिस्सा बंटा होता है.’’

मायूस ललन घर की ओर लौट पड़ा.

अगले दिन ललन ने कुछ पैसों का जुगाड़ किया और कलक्टर के दफ्तर पहुंच गया.

‘‘मुझे साहब से जरूरी बात करनी है,’’ ललन ने संतरी से कहा.

संतरी ने बारी आने पर ललन को साहब के कमरे में भेज दिया.

‘‘कहो, क्या बात है?’’ कलक्टर साहब ने ललन की ओर देख कर पूछा.

ललन ने तुरंत अपने गमछे में बंधे रुपयों को निकाल कर टेबल पर रख दिया और बोला, ‘‘साहब, मैं गरीब हूं. आप अपना यह हिस्सा रख लीजिए और मेरा लोन पास कर दीजिए.’’

‘‘किस ने कहा कि मैं काम कराने के बदले पैसे लेता हूं?’’ कलक्टर ने पूछा.

ललन ने बैंक मुलाजिम की बात बताते हुए कहा, ‘‘साहब, उस ने कहा था कि पैसा ऊपर तक जाएगा. इसीलिए मैं आप का हिस्सा देने आ गया.’’

‘‘ठीक है, तुम ये पैसे उठा लो और घर जाओ. तुम्हें लोन मिल जाएगा,’’ कलक्टर ने कहा.

‘‘अच्छा साहब,’’ कह कर ललन  कमरे से बाहर निकल गया.

तीसरे दिन एक सूटबूट वाला आदमी ललन को खोजता हुआ उस के घर आया. ललन को रुपयों का पैकेट पकड़ाते हुए बोला, ‘‘ऊपर से आदेश है, लोन के रुपए सीधे तुम्हारे घर पहुंचाने का, इसीलिए मैं आया हूं. ये पैसे लो.

‘‘और हां, बैंक का कोई भी काम हो तो मुझ से मिलना. मैं बैंक मैनेजर हूं. मैं ही तुम्हारा काम कर दूंगा.’’

वह बैंक मुलाजिम, जिस ने ललन से घूस मांगी थी, अब जेल में था. ललन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ऊपर के लोगों ने बिना रुपए लिए उस का काम कैसे कर दिया?

पछतावा: लालपरी उस रोज विलास के साथ क्यों भाग गई

विलास की विलासी नजरें लालपरी से बची न थीं. इसीलिए बच्चा पाने के लिए राजदेव की बात मान कर विलास के पास जा कर भूत झड़वाना उसे गवारा न था. लेकिन लालपरी एक रोज उसी विलास के साथ क्यों भाग खडी़ हुई?

सब को चाय पिला कर मैं ने जूठी प्यालियां टेª में समेट लीं. घडी सुबह के 7 बजा रही थी. मैं ने टीवी खोल दिया. समाचार देखने सारा परिवार ड्राइंगरूम में आ गया. यह तो रोज का रुटीन है. समाचार देखने के समय मैं चाकू ले कर सब्जियां काटने बैठती हूं. पतिदेव सोफे पर आराम से बैठ कर सेंटर टेबिल पर आईना रख कर शेव करने बैठते हैं. पिकी और मीनी एकदूसरे को चिढा़ती, मुंह बिचकाती, जीभ दिखाती टीवी देखती रहती हैं.

फ्भई, आज सेकंड राउंड चाय नहीं हो रही है? इन्होंने दाढी़ बनाते हुए पूछा.

फ्आज लालपरी नहीं आई है. मुझे आटा गूंधना है, मसाला पीसना है. बच्चों का टिफिन, आप का खाना, नाश्ता—

फ्समझ गया सरकार, लालपरी होती है तब तो आप कहती हैं, ‘निकम्मी है यह, सारा काम मुझे ही संभालना पड़ता है,’ और एक दिन नहीं आई तो–. बीच में ही बात रोक कर उन्होंने मेरी नकल उतारी और हंसने लगे.

फ्लालपरी अभी किशोरी है. उसे ऐसे नहीं कहूंगी तो वह काम में तेजी कैसे लाएगी. काम तो करती ही है बेचारी. मूर्ख पति मिला है उस बदनसीब को, मैं ने ठंडी आह भरी.

साढे़ 9 बजतेबजते घर खाली सा हो गया. बच्चे स्कूल और पतिदेव आफिस जा चुके थे. मैं ने घर के बाकी काम समेटने शुरू किए. झाड़न्न् लगाना आसान था, पर पाेंछा लगाने में तो कमर ही जैसे टूट गई, ‘कोई होता तो लालपरी के घर भेज कर उस का हाल पुछवा लेती. क्या करूं, अभी तो खैर कालिज बंद हैं पर जिस रपतार से यह नागा करने लगी है उस से तो काम नहीं चलेगा. लगता है किसी और को रखना होगा. आने दो, मैं स्वयं बात करती हूं इस सिलसिले में,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

शाम को लालपरी आई. आते ही नजरें नीची किए बंगले के पिछवाडे़ जाने लगी. मेरी सास के जमाने से यह सिलसिला चला आ रहा है कि मुख्यद्वार से दाईं ओर नौकर अंदर नहीं जाते. रसोई के पीछे नल है, वहां साबुन, तौलिया रखा रहता है, आने पर हाथपैर साबुन से अच्छी तरह धोकर ही रसोई में घुसना होता है. लालपरी अपनी मां के साथ आती थी. मां जब सोहन रिकशे वाले के साथ भाग गई तब मैं ने इसे ‘सहारा’ दिया या इस ने मुझे ‘सहारा’ दिया, कहना मुश्किल है. 14 साल की नन्ही उम्र में बाप ने इस की शादी कर दी इसी टोले में. अब यह अपने पति के साथ रहती है.

Short Story: आखिर कहां तक?

फ्लालपरी, जरा इधर आना, मैं ने आवाज दी.

फ्जी, भाभीजी, कह कर वह सामने आ कर खडी़ हो गई.

मैं ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं. बाप रे, उस का चेहरा बुरी तरह सूजा हुआ था. आंखें लाललाल अंगारों की तरह दहक रही थीं. नाक की कील गायब थी और उस जगह कटे का ताजाताजा सा निशान चीखचीख कर हाल बयान कर रहा था.

फ्क्या हुआ तुझे? राजदेव ने तुझे फिर मारा है? तेरा चेहरा तो सूज कर पुआ बन गया री, मेरे शब्द डगमगा गए. इस युवती को 3 साल की छोटी उम्र से मैं ने लगभग पाला ही तो है. मां कपडे़ धोती और यह रोने लगती तब मैं कभी इसे बिस्कुट देती, कभी टाफी, कभी खाली डब्बे, क्रीम की खाली बोतलें, पुरानी कंघी जैसे बेकार पडे़ घरेलू सामान देती और जरा सा पुचकारती, यह झट से मुसकरा देती.घ्और इस की मासूम मुसकान से बंगले का कोनाकोना महक उठता. उन दिनों घर की मालकिन मेरी अम्मांजी थीं इसलिए नौकरचाकर, धोबी, दूध वाला, पेपर वाला सब मुझे ‘भाभीजी’ कहते. ससुराल में इस से सुंदर, सरस भला और क्या संबोधन हो सकता है. मां से सुनसुन कर यह भी ‘भाभीजी’ ही कहने लगी थी.

मैं ने लालपरी की ठोडी़ ऊपर उठाई, मेरे हाथों को पकड़ कर वह फफकफफक कर रो पडी़. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं ने उसे हाथ पकड़ कर बिठाया. टेबिल पर रखी बोतल में से एक गिलास पानी दिया और कहा, फ्मैं तेरी मां जैसी हूं, मुझे अपना दुख नहीं बताएगी क्या.

पानी के 4-6 घूंट पी कर वह थोडी़ शांत हुई थी. उस ने नजरें नीची किए ही कहा, फ्वह बोलता है मैं बांझ हूं. आज अमावस्या है न, आज इमलीचौक वाले मठ पर विलसवा की देह पर भूत आता है, उसी से झड़वानेफुंकवाने ले जाना चाह रहा था. मैं ने मना कर दिया, बस, वह फिर रोने लगी.

फ्अरी, तो चली जाती, राजदेव का मन ही रखने के लिए. इतनी मार से तो बच जाती नादान लड़की.

फ्कैसे चली जाती भाभीजी. विलसवा की आंखों में, उस की बातों में गंदगी दिखाई देती है हमें. वह कई बार हमें इंद्रासन का सुख दिखाने की बात कह चुका है. मूछड़ हमें देख कर आंख मारता है और इस हरामी मरद को वह ‘परमात्मा का अवतार’ लगता है.

लालपरी गुस्से और उत्तेजना से कांप रही थी. मैं ने कहा, फ्तुम ने राजदेव से विलास की हरकतों के बारे में बातें कीं कभी. कौन पति ऐसा होगा जो किसी कामुक, हवस के भूखे के पास अपनी बीवी को भेज देगा.

फ्मूर्ख है, जाहिल है, भेजे में भूसा भरा हुआ है उस के. कहता है, ‘ओझा की आंखों में भूतप्रेत बसते हैं, तू उन में झांकती क्यों है री छिनाल,’ उस की इसी गाली पर हम ने कहा, ‘तू जान ले ले पर बदचलनी का दोष मत लगा हमारे चरित्र पर. बस, इसी बात पर लातघूंसों से टूट पडा़ वह हमारे ऊपर. मुंह पर मारता रहा और चिल्लाता रहा, ‘तू जबान चलाती है साली’—

लालपरी अपने पति की दी गालियों को एक सांस में दोहरा गई और उस के बाद फिर वही लावा जो भीतर कैद था, आंसुओं के रूप में बाहर आने लगा. और कोई रास्ता न देख मैं ने कहा, फ्ऐ लालपरी, ऐ सब्जपरी, तू रोती क्यों है री. भाभीजी को चाय नहीं पिलाएगी क्या?

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जैसे नींद से जाग गई लालपरी. उस ने मेरी ओर देख कर कहा, फ्अभी तुरंत हाजिर करती हूं. आप हमें अभी भी बच्चा समझती हैं, लालपरी, सब्जपरी कह कर तो आप बचपन में हमें चुप कराती थीं, कहती हुई 20 साल की युवती, जिस के रगरग से यौवन, सरलता, सरसता, प्राकृतिक, अनुपम सौंदर्य छलक रहा था, अंदर चली गई.

रात में इन से लालपरी का जिक्र किया, उस की सारी परेशानियां बयान कीं. सुन कर ये उदास हो गए और थोडी़ देर चुप रहने के बाद बोले, फ्राजदेव पागल हो गया है क्या. उसे कल दोपहर में किसी बहाने बुलाना, मैं बात करूंगा उस से. लालपरी इस घर के सदस्य की तरह है. जब इस महल्ले में मेरे दादाजी ने यह बंगला बनवाया था तब गांव से ही इस के दादादादी को ले आए थे. दादी बताती थीं कि इस का खानदान पूरे इलाके में अपने चरित्र की उज्ज्वलता के लिए ‘वफादारईमानदार’ की उपाधि से संबोधित किया जाता था. यह लड़की कष्ट सहे, यह तो पुरखों का अपमान है…

फ्राजदेव अर्थ का अनर्थ समझ लेगा तो, मैं ने आशंका जताई.

फ्उस के बाप का राज है क्या. बिना डाक्टरी जांच कराए उस ने इसे ‘बांझ’ घोषित कर दिया है. तुम इसे ले कर अपनी सहेली डाक्टर के पास चली जाना ताकि सचाई मालूम हो सके. उन के सुझाव पर जो भी उचित होगा, दवा या आपरेशन, हम करवाएंगे. इसे यों ही नहीं छोड़ सकते न.

दूसरे दिन अचानक गांव से रामू लौट आया. वह हर साल 2 माह की छुट्टी ले कर गांव जाता है. धान रोप आता है, गेहूं तैयार कर घर में रख आता है.घ्आते समय मालदा आम की 2 बोरियां ठेले पर ले आता है. मैं ने खुश हो कर कहा, फ्रामू, 8 दिन पहले आ गए तुम.

फ्बरसात समय पर हो गई. आप के खेतों में धानरोपाई हो गई, आम बेच दिया. काम खत्म हो गया तो अम्मां ने कहा, ‘चला जा. यहां बुधनी तो है ही, उस के बच्चे भी आ गए हैं, खूब चहलपहल है.’

फ्तेरी बीवी कैसी है? मैं ने पूछा.

फ्अच्छी है, भाभीजी, उसे फिर लड़का हुआ है, कह कर रामू शरमा गया.

फ्अरे, लड्डू बांटने की जगह शरमा रहे हो तुम. बहुतबहुत बधाई हो रामू. तुम 2 बेटों के बाप बन गए 3 साल में ही, मैं स्वयं ही यह कह कर मुसकराने लगी.

फ्अम्मां ने कहा है इस साल आप मेरा आपरेशन करवा दें, रामू गमछे से मुंह पोंछने का बहाना कर शरमाता हुआ अंदर चला गया. 25-26 साल का रामू मन से 10 साल का बालक है. बिलकुल भोलाभाला, सीधासादा.

रामू को भेज कर राजदेव को बुलवाया. वह आ गया तो इन्होंने कहा, फ्राजदेव, क्या हालचाल हैं?

फ्ठीक हैं, वकील साहब, उस ने कहा.

फ्आजकल आतेजाते नहीं हो, क्या बात है, उन्होंने कहा.

फ्रामू की तरह बेटों का बाप हूं क्या जो खुशियां मनाता फिरूं, उसने कहा.

फ्तुम्हारी और लालपरी की अभी उम्र ही क्या है. प्रेम और शांति से रहो, इसी में गृहस्थी का सुख है. जब मन सुखी होगा तभी तो मांबाप बनता है कोई, धीरज रखो.

फ्वह छिनाल बांझ है, उस पर नखरा यह कि ओझा विलास के पास नहीं जाती, उस ने कहा.

फ्गालियां क्यों दे रहे हो, वह तुम्हारी पत्नी है. अपनी पत्नी की इज्जत तुम स्वयं नहीं करोगे तो दूसरे कैसे करेंगे. बच्चा चाहिए तो डाक्टर के पास जाओ, ओझा क्या करेगा. विलास तो एक नंबर का गंजेडी़ है. कल तक स्मगलरों का मुखबिर था. आज ओझा कैसे हो गया?

फ्यह हमारा घरेलू मामला है. इस में आप बडे़ लोग न बोलें तो ही ठीक है. ओझा को हम मानते हैं, बस.

फ्ठीक है, तुम उसे चाहे जो मानो परंतु लालपरी मेरी बहन जैसी है. उस पर इस तरह हाथलात मत उठाया करो.

फ्क्या कर लेंगे आप. वह मेरी बीवी है कि आप की बहन जैसी है, हूं. मैं सब समझता हूं, आप चाहते ही नहीं कि लालपरी को औलाद हो. आप के बरतन कौन घिसेगा इतने चाव से, वह जाने लगा.

फ्पागल मत बनो. दुनिया में कानून भी कोई चीज है या नहीं. जिस दिन हवालात पहुंच जाओगे, सारी अकड़ निकल जाएगी, समझे. लालपरी पर हाथ उठाने से पहले हजार बार सोच लेना. जाओ, दफा हो जाओ, इन के स्वर में क्रोध साफ झलक रहा था.

रामू पर घरद्वार, रसोई छोड़ कर मैं लालपरी को ले कर शहर में डाक्टर केघ्पास आ गई. डाक्टर शोभनाजी क्लीनिक में ही मिल गईं. सारी बात जाननेपूछने के बाद उन्होंने लालपरी की जांच की. कुछ टेस्ट कराए और मेरे पास आ कर बैठती हुई बोलीं, फ्सीता दीदी, आप बेफिक्र रहें. इस लड़की में कोई कमी नहीं है. टेस्ट की रिपोर्ट भी कल तक आ जाएगी. वैसे इस का पति भी टेस्ट करवा लेता तो इलाज में सुविधा होती.

फ्वह नहीं आएगा, मैं ने कहा.

शोभना ने हंस कर कहा, फ्लालपरी समझा कर, प्यार से कहेगी तो मान जाएगा, क्यों लालपरी.

शोभना के साथ हम दोनों भी हंसने लगीं. थोडी़ देर इधरउधर की बात कर के हम दोनों वापस आ गए.

कुछ दिनों तक राजदेव शांत रहा. शांत क्या, बल्कि मुंह फुलाए रहा. लालपरी रोज उस का किस्सा सुनाती और खूब खिल- खिलाती. रामू शोभना के यहां से रिपोर्ट ले आया था. लालपरी ने जब राजदेव से कहा, फ्हम में कोई खराबी नहीं है, हमतुम जिस दिन चाहेंगे बच्चा होगा पर तुम एक बार डाक्टरनी के पति से दिखा लेते तो…

फ्ऐ, कहना क्या चाहती है तू. मैं नामर्दघ्हूं, बोल, मैं नपुंसक हूं, वह चिल्लाने लगा.

फ्चिल्लाओ मत, हम में खराबी नहीं है, तुम में खराबी नहीं है तो इंतजार करो. ओझागुणी का चक्कर छोडो़, लालपरी ने कहा.

रात में राजदेव विलास को बुला लाया. लालपरी से कहा, फ्बढि़या सी कलेजी भून दे, एक लोटा ठंडा पानी, 2 खाली गिलास रख यहां और भाभीजी के यहां से बर्फ ले आ जा कर.

फ्तुम भैयाजी से झगडा़ करते रहो और हम बर्फ—, उस ने बच्चों की तरह ठुनक कर कहा.

फ्अरे, वो तो नशे में बोल गया था. उन का 20 हजार रुपया लगा है हमारी बीमारी में, कौन देता बिना सूद के इतने पैसे? तेरे तो वह सगे भाई थे पिछले जन्म के. जा, जा कर बर्फघ्ले आ.

लालपरी ने आ कर मुझ से सारा किस्सा कहा और अपनी स्वाभाविक हंसी हंसने लगी. मैं ने कहा, फ्तू बहुत प्यार करती है राजदेव से, है न.

फ्हां, भाभीजी. हम यह भी जानते हैं कि वह कभी बाप नहीं बन पाएगा. बचपन में ताड़ के पेड़ से गिर गया था न, कल उस की बडी़ बहन मीठनपुरा बाजार में मिली थी, बता कर रोने लगी. बोली, ‘डाक्टर टी.के. झा ने कहा था, राजदेव कभी बाप नहीं बनेगा.’ पर हम हर हाल में उस के साथ खुश हैं भाभीजी. बच्चा नहीं हुआ तो क्या, आप के बच्चे हैं, मेरी ननद के बच्चे हैं, उस का स्वर छलछला उठा.

फ्बर्फ के साथ थोडा़ प्याज, टमाटर, नीबू भी लेती जाना, राजदेव अकसर मंगवाता था. आज झिझक से नहीं बोला होगा, मैं ने लालपरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

सामान ले कर लालपरी चली गई. सुबह आई तो सुस्तसुस्त सी लगी. मैं ने सोचा थकी होगी. बेचारी बरतन घिसने बैठी तो थोडी़ देर बार सिर पकड़ कर बोली, फ्रामू भैया, एक प्याली चाय पिला दो, सिर बहुत भारी है.

फ्क्या सिरदर्द है? मैं ने पूछा.

फ्न, ऐसे ही, उस के शब्द लड़खडा़ रहे थे. मुझे बडा़ अजीब लगा. लालपरी जरूर कुछ छिपा रही है. मैं ने रामू से कहा, फ्रामू, तुम बरतन धो लो और उसे चाय पीने के बाद मेरे पास भेज दो.

10 मिनट बाद लालपरी आ कर कमरे में खडी़ हुई. मैं ने कहा, फ्क्या बात है, आंखें आज फिर लाल हैं, क्या फिर मारा राजदेव ने?

फ्मारता तो दुख नहीं होता पर मुझे धोखे से नशा करवा कर जाने क्या किया- कराया है उस ने.

फ्क्या किया है? खुल कर बताओ तभी तो समझूंगी.

फ्भाभीजी, भैयाजी का शरीर, उन के शरीर की गंध, उन के प्यार करने का तरीका सब आप को मालूम है न. आंखें बंद हों या खुली उन्हें तो आप कैसे भी पहचान ही लेंगी न? लालपरी ने सवाल के बदले सवाल किया.

फ्हां, बिलकुल, अपने पति को तो अंधी स्त्री भी पहचानती है.

फ्बस, यही हमारा दुख है भाभीजी. हमें लगता है रात में मेरे साथ वह खुद नहीं विलसवा सोया था, पर वह बोलता है यह हमारा भ्रम है, शक है, सचाई नहीं. पर हमें पूरा विश्वास है भाभीजी, रात में हमारी इज्जत, हमारी आबरू इस हरामी ने बेच दी एक किलो कलेजी और एक बोतल शराब के वास्ते. हम तो अपनी नजर में ही गिर गए हैं भाभीजी, लालपरी बिलखबिलख कर रोने लगी.

मैं ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, फ्देख लालपरी, कत्ल भी अनजाने में, बेहोशी में या पागलपन में होता है तो कानून उसे कत्ल नहीं मानता, फांसी नहीं देता. जब तू ठीकठीक जानती ही नहीं कि क्या हुआ, कैसे हुआ तो इतना विलाप क्या उचित है? तूने तो धर्म नहीं छोडा़ न, तू तो नहीं गई किसी के पास, फिर अपने को अपराधी क्यों मानती है?

मैं ने समझाबुझा कर उसे सामान्य बनाने की पूरी कोशिश की और वह जाते समय तक सामान्य दिखने भी लगी थी.

2 दिन यों ही बीत गए. इस घटना की चर्चा मैं ने लालपरी का वहम समझ कर किसी से नहीं की. पता नहीं क्यों, मेरा मन इसे सत्य मानने को तैयार नहीं था, राजदेव इतना पतित नहीं हो सकता. यह बेचारी जाए तो कहां जाए. बाप 2 साल पहले ही मर चुका है. एक भाई है जो 7-8 साल से बाहर है. कौन जाने जीवित भी है या नहीं. मां जो भागी तो आज तक पता नहीं चला वह पृथ्वी के किस कोने में समा गई. सोहना का भी ठिकाना नहीं.

सुबहसुबह रामू ने कहा, फ्रात दुसाध टोले से लालपरी के चीखनेचिल्लाने की आवाज आ रही थी, जरा जा कर देख आता हूं.

आया तो कुछ उदास, परेशान सा था. बोला, फ्लालपरी थोडी़ देर बाद खुद आएगी पर उस के घर का हाल बेहाल था. कल राजदेव का सिर फोड़ दिया है लालपरी ने. लालपरी के घुटने एवं गरदन में बहुत चोट है.

लालपरी दोपहर में आई और उस ने बिना किसी भूमिका के कहा, फ्हमारा शक सही था भाभीजी. कल रात भूत झाड़ने का बहाना कर उस ने विलास को बुलवाया. मुझे जो ‘दवा’ दी उसे मैं ने नजरें बचा कर नीचे गिरा दिया. 2 दिन मैं इस पापी की ‘दवा’ के शक में जी चुकी थी. मैं ने सोचा तीसरी बार बेहोशी में इज्जत नहीं लुटाऊंगी. जो होगा जान लूं, समझ लूं. इस ने विलास से कहा, ‘हम पर लगा कलंक धो दे यार. बस, 1 बच्चा पैदा कर दे ताकि मैं भी मरद बन कर जी सकूं.’ मुझे गुस्सा आया, मैं ने उस के सिर पर बेलन दे मारा. उस ने भी मुझे खूब मारा होता मगर विलास ने कहा,  ‘औरत को मार कर मरद नहीं बना जाता,’ बस, हम ने भी ठान ली और कहा, ‘विलास, तुझ में हिम्मत है तो आ, मुझे ले कर कहीं भाग चल, गृहस्थी बसा कर लौटेंगे,’ फिर वह बिना बोले चला गया.

मुझे लगा, लालपरी गुस्से  में बोल रही है, पर वह सही थी. दूसरे दिन राजदेव रोता हुआ आ कर इन के पैरों में गिर गया, फ्मालिक, लालपरी को हम ने ही गलत रास्ता दिखा दिया. वह विलसवा के साथ भाग गई, जेवर कपडा़ ले कर. मैं तो पछता रहा हूं.

इन्होंने ठंडी सांस ले कर कहा, फ्पछतावे का भी एक समय होता है अब क्या लाभ?

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