Family Story: हृदयहीन – एक मध्यमवर्गीय परिवार की दिलचस्प कहानी

Family Story: ड्राइंगरूम में मम्मीपापा के साथ पड़ोस में रहने वाले अशोक अंकल और एक अनजान दंपती को देख कर दिव्या का चौंकना स्वाभाविक था.

‘‘लगता है बिटिया ने मुझे पहचाना नहीं,’’ अनजान सज्जन हंसे.

दिव्या ने उन्हें गौर से देखा, उसे पहचानते देर नहीं लगी कि ये तो उमेश चंद्र थे जो चंद घंटे पहले उस के होटल में अपनी बेटी की शादी के लिए हौल बुक कराने आए थे. उन्होंने बातचीत के दौरान उस से घरपरिवार के बारे में पूछा था. दिव्या ने उन की सज्जनता के प्रभाव में काफी कुछ बता दिया था. घर का पता सुनते ही उन्होंने कहा था कि स्टार टावर्स में तो उन के एक मित्र अशोक मित्तल भी रहते हैं और दिव्या ने बताया था कि वे उस के पापा के भी अच्छे दोस्त हैं.

‘‘सौरी अंकल, सोचा नहीं था कि आप से यहां और इतनी जल्दी मुलाकात होगी.’’

‘‘अब तो मुलाकातों का यह सिल- सिला चलता ही रहेगा बिटिया, अभी चलते हैं, फिर आएंगे,’’ उमेश चंद्र उठ खड़े हुए.

‘‘फिर भी आ जाइएगा अंकल, मगर अभी तो बैठिए,’’ दिव्या आग्रह करते हुए बोली, ‘‘आंटी से तो मेरा परिचय कराया ही नहीं.’’

‘‘परिचय क्या, आंटी तो तुम्हारी पूरी जन्मपत्री ले चुकी हैं. क्यों? यह आराम से जयाजी और उदयजी से सुनना, अभी हमें जाने दो, घर पर बच्चे इंतजार कर रहे हैं.’’

उन के जाने के बाद दिव्या ने देखा, मेज पर परिवार की कई तसवीरें बिखरी हुई थीं.

‘‘यह सब क्या है, मम्मी?’’

‘‘सब तेरा अपना कियाधरा है दिव्या, मम्मी का कोई कसूर नहीं है,’’ उदय ने कहा.

‘‘मेरा कियाधरा? मैं ने क्या किया है?’’ दिव्या ने झुंझला कर पूछा.

‘‘उमेश चंद्र से बेहद शालीनता और विनम्रता से बातें…’’

‘‘वह तो मेरी नौकरी का हिस्सा है मम्मी,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे तनख्वाह ही उसी की मिलती है और अभी जो रुकने को कहा वह आप का सिखाया शिष्टाचार है. खैर, वे यहां आए किस खुशी में थे?’’

‘‘अपने इकलौते इंजीनियर बेटे देवेश के लिए तेरा हाथ मांगने.’’

‘‘और आप ने फौरन देने का वादा कर दिया?’’ दिव्या चिल्लाई.

‘‘वह लड़का देखने के बाद तेरी मरजी पूछ कर करेंगे, फिलहाल मिलने और लड़का देखने में हमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा,’’ उदय ने कहा, ‘‘अगर लड़का अच्छा नहीं लगा तो मना कर देंगे.’’

दिव्या ने गहरी सांस ली.

‘‘वह तो आप शायद नहीं करेंगे, क्योंकि देवेश विनम्र और आकर्षक है, कल आया था हमारे होटल में हौल देखने.’’

‘‘हौल के साथ ही उस ने तुझे भी पसंद कर लिया और आज बात करने के लिए बाप को भेज दिया,’’ जया हंसीं.

‘‘उस ने शायद मुझे देखा भी न हो क्योंकि उस ने आते ही मेरे सहकर्मी विकास से बात की थी. वह केवल बैंक्वेट हौल को देखने और उस का किराया पता करने आया था और विकास से जरूरी जानकारी ले कर तभी चला गया था. उस समय मैं विकास की बराबर वाली सीट पर बैठी थी. इसलिए मेरा उसे देखना या उस की बात सुनना स्वाभाविक था.’’

‘‘यानी लड़का तुझे पसंद आया?’’

‘‘आप भी कमाल करती हैं, मम्मी. होटल में मेरे साथ एक से बढ़ कर एक स्मार्ट लोग काम करते हैं, पांचसितारा होटल में आने वाले सभी शालीन ही लगते हैं और मैं सब को पसंद करने लग गई तो हो गई छुट्टी. एक बात और, प्रोबेशन पीरियड में आप मेरी शादी की बात सोच भी कैसे सकती हैं?’’

‘‘तेरे पापा ने तो उमेश चंद्र को यह भी बताया था कि अपने बेटे सौरभ की गैरहाजिरी में वे बेटी की शादी की सोच भी नहीं सकते और सौरभ अगले साल के अंत से पहले नहीं आ सकता तो उन्होंने कहा कि उन्हें भी कोई जल्दी नहीं है.’’

‘‘पूरी बात बताओ न जया, उमेश चंद्र ने साफ कहा कि बेटी की शादी करने के तुरंत बाद बेटे की शादी करने लायक उन की हैसियत नहीं है लेकिन लड़की अच्छी लगी, इसलिए बात करने चले आए इस उम्मीद से कि शायद हम कुछ समय बाद शादी करने के लिए मान जाएं. हमें वे सुलझे हुए लोग लगे इसलिए हम ने उन्हें सपरिवार बुलाया है. लड़के की सुविधानुसार आएंगे वे किसी दिन.’’

‘‘यह भी बता दिया न कि मुझे उन के लड़के की सुविधानुसार जब चाहे तब छुट्टी नहीं मिलेगी?’’

‘‘अपनी छुट्टी का दिन और घर आने का समय तो तू स्वयं ही उन्हें बता चुकी है,’’ जया और उदय हंसने लगे.

दिव्या मुंह बनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

अगले सप्ताह उमेश चंद्र पत्नी और बेटीबेटे के साथ आए. दिव्या को पापा से सहमत होना पड़ा कि सुलझे हुए लोग हैं. देवेश ने उस से साफ कहा कि वह दहेज में कुछ नहीं लेगा और दिव्या को अपने शौक उस की या अपनी सीमित आय में ही पूरे करने होंगे. इकलौता बेटा है इसलिए मातापिता के प्रति उस के कुछ दायित्व हैं. उन्हें छोड़ कर न तो वह ज्यादा पैसे के लालच में विदेश जाएगा और न ही तरक्की के लिए किसी दूसरे शहर में. दिव्या को इसी शहर में उस के मातापिता के साथ रहना पड़ेगा. दोनों ही शर्तें दिव्या को मंजूर थीं क्योंकि उस के मातापिता भी यह शहर छोड़ कर जाने वाले नहीं थे. यहां रहते हुए वह बराबर उन का खयाल भी रख सकेगी और देवेश का संयुक्त परिवार होने से जरूरत पड़ने पर मम्मीपापा के पास आ कर रहने में भी आसानी रहेगी. जल्दी ही दोनों की सगाई हो गई. सगाई के बावजूद देवेश का व्यवहार बहुत सौम्य और शालीन था. वह दिव्या को फोन करता था, उस से मिलने आता और घुमाने भी ले जाता था लेकिन दिव्या की सुविधानुसार. उस का कहना था कि प्रोबेशन पीरियड पूरे कैरियर की नींव है. अगर वह पुख्ता हो गई तो बुलंदियों को छूना मुश्किल नहीं होगा. दिव्या का भी यही सपना था, होटल की सर्वोच्च कुरसी पर बैठना. देवेश जैसे समझदार जीवनसाथी के साथ अब यह मुश्किल नहीं लग रहा था.

दिव्या के प्रोबेशन पीरियड पूरे होने से कुछ रोज पहले सीढि़यों से गिरने के कारण जया के दाहिने कंधे की हड्डी कई जगह से टूट गई. कई घंटे के औपरेशन के बाद कंधे को जोड़ तो दिया गया लेकिन डाक्टर ने उन्हें आराम और एहतियात बरतने को कहा था. मां के फ्रैक्चर की खबर सुनते ही दिव्या की बड़ी बहन विजया भी आ गई थी, उस के रहते दिव्या काम पर जाती रही लेकिन विजया अपना घर और बच्चे छोड़ कर कितने रोज तक रुक सकती थी. जया तो पूरी तरह से विजया पर आश्रित थीं. उन्हें सहारा दे कर उठानाबैठाना, यहां तक कि एक खास अवस्था में लिटाना तक पड़ता था. पापा कितनी छुट्टी लेते और फिर मां और घर दोनों की देखभाल उन के बस की बात नहीं थी. दिव्या को छुट्टी तो नहीं मिल सकती थी लेकिन प्रोबेशन पीरियड पूरा होते ही वह नौकरी छोड़ सकती थी, इसलिए उस ने वही किया. मम्मीपापा ने तो नौकरी छोड़ने के लिए मना किया था लेकिन दिव्या के यह कहने पर कि नौकरी तो कभी भी दोबारा मिल जाएगी लेकिन तीमारदारी में थोड़ी सी कोताही हो गई तो मम्मी हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएंगी, वे गद्गद हो गए. सौरभ और विजया ने भी उस की बहुत तारीफ की और आभार माना लेकिन देवेश यह सुनते ही कि उस ने नौकरी छोड़ दी है, बुरी तरह भड़क गया.

‘‘किस ने कहा था तुम्हें लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ने के लिए?’’

‘‘मेरी अंतरात्मा ने, अपनी मम्मी के प्रति जो मेरा कर्तव्यबोध है, उस ने.’’

‘‘कर्तव्य केवल तुम्हारा ही है? तुम्हारे बहनभाई या पापा का नहीं?’’

‘‘विजया दीदी घर और बच्चे छोड़ कर जितना रुक सकती थीं, रुक गईं, सौरभ भैया स्कौलरशिप पर पीएचडी कर रहे हैं इसलिए बीच में छोड़ कर नहीं आ सकते लेकिन पार्ट टाइम जौब कर के पैसा भेज रहे हैं…’’

‘‘तो उस पैसे से तुम्हारे पापा मम्मी के लिए ट्रेंड नर्स क्यों नहीं रखते?’’ देवेश ने बात काटी.

‘‘नर्स तो है ही देवेश लेकिन उस पर नजर रखने और मम्मी का मनोबल बनाए रखने के लिए परिवार के किसी सदस्य का हरदम उन के साथ रहना जरूरी है और फिलहाल यह काम मैं ही कर सकती हूं.’’

‘‘पांचसितारा होटल की नौकरी छोड़ कर? नौकरी छोड़ने से पहले किसी से पूछा तो होता?’’

‘‘जरूर पूछती अगर कोई गलत काम कर रही होती तो. मम्मी के बिलकुल ठीक होने के बाद फिर नौकरी तलाश कर लूंगी. वैसे यह होटल भी दोबारा जौइन कर सकती हूं.’’

‘‘लेकिन उसी पोजीशन और तनख्वाह पर, जिस पर तुम कल तक थीं,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा, ‘‘अगर 6 महीने के बाद भी जौइन किया तो लौंग रन में जानती हो कितने का नुकसान होगा?’’

दिव्या का मन एक अजीब से अवसाद से भर उठा. कमाल का आदमी है, मानवीय संवेदनाओं को पैसे से तौल रहा है. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, मम्मी के आईसीयू में रहने के दौरान देवेश बराबर पापा के साथ रहा था और उन्हें सौरभ की कमी महसूस नहीं होने दी थी. उस के घर वाले भी परिवार की तरह उन सब के लिए खाना लाते थे, जया को तसल्ली दिया करते थे.

उदय और जया बहुत खुश थे कि दिव्या को इतना अच्छा घरवर मिला है. दिव्या को लगा कि नौकरी में अनुभव होने के कारण शायद देवेश को मालूम होगा कि नौकरी में वरीयता की क्या अहमियत है मगर दिव्या की वरीयता तो मम्मी की संतुष्टि और सेहत थी. देवेश रोज ही शाम को जया को देखने आया करता था लेकिन उस रोज के बाद वह नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. 2-3 रोज के बाद जया ने पूछा कि देवेश क्यों नहीं आ रहा है तो दिव्या ने उन्हें टालने को कह दिया कि काम में व्यस्त है. जया को तसल्ली नहीं हुई और अगले रोज उन्होंने स्वयं देवेश को फोन किया.

‘‘क्या बात है बेटा, तुम घर आ नहीं रहे, बहुत व्यस्त हो काम में?’’

‘‘काम छोड़ कर दिव्या बैठ तो गई है आप के सिरहाने,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा.

‘‘हां बेटा, रातदिन साए की तरह मेरे साथ रहती है. तभी कह रही हूं कि तुम आ जाओगे तो उस का ध्यान बंटेगा, हंसबोल लेगी तुम से.’’

‘‘उस के हंसनेबोलने की तो आप को फिक्र है लेकिन उस के कैरियर की नहीं, अभी भी देर नहीं हुई है, उसे समझा कर भेज दीजिए काम पर,’’ देवेश के स्वर में व्यंग्य था या आदेश, जया समझ नहीं सकीं.

‘‘देवेश को शायद दिव्या का नौकरी छोड़ना पसंद नहीं आया,’’ जया ने शाम को उदय के घर लौटने पर कहा.

‘‘शायद क्या, बिलकुल पसंद नहीं आया,’’ दिव्या बोली, ‘‘सुनते ही बौखला गया और लगा उलटासीधा बोलने.’’

‘‘कुछ ऐसा ही हाल उस के पिताजी का भी हुआ था,’’ उदय ने हंस कर कहा, ‘‘वे भी बौखला कर कहने लगे कि दुनिया में बहुत से लोग बाएं हाथ से सब काम करते हैं, जयाजी भी करना सीख लेंगी. उस के लिए दिव्या का कैरियर क्यों खराब कर रहे हैं? सोचा नहीं था कि उमेश चंद्रजी जैसे सज्जन व्यक्ति ऐसी बेहूदा बात कर सकते हैं.’’

‘‘जब उन्हें पसंद नहीं है तो तेरा काम पर लौटना ही मुनासिब होगा, दिव्या,’’ जया ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘काम पर तो लौटना है ही और जरूर लौटूंगी, मम्मी, लेकिन तब जब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी यानी मुझे अपने हाथ से बनाए परांठे खिला कर काम पर भेजेंगी.’’

‘‘और अगर मैं इस काबिल न हुई तो?’’

‘‘क्यों नहीं होगी?’’ दिव्या ने जिरह की, ‘‘औपरेशन से हड्डियां बिलकुल सही बैठा दी गई हैं. बस, अब इंतजार है उन के जुड़ने का और वे भी सही जुड़ जाएंगी अगर आप फालतू में हिलेंगीडुलेंगी नहीं और उस की चौकसी करने को मैं हूं ही.’’

‘‘ससुराल वालों की नाराजगी की कीमत पर?’’

‘‘वे अभी मेरे ससुराल वाले नहीं हैं, मम्मी. और न ही फिलहाल उन्हें मेरे व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करने का हक है.’’

‘‘यह तो तू ठीक कह रही है बेटी,’’ पापा ने बात काटी, ‘‘नौकरी करना या छोड़ना एक नितांत व्यक्तिगत मामला है, खासकर उन लड़कियों के लिए जो शौक के लिए नौकरी करती हैं, पैसों के लिए नहीं.’’

‘‘यही नहीं पापा, बात भावनाओं को समझने की भी तो है. जो लोग हमारे हालात और मजबूरियों को नहीं समझ रहे, वे सज्जनता का मुखौटा लगाए संवेदनहीन लोग नहीं हैं क्या?’’ दिव्या ने पूछा.

‘‘जहां पैसे का सवाल हो बेटा वहां मध्यम वर्ग के लोग भावुक होने के बजाय अकसर व्यावहारिक हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन अभी तो पैसा उन की जेब से नहीं जा रहा. दूसरी बात यह कि उन्होंने आप को बताया था कि अपने काम के प्रति मेरी निष्ठा से प्रभावित हो कर वे आप से मेरा हाथ मांगने आए थे, फिर अब अपने कर्तव्य या मां के प्रति मेरी निष्ठा से उन्हें तकलीफ क्यों हो रही है?’’ दिव्या ने फिर पूछा.

‘‘कभी मौका देख कर देवेश से पूछ लेना,’’ उदय ने टालने के स्वर में कहा लेकिन उमेश चंद्र और देवेश का व्यवहार उन्हें भी सामान्य नहीं लगा था और वे भी जानना चाहते थे कि कहीं उन लोगों ने दिव्या के रूपगुण की अपेक्षा उस की तगड़ी तनख्वाह से प्रभावित हो कर तो रिश्ता नहीं किया था? उस के बाद देवेश या उमेश चंद्र ने फोन नहीं किया. जया चाहती थीं कि उन से संपर्क किया जाए मगर दिव्या नहीं मानी.

‘‘परेशानी हमारे घर में है मम्मी, इसलिए उन लोगों को हमारी खैरखबर पूछनी चाहिए और अगर वे लोग मेरी नौकरी छोड़ने से नाराज हैं तो भूल जाइए कि मैं उन की खुशी के लिए आप के ठीक होने से पहले नौकरी जौइन करूंगी, इसलिए बेहतर है कि हम अभी चुप रहें,’’ दिव्या ने दृढ़ स्वर में कहा. जया और उदय दिव्या से सहमत तो थे लेकिन फिर भी उन्हें यह सब ठीक नहीं लग रहा था और वे किसी तरह उन लोगों का हालचाल जानना चाहते थे. इसलिए उदय एक रोज अशोक मित्तल से मिलने के लिए उन के घर गए. कुछ देर अशोक से इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने उमेश चंद्र का जिक्र छेड़ा.

‘‘यार क्या बताऊं, कंधा तो भाभीजी का टूटा मगर उम्मीदें और दिल उमेश के परिवार के टूट गए,’’ अशोक ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘असल में अपने मध्यम वर्ग को आदर्शवादी बनना रास नहीं आता. ईमानदारी से नौकरी करते हुए उमेश ने बच्चों को हैसियत से बढ़ कर उच्च शिक्षा दिलवाई, लड़की की शादी में खर्च भी दिल खोल कर किया और यह फैसला भी किया कि लड़के की शादी में दहेज नहीं लेगा, किसी अच्छी नौकरी वाली लड़की को ही बहू बनाएगा. देवेश भी अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित लड़की से ही शादी करना चाहता था ताकि घर में मां की सत्ता बरकरार रहे और बीवी की तगड़ी तनख्वाह भी आती रहे. दिव्या से मिलने के बाद परिवार को अपना सपना साकार होता लगा लेकिन भाभीजी ने अपने कंधे के साथ ही उन का सपना भी चकनाचूर कर दिया. भाभीजी का कंधा तो खैर सही इलाज से जुड़ गया है मगर उमेश के परिवार के सपने जुड़ने में समय लगेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’

‘‘क्योंकि देवेश को एक स्ट्रिक्टली कैरियर माइंडिड लड़की चाहिए. हालांकि इस बीच उसे दिव्या से प्यार भी हो गया है लेकिन उसे लगता है कि दिव्या अपने कैरियर के प्रति नहीं, घरपरिवार के प्रति अधिक समर्पित है. घरपरिवार में तो परेशानियां आती ही रहेंगी, खासकर बालबच्चे होने के बाद. इसलिए दिव्या जबतब छुट्टी ले कर या तो अपनी तरक्की के अवसर खराब किया करेगी या नौकरी छोड़ दिया करेगी…’’

‘‘और यह देवेश की तिकड़मी योजनाओं के अनुकूल नहीं है,’’ उदय ने बात काटी.

‘‘बिलकुल. मैं ने समझाया है कि यह कोई ऐसी गंभीर समस्या नहीं है, प्रभुत्व वाले पद पर पहुंचने के बाद हर कोई प्रैक्टिकल हो जाता है, दिव्या भी हो जाएगी. वह मेरी इस बात से तो सहमत है.’’

‘देवेश हो सकता है सहमत हो लेकिन दिव्या जैसी संवेदनशील लड़की प्रैक्टिकल होते हुए भी कभी भी देवेश जैसे हृदयहीन व्यक्ति के तिकड़मी विचारों से सहमत नहीं होगी और न ही तालमेल बिठा पाएगी,’ उदय ने घर लौटते हुए सोचा, ‘और इस के लिए मैं और जया कभी भी उस पर दबाव नहीं डालेंगे.’

Social Story: रुक के देखे न कभी पैर के छाले हमने

Social Story: 31 मार्च, 2020. धूप इतनी तेज थी कि चमकती सड़क पर आंखें चुंधिया रही थीं. कोरोना की मार से पहले भूख की मार के डर से मजदूर अपनेअपने घरगांव लौटने के लिए बेचैन हो उठे. ट्रेनबस समेत तमाम सवारियां बंद होने के चलते वे पैदल ही चल पड़े.

जुबैर, नाजिया और उन के तीनों बच्चे. रामभरोसे, उस की पत्नी कलावती, रामभरोसे का छोटा भाई कन्हैया और उन की 65 साल की बूढ़ी मां सरस्वती. कुलमिला कर 9 लोगों का जत्था दिल्ली से चंपारण के लिए पैदल चल रहा था.

सड़कों के चौड़ीकरण ने किनारे खड़े तमाम पेड़ों को निगल लिया था. हाईवे पर पसीना बहाते, गमछे और आंचल की छांव तले कदम से कदम मिलाते ये लोग चले जा रहे थे. मीलों चलने के बाद एक घना पेड़ नजर आया, जहां उन्हें आराम करने का मौका मिला.

दिल्ली से चंपारण की दूरी 1,000 किलोमीटर से ऊपर होगी, लेकिन मौत के सामने यह दूरी इन्हें कम लग रही थी.

लौकडाउन का ऐलान होते ही कारखाना बंद कर के मालिक ने जगह खाली करने का फरमान सुना दिया था. बीमारी की भयावहता को देखते हुए सरकार ने दुकान, होटल, ट्रेन, बस, टैंपोरिकशा सब बंद कर दिया, ताकि कम्यूनिटी इंफैक्शन को रोका जा सके.

सफर का दूसरा दिन. सहारनपुर से इन का काफिला निकला. शाजेब और शहाब अपनी मां नाजिया की उंगली थामें चल रहे थे, जबकि सूफिया अपने अब्बु जुबैर के कंधे पर सवार थी. साथ में सामान से भरे 2 बैग भी जुबेर के कंधों से लटक रहे थे.

रामभरोसे के लिए सब से भारी बोझ उस की मां सरस्वती थी. एक तो बूढ़ी, ऊपर से बीमार. वह बेचारी भी हांफतेकांपते कदमों से चलने को मजबूर थी.

बहरहाल, सब ने अपनेअपने सामान पेड़ के नीचे रखे और बैठ कर सुस्ताने लगे. कलावती ने फटी हुई चादर बिछाई तो कन्हैया दौड़ कर चापाकल से पानी ले आया. शाजेब और शहाब कुछ खाने की जिद करने लगे.

नाजिया के पास बिसकुट के 2 पैकेट बचे थे, जो उस ने 5 रुपए के बदले 10-10 रुपए में खरीदे थे. 2 बिसकुट के पैकेट और 4 बच्चे… शाजेब, शहाब, सूफिया और कन्हैया. हालात के शिकार बच्चों ने उसी में मिलबांट कर खाया और बड़े लोगों ने सिर्फ पानी से प्यास बुझाई, फिर आगे चल दिए.

अचानक लौकडाउन होने के चलते सेठ ने 1000-1000 रुपए दे कर उन्हें टरका दिया था. दोनों परिवार एक ही गांव के थे. रामभरोसे के पास अब महज 680 रुपए और जुबैर के पास 820 रुपए बचे थे.

रास्ते में एक जगह मकई के भुट्टे खरीद कर सभी ने पेट की आग को शांत किया और सफर जारी रखा. बच्चे और बूढ़े में दम ही कितना होता है, इसलिए हर 4-5 किलोमीटर पर उन्हें रुकना पड़ता, ठहरना पड़ता. जगहजगह पुलिस वालों के सवालों का जवाब देना पड़ता और कहींकहीं लाठियां भी खानी पड़तीं.

रात होने लगी. अनजान शहर में खोजतेखोजते मुश्किल से एक रैनबसेरा मिला, लेकिन पुलिस वालों ने वहां भी ठहरने से रोक दिया. मजबूरन वहां से आगे बढ़े और कुछ दूर चल कर सड़क के किनारे सो रहे मजदूरों की कतार में प्लास्टिक बिछा कर सो गए.

भूख से अंतड़ियां कुलबुला रही थीं, इसलिए नींद नहीं आ रही थी. पैर के छाले अलग ऊधम मचा रहे थे और गरम बिछौना बनी सड़क अलग मुंह चिढ़ा रही थी.

रात के 2 बज रहे होंगे कि रामभरोसे की पत्नी कलावती को शक हुआ कि उस की सास सरस्वती देवी की सांसें बंद हो चुकी हैं. उस ने ‘अम्मांअम्मां’ कह कर जगाना चाहा, पर वह तो नहीं जागी, लेकिन बाकी सभी लोग जाग गए.

सब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. बुढ़िया मर चुकी थी और उन के लिए बहुत बड़ी समस्या छोड़ चुकी थी. वह कोरोना से मरी, थकान से मरी या बीमारी से मरी, इस से मतलब नहीं था, मतलब इस से था कि वह अपने साथ सब को ले कर मरी थी, इसलिए सब ने सरस्वती देवी की लाश को छोड़ कर चुपचाप निकल जाने में ही भलाई समझी.

सब तो जाने लगे, लेकिन 8 साल का कन्हैया अपनी मां को छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं था. मां की लाश से लिपट कर वह जोरजोर से रो रहा था. सब ने समझाया कि चिल्लाना बंद करो वरना कोरोना के चक्कर में सब पकड़े जाएंगे. न सवारी है, न लाश ढोने का माद्दा, और न ही अंतिम संस्कार के लिए पैसे हैं. लाश का अंतिम संस्कार तो सरकार कर ही देगी, फिर मरने वाले के साथ इतने लोगों की जान सांसत में डालने का क्या मतलब.

फिर भी कन्हैया मानने के लिए तैयार नहीं था। बच्चा था, मासूम था, मां की याद उस के दिल में अभी भी बरकरार थी. दुनिया के पैतरेबाजी से अनजान था, इसलिए मां को लाश मानने के लिए तैयार नहीं था.

रामभरोसे ने कहा, “रे कन्हैया, मां हम दोनों की थी, पर तू बात क्यों नहीं समझता है, अब इस को घसीट कर तो ले नहीं जा सकते.”

कलावती ने कहा, “छोड़ दो इस को भी, अपनी माई के साथ यहीं सड़ता रहेगा.”

रामभरोसे ने ‘चटाक’ से एक थप्पड़ कलावती के गाल पर जमाते हुए कहा, “बच्चा है… समझा रहे हैं… तुम्हारी मां थोड़ी है… उस की मां है तो रोएगा ही… तुम क्यों भचरभचर कर रही हो.”

आखिरकार सब ने मिल कर कन्हैया को लाश से खींच कर अलग किया और उसे घसीटते हुए ले चले.

चौथे दिन लखनऊ पहुंचे. अब दोनों परिवारों के पास महज 300-300 रुपए बच रहे थे, जबकि सफर खासा लंबा था. पैर के छालों ने रुलाना छोड़ दिया और समझा दिया कि वे उन के हमसफर हैं, जो साथसाथ चलेंगे.

रात दर रात खुले आसमान में सोतेजागते जुबैर के दोनों बेटों को निमोनिया हो गया. नाजिया छाती पीटने लगी, ‘हायहाय’ करने लगी. न कोई मददगार, न डाक्टर, न दवा. बच्चे निमोनिया से जितना हांफते, नाजिया उतना ही तड़पती.

जैसेतैसे वे लोग एक सरकारी अस्पताल पहुंचे. कोरोना के डर से अस्पताल वालों ने मरीजों को दूसरे राज्य का बता कर इलाज करने से मना कर दिया.

अनजान जगह, सड़कों पर लोग नहीं, जेब में पैसे नहीं, हर तरफ मरघट जैसा सन्नाटा. भागतेभागते एक प्राइवेट क्लिनिक पहुंचे, जहां छिपछिपा कर इलाज चल रहा था.

डाक्टर ने 5,000 रुपए का खर्च बताया. उन लोगों के पास कुल जमा 600 रुपए बचे थे. डाक्टर ने इनकार कर दिया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

जुबैर ने कहा, “डाक्टर साहब, हम पर रहम करें, हम हालात के मारे हुए लोग हैं.”

डाक्टर ने अपने कंपाउंडर से उन्हें बाहर निकालने का इशारा किया. लेकिन, बच्चों की मां अभी जिंदा थी, उस के कानों में सोने की बाली थी. नाजिया ने उन्हें उतार कर डाक्टर के सामने रख दिया.

डाक्टर ने मन ही मन दोनों बाली को तोला और इलाज शुरू कर दिया.

इलाज से एक बच्चा बच गया तो दूसरा नहीं रहा. नाजिया गम से निढाल हो गई. एक मां के लिए उस की औलाद से बढ़ कर कुछ नही होता. नाजिया कभी कोरोना को कोसती, कभी सरकार को कोसती तो कभी अपनी गरीबी को.

बच्चे की लाश को रास्ते में दफना कर वे लोग फिर से आगे बढ़े. 9 में से 2 लोग साथ छोड़ चुके थे और बच गए थे 7 जाने, जबकि मंजिल अभी काफी दूर थी.

छठे दिन वे सब गोंडा पहुंचे. अपनों से बिछड़ने का गम अलग, कोरोना की मार अलग और भूख से बेहाल अलग. मजलूम इनसान अपनी बेबसी से लड़े, कोरोना से लड़े या भूख से लड़े… पैर के छाले और मुंह के छाले आपस में होड़ करने लगे, एकदूसरे को चिढ़ाने लगे, इनसान की मजबूरी पर मुसकराने लगे.

रास्ते में एक जगह लंगर चल रहा था. यह देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सुख हो या दुख, भूख तो अपनी जगह हर हाल में बरकरार रहती है. सब ने पेट भर कर खाना खाया. जब पेट भरा तब गम कुछ हलका हुआ, फिर एक टाइम का खाना भी साथ में बांध लिया और आराम करने की गरज से रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े.

जैसे ही गोंडा जंक्शन पहुंचे आरपीएफ वाले लाठीडंडा ले कर आ धमके. काफी गुजारिश के बाद उन्हें रात गुजारने की मोहलत मिली. जब पेट भरा हो और ऊपर से जिस्म पर थकावट भी तारी हो तो नींद बहुत अच्छी आती है, इसलिए सब लोग घोड़े बेच कर सो गए.

अगली सुबह एक और मुसीबत सामने खड़ी थी. उन के सारे सामान चोरी हो चुके थे. बैग में रखे कपड़ेलत्ते, मोबाइल चार्जर, आईडी कार्ड, आधारकार्ड सबकुछ गायब.

“अब घर कैसे जाएंगे…” यह कलावती की फरियाद थी, जबकि नाजिया के आंसू तो कब के सूख चुके थे. कन्हैया कभीकभी दोनों औरतों की मनोदशा देख कर रोने लगता, फिर अपनेआप चुप भी हो जाता.

जुबैर और रामभरोसे को हर हाल में अपनी माटी को गले लगाना था. वे किस से अपना दुखड़ा रोते। बस किसी तरह वे लोग अपने गांव पहुंच जाना चाहते थे. अभी रास्ता आधा बचा था, जबकि जेब खाली हो चुकी थी.

फिर चलतेचलते सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम हो गई. पैर नौनौ मन के हो गए, जो उठाए नहीं उठ रहे थे. होंठों पर भूख से पपड़ी पड़ चुकी थी. पेट धंस कर पीठ में समा चुके थे.

बसस्टैंड पर भीड़ देख कर वे लोग रुक गए. पास पहुंचे तो देखा कि कुछ लोग खाने के पैकेट बांट रहे हैं, शायद एनजीओ वाले थे. खाने के पैकेट देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सभी लाइन में लग गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.

अगला ठहराव गोरखपुर में था जहां से चंपारण की दूरी महज 150 किलोमीटर थी. मांबाप के नाजों में पली नाजिया अब बेदम हो चुकी थी. उस के पैरों के छाले घाव बन कर तड़पा रहे थे. बुखार से उस का सारा बदन तप रहा था. उस के दोनों बच्चे अपनी अम्मी का मुंह ताक रहे थे, लेकिन अम्मी में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि वह अपने बच्चों को दुलार सके, पुचकार सके, उन के चेहरों पर हाथ फेर सके.

जुबैर अपनेआप को कोस रहा था और सारी मुसीबत की जड़ खुद को मान रहा था. एक बच्चा खो चुका था अब बीवी भी हाथ से निकलती नजर आ रही थी.

मेहनतकश कलावती भी अब हार मान चुकी थी. उस से भी चला नहीं जा रहा था, फिर भी वह नाजिया के बच्चों की देखभाल कर रही थी.

दूर हाईवे के किनारे खड़ी एंबुलैंस को देख कर कुछ उम्मीद नजर आई. रामभरोसे लपक कर ड्राइवर के पास गया और बातें करने लगा. रामभरोसे ने इशारे से कन्हैया को बुलाया. जुबैर चुपचाप यह सबकुछ देख रहा था.

कन्हैया ने आ कर जुबैर को बताया, “ड्राइवर 7,000 रुपए में घर पहुंचाने को तैयार हुआ है. क्या कहते हो? पैसे घर चल कर देने हैं.”

‘घर पर कर्ज ले कर भाड़ा दे देंगे,’ यह सोच कर जुबैर फौरन तैयार हो गया.

फिर एंबुलैंस का ड्राइवर सभी अधमरे इनसानों को लाद कर, मुसकराते, सीटी बजाते हुए चंपारण के लिए चल पड़ा. यह आज का उस का दूसरा भाड़ा था.

Crime Story: जिस्म के सौदागर

Crime Story, लेखक- अलखदेव प्रसाद ‘अचल’

इंटर में पढ़ने वाली प्रिया तो खूबसूरत थी ही, उस की 35 साल की मां चंपा भी कम हसीन नहीं थी. प्रिया का एक 8 साल का छोटा भाई भी था. पिता रामेश्वर के पास खेतीबारी तो कोई खास नहीं थी, पर प्राइवेट नौकरी की वजह से घर में किसी चीज की कमी नहीं थी.

रामेश्वर अपनी तनख्वाह में से ही घरखर्च के लिए पैसे भेजा करता था और बैंक में भी जमा कराता था. वह जानता था कि अगर आज पैसे नहीं बचाएगा, तो कल प्रिया की शादी कैसे होगी? उस की शादी में भी तो 5-7 लाख रुपए लग ही जाएंगे.

रामेश्वर के बाहर रहने की वजह से चंपा को बच्चों के साथ अकेले ही घर संभालना होता था, मतलब हाटबाजार के लिए भी चंपा को ही जाना पड़ता था, जबकि उस का गांव राज्य के कद्दावर मंत्री का गांव था, इसलिए वहां बिजली, सड़क जैसी सुविधाएं शहरों से कम नहीं थीं.

किसी चीज की कमी तो थी नहीं, इसलिए चंपा भी हमेशा शहरी औरत की तरह ही दिखती थी. उस के बच्चे भी गांव के अच्छे घरानों के बच्चों से कम नहीं दिखते थे.

चंपा के खूबसूरत होने और पति से दूर रहने की वजह से गांव के कई जिस्म के सौदागर उस पर गिद्ध की नजरें लगाए रहते थे. बगल के ही एक नौजवान राकेश के चंपा के यहां आनेजाने से दूसरे मर्द जलतेभुनते रहते थे. उन्हें लगता था कि रामेश्वर की गैरहाजिरी में राकेश जरूर चंपा का नाजायज फायदा उठाता होगा और इस वजह से वह उन के जाल में नहीं फंस रही है. चंपा भी उन लोगों की नीयत को अच्छी तरह समझने लगी थी, इसलिए वह हमेशा सावधान रहती थी.

पिछले कोरोना काल में जब कंपनी बंद हो गई, तो एकाध महीना तो रामेश्वर गुजरात में जैसेतैसे रहा था, पर जैसे ही सुविधाओं की कमी होने लगी, वैसे ही वह अपने गांव आ गया था.

रामेश्वर घर तो जरूर आ गया था, पर आते ही कोरोना का शिकार हो गया था और अस्पताल ले जाने में ही उस की मौत हो गई थी.

अब तो चंपा पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा था, पर करती भी तो क्या? तनाव में ही किसी तरह जिंदगी बसर करती जा रही थी. उसे अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सताती जा रही थी. इस वजह से वह दिल से जुड़ी बीमारी का शिकार हो गई थी, जबकि डाक्टरों ने बताया भी था कि अगर वह बेवजह की चिंता करना छोड़ दे, तो उसे काफी राहत मिल सकती है.

इधर गांव के मनचले नौजवानों को लगने लगा था कि अब चंपा घर की समस्याओं से जूझती चली जाएगी. कटी हुई घास आखिर कितने दिनों तक काम आएगी, इसलिए चंपा अब उन के बुने जाल में आसानी से फंस सकती है.

तब तक प्रिया भी जवानी की दहलीज पर पहुंच चुकी थी. वह भी अपनी मां की तरह ही हसीन दिखती थी. अब लंपट लोगों की नजरें कभी मां से गिरतीं, तो बेटी पर अटक जातीं और बेटी से गिरतीं, तो मां पर अटक जातीं, पर उन की दाल गल नहीं पाती थी, जिस की वजह से उन्हें काफी खीज भी होती थी, फिर भी वे मौके की तलाश में रहते थे.

अगले साल जब फिर कोरोना की दूसरी लहर आई, तो चंपा उस से बच नहीं सकी, क्योंकि जब दोनों बच्चों को बुखार आया, तो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था, जिस की वजह से चंपा को बारबार कभी डाक्टर, तो कभी मैडिकल स्टोर की दौड़ लगानी पड़ रही थी. उसे बस यही लग रहा था कि किसी तरह उस के बच्चे ठीक हो जाएं.

कुछ दिन के बाद बच्चे तो ठीक हो गए, पर चंपा की तबीयत बिगड़ गई. कुछ दिनों तक तो वह घर पर ही दवा खाती रही, पर बुखार में कोई सुधार नहीं हुआ.

एक दिन चंपा को देखने गांव का ही मृत्युंजय नामक नौजवान आया और पड़ोस के लोगों को जमा कर के बोला, “एक गांव का होने के नाते हम लोगों का भी तो कुछ फर्ज बनता है. आखिर गांवघर का आदमी होता किसलिए है? इन्हें ले चलिए. पटना के एक अच्छे अस्पताल में मेरी जानपहचान के कई लोग हैं. वहां का चार्ज तो बहुत ज्यादा है, पर मैं चलूंगा तो काफी कम पैसों में इलाज हो जाएगा.”

ऐसे हालात में चंपा की भी मजबूरी हो गई. भला जान किस को लिए प्यारी नहीं होती. वह मृत्युंजय के साथ चल दी, तो प्रिया भी साथ हो ली. मृत्युंजय मन ही मन काफी खुश हुआ.

मृत्युंजय ने चंपा को अस्पताल में भरती करवा दिया और वहीं रहने भी लगा, जबकि प्रिया को कहा गया कि यहां मरीज की देखभाल अस्पताल वाले ही करते हैं, इसलिए आप को वार्ड से बाहर ही रहना पड़ेगा. हां, चौबीस घंटे में एक बार थोड़ी देर के लिए मिल सकती हो.

प्रिया अस्पताल के बाहर रह रही थी, पर रोज सुबह अपनी मां से मिलने जाती थी. चंपा की हालत में थोड़ा सुधार भी होता जा रहा था. प्रिया को लगा 2-3 दिनों के अंदर ही उस की मां को अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी, पर अगले दिन जब प्रिया उस से मिलने गई, तो देखा कि मां के हाथपैर रस्सी से बंधे हुए थे.

मां ने बताया, “मेरे साथ 5 लोगों ने बारीबारी से जबरदस्ती की है.”

प्रिया ने अपनी मां के बयान का वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया. अस्पताल वाले सफाई देते रहे कि चंपा की दिमागी हालत अच्छी नहीं थी, इसलिए उस के हाथपैर बांध दिए थे.

चंपा ने प्रिया से कहा, “बेटी, मुझे इस अस्पताल से बाहर निकालो वरना ये भेड़िए मुझे नोंच खाएंगे. यहां तो जिस्म के सौदागर भरे पड़े हैं.”

प्रिया ने अपनी मां को दूसरे अस्पताल में ले जाने के लिए कहा, तो अस्पताल वालों ने जो बिल बनाया, उसे देख कर प्रिया के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

प्रिया ने मृत्युंजय को फोन लगाया, तो वह बोला, ‘मैं घर वापस आ गया हूं. मेरे जीजाजी की तबीयत खराब है. मैं दिल्ली जा रहा हूं…’ और उस ने फोन काट दिया.

प्रिया को समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे. सुबहसुबह अस्पताल से फोन आया कि चंपा की हालत ज्यादा बिगड़ गई थी, इसलिए उसे बचाया नहीं जा सका.

प्रिया की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. वह किसी तरह अपनी मां के बिस्तर के पास पहुंची. मां सचमुच मर चुकी थी. जब वह जोरजोर से रोने लगी, तो अस्पताल वालों ने उसे रोने से मना कर दिया.

वैसे तो अस्पताल में मरे मरीजों को उन के परिवार वालों को सुपुर्द कर दिया जाता था, पर चंपा की लाश को पहले से ही बाहर खड़ी एंबुलैंस में डाला गया और उस में प्रिया को बिठाया गया. पीछेपीछे पुलिस की गाड़ी थी.

चंपा की लाश को श्मशान घाट पहुंचाया गया और झटपट दाह संस्कार करवा दिया गया, ताकि प्रिया के पास कोई सुबूत न रहे.

Family Story: दो टकिया दी नौकरी

Family Story, Writer- Bhawna Gaur

‘‘हैलो,’’फोन पर विद्या की जानीपहचानी आवाज सुन कर स्नेहा चहक उठी.

‘‘क्या हालचाल हैं… और सुना सब कैसा चल रहा है…’’ कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों अपनेअपने पति की बुराई में लग गईं.

‘‘प्रखर को तो घर की कोई चिंता ही नहीं रहती. कल मैं ने बोला था कि शाम को जल्दी आ जाना. टिंकू के जूते खरीदने हैं. पर इतनी देर में आया कि क्या बताऊं,’’ विद्या बोली.

 स्नेहा यह सुन कर क्या बोली

यह सुन कर स्नेहा भी बोल पड़ी, ‘‘यह रूपेश भी ऐसा ही करता है. जब जल्दी आने को बोलूं तो और भी देर से आता है. शुक्रवार की ही बात ले लो. नई फिल्म देखने का प्लान था हमारा… इतनी देर से आया कि आधी फिल्म छूट गई.’’

दोनों गृहिणियां थीं. दोनों के पति एक ही कंपनी में काम करते थे. बच्चे भी लगभग समान उम्र के थे. दोनों का अपने पति की औफिस की पार्टी के दौरान एकदूसरे से पहली बार मिलना हुआ था. दोनों के पति एक ही औफिस में काम करने के कारण लगभग एक ही तरह की समस्या से गुजरते थे. शुरुआत में दोनों अपनेअपने पति के औफिस के बारे में ही बातें किया करती थीं, लेकिन जल्दी ही उन की बातों का विषय अपनेअपने पति की बुराई करना बन गया.

तभी स्नेहा के घर की घंटी बजी तो वह बोली, ‘‘विद्या, शायद मेरी कामवाली आ गई है. चल, बाद में फोन करती हूं,’’ कह कर स्नेहा ने फोन काट दिया. दरवाजा खोलते ही रमाबाई अंदर आ गई और फिर जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

‘‘क्या बात है रमा… आज बड़ी जल्दी में लग रही हो?’’ स्नेहा ने पूछा तो वह रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ स्नेहा ने हैरान होते हुए पूछा.

तब रमा रोतेरोते बोली, ‘‘क्या बताएं बीबीजी, हमारा आदमी एक स्कूल बस के ड्राइवर की नौकरी करता था. कल गलती से स्कूल के एक बच्चे को स्कूल के लिए लेना भूल गया तो नाराज हो कर मालिक ने नौकरी से ही निकाल दिया.’’

‘‘उफ,’’ स्नेहा को सहानुभूति हुई.

फिर रमाबाई अपना काम कर के चली गई. तब स्नेहा को याद आया कि आज तो सब्जी भी नहीं है. लव और कुश भी स्कूल से आते ही होंगे. जल्दीजल्दी सब्जी की दुकान की तरफ चल दी. मन ही मन बड़बड़ा रही थी कि यह रूपेश सब्जी तक नहीं ले कर आता. सारा काम खुद ही करना पड़ता है.

स्नेहा घर आ कर खाना बनाने में जुट गई. बच्चों के स्कूल से आने के बाद उन्हें खाना खिलाना, पार्क ले जाना, होमवर्क करवाना आदि इन्हीं सब में शाम बीत जाती. रात के खाने की तैयारी के दौरान रूपेश भी घर आ जाता. बस खाना खा कर सो जाता. यही उस की दिनचर्या बन गई थी.

कभीकभी स्नेहा इस दिनचर्या से आ जाती तंग 

कभीकभी स्नेहा इस दिनचर्या से तंग आ जाती तो रूपेश के घर आते ही उस से झगड़ पड़ती, ‘‘तुम मेरे लिए तो छोड़ो, बच्चों तक के लिए समय नहीं देते.’’

जवाब में रूपेश भी गुस्सा करता, ‘‘तुम पूरा दिन घर में रहती हो. तुम्हें क्या पता मुझे दिन भर कितनी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. तुम विद्या से पूछना. प्रखर भी अभी तक रुका हुआ था… कंपनी की हालत ठीक नहीं चल रही है. जब से यह अशोका नामक नई कंपनी खुली है तब से हमारी कंपनी का बिजनैस काफी कम हो गया है.’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी कंपनी में रोज ही कोई न कोई समस्या होती है. अरे, इतनी ही बुरी हालत है तो कंपनी छोड़ ही क्यों नहीं देते?’’ स्नेहा गुस्से में बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई.

अगले दिन फिर सुबह फोन पर रूपेश और प्रखर की बुराई का सिलसिला चल पड़ता.

विद्या और स्नेहा ने एक रविवार को साथ पिकनिक का प्लान बनाया. हंसीमजाक, मौजमस्ती के बीच में भी प्रखर और रूपेश कंपनी की बातें करते जा रहे थे.

आखिरकार स्नेहा खीज कर बोली, ‘‘तुम लोग यह कंपनी छोड़ कर कोई बिजनैस क्यों नहीं शुरू करते?’’

‘‘बिजनैस?’’ सभी एकसाथ बोल पड़े.

‘‘हां, थोड़ा लोन ले लेंगे, कुछ गहने आदि बेच कर हम शुरुआत के लिए तो रकम जुटा ही लेंगे,’’ स्नेहा बोली.

स्नेहा की बात अच्छी तो सब को लगी, लेकिन बिजनैस करना कोई बच्चों का खेल नहीं. प्रखर ने तो साफ मना कर दिया, ‘‘बिजनैस करना जोखिम से भरा होता है. चले या न चले इस की कोई गारंटी नहीं रहती. न बाबा न, मैं नहीं करने वाला बिजनैस.’’

क्या बात विद्या को पसंद आई

लेकिन यह बात विद्या को बड़ी पसंद आई. बोली, ‘‘स्नेहा ठीक ही तो कह रही है, बिजनैस करो और मनचाही छुट्टियां कर लो, बौस की नाराजगी का कोई डर नहीं.’’

‘‘बिजनैस करना एक तरह से जुआ खेलने के समान है. सब कुछ दांव पर लगा कर भी जीत सुनिश्चित नहीं होती,’’ प्रखर के कहने पर बात आईगई हो गई.

रूपेश अपने परिवार को प्यार करता था. परिवार को अधिक समय दे पाने की ख्वाहिश उस की भी थी, लेकिन कई बार अपने बौस के गुस्से के डर से अपने घर की जिम्मेदारियां पूरी तरह से नहीं निभा पाता था. वह स्नेहा के सुझाव पर ध्यान से सोचने लगा.

अगले दिन जैसे ही स्नेहा ने विद्या से बात करने के लिए फोन हाथ में उठाया तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘लगता है रमाबाई आ गई,’ मन ही मन सोचते हुए स्नेहा ने दरवाजा खोला, तो सामने रूपेश को देख कर चौंक उठी. बोली, ‘‘आप अभीअभी तो औफिस गए थे. इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘अब मैं औफिस जाऊंगा ही नहीं, नौकरी जो छोड़ आया हूं,’’ रूपेश ने मुसकराते हुए कहा.

स्नेहा सुन कर परेशान हो गई, ‘‘बौस से कहासुनी हो गई क्या? ऐसे कैसे नौकरी छोड़ दी?’’

‘‘अरे बाबा बिजनैस जो करना है.’’

रूपेश के जवाब पर स्नेहा मुसकराई तो जरूर पर मन ही मन घबरा भी गई. उस ने तो यह सोच कर कह दिया था बिजनैस करने को कि प्रखर और रूपेश मिल कर बिजनैस करेंगे. फायदा या नुकसान जो भी हो दोनों मिल कर झेल लेंगे और फिर एक और एक ग्यारह होते हैं. लेकिन जब प्रखर ने मना कर दिया तो उस ने आगे सोचा भी नहीं, पर यह रूपेश तो अपनी जौब ही छोड़ आया. स्नेहा कुछ बोल न पाई. तभी रमाबाई आ गई और स्नेहा घर के काम में लग गई.

‘‘रूपेश, मैं सब्जी ले कर आती हूं,’’ कह स्नेहा जाने लगी तो रूपेश भी उस के साथ हो लिया.

‘‘अरे बाबूजी आप?’’ सब्जी वाला जो

रोज स्नेहा के सब्जी खरीदने की वजह से उस

से काफी परिचित हो चुका था, रूपेश से बोल उठा, ‘‘आइएआइए बाबूजी… आज काम पर नहीं गए क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘क्यों?’’ पूछ सब्जी वाले ने यों देखा जैसे रमाबाई के पति की तरह रूपेश को भी नौकरी से निकाल दिया गया हो.

स्नेहा कुछ बोल न पाई. घर आ कर उस ने जल्दीजल्दी सब्जी बनाई. फिर रूपेश से बोली, ‘‘लवकुश के स्कूल से आने का समय हो गया है. मैं चावल चढ़ा कर जा रही हूं, तुम थोड़ी देर बाद आंच बंद कर देना.’’

‘‘ठहरो, मैं भी चलता हूं. चावल आ कर बना लेना,’’ कह रूपेश भी साथ चल दिया.

बसस्टौप पर बच्चे पापा को देख कर

हैरान थे.

‘‘पापा आज तो बारिश नहीं हुई. फिर आप के औफिस में रेनीडे की छुट्टी क्यों हो गई?’’ नन्हे कुश ने बोला तो सभी हंस पड़े.

घर आने पर जब तक स्नेहा से खाना नहीं बना तब तक बच्चों ने खानाखाना का राग अलाप कर दोनों की नाक में दम कर दिया.

खाना खा कर रूपेश ने स्नेहा से बोला, ‘‘आओ मिल कर बिजनैस की प्लानिंग करते हैं.’’

पर स्नेहा को फुरसत कहां?

‘‘रूपेश तुम बच्चों को होमवर्क करवा दो. तब तक मैं कपड़े धो लेती हूं. फिर आराम से बैठ कर बिजनैस की प्लानिंग करेंगे.’’

बच्चों को होमवर्क करवाना आसान नहीं था. लव ने जब पापा से पूछा कि कद्दू और बैगन में क्या फर्क है, तो रूपेश बोला, ‘‘लिख दो कि कद्दू हरा और बैगन बैगनी होता है,’’ पापा के जवाब पर लव जोरजोर से हंसने लगा तो कुश भी उस के साथ मिल कर तालियां बजाबजा कर हंसने लगा.

शोर सुन कर कपड़े धोना छोड़ कर स्नेहा भागीभागी आई, ‘‘क्या बात है, तुम दोनों पढ़ाई क्यों नहीं कर रहे? तब लव ने वही सवाल स्नेहा से भी पूछ लिया.

‘‘बैगन एक श्रब है और कद्दू क्रीपर.’’

स्नेहा के जवाब पर लव और कुश फिर से पापा को देख कर हंस दिए.

होमवर्क के लिए पापा को तंग न करने का निर्देश दे कर स्नेहा फिर से कपड़े धोने चली गई. रूपेश आंखें बंद कर के चुपचाप लेट गया. थोड़ी देर बाद बच्चों ने फिर से कुछ पूछने की कोशिश की तो रूपेश ने सोने की ऐक्टिंग करने में ही भलाई समझी. थोड़ी देर बाद पापा को सोया देख दोनों खेलने भाग गए. काफी देर बाद आंख खुली तो देखा शाम हो आई है.

स्नेहा लवकुश को डांट रही थी, ‘‘शाम हो गई है और तुम दोनों अपना होमवर्क छोड़ कर खेल में ही लगे हो.’’

तभी रूपेश को जागा देख कर स्नेहा शांत हो कर चाय बनाने चली गई. चाय पी कर स्नेहा बच्चों को होमवर्क कराने लगी.

रूपेश सोच में पड़ गया कि स्नेहा को तो पूरा दिन चैन से बैठने की भी फुरसत नहीं मिली. बिजनैस में मेरा हाथ बंटाने का वक्त कहां से निकालेगी.

‘‘खाने में क्या बनाऊं?’’ तभी स्नेहा की आवाज से रूपेश की तंद्रा टूटी.

अगले दिन रूपेश औफिस नहीं गया. रमाबाई आ कर अपना काम करते हुए आज फिर से रो पड़ी, ‘‘बीबीजी, साहब को बोलो कि मेरे आदमी को अपने लिए ड्राइवर रख लें. जब तक उस की कहीं नौकरी नहीं लग रही तब तक उसे काम पर रख लो. नहीं तो मेरे बच्चों का स्कूल छूट जाएगा.’’

स्नेहा के कहने पर ही रमाबाई ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय

प्राइवेट स्कूल में डाला था. स्नेहा कैसे बताती कि खुद उस का पति ही नौकरी छोड़ आया है. वह उस के पति को काम पर कैसे रख सकता है?

स्नेहा अपने गहने निकालना. जरा देखूं तो बिजनैस के लिए कितने पैसों का इंतजाम हो जाएगा.

रूपेश के कहने पर स्नेहा ने अपने गहनों का डब्बा निकाला. कांपते हाथों से उसे रूपेश के हवाले कर के वह कुछ उदास सी हो गई.

तभी विद्या का फोन आ गया, ‘‘आज औफिस में पार्टी है. तू आ रही है न?’’

‘‘देखूंगी,’’ अनमने भाव से कह स्नेहा ने फोन काट दिया. फिर सोचने लगी कि बिना गहनों के अब वह पार्टी में कैसे जाएगी?

अत: रूपेश के पास जा कर बोली, ‘‘सुनो, क्या हम इन गहनों को 1-2 दिन के बाद नहीं बेच सकते?’’

‘‘ठीक है,’’ कह रूपेश ने गहनों का डब्बा वापस कर दिया.

स्नेहा को उन बेजान गहनों पर बेतहाशा प्यार उमड़ आया कि ये कंगन मेरी मां ने बनवाए थे. यह अंगूठी मेरी दीदी ने गिफ्ट की थी, यह सोने की चैन मेरी बूआ की आखिरी निशानी है और यह हार बड़े प्यार से रूपेश ने मेरे लिए बनवाया था. उस की आंखों भीगने लगीं.

1-1 कर वह गहनों को चूमने लगी.

तभी विद्या का फिर फोन आ गया. बोली, ‘‘तू ने बताया ही नहीं स्नेहा कि पार्टी में आ रही है या नहीं?’’

‘‘हांहां,’’ कह स्नेहा कुछ सामान्य हुई, ‘‘पर यह तो बता कि पार्टी है किस बात की?’’

‘‘बौस का जन्मदिन है न, तभी तो 2 दिन की छुट्टी है.’’

‘‘अच्छा ठीक है, मैं बाद में बात करती हूं,’’ कह स्नेहा ने फोन काट दिया. वह सीधे रूपेश के पास पहुंची, ‘‘मुझे बेवकूफ बनाया तुम ने, मुझ से कहा कि मैं नौकरी छोड़ आया हूं जबकि तुम्हारे औफिस में छुट्टी थी.’’

‘‘हां, औफिस में छुट्टी तो थी, लेकिन मैं सचमुच सोच रहा था कि नौकरी छोड़ दूं. आज बौस के जन्मदिन की पार्टी में ही मैं अपना त्यागपत्र देने वाला था. यह देखो मैं ने लिख भी रखा है.’’

2 दिन पहले का लिखा त्यागपत्र देख कर स्नेहा को विश्वास हो गया कि रूपेश सचमुच नौकरी छोड़ने वाला है.

शाम को पार्टी के लिए तैयार होते हुए स्नेहा की आंखें बारबार भीग रही थीं कि इन सारे गहनों को अब वह नहीं पहन पाएगी या फिर शायद 4-5 साल बाद जब उन का बिजनैस चल जाए तो फिर से खरीद लें… पर कम से कम 4-5 साल तो उसे इन के बिना ही रहना पड़ेगा.

पार्टी के लिए गाड़ी से जाते हुए स्नेहा सोच रही थी कि अगर रूपेश नौकरी न छोड़े तो वह रमाबाई के पति को ड्राइवर रख ले.

पूरा दिन स्नेहा कितना काम करती है, अगर वह बिजनैस में हाथ बंटाएगी तो घर और बच्चे कौन संभालेगा?’’ रूपेश भी चिंता में था.

पार्टी जोरशोर से चल रही थी. वहां पहुंचते ही प्रखर और विद्या उन्हें मिल गए. पार्टी के बाद बौस ने सब को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आज की पार्टी मेरे औफिस में काम करने वाले सभी दोस्तों की बीवियों के नाम… अगर वे घर की जिम्मेदारियों से अपने पतियों को मुक्त न रखतीं तो सारे कर्मचारी औफिस में मन लगा कर काम न कर पाते.’’

स्नेहा का दिल जोरों से धड़क रहा था कि अब रूपेश त्यागपत्र दे देगा और ये पार्टियां वगैरह बंद हो जाएंगी.

घर लौटते वक्त रूपेश ने कहा, ‘‘स्नेहा, तुम मेरे और बच्चों के लिए बहुत मेहनत करती हो. बौस ने सच ही कहा कि अगर तुम पूरी जिम्मेदारी से घर संभालती हो तो मैं पूरी जिम्मेदारी से औफिस का काम कर पाता हूं. मैं बेकार में तुम पर गुस्सा करता हूं. सौरी…’’

‘‘रूपेश, तुम्हारा काम भी तो कम महत्त्वपूर्ण नहीं. हमारे पास आज जो कुछ भी है वह तुम्हारी मेहनत का ही तो फल है. दरअसल, मैं इस सब की आदी हो चुकी हूं, इसलिए मैं बेकार की शिकायत करती रहती हूं. लेकिन कभी यह सब खो गया तो पता नहीं मैं कैसे सह पाऊंगी? अच्छा ही हुआ जो तुम ने त्यागपत्र नहीं दिया.’’

Family Story: आफत – सासू मां के आने से क्यों दुखी हो गई रितु?

Family Story, Writer- Neha Chachra

औफिस से घर पहुंचते ही मैं ने छेड़ने वाले अंदाज में रितु से कहा, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, मैडम.’’

रितु फौरन मेरे गले में बांहों का हार डाल कर बोली, ‘‘ओह, सुमित, मेरी खुशियों को ध्यान में रखते हुए आखिरकार तुम ने उचित फैसला कर ही लिया न. मैं अभी सारी गर्भनिरोधक गोलियां कूड़े की टोकरी के हवाले करती हूं.’’

‘‘इतनी जल्दी भी न करो, स्वीटहार्ट,’’

मैं ने उस का हाथ पकड़ कर उसे शयनकक्ष में जाने से रोका, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी मम्मी कुछ दिनों के लिए हमारे पास रहने…’’

‘‘ओह नो…’’ रितु ने जोर से अपने माथे पर हाथ मारा.

‘‘अरे, वे तुम्हारी सगी मम्मी हैं, कोई सौतेली मां नहीं… उन के आने की खबर सुन कर जरा मुसकराओ, यार,’’ मैं ने उसे छेड़ना चालू रखा.

मुझे तो उन के आने की खबर ने खुश कर दिया है, यार

‘‘मेरी सगी मां किसी सौतेली मां से ज्यादा बड़ी आफत लगती हैं मुझे, यह तुम अच्छी तरह जानते हो न. उन का आना टालने के लिए कोई बहाना बना देते तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा?’’ यों शिकायत करते हुए वह मुझ से झगड़ने को तैयार हो गई.

‘‘अरे, मैं क्यों कोई झूठा बहाना बनाता? मुझे तो उन के आने की खबर ने खुश कर दिया है, यार.’’

‘‘मुझे पता है कि जब वे मेरी खटिया खड़ी करेंगी तो तुम्हें खुशी ही होगी. मेरी तबीयत वैसे ही ढीली चल रही है और अब ऊपर से नगर निगम की चेयरमैन मेरे घर में पधार रही हैं,’’ वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो और एक कप गरमगरम चाय पिला दो.’’

मैं ने हंसते हुए उसे बाजू से पकड़ कर उठाना चाहा तो उस ने मेरा हाथ जोर से झटका और तुनक कर बोली, ‘‘अब अपनी लाड़ली सासूमां के हाथ की बनी चाय ही पीना.’’

‘‘तुम गुस्से में बहुत प्यारी लगती हो,’’ मैं ने आंखें मटकाते हुए उस की तारीफ की तो वह मुंह बनाती हुई रसोई में मेरे लिए चाय बनाने चली गई.

मेरी सासूमां स्कूल टीचर हैं. पिछली गरमियों की छुट्टियों में वे हमारे पास 2 सप्ताह रह कर गई थीं. अब दशहरे की छुट्टियों में उन्होंने फिर से आने का कार्यक्रम बनाया है. मेरे मातापिता नहीं रहे हैं, इसलिए मुझे उन का आना अच्छा लगता है, लेकिन रितु की हालत पतली हो रही है.

‘‘मैं शादीशुदा हूं, पराए घर आ गई हूं पर अभी भी मम्मी के सामने पड़ते ही मन अजीब सा डर व घबराहट का शिकार हो जाता है. कोई गलती नहीं की है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी गलत काम को करने के बाद प्रिंसिपल के सामने पेशी हो रही है. मेरी इस दशा का फायदा उठा कर ही वे मुझ पर हिटलरी अंदाज में हुक्म चला लेती हैं,’’ रितु ने पिछली बार अपनी मम्मी के आने के अपने मनोभावों से मुझे  अवगत कराया.

मेरी सासूमां अनोखे व्यक्तित्व की मालकिन हैं. घर में अधिकतर जीन्स व टौप पहनती  हैं. नियम से ऐरोबिक्स करने की शौकीन हैं और पार्क में कभी भी घूमने जाने के लिए तैयार रहती हैं. उन्हें घर में गंदगी बिलकुल बरदाश्त नहीं. आलसी व लापरवाह इंसान उन्हें दुश्मन नजर आते हैं.

पिछली बार सासूमां आई थीं तो रितु को खूब खींच कर गई थीं. रितु आरामपसंद इंसान है पर अपनी मां के सामने डट कर काम करने को बेचारी मजबूर हो गई थी. उसे मेरी सासूमां ने शनिवारइतवार की छुट्टियों में 1 मिनट भी आराम नहीं करने दिया था.

वे सारे घर का कायापलट करा गई थीं. परदे, सोफे के कवर, चादरें, पंखे, खिड़कियां आदि सब की साफसफाई हुई थी. घर का फर्श सारे समय जगमगाता रहा था. रसोई में हर चीज अपनी जगह पर मिलने लगी थी. धूलमिट्टी ढूंढ़ने पर भी घर में कहीं नजर नहीं आती थी.

यह तो रही घर में आए बदलाव की बात, इस के अलावा उन्होंने आते ही अपनी बेटी को तंदुरुस्त करने की भी मुहिम छेड़ दी थी.

रितु की सेहत सुधारने का बीड़ा भी सासूमां ने उठा लिया था

‘‘शादी के बाद अगर तेरा वजन इसी स्पीड से बढ़ता रहा तो तू एकदम बेडौल हो जाएगी, रितु. फिर अगर अमित ने नई गर्लफ्रैंड बना ली तो क्या करेगी? नो, नो, ऐसी लापरवाही बिलकुल नहीं चलेगी. आज से ही अपनी फिटनैस ठीक करने को कमर कस ले,’’ सासूमां की आंखों में सख्ती के ऐसे भाव मौजूद थे कि रितु चूं भी नहीं कर पाई थी.

घर के सफाई अभियान के साथसाथ रितु की सेहत सुधारने का बीड़ा भी सासूमां ने उठा लिया था. रातदिन बेचारी का पसीना बहता रहता था. ऊपर से खाने में से सारी तलीभुनी चीजें भी गायब हो गई थीं. सासूमां खड़ी हो कर अपनी बेटी से सिंपल व पौष्टिक खाना बनवाती थीं.

मैं बहुत खुश था, अपने घर व रितु में आए परिवर्तन को देख कर. सासूमां की प्रशंसा करते हुए मेरी जबान नहीं थकती थी. ऐसे मौकों पर अपनी मां की नजरें बचा कर रितु मुझे यों घूरती थी मानो कच्चा चबा जाएगी, पर अपनी मां के सामने उस बेचारी की मुझ से लड़ने की हिम्मत नहीं होती थी.

अगले दिन रविवार की सुबह सासूमां 9 बजे के करीब हमारे घर आ पहुंचीं. मैं प्रसन्न था जबकि रितु कुछ बुझीबुझी सी नजर आ रही थी.

‘‘तेरी शक्ल पर क्यों 12 बज रहे हैं, गुडि़या?’’ मुझे ढेर सारे आशीर्वाद देने के बाद उन्होंने पहले अपनी बेटी का ऊपर से नीचे तक मुआयना किया और फिर माथे पर बल डाल कर यह सवाल पूछा.

‘‘आप के सुपरविजन में अब इसे जो ढेर सारे घर के काम करने पड़ेंगे, उन के बारे में सोचसोच कर ही इस बेचारी की जान निकल रही है, मम्मी,’’ मैं मजा लेते हुए बोला.

‘‘नहीं, दामादजी, इस बार तो यह मुझे बहुत कमजोर और उदास लग रही है. क्या तुम मेरी बेटी का ठीक से खयाल नहीं रख रहे हो?’’ वे अचानक मुझ से नाखुश नजर आने लगीं तो मैं हड़बड़ा गया.

‘‘ऐसी बात नहीं है, मम्मी. इस की तलाभुना खाने की आदत इसे स्वस्थ नहीं रहने…’’ मुझे आधी बात बोल कर चुप होना पड़ा, क्योंकि उन्होंने मुझ पर से ध्यान हटा लिया था.

सासूमां ने अपनी बेटी का हाथ पकड़ा और कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘अपने मन की हर चिंता को तू मुझे खुल कर बताना, गुडि़या. इन 10 दिन में मैं तेरे चेहरे पर भरपूर रौनक देखना चाहती हूं.’’

‘‘जब ये परदे, सोफे के कवर वगैरह धुल जाएंगे और…’’

‘‘लगता है कि इस बार मुझे घर के बजाय तेरे व्यक्तित्व को निखारने पर ध्यान देना पड़ेगा.’’

‘‘और व्यक्तित्व निखारने के लिए सुबहशाम घूमने जाने से बढि़या तरीका और क्या हो सकता है, मम्मी?’’

‘‘तू थकीथकी सी लग रही है, बेटी. मैं जब तक यहां हूं, तू खूब आराम कर. कुछ दिनों की छुट्टी जरूर ले लेना. हमें अपने मनोरंजन के पक्ष को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.’’

‘‘इंसान जितना ज्यादा प्रकृति के साथ रहेगा, उतना ज्यादा स्वस्थ…’’

‘‘जब 2-4 फिल्में देखेंगे, खूब घूमेंगेफिरेंगे, कुछ मनपसंद शौपिंग करेंगे तो देखना, तेरे मन की सारी उदासी छूमंतर हो जाएगी, मेरी गुडि़या.’’

मेरे जोश के गुब्बारे की हवा सासूमां की बातें सुन कर निकलती चली गई तो मैं ने अपना राग अलापना बंद कर दिया. मेरी समझ में बिलकुल नहीं आ रहा था कि वे इस बार ऐसी अजीबोगरीब बातें रितु से क्यों कर रही हैं.

‘‘ओह, मम्मी, यू आर गे्रट,’’ रितु उछल कर अपनी मां के गले लग गई और साथ ही मुझे जीभ चिढ़ाना भी नहीं भूली.

मैं कुछ बुझाबुझा सा हो गया तो सासूमां ने हंस कर कहा, ‘‘दामादजी, चिंता मत करो. हमारे साथ मौजमस्ती करने तुम भी साथ चलोगे. मैं तुम्हें अपनी बेटी से ज्यादा पसंद करती हूं, कम नहीं. लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है जैसे इस बार तुम्हारे घर में मेरा मन नहीं लगेगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने औपचारिकतावश पूछा.

‘‘अब बिना नाती या नातिन के घर सूना सा लगता है.’’

‘‘मम्मी, अभी तो हमारी शादी को साल भर ही हुआ है. जब 3 साल बीत जाएंगे, तब आप की यह इच्छा भी पूरी हो जाएगी.’’

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आजकल की पीढ़ी पहले खूब धन जोड़ना चाहती है, जी भर कर मौजमस्ती करना चाहती है. उन की प्राथमिकताओं की सूची में बड़ा मकान, महंगी कार और तगड़े बैंक बैलैंस के बाद बच्चे पैदा करने का नंबर आता है.’’

‘‘यू आर राइट, मम्मी. जिस बात को आप इतनी आसानी से समझ गईं, उसे मैं रितु को आज तक नहीं समझा पाया हूं.’’

‘‘मम्मी, मैं ने 28 साल की उम्र में शादी की है, 22-23 की उम्र में नहीं. मेरा कहना है कि अगर मैं जितनी ज्यादा बड़ी उम्र में मां बनूंगी, बच्चा स्वस्थ न पैदा होने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ जाएगी. शादी के 3 साल बाद बच्चा पैदा करना चाहिए, ऐसा कोई नियम थोड़े ही है. इंसान के अंदर समझदारी नाम की भी तो कोई चीज होती है,’’ मौका मिलते ही रितु भड़की और मेरे साथ बहस शुरू करने के मूड में आ गई.

‘‘मम्मी, इस मामले में आप इस की तरफदारी मत करना, प्लीज,’’ मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में एक बार रितु को घूरा और फिर ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चला आया.

मैं घर में मुंह फुला कर घूम रहा हूं, इस बात की मांबेटी को कोई चिंता ही नहीं हुई. दोनों नाश्ता करने के बाद तैयार हुईं और घूमने निकल गईं. मुझ से 2-3 बार साथ चलने को कहा मगर मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में इनकार किया तो दोनों ने खास जोर नहीं डाला था.

लंच के नाम पर मेरे लिए रितु ने आलू के परांठे बना दिए. वे दोनों 12 बजे के करीब घूमने निकलीं और रात को 8 बजे लौटी थीं. इन 8 घंटों में मेरा कितना खून फुंका होगा, इस का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है.

उन के घर में घुसते ही मैं ने 2 बातें नोट की थीं. पहली तो यह कि वे दोनों 7-8 लिफाफे पकड़े घर लौटी थीं और दूसरी यह कि दोनों के चेहरे जरूरत से ज्यादा दमक रहे थे.

कुछ ही देर में मुझे पता लग गया कि उन दोनों ने 8 हजार की खरीदारी एक दिन में कर ही डाली. रही बात चेहरों पर नजर आते नूर की तो खरीदारी करने से पहले दोनों ब्यूटीपार्लर गई थीं. कुल मिला कर 10 हजार का खर्चा मांबेटी ने 1 दिन में ही कर डाला था.

‘‘देखा, दामादजी, इस वक्त रितु कितनी खुश और स्वस्थ दिख रही है. 10 दिन में तो देखना, यह फिल्मी हीरोइनों को मात करने लगेगी,’’ सासूमां अपनी बेटी को प्रशंसा भरी नजरों से निहार रही थीं.

‘‘मम्मी, 10 दिन में 10 हजार रोज के हिसाब से 1 लाख खर्च कर के अगर इस ने फिल्मी हीरोइनों को मात कर भी दिया तो मैं इस की तारीफ करने के लिए जिंदा कहां रहूंगा? सदमे से मेरी जीवनलीला समाप्त हो चुकी होगी न,’’ मैं दुखी अंदाज में मुसकराया तो सासूमां ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

‘‘कभीकभी बड़ा अच्छा मजाक करते हो, दामादजी. अच्छा, तुम दोनों बैठ कर गपशप करो. मैं बढि़या सा पुलाव बनाने रसोई में जाती हूं,’’ सासूमां रसोई में चली गईं.

मेरे कुछ कहने से पहले ही रितु ने तीखे लहजे में सफाई देनी शुरू कर दी, ‘‘मैं ने तो मम्मी को बहुत मना किया, पर वे तो कुछ भी सुनने का तैयार नहीं थीं. कह रही थीं कि खरीदारी करने के कारण वे आप को नाराज नहीं होने देंगी. अब आप को जो भी कहना हो, उन्हीं से कहना. मैं तो पहले ही कह रही थी कि इन के यहां आने के कार्यक्रम को कोई बहाना बना कर टाल दो. आप ही अपनी लाड़ली सासूमां को बुलाने का भूत सवार था, अब भुगतो.’’

आगे की बहस से बचने के लिए उठ कर वह शयनकक्ष की तरफ चल दी. मैं ने नाराज स्वर में उसे हिदायत दी, ‘‘अब आगे से एक पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मम्मी तो कह रही हैं कि मैं उन के साथ घूमनेफिरने के लिए औफिस से हफ्ते भर की छुट्टियां ले लूं. अब इस बाबत जो कहना हो, आप उन से कहो. आप को पता तो है कि उन के सामने मुंह खोलने की मेरी हिम्मत नहीं होती है,’’ अपनेआप को साफ बचाती हुई रितु मेरी आंखों से ओझल हो गई.

मैं रितु को औफिस से छुट्टियां लेने से नहीं रोक सका. वे दोनों अगले दिन भी शौपिंग करने गईं और इस बार सासूमां ने रितु को 40 हजार की सोने की चेन खरीदवा दी.

‘‘मम्मी, आप क्या इस बार मुझे कंगाल करने का कार्यक्रम बना कर यहां आई हैं?’’ मैं ने दोनों हाथों से सिर थाम कर उन से यह सवाल पूछा तो वे उदास सी हंसी हंस पड़ीं.

‘‘दामादजी, आज सोने की चेन तो सचमुच मैं ने जबरदस्ती रितु को खरीदवाई है. मन सुबह से बड़ा उचाट था. रात को नींद भी अच्छी नहीं आई थी. सच बात तो यह है कि मन की उदासी दूर करने के चक्कर में ही मैं ने 40 हजार खर्च किए हैं. मन लग ही नहीं रहा है इस बार तुम्हारे यहां. अगर खेलने के लिए कोई नातीनातिन होती…’’

‘‘मम्मी, आप फालतू के खर्च को बंद कर मुझे कंगाल होने से बचाइए और मैं आप से वादा करता हूं कि बहुत जल्द ही आप का कोई नातीनातिन घर में नजर आएगा.’’

मेरे मुंह से इन शब्दों का निकलना था कि मांबेटी दोनों ने पहले खुशी से उछलते हुए तालियां बजानी शुरू कर दीं, फिर सासूमां ने उठ कर मुझे छाती से लगा लिया और रितु मेरा हाथ उठा कर उसे बारबार चूमे जा रही थी.

‘‘थैंक यू, दामादजी,’’ खुशी के मारे सासूमां का गला भर आया, ‘‘मुझे तुम ने इतना खुश कर दिया है कि कल और आज का सारा खर्चा मेरे खाते में गया.’’

‘‘सच?’’ मेरे मन की सारी चिंता पल भर में खत्म हो गई.

‘‘तुम ने जो मुझे नानी बनाने का वादा किया है, वह सच है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो मैं भी सच बोल रही हूं, दामादजी. अब लगे हाथ जल्दी पापा बनने की पेशगी मुबारकबाद भी कबूल कर लो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सासूमां को रहस्यमय अंदाज में मुसकराते देख मैं चौंक पड़ा.

‘‘जल्द ही इस घर में नन्हेमुन्हे किलकारियां जो गूंजने वाली हैं.’’

‘‘क्या मम्मी सच कह रही हैं?’’ मैं ने रितु से पूछा.

उस ने गरदन ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा  और टैंशन भरी नजरों से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी.

‘‘रितु तुम्हें यह खुशखबरी सुनाने से डर रही थी, दामादजी. यह बेवकूफ सोचती थी कि तुम 3 साल बाद बच्चा पैदा करने वाली अपनी जिद पर अड़ कर इस के ऊपर गर्भपात कराने के लिए दबाव डालोगे. तब इस की तसल्ली के लिए मुझे 50 हजार खर्च कर तुम्हारे मुंह से यह कहलवाना पड़ा कि तुम पापा बनने को तैयार हो. मेरे लिए तो यह बड़ा फायदेमंद सौदा रहा है. मैं बहुत खुश हूं, दामादजी,’’ सासूमां ने हम दोनों को इस बार एकसाथ गले लगा लिया.

मैं ने रितु की आंखों में प्यार से झांकते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘रितु, मैं कंजूस

हूं. पैसे जोड़ने के लिए बहुत झिकझिक करता हूं, क्योंकि मातापिता के न रहने से

मेरा बचपन बहुत अभावों और दुखों से भरा हुआ था. असुरक्षा का एहसास मेरे मन में बहुत गहरे बैठा हुआ है और उसी के चलते मैं पहले अपनी आर्थिक जड़ें मजबूत कर लेना चाहता था. लेकिन मैं ऐसा पत्थरदिल इंसान नहीं हूं कि आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए तुम्हारी कोख में पल रहे अपने बच्चे को मारने का फैसला…’’

‘‘मैं ने आप को समझने में भारी भूल की है. मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज,’’ मेरी आंखों में भर आए आंसुओं को देख रितु फफकफफक कर रोने लगी.

मेरे कुछ बोलने से पहले ही सासूमां शुरू हो गईं, ‘‘रितु, कल से घर की सफाई का काम शुरू हो जाएगा. सुमित, तुम परदे उतरवाने में मेरी हैल्प करना. कल से ही पार्क घूमने भी चला करेंगे हम सब. सेहत को ठीक रखना अब तो और ज्यादा जरूरी हो गया है तुम्हारे लिए, रितु. सिर्फ सप्ताह भर ही है मेरे पास और कितने सारे काम…’’

सासूमां अपनी पुरानी फौर्म में लौट आई हैं, यह देख कर रितु ने ऐसा मुंह बनाया मानो कोई बहुत कड़वी चीज मुंह में आ गई हो और फिर हम तीनों एकसाथ ठहाका मार कर हंसने लगे.

Family Story: अम्मां जैसा कोई नहीं

Family Story: अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह किया

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Hindi Family Story: उपेक्षा – कैसे टूटा अनुभा का भ्रम?

Hindi Family Story: हमेशा सहेलियों की तरह रहने वाली मां और अनीषा चाची का व्यवहार अनुभा को आज पहली बार असहज लगा. अनीषा चाची कुछ परेशान लग रही थीं. मां के बहुत पूछने पर उन्होंने हिचकते हुए बताया, ‘‘मेरा चचेरा भाई सलिल यहां ट्रेनिंग पर आ रहा है शीतल भाभी. रहेगा तो कंपनी के गैस्टहाउस में, लेकिन छुट्टी के रोज तो आया ही करेगा.’’

‘‘नहीं आएगा तो गाड़ी भेज कर बुला लिया करेंगे,’’ शीतल उत्साह से बोली, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘परेशान होने वाली बात तो है शीतल भाभी. मम्मी कहती हैं कि तेरे घर में जवान लड़की है, फिर उस की सहेलियां भी आतीजाती होंगी. ऐसे में सलिल का तेरे घर आनाजाना सही नहीं होगा.’’

‘‘उसे आने से रोकना सही होगा?’’

‘‘तभी तो परेशान हूं भाभी, सलिल को समझाऊंगी कि वह निक्की और गोलू का ही नहीं अनुभा और अजय का भी मामा है.’’

‘‘वह तो है ही, लेकिन आजकल के बच्चे ये सब नहीं मानते,’’ शीतल का स्वर चिंतित था.

‘‘इसीलिए जब आया करेगा तो अपने कमरे में ही बैठाया करूंगी.’’

‘‘जैसा तू ठीक समझे. बस न तो सलिल को बुरा लगे और न कोई ऊंचनीच हो,’’ शीतल के स्वर में अभी भी चिंता थी.

अनुभा ने मां और चाची को इतना परेशान देख कर सोचा कि वह स्वयं ही सलिल को घास नहीं डालेगी. उस के आने पर अपने कमरे में चली जाया करेगी ताकि चाची और मां उस के साथ सहज रह सकें.

सलिल को पहली बार अमित चाचा घर ले कर आए. सब से उस का परिचय करवाया, ‘‘है तो यह तेरा भी मामा अनु, लेकिन हमउम्र्र है, इसलिए तुम दोनों में दोस्ती ठीक रहेगी.’’

‘‘जी चाचा,’’ अनुभा ने हतप्रभ लग रहीं चाची और मां की ओर देख कर उस समय तो सलिल से हैलो के अलावा और बात नहीं की, लेकिन सलिल की आकर्षक छवि और मजेदार बातों को वह चाह कर भी दिल से नहीं निकाल सकी.

सलिल की मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही वह अपने कमरे में तो चली जाती थी, लेकिन कान बराबर चाची के कमरे से आने वाली ठहाकों की आवाजों पर लगे रहते थे और जब मां या चाची सलिल के सुनाए चुटकुले पापा और अमित चाचा को सुनाती थीं तो वह बड़े ध्यान से सुनती थी और फिर कालेज में अपनी सहेलियों को सुनाती थी.

कुछ दिन बाद अपनी सहेली माधवी की बहन की सगाई में उस के बड़े भाई मोहन के साथ खड़े सलिल को देख कर अनुभा चौंक पड़ी.

‘‘यह मेरा दोस्त सलिल है, अनु,’’ मोहन ने परिचय करवाया, ‘‘और यह माधवी की

खास सहेली…’’

‘‘जानता हूं यार, मामा हूं मैं इस का,’’ सलिल हंसा.

‘‘रियली? तब तो तू संभाल अपने मामा को अनु. यह पहली बार हमारे घर आया है. इस का परिचय करवा सब से. मैं दूसरे काम कर लेता हूं,’’ कह कर मोहन चला गया.

सलिल शरारत से मुसकराया, ‘‘मेरे एक सवाल का जवाब दोगी प्लीज? क्या मेरी शक्ल इतनी खराब है कि मेरे आने की आहट सुनते ही तुम अपने कमरे में छिप जाती हो? जानती हो इस से कितनी तकलीफ होती है मुझे?’’

‘‘तकलीफ तो मुझे भी बहुत होती है,’’ अनुभा के मुंह से बेसाख्ता निकला, ‘‘छिपने से नहीं बल्कि तुम्हें न देख पाने की वजह से.’’

‘‘तो फिर देखती क्यों नहीं?’’

अनुभा ने सही वजह बता दी.

‘‘ओह, तो यह बात है. मेरे यहां आने से पहले मेरे घर में भी यही टैंशन थी, लेकिन तुम्हारे चाचा ने तो मुझ से दोस्ती करने को कहा था, सामने न आने के लिए किस ने कहा?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. चाचा की बात सुन कर मां और चाची इतनी परेशान लगीं कि मैं ने उन्हें और परेशान करने के बजाय खुद ही बेचैन होना बेहतर समझा.’’

सलिल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘तुम्हारे घर से और कोई नहीं आया?’’

‘‘मां और चाची आएंगी कुछ देर बाद.’’

‘‘उस से पहले अपनी सहेलियों से कहो कि वे सब भी मुझे मामा बुलाएं. मैं दीदी को विश्वास दिला दूंगा कि मैं रिश्तों की मान्यता में विश्वास रखता हूं ताकि मेरीतुम्हारी दोस्ती पर किसी को शक न हो.’’

लड़कियों को भला उसे मामा बुलाने में क्या ऐतराज होता? जब तक अनीषा और शीतल आईं, सलिल भागभाग कर काम कर के सब का चहेता और प्राय: छोटेबड़े सब का ही मामा बन चुका था.

‘‘ये सब क्या है भाई?’’ अनीषा ने पूछा.

‘‘दीदी के शहर में आने का प्रसाद,’’ सलिल ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘यह सोच कर आया था कि कोई गर्लफ्रैंड बन जाएगी. मगर अनुभा की सारी सहेलियां भी तो मेरी भानजियां ही लगीं. भानजी को गर्लफ्रैंड बनाने के संस्कार तो आप ने दिए नहीं सो बस काम कर के और मामा बन कर आशीष बटोर रहा हूं.’’

शीतल तो भावविभोर होने के साथसाथ अभिभूत भी हो गई. सगाई की रस्म के बाद जब उन्होंने अनुभा से घर चलने को कहा तो माधवी ने कहा, ‘‘अनुभा अभी कैसे जाएगी? काम के चक्कर में हम ने कुछ खाया भी नहीं है. आप जाओ, अनुभा बाद में आएगी.’’

‘‘अकेली?’’

‘‘अकेली क्यों?’’ माधवी की मां ने पूछा, ‘‘इस का मामा है न, उस के साथ आ जाएगी.’’

‘‘क्यों सलिल, ले आओगे?’’ अनुभा की आशा के विपरीत शीतल ने पूछा.

‘‘जी बड़ी दीदी, मगर इन सब का खाने का ही नहीं नाचगाने का भी प्रोग्राम है जो देर तक चलेगा.’’

‘‘तुम जब तक चाहो रुकना, फिर भानजी को कान पकड़ कर ले आना. मामा हो तुम उस के,’’ शीतल ने हंसते हुए कहा.

शीतल की हरी झंडी दिखाने के बावजूद अनुभा सलिल के घर आने पर न अपने कमरे से बाहर निकलती थी और न ही उस के बारे में बात करती थी, मगर सलिल की छुट्टी के रोज माधवी के घर पढ़ने के बहाने चली जाती थी और वहां से सलिल के साथ घूमने. माधवी तक को शक नहीं होता था. इम्तिहान खत्म होते ही घर में उस की शादी की चर्चा होने लगी. उस ने सलिल को बताया.

‘‘मुझे भी दीदी ने अपने दोस्तों में तुम्हारे लिए उपयुक्त वर ढूंढ़ने को कहा है.’’

‘‘अपना नाम सुझाओ न.’’

‘‘पागल हूं क्या? मेरे यहां आने पर जो इतना बवाल मचा था. वह इसीलिए तो था कि अगर मैं ने तुम से शादी करनी चाही तो अनर्थ हो जाएगा. जिस घर में लड़की दी है उस घर से लड़की नहीं लेते.’’

‘‘तुम ये सब मानते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, लेकिन अपने परिवार की मान्यताओं और भावनाओं की कद्र करता हूं.’’

‘‘मगर मेरे प्यार की नहीं.’’

‘‘उस की भी कद्र करता हूं और तुम्हारे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘हो सकता है तुम्हारे घर वाले तुम्हारी शादी न करने की जिद मान लें, मगर मुझे तो शादी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘वह तो मैं भी करूंगा अनु.’’

अनुभा झुंझला गई. अजीब मसखरा आदमी है. मेरे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता, मगर शादी करेगा. सलिल तो जैसे उस का चेहरा खुली किताब की तरह पढ़ लेता था.

‘‘शादी किसी से भी हो, तसव्वुर में तो मेरे हमेशा तुम रहोगी और तुम्हारे तसव्वुर में मैं, बस अपने जीवनसाथी से यह सोच कर प्यार किया करेंगे कि हम एकदूसरे से कर रहे हैं.’’

‘‘अगर गलती से कभी मुंह से असली नाम निकल गया तो चोरी पकड़ी नहीं जाएगी?’’

अनुभा ने भी यह सोच कर सब्र कर लिया कि जैसे अभी वह सलिल के खयालों में जीती है, हमेशा जीती रहेगी और शादी के बाद मिलना भी आसान हो जाएगा, क्योंकि विवाहित मामाभानजी के मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं होगा.

सलिल यह सुन कर खुशी से बोला, ‘‘अरे वाह, फिर तो चोरीछिपे नहीं सब के सामने तुम्हें गले लगाया करूंगा, कहीं घुमाने के बहाने बढि़या होटल में ले जाया करूंगा.’’

जल्द ही दुबई में बसे डाक्टर गिरीश से अनुभा का रिश्ता पक्का हो गया. देखने में गिरीश सलिल से 21 ही था और बहुत खुशमिजाज भी, लेकिन अनुभा ने उस में सलिल की छवि ही देखी. शादी में अनीषा का पूरा परिवार आया. मौका मिलते ही अनुभा ने सलिल से कहा कि वह अपने प्यार की निशानी के तौर पर कुछ भेंट तो दे.

‘‘देना तो चाहता था, लेकिन दीदी ने कहा कि अम्मां दे तो रही हैं, तुझे अलग से कुछ देने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘फिर भी कुछ तो दे दो, जिस के पास रहने से मुझे यह एहसास रहे कि तुम मेरे पास हो.’’

सलिल ने जेब से रूमाल निकाला और उसे चूम कर अनुभा को पकड़ा दिया. अनुभा ने उसे आंखों से लगाया.

‘‘यह मेरे जीवन की सब से अनमोल वस्तु होगी.’’

उस ने शुरू से ही गिरीश को सलिल समझा, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि मजा ही आया और सोचा कि वह सलिल को मिलने पर बताएगी कि फौर्मूला कामयाब रहा. लेकिन मिलने का मौका ही नहीं मिला. नैनीताल में हनीमून मना कर लौटने पर सलिल की मोटरसाइकिल अजय को चलाते देख कर उस ने पूछा, ‘‘सलिल मामा की मोटरसाइकिल तुम्हारे पास कैसे?’’

‘‘सलिल मामा से पापा ने खरीद ली है यह मेरे लिए.’’

‘‘मगर सलिल मामा ने बेची क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे कनाडा चले गए.’’

अनुभा बुरी तरह चौंक गई, ‘‘अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘यह तो मालूम नहीं.’’

अनुभा ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया. शाम को वह माधवी से मिलने के बहाने मोहन से सलिल के अचानक जाने की वजह पूछने गई.

‘‘सलिल मामा अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘पहली बार कोई भी अचानक विदेश नहीं जाता अनु, सलिल यहां हैड औफिस में कनाडा जाने से पहले खास प्रशिक्षण लेने आया था. प्रशिक्षण खत्म होते ही चला गया,’’ मोहन ने जैसे उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया.

‘‘वह कनाडा से आप को फोन तो करते होंगे… मुझे उन का नंबर दे दीजिए प्लीज,’’ अनुभा ने मनुहार करी.

‘‘चंद महीनों के दोस्तों को न कोई इतनी दूर से फोन करता है और न ही याद रखता है. बेहतर रहेगा कि तुम भी सलिल को भूल कर अपनी नई जिंदगी में खुश रहो.’’

अनुभा को लगा कि मोहन जैसे उस पर तरस खा रहा है. वह नई जिंदगी का मजा तो ले रही थी, लेकिन सलिल को याद करते हुए, उस के दिए रूमाल को जबतब चूम कर.

अचानक एक रोज गिरीश ने उस के हाथ में वह रूमाल देख कर कहा, ‘‘इतना गंदा रूमाल एक डाक्टर की बीवी के हाथ में क्या कर रहा है? फेंको इसे.’’

अनुभा सिहर उठी. फेंकना तो दूर, सलिल के चूमे उस रूमाल को तो वह धो भी नहीं सकती थी. उस ने रूमाल को गिरीश से छिपा कर टिशू पेपर में सहेज दिया अकेले में चूमने के लिए.

गिरीश का परिवार कई वर्षों से दुबई में सैटल था. जुमेरा बीच के पास उन का बहुत बड़ा विला था और शहर में कई मैडिकल स्टोर और उन से जुड़े क्लीनिक्स की शृंखला थी. गिरीश भी एक क्लीनिक संभालता था. परिवार की सभी महिलाएं व्यवसाय के विभिन्न विभागों की देखरेख करती थीं.

अनुभा भी जेठानी वर्षा के साथ आधे दिन को औफिस जाती थी. अनुभा दुबई आ कर बहुत खुश थी. लेकिन न जाने क्यों सलिल की याद अब कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगी थी. जबतब उस का रूमाल चूम कर तसल्ली करनी पड़ती थी.

एक रोज वर्षा की कजिन लता ने फोन पर बताया कि उस के पति का भी दुबई में तबादला हो गया है, अभी तो होटल में रह रही है, घर और गाड़ी मिलने पर वर्षा से मिलने आएगी. लेकिन वर्षा उस से तुरंत मिलना चाहती थी. अनुभा ने सुझाया कि औफिस से लौटते हुए वे दोनों लता को उस के होटल से ले आएंगी. शाम को ड्राइवर उस के पति को औफिस से पिक कर लेगा और रात के खाने के बाद होटल छोड़ देगा. वर्षा का सुझाव अच्छा लगा पर घर के पुरुष तो देर से आते थे, तब तक लता का पति औरतों में बोर हो जाता. गिरीश हर बृहस्पति की शाम को क्लीनिक से जल्दी लौटता था. अत: अनुभा के कहने पर वर्षा ने लता को बृहस्पति को बुलाया. दोपहर को जेठानी देवरानी लता को लेने उस के होटल में गईं.

‘‘तू तो शादी के बाद अमेरिका या कनाडा गई थी, फिर यहां कैसे आ गई?’’ वर्षा ने पूछा.

‘‘मुझे बर्फ रास नहीं आई, इसलिए इन्होंने यहां तबादला करवा लिया,’’ लता दर्प से बोली.

‘‘अरे वाह, बड़ा दिलदार आदमी है भई, बीवी के लिए डौलर छोड़ कर दिरहम कमाना मान गया,’’ वर्षा ने चुहल करी.

‘‘मेरे लिए तो जांनिसार भी हैं दीदी,’’

लता इठलाई. वर्षा और अनुभा हंस पड़ी.

‘‘इस जांनिसर दिलदार से रिश्ता करवाया किस ने, चुन्नो चाची ने?’’ वर्षा ने पूछा.

लता हंसने लगी, ‘‘नहीं दीदी, चाची तो इस रिश्ते के बेहद खिलाफ थीं. उन का कहना था कि लड़का दिलफेंक और छोकरीबाज है. लेकिन चाचाजी ने कहा कि सभी लड़कों के शादी से पहले टाइम पास होते हैं, शादी के बाद सब ठीक हो जाते हैं.’’

‘‘आप के जांनिसार आप को किसी पुरानी टाइम पास के नाम से यानी किसी खास नाम से तो नहीं बुलाते?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘नहीं, लता ही पुकारते हैं.’’

‘‘फिर कोई फिक्र की बात नहीं है,’’ अनुभा बोली, ‘‘आप के जांनिसार सिर्फ आप के हैं.’’

शाम को गिरीश के आने के बाद वर्षा ने कहा, ‘‘गिरीश, मैं लता को जुमेरा बीच घुमाने ले जा रही हूं. लता के पति के आने पर तुम और अनुभा उन का स्वागत कर लेना.’’

कुछ देर के बाद गिरीश ने उत्साहित स्वर में अनुभा को पुकारा, ‘‘अनु, देखो तो लता के पति कौन हैं, तुम्हारे सलिल मामा.’’

उल्लासउत्साह से उफनती गिरतीपड़ती अनुभा ड्राइंगरूम में आई. हां, सलिल ही तो था, शरीर थोड़ा भर जाने से और भी आकर्षक लग रहा था.

‘‘लीजिए, आप की भानजी आ गई,’’ गिरीश बोला.

‘‘लेकिन मेरी बीवी कहां है?’’ सलिल ने अनुभा की उल्लसित किलकारी की ओर ध्यान दिए बगैर उतावली से पूछा.

‘‘भाभी के साथ समुद्र तट घूमने गई हैं, मैं बुला कर लाता हूं. तब तक आप अपनी भानजी के साथ बतियाइए.’’

‘‘बतियाने से पहले गले लगा कर आशीर्वाद तो दो मामा,’’ अनुभा मचली.

‘‘मामाजी की गोद में ही बैठ जाओ न,’’ गिरीश हंसा.

‘‘अभी तो गोद में लता को बैठा कर देखने को बेचैन हूं कि उस की आंखें ज्यादा गहरी हैं या समुद्र. आप वर्षा जीजी को घर ले आना प्लीज ताकि हम दोनों कुछ देर अकेले बैठ सकें, समुद्र के किनारे,’’ सलिल ने बेसब्री से कहा, ‘‘चलिए, गिरीशजी.’’

इतनी बेशर्मी, इतनी उपेक्षा. अनुभा सहन नहीं कर सकी, अपमान से तिलमिलाती हुई तेजी से अपने कमरे में गई, अकेले में रोने नहीं, बल्कि सलिल के दिए अनमोल रूमाल को फाड़ कर फेंकने के लिए.

Social Story: खुल गई पोल

Social Story, लेखक-  अनूप कुमार सिंह

किशना जब बलजीत प्रधान की चौपाल से उठ कर घर की ओर आ रहा था, तो उस के डगमगाते कदम भी मानो उस का साथ नहीं दे रहे थे, लेकिन वह अपनेआप को दुनिया का सब से खुशनसीब इनसान और बलजीत प्रधान को बड़ा दानदाता समझता था, जो किशना जैसे लोगों को मुफ्त में दारू पिलाता है.

घर पहुंच कर दुलारी को जागती देख कर किशना बोला, ‘‘तू अभी तक सोई नहीं है?’’

‘‘अब तो तेरा इंतजार करने की आदत सी पड़ गई है,’’ दुलारी ने सहज भाव से कहा, ‘‘खाना लगाऊं या खा कर आए हो?’’

‘‘अरे मेरी दुलारो, बलजीत प्रधान इतना खिलापिला देता है कि उस के बाद जरूरत ही नहीं पड़ती. एकदम हीरा आदमी है,’’ किशना ने तारीफ के अंदाज में कहा.

‘‘वह तुझे दारू नहीं जहर पिला रहा है. उस की नजर अपने खेत पर है,’’ तीखी लेकिन दबी आवाज में दुलारी  ने कहा.

‘‘अरे, अगर उसे खेत ही चाहिए तो आज किसी और का नहीं खरीद  सकता है. उस के पास कौन सा पैसे की कमी है,’’ किशना ने दुलारी को डांटते हुए कहा.

‘‘वह हमारा खेत इसलिए चाहता है, क्योंकि वह उस के ट्यूबवैल के पास है. तू इतनी सी बात नहीं समझता… एक न एक दिन मैं उस की नीयत की पोल खोल कर रहूंगी, तब देखना.’’

इस के बाद किशना और दुलारी की कोई बातचीत नहीं हुई. किशना पास बिछी चारपाई पर खर्राटे मारने लगा और दुलारी अतीत की उन यादों में खो गई, जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी.

तब कितनी खुशियां थीं यहां. सभी लोग खेतिहर मजदूर थे, पर इतना कमा लेते थे कि किसी के आगे हाथ फैलाने की कभी नौबत नहीं आती थी.

सुहागरात पर जब सभी दारू के नशे में मस्त थे, तब दुलारी ने शरमा कर किशना से पूछा था, ‘क्या तू भी इन लोगों की तरह दारू पिएगा?’

तब किशना ने दुलारी को अपनी बांहों में भर कर कहा था, ‘जब तुझ में ही इतना नशा है, तो मुझे पीने की क्या जरूरत.’

समय बीतने के साथ खुशी के रूप में जब उन की बेटी बन्नो इस दुनिया में आई, तो किशना को दुलारी की जगह दारू ज्यादा अच्छी लगने लगी, भले ही इस में बलदेव प्रधान का हाथ बहुत ज्यादा था.

भोर की सुबह जब दुलारी अपने खेत पर गई, तो गेहूं की फसल में पानी की जरूरत को देखते हुए वह बलदेव प्रधान के ट्यूबवैल पर चली गई.

उस समय बलदेव प्रधान चारपाई पर लेटा हुआ था और उस का चमचा शंभू उस के पैर दबा रहा था.

दुलारी ने पास पहुंच कर घूंघट की ओट से धीरे से पूछा, ‘‘प्रधानजी, पानी कब मिलेगा?’’

‘‘अरे दुलारी, पानी क्या पूरा ट्यूबवैल तेरा है… बस एक बार मेरी बात मान ले, कसम से तेरी जिंदगी बना दूंगा,’’ अंगड़ाई लेते हुए बलदेव प्रधान  ने कहा.

‘‘क्या ऐसी बातें सब के सामने की जाती हैं…’’ इठलाते हुए दुलारी ने कहा.

‘‘तू इस शंभू की चिंता मत कर. यह तो अपना ही आदमी है,’’ हवस में अधलेटा होते हुए बलदेव प्रधान ने कहा.

‘‘तो ठीक है, आज गहरी रात घर आ जाओ,’’ इतना कह कर हंसते हुए दुलारी वहां से जाने लगी.

‘‘सुनसुन… और तेरा मरद घर पर होगा,’’ बलदेव प्रधान का चमचा  शंभू होशयारी दिखाते हुए बीच में  बोल पड़ा.

इसी के साथ बलदेव प्रधान ने शंभू के सिर पर हलकी सी चपत जमाई और बोला, ‘‘तू इतने दिनों से हमारे साथ है. और इतना भी नहीं जानता कि किशना तो दारू का गुलाम है… दे देंगे दारू की बोतल तो पड़ा रहेगा कहीं भी.’’

घर आ कर दुलारी ने पूरी बात किशना को बताई और बोली, ‘‘मैं कहती थी न कि प्रधान बुरा आदमी है.’’

‘‘अगर ऐसी बात है दुलारी, तो मैं कभी उस के पास नहीं जाऊंगा और न ही दारू को हाथ लगाऊंगा,’’ पछताते हुए किशना ने कहा.

दुलारी चुप रही.

‘‘ठीक है दुलारी, उसे रात में आने दे, अगर लाठी मारमार कर उस को अधमरा न कर दिया तो कहना?’’

‘‘आज तू उस की चौपाल पर जरूर जाना, नहीं तो उस को शक हो जाएगा, लेकिन दारू कम पीना,’’ दुलारी ने समझाते हुए कहा.

आज बलदेव प्रधान किशना का ही इंतजार कर रहा था. उस को आया देख कर दारू की बोतल उस की ओर उछाल कर बोला, ‘‘ले किशना, आज जम कर ऐश कर.’’

पर, आज किशना से दारू गले के नीचे नहीं उतारी गई. वह बोला, ‘‘मैं घर जा कर पिऊंगा.’’

घर आ कर किशना ने बोतल एक ओर रख दी. आज उस के मन में दारू पीने की कोई कसक नहीं हो रही थी.

आज की रात गहराइयों में जा रही थी, लेकिन किशना और दुलारी की आंखों में नींद नहीं थी. तभी उन के मिट्टी से बने घर से ‘धपाक’ की आवाज आई. शायद दीवार की कुछ मिट्टी नीचे गिरी थी.

किशना आवाज की तरफ ‘चोरचोर’ की आवाज लगाता हुआ भागा और कंबल डाले हुए एक साए को कई डंडे धर दिए.

अचानक हुए हमले से साए को भी संभलने का मौका नहीं मिला. इधर दुलारी और किशना की आवाज सुन कर आसपास के लोग भी वहां आ गए.

कंबल डाले वह साया गली में भाग रहा था. किशना और महल्ले के लोग उसे खदेड़ रहे थे, तभी गली के उस छोर से बलदेव प्रधान का चमचा शंभू दारू के नशे में लड़खड़ाता हुआ चला आ रहा था. अपनी ओर आ रहे साए को देख कर वह बोला, ‘‘अरे प्रधानजी आप…’’

अब बलदेव प्रधान ने कंबल  एक ओर फेंक कर शंभू से कहा, ‘‘बुड़बक, तू ने तो सारी पोल खोल कर ही रख दी…’’

Hindi Short Story: सच्चा प्रेम

Hindi Short Story: 6 साल पहले की बात है. सोशल मीडिया ने पूरी रफ्तार से गति पकड़ ली थी. श्यामली ने भी फेसबुक पर अपना एकाउंट बना लिया था. उसी साल उस का ग्रैजुएशन पूरा हुआ था. ग्रैजुएशन पूरा होते ही उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

स्वभाव से चंचल, शांत और हमेशा दूसरे के बारे में पहले सोचने वाली श्यामली औफिस का काम पूरा कर के फेसबुक लौगइन कर के बैठ जाती थी. श्यामली की प्रोफाइल में उस की एक फ्रैंड प्रियंका थी. प्रियंका और श्यामली अकसर फेसबुक पर कोई न कोई पोस्ट डालती रहती थीं. उस के बाद उन पर आए कमेंट्स और लाइक भी वे ध्यान से पढ़तीं और जरूरी होता तो जवाब भी देतीं. फेसबुक चलाने में उन्हें इतना मजा आता था कि वे उस की दीवानी बन गई थीं.

उस दिन औफिस से निकलते ही श्यामली ने फेसबुक पर एक पोस्ट शेयर की. देखते ही देखते उस पर लाइक और कमेंट्स आने लगे. प्रियंका और श्यामली आने वाले कमेंट्स पर आपस में बातें कर रही थीं कि तभी प्रियंका के एक कौमन फ्रैंड ने भी उस पोस्ट पर कमेंट किया. उस का नाम था दुष्यंत. इस के बाद दुष्यंत, प्रियंका और श्यामली कमेंट बौक्स में ही बातें करने लगे थे.

2 दिन बाद जब श्यामली ने फेसबुक खोला तो उस में दुष्यंत की फ्रैंड रिक्वेस्ट आई थी. 2 दिनों तक सोचनेविचारने के बाद श्यामली ने उस की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली. यहीं से शुरू हुई उस प्यार की शुरुआत, जो कभी श्यामली को मिल नहीं सका.

दुष्यंत ने कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई अभी जल्दी ही पूरी की थी. स्वभाव से शांत और भावनात्मक दुष्यंत हमेशा सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहता था. सोशल मीडिया पर ही श्यामली से उस की मुलाकात हुई थी. श्यामली और दुष्यंत अब फेसबुक फ्रैंड बन गए थे. हायहैलो से शुरू हुआ यह संबंध अब पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था.

मार्निंग शिफ्ट होने की वजह से दुष्यंत सुबह जल्दी 5 बजे ही उठ जाता था. और उठने के साथ ही वह श्यामली को गुडमौर्निंग का मैसेज भेजता था. यह उस का रोजाना का नियम बन गया था.  दुष्यंत की सुबह श्यामली को मैसेज भेजने के साथ ही शुरू होती थी. इस के बाद श्यामली के मैसेज के इंतजार में उस का आधा दिन बीत जाता. उसे श्यामली अच्छी लगने लगी थी. किसी न किसी बहाने वह उस से बात करने का मौका खोजता रहता था. वह यही सोचता रहता था कि श्यामली कब औनलाइन हो और वह उसे मैसेज करे.

दुष्यंत एक संस्कारी घर का युवक था, इसलिए श्यामली को उस पर विश्वास करने में ज्यादा समय नहीं लगा. विश्वास होने के बाद श्यामली ने दुष्यंत को अपना फोन नंबर दे दिया था. वैसे तो श्यामली आज के जमाने की आधुनिक लड़की थी. फिर भी वह खुद को इस आधुनिक जमाने से दूर रखती थी. क्योंकि उसे पता था कि सोशल मीडिया पर दुनिया भर के गलत काम भी होते हैं.

दुष्यंत को उस ने एक महीने तक परखा था, उस के बाद उस ने उसे दोस्त के रूप में दिल से स्वीकार किया था. बाकी तो उसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आता था.

नंबर मिलने के बाद वाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के आगे भी बात बढ़ गई थी. जबकि श्यामली अभी भी उसे अच्छा दोस्त ही मान रही थी. दुष्यंत तो श्यामली के ही सपनों में दिनरात खोया रहता था. इस के बावजूद दुष्यंत कभी श्यामली से अपने प्यार का इजहार नहीं कर सका था. दूसरी ओर दुष्यंत के स्वभाव से प्रभावित हो कर श्यामली के मन में भी उस के लिए प्रेम का बीज अंकुरित होने लगा था. पर कोई संस्कारी लड़की कहां जल्दी अपने प्यार का इजहार करती है. फिर श्यामली तो वैसे भी अपने मन की बात जल्दी किसी से कहने वाली नहीं थी.

उसी तरह दुष्यंत भी हमेशा सोचता रहता था कि वह अपने मन की बात कैसे श्यामली से कहे. प्यार की बात कहने पर कहीं श्यामली नाराज न हो जाए. पता नहीं वह उस के बारे में क्या सोचती होगी, क्या वह भी उसी की तरह उसे प्यार करती है या नहीं. अगर वह अपने मन की बात उस से कहेगा तो वह कहीं बुरा तो नहीं मानेगी?

यही सब सोचतेसोचते दिन बीत रहे थे. दुष्यंत हमेशा इसी सोच में डूबा रहता था कि आखिर वह करे तो क्या करे, किस तरह वह श्यामली से अपने मन की बात कहे.

आखिर एक दिन उस ने हिम्मत कर के श्यामली से मन की बात कह ही दी. श्यामली ने कहा, ‘‘अरे… अरे अभी रुको, अभी तो दूसरा अध्याय बाकी है.’’

दुष्यंत श्यामली से अपने मन की पूरी बात यानी प्रेम का इजहार तो नहीं कर पाया, पर इतना तो जता ही दिया कि वह उसे पसंद करता है. उस ने यह भी कह दिया था, ‘‘मैं तुम्हें तुम्हारे घर देखने आना चाहता हूं. तुम अपने मम्मीपापा से कह देना. मैं अपने मम्मीपापा के साथ आऊंगा.’’

इतना कह कर दुष्यंत सपनों की दुनिया में खो गया.

आखिर वह घड़ी आ ही गई, जब दुष्यंत जा कर श्यामली से आमनेसामने मिला. दोनों परिवारों में आपस में बातचीत हुई. श्यामली को भी दुष्यंत अच्छा लगा. पर बौडीगार्ड जैसा शरीर होने की वजह से श्यामली के पिता को दुष्यंत पसंद नहीं आया.

श्यामली एकदम स्लिम और ट्रिम थी. दूसरी ओर 90 किलोग्राम वजन वाले 25 साल के युवक दुष्यंत को श्यामली के पिता ने रिजेक्ट कर दिया. इस बात से दुष्यंत को लगा कि वह श्यामली को पसंद नहीं है, इसलिए श्यामली ने उस के साथ शादी से मना कर दिया है.

समय समुद्र की लहरों की तरह पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था. अब श्यामली और दुष्यंत के बीच बातें कम होने लगी थीं. कुछ दिनों में श्यामली की भी शादी हो गई और दुष्यंत को भी जीवनसाथी मिल गई थी.

दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी में बहुत खुश थे. फिर भी जब कभी दुष्यंत एकांत में होता, तो उसे श्यामली की याद आ ही जाती थी. उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहता कि वह श्यामली से अपने दिल की बात खुल कर कह नहीं सका. किसी तरह अपने मन को मना कर उस का पहला प्रेम पूरा नहीं हुआ, इस दर्द को दिल में छिपा कर अतीत से वर्तमान में आ जाता.

पूरे 3 साल बाद अचानक एक मौल में दुष्यंत और श्यामली की मुलाकात हो गई. दोनों के बीच हायहैलो हुई. दुष्यंत ने पूछा, ‘‘कैसी हो श्यामली?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं. अपनी बताओ?’’ वह बोली.

दोनों ने एकदूसरे के बारे में पूछा. हालचाल जानने के बाद दोनों के बीच नौरमल बातें होने लगीं. बातचीत करते हुए दोनों अतीत में खो गए. उसी बातचीत में दुष्यंत ने हिम्मत कर के कह दिया कि वह उस से बहुत प्यार करता था, है और हमेशा करता रहेगा.

यह सुन कर श्यामली के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. यह बात तो वह 3 साल पहले सुनना चाहती थी. पर उस समय यह बात दुष्यंत नहीं कह सका था. उस समय श्यामली भी इस बात को नहीं समझ सकी थी. दोनों का यह अनकहा प्रेम 3 साल से हृदय में जीवंत रहा. पर दोनों ही अपने इस प्रेम को एकदूसरे से कह नहीं सके थे.

आज पूरे 3 साल बाद जब दोनों ने अकेले में बात की तो दुष्यंत ने अपने प्रेम का इकरार कर लिया. वह बहुत अच्छा दिन था. दोनों के ही मन में एकदूसरे के लिए अनहद प्रेम था.  पर समय उन के हाथ से निकल गया था. अब दोनों की ही शादी हो गई थी और दोनों ही उम्र से अधिक समझदार हो चुके थे.

दोनों ही अपने जीवनसाथी के साथ विश्वासघात करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. पर दोनों ने ही एकदूसरे को वचन दिया कि वे जीवन के अंत तक एकदूसरे के संपर्क में बने रहेंगे.

दुष्यंत और श्यामली आज भी एकदूसरे से बातें करते हैं, प्रेम व्यक्त करते हैं, एकदूसरे की भावनाओं को समझते हैं, पर दोनों ही अपनेअपने जीवनसाथी के प्रति पूरी तरह से वफादार बने हुए हैं. वे जीवनसाथी नहीं बन सके तो क्या हुआ, दोनों ही एकदूसरे से मन से जुड़ कर जीवन का आनंद ले रहे हैं.

तो क्या अपने पहले प्रेम से दिल से जुड़े रहना अपराध है? क्या शादी के बाद अपने जीवनसाथी के प्रति वफादारी दिखाते हुए मनपसंद आदमी से बात करना अपराध है?

अपने जीवनसाथी के प्रति वफादार रहते हुए दो प्रेमी जब अपने अधूरे रह गए प्रेम को एकदूसरे से इकरार करते हैं तो लोग इस संबंध को खराब नजरों से देखते हैं. पर दुष्यंत और श्यामली का कहना है कि अगर एकदूसरे से बात करने से दुख कम होता हो और खुशी मिलती हो तो इस में गलत क्या है.

प्रेम तो प्रेम होता है. शादी के पहले करो या बाद में, उस में पवित्रता, विश्वास और बिना स्वार्थ का लगाव होना चाहिए, जो केवल हृदय के भाव को जानसमझ सके.

Hindi Story: एक हीरो की आत्मकथा

Hindi Story: आज जब मैं पलट कर पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि क्याकुछ नहीं था मेरे पास. दादादादी, मम्मीपापा और इन सब के बीच में सब से छोटा मैं. मतलब, आप में से कुछ लोगों का पसंदीदा फिल्म स्टार चकमक. दादाजी बिजनैस करते थे और उस समय के लखपति थे. पिताजी ने इस कारोबार को दो कदम आगे बढ़ाया और करोड़पति कहलाने लगे.

दादाजी तो शुरू से ही प्रगतिशील विचारधारा के रहे हैं. इसी वजह से उस दौर में जब लोगों के यहां 4-5 बच्चे होते थे, तब सिर्फ 2 बच्चे मतलब पापा और बूआजी को पैदा कर दादाजी ने एक अलग हो मिसाल पेश की थी.

समय के साथ पापा ने भी देशहित में फैसला लेते हुए अपने परिवार को मेरे जन्म तक ही सीमित रखा.

17 साल का होतेहोते मुझ पर फिल्मों का भूत सवार हो गया. तकरीबन हर फिल्म पहले ही दिन मैं देखता था. धीरेधीरे यह जुनून सिर्फ देखने तक ही सीमित न हो कर फिल्मों में काम करने में बदल गया.

आखिरकार एक दिन पापा व दादाजी के सामने मैं ने अपनी मंशा जाहिर कर ही दी.

‘‘क्या…? पागल हो गया है क्या? इतना अच्छा जमाजमाया कारोबार छोड़ कर भांड़गीरी करेगा?’’ पापाजी चिल्लाए थे.

‘‘पापा, यह भी कला का एक रूप है. इस में नाम, पैसा, शोहरत, रुतबा सबकुछ है,’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम्हें जो दिखाई दे रहा है, वह बरसाती बिजली के जैसी पलभर की चमक है. इस के पीछे एक बड़ा गहरा तिलिस्म है, जिस को तोड़ना सब के लिए मुमकिन नहीं है,’’ पापा ने कहा.

‘‘आप ने और दादाजी ने अपनी मेहनत से यह मुकाम पाया है, मैं भी अपनी मेहनत से कुछ कर दिखाना चाहता हूं,’’ मैं ने कुछ मजबूत आवाज में कहा.

‘‘जमेजमाए कारोबार को छोड़ना बेवकूफी है. वहां के संघर्ष व शोषण के बारे में शायद तुम ने सुना नहीं है,’’ पापा बोले.

‘‘आग में तप कर ही कुंदन सोना बनता है,’’ मैं ने फिल्मी डायलौग मारा.

यहां पर दादाजी की प्रगतिशीलता काम आई और वे पापा से बोले, ‘‘सूरज, विवेक जैसा चाहता है करने दो इसे. समझो, यह भी एक तरह का इंवैस्टमैंट है. अगर विवेक में दम हुआ तो यह भी करोड़ों में खेलेगा, वरना हमारा बिजनैस तो संभालना ही है इसे.’’

‘‘मतलब, मैं इसे भेज दूं?’’ पिताजी ने हैरानी से पूछा.

‘‘विवेक को अपना हुनर दिखाने का मौका मिलना ही चाहिए, मगर कुछ शर्तों के साथ,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘कैसी शर्तें दादाजी?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हें सिर्फ और सिर्फ 5 साल का समय मिलेगा. इस पीरियड में अगर तुम नाकाम रहे तो वापस आ कर अपना बिजनैस संभालना पड़ेगा,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘ये 5 साल मेरी पहली फिल्म रिलीज होने से जोड़े जाएंगे और अगर इन 5 सालों में कोई फिल्म शुरू नहीं हो पाई, तो मैं खुद घर लौट आऊंगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘अपने संबंधों को देखो कहीं कोई काम का आदमी मिलता है तो उस के मारफत हम विवेक को फिल्मों में पहुंचाएंगे तो बुनियाद मजबूत रहेगी,’’ दादाजी ने कहा.

पापा ने अपने काम के लोग खोजने शुरू किए. आखिर एक आदमी मिल ही गया. यह पापा के दोस्त का छोटा भाई शैशव था, जो मशहूर निर्मातानिर्देशक सुभान भाई के यहां पीआरओ का काम देखता था.

सुभान भाई इंडस्ट्री का बड़ा नाम थे. उन का रिकौर्ड यह था कि पिछली 3 फिल्में उन्होंने नए कलाकारों को ले कर बनाई थीं और तीनों ही फिल्में सुपरहिट रही थीं. शैशव के जरीए पापा ने सुभान भाई से मिलने का जुगाड भिड़ा लिया.

‘‘देखिए, आप के बेटे का चेहरामोहरा तो ठीक है, लेकिन इंडस्ट्री चलती है हुनर के दम पर. इस ने स्कूल के स्टेज के अलावा कहीं काम नहीं किया है, कैमरा फेस करना भी सिखाना पड़ेगा,’’ सुभान भाई मेरी तरफ देखते हुए बोले.

‘‘अरे सुभान भाई, आप का हाथ तो पारस है, जो लोहे को भी सोना बना देता है…’’ शैशव खुशामद भरी आवाज में बोला, ‘‘इस लड़के पर भी हाथ रख दीजिए. यह भी कुछ बन जाएगा.’’

‘‘बनानाबिगड़ना हमारे हाथ में नहीं है. हम तो सिर्फ मेहनत कर सकते हैं,’’ सुभान भाई ने डिप्लोमैटिक अंदाज में कहा.

‘‘वही हम चाहते हैं. आप के साथ रह कर यह कुछ बन जाए. यही हम सब लोगों की इच्छा है,’’ पापा हाथ जोड़ कर बोले.

‘‘काफी मेहनत करनी पड़ेगी इस लड़के पर. छोटे शहर से यहां आने पर कल्चर से ले कर ऐक्टिंग तक सभी की ट्रेनिंग देनी पड़ती है. वैसे भी फिल्म मेंिंकग अपनेआप में बड़ा महंगा सौदा है,’’ सुभान भाई किसी कारोबारी अंदाज में बोले.

‘‘पैसों की आप चिंता मत कीजिए, सब इंतजाम हो जाएगा,’’ पापा बोले.

‘‘देखिए, मेरी अगली फिल्म तो फ्लोर पर आ चुकी है. इस की स्टारकास्ट अनाउंस भी हो चुकी है. इस फिल्म में तो जगह नहीं बन पाएगी. इसे पूरा होने में 8 से 10 महीने का समय लगेगा. तब तक यह लड़का मेरे बंगले पर रहेगा. मेरी पत्नी भी अच्छी हीरोइन रह चुकी है. वह खुद इसे तैयार करेगी.

‘‘जब तक फिल्म की रूपरेखा पूरे तौर पर तैयार नहीं हो जाती, तब तक इसे किसी से भी नहीं मिलना है, क्योंकि जैसे ही मार्केट में यह खबर आएगी कि सुभान भाई नए लड़के को तैयार कर रहे हैं तो कई छोटेछोटे निर्माता अपनी फिल्म में लेने का लालच दे कर उसे बुला सकते हैं.

‘‘उन की फिल्में शायद ही बनें और बनें तो शायद चलें. ऐसे में कैरियर बनने से पहले ही खत्म हो जाएगा,’’ सुभान भाई ने लंबा भाषण दिया.

‘‘नहीं, आप जैसा बोलें वैसा ही करेंगे,’’ पापा ने कहा.

‘‘ठीक है, मेरी अगली फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है. इस का हीरो घरेलू काम करने वाला एक नौकर है. तुम्हें इसी रोल की ट्रेनिंग मैडम से लेनी है. ठीक है?’’ सुभान भाई ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

‘‘जी, जैसा आप को उचित लगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘विवेक नाम कुछ ओल्ड फैशन का लगता है. इस कारण तुम्हारा नया नाम रखेंगे और यह नाम होगा चकमक,’’ सुभान भाई बोले.

‘‘आप की फीस कितनी होगी?’’ पापा ने पूछा.

‘‘वैसे तो 80 लाख रुपए होती है. अब आप शैशवजी के साथ आए हैं, तो जो आप को उचित लगे दे दीजिए,’’ सुभान भाई बेझिझक बोले.

‘‘यह 40 लाख रुपए का चैक अभी ले लीजिए, बाकी का 3-4 महीनों में इंतजाम कर के पहुंचाता हूं, बच्चे का ध्यान रखिए… आप के भरोसे है,’’ पापा ने फिर हाथ जोड़ लिए.

‘‘आप बेफिक्र रहिए. अब यह लड़का हमारी जवाबदारी है,’’ सुभान भाई बोले.

‘‘अरे, रौकी भाई को तो इन्होंने गलीकूचे से निकाल कर स्टार बना दिया, फिर यह तो अपने घर का बच्चा है. आप बेफिक्र रहिए,’’ शैशव बोला.

मैं सुभान भाई के साथ उन के घर चला गया. वे अपनी पत्नी सुहाना से मिलवाते हुए बोले, ‘‘यह चकमक है और अपनी अगली फिल्म का हीरो. इसे फिल्म में घरेलू नौकर का रोल करना है, इसलिए तुम इसे उस हिसाब से तैयार करो. बाजार से सब्जी लाने से झाड़ूपोंछा तक सभी कामों की ट्रेनिंग दो. मैं फिल्म में पूरी रियलिटी चाहता हूं. इस बात का ध्यान रखना.’’

‘‘जी, ठीक है,’’ सुहाना बोली. मैं ने इस ट्रेनिंग को पूरी शिद्दत के साथ करना शुरू कर दिया. सुबह 11 बजे सो कर उठने वाला लड़का अब सुबह 5 बजे उठ जाता था. झाड़ूपोंछा करने के बाद नाश्ते की तैयारी, खाना बनवाने में मदद, सब के नहाने के बाद कपड़े धोना और सब से बाद में झोला उठा कर सौदा लेने जाना.

एक दिन सुभान भाई ने अपनी पत्नी सुहाना को छोटे कपड़े सुखाते देख लिया, तो गुस्सा होते हुए बोले, ‘‘ये कपड़े क्यों नहीं धुलवाती हो चकमक से?’’

‘‘कैसी बातें करते हो आप, ये कपड़े मैं उस से धुलवाऊंगी?’’ सुहाना बोली.

‘‘अरे, कपड़ों की कोई जान होती है क्या. सब कपड़ों जैसे यह भी कपड़े हैं. सैट पर कोई ऐसा सीन करना हुआ और पूरे मन के साथ नहीं कर पाया तो कितनी बदनामी होगी,’’ सुभान भाई बिगड़ कर बोले.

‘‘ठीक है, यह भी धुलवा लूंगी,’’ सुहाना बोली.

‘‘कुछ डांस वगैरह आता है कि नहीं उसे?’’ एक दिन सुभान भाई ने अचानक पूछ लिया.

‘‘जी, थोड़ाबहुत डांस आता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘आज तुम्हें बनी पार्टी में जाना है,’’ सुभान भाई ने आदेश दिया.

‘‘बनी पार्टी क्या होती है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बनी पार्टी नहीं मालूम तुम्हें, क्या आदमी हो तुम…’’ सुभान भाई बोले, ‘‘सुरेश समझा देगा तुम्हें, वह पहले जा चुका है.’’

‘‘जैसे कैबरे करती हुई लड़कियां बदन दिखाती हैं, उसी तरह बनी पार्टी में मर्दों को एकएक कर के अपने सभी कपड़े हटाने होते हैं. इस तरह के डांस को देखने वाली सिर्फ औरतें ही होती हैं और वे भी बेहद अमीर. यहां पर इनाम भी काफी मिलता है,’’ सुरेश ने बताया.

बनी पार्टी के बेहूदे और बेशर्मी भरे अनुभव को बयान कर पाना मुश्किल है. सपने में भी शायद कोई इतना नीचे गिर कर नहीं सोच सकता. यहां आने के बाद ही पता चला कि जिगोलो भी कुछ इसी तरह का प्रोग्राम है. यहीं पर यह भी पता चला कि गे नाम का भी कोई संबंध होता है. इतना सब करतेकरते 2 साल का समय यों ही गुजर गया. सुभान भाई की फ्लोर वाली फिल्म पूरी हो कर रिलीज हो गई और हिट भी.

मुझे विश्वास था कि अगली फिल्म मेरी होगी, पर ऐसा नहीं हुआ. अगली फिल्म के लिए मेरा नाम नहीं था.

एक दिन अचानक पापा आ गए और मुझे इस तरह का काम करते देख बहुत दुखी हुए और गुस्सा भी. चूंकि उन्होंने दोनों पेमेंट्स चैक से की थीं, इसलिए पैसे देने के सुबूत मौजूद थे.

कानूनी कार्यवाही की धमकी से डर कर सुभान भाई ने मेरे साथ फिल्म शुरू की. फिल्म साधारण रूप से हिट भी रही, पर सारा क्रेडिट सुभान भाई को ही मिला. फिल्म के बाद कुछ छोटीमोटी फिल्में जरूर मिलीं, पर वे चली नहीं.

5 साल होने वाले हैं और मैं पापा और दादाजी के बुलावे का इंतजार कर रहा हूं.

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