ऐसा भी होता है बौयफ्रैंड : क्या था दीपक का असली रंग

सफेद कपड़े पहने होने के बावजूद उस का सांवला रंग छिपाए नहीं छिप रहा था. करीब जा कर देखने से ही पता चलता था कि उस के गौगल्स किसी फुटपाथी दुकान से खरीदे गए थे. बालों पर कई बार कंघी फिरा चुका वह करीब 20-22 साल की उम्र का युवक पिछले एक घंटे से बाइक पर बैठा कई बार उठकबैठक लगा चुका था यानी कभी बाइक पर बैठता तो कभी खड़ा हो जाता. काफी बेचैन सा लग रहा था. इस दौरान वह गुटके के कितने पाउच निगल चुका, उसे शायद खुद भी न पता होगा. गहरे भूरे रंग के गौगल्स में छिपी उस की निगाहों को ताड़ना आसान नहीं था. अलबत्ता जब भी उस ने उन्हें उतारने की कोशिश की, तो साफ जाहिर था कि उस की निगाहें गर्ल्स स्कूल की इमारत के दरवाजे से टकरा कर लौट रही थीं. तभी उस दरवाजे से एक भीड़ का रेला निकलता नजर आया. अब तक बेपरवाह वह युवक बाइक को सीधा कर तन कर खड़ा हो गया.

इंतजार के कुछ ही पल बेचैनी में गुजरे, तभी पसीनापसीना हुए उस लड़के के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. उस ने एक बार फिर बालों पर कंघी फिराई और गौगल्स ठीक से आंखों पर चढ़ाए. मुंह की आखिरी पीक पिच्च से थूकते हुए होंठों को ढक्कन की तरह बंद कर लिया.

तेजी से अपनी तरफ आती लड़की को पहचान लिया था, वह प्रिया ही थी. प्रिया खूबसूरत थी और उस के चेहरे पर कुलीनता की छाप थी. खूबसूरत टौप ने उस में गजब की कशिश पैदा कर दी थी. बाइक घुमाते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश नहीं की, लेकिन उसे एहसास हो गया था कि प्रिया बाइक की पिछली सीट पर बैठ चुकी है. तभी उसे अपनी पीठ पर पैने नाखून चुभने का एहसास हुआ और हड़बड़ाया स्वर सुनाई दिया, ‘‘प्लीज, जल्दी करो, मेरी सहेलियों ने देख लिया तो गजब हो जाएगा?’’

‘‘बाइक पर किक मारते ही लड़के ने पूछा, ‘‘कहां चलना है, सिटी मौल या…’’

फर्राटा भरती बाइक के शोर में लड़के को सुनाई दे गया था, ‘‘कहीं भी…जहां तुम ठीक समझो?’’

‘‘कहीं भी?’’ प्रिया की आवाज में घुली बेचैनी को वह समझ गया था. फिर भी मजाकिया लहजे में बोला. ‘‘तो चलें वहीं, जहां पहली बार…’’ बाकी शब्द पीठ पर चुभते नाखूनों की पीड़ा में दब गए. लेकिन इस बार उस के कथन में मजाक का पुट नहीं था… ‘‘तो फिर सिटी मौल चलते हैं?’’

‘‘नहीं, वहां नहीं,’’ प्रिया जैसे तड़प कर बोली, ‘‘तुम समझते क्यों नहीं दीपक, मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

तभी दीपक ने अपना एक हाथ पीछे बढ़ा कर लड़की की कलाई थामने की कोशिश की तो उस ने अपना गोरा नाजुक हाथ उस के हाथ में दे दिया और उस की पीठ से चिपक गई? दीपक को बड़ी सुखद अनुभूति हुई, तभी बाइक जोर से डगमगाई. उस ने फौरन लड़की का हाथ छोड़ दिया और बाइक को काबू करने की कोशिश करने लगा.

‘‘क्या हुआ?’’ लड़की घबरा कर बोली. अब वह दीपक की पीठ से परे सरक गई.

‘‘बाइक का पहिया बैठ गया मालूम होता है,’’ दीपक बोला, ‘‘शायद पंचर है,’’ उस ने बाइक को सड़क के किनारे लगाते हुए खड़ी कर दी. अब तक वे शहर से काफी दूर आ चुके थे. यह जंगली इलाका था और आसपास घास के घने झुरमुट थे.

तब तक प्रिया उस के करीब आ गई थी. उस ने आसपास नजर डालते हुए कहा, ‘‘अब वापस कैसे चलेंगे?’’ उस के स्वर में घबराहट घुली थी. लड़के ने एक पल चारों तरफ नजरें घुमा कर देखा, चारों तरफ सन्नाटा पसरा था. दीपक ने प्रिया की कलाई थाम कर उसे अपनी तरफ खींचा. प्रिया ने इस पर कोई एतराज नहीं जताया, लेकिन अगले ही पल अर्थपूर्ण स्वर से बोली, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘तनहाई हो, लड़कालड़की दोनों साथ हों और मिलन का अच्छा मौका हो तो लड़का क्या करेगा?’’ उस ने हाथ नचाते हुए कहा.

प्रिया छिटक कर दूर खड़ी हो गई. ‘‘ये सब गलत है, यह सबकुछ शादी के बाद, अभी कोई गड़बड़ नहीं. अभी तो वापसी की जुगत करो,’’ प्रिया ने बेचैनी जताई, ‘‘कितनी देर हो गई? घर वाले पूछेंगे तो उन्हें क्या जवाब दूंगी?’’

दीपक ने बेशर्मी से कहा, ‘‘यह तुम सोचो,’’ इस के साथ ही वह ठठा कर हंस पड़ा और लपक कर प्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘ऐसा मौका बारबार नहीं मिलता, इसे यों ही नहीं गंवाया जा सकता?’’

‘‘लेकिन जानते हो, अभी मेरी उम्र शादी की नहीं है. अभी मैं सिर्फ 15 साल की हूं, इस के लिए तुम्हें 3 साल तक  इंतजार करना होगा,’’ प्रिया ने उस की गिरफ्त से मुक्त होने की कोशिश की.

‘‘लेकिन प्यार करने की तो है,’’ और उस की गिरफ्त प्रिया के गिर्द कसती चली गई. प्रिया का शरीर एक बार विरोध से तना, फिर ढीला पड़ गया. घास के झुरमुटों में जैसे भूचाल आ गया. करीब के दरख्तों पर बसेरा लिए पखेरू फड़फड़ कर उड़ गए.

करीब एक घंटे बाद दोनों चौपाटी पहुंचे और वहां बेतरतीब कतार में खड़े एक कुल्फी वाले से फालूदा खरीदा. गिलास से भरे फालूदा का हर चम्मच निगलने के बाद प्रिया दीपक की बातों पर बेसाख्ता खिलखिला रही थी. उन के बीच हवा गुजरने की भी जगह नहीं थी, क्योंकि दोनों एकदूसरे से पूरी तरह से सटे बैठे थे.

सलमान खान बनने की कोशिश में दीपक आवारागर्दी पर उतर आया था और उस ने प्रिया के गले में अपनी बांह पिरो दी थी. लेकिन इस पर प्रिया को कोई एतराज नहीं था. उस ने फालूदा खा कर गिलास ठेले वाले की तरफ बढ़ा दिया. प्रिया के पर्स निकालने और भुगतान करने तक दीपक कर्जदार की तरह बगलें झांकता रहा. उस ने ऐसे मौकों पर मर्दों वाली तहजीब दिखाने की कोई जहमत नहीं उठाई.

3 युवक एक मोटरसाइकिल पर आए और प्रिया के पास आ कर रुके. शायद ये दीपक के यारदोस्त थे. उन्होंने हाथ तो उस की तरफ हिलाया, लेकिन असल में सब प्रिया की तरफ देख रहे थे. प्रिया ने उड़ती सी नजर उन पर डाली और दूसरी तरफ देखने लगी.

उन्होंने दीपक का हालचाल पूछा तो वह उन की तरफ बढ़ा और दांत निपोरने के साथ ही मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे लड़के की पीठ पर धौल जमाया, ऐसे ही मूड बन गया था यार, आइसक्रीम खाने का..’’

‘‘बढि़या है…बढि़या है यार…’’ इस बार वह लड़का बोला जो बाइक चला रहा था. वह प्रिया से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘मैं, आप के फ्रैंड का जिगरी दोस्त.’’

यह सुन प्रिया मुसकराई. उस के चेहरे पर आए उलझन के भाव खत्म हो गए. लड़के ने उस की तरफ बढ़ने के लिए कदम बढ़ाए, लेकिन एकाएक ठिठक कर रह गया. प्रिया कंधे पर रखा बैग झुलाती हुई सामने पार्किंग में खड़ी अपनी स्कूटी की तरफ बढ़ी. उस लड़के ने खास अदा के साथ हाथ हिलाया. प्रिया एक बार फिर मुसकराई और स्कूटी से फर्राटे से आगे बढ़ गई.

यह देख चंदू निहाल हो गया. उस ने हकबकाए से खड़े दीपक पर फब्ती कसी. ‘‘अबे, क्यों बुझे हुए हुक्के की तरह मुंह बना रहा है? लड़की तू ने फंसाई तो क्या हुआ? दावत तो मिलबैठ कर करेंगे न?’’ तब तक दीपक भी कसमसा कर उन के बीच में सैंडविच की तरह ठुंस गया. बाइक फौरन वहां से भाग निकली. चंदू के ठहाके बाइक के शोर में गुम हो चुके थे.

2 महीने बाद… पुलिस स्टेशन के उस कमरे में गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. पैनी धार जैसी नीरवता पुलिस औफिसर के सामने बैठी एक कमसिन लड़की की सिसकियों से भंग हो रही थी. उस का चेहरा आंसुओं से तरबतर था. वह कहीं शून्य में ताक रही थी. शायद कुरसी पर बैठे उस के मातापिता थे, उन के चेहरे सफेद पड़ चुके थे. शर्म और ग्लानि के भाव उन पर साफ दिखाई दे रहे थे. पुलिस औफिसर शायद प्रिया की आपबीती सुन चुका था. उस का चेहरा गंभीर बना हुआ था. उन्होंने सवालिया निगाहों से प्रिया की तरफ देखा, ‘‘तुम्हारी उस लड़के से जानपहचान कैसे हुई?’’

प्रिया का मौन नहीं टूटा. इस बार औफिसर की आवाज में सख्ती का पुट था, ‘‘जो कुछ हुआ तुम्हारी नादानी से हुआ, लेकिन अब मामला पुलिस के पास है तो तुम्हें सबकुछ बताना होगा कि तुम्हारी उस से मुलाकात कैसे हुई?’’

प्रिया ने शायद पुलिस औफिसर की सख्ती भांप ली थी. एक पल वह उलझन में नजर आई, फिर मरियल सी आवाज में बोली, ‘‘एक बार मैं शौप पर कुछ खरीद रही थी, लेकिन जब पैसे देने लगी तो हैरान रह गई, मेरा पर्स मेरी जेब में नहीं था. उधर, दुकानदार बारबार तकाजा कर कह रहा था, ‘कैसी लड़की हो? जब पैसे नहीं थे तो क्यों खरीदा यह सब.’ मुझे याद नहीं रहा कि पर्स कहां गिर गया था, लेकिन दुकानदार के तकाजे से मैं शर्म से गड़ी जा रही थी. तभी एक लड़का, मेरा मतलब, दीपक अचानक वहां आया और दुकानदार को डांटते हुए बोला, ‘कैसे आदमी हो तुम?’ लड़की का पर्स गिर गया तो इस का मतलब यह नहीं हुआ कि तुम उसे इस तरह बेइज्जत करो? अगले ही पल उस ने जेब से पैसे निकाल कर दुकानदार को थमाते हुए कहा, ‘यह लो तुम्हारे पैसे.’ इस के साथ ही वह मुझे हाथ पकड़ कर बाहर ले आया.’’

प्रिया ने डबडबाई आंखों से पुलिस औफिसर की तरफ देखा और बात को आगे बढ़ाया, ‘‘यह सबकुछ इतनी अफरातफरी में हुआ कि मैं उसे न तो पैसे देने से रोक सकी और न ही उस से अधिकारपूर्वक हाथ पकड़ कर खुद को शौप से बाहर लाने का कारण पूछ सकी.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’ पुलिस औफिसर ने सांत्वना देते हुए पूछा, ‘‘फिर अगली मुलाकात कब हुई और यह मुलाकातों का सिलसिला कैसे चल निकला.’’

इस बार वहां बैठे दंपती एकटक बेटी की ओर देख रहे थे. उन की तरफ से आंखें चुराते हुए प्रिया ने बातों का सूत्र जोड़ा, ‘‘फिर यह अकसर स्कूल की छुट्टी के बाद मुझ से मिलने लगा. हम कभी आइसक्रीम शौप जाते, कभी मूवी या फिर घंटों गार्डन में बैठे बतियाते रहते.’’

‘‘मतलब वह लड़का पूरी तरह तुम्हारे दिलोदिमाग पर छा गया था?’’

प्रिया ने एक पल अपने मातापिता की तरफ देखा. उन का हैरत का भाव प्रिया से बरदाश्त नहीं हुआ, लेकिन पुलिस औफिसर की बातों का जवाब देते हुए उस ने कहा, ‘‘हां, मुझे यह अच्छा लगने लगा था. वह जब भी मिलता, मुझे गिफ्ट देता और कहता, ‘बड़ी हैसियत वाला हूं मैं, शादी तुम्हीं से करूंगा.’’

‘‘अभी शादी की उम्र है तुम्हारी?’’ पुलिस औफिसर के स्वर में भारीपन था. प्रिया चाह कर भी बहस नहीं कर सकी. उस ने सिर झुकाए रखा, ‘‘दरअसल, सहेलियां कहती थीं कि जिस का कोई बौयफ्रैंड नहीं उस की कोई लाइफ नहीं. बस, मुझे दीपक को पा कर लगा था कि मेरी लाइफ बन गई है.’’

‘‘क्योंकि तुम्हें बौयफ्रैंड मिल गया था, इसलिए,’’ पुलिस औफिसर ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘क्या उस से फ्रैंडशिप का तुम्हारे मातापिता को पता था? जब तुम देरसवेर घर आती थी तो क्या बहाने बनाती थी?’’ पुलिस औफिसर ने तीखी निगाहों से दंपती की तरफ भी देखा, लेकिन वे उन से आंख नहीं मिला सके.

उस की मम्मा ने अपना बचाव करते हुए कहा, ‘‘हम से तो इतना भर कहा जाता था कि आज सहेली की बर्थडे पार्टी थी या ऐक्स्ट्रा क्लास में लेट हो गई या फिर…’’ लेकिन पति को घूरते देख उस ने अपने होंठ सी लिए.

पुलिस औफिसर ने बात काटते हुए कहा, ‘‘कैसे गैरजिम्मेदार मांबाप हैं आप? लड़की जवानी की दहलीज पर कदम रख रही है, उस के आनेजाने का कोई समय नहीं है, और आप को उस की कतई फिक्र नहीं है, लड़की की बरबादी के असली जिम्मेदार तो आप हैं. मेरी नजरों में तो सजा के असली हकदार आप लोग हैं.’’

लड़की को घूरते हुए पुलिस औफिसर ने बोला, ‘‘बौयफ्रैंड का मतलब भी समझती हो तुम? बौयफ्रैंड वह है जो हिफाजत करे, भलाई सोचे. तुम पेरैंट्स को बेवकूफ बना रही थी और लड़का तुम को  इमोशनली बेवकूफ बना रहा था.’’

पुलिस औफिसर के स्वर में हैरानी का गहरा पुट था, ‘‘कैसा बौयफ्रैंड था तुम्हारा कि उस ने तुम्हारे साथ इतना बड़ा फरेब किया? तुम्हें बिलकुल भी पता नहीं लगा. विश्वास कैसे कर लिया तुम ने उस का कि उस ने तुम्हारी आपत्तिजनक वीडियो क्लिपिंग बना ली और तुम्हें जरा भी भनक नहीं लगी?’’

‘‘वह कहता था कि मेरा फिगर मौडलिंग लायक है, मुझे विज्ञापन फिल्मों में मौका मिल सकता है, लेकिन इस के लिए मुझे बस थोड़ी झिझक छोड़नी पड़ेगी. काफी नर्वस थी मैं, लेकिन कोल्डड्रिंक पीने के बाद कौन्फिडैंस आ गया था.’’

झल्लाते हुए पुलिस औफिसर ने कहा, ‘‘नशा था कोल्डड्रिंक में क्या, और उस कौन्फिडैंस में तुम ने क्या कुछ गंवा दिया, पता नहीं है तुम्हें?’’ क्रोध से बिफरते हुए पुलिस औफिसर ने लड़की को खा जाने वाली नजरों से देखा.

खुश्क होते गले में प्रिया ने जोर से थूक निगला. उस ने बेबसी से गरदन हिलाई और चेहरा हथेली से ढांप कर फफक पड़ी. उस की सिसकियां तेज होती चली गईं. अपनी ही बेवकूफी के कारण उसे यह दिन देखना पड़ा था. दीपक पर उस ने आंख मूंद कर भरोसा कर लिया था, इसलिए उस के इरादे क्या हैं, यह नहीं समझ सकी. काश, उस ने समझदारी से काम लिया होता. पर अब क्या हो सकता था.

अनुभव : नौकरों के भरोसे नहीं चलती जिंदगी

शादी क्या की, उन की खरीदी हुई गुलाम हो गई. जब जी में आया फोन कर देंगे, ‘डार्लिंग, आज कुछ लोगों को डिनर पर बुलाया है, खाना तैयार रखना.’ कभी कोई कोलाबा से आ रहा है तो कोई अंधेरी से. जब कहती हूं, मैं तुम्हारे बच्चे को संभालूं या खाना बनाऊं तो बड़े प्यार से कहेंगे, ‘डार्लिंग, तुम खाना ही इतना अच्छा बनाती हो कि बस, खाने वाले उंगलियां चाटते रह जाते हैं. रोहन को मैं आ कर संभाल लूंगा.’ अब मैं क्या बताऊं, लीना के यहां 3 और निर्मला के यहां 2 नौकर हैं. यहां तक कि दांत से पैसा पकड़ने वाली उमा के यहां भी चौबीसों घंटे काम करने के लिए आया है और बाजार के काम के लिए एक लड़का अलग. और एक हम हैं कि दिनरात काम की चक्की में पिसते रहते हैं.

जनाब को औफिस जाना है, सुबह 7 बजे नाश्ता चाहिए. खाना घर से बन कर जाएगा. और दिनभर रोहन का काम अलग, नहलाना, धुलाना, खिलाना, पिलाना. एक मिनट की भी फुरसत नहीं मिलती. जब कहती हूं, बच्चा संभालने को एक आया ही रख लो तो मुसकरा कर टाल जाते हैं. इन का बस चले तो ये चौकाबरतन करने वाली को भी निकाल बाहर करें. ठीक है, जब शादी की थी तब प्राइवेट कंपनी में सीए थे. शिवाजीनगर में छोटे से फ्लैट में रहते थे.

लेकिन आज बांद्रा में अपना 4 कमरों का फ्लैट है. घर में टैलीविजन, फ्रिज, कार है और खुद का अपना औफिस है. शादी के 7 सालों में तरक्की तो बहुत की, लेकिन सोच वही है. अब कहती हूं कि  आप गाड़ी के लिए कोई शोफर क्यों नहीं रख लेते तो झट कहेंगे ‘डार्लिंग, तुम गाड़ी चलाना क्यों नहीं सीख लेतीं? अमेरिका में भी तो लोगों को नौकर नहीं मिलते. अपना काम खुद ही करना चाहिए.’

दिल जल कर खाक हो जाता है. आखिर तरक्की का मतलब ही क्या, जब इंसान अपना स्टैंडर्ड भी मेंटेन न रख सके. पड़ोसी क्या सोचेंगे, कम से कम इतना तो समझना चाहिए.

शांता के कदम तेजी से सड़क पर बढ़तेबढ़ते अचानक पार्क की चारदीवारी के पास आ कर थम गए. वह घर से इतनी दूर चली आई, पर सोचा ही नहीं कि  जाना कहां है. वह गुस्से में रोहन को उमा के यहां छोड़ कर चल पड़ी.

ठीक है, थोड़ा वक्त पार्क में ही काटा जाए. वे घर पहुंचेंगे तो अपनेआप रोहन को संभालेंगे. आखिर हद होती है हर बात की. पता चलेगा बच्चे को कैसे पालते हैं. और रोहन भी तो कितना शैतान हो गया है, बिलकुल बाप पर गया है.

शांता पार्क में दाखिल हुई और दोनों तरफ बनी पत्थर की बैंचों के बीच तेज कदमों से चलती हुई पार्क के बीचोंबीच बने गोलाकार घेरे तक आ पहुंची. ‘ओह, कितनी उमस है, फौआरा भी टूट गया है.’

एक बार वह कई वर्षों पहले इसी पार्क में अपने पति के साथ आई थी. उस समय भी यही चने वाला दरवाजे के सामने बैठता था. लेकिन सूरज डूबने से पहले आज वह यहां पहली बार आई है.

शांता अनमनी सी हरे रंग की एक खाली आधी टूटी बैंच पर जा बैठी. टूटे हुए फौआरे के चारों तरफ लकड़ी की  7 बैंचें पड़ी हैं. सभी बैंचें भरी हुई हैं. ज्यादातर बैंचों पर वक्त गुजारने की गरज से इकट्ठे हुए रिटायर वृद्धों की जमात विराजमान है. आखिर इन्हें करना भी क्या है? जाना ही कहां है?

बच्चे कहीं बैडमिंटन खेल रहे हैं तो कहीं क्रिकेट. बाईं ओर हरीहरी दूब में कई जोड़े दुनिया से बेखबर अपनेआप में खोए हुए हैं. लगता है, मुंबई में रोमांस के लिए इस से बढि़या कोई जगह नहीं है. आसमान पर छाई लाली पर अंधेरा मंडराने लगा है. हवा थम गई है. शांता को लगा पसीना उस के ललाट से चू कर कपोल तक आ जाएगा. अजीब उमस है.

‘टाइगर, टाइगर’ की आवाज, फिर कुत्ते की भौंभौं और फिर दबी गुर्राहट. शांता ने दायीं ओर देखा. पार्क के दूसरे गेट से एक नौकरानी कुत्ते को हवाखोरी के लिए लाई थी. कुत्ता इधरउधर बेकाबू हो कर भाग रहा था और लड़की थी कि उस की जंजीर पकड़ने के लिए उस के पीछेपीछे भाग रही थी.

शांता ने ठंडी सांस ली. काश, यह नजारा कोई हमारे उन को दिखाए. लोग कुत्तों की हवाखोरी के लिए भी नौकरनौकरानियां रखते हैं और एक हमारे पति हैं जो 5,000 रुपए की साड़ी तो खुशीखुशी ला देंगे, लेकिन नौकर का जिक्र छेड़ते ही मुंह बना लेंगे. आखिर पैसा होता किसलिए है? आराम के लिए न.

कांवकांव करता हुआ एक कौआ पास वाले बिजली के खंभे पर आ बैठा. शांता ने पीछे नजर घुमाई. उस के पीछे 2 झूले लगे हैं, जिन पर रंगबिरंगे कपड़े पहने बच्चे झूल रहे हैं. साड़ी पहने, बालों को बड़े फैशन से सजाए बनीठनी एक आया लाल प्रैम में एक गोलमटोल बच्चे को बिठाए उसी तरफ बढ़ रही है. बच्चा खुशीखुशी हाथपैर मार रहा है, किलकारी मार रहा है. कितना प्यारा बच्चा है. एकदम नन्हा गुलाब. रोहन भी जब इतना बड़ा था, ठीक ऐसा ही था.

आया ने प्रैम खड़ी कर दी और दूसरे बच्चों को ले कर आई, पहले से जमा अपनी सहेलियों में जा मिली. बच्चे तो अपनेआप खेल ही रहे हैं. सहेलियों की महफिल गरम हो जाती है.

‘‘लिली, आज देर से आया?’’

‘‘क्या करें मेमसाब छुट्टी देर से दिया.’’

‘‘हाय, मां.’’

‘‘साब और मेमसाब कुत्तों का माफिक लड़ता और खालीपीली बोम मारता. हम तो तंग आ गया.’’

‘‘अरे, तुम बोला क्यों नहीं कि पार्क में हमारा बौयफ्रैंड वेट कर रहा होगा? हम देर से जाएगा तो वह किसी और के साथ मौज उड़ाएगा.’’

‘‘हाय, मां.’’

‘‘मालूम है, जब हमारा साब काम पर जाता तो हमारी मोटल्ली मेमसाब चालीस नंबर वाले से इश्क फरमाता है.’’

‘‘ऐसा भी होता है.’’

‘‘उस का भेजा खलास हो गया है. दिनभर फिल्मी गाने गाता. शाम होते ही साब, मेमसाब क्लब जाता और भेजा खाने कू बच्चा लोग को हमारे पास छोड़ जाता.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘ले, लिली, आ गया तेरा रोमियो. देख, तुझे बुला रहा है. ठाठ हैं तेरे. हमें तो कोई देखता ही नहीं.’’

लिली प्रैम छोड़ कर भागी. पीछे उस की हमउम्र और उम्र में बड़ी सभी सहेलियां खीसें निपोर रही हैं.

‘अरे, यह रोमियो तो हमारी ही बिल्ंिडग का चौकीदार है. ओह, तो यह चौकीदारी हो रही है?’ शांता मन ही मन सब सोच कर हैरान हो गई.

मासूम बच्चे को प्रैम में शायद अपने अकेले होने का एहसास हो चुका था. उधर लिली और चौकीदार बांहों में बांहें डाले मस्ती कर रहे थे. अरे, यह क्या? दोनों मेहंदी की झाडि़यों के पीछे गायब हो गए.

बच्चा जोरजोर से रो रहा था. कान के परदे फटे जा रहे थे. अरे, यह क्या, बच्चा प्रैम में बैठ कर, पैर लटका कर उतरने की कोशिश करने लगा. अरे, वह तो गिर जाएगा. अरे, उसे कोई पकड़ो. लेकिन उसे कोई बचाता, तब तक धम्म की आवाज के साथ बच्चा नीचे गिर गया.

झाड़ी से निकल कर छेड़ी हुई बाघिन की तरह लिली आती है और बच्चे को उठा कर तड़तड़ 2 चांटे जड़ देती है, ‘‘हम को बात भी नहीं करने देगा.’’ बच्चा सहम कर चुप हो जाता है. लेकिन शांता को लगा जैसे किसी ने तड़तड़ 2 चांटे उस के गालों पर बेरहमी से रसीद कर दिए हों और मारने वाले के हाथों के निशान उस के अपने गालों पर उभर आए हों.

‘‘मेरा रोहन…’’ एकाएक शांता चीखती हुई उठी और बदहवास पार्क के दरवाजे की तरफ भाग खड़ी हुई.

लिफ्ट से निकल कर जैसे ही तेज कदमों से शांता उमा के फ्लैट की तरफ बढ़ी कि अचानक उस के कदम रास्ते में खड़े रोहन को गोद में उठाए, मुसकराते पति को देख कर थम गए.

‘‘मम्मा,’’ रोहन ने दोनों बांहें उस की तरफ फैला दीं. लपक कर शांता ने उसे अपने गले से लगा लिया और बुरी तरह चूमती हुई अपने फ्लैट की तरफ भाग खड़ी हुई. पीछे से उस के कानों में पति की आवाज टकराई. लेकिन शांता के पास पति की बात का उत्तर देने को शब्द नहीं, आंसू थे.

रूठी रानी उमादे : राव मालदेव शक्तिशाली शासक

रेतीले राजस्थान को शूरवीरों की वीरता और प्रेम की कहानियों के लिए जाना जाता है. राजस्थान के इतिहास में प्रेम रस और वीर रस से भरी तमाम ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं, जिन्हें पढ़सुन कर ऐसा लगता है जैसे ये सच्ची कहानियां कल्पनाओं की दुनिया में ढूंढ कर लाई गई हों.

मेड़ता के राव वीरमदेव और राव जयमल के काल में जोधपुर के राव मालदेव शासन करते थे. राव मालदेव अपने समय के राजपूताना के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे. शूरवीर और धुन के पक्के. उन्होंने अपने बल पर  जोधपुर राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया था. उन की सेना में राव जैता व कूंपा नाम के 2 शूरवीर सेनापति थे.

यदि मालदेव, राव वीरमदेव व उन के पुत्र वीर शिरोमणि जयमल से बैर न रखते और जयमल की प्रस्तावित संधि मान लेते, जिस में राव जयमल ने शांति के लिए अपने पैतृक टिकाई राज्य जोधपुर की अधीनता तक स्वीकार करने की पेशकश की थी, तो स्थिति बदल जाती. जयमल जैसे वीर, जैता कूंपा जैसे सेनापतियों के होते राव मालदेव दिल्ली को फतह करने में समर्थ हो जाते.

राव मालदेव के 31 साल के शासन काल तक पूरे भारत में उन की टक्कर का कोई राजा नहीं था. लेकिन यह परम शूरवीर राजा अपनी एक रूठी रानी को पूरी जिंदगी नहीं मना सका और वह रानी मरते दम तक अपने पति से रूठी रही.

जीवन में 52 युद्ध लड़ने वाले इस शूरवीर राव मालदेव की शादी 24 वर्ष की आयु में वर्ष 1535 में जैसलमेर के रावल लूनकरण की बेटी राजकुमारी उमादे के साथ हुई थी. उमादे अपनी सुंदरता व चतुराई के लिए प्रसिद्ध थीं. राठौड़ राव मालदेव की शादी बारात लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुंची. बारात का खूब स्वागतसत्कार हुआ. बारातियों के लिए विशेष ‘जानी डेरे’ की व्यवस्था की गई.

ऊंट, घोड़ों, हाथियों के लिए चारा, दाना, पानी की व्यवस्था की गई. राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा पति के रूप में पाकर बेहद खुश थीं. पंडितों ने शुभ वेला में राव मालदेव की राजकुमारी उमादे से शादी संपन्न कराई.

चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. शादी के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सगेसंबंधियों के साथ महफिल में बैठ गए. महफिल काफी रात गए तक चली.

इस के बाद तमाम घराती, बाराती खापी कर सोने चले गए. राव मालदेव ने थोड़ीथोड़ी कर के काफी शराब पी ली थी.

उन्हें नशा हो रहा था. वह महफिल से उठ कर अपने कक्ष में नहीं आए. उमादे सुहाग सेज पर उन की राह देखतीदेखती थक गईं. नईनवेली दुलहन उमादे अपनी खास दासी भारमली जिसे उमादे को दहेज में दिया गया था, को मालदेव को बुलाने भेजने का फैसला किया. उमादे ने भारमली से कहा, ‘‘भारमली, जा कर रावजी को बुला लाओ. बहुत देर कर दी उन्होंने…’’

भारमली ने आज्ञा का पालन किया. वह राव मालदेव को बुलाने उन के कक्ष में चली गई. राव मालदेव शराब के नशे में थे. नशे की वजह से उन की आंखें मुंद रही थीं कि पायल की रुनझुन से राव ने दरवाजे पर देखा तो जैसे होश गुम हो गए. फानूस तो छत में था, पर रोशनी सामने से आ रही थी. मुंह खुला का खुला रह गया.

जैसे 17-18 साल की कोई अप्सरा सामने खड़ी थी. गोरेगोरे भरे गालों से मलाई टपक रही थी. शरीर मछली जैसा नरमनरम. होंठों के ऊपर मौसर पर पसीने की हलकीहलकी बूंदें झिलमिला रही थीं होठों से जैसे रस छलक रहा हो.

भारमली कुछ बोलती, उस से पहले ही राव मालदेव ने यह सोच कर कि उन की नवव्याहता रानी उमादे है, झट से उसे अपने आगोश में ले लिया. भारमली को कुछ बोलने का मौका नहीं मिला या वह जानबूझ कर नहीं बोली, वह ही जाने.

भारमली भी जब काफी देर तक वापस नहीं लौटी तो रानी उमादे ने जिस थाल से रावजी की आरती उतारनी थी, उठाया और उस कक्ष की तरफ चल पड़ीं, जिस कक्ष में राव मालदेव का डेरा था.

उधर राव मालदे ने भारमली को अपनी रानी समझ लिया था और वह शराब के नशे में उस से प्रेम कर रहे थे. रानी उमादे जब रावजी के कक्ष में गई तो भारमली को उन के आगोश में देख रानी ने आरती का थाल यह कह कर ‘अब राव मालदेव मेरे लायक नहीं रहे,’ पटक दिया और वापस चली गईं.

अब तक राव मालदेव के सब कुछ समझ में आ गया था. मगर देर हो चुकी थी. उन्होंने सोचा कि जैसेतैसे रानी को मना लेंगे. भारमली ने राव मालदेव को सारी बात बता दी कि वह उमादे के कहने पर उन्हें बुलाने आई थी. उन्होंने उसे कुछ बोलने नहीं दिया और आगोश में भर लिया. रानी उमादे ने यहां आ कर यह सब देखा तो रूठ कर चली गईं.

सुबह तक राव मालदेव का सारा नशा उतर चुका था. वह बहुत शर्मिंदा हुए. रानी उमादे के पास जा कर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए कहा कि वह नशे में भारमली को रानी उमादे समझ बैठे थे.

मगर उमादे रूठी हुई थीं. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह बारात के साथ नहीं जाएंगी. वो भारमली को ले जाएं. फलस्वरूप एक शक्तिशाली राजा को बिना दुलहन के एक दासी को ले कर बारात वापस ले जानी पड़ी.

रानी उमादे आजीवन राम मालदेव से रूठी ही रहीं और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुईं. जैसलमेर की यह राजकुमारी रूठने के बाद जैसलमेर में ही रह गई थीं. राव मालदेव दहेज में मिली दासी भारमली बारात के साथ बिना दुलहन के जोधपुर आ गए थे. उन्हें इस का बड़ा दुख हुआ था. सब कुछ एक गलतफहमी के कारण हुआ था.

राव मालदेव ने अपनी रूठी रानी उमादे के लिए जोधपुर में किले के पास एक हवेली बनवाई. उन्हें विश्वास था कि कभी न कभी रानी मान जाएगी.

जैसलमेर की यह राजकुमारी बहुत खूबसूरत व चतुर थी. उस समय उमादे जैसी खूबसूरत महिला पूरे राजपूताने में नहीं थी. वही सुंदर राजकुमारी मात्र फेरे ले कर राव मालदेव की रानी बन

गई थी. ऐसी रानी जो पति से आजीवन रूठी रही. जोधपुर के इस शक्तिशाली राजा मालदेव ने उमादे को मनाने की बहुत कोशिशें कीं मगर सब व्यर्थ. वह नहीं मानी तो नहीं मानी. आखिर में राव मालदेव ने एक बार फिर कोशिश की उमादे को मनाने की. इस बार राव मालदव ने अपने चतुर कवि आशानंदजी चारण को उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा.

चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व वाणी से वाकपटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते हैं. राव मालदेव के दरबार के कवि आशानंद चारण बड़े भावुक थे. निर्भीक प्रकृति के वाकपटु व्यक्ति.

जैसलमेर जा कर आशानंद चारण ने किसी तरह अपनी वाकपटुता के जरिए रूठी रानी उमादे को मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना भी हो गए. रास्ते में एक जगह रानी उमादे ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानंदजी से एक बात पूछी.

मस्त कवि समय व परिणाम की चिंता नहीं करता. निर्भीक व मस्त कवि आशानंद ने भी बिना परिणाम की चिंता किए रानी को 2 पंक्तियों का एक दोहा बोल कर उत्तर दिया—

माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण.

दोदो गयंदनी बंधही, हेको खंभु ठाण.

यानी मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान को त्याग दे. लेकिन दोदो हाथियों को एक ही खंभे से बांधा जाना असंभव है.

आशानंद चारण के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की सोई रोषाग्नि को वापस प्रज्जवलित करने के लिए आग में घी का काम किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं है.’’ रानी उमादे ने उसी पल रथ को वापस जैसलमेर ले चलने का आदेश दे दिया.

आशानंदजी ने मन ही मन अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए, लेकिन शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे. उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है, अपनी रूपवती दासी भारमली के कारण ही अपने पति राजा मालदेव से रूठ गई थीं और आजीवन रूठी ही रहीं.

जैसलमेर आए कवि आशानंद चारण ने फिर रूठी रानी को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन वह नहीं मानीं. तब आशानंदजी चारण ने जैसलमेर के राजा लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते हो तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए. रावल लूणकरणजी ने ऐसा ही किया और भारमली को जोधपुर से जैसलमेर बुलवा लिया.

भारमली जैसलमेर आ गई. लूणकरणजी ने भारमली का यौवन रूप देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गए. लूणकरणजी का भारमली से बढ़ता स्नेह उन की दोनों रानियों की आंखों से छिप न सका. लूणकरणजी अब दोनों रानियों के बजाय भारमली पर प्रेम वर्षा कर रहे थे. यह कोई औरत कैसे सहन कर सकती है.

लूणकरणजी की दोनों रानियों ने भारमली को कहीं दूर भिजवाने की सोची. दोनों रानियां भारमली को जैसलमेर से कहीं दूर भेजने की योजना में लग गईं. लूणकरणजी की पहली रानी सोढ़ीजी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढ़ों ने रावल लूणकरणजी से शत्रुता लेना ठीक नहीं समझा.

तब लूणकरणजी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटड़े के शासक बाघजी राठौड़ की बहन थी, ने अपने भाई बाघजी को बुलाया. बहन का दुख मिटाने के लिए बाघजी शीघ्र आए और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठा कर मौका मिलते ही जैसलमेर से छिप कर भाग गए.

लूणकरणजी कोटड़े पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उन की प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षक था. अत: रावल लूणकरणजी ने जोधपुर के ही आशानंद कवि को कोटडे़ भेजा कि बाघजी को समझा कर भारमली को वापस जैसलमेर ले आएं.

दोनों रानियों ने बाघजी को पहले ही संदेश भेज कर सूचित कर दिया कि वे बारहठजी आशानंद की बातों में न आएं. जब आशानंदजी कोटड़ा पहुंचे तो बाघजी ने उन का बड़ा स्वागतसत्कार किया और उन की इतनी खातिरदारी की कि वह अपने आने का उद्देश्य ही भूल गए.

एक दिन बाघजी शिकार पर गए. बारहठजी व भारमली भी साथ थे. भारमली व बाघजी में असीम प्रेम था. अत: वह भी बाघजी को छोड़ कर किसी भी हालत में जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी.

शिकार के बाद भारमली ने विश्रामस्थल पर सूले सेंक कर खुद आशानंदजी को दिए. शराब भी पिलाई. इस से खुश हो कर बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देख कर आशानंद जी चारण का भावुक कवि हृदय बोल उठे—

जहं गिरवर तहं मोरिया, जहं सरवर तहं हंस

जहं बाघा तहं भारमली, जहं दारू तहं मंस.

यानी जहां पहाड़ होते हैं वहां मोर होते हैं, जहां सरोवर होता है वहां हंस होते हैं. इसी प्रकार जहां बाघजी हैं, वहीं भारमली होगी. ठीक उसी तरह से जहां दारू होती है वहां मांस भी होता है.

कवि आशानंद की यह बात सुन बाघजी ने झठ से कह दिया, ‘‘बारहठजी, आप बड़े हैं और बड़े आदमी दी हुई वस्तु को वापस नहीं लेते. अत: अब भारमली को मुझ से न मांगना.’’

आशानंद जी पर जैसे वज्रपात हो गया. लेकिन बाघजी ने बात संभालते हुए कहा कि आप से एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिए.

और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानंदजी बारहठ को मना कर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया. आशानंदजी भी कोटड़ा गांव में रहे और उन की व बाघजी की इतनी घनिष्ठ दोस्ती हुई कि वे जिंदगी भर उन्हें भुला नहीं पाए.

एक दिन अचानक बाघजी का निधन हो गया. भारमली ने भी बाघजी के शव के साथ प्राण त्याग दिए. आशानंदजी अपने मित्र बाघजी की याद में जिंदगी भर बेचैन रहे. उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उद्गारों के पिछोले बनाए.

बाघजी और आशानंदजी के बीच इतनी घनिष्ठ मित्रता हुई कि आशानंद जी उठतेबैठे, सोतेजागते उन्हीं का नाम लेते थे. एक बार उदयपुर के महाराणा ने कवि आशानंदजी की परीक्षा लेने के लिए कहा कि वे सिर्फ एक रात बाघजी का नाम लिए बिना निकाल दें तो वे उन्हें 4 लाख रुपए देंगे. आशानंद के पुत्र ने भी यही आग्रह किया.

कवि आशानंद ने भरपूर कोशिश की कि वह अपने कविपुत्र का कहा मान कर कम से कम एक रात बाघजी का नाम न लें, मगर कवि मन कहां चुप रहने वाला था. आशानंदजी की जुबान पर तो बाघजी का ही नाम आता था.

रूठी रानी उमादे ने प्रण कर लिया था कि वह आजीवन राव मालदेव का मुंह नहीं देखेगी. बहुत समझानेबुझाने के बाद भी रूठी रानी जोधपुर दुर्ग की तलहटी में बने एक महल में कुछ दिन ही रही और फिर उन्होंने अजमेर के तारागढ़ दुर्ग के निकट महल में रहना शुरू किया. बाद में यह इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई.

राव मालदेव ने रूठी रानी के लिए तारागढ़ दुर्ग में पैर से चलने वाली रहट का निर्माण करवाया. जब अजमेर पर अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के आक्रमण की संभावना थी, तब रूठी रानी कोसाना चली गई, जहां कुछ समय रुकने के बाद वह गूंदोज चली गई. गूंदोज से काफी समय बाद रूठी रानी ने मेवाड़ में केलवा में निवास किया.

जब शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तो रानी उमादे से बहुत प्रेम करने वाले राव मालदेव ने युद्ध में प्रस्थान करने से पहले एक बार रूठी रानी से मिलने का अनुरोध किया.

एक बार मिलने को तैयार होने के बाद रानी उमादे ने ऐन वक्त पर मिलने से इनकार कर दिया.

रूठी रानी के मिलने से इनकार करने का राव मालदेव पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह अपने जीवन में पहली बार कोई युद्ध हारे.

वर्ष 1562 में राव मालदेव के निधन का समाचार मिलने पर रानी उमादे को अपनी भूल का अहसास हुआ और कष्ट भी पहुंचा. उमादे ने प्रायश्चित के रूप में उन की पगड़ी के साथ स्वयं को अग्नि को सौंप दिया.

ऐसी थी जैसलमेर की भटियाणी उमादे रूठी रानी. वह संसार में रूठी रानी के नाम से अमर हो गईं.

कढ़ा हुआ रूमाल: प्रोफेसर महेश की दास्तां

तिनसुखिया मेल के एसी कोच में बैठे प्रोफैसर महेश एक पुस्तक पढ़ने में मशगूल थे. वे एक सैमिनार में भाग लेने गुवाहाटी जा रहे थे.

पास की एक सीट पर बैठी प्रौढ़ महिला बारबार प्रोफैसर महेश को देख रही थी. वह शायद उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही थी. जब वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई तो उठ कर उन की सीट के पास गई और शिष्टतापूर्वक पूछा, ‘‘सर, क्या आप प्रोफैसर महेश हैं?’’

यह अप्रत्याशित सा प्रश्न सुन कर प्रोफैसर महेश असमंजस में पड़ गए. उन्होंने महिला की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं, मैडम.’’

‘‘मेरा नाम माधवी है. मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हूं. मेरी एक सहेली थी प्रोफैसर शिवानी,’’ वह महिला बोली.

‘‘थी… से आप का क्या मतलब है?’’ प्रोफैसर महेश ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं है. उस ने किसी को अपनी किडनी डोनेट की थी. उसी दौरान शरीर में सैप्टिक फैल जाने के कारण उस की मृत्यु हो गई थी,’’ महिला ने कहा.

‘‘क्या?’’ प्रोफैसर महेश का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया था.

‘‘जी सर. उसे शायद अपनी मृत्यु का एहसास पहले ही हो गया था. मरने से 2 दिन पहले उस ने मुझे यह रूमाल और एक पत्र आप को देने के लिए कहा था. उस के द्वारा दिए पते पर मैं आप से मिलने दिल्ली कई बार गई. मगर आप शायद वहां से कहीं और शिफ्ट हो गए थे.’’ यह कह कर उस महिला ने वह रूमाल और पत्र प्रोफैसर को दे दिया.

वह महिला जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. प्रोफैसर महेश बुत बने अपनी सीट पर बैठे थे.

तिनसुखिया मेल अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और उस से भी तेज रफ्तार से अतीत की स्मृतियां प्रोफैसर महेश के मानसपटल पर दौड़ रही थीं.

आज से 25 वर्ष पूर्व उन की तैनाती एक कसबे के डिग्री कालेज में प्रोफैसर के रूप में हुई थी. कालेज कसबे से दोढाई किलोमीटर दूर था. कालेज में छात्रछात्राएं दोनों पढ़ते थे. कालेज का अधिकांश स्टाफ कसबे में ही रहता था.

प्रोफैसर महेश का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था और उन के पढ़ाने का ढंग बहुत प्रभावी. इसलिए छात्रछात्राएं उन का बड़ा सम्मान करते थे. वे बड़े मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के थे. इसलिए स्टाफ में भी उन के सब से बड़े मधुर संबंध थे.

एक दिन वे क्लास में पढ़ा रहे थे, तभी चपरासी उन के पास आया और बोला, ‘सर, प्रिंसिपल सर आप को अपने औफिस में बुला रहे हैं.’

प्रोफैसर महेश सोच में पड़ गए. फिर वे प्रिंसिपल रूम की ओर चल दिए.

उन्हें देख कर प्रिंसिपल साहब बोले, ‘प्रोफैसर महेश, बीए सैकंड ईयर की छात्रा शिवानी अचानक क्लास में बेहोश हो गई है. उसे किसी तरह होश तो आ गया है मगर अभी उस की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं है. आप ऐसा करिए, उसे अपने स्कूटर से उस के घर छोड़ आइए.’

उस समय स्टाफ के 2-3 लोगों के पास ही स्कूटर था. शायद इसी कारण प्राचार्यजी ने उन्हें यह कार्य सौंपा था.

वे शिवानी को स्कूटर पर बैठा कर कसबे की ओर चल दिए. वे कसबे में पहुंचने ही वाले थे कि सड़क के किनारे खड़े बरगद के पेड़ के पास शिवानी ने कहा, ‘सर, स्कूटर रोक दीजिए.’

प्रोफैसर महेश ने स्कूटर रोक दिया और शिवानी से पूछा, ‘‘क्या बात है शिवानी, क्या तुम्हें फिर चक्कर आ रहा है?’

‘मुझे कुछ नहीं हुआ सर, मैं तो आप से एकांत में बात करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कालेज में बेहोश होने का नाटक किया था,’ उस ने बड़े भोलेपन से कहा.

‘क्या?’ प्रोफैसर ने हैरानी से उस की ओर देखा. फिर पूछा, ‘आखिर, तुम ने ऐसा क्यों किया और तुम मुझ से क्या बात करना चाहती हो?’

‘सर, मैं आप से प्यार करती हूं और आप को यही बात बताने के लिए मैं ने यह नाटक किया था,’ वह प्रोफैसर की ओर देख कर मुसकरा रही थी.

प्रोफैसर हतप्रभ खड़े थे. उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे उस से क्या कहें. काफी देर तक वे चुप रहे. फिर बोले, ‘यह तुम्हारी पढ़ने की उम्र है, प्यार करने की नहीं. अभी तो तुम प्यार का मतलब भी नहीं जानतीं.’

‘आप ठीक कह रहे हैं, सर. मगर मैं अपने इस दिल का क्या करूं, यह तो आप से प्यार कर बैठा है,’ वह प्रोफैसर की ओर देख कर मुसकराते हुए बोली.

‘तुम्हें मालूम है कि मैं शादीशुदा हूं और मेरे 2 बच्चे हैं. और मेरी तथा तुम्हारी उम्र में कम से कम 20 साल का अंतर है,’ प्रोफैसर ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता, सर. मैं तो केवल एक ही बात जानती हूं कि मैं आप से प्यार करती हूं, बेपनाह प्यार,’ वह दार्शनिक अंदाज में बोली.

प्रोफैसर ने उसे समझने का हरसंभव प्रयास किया. मगर उस पर कोई असर नहीं हुआ. तो उन्होंने यह कह कर कि, अब तुम ठीक हो इसलिए यहां से अपने घर पैदल चली जाना, वे कालेज लौट गए.

प्रोफैसर महेश ने इस बात को उस का बचपना समझ और गंभीरता से नहीं लिया. शिवानी किसी न किसी बहाने से उन के करीब आने और उन से बात करने का प्रयास करती रहती. परंतु वह उन के जितना करीब आने का प्रयास करती, वे उतना ही उस से दूर भागते. वे नहीं चाहते थे कि कालेज में यह बात चर्चा का विषय बने.

कसबे में छोटे बच्चों का कोई कौन्वैंट स्कूल नहीं था, इसलिए वे यहां अकेले ही किराए के मकान में रहते थे. उन की पत्नी और बच्चे उन के मम्मीपापा के साथ रहते थे.

एक दिन शाम का समय था. प्रोफैसर कमरे में अकेले बैठे एक किताब पढ़ रहे थे. तभी दरवाजे पर खटखट हुई. उन्होंने दरवाजा खोला. सामने शिवानी खड़ी थी. उसे इस प्रकार अकेले अपने घर पर देख वे असमंजस में पड़ गए.

इस से पहले कि वे कुछ कहते, वह कमरे में आ कर एक कुरसी पर बैठ गई. आज पहली बार प्रोफैसर ने शिवानी को ध्यान से देखा. 20-21 वर्ष की उम्र, लंबा व छरहरा बदन, गोराचिट्टा रंग और आकर्षक नैननक्श. उस के लंबे घने बाल उस की कमर को छू रहे थे. सादे कपड़ों में भी वह बेहद सुंदर लग रही थी.

कमरे के एकांत में एक बेहद सुंदर नवयुवती प्रोफैसर के सामने बैठी थी और वह उन से प्यार करती है, यह सोच कर प्रोफैसर के मन में गुदगुदी सी होने लगी. उन्होंने अपने मन को संयत करने का बहुत प्रयास किया मगर वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने में असफल रहे. उन के मन में तरहतरह की हसीन कल्पनाएं उठने लगीं, चेहरे का रंग पलपल बदलने लगा.

इस सब से बेखबर शिवानी कुरसी पर शांत और निश्चल बैठी थी. उस के एक हाथ में सफेद रंग का रूमाल था. प्रोफैसर उठ कर उस के पास गए और उस के गालों को थपथपाते हुए पूछा, ‘शिवानी, तुम यहां अकेले क्या करने आई हो?’

उस ने प्रोफैसर की आंखों में झांक कर देखा, पता नहीं उसे उन की आंखों में क्या दिखाई दिया, वह झटके के साथ कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई. उस के चेहरे के भाव एकाएक बदल गए थे. प्रोफैसर के हाथों को अपने गालों से ?ाटके के साथ हटाते हुए वह बोली, ‘प्लीज, डोंट टच मी. आई डोंट लाइक दिस.’

प्रोफैसर के ऊपर पड़ा बुद्धिजीवी का लबादा फट कर तारतार हो चुका था. शिवानी का यह व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वे उस से क्या कहें.

‘तुम तो कहती हो कि तुम मुझ से बहुत प्यार करती हो,’ प्रोफैसर महेश ने शिवानी की ओर देखते हुए कहा.

‘हां सर, मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मगर मेरा प्यार गंगाजल की तरह निर्मल और कंचन की तरह खरा है,’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘ये सब फिल्मी डायलौग हैं,’ प्रोफैसर ने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा.

‘सर, जरूरत पड़ने पर मैं यह सबित कर दूंगी कि आप के प्रति मेरा प्यार कितना गहरा है,’ यह कह कर वह कमरे से चली गई थी. काफी देर तक प्रोफैसर अवाक खड़े रहे थे, फिर अपने काम में लग गए थे.

इस के बाद शिवानी ने उन से बात करने या मिलने का प्रयास नहीं किया. वे भी धीरेधीरे उसे भूल गए. कुछ समय बाद उन का उस कालेज से स्थानांतरण हो गया. सरकारी सेवा होने के कारण कई जगह स्थानांतरण हुए और आखिर में वे दिल्ली में सैटल्ड हो गए.

2 साल पहले प्रोफैसर को किडनी प्रौब्लम हो गई. कई महीने तक तो डाइलिसिस पर रहे, फिर डाक्टरों ने कहा कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के अलावा कोई चारा नहीं है. तब प्रोफैसर ने अपने परिवार में इस संबंध में सब से बातचीत की. उन की पत्नी, दोनों बेटों और बेटी ने राय दी कि पहले किडनी के लिए विज्ञापन देना चाहिए. हो सकता है कि कोई जरूरतमंद पैसे के लिए अपनी किडनी डोनेट करने के लिए तैयार हो जाए. अगर 2-3 बार विज्ञापन देने के बाद भी कोई डोनर नहीं मिलता है तो हम लोग फिर इस बारे में बातचीत करेंगे.

बेटे ने राजधानी के सभी अखबारों में किडनी डोनेट करने वाले को 20 लाख रुपए देने का विज्ञापन छपवाया. विज्ञापन में प्रोफैसर का नाम, पूरा पता दिया गया. विज्ञापन दिए एक महीना हो गया था. जिस अस्पताल में प्रोफैसर महेश का इलाज चल रहा था. एक दिन वहां से फोन आया.

‘सर, आप के लिए गुड न्यूज है. आप को किडनी देने के लिए एक डोनर मिल गई है. उस की उम्र 45 साल के करीब है और वह आप को किडनी डोनेट करने के लिए तैयार है. मगर उस की एक शर्त है कि, किडनी ट्रांसप्लांट होने से पहले उस का नाम व पता किसी को न बताया जाए.’

मुझे यह जान कर हैरानी हुई कि डोनर अपना नाम, पता क्यों नहीं बताना चाहती. फिर हम सब ने सोचा कि शायद उस की कोई मजबूरी होगी.

ट्रांसप्लांट की सारी फौर्मैलिटीज पूरी कर ली गईं और नियत तारीख पर उन की किडनी का ट्रांसप्लांटेशन हो गया, जो पूरी तरह से सफल रहा.

इस के कई दिनों बाद जब प्रोफैसर महेश अपने को काफी सहज अनुभव करने लगे तो उन्होंने एक दिन डाक्टर साहब से पूछा कि ‘डाक्टर साहब, वे लेडी कैसी हैं जिन्होंने उन्हें अपनी किडनी डोनेट की थी.’

कुछ देर तक डाक्टर साहब खामोश रहे, फिर बोले कि वह लेडी तो परसों बिना किसी को कुछ बताए अस्पताल से चली गई. हैरानी की बात यह है कि वह अपनी डोनेशन फीस भी नहीं ले गई.

‘क्या..?’ प्रोफैसर का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया था. जब उन्होंने यह बात अपने परिवार के लोगों को बताई तो उन सब को बड़ी हैरानी हुई. सभी को यह बात सम?ा ही नहीं आ रही थी कि आज के इस आपाधापी के दौर में 20 लाख रुपए ठुकरा देने वाली यह लेडी आखिर कौन थी. काफी दिनों तक प्रोफैसर इसी उधेड़बुन में रहे. उन्होंने उस लेडी का पता लगाने की हरसंभव कोशिश की, मगर इस के बारे में कुछ पता नहीं चला.

‘‘आप को कहां तक जाना है, सर,’’ अचानक टीटीई ने आ कर प्रोफैसर महेश की तंद्रा को भंग कर दिया. वे अतीत से वर्तमान में लौट आए. टिकट चैक करने के बाद टीटीई चला गया.

प्रोफैसर महेश ने वह रूमाल उठाया जो शिवानी ने उन्हें देने के लिए प्रोफैसर माधवी को दिया था. उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की. यह शायद वही कढ़ा हुआ रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने उन के कमरे पर आई थी. सफेद रंग के उस रूमाल के एक कोने में सुनहरे रंग से इंग्लिश का अक्षर एस कढ़ा हुआ था. एस यानी शिवानी के नाम का पहला अक्षर.

अब प्रोफैसर महेश को डोनर की सारी पहेली समझ में आ गई थी. उन्होंने रूमाल में रखे हुए मुड़ेतुड़े पत्र को खोल कर पढ़ा, लिखा था-

‘‘प्रोफैसर साहब,

‘‘आप का जीवन मेरे लिए बहुत बहुमूल्य है, इसलिए मैं ने अपने जीवन को संकट में डाल कर आप की जान को बचाया. मगर मैं ने ऐसा कर के आप पर कोई एहसान नहीं किया. मुझे तो इस बात की खुशी है कि मैं जिसे हृदय की गहराइयों से प्यार करती थी, उस के किसी काम आ सकी.

‘‘आप की शिवानी.’’

पत्र पढ़ कर प्रोफैसर महेश का मन गहरी वेदना से भर उठा. शिवानी का यह निस्वार्थ प्यार देख कर उन की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने शिवानी का दिया हुआ रूमाल उठाया और उस से अपने आंसुओं को पोंछने लगे. ऐसा कर के शायद उन्होंने शिवानी के सच्चे अमर प्रेम को स्वीकार कर लिया था.

लौटते हुए: क्या विमल कर पाया रंजना से शादी

धनंजयजी का मन जाने का नहीं था, लेकिन सुप्रिया ने आग्रह के साथ कहा कि सुधांशु का नया मकान बना है और उस ने बहुत अनुरोध के साथ गृहप्रवेश के मौके पर हमें बुलाया है तो जाना चाहिए न. आखिर लड़के ने मेहनत कर के यह खुशी हासिल की है, अगर हम नहीं पहुंचे तो दीदी व जीजाजी को भी बुरा लगेगा…

‘‘पर तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी कमर में दर्द है, उस पर गरमी का मौसम है, ऐसे में घर से बाहर जाने का मन नहीं करता है.’’

‘‘हम ए.सी. डब्बे में चलेंगे…टिकट मंगवा लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘ए.सी. में सफर करने से मेरी कमर का दर्द और बढ़ जाएगा.’’

‘‘तो तुम सेकंड स्लीपर में चलो, …मैं अपने लिए ए.सी. का टिकट मंगवा लेती हूं,’’ सुप्रिया हंसते हुए बोली.

सुप्रिया की बहन का लड़का सुधांशु पहले सरकारी नौकरी में था, पर बहुत महत्त्वाकांक्षी होने के चलते वहां उस का मन नहीं लगा. जब सुधांशु ने नौकरी छोड़ी तो सब को बुरा लगा. उस के पिता तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. तब वह अपने मौसामौसी के पास आ कर बोला था, ‘मौसाजी, पापा को आप ही समझाएं…आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है, ठीक है मैं उद्योग विभाग में हूं…पर हूं तो निरीक्षक ही, रिटायर होने तक अधिक से अधिक मैं अफसर हो जाऊंगा…पर मैं यह जानता हूं कि जिन की लोन फाइल बना रहा हूं वे तो मुझ से अधिक काबिल नहीं हैं. यहां तक कि उन्हें यह भी नहीं पता होता कि क्या काम करना है और उन की बैंक की तमाम औपचारिकताएं भी मैं ही जा कर पूरी करवाता हूं. जब मैं उन के लिए इतना काम करता हूं, तब मुझे क्या मिलता है, कुछ रुपए, क्या यही मेरा मेहनताना है, दुनिया इसे ऊपरी कमाई मानती है. मेरा इस से जी भर गया है, मैं अपने लिए क्या नहीं कर सकता?’

‘हां, क्यों नहीं, पर तुम पूंजी कहां से लाओगे?’ उस के मौसाजी ने पूछा था.

‘कुछ रुपए मेरे पास हैं, कुछ बाजार से लूंगा. लोगों का मुझ में विश्वास है, बाकी बैंक से ऋण लूंगा.’

‘पर बेटा, बैंक तो अमानत के लिए संपत्ति मांगेगा.’

‘हां, मेरे जो दोस्त साथ काम करना चाहते हैं वे मेरी जमानत देंगे,’ सुधांशु बोला था, ‘पर मौसीजी, मैं पापा से कुछ नहीं लूंगा. हां, अभी मैं जो पैसे घर में दे रहा था, वह नहीं दे पाऊंगा.’

धनंजयजी ने उस के चेहरे पर आई दृढ़ता को देखा था. उस का इरादा मजबूत था. वह दिनभर उन के पास रहा, फिर भोपाल चला गया था. रात को उन्होंने उस के पिता से बात की थी. वह आश्वस्त नहीं थे. वह भी सरकारी नौकरी में रह चुके थे, कहा था, ‘व्यवसाय या उद्योग में सुरक्षा नहीं है या तो बहुत मिल जाएगा या डूब जाएगा.’

खैर, समय कब ठहरा है…सुधांशु ने अपना व्यवसाय शुरू किया तो उस में उस की तरक्की होती ही गई. उस के उद्योग विभाग के संबंध सब जगह उस के काम आए थे. 2-3 साल में ही उस का व्यवसाय जम गया था. पहले वह धागे के काम में लगा था. फैक्टरियों से धागा खरीदता था और उसे कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियों को भेजता था. इस में उसे अच्छा मुनाफा मिला. फिर उस ने रेडीमेड गारमेंट में हाथ डाल लिया. यहां भी उस का बाजार का अनुभव उस के काम आया. अब उस ने एक बड़ा सा मकान भोपाल के टी.टी. नगर में बनवा लिया है और उस का गृहप्रवेश का कार्यक्रम था… बारबार सुधांशु का फोन आ रहा था कि मौसीजी, आप को आना ही होगा और धनंजयजी ना नहीं कर पा रहे थे.

‘‘सुनो, भोपाल जा रहे हैं तो इंदौर भी हो आते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’

‘‘अपनी बेटी रंजना के लिए वहां से भी तो एक प्रस्ताव आया हुआ है. शारदा की मां बता रही थीं…लड़का नगर निगम में सिविल इंजीनियर है, देख भी आएंगे.’’

‘‘रंजना से पूछ तो लिया है न?’’ धनंजय ने पूछा.

‘‘उस से क्या पूछना, हमारी जिम्मेदारी है, बेटी हमारी है. हम जानबूझ कर उसे गड्ढे में नहीं धकेल सकते.’’

‘‘इस में बेटी को गड्ढे में धकेलने की बात कहां से आ गई,’’ धनंजयजी बोले.

‘‘तुम बात को भूल जाते हो…याद है, हम विमल के घर गए थे तो क्या हुआ था. सब के लिए चाय आई. विमल के चाय के प्याले में चम्मच रखी हुई थी. मैं चौंक गई और पूछा, ‘चम्मच क्यों?’ तो विमल बोला, ‘आंटी, मैं शुगर फ्री की चाय लेता हूं…मुझे शुगर तो नहीं है, पर पापा को और बाबा को यह बीमारी थी इसलिए एहतियात के तौर पर…शुगर फ्री लेता हूं, व्यायाम भी करता हूं, आप को रंजना ने नहीं बताया,’ ऐसा उस ने कहा था.’’

‘‘लड़की को बीमार लड़के को दे दो. अरे, अभी तो जवानी है, बाद में क्या होगा? यह बीमारी तो मौत के साथ ही जाती है. मैं ने रंजना को कह दिया था…भले ही विमल बहुत अच्छा है, तेरे साथ पढ़ालिखा है पर मैं जानबूझ कर यह जिंदा मक्खी नहीं निगल सकती.’’

पत्नी की बात को ‘हूं’ के साथ खत्म कर के धनंजयजी सोचने लगे, तभी यह भोपाल जाने को उत्सुक है, ताकि वहां से इंदौर जा कर रिश्ता पक्का कर सके. अचानक उन्हें अपनी बेटी रंजना के कहे शब्द याद आए, ‘पापा, चलो यह तो विमल ने पहले ही बता दिया…वह ईमानदार है, और वास्तव में उसे कोई बीमारी भी नहीं है, पर मान लें, आप ने कहीं और मेरी शादी कर दी और उस का एक्सीडेंट हो गया, उस का हाथ कट गया…तो आप मुझे तलाक दिलवाएंगे?’

तब वह बेटी का चेहरा देखते ही रह गए थे. उन्हें लगा सवाल वही है, जिस से सब बचना चाहते हैं. हम आने वाले समय को सदा ही रमणीय व अच्छाअच्छा ही देखना चाहते हैं, पर क्या सदा समय ऐसा ही होता है.

‘पापा…फिर तो जो मोर्चे पर जाते हैं, उन का तो विवाह ही नहीं होना चाहिए…उन के जीवन में तो सुरक्षा है ही नहीं,’ उस ने पूछा था.

‘पापा, मान लें, अभी तो कोई बीमारी नहीं है, लेकिन शादी के बाद पता लगता है कि कोई गंभीर बीमारी हो गई है, तो फिर आप क्या करेंगे?’

धनंजयजी ने तब बेटी के सवालों को बड़ी मुश्किल से रोका था. अंतिम सवाल बंदूक की गोली की तरह छूता उन के मन और मस्तिष्क को झकझोर गया था.

पर, सुप्रिया के पास तो एक ही उत्तर था. उसे नहीं करनी, नहीं करनी…वह अपनी जिद पर अडिग थी.

रंजना ने भोपाल जाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. वह जानती थी, मां वहां से इंदौर जाएंगी…वहां शारदा की मां का कोई दूर का भतीजा है, उस से बात चल रही है.

स्टेशन पर ही सुधांशु उन्हें लेने आ गया था.

‘‘अरे, बेटा तुम, हम तो टैक्सी में ही आ जाते,’’ धनंजयजी ने कहा.

‘‘नहीं, मौसाजी, मेरे होते आप टैक्सी से क्यों आएंगे और यह सबकुछ आप का ही है…आप नहीं आते तो कार्यक्रम का सारा मजा किरकिरा हो जाता,’’ सुधांशु बोला.

‘‘और मेहमान सब आ गए?’’ सुप्रिया ने पूछा.

‘‘हां, मौसी, मामा भी कल रात को आ गए. उदयपुर से ताऊजी, ताईजी भी आ गए हैं. घर में बहुत रौनक है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, तुम सभी के लाड़ले हो और इतना बड़ा काम तुम ने शुरू किया है, सभी को तुम्हारी कामयाबी पर खुशी है, इसीलिए सभी आए हैं,’’ सुप्रिया ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, मौसी, बस आप का ही इंतजार था, आप भी आ गईं.’’

सुधांशु का मकान बहुत बड़ा था. उस ने 4 बेडरूम का बड़ा मकान बनवाया था. उस की पत्नी माधवी सजीधजी सब की खातिर कर रही थी. चारों ओर नौकर लगे हुए थे. बाहर जाने के लिए गाडि़यां थीं. शाम को उस की फैक्टरी पर जाने का कार्यक्रम था.

गृहप्रवेश का कार्यक्रम पूरा हुआ, मकान के लौन में तरहतरह की मिठाइयां, नमकीन, शीतल पेय सामने मेज पर रखे हुए थे पर सुधांशु के हाथ में बस, पानी का गिलास था.

‘‘अरे, सुधांशु, मुंह तो मीठा करो,’’ सुप्रिया बर्फी का एक टुकड़ा लेते हुए उस की तरफ बढ़ी.

‘‘नहीं, मौसी नहीं,’’ उस की पत्नी माधवी पीछे से बोली, ‘‘इन की शुगर फ्री की मिठाई मैं ला रही हूं.’’

‘‘क्या इसे भी…’’

‘‘हां,’’ सुधांशु बोला, ‘‘मौसी रातदिन की भागदौड़ में पता ही नहीं लगा कब बीमारी आ गई. एक दिन कुछ थकान सी लगी. तब जांच करवाई तो पता लगा शुगर की शुरुआत है, तभी से परहेज कर लिया है…दवा भी चलती है, पर मौसी, काम नहीं रुकता, जैसे मशीन चलती है, उस में टूटफूट होती रहती है, तेल, पानी देना पड़ता है, कभी पार्ट्स भी बदलते हैं, वही शरीर का हाल है, पर काम करते रहो तो बीमारी की याद भी नहीं आती है.’’

इतना कह कर सुधांशु खिलखिला कर हंस रहा था और तो और माधवी भी उस के साथ हंस रही थी. उस ने खाना खातेखाते पल्लवी से पूछा, ‘‘जीजी, सुधांशु को डायबिटीज हो गई, आप ने बताया ही नहीं.’’

‘‘सुप्रिया, इस को क्या बताना, क्या छिपाना…बच्चे दिनरात काम करते हैं. शरीर का ध्यान नहीं रखते…बीमारी हो जाती है. हां, दवा लो, परहेज करो. सब यथावत चलता रहता है. तुम तो मिठाई खाओ…खाना तो अच्छा बना है?’’

‘‘हां, जीजी.’’

‘‘हलवाई सुधांशु ने ही बुलवाया है. रतलाम से आया है. बहुत काम करता है. सुप्रिया, हम धनंजयजी के आभारी हैं. सुना है कि उन्होंने ही सुधांशु की सहायता की थी. आज इस ने पूरे घर को इज्जत दिलाई है. पचासों आदमी इस के यहां काम करते हैं…सरकारी नौकरी में तो यह एक साधारण इंस्पेक्टर रह जाता.’’

‘‘नहीं जीजी,…हमारा सुधांशु तो बहुत मेहनती है,’’ सुप्रिया ने टोका.

‘‘हां, पर…हिम्मत बढ़ाने वाला भी साथ होना चाहिए. तुम्हारे जीजा तो इस के नौकरी छोड़ने के पूरे विरोध में थे,’’ पल्लवी बोली.

‘‘अब…’’ सुप्रिया ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘वह सामने देखो, कैसे सेठ की तरह सजेधजे बैठे हैं. सुबह होते ही तैयार हो कर सब से पहले फैक्टरी चले जाते हैं. सुधांशु तो यही कहता है कि अब काम करने से पापा की उम्र भी 10 साल कम हो गई है. दिन में 3 चक्कर लगाते हैं, वरना पहले कमरे से भी बाहर नहीं जाते थे.’’

रात का भोजन भी फैक्टरी के मैदान में बहुत जोरशोर से हुआ था. पूरी फैक्टरी को सजाया गया था. बहुत तेज रोशनी थी. शहर से म्यूजिक पार्टी भी आई थी.

धनंजयजी को बारबार अपनी बेटी रंजना की याद आ जाती कि वह भी साथ आ जाती तो कितना अच्छा रहता, पर सुप्रिया की जिद ने उसे भीतर से तोड़ दिया था.

सुबह इंदौर जाने का कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित हुआ था. पर सुबह होते ही, धनंजयजी ने देखा कि सुप्रिया में इंदौर जाने की कोई उत्सुकता ही नहीं है, वह तो बस, अधिक से अधिक सुधांशु और माधवी के साथ रहना चाह रही थी.

आखिर जब उन से रहा नहीं गया तो शाम को पूछ ही लिया, ‘‘क्यों, इंदौर नहीं चलना क्या? वहां से फोन आया था और कार्यक्रम पूछ रहे थे.’’

सुप्रिया ने उन की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह यथावत अपने रिश्तेदारों से बातचीत में लगी रही.

सुबह ही सुप्रिया ने कहा था, ‘‘इंदौर फोन कर के उन्हें बता दो कि हम अभी नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ धनंजयजी ने पूछा.

सुप्रिया ने सवाल को टालते हुए कहा, ‘‘शाम को सुधांशु की कार जबलपुर जा रही है. वहां से उस की फैक्टरी में जो नई मशीनें आई हैं, उस के इंजीनियर आएंगे. वह कह रहा था, आप उस से निकल जाएं, मौसाजी को आराम मिल जाएगा. पर कार में ए.सी. है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो तुम्हारी कमर में दर्द हो जाएगा,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

धनंजयजी, पत्नी के इस बदले हुए मिजाज को समझ नहीं पा रहे थे.

रास्ते में उन्होंने पूछा, ‘‘इंदौर वालों को क्या कहना है, फिर फोन आया था.’’

‘‘सुनो, सुधांशु को पहले तो डायबिटीज नहीं थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘अब देखो, शादी के बाद हो गई है, पर माधवी बिलकुल निश्ंिचत है. उसे तो इस की तनिक भी चिंता नहीं है. बस, सुधांशु के खाने और दवा का ध्यान दिन भर रखती है और रहती भी कितनी खुश है…उस ने सभी का इतना ध्यान रखा कि हम सोच भी नहीं सकते थे.’’

धनंजयजी मूकदर्शक की तरह पत्नी का चेहरा देखते रहे, तो वह फिर बोली, ‘‘सुनो, अपना विमल कौन सा बुरा है?’’

‘‘अपना विमल?’’ धनंजयजी ने टोका.

‘‘हां, रंजना ने जिस को शादी के लिए देखा है, गलती हमारी है जो हमारे सामने ईमानदारी से अपने परिवार का परिचय दे रहा है, बीमारी के खतरे से सचेत है, पूरा ध्यान रख रहा है. अरे, बीमारी बाद में हो जाती तो हम क्या कर पाते, वह तो…’’

‘‘यह तुम कह रही हो,’’ धनंजयजी ने बात काटते हुए कहा.

‘‘हां, गलती सब से होती है, मुझ से भी हुई है. यहां आ कर मुझे लगा, बच्चे हम से अधिक सही सोचते हैं,’’…पत्नी की इस सही सोच पर खुशी से उन्होंने पत्नी का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से दबा दिया.

भीगा मन: कैसा था कबीर का हाल

कबीर बारबार घड़ी की ओर देख रहा था. अभी तक उस का ड्राइवर नहीं आया था. जब ड्राइवर आया तो कबीर उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को वक्त की कोई कीमत ही नहीं है. कहां रह गए थे?’’

‘‘साहब, घर में पानी भर गया था, वही निकालने में देर हो गई.’’ ‘‘अरे यार, तुम लोगों की यही मुसीबत है. चार बूंदें गिरती नहीं हैं कि तुम्हारा रोना शुरू हो जाता है… पानी… पानी… अब चलो,’’ कार में बैठते हुए कबीर ने कहा.

बरसात के महीने में मुंबई यों बेबस हो जाती है, जैसे कोई गरीब औरत भीगी फटी धोती में खुद को बारिश से बचाने की कोशिश कर रही हो. भरसक कोशिश, मगर सब बेकार… थक कर खड़ी हो जाती है एक जगह और इंतजार करती है बारिश के थमने का.

कार ने रफ्तार पकड़ी और दिनभर का थकामांदा कबीर सीट पर सिर टिका कर बैठ गया. हलकीहलकी बारिश हो रही थी और सड़क पर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहे थे. अनगिनत छाते, पर बचाने में नाकाम. हवा के झोंकों से पानी सब को भिगो गया था.

कबीर ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजे थे. सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. ट्रैफिक धीमा पड़ गया था. लोग बेवजह हौर्न बजा रहे थे मानो हौर्न बजाने से ट्रैफिक हट जाएगा. पर वे हौर्न बजा कर अपने बेबस होने की खीज निकाल लेते थे.

ड्राइवर ने कबीर से पूछा, ‘‘रेडियो चला दूं साहब?’’ ‘‘क्या… हां, चला दो. लगता है कि आज घर पहुंचने में काफी देर हो जाएगी,’’ कबीर ने कहा.

‘‘हां साहब… बहुत दूर तक जाम लगा है.’’ ‘‘तुम्हारा घर कहां है?’’

‘‘साहब, मैं अंधेरी में रहता हूं.’’ ‘‘अच्छा… अच्छा…’’ कबीर ने सिर हिलाते हुए कहा.

रेडियो पर गाना बज उठा, ‘रिमझिम गिरे सावन…’ बारिश तेज हो गई थी और सड़क पर पानी भरने लगा था. हर आदमी जल्दी घर पहुंचना चाहता था. गाना बंद हुआ तो रेडियो पर लोगों को घर से न निकलने की हिदायत दी गई.

कबीर ने घड़ी देखी. 7 बजे थे. घर अभी भी 15-20 किलोमीटर दूर था. ट्रैफिक धीरेधीरे सरकने लगा तो कबीर ने राहत की सांस ली. मिनरल वाटर की बोतल खोली और दो घूंट पानी पीया.

धीरेधीरे 20 मिनट बीत गए. बारिश अब बहुत तेज हो गई थी. बौछार के तेज थपेड़े कार की खिड़की से टकराने लगे थे. सड़क पर पानी का लैवल बढ़ता ही जा रहा था. बाहर सब धुंधला हो गया था. सामने विंड शील्ड पर जब वाइपर गुजरता तो थोड़ाबहुत दिखाई देता. हाहाकार सा मचा हुआ था. सड़क ने जैसे नदी का रूप ले लिया था. ‘‘साहब, पानी बहुत बढ़ गया है. हमें कार से बाहर निकल जाना चाहिए.’’

‘‘क्या बात कर रहे हो… बाहर हालत देखी है…’’ ‘‘हां साहब, पर अब पानी कार के अंदर आने लगा है.’’

कबीर ने नीचे देखा तो उस के जूते पानी में डूबे हुए थे. उस ने इधरउधर देखा. कोई चारा न था. वह फिर भी कुछ देर बैठा रहा. ‘‘साहब चलिए, वरना दरवाजा खुलना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘हां, चलो.’’ कबीर ने दरवाजा खोला ही था कि तेज बारिश के थपेड़े मुंह पर लगे. उस की बेशकीमती घड़ी और सूट तरबतर हो गए. उस ने चश्मा निकाल कर सिर झटका और चश्मा पोंछा. ‘‘साहब, छाता ले लीजिए,’’ ड्राइवर ने कहा.

‘‘नहीं, रहने दो,’’ कहते हुए कबीर ने चारों ओर देखा. सारा शहर पानी में डूबा हुआ था. कचरा चारों ओर तैर रहा था. इस रास्ते से गुजरते हुए उस ने न जाने कितने लोगों को शौच करते देखा था और आज वह उसी पानी में खड़ा है. उसे उबकाई सी आने लगी थी. इसी सोच में डूबा कबीर जैसे कदम बढ़ाना ही भूल गया था. ‘‘साहब चलिए…’’ ड्राइवर ने कहा.

कबीर ने कभी ऐसे हालात का सामना नहीं किया था. उस के बंगले की खिड़की से तो बारिश हमेशा खूबसूरत ही लगी थी. कबीर धीरेधीरे पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा. कदम बहुत भारी लग रहे थे. चारों ओर लोग ही लोग… घबराए हुए, अपना घर बचाते, सामान उठाए.

एक मां चीखचीख कर बिफरी सी हालत में इधरउधर भाग रही थी. उस का बच्चा कहीं खो गया था. उसे अब न बारिश की परवाह थी, न अपनी जान की. कबीर ने ड्राइवर की तरफ देखा.

‘‘साहब, हर साल यही होता है. किसी का बच्चा… किसी की मां ले जाती है यह बारिश… ये खुले नाले… मेनहोल…’’ ‘‘क्या करें…’’ कह कर कबीर ने कदम आगे बढ़ाया तो मानो पैर के नीचे जमीन ही न थी और जब पैर जमीन पर पड़ा तो उस की चीख निकल गई.

‘‘साहब…’’ ड्राइवर भी चीख उठा और कबीर का हाथ थाम लिया. कबीर का पैर गहरे गड्ढे में गिरा था और कहीं लोहे के पाइपों के बीच फंस गया था.

ड्राइवर ने पैर निकालने की कोशिश की तो कबीर की चीख निकल गई. शायद हड्डी टूट गई थी.

‘‘साहब, आप घबराइए मत…’’ ड्राइवर ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘मेरा घर नजदीक ही है. मैं अभी किसी को ले कर आता हूं.’’ कबीर बहुत ज्यादा तकलीफ में उसी गंदे पानी में गरदन तक डूबा बैठा रहा. कुछ देर बाद उसे दूर से ड्राइवर भाग कर आता दिखाई दिया. कबीर को बेहोशी सी आने लगी थी और उस ने आंखें बंद कर लीं.

होश आया तो कबीर एक छोटे से कमरे में था जो घुटनों तक पानी से भरा था. एक मचान बना कर बिस्तर लगाया हुआ था जिस पर वह लेटा हुआ था. ड्राइवर की पत्नी चाय का गिलास लिए खड़ी थी. ‘‘साहब, चाय पी लीजिए. जैसे ही पानी कुछ कम होगा, हम आप को अस्पताल ले जाएंगे,’’ ड्राइवर ने कहा.

चाय तिपाई पर रख कर वे दोनों रात के खाने का इंतजाम करने चले गए. कबीर कमरे में अकेला पड़ा सोच रहा था, ‘कुदरत का बरताव सब के साथ समान है… क्या अमीर, क्या गरीब, सब को एक जगह ला कर खड़ा कर देती है… और ये लोग… कितनी जद्दोजेहद भरी है इन की जिंदगी. दिनरात इन्हीं मुसीबतों से जूझते रहते हैं. आलीशान बंगलों में रहने वालों को इस से कोई सरोकार नहीं होता. कैसे हो? कभी इस जद्दोजेहद को अनुभव ही नहीं किया…’

कबीर आत्मग्लानि से भर उठा था. यह उस की जिंदगी का वह पल था जब उस ने जाना कि सबकुछ क्षणिक है. इनसानियत ही सब से बड़ी दौलत है. बारिश ने उस के तन को ही नहीं, बल्कि मन को भी भिगो दिया था. कबीर फूटफूट कर रो रहा था. उस के मन से अमीरीगरीबी का फर्क जो मिट गया था.

आस्था : कुंभ में स्नान करने का क्या मिला फल

रात के 8 बज चुके थे. पुष्पेंद्रजी अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. पत्नी बारबार घड़ी की तरफ बेचैनी से देख रही थीं. सोच रही थीं कि रोज शाम 6 बजे के पाबंद पतिदेव को आज क्या हो गया? इतनी देर तो कभी नहीं होती… तभी उन्हें सहसा याद आया कि सुबह उन्होंने गरज कर यही कहा था कि आज कुंभ के लिए कन्फर्म टिकट ले कर ही आना है.

इतने में बाहर गाड़ी के आने की आवाज कानों में पड़ी. गाड़ी की आवाज से पत्नी भलीभांति परिचित थीं और श्रीमानजी के आने का संकेत उन्हें मिल चुका था.

पुष्पी ने खीजते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आज भी रिजर्वेशन करा लाए या मुंह लटका कर चले आए?’’

शांत स्वभाव के पुष्पेंद्रजी ने कहा, ‘‘एजेंट से कह आया हूं कि टिकट के इंतजाम में कितने भी रुपए लगें, करवा देना, वरना घर पहुंच कर मेरी खैर नहीं.’’

यह सुन कर पत्नी ने कुछ राहत की सांस ली और यह सोच कर मुसकराईं, ‘चलो, मेरा कुछ तो इन पर असर है.’

सारा मामला कुंभ स्नान से जुड़ा हुआ था. उज्जैन में कुंभ शुरू होने वाला था. पत्नी चाहती थीं कि 14 को ही पहुंच कर कुंभ के पहले स्नान का लाभ ले लिया जाए.

चाय पी कर पुष्पेंद्रजी अखबार पकड़ने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी. सोच के मुताबिक फोन एजेंट का ही था. उस ने कहा, ‘सर, रिजर्वेशन तो हो गया है, लेकिन भक्तों की भीड़ के चलते 14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट मिले हैं, वे भी हर टिकट के एक हजार रुपए ज्यादा देने पर.’पुष्पेंद्रजी के लिए यह हैरानी की बात थी कि टिकट की कीमत है 8 सौ रुपए और ऐक्स्ट्रा हजार रुपए. उन्हें समझ नहीं आया कि हजार रुपए ज्यादा देने के लिए रोएं या टिकट मिलने की खुशी मनाएं. फिर उन्हें लगा कि एक पति को आदर्श पति का दर्जा हासिल करने के लिए पत्नी की मांगों को सिरआंखों पर रखना पड़ता है. फिर यहां तो धार्मिक आस्था का भी सवाल है.

पुष्पेंद्रजी गाड़ी उठा कर टिकट लाने चले गए और थोड़ी देर बाद उन्होंने टिकटों को पत्नी के सुपुर्द कर राहत की सांस ली. पर यह क्या, 20 तारीख के टिकट देख कर पुष्पेंद्रजी की पत्नी बिफर पड़ीं. घर का सारा माहौल अशांत हो गया.

14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट श्रीमतीजी को गंवारा नहीं थे. सो, गुस्से में उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप खुद टिकट लेने जाते, तो यह नौबत नहीं आती. अपना काम खुद करना चाहिए, एजेंटों  के भरोसे रहोगे, तो काम ऐसा ही होगा. आखिरकार दफ्तर में करते ही क्या हो, सिवा अपना और दूसरों का टिफिन खाने के?’’

पुष्पेंद्रजी शांत स्वभाव के जरूर थे, पर वे नटखट भी कम नहीं थे. उन्हें भी कभीकभी सांप की पूंछ पर पैर रखने में मजा आता था.

उन्होंने पत्नी के गले में प्यार से बांहें डाल कर कहा, ‘‘टिकट का रिजर्वेशन क्या मेरे ससुरजी के हाथ में है, जो हमारी मरजी से टिकट देगा. फिर प्राणप्यारी, अगर 14 की जगह 20 को स्नान कर लेंगे, तो न हमें पाप लगेगा और न ही हमारे पुण्य में कोई कमी हो जाएगी.’’

यह सुन कर पुष्पी ने आंखें लाल कीं, तो पुष्पेंद्रजी ने नजरें नीचे कीं.

पुष्पेंद्रजी के बड़े भाई गजेंद्रजी थे. खाने की चीजों के प्रति अटूट लालसा के चलते बचपन से ही लोग उन्हें प्यार से गजेंद्र कहने लगे थे. गजेंद्रजी आकार में गज के समान थे, तो उन की पत्नी गौरी की जबान गज भर की थी.

धार्मिकता के एकदम महीन कपड़े उन्होंने भी पहन रखे थे. भक्ति व धार्मिक कामों में दोनों देवरानीजेठानी एक से बढ़ कर एक थीं. इस मुद्दे पर किसी दूसरे को बोलने का हक नहीं था.

कुलमिला कर कहा जाए, तो धार्मिक नजरिए से उन का घर एक मंदिर था, दोनों भाइयों की पत्नियां पुजारिन थीं और बाकी सदस्य भक्त थे.

घर में धार्मिकता व पत्नीभक्ति का आलम यह था कि पत्नी के पदचिह्नों पर चलना पतियों के लिए जरूरी परंपरा थी.

इस की मजबूत नींव उन के पूज्य दादाजी व पिताजी ने पहले ही रख दी थी. पत्नीभक्ति की परंपरा उन तक ही नहीं सिमटी थी, बल्कि उन के दोनों बेटों ने भी इसी राह पर चलने का व्रत ले रखा था.

आखिरकार 20 तारीख आ ही गई. घर पर चौकीदार को छोड़ कर सारा परिवार कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ा.

कुंभ की भीड़ का यह नजारा था कि मुट्ठीभर रेत फेंकने पर वह नीचे न गिर कर लोगों के सिर पर ही गिरती. इन हालात में वहां ठहरने का इंतजाम करना आसान नहीं था. हर कारोबारी इस कुंभ में इतना कमा लेना चाहता था कि उस का मुनाफा आगे आने वाले कुंभ तक चले.

पंडे तो अपनेआप को भगवान का एजेंट बता र थे. वे इस बात का यकीन दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे कि उन के बिना भगवान तक पहुंचा ही नहीं जा सकता.

होटल, खानेपाने की चीजें व पूजा से संबंधित हरसामान, आभूषण वगैरह कई गुना ज्यादा दामों पर बेचे जा रहे थे. खरीदने वालों में भी कम जोश नहीं था. भले ही घर में झगड़ा कर के आए हों या जमीन गिरवी रख कर आए हों, लेकिन पुण्य कमाने की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था.

पुष्पेंद्रजी ने कुछ बुजुर्गों से उन के आने की वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि अगले 12 सालों तक उन के रहने की गारंटी नहीं है, इसीलिए वे तनमनधन से इसी कुंभ में स्नान कर के पुण्य कमाने आए हैं.

पुष्पेंद्रजी ने कहा कि लंबी जिंदगी की गारंटी व सारी इच्छाएं पूरी होने के लिए तो यहां आए हो, फिर कहते हो कि गारंटी नहीं है.

इस का मतलब है कि आप को कुंभ स्नान व भगवान में विश्वास नहीं है. मामला विश्वास और अविश्वास के बीच झूल रहा था. होटल वाले एक दिन के लिए  10 हजार रुपयों की मांग कर रहे थे. अमीर गजेंद्रजी को भी एक बार सोचना पड़ गया. उन्होंने महिला मंडली से कहा कि एक दिन स्नान कर के लौट आएंगे, लेकिन पत्नियों की भक्ति फिर आड़े आ गई.

दोनों ने एक आवाज में कहा कि इतनी दूर आने के बाद पति के साथ कम से कम 3 स्नान जरूरी हैं, नहीं तो सारा पुण्य मिट्टी में मिल जाएगा.

दूसरे दिन सब सुबहसुबह उठ गए और पंडे को खोजने की सोच रहे थे कि उन की इच्छा तुरंत पूरी हो गई, क्योंकि पंडे ने खुद ही उन्हें खोज लिया था.

पंडे ने सारे विधिविधान से स्नान और पूजा करने का ठेका 20 हजार रुपए में ले लिया. परिवार के सभी सदस्यों ने पंडे का साथ दिया, क्योंकि जीवन में अच्छे दिन जो आने वाले थे. नदी पर फैली गंदगी और पानी का रंग देख कर तो पुष्पेंद्रजी का मन कसैला हो गया.

उन्होंने गंदा पानी देख कर कहा कि इस में डुबकी लगा कर पुण्य कमाने की तुलना में पाप क्या बुरा है? पुण्य मिलेगा या नहीं, पर बीमारियों का आना तय है.

पंडे ने कुछ मंत्र पढ़ कर पतिपत्नी को एकदूसरे का हाथ पकड़ कर डुबकी लगाने व भगवान से अगले 7 जन्मों में भी पतिपत्नी बने रहने का वरदान मांगने को कहा.

गजेंद्रपुष्पेंद्रजी ने बुदबुदाते हुए कहा कि यही जन्म इन के साथ भारी पड़ रहा है और पंडा है कि 1-2, नहीं पूरे 7 जन्मों तक मारने पर तुला है.

पुष्पेंद्रजी ने मजाक भरे लहजे में पंडे से पूछा, ‘‘भैया, आप ने अपनी पत्नी के साथ अभी तक डुबकी लगाई है कि नहीं? क्योंकि धार्मिकता का पूरा ठेका आप ने ही ले रखा है.’’

पंडा भी घुटापिटा था. उस ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘डुबकी मैं भी रोज लगाता हूं, लेकिन अपनी पत्नी के साथ नहीं.’’

3 दिन जैसेतैसे कटे. होटल खाली कर जैसे ही स्टेशन पहुंचे, पता चला कि आगे मालगाड़ी पटरी से उतर गई है और 2 दिन तक गाडि़यां नहीं चलेंगी.

यह सुन कर दोनों भाइयों में पहाड़ टूट पड़ा, क्योंकि उन की हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गई, घर का न घाट का. भाइयों ने चिढ़ते हुए महिला मंडली पर आक्रामक मुद्रा में कहा कि लो, यहीं से अच्छे दिन शुरू हो गए.

सारा परिवार 2 दिन तक ठसाठस भरी धर्मशाला में रुका. धर्मशाला की भीड़ में गौरी की 2 तोले की सोने की चैन गायब हो गई. लेकिन उस ने डर और उलाहने की वजह से किसी को नहीं बताया.

2 दिन बाद वे सभी गाड़ी में चढ़े, तो पता चला कि रिजर्वेशन का डब्बा नहीं लग पाया और सब को जनरल डब्बे में सफर करना पड़ेगा. जनरल डब्बे की बात सुन कर गजेंद्रजी के होश उड़ गए, क्योंकि पिछले 20 सालों से उन्होंने हवाईजहाज या रेलगाड़ी में एयरकंडीशंड क्लास से कम में सफर नहीं किया था.

वे आधी दूर ही पहुंचे थे कि पड़ोसी का फोन आया कि सिक्योरिटी गार्ड घर का सामान ले कर चंपत हो गया है. यह सुन कर पुष्पेंद्रजी ने अपने बाल नोच कर कहा, ‘‘जिंदगी में इस से ज्यादा और बुराई क्या हो सकती है. जिस सिक्योरिटी गार्ड के भरोसे अपने घर को रखा, वही चोर निकला. और हम सब यहां अच्छाई बटोरने आए थे.’’

कुंभ स्नान के बाद उन्हें यह तीसरा झटका लग चुका था. पता नहीं, आगे और क्याक्या होगा. घर पहुंचे, तो पोतों ने कहा कि शरीर में जबरदस्त खुजली हो रही है.

पुष्पेंद्रजी ने मन ही मन कहा कि बेटा, मुझे भी माली व जिस्मानी खुजली हो रही है. गंदे व कीचड़ वाले पानी में नहाने पर खुजली नहीं होगी, तो क्या काया कंचन की हो जाएगी. फर्क यही है कि तुम कह रहे हो, लेकिन मैं बता नहीं पा रहा हूं.

पुण्य कमाने के चक्कर में अब तक डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा ही खर्च हो चुके थे. उन्होंने कहा कि इतने रुपए में पूरा परिवार घर में ही सालभर बोतलबंद पानी में डुबकी लगा सकता था, पर पत्नियों की धार्मिक आस्था का भी जवाब नहीं था.

उन्होंने कहा कि दुख मत मनाइए, ये सब दुर्घटनाएं पिछले कुंभ में स्नान न करने का फल हैं. इस बार के स्नान का फल आने वाले समय में जरूर मिलेगा, सब्र रखिए. यह सुन कर दोनों भाई हैरानी से एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

Valentine’s Day 2024: प्यार असफल है तुम नहीं रक्षित

एक हार्ट केयर हौस्पिटल के शुभारंभ का आमंत्रण कार्ड कोरियर से आया था. मानसी ने पढ़ कर उसे काव्य के हाथ में दे दिया. काव्य ने उसे पढ़ना शुरू किया और अतीत में खोता चला गया…

उस ने रक्षित का दरवाजा खटखटाया. वह उस का बचपन का दोस्त था. बाद में दोनों कालेज अलगअलग होने के कारण बहुत ही मुश्किल से मिलते थे. काव्य इंजीनियरिंग कर रहा था और रक्षित डाक्टरी की पढ़ाई. आज काव्य अपने मामा के यहां शादी में अहमदाबाद आया हुआ था, तो सोचा कि अपने खास दोस्त रक्षित से मिल लूं, क्योंकि शादी का फंक्शन शाम को होना था. अभी दोपहर के 3-4 घंटे दोस्त के साथ गुजार लूं. जीभर कर मस्ती करेंगे और ढेर सारी बातें करेंगे. वह रक्षित को सरप्राइज देना चाहता था.

उस के पास रक्षित का पता था क्योंकि अभी उस ने पिछले महीने ही इसी पते पर रक्षित के बर्थडे पर गिफ्ट भेजा था. दरवाजा दो मिनट बाद खुला, उसे आश्चर्य हुआ पर उस से ज्यादा आश्चर्य रक्षित को देख कर हुआ. रक्षित की दाढ़ी बेतरतीब व बढ़ी हुई थी. आंखें धंसी हुई थीं जैसे काफी दिनों से सोया न हो. कपड़े जैसे 2-3 दिन से बदले न हों. मतलब, वह नहाया भी नहीं था. उस के शरीर से हलकीहलकी बदबू आ रही थी, फिर भी काव्य दोस्त से मिलने की खुशी में उस से लिपट गया. पर सामने से कोई खास उत्साह नहीं आया.

‘क्या बात है भाई, तबीयत तो ठीक है न,’ उसे आश्चर्य हुआ रक्षित के व्यवहार से, क्योंकि रक्षित हमेशा काव्य को देखते ही चिपक जाता था.

‘अरे काव्य, तुम यहां, चलो अंदर आओ,’ उस ने जैसे अनमने भाव से कहा. स्टूडैंट रूम की हालत वैसे ही हमेशा खराब ही होती है पर रक्षित के रूम की हालत देख कर लगता था जैसे एक साल से कमरा बंद हो. सफाई हुए महीनों हो गए हों. पूरे कमरे में जगहजगह जाले थे. किताबों पर मिट्टी जमा थी. किताबें अस्तव्यस्त यहांवहां बिखरी हुई थीं. काव्य ने पुराना कपड़ा ले कर कुरसी साफ की और बैठा. उस से पहले ही रक्षित पलंग पर बैठ चुका था जैसे थक गया हो.

काव्य अब आश्चर्य से ज्यादा दुखी व स्तब्ध था. उसे चिंता हुई कि दोस्त को क्या हो गया है? ‘‘तबीयत ठीक है न? यह क्या हालत बना रखी है खुद की व कमरे की? 2-3 बार पूछने पर उस ने जवाब नहीं दिया, तो काव्य ने कंधों को पकड़ कर पूछा तो रक्षित की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ कहने की जगह वह काव्य से चिपक गया, तकलीफ में जैसे बच्चा अपनी मां से चिपकता है. वह फफकफफक कर रोने लगा. काव्य को कुछ भी समझ न आया. कुछ देर तक रोने के बाद वह इतना ही बोला, ‘भाई, मैं उस के बिना जी नहीं सकता,’ उस ने सुबकते हुए कहा.

‘किस के बिना जी नहीं सकता? तू किस की बात कर रहा है?’ दोनों हाथ पकड़ कर काव्य ने प्यार से पूछा.

‘आम्या की बात कर रहा हूं.’

‘ओह तो प्यार का मामला है. मतलब गंभीर. यह उम्र ही ऐसी है. जब काव्य कालेज जा रहा था तब उस के गंभीर पापा ने उसे एकांत में पहली बार अपने पास बिठा कर इस बारे में विस्तार से बात की. अपने पापा को इस विषय पर बात करते हुए देख कर काव्य को घोर आश्चर्य हुआ था. पर जब पापा ने पूरी बात समझाई व बताई, तब उसे अपने पापा पर नाज हुआ कि उन्होंने उसे कुएं में गिरने से पहले ही बचा लिया.

‘ओह,’ काव्य ने अफसोसजनक स्वर में कहा.

‘रक्षित, तू एक काम कर. पहले नहाधो और शेविंग कर के फ्रैश हो जा. तब तक मैं पूरे कमरे की सफाई करता हूं. फिर मैं तेरी पूरी बात सुनता हूं और समझाता हूं,’ काव्य ने अपने दोस्त को अपनेपन से कहा. काव्य सफाईपसंद व अनुशासित विद्यार्थी की तरह था. रो लेने के कारण उस का मन हलका हो गया था.

‘अरे काव्य, सफाई मैं खुद ही कर दूंगा. तू तो मेहमान है.’ काव्य को ऐसा बोलते हुए रक्षित हड़बड़ा गया.

‘अरे भाई, पहले मैं तेरा दोस्त हूं. प्लीज, दोस्त की बात मान ले.’ अब दोस्त इतना प्यार और अपनेपन से कहे तो कौन दोस्त की बात न माने. काव्य ने समझ कर उसे अटैच्ड बाथरूम में भेज दिया, क्योंकि ऐसे माहौल में न तो वह ढंग से बता सकता है और न वह सुन सकता है. पहले वह फ्रैश हो जाए तो ढंग से कहेगा.

काव्य ने किताब और किताबों की शैल्फ से शुरुआत की और आधे घंटे में एक महीने का कचरा साफ कर लिया. काव्य होस्टल में सब से साफ और व्यवस्थित कमरा रखने के लिए प्रसिद्ध था.

आधे घंटे बाद जब रक्षित बाथरुम से निकला तो दोनों ही आश्चर्य में थे. रक्षित एकदम साफ और व्यवस्थित कक्ष देख कर और काव्य, रक्षित को क्लीन शेव्ड व वैलड्रैस्ड देख कर.

‘वाऊ, तुम ने इतनी देर में कमरे को होस्टल के कमरे की जगह होटल का कमरा बना दिया भाई. तेरी सफाई की आदत होस्टल में जाने के बाद भी नहीं बदली,’ रक्षित सफाई से बहुत प्रभावित हो कर बोला.

‘और तेरी क्लीन शेव्ड चेहरे में चांद जैसे दिखने की,’ चेहरे पर हाथ फेरते हुए काव्य बोला. अब रक्षित काफी रिलैक्स था.

‘भैया चाय…’ दरवाजे पर चाय वाला चाय के साथ था.

‘अरे वाह, क्या कमरा साफ किया है आप ने,’ कमरे की चारों तरफ नजर घुमाते हुए छोटू बोला तो रक्षित झेंप गया. वह रोज सुबहसुबह चाय ले कर आता है, इसलिए उसे कमरे की हालत पता थी.

‘अरे, यह मेरे दोस्त का कमाल है,’ काव्य के कार्य की तारीफ करते हुए रक्षित मुसकराते हुए बोला, ‘अरे, तुम्हें चाय लाने को किस ने बोला?’

‘मैं ने बोला. दीवार पर चाय वाले का फोन नंबर था.’

‘थैंक्यू काव्य. चाय पीने की बहुत इच्छा थी,’ रक्षित ने चाय का एक गिलास काव्य को देते हुए कहा. दोनों चुपचाप गरमागरम चाय पी रहे थे.

चाय खत्म होने के बाद काव्य बोला, ‘अब बता, क्या बात है, कौन है आम्या और पूरा माजरा क्या है?’ आम्या की बात सुन कर रक्षित फिर से मायूस हो गया, फिर से उस के चेहरे पर मायूसी आ गई. हाथ कुरसी के हत्थे से भिंच गए.

‘मैं आम्या से लगभग एक साल पहले मिला था. वह मेरी क्लासमेट लावण्या की मित्र थी. लावण्या की बर्थडे पार्टी में हम पहली बार मिले थे. हमारी मुलाकात जल्दी ही प्रेम में बदल गई. वह एमबीए कर रही थी और बहुत ही खूबसूरत थी. मैं सोच भी नहीं सकता कि कालेज में मेरी इतनी सारी लड़कियों से दोस्ती थी पर क्यों मुझे आम्या ही पसंद आई. मुझे उस से प्यार हो गया. शायद वह समय का खेल था. हम लगभग रोज ही मिलते थे. मेरी फाइनल एमबीबीएस की परीक्षा के दौरान भी मुझ में उस की दीवानगी छाई हुई थी. वह भी मेरे प्यार में डूबी हुई थी.

‘मैं अभी तक प्यारमोहब्बत को फिल्मों व कहानियों में गढ़ी गई फंतासी समझता था. जिसे काल्पनिकता दे कर लेखक बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं. पर अब मेरी हालत भी वैसे ही हो गई, रांझा व मजनूं जैसी. मैं ने तो अपना पूरा जीवन उस के साथ बिताने का मन ही मन फैसला कर लिया था और आम्या की ओर से भी यही समझता था. मुझ में भी कुछ कमी नहीं थी, मुझ में एक परफैक्ट शादी के लिए पसंद करने के लिए सारे गुण थे.’

‘तो फिर क्या हुआ दोस्त?’ काव्य ने उत्सुकता से पूछा.

‘मेरी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं हृदयरोग विशेषज्ञ बनने के लिए आगे की तैयारी के लिए पढ़ाई कर रहा था. एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘सुनो, पापा तुम से मिलना चाहते हैं.’ वह खुश और उत्साहित थी.

‘क्यों?’ मुझे जिज्ञासा हुई.

‘हम दोनों की शादी के सिलसिले में,’ उस ने जैसे रहस्य खोलते हुए कहा.

‘शादी? वह भी इतनी जल्दी’ मैं ने हैरानगी से कहा.

‘मैं आम्या को चाहता था पर अभी शादी के लिए विचार भी नहीं किया था.

‘हां, मेरे दादाजी की जिद है कि मेरी व मेरी छोटी बहन की शादी जल्दी से करें,’ आम्या ने शादी की जल्दबाजी का कारण बताया और जैसी शांति से बता रही थी उस से तो ऐसा लगा कि उसे भी जल्द शादी होने में आपत्ति नहीं है.

‘अभी इतनी जल्दी यह संभव नहीं है. मेरा सपना हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का है और मैं अपना सारा ध्यान अभी पढ़ाई में ही लगाना चाहता हूं,’ मैं ने उसे अपने सपने के बारे में और अभी शादी नहीं कर सकता हूं, यह सम?ाया. ‘उस के लिए 2-3 साल और रुक जाओ. फिर हम दोनों जिंदगीभर एकदूसरे के हो जांएगे,’ मैं ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘नहीं रक्षित, यह संभव नहीं है. मेरे पिता इतने साल तक रुक नहीं सकते. मेरे पीछे मेरी बहन का भी भविष्य है,’ जैसे उस ने जल्दी शादी करने का फैसला ले लिया हो.

‘मैं ने उसे बहुत समझाया. पर उस ने अपने पिता के पसंद किए हुए एनआरआई अमेरिकी से शादी कर ली और पिछले महीने अमेरिका चली गई और पीछे छोड़ गई अपनी यादें और मेरा अकेलापन. मैं सोच नहीं सकता कि आम्या मुझे छोड़ देगी. मैं दुखी हूं कि मेरा प्यार छिन गया. मैं ने उसे मरने की हद तक चाहा. काव्य, मेरा प्यार असफल हो गया. मझ में कुछ भी कमी नहीं थी. फिर भी क्यों मेरे साथ समय ने ऐसा खेल खेला.’

रक्षित फिर से रोने लगा और रोते हुए बोला, ‘बस, तभी से मुझे न भूख लगती है न प्यास. एक महीने से मैं ने एक अक्षर की भी पढ़ाई नहीं की है. मेरा अभी विशेषज्ञ प्रवेश परीक्षा का अगले महीने ही एग्जाम है. यों समझ कि मैं देवदास बन गया हूं.’ वह फिर से काव्य के कंधे पर सिर रख कर बच्चों जैसा रोने लगा.

‘देखो रक्षित, इस उम्र में प्यार करना गलत नहीं है. पर प्यार में टूट जाना गलत है. तुम्हारा जिंदगी का मकसद हमेशा ही एक अच्छा डाक्टर बनना था न कि प्रेमी. देखो, तुम ने कितना इंतजार किया. बचपन में तुम्हारे दोस्त खेलते थे, तुम खेले नहीं. तुम्हारे दोस्त फिल्म देखने जाते, तो तुम फिल्म नहीं देखते थे. तुम्हारा भी मन करता था अपने दोस्तों के साथ गपशप करने का और यहां तक कि रक्षित, तुम अपनी बहन की शादी में भी बरातियों की तरह शाम को पहुंच पाए थे, क्योंकि तुम्हारी पीएमटी परीक्षा थी. वे सारी बातें अपने प्यार में  भूल गए.

‘आम्या तो चली गई और फिर कभी वापस भी नहीं आएगी तुम्हारी जिंदगी में. और यदि आज तुम्हें आम्या ऐसी हालत में देखेगी तो तुम पर उसे प्यार नहीं आएगा, बल्कि नफरत करेगी और सोचेगी कि अच्छा हुआ कि मैं इस व्यक्ति से बच गई जो एक असफलता के कारण, जिंदगी से निराश, हताश और उदास हो गया और अपना जिंदगी का सपना ही भूल गया. क्या वह ऐसे व्यक्ति से शादी करती?

‘सोचो रक्षित, एक पल के लिए भी. एक दिल टूटने के कारण क्या तुम भविष्य में लाखों दिलों को टूटने दोगे,  इलाज करने के लिए वंचित रखोगे. इस मैडिकल कालेज में आने, इस अनजाने शहर में आने, अपना घर छोड़ने का मकसद एक लड़की का प्यार पाना था या फिर बहुत सफल व प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का था? तुम्हें वह सपना पूरा करना है जो यहां आने से पहले तुम ने देखा था.

‘रक्षित बता दो दुनिया को और अपनेआप को भी कि तुम्हारा प्यार असफल हुआ है, पर तुम नहीं और न ही तुम्हारा सपना असफल हुआ है. और यह बात तुम्हें खुद ही साबित करनी होगी,’ काव्य ने उसे समझया.

‘तुम सही कहते हो काव्य, मेरा लक्ष्य, मेरा सपना, सफल प्रेमी बनने का नहीं, एक अच्छा डाक्टर बनने का है. थैंक्यू तुम्हें दोस्त, यह सब मुझे सही समय पर याद दिलाने के लिए,’ काव्य के गले लग कर, दृढ़ता व विश्वास से रक्षित बोला.

‘‘कार्ड हाथ में ले कर कब से कहां खो गए हो?’’ मानसी ने अपने पति काव्य को झिझड़ कर पूछा, ‘‘अरे, कब तक सोचते रहोगे. कुछ तैयारी भी करोगे? कल ही रक्षित भैया के हार्ट केयर हौस्पिटल के उद्घाटन में जोधपुर जाना है,’’ मानसी ने उस से कहा तो वह मुसकरा दिया.

मजाक: सरकार की पोल खोलता खिचड़ी वाला स्कूल

मैं हैरान हो गया ‘खिचड़ी’ शब्द को ले कर. उस मैसेज का मतलब था उन सरकारी स्कूलों से जिन में सरकार द्वारा मिड डे मील योजना लागू है और जिन में बच्चे केवल खिचड़ी खाने के लिए जाते हैं, पढ़ने के लिए नहीं.

खैर, वह तो मैसेज था खिचड़ी को ले कर, पर हकीकत पर ध्यान दिया जाए तो यह विचार आम लोगों की सोच से भी जुड़ा हो सकता है. सरकार करना कुछ और चाहती है, पर समाज में कुछ और मैसेज जाता है. सरकार तो बच्चों की पढ़ाई के साथसाथ उन के पोषण लैवल में सुधार करना चाहती है, पर कुछ लोगों की सोच ही बड़ी अजीब है.

उसी सोच के लोगों के घोर असर से मेरा घर भी बच न सका. मैं एक दिन जब औफिस से घर आया, तो मेरी पत्नी ने अपनी खिचड़ी अलग पकाई हुई थी. वह बोली, ‘‘आप ईशान को प्राइवेट स्कूल में क्यों नहीं डाल देते?’’

आप जरा सोचिए कि ईशान अभी  2 साल का ही है और उस की पढ़ाई की चिंता मेरी धर्मपत्नी को हो गई है, वह भी प्राइवेट स्कूल में.

अपने देश में स्कूलों पर सरकारी शब्द का ठप्पा लग जाने से न जाने क्यों लोगों को चिढ़ हो जाती है. सरकारी नौकरी तो सब करना चाहते हैं, पर सरकारी स्कूल में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है. जैसे प्यार तो सभी करना चाहते हैं या लिव इन रिलेशन में तो सभी रहना चाहते हैं, पर शादी के नाम से ही आज की तथाकथित नौजवान पीढ़ी को चिढ़ हो जाती है.

मैं ने दूसरे दिन ही एक प्राइवेट प्ले स्कूल में अपने लाड़ले को भरती करवा दिया था. वहां पर बच्चों के लिए खेलने का पार्क, स्विमिंग पूल व मनोरंजन की ढेर सारी सुविधाएं थीं. 15,000 रुपए तत्काल दे कर यह रस्म पूरी की गई थी. हर महीने 500 रुपए की स्कूल फीस और वैन का किराया 800 रुपए तय था.

रोजाना बच्चे के लिए अलग रंग का यूनिफौर्म, निर्देशित नाश्ता व और भी बहुत सारी गतिविधियां थीं.

2 साल बाद ईशान को प्ले स्कूल से निकाल रहा था, तो मैं ने यह महसूस किया कि यह तो सचमुच प्ले स्कूल था, जो आज तक ईशान एबीसीडी भी पूरी तरह नहीं सीख पाया था.

ईशान जरा सा बड़ा हुआ और मैं जन्म प्रमाणपत्र ले कर प्राइवेट स्कूलों के चक्कर लगाने लगा था. एक स्कूल के बाद दूसरा, फिर तीसरा.

मुझे इस बात का थोड़ा सा भी इल्म नहीं था कि अभी ईशान तो एबीसीडी या कखगघ ही सीखेगा, तो इतने हाईप्रोफाइल स्कूल की क्या जरूरत? पर मैं गलत था. आजकल की इंगलिश मिक्स खिचड़ी भाषा की संस्कृति लोगों के दिलोदिमाग पर छा गई थी, शायद यही जरूरत थी.

पूरे शहर को छान मारने के बाद मेरी तलाश खत्म हो गई. एक प्राइवेट स्कूल ही हाथ लगा. मैं बहुत ही लकी था कि मेरा ईशान सरकारी स्कूल में न पढ़ कर एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ेगा.

एडमिशन के लिए बच्चे का रिटर्न टैस्ट, इंटरव्यू व मम्मीपापा का भी इंटरव्यू (वह भी इंगलिश में) की खानापूरी के बाद एडमिशन हो गया.

तकरीबन 70,000 रुपए दे कर एडमिशन की रस्म निभा दी थी. मुझे एक स्लिप मिली, जिस पर कुछ जरूरी तारीखें लिखी थीं, जैसे किताबें कब मिलेंगी, कब स्कूल की यूनिफौर्म मिलेगी, कितने रुपए लगेंगे और कब से स्कूल खुलेगा वगैरह.

मेरे ऊपर तकरीबन 10,000 से 12,000 रुपए का और धक्का था और इस के अलावा हर महीने स्कूल फीस व बस किराया, कुलमिला कर तकरीबन 5,000 रुपए की और चपत थी.

वह दिन अब आ गया था, जब स्कूल की किताबें व यूनिफौर्म मिलने वाली थी. मैं दिए गए समय पर पहुंच गया था. जितना बजट स्कूल की स्लिप यानी नोटिस में था, उतना ही मैं इंतजाम कर के गया था, पर उस धक्के से जरा सा कुछ बड़ा धक्का था यानी 2,000 रुपए की और चपत लग गई थी, पर फिर भी मैं बहुत ही खुश था, क्योंकि अब मेरी और मेरी पत्नी की खिचड़ी एक थी.

यूनिफौर्म, किताबें, कोट, टाई, बैल्ट व बैज पा कर मेरी पत्नी बहुत ही ज्यादा खुश थी, क्योंकि पड़ोसी के बच्चे उस से ज्यादा अच्छे स्कूल में नहीं थे.

मेरी धर्मपत्नी पड़ोसी के बच्चों को मुंह चिढ़ा रही थी अपने बच्चे का एडमिशन ऐसे स्कूल में करा कर. यह बड़े ही गर्व की बात थी कि मैं अपने ईशान को सरकारी स्कूल में न पढ़ा कर प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहा था, जहां मुफ्त की किताबें, यूनिफौर्म, जूतेमोजे, स्कूल बैग, साइकिल, लैपटौप, स्कौलरशिप, महीने की फीस और खिचड़ी (तहरी) भी नहीं मिलती थी.

एक दिन बड़े गौर से देख रहा था कि स्कूल की हर चीजों पर स्कूल का नाम लिखा था. शर्ट, पैंट, कोट, टाई, बैज, बैग, कौपीकिताबों के ऊपर प्लास्टिक का कवर, नेम स्लिम यहां तक कि मोजे तक पर भी स्कूल का नाम ही लिखा था.

मैं तो सोच रहा था कि शायद अंडरवियर, बनियान पर भी स्कूल का नाम जरूरी न कर दिया जाए, पर गनीमत थी कि वे दायरे से बाहर थे.

स्कूल खुलने के साथ ईशान को रोज कोई न कोई एक नोटिस मिल जाया करता था. एक दिन एक नोटिस मिला जैसे कोई मैगा माल का बंपर औफर हो. नोटिस में लिखा हुआ था कि आप पूरे साल की फीस अगर एक बार में देते हैं, तो ट्यूशन फीस में एक महीने का डिस्काउंट मिल जाएगा.

मैं बहुत ही पसोपेश में था कि यह मैगा माल का औफर है या स्कूल. एक ही बार में तकरीबन 60,000 रुपए देना मुमकिन न हो पाया और न ही बंपर औफर का फायदा ले पाया.

कुछ दिन बाद ही पैरेंटटीचर मीटिंग का त्योहार आ गया. स्कूल को बहुत ही करीने से सजाया गया था.

पैरेंटटीचर मीटिंग में जब मैं गया, तो अपने बच्चे ईशान का तिमाही रिपोर्टकार्ड देखने को बोला गया, फिर टीचर से बात करने का मौका मिला. नंबर तो कोई खास नहीं आए थे.

मैं ने इस की शिकायत की, तो वे बोलने लगीं, ‘‘यह पढ़ता ही नहीं है. मैं सिलेबस देती हूं, तो बस उसी की प्रैक्टिस कराया करें. घर पर आप खुद पढ़ाएं. ऐसा नहीं है तो हो सके तो कोई ट्यूटर रख लें. आप तो देख ही रहे हैं कि कितना कंपीटिशन है.’’

सालभर तक त्योहारों का सिलसिला  रुका नहीं. स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे, पीटीएम डे, फेट डे, आर्ट गैलरी डे और बहुत सारे डे के बाद फिर रीएडमिशन डे भी आ गया, जिस में उसी स्कूल में दोबारा एडमिशन की जरूरत थी. इस में तकरीबन 20,000 रुपए का और हलका धक्का नहीं, एक छोटा हार्ट अटैक लगने वाला था. फिर भी इतना सब झेलने के बाद उस स्कूल में बने रहने के लिए हम खिचड़ी (शादी में होने वाली एक रस्म) खाने को मजबूर थे, क्योंकि सोसाइटी की बात थी.

कुछ दिन पहले ही मेरे ह्वाट्सएप पर एक कार्टून मैसेज आया था. टीचर के सामने एक बच्चा ले कर बाप खड़ा है और कुछ संदेश छपा है. टीचर बोलती?है, ‘सबकुछ स्कूल से मिलेगा, जैसे किताबें, यूनिफौर्म, जूते, टाईबैल्ट, स्पोर्ट्स यूनिफौर्म और स्कूल बैग भी.’

इस पर बाप ने पूछा, ‘और ऐजूकेशन…?’

टीचर ने जवाब दिया, ‘इस के लिए तो ट्यूशन है.’

यह कार्टून तो एक मजाकभर था, पर हकीकत से ज्यादा दूर न था. अब तो प्राइवेट स्कूल केवल मैगा माल बन कर रह गए?हैं और पढ़ाईलिखाई के लिए घर पर ट्यूशन लेना जरूरी हो गया है.

एक दिन किसी काम से मुझे स्कूल जाने का मौका मिला. मैं ने देखा कि रिसैप्शन पर खिचड़ी बाल लिए एक सुंदर महिला बैठी हुई थीं. उन्हीं के ऊपर की दीवार पर एक बड़े से सुनहरे फ्रेम में व्यापार कर के फौर्म की प्रतिलिपि टंगी हुई थी.

मैं सोच में पड़ गया कि यह तो सचमुच व्यापार है, जिस में प्राइवेट स्कूल (सोसाइटी के तहत) चाहे जितना मनमानी कमा लें, पर स्कूल की इनकम पर कोई टैक्स नहीं था.

हमें इस समस्या से उबरने की जरूरत है. क्या सचमुच सोच में बदलाव की जरूरत है? मैं ने सुना है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों से नाम कटा कर अभिभावक सरकारी स्कूलों में अपने बच्चे को भरती कर रहे हैं. दिल्ली सरकार की अच्छी सोच का ही नतीजा है. पूरे देश में जयजयकार हो रही है. दिल्ली स्कूल मौडल बन गया है.

दिल्ली सरकार ने दिल्ली में एक कोशिशभर की है, दिल्ली में अभीअभी ‘सुपर थर्टी’ के गुरु आनंद कुमार देख कर आए और बोले भी कि अगर ऐसा रहा तो सुपर थर्टी की जरूरत न पड़ेगी. अब तो दिल्ली में आनंद कुमार की दुकान खुलने की कोई उम्मीद न थी.

यकीन मानिए, अभी भी अपने देश की सब से बड़ी यूनिवर्सिटी, टैक्निकल ऐजूकेशन कालेज, सब से अच्छे कालेज, नवोदय विद्यालय, नेतरहाट विद्यालय मौडल व सिमुलतला स्कूल सरकारी ही हैं. अगर अभी भी यकीन नहीं आता तो जेएनयू, आईआईटी, सरकारी मैडिकल कालेज या नेतरहाट जैसे स्कूलों में दाखिला करा कर देख सकते हैं.

पर हमारी शिक्षा नीति में न जाने कहां से खिचड़ी पक गई कि आम जनमानस को क्यों यह लगने लगता है कि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई अच्छी होती है और सरकारी स्कूलों में खराब. मतलब यह कि हमें अपनी सोच में बदलाव लाने की जरूरत है. नई शिक्षा नीति, टीचर का वेतन सुधार, योग्य टीचर की कमी व टीचर भरती करने के तरीके में सुधार करना होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिस्कवरी चैनल पर आए ‘मैन वर्सेस वाइल्ड’ के प्रोग्राम में बीयर ग्रिल को एक इंटरव्यू दिया था. उस में उन्होंने खुद बोला था कि वे एक सरकारी स्कूल में पढ़े हैं. जरा सोचिए, सरकारी स्कूलों का कितना मान बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि सरकारी स्कूल में पढ़ा आदमी प्रधानमंत्री है.

आप समझ रहे हैं न कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार को खिचड़ी हो कर काम करना होगा, सरकारी योजनाओं को बीरबल की खिचड़ी नहीं बनाना होगा. शिक्षा का बजट किसी भी दूसरी योजनाओं से ज्यादा रखना होगा.

खिचड़ी (मिड डे मील योजना में तय सूची) की क्वालिटी, अच्छे स्कूल भवन, बिजली सप्लाई, पीने का साफ पानी, शौचालय, पंखे, टेबलकुरसी, टीचरों की कमी पूरी करना, प्रशिक्षित टीचर, खेल मैदान, लाइब्रेरी, प्रयोगशाला के साथसाथ और भी बहुत सारी सुविधाओं को ध्यान में रखना होगा.

यह संदेश भी देना होगा कि सरकारी स्कूल ही हैं, जो हमारे देश की जड़ (यानी गांवगांव में) में हैं और यही स्कूल हमारे पूरे देश को महान बना रहे हैं, जो पूरी दुनिया में एक मिसाल है.

जब मेरा देश इस तरह के सरकारी स्कूल में पढ़ेगा, तभी तो विश्व गुरु बन पाएगा.

काला दरिंदा: जब बहादुर लड़की ने किया रेपिस्ट का सामना

वह एक टैक्सी ड्राइवर था. उस का रंग जले तवे की तरह काला था, तभी तो उस के घर वालों ने सोचसमझ कर उस का नाम काला रखा था. उस ने कार के पिछले शीशे पर मोटेमोटे अक्षरों में ‘काला’ लिखवा दिया था.

19 साल की उम्र में वह माहिर ड्राइवर बन गया था. तभी से वह टैक्सी चला रहा था. अब उस की उम्र 35 साल के करीब थी.

थोड़ी देर पहले एक ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आ कर रुकी थी. कुछ सवारियां गेट से बाहर निकलीं, तो काला मुस्तैदी से खड़ा हो गया. कुछ सवारियों से उस ने टैक्सी के लिए पूछा भी था लेकिन सवारियों ने मना कर दिया.

कुछ सवारियों को टैक्सी की जरूरत नहीं थी और जिन्हें जरूरत थी, वे अपने परिवार के साथ थे. उन्होंने शक्ल देखते ही काला को मना कर दिया था, क्योंकि शराब के नशे में डूबा काला शक्ल से ही बदमाश लगता था.

काला ने कलाई में बंधी घड़ी की तरफ देखा. रात के 10 बज रहे थे. समता ऐक्सप्रैस ट्रेन के आने का समय हो गया था. शायद उसे कोई सवारी मिल जाए, यह सोच कर काला ने बीड़ी सुलगा ली.

काला का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. 3 भाइयों में वह अकेला जिंदा बचा था. उस ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था. उस की मां तो उसे स्कूल भेजना चाहती थी, पर उस का बाप उसे स्कूल भेजने के सख्त खिलाफ था.

काला की उम्र जब 10 साल की थी, तभी उस की मां मर गई थी और उस के बाप ने उसे एक लुहार के यहां काम पर लगा दिया था. सारा दिन भट्ठी के आगे बैठ कर वह लोहे का पंखा चलाता था. महीने में उसे मेहनत के जो पैसे मिलते थे, उन पैसों को उस का बाप शराब में उड़ा देता था.

7 साल तक काला ने लुहार की दुकान पर काम किया था. तभी उस के शराबी बाप की मौत हो गई थी. बाप के मरने का उसे जरा भी दुख नहीं हुआ था, क्योंकि अब वह पूरी तरह आजाद हो गया था.

कुछ गलत लड़कों के साथ काला का उठनाबैठना हो गया था. 20 साल का होतेहोते वह पक्का शराबीजुआरी बन चुका था. एक करीबी रिश्तेदार को उस पर दया आ गई थी. उसी ने भागदौड़ कर के उस की शादी करा दी थी. उस की औरत ज्यादा खूबसूरत तो नहीं थी, पर उस से कई गुना अच्छी थी.

काला ने हमेशा से ही अपनी बीवी को इस्तेमाल की चीज समझा था. अब वह 4 बच्चों का बाप बन चुका था. फिर भी बच्चों के लिए एक बाप की क्या जिम्मेदारियां होती हैं, इस का उसे पता नहीं था.

काला जितना शौकीन था, उस से कहीं ज्यादा मेहनती भी था. वह सुबह 7 बजे टैक्सी ले कर घर से निकल जाता था और रात 12 बजे के बाद ही लौटता था.

वह 300 से 500 रुपए तक रोजाना कमा लेता था. इतना कमाने के बाद भी उस के घर की माली हालत ठीक नहीं थी, क्योंकि उसे शराब पीने के अलावा कोठे पर जाने का भी शौक था.

रात 11 बजे समता ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आई. ट्रेन पूरे एक घंटा लेट थी. सवारियां जल्दीजल्दी स्टेशन के गेट से बाहर निकल रही थीं. काला सवारियों पर नजरें दौड़ाने लगा. अचानक उस की नजर एक लड़की पर पड़ी तो उस की आंखों में एक अजीब सी चमक उभर आई.

काला तेजी से उस लड़की की तरफ लपका और उस से पूछा, ‘‘मैडम क्या आप को टैक्सी चाहिए?’’

‘‘हां चाहिए,’’ लड़की ने उस की तरफ बिना देखे ही जवाब दिया.

‘‘कहां जाना है आप को?’’

‘‘विजय नगर,’’ लड़की ने बताया.

‘‘चलिए,’’ कह कर काला ने लड़की के हाथ से बैग ले लिया.

कुछ ही दूर टैक्सी स्टैंड पर काला की टैक्सी खड़ी थी.

काला ने डिक्की खोल कर बैग उस में रखा और फिर अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. तब तक लड़की पिछली सीट पर बैठ चुकी थी.

उस लड़की की उम्र 22-23 साल के आसपास थी. वह बेहद खूबसूरत थी. पहनावे से वह अमीर और हाई सोसायटी की लग रही थी. वह शायद किसी सोच में गुम थी, तभी तो उस ने काला के ऊपर ध्यान नहीं दिया था, वरना काला का चेहरा और शराब के नशे में डूबी उस की आंखें देख कर वह उस की टैक्सी में कभी न बैठती.

लड़की पिछली सीट पर अधलेटी सी आंखें बंद किए हुए थी. काला सामने लगे शीशे में से उसे बारबार देख रहा था.

रेलवे स्टेशन से विजय नगर का रास्ता महज आधे घंटे का था. काला धीमी रफ्तार से टैक्सी चला रहा था. उस लड़की ने काला के अंदर उथलपुथल मचा रखी थी.

काला का ध्यान टैक्सी चलाने में कम, उस लड़की पर ज्यादा था. वह जितना उस लड़की को देख रहा था, उस पर उतना ही एक नशा सा छा रहा था.

काला एक नंबर का आवारा था. जवान लड़कियों को देख कर उस के खून में गरमी पैदा हो जाती थी.

एक बार स्कूटर पर जा रही एक लड़की को घूरते हुए वह अपने होश खो बैठा था. नतीजतन, उस की टैक्सी एक बस के पिछले हिस्से से जा टकराई थी. इत्तिफाक से वह बच गया था, मगर टैक्सी को काफी नुकसान पहुंचा था. लेकिन इस के बाद भी वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया था.

काला का दिमाग और ध्यान कार में बैठी लड़की पर ही लगा था. अचानक

5 महीने पहले की एक घटना याद कर उस के अंदर धीरेधीरे वासना का शैतान जागने लगा.

हुआ यों था कि उस रात वह कुछ सवारियों को रेलवे स्टेशन छोड़ने आया था. रात के तकरीबन साढ़े 11 बज रहे थे. शायद कोई सवारी मिल जाए, इस उम्मीद के साथ वह सवारी मिलने का इंतजार करने लगा था.

कुछ ही देर में उसे एक सवारी मिल गई थी. वह एक लड़की थी और उसे अशोक नगर जाना था. उसे टैक्सी की जरूरत थी. उस ने कई टैक्सी वालों से बात की थी. रेलवे स्टेशन से अशोक नगर काफी दूर था, तकरीबन एक घंटे का रास्ता था.

ज्यादातर टैक्सी वालों ने रात को इतनी दूर जाने से मना कर दिया था. कुछ टैक्सी वाले वहां जाने के लिए तैयार हुए भी, मगर उन्होंने किराया बहुत ज्यादा मांगा.

आखिर में लड़की का सौदा काला से पट गया था. वह लड़की कम उम्र की व खूबसूरत थी. सफर में बोरियत से बचने के लिए लड़की टाइमपास करने की नीयत से काला को ‘अंकल’ पुकार कर बातें करने लगी थी.

काला उस के सवालों के जवाब देने के साथसाथ खुद भी उस के बारे में पूछताछ करने लगा था.

उस लड़की का नाम श्वेता था. वह एक अमीर घर की लड़की थी. श्वेता अपने घर से दूर एक शहर में पढ़ती थी. वहां वह होस्टल में रहती थी. कुछ दिनों की छुट्टियों में वह अपने घर चली आई थी. श्वेता ने अपने आने की खबर घर वालों को नहीं दी थी. अगर वह फोन कर देती, तो उसे स्टेशन पर लेने घर से कार आ जाती.

श्वेता ने जानबूझ नहीं बताया था, क्योंकि अगले दिन उस का जन्मदिन था और वह अचानक अपने घर पहुंच कर घर वालों को चौंका देना चाहती थी.

श्वेता अब तक अपने घर पहुंच भी चुकी होती, अगर ट्रेन 2 घंटे लेट नहीं हुई होती. रात का समय था. जाड़े का मौसम होने की वजह से सड़क पर दूरदूर तक सन्नाटा था.

श्वेता से बात करते हुए काला टैक्सी चला जरूर रहा था, मगर उस का मन कहीं और भटक रहा था. उस के साथ गोरी रंग की जवान और हसीन लड़की थी, जिस के जिस्म से भीनीभीनी मदहोश कर देने वाली खुशबू आ रही थी.

काला पर एक अजीब सा नशा हावी होता जा रहा था. काला ने एक बेहद घटिया और भयानक फैसला कर लिया.

उस रात काला ड्राइवर से दरिंदा बन गया था. उस ने टैक्सी एक सुनसान जगह पर रोक दी थी. इस से पहले कि श्वेता कुछ समझ पाती, काला कार के अंदर ही उस पर टूट पड़ा था. श्वेता तो जैसे एकदम से हैरान ही रह गई थी. उसे काला से ऐसी उम्मीद हरगिज नहीं थी.

श्वेता रोते हुए काला से छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ाने लगी थी, पर उस के रोनेगिड़गिड़ाने का असर काला पर नहीं हुआ था. फिर श्वेता रोनागिड़गिड़ाना छोड़ काला का विरोध करने लगी थी.

अचानक काला ने सीट के नीचे रखा चाकू निकाल लिया और बोला था, ‘सुन लड़की, अगर ज्यादा फड़फड़ाएगी तो इसी चाकू से तेरी गरदन काट डालूंगा. इस सुनसान जगह पर कोई तुझे बचाने नहीं आएगा. जान प्यारी है तो जैसा मैं कहता हूं वैसा ही कर.’

श्वेता पर इस धमकी का असर फौरन हुआ था. वह मासूम लड़की मौत के डर से बुत सी बन गई थी.

अपनी इच्छा पूरी करने के बाद काला बेहोशी की हालत में श्वेता और उस के सामान को सड़क के किनारे छोड़ कर रफूचक्कर हो गया था.

आज बहुत दिनों बाद काला को सुनहरा मौका मिला था, जिसे वह हाथ से नहीं जाने देना चाहता था. उस लड़की को अपना शिकार बनाने से पहले काला उस के और उस के घरपरिवार के बारे में जानना चाहता था.

काला ने अपनी तरफ से बातचीत की शुरुआत की, पर लड़की ने उस के किसी भी सवाल का जवाब ‘हां’ या ‘न’ से ज्यादा शब्दों में नहीं दिया.

पहले वाली लड़की श्वेता हंसमुख, चंचल और मिलनसार थी, जबकि यह उस के बिलकुल उलट, गंभीर, मगरूर और नकचढ़ी थी.

काफी सोचनेसमझने के बाद काला ने फैसला किया कि लड़की का संबंध चाहे किसी भी घर से हो, वह उस के साथ मनमानी जरूर करेगा, बाद में चाहे जो कुछ भी होता रहे.

सड़क पर सन्नाटा था. काला मन ही मन लड़की की इज्जत से खेलने का तानाबाना बुनने लगा था. विजय नगर से एक किलोमीटर पहले एक दूसरे शहर को सड़क जाती थी. वह सड़क ज्यादातर सुनसान रहती थी. काला ने टैक्सी उसी सड़क पर मोड़ दी थी.

कार में बैठी लड़की को अपने रास्ते का पता था, इसलिए उस ने फौरन काला से गलत रास्ता होने की बात की, पर काला ने उस की बात अनसुनी कर दी.

खतरा महसूस कर के लड़की विरोध करने लगी, तो काला ने एक जगह टैक्सी रोक दी और सीट के नीचे से चाकू निकाल कर दहाड़ा, ‘‘सुन लड़की, अगर जरा सी भी आनाकानी की तो पेट फाड़ दूंगा.’’

काला की भयानक आंखों में वासना के लाललाल डोरे तैर रहे थे. लड़की को धमकी दे कर काला उस पर टूट पड़ा.

अगले दिन जब काला को होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में देख कर वह चौंक पड़ा. दर्द से उस का पूरा बदन दुख रहा था. कल रात के सीन उस के जेहन में घूमे तो उस का पूरा जिस्म कांप उठा. वह 2 बार दरिंदा बना था, एक बार उस दिन जिस दिन उस ने मासूम श्वेता की इज्जत लूटी थी और दूसरी बार कल रात.

कल रात वह दरिंदा बना जरूर था, लेकिन कामयाब नहीं हो सका था, क्योंकि कल रात वाली लड़की पहले वाली लड़की की तरह कमजोर नहीं थी. वह लड़की मुक्केबाजी और कराटे में माहिर थी. उस लड़की ने काला को बहुत पीटा था.

लड़की ने एक जोरदार लात काला की दोनों टांगों के बीच मारी थी. इस के बाद उसे कुछ होश नहीं था. वह अस्पताल कैसे पहुंचा? कब पहुंचा और किस ने पहुंचाया? इस का उसे कुछ पता नहीं था.

काला ने डाक्टरों से जब यह खबर सुनी तो मानो उस की जान ही निकल गई. डाक्टरों ने उसे बताया कि उन्होंने उस की जान तो बचा ली, मगर अब वह कभी दरिंदा नहीं बन सकता था, क्योंकि टांगों के बीच चोट लग जाने से वह हमेशा के लिए नामर्द बन चुका था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें