Romantic Story: प्यार एक एहसास

Romantic Story: पिता की 13वीं से लौटी ही थी सीमा. 15 दिन के लंबे अंतराल के बाद उस ने लैपटौप खोल कर फेसबुक को लौग इन किया. फ्रैंड रिक्वैस्ट पर क्लिक करते ही जो नाम उभर कर आया उसे देख कर बुरी तरह चौंक गई.

‘‘अरे, यह तो शैलेश है,’’ उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया. समय के इतने लंबे अंतराल ने उस की याद पर धूल की मोटी चादर बिछा दी थी. लैपटौप के सामने बैठेबैठे ही सीमा की आंखों के आगे शैलेश के साथ बिताए दिन परतदरपरत खुलते चले गए.

दोनों ही दिल्ली के एक कालेज में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे. शैलेश पढ़ने में अव्वल था. वह बहुत अच्छा गायक भी था. कालेज के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में वह बढ़चढ़ कर भाग लेता था. सीमा की आवाज भी बहुत अच्छी थी. दोनों कई बार डुएट भी गाते थे, इसलिए अकसर दोनों का कक्षा के बाहर मिलना हो जाता था.

एक बार सीमा को बुखार आ गया. वह 10 दिन कालेज नहीं आई तो शैलेश पता पूछता हुआ उस के घर उस का हालचाल पूछने आ गया. परीक्षा बहुत करीब थी, इसलिए उस को अपने नोट्स दे कर उस की परीक्षा की तैयारी करने में मदद की. सीमा ने पाया कि वह एक बहुत अच्छा इनसान भी है. धीरेधीरे उन की नजदीकियां बढ़ने लगीं. कालेज में खाली

समय में दोनों साथसाथ दिखाई देने लगे. दोनों को ही एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. 1 भी दिन नहीं मिलते तो बेचैन हो जाते. दोनों के हावभाव से आपस में मूक प्रेमनिवेदन हो चुका था. इस की कालेज में भी चर्चा होने लगी.

यह किशोरवय उम्र ही ऐसी है, जब कोई प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए अपनी मूक भाषा में प्रेमनिवेदन करता है, तो दिल में अवर्णनीय मीठा सा एहसास होता है, जिस से चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकने लगता है. सारी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगती है. चिलचिलाती गरमी की दुपहरी में भी पेड़ के नीचे बैठ कर उस से बातें करना चांदनी रात का एहसास देता है.

लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे हैं, इस की ओर से भी वे बेपरवाह होते हैं. जब खुली आंखों से भविष्य के सपने तो बुनते हैं, लेकिन पूरे होने या न होने की चिंता नहीं होती. एकदूसरे की पसंदनापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता है. बारिश के मौसम में भीग कर गुनगुनाते हुए नाचने का मन करता है. दोनों की यह स्थिति थी.

पढ़ाई पूरी होते ही शैलेश अपने घर बनारस चला गया, यह वादा कर के कि वह बराबर उस से पत्र द्वारा संपर्क में रहेगा. साल भर पत्रों का आदानप्रदान चला, फिर उस के पत्र आने बंद हो गए. सीमा ने कई पत्र डाले, लेकिन उत्तर नहीं आया. उस जमाने में न तो मोबाइल थे न ही इंटरनैट. धीरेधीरे सीमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और कर भी क्या सकती थी?

सीमा पढ़ीलिखी थी तथा आधुनिक परिवार से थी. शुरू से ही उस की आदत रही थी कि वह किसी भी रिश्ते में एकतरफा चाहत कभी नहीं रखती. जब कभी उसे एहसास होता कि उस का किसी के जीवन में अस्तित्व नहीं रह गया है तो स्वयं भी उस को अपने दिल से निकाल देती थी. इसी कारण धीरेधीरे उस के मनमस्तिष्क से  शैलेश निकलता चला गया. सिर्फ उस का नाम उस के जेहन में रह गया था. जब भी ‘वह’ नाम सुनती तो एक धुंधला सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर जाता था, इस से अधिक और कुछ नहीं.

समय निर्बाध गति से बीतता गया. उस का विवाह हो गया और 2 प्यारेप्यारे बच्चों की मां भी बन गई. पति सुनील अच्छा था, लेकिन उस से मानसिक सुख उसे कभी नहीं मिला. वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता कि सीमा के लिए उस के पास समय ही नहीं था. वह पैसे से ही उसे खुश रखना चाहता था.

15 साल के अंतराल पर फेसबुक पर शैलेश से संपर्क होने पर सीमा के मन में उथलपुथल मच गई और अंत में वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट न करने में ही भलाई लगी.

अभी इस बात को 4 दिन ही बीते होंगे कि  उस का मैसेज आ गया. किसी ने सच ही कहा है कि कोई अगर किसी को शिद्दत से चाहे तो सारी कायनात उन्हें मिलाने की साजिश करने लगती है और ऐसा ही हुआ. इस बार वह अपने को रोक नहीं पाई. मन में उस के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. मैसेज का सिलसिला चलने लगा, जिस से पता लगा कि वह पुणे में अपने परिवार के साथ रहता है. फिर मोबाइल नंबरों का आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद प्राय: बात होने लगी. उन का मूक प्रेम मुखर हो उठा था. पहली बार शैलेश की आवाज फोन पर सुन कर कि कैसी हो नवयौवना सी उस के दिल की स्थिति हो गई थी. उस का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया था.

उस ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘अच्छी हूं. तुम्हें मैं अभी तक याद हूं?’’

‘‘मैं भूला ही कब था,’’ जब उस ने प्रत्युत्तर में कहा तो, उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

उस ने पूछा, ‘‘फिर पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘तुम्हारा एक पत्र मां के हाथ लग गया था, तो उन्होंने भविष्य में

तुम्हारामेरा संपर्क में रहने का दरवाजा ही बंद कर दिया और मुझे अपना वास्ता दे दिया था. उन का इकलौता बेटा था, क्या करता.’’

उस ने सीमा से कभी भविष्य में साथ रहने का वादा तो किया नहीं था, इसलिए वह शिकायत भी करती तो क्या करती. एक ऐसा व्यक्ति जिस ने अपने प्रेम को भाषा के द्वारा कभी अभिव्यक्त नहीं किया था, उस का उसे शब्दों का जामा पहनाना उस के लिए किसी सुखद सपने का वास्तविकता में परिणत होने से कम नहीं था. यदि वह उस से बात नहीं करती तो इतनी मोहक बातों से वंचित रह जाती.

समय का अंतराल परिस्थितियां बदल देता है, शारीरिक परिवर्तन करता है, लेकिन मन अछूता ही रह जाता है. कहते हैं हर इनसान के अंदर बचपना होता है, जो किसी भी उम्र में उचित समय देख कर बाहर आ जाता है.

उन की बातें दोस्ती की परिधि में तो कतई नहीं थीं. हां मर्यादा का भी उल्लंघन कभी नहीं किया. शैलेश की बातें उसे बहुत रोमांचित करती थीं. बातों से लगा ही नहीं कि वे इतने सालों बाद मिले हैं. फोन से बातें करते हुए उन्होंने उन पुराने दिनों को याद कर के भरपूर जीया. कुछ शैलेश ने याद दिलाईं जो वह भूल गई थी, कुछ उस ने याद दिलाई. ऐसे लग रहा था जैसेकि वे उन दिनों को दोबारा जी रहे हैं.

15 सालों में किस के साथ क्या हुआ वह भी शेयर किया. आरंभ में इस तरह बात करना उसे अटपटा अवश्य लगता था, संस्कारगत थोड़ा अपराधबोध भी होता था और यह सोच कर भी परेशान होती थी कि इस तरह कितने दिन रिश्ता निभेगा.

इसी ऊहापोह में 5-6 महीने बीत गए. दोनों ही चाहते थे कि यह रिश्ता बोझ न बन जाए. यह तो निश्चित हो गया था कि आग लगी थी दोनों तरफ बराबर. पहले यह आग तपिश देती थी, लेकिन धीरेधीरे यही आग मन को ठंडक तथा सुकून देने लगी. उन की रस भरी बातें उन दोनों के ही मन को गुदगुदा जाती थीं.

एक बार शैलेश ने एक गाने की लाइन बोली, ‘‘तुम होतीं तो ऐसा होता, तुम यह कहतीं…’’

उस की बात काटते हुए सीमा बोली, ‘‘और तुम होते तो कैसा होता…’’

कभी सीमा चुटकी लेती, ‘‘चलो भाग चलते हैं…’’

शैलेश कहता, ‘‘भाग कर जाएंगे कहां?’’

एक दिन शैलेश ने सीमा को बताया कि औफिस के काम से वह बहुत जल्दी दिल्ली आने वाला है. आएगा तो वह उस से और उस के परिवार से अवश्य मिलेगा. यह सुन कर उस का मनमयूर नाच उठा. फिर कड़वी सचाई से रूबरू होते ही सोच में पड़ गई कि अब सीमा किसी और की हो चुकी है.

क्या इस स्थिति में उस का शैलेश से मिलना उचित होगा? फिर अपने सवाल का उत्तर देते हुए बुदबुदाई कि ऊंह, तो क्या हुआ? समय बहुत बदल गया है, एक दोस्त की तरह मिलने में बुराई ही क्या है… सुनील की परवाह तो मैं तब करूं जब वह भी मेरी परवाह करता हो. खुश रहने के लिए मुझ भी तो कोई सहारा चाहिए. देखूं तो सही इतने सालों में उस में कितना बदलाव आया है. अब वह शैलेश के आने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगी थी.’’

अंत में वह दिन भी आ पहुंचा, जिस का वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी. सुनील बिजनैस टूअर पर गया हुआ था. दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. उन्होंने कनाट प्लेस के कौफी हाउस में मिलने का समय निश्चित किया. वह शैलेश से अकेले घर में मिल कर कोई भी मौका ऐसा नहीं आने देना चाहती थी कि बाद में उसे आत्मग्लानि हो.

उसे लग रहा था कि इतने दिन बाद उस को देख कर कहीं वह भावनाओं में बह कर कोई गलत कदम न उठा ले, जिस की उस के संस्कार उसे आज्ञा नहीं देते थे. शैलेश को देख कर उसे लगा ही नहीं कि वह उस से इतने लंबे अंतराल के बाद मिल रही है. वह बिलकुल नहीं बदला था. बस थोड़ी सी बालों में सफेदी झलक रही थी. आज भी वह उसे बहुत अपना सा लग रहा था. बातों का सिलसिला इतना लंबा चला कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

इधरउधर की बातें करते हुए जब शैलेश ने सीमा से कहा कि उसे अपने वैवाहिक जीवन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन उस की जगह कोई नहीं ले सकता तो उसे अपनेआप पर बहुत गर्व हुआ.

अचानक शैलेश को कुछ याद आया. उस ने पूछा, ‘‘अरे हां, तुम्हारे गाने के शौक का क्या हाल है?’’

बात बीच में काटते हुए सीमा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या हाल होगा. मुझे समय ही नहीं मिलता. सुनील तो बिजनैस टूअर पर रहते हैं और न ही उन को इस सब का शौक है.’’

‘‘अरे, उन को शौक नहीं है तो क्या हुआ, तुम इतनी आश्रित क्यों हो उन पर? कोशिश और लगन से क्या नहीं हो सकता? बच्चों के स्कूल जाने के बाद समय तो निकाला जा सकता है.’’

सीमा को लगा काश, सुनील भी उस को इसी तरह प्रोत्साहित करता. उस ने तो कभी उस की आवाज की प्रशंसा भी नहीं की. खैर, देर आए दुरुस्त आए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी इस कला को लोगों के सामने उजागर करेगी.

उस को चुप देख कर शैलेश ने कहा, ‘‘चलो, हम दोनों मिल कर एक अलबम तैयार करते हैं. सहकर्मियों की तरह तो मिल सकते हैं न. इस विषय पर फोन पर बात करेंगे.’’

सीमा को लगा उस के अकेलेपन की समस्या का हल मिल गया. दिल से वह शैलेश के सामने नतमस्तक हो गई थी.

फिर से बिछड़ने का समय आ गया था. लेकिन इस बार शरीर अलग हुए थे केवल, कभी न बिछड़ने वाला एक खूबसूरत एहसास हमेशा के लिए उस के पास रह गया था, जिस ने उस की जिंदगी को इंद्रधनुषी रंग दे कर नई दिशा दे दी थी. इस एहसास के सहारे कि वह इतने सालों बाद भी शैलेश की यादों में बसी है. वह शैलेश का सामीप्य हर समय महसूस करती थी. दूरी अब बेमानी हो गई थी.

एक कवि ने प्रेम की बहुत अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो. कहते हैं प्यार कभी दोस्ती में नहीं बदल सकता और यदि बदलता है तो उस से अच्छी दोस्ती नहीं हो सकती. इस दोस्ती का अलग ही आनंद है. सीमा को बहुत ही प्यारा दोस्त मिला.

Hindi Story: नवंबर का महीना – सोनाली किसी और की हो गई

Hindi Story: नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी.

‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’ मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.

इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.

मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था. उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था.

2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा. मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, रा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था.

तब तक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

Hindi Story: मेरी छतरी के नीचे आ जा

Hindi Story, लेखक – अशोक कुमार ‘सुमन’

बरसात का मौसम था. लेकिन आसमान में बादलों का कहीं नामोनिशान नहीं था, इसलिए मैं ने छाता लेना जरूरी नहीं समझा.

मुझे शाम को घूमने की आदत है. हमारी कालोनी से कुछ दूरी पर हराभरा मैदान है, जहां पर बच्चे खेलते हैं. मैदान से कुछ दूर हट कर एक पार्क है.

मैं ने घड़ी पर नजर डाली. शाम के 5 बजे थे. मैं घूमने निकल पड़ा. ज्यों ही मैं मैदान के पास पहुंचा, तभी आसमान में कालेकाले बादल मंडराने लगे. फिर ठंडी हवा बहने लगी. हलकी बूंदाबांदी होनी शुरू हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा, कहीं छिपने की जगह नहीं थी. मैं तेजी से अपने घर की ओर दौड़ने लगा.

तभी कानों में रस घोलती एक मीठी सी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘ऐ मिस्टर…’’

मेरे पैर थम गए. पीछे मुड़ कर देखा, एक खूबसूरत जवान लड़की छाता लिए बुला रही थी. मैं कुछ देर तक उसे देखता रहा. वह बला की खूबसूरत थी.

उस के नजदीक आते ही इत्र की दिलकश खुशबू नाक में समाती चली गई. वह अपनी आवाज में शहद घोलते हुए बोली, ‘‘आप अपने घर पहुंचतेपहुंचते भीग जाएंगे. प्लीज, मेरे छाते के नीचे आ जाइए.’’

मेरे दिमाग में फिल्म ‘तहलका’ का गाना कौंध गया, ‘मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे रे…’

अंधे को चाहिए दो आंखें. मैं उस के छाते के नीचे चला गया. बारिश भी तेज हो गई थी. मैं उस से कुछ हट कर चल रहा था. छाते से टपक रहा पानी मेरे कपड़ों को भिगो रहा था.

वह मेरे हाथ को तकरीबन खींचते हुए बोली, ‘‘नजदीक चले आइए, भीग क्यों रहे हैं? क्या पहली बार आप किसी लड़की के साथ चल रहे हैं?’’ कहते हुए वह मेरे जिस्म से सट गई.

उस के जिस्म की छुअन से मैं सिहर उठा. सांसों में संगीत घुल गया. दिल में घंटियां बजनी शुरू हो गईं.

‘‘क्या लड़कियों से आप बोलते नहीं हैं?’’ उस ने बेतकल्लुफी से मेरे हाथ को दबा कर कहा.

मैं भी चहका, ‘‘बोलता क्यों नहीं… लेकिन, कौए की तरह ‘कांवकांव’ करने के बजाय एक बार कोयल की तरह कूक लेना ही बेहतर समझता हूं.’’

मेरी बात का बुरा न मान कर वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘शायद, आप का इशारा मेरी तरफ है?

‘‘नहींनहीं, आप बुरा न मानें. कहने का मतलब, इनसान को जरूरी हो, तभी बोलना चाहिए. आप की आवाज तो शहद की तरह मीठी है. सुनने वाले बागबाग हो जाते हैं,’’ मैं ने हौले से उस से कहा.

‘‘आप मेरी तारीफ कर रहे हैं या फिर मक्खन लगा रहे हैं?’’ कहते हुए अचानक दिलकश हंसी गूंजी.

मैं भी पूरी तरह खुल चुका था. मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘नहीं, आप डबलरोटी हैं क्या, जो मक्खन लगाऊंगा?’’

वह ठहाका लगा कर हंसी. फिर खास अंदाज के साथ वह बोली, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया. मुझे माधुरी कहते हैं.’’

‘‘क्या मधुर नाम है. नाम माधुरी, चेहरा भी माधुरी, आवाज भी माधुरी. हाय, मैं कहां आ गया हूं? चारों ओर मीठा ही मीठा नजर आ रहा है,’’ मैं ने फिल्मी स्टाइल में कहा.

‘‘वाह, आप तो बहुत ही दिलचस्प आदमी हैं,’’ वह चहकी.

‘‘पहली बार मैं ने यह जाना है.’’

‘‘क्या मुझे आप अपना नाम नहीं बताएंगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘बंदे को अविनाश कहते हैं,’’ मैं ने चहकते हुए कहा.

‘‘अच्छा नाम है अविनाशजी, क्या आप छाता कुछ देर तक पकड़ सकते हैं? मेरे हाथ थक गए हैं,’’ वह मेरे चेहरे की ओर देखते हुए बोली.

मैं ने उस का छाता पकड़ लिया. वह मेरा हाथ पकड़ कर इस तरह चलने लगी, जैसे सालों से जानपहचान हो. मैं ने बुरा न माना. भला, मैं एक खूबसूरत लड़की का हाथ कैसे झटक सकता था और वह भी इस खुशगवार मौसम में.

अचानक वह बोली, ‘‘कहीं आप को बुरा तो नहीं लग रहा है…?’’

‘‘नहींनहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? अगर आप मुझे अपने छाते में जगह न देतीं, तो मैं पूरी तरह भीग जाता. इस के लिए मैं आप का बहुत ज्यादा शुक्रगुजार हूं.’’

‘‘छोडि़ए इन बातों को… आप ने कभी किसी लड़की से मुहब्बत की है या नहीं?’’ उस ने धमाका सा किया.

इस सवाल पर मैं चौंक गया, तभी मेरे होंठों पर मुसकान थिरक गई. मैं ने शायराना अंदाज में कहा, ‘‘हाय, जब मुहब्बत का नाम सुनता हूं, कितना मलाल होता है…’’ फिर मैं ने भी धमाका किया, ‘‘क्या मैं आप के प्यार के काबिल नहीं हूं?’’

वह इठलाते हुए बोली, ‘‘मुझ में ऐसी क्या खूबी है, जो दो पलों में आप को मुझ से प्यार हो गया है?’’

मैं ने फिर शायराना अंदाज में यह शेर पढ़ा, ‘‘आप के इश्क में न तनहा, न दीवाना बने. जो देखे आप की सूरत, वह परवाना बने.’’

यह सुनते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘बात करना तो कोई आप से सीखे.’’

‘‘आप की अदाओं ने ही मुझे बोलना सिखाया है.’’

अचानक वह फिसल पड़ी. अगर मैं उसे थाम न लेता, तो वह गिर पड़ती. वह मेरे जिस्म से लिपट गई. मेरा बदन फिर एकबारगी कांप गया. इत्र की तेज महक तनमन में आग लगा रही थी.

मुझे हैरत हो रही थी कि चंद पलों की पहचान में यह लड़की इतनी खुल क्यों रही है? लेकिन वह तुरंत मुझ से अलग हो गई और हसीन अदा के साथ बोली, ‘‘अगर आप मुझे थाम न लेते, तो इस गंदे पानी में कपड़ों के साथसाथ मेरा चेहरा भी खराब हो जाता.’’

मैं ने चुटकी ली, ‘‘अगर चांद पर दाग पड़ जाए, तो भी उस की खूबसूरती कम नहीं होती.’’

मेरे इस जुमले पर वह केवल मुसकरा कर रह गई. अब हलकी बूंदाबांदी हो रही थी. लेकिन ठंडी हवा का असर अब भी था. हम लोग बाजार के नजदीक पहुंच चुके थे.

‘‘आइए, किसी होटल में चलते हैं. ठंड लग रही है. चाय से गरमी आ जाएगी,’’ वह लटों से खेलती हुई बोली.

हम दोनों एक होटल में जा कर बैठ गए. उस वक्त वहां सिर्फ 3-4 अजनबी लोग ही बैठे थे. मैं ने चैन की सांस ली. फिर आमलेट और चाय का और्डर दिया.

आमलेट खाने के बाद चाय लेते हुए वह बोली, ‘‘कल आप कब मिलेंगे?’’

मैं ने तुरंत ही कहा, ‘‘यहीं, इसी होटल में शाम के समय…’’

वह मेरे मुंह से बात छीनते हुए बोली, ‘‘जब पानी बरस रहा हो और मैं छाता लिए खड़ी हूं,’’ कह कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी.

मैं ने भी हंसी में उस का साथ दिया. फिर पूछा, ‘‘आप रहती कहां हैं माधुरीजी?’’

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा.’’

वह मेरे सवाल को टाल गई. मैं ने भी कुरेदा नहीं.

वह अपनी नशीली आंखें मेरी आंखों में डाल कर बोली, ‘‘आप मुझे भूल तो नहीं जाएंगे न…?’’

मैं ने फिर एक बार शायराना अंदाज में कहा, ‘‘न कभी भूलूंगा आप को जिंदगी की छांव में. बसाए रखूंगा सदा यादों के गांव में. दो पल की मुलाकात रंग लाएगी एक दिन, हंसतीमुसकराती प्यार की छांव में.’’

वह खुश हो कर बोली, ‘‘आप से यही उम्मीद थी.’’

‘‘आप मुझे भले ही भूल जाएं, पर मैं इस मुलाकात को यादों के अलबम में हमेशा सजाए रखूंगा,’’ मैं तनिक भावुक हो कर बोला.

‘‘नहींनहीं, आप ऐसा क्यों बोलते हैं. मैं भी इस दिलकश मुलाकात को हमेशा याद रखूंगी,’’ वह भी उदास लहजे में बोली.

अब बारिश थम चुकी थी. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, 6 बज चुके थे. मैं ने होटल का बिल चुकाने के लिए जेब में हाथ डाला, लेकिन बटुआ नदारद था.

मैं ने हड़बड़ा कर सभी जेबों में हाथ डाला, पर बटुए का कहीं पता नहीं था. मेरे तो होश ही उड़ गए.

वह आराम से बोली, ‘‘क्या पैसे नहीं हैं? मैं दे देती हूं.’’

मैं ने रोनी सूरत बना कर कहा, ‘‘नहींनहीं, बटुआ तो मैं लाया था. शायद, दौड़ते वक्त गिर गया हो.’’

वह दोबारा बोली, ‘‘छोडि़ए, मैं दे देती हूं. मैं किस दिन काम आऊंगी?’’

इतना कह कर उस ने पैसे दे दिए. मैं ने दिल ही दिल में उस की तारीफ की और महसूस किया कि सूरत के साथ उस की सीरत भी लाजवाब है.

होटल से दोनों बाहर आ गए. उस ने कल मिलने का वादा करते हुए अपना गोरा हाथ आगे बढ़ाया. मैं ने भी अपना हाथ आगे बढ़ा कर ज्यों ही उस के हाथ से मिलाया, उस ने हलके से मेरे हाथ को दबाते हुए कहा, ‘‘आप भी मुझे खूब याद करेंगे कि एक अजनबी लड़की से मुलाकात हुई थी,’’ और एक दिलकश अदा के साथ दाईं आंख दबा कर वह मुसकराते हुए चलती बनी.

मैं उसे जाते हुए ठगा सा देखता रह गया.

इत्र की दिलकश खुशबू दूर होती चली गई, पर उस मुलाकात की कसक दिल में कैद थी.

मैं एक पान की दुकान पर जा कर पान लगवाने लगा. दुकान में लगे लंबेचौड़े आईने में मेरी माशूका की ही तसवीर दिख रही थी. उस ने 15-20 कदम आगे जा कर जेब से जो बटुआ निकाला, तो मैं हैरत से भर गया. वह बटुआ मेरा ही था.

दिल पर हथौड़ा सा बजा. सारी उम्मीदें बालू के घरौंदे की तरह हवा में एक झोंके से भरभरा कर गिर गईं.

अब मेरी समझ में आया कि वह किसलिए मुझ से लिपटी थी. मासूम और सुंदर चेहरे भी इनसान को किस तरह से छलते हैं, पहली बार मालूम हुआ.

वह मेरी जेब से 1,000 रुपए साफ कर चुकी थी. उस की इस हरकत से मेरे दिल में ठेस सी लगी. पर इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उस से पूछूं कि उस ने ऐसा क्यों किया?

चलतेचलते वह मेरी जेब साफ कर लेती तो मुझे इतना दुख न होता. लेकिन उस ने मीठीमीठी बातों में उलझा कर प्यार का एहसास जगा कर जेब साफ कर ली. इसी बात से मुझे काफी दुख हो रहा था.

बादल बिलकुल साफ हो चुके थे, जैसे मेरे जेब से बटुआ साफ हो गया था. उस ने बटुए से रुपए निकाल कर नाजुक उंगलियों से गिन कर उन्हें होंठों से लगा लिया. फिर बटुए को इस तरह नाली की ओर उछाल दिया, जैसे दिल और दिमाग से मुझे ही निकाल कर फेंक दिया हो.

मैं सड़क पर कुछ देर तक यों ही खड़ा रहा. होश तब आया, जब एक कार के पहिए गड्ढे में पड़ने से गंदा पानी मेरे चेहरे और कपड़ों पर पड़ा.

वहां मौजूद सभी लोग मेरी हालत देख कर हंसने लगे. मैं ने वहां से खिसकने में ही भलाई समझी.

तभी पनवाड़ी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘भाई साहब, पान तो लेते जाइए.’’

लेकिन ऐसी हालत में मैं पान कैसे खाता, खिसिया कर एक सिक्का उस की तरफ उछाल दिया. मैं खिसकने को हुआ, तो पनवाड़ी ने मजा लेते हुए कहा, ‘‘वाह, आप कितने खूबसूरत लग रहे हैं. बस एक कमी है तो पान की, आप को देख कर तो कोई हसीना लट्टू की तरह नाचने लगेगी.’’

तभी दूसरी आवाज आई, ‘‘वाह, क्या पोज है, भागिएगा नहीं. भाई साहब, कैमरामैन को अभी बुलाता हूं,’’ यह बात सुन कर वहां मौजूद सभी आदमी ‘होहो’ कर के हंसने लगे.

जब मैं ने अपना चेहरा पनवाड़ी की दुकान में लगे आईने की तरफ उठाया, तो कीचड़ से भरे चेहरे को देख कर बुरी तरह झेंप गया.

मैं ने वहां और ज्यादा देर तक ठहरना मुनासिब नहीं समझा. वहां से इस तरह भागा कि जैसे लोगों का ठहाका काला नाग बन कर मेरा पीछा कर रहा हो.

जब मैं अपनी कालोनी में पहुंचा, तो वहां भी भरपूर ठहाका लगा. तब मैं और भी तेज रफ्तार से दौड़ा और गुसलखाने में जा कर ही दम लिया.

मुहब्बत का सारा नशा काफूर हो चुका था. मैं ने तय किया कि फिर कभी मैं इश्क और हुस्न के चक्कर में नहीं पड़ूंगा.

Love Story: फेसबुक का प्यार

Love Story, लेखक – शकील प्रेम

मेरी जेठानी गुलशन बहुत ही खूबसूरत थीं. 2 बच्चों की मां होने के बावजूद भी उन का रंगरूप ऐसा था कि कोई भी फिदा हो जाए. मैं ही क्या, रिश्तेदारी की ज्यादातर बहुएं उन से जलती थीं.

मेरे शौहर जुनैद और उन के बड़े भाई जावेद एक ही घर में रहते थे, लेकिन घर का बंटवारा हो चुका था. एक ही मकान के 2 हिस्से हो गए थे. एक तरफ मेरे जेठ रहते थे, तो वहीं दूसरी तरफ हम लोग. खाना अलगअलग बनता था, लेकिन बाकी चीजों में दोनों भाइयों की सांझा भागीदारी थी.

दोनों भाई अच्छी नौकरी में थे. बड़े भाई यानी मेरे जेठ जावेद अली मांबाप का खर्च उठाते थे, तो मेरे शौहर जुनैद पर मेरी ननद आएशा की पढ़ाई और उस की शादी की जिम्मेदारी थी. मेरी जेठानी गुलशन के दोनों बच्चे महंगे स्कूल में पढ़ते थे.

मेरी शादी को 5 साल हुए थे, लेकिन मेरे अभी कोई बच्चा नहीं हुआ था. इस के लिए मेरा इलाज चल रहा था. मैं ने पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. साथ ही, ब्यूटीशियन का एक साल का डिप्लोमा भी किया हुआ था.

मेरे शौहर जुनैद एक प्राइवेट बैंक में कैशियर की पोस्ट पर थे. शादी के बाद 6 महीने तक तो मैं ने कुछ नहीं किया, लेकिन जल्द ही मुझे एहसास हुआ कि घर में खाली पड़े रहना ठीक नहीं.

एक दिन मैं ने अपने शौहर जुनैद से कहा, ‘‘आप ड्यूटी पर चले जाते हैं, तो मैं दिनभर घर में रह कर बोर हो जाती हूं. हमारा जो बाहर वाला कमरा है, जिस में पहले आप के मम्मीपापा रहते थे. वे दोनों तो अब बड़े भैया के घर रहने चले गए हैं. कमरा बिलकुल खाली पड़ा है. वह कमरा बाहर सड़क से लगता है. मैं उस कमरे को दुकान के रूप में बदलने की सोच रही हूं, ताकि अपना ब्यूटीपार्लर खोल सकूं.’’

मेरे शौहर को भी मेरा यह आइडिया काफी पसंद आया और अगले ही दिन उन्होंने कमरे को दुकान में बदलने के लिए मजदूरों को काम पर लगा दिया.

2 हफ्तों के भीतर ही मेरी नई दुकान तैयार हो चुकी थी. मैं ने अपने शौहर से एक लाख रुपए लिए और दुकान में ब्यूटी का सारा सामान रख लिया.

कुछ ही समय में मेरी दुकान चलने लगी. अब पूरे दिन मैं अपनी दुकान संभालती और मेरी ननद आएशा भी मेरे साथ मेरा हाथ बंटाती.

मेरी जेठानी गुलशन को बननेसंवरने का खूब शौक था. मेरे ब्यूटीपार्लर से उन्हें बड़ा फायदा हुआ था. वे रोज ही दुकान पर आतीं और आएशा से अपना मेकअप करवा कर चली जातीं.

वैसे, मेरी जेठानी मुझ से ज्यादा खूबसूरत थीं, लेकिन मुझ से कम पढ़ीलिखी थीं. मैं अपनी जेठानी जितनी खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन मुझे इस बात की खुशी थी कि मैं अपनी जेठानी से ज्यादा पढ़ीलिखी थी.

मेरी जेठानी गुलशन की शादी को 10 साल बीत चुके थे. वे सब से यही कहती थीं कि जब वे 16 साल की थीं, तब उन की शादी हुई थी. इस हिसाब से मेरी जेठानी अभी केवल 26 साल की थीं. कई लोग तो उन की इस बात के झांसे में भी आ चुके थे, लेकिन मैं जानती थी कि मेरी जेठानी अपनी जिंदगी के कम से कम 10 साल छिपा रही हैं.

मेरी जेठानी गुलशन कुछ दिनों से फेसबुक पर बड़ी ऐक्टिव नजर आ रही थीं. उन का अकाउंट खंगाला तो मालूम हुआ कि वे गुलफाम के नाम से फेसबुक पर अभी हाल ही में ऐक्टिव हुई हैं.

मुझे शरारत करने की सूझी. अनवर के नाम से मैं ने अपनी एक फेक आईडी बनाई और जेठानी के फोटो पर लाइक और कमैंट करने लगी. इस तरह 2 महीने बीत गए.

जेठानी की फालतू शायरी को पसंद करने वाले लोगों में उन के मायके वालों के अलावा बस एक अनवर ही था और यह अनवर कोई और नहीं, बल्कि मैं थी.

2 महीने बाद एक दिन यों ही मैं ने जेठानी के मैसेंजर में जा कर लिख दिया, ‘गुलफामजी… आप का असली नाम गुलशन है. मैं आप को स्कूल के वक्त से जानता हूं. आप बहुत खूबसूरत हैं… मैं आप को दिल दे बैठा हूं… अगर आप को यह मैसेज अच्छा न लगे, तो आप मुझे ब्लौक कर दीजिएगा…’

इस मैसेज को मेरी जेठानी गुलशन ने पढ़ा, लेकिन रिप्लाई नहीं किया. मुझे लगा कि वे अनवर को यानी मुझे ब्लौक करेंगी, लेकिन 2 दिन बाद रिप्लाई आ गया. उन्होंने लिखा, ‘अनवरजी… आप को जान कर हैरानी होगी कि मैं शादीशुदा हूं और मेरे 2 बच्चे हैं.’

मैं ने भी अनवर की ओर से झट से रिप्लाई दे दिया. मैं ने लिखा, ‘मैं यह सब जानता हूं गुलशनजी, फिर भी आप से प्यार करता हूं. जरूरी नहीं कि आप भी मुझ से इश्क करें, लेकिन मैं तो आप को हमेशा चाहता रहूंगा.

‘हम दोनों हाईस्कूल में एकसाथ पढ़ते थे, तभी से मैं आप से प्यार करता हूं. आप मुझे नहीं जानती हैं, लेकिन मैं तो आप को पहचान गया था. आई लव यू गुलफामजी.’

इस मैसेज के बाद तो मुझे पक्का यकीन था कि मेरी जेठानी मुझे ब्लौक कर देंगी. लेकिन शाम को ही उन का रिप्लाई आया. उन्होंने लिखा, ‘मैं तो तुम्हें नहीं पहचान पा रही. हाईस्कूल के समय का अगर कोई फोटो हो, तो मुझे भेजो… शायद पहचान जाऊं.’

जेठानी के इस मैसेज के बाद मैं ने गूगल से किसी स्कूल की कुछ ग्रुप फोटो को ढूंढ़ा और जेठानी के इनबौक्स में सैंड करते हुए लिखा, ‘गुलशनजी, इन फोटो को देख कर याद करो. और अगर याद न आए तो मुझे भूल जाओ, लेकिन मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा.’

शाम को जब मेरी जेठानी गुलशन मेकअप के लिए मेरी दुकान पर आईं, तो मैं ने उन से यों ही पूछा, ‘‘गुलशन बाजी, आजकल आप फेसबुक पर काफी ऐक्टिव नजर आ रही हैं. लगता है कि फेसबुक पर भी आप के दीवानों की कोई कमी नहीं है.’’

जेठानी गुलशन बोलीं, ‘‘बस यों ही खाली बैठ कर क्या करूं, तो फेसबुक पर ही थोड़ा समय दे देती हूं.’’

पूरे दिन मेरी ननद आएशा मेरे साथ मेरी दुकान पर ही रहती. आएशा का बौयफ्रैंड नौशाद जब भी उसे मिलने के लिए बुलाता, वह मुझे बता कर दुकान से निकल जाती.

दुकान खुलने के बाद से हम दोनों ननदभौजाई में काफी बनने लगी थी. मैं आएशा से अपने दिल की बातें शेयर करती, तो वह भी मुझे अपने इश्क की सारी बातें बताती.

आएशा और नौशाद की जोड़ी काफी अच्छी थी. जाति के अलावा दोनों की शादी में कोई अड़चन नहीं थी. मैं किसी तरह के जातिवाद को नहीं मानती थी. मेरे शौहर जुनैद को भी ये सब बातें फिजूल की लगती थीं, लेकिन बात जब आएशा की शादी की होती, तो मेरे जेठ समेत पूरे घर वालों के अंदर का जातिवाद जाग जाता.

बड़े भैया जावेद अली को अपने अशरफ मुसलमान होने का खासा गुरूर था. जेठानी गुलशन भी अपनी ऊंची जाति पर घमंड रखती थीं. समस्या यह थी कि आएशा का बौयफैं्रड नौशाद जाति से पसमांदा था.

एक दिन नौशाद कुछ किताबें देने के बहाने घर आया हुआ था और मेरी जेठानी ने नौशाद को आएशा के साथ घर में देख लिया था. नौशाद की जाति के बारे में जान कर गुलशन आगबबूला हो गई थीं और नौशाद को बेइज्जत कर घर से निकाल दिया था.

अगले दिन मैं अपनी दुकान पर एक महिला कस्टमर की थ्रैडिंग में लगी थी कि इनबौक्स में जेठानी का मैसेज देखा और मैं सामने बैठी महिला की थ्रैडिंग छोड़ कर जेठानी का मैसेज खोल कर पढ़ने लगी.

जेठानी गुलशन ने लिखा था, ‘अनवर, हाईस्कूल का फोटो देख कर मैं तुम्हें पहचान गई. आजकल क्या कर रहे हो?’

मैं ने रिप्लाई किया, ‘गुलशनजी, आजकल मैं दिल्ली में ही हूं. यहीं नौकरी कर रहा हूं और मुझे पता है कि आप भी द्वारका में ही रहती हैं. मैं ने भी आप के नजदीक ही फ्लैट लिया हुआ है. चाहो तो कल शाम को हम द्वारका सैक्टर 9 के पार्क में मिल सकते हैं.’

मैसेज के सैंड होने तक सामने बैठी महिला की आवाज मेरे कानों में आई, ‘‘मुझे जल्दी है. शाम को हमें शादी में जाना है.’’

मैं ने तुरंत फेसबुक बंद किया और अपने काम में लग गई.

थोड़ी देर में जेठानी का रिप्लाई आया कि कल शाम को वे सैक्टर 9 के पार्क में पहुंच जाएंगी.

अपने ब्यूटीपार्लर से थोड़ी फुरसत निकाल कर मैं बहाने से गुलशन के घर में गई, ताकि उन के चेहरे पर अनवर से इश्क की खुमारी को देख सकूं.

जेठानी अपने किचन में थीं. मैं ने कहा, ‘‘बाजी, आप के फ्रिज में दही हो, तो थोड़ी सी दो, मुझे दही की जरूरत है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘फ्रिज में दही पड़ी होगी, निकाल लो.’’

फ्रिज से दही निकालते हुए मैं बोली, ‘‘कल फेसबुक पर जो आप ने अपना फोटो डाला है न. गजब लग रही हैं आप. मैं ने उस लाइक भी किया है.’’

मेरे मुंह से अपनी तारीफ सुन कर जेठानी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘मैं आजकल थोड़ी मोटी हो गई हूं. मेरा मोटापा फोटो में साफ झलक रहा है.’’

मैं बोली, ‘‘अरे, नहीं दीदी. आप के जैसी फिगर तो हीरोइनों की भी नहीं है.’’

यह सुन कर गुलशन और जोर से मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘अरे, नहीं रेहाना. थोड़ी सी तो मोटी हो गई हूं, इसलिए सोच रही हूं कि कल शाम को तुम से थ्रैडिंग करवाने के बाद जौगिंग पर निकलूं. द्वारका सैक्टर 9 वाला पार्क यहां से कितनी दूर है?’’

जेठानी के मुंह से यह सुन कर मैं हैरान रह गई. मैं ने कहा, ‘‘नजदीक ही है. बाहर से बैटरी वाला रिकशा पकड़ लेना, 10 रुपए लेगा और द्वारका सैक्टर 9 के पार्क पर छोड़ देगा.

‘‘ऐसा करना, जब आप निकलो तो मुझे भी बता देना. मैं भी आप के साथ जौगिंग पर चलूंगी. तब तक आएशा दुकान संभाल लेगी.’’

जेठानी ने कहा, ‘‘मैं कल शाम को अकेली जा कर पहले पार्क का मुआयना कर आती हूं रेहाना. उस के अगले दिन से हम दोनों साथ चलेंगे…’’

जेठानी की बातों से मैं समझ गई थी कि मेरा तीर बिलकुल सही निशाने पर लगा है. मैं अपने घर पर लौट आई और सीधे दुकान पर गई, तो वहां आएशा एक औरत का मेकअप कर रही थी.

रात के 9 बज चुके थे और मेरे शौहर भी घर आ चुके थे, इसलिए मैं ने आएशा से दुकान बंद करने को कहा और अपने कमरे में आ गई, जहां मेरे शौहर रात का खाना खाने बैठ चुके थे.

मुझे कमरे में देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘आएशा की शादी के लिए भैया ने अपनी कंपनी के मैनेजर से बात की है. उन के मैनेजर का एक बेटा अनवर है, जो बैंगलुरु में रहता है और अनवर इस वक्त दिल्ली आया हुआ है.’’

आएशा दुकान बंद कर अपने कमरे की ओर जा ही रही थी कि उस ने अपने भैया की बात सुन ली और यह सुन कर उस के कान खड़े हो गए. वह मेरे कमरे में आई और मेरी ओर देखने लगी.

‘‘मैं ने अपने शौहर जुनैद से कहा, ‘‘आएशा की शादी के लिए भैया को इतनी जल्दी क्यों है? अभी वह पढ़ रही है, साथ ही मेरे साथ ब्यूटीशियन का काम भी सीख रही है. फिर आएशा की शादी की जिम्मेदारी तो हमारे जिम्मे है, वे क्यों इतना टैंशन लेते हैं?

‘‘शादी का खर्च हमारे जिम्मे है, इस का यह मतलब नहीं कि भैया आएशा की शादी के बारे में न सोचें… आएशा उन की भी बहन है… भैया को लगता है कि आएशा की जल्द शादी न हुई तो…’’

मैं अपने शौहर की बात को बीच में ही काटते हुए बोल पड़ी, ‘‘तो वह भाग जाएगी और भैया की नाक कट जाएगी… यही न…’’

तभी आएशा अपने भैया के करीब आ गई और बोली, ‘‘भैया, आप बड़े भैया को किसी तरह समझा दीजिए… बड़े भैया को अपनी इज्जत की ज्यादा फिक्र है न… तो आप से वादा कर रही हूं कि मैं किसी के साथ भाग कर शादी नहीं करूंगी… लेकिन, मेरा रिश्ता कहीं और होगा, तो मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी.’’

जुनैद ने अपनी छोटी बहन की बात सुन कर उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘तू क्यों टैंशन ले रही है… तेरी शादी नौशाद से ही होगी… तू नौशाद से बोल कि वह अपने घर वालों को राजी करे.’’

आएशा बोली, ‘‘नौशाद और उस के घर वाले तो हमारी शादी के लिए कब से तैयार बैठे हैं… वे तो जब आप लोग कहेंगे, तब रिश्ता ले कर यहां पहुंच जाएंगे.’’

अगले दिन रविवार होने की वजह से दोनों भाइयों की छुट्टी थी. सुबहसुबह ही मेरे जेठ और मेरी जेठानी दोनों मेरे घर आ गए और आएशा के रिश्ते के बारे में बताने लगे.

जेठ बोले, ‘‘अनवर बहुत अच्छा लड़का है. मेरे मैनेजर का एकलौता बेटा है वह… बैंगलुरु में रहता है और एक अच्छी कंपनी में है… अभी वह दिल्ली आया हुआ है… आज दोपहर तक मैनेजर बाबू अपनी बीवी और बेटे अनवर के साथ आएशा को देखने के लिए यहां आ रहे हैं…

‘‘मेरे घर में ही उन लोगों की खातिरदारी का इंतजाम हो जाएगा… जब वे लोग आ जाएंगे, तो तुम दोनों मियांबीवी आएशा को ले कर मेरे घर ही आ जाना.’’

आएशा ने जब यह सुना, तो उस का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. वह अपने कमरे में जा कर रोने लगी. मैं उसे समझाने उस के कमरे में गई और बोली, ‘‘आएशा, तू अपनी भाभी पर भरोसा कर. तेरी शादी नौशाद से ही होगी.’’

आएशा रोते हुए बोली, ‘‘लेकिन, कैसे भाभी…? बड़े भैया तो अनवर से मेरी शादी तय कर रहे हैं. दुनिया में ऐसा कोई नहीं है, जो बड़े भैया को समझा सके.’’

मैं ने आएशा के ऊपर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘एक आदमी है, जो तुम्हारे भैया को समझा सकता है.’’

आएशा बोली, ‘‘कौन…?’’

मैं बोली, ‘‘तुम्हारी बड़ी भाभी गुलशन…’’

आएशा ने कहा, ‘‘लेकिन, गुलशन भाभी खुद ही घोर जातिवादी हैं. वे कहती हैं कि अपने से नीची जाति में शादी करने वाले की औलादें दोजख में जाती हैं. वे कैसे नौशाद से मेरी शादी के लिए राजी होंगी…? आप भूल गईं कि उस दिन कितना ड्रामा किया था बड़ी भाभी ने…’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम अपने दिमाग पर ज्यादा जोर मत दो. सब मुझ पर छोड़ दो और बड़े भैया के घर जाने के लिए तैयार हो जाओ.’’

आएशा को मुझ पर पूरा भरोसा था, इसलिए वह बड़े भैया के घर जाने के लिए राजी हो गई. बड़े भैया के मैनेजर दोस्त के लड़के का नाम भी अनवर था, यह जान कर मेरे शैतानी दिमाग में एक जबरदस्त आइडिया घूमने लगा.

मैं ने अपनी जेठानी को मैसेज टाइप किया, ‘गुलशनजी, कल शाम पार्क का प्लान कैंसिल समझिए, क्योंकि मुझे अपने मांबाप के साथ द्वारका सैक्टर 2 में लड़की देखने जाना है, वहीं शाम हो जाएगी.’

इस मैसेज के सैंड होने के बाद जेठानी का तुरंत रिप्लाई आया, ‘द्वारका सैक्टर 2 में आप किस के यहां जा रहे हैं?’

मैं ने लिखा, ‘जावेद अली के यहां.’

जेठानी ने लिखा, ‘जावेद अली तो मेरे हसबैंड हैं… दरअसल, आप मेरी ननद आएशा को देखने आ रहे हैं.’

मैं ने अनवर बन कर लिखा, ‘ओह… गुलशनजी… असल में मैं कहीं शादी करना नहीं चाहता, क्योंकि मैं सिर्फ आप से प्यार करता हूं, लेकिन क्या करूं? यह बात मैं अपने पेरेंट्स को कैसे समझाऊं? घर वाले जबरदस्ती मुझे लड़की देखने ले जा रहे हैं…

‘देखिए, मैं आप की ननद से शादी नहीं कर सकता. कल दोपहर आप के घर आऊंगा जरूर. इसी बहाने आप के दीदार भी हो जाएंगे…’

जेठानी गुलशन ने लिखा, ‘आएशा मेरे जितनी खूबसूरत तो नहीं है, लेकिन बहुत ही अच्छी लड़की है. चाहो तो उसे पसंद कर लेना.’

मैं ने लिखा, ‘मैं आप के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता… जो आप ने कल फेसबुक पर फोटो डाला था न… हो सके तो कल वही पीली वाली साड़ी पहन लेना.’

दोपहर तक आएशा और मैं तैयार हो कर बगल में जेठानी के घर पहुंच चुके थे. मेरी जेठानी ने पीली साड़ी पहनी हुई थी, जिस में वे बड़ी खूबसूरत लग रही थीं.

थोड़ी देर में ही घर के बाहर एक कार आ कर रुकी. उस में एक जवान लड़के के साथ 2-3 लोग और थे. वे अनवर और उस के मम्मीपापा थे.

अनवर काफी हैंडसम लग रहा था. अनवर को देखते ही मेरी जेठानी मचलने लगीं. किसी न किसी बहाने बारबार वे अनवर के सामने जातीं. मेरे सासससुर, जेठ और मेरे पति ड्राइंगरूम में बैठे हुए थे. अनवर के मम्मीपापा भी सामने ही बैठे थे.

थोड़ी देर में मेरी जेठानी भी अनवर के बिलकुल सामने बैठ गईं. मेहमानों की खातिरदारी अब मेरी और आएशा की जिम्मेदारी थी.

मेरे सासससुर को अनवर पसंद आया और अनवर के घर वालों को भी आएशा पसंद आ गई. लड़के वालों ने मेरे जेठ से कुछ वक्त मांगा और सभी विदा होने लगे. जेठानी तो अनवर के इर्दगिर्द से हट ही नहीं रही थीं.

सभी के चले जाने के बाद घर में देर तक अनवर और उस के परिवार वालों की बातें होती रहीं. मेरे जेठ तो अनवर के परिवार की तहजीब की बड़ाई करते थक नहीं रहे थे. लेकिन जेठानी खामोश थीं. वे न जाने किन खयालों में खोई हुई थीं. शायद इश्क का बुखार कुछ ज्यादा ही चढ़ गया था उन पर.

मैं वाशरूम में गई और जेठानी को एक मैसेज टाइप करते हुए लिखा, ‘गुलशन, मेरी जान… तुम तो गजब लग रही थी आज… तुम्हें देखने के बाद से मैं तो पागल हो गया हूं… मेरे घर वालों को आएशा पसंद है… इस वक्त कार में बैठे मेरे मम्मीपापा तुम्हारे घर के बड़प्पन की ही बातें कर रहे हैं…

‘मैं आप के प्यार में इस कदर डूब चुका हूं कि आप मुझे हर जगह पीली साड़ी में नजर आ रही हैं… ऐसा कुछ कीजिए न कि यह शादी न हो पाए. आई लव यू.’

जेठानी को मैसेज टाइप कर मैं ड्राइंगरूम में आई, तो जेठानी अपने चेहरे पर मुहब्बत की ताजगी लिए अनवर के मैसेज में गुम थीं.

मैं ने जेठानी से पूछा, ‘‘दीदी, आप को लड़का कैसा लगा?’’

वे बोलीं, ‘‘मैं क्या बोलूं? कुछ कहूंगी, तो तुम्हारे जेठजी को मिर्ची लग जाएगी.’’

वहीं बैठे जेठजी बोले, ‘‘अरे, बोलो गुलशन… तुम्हें यह रिश्ता पसंद नहीं आया क्या?’’

मेरी जेठानी बोलीं, ‘‘रिश्ते में कोई कमी नहीं है, लेकिन कभी आप ने आएशा के मन की बात जानने की कोशिश की है…? वह नौशाद से प्यार करती है… नौशाद हमारी आएशा के लिए एकदम अच्छा लड़का है… मैं तो मिली भी हूं उस से… लेकिन, तुम्हारे सिर पर जातिवाद का भूत चढ़ा है, इसलिए इतने अच्छे लड़के को तुम नकार रहे हो…’’

मेरी जेठानी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मेरे शौहर जुनैद तो हैरान थे ही, आएशा उन से ज्यादा हैरान थी. वह अपनी बड़ी भाभी का यह रूप देख कर हैरानी भरी मुसकान के साथ मेरी ओर देखने लगी.

मेरे सासससुर भी मेरी जेठानी की बातों से सहमत नजर आने लगे थे. कुछ ही देर में मेरी सास अपनी जगह से उठीं और अपने बड़े बेटे के हाथों को पकड़ कर बोलीं, ‘‘आएशा के लिए नौशाद ही बेहतर रहेगा बेटा… जिद छोड़ दे… और नौशाद से ही इस का रिश्ता पक्का कर दे.’’

थोड़ी देर सोचने के बाद भैया बोले, ‘‘जब घर में सभी की राय एक है, तो फिर मैं ही तहजीब का बोझ क्यों ढोता फिरूं?

‘‘आएशा, तू अगले संडे नौशाद के घर वालों को आने के लिए बोल दे… मैं अपने मैनेजर दोस्त को समझा दूंगा कि वह अनवर के लिए कोई दूसरी लड़की ढूंढ़ ले.’’

खुशीखुशी हम तीनों अपने घर लौट आए. घर आते ही आएशा मुझ से लिपट गई और बोली, ‘‘भाभी, तुम ने बड़ी भाभी गुलशन पर ऐसा कौन सा जादू कर दिया था कि उन के अंदर का जातिवादी जहर गायब हो गया? उन के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है.’’

मैं मुसकराते हुए बोली, ‘‘आएशा, तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है… अपने कमरे में जाओ और नौशाद को खुशखबरी दे दो.’’

अगले दिन सुबहसुबह मोबाइल देखा, तो जेठानी के ढेर सारे मैसेज से इनबौक्स भरा हुआ था. आखिरी मैसेज रात के ढाई बजे का था. अनवर की मुहब्बत में डूबी मेरी जेठानी की रातों की नींद गायब हो चुकी थी.

रात ढाई बजे वाले आखिरी मैसेज में जेठानी ने अपनी मुहब्बत का इजहार करते हुए एक घिसापिटा सा शेर लिखा था :

‘हसीन ख्वाब से सोहबत हो गई है,
मुझे भी तुम से मुहब्बत हो गई है.
सुबह जब उठो तो रिप्लाई देना,
तुम से मिलने की हसरत हो गई है.’

मैं ने अनवर की ओर से रिप्लाई दिया, ‘गुलशन, मेरी जान… तुम्हारा मैसेज पढ़ कर मैं कितना खुश हूं, बता नहीं सकता… बस आज शाम तक का इंतजार करो… आज मुझे फिर एक जगह लड़की देखने जाना है… वहां से लौटते ही मैं तुम्हें मिलने की जगह बताऊंगा.’

जेठानी ने झट से रिप्लाई किया, ‘अब फिर से लड़की देखने क्यों जा रहे हो? मुझे अपना फोन नंबर दो…’

मैं ने लिखा, ‘शाम को मिलेंगे, तो सारी बात बता दूंगा…’

इस मैसेज को टाइप करने के बाद मैं बारबार जेठानी के यहां मुहब्बत में उन की बेकरारी का दीदार करने पहुंच जाती. वे मुझे मोबाइल में ही घुसी हुई मिलती थीं. उन्होंने पूरे दिन अनवर यानी मुझे मैसेज किया, लेकिन मैं ने कोई रिप्लाई नहीं किया… शाम हुई, तो जेठानी पीली साड़ी में सजधज कर तैयार हो चुकी थीं.

मैं उन के पास गई और बोली, ‘‘बाजी, कहीं जाने का इरादा है क्या आज?’’

वे बोलीं, ‘‘हां, बाजार तक जा रही हूं… संडे को नौशाद के घर वाले आएंगे, तो उन्हें देने के लिए कुछ शगुन वगैरह तो चाहिए ही न…’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं भी आप के साथ चलूं क्या?’’

वे बोलीं, ‘‘आज नहीं… कल फिर जाऊंगी, तो तुम्हें ले चलूंगी…’’

जेठानी अपने उस आशिक का इंतजार कर रही थीं, जो असल में कहीं था ही नहीं. अब जेठानी के दिमाग पर चढ़े इश्क के भूत को उतारने का समय आ गया था. मैं अपने घर आई और मैं ने मैसेंजर औन किया, जो जेठानी के बेचैनी भरे मैसेज से भरा हुआ था.

मैं ने लिखा, ‘मिलने का प्लान फिर से कैंसिल…’

जेठानी ने तुरंत रिप्लाई किया, ‘क्यों, क्या हुआ? तुम घर नहीं पहुंचे क्या अभी तक?’

मैं ने लिखा, ‘मैं जो आज लड़की देख कर आ रहा हूं, वह मुझे भा गई है… पीली साड़ी में वह क्या मस्त लग रही थी… मैं तो पहली नजर में उसे देखते ही अपना दिल गंवा बैठा गुलशनजी… आज शाम को मैं उसी से मिलने जा रहा हूं… आप को जान कर हैरानी होगी कि उस लड़की का नाम भी गुलशन है… आई लव यू गुलशन…’

तुरंत ही रिप्लाई आया, ‘मेरी मुहब्बत का क्या होगा अनवर… तुम ने मुझे बहुत बड़ा धोखा दिया है…’

मैं ने लिखा, ‘तुम बहुत मोटी हो… जौगिंग करो और फिट हो जाओ… पीली साड़ी में तुम सरसों के खेत में खड़ी भैंस लगती हो… यह उम्र बच्चों को संभालने की है… इतने अच्छे हसबैंड के होते हुए इधरउधर मुंह मारना अच्छी बात नहीं है… बच्चों को पढ़ने दो और उन्हें इश्क करने दो… शायद, अब मैं तुम्हें कभी न मिलूं… अपना खयाल रखना गुलशनजी…’

यह मैसेज टाइप करने के आधे घंटे बाद मैं जेठानी गुलशन के पास गई… देखा तो हालात बदल चुके थे. इश्क का भूत पूरी तरह उतर चुका था.

जेठानी पहले की तरह सूटसलवार में थीं और सिर पर हाथ रखे हुए सोफे पर बैठी थीं. मेरे वहां जाते ही जेठानी ने मुझ से कहा, ‘‘फेसबुक डिलीट करना है. कैसे होगा?’’

मैं ने कहा, ‘‘क्यों बाजी? फेसबुक से तो आप को बड़ा प्यार था. अब क्या हुआ?’’

जेठानी गुलशन गुस्से में बोलीं, ‘‘यह प्यारव्यार कुछ नहीं होता रेहाना… सब फालतू की बातें हैं… धोखेबाजों की इस दुनिया में अपना घरपरिवार ही सब से बड़ी चीज होती है… फेसबुक पर समय खराब करने से अच्छा है कि मैं अपने परिवार को वक्त दूं.’’

Hindi Story: प्रमोशन

Hindi Story: आज फिर मुझे दफ्तर जाने में देर हो गई. पिछले 4 दिन से मैं लगातार देर से दफ्तर पहुंच रहा हूं. रोजाना की तरह साहब आज फिर नाराज होंगे, डांटेंगे और तांबे सा चेहरा बना कर कहेंगे, ‘नईनई शादी क्या हुई, रोज दफ्तर में देर से आने का नियम बना लिया. बीवी का पल्लू नहीं छूटता, तो नौकरी से इस्तीफा दे दो. न कोई सुनने वाला, न कोई कहने वाला.’

यह सच है कि मेरी शादी हुए अभी महीना भी नहीं हुआ है. दफ्तर पहुंचा, तो दस्तखत रजिस्टर अपनी तय जगह पर नहीं रखा था. बड़े बाबू से उस के बारे में पूछा, तो बड़े बाबू ने कहा कि साहब ने रजिस्टर अपने केबिन में मंगा लिया है. साहब ने कहा है कि जब भी आप आएं, पहले केबिन में भेज दें.

तब मैं दबे कदमों से बड़े साहब के केबिन में पहुंचा.

दरवाजे पर बैठा चपरासी मुझे देख कर मुसकराया. उस की कुटिल मुसकान से मैं समझ गया कि बड़े साहब मुझ से बहुत नाराज हैं.

जब मैं परदा हटा कर बड़े साहब के केबिन में पहुंचा, तब बड़े साहब मुझे खा जाने वाली निगाहों से देख रहे थे.

मैं एक अपराधी की तरह गरदन झुकाए बड़े साहब के सामने चुपचाप खड़ा था. वे गुस्से से चिल्ला कर बोले, ‘‘मिस्टर कमल सक्सेना, यह सरकारी दफ्तर है, तुम्हारा घर नहीं है. 4 दिन हो गए, तुम्हें देर से आतेआते. आज कौन सा बहाना बनाओगे?’’

तब बड़े साहब की बात का मैं कोई जवाब नहीं दे पाया. मैं अपराधी की मुद्रा में इसलिए खड़ा रहा कि गलती मेरी है कि क्यों देर से आया?

बड़े साहब फिर बोले, ‘‘मगर, आज तो तुम्हें देर से आने की सजा मिलेगी. उस सजा की अगर भरपाई नहीं करोगे, तब तुम्हारे होने वाले प्रमोशन को मैं रुकवा भी सकता हूं.’’

इतना कह कर साहब ने मेरी तरफ देखा, फिर पलभर रुक कर बोले, ‘‘क्या मेरे द्वारा दी गई सजा भुगतने को तैयार हो? बोलो, चुप क्यों हो?’’

‘‘मिस्टर कमल, कान खोल कर सुन लेना. आज की रात अपनी नईनवेली दुलहन को रैस्टहाउस में ले कर आ जाना, केवल 2 घंटे के लिए. मैं ठीक रात 8 बजे वहां इंतजार करूंगा. यही तुम्हारे देर से आने की सजा है.’’

तब मैं गरदन हिलाते हुए रजिस्टर पर दस्तखत कर अपने केबिन में आ कर बैठ गया, मगर मेरा मन फाइलें निबटाने में नहीं लगा.

बड़े साहब की सजा मेरे लिए गले की फांस बनी हुई थी. उन का ऐयाश चेहरा सारे दफ्तर के बाबू जानते हैं.

दफ्तर की प्रतिभा मैडम और शोभा मैडम कई बार साहब की ऐयाशी की शिकार हुई हैं. तभी बड़े साहब उन दोनों से कुछ नहीं कहते हैं.

अगर मैं अपनी पत्नी को बड़े साहब के पास रैस्टहाउस नहीं ले जाऊंगा, तब प्रमोशन में मेरी गलतियां लिख कर प्रमोशन रुकवा सकते हैं.

अपने प्रमोशन के लिए मुझे पत्नी की इज्जत दांव पर लगानी पड़ेगी. यह अपराध कर के मैं अपनी पत्नी की निगाह में गिरना नहीं चाहता. इस समय मैं अभिमन्यु की तरह ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया हूं, जहां से निकलने का रास्ता ही नहीं दिख रहा.

तब मेरा ध्यान सुबह वाली घटना पर चला गया. जब दफ्तर जाने के लिए मेरे कदम जल्दीजल्दी उठ रहे थे, एक खूबसूरत भिखारिन, जो मटमैले कपड़े पहने थी, मगर थी जवान. वह हर उस जवान आदमी के आगे हथेली फैला कर 10-20 रुपए मांग रही थी. कुछ मनचले उस की 50 या 100 रुपए का नोट रख कर हथेली को छू रहे थे.

वह फटी गंदी साड़ी पहने हुए थी. बाल बिखरे हुए थे. वह उस के पीछेपीछे 10-20 रुपए की रट लगाती हुई चल रही थी.

दफ्तर जाने में देरी हो जाने के चलते मैं जल्दीजल्दी अपने कदम बढ़ा रहा था. मैं ने कई बार उसे दुत्कार दिया था. फिर भी वह मेरे पीछेपीछे चली आ रही थी.

तब मैं रुका और पीछे मुड़ कर गुस्से से बोला, ‘‘कह दिया न कि मेरे पास पैसे नहीं हैं, फिर भी तू बेशर्मी से मेरे पीछेपीछे चली आ रही है.

‘‘आप काहे को झूठ बोलते हो बाबूजी…’’ मेरी झिड़की सुन कर भी वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘आप के पास पैसे नहीं हैं, यह मैं मान ही नहीं सकती.’’

‘‘अरे, तू हट्टीकट्टी हो कर भी भीख क्यों मांग रही हैं? तुझे जरा भी शर्म नहीं आती.’’

‘‘काहे की शरम बाबूजी. जो करे शरम, उस के फूटे करम,’’ उस ने लापरवाही से जवाब दिया.

‘‘अरे, तेरे हाथपैर सहीसलामत हैं, मेहनतमजदूरी कर.’’

‘‘बाबूजी, दे दो न. 10-20 रुपए देने से आप गरीब नहीं हो जाएंगे,’’ मेरी झिड़की के बावजूद भी वह बड़ी बेशर्मी से बोली.

‘‘अजीब औरत है, जो भीख के लिए मेरे पीछे ही पड़ी हैं,’’ जेब से 10 रुपए निकाल कर मैं उसे देते हुए बोला, ‘‘ले पिंड छोड़ मेरा, पैसों के लिए पीछे ही पड़ी हुई है,’’ कह कर मैं तो चल दिया, तब वह औरत मेरा रास्ता रोकते हुए बोली, ‘‘बाबूजी, मेरी आप को रात के लिए जरूरत पड़े, तब आप जहां बुलाएंगे, आ जाऊंगी. मेरा घर स्टेशन के पास झोंपड़पट्टी में है. मेरा नाम कमली है.’’

मैं तो बिना जवाब दिए आगे बढ़ गया. क्या नाम बताया था कमली? उसे अपनी पत्नी बना कर बड़े साहब के पास रैस्टहाउस में छोड़ आऊं. अभी बड़े साहब ने पत्नी को देखा कहां है. शादी की पार्टी के दिन वे दौरे पर चले गए थे. क्यों न उसी कमली से बात कर ली जाए.

शाम को छुट्टी होने के बाद मैं घर जाने के मूड में कतई नहीं था. स्टेशन पर चलना चाहिए और उस कमली को ढूंढ़ना चाहिए. मैं ने पत्नी को फोन किया. दफ्तर में काम ज्यादा होने के चलते मैं देर से घर आऊंगा.
जब मैं स्टेशन पर पहुंच कर जैसे ही झुग्गी बस्ती के पास पहुंचा कि झोंपड़ी के पास खड़ी वही सुबह वाली कमली मिल गई.

मैं तो पहचान नहीं पाया. सुबह वाली भिखारिन कमली और अब मेरे सामने खड़ी कमली में कितना फर्क है. इस समय सजधज कर खड़ी कमली रूप की मेनका लग रही थी.

तब वह मेरे पास आ कर बोली, ‘‘बाबूजी, मुझे नहीं पहचाना क्या आप ने? मैं सुबह वाली कमली हूं. मुझे मालूम था कि आप आओगे. बोलो, कहां ले चलोगे मुझे.’’

‘‘तुम ने मुझे कैसे पहचाना?’’ मैं ने कमली से पूछा.

‘‘जब सुबह आप से भीख मांगी थी, तभी मैं ने समझ लिया था,’’

कमली बोली, ‘‘फिर बाबूजी, भीख मांगने के पीछे मैं ग्राहक ढूंढ़ती हूं. कहिए, आप मुझे कहां ले जाएंगे.’’

‘‘मगर, ले जाने से पहले मेरी एक शर्त है?’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

‘‘तुम्हें मेरी पत्नी बन कर चलना होगा.’’

‘‘आप की ऐसी कौन सी मजबूरी है बाबूजी?’’

‘‘यह सब मैं अपनी मजबूरी बाद में बता दूंगा,’’ मैं बोला.

तब मैं ने कमली को अपने बारे में सबकुछ बताया.

तब कमली झोंपड़ी के भीतर गई. एक पत्नी बन कर आई, मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, कांच की हरी चूडि़यां, नई लाल साड़ी, कोई अनजान आदमी अगर देख ले, तो मेरी पत्नी ही समझे. क्योंकि इस की कीमत कमली ने पहले ही 2,000 रुपए तय की थी.

1,000 रुपए मैं पहले ही दे चुका था और 1,000 रुपए काम होने के बाद देने को कहा है.

तब तय समय के मुताबिक मैं कमली को पत्नी बना कर रैस्टहाउस में ले गया. बड़े साहब उसी का इंतजार कर रहे थे. बड़े साहब ने मुझे 2 घंटे बाद दोबारा बुलाया, ताकि मैं उसे ले जा सकूं.

मैं 2 घंटे इधरउधर भटकता रहा. इस समय कमली मेरे लिए सहारा बन कर आई. ढाई घंटे बाद जब मैं वापस रैस्टहाउस गया, बड़े साहब मेरा ही इंतजार कर रहे थे.

मैं कमली को ले कर सड़क पर आ गया. एकांत पा कर कमली बोली, ‘‘बाबूजी, मैं ने आप के बड़े साहब को खुश कर दिया.’’

‘‘हां कमली, तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद,’’ जब मैं ने यह कहा, तब वह बोली, ‘‘कमली किसी का धन्यवाद नहीं लेती बाबूजी. इस पेट की खातिर मुझे यह सब करना पड़ रहा है. आप तो 1,000 रुपए दीजिए, ताकि मैं दूसरे ग्राहक ढूंढ़ सकूं.’’

मैं ने तत्काल 1,000 रुपए कमली को दे दिए. कमली रुपए ब्लाउज में खोंसते हुए बोली, ‘‘कभी फिर पत्नी बनने की जरूरत पड़े, तो मैं तैयार हूं.’’

मैं ने गरदन हिला कर रजामंदी दी. फिर हम दोनों के रास्ते जुदा हो गए.

अब जब भी मैं देर से दफ्तर पहुंचता हूं, बड़े साहब मुझे कुछ नहीं कहते. अब वे मुझ से खुश रहने लगे हैं. 15 दिन के भीतर ही उन्होंने मेरा प्रमोशन कर दिया और मैं दूसरे शहर में चला गया.

मुझे कमली की आज भी याद आती है. अगर वह कमली पत्नी बन कर मेरी जिंदगी में नहीं आती, तब मेरा प्रमोशन आगे और टल जाता.

Hindi Story: भूलभुलैया

Hindi Story, लेखक – प्रशांत

बगल में चमड़े का थैला दबाए, एक हाथ में छतरी थामे हरिया गांव की पगडंडी से हो कर गुजर रहा था. वह हर रोज सुबह इसी रास्ते से हो कर गुजरता था. कुछ दूरी पर एक छोटा सा बाजार था. वह वहीं दिनभर जूते बनाता था और शाम को कमाई समेत बस्ता समेट कर वापस घर लौट आता था. दिन मजे में गुजर रहे थे.

रास्ते में गांव का एक मंदिर पड़ता था. सुबह जाते वक्त पूजनअर्चना और शाम को लौटते समय संध्या की आरती की आवाज हरिया के कानों में पड़ती, तो वह खुश हो जाता था.

हरिया ललचाई नजरों से मंदिर की ओर निहारता, परंतु पास फटकने की हिम्मत न होती. पुराने जमाने से ही उस के गांव की परंपरा थी कि छोटी बिरादरी के लोगों को मंदिर में घुसने का हक नहीं है. वह भी कोई हिमाकत कर बड़ी जातियों के गुस्से की आग में जलना नहीं चाहता था.

एक जमाना था, जब मंदिर की खूबसूरती देखते ही बनती थी. बड़ी अच्छी सजावट होती थी. सुबह से ही देर रात तक भजनकीर्तन चलता रहता था. परंतु जमींदारी प्रथा का अंत होते ही मंदिर की ओर से जमींदारों का ध्यान उचटने लगा. धीरेधीरे देखरेख ठीक से न होने के चलते मंदिर उजाड़ होने के कगार पर आ पहुंचा.

मंदिर के पुजारी रामप्रसाद पूजापाठ तो करते रहे, परंतु चढ़ावे में दिनोंदिन कमी ही होती गई. कल तक वे दूध, मलाई के भोग लगाते थे, परंतु अब रूखीसूखी से ही गुजारा करना पड़ रहा था.

वक्त यों ही गुजरता गया. एक दिन रामप्रसाद हरिया की दुकान पर पहुंचे. हरिया जूते बनाने में लीन था.

‘हरिया, ओ हरिया,’ की आवाज ज्यों ही हरिया के कानों में पड़ी, उस की नजरें ऊपर उठ गईं. एकबारगी तो उसे यकीन ही नहीं हुआ कि पंडित रामप्रसाद उस की दुकान पर पधारे हैं.

बड़ी मुश्किल से हरिया अपनेआप को संभाल पाया और दौड़ कर पंडितजी के चरण छुए, फिर एक कुरसी पर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘बड़ा अच्छा संयोग है कि आप के चरण इस गरीब की दुकान पर पड़े.’’

‘‘हरिया, तू तो बड़ा भाग्यशाली है रे. देखतेदेखते तू ने कितनी तरक्की कर ली. कहां टूटी सी झोंपड़ी में पहले पुराने जूते सिलाई करता था और आज इतनी बड़ी दुकान खड़ी कर ली,’’ पंडितजी ने अपना राग छेड़ा.

‘‘सब आप लोगों की कृपा है पंडितजी,’’ हरिया बड़ा ही हीन बनते हुए बोला.

पंडितजी तो जैसे इसी बात के इंतजार में थे. वे बोले, ‘‘अरे नहीं, सब भगवान की माया है भैया. हम और तुम कुछ नहीं. वह जब जिसे जो चाहे दे दे. जिस से जो चाहे ले ले…’’

फिर थोड़ा रुक कर पुजारी रामप्रसाद बोले, ‘‘हरिया, कभी तुम्हारी इच्छा नहीं होती कि तुम भी मंदिर में आ कर भगवान के दर्शन करो?’’

‘‘बहुत होती है पंडितजी, परंतु हमारे ऐसे भाग्य कहां? पुरखों से जो परंपरा कायम है, उसे तो निबाहना ही पड़ेगा.’’

‘‘कहते तो ठीक हो, पर धरमकरम करने का तो सब को अधिकार है. सभी ईश्वर की संतान हैं. सब को उन की सेवा करनी चाहिए.’’

जमाने के ठुकराए, सताए व दबाए गए लोगों की बिरादरी के एक आदमी को पंडितजी बड़ी सावधानी से पटा रहे थे. बड़ी चालाकी से उस के दिमाग में दकियानूसी विचारों की खुराक भरी जा रही थी.

पंडितजी पक्के खिलाड़ी थे. किस तरह लोगों को बहकाया जा सकता है, किस तरह उन का दोहन कर अपनी जेब भरी जा सकती है, यह पंडितजी को बखूबी मालूम था, वरना जिन पंडितों ने हरिया की बिरादरी को चांडाल कह कर मंदिर के अहाते में भी घुसने पर पाबंदी लगा दी थी, उन्हीं में से एक पंडित उसे अपने बराबर होने का एहसास क्यों करा रहा था?

लोगों की भावनाओं का गलत फायदा उठा कर अपना उल्लू सीधा करना पंडितों का पुराना हथकंडा रहा है.

हरिया गदगद हो उठा था. पंडितजी की बातों को सुन कर गले से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी.

पंडितजी आगे बोले, ‘‘कल भगवान ने मुझ से सपने में कहा कि हरिया मेरा भक्त है. उसे सही राह दिखाओ.

भैया, हम तो ठहरे उन के गुलाम. वे जो कहेंगे, मुझे तो करना ही पड़ेगा, वरना सोचो, क्या मैं तुम्हारे पास आ पाता? मंदिर चलाने वाले लोग मुझे क्या कहेंगे?’’

इस तरह की चिकनीचुपड़ी व चालाकी भरी बातों से पंडितजी ने हरिया को प्रभावित कर दिया. उस के अंदर जो शक की गुंजाइश थी, उसे भी खत्म कर दिया.

ठुकराए आदमी को जब मशहूर होने का मौका मिलता है, तो वह उसे किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहता. पंडितजी ने हरिया की दुखती रग को पहचान लिया था.

हरिया खुशी से फूला नहीं समा रहा था. किसी तरह अपने पर काबू रखते हुए हरिया बोला, ‘‘पंडितजी कहिए, मैं आप की क्या सेवा करूं?’’

‘‘मेरे जूते फट गए हैं भैया, जरा सिल दो.’’

‘‘छोडि़ए पंडितजी, कब तक इन फटे जूतों को घसीटते रहेंगे.’’

‘‘क्या करूं हरिया, काम चलाना ही होगा. फिर कभी देखेंगे.’’

‘‘नहीं पंडितजी, फिर कभी क्यों…? आज ही आप नए जूते ले जाइए,’’ कहते हुए हरिया जूते निकालने लगा.

‘‘रहने दे हरिया. अभी पैसे नहीं हैं. मुफ्त ले गया तो तुझे घाटा होगा.’’

‘‘उस की आप जरा भी फिक्र न करें पंडितजी. ये मेरी तरफ से दान समझ कर ले लें.’’

पंडितजी मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे. वे अपनी योजना में कामयाब जो हो गए थे.

अगले दिन जंगल की आग की तरह यह बात पूरे गांव में फैल गई. हर जबान पर यही चर्चा थी. लोग दबी जबान से हंसी भी उड़ा रहे थे, परंतु जब सपने वाली बात सुनी तो सब चुप्पी साध गए. डर था कि कहीं ईश्वर गुस्सा हो कर नुकसान न कर दें.

चाहे असलियत जो भी हो, धर्म से डरने वाले लोग ईश्वर पर अधिक विश्वास दिखाते हैं. यदि फायदा होता है, तो उस की वजह ऊपर वाले की मेहरबानी मानी जाती है और नुकसान के लिए अपनी किस्मत को दोषी मानते हैं. वे चाह कर भी भगवान को कोई दोष नहीं दे सकते और न ही भगवान के भजन से मुख मोड़ सकते हैं. उन्हें डर रहता है कि कहीं भगवान गुस्सा हो कर उन का नाश न कर डाले. संयोग से कभी कोई अनहोनी हो भी जाती है, तो वे उसे उसी का नतीजा मान बैठते हैं.

यह अंधभक्ति कोई जन्म से होने वाली लाइलाज बीमारी नहीं है. दरअसल, इस का जहर उस माहौल से मिलता है, जहां आदमी आंख खोलता है. चारों तरफ धर्म से डरने वाले लोगों की संगत होती है. ऐसे में वह कुछ अलग भला कैसे सोचे, जहां चारों ओर एक ही चीज देखनेसुनने को मिलती है?

शाम को पंडित बिरादरी की जमात बैठी. हरिया को पूजा करने दी जाए या नहीं, इसी मुद्दे पर बातचीत हो रही थी.

किसी ने कहा, ‘‘हरिया को पूजापाठ करने देना ब्राह्मण समाज की तौहीन होगी. हम किसी भी कीमत पर यह सहन नहीं कर सकते.’’

पंडित रामप्रसाद बोले, ‘‘शांत रहें. ईश्वर की यही इच्छा है. फिर से यज्ञ द्वारा पवित्र भी किया जाएगा. शास्त्रों के मुताबिक उसे शुद्ध करने के पश्चात ही पूजापाठ करने का अधिकार दिया जाएगा और इस अवसर पर वह ब्राह्मण भोज भी देगा.’’

भोज का नाम सुनते ही सब के मुंह में पानी आ गया. थोड़ी देर की भिनभिनाहट के बाद वे सभी राजी हो गए.

मोचियों की बिरादरी में हरिया ही सब से धनी आदमी था. फिर इज्जत बढ़ाने के लिए 2-4 हजार रुपए का खर्च वह आसानी से कर सकता था.

वह राजी हो गया. एक खास तिथि को हवनपूजन कर के उसे ‘पवित्र’ बना दिया गया. भोज में ब्राह्मणों ने छक कर हलवापूरी खाई.

पूरी मोची बिरादरी में केवल हरिया को ही पूजापाठ में भाग लेने का अधिकार मिला था. एक तो इस वजह से और दूसरी धनी होने के कारण भी पूरी बिरादरी में उस की पूछ कुछ ज्यादा ही होने लगी थी. वह अपनी जाति का बड़ा आदमी बन गया था.

देखते ही देखते काफी बदलाव आ गया. लोग उस की राय की कद्र करते. कोई भी काम हो, उस से पूछे बगैर नहीं होता था. वह जो कहता, पूरी बिरादरी के लोग मानते थे.

एक मेहनतकश कारीगर पूजापाठ में लग गया. उस का ज्यादा समय भजनपूजन में बीतने लगा. दुकान पर उस का बेटा सुखिया बैठने लगा. फिर पंडित रामप्रसाद की सलाह पर शुरू हुईं तीर्थयात्राएं. पंडितजी तो उस के गुरु बन ही चुके थे. उन्हें भी हरिया के खर्च पर तीर्थाटन का सौभाग्य मिल गया.

हरिया की प्रसिद्धी और बढ़ी. वह रोज पूजा का सामान मंदिर भेजता. पंडितजी भी मजे में थे. जब जो खाने की इच्छा हुई, हरिया उस की व्यवस्था कर पंडितजी को खुश करता रहता. इन कामों में बहुत अधिक खर्च हुआ और हरिया को जमीन गिरवी रख कर कर्ज भी लेना पड़ गया.

जब भी हरिया कुछ हिचकिचाता, पंडितजी उस की भावनाओं को कुरेदने लगते. फिर सबकुछ भुला कर हरिया पंडितजी के बताए अनुसार पूजापाठ में लगा रहा.

वह अब अपना ज्यादातर समय पंडितजी के साथ ही बिताने लगा. पंडितजी को भी बातचीत के लिए साथी मिल गया. हरिया पंडितजी की सेवा करता, कभी पैर दबाता तो कभी सिर की मालिश करता. उस की हालत एक बेमोल नौकर की तरह थी.

लगातार खर्च बढ़ने और आमदनी में कमी के कारण हरिया का परिवार गरीबी की चपेट में आने लगा. हरिया का अकेला बेटा सुखिया कितना कमा पाता? बापबेटे दोनों कमाते, तो शायद दोगुनीतिगुनी तरक्की करते.

एक दिन सुखिया बोला, ‘‘पिताजी, सारा दिन यों ही पूजापाठ में बिताने के बजाय यदि आप मेरे साथ दुकान में काम करें, तो हमारी आय दोगुनी हो जाएगी. परिवार की हालत अच्छी हो जाएगी.’’

हरिया ने उपदेश के लहजे में जवाब दिया, ‘‘अरे बेटा, मुझ बूढ़े की क्या है? ईश्वर की कृपा बनी रही तो अपने आप ही बरकत होती जाएगी. ईश्वर की कृपा ही काफी है. पूजापाठ छोड़ दूं, तो भगवान नाराज हो जाएंगे. हमारा सर्वनाश हो जाएगा.’’

हरिया को बारबार पंडितजी का कहना याद आ रहा था, ‘‘ईश्वर को नाराज मत करना, नहीं तो नाश हो जाएगा.’’

सुखिया ने बहस करना ठीक नहीं समझा. वह चुपचाप अपना काम करता रहा, परंतु उतना कमा नहीं पाता था कि परिवार का भरणपोषण और पूजापाठ का खर्च चला कर गिरवी खेत छुड़ाए जा सकें.

2 साल गुजर गए. अचानक एक अनहोनी हो गई. एक रात बाजार की एक दुकान में आग लग गई. देखते ही देखते कई दुकानें जल कर राख हो गईं. उन में हरिया की दुकान भी थी.

यह खबर सुनते ही हरिया दौड़ता हुआ दुकान के पास गया. दुकान की ऐसी हालत देख कर वह रो पड़ा. अब परिवार की रोजीरोटी कैसे चलेगी, उस की समझ में नहीं आ रहा था.

जब साहूकार ने सुना कि हरिया की दुकान जल गई है, तो उस ने खेत भी जोत लिए, क्योंकि अब कर्ज वापस कर पाने की उम्मीद नहीं थी. भला वह लंबे अरसे तक इंतजार क्यों करता.

पंडितजी भी वहां जा पहुंचे. हिम्मत बंधाते हुए हरिया से बोले, ‘‘शांत हो जा हरिया, शांत हो जा. ईश्वर की इच्छा के खिलाफ हम कुछ नहीं कर सकते. उन की यही मरजी थी. तेरे नसीब में यही लिखा था.’’

हरिया उबल पड़ा, ‘‘क्या दिया है ईश्वर ने मुझे? आज तक मैं उस की सेवा करता रहा, उस के गुण गाता रहा, कर्जे लेले कर तीर्थ किए, चढ़ावे चढ़ाए. मैं तो उस का भक्त था. फिर मेरी दुकान क्यों जल गई? क्यों लुट गया मैं? मेरी जमीन क्यों चली गई?’’

अब बचा ही क्या था, जिस का नाश होने का डर हरिया को पूजापाठ के नाम पर पंडित की गुलामी करने के लिए बांधे रखता. उस ने पंडित की सेवा करना कम कर दिया, तो पंडितजी की रंगत भी बदल गई.

हरिया अकेले बैठा सोचने लगा, ‘ठीक कहता था मेरा बेटा सुखिया कि यह एक छलावा है. पुजारियों की अपनी जेबें भरने की चालें हैं. मुझे भी दुकान पर काम करना चाहिए था. भगवान के नाम पर लूटा गया है.

इसी तरह लोग लुटते हैं. मैं पूजापाठ के नाम पर ठगा गया हूं. आशीर्वाद पाने के लालच में हाथ पर हाथ धरे बैठ कर अपना सबकुछ मैं ने खुद ही लुटा दिया है.’

हरिया को उस दिन सचाई का ज्ञान हो गया. उस की आंखों पर से भरम का परदा हट गया था. उसे धार्मिक अंधविश्वास की आड़ में लूटा गया था. भगवान और उस की भक्ति एक भूलभुलैया सी लग रही थी, जिस में से आसानी से निकल पाना मुमकिन नहीं.

देर से ही सही, परंतु हरिया उस भूलभुलैया से निकल गया और फिर से अपनी रोजीरोटी कमाने लगा.

Hindi Story: त्रिया चरित्र

Hindi Story: तकरीबन 2 साल पहले कमल बंगलादेश से भारत रोजगार के सिलसिले में आया था. भारत आ कर किराए का कमरा लेने में ज्यादा दिक्कत तो नहीं आई, पर फिर भी कुछ मकान मालिकों ने आधारकार्ड की मांग की थी, इसलिए बहुत जल्दी ही कमल की समझ में आ गया था कि भारत में आधारकार्ड का होना बहुत जरूरी है.

कमल के एक दूसरे बंगलादेशी साथी इरफान ने उस की मदद की और सायन इलाके में उसे किराए पर एक कमरा दिला दिया और उसे बताया कि उसे अपना फर्जी आधारकार्ड बनवाना पड़ेगा, नहीं तो कोई भी नौकरी पर नहीं रखेगा.

फर्जी कागजात बनवाने की बात सुन कर कमल पहले तो घबराया, पर जब इरफान ने उसे भरोसा दिलाया कि यहां पर सब काम पैसे लेदे कर हो जाते हैं, तो कमल बेफिक्र हो गया.

5,000 रुपए खर्च कर के कमल के हाथ में आधारकार्ड आ गया था और अब वह भारत का निवासी बन चुका था.

आधारकार्ड बनने के बाद इरफान ने कमल की फीनिक्स नाम की ईकौम कंपनी में डिलीवरी बौय की नौकरी लगवा दी.

काम तो काफी भागदौड़ और मेहनत वाला था, मगर कमल महीने के तकरीबन 20,000 रुपए तक कमा लेता था. इन 20,000 रुपयों में से 15,000 रुपए कमल अपनी मां को भेजता था, जो अब भी बंगलादेश के नाटोर नामक एक गांव में रहती थी, जो चिटगांव से तकरीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर था.

कमल की मां के साथ उस का एक छोटा भाई भी था. अपने भाई और मां की चिंता कमल को सताती रहती थी और इसीलिए वह खूब मेहनत कर के और ज्यादा पैसे कमाना चाहता था. इसलिए कभीकभी मेहनत भरी जिंदगी के बजाय कमल कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिस से एक झटके में ढेर सारे पैसे कमाए जा सकें.

कमल सोचता था कि एक डिलीवरी बौय बनने के बजाय वह एक चोर बन जाता तो कितना अच्छा होता. किसी सेठ के यहां एक ही झटके में ढेर सारा माल उड़ा कर खूब ऐश कर सकता था, पर मां की नसीहतें तो उसे एक अच्छा आदमी बनने को कहती थीं, इसीलिए उस ने भारत आ कर नौकरी की, ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर घर भेज सके.

आज कमल के पास कुछ ज्यादा ही डिलीवरी करने का सामान था, इसलिए वह ठीक सुबह 7 बजे ही अपने कमरे से निकल लिया था.

तय पते पर लोगों को फोन कर के उन्हें पैकेट डिलीवर करता और ‘थैंक यू’ कहने के बाद एक मुसकराहट के बाद अगले पते के लिए रवाना हो जाता.

कमल एक तिमंजिला और बेहद खूबसूरत मकान के सामने रुका. अपने कंधे पर लदे हुए बड़े से बैग से एक पैकेट निकाला और दिए गए नंबर पर फोन किया.

उधर से किसी लड़की की आवाज उभरी तो कमल और भी तमीज से बात करने लगा, ‘‘जी मैडम, मैं फीनिक्स ईकोम से डिलीवरी करने आया हूं. आप का कुरियर है, प्लीज इसे ले लीजिए.’’

तकरीबन 3 मिनट के बाद अंदर के कमरे का दरवाजा खुला और एक 25 साल की लंबीपतली सी लड़की आती हुई दिखाई दी. उस का रंग गोरा था और बलखाती पतली कमर.

आसमानी रंग की साड़ी को काफी कस कर बांधा था, जिस के चलते उस लड़की की गहरी नाभि और भी गहरी दिख रही थी, जो उसे काफी सैक्सी बना रही थी.

उस लड़की ने एक स्लीवलैस ब्लाउज पहना हुआ था, जिस के अंदर से उस का ब्रा भी दिख रहा था, जो उस की खूबसूरती को और ज्यादा बढ़ा रहा था.

कुरियर किसी सुचेता कपूर के नाम से था, इसलिए कमल ने सोचा कि यही सुचेता कपूर होगी, इसलिए उस ने चुपचाप पैकेट उस लड़की के हाथ में दे दिया और मोबाइल फोन पर आया ओटीपी उस लड़की ने बता दिया.

कमल ने ‘थैंक्स’ कह कर बाइक आगे बढ़ा दी.

कमल काफी देर तक उस खूबसूरत लड़की और उस के गदराए जिस्म और उन के उतारचढ़ाव के बारे में सोचता रहा.

पूरा दिन खत्म होने को आया था और अब जा कर कमल का काम भी निबट चुका था. उस ने पान की एक दुकान पर अपनी बाइक रोकी, अपनी पसंदीदा ब्रांड की सिगरेट ली और कश लगाने लगा.

सिगरेट पीने के बाद कमल अपने कमरे की ओर चला. महल्ले के नुक्कड़ पर पहुंचते ही उस की आंखें रोड के किनारे खड़ी एक लड़की पर पड़ी.

यह तो वही खूबसूरत लड़की थी, जिस के मकान पर जा कर कमल ने डिलीवरी की थी, इसलिए कमल ने अपनी बाइक रोक दी.

‘‘अरे सुचेताजी, आप यहां…? आप इस इलाके में क्या कर रही हैं?’’

उस लड़की ने कमल की बात पर जब कोई ध्यान नहीं दिया, तो कमल ने अपनी आवाज ऊंची करते हुए दोबारा अपनी बात दोहराई, तो उस लड़की ने कमल की तरफ देखा.

कमल ने जब सुबह की बात याद दिलाई, तो वह लड़की जोर से हंसी और बोला, ‘‘वह आलीशान घर मेरा नहीं है, बल्कि मैं तो उस घर में काम करती हूं. और जिस मोबाइल पर ओटीपी आया था, वह मेरी मैडम का ही मोबाइल था, जिसे उन्होंने मुझे ओटीपी बताने के लिए दिया था.’’

कमल के लिए भरोसा करना मुश्किल हो रहा था कि इतनी अच्छी शक्लसूरत और शानदार जिस्म की मालकिन किसी के घर में काम करती होगी. उस का नाम शोभा था.

शोभा ने कमल को यह भी बताया कि वह इस महल्ले से आगे वाले महल्ले कुलकर्णी नगर में रहती है.

बातोंबातों में ही शोभा ने कमल से लिफ्ट मांग ली. बाइक पर उन दोनों में रास्तेभर बातें होती रहीं और बात करने के दौरान शोभा के उभार कमल की पीठ से बारबार सट जाते थे, जिस से कमल रोमांचित हुए बगैर नहीं रह पा रहा था.

उन दोनों ने पहली मुलाकात में ही एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिए और अगली सुबह से ही वे एकदूसरे को ह्वाट्सएप पर गुड मौर्निंग जैसे मैसेज भेजने लगे थे और फिर शोभा का फोन आ जाता तो कमल अपना सारा काम रोक कर उस रूप की रानी से दिल खोल कर बातें करने लगता.

शोभा ने कमल को बताया था कि वह अब तक कुंआरी है, पर घर वाले जल्द ही उस की शादी करना चाहते हैं, लेकिन वह तो अपनी मरजी से शादी करना चाहती है.

‘‘तो कैसा लड़का पसंद है तुम्हें?’’ एक दिन कमल ने शोभा से पूछा.

‘‘बिलकुल तुम्हारे जैसा,’’ शोभा ने जवाब दिया, तो कमल का सीना और चौड़ा हो गया. वह खुश हो कर अपना चेहरा बाइक के व्यू मिरर में देखने लगा.

कुछ और दिन बीते, तो कमल और शोभा एकदूसरे से मिलने भी लगे. कभी किसी पार्क में, तो कभी किसी छोटे से रैस्टोरैंट में, पर इस तरह मिलने से उन दोनों को मजा नहीं आ रहा था, बल्कि वह चाहता था कि शोभा से किसी ऐसी जगह मिल सके, जहां वह उसे किस कर सके और उसे अपनी बांहों में भर सके.

जल्द ही कमल की यह मंशा भी शोभा ने पूरी कर दी. शोभा ने उसे बताया, ‘‘कल मेरा जन्मदिन है और शास्त्रीनगर वाले ‘श्रीनेत्र निवास’ में रहने वाले लोग 2 दिन के लिए बाहर जा रहे हैं, इसलिए तुम ठीक 3 बजे वहां पहुंच जाना.’’

‘‘पर, क्यों…? मैं उन के यहां आ कर क्या करूंगा?’’ कमल ने चौंक कर पूछा, तो शोभा ने उसे बताया, ‘‘ये बड़े लोग जब भी बाहर जाते हैं, तो अपने घर की एक चाबी हमें दे जाते हैं, ताकि हम सफाई करने वाले लोग उन के घर को उन की गैरहाजिरी में भी साफ रख सकें.’’

कमल के लिए इतना इशारा काफी था. अगले दिन अपना सारा काम 3 बजे तक निबटा कर कमल एक गिफ्ट ले कर शोभा के बताए पते पर पहुंच गया.

शोभा कमल को सीधा बैडरूम में ले गई और उस खुशबूदार बैडरूम में घुसते ही कमल ने शोभा के नाजुक जिस्म को अपनी बांहों में भर लिया और ताबड़तोड़ चुम्मों की बारिश कर दी.

शोभा भी कमल से किसी बेल की तरह लिपट गई थी. दोनों के हाथ एकदूसरे के जिस्म पर फिसल रहे थे और फिर कमल ने शोभा को उस बड़े से शानदार और मुलायम गद्दे पर पटक दिया और शोभा के बदन पर हावी होता चला गया. कुछ देर के बाद वे दोनों हांफते हुए एकदूसरे के जिस्म से अलग हो गए थे.

उस दिन के बाद से कमल को खूबसूरत शोभा के जिस्म का ऐसा चसका लगा कि वह आएदिन शोभा से पूछता कि क्या कोई मकान मालिक उसे अपने मकान की चाबी दे कर नहीं गया है? अब जब भी कोई घर खाली मिलता, तो वे दोनों उस घर में जम कर रंगरलियां मनाते.

इस बीच कमल की मां का फोन बंगलादेश से आया. उन्होंने कमल को वापस आ जाने के लिए कहा कि वे उस के बिना काफी अकेलापन महसूस कर रही हैं. पर कमल को तो यहां शोभा के रूप में एक परी मिल गई थी, जिस के प्रति कमल का प्रेम जाग चुका था और अब वह शोभा के साथ रंगरलियां मनाने के साथसाथ उस के प्रेम में भी पड़ चुका था और शादी भी करना चाहता था.

उस दिन शोभा का फोन आया, तो उस ने कमल को बताया कि आज शाम को वह राजेंद्र नगर के घोरपड़े विला में आ जाए, क्योंकि घोरपड़े परिवार 2 दिन के लिए बाहर जा रहा है.

शोभा ने कमल से आते वक्त अपना पसंदीदा मीठा गुलकंद वाला पान भी लाने को कहा.

कमल बेसब्री से शाम का इंतजार कर रहा था. वह समय से थोड़ा पहले ही वहां पहुंच गया था, जहां शोभा उस का इंतजार कर रही थी. काले रंग के स्लीवलैस ब्लाउज और पीले रंग की साड़ी में वह कयामत ढा रही थी.

कमल को यकीन ही नहीं हो रहा था कि आने वाले कुछ समय में वह इस खूबसूरत औरत के नंगे बदन के साथ रंगरलियां मनाने वाला है.

शोभा के साथ कमल भी अंदर जाने लगा, तो सिक्योरिटी गार्ड के रोकने पर शोभा ने उसे नल ठीक करने वाला बताया और अपने साथ अंदर ले गई.

हर बार की तरह वे दोनों बैडरूम में पहुंच गए और एकदूसरे से लिपट गए. होंठों को चूमने का सिलसिला जारी रहा और कमल के हाथ शोभा के चिकने बदन पर फिसलते रहे.

कमल बेसब्र हुआ जा रहा था, पर शोभा आज आराम से सैक्स करने के मूड में थी, इसलिए वह बिस्तर पर लेट गई और उस ने कमल से कहा कि वह म्यूजिक सिस्टम पर कोई अच्छा सा रूमानी गीत चला दे.

कमल भी मुसकराता हुआ म्यूजिक सिस्टम की ओर बढ़ चला. अभी कमल म्यूजिक बजा पाता, इस से पहले ही घर के मेन दरवाजे पर कुछ चहलपहल सुनाई दी और 2-3 लोग इंटरलौक खोल कर अंदर आ गए.

वे लोग कोई और नहीं, बल्कि घोरपड़े जोड़ा और उन का बेटा थे, जो शायद जाते समय कुछ सामान भूल गए थे.

शोभा और कमल का खेल खराब हो चुका था, पर अभी तो हालात बदतर होने वाले थे.

वे लोग कमल को देख कर शोर मचाने लगे और बेटे ने तुरंत पुलिस को फोन मिला दिया. कमल कुछ नहीं
कह पाया.

इस के बाद मिस्टर घोरपड़े ने शोभा को देखा. शोभा, जो इतनी देर में हालात को भांप गई थी, तुरंत बोलने लगी, ‘‘साहब, मैं इसे नहीं जानती. मैं तो सफाई कर रही थी. शायद यह चोरी करने के इरादे से आया था और मुझे अंदर अकेला देख मेरी इज्जत लूटने वाला था… तभी आप लोगों ने अचानक आ कर मेरी इज्जत बचा ली.’’

कमल हैरान था. भला शोभा उसे चोर क्यों बता रही है? अरे, मकान मालिक को वह साफसाफ बता देता कि उन की गैरहाजिरी में थोड़ा यहां मिलने आ गया है, पर जैसे ही उस ने कुछ कहना चाहा, तो शोभा का जोरदार चांटा कमल के गाल पर पड़ा.

‘‘एक तो चोरी करता है, ऊपर से औरतों की इज्जत भी लूटता है,’’ कमल कुछ कह पाता, इस से पहले पुलिस आ चुकी थी और कमल को घोरपड़े जोड़े के घर में चोरी करने के चलते गिरफ्तार कर लिया गया.

पुलिस के साथ आए मीडिया वालों ने इस खबर को जम कर प्रसारित किया और कमल को पड़ोसी देश का जासूस तक बताया.

घोरपड़े जोड़े ने लापरवाही का इलजाम लगाते हुए अपने सिक्योरिटी गार्ड को नौकरी से निकाल दिया था. वह गार्ड हैरान था कि जिस आदमी को प्लंबर बता कर शोभा अपने साथ अंदर ले गई थी, उसे भला चोर बता कर शोभा ने गिरफ्तार क्यों करा दिया?

शायद इसी का नाम औरत का त्रिया चरित्र है, पर इस त्रिया चरित्र के चलते एक मां का बेटा जेल में पहुंच गया था और उस की मां और छोटा भाई बंगलादेश में अकेले रह गए थे, जिन्हें हर महीने पैसे भेजने वाला भी अब कोई नहीं था.

पर शोभा अब भी घरों में काम करती है. घर के लोग अब भी बाहर जाते हैं और शोभा अब भी कमल जैसे भोलेभाले नौजवानों को उन घरों में बुलाती है. और हां, वह अपने लिए गुलकंद वाला मीठा पान मंगाना कभी नहीं भूलती और न ही वह भूलती है अपना त्रिया चरित्र.

Hindi Story: उफ, यह जिंदगी

Hindi Story, लेखक – चंद्र शेखर विकल

रात का धुंधलका धीरेधीरे पैर पसार रहा था. सन्नाटा अपने घिनौने पंख फैला कर हलकी सी चहलपहल को समेट रहा था.

नीरज रेल की पटरी के साथ धीरेधीरे चल रहा था. रेल की पटरी दूर तक समानांतर बांहें फैलाए चली गई. कुछ दूर पेड़ों पर पक्षियों का शोर सुनाई दे रहा था, मानो सभी एक ही सुर में कह रहे हों, ‘मजबूरी और गरीबी में जीना भी कोई जीना है. खुदकुशी के बराबर है. तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है.’

नीरज को लगा कि पक्षियों की भी एक भाषा होती है. यह भाषा तभी समझ में आती है, जब कोई भीतरी मन से समझने का जतन करे. उसे लगा कि वह उन की भाषा समझने लगा है. वे सभी एक सुर में उसे मरने के लिए कह रहे हैं.

नीरज का मन और अशांत होता चला गया. मन उबल रहा था. उस के नथुने फूलने लगे, मुट्ठियां भिंच गईं. मन नफरत से भर गया.

यह वह दुनिया है, जिसे सभ्य कहा जाता है. यह सभ्य नहीं, वहशी है, क्रूर है. शराफत का मुखौटा ओढ़ने वाला चार सौ बीस. रिश्तों में भी अपना मतलब छिपा हुआ है. कितने सगेसंबंधी हैं उस के, सब के सब लालची. आप के पास चार पैसे हैं, तो सब साथ हैं.

पिछले 6 महीने से नीरज बेकार घूम रहा था. मंदी ने उस की नौकरी छीन ली. बहुत भागदौड़ की, लेकिन कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली.

चाचाजी एक बड़ी पोस्ट पर हैं. नीरज ने उन से विनती की तो यह कह कर टरका दिया कि किसी बड़ी कंपनी या सरकारी महकमे में अप्लाई करो तो बताना, छोटीमोटी नौकरी में क्या रखा है. पिताजी भी उन के पास गए और बताया, लेकिन नतीजा जीरो.

एक बार तो नीरज का मन किया कि चाचाजी को खूब खरीखरी सुनाए कि छोटीमोटी नौकरी तो लगवाते नहीं, बड़ी क्या लगवाएंगे. पर संस्कारों से बंधा होने के चलते नीरज कुछ कह न सका. वह मन मसोस कर रह गया.

कैसी विडंबना है कि न चाहते हुए आदमी अपनी ही नजरों में गिर जाता है. गिरना तो अलग बात है, गरीब तो अपनी मौत से पहले ही मर जाता है. फिर भी वह जिंदा रहता है अपनी जिंदा लाश उठाए हुए.

नीरज भी घिसता रहा यही सोच कर कि शायद कभी सवेरा हो जाए. ये अंधेरे कहीं दुबक जाएं किसी कोने में, लेकिन अंधेरों का तो उस का बचपन से ही साथ है. बचपन तो बचपन है, कोई भी चीज लौट कर नहीं आती. बचपन की यादें नीरज के दिमाग में कीमती चीजों की तरह जमा हो रखी हैं.

नीरज को याद है बचपन में दूध के लिए रोते हुए, खिलौनों के लिए तरसते हुए, स्कूल की फीस के लिए बैंच पर खड़े हो कर क्लास में हंसी का पात्र बनना वगैरह.

नीरज ने जवानी में कदम रखा, तो कुछ ज्यादा नहीं बदला. अपनी मरजी से कुछ खाया नहीं, पिया नहीं. ढंग के कपड़े नहीं पहने. कालेज टाइम जरूर कुछ अच्छा गुजरा. उस ने देखा अपने छोटे भाईबहनों को जमीन पर गिरी चीज उठा कर खाते हुए. घर में कभी बीमारी भी आई, तो मां सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटती रहीं. डाक्टर की चौखट पर तभी पैर रखा, जब कोई बीमारी गंभीर हो गई. उफ, यह जिंदगी.

‘जिंदगी…’ उस का जी किया कि वह जोरजोर से कहकहे लगाए. जिंदगी है कहां? चारों ओर नजर दौड़ाओ और देखो कि कैसे भाग रहे हैं लोग. किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है. आदमी मन बहलाने को तो कहता है कि वह जी रहा है.

जीना भी एक कला है. ईमानदारी तो नाममात्र की रह गई है. ईमानदारी से पैसा नहीं बनता. किसी ईमानदार के पास जो थोड़ाबहुत बचता भी है, तो किसी तरह जुगाड़ कर के सरकार कई तरह से वसूल लेती है. जैसे इनकम टैक्स, जीएसटी वगैरह. पैसा बनता है तो बेईमानी से, चोरबाजारी से, टैक्स की चोरी से, कालाबाजारी से, धोखा देने से.

नीरज भी धोखा ही दे रहा है खुद को जीने का. क्या पाया उस ने अब तक जी कर… लानतें, गालियां, दुत्कार, रुसवाइयां, जबकि पिताजी एकएक पैसे के लिए पसीना बहाते रहे.

जब से होश संभाला है, तब से नीरज ने अपने पिताजी को बिजी ही पाया. सुबह चले जाते थे ट्यूशन पढ़ाने. वहीं से अपने औफिस चले जाते और शाम को चाय पी कर पार्टटाइम जौब पर. परिवार से बात करने का समय रात 9 बजे था. जिंदगी का बोझ ढोतेढोते शरीर खोखला हो गया था और एक दिन तबीयत ज्यादा खराब होने पर पता चला कि उन्हें पीलिया व टीबी है. शायद उन्हें पता हो, लेकिन उन्होंने कभी नहीं बताया.

हुआ यह कि एक दिन पिताजी को जोर की खांसी आई और साथ ही खून की उलटी हो गई. खांसी और बुखार तो पहले ही था. कैमिस्ट से कोई गोली ला कर ठीक हो जाते. सरकारी अस्पताल में दिखा कर दवाएं दी गईं, लेकिन कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. वे मरने की हालत में हो गए.

लेकिन इतने से क्या होता है? नीरज की जिंदगी में दुखों की लंबी लिस्ट थी. लेकिन ऐसा नहीं था कि नीरज पढ़ालिखा नहीं था, पर सामने मुसीबतों का अंबार लगा था.

किसी प्राइवेट डाक्टर को दिखाया, तो उस ने बताया कि बीमारी पुरानी हो गई है, दवाएं लेते रहें. पर दवाएं बहुत महंगी थीं. मां ने गहने बेच कर दवाओं का इंतजाम किया.

पिताजी ने किसी तरह जिंदगी का बोझ ढोते हुए नीरज को बीटैक कंप्यूटर साइंस में करवाई. दूसरे भाईबहनों को भी पढ़ाया. परिवार में कभी शादीत्योहार आया तो भी किसी से पीछे कम ही रहे. अब परिवार की सारी उम्मीदें नीरज पर ही टिकी थीं.

नीरज की पूरी कोशिश रही कि कहीं कोई अच्छी नौकरी मिल जाए. अच्छी नौकरी के लिए भी चांदी का जूता नहीं, सोने का चाहिए. सोने का जूता उस के पास होता तो अच्छी नौकरी न सही, कोई छोटामोटा बिजनैस ही कर लेता. कम से कम घर का गुजारा तो ठीक से चलता. कोई सिफारिश की भी बड़ी तोप न थी. लेदे कर चाचाजी थे. उन्हें सिर्फ अपना परिवार ही दिखता था.

चाचाजी तो अपनी बड़ी पोस्ट का रोब ही दिखाते थे. नीरज ने हिम्मत नहीं हारी. रेलवे, बैंक, तमाम सरकारी नौकरियों के लिए अप्लाई करता रहा. कुछ टैस्ट भी क्लियर किए, लेकिन सिफारिश न होने के चलते बात नहीं बनी. पैसा उस के पास था नहीं.

यह पैसे की ही माया है कि अपने अपने न रहे. पैसा है तो सबकुछ है. एकाध को छोड़ कर दोस्त भी धीरेधीरे कन्नी काटते गए. धीरेधीरे सब छूट गए या छोड़ दिया.

परिवार के होते हुए भी नीरज एकदम अकेला था. वह हर तरह के जतन कर चुका था, पर कहीं कोई राह नहीं दिख रही थी.

हद तो तब हुई, जब नीरज नीचता की सारी सीमाएं लांघ गया, तब एक दोस्त उसे अपने घर ले गया. वह चाय लेने गया, तो नीरज मेज पर पड़ी उस की किताबें पलटने लगा. अचानक एक किताब से 100-100 के 2 नोट नीचे गिर गए.

लालच ने नीरज की बुद्धि खराब कर दी. उस ने रुपए अपनी जेब में रख लिए. चाय पीने के बाद नीरज चलने लगा, तो दोस्त अपनी वही किताब पलटने लगा. रुपए वहां होते तो मिलते.

दोस्त ने नीरज की ओर देखा, तो उस ने शर्मिंदगी के साथ रुपए निकाल कर उसे दे दिए और उस के पैर पकड़ कर माफी मांगी और कहा कि किसी को न बताए. लेकिन उस दोस्त ने सारी मित्र मंडली को नीरज की करतूत बता दी. दोस्तों ने नीरज को खूब खरीखोटी सुनाई. उसे ‘चोर’ का तमगा दे डाला. धीरेधीरे सब छूट गए. वह जिंदा रहा लानत भरी जिंदगी जीने के लिए.

नीरज का मन उसे धिक्कारता कि वह घर के लिए कुछ नहीं कर रहा है. पिताजी बिस्तर पर पड़े थे. नौकरी के लिए वह दरदर भटक रहा था. जिस बाप ने उसे कैसे भी पढ़ाया, वक्त पर वह कुछ नहीं कर रहा. उस का तो मर जाना ही अच्छा है.

तभी नीरज ने देखा कि सिगनल हरा हो गया है और दूर इंजन की लाइट नजर आ रही थी. वह पटरी पर लेट गया और आंखें बंद कर लीं. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. सारी बातें उस के दिमाग में किसी फिल्म की तरह चलने लगीं. उसे लगा कि जिंदगी खत्म कर देने से सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी.

इस से पहले कि गाड़ी नीरज को रौंदती, किसी ने उसे जोर से खींच लिया. गाड़ी धड़धड़ाती हुई सीटी बजाते हुए निकल गई.

नीरज हक्काबक्का सा चारों ओर देखने लगा. कुछ लोग उसे घेर कर खड़े थे. वह पसीने से भीगा असहाय सा पड़ा था.

‘‘खुदकुशी करने चला था साला…’’ एक आदमी ने भद्दी सी गाली दी और साथ ही चांटा जड़ दिया.

‘‘पुलिस के हवाले कर दो इसे,’’ एक दूसरा आदमी बोला, ‘‘मरने से तू तो छूट जाता, पर तेरे घर वालों का क्या होता, सोचा है कभी यह?’’

नीरज घुटने के बल बैठ गया और सब से माफी मांगने लगा और फूटफूट कर रोने लगा. एक आदमी ने हाथ पकड़ कर उसे खड़ा किया. उस के घर का पता मालूम कर उस की बाजू पकड़ कर चल पड़ा. रास्ते में लोग उसे दुनियादारी के बारे में समझाते रहे.

नीरज जब गली के नुक्कड़ पर पहुंचा, तो कुछ लोग उसे अजीब सी नजरों से देख रहे थे. उसे लगा कि शायद उन्हें बात का पता चल गया है. एक बुजुर्ग ने उस के सिर पर हाथ फेरा.

घर से थोड़ा पास आने पर नीरज को रोने की आवाजें सुनाई देने लगीं. उसे घबराहट हुई और वह दौड़ कर अंदर पहुंचा तो देखा कि आंगन में मां पिताजी का सिर गोदी में रख कर रो रही थीं और उस के भाईबहन रोरो कर चीख रहे थे कि पिताजी अब इस दुनिया में नहीं थे.

Social Story: आखिर कब तक और क्यों

Social Story: ‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

Romantic Story: धागा प्रेम का – रंभा-आशुतोष का वैवाहिक जीवन

Romantic story: आज सलोनी विदा हो गई. एअरपोर्ट से लौट कर रंभा दी ड्राइंगरूम में ही सोफे पर निढाल सी लेट गईं. 1 महीने की गहमागहमी, भागमभाग के बाद आज घर बिलकुल सूनासूना सा लग रहा था. बेटी की विदाई से निकल रहे आंसुओं के सैलाब को रोकने में रंभा दी की बंद पलकें नाकाम थीं. मन था कि आंसुओं से भीग कर नर्म हुई उन यादों को कुरेदे जा रहा था, जिन्हें 25 साल पहले दफना कर रंभा दी ने अपने सुखद वर्तमान का महल खड़ा किया था.

मुंगेर के सब से प्रतिष्ठित, धनाढ्य मधुसूदन परिवार को भला कौन नहीं जानता था. घर के प्रमुख मधुसूदन शहर के ख्यातिप्राप्त वकील थे. वृद्धावस्था में भी उन के यहां मुवक्किलों का तांता लगा रहता था. वे अब तक खानदानी इज्जत को सहेजे हुए थे. लेकिन उन्हीं के इकलौते रंभा के पिता शंभुनाथ कुल की मर्यादा के साथसाथ धनदौलत को भी दारू में उड़ा रहे थे. उन्हें संभालने की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं. पिता ने किसी तरह वकालत की डिगरी भी दिलवा दी थी ताकि अपने साथ बैठा कर कुछ सिखा सकें. लेकिन दिनरात नशे में धुत्त लड़खड़ाती आवाज वाले वकील को कौन पूछता?

बहू भी समझदार नहीं थी. पति या बच्चों को संभालने के बजाय दिनरात अपने को कोसती, कलह करती. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे या उन का क्या भविष्य होगा, यह दादाजी समझ रहे थे. पोते की तो नहीं, क्योंकि वह लड़का था, दादाजी को चिंता अपनी रूपसी, चंचल पोती रंभा की थी. उसे वे गैरजिम्मेदार मातापिता के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते थे. इसी कारण मैट्रिक की परीक्षा देते ही मात्र 18 साल की उम्र में रंभा की शादी करवा दी.

आशुतोषजी का पटना में फर्नीचर का एक बहुत बड़ा शोरूम था. अपने परिवार में वे अकेले लड़के थे. उन की दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. मां का देहांत जब ये सब छोटे ही थे तब ही हो गया था. बच्चों की परवरिश उन की बालविधवा चाची ने की थी.

शादी के बाद रंभा भी पटना आ गईं. रिजल्ट निकलने के बाद उन का आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला पटना में ही हो गया. आशुतोषजी और रंभा में उम्र के साथसाथ स्वभाव में भी काफी अंतर था. जहां रंभा चंचल, बातूनी और मौजमस्ती करने वाली थीं, वहीं आशुतोषजी शांत और गंभीर स्वभाव के थे. वे पूरा दिन दुकान पर ही रहते. फिर भी रंभा दी को कोई शिकायत नहीं थी.

नया बड़ा शहर, कालेज का खुला माहौल, नईनई सहेलियां, नई उमंगें, नई तरंगें. रंभा दी आजाद पक्षी की तरह मौजमस्ती में डूबी रहतीं. कोई रोकनेटोकने वाला था नहीं. उन दिनों चाचीसास आई हुई थीं. फिर भी उन की उच्छृंखलता कायम थी. एक रात करीब 9 बजे रंभा फिल्म देख कर लौटीं. आशुतोषजी रात 11 बजे के बाद ही घर लौटते थे, लेकिन उस दिन समय पर रंभा दी के घर नहीं पहुंचने पर चाची ने घबरा कर उन्हें बुला लिया था. वे बाहर बरामदे में ही चाची के साथ बैठे मिले.

‘‘कहां से आ रही हो?’’ उन की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘क्लास थोड़ी देर से खत्म हुई,’’ रंभा दी ने जवाब दिया.

‘‘मैं 5 बजे कालेज गया था. कालेज तो बंद था?’’

अपने एक झूठ को छिपाने के लिए रंभा दी ने दूसरी कहानी गढ़ी, ‘‘लौटते वक्त सीमा दीदी के यहां चली गई थी.’’ सीमा दी आशुतोषजी के दोस्त की पत्नी थीं जो रंभा दी के कालेज में ही पढ़ती थीं.

आशुतोषजी गुस्से से हाथ में पकड़ा हुआ गिलास रंभा की तरफ जोर से फेंक कर चिल्लाए, ‘‘कुछ तो शर्म करो… सीमा और अरुण अभीअभी यहां से गए हैं… घर में पूरा दिन चाची अकेली रहती हैं… कालेज जाने तक तो ठीक है… उस के बाद गुलछर्रे उड़ाती रहती हो. अपने घर के संस्कार दिखा रही हो?’’

आशुतोषजी आपे से बाहर हो गए थे. उन का गुस्सा वाजिब भी था. शादी को 1 साल हो गया था. उन्होंने रंभा दी को किसी बात के लिए कभी नहीं टोका. लेकिन आज मां तुल्य चाची के सामने उन्हें रंभा दी की आदतों के कारण शर्मिंदा होना पड़ा था.

रंभा दी का गुस्सा भी 7वें आसमान पर था. एक तो नादान उम्र उस पर दूसरे के सामने हुई बेइज्जती के कारण वे रात भर सुलगती रहीं.

सुबह बिना किसी को बताए मायके आ गईं. घर में किसी ने कुछ पूछा भी नहीं. देखने, समझने, समझाने वाले दादाजी तो पोती की विदाई के 6 महीने बाद ही दुनिया से विदा हो गए थे.

आशुतोषजी ने जरूर फोन कर के उन के पहुंचने का समाचार जान लिया. फिर कभी फोन नहीं किया. 3-4 दिनों के बाद रंभा दी ने मां से उस घटना का जिक्र किया. लेकिन मां उन्हें समझाने के बजाय और उकसाने लगीं, ‘‘क्या समझाते हैं… हाथ उठा दिया… केस ठोंक देंगे तब पता चलेगा.’’ शायद अपने दुखद दांपत्य के कारण बेटी के प्रति भी वे कू्रर हो गई थीं. उन की ममता जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रही थी. रंभा दी अपनी विगत जिंदगी की कहानी अकसर टुकड़ोंटुकड़ों में बताती रहतीं, ‘‘मुझे आज भी जब अपनी नादानियां याद आती हैं तो अपने से ज्यादा मां पर क्रोध आता है. मेरे 5 अनमोल साल मां के कारण मुझ से छिन गए. लेकिन शायद मेरा कुछ भला ही होना था…’’ और वे फिर यादों में खो जातीं…

इंटर की परीक्षा करीब थी. वे अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं चाहती थीं, इसलिए परीक्षा देने पटना में दूर के एक मामा के यहां गईं. वहां मामा के दानव जैसे 2 बेटे अपनी तीखी निगाहों से अकसर उन का पीछा करते रहते. उन की नजरें उन के शरीर का ऐसे मुआयना करतीं कि लगता वे वस्त्रविहीन हो गई हैं. एक रात अपनी कमर के पास किसी का स्पर्श पा कर वे घबरा कर बैठ गईं. एक छाया को उन्होंने दौड़ते हुए बाहर जाते देखा. उस दिन के बाद से वे दरवाजा बंद कर के सोतीं. किसी तरह परीक्षा दे कर वे वापस आ गईं.

मां की अव्यावहारिक सलाह पर एक बार फिर वे अपनी मौसी की लड़की के यहां दिल्ली गईं. उन्होंने सोचा था कि फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर के बुटीक वगैरह खोल लेंगी. लेकिन वहां जाने पर बहन को अपने 2 छोटेछोटे बच्चों के लिए मुफ्त की आया मिल गई. वे अकसर उन्हें रंभा दी के भरोसे छोड़ कर पार्टियों में व्यस्त रहतीं. बच्चों के साथ रंभा को अच्छा तो लगता था, लेकिन यहां आने का उन का एक मकसद था. एक दिन रंभा ने मौसी की लड़की के पति से पूछा, ‘‘सुशांतजी, थोड़ा कोर्स वगैरह का पता करवाइए, ऐसे कब तक बैठी रहूंगी.’’

बहन उस वक्त घर में नहीं थी. बहनोई मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, आराम से रहिए न… यहां किसी चीज की कमी है क्या? किसी चीज की कमी हो तो हम से कहिएगा, हम पूरी कर देंगे.’’

उन की बातों के लिजलिजे एहसास से रंभा को घिन आने लगी कि उन के यहां पत्नी की बड़ी बहन को बहुत आदर की नजरों से देखते हैं… उन के लिए ऐसी सोच? फिर रंभा दी दृढ़ निश्चय कर के वापस मायके आ गईं.

मायके की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. पिताजी का लिवर खराब हो गया था. उन के इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे. रंभा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं थी. रंभा ने अपने सारे गहने बेच कर पैसे बैंक में जमा करवाए और फिर बी.ए. में दाखिला ले लिया. एम.ए. करने के बाद रंभा की उसी कालेज में नौकरी लग गई.

5 साल का समय बीत चुका था. पिताजी का देहांत हो गया था. भाई भी पिता के रास्ते चल रहा था. घर तक बिकने की नौबत आ गई थी. आमदनी का एक मात्र जरीया रंभा ही थीं. अब भाई की नजर रंभा की ससुराल की संपत्ति पर थी. वह रंभा पर दबाव डाल रहा था कि तलाक ले लो. अच्छीखासी रकम मिल जाएगी. लेकिन अब तक की जिंदगी से रंभा ने जान लिया था कि तलाक के बाद उसे पैसे भले ही मिल जाएं, लेकिन वह इज्जत, वह सम्मान, वह आधार नहीं मिल पाएगा जिस पर सिर टिका कर वे आगे की जिंदगी बिता सकें.

आशुतोषजी के बारे में भी पता चलता रहता. वे अपना सारा ध्यान अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगाए हुए थे. उन की जिंदगी में रंभा की जगह किसी ने नहीं भरी थी. भाई के तलाक के लिए बढ़ते दबाव से तंग आ कर एक दिन बहुत हिम्मत कर के रंभा ने उन्हें फोन मिलाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, कौन?’’

आशुतोषजी की आवाज सुन कर रंभा की सांसों की गति बढ़ गई. लेकिन आवाज गुम हो गई.

हैलो, हैलो…’’ उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कौन? रंभा.’’

‘‘हां… कैसे हैं? उन की दबी सी आवाज निकली.’’

‘‘5 साल, 8 महीने, 25 दिन, 20 घंटों के बाद आज कैसे याद किया? उन की बातें रंभा के कानों में अमृत के समान घुलती जा रही थीं.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ रंभा ने प्रश्न किया.

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ उन्होंने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘मैं तलाक नहीं चाहती.’’

‘‘तो लौट आओ, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’ और सचमुच दूसरे दिन बिना किसी को बताए जैसे रंभा अपने घर लौट गईं. फिर साहिल पैदा हुआ और फिर सलोनी.

रंभा दी मुंगेर के जिस कालेज में इकोनौमिक्स की विभागाध्यक्ष और सहप्राचार्या थीं, उसी कालेज में मैं हिंदी की प्राध्यापिका थी. उम्र और स्वभाव में अंतर के बावजूद हम दोनों की दोस्ती मशहूर थी.

रंभा दी को पूरा कालेज हिटलर के नाम से जानता था. आभूषण और शृंगारविहीन कठोर चेहरा, भिंचे हुए होंठ, बड़ीबड़ी आंखों को ढकता बड़ा सा चश्मा. बेहद रोबीला व्यक्तित्व था. जैसा व्यक्तित्व था वैसी ही आवाज. बिना माइक के भी जब बोलतीं तो परिसर के दूसरे सिरे तक साफ सुनाई देता.

लेकिन रंभा दी की सारी कठोरता कक्षा में पढ़ाते वक्त बालसुलभ कोमलता में बदल जाती. अर्थशास्त्र जैसे जटिल विषय को भी वे अपने पढ़ाने की अद्भुत कला से सरल बना देतीं. कला संकाय की लड़कियों में शायद इसी कारण इकोनौमिक्स लेने की होड़ लगी रहती थी. हर साल इस विषय की टौपर हमारे कालेज की ही छात्रा होती थी.

मैं तब भी रंभा दी के विगत जीवन की तुलना वर्तमान से करती तो हैरान हो जाती कि कितना प्यार, तालमेल है उन के परिवार में. अगर रंभा दी किसी काम के लिए बस नजर उठा कर आशुतोषजी की तरफ देखतीं तो वे उन की बात समझ कर जब तक नजर घुमाते साहिल उसे करने को दौड़ता. तब तक तो सलोनी उस काम को कर चुकी होती.

दोनों बच्चे रूपरंग में मां पर गए थे. सलोनी थोड़ी सांवली थी, लेकिन तीखे नैननक्श और छरहरी काया के कारण बहुत आकर्षक लगती थी. वह एम.एससी. की परीक्षा दे चुकी थी. साहिल एम.बी.ए. कर के बैंगलुरु में एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर नियुक्त था. उस ने एक सिंधी लड़की को पसंद किया था. मातापिता की मंजूरी उसे मिल चुकी थी मगर वह सलोनी की शादी के बाद अपनी शादी करना चाहता था.

लेकिन सलोनी शादी के नाम से ही बिदक जाती थी. शायद अपनी मां के शुरुआती वैवाहिक जीवन के कारण उस का शादी से मन उचट गया था.

फिर एक दिन रंभा दी ने ही समझाया, ‘‘बेटी, शादी में कोई शर्त नहीं होती. शादी एक ऐसा पवित्र बंधन है जिस में तुम जितना बंधोगी उतना मुक्त होती जाओगी… जितना झुकोगी उतना ऊपर उठती जाओगी. शुरू में हम दोनों अपनेअपने अहं के कारण अड़े रहे तो खुशियां हम से दूर रहीं. फिर जहां एक झुका दूसरे ने उसे थाम के उठा लिया, सिरमाथे पर बैठा लिया. बस शादी की सफलता की यही कुंजी है. जहां अहं की दीवार गिरी, प्रेम का सोता फूट पड़ता है.’’

धीरेधीरे सलोनी आश्वस्त हुई और आज 7 फेरे लेने जा रही थी. सुबह से रंभा दी का 4-5 बार फोन आ चुका था, ‘‘सुभि, देख न सलोनी तो पार्लर जाने को बिलकुल तैयार नहीं है. अरे, शादी है कोई वादविवाद प्रतियोगिता नहीं कि सलवारकमीज पहनी और स्टेज पर चढ़ गई. तू ही जरा जल्दी आ कर उस का हलका मेकअप कर दे.’’

5 बज गए थे. साहिल गेट के पास खड़ा हो कर सजावट वाले को कुछ निर्देश दे रहा था. जब से शादी तय हुई थी वह एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह घरबाहर दोनों के सारे काम संभाल रहा था. मुझे देख कर वह हंसता हुआ बोला, ‘‘शुक्र है मौसी आप आ गईं. मां अंदर बेचैन हुए जा रही हैं.’’

मैं हंसते हुए घर में दाखिल हुई. पूरा घर मेहमानों से भरा था. किसी रस्म की तैयारी चल रही थी. मुझे देखते ही रंभा दी तुरंत मेरे पास आ गईं. मैं ठगी सी उन्हें निहार रही थी. पीली बंधेज की साड़ी, पूरे हाथों में लाल चूडि़यां, पैरों में आलता, कानों में झुमके, गले में लटकी चेन और मांग में सिंदूर. मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाई.

‘‘रंभा दी, कहीं समधी तुम्हारे साथ ही फेरे लेने की जिद न कर बैठें,’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘आशुतोषजी पीली धोती में मंडप में बैठे कुछ कर रहे थे. यह सुन कर ठठा कर हंस पड़े. फिर रंभा दी की तरफ प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘आज कहीं, बेटी और बीवी दोनों को विदा न करना पड़ जाए.’’

रंभा दीदी शर्म से लाल हो गईं. मुझे खींचते हुए सलोनी के कमरे में ले गईं. शाम कोजब सलोनी सजधज कर तैयार हुई तो मांबाप, भाई सब उसे निहार कर निहाल हो गए. रंभा दी ने उसे सीने से लगा लिया. मैं ने सलोनी को चेताया, ‘‘खबरदार जो 1 भी आंसू टपकाया वरना मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

सलोनी धीमे से हंस दी. लेकिन आंखों ने मोती बिखेर ही दिए. रंभा दी ने हौले से उसे अपने आंचल में समेट लिया.

स्टेज पर पूरे परिवार का ग्रुप फोटो लिया जा रहा था. रंभा दी के परिवार की 4 मनकों की माला में आज दामाद के रूप में 1 और मनका जुड़ गया था.

उन लोगों को देख कर मुझे एक बार रंभा दी की कही बात याद आ गई. कालेज के सालाना जलसे में समाज में बढ़ रही तलाक की घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम का धागा मत तोड़ो, अगर टूटे तो फिर से जोड़ो.

आज उन्हें और उन के परिवार को देख कर यह बात सिद्ध भी हो रही थी. रंभा दी के प्रेम का धागा एक बार टूटने के बावजूद फिर जुड़ा और इतनी दृढ़ता से जुड़ा कि गांठ की बात तो दूर उस की कोई निशानी भी शेष नहीं है. उन के सच्चे, निष्कपट प्यार की ऊष्मा में इतनी ऊर्जा थी जिस ने सभी गांठों को पिघला कर धागे को और चिकना और सुदृढ़ कर दिया.

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