Romantic Story in Hindi- रिश्तों की परख: भाग 3

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हमेशा ठंडे दिमाग से काम लेने वाली मम्मी क्रोधित हो गई थीं, ‘नहीं करना किसी के फोनवोन का इंतजार, दूसरा लड़का देखना शुरू कर दीजिए.’

‘पागल न बनो,’ पापा ने समझाया था, ‘अपनी बेटी को यह सपना तुम ने ही दिखाया था, पल भर में उसे कैसे तोड़ दोगी? कभी सोचा है उस के दिल को कितनी ठेस लगेगी?’

एक दिन मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, कमल शादी के लिए तैयार नहीं है. कहता है कि यदि उस की जबरन शादी की गई तो वह आत्महत्या कर लेगा, अब तू ही बता, हम लोग क्या करें?’

मैं इतना ही पूछ पाई थी, ‘वह इस समय कहां है?’

‘कहां होगा…वहीं…इलाहाबाद में मर रहा है,’ मम्मी ने गुस्से से कहा था.

‘मैं उस से एक बार मिलूंगी…एक बार मां…बस, एक बार,’ मैं ने रोते हुए कहा था.

पापा मुझे ले कर इलाहाबाद गए थे. वह अपने कमरे में ही मिला था. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई, कपड़े अस्तव्यस्त, हालत पागलों की तरह लग रही थी. पापा मुझे छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. औपचारिक बातचीत होने के बाद वह मुझ से बोला था, ‘तुम लड़कियों को क्या चाहिए, बस, एक अच्छा सा पति, एक सुंदर सा घर, बालबच्चे और घरखर्च के लिए हर महीने कुछ पैसे. लेकिन मेरे सपने दूसरे हैं. अभी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता. तुम जहां मन करे शादी कर लो.’

कमल की बातें सुन कर मुझे भी क्रोध आ गया था, ‘तुम मुझे अपने पास न रखो, लेकिन शादी तो कर सकते हो, मेरे मांबाप भी चिंतामुक्त हों, कब तक वह लोग तुम्हारे आई.ए.एस. बन जाने का इंतजार करते रहेंगे?’

मेरी बात सुनते ही वह गुस्से से चीख पड़ा, ‘इंतजार नहीं कर सकती हो तो मर जाओ लेकिन मेरा पीछा छोड़ो…प्लीज…’

उस की बात सुन मैं सन्न रह गई थी. एक ही पल में 10 सालों से संजोया हुआ स्वप्न बिखर गया था. सोच रही थी, क्या यह वही कमल है? मन से निकली हूक तब शब्दों में इस तरह फूटी थी कि मरूंगी तो नहीं लेकिन एक बात कहती हूं, जब किसी बेबस की ‘आह’ लगती है तो मौत भी नसीब नहीं होती मिस्टर कमलकांत वर्मा, और इसे याद रखना.

घर आ कर मैं मम्मी से बोली थी, ‘आप लोग जहां भी मेरी शादी करना चाहें कर सकते हैं, लेकिन जिस से भी कीजिएगा उसे मेरी पिछली जिंदगी के बारे में पता होना चाहिए.’

1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव के साथ हो गई. एक जमाने में उन के पापा वहीं के जानेमाने वकील थे. हम लोग दिल्ली में ही रहने लगे. गौरव जैसा चाहने वाला पति पा कर मैं कमल को भूल सी गई. साल भर में एक बार ही मायके जाना हो पाता था. इस बार तो अकेली ही जा रही थी. गौरव को कोर्ट का कुछ आवश्यक काम निकल आया था.

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मैं ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी कि अचानक कर्णभेदी धमाका हुआ और आंखों के सामने अंधेरा सा छाता चला गया. जब होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. गौरव भी आ चुके थे. एक ही ट्रैक पर 2 ट्रेनें आ गई थीं. आमनेसामने की टक्कर थी. कई लोग मारे गए थे. सैकड़ों लोग घायल हुए थे. मैं जिस बोगी में थी वह पीछे थी इसलिए कोई खास क्षति नहीं हुई थी फिर भी बेटे की हालत गंभीर थी. उसे 5-6 घंटे बाद होश आया था. 2 दिन बाद जब मैं डिस्चार्ज हो कर जा रही थी तो नर्स ने मुझे एक खत ला कर यह कहते हुए दिया कि मैडम, यह आप के लिए है…देना भूल गई थी…माफ कीजिएगा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा था, ‘‘किस ने दिया?’’

‘‘वही, जो आप लोगों को यहां तक ले कर आया था. क्या आप नहीं जानतीं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कमाल है,’’ नर्स आश्चर्य से बोल रही थी, ‘‘उस ने आप की मदद की, आप के बेटे को अपना खून भी डोनेट किया और आप कहती हैं कि आप उस को नहीं जानतीं?’’

मैं आतुरता से खत को पढ़ने लगी :

‘स्नेह,

सोचा था कि अपने किए की माफी मांग लूंगा लेकिन मृत्यु के इस तांडव ने मौका ही नहीं दिया. रिजर्वेशन टिकट पर ही गौरव का मोबाइल नंबर था. उन्हें फोन कर दिया है. वह जब तक नहीं आते मैं यहां रहूंगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. तुम्हारा गुनाहगार कमल.’

पत्र को गौरव ने भी पढ़ा था. ‘‘अच्छा तो वह कमल था…’’

गौरव खोएखोए से बोले थे, ‘‘सचमुच उस ने बड़ी मदद की, हमारे बेटे को एक नया जीवन दिया है.’’

बात आईगई हो गई. पीछे गौरव को एक केस में काफी व्यस्त पाया था. पूछने पर बस यही कहते, ‘‘समझ लो स्नेह, एक महत्त्वपूर्ण केस है. यदि जीत गया तो बड़ा आत्मिक सुख मिलेगा.’’

1 वर्ष तक केस चलता रहा, फैसला हुआ, गौरव के पक्ष में ही. वह उस दिन खुशी से पागल हो रहे थे. शाम को आते ही बोले, ‘‘यार, जल्दी से अच्छी- अच्छी चीजें बना लो, मेरा एक दोस्त आ रहा है, आई.ए.एस. है.’’

‘‘कौन दोस्त?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘जब आएगा तो खुद ही उसे देख लेना, मैं उसी को लेने जा रहा हूं.’’

कुछ देर बाद गौरव वापस आए थे और अपने साथ जिसे ले कर आए थे उसे देख कर मैं अवाक् रह गई. यह तो ‘कमल’ है लेकिन यह कैसे हो सकता है?

‘‘स्नेह,’’ गौरव ने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हें आहत कर के इस ने भी कोई सुख नहीं पाया है. हमारी शादी के 1 साल बाद इस का आई.ए.एस. में चयन हुआ था. लेकिन तब तक लगातार मिलती असफलताओं ने इसे विक्षिप्त कर दिया था. यह पागलों की तरह हरकतें करने लगा था. इस कारण आयोग ने इस की नियुक्ति को भी निरस्त कर दिया था.

‘‘3 साल तक मेंटल हास्पिटल में रहने के बाद जब यह ठीक हुआ तो सब से पहले तुम्हारे ही घर गया, तुम से माफी मांगने के लिए. लेकिन पापाजी ने इसे हमारा पता ही नहीं दिया था और फिर जीवन से निराश, जीवनयापन के लिए इस ने टी.सी. की नौकरी कर ली. आज मैं इसी का केस जीता हूं, अदालत ने इस की पुन: नियुक्ति का फैसला दिया है. आज यह फिर तुम से माफी मांगने ही आया है.’’

वर्षों बाद मुझे वही कमल दिखा था, जिस से मैं पहली बार मिली थी, शर्मीला और संकोची. उस ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए थे. मुझ से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. उस की आंखों से प्रायश्चित्त के आंसू बह निकले, ‘‘स्नेह, मैं तुम्हारा अपराधी हूं, एक लक्ष्य पाने के लिए जीवन के ही लक्ष्य को भूल गया था…आप के कहे शब्द…आज भी मेरे हृदय में कांटे की तरह चुभते हैं…लगता है आज भी एक आह मेरा पीछा कर रही है…हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कमल,’’ मैं ने भरे गले से कहा, ‘‘मैं ने तो तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था जिस दिन तुम ने मेरी ममता की रक्षा की थी. अब तुम से कोई शिकायत नहीं…तुम जहां भी रहो खुश रहो, यह मेरे मन की आवाज है.’’

‘‘हां, कमल,’’ गौरव भी उसे समझाते हुए बोले थे, ‘‘कल तुम ने एक रिश्ते को परखने में भूल की थी, आज फिर से वही भूल मत करना, मातापिता को खुश रखना, अपना घरसंसार बसाना और अपनी शादी में हमें भी बुलाना…भूल तो न जाओगे?’’

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वह गौरव के गले लग रो पड़ा. निर्मल जल के उस शीतल प्रवाह ने हमारे हृदय के सारे मैल को एक ही पल में धो दिया.

‘‘7 वर्षों तक दिशाहीन और पागलों सा जीवन व्यतीत किया है मैं ने, मर ही चुका था, आप ने तो मुझे नया जीवन ही दिया…कैसे भूल जाऊंगा.’’

कमल के जाने के बाद मैं गौरव के सीने से लगते हुए बोली थी, ‘‘गौरव, सचमुच मुझे आप पर गर्व है…लेकिन यह क्या, आप की आंखों में भी आंसू.’’

‘‘हां…खुशी के हैं, जानती हो सच्चा प्रायश्चित्त वही होता है जब आंसू उस की आंखों से भी निकलें जिन के लिए प्रायश्चित्त किया गया हो, आज कमल का प्रायश्चित्त पूरा हुआ.’’

पति की बात सुन कर स्नेह भी अपनेआप को रोने से न रोक सकी.

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रिश्तों की परख: भाग 2

लेखका- शैलेंद्र सिंह परिहार

वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानीजी के पास आ गई. रिजल्ट आया तो मैं फर्स्ट डिवीजन में पास हुई थी. गणित में अच्छे नंबर मिले थे. मैं अपने रिजल्ट से संतुष्ट थी. कुछ दिनों बाद कमल का भी रिजल्ट आया था. उसे मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान मिला था. उसे बधाई देने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. मैं जल्द ही नानी के घर से वापस लौट आई थी. कमल से मिली लेकिन उसे प्रसन्न नहीं देखा. वह दुखी मन से बोला था, ‘नहीं स्नेह, मैं पीछे नहीं रहना चाहता हूं, मुझे पहली पोजीशन चाहिए थी.’

वह कालिज पहुंचा और मैं 11वीं में. मैं ने अपनी सुविधानुसार कामर्स विषय लिया और उस ने आर्ट. अब उसे आई.ए.एस. बनने की धुन सवार थी.

‘आप को इस तरह विषय नहीं बदलना चाहिए था,’  मौका मिलते ही एक दिन मैं ने उसे समझाना चाहा.

‘मैं आई.ए.एस. बनना चाहता हूं और गणित उस के लिए ठीक विषय नहीं है. पिछले सालों के रिजल्ट देख लो, साइंस की तुलना में आर्ट वालों का चयन प्रतिशत ज्यादा है.’

मैं उस का तर्क सुन कर खामोश हो गई थी. मेरी बला से, कुछ भी पढ़ो, मुझे क्या करना है लेकिन मैं ने जल्द ही पाया कि मैं उस की तरफ खिंचती जा रही हूं. धीरेधीरे वह मेरे सपनों में भी आने लगा था, मेरे वजूद का एक हिस्सा सा बनता जा रहा था. अकेले में मिलने, उस से बातें करने को दिल चाहता था. समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उस से प्यार होता जा रहा है या फिर यह उम्र की मांग है.

वह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था और एक शाम तो मेरे सपनों को एक आधार भी मिल गया था. आंटीजी बातों ही बातों में मेरी मम्मी से बोली थीं, ‘मन में एक बात आई थी, आप बुरा न मानें तो कहूं?’

‘कहिए न,’ मम्मी ने उन्हें हरी झंडी दे दी.

‘आप अपनी बेटी मुझे दे दीजिए, सच कहती हूं मैं उसे अपनी बहू नहीं बेटी बना कर रखूंगी,’ यह सुन मम्मी खामोश हो गई थीं. इतना बड़ा फैसला पापा से पूछे बगैर वह कैसे कर लेतीं. उन्हें खामोश देख कर और आगे बोली थीं, ‘नहीं, जल्दी नहीं है, आप सोचसमझ लीजिए, भाई साहब से भी पूछ लीजिएगा, मैं तो कमल के पापा से पूछ कर ही आप से बात कर रही हूं. कमल से भी बात कर ली है, उसे भी स्नेह पसंद है.’

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उस रात मम्मीपापा में इसी बात को ले कर फिर तकरार हुई थी.

‘क्या कमी है कमल में,’ मम्मी पापा को समझाने में लगी हुई थीं, ‘पढ़नेलिखने में होशियार है, कल को आई.ए.एस. बन गया तो अपनी बेटी राज करेगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं हो,’ पापा ने खीजते हुए कहा था, ‘अभी वह पढ़ रहा है, अभी से बात करना उचित नहीं है. वह आई.ए.एस. बन तो नहीं गया न, मान लो कल को बन भी गया और उसे हमारी स्नेह नापसंद हो गई तो?’

‘आप तो बस हर बात में मीनमेख निकालने लगते हैं, कल को उस की शादी तो करनी ही पड़ेगी, दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर सेटल करना होगा, कहां से लाएंगे इतना पैसा? आज जब बेटी का सौभाग्य खुद चल कर उस के पास आया है तो दिखाई नहीं पड़ रहा है.’

पापा हमेशा की तरह मम्मी से हार गए थे और उन का हारना मुझे अच्छा भी लग रहा था. वह बस, इतना ही बोले थे, ‘लेकिन स्नेह से भी तो पूछ लो.’

‘मैं उस की मां हूं. उस की नजर पहचानती हूं, फिर भी आप कहते हैं तो कल पूछ लूंगी.’

दूसरे दिन जब मम्मी ने पूछा तो मैं शर्म से लाल हो गई थी, चाह कर भी हां नहीं कह पा रही थी. मैं ने शरमा कर अपना चेहरा झुका लिया था. वह मेरी मौन स्वीकृति थी. फिर क्या था, मैं एक सपनों की दुनिया में जीने लगी थी. जब भी वह हमारे घर आता तो छोटे भाई मुझे चिढ़ाते, ‘दीदी, तुम्हारा दूल्हा आया है.’

देखते ही देखते 2 साल का समय गुजर गया, मैं ने भी हायर सेकंडरी पास कर उसी कालिज में दाखिला ले लिया था जिस में कमल पढ़ता था. 1 साल तक एक ही कालिज में पढ़ने के बावजूद हम कभी अकेले कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. बस, घर से कालिज और कालिज से सीधे घर. ऐसा नहीं था कि मैं उसे मना कर देती, लेकिन उस ने कभी प्रपोज ही नहीं किया. और मुझे लड़की का एक स्वाभाविक संकोच रोकता था.

ग्रेजुएशन पूरी होने के बाद उसे कंपीटीशन की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना था. सुनते ही मैं सकते में आ गई. उसे रोक भी नहीं सकती थी और जाते हुए भी नहीं देख सकती थी. जिस शाम उसे जाना था उसी दोपहर को मैं उस के घर पहुंची थी. वह जाने की तैयारी कर रहा था. आंटीजी रसोई में थीं. मैं ने पूछा था, ‘मुझे भूल तो न जाओगे?’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया था, जैसे मेरी बात सुनी ही न हो. उस की इस बेरुखी से मेरी आंखें भर आई थीं. उस ने देखा और फिर बोला था, ‘यदि कुछ बन गया तो नहीं भूलूंगा और यदि नहीं बन पाया तो शायद…भूल भी जाऊंगा,’ सुनते ही मैं वहां से भाग आई थी.

लगभग 4 माह बाद वह इलाहाबाद से वापस आया था. बड़ा परिवर्तन देखा. हेयर स्टाइल, बात करने का ढंग, सबकुछ बदल गया था. एक दिन कमल ने कहा था, ‘मेरे साथ फिल्म देखने चलोगी?’

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‘क्या,’ मुझे आश्चर्य हुआ था. मन में एक तरंग सी दौड़ गई थी.

‘लेकिन बिना पापा से पूछे…’

‘ओह यार, पापा से क्या पूछना… आफ्टर आल यू आर माई वाइफ…अच्छा ठीक है, मैं पूछ भी लूंगा.’

कमल ने पापा से क्या कहा मुझे नहीं मालूम पर पापा मान गए थे. वह शाम मेरी जिंदगी की एक यादगार शाम थी. 3 से 6 पिक्चर देखी. ठंड में भी हम दोनों ने आइसक्रीम खाई. लौटते समय मैं ने उस से कहा था, ‘तुम्हें इलाहाबाद पहले ही जाना चाहिए था.’

समय गुजरता गया. मैं भी ग्रेजुएट हो गई. सुनने में आया कि कमल का चयन मध्य प्रदेश पी.सी.एस. में नायब तहसीलदार की पोस्ट के लिए हो गया था, लेकिन उस ने नियुक्ति नहीं ली. उस का तो बस एक ही सपना था आई.ए.एस. बनना है. 2 बार उस ने मुख्य परीक्षा पास भी की लेकिन इंटरव्यू में बाहर हो गया.

मेरे पापा का ग्वालियर तबादला हो गया. एक बार फिर हम लोगों को अपना पुराना शहर छोड़ना पड़ा. अंकल और आंटी दोनों ही स्टेशन तक छोड़ने आए थे.

मेरी पोस्ट गे्रजुएशन भी हो चुकी थी, अब तो पापा को सब से अधिक चिंता मेरी शादी की थी. जब भी यू.पी.एस.सी. का रिजल्ट आता वह पेपर ले कर घंटों देखा करते थे. मम्मी उन्हें समझातीं, ‘जहां इतने दिनों तक सब्र किया वहां एकाध साल और कर लीजिए.’

पापा गुस्से में बोले थे, ‘ये सब तुम्हारी ही करनी का फल है. बड़ी दूरदर्शी बनती थीं न…अब भुगतो.’

‘आप वर्माजी से बात तो कीजिए, कोई अपनी जबान से थोड़े ही फिर जाएगा, शादी कर लें, लड़का अपनी तैयारी करता रहेगा.’

‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो,’ पापा गुस्से से चीखे थे, ‘उस सनकी को अपनी बेटी ब्याह दूं, अच्छीखासी पोस्ट पर सलेक्ट हुआ था, लेकिन नियुक्ति नहीं ली. यदि कल को कुछ नहीं बन पाया तो?’

‘ऐसा नहीं है. वह योग्य है, कुछ न कुछ कर ही लेगा. आप की बेटी भूखी नहीं मरेगी.’

पापा दूसरे दिन आफिस से छुट्टी ले कर जबलपुर चले गए. मैं धड़कते हृदय से उन की प्रतीक्षा कर रही थी. 2 दिन बाद लौट कर आए तो मुंह उतरा हुआ था. आते ही आफिस चले गए. पूरे दिन मां और मैं ने प्रतीक्षा की. पापा शाम को आए तो चुपचाप खाना खा कर अपने बेडरूम में चले गए. उन के पीछेपीछे मम्मी भी. मैं उन की बात सुनने के लिए बेडरूम के दरवाजे के ही पास रुक गई थी.

‘क्या हुआ? क्या उन्होंने मना कर दिया?’

‘नहीं…’  पापा कुछ थकेथके से बोले थे, ‘वर्माजी तो आज भी तैयार हैं, लेकिन लड़का नहीं मान रहा है, कहता है आई.ए.एस. बनने के बाद ही शादी करूंगा. हां, वर्माजी ने थोड़े दिनों की और मोहलत मांगी है, लड़के को समझा कर फोन करेंगे.

प्रेम ऋण- भाग 1: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

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अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

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मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

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रुह का स्पंदन: भाग 1

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

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सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

प्रेम ऋण- भाग 2: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

अगले दिन परीक्षा के बाद पारुल तानिया के साथ लौट रही थी तो अंशुल को अशीम के साथ उस की बाइक पर आते देख हैरान रह गई.

‘‘अशीम के पीछे अंशुल ही बैठी थी न,’’ तानिया ने पूछ लिया.

‘‘हां, शायद…’’

‘‘शायद क्या, शतप्रतिशत वही थी. जीवन का आनंद उठाना तो कोई तुम्हारी बहन अंशुल से सीखे. एक से विवाह कर रही है तो दूसरे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है. क्या किस्मत है भौंरे उस के चारों ओर मंडराते ही रहते हैं,’’ तानिया हंसी थी.

‘‘तानिया, वह मेरी बहन है. उस के बारे में यह अनर्गल प्रलाप मैं सह नहीं सकती.’’

‘‘तो फिर समझाती क्यों नहीं अपनी बहन को? कहीं लड़के वालों को भनक लग गई तो पता नहीं क्या कर बैठें,’’ तानिया सपाट स्वर में बोल पारुल को उस के घर पर छोड़ कर फुर्र हो गई थी.

पारुल घर में घुसी तो विचारमग्न थी. तानिया उस की घनिष्ठ मित्र है अत: अंशुल के बारे में अपनी बात उस के मुंह पर कहने का साहस जुटा सकी. पर उस के जैसे न जाने कितने यही बातें पीठ पीछे करते होंगे. चिंता की रेखाएं उस के माथे पर उभर आईं.

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सुजाता बैठक में श्रीमती प्रसाद के साथ बातचीत में व्यस्त थीं.

‘‘कैसा हुआ पेपर?’’ उन्होंने पारुल को देखते ही पूछा.

‘‘ठीक ही हुआ, मां,’’ पारुल अनमने स्वर में बोली.

‘‘ठीक मतलब? अच्छा नहीं हुआ क्या?’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, मां. आप तो व्यर्थ ही चिंता करने लगती हैं.’’

‘‘यह मेरी छोटी बेटी है पारुल. इसे भी याद रखिएगा. अंशुल के बाद इस का भी विवाह करना है,’’ सुजाता ने श्रीमती प्रसाद से कहा.

‘‘मैं जानती हूं,’’ श्रीमती प्रसाद मुसकराई थीं.

‘‘पारुल, 2 कप चाय तो बना ला बेटी,’’ सुजाताजी ने आदेश दिया था.

‘‘हां, यह ठीक है. एक बात बताऊं सुजाता?’’ श्रीमती प्रसाद रहस्यमय अंदाज में बोली थीं.

‘‘हां, बताइए न.’’

‘‘मैं तो लड़की के हाथ की चाय पी कर ही उस के गुणों को परख लेती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, यदि कोई लड़की चाय भी ठीक से न बना सके तो और कोई कार्य ठीक से करने की क्षमता उस में क्या ही होगी,’’ सुजाताजी ने उन की हां में हां मिलाई थी.

‘ओफ, जाने कहां से चले आते हैं यह बिचौलिए. स्वयं को बड़ा गुणों का पारखी समझते हैं,’ पारुल चाय देने के बाद अपने कक्ष में जा कर बड़बड़ा रही थी.

‘‘माना कि लड़के वालों की कोई मांग नहीं है पर आप को तो उन के स्तर के अनुरूप ही विवाह करना पड़ेगा. अंशुल के भविष्य का प्रश्न है यह तो,’’ उधर श्रीमती प्रसाद सुजाताजी से कह रही थीं.

‘‘कैसी बातें करती हैं आप? हम क्या अपनी तरफ से कोई कोरकसर छोड़ेंगे? आप ने हर वस्तु और व्यक्ति के बारे में सूचना दे ही दी है. सारा कार्य आप की इच्छानुसार ही होगा,’’ सुजाताजी ने आश्वासन दिया.

श्रीमती प्रसाद कुछ देर में चली गई थीं. केवल सुजाताजी अकेली बैठी रह गईं.

‘‘इस विवाह का खर्च तो बढ़ता ही जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि इतना पैसा कहां से आएगा,’’ वह मानो स्वयं से ही बात कर रही थीं. तभी उन के पति वीरेन बाबू कार्यालय से लौटे थे.

‘‘घर में बेटी की शादी है पर आप को तो कोई फर्क नहीं पड़ता. आप की दिनचर्या तो ज्यों की त्यों है. सारा भार तो मेरे कंधों पर है,’’ सुजाताजी ने थोड़ा नाराजगी भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या कहूं, तुम्हें तो मेरे सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. मेरा किया कार्य तुम्हें पसंद भी तो नहीं आता,’’ वीरेन बाबू बोले थे.

‘‘आप को कार्य करने को कौन कह रहा है. पर कभी साथ बैठ कर विचारविमर्श तो किया कीजिए. हर चीज कितनी महंगी है आजकल. सबकुछ श्रीमती प्रसाद की इच्छानुसार हो रहा है. पर हम कर तो अपनी बेटी के लिए ही रहे हैं न. अब तक 15 लाख से ऊपर खर्च हो चुका है और विवाह संपन्न होने तक इतना ही और लग जाएगा.’’

‘‘पर इतना पैसा आएगा कहां से,’’ वीरेन बाबू चौंक कर बोले, ‘‘जब वर पक्ष की कोई मांग नहीं है तो जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाओ,’’ वीरेन बाबू ने सुझाव दिया था.

‘‘मांग हो या न हो, हमें तो उन के स्तर का विवाह करना है कि नहीं. मैं साफ कहे देती हूं, मेरी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से होगा,’’ सुजाताजी ने घोषणा की थी और वीरेन बाबू चुप रह गए थे. वह नहीं चाहते थे कि बात आगे बढ़े और घर में कोहराम मच जाए. वह शायद कुछ और कहते कि तभी धमाकेदार ढंग से अंशुल ने घर में प्रवेश किया.

‘‘कहां थीं अब तक? मैं ने कहा था न शौपिंग के लिए जाना था. श्रीमती प्रसाद आई थीं. तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं.’’

‘‘आज मैं बहुत व्यस्त थी, मां. पुस्तकालय में काफी समय निकल गया. उस के बाद मंजुला के जन्मदिन की पार्टी थी. मैं तो वहां से भी जल्दी ही निकल आई,’’ सुजाताजी के प्रश्न का ऊटपटांग सा उत्तर दे कर अंशुल अपने कमरे में आई थी.

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‘‘आइए भगिनीश्री, कौन से पुस्तकालय में थीं आप अब तक?’’ पारुल उसे देखते ही मुसकाई थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो तुम? इस तरह व्यंग्य करने का मतलब क्या है?’’

‘‘मैं व्यंग्य छोड़ कर सीधे मतलब की बात पर आती हूं. आज पूरे दिन अशीम के साथ नहीं थीं आप?’’

‘‘तो? अशीम मेरा मित्र है. उस के साथ एक दिन बिता लिया तो क्या हो गया?’’

उलटी गंगा- भाग 1: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

‘‘देशमें लाखों युवा बेरोजगार घूम रहे हैं. किसान आत्महत्या कर रहे हैं, देश बदहाली की ओर जा रहा है और यहां लोग फालतू की बातों में समय बरबाद कर रहे हैं. अरे, मैं पूछता हूं और कोई काम नहीं बचा है क्या इन औरतों के पास, जो मीटू मीटू का नारा लगाए जा रही हैं.

मैं पूछता हूं कि जिस समय इन का शोषण हुआ, तब क्यों नहीं आवाज उठाई, जो अब चिल्ला रही हैं? झूठा प्रचार कर रही हैं, षड्यंत्र रच रहीं पुरुषों के खिलाफ और कुछ नहीं या फिर हो सकता है फेम में रहने के लिए ये मीटू अभियान से जुड़ गई हों. बंद करो टीवी, कुछ नहीं रखा है इन सब में,’’  झल्लाते हुए योगेश ने खुद ही टीवी औफ कर दिया और फिर रिमोट को एक तरफ फेंकते हुए औफिस जाने के लिए तैयार होने लगा.

‘‘अच्छा, ये औरतें बकवास कर रही हैं और तुम सारे मर्द दूध के धुले हो, क्यों?’’ रोटी को तवे पर पटकती हुई नीलिमा कहने लगी, ‘‘हूं, स्वाभाविक भी है जिस समाज में महिला की चुप्पी को उस की शालीनता और गरिमामय व्यक्तित्व का मूलाधार माना जाता रहा हो, वहां शोषण के विरुद्ध उस की आवाज झूठी ही मानी जाएगी?’’ नीलिमा तलखी से बोली.

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‘‘मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं, पर अब

10-20 या 30 साल पुरानी बातों को कुरेदने का क्या मतलब है बताओ? जब उन के साथ ऐसा कुछ हुआ था तब क्यों नहीं आवाज उठाई थी

जो अब चिल्ला रही हैं, मैं यह कह रहा हूं,’’ शर्ट का बटन लगाते हुए योगेश बोला.

योगेश की बातों पर नीलिमा को हैरानी भी हुई और गुस्सा भी आया. बोली, ‘‘तुम्हें यह चीखनाचिल्लाना लगता है पर मुझे तो इस में एकदम सचाई नजर आ रही है योगेश. दरअसल, गलती सिर्फ मर्दों की ही नहीं, समाज की भी है, जहां प्रताडि़त होने के बाद भी लड़कियों को ही चुप रहने को कहा जाता है.

‘‘अगर औफिस में लड़कियां शोषण के प्रति आवाज उठाती हैं, तो नौकरी चली जाती है और घरेलू महिला ऐसा करे, इतनी उस की हिम्मत कहां. समाज में औरतों को बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है कि वे शर्म का चोला पहन कर रखें. मगर मर्दों के लिए खुली छूट क्यों? महिलाएं क्या पहनें क्या नहीं, यह उन की अपनी मरजी होनी चाहिए न कि दूसरों की. फिर वैसे भी शर्महया देखने वालों की आंखों में होती है योगेश, कपड़ों या आचरण में नही. लेकिन लद गया अब वह जमाना.

‘‘सच कहूं, तो मुझे बड़ी खुशी हो रही है यह देख कर कि भारत के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है जब पुरुष भयभीत दिखाई दे रहे हैं कि कहीं उन के वर्षों पूर्व किए गए गुनाह का पिटारा न खुल जाए,’’ गर्व से सिर ऊंचा कर नीलिमा बोली, ‘‘बहुत दे चुकी सीता अग्नि परीक्षा. अब राम की बारी है, क्योंकि स्त्री सिर्फ देह नहीं है, बल्कि उस में सांस और स्पंदन भी है और यह बात अब पुरुष को समझनी पड़ेगी कि औरत का भी अपना वजूद है. वह सिर्फ सहती नहीं, सोचती भी है.’’

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नीलिमा की लंबीचौड़ी बातें सुन योगेश का दिमाग भन्ना गया. अत:

झल्लाते हुए बोला, ‘‘बस हो गया… अब क्या भाषण ही देती रहोगी या खाना भी मिलेगा? वैसे भी आज मुझे देर हो गई है.’’

खाने की प्लेट योगेश के सामने रखती हुई नीलिमा बोली, ‘‘वैसे तुम क्यों इतना बौखला रहे हो? कहीं तुम ने भी तो किसी के साथ… डर तो नहीं रहे हो कि कहीं तुम्हारा भी कोई पुराना पाप न खुल जाए?’’

यह सुनते ही रोटी का कौर योगेश के गले में ही अटक गया. फिर किसी तरह हलक से रोटी को नीचे उतारते हुए बोला, ‘‘प… प… पागलों सी बातें क्यों कर रही हो तुम? मुझे क्यों बिना वजह इन सब में घसीट रही हो? करे कोई और भरे कोई…? मुझे तो बख्श दो और दुनिया जानती है कि मैं कैसा इंसान हूं. सफाई देने की कोई जरूरत नहीं है मुझे.’’

‘‘हूं, और दुनिया उन्हें भी जानती है जिन का पिटारा खुला… पता चले कि जनाब ने भी कभी किसी लड़की के साथ… मैं सिर्फ कह रही हूं,’’ खाने का डब्बा योगेश के सामने रखते हुए नीलिमा बोली.

नीलिका की बातों से योगेश तमतमा उठा. मन तो किया उस का कि खाने का डब्बा उठा कर फेंक दे और कहे कि हां, दुनिया के सारे मर्द खराब हैं. सिर्फ औरतें ही पावन पवित्र हैं. मगर उस की इतनी हिम्मत कहां, जो नीलिमा के सामने औरतों के खिलाफ कुछ बोले, क्योंकि आखिर वह महिलाओं की हमदर्द जो ठहरी. किसी शोषित महिला के बारे में कुछ सुना नहीं कि सखियों सहित मोरचा ले कर निकल पड़ती है.

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‘‘क्या अब अपने पति पर भी तुम्हें भरोसा नहीं रह गया और क्या मैं तुम्हें इतना गिरा हुआ इंसान लगता हूं जो ऐसी बातें बोल रही हो?’’

नीलिमा को लगा कि कहीं योगेश उस की बातों को दिल से न लगा बैठे, इसलिए खुद को शांत कर बोली, ‘‘अरे, मैं तो बस ऐसे ही बोल रही थी और क्या मैं तुम्हें नहीं जानती… चलो अब निकलो औफिस के लिए वरना कहोगे मैं ने ही देर करवा दी.’’

‘‘हूं, वैसे भी आज मेरी जरूरी मीटिंग है,’’ योगेश ने मुसकराते हुए कहा और फिर हमेशा की तरह बाय कह कर औफिस निकल गया. लेकिन उस के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं. डर तो उसे सताने ही लगा था अपने भविष्य को ले कर. सोच कर ही सिहर उठता कि अगर मीटू की चपेट में वह भी आ गया, तो क्या होगा. नीलिमा तो एक पल भी उसे बरदाश्त नहीं करेगी. और तो और उसे सजा दिलवाने में भी पीछे नहीं रहेगी. अपने बच्चों की नजरों में भी उस की छवि धूमिल पड़ जाएगी सो अलग. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा. समाज में बनीबनाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.

मीटिंग में भी योगेश बस यही सब सोचता रहा. औफिस के किसी काम में आज उसे मजा नहीं आ रहा था और न ही किसी स्टाफ को वह कुछ काम करने को कह रहा था वरना तो किसी को ठीक से सांस तक नहीं लेने देता. सब के सिर पर सवार रहता.

‘‘क्या बात है यार, आज बौस बड़े चुपचुप लग रहे हैं? न चीखना, न चिल्लाना, बस चुपचाप जा कर कैबिन में बैठ गए. गुडमौर्निंग बोला तो कोई जवाब भी नहीं दिया. कहीं इन पर भी किसी देवी ने मीटू का केस तो नहीं कर दिया?’’ ठहाके लगाते हुए संदीप ने कहा तो उस की बात पर औरों को भी हंसी आ गई.

‘‘सही कह रहा हूं यार वरना तो आते ही हमें घूरने लगते थे, मगर आज नजरें नीची किए किसी गहरी चिंता में डूबे हैं. क्या बात हो सकती है?’’ संदीप फिर बोला.

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‘‘हां यार, मुझे तो लगा था डांटने के लिए बुलाया है, पर कहने लगे कि उन्होंने मेरी छुट्टी मंजूर कर दी है,’’ नमन ने कहा, तो वहां बैठे सभी हैरान रह गए. क्योंकि मजाल थी जो किसी को वह बिना नाक रगड़ाए छुट्टी दे दे.

‘‘खैर, जाने दो न हमें क्या. हो गई होगी पत्नी से लड़ाई और क्या,’’ कह कर सभी अपनेअपने काम में लग गए.

भरे मन से जैसे ही योगेश घर पहुंचा, देखा नीलिमा किसी से फोन पर बातें कर रही

थी. जोरजोर से कह रही थी, ‘‘एकदम नहीं छूटना चाहिए वह इंसान. समझता क्या है? भेडि़या कहीं का. बड़ा संस्कारी बना फिरता था, पर चलन तो देखो. नातीपोता वाला हो कर ऐसे कुकर्म और वह भी अपनी बेटी समान लड़की से?’’

‘‘क्या हुआ?’’ धीरे से योगेश ने पूछा,

‘‘आ गए तुम? अभी मैं तुम्हें ही फोन

लगाने वाली थी. पता है, वे अमनजी अरे हमारे  पड़ोसी… उन पर किसी लड़की ने हैरेसमैंट का केस किया है. देखो, कितने संस्कारी बने फिरते थे.

‘‘मैं तो कहती हूं ऐसे इंसान का मुंह काला कर चौराहे पर खड़ा कर हजार जूते मारने चाहिए. पता है तुम्हें, उस की पत्नी तो यह बोलबोल कर चिल्लाए जा रही थी कि वह लड़की झूठी है.

उलटी गंगा- भाग 2: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मैं तो कहती हूं उस की पत्नी को भी जेल में डाल देना चाहिए, जो एक गुनहगार की अगुआई कर रही है,’’ गुस्से से अपनी आंखें लाल कर नीलिका बोली.

‘‘हो सकता है अमनजी सही कह रहे हों और वह लड़की झूठ…’’

‘‘झूठ…? बीच में ही नीलिमा बोल पड़ी,’’ और वे सच बोल रहे हैं? क्यों, क्या वह लड़की पागल है जो खुद को ही बदनाम करेगी? जरूर कुछ किया ही होगा तभी तो वह बोल रही होगी… इसलिए गुनाह कर के भी मर्द बच निकलते हैं, क्योंकि उन की पत्नियां उन्हें बचाने के लिए दीवार बन कर उन के सामने खड़ी हो जाती हैं. जानती हैं कि पति गुनहगार है फिर भी… सच कहती हूं अगर उस की जगह मेरा पति होता न, तो मैं उसे नहीं छोड़ती. जेल भिजवा कर ही रहती साले को, ‘‘नीलिमा के मुंह से ऐसी बातें सुन कर योगेश के रोंगटे खड़े हो गए.’’

‘‘सोचो, खुद की भी बेटी है, अगर उस के साथ कोई ऐसा करे तो? छि:, अरे, औरत क्या कोई वस्तु है, जो जिस का जब मन चाहे इस्तेमाल कर लो, बिना उस की मरजी के?’’

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आज नीलिमा के तेवर देख योगेश की रूह कांप रही थी. बस मन ही मन यही

प्रार्थना किए जा रहा था कि वह इस सब से बचा रहे किसी तरह.

‘‘अब तुम्हें क्या हुआ?’’ योगेश के चेहरे पर हवाइयां उड़ते देख नीलिमा कहने लगी, ‘‘हां, पता है मुझे, तुम्हें भी सुन कर बुरा लग रहा होगा, है न? अरे किसी भी शरीफ इंसान को सुन कर बुरा लगेगा, मगर देखो, हम उन्हें क्या समझते थे और क्या निकले?’’ किसी का कुछ कहा नहीं जा सकता,’’ भुनभुनाते हुए नीलिमा किचन की तरफ बढ़ गई.

योगेश धम्म से वहीं सोफे पर बैठ गया. सोचने लगा कि आज जिस तरह से संस्कारी अमन अंकल की थूथू हो रही है, कल उस की बारी न हो. फिर कैसे नजरें मिलाएगा वह अपनी बेटियों से? गुमसुम सा वह आ कर कमरे में बैठ गया. नीलिमा ने पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

बच्चे और नीलिमा तो सो गए, उस की आंखें अब भी जाग रही थीं. अचानक उस के दिल में एक शूल सा उठता, फिर शांत हो जाता. कभी वह अपने सो रहे बच्चों को निहारता, तो कभी एकटक नीलिमा को देखता. आज नीलिमा उसे उस की पत्नी नहीं, बल्कि चंडिका का रूप लग रही थी, जो छूते ही भस्म कर देगी. इसलिए वह हौल में जा कर सोफे पर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन वहां भी उसे कहां चैन.

घर का 1-1 सामान जैसे उस के मुंह चिढ़ा रहा हो, हंस रहा हो उस पर और कह रहा हो, ‘‘देख रहे हो, कैसी उलटी गंगा बह रही है? नहीं बच पाओगे तुम भी योगेश बाबू. देरसबेर ही सही, पर कर्मों का फल तो सब को मिलता ही है. तुम्हें भी जरूर मिलेगा. उन की बातें सुन वह घबरा कर उठ बैठता और लंबीलंबी सांसें लेने लगता. डर के मारे हालत खराब हो रही थी उस की, पर बताए तो किसे और क्या? सोच कर ही कंपकंपा उठता कि अगर उस के किए गुनाह सब के सामने आ गए, तब क्या होगा? उस की तो बसीबसाई गृहस्थी ही उजड़ जाएगी.’’

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‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. क्यों मैं बेकार की बातें सोच रहा हूं? वह कभी अपना मुंह नहीं खोलेगी और अगर खोल दिया तो? तो मैं उसे झूठा साबित कर दूंगा. कह दूंगा वही मुझ पर डोरे डाल रही थी. जब दाल नहीं गली, तो मुझ पर इलजाम लगा रही है. मगर उस ने कोई सुबूत पेश कर दिया या गवाह खड़ा कर दिया तो, तो क्या होगा? कौन गवाह? किस की  इतनी हिम्मत है कि जो मेरे खिलाफ बोले,’ वह खुद से ही सवालजवाब किए जा रहा था और परेशान हुए जा रहा था. मुक्ता के साथ किए 1-1 अत्याचार आज उस की आंखों के सामने चलचित्र की तरह नाचने लगे.

बात 7-8 साल पहले की है. जिस कंपनी में योगेश बौस था. उसी कंपनी में मुक्ता भी काम करती थी, पर छोटे पद पर. चूंकि योगेश मुक्ता का बौस था, इसलिए उस की मजबूरी थी उस की हर बात को मानना. गोरा रंग, लंबे घने बाल, मोटीमोटी झील सी आंखें और उस का छरहरा बदन देख योगेश उसे देखता ही रह जाता. जिस तरह वह उसे नजरें गड़ाए देखा करता. उस से मुक्ता एकदम असहज हो जाती और अपने कपड़े ठीक करने लगती.

जानती थी वह कि उसे ले कर योगेश के विचार कुछ ठीक नहीं हैं, इसलिए वह अपना काम समय के साथ कर लिया करती ताकि योगेश को उसे कुछ कहने का मौका ही न मिले. फिर भी किसी न किसी बहाने वह उसे अपने कैबिन में बुला ही लेता और घंटों बेमतलब के कामों में उलझाए रखता. जब वह कामों में उलझी रहती, योगेश लगातार अपनी नजरें उस पर ही टिकाए रखता.

आप कितने भी अपने काम में व्यस्त क्यों न हों अगर कोई आप को एकटक निहार रहा हो, तो आप की नजरें खुदबखुद उस ओर चली जाती हैं. ऐसा अकसर होता है. जब मुक्ता की नजर योगेश पर पड़ती, तब भी ढीठ की तरह वह उसे उसी प्रकार निहारता रहता. हार कर मुक्ता ही अपनी नजरें नीची कर लेती या वहां से हट जाती.

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मुक्ता को अब योगेश के सामने जाने से भी डर लगने लगा था, क्योंकि जिस तरह से वह उस के सीने पर अपनी नजरें गड़ाए रहता, उस से वह सहम सी जाती. योगेश के डर से ही अब उस ने जींस टीशर्ट और स्लीवलैस कपड़े पहनने छोड़ दिए थे. जानबूझ कर ढीलेढाले कपड़े पहन कर औफिस जाती, ताकि योगेश उसे न देखे, पर उस की गंदी नजरें फिर भी उसे घूरती रहतीं.

कई बार तो वह जानबूझ कर उस से टकरा जाता, फिर भी मुक्ता ही सौरी बोलती. एक बार तो उस ने उस के सीने पर हाथ ही रख दिया और फिर सौरीसौरी कहने लगा, लेकिन योगेश ने ऐसा जानबूझ कर किया, यह बात मुक्ता जानती थी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी मौका मिलता, वह मुक्ता को यहांवहां छू देता और बेचारी कुछ न बोल कर आगे बढ़ जाती.

रोना आता उसे अपनी हालत पर. सोचती क्या लड़की होना इतना बड़ा पाप है? शुरू से ही मुक्ता पर उस की गंदी नजर थी. जानता था वह कि यह नौकरी उस के लिए कितना माने रखती है, क्योंकि उस के घर में कमाने वाला उस के सिवा और कोई नहीं था. पिता की असमय मौत ने घरपरिवार की सारी जिम्मेदारी उस के कंधों पर डाल दी थी. इसी कारण वक्तबेवक्त योगेश उस का फायदा उठाता रहता था.

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उस दिन जानबूझ कर योगेश ने मुक्ता को देर रात तक औफिस में रोक लिया और कहा कि वह उसे घर छोड़ देगा. औफिस के चपरासी को भी उस ने छुट्टी दे दी. लेकिन मुक्ता जल्दीजल्दी अपना काम निबटा कर वहां से जाने ही लगी कि पीछे से आ कर योगेश ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसे यहांवहां छूने लगा.

‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे,’’ कह कर मुक्ता ताकत लगा कर उस की पकड़ से निकली ही कि फिर से उस ने उसे दबोचना चाहा, यह बोल कर कि इसी मौके की तो उसे कब से तलाश थी. मगर ऐन वक्त पर वही चपरासी वहां पहुंच गया और मुक्ता बच गई. वरना तो आज योगेश उसे नहीं छोड़ता. शायद वह चपरासी भी योगेश के गंदे इरादे भांप गया था, इसलिए अपना खाने का डब्बा छूट जाने का बहाना कर वापस आ गया और मुक्ता बरबाद होने से बच गई.

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