उसके साहबजी: श्रीकांत की जिंदगी में आई शांति

दरवाजे की कौलबैल बजी तो थके कदमों से कमरे की सीढि़यां उतर श्रीकांत ने एक भारी सांस ली और दरवाजा खोल दिया. शांति को सामने खड़ा देख उन की सांस में सांस आई.

शांति के अंदर कदम रखते ही पलभर पहले का उजाड़ मकान उन्हें घर लगने लगा. कुछ चल कर श्रीकांत वहीं दरवाजे के दूसरी तरफ रखे सोफे पर निढाल बैठ गए और चेहरे पर नकली मुसकान ओढ़ते हुए बोले, ‘‘बड़ी देर कर देती है आजकल, मेरी तो तुझे कोई चिंता ही नहीं है. चाय की तलब से मेरा मुंह सूखा जा रहा है.’’

‘‘कैसी बात करते हैं साहबजी? कल रातभर आप की चिंता लगी रही. कैसी तबीयत है अब?’’ रसोईघर में गैस पर चाय की पतीली चढ़ाते हुए शांति ने पूछा.

पिछले 2 दिनों से बुखार में पड़े हुए हैं श्रीकांत. बेटाबहू दिनभर औफिस में रहते और देर शाम घर लौट कर उन्हें इतनी फुरसत नहीं होती की बूढ़े पिता के कमरे में जा कर उन का हालचाल ही पूछ लिया जाए. हां, कहने पर बेटे ने दवाइयां ला कर जरूर दे दी थीं पर बूढ़ी, बुखार से तपी देह में कहां इतना दम था कि समयसमय पर उठ कर दवापानी ले सके. उस अकेलेपन में शांति ही श्रीकांत का एकमात्र सहारा थी.

श्रीकांत एएसआई पद से रिटायर हुए. तब सरकारी क्वार्टर छोड़ उन्हें बेटे के साथ पौश सोसाइटी में स्थित उस के आलीशान फ्लैट में शिफ्ट होना पड़ा. नया माहौल, नए लोग. पत्नी के साथ होते उन्हें कभी ये सब नहीं खला. मगर सालभर पहले पत्नी की मृत्यु के बाद बिलकुल अकेले पड़ गए श्रीकांत. सांझ तो फिर भी पार्क में टहलते हमउम्र साथियों के साथ हंसतेबतियाते निकल जाती मगर लंबे दिन और उजाड़ रातें उन्हें खाने को दौड़तीं. इस अकेलेपन के डर ने उन्हें शांति के करीब ला दिया था.

35-36 वर्षीया परित्यक्ता शांति  श्रीकांत के घर पर काम करती थी. शांति को उस के पति ने इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि वह उस के लिए बच्चे पैदा नहीं कर पाई. लंबी, छरहरी देह, सांवला रंग व उदास आंखों वाली शांति जाने कब श्रीकांत की ठहरीठहरी सी जिंदगी में अपनेपन की लहर जगा गई, पता ही नहीं चला. अकेलापन, अपनों की उपेक्षा, प्रेम, मित्रता न जाने क्या बांध गया दोनों को एक अनाम रिश्ते में, जहां इंतजार था, फिक्र थी और डर भी था एक बार फिर से अकेले पड़ जाने का.

पलभर में ही अदरक, इलायची की खुशबू कमरे में फैल गई. चाय टेबल पर रख शांति वापस जैसे ही रसोईघर की तरफ जाने को हुई तभी श्रीकांत ने रोक कर उसे पास बैठा लिया और चाय की चुस्कियां लेने लगे, ‘‘तो तूने अच्छी चाय बनाना सीख ही लिया.’’

मुसकरा दी शांति, दार्शनिक की सी मुद्रा में बोली, ‘‘मैं ने तो जीना भी सीख लिया साहबजी. मैं तो अपनेआप को एक जानवर सा भी नहीं आंकती थी. पति ने किसी लायक नहीं समझा तो बाल पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया. मांबाप ने भी साथ नहीं दिया. आप जीने की उम्मीद न जगाते तो घुटघुट कर या जहर खा कर अब तक मर चुकी होती, साहबजी.’’

‘‘पुरानी बातें क्यों याद करती है पगली. तू क्या कुछ कम एहसान कर रही है मुझ पर? घंटों बैठ कर मेरे अकेलेपन पर मरहम लगाती है, मेरे अपनों के लिए बेमतलब सी हो चुकी मेरी बातों को माने देती है और सब से बड़ी बात, बीमारी में ऐसे तीमारदारी करती है जैसे कभी मेरी मां या पत्नी करती थी.’’

भीग गईं 2 जोड़ी पलकें, देर तक दर्द धुलते रहे. आंसू पोंछती शांति रसोईघर की तरफ चली गई. उस की आंखों के आगे उस का दूषित अतीत उभर आया और उभर आए किसी अपने के रूप में उस के साहबजी. उन दिनों कितनी उदास और बुझीबुझी रहती थी शांति. श्रीकांत ने उस की कहानी सुनी तो उन्होंने एक नए जीवन से उस का परिचय कराया.

उसे याद आया कैसे उस के साहबजी ने काम के बाद उसे पढ़नालिखना सिखाया. जब वह छुटमुट हिसाबकिताब करना भी सीख गई, तब श्रीकांत ने उस के  सिलाई के हुनर को आगे बढ़ाने का सुझाव दिया. आत्मविश्वास से भर गई थी शांति. श्रीकांत के सहयोग से अपनी झोंपड़पट्टी के बाहर एक सिलाईमशीन डाल सिलाई का काम करने लगी. मगर अपने साहबजी के एहसानों को नहीं भूल पाई, समय निकाल कर उन की देखभाल करने दिन में कई बार आतीजाती रहती.

सोसाइटी से कुछ दूर ही थी उस की झोंपड़ी. सो, श्रीकांत को भी सुबह होते ही उस के आने का इंतजार रहता. मगर कुछ दिनों से श्रीकांत के पड़ोसियों की अनापशनाप फब्तियां शांति के कानों में पड़ने लगी थीं, ‘खूब फांस लिया बुड्ढे को. खुलेआम धंधा करती है और बुड्ढे की ऐयाशी तो देखो, आंख में बहूबेटे तक की शर्म नहीं.’

खुद के लिए कुछ भी सुन लेती, उसे तो आदत ही थी इन सब की. मगर दयालु साहबजी पर लांछन उसे बरदाश्त नहीं था. फिर भी साहबजी का अकेलापन और उन की फिक्र उसे श्रीकांत के घर वक्तबेवक्त ले ही आती. वह भी सोचती, ‘जब हमारे अंदर कोई गलत भावना नहीं तब जिसे जो सोचना है, सोचता रहे. जब तक खुद साहबजी आने के लिए मना नहीं करते तब तक मैं उन से मिलने आती रहूंगी.’

शाम को पार्क में टहलने नहीं जा सके श्रीकांत. बुखार तो कुछ ठीक था मगर बदन में जकड़न थी. कांपते हाथों से खुद के लिए चाय बना, बाहर सोफे पर बैठे ही थे कि बहूबेटे को सामने खड़ा पाया. दोनों की घूरती आंखें उन्हें अपराधी घोषित कर रही थीं.

श्रीकांत कुछ पूछते, उस से पहले ही बेटा उन पर बरस उठा, ‘‘पापा, आप ने कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा हमें. एक नौकरानी के साथ…छी…मुझे तो कहते हुए भी शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या बोले जा रहे हो, अविनाश?’’ श्रीकांत के पैरों तले से मानो जमीन खिसक गई.

अब बहू गुर्राई, ‘‘अपनी नहीं तो कुछ हमारी ही इज्जत का खयाल कर लेते. पूरी सोसाइटी हम पर थूथू कर रही है.’’

पैर पटकते हुए दोनों रोज की तरह भीतर कमरे में ओझल हो गए. श्रीकांत वहीं बैठे रहे उछाले गए कीचड़ के साथ. वे कुछ समझ नहीं पाए कहां चूक हुई. मगर बच्चों को उन की मुट्ठीभर खुशी भी रास नहीं, यह उन्हें समझ आ गया था. ये बेनाम रिश्ते जितने खूबसूरत होते हैं उतने ही झीने भी. उछाली गई कालिख सीधे आ कर मुंह पर गिरती है. दुनिया को क्या लेना किसी के सुखदुख, किसी की तनहाई से.

वे अकेलेपन में घुटघुट कर मर जाएं या अपनों की बेरुखी को उन की बूढ़ी देह ताउम्र झेलती रहे या रिटायर हो चुका उन का ओहदा इच्छाओं, उम्मीदों को भी रिटायर घोषित क्यों न कर दे. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर न जाने उन की खुशियों पर ही क्यों यह समाज सेंध लगा कर बैठा है?

श्रीकांत सोचते, बूढ़ा आदमी इतना महत्त्वहीन क्यों हो जाता है कि वह मुट्ठीभर जिंदगी भी अपनी शर्तों पर नहीं जी पाता. बिलकुल टूट गए थे श्रीकांत, जाने कब तक वहीं बैठे रहे. पूरी रात आंखों में कट गई.

दूसरे दिन सुबह चढ़ी. देर तक कौलेबैल बजती रही. मगर श्रीकांत ने दरवाजा नहीं खोला. बाहर उन की खुशी का सामान बिखरा पड़ा था और भीतर उन का अकेलापन. बुढ़ापे की बेबसी ने अकेलापन चुन लिया था. फिर शाम भी ढली. बेटाबहू काम से खिलखिलाते हुए लौटे और दोनों अजनबी सी नजरें श्रीकांत पर उड़ेल, कमरों में ओझल हो गए.

Hindi Story : गवाही का सम्मन – अनुपम ने कैसे सुलझाया मामला

Hindi Story : उस शहर का रेलवे स्टेशन जितना छोटा था, शहर भी उसी के मुताबिक छोटा था. अपना बैग संभाले अनुपम रेलवे स्टेशन से बाहर निकला. उस के हाथ में कंप्यूटर से निकला रेलवे टिकट था, मगर उस टिकट को चैक करने के लिए कोई रेलवे मुलाजिम या अफसर गेट पर मौजूद न था.

रेलवे स्टेशन की इमारत काफी पुरानी अंगरेजों के जमाने की थी, मगर मजबूत भी थी. एक खोजी पत्रकार की नजर रखता अनुपम अपनी आंखों से सब नोट कर रहा था.

रेलवे स्टेशन के बाहर इक्कादुक्का रिकशे वाले खड़े थे. एक तांगे वाला तांगे से घोड़ा खोल कर उसे चारा खिला रहा था. अभी सुबह के 11 ही बजे थे.

यह छोटा शहर या बड़ा कसबा एक महानगर से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर था. सुबहसवेरे जाने वाली पैसेंजर रेलगाडि़यों से मासिक पास बनवा कर सफर करने वाले मुसाफिर हजारों थे. इन्हीं मुसाफिरों के जरीए चलती थी इन तांगे वालों की रोजीरोटी.

अनुपम एक रिकशे वाले के पास पहुंचा और बोला, ‘‘शहर चलोगे?’’

‘‘कहां बाबूजी?’’ अधेड़ उम्र के उस रिकशा वाले ने पूछा.

अनुपम ने अपनी कमीज की ऊपरी जेब में हाथ डाला और एक मुड़ातुड़ा पुरजा निकाल कर उस पर लिखा पता पढ़ा, ‘‘अग्रवाल धर्मशाला, बड़ा बाजार.’’

रिकशा वाले ने कहा, ‘‘बाबूजी, अग्रवाल धर्मशाला तो कभी की ढह कर बंद हो गई है.’’

‘‘यहां और कोई धर्मशाला या होटल नहीं है?’’

‘‘नहीं साहब, न तो यहां कोई होटल है और न धर्मशाला. हां, एक सरकारी रैस्ट हाउस है. नहर के दूसरी तरफ है. वैसे, आप को यहां क्या काम है?’’

‘‘परसों यहां एक सैमिनार हो रहा है. मैं उस की रिपोर्टिंग के लिए आया हूं. मैं एक बड़े अखबार का संवाददाता हूं,’’ अनुपम ने कहा.

‘‘मगर साहब, सैमिनार तो परसों है. आप 2 दिन पहले यहां क्या करेंगे?’’ रिकशा वाला हैरानी से उस की तरफ देख रहा था.

‘‘मेरा अखबार इस कसबे के बारे में एक फीचर छापना चाहता है. मैं यहां से थोड़ी जानकारी इकट्ठा करना चाहता हूं,’’ अनुपम बोला.

रिकशा वाले की समझ में कुछ आया, कुछ नहीं. वह बोला, ‘‘साहब, आप बैठो. मैं आप को रैस्ट हाउस छोड़ आता हूं.’’

कसबे की सड़कें साफसुथरी थीं. इक्कादुक्का आटोरिकशा भी चलते दिख रहे थे. हर तरह की दुकानें थीं.

रैस्ट हाउस ज्यादा दूर नहीं था. नहर काफी चौड़ी और पक्की थी. 10 रुपए का नोट रिकशा वाले को थमा कर अनुपम उतर गया. रैस्ट हाउस साफसुथरा था.

‘‘कहिए सर?’’ छोटे से रिसैप्शन काउंटर पर बैठे एक सांवले रंग के ज्यादा उम्र के आदमी ने बेपरवाही से पूछा.

‘‘मैं एक अखबार का संवाददाता हूं. परसों यहां एक सैमिनार हो रहा है. उस की रिपोर्टिंग करनी है. मैं यहां ठहरना चाहता हूं.’’

‘‘ठीक है सर,’’ एक बड़ा सा रजिस्टर खोलते हुए उस आदमी ने कहा, फिर रजिस्टर को उस की तरफ सरकाते हुए उस के खानों में सब जानकारी भरने का इशारा किया.

‘‘यहां खानेपीने का क्या इंतजाम है?’’ अनुपम ने पूछा.

‘‘सब इंतजाम है. जैसा खाना आप चाहें, सब मिल जाएगा,’’ उस आदमी की आवाज में न कोई जोश था, न कोई दिलचस्पी.

अनुपम रजिस्टर में जानकारी भर चुका था. इस के बाद रिसैप्शन पर आदमी ने उस को चाबी थमाते हुए एक कमरे की तरफ इशारा किया.

कमरा साफसुथरा था. बिस्तर पर बिछी चादर भी धुली थी, जो एक सरकारी रैस्ट हाउस के लिहाज से हैरानी की बात थी. इस की वजह जो बाद में मालूम हुई, यह थी कि उस रैस्ट हाउस में बड़े सरकारी अफसरों, इलाके के विधायक, लोकसभा सदस्य, सत्तारूढ़ और विपक्ष की पार्टियों के नेताओं का आनाजाना लगा रहता था.

अनुपम खाना खा कर सो गया. दोपहर बाद तैयार हो कर अपना कैमरा संभाले वह पैदल ही कसबे की सैर को निकल पड़ा.

इस तरह की छोटीमोटी जानकारियां अपनी डायरी में दर्ज कर फोटो खींचता शाम ढले अनुपम पैदल ही रैस्ट हाउस लौट आया. खाने से पहले बैरे ने इशारे में उस से पूछा कि क्या शराब चाहिए?

उस के मना करने पर बैरे को थोड़ी हैरानी हुई कि अखबार वाला हो कर भी वह शराब नहीं पीता है.

आधी रात को शोर सुन कर अनुपम की नींद खुल गई. वह आंखें मलता हुआ उठा और दरवाजा खोला. साथ वाले कमरे के दरवाजे के बाहर भीड़ जमा थी. कुछ पुलिस वाले भी मौजूद थे.

‘‘ये एमपी साहब देखने में शरीफ हैं, पर हैं असल में पूरे आशिक मिजाज,’’ एक देहाती से दिखने वाले आदमी ने दूसरे को कहा.

उस की बात सुन कर अनुपम चौंक पड़ा. वह पाजामे और बनियान में था. वह लपक कर अंदर गया, कमीज पहनी, अपना मोबाइल फोन और कैमरा उठा लिया. बाहर आ कर वह भी भीड़ का हिस्सा बन कर माजरा देखने लगा.

‘‘लो, फोटोग्राफर भी आ गया,’’ अनुपम को देख कर कोई बोला.

‘‘आधी रात को फोटोग्राफर को भी खबर हो गई,’’ एक पुलिस वाला बोला.

इस पर अनुपम से अब चुप न रहा गया. वह बोला, ‘‘मैं फोटोग्राफर नहीं अखबार वाला हूं. मैं साथ के कमरे में ठहरा हुआ हूं. शोर सुन कर यहां आ गया.’’

‘‘यह तो और भी अच्छा हुआ. अखबार वाला फोटो और खबर भी अखबार में छाप देगा,’’ एक आदमी जोश से बोला.

‘यहां क्या हो गया है?’ अचानक कई लोगों ने एकसाथ सवाल किए.

‘‘इलाके का सांसद एक कालगर्ल के साथ अंदर मौजूद है. बारबार खटखटाने पर भी वह दरवाजा नहीं खोल रहा है.’’

यह सुन कर अनुपम ने कैमरा संभाल लिया.

पुलिस वाले दरवाजा खटखटा रहे थे, पर अंदर से कोई जवाब नहीं मिल रहा था.

‘‘दरवाजा खोल दो, नहीं तो तोड़ देंगे,’’ इस धमकी के बाद अंदर की बत्ती जल उठी. थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला. नशे में धुत्त सिर्फ कच्छा पहने एक अधेड़ आदमी ने थरथराती आवाज में कहा, ‘‘कौन हो तुम लोग? जानते नहीं कि मैं इलाके का सांसद हूं. सब को अंदर करवा दूंगा.’’

इस पर बाहर जमा भीड़ गुस्सा हो गई. पुलिस वाले को एक तरफ धकेल कर कुछ लोग आगे बढ़े और उस सांसद को बाहर खींच कर उसे पीटने लगे.

कुछ लोग अंदर जा घुसे. तकरीबन अधनंगी काफी छोटी उम्र की एक लड़की डरीसहमी एक तरफ खड़ी थी. उस को भी बाहर खींच लिया गया. उस की भी पिटाई होने लगी.

‘‘अरे, यह अखबार वाला क्यों चुपचाप खड़ा है? फोटो क्यों नहीं खींचता?’’ कोई चीखा, तो अनुपम चौंक पड़ा. उस के कैमरे की फ्लैश लाइट बारबार चमकने लगी.

पुलिस वाले चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे. मामला एक लोकसभा सदस्य का था और वह भी सत्तारूढ़ दल के सांसद का. बात ऊपर तक जा सकती थी. लिहाजा, पुलिस वाले डंडा फटकारते हुए आगे बढ़ आए.

तब तक वह सांसद काफी पिट चुका था. लड़की की अच्छी धुनाई हुई थी. लोगों का गुस्सा अब ठंडा पड़ गया था.

सांसद को कमरे में ले जाया गया. उन्हें कपड़े पहनाए गए. लड़की भी कपड़े पहनने लगी. अपने कैमरे के साथसाथ अनुपम अपने मोबाइल फोन से भी काफी फोटो खींच चुका था.

सांसद अपनी बड़ी गाड़ी में वहां आए थे. साथ में ड्राइवर के अलावा सिक्योरिटी के लिए बौडीगार्ड भी था. सभी को थाने ले जाया गया. उन पर मुकदमा बनाया गया. भीड़ में से कइयों को गवाह बनाया गया. अनुपम को भी चश्मदीद गवाह बनाया गया.

सांसद को रातभर थाने में बंद रहना पड़ा. वजह यह थी कि एक तो मामला खुल गया था. दूसरे, विपक्षी दलों के छुटभैए नेता चश्मदीद गवाह थे. तीसरे, फौरन मामला दबाने पर जनता भड़क सकती थी.

अगले दिन सांसद को अदालत में पेश किया गया. उन के खिलाफ नारेबाजी करने वालों में विपक्षी दलों से ज्यादा उन की अपनी पार्टी के लोग थे.

मजिस्ट्रेट ने सांसद को 15 दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेजा और लड़की को नारी निकेतन भेज दिया. सभी गवाहों के नाम रिकौर्ड में ले लिए गए. उन को ताकीद की गई कि जब भी गवाही का सम्मन मिले, उन को गवाही देने आना होगा.

अनुपम ने अपने अखबार को रात को मोबाइल फोन से फोटो और सारी खबर एसएमएस से कर दी और फोन पर भी बता दिया था.

अखबार ने यह खबर प्रमुखता से छापी थी.

सैमिनार में हिस्सा ले कर अनुपम वापस लौट आया. अपने महकमे के इंचार्ज दिनेश को उस ने जोशजोश में सब बताया और कहा कि जल्द ही उसे गवाही का सम्मन आएगा और वह गवाही देने जाएगा.

इस पर दिनेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम एक अनाड़ी पत्रकार हो. ऐसे मामले में ज्यादा जोश नहीं दिखाते हैं. तुम्हें कोई सम्मन नहीं आएगा. थोड़े दिनों बाद मामला ठंडा पड़ जाएगा. जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है. वह समय बीतने के साथ सब भूल जाती है.’’

‘‘मगर विपक्षी दलों के नेता भी गवाह हैं. क्या वे मामला ठंडा पड़ने देंगे?’’ अनुपम ने पूछा.

‘‘थोड़े समय तक हलचल रहेगी, फिर मामला ठंडा हो जाएगा. सभी दलों के नेता इस तरह की करतूतों में फंसते रहते हैं. एकदूसरे से काम पड़ता रहता है, इसलिए कोई भी मामला गंभीर रूप नहीं लेता,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘मगर, मेरे पास फोटो हैं.’’

‘‘तुम इस में एक पार्टी नहीं बने हो. न वादी हो, न प्रतिवादी. जब तक तुम्हें गवाही के लिए न बुलाएं, तुम खुद कुछ नहीं कर सकते.’’

फिर हफ्ते पर हफ्ते बीत गए. महीने बीत गए. गवाही का सम्मन कभी नहीं आया. कसबे के लोगों को भी याद नहीं रहा कि यहां एक सांसद कालगर्ल के साथ पकड़ा गया था. धीरेधीरे अनुपम भी इस कांड को भूल गया.

नसीहत: अरुण, संगीता और वह रात

कालबेल की आवाज सुन कर दीपू ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर एक औरत खड़ी थी. उस औरत ने बताया कि वह अरुण से मिलना चाहती है. औरत को वहीं रोक कर दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.

‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता साहब, लेकिन देखने में भली लगती है,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो उसे. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.

दीपू उस औरत को अंदर बुला लाया.अरुण उसे देखते ही हैरत से बोला, ‘‘अरे संगीता, तुम हो. कहो, कैसे आना हुआ? आओ बैठो.’’

संगीता सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘बहुत मुश्किल से तुम्हें ढूंढ़ पाई हूं. एक तुम हो जो इतने दिनों से इस शहर में हो, पर मेरी याद नहीं आई.

‘‘तुम ने कहा था कि जब कानपुर आओगे, तो मुझ से मिलोगे. मगर तुम तो बड़े साहब हो. इन सब बातों के लिए तुम्हारे पास फुरसत ही कहां है?’’

‘‘संगीता, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं हाल ही में कानपुर आया हूं. औफिस के काम से फुरसत ही नहीं मिलती. अभी तक तो मैं ने इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं है.

‘‘अब छोड़ो इन बातों को. पहले यह बताओ कि मेरे यहां आने की जानकारी तुम्हें कैसे मिली?’’ अरुण ने संगीता से पूछा.

‘‘मेरे पति संतोष से, जो तुम्हारे औफिस में ही काम करते हैं,’’ संगीता ने चहकते हुए बताया.

‘‘तो संतोषजी हैं तुम्हारे पति. मैं तो उन्हें अच्छी तरह जानता हूं. वे मेरे औफिस के अच्छे वर्कर हैं,’’ अरुण ने कहा.

अरुण के औफिस जाने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता जल्दी ही अपने घर आने की कह कर लौट गई.

औफिस के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से बैठा था. उस के मन में अचानक संगीता की बातें आ गईं.5 साल पहले की बात है. अरुण अपनी दीदी की बीमारी के दौरान उस के घर गया था. वह इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे चुका था.

संगीता उस की दीदी की ननद की लड़की थी. उस की उम्र 18 साल की रही होगी. देखने में वह अच्छी थी. किसी तरह वह 10वीं पास कर चुकी थी. पढ़ाई से ज्यादा वह अपनेआप पर ध्यान देती थी.

संगीता दीदी के घर में ही रहती थी. दीदी की लंबी बीमारी के कारण अरुण को वहां तकरीबन एक महीने तक रुकना पड़ा. जीजाजी दिनभर औफिस में रहते थे. घर में दीदी की बूढ़ी सास थी. बुढ़ापे के कारण उन का शरीर तो कमजोर था, पर नजरें काफी पैनी थीं.

अरुण ऊपर के कमरे में रहता था. अरुण को समय पर नाश्ता व खाना देने के साथसाथ उस के ज्यादातर काम संगीता ही करती थी.

संगीता जब भी खाली रहती, तो ज्यादा समय अरुण के पास ही बिताने की कोशिश करती.

संगीता की बातों में कीमती गहने, साडि़यां, अच्छा घर व आधुनिक सामानों को पाने की ख्वाहिश रहती थी. उस के साथ बैठ कर बातें करना अरुण को अच्छा लगता था.

संगीता भी अरुण के करीब आती जा रही थी. वह मन ही मन अरुण को चाहने लगी थी. लेकिन दीदी की सास दोनों की हालत समझ गईं और एक दिन उन्होंने दीदी के सामने ही कहा, ‘अरुण, अभी तुम्हारी उम्र कैरियर बनाने की है. जज्बातों में बह कर अपनी जिंदगी से खेलना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है.’

दीदी की सास की बातें सुन कर अरुण को अपराधबोध का अहसास हुआ. वह कुछ दिनों बाद ही दीदी के घर से वापस आ गया. तब तक दीदी भी ठीक हो चुकी थीं.

एक साल बाद अरुण गजटेड अफसर बन गया. इस बीच संगीता की शादी तय हो गई थी. जीजाजी शादी का बुलावा देने घर आए थे.

लौटते समय वे शादी के कामों में हाथ बंटाने के लिए अरुण को साथ लेते गए. दीदी के घर में शादी की चहलपहल थी. एक शाम अरुण घर के पास बाग में यों ही टहल रहा था, तभी अचानक संगीता आई और बोली, ‘अरुण, समय मिल जाए, तो कभी याद कर लेना.’संगीता की शादी हो गई. वह ससुराल चली गई. अरुण ने भी शादी कर ली.

आज संगीता अरुण के घर आई, तो अरुण ने भी कभी संगीता के घर जाने का इरादा कर लिया. पर औफिस के कामों में बिजी रहने के कारण वह चाह कर भी संगीता के घर नहीं जा सका. मगर संगीता अरुण के घर अब रोज जाने लगी.

कभीकभी संगीता अरुण के साथ उस के लिए शौपिंग करने स्टोर में चली जाती. स्टोर का मालिक अरुण के साथ संगीता को भी खास दर्जा देता था.

एकाध बार तो ऐसा भी होता कि अरुण की गैरहाजिरी में संगीता स्टोर में जा कर अरुण व अपनी जरूरत की चीजें खरीद लाती, जिस का भुगतान अरुण बाद में कर देता.अरुण संगीता के साथ काफी घुलमिल गया था. संगीता अरुण को खाली समय का अहसास नहीं होने देती थी.

एक दिन संगीता अरुण को साथ ले कर साड़ी की दुकान पर गई. अरुण की पसंद से उस ने 3 साडि़यां पैक कराईं.काउंटर पर आ कर साड़ी का बिल ले कर अरुण को देती हुई चुपके से बोली, ‘‘अभी तुम भुगतान कर दो, बाद में मैं तुम्हें दे दूंगी.’’अरुण ने बिल का भुगतान कर दिया और संगीता के साथ आ कर गाड़ी में बैठ गया.

गाड़ी थोड़ी दूर ही चली थी कि संगीता ने कहा, ‘‘जानते हो अरुण, संतोषजी के चाचा की लड़की की शादी है. मेरे पास शादी में पहनने के लिए कोई ढंग की साड़ी नहीं है, इसीलिए मुझे नई साडि़यां लेनी पड़ीं.

‘‘मेरी शादी में मां ने वही पुराने जमाने वाला हार दिया था, जो टूटा पड़ा है. शादी में पहनने के लिए मैं एक अच्छा सा हार लेना चाहती हूं, पर क्या करूं. पैसे की इतनी तंगी है कि चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाती हूं. मैं चाहती थी कि तुम से पैसा उधार ले कर एक हार ले लूं. बाद में मैं तुम्हें पैसा लौटा दूंगी.’’अरुण चुपचाप संगीता की बातें सुनता हुआ गाड़ी चलाए जा रहा था.

उसे चुप देख कर संगीता ने पूछा, ‘‘अरुण, तो क्या तुम चल रहे हो ज्वैलरी की दुकान में?’’

‘‘तुम कहती हो, तो चलते हैं,’’ न चाहते हुए भी अरुण ने कहा.

संगीता ने ज्वैलरी की दुकान में 15 हजार का हार पसंद किया.अरुण ने हार की कीमत का चैक काट कर दुकानदार को दे दिया. फिर दोनों वापस आ गए.

अरुण को संगीता के साथ समय बिताने में एक अनोखा मजा मिलता था.आज शाम को उस ने रोटरी क्लब जाने का मूड बनाया. वह जाने की तैयारी कर ही रहा था, तभी संगीता आ गई.

संगीता काफी सजीसंवरी थी. उस ने साड़ी से मैच करता हुआ ब्लाउज पहन रखा था. उस ने अपने लंबे बालों को काफी सलीके से सजाया था. उस के होंठों की लिपस्टिक व माथे पर लगी बिंदी ने उस के रूप को काफी निखार दिया था.

देखने से लगता था कि संगीता ने सजने में काफी समय लगाया था. उस के आते ही परफ्यूम की खुशबू ने अरुण को मदहोश कर दिया. वह कुछ पलों तक ठगा सा उसे देखता रहा.

तभी संगीता ने अरुण को फिल्म के 2 टिकट देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम्हें आज मेरे साथ फिल्म देखने चलना होगा. इस में कोई बहाना नहीं चलेगा.’’अरुण संगीता की बात को टाल न सका और वह संगीता के साथ फिल्म देखने चला गया.

फिल्म देखते हुए बीचबीच में संगीता अरुण से सट जाती, जिस से उस के उभरे अंग अरुण को छूने लगते.फिल्म खत्म होने के बाद संगीता ने होटल में चल कर खाना खाने की इच्छा जाहिर की. अरुण मान गया.

खाना खा कर होटल से निकलते समय रात के डेढ़ बज रहे थे. अरुण ने संगीता को उस के घर छोड़ने की बात कही, तो संगीता ने उसे बताया कि चाची की लड़की का तिलक आया है. उस में संतोष भी गए हैं. वह घर में अकेली ही रहेगी. रात काफी हो चुकी है. इतनी रात को गाड़ी से घर जाना ठीक नहीं है. आज रात वह उस के घर पर ही रहेगी.

अरुण संगीता को साथ लिए अपने घर आ गया. वह उस के लिए अपना बैडरूम खाली कर खुद ड्राइंगरूम में सोने चला गया. वह काफी थका हुआ था, इसलिए दीवान पर लुढ़कते ही उसे गहरी नींद आ गई.

रात गहरी हो चुकी थी. अचानक अरुण को अपने ऊपर बोझ का अहसास हुआ. उस की नाक में परफ्यूम की खुशबू भर गई. वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा कि संगीता उस के ऊपर झुकी हुई थी.

उस ने संगीता को हटाया, तो वह उस के बगल में बैठ गई. अरुण ने देखा कि संगीता की आंखों में अजीब सी प्यास थी. मामला समझ कर अरुण दीवान से उठ कर खड़ा हो गया.

बेचैनी की हालत में संगीता अपनी दोनों बांहें फैला कर बोली, ‘‘सालों बाद मैं ने यह मौका पाया है अरुण, मुझे निराश न करो.’’

लेकिन अरुण ने संगीता को लताड़ते हुए कहा, ‘‘लानत है तुम पर संगीता. औरत तो हमेशा पति के प्रति वफादार रहती है और तुम हो, जो संतोष को धोखा देने पर तुली हुई हो.

‘‘तुम ने कैसे समझ लिया कि मेरा चरित्र तिनके का बना है, जो हवा के झोंके से उड़ जाएगा.

‘‘तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरा शरीर मेरी बीवी की अमानत है. इस पर केवल उसी का हक बनता है. मैं इसे तुम्हें दे कर उस के साथ धोखा नहीं करूंगा.

‘‘संगीता, होश में आओ. सुनो, औरत जब एक बार गिरती है, तो उस की बरबादी तय हो जाती है,’’ अपनी बात कहते हुए अरुण ने संगीता को अपने कमरे से बाहर कर के दरवाजा बंद कर लिया.

सुबह देर से उठने के बाद अरुण को पता चला कि संगीता तो तड़के ही वहां से चली गई थी.अरुण ने अपनी समझदारी से खुद को तो गिरने से बचाया ही, संगीता को भी भटकने नहीं दिया.

फैसला: किस बात से मनु की नींद उड़ गई

मनु और मीनू की जिंदगी मस्ती में कट रही थी. मीनू उस का छोटे से छोटा खयाल रखती थी. एक बार मनु को दिल का दौरा पड़ा. उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा. वहां एक नौजवान भी मीनू के साथ आता था. ठीक होने के बाद मनु ने उस नौजवान को शराब पिलाई. लड़के ने बहुतकुछ बक दिया. यह सुन कर मनु की नींद उड़ गई. ऐसा क्या कहा था उस नौजवान ने?

मनु को जब भी दफ्तर जाने की देरी होती तो वह कुछ हबड़तबड़ सी करने लगता था. उस की यह बेचैनी पलपल नजर आती तो मीनू चट इस को भांप जाती और जल्दी से काम करने लगती.

मीनू कब उस को थाली परोस कर लगा देती, मनु जैसे भौंचक सा ही रह जाता था.

कितनी दूर मनु का दफ्तर था, यह मीनू अच्छी तरह जानती थी. रोज 2 घंटे गाड़ी चला कर दूर गांव पहुंचना होता था. वापस आने मेें भी इतना ही समय लगता.

मीनू हमेशा ही कुछ रख दिया करती थी. कभी नमकीन, कभी मठरी ताकि दोपहर में कुछ सहारा तो रहे, जिस का मनु को दफ्तर पहुंच कर ही पता चलता.

मनु यह सब दोपहर को कौफी संग चाव से खाता. मीनू और वह इसी तरह एक सुरताल मे बंध कर गृहस्थी को जिए जा रहे थे.

मनु अकसर याद करता रहता कि कैसे थे, वे दिन जब उस को खुद खाना बनाना होता था. कमरा गंदा ही रहता. सबकुछ बिखराबिखरा सा. आज सब कितना संवरा और निखरा सा हो चला है. कोई चिंता ही नहीं रहती कि लंच में क्या पकाना है, डिनर में क्या खाना है. हर पोशाक कितनी व्यवस्थित रहती है. घर बिलकुल चमचमाता हुआ.

मनु सुबह 8 बजे घर से रवाना हो जाता और रात 9 बजे तक ही वापस आ पाता था. उस के इस दैनिक क्रम में घर पर बस सोना और खाना यही मुख्य काम होते थे. मीनू बाकी सब बहुत सहजता से संभाल लिया करती थी.

मनु को राशन, सब्जी, फलफूल, वारत्योहार किसी बात की फिक्र होती ही नहीं थी. मीनू कभी जताती तक नहीं थी कि दिनभर में वह सबकुछ कैसे संतुलित कर लेती है.

जिंदगी बहुत ही सुकून से आगे बढ़ रही थी. पिछले 2 साल से मनु जैसे शाही मौज उठा रहा था. शादी के कितने फायदे हैं, यह उस को पहले अंदाज हो जाता तो और जल्दी शादी कर चुका होता.

वे दोनों फेसबुक दोस्त थे. बस 2 महीने की दोस्ती मे ही कुछ ऐसा जादुई सा घट गया कि दोनों ने शादी करने का  फैसला कर लिया. एक दिलचस्प बात यह हुई कि मीनू और मनु दोनों ही खुद अपनेअपने अभिभावक थे. उन्हें ही अपना फैसला करना था और अपना जीवनसाथी चुनना था.

मनु को मीनू के विचार अच्छे लगे थे कि आगे मीनू बस एक गृहिणी बन कर जीना चाहती थी. उस का यही सपना था, घर पर रहना और घर की देखभाल करना.

मीनू ने मातापिता, परिवार ऐसा कुछ कभी देखा ही नहीं था. जाने कौन से  किसी बच्चों वाले आश्रम से शुरू हुआ उस का बचपन और किशोर जीवन, फिर  जवानी एक नारीशाला जैसे छात्रावास में बीत रहा था. ये युवतियां दोपहर तक सरकारी कालेज में पढ़ती थीं, शाम को मोमबत्ती बनाती थीं और यहीं रहती थीं.

अब मीनू गृहस्थी का मजा लेना चाहती थी. खूब पढ़ीलिखी तो थी, इसीलिए समझदार भी बहुत थी. मनु का जीवन भी तबाही की दास्तान ही था. उस ने सहमति दे दी. दोनों ने शादी कर ली. मनु यही सब याद कर रहा था.

मनु तो अब अपनी पूरी  तनख्वाह ही मीनू के हाथ पर रख देता है. बचत करना तो उस ने कभी सीखा ही नहीं. वैसे भी अभी उम्र ही क्या थी, जो रुपयापैसा जोड़ने की चिंता में गल जाते.

मनु अब बस आराम से पूरे मौज से अपनी नौकरी कर रहा था, पूरा मन लगा कर. वैसे भी उस को अपना काम डूब कर करने की आदत भी थी.

आज भी जैसे ही मनु दफ्तर पहुंचा, तो वह कुछ घबराहट सी महसूस कर रहा था. उसे अंदर जैसे कुछ चुभ रहा था. दर्द लगातार बढ़ रहा था. अब मनु ने एक ड्राइवर का इंतजाम किया और अस्पताल आया. मीनू को पहले ही खबर मिल गई थी. इसलिए उस ने अस्पताल में बात कर के सब तैयारी कर ली थी.

मनु को दिल का दौरा पड़ा था. सब पहले ही सतर्क थे. तुरंत उपकरण लगा दिया गया. धड़कन सामान्य हो गई. मनु की जान बच गई, मगर तबीयत अभी तक इतनी दुरुस्त नहीं थी. डाक्टर की सलाह से अब आराम की जरूरत थी. एक हफ्ते तक उस को अस्पताल में ही रहना था.

मनु देख रहा था कि कितनी मजबूती से मीनू ने यह सब संभाल लिया था. मीनू के  माथे पर एक शिकन तक नहीं देखी थी उस ने. हां, मगर वह किसी नौजवान के  साथ बाइक पर आजा रही थी.

मीनू ने कार चलाना सीखा ही नहीं. मनु ने बहुत जोर दिया, मगर वह हमेशा टालती रही.

मनु ने इस नौजवान को पहले कभी देखा नहीं था. तकरीबन 20-22 साल का  होगा.  मीनू को वही लाता था. मीनू खाना बना कर लाती तो वह साथ ही आता था.

मीनू बहुत प्यार से कहती तो वह फलों का जूस ले आता था. कौफी बनवा लाता. सब काम करता. कितनी बार तो उस ने मनु के पैर तक दबा दिए. सिर पर हलकी मालिश कर दी.

मनु बिलकुल ठीक हो कर घर आ गया. मनु ने कुछ दिन घर से ही काम करना उचित समझा. अब घर पर सुबह से शाम 2 मर्द रहा करते थे. एक तो राज और एक मनु. एक बीमार और एक बिलकुल फिट. मीनू पूरी फुरती से सारा काम संभालती और राज हर समय मनु की सेवा में रहता था.

मनु जब दफ्तर जाने लगा था. एक रविवार को वह अपने साथ राज को घुमाने ले गया. मीनू साथ नहीं गई थी. एक अच्छे से होटल में मनु ने राज को पहले बढि़या शराब पिलाई और इतनी ज्यादा पिला दी कि वह बहक गया.

किसी ने कहा है कि नशे मे आदमी हो या औरत हमेशा सच बोलते हैं. मनु उस से पूछता रहा और वह बताता रहा.

पिछले साल जब मंडी में आम आया ही था, तब राज को मीनू वही आम खरीदती मिली थी. दोनों में पहली मुलाकात में आमलीची की बातें इतनी गहराई से हुईं कि बारबार मिलने लगे.

2 हफ्ते बाद तक तो दोनों तन और मन से एकदूसरे के हो चुके थे.

मीनू उस का खूब खर्च उठाती थी. उस को शारीरिक, मानसिक सब तरह का सहारा देती थी. राज यहां पढ़ाई कर रहा था. किराए का कमरा ले कर वह रहता था. बहुत ही रूखासूखा सा जीवन था उस का, मगर मीनू से मुलाकात के बाद वह एक अनोखा रस भरा जीवन जी रहा था. रुपएपैसे हर समय उस के पास खूब रहते थे.

इसी तरह बोलतेबोलते राज नशे में धुत्त तो था ही, वहीं पर लुढ़क गया. मनु ने उस को सहारा दिया, बिठाया और सामान्य किया. दोनों ने जराजरा सा ही खाया और वापस लौट आए.

2 दिन तक मनु ने अपनेआप को शांत रखा. तीसरे दिन सामान पैक कर के कहीं जाने लगा. मीनू ने पूछा तो कह दिया कि अभी सूचना मिली है, जरूरी ट्रेनिंग पर जाना है.

मीनू ने कोई सवाल नहीं किया. उस को मनु पर पूरा भरोसा था और मनु भी ज्यादा कुछ न कह कर सीधा चला गया. वह गाड़ी चलाता रहा और उसी कसबे में जा कर रुका, जहां मीनू का मायका था. जहां वह छात्रावास में पलीबढ़ी थी और पढ़ाई भी कर रही थी.

बस, सिर्फ एक ही दिन की खोजखबर से मनु को पता लग गया कि मीनू के यहां भी एक दर्जन आशिक हुआ करते थे. यानी मीनू का स्वभाव तो पहले से ही आशिकाना है, मनु ने अंदाजा लगा लिया. फिर भी मन के किसी कोने में उस को जरा सा दुख तो हुआ कि उस ने शादी से पहले ही मीनू की सहीसही खोजखबर क्यों नहीं की? खैर, उस ने बहुत सोचसमझ कर अब दिल की गवाही से एक फैसला किया.

इतना सब जानने के बाद वह राज की बातें भी याद करता रहा. मन कुछ कड़वा सा हो गया था उस का जैसे नीम की पत्तियां चबा ली हों.

मनु वहां से अपने घर यानी मीनू के पास वापस नहीं लौटा. जिस तरह के तनाव से वह गुजर रहा था, उस में दोबारा दिल का दौरा पड़ सकता था. यों भी वह अब उस शहर में वापस जाना ही नहीं चाहता था.

मनु ने उसी समय तय किया कि अब वह पूरी जिंदगी किसी गांव में खेती करेगा, या फिर एकएक सांस समाजसेवा को समर्पित कर देगा. पैसा कमाना अब उस का मकसद नहीं था. पहले भी उस को खानेपहनने और ओढ़ने की कोई चिंता थी ही नहीं. बहुत कम पैसों में बड़ी खुशी से गुजारा करना तो उस की आदत थी.

मनु विचार कर ही रहा था कि एक दोस्त का संदेश आया कि पूना के पास ही एक गांव है, वहां एक सूखे जंगल को हराभरा करना है. यह 4 साल का प्रोजैक्ट है. मगर हरियाली में ही चौबीसों घंटे रहना होगा. बहुत सुविधाएं मिलेंगी. और भी बहुत सारी जानकारी उस ने मनु को भेज दी. आगे एक संदेश और भेजा कि अगर सहमति देते हो तो आगे बात करूं.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. मनु ने कहा कि वह 1-2 दिन में ही वहां पहुंच रहा है और तुरंत काम पर लग जाना चाहता है.

मनु को जीवन जीने का एक मकसद  मिल गया था. उस ने मीनू को फोन पर ही अलविदा का एक डिजिटल लैटर लिखा, जिस में बेहद जरूरी और खास बात यही थी कि वह अब फिर से बिलकुल आजाद थी, अपनी मरजी से जो चाहे कर सकती थी.

राज ने पूरा किस्सा बयां कर दिया होगा, इसलिए मनु ने सोचा कि मीनू का कोई जवाब नहीं आएगा. मगर जवाब भी आ गया. मीनू ने लिखा था कि अपना पूरा खयाल रखना. जहां रहो खुश रहो.

शौकीन: आखिर प्रभा अपनी बहन से क्या छिपा रही थी?

मीनू ने लंबी सांस ली और खिड़की से बाहर झांका तो पता लगा कि अब अच्छीखासी सुबह हो गई थी. ड्राइवर को कहीं चाय के लिए रुकने की कह कर वह पवन के ताजा झोंकों का मजा लेने लगी.

अलसुबह 4 बजे मीनू पूना से चली थी. मुंबई आने को ही था. यह जगह कोई गांव जैसी लग रही थी.

खैर, मीनू को तो चाय की तलब लग रही थी. एक छोटा सा बाजार आ गया और वहां लाइन से चाय के ठेले लगे थे.

मीनू की आवाज पर ड्राइवर ने पहियों को रोक दिया. एक महिला चाय का और्डर लेने उस की कार के पास आई.

उस महिला की सूरत देख कर मीनू तो जैसे आसमान से गिरी. उस ने चाय मंगवा ली और ड्राइवर को दूर नजर आ रहे मंदिर में रुपए चढ़ाने भेज दिया. वह फटाफट चला भी गया. दरअसल, उसे भी बीड़ी की तलब लग रही थी.

मीनू को पक्का यकीन था कि ये महिला वो ही है और दो पल की बातचीत में यह साबित भी हो गया.

…तो वे उस की सगी भाभी प्रभा थी, और पिछले 5 सालों से गुमशुदा भी.

“ओह… तो आज यहां मिली,” मीनू ने कुशलमंगल पूछी और प्रभा ने उस को खुल कर बता दिया कि यह सबकुछ कैसे हुआ.

प्रभा आपबीती बताने लगी कि ससुराल में खेतों का मैनेजर ही उस का आशिक था और आशिकी के आखिरी चरण में संपत्ति के लोभ के वशीभूत हो कर उसी ने उस का यह हाल कर दिया था.

मीनू को उस ने विस्तार से बताया कि लड़कपन से ही वह बहुत आजाद किस्म की थी, शायद 3 भाइयों में अकेली होने के कारण.

विवाह हुआ तो ससुराल में सारी आबोहवा और माजरा बहुत जल्द समझ आ गया. बड़ेबड़े खेत थे. बागबगीचे थे. खूब दौलत थी और पति अकेले थे.

“तुम एक बहन थीं, मगर तुम भी मस्तमौला टाइप ही थीं,” प्रभा बोली.

“तो, यहां मेरी एक तरह से लौटरी ही खुल गई. मगर अपनी हवस में अंधी मैं यह नहीं समझ सकी कि यह क्या कर रही हूं.

“यह दौलत कोई मैं ने तो नहीं कमाई है. इस की रखवाली तक तो ठीक है, पर सब की आंखों मे धूल झोंक कर इतनी रंगीनियां, सब को खुलेआम धोखा.

“मैं यह सब कैसे कर सकती हूं. मगर, जवाब भी मैं अपने हिसाब से बना लिया करती. बचपन से कोई अंकुश रहा ही नहीं. सारे सहीगलत तो मैं ने अपने तरीके और अपनी  सहूलियत से जो बना कर रखे थे.

“जैसी मेरी फितरत हो रही थी, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आगे इतने बुरे दिन देखने थे, मगर यह जाजम तो मैं ने खुद ही अपने लिए बिछा रखी थी.

“हां तो मीनू तुम सब से कमजोर थीं, मैं तुम को फुसलाने  लगी, उल्लू बनाने लगी.

“मैं कभी नहीं कहती थी कि तुम से बात किए बिना मेरा काम नहीं चल पाता. मगर सिर्फ तुम्हारे ही लक्षण, सोचविचार, चालचलन थे ही ऐसे कि मेरा काम आसान हो गया.

“मैं तो आशिकमिजाज थी, लेकिन तुम्हारे ये अंदाज मेरे बाकी के अवगुण को भी बहुत आसानी से छिपाते चले गए.

“तुम्हारे पति को तो अपने हर मिनट को डॉलर में बदलने का जुनून सवार था और तुम्हारे होने ना होने से उस को कभी कोई फर्क नहीं पड़ा.

“वैसे भी वो अच्छी तरह समझ गया था कि तुम्हारे पर्स में नोट भरे हों और वार्डरोब में फैशनेबल कपड़े हों तो तुम को यह भी याद नहीं रहता कि तुम्हारा कोई पति भी है.

“वो इस बात का  फायदा उठा कर तुम को आजादी देने के नाम पर नजरअंदाज करता रहा.

“मीनू, वो खुद एक नंबर का ऐयाश है. 2-3 बार उस ने मुझ से लिपटने की कोशिश की, मगर उस के बदन का पसीना…

“उहूं… मुझे उलटी सी आती थी. पर, तुम तो बेफिक्र सी  अपने रंग मे रहीं.

“तुम आएदिन पीहर आ कर पड़ी रहतीं और तुम्हारे मातापिता यानी मेरे सासससुर तुम्हारी संगत में मिठास से सराबोर रहते. वो बस खातेपीते, आराम करते और तुम से ही बातें करते रहते.

“उन को, तुम्हारे पति को और तुम्हारे भाई तक को अपने जुआताश आदि के नशेपत्ते में, यह कभी पता तक नहीं रहता था कि मैं क्या कर रही हूं. खेत में जाने के बहाने वहां कौनकौन से गुल खिला रही हूं.

“मैं बस दिखावे के लिए तुम से लाड़ करती और सासससुर ही नहीं, मेरे पति भी भावुक हो कर बहुत खुश हो जाते कि कितनी व्यावहारिक हूं मैं. ननद के साथ इतनी सरल, सहज.”

“फिर, उन को कभी बुरा नहीं लगता था कि मैं अपनीअपनी चला रही हूं. उन की मरजी कहीं है ही नहीं. खाना रोज बाहर से आ रहा है. कितनी चीजें बरबाद भी हो रही हैं.

“और मैं… मैं तो अपनी रवानी  में उस के साथ कभी यहां तो कभी वहां, बस आवारागर्दी करती फिरती. तुम और वो सब यही सोचते कि मैं कितनी जिम्मेदार हूं, बागबगीचे, अनाज, मवेशी देख रही हूं. इस घर के लिए तन, मन, धन से जुटी हुई हूं.

“तुम तो भई हद दर्जे की  निकम्मी थीं अपने भाई की तरह, लेकिन मेरा काम तो आसान कर रही थीं. हौलेहौले मैं ने तुम्हें उपन्यास में डूबे रहने  और हर दूसरे दिन टाकीज जा कर फिल्म देखने का ऐसा आदी बना दिया कि तुम उस लत से बाहर आ ही नहीं सकीं. आती भी कैसे, मैं जो तुम्हारी हर बुरी आदत को खादपानी दे रही थी. और मुझे मुश्किल हुई भी नहीं, तुम्हारा जब तक मन होता, पसर कर सोती ही रहती थीं.

“तुम भी अजीब जीव थीं. जब जो मन होता वो करतीं. रात को बाहर बैठ कर नूडल्स खातीं. सुबह से दोपहर तक खर्राटे भर पलंग तोड़तीं.

“समयकुसमय भी नहीं देखती थीं, मैं ने तो बस तुम को हवा दी. मैं तुम को हमेशा राजकुमारी कहती रहती थी, जबकि सच यह था कि तुम इनसान कहलाने लायक भी नहीं थीं.

“तुम्हारे दिलोदिमाग में बस आरामतलबी के कीटाणु भरे पड़े थे. बस, खाना और सोना, बाकी समय ख्यालीपुलावों में मगन रहना. अपने सुकून में मस्तमगन रहना.

“मैं तुम्हारे भाई और तुम को इतना आराम दे रही थी कि तुम इस की आदी बनती चली गई. मातापिता तो खैर पैंसठ-सत्तर को छू रहे थे, उन का सुस्ताना लाजिमी था.

“मेरा हर अवैध काम तुम्हारे आलस के परदे में तसल्ली से परवान चढ़ रहा था कि एक दिन वो धोखेबाज मुझे अपनी चाल मे फंसाने आया. मैं उस के जाल में ऐसी अटकी कि वो मुझे उल्लू बना कर चला गया.

“मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 3 साल छोटा मेरा दीवाना मुझ से ही खेल खेल जाएगा. और मैं बिलकुल अकेली पड़ गई.

“याद है ना, उन दिनों तुम, तुम्हारे मातापिता और भाई के साथ शिमला गई थीं. गरमी बहुत थी और तुम लोग 2-3 हफ्ते तक वहां से वापस नहीं लौटना चाहते थे.

“मुझे कुछ पिलाया गया था. और फिर हलकी सी बेहोशी में मुझे याद है कि मुझे कस कर बांध दिया गया था.

“मैं हिल कर जितनी भी ताकत थी, जूझती रही. मैं बहुत चीखी, जितना दम बचा था उतना.

“पर, वो सब को अपने साथ मिला चुका था, बंगले का  कुक, माली और चौकीदार. मुझ को हाथपैर बांध कर ट्रक में पटक दिया गया और यहां इतनी दूर गांव में फेंक दिया.

“यहां पूरे 2 साल मजदूरों की तरह दिहाडी कर के मैं बच सकी. पत्थर तोड़ कर, झाड़ू लगा कर, नाली साफ कर के रोटी खाई.

“न जाने कैसा चमत्कार हुआ कि मैं निराश नहीं हुई. अब ये चाय का ठेला है, इस से बहुत ही मजे में गुजारा हो जाता है.

“तुम लोग बेहद याद आते थे. पर, अब तक तो मेरी हर  काली करतूत पता लग गई होगी. इस शर्म से यहीं रही. मैं कहीं नहीं गई. कितने दिन तो मुंह छिपाती रहती कि कोई मेरी पहचान न कर ले.”

“मगर, वो एकदम से इतनी घृणा क्यों करने लगा? इतना नाराज हुआ कैसे?” बीच में मीनू ने पूछ लिया.

“बस, जलन हो गई थी उस को. उस ने पकड़ लिया मुझे, रंगेहाथों.

“हां… वो सहन नहीं कर सका. तुम तो जानती हो ना मेरी तलब. मुझ को वो एक नया युवक, जो काम पर लगा था, एक  मवेशी संभालने वाला बहुत ही भा गया था. और मेरा काफी समय उस के साथ गुजरने लगा था. वो मेरे बालों को सहलाता, मेरे पैर दबाता, बहुत सेवा करता था.”

प्रभा ने एकदम चुप्पी साध ली.

उस के आगे और कुछ भी नहीं बता कर वह जरा ठहर कर  आगे बोली, “कैसे हैं सब..?संपत्ति तो वो डकैत लूट ले गया होगा. मैं बहुत शर्मिंदा हूं,” कह कर प्रभा सिसकने  लगी.

“नहीं… ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. हम लोग लौटे और तुम्हारी चिट्ठी पढी. तुम अपनी मरजी से चली गई थीं. फिर भी हम लोगों ने तुम्हारे अचानक  गायब होने की  रिपोर्ट लिखवाई.”

“चिट्ठी भी लिख दी मेरे नाम से. मेरे ही लेख को कौपी कर लिया. उफ,” तड़प कर रह गई प्रभा.

“हम ने तुम्हारे भाइयों को खबर की, पर वे आए ही नहीं. यह बहुत अजीब हुआ.

“हां… उस के बाद तकरीबन एक महीने बाद वो मैनेजर भी अफीम के नशे में कुएं में छलांग लगा बैठा.

“आगे उस की पत्नी और बच्चों  को हम लोगों ने सहारा दिया. अब वो ही मेरी नई भाभी हैं. सब संभाल रही हैं. मेरा पूरा खयाल रखती हैं.

“उस के बच्चों को हम ने अपने परिवार में शामिल कर लिया है. वे बहुत मेहनत करती हैं. इन दिनों उन्होंने नई जमीनें भी खरीदवा ली हैं. संपत्ति, रुपया  तो हर रोज बढ़ता जा रहा है.

“वाशिम अब बहुत ही सुंदर हो गया है. मैं तो कल शाम पूना आ गई थी. मेरे पति वहां पर एक आध्यात्मिक आश्रम के संचालक हो गए हैं. वे खुद नियम से स्नान, ध्यान करते हैं. लगता ही नहीं कि चालीस के हो गए हैं. मुझ से भी छोटे लगते हैं,” मीनू ने हंस कर कहा.

प्रभा बड़ी हैरत से सुन रही थी और बहुत मुश्किल से विश्वास कर पा रही थी.

“मुश्किल से 3-4  घंटे लगते हैं  यहां पहुंचन में,” मीनू बोली.

“हूं…” कह कर प्रभा चुप हो गई. अब वह कहीं भी नहीं जाना चाहती थी.

मीनू ने उस को बताया, “उस को 12 बजे तक फिजियोथैरैपी के लिए नानावटी अस्पताल पहुंचना है. जरा कलाई में दिक्कत है.”

“मुझे तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है. तुम अपना खयाल रखना,” कह कर मीनू  अपनी कार में बैठ गई.

प्रभा उस को जाते हुए देर तक देखती रही और अपने वर्तमान पर वापस ठहर कर जूठे  गिलास मांजने  लगी.

वह अनजान लड़की: स्टेशन पर दिनेश के साथ क्या हुआ

दिनेश नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ‘राजधानी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन के इंतजार में कुरसी पर बैठा था, तभी जींसटौप, सैंडल पहने और मौडल सी दिखने वाली खूबसूरत सी लड़की दनदनाती हुई आई और उस के दोनों हाथ पकड़ कर ‘जीजूजीजू…’ कहते हुए उस के बगल की कुरसी पर बैठ गई.

वह लड़की लगातार बोले जा रही थी, ‘‘पूरे 2 साल बाद आप मिल रहे हैं. इस बीच आप ने अपनी हैल्थ को काफी मेंटेन कर लिया है. सुषमा दीदी कैसी हैं? प्रेम और बिपाशा की क्या खबर है?’’

दिनेश हैरान था, फिर भी इतनी खूबसूरत लड़की से बात करने का लालच वह छोड़ नहीं पा रहा था. वह भी उस की हां में हां मिलाने लगा. सच कहें, तो उसे भी उस लड़की से बात करने में मजा आने लगा था.

तकरीबन 45 मिनट तक वह लड़की दिनेश से बात करती रही. बीचबीच में वह एकाध शब्द बोल लेता था.

उस लड़की ने पूछा, ‘‘जीजू, आप कहां जा रहे हैं?’’

दिनेश ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘मैं पटना जा रहा हूं.’’

फिर वह लड़की बोली, ‘‘जीजू, मुझे मुंबई की ट्रेन पकड़नी है. क्या आप मुझे ट्रेन में बिठाने में मदद कर देंगे? प्लीज…’’

दिनेश ने घड़ी देखी. उस की ट्रेन आने में तकरीबन एक घंटे की देरी थी. उस ने लड़की से पूछा, ‘‘तुम्हारी ट्रेन कितने बजे की है?’’

उस ने कहा, ‘‘बस, 10 मिनट में आने वाली है.’’

कुछ देर बाद ही उस लड़की की ट्रेन आ गई. दिनेश ने उस का बैग संभाल लिया और एसी बोगी में उसे बर्थ पर बिठा कर उस का सामान रख दिया.

कुछ पल के बाद लड़की के चेहरे पर बेफिक्री का भाव आया. उस ने दिनेश के दोनों हाथ पकड़ लिए, फिर बोली, ‘‘सर, मैं आप की मदद के लिए सचमुच दिल से आभारी हूं. मेरा नाम प्रिया है. मैं मुंबई में रहती हूं. मैं एक मौडल हूं. ‘‘दरअसल, मैं एक जरूरी काम के सिलसिले में दिल्ली आई थी. आज होटल से निकलते वक्त ही कुछ गुंडेमवाली किस्म के लोग मेरी टैक्सी का पीछा कर रहे थे. उस के बाद वे मेरे पीछेपीछे प्लेटफार्म पर भी घुस आए. फिर आप से मुलाकात हुई और वे गुंडे तितरबितर हो कर लौट गए.

‘‘मैं आप की मदद के लिए सचमुच एहसानमंद हूं. यह रहा मेरा विजिटिंग कार्ड. कभी मुंबई आना हुआ, तो आप मुझे काल कर लेना.’’

दिनेश ने उठतेउठते पूछ ही लिया, ‘माफ कीजिएगा प्रियाजी, मैं भी एक मर्द ही हूं. मुझ पर आप ने कैसे भरोसा कर लिया?’’

प्रिया ने बड़ी शोख अदा से मुसकराते हुए कहा, ‘‘सर, मैं एक राज की बात बताती हूं, लड़कियां किसी जैंटलमैन को पहचानने में कभी भूल नहीं करतीं.’’

प्रिया की यह बात सुन कर दिनेश ने एक लंबी राहत भरी सांस ली, उसे ‘हैप्पी जर्नी’ कहा और ट्रेन से उतर गया.

एक मुलाकात : क्या हालात के साथ समझौते का नाम ही जिंदगी है

नेहा ने होटल की बालकनी में कुरसी पर बैठ अभी चाय का पहला घूंट भरा ही था कि उस की आंखें खुली की खुली रह गईं. बगल वाले कमरे की बालकनी में एक पुरुष रेलिंग पकडे़ हुए खड़ा था जो पीछे से देखने में बिलकुल अनुराग जैसा लग रहा था. वही 5 फुट 8 इंच लंबाई, छरहरा गठा बदन.

नेहा सोचने लगी, ‘अनुराग कैसे हो सकता है. उस का यहां क्या काम होगा?’ विचारों के इस झंझावात को झटक कर नेहा शांत सड़क के उस पार झील में तैरती नावों को देखने लगी. दूसरे पल नेहा ने देखा कि झील की ओर देखना बंद कर वह व्यक्ति पलटा और कमरे में जाने के लिए जैसे ही मुड़ा कि नेहा को देख कर ठिठक गया और अब गौर से उसे देखने लगा.

‘‘अरे, अनुराग, तुम यहां कैसे?’’ नेहा के मुंह से अचानक ही बोल फूट पड़े और आंखें अनुराग पर जमी रहीं. अनुराग भी भौचक था, उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की नेहा इतने सालों बाद उसे इस तरह मिलेगी. वह भी उस शहर में जहां उन के जीवन में प्रथम प्रेम का अंकुर फूटा था.

दोनों अपनीअपनी बालकनी में खड़े अपलक एकदूसरे को देखते रहे. आंखों में आश्चर्य, दिल में अचानक मिलने का आनंद और खुशी, उस पर नैनीताल की ठंडी और मस्त हवा दोनों को ही अजीब सी चेतनता व स्फूर्ति से सराबोर कर रही थी.

अनुराग ने नेहा के प्रश्न का उत्तर मुसकराते हुए दिया, ‘‘अरे, यही बात तो मैं तुम से पूछ रहा हूं कि तुम 30 साल बाद अचानक नैनीताल में कैसे दिख रही हो?’’

उस समय दोनों एकदूसरे से मिल कर 30 साल के लंबे अंतराल को कुछ पल में ही पाट लेना चाहते थे. अत: अनुराग अपने कमरे के पीछे से ही नेहा के कमरे में चले आए. अनुराग को इस तरह अपने पास आता देख नेहा के दिल में खुशी की लहरें उठने लगीं. लंबेलंबे कदमों से चलते हुए नेहा अनुराग को बड़े सम्मान के साथ अपनी बालकनी में ले आई.

‘‘नेहा, इतने सालों बाद भी तुम वैसी ही सुंदर लग रही हो,’’ अनुराग उस के चेहरे को गौर से देखते हुए बोले, ‘‘सच, तुम बिलकुल भी नहीं बदली हो. हां, चेहरे पर थोड़ी परिपक्वता जरूर आ गई है और कुछ बाल सफेद हो गए हैं, बस.’’

‘‘अनुराग, मेरे पति आकाश भी यही कहते हैं. सुनो, तुम भी तो वैसे ही स्मार्ट और डायनैमिक लग रहे हो. लगता है, कोई बड़े अफसर बन गए हो.’’

‘‘नेहा, तुम ने ठीक ही पहचाना. मैं लखनऊ में डी.आई.जी. के पद पर कार्यरत हूं. हलद्वानी किसी काम से आया था तो सोचा नैनीताल घूम लूं, पर यह बताओ कि तुम्हारा नैनीताल कैसे आना हुआ?’’

‘‘मैं यहां एक डिगरी कालिज में प्रैक्टिकल परीक्षा लेने आई हूं. वैसे मैं बरेली में हूं और वहां के एक डिगरी कालिज में रसायन शास्त्र की प्रोफेसर हूं. पति साथ नहीं आए तो मुझे अकेले आना पड़ा. अभी तक तो मेरा रुकने का इरादा नहीं था पर अब तुम मिले हो तो अपना कार्यक्रम तो बदलना ही पडे़गा. वैसे अनुराग, तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

अनुराग ने हंसते हुए कहा, ‘‘नेहा, जिंदगी में सब कार्यक्रम धरे के धरे रह जाते हैं, वक्त जो चाहता है वही होता है. हम दोनों ने उस समय अपने जीवन के कितने कार्र्यक्रम बनाए थे पर आज देखो, एक भी हकीकत में नहीं बदल सका… नेहा, मैं आज तक यह समझ नहीं सका कि तुम्हारे पापा अचानक तुम्हारी पढ़ाई बीच में ही छुड़वा कर बरेली क्यों ले गए? तुम ने बी.एससी. फाइनल भी यहां से नहीं किया?’’

नेहा कुछ गंभीर हो कर बोली, ‘‘अनुराग, मेरे पापा उस उम्र में  ही मुझ से जीवन का लक्ष्य निर्धारित करवाना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि पढ़ाई की उम्र में मैं प्रेम के चक्कर में पड़ूं और शादी कर के बच्चे पालने की मशीन बन जाऊं. बस, इसी कारण पापा मुझे बरेली ले गए और एम.एससी. करवाया, पीएच.डी. करवाई फिर शादी की. मेरे पति बरेली कालिज में ही गणित के विभागाध्यक्ष हैं.’’

‘‘नेहा, कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘2 बेटे हैं. बड़ा बेटा इंगलैंड में डाक्टर है और वहीं अपने परिवार के साथ रहता है. दूसरा अमेरिका में इंजीनियर है. अब तो हम दोनों पतिपत्नी अकेले ही रहते हैं, पढ़ते हैं, पढ़ाते है.’’

‘‘अनुराग, अब तक मैं अपने बारे में ही बताए जा रही हूं, तुम भी अपने बारे में कुछ बताओ.’’

‘‘नेहा, तुम्हारी तरह ही मेरा भी पारिवारिक जीवन है. मेरे भी 2 बच्चे हैं. एक लड़का आई.ए.एस. अधिकारी है और दूसरा दिल्ली में एम्स में डाक्टर है. अब तो मैं और मेरी पत्नी अंशिका ही घर में रहते हैं.’’

इतना कह कर अनुराग गौर से नेहा को देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो अनुराग?’’ नेहा बोली, ‘‘अब सबकुछ समय की धारा के साथ बह गया है. जो प्रेम सत्य था, वही मन की कोठरी में संजो कर रखा है और उस पर ताला लगा लिया है.’’

‘‘नेहा…सच, तुम से अलग हो कर वर्षों तक मेरे अंतर्मन में उथलपुथल होती रही थी लेकिन धीरेधीरे मैं ने प्रेम को समझा जो ज्ञान है, निरपेक्ष है और स्वयं में निर्भर नहीं है.’’

‘‘अनुराग, तुम ठीक कह रहे हो,’’ नेहा बोली, ‘‘कभी भी सच्चे प्रेम में कोई लोभ, मोह और प्रतिदान नहीं होता है. यही कारण है कि हमारा सच्चा प्रेम मरा नहीं. आज भी हम एकदूसरे को चाहते हैं लेकिन देह के आकर्षण से मुक्त हो कर.’’

अनुराग कमरे में घुसते बादलों को पहले तो देखता रहा फिर उन्हें अपनी मुट्ठी में बंद करने लगा. यह देख नेहा हंस पड़ी और बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हो बच्चों की तरह?’’

‘‘नेहा, तुम्हारी हंसी में आज भी वह खनक बरकरार है जो मुझे कभी जीने की पे्ररणा देती थी और जिस के बलबूते पर मैं आज तक हर मुश्किल जीतता रहा हूं.’’

नेहा थोड़ी देर तक शांत रही, फिर बेबाकी से बोल पड़ी, ‘‘अनुराग, इतनी तारीफ ठीक नहीं और वह भी पराई स्त्री की. चलो, कुछ और बात करो.’’

‘‘नेहा, एक कप चाय और पियोगी.’’

‘‘हां, चल जाएगी.’’

अनुराग ने कमरे से फोन किया तो कुछ ही देर में चाय आ गई. चाय के साथ खाने के लिए नेहा ने अपने साथ लाई हुई मठरियां निकालीं और दोनों खाने लगे. कुछ देर बाद बातों का सिलसिला बंद करते हुए अनुराग बोले, ‘‘अच्छा, चलो अब फ्लैट पर चलें.’’

नेहा तैयार हो कर जैसे ही बाहर निकली, कमरे में ताला लगाते हुए अनुराग उस की ओर अपलक देखने लगा. नेहा ने टोका, ‘‘अनुराग, गलत बात…मुझे घूर कर देखने की जरूरत नहीं है, फटाफट ताला लगाइए और चलिए.’’

उस ने ताला लगाया और फ्लैट की ओर चल दिया.

बातें करतेकरते दोनों तल्लीताल पार कर फ्लैट पर आ गए और उस ओर बढ़ गए जिधर झील के किनारे रेलिंग बनी हुई थी. दोनों रेलिंग के पास खड़े हो कर झील को देखते रहे.

कतार में तैर रही बतखों की ओर इशारा करते हुए अनुराग ने कहा, ‘‘देखो…देखो, नेहा, तुम ने भी कभी इसी तरह तैरते हुए बतखों को दाना डाला था जैसे ये लड़कियां डाल रही हैं और तब ठीक ऐसे ही तुम्हारे पास भी बतखें आ रही थीं, लेकिन तुम ने शायद उन को पकड़ने की कोशिश की थी…’’

‘‘हां अनुराग, ज्यों ही मैं बतख पकड़ने के लिए झुकी थी कि अचानक झील में गिर गई और तुम ने अपनी जान की परवा न कर मुझे बचा लिया था. तुम बहुत बहादुर हो अनुराग. तुम ने मुझे नया जीवन दिया और मैं तुम्हें बिना बताए ही नैनीताल छोड़ कर चली गई, इस का मुझे आज तक दुख है.’’

‘‘चलो, तुम्हें सबकुछ याद तो है,’’ अनुराग बोला, ‘‘इतने वर्षों से मैं तो यही सोच रहा था कि तुम ने जीवन की किताब से मेरा पन्ना ही फाड़ दिया है.’’

‘‘अनुराग, मेरे जीवन की हर सांस में तुम्हारी खुशबू है. कैसे भूल सकती हूं तुम्हें? हां, कर्तव्य कर्म के घेरे में जीवन इतना बंध जाता है कि चाहते हुए भी अतीत को किसी खिड़की से नहीं झांका जा सकता,’’  एक लंबी सांस लेते हुए नेहा बोली.

‘‘खैर, छोड़ो पुरानी बातों को, जख्म कुरेदने से रिसते ही रहते हैं और मैं ने  जख्मों पर वक्त का मरहम लगा लिया है,’’ अनुराग की गंभीर बातें सुन कर नेहा भी गंभीर हो गई.

‘यह अनुराग कुछ भी भूला नहीं है,’ नेहा मन में सोचने लगी, पुरुष हो कर भी इतना भावुक है. मुझे इसे समझाना पड़ेगा, इस के मन में बंधी गांठों को खोलना पडे़गा.’

नेहा पत्थर की बैंच पर बैठी कुछ समय के लिए शांत, मौन, बुत सी हो गई तो अनुराग ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्या मेरी बातें बुरी लगीं? तुम तो बेहद गंभीर हो गईं. मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था नेहा. सौरी.’’

‘‘अनुराग, यौवनावस्था एक चंचल, तेज गति से बहने वाली नदी की तरह होती है. इस दौर में लड़केलड़कियों में गलतसही की परख कम होती है. अत: प्रेम के पागलपन में अंधे हो कर कई बार दोनों ऐसे गलत कदम उठा लेते हैं जिन्हें हमारा समाज अनुचित मानता है. और यह तो तुम जानते ही हो कि हम भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर

हर शनिवाररविवार खूब घूमतेफिरते थे. नैनीताल का वह कौन सा स्थान है जहां हम नहीं घूमे थे. यही नहीं जिस उद्देश्य के लिए हम मातापिता से दूर थे, वह भी भूल गए थे. यदि हम अलग न हुए होते तो यह सच है कि न तुम कुछ बन पाते और न मैं कुछ बन पाती,’’ कहते हुए नेहा के चेहरे पर अनुभवों के चिह्न अंकित हो गए.

‘‘हां, नेहा तुम बिलकुल ठीक कह रही हो. यदि कच्ची उम्र में हम ने शादी कर ली होती तो तुम बच्चे पालती रहतीं और मैं कहीं क्लर्क बन गया होता,’’ कह कर अनुराग उठ खड़ा हुआ.

नेहा भी उठ गई और दोनों फ्लैट से सड़क की ओर आ गए जो तल्लीताल की ओर जाती है. चारों ओर पहाडि़यां ही पहाडि़यां और बीच में झील किसी सजी हुई थाल सी लग रही थी.

नेहा और अनुराग के बीच कुछ पल के लिए बातों का सिलसिला थम गया था. दोनों चुपचाप चलते रहे. खामोशी को तोड़ते हुए अनुराग बोला, ‘‘अरे, नेहा, मैं तो यह पूछना भूल ही गया कि खाना तुम किस होटल में खाओगी?’’

‘‘भूल गए, मैं हमेशा एंबेसी होटल में ही खाती थी,’’ नेहा बोली.

अपनेअपने परिवार की बातें करते हुए दोनों चल रहे थे. जब दोनों होटल के सामने पहुंचे तो अनुराग नेहा का हाथ पकड़ कर सीढि़यां चढ़ने लगा.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अनुराग. मैं स्वयं ही सीढि़यां चढ़ जाऊंगी. प्लीज, मेरा हाथ छोड़ दो, यह सब अब अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘सौरी,’’ कह कर अनुराग ने हाथ छोड़ दिया.

दोनों एक मेज पर आमनेसामने बैठ गए तो बैरा पानी के गिलास और मीनू रख गया.

खाने का आर्डर अनुराग ने ही दिया. खाना देख कर नेहा मुसकरा पड़ी और बोली, ‘‘अरे, तुम्हें तो याद है कि मैं क्या पसंद करती हूं, वही सब मंगाया है जो हम 25 साल पहले इसी तरह इसी होटल में बैठ कर खाते थे,’’ हंसती हुई नेहा बोली, ‘‘और इसी होटल में हमारा प्रेम पकड़ा गया था. खाना खाते समय ही पापा ने हमें देख लिया था. हो सकता है आज भी न जाने किस विद्यार्थी की आंखें हम लोगों को देख रही हों. तभी तो तुम्हारा हाथ पकड़ना मुझे अच्छा नहीं लगा. देखो, मैं एक प्रोफेसर हूं, मुझे अपना एक आदर्श रूप विद्यार्थियों के सामने पेश करना पड़ता है क्योंकि बातें अफवाहों का रूप ले लेती हैं और जीवन भर की सचरित्रता की तसवीर भद्दी हो जाती है.’’

मुसकरा कर अनुराग बोला, ‘‘तुम ठीक कहती हो नेहा, छोटीछोटी बातों का ध्यान रखना जरूरी है.’’

‘‘हां, अनुराग, हम जीवन में सुख तभी प्राप्त कर सकते हैं जब सच्चे प्यार, त्याग और विश्वास को आंचल में समेटे रखें, छोटीछोटी बातों पर सावधानी बरतें. अब देखो न, मेरे पति मुझे अपने से भी ज्यादा प्यार करते हैं क्योंकि मेरा अतीत और वर्तमान दोनों उन के सामने खुली किताब है. मैं ने शाम को ही आकाश को फोन पर सबकुछ बता दिया और वह निश्ंिचत हो गए वरना बहुत घबरा रहे थे.’’

बातों के साथसाथ खाने का सिलसिला खत्म हुआ तो अनुराग बैरे को बिल दे कर बाहर आ गए.

अनुराग और नेहा चुपचाप होटल की ओर चल रहे थे, लेकिन नेहा के दिमाग में उस समय भी कई सुंदर विचार फुदक रहे थे.  वह चौंकी तब जब अनुराग ने कहा, ‘‘अरे, होटल आ गया नेहा, तुम आगे कहां जा रही हो?’’

‘‘ओह, वैरी सौरी. मैं तो आगे ही बढ़ गई थी.’’

‘‘कुछ न कुछ सोच रही होगी शायद…’’

‘‘हां, एक नई कहानी का प्लाट दिमाग में घूम रहा था. दूसरे, नैनीताल की रात कितनी सुंदर होती है यह भी सोच रही थी.’’

‘‘अच्छा है, तुम अपने को व्यस्त रखती हो. साहित्य सृजन रचनात्मक क्रिया है, इस में सार्थकता और उद्देश्य के साथसाथ लक्ष्य भी होता है…’’ होटल की सीढि़यां चढ़ते हुए अनुराग बोला. बात को बीच में ही काटते हुए नेहा बोली, ‘‘यह सब लिखने की प्रेरणा आकाश देते हैं.’’

नेहा अपने कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर जाने लगी तो अनुराग ने पूछा, ‘‘क्या अभी से सो जाओगी? अभी तो 11 बजे हैं?’’

‘‘नहीं अनुराग, कल के लिए कुछ पढ़ना है. वैसे भी आज बातें बहुत कर लीं. अच्छी रही हम लोगों की मुलाकात, ओ. के. गुड नाइट, अनुराग.’’ और एक मीठी मुलाकात की महक बसाए दोनों अपनेअपने कमरों में चले गए.

नेहा अपने कमरे में पढ़ने में लीन हो गई लेकिन अनुराग एक बेचैनी सी महसूस कर रहा था कि वह जिस नेहा को एक असहाय, कमजोर नारी समझ रहा था वह आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की जीतीजागती प्रतिरूप है. एक वह है जो अपनी पत्नी में हमेशा नेहा का रूप देखने का प्रयास करता रहा. सदैव उद्वेलित, अव्यवस्थित रहा. काश, वह भी समझ लेता कि परिस्थितियों के साथ समझौते का नाम ही जीवन है. नेहा ने ठीक ही कहा था, ‘अनुराग, हमें किसी भी भावना का, किसी भी विचार का दमन नहीं करना चाहिए, वरन कुछ परिस्थितियों को अपने अनुकूल और कुछ स्वयं को उन के अनुकूल करना चाहिए तभी हमारे साथ रहने वाले सभी सुखी रहते हैं.’

अम्मी कहां : कहां खो गई थीं मोहिन की अम्मी

‘‘अम्मीजान, आप यहीं खड़ी रहना, मैं टिकट ले कर अभी आता हूं,’’ कह कर मोहिन खान अपनी मां को रेलवे प्लेटफार्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी के पास छोड़ कर टिकट लेने चला गया.

टिकट खिड़की पर लाइन लंबी थी, जो बस स्टौप तक पहुंच गई. उसे इतनी भीड़ होने का अंदाजा न था. उस ने सोचा, ‘टिकट ही तो लेनी है. उस में कौन सी बड़ी बात है.’

पर जब वह टिकट लेने पहुंचा, तो सब ने उसे ‘लाइन से आओ’ कह कर पीछे भेज दिया. वह सब से पीछे जा कर खड़ा हो गया और लाइन आगे बढ़ने का इंतजार करता रहा. पर कहां? लाइन वहीं की वहीं, धीरेधीरे चींटी की तरह आगे बढ़ रही थी.

मोहिन खान को अपनी मां को ले कर भिंडी बाजार जाना था. कल उस के भतीजे का पहला जन्मदिन था. चूंकि उस की मां की उम्र हो चुकी थी. उस ने सोचा कि आज मां को वहां छोड़ कर कल शाम अपनी बीवी और बच्चे को साथ ले जाएगा, इसलिए मां को भाई के घर छोड़ कर उसे किसी भी हाल में वापस लौटना था, क्योंकि नौकरों के भरोसे वह दुकान छोड़ नहीं सकता था, इसलिए उसे जल्दी थी.

वहां उस की अम्मी इंतजार कर के थक गईं. मन ही मन कुढ़ते हुए वे सोचने लगीं कि पता नहीं कहां चला गया. कह कर गया था कि टिकट लाने जा रहा हूं, पर इतनी देर हो गई और अब तक नहीं लौटा.

उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव धीरेधीरे सीढ़ी चढ़ कर 2 नंबर के प्लेटफार्म पर आ गईं. यह सोच कर कि उन का बेटा पीछेपीछे आ जाएगा. जो ट्रेन आई, वे उस में चढ़ गईं.

उन्हें अपनी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उसे भी भिंडी बाजार जाना था. वे कई सालों बाद उस से मिलीं, तो बतियाने लगीं. इधर मोहिन खान टिकट ले कर सीढि़यों के पास पहुंचा. वहां अपनी अम्मी को न देख कर वह घबरा गया. उस ने टिकटघर के आसपास का सारा इलाका छान मारा, पर उसे उस की अम्मी कहीं नहीं नजर आईं.

शाम ढल चुकी थी. अंधेरा भी हो गया. सड़कें, दुकान, मकान, होटल यहां तक कि टिकटघर के साथ प्लेटफार्म भी बिजली की रोशनी से जगमगाने लगे थे.

उस ने सभी प्लेटफार्म देख लिए, पर अम्मी का कहीं पता नहीं चला. पूछताछ करे भी तो किस से? उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे.

मोहिन खान ने बारीबारी से सब को फोन कर के पूछ लिया, पर कहीं से भी उस की अम्मी के पहुंचने की खबर नहीं मिली. अब तो वह और भी डर गया. उस के परिवार वाले भी परेशान थे. भिंडी बाजार में फोन करने पर उस के भाईजान और भाभीजान दोनों परेशान हो गए. कुर्ला से भायखाला का आधे घंटे का सफर है, फिर वे कहां रह गईं.

भिवंडी में मझले भाई असलम को पता चला, तो वह भी परेशान हो गया. गोवंडी में मोहिन खान की आपा को जब यह बात पता चली, तो वे बहुत गुस्से में बिफर कर फोन पर ही चिल्लाईं, ‘कितने लापरवाह हो तुम लोग? अभी कल ही तो छोड़ आई थी मैं उन्हें, कहीं कोई झगड़ा तो नहीं कर लिया किसी ने?’ कह कर गुस्से से फोन रख दिया.

मझला भाई भी अपने परिवार के साथ अम्मी को ढूंढ़ता हुआ पहुंच गया. फिर सब ने मिल कर अंदाजा लगाया कि कहीं वे वापस मोहिन खान के घर तो नहीं चली गईं?

यह सोच कर मझले भाई ने उसे फोन लगा कर कहा, ‘‘देखो मोहिन, तुम घबराना मत. तुम एक काम करो, एक बार घर जा कर देख लो. कहीं वे वापस न चली गई हों. अगर वे घर पर न हों, तो भी फिक्र मत करो. तुम दुकान बंद कर के बीवीबच्चों के साथ यहां चले आओ. हम सब मिल कर ढूंढ़ते हैं.’’

‘‘अच्छा भाईजान,’’ कह कर मोहिन खान सीधा घर गया. वहां अम्मी को न पा कर दोनों मियांबीवी कुछ देर बाद भिंडी बाजार पहुंच जाते हैं.

सब कितने खुश थे कि कल असलम के बच्चे का पहला जन्मदिन मनाया जाने वाला था. सब सोच रहे थे कि बड़े धूमधाम से जन्मदिन मनाएंगे कि अचानक यह खबर मिली. जहां कल के जश्न की तैयारियां होनी थीं, आज वहां एक अजीब सी खामोशी छाई थी.

जैसेजैसे रात होती गई, सब की फिक्र भी बढ़ती जा रही थी. सब के चेहरे मायूस थे. फिर सब ने तय किया कि अगर कल शाम तक कोई खबर नहीं मिली या अम्मी नहीं लौटीं, तो पुलिस में शिकायत दर्ज करेंगे. रात के साढ़े 11 बजे थे. सब थक चुके थे, पर किसी को भी न भूख थी, न आंखों में नींद.

अचानक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खुलते ही सामने अम्मी को एक अजनबी के साथ देख कर सब को हैरानी हुई. सब के चेहरे खुशी से चमक उठे.

अम्मी ने उस अजनबी को भीतर बुलाया और सोफे पर बैठाया. बहू से कहा, ‘‘शबनम, जरा पानी तो लाना.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह रसोईघर में गई और एक ट्रे में एक जग पानी भर कर और कुछ खाली गिलास भी ले आई.

तब तक अम्मी भी बैठ चुकी थीं. उन को पानी पिला कर वह जाने लगी, तो अम्मी ने कहा, ‘‘बहू, ये हमारे मेहमान हैं, आज रात यहीं रुकेंगे. इन के खानेपीने का इंतजाम करो.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह वापस रसोईघर में चली गई.

अब अम्मी बेटों और दामाद की ओर मुड़ कर बोलीं, ‘‘यह मेरी सहेली का बेटा है, जो मुझे छोड़ने आया है. हुआ यों कि मैं मोहिन खान के इंतजार में खड़ीखड़ी थक कर यह सोच कर धीरेधीरे चल पड़ी कि मेरे पीछे चला आएगा, पर वह नजर ही नहीं आया…

‘‘मैं यह सोच कर गाड़ी में भी चढ़ गई कि वह पीछे ही होगा, पर इस का तो पता ही नहीं था.

‘‘फिर मुझे मेरी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उस से पता चला कि उस की मां की तबीयत आजकल खराब चल रही है, इसलिए मैं उसे देखने चली गई थी. वह भिंडी बाजार में ही रहती है.’’

यह सुन कर सब खामोश हो गए. कुछ ही देर में शबनम ने आ कर अम्मी के कान में कहा, ‘‘अम्मीजान, खाना लग चुका है.’’

‘‘चलो, खाना लग चुका है,’’ अम्मी ने कहा.

बाद में अम्मी अपनी सहेली के बेटे अजीज को मेहमानों के कमरे में पहुंचा कर खुद भी आराम करने अपने कमरे में चली गईं. बाकी सब भी सोने के लिए जाने की तैयारी में थे कि ऐसे में असलम के मोबाइल फोन की घंटी बजी. सामने से पूछा गया… ‘अम्मी कहां…’

इस से पहले कि उस की बात पूरी होती, असलम ने कहा, ‘‘अम्मी यहां…’’ और इस से आगे वह खुशी के मारे कुछ भी नहीं कह पाया.

बुरी संगत : निवेदिता कैसे फंस गई थी जाल में

आज निवेदिता को यह बात समझ में आ गई कि दोस्ती हमेशा अच्छे लोगों से ही करनी चाहिए. आज अपने एक दोस्त के चलते वह मारीमारी फिर रही है. पुलिस उस के पीछे पड़ी है और कभी भी पकड़े जाने का डर है. एक बार पुलिस के हत्थे चढ़ जाने के बाद फिर कितनी परेशानी होगी, यह सोच कर उस का दिल बैठा जा रहा है.

जाधव की तसवीर उस ने आज अखबार में देखी. मोटेमोटे शब्दों में डाक्टर को ब्लैकमेल करने की खबर छपी थी.

जाधव ने डाक्टर बत्रा से एक करोड़ रुपए की रकम मांगी थी. रकम न देने पर उस ने डाक्टर के उस वीडियो को वायरल करने की धमकी दी थी, जिसमें उस की प्रेमिका के साथ उस के रोमांटिक पल गुप्त तरीके से फिल्माए गए थे. सब से बड़ी बात यह थी कि यह फिल्म खुद निवेदिता ने बनाई थी.

एक दिन डाक्टर बत्रा ने किसी बात पर निवेदिता को बुरी तरह डांटा था और उस की नजर में उसे बगैर किसी गलती के डांटा गया था. निवेदिता ने उस समय डाक्टर को कुछ नहीं कहा था, पर उसी समय उस ने फैसला कर लिया था कि वह डाक्टर को आगे से कभी ऐसा करने का मौका नहीं देगी.

निवेदिता को पता था कि डाक्टर बत्रा से मिलने एक औरत आती है. डाक्टर उस के साथ घंटों एकांत में बिताता है. उस के आने पर कई बार वह मरीजों को काफी देर तक इंतजार करवाता है.

नर्स होने के नाते निवेदिता का डाक्टर के केबिन तक प्रवेश था और कई बार उस ने डाक्टर को उस औरत के साथ ऐसी हालत में देखा था, जिस से जाहिर था कि उन दोनों के बीच कुछ है.

डाक्टर बत्रा की डांट से आहत निवेदिता ने उसे सबक सिखाने के लिए अपने मोबाइल फोन से डाक्टर बत्रा की उस औरत के साथ का वीडियो बना लिया था. चूंकि वह काफी दिनों से डाक्टर के क्लिनिक में काम करती थी, इसलिए उस के लिए यह काम मुश्किल न था. उस ने एक खिड़की से दोनों के प्यार के पलों का वीडियो बना लिया था.

डाक्टर बत्रा मस्ती के सागर में गोते लगा रहा था और उसे इस बात की भनक भी न लगी. निवेदिता ने सोच रखा था कि अगली बार अगर डाक्टर उसे कुछ कहेगा तो वह वीडियो क्लिप दिखला कर उसे धमकाएगी.

पर बाद में न कभी डाक्टर बत्रा ने ऐसा कुछ उस के साथ किया और न ही उसे डाक्टर को धमकी देने की जरूरत पड़ी. बात आईगई हो गई, बल्कि वह तो इस बात को भूल सी गई थी. लेकिन जिस क्लिप को उस ने डाक्टर को फंसाने के लिए बनाया था, उस में डाक्टर तो फंसा ही, वह खुद भी फंस गई.

हुआ यों कि निवेदिता का एक जानने वाला जाधव उस के पास अकसर आताजाता रहता था. वह घर पर ही आसपास के लोगों का हलकाफुलका इलाज किया करती थी. छोटोमोटी बीमारियों में जाधव उसी से दवा लिया करता था. धीरेधीरे दोनों की जानपहचान बढ़ गई थी.

जाधव के बारे में निवेदिता जानती थी कि वह गुंडा किस्म का आदमी है, चोरीचकारी भी करता है, पर उस से उस का रिश्ता ठीक ही था. उस के साथ उस का बरताव कभी ऐसा नहीं था, जिस से उसे एतराज होता. वह आता, इलाज करवाता और चला जाता. लेकिन थोड़ी नजदीकियां तो बढ़ ही गई थीं.

एक दिन निवेदिता किसी मरीज को देख रही थी, तभी जाधव आया था. उसे किसी के लिए दवा चाहिए थी.

निवेदिता दूसरे मरीज से बात कर रही थी, तभी जाधव उस के मोबाइल फोन से खेलने लगा. इसी बीच डाक्टर बत्रा की क्लिप पर उस की नजर पड़ गई और उस ने उस क्लिप को अपने मोबाइल फोन में ट्रांसफर कर लिया.

आज अखबार से निवेदिता को मालूम हुआ कि उस क्लिप को दिखला कर जाधव डाक्टर बत्रा से पहले भी एक बार 30 लाख रुपए और एक बार 70 लाख रुपए ले चुका था. डाक्टर ने अपनी इज्जत बचाने की खातिर भारीभरकम रकम उसे दे दी थी. इतनी बड़ी रकम पा कर जाधव का लालच बढ़ता चला गया और इस बार उस ने एक करोड़ रुपए की मांग की और डाक्टर ने इस बार पुलिस की शरण ली.

पुलिस ने टैलीफोन की बातचीत के आधार पर जाधव को पकड़ लिया था और जाधव ने अपने मोबाइल फोन में क्लिप पाने की बात बताई थी.

पुलिस निवेदिता की तलाश में थी. आज नौकरी देने वाले अपने ही डाक्टर को नुकसान पहुंचाने के इरादे और बुरी संगत के फेर में उसे मारामारा फिरना पड़ रहा है.

उड़ान : क्या कांता ने की गिरिराज से शादी

‘‘मैं ने कह दिया न कि मैं तुम्हारे उस गिरिराज से शादी नहीं करूंगी. सब कहते हैं कि वह दिखने में मुझ से छोटा लगता है. फिर वह करता भी क्या है… लोगों की गाड़ियों की साफसफाई ही न?’’ कांता ने दोटूक शब्दों में कह दिया.

‘‘उस से नहीं करेगी, तो क्या किसी नवाब से शादी करेगी? अरी, तू बिरादरी में हमारी नाक कटाने पर क्यों तुली है. तू सोचती है कि तेरे कहने से हम तय की हुई शादी तोड़ देंगे? इस भुलावे में मत रहना.

‘‘मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं शादियां सगाइयां वगैरह जोड़तीतोड़ती रहूं. अभी तो मेरे पास शादी के लिए दोदो लड़कियां और बैठी हैं,’’ पत्नी देवकी को बोलते देख कर पति मुरारी भी पास आ गया था.

कांता के छोटे भाईबहन, जो बाप की रेहड़ी के पास खड़े हो कर सुबहसुबह कुछ पैसा कमाने के जुगाड़ में प्रैस कर रहे थे, भी वहां आ गए थे.

मुरारी ने बेटी कांता को सुनाते हुए अपनी पत्नी देवकी से कहा, ‘‘कह दे अपनी छोरी से, इतना हल्ला न मचाए. ब्यूटीपार्लर में काम क्या करने लगी है, अपनेआप को हेमामालिनी समझने लगी है. ज्यादा बोलेगी, तो घर से बाहर कर दूंगा. ज्यादा चबरचबर करना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’’

मां के सामने तो कांता शायद थोड़ी देर बाद चुप भी हो जाती, पर उन दोनों की तकरार में बाप के आते ही वह गुस्से में आ गई और बोली, ‘‘अच्छा बापू, यह तुम कह रहे हो. शाम को शराब पी कर जो तमाशा तुम करते हो, वह याद नहीं है तुम्हें?

‘‘अभी कल शाम को ही तो तुम ने मुझ से शराब के लिए 20 रुपए लिए थे. तुम्हें तो अपनी शराब से ही फुरसत नहीं है. मैं अपना कमाती हूं. मुझे तो यहां पर रहते हुए भी शर्म आती है. कुछ ज्यादा पैसा मिलने लगे, तो मैं खुद ही यहां से कहीं दूर चली जाऊंगी.’’

जब से कांता ब्यूटीपार्लर में नौकरी करने जाने लगी थी, तब से उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

वैसे, गलीगली में खुल गए ब्यूटीपार्लर इन्हीं झुग्गीझोंपड़ियों की लड़कियों के बल पर ही चल रहे हैं. इन से जितना मरजी काम ले लो. ये खुश भी रहती हैं और ग्राहक की जीहुजूरी भी खूब कर लेती हैं.

कांता ब्यूटीपार्लर में पिछले 6 महीने से काम कर रही है. शुरूशुरू में वहां की मालकिन अलका मैडम ने उस से बस मसाज वगैरह का काम ही कराया था, पर अब तो वह भौंहों की कटाईछंटाई और बाल भी काट लेती है.

कांता बातूनी है और टैलीविजन पर आने वाले गानों के साथ सारासारा दिन गुनगुनाती रहती है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से छुट्टी वाले दिन भी वह छुट्टी नहीं करती है. जिस दिन दूसरी लड़कियां नहीं आतीं, उस दिन भी अकेली कांता के दम पर ब्यूटीपार्लर खुला रहता है.

अलका मैडम कांता से बहुत खुश हैं और वह उन की इतनी भरोसेमंद हो गई है कि वे अपना कैश बौक्स भी उसे सौंप जाती हैं.

पर आज सुबह से ही कांता का मूड खराब था. चहकने से सुबह की शुरुआत करने वाली कांता आज गुमसुम थी. ब्यूटीपार्लर पहुंच कर न तो उस ने अपने नए तरीके से बाल बनाए थे, न ही अलका मैडम से कहा था, ‘मैडम, जब तक कोई ग्राहक नहीं आता, तब तक मैं आप के बालों में मेहंदी लगा दूं या फेसियल कर दूं…’

कांता की चुप्पी को तोड़ने के लिए अलका मैडम ने ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ कांता?’’

1-2 बार पूछने पर कांता ने सारी रामकहानी अलका मैडम को सुना दी और लगी रोने. रोतेरोते उस ने कहा, ‘‘मैडम, आप मुझे अपने घर में क्यों नहीं रख लेतीं? बदले में मुझ से अपने घर का कुछ भी काम करा लेना. घर वालों को कुछ तो मजा चखा दूं. मैं अपने साथ जोरजबरदस्ती बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

‘‘ठीक है, पर मुझे सोचने के लिए थोड़ा सा समय तो दे. और सुन, यह मत भूलना कि मांबाप बच्चों का बुरा नहीं चाहते हैं. उन के नजरिए को भी समझने की कोशिश कर. दूसरों के कहने पर क्यों जाती है. क्या तू ने अपना मंगेतर देखा है?’’ अलका मैडम ने पूछा.

‘‘हां देखा था, अपनी सगाई वाले दिन. लेकिन मुझे उस का चेहरा जरा भी याद नहीं है.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि साफसफाई करने वाली शीला ने कहा, ‘‘बाहर कोई लड़का कांता को पूछ रहा है.

‘‘लड़का…’’ कांता चौंकी, ‘‘कहीं गिरिराज तो नहीं?’’

‘‘मैं किसी गिरिराज को नहीं पहचानती,’’ शीला ने जवाब दिया.

‘‘जो भी है, उस से कह दो कि यह औरतों का ब्यूटीपार्लर है, मैं लड़कों के बाल नहीं काटती,’’ कांता बोली.

‘‘अरे, इतनी देर में उस से मिल क्यों नहीं लेती?’’ अलका मैडम ने कहा.

कांता बाहर आई, तो उस ने देखा कि सीढि़यों पर एक खूबसूरत सा नौजवान चश्मा लगाए, जींसजैकेट पहने खड़ा था.

‘कौन है यह? शायद किसी ग्राहक के लिए मुझे लेने या समय तय करने के लिए आया हो,’ कांता ने सोचा और बोली, ‘‘आप को जोकुछ पूछना है, अंदर आ कर मैडम से पूछ लो.’’

‘‘मैं तो आप ही के पास आया हूं,’’ वह नौजवान मुसकराते हुए बोला, ‘‘कहीं बैठाओगी नहीं?’’

‘‘मैं तुम… आप को पहचानती नहीं,’’ कांता ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘मैं गिरिराज हूं.’’

‘‘हाय…’’ कांता झेंपी, ‘‘तुम… मेरा मतलब आप यहां?’’ थोड़ी देर तक तो उस से कुछ बोला नहीं गया. पहले वह जमीन की तरफ देखती रही, फिर आंख उठा कर उस ने उस नौजवान की तरफ देखा, तो वह भी एकटक उस की ही तरफ देख रहा था.

कांता फिर झेंप गई. बातूनी होने पर भी उस से बोल नहीं फूट रहे थे, तभी बाहर का हालचाल जानने के लिए अलका मैडम भी बाहर निकलीं.

कांता की पीठ अलका मैडम की तरफ थी और वह उन के रास्ते में खड़ी थी. रास्ता रुका देख कर गिरिराज ने कांता की बांह पकड़ कर एक तरफ खींचते हुए कहा, ‘‘देखो, ये मैडम जाना चाहती हैं. तुम एक तरफ हट जाओ.’’

गिरिराज के हाथ की छुअन के रोमांच पर कांता मन ही मन खुश होते हुए भी ऊपर से गुस्सा कर बोली, ‘‘तुम मुझे हाथ लगाने वाले कौन होते हो?’’

इसी बीच अलका मैडम वापस अंदर चली गईं.

‘‘अरे, अभी तक नहीं पहचाना? मैं गिरिराज हूं, तुम्हारा गिरिराज. मां और बाबूजी कल तुम्हारे यहां शादी की तारीख तय करने के लिए गए थे.

‘‘मैं ने उन से कह दिया था कि मुझ से बिना पूछे कोई तारीख पक्की मत कर आना. सोचा था कि तुम से मिल कर ही तारीख तय करूंगा.

‘‘इसी बहाने एकदो बार मिल तो लेंगे. चलो, छुट्टी ले लो. चाहे तो शाहरुख खान की नई फिल्म देख लेंगे या फिर किसी रैस्टोरैंट में पिज्जा खिला लाऊं?’’ गिरिराज ने अपनी बात रखी.

कांता के मन में लड्डू फूट रहे थे. अच्छा हुआ कि वह सुबह गुस्से में अलका मैडम के घर रहने नहीं पहुंच गई.

‘‘मैं घर पर तो बता कर के नहीं आई हूं,’’ कांता ने नरम होते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ? चोरीछिपे मिलने  का मजा ही कुछ और है. और फिर मेरे साथ चलने में तुम्हें कैसी हिचक? देखती नहीं, सब फिल्मों में हीरोहीरोइन मांबाप को बिना बताए ही घूमते हैं, गाते हैं, नाचते हैं,’’ गिरिराज बोला.

कांता ने इतरा कर बालों को पीछे फेंका और तिरछी नजर से उसे देखते हुए बोली, ‘‘मैं जरा बालों को ठीक कर आऊं, तब तक तुम अलका मैडम से जाने की इजाजत ले लो,’’ फिर जातेजाते वह रुकते हुए बोली, ‘‘तुम… आप कुछ ठंडागरम लेंगे?’’

‘‘वैसे तो जब से आया हूं, तुम्हारे रूप को पी ही रहा हूं, फिर भी तुम जो पिला दोगी, पी लूंगा. पीने के लिए ही तो आया हूं.’’

कांता के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. नशे की सी हालत में वह लड़खड़ा कर गिरने ही वाली थी कि गिरिराज ने उसे लपक कर अपनी बांहों में समेट लिया.

उधर ब्यूटीपार्लर के टैलीविजन पर एक प्यार भरा गीत आ रहा था, ‘मुझ को अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही…’ और इधर गिरिराज कांता को संभालते हुए मानो गा रहा था, ‘आ, गले लग जा…’

जैसे ही वे दोनों अंदर पहुंचे, सबकुछ समझते हुए अलका मैडम ने उन के बोलने से पहले ही कहा, ‘‘हांहां जाओ, मौज करो. पर मुझे अपनी शादी में बुलाना मत भूलना.’’

‘‘मैडम, क्यों इतनी जल्दी आप हमें शादी की चक्की में पीस देना चाहती हैं. हमें कुछ दिन और मौजमजा कर लेने दीजिए, तब तक छुट्टी मनाने के लिए आप की इजाजत की जरूरत पड़ती रहेगी,’’ गिरिराज ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘शुक्रिया मैडम.’’

कांता देख रही थी कि वह जिसे छोटा सा समझ रही थी, वह तो पुराना अमिताभ बच्चन निकला. क्या बढि़या अंदाज में मैडम से बात कर रहा था.

कांता सोच रही थी, ‘मां जो तारीख कहेंगी, उसी तारीख के लिए मैं हामी भर दूंगी. तब तक मेरा हीरो इधर आता ही रहेगा.’

गिरिराज कांता को देख रहा था और कांता गिरिराज को. हालांकि उन्होंने बाहर जाने के लिए सीढ़ियों से पैर नीचे रखे थे, मगर उन्हें लग रहा था कि वे दोनों उड़ रहे हैं.

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