Mother’s Day 2024: एक बेटी तीन मांएं, क्या था यह राज

90 के दशक के बीच का दौर था. वरुण आईआईटी से कंप्यूटर साइंस में बीटैक कर चुका था. उसे कैंपस से सालभर पहले ही नौकरी मिल चुकी थी. उसे इंडिया की टौप आईटी कंपनी के अतिरिक्त अमेरिका की एक स्टार्टअप कंपनी से नौकरी का औफर था.

वरुण के मातापिता चाहते थे कि उन का बेटा इंडिया में ही नौकरी करे, पर वरुण अमेरिका जाना चाहता था. अमेरिकी कंपनी उसे बेहतर वेतन औफर कर रही थी. इकलौते बेटे की खुशी के लिए मातापिता ने उस के अमेरिका जाने के लिए हामी भर दी.

वरुण के अमेरिका जाने के एक हफ्ते पहले उस के घर पर पार्टी थी. वरुण के मित्रों के अलावा मातापिता के मित्र और कुछ करीबी रिश्तेदार भी थे. उन दिनों अमेरिका में आईटी की स्टार्टअप कंपनियों का बोलबाला था. पार्टी में उस के पिता के एक करीबी मित्र की बेटी तूलिका भी आई हुई थी. इत्तफाक से उस ने भी इसी वर्ष इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. वह भी अमेरिका जा रही थी.

तूलिका देखने में सुंदर और स्मार्ट थी. उसे एक भारतीय आईटी कंपनी ने अपने अमेरिका औफिस में पोस्ट किया था. दोनों का उसी पार्टी में परिचय हुआ. दोनों अपने अमेरिकन ड्रीम्स की बातें करने लगे. वहां डौटकौम बूम चल रहा था. नैसडैक दुनिया का दूसरा सब से बड़ा शेयर ऐक्सचेंज है. उस समय आईटी शेयरों की कीमत में भारी उछाल आया था. भारत से हजारों इंजीनियर अमेरिका जा रहे थे.

वरुण और तूलिका दोनों 2 हफ्ते के भीतर अमेरिका में थे. वरुण अमेरिका के पश्चिमी छोर कैलिफोर्निया में था जबकि तूलिका पूर्वी छोर पर न्यूयौर्क में. दोनों के राज्य अलगअलग टाइमजोन में थे. न्यूयौर्क कैलिफोर्निया की तुलना में 3 घंटे आगे था. मतलब जब कैलिफोर्निया में सुबह के 7 बजते तो न्यूयौर्क में 10 बजते. पर दोनों हमेशा कौंटैक्ट में रहे. लंबी छुट्टियों में दोनों एकदूसरे से मिलते भी थे. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे.इधर भारत में वरुण और तूलिका दोनों के मातापिता उन की शादी की बात कर रहे थे. हालांकि दोनों अलग जातियों के थे पर दोनों पक्षों के लिए यह कोई माने नहीं रखता था. दोनों परिवार उदारवादी, आधुनिक विचार वाले थे. उन्होंने अपने बच्चों की राय भी ली थी. वरुण और तूलिका को तो बिन मांगे मनचाहा मिल रहा था. वरुण और तूलिका की शादी पक्की हो गई. वे 3 हफ्ते की छुट्टी ले कर भारत आए और शादी के बाद दोनों अमेरिका लौट गए.

अमेरिका में वरुण और तूलिका को कुछ समय के लिए अलगअलग रहना पड़ा था. उस के बाद तूलिका को भी उस की कंपनी ने कैलिफोर्निया औफिस में पोस्ट कर दिया. फिर दोनों एकसाथ खुशीखुशी रह रहे थे. दोनों का वेतन भी अच्छा था. 2 साल के भीतर तूलिका ने एक पुत्र को जन्म दिया. दोनों ने मिल कर बड़ा डुप्लैक्स घर खरीद लिया. महंगी गाडि़यां, फर्नीचर आदि से घर को अच्छी तरह सजा लिया. घर, गाडि़यां और कुछ अन्य कीमती सामान सभी किस्तों पर खरीदे गए थे. सबकुछ मजे में चल रहा था.

देखतेदेखते 4 साल बीत गए. अचानक डौटकौम का बुलबुला फटना शुरू हुआ. छोटीछोटी स्टार्टअप कंपनियां बंद होने लगीं. कुछ अच्छी कंपनियों को बड़ी कंपनियों ने खरीद लिया. हजारों सौफ्टवेयर इंजीनियरों की छंटनी होने लगी थी. बड़ी कंपनियों ने भी काफी इंजीनीयर्स की छंटनी की. इसी दौरान तूलिका को कंपनी ने ले औफ (छंटनी) कर दिया. पर चूंकि वरुण अभी नौकरी में था, इसलिए किसी तरह खींचतान कर घर चल रहा था. बड़ी मुश्किल से वह घर और गाड़ी की ईएमआई दे पा रहा था, पर घर के अन्य खर्चों में कटौती करनी पड़ती थी.

अंगरेजी में एक कहावत है- ‘मिसफौरचून नेवर कम्स अलोन.’ चंद महीनों के अंदर वरुण का भी ले औफ हो गया. अब दोनों मियांबीवी बेरोजगार हो गए थे. गनीमत थी कि दोनों को छंटनी के समय कुछ मुआवजा मिला. सो, कुछ महीने तक गुजारा हो सका था. यह अच्छा रहा कि उस समय तक दोनों को अमेरिका का ग्रीनकार्ड मिल चुका था. वरना सबकुछ औनीपौनी कीमत पर बेच कर भारत वापस आना पड़ता. वरुण कुछ बच्चों को होम ट्यूशन पढ़ाता था जिस से कुछ आमदनी हो जाती थी. फिर भी उन को पैसों की काफी कमी रहती थी.

इस बीच, तूलिका जिस कंपनी में काम करती थी उस का मालिक एक अमेरिकन था- हडसन. उस की उम्र 40 वर्ष से कुछ कम रही होगी. उस की शादी के 10 वर्षों बाद भी कोई बच्चा नहीं था. दोनों मियांबीवी एक बच्चा चाहते थे, पर मिसेज हडसन इस में सक्षम नहीं थीं. उन्हें एक सैरोगेट मदर की तलाश थी. एक दिन उन्होंने तूलिका और वरुण दोनों को डिनर पर घर बुलाया.

वरुण और तूलिका अपने बेटे आशुतोष के साथ हडसन के घर गए. हडसन दंपती ने उन का गर्मजोशी से स्वागत किया. आशुतोष उन की पालतू बिल्ली के साथ खेलने लगा. हडसन ने प्यार से उसे कहा,‘‘हाउ क्यूट बौय.’’

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम लोगों को बहुत जरूरी काम से याद किया है हम ने. तुम लोग बुरा न मानना, एक रिक्वैस्ट है हमारी. हम दोनों पतिपत्नी संतानहीन हैं और एक सैरोगेट मदर की तलाश में हैं. तूलिका, तुम अगर चाहो तो हमें बच्चा दे सकती हो.’’

तूलिका बोली, ‘‘भला मैं इस में क्या मदद कर सकती हूं?’’

हडसन बोला, ‘‘मेरी पत्नी मां नहीं बन सकती. पर तूलिका, अगर तुम चाहो तो यह कार्य कर सकती हो सैरोगेट मदर बन कर. यह सिर्फ हमारा विनम्र निवेदन है. तुम इस पर विचार कर के बता देना बाद में.’’

तूलिका और वरुण एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम को शायद पता है कि नहीं, कैलिफोर्निया एक सैरोगेसी फ्रैंडली राज्य है. यहां कमर्शियल सैरोगेसी वैध है.’’

तूलिका बोली, ‘‘मिसेज हडसन, आप को शायद पता हो, हम भारतीय मातृत्व का सौदा नहीं करते.’’

‘‘मैं जानती हूं तूलिका. इसीलिए शुरू में ही हडसन ने कहा था कि यह हमारी विनम्र प्रार्थना है. पर हम यह भी जानते हैं कि तुम लोग दिल से बहुत उदार होते हो. मैं तुम्हें पैसों का लालच नहीं दे रही हूं, पर मातृसुख प्रदान करने की भिक्षा मांग रही हूं. निर्णय तुम लोगों का होगा और तुम्हारा इनकार भी हमें खुशीखुशी स्वीकार होगा, क्योंकि ऐसा फैसला लेना नामुमकिन तो नहीं मगर बहुत मुश्किल जरूर है. तुम लोग एक बार ठीक से सोच कर अपना फैसला बता देना.’’

वरुण और तूलिका अपने घर आ गए. तूलिका ने वरुण से कहा, ‘‘मिसेज हडसन अमीर होंगी, पर उन्होंने कैसे सोच लिया कि मैं अपनी कोख बेच सकती हूं?’’

वरुण बोला, ‘‘उन्होंने सिर्फ हम से मदद मांगी है, फैसला तो हमें लेना है.’’

इधर वरुण और तूलिका की आर्थिक कठिनाइयां कम होने का नाम नहीं ले रही थीं. लगभग एक साल से दोनों बेकार थे. अभी तक नौकरी की कोई उम्मीद नहीं थी. वरुण ने तूलिका से कहा, ‘‘अगर एकाध महीने में जौब नहीं मिलती है तो इंडिया लौटना होगा. यहां की सारी प्रौपर्टी बेच कर भी शायद लोन पूरा न चुका सकें.’’

‘‘स्लोडाउन का असर तो अभी इंडिया में भी होगा. वहां भी ले औफ हुए हैं और काफी लोग बैंच पर हैं. हो सकता है नौकरी मिल भी जाए तो सैलरी बहुत कम ही मिलेगी,’’ तूलिका ने कहा.

वरुण डरतेडरते बोला, ‘‘क्यों न एक बार हडसन दंपती के प्रस्ताव पर गौर करें. अब तो आशुतोष को भी स्कूल भेजना है. मुझे सब से ज्यादा चिंता बेटे के भविष्य को ले कर हो रही है. सैरोगेसी से यहां 40 हजार डौलर तो मिल ही सकते हैं.’’

तूलिका ने बिगड़ कर कहा, ‘‘तो तुम मेरी कोख बेचना चाहते हो? मुझे यह पसंद नहीं.’’

‘‘इसे तुम उन की मदद करना समझो, खरीदबिक्री तो मुझे भी पसंद नहीं है. हां, इस के बदले हो सकता है वे हमारी भी मदद करना चाहते हों. और हम दोनों को जो बनना था, बन गए हैं. अब हमें बेटे को पढ़ालिखा कर अच्छा बनाना है. उस के लिए पैसा तो चाहिए ही.’’

उस रात को दोनों ने करवटें बदल कर काटा. एकतरफ  सैरोगेसी का प्रश्न तो दूसरी ओर बेरोजगारी और आर्थिक तंगी तथा अमेरिका छोड़ने का संकट. बहुत गौर करने के बाद दोनों हडसन दंपती का प्रस्ताव स्वीकार करने पर तैयार हुए. तूलिका ने कहा कि वह अपना अंडाणु नहीं देगी. उस का इंतजाम हडसन को करना होगा.

हडसन दंपती को जब यह फैसला बताया गया तो 10 मिनट तक वे फोन पर उन्हें धन्यवाद देते रहे. उन की आंखों के आंसू को तूलिका और वरुण देख तो नहीं सकते थे पर उन की आवाज से ऐसा महसूस किया तूलिका ने कि हडसन दंपती जैसे रो पड़े हों. उस दिन शाम को हडसन दंपती वरुण के घर आए. वे साथ में पूरे परिवार के लिए काफी उपहार भी लाए थे.

मिसेज हडसन बोलीं, ‘‘तुम्हारा शुक्रिया अदा करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं. पर बुरा न मानना, इस के बदले में तुम जो रकम उचित समझो, मांग सकती हो. हमारे यहां औरतें अपने फिगर पर ज्यादा ध्यान देती हैं, इसलिए जल्द सैरोगेट मदर के लिए तैयार नहीं होतीं.’’

तूलिका बोली, ‘‘देखिए मिसेज हडसन, मैं ने पहले दिन ही कहा था कि मैं कोई खरीदफरोख्त नहीं चाहती हूं.’’

‘‘यह लीगल है, तुम्हारा हक है.’’

तब बीच में वरुण बोला, ‘‘हडसन, हम लोग इसे सौदा न कह कर एकदूसरे की मदद का रूप देना चाहते हैं.’’

हडसन बोला, ‘‘वह कैसे?’’

‘‘जब तक हमें नौकरी नहीं मिलती है, आप हमारे घर और कार की ईएमआई व बच्चे की फीस देते रहेंगे और कुछ नहीं. जिस दिन मुझे नौकरी मिल जाएगी, उस के बाद हम अपनी किस्त खुद जमा करेंगे.’’

‘‘नहीं, यह तो कुछ भी नहीं हुआ. मैं ऐसा करता हूं फौरन एक साल की सारी ईएमआई और तुम्हारे परिवार का मैडिकल इंश्योरैंस का प्रीमियम जमा कर देता हूं. वैसे भी डिलिवरी तक तूलिका का सारा खर्च हमें ही उठाना है.’’

अब हडसन दंपती को एक ऐसी महिला की खोज थी जो अपना एग्स (अंडाणु) डोनेट करे. उन्होंने एक सैरोगेसी क्लिनिक से संपर्क किया. कुछ ही दिनों में एक अमेरिकी युवती इस के लिए मिल गई. एक सैरोगेसी का अनुबंध तैयार किया गया जिस पर एग डोनर, सैरोगेट मदर और भावी मातापिता सब ने हस्ताक्षर किए. प्रसव के बाद हडसन दंपती ही बच्चे के कानूनी मातापिता होंगे. हडसन के शुक्राणु और उस युवती के एग्स को आईवीएफ तकनीक के जरिए क्लिनिक में फर्टिलाइज कर भ्रूण को तूलिका के गर्भ में प्रत्यार्पित किया गया. सैरोगेसी की बात गुप्त रखी गई थी.

तूलिका और वरुण का बेटा आशुतोष अब स्कूल जाने लगा था. तूलिका के गर्भ में बच्चे का समुचित विकास हो रहा था. 3 महीने के बाद अल्ट्रासाउंड में पता चला कि तूलिका के गर्भ में एक बच्ची पल रही है. हडसन दंपती को बेटा या बेटी से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था.

इधर मां में आए बदलाव को देख कर आशुतोष पूछता तो तूलिका ने आशुतोष को बता दिया कि उस की एक छोटी बहन घर में आने वाली है. आशुतोष ने अपने स्कूल में अपने दोस्तों को बता दिया था कि जल्द ही उस के साथ खेलने वाली उस की बहन होगी.

जैसेजैसे प्रसव का समय नजदीक आ रहा था, तूलिका के मन में ममत्व जागृत होने लगा. यह सोच कर कि 9 महीने तक जिसे अपनी कोख में रखा उसे प्रसव के बाद हडसन दंपती को सौंपना होगा, वह उदास हो जाती थी.

आखिर वह दिन भी आ गया. तूलिका ने एक सुंदर, स्वस्थ कन्या को जन्म दिया. पर तूलिका ने उसे अपना दूध पिलाने से मना कर दिया. ऐसा उस ने सिर्फ यह सोच कर किया कि अपना दूध पिलाने के बाद वह बच्ची को अपने से जुदा नहीं कर पाएगी. वैसे भी बच्ची को छोड़ कर खाली गोद लौटना काफी दुखभरा था तूलिका के लिए. उधर उस का बेटा आशुतोष घर पर बहन की उम्मीद लगाए बैठा था. बहुत मुश्किल से उस को वरुण ने किसी तरह चुप कराया कि बहन को डाक्टर नहीं बचा पाए.

बच्ची को ले जाते समय मिसेज हडसन ने पूछा, ‘‘तूलिका, अगर यह बेबी तुम्हारे पास होती तो तुम इस का क्या नाम रखती?’’

तूलिका ने बिना देर किए कहा, ‘‘मैं इस का नाम सीता रखती.’’

‘‘ठीक है, मैं भी बेबी का नाम सीता ही रखूंगी.’’

मिसेज हडसन सीता को गोद में उठा कर चूमने लगीं. वरुण और तूलिका को धन्यवाद देते हुए हडसन दंपती सीता को ले कर अपने घर आए.

तूलिका अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई. उसे सीता से बिछुड़ने का दुख तो था पर साथ में सीता के जन्म के समय ही वरुण को अच्छी सौफ्टवेयर कंपनी में औफर मिलने की खुशी भी थी. इधर, कुछ दिनों से सौफ्टवेयर कंपनियों के अच्छे दिन लौटने लगे थे.

तूलिका घर पर कुछ दिनों तक उदास रही. उस ने एक दिन वरुण से कहा, ‘‘एक तरह से तो सीता की 3 मांएं हुईं. एक मां जिस ने अपना अंडाणु दिया उस की बायोलौजिकल मां, दूसरी उस की सैरोगेट मां यानी मैं और तीसरी मां मिसेज हडसन जो कानूनन असली मां कहलाएंगी. पर सच कहो तो मैं ही उस की असली मां हूं. मैं ने 9 महीने तक उस को हर पल कोख में महसूस किया है.’’

वरुण ने स्वीकार करते हुए सिर हिलाया था. ठीक उसी समय हडसन का फोन आया, ‘‘मैं ने नई सौफ्टवेयर कंपनी खोली है. सीता टैक्नोलौजी नाम रखा है कंपनी का. तूलिका का उस में 5 प्रतिशत हिस्सा रहेगा और वह जब स्वस्थ महसूस करे, कंपनी जौइन कर सकती है.’’

वरुण बोला, ‘‘लो, अब खुश हो जाओ, सीता नाम के साथ तुम जुड़ी रहोगी.’’

तूलिका अपने दुपट्टे से आंसू पोंछते हुए हंसने लगी.

Mother’s Day 2024: अर्धविक्षिप्त बच्चे की मां का दर्द

आटा खत्म हो गया था किंतु सुदीर्घ की भूख नहीं, वह उसी प्रकार थाली पर हाथ रखे टुकुरटुकुर देख रहा था. 16 रोटियां वह खा चुका था. मां हो कर भी मैं उस की रोटियां गिन रही थी. फिर आटा गूंध कर सुदीर्घ को खिलापिला कर जब मैं उठी तो रात के साढ़े 10 बज रहे थे.

सुदीर्घ वहीं थाली में हाथ धो कर जमीन पर औंधा पड़ा सो रहा था, उसे किसी तरह खींच कर बिस्तर पर लिटाया. उस की मसहरी लगाई. इस के बाद मैं भी लेट गई.

सुदीर्घ मेरा 20 वर्षीय अर्द्घ्रविक्षिप्त पुत्र था. लगभग 5 वर्ष तक वह सामान्य बच्चों की तरह रहा फिर उस का शरीर तो बढ़ता गया किंतु मानसिक क्षमता जस की तस ही बनी रही. वह हंस कर या क्रोधित हो कर अपनी बात समझा देता था, शरीर से बलवान था. उस से 4 वर्ष बडे़ उस के भाई सुमीर में ऐसी किसी भी तरह की अस्वाभाविकता के लक्षण न थे. वह तीक्ष्ण बुद्घि का स्मार्ट युवक था और बहुत कम उम्र में ही प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा बैंक की नौकरी पा गया था.

मेरे पति, 2 बेटे और ‘मैं’ इस छोटे से परिवार में मानसिक शांति और सुकून न था. सुदीर्घ की भूख अस्वाभाविक थी, हर 2 घंटे में वह खाने के लिए बच्चों की तरह उपद्रव करता. उम्र बढ़ने के साथ उस में उन्मत्तता भी बढ़ती गई. उन्मत्तता की स्थिति में वह चीखता, चिल्लाता, कपड़े फाड़ डालता और पकड़ने वाले पर हिंसक आक्रमण भी कर देता था. उस के पिता और भाई उसे पकड़ कर नींद का इंजेक्शन देते और कमरे में बंद कर देते.

1-2 वर्ष के बाद उस मेें एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी. वह लड़कियों और औरतों के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस करता एवं अशोभ- नीय हरकतें करने लगा था. कभी काम वाली बाई को परेशान करता. कभी महल्लेटोले की लड़कियों और महिलाओं को घूरता, उन्हें छूने का प्रयास करता. उस की इन आदतों की वजह से ही मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं जाती थी.

दीदी के बेटे के विवाह की घटना तो मैं भूल ही नहीं सकती. उन के बहुत अनुरोध पर मैं मय परिवार वहां पहुंची. सुदीर्घ उन के महीनों के लिए बनाए लडडुओं, मठरियों को 2 ही दिन में चट कर गया, रिश्तों की बहनों के साथ भी वह अनापशनाप हरकतें करता, उन के करीब जाने की कोशिश करता, लोग उसे पागल समझ कर टाल जाते, उस पर हंसते और मैं खून का घूंट पी कर रह जाती.

विवाह की पूर्व रात्रि को तो उस ने हद ही कर दी, लड़कियों के बीच जा कर लेट गया. मना करने पर उपद्रव करने लगा. उसे दवा वगैरह दे कर हम उसी रात किराए की कार से लौट गए. उस के बाद मैं ने उसे ले कर कहीं न जाने की कसम खा ली.

मानसिक शांति के अभाव में सुमीर भी घर में कम ही रहता. उस के पिता भी पूरापूरा दिन बाहर बैठ कर अखबार पढ़ते रहते, केवल खाने और सोने को अंदर आते. सुदीर्घ का पूरा दायित्व मुझ पर था. वह मुझे भी धकिया देता, नोच लेता किंतु प्यार से समझाने पर केवल मेरी ही बात सुनता.

एक दिन काम वाली बाई ने मुझ से कहा, ‘माताजी, आप भैया की शादी क्यों नहीं कर देतीं?’

‘कौन लड़की देगा उस को?’ मैं ने उदासीनता से कहा.

‘अरे, गरीब घर की लड़कियां बहुतेरी मिलेंगी, शादी के बाद वह ठीक भी हो जाएंगे.’

मैं ने ‘हां, हूं’ कर दिया, गरीब घर की लड़की की क्या जिंदगी नहीं होती. गुस्से में कहीं उसे मार ही डाले तो कौन जिम्मेदार होगा.

उसी दिन शाम को सुदीर्घ ने काम वाली बाई पर आक्रमण कर दिया. मैं और सुदीर्घ के पापा बाहर बैठे चाय पी रहे थे. नींद का इंजेक्शन लिए सोते सुदीर्घ के प्रति हम निश्चिंत थे. अचानक चीख सुन कर अंदर गए, आंगन में बाई को पकड़ कर कमरे की ओर घसीटते सुदीर्घ को चीख कर मैं ने सावधान किया फिर बाई को छुड़ाने लगी तो उस ने मुझे दानव की तरह धकेल दिया.

हक्केबक्के खड़े उस के पिता ने पास रखी सुमीर की हाकी उठा ली और पागलों की तरह उस पर टूट पड़े. मैं उसे बचाने को आगे बढ़ी और लड़खड़ा कर गिरी और अचेत हो गई. आंखें खुलने पर सुमीर व उस के पिता को अपने पास बैठे पाया.

‘सुदीर्घ कहां है?’ मैं ने पूछा था.

‘यहीं है, घर के बाहर बैठा है,’ सुमीर के पिता ने कहा.

‘बाहर, अरे, कहीं भाग जाएगा?’

‘भाग जाने दो नालायक को. खानेपीने व आराम की खूब समझ है लेकिन अन्य बातों के लिए पागल बन जाता है.’ उस के पिता गुस्से से लाल थे.

मैं रोने लगी. सुमीर ने मुझे समझाया, ‘मां, आप परेशान क्यों हो रही हैं. वह यहीं दरवाजे के बाहर बैठा है. पापा ने उसे पीट कर बाहर निकाला है. सही और गलत की समझ उसे होनी चाहिए, यह सजा जरूरी है, कब तक लाड़प्यार में हम उस की भद्दी हरकतों को बरदाश्त करते रहेंगे.’

मुझे बाई वाली घटना का ध्यान आया, लज्जा आ गई. यह विवेकहीन, बुद्धिहीन, निरा पागल लड़का मेरी ही तो कोख की संतान था. रात में सब के सोने पर मैं धीरे से उठी, रात के 11 बज रहे थे. बेचारा, बिना खाएपिए बाहर बैठा था, किंतु दरवाजा खोलने पर वहां सुदीर्घ नहीं मिला.

सुमीर व उस के पिता को जगाया. दोनों स्कूटर ले कर आसपास का पूरा इलाका छान आए किंतु वह कहीं नहीं मिला. एक राहगीर ने बताया कि उन्होंने एक गोरे, स्वस्थ लड़के को ट्रक के पीछे लटक कर जाते देखा था. पुलिस को खबर की गई किंतु उस का कहीं अतापता न चला.

दिन के बाद महीने और अब साल बीतने को आ रहा था. सुदीर्घ न लौटा न उस का कोई सुराग मिला. हम भी रोरो कर थक चुके थे.

परिजनों की सलाह पर अब हम सुमीर के विवाह का सपना देखने लगे. घर में पायल और चूडि़यों की छनक गूंजेगी, जीने का एक बहाना मिल गया. जीवन में एक लय उत्पन्न हो गई किंतु तभी एक दिन पुलिस हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई. बताया, सुदीर्घ का पता चल गया था, उस ने एक नशेड़ीगंजेड़ी साधु की संगत में पूरा साल बिता दिया था. निश्चय ही वह भी नशा करने लगा था.

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पुलिस जीप में हम तीनों हैरान- परेशान बैठ गए, शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में पुलिस हमें ले कर पहुंची. आगे जो दृश्य हम ने देखा उसे किस तरह सहन किया यह केवल हम ही जानते हैं.

वहां सुदीर्घ नहीं उस की क्षतविक्षत सड़ीगली देह पड़ी थी. तेज रफ्तार से जाते किसी ट्रक की चपेट में वह आ गया था और नशे में धुत उस के साथी को अपनी ही खबर नहीं थी तो उस की क्या होती.

कई दिन बाद गांव वालों की खबर पर पुलिस आई. उस के साथ सुदीर्घ की फोटो व पहचान का मिलान कर के हमें सूचित किया गया था.

सुदीर्घ के शव को जीप में डाल हम लौैट चले. उस का सिर उस के पिता की गोद में पड़ा था. वे पश्चात्ताप की आग में जलते रो रहे थे. उन्होेंने ही उसे घर से निकाला जो था.

मुझे याद आ रहा था कि उस के जन्म पर कितना जश्न मनाया गया था. वह था भी गोलमटोल, प्यारा सा. कितने सपने बुने थे उसे ले कर. लेकिन उस के बड़े होतेहोते सब टूट गए. वह विधि के विधान का एक ‘मजाक’ बन कर रह गया, आश्रित, बलिष्ठ पर बुद्धिहीन. सभ्य लोगों की दुनिया का असभ्य, हिंसक सदस्य, अपने सभी कर्म, कुकर्मों का लेखाजोखा छोड़ पंच तत्त्व में विलीन हो गया.

मैं हमेशा उस के बचपन की यादों में खोई रहती, पगपग पर सुमीर के पिता व सुमीर मुझे संभालतेसमझाते. उन्हीं कठिन परिस्थितियों में ‘इन की’ बड़ी बहन सुमीर के लिए ‘रम्या’ का रिश्ता ले कर आईं. हम ने ‘हां’ कर दी. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

सुंदर, कोमल, बुद्धिमान, शिक्षित ‘रम्या’ हमारे घर खुशियों का झोंका ले कर पहुुंची. टूटे हृदय वाले हम 3 लोगों को उस ने बखूबी संभाल लिया. आराम से बैठ कर रोटी खाने का क्या आनंद होता है वह तो अब हम ने जाना था. मैं और सुमीर के पिता टेलीविजन देखते हुए चाय की चुस्कियां लेते, बातें करते हुए शाम को झोला लिए बाजारहाट कर आते. लौटने पर घर साफसुथरा चमकता हुआ मिलता. गरमागरम भोजन मेज पर सजा रहता.

महल्ले की लड़कियों व औरतों का जमघट अब हमारे घर लगा रहता. पहले जो सुदीर्घ के कारण आसपास नहीं फटकती थीं अब रम्या के सुंदर स्वभाव के आकर्षण में बंधी चली आतीं. उन की चहचहाहटों, खिलखिलाहटों में हम अपने जीवन का लुत्फ उठाते. सुमीर आफिस के बाद अब हर समय घर पर ही बना रहता. जीवन की इन छोटीछोटी खुशियों में इतना आनंदरस होता है, यह हम ने अब जाना. महीने दो महीने में हम रिश्तेदारों के घर भी चक्कर लगा आते और वे भी चले आते. हमें अब जीवन से कोई शिकायत नहीं रह गई थी.

आज दोपहर को खाकी वरदी वाले पुन: ढेरों आशंकाएं लिए जीप में आए. और इन को सुदीर्घ की एक फोटो दिखाई, ‘‘यह आप का लड़का है?’’

‘‘हां, लेकिन इस की मृत्यु हो चुकी है?’’

‘‘नहीं, यह जिंदा है,’’ पुलिस अधिकारी हंस कर बोला.

‘‘मैं कैसे विश्वास करूं, अपने हाथों उस का दाहसंस्कार किया है मैं ने,’’ सुमीर के पिता परेशान थे.

‘‘क्या उस को देख कर आप को लगा था कि वह आप का ही बेटा है, मेरा मतलब सारे पहचान चिह्न आदि?’’

हम में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. पहचानलायक शरीर तो था ही नहीं, वह तो इस कदर बुरी हालत में था कि उस में पहचान के चिह्न खोजना ही मुश्किल था. सच, किसी अपरिचित भिखारी की मृत देह को दुलारते, पुचकारते, आंसुओं की गंगा बहाते हम ने मुखाग्नि दे डाली थी.

अगले दिन अपने चिरपरिचित अंदाज में सुदीर्घ हमारे सामने खड़ा था. कुछ आवश्यक औपचारिकता पूरी कर के उसे हमें सौंप दिया गया था. इन डेढ़ सालों तक वह किसी अमीर व्यापारी के फार्म हाउस में पड़ा था. वहीं मजदूरों के बीच सुमीर के एक मित्र ने उसे पहचाना था जो वहीं नौकरी कर रहा था, जिस के चलते सुदीर्घ आज हमारी आंखों के सामने खड़ा था.

वह सभी कमरों में घूमता रहा. मेरे पास आया, पिता के पास गया फिर रम्या के पास जा कर ठिठक गया, उस के चारों ओर गोलगोल घूमते हुए वह हंसने लगा. उस के जोरजोर से हंसने से भयभीत हो कर रम्या अपने कमरे की ओर दौड़ी, पीछे वह भी दौड़ा, सुमीर उसे पकड़ कर उस के कमरे में ले गया.

बहुत दिनों बाद मैं ने रसोई में जा कर उस के लिए ढेर सारा खाना बनाया. शाम तक सुदीर्घ के आने की खबर आग की तरह महल्ले में फैल गई. काम वाली बाई ने न आने का समाचार भिजवा दिया. रम्या की सहेलियां बाहर से ही उलटे पांव लौट गईं. रात गहराने से पहले सुमीर, रम्या को अपना सामान पैक करते देख मैं सन्न रह गई.

‘‘मम्मी, अब रम्या का यहां रहना मुश्किल होगा. सुदीर्घ को या तो मानसिक अस्पताल में भरती करवा दो या उस की कहीं भी शादी करवा दो,’’ सुमीर ने कहा.

वह ठीक कह रहा था. मैं और उस के पिता आंखों में आंसू भरे उन्हें जाते विवशता से देखते रहे. हम हताश व निराश थे. अंदर कमरे से खापी कर सो रहे सुदीर्घ के खर्राटों की आवाज आ रही थी. घर में सन्नाटा छाया था. चलती हुई हवा की आवाज भी कान में शोर पैदा कर रही थी.

‘‘हम ने उसे जन्म दिया है, सड़क पर थोड़े ही न फेंक देंगे, उस की जिम्मेदारी तो हमें ही वहन करनी होगी. लेकिन कल तक कितने खुश थे न हम, आज सब हमें छोड़ कर चल दिए,’’ सुमीर के पिता धीरेधीरे कह रहे थे मानो खुद से बतिया रहे हों.

मन की सारी खिन्नता, क्षोभ, असंतोष, दुख और शायद तनिक स्वार्थ से प्रेरित, भरे मन से यह एक वाक्य निकला, ‘‘काश, जिस अपरिचित व्यक्ति का हम ने अंतिम संस्कार किया था वह सुदीर्घ ही होता.’’

सुमीर के पिता चौंक कर मुझे देखने लगे, क्या यह एक अपने कोख से जन्मे पुत्र के लिए मां के कथन थे?

अपनी अपनी हदें: एक पुलिस वाले की कशमकश

राकेश खाकी वरदी को बड़े ध्यान से पहन रहा था. यही वह समय है, जब उसे वरदी में एक भी सिलवट पसंद नहीं. ड्यूटी खत्म होतेहोते न जाने कितनी सिलवटें और गर्द इस में जम जाती हैं, पर तब उसे इस की परवाह नहीं होती. जब वरदी बदन से उतरती है, तब शरीर अखरोट की गिरी सा बाहर निकल आता है… नरम और कागजी सा.

दूसरा धुला जोड़ा अलमारी में हैंगर से लटका था, अगली सुबह के लिए. पहनते वक्त साफधुली और प्रैस की हुई वरदी से जो लगाव होता है, उसे दिन ढलने तक कायम रखने में बड़ी मुश्किल होती है.

पुलिस इंस्पैक्टर होने के नाते दिनभर झगड़ेफसाद सुनना, चोरगिरहकटों के पीछे लगना, हत्या, बलात्कार और लूटपाट की तहकीकात करना और थक कर घर लौटना… रोज यही होता है.

राकेश चमचमाती लाल बैल्ट पैंट की लुप्पी में खोंसने लगा था, तभी उस की बेटी विभा की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘पापा, आज हमारे कालेज का सालाना जलसा है. मुझे शाम 7 बजे तक कालेज पहुंचना है. मम्मी को साथ ले जाऊं?’’

‘‘मम्मी… क्यों?’’ उस ने पूछा.

‘‘7 बजे अंधेरा हो जाता है पापा, मुझे डर लगता है,’’ विभा बोली.

‘‘हां, आजकल देश में कई घटनाएं घट चुकी हैं. अकेले निकलना ठीक नहीं,’’ राकेश ने गरदन हिला कर सहमति जताई. उस का चेहरा गंभीर हो गया, जिस में घबराहट के भाव थे. अमूमन ऐसा नहीं होता था. जब वह थाने में होता, उस वक्त घबराहट और चिंता उस के रोब और रुतबे के नीचे पड़ी रहती.

‘‘क्यों टैंशन करते हो पापा, मम्मी साथ जाएंगी न,’’ विभा फिर बोली.

‘‘मम्मी बौडीगार्ड हैं क्या? एक कौकरोच देख कर उन की चीख निकल जाती है,’’ कह कर राकेश मुसकराया, फिर बोला, ‘‘थाने से किसी को भेज दूंगा… मम्मी के साथ ही जाना.’’

यहां दूसरे की बेटी का सवाल होता, तो राकेश कहता, ‘डरती हो, इतनी भी हिम्मत नहीं, क्या करोगी जिंदगी में.’

एक अपराधबोध आ कर राकेश के मन को बींध गया. एक पुलिस अफसर हो कर भी वह आम आदमी से अलग तो नहीं है. वरदी ही उस के स्वभाव को बदलती है. वरदी और सर्विस रिवाल्वर जब घर की अलमारी के भीतर दाखिल हो जाते हैं, तब वह एक आम आदमी होता है.

राकेश 2 बेटियों का पिता है. उस के भीतर भी कहीं न कहीं असुरक्षा और अपनेपन का भाव है. वह हर जगह बच्चों के आगेपीछे साए की तरह नहीं घूम सकता. बड़ा आदमी भी अपने बच्चे के लिए सिक्योरिटी रखता है, फिर भी कहता फिरता है, ‘जमाना खराब है, मुझे भी लड़कियों की फिक्र रहती है.’

खाल चाहे कितनी भी मोटी क्यों न हो, अंदर से नरम ही होती है. विचारों ने साथ छोड़ा कि राकेश का दाहिना हाथ अनचाहे ही सर्विस रिवाल्वर की ओर चला गया, फिर उस ने पिछली जेब को टटोला. कंधे के बैज को दुरुस्त किया. एक रुतबे का एहसास होते ही पुलिसिया रोब राकेश के चेहरे पर टिक गया. थोड़ी ही देर बाद बूटों की आवाज भी उस के साथ कहीं गुम हो गई.

राकेश थाने पहुंच चुका था. फिर वही रोजनामचा. किसी की कार चोरी हो गई, तो किसी की सोने की चेन. सुलहसफाई, मारपीट और फिर एफआईआर.

दोपहर हो गई थी, दिमाग थक रहा था. तभी एक औरत आई. कोई 30-32 साल की उम्र रही होगी. राकेश ने सिर उठाया. होंठों पर ताजा लिपस्टिक, आंखों में काजल की तीखी धार, बालों में खोंसा लाल गुलाब और साधारण सा चेहरा.

राकेश की पारखी नजर में वह एक दोयम दर्जे की औरत लगी. उस का काम ही कुछ ऐसा है, शक को पुख्ता करने की कोशिश करना… वह करता भी रहा.

उस औरत ने करीब आते ही अपना परिचय दिया, ‘‘मैं दया बस्ती में रहती हूं साहब… मेरा नाम गुलाबी है.’’

‘‘आगे बोल,’’ राकेश ने कड़क आवाज में कहा और फिर मेज पर खुली फाइल को देखने लगा.

‘‘साहब, मेरी मौसी का घर पास में ही है. मैं तकरीबन हर रोज वहां आतीजाती हूं, इधर से…’’

‘‘अच्छा तो…’’

‘‘आतेजाते सामने नुक्कड़ की दुकान वाला मुझे देख कर गंदी जबान बोलता है साहब,’’ गुलाबी ने झिझक भरी आवाज में कहा.

राकेश ने नजर उठाई, फिर गुलाबी को घूर कर देखा, ‘‘नाम क्या है उस आदमी का?’’

‘‘राम सिंह…’’

‘‘कब बोला वह?’’

‘‘रोज बोलता है साहब.’’

‘‘तो अब शिकायत करने आई है, क्यों…? वैसे, तू करती क्या है?’’ उस ने लहजा सख्त किया.

गुलाबी सकपका गई. वह अब अच्छी तरह समझ गई कि उस ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी दे मारी है.

इस के बावजूद गुलाबी ने हिम्मत जुटाई और फिर मोटेमोटे आंसू गिराते हुए धीमी आवाज में बोली, ‘‘मैं गलत काम नहीं करती साहब, पर आज उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला कि मेरे साथ चल.’’

राकेश ने थोड़ी नरमी से कहा, ‘‘मैं ने कब बोला कि तू गलत काम करती है. तू कहती है, तो उसे भी देख लेते हैं… क्या नाम बताया था उस का?’’

‘‘राम सिंह,’’ गुलाबी बोली.

‘‘तुझे कैसे पता कि उस का नाम राम सिंह है?’’

गुलाबी को बताते न बना. राकेश गुलाबी को ताड़ गया कि कहीं दाल में कुछ काला है, फिर भी उस ने सिपाहियों को भेज कर राम सिंह को थाने में बुलवा लिया.

राम सिंह बेहद घबराया हुआ था. राकेश अपनी कुरसी को छोड़ कर उठ खड़ा हुआ. सामने कोई बड़ा अफसर नहीं, बल्कि मुलजिम मुखातिब था. उस ने डंडा मेज पर फटकारा और गुलाबी से घूर कर पूछा, ‘‘यही है वह राम सिंह, जो तुझे छेड़ता है?’’

‘‘जी हां..’’

‘‘क्यों बे… यह सही कह रही है?’’ राकेश ने डंडे से राम सिंह की ठोड़ी ऊपर उठाई.

‘‘नहीं साहब… यह झूठ बोलती है, मैं ने कुछ नहीं किया,’’ राम सिंह गिड़गिड़ाया.

‘‘यह तो बोलती है कि तू इसे छेड़ता है? देख, अब कानून इतना सख्त है कि इस की शिकायत पर तू एक बार अंदर गया, तो तेरी जमानत भी नहीं होगी, समझा?’’

राम सिंह का डर के मारे गले का थूक सूख गया. उस ने मुड़ कर एक नफरत भरी नजर से उस औरत को देखा. जी किया कि अभी इस का जिस्म चिंदीचिंदी कर दे, लेकिन उसे अपने ही जिस्म की सलामती पर विश्वास नहीं रहा.

राम सिंह घबराया, फिर हिम्मत जुटाने लगा. कुछ देर बाद राम सिंह राकेश के करीब आ कर फुसफुसाया, ‘‘साहब, यह चालू लगती है… मुझे फंसाना चाहती है.’’

राकेश के चेहरे की सख्ती पलभर में हट गई, वह ठठा कर हंस दिया, ‘‘सलमान खान समझता है अपनेआप को, चेहरा देखा है कभी आईने में.’’

‘‘सच कह रहा हूं साहब… मेरा यकीन मानिए. इसी ने मुझ पर डोरे डाले थे. मैं ही बेवकूफ था, जो इस के झांसे में आ गया. यह पहले ही मेरे 5 हजार रुपए हजम कर चुकी है, अब देने में तकरार करती है,’’ राम सिंह बोला.

राकेश वापस आ कर अपनी कुरसी पर बैठ गया और गुलाबी की तरफ डंडा हिलाते हुए पूछा, ‘‘तू ने इस से पैसे लिए थे? सच बता, वरना मैं सख्ती कर के उगलवाना भी जानता हूं.’’

गुलाबी की आंखों में खौफ के बादल तैरते जा रहे थे. ठीक सामने जेल का लौकअप आंखों में घूमने लगा था. वह जल्दी ही टूट गई. ‘‘हां, लिए थे साहब, लेकिन इस ने कीमत वसूल कर ली. अब मेरा इस से कोई लेनदेन नहीं है.’’

‘‘फिर किस बात की शिकायत ले कर आई है… अंदर कर दूं दोनों को,’’ राकेश ने दोनों की ओर तीखी नजर डालते हुए कहा.

‘इस बार माफ कर दो साहब, आइंदा गलती नहीं होगी,’ दोनों के मुंह से एकसाथ निकला.

राकेश सोचने लगा था. एक औरत जात इज्जतआबरू के लिए समाज के वहशी दरिंदों से डर खाती है. अंधेरे में बेखौफ नहीं निकल सकती. दूसरी वे हैं, जो अपने जिस्मानी संबंधों को सामाजिक लैवल पर उजागर कर देती हैं. एक अपनी हद पहचानती है, तो दूसरी हद के बाहर बेखौफ जीती है. उस के लिए दिनरात का फर्क नहीं रहता.

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

नया सवेरा: आखिर सेठजी ने भोला को क्यों माफ नहीं किया

सेठ चमन लाल का कपड़े का व्यापार बढ़ता जा रहा था, इसलिए उन्हें एक अकाउंटेंट की आवश्यकता थी. इस के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला गया था. इस पद के लिए दर्जनों लोग आ चुके थे, लेकिन उन के पास इतना समय नहीं था कि स्वयं बैठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन कर सकें, इसलिए यह जिम्मेवारी वे अपनी पत्नी रंजना देवी को दिए थे.

रंजना देवी आए हुए उम्मीदवारों से कई तरह के सवाल पूछ कर जांचने की कोशिश की, लेकिन रंजना देवी की उम्मीदों के तराजू पर सिर्फ भोला ही खरा निकला था. क्योंकि भोला का ध्यान सवालों पर कम, रंजना के ब्लाउज के ऊपर से दिख रहे उभारों को निहारने में ज्यादा था, जिसे रंजना भांप चुकी थी. सवालों के जवाब देते समय उस ने यह भी जतला दिया था कि रंजना जो कहेंगी, वह कभी भी करने से मना नहीं करेगा.

रंजना जानती थी कि ऐसे कामों के लिए वैसे व्यक्ति को रखना ठीक है जो उन के पति के साथसाथ उस का भी आज्ञापालक हो. भोला बिलकुल वैसा ही था, जैसा रंजना चाहती थी. भोला देखने में आकर्षक और सुंदर नौजवान था.

जब कभी सेठजी 1-2 दिन के लिए किसी काम के सिलसिले में बाहर चले जाते थे, तो भोला ही उन का कारोबार संभालता था. भोला उन के लेनदेन का हिसाब तो सटीक रखता ही था, लेकिन वह रंजना के कई कामों को चुटकी में निबटा देता था. इसीलिए सेठजी का सब से प्रिय कर्मचारी में से एक था.

सेठजी घर में नौकर नहीं रखना चाहते थे क्योंकि वह दुनियादारी जानते थे. उन का मानना था कि आजकल नौकर लोग घर पर विश्वास जमा कर डाका डाल देते हैं. मालिक की हत्या तक कर डालते हैं. इसी डर की वजह से वे घर के लिए कोई नौकर नहीं रख पाए थे.

इस जरूरत को भी भोला पूरा कर देता था. जब कभी भी रंजना भोला को किसी काम के लिए कहती, वह खुशीखुशी कर देता था. यही कारण था कि वह सेठजी का भी विश्वासी हो चुका था. अकसर उसे ही किसी भी काम के लिए घर पर भेजते रहते थे. वह तुरंत हाजिर हो जाता था. वह किसी भी काम को करने में नानुकर नहीं करता था. इसी स्वभाव के कारण वह सेठजी के साथ रंजना का भी दुलारा बन गया था.

एक दिन सेठजी दुकान बढ़ा कर घर लौट रहे थे, तो उन की मोबाइल की घंटी बजी थी. सेठजी ने जब फोन उठाया, तो उन्हें मालूम हुआ कि मुंबई में व्यापारियों का बहुत बड़ा सम्मेलन होने वाला है. उस में शामिल होने के लिए उन्हें जाना पड़ेगा. वे जिन कंपनियों के माल बेचते थे, उस कंपनी के मालिक ने इन को खास आमंत्रित किया था. भला ऐसे अवसर को कोई व्यापारी कैसे हाथ से जाने दे सकता था. उन्होंने घर आते ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी रंजना देवी से कहा, ‘‘रंजना, आज मुझे मुंबई निकलना पड़ेगा.‘‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘क्योंकि मंुबई में बड़ेबड़े व्यापारियों का खास सम्मेलन होने वाला है. खुशी की बात यह है कि मुंबई की नामी कंपनी के मालिक रतनभाईजी ने मुझे खास निमंत्रण भेजा है. हो सकता है, उन से मुझे नया कौंट्रैक्ट मिल जाए,‘‘ यह सुन कर रंजना मन ही मन मुसकराई.

‘‘आप जल्दी से खाना खा लीजिए,‘‘ रंजना ने टेबल पर खाना लगाते हुए कहा.

‘‘अरे हां, कल से दुकान को भोला को ही संभालना पड़ेगा. लेकिन एक समस्या है, रंजना?‘‘ खाना खाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या समस्या है?‘‘ रंजना ने अपने पति से सवाल किया.

‘‘समस्या यह है कि भोला तो दुकान संभालने के लिए तैयार ही नहीं था. कहने लगा कि आप के बिना इतने दिनों तक दुकान कैसे चला पाऊंगा. मैं ने उस को समझा दिया है कि रंजना भी इस काम में मदद कर देंगी.‘‘

‘‘आप बेफिक्र हो कर जाइए. मैं भोला को दुकान संभालने में मदद कर दूंगी,‘‘ उन की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए जवाब दिया.

सेठजी को रात में ट्रेन से ही निकलना था, इसलिए उन्होंने भोला को भी बुला लिया था. वह उन की गाड़ी से स्टेशन छोड़ देगा. इधर सेठ भी जल्दीजल्दी जाने की तैयारी कर रहे थे. तभी भोला भी आ गया था.

भोला हर काम में दक्ष था. सेठजी की गाड़ी को भी वही चलाता था, क्योंकि सेठजी ज्यादा से ज्यादा भोला जैसे सीधेसादे कर्मचारी से काम लेना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने गाड़ी का ड्राइवर अलग से नहीं रखा था.

रंजना मन ही मन बहुत खुश थी कि आज भोला उस के घर पर ही रुकेगा. दरअसल, रंजना जब से सेठजी के घर आई थी, उस ने सेठजी को पैसे के पीछे ज्यादा भागते देखा था. रंजना के लिए सभी सुखसुविधाएं तो घर में थीं, लेकिन एक कमी थी तो सेठजी की. जब भी इस की इच्छाएं जगती, तो सेठजी के थके होने के कारण वह अपने अरमानों को दबा लेती थी. अंदर ही अंदर वह कुढ़ती रहती थी.

जब से रंजना देवी ने भोला को काम पर रखा था, अधूरी इच्छाएं मचलने लगी थीं. वह अवसर की तलाश में थी. पति की गैरमौजूदगी में आज अरमान पूरे होने वाले थे.

इधर भोला भी चाहता था कि आज रंजना और उस के बीच दूरियां मिट जाएं, क्योंकि वह रंजना के व्यवहार से समझ चुका था. वह जब कभी भी सेठजी के घर जाता था, रंजना के अंदरूनी अंगों को ताड़ने की कोशिश करता था. वह रंजना के मौन समर्थन को भी समझ गया था. लेकिन सेठजी के यहां नौकरी जाने के डर से वह आगे नहीं बढ़ पाया था. इस बात का अहसास रंजना को भी था.

भोला जैसे ही घर में दाखिल हुआ, वे दोनों जल्दी ही एकदूसरे की बांहों में समा गए थे. भोला उस के कोमल अंगों से खेलने लगा था. आज रंजना भी कई महीनों बाद देहसुख की प्राप्ति कर रही थी.

कुछ दिन बाद ही सेठजी सम्मेलन से लौट आए थे. अब भोला का दुकान से ज्यादा घर के कामों में मन लग रहा था. वह किसी न किसी बहाने घर के कामों के लिए मौके की तलाश में रहता था. जब कभी भी सेठजी घर के कामों के लिए कहते, वह जल्दी ही तैयार हो जाता था.

इधर जब भी भोला और उन की पत्नी को मौका मिलता, प्यार के खेल में शामिल हो जाते. अब दोनों को किसी प्रकार की रुकावट पसंद नहीं थी. किसी भी हाल में एकदूसरे से अलग नहीं रहना चाह रहे थे. इसलिए वेे सही मौके की तलाश में थे.

इधर भोला का मन काम में नहीं लग रहा था. पहले की तरह इस का ध्यान दुकान पर नहीं रहता था. सेठजी भी भोला के बदले हुए रूप से परेशान थे. उन्हें भी लग रहा था कि कहीं ना कहीं गड़बड़ है. वे जब भी भोला को गलत काम पर डांटतेफटकारते, वह ढीठ की तरह एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता था.

वे चाह कर भी उसे नहीं हटा पा रहे थे, क्योंकि वे किसी भी सूरत में अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाह रहे थे. जब भी वे भोला को हटाने की बात करते, उन की पत्नी ढाल बन कर खड़ी हो जाती थी. वह घर की जिम्मेवारियों की दुहाई देने लगती थी. भोला घर और उन के व्यापार के लिए कितना महत्वपूर्ण था. यह बात उन्हें भी पता थी.

एक दिन सेठजी काफी बीमार पड़ गए. उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. उन की बीमारी काफी गंभीर थी. इसलिए उन की देखभाल पत्नी और भोला ही कर रहा था. भोला ही उन की पत्नी को अस्पताल ले कर जाता और ले कर आता था. उन की बीमारी काफी लंबे समय तक रह गई.

इघर भोला और रंजना मौका देख अपने अरमान पूरा करते. क्योंकि दोनों को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं था. एक दिन भोला ने रंजना को बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘आखिर कब तक हम लोग सेठजी से छुप कर मिलते रहेंगे?‘‘

‘‘और आखिर उपाय भी क्या है?‘‘ रंजना ने उस की बांहों में समाते हुए सवाल किया था.

‘‘यही कि हम दोनों को यहां से भाग जाना चाहिए. हमें अलग दुनिया बसा लेनी चाहिए,‘‘ यही बातें रंजना के मन में भी चल रही थीं. वह ऐसा करने के लिए पहले से तैयार थी.

दोनों ने मिल कर सब से पहले खाते से कुछ रुपए निकाले. रंजना ने अपने कीमती गहने समेटे और अपना घर छोड़ भोला के साथ स्टेशन आ गई. फिर दोनों मिल कर एक अनजान रास्ते पर चल पड़े थे. लेकिन मंजिल का कोई अतापता नहीं था.

कई दिनों तक जब सेठजी से कोई अस्पताल में मिलने नहीं पहुंचा, तो सेठजी को शक हुआ. कुछ दिन बाद वे घर पर स्वस्थ हो कर लौटे तो पता चला कि भोला और उन की पत्नी मिल कर अकाउंट खाली कर चुके हैं. दरअसल, उन की पत्नी के साथ ही उन का जौइंट अकाउंट था. सेठजी के न रहने पर बिजनेस के लिए वह पत्नी से ही चेक पर साइन करवाता रहता था. दोनों ने मिल कर बैंक से सारे पैसे निकाल लिए थे. साथ ही, उन की पत्नी के कीमती गहने भी गायब थे.

अब सेठजी पछता रहे थे. उन्हें बेहद अफसोस हो रहा था कि वे अपनी पत्नी को भी नहीं समझ पाए. उन का घर पत्नी के बिना बहुत सूना लग रहा था. घर जैसे काटने को दौड़ रहा था. वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाए.

वे कई महीने बाद धीरेधीरे अपने व्यापार को दूसरे शहर में शिफ्ट करने के लिए सोचने लगे. उन्हें याद आया कि कुछ दिन पहले से ही अपने राज्य की राजधानी में घर खरीदने की सोच रहे थे. पहले उन का विचार था कि उस घर को वहां किराए पर लगा दिया जाएगा. कुछ कमरे अपने लिए बंद रख छोड़ा जाएगा, क्योंकि व्यापार के सिलसिले में कई शहरों में जाना पड़ता था. उन की इच्छा थी कि उन का कुछ दूसरे बड़े शहरों में अपना घर होना ही चाहिए.

जल्दी ही सेठजी ने घर बेचने वाले दलालों से बात की. एक मकान देखने के लिए बुलाया गया. मकान अच्छा था. व्यापार के लिहाज से शहर भी बहुत अच्छा था. उन की राय थी कि इस शहर में आ जाने के बाद पुरानी बातें भूल जाएंगे. फिर नए सिरे से जिंदगी शुरू की जा सकती है. यही सोच कर घर खरीद लिया गया. नए शहर में दुकान के लिए इधरउधर दौड़ रहे थे. भागदौड़ के चलते उन्हें होटलों में ही खाना पड़ता था.

एक दिन सेठजी काफी थके हुए थे. होटल में खाना खाने के बाद चाय की चुसकी ले रहे थे, तभी उन की नजर होटल के किचन में बरतन धोती एक महिला पर गई. वह महिला बरतन धोने में व्यस्त थी.

सेठजी की नजर जैसे ही उस महिला के चेहरे पर गई, उन की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. वह कोई और नहीं, बल्कि उन की पत्नी रंजना देवी थी. जैसे ही रंजना उस होटल से बरतन धो कर बाहर निकली, तभी सेठ चमन लाल उस के पीछेपीछे चलने लगे थे. रंजना अपनी धुन में चली जा रही थी. पीछे से सेठजी ने पुकारा, ‘‘रंजना…‘‘

रंजना ने पीछे मुड़ कर देखा था. वह कुछ क्षण सेठ चमन लाल को देखते रह गई थी. तभी उस की आंखों में अंधेरा छा गया था. वह गिरने वाली थी. सेठजी ने उसे संभाला. होश आने पर उसे अपने नए घर ले आए.

सेठजी ने रंजना से भोला के बारे में पूछा, तो उस ने बताया, ‘‘भोला के साथ वह कुछ दिन होटल में रही. लेकिन वह मुझे छोड़ कर पैसे और गहने ले कर भाग गया. आज तक नहीं लौटा वह.

‘‘पेट की भूख मिटाने के लिए वह आसपास के ढाबे और होटलों में बरतन धोने लगी. वह जहांतहां फुटपाथ पर ही सो कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी. अब वह किस मुंह से आप के पास लौटती.

आज बरतन धो कर निकल रही थी तो पता नहीं आप ने कहां से देख लिया. उस ने सेठजी से अपने किए करतूतों के लिए माफी मांगी और जाने की अनुमति चाही. सेठजी ने उसे गले लगा लिया और बोले, ‘‘रंजना, तुम्हें गलत रास्ते पर जाने देने के लिए दोषी मैं भी उतना ही हूं. अगर मैं तुम्हें भरपूर प्यार देता तो शायद तुम भी गलत राह पर नहीं जाती.

दरअसल, मैं भी पैसे के पीछे ज्यादा भागने लगा था, इसलिए तुम्हारे ऊपर मेरा ध्यान बिलकुल नहीं था. अब तो मुझे तुम से माफी मांगनी चाहिए.

ऐसा कहते हुए दोनों ने एकदूसरे को माफ कर गले लगा लिया था. रंजना को लग रहा था, आज उस के लिए नया सवेरा हुआ है.

चावल पर लिखे अक्षर : जब हार गई सीमा

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुल झड़ियां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढ़ियां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

अपने पराए, पराए अपने

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था.

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

क सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

वशीकरण मंत्र : रवि ने कैसे किया सुधा को काबू

रवि अपने दोस्त दिनेश के साथ पठान बस्ती की 2-3 गलियों को पार कर जब बंद गली के दाईं ओर के छोटे से मकान के सामने पहुंचा, तो वह उदास लहजे में बोला, ‘‘भाई, ऐसा लगता है, जैसे सालों से यह मकान खाली पड़ा है.’’

‘‘अरे, यह भी तो सोचो कि इस का किराया महज एक हजार रुपए महीना है. शहर की अच्छी कालोनियों में 3 हजार रुपए से कम में तो आजकल कमरा नहीं मिलेगा. यहां तो साथ में रसोई भी है.’’

‘‘हां, यह बात तो ठीक है. अभी यहीं रह लेते हैं, बाद में देख लेंगे.’’

दूसरे दिन शाम को थोड़ा सा सामान एक रिकशे पर लाद कर रवि वहां आ पहुंचा. ताला खोल कर कमरे में आया. उदास मन से फोल्डिंग चारपाई बिछा कर कमरे और रसोईघर में झाड़ू लगाई.

कुछ देर बाद रवि दरवाजे को ताला लगा कर गली के नुक्कड़ वाली चाय की दुकान की ओर जाने ही लगा था कि उस की नजर सामने वाले दोमंजिला मकान के बाहर टंगे बोर्ड की ओर उठी, जिस पर लिखा था : पंडित अवधकिशोर शास्त्री : 5 पुश्तों से ज्योतिष शास्त्र विशेषज्ञ : तंत्रमंत्र साधना द्वारा वशीकरण करवाना : रोग निवारण : बंधे कारोबार में उन्नति : प्रेम विवाह करवाने के लिए शीघ्र मिलें. फोन नं…

रवि ने अपने कदम आगे बढ़ाए ही थे कि तभी सामने वाला दरवाजा खुला. 24-25 साल की सांवले रंग की एक औरत ने बाहर झांका, तो रवि के मुरझाए चेहरे पर मुसकान उभर आई. वह बोला, ‘‘नमस्ते, मैं ने यह सामने वाला कमरा किराए पर लिया है.’’

‘‘नमस्ते,’’ वह औरत थोड़ा शरमाते हुए मुसकराई.

‘‘यह बोर्ड… यह नाम मैं ने कहीं और भी पढ़ा है,’’ रवि ने उस औरत के चेहरे पर नजरें टिकाते हुए पूछा.

‘‘जरूर पढ़ा होगा. मेरे पति का दफ्तर बसअड्डे के सामने है… ज्यादातर लोग उन से वहीं मिलते हैं,’’ कह कर वह औरत फिर मुसकराई, ‘‘क्या आप की भी कोई समस्या है? रात को या सुबह यहीं पंडितजी से बात कर लीजिएगा. वैसे, आप का नाम?’’

‘‘रवि… और आप का?’’

‘‘सुधा.’’

‘‘अच्छा, चलता हूं… फिर मिलेंगे,’’ कहता हुआ रवि आगे बढ़ गया.

नुक्कड़ की दुकान पर चाय पीते समय रवि की उदासी काफी हद तक दूर हो चुकी थी. अपने सामने वाले मकान की उस औरत को देखने के बाद वह काफी खुश नजर आ रहा था.

रात को रवि दरवाजे पर ताला लगा रहा था कि सामने वाले मकान के समीप एक मोटरसाइकिल आ कर रुकी, जिस से एक चोटीधारी, पंडितनुमा अधेड़ उम्र का शख्स नीचे उतरा. उसी समय 10-11 साल का एक लड़का और उस से 2-3 साल बड़ी एक लड़की बाहर निकल कर आई. दोनों एकसाथ बोल उठे, ‘पापाजी, नमस्ते.’

उस शख्स ने उन दोनों बच्चों के गाल थपथपाते हुए पीछे मुड़ कर रवि की ओर देखा, तो मुसकराते हुए बोला, ‘‘इस मकान में आप ही नए किराएदार आए हैं… इस के मालिक तेजपाल का मुझे फोन आया था. अच्छा हुआ, आप आ गए… काफी समय से यह घर खाली पड़ा था. आइए, भीतर बैठते हैं… सुधा, 2 कप चाय लाना.’’

बिना किसी नानुकर के रवि उस शख्स के पीछेपीछे भीतर जा पहुंचा. दोनों एक सजेधजे कमरे में जा कर बैठ गए.

रवि ने पूछा, ‘‘आप ही पंडित अवधकिशोरजी हैं?’’

‘‘हां…हां… वैसे, मेरा दफ्तर बसअड्डे के सामने है.’’

तभी सुधा चाय ले कर आ गई, तो पंडितजी ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी पत्नी सुधा है… और ये सामने वाले मकान में नए किराएदार आए हैं.’’

‘‘नमस्ते…’’ दोनों ने मुसकराते हुए एकदूसरे का अभिवादन किया.

सुधा के बाहर जाते ही पंडितजी ने पूछा, ‘‘आप का परिवार कहां रहता है?’’

‘‘जी… क्या कहूं… मांबाप बचपन में ही गुजर गए. चाचाचाची ने घरेलू नौकर बना कर पालापोसा. गांव में मेरे हिस्से की जो थोड़ी सी जमीन थी, वह भी उन्होंने हड़प ली. बस यही समझिए कि दरदर की ठोकरें खाता हुआ न जाने कैसे आप के शहर में आ पहुंचा हूं.’’

‘‘किसी फैक्टरी में नौकरी करते हो?’’ पंडितजी ने पूछा.

‘‘जी, भानु सैनेटरी उद्योग में.’’

‘‘देखो, इनसान को घर जरूर बसाना चाहिए. अकेले आदमी की जिंदगी भी भला कोई जिंदगी होती है.

‘‘अब मुझे देखो, 5-6 साल पहले पत्नी गुजर गई. दोनों बच्चों के पालने की समस्या मुंहबाए खड़ी थी. फिर घर की जिम्मेदारियां भी थीं और जीवनसाथी की जरूरत का एहसास भी था. सो, 42 साल की उम्र में दूसरी शादी कर ली… ढूंढ़ने पर गरीब घर की सुधा मिल गई, जो हर लिहाज से नेक पत्नी साबित हो रही है. वैसे, तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

‘‘27-28 साल होगी…’’ रवि उदास लहजे में बोला, ‘‘पहले मैं नूरां बस्ती में रहता था. वहां एक लड़की पसंद भी आई थी, पर वह किसी पढ़ेलिखे बाबू की पत्नी बनना चाहती थी. हालांकि उस का बाप हमारी फैक्टरी में ही नौकरी करता है, लेकिन उस  लड़की को अपनी खूबसूरती पर घमंड है.’’

‘‘अरे भाई, देखने में तो तुम भी हट्टेकट्टे और तंदुरुस्त नौजवान हो…’’ पंडितजी हंसते हुए बोले, ‘‘कहो तो उसी लड़की से तुम्हारे फेरे डलवा दें?’’

‘‘क्या… ऐसा मुमकिन है क्या?’’ रवि को तो जैसे मुंहमांगी मुरादमिल गई.

‘‘बेटा, मैं ज्योतिष का ही नहीं, तंत्रमंत्र का भी अच्छा माहिर हूं. ऐसा वशीकरण मंत्र दूंगा कि वह लड़की तुम्हारे कदमों में लिपटती नजर आएगी.’’

‘‘सच…?’’ रवि ने खुशी से झूमते हुए पूछा, ‘‘क्या आप आज यानी जल्दी ही वह वशीकरण मंत्र मुझे दे सकेंगे? कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाने पर वह किसी दूसरे शख्स की दुलहन बन जाए.’’

‘‘अरे, मैं ने तो अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा?’’ पंडितजी ने उस की ओर देखा.

‘‘जी… रवि.’’

‘‘बहुत अच्छा… अभी कहां जा रहे हो?’’

‘‘मैं ढाबे पर खाना खाने… घर पर खाना नहीं बना सकता मैं.’’

‘‘चलो, आज हमारे साथ ही खा लेना…’’ पंडितजी ने पत्नी सुधा को आवाज लगाई, ‘‘थोड़ी देर में भोजन की 2 थालियां ले आना. रवि भी मेरे साथ ही खाना खाएंगे.’’

‘‘पंडितजी, आप बेकार में तकलीफ कर रहे हैं… मुझे तो ढाबे पर खाने की आदत ही है. वैसे, आप ने जो वशीकरण मंत्र की बात कही है, उस की फीस कितनी होगी?’’

‘‘कल शाम को मेरे दफ्तर आ जाना, वहीं फीस की बात कर लेंगे… तुम तो अब हमारे पड़ोसी हो… काम हो जाने पर मुंहमांगा इनाम लेंगे.

‘‘भाई, तुम्हें मनपसंद पत्नी मिल जाए… यही हमारी फीस होगी. वैसे ज्यादा क्या, शगुन के तौर पर 11 सौ रुपए दे देना.’’

तभी सुधा भोजन की 2 थालियां ले कर आ गई. स्वादिष्ठ भोजन करने के बाद रवि को उस रात गहरी नींद आई.अगले दिन शाम के 6 बजे रवि पंडितजी के दफ्तर जा पहुंचा. उन्होंने उस के लिए फौरन चाय मंगवाई. बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. थोड़ी देर बाद कागज का एक टुकड़ा पंडितजी ने रवि के सामने रखा, ‘‘मैं ने वशीकरण मंत्र पहले ही लिख रखा था… इसे ठीक से पढ़ लो.’’

‘‘यह तो साधारण सा मंत्र है…’’ रवि ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘‘अब इस के जाप की विधि…?’’

‘‘हां…हां, वही बताने जा रहाहूं. इस खाली जगह पर उस लड़की का नाम लिख देना… वही बोलना है.’’

रवि ने मंत्र पढ़ना शुरू या और खाली जगह पर ‘मधु’ का नाम लिया, तो पंडितजी मुसकराए, ‘‘लड़की का नाम तो काफी अच्छा है. अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं… वैसे, तुम्हारी ड्यूटी तो शिफ्ट में होगी?’’

‘‘नहीं, आजकल मैं मैनेजर साहब के दफ्तर में चपरासी की ड्यूटी बजा रहा हूं… सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक… इस में कोई समस्या तो नहीं है?’’

‘‘नहीं… नहीं… अब ध्यान से सुनो. हर रोज रात को सोने से पहले एक माला फेरनी होगी. 40 दिनों तक इसी क्रम को दोहराना है. तुम ने क्या बताया था, वह लड़की नूरां बस्ती में रहती है?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘जब भी रात को माला फेरने बैठो, तो तुम्हारा चेहरा उस लड़की के घर की दिशा में ही होना चाहिए. दिशा का ठीकठीक अंदाजा है न?’’

‘‘जी हां…’’

‘‘बस, अब तुम एकदम बेफिक्र हो जाओ… हर दूसरेचौथे दिन मधु की गली के चक्कर लगाते रहना. तुम खुद अपनी आंखों से देखोगे कि तुम्हारे प्रति उस की चाहत किस कदर बढ़ती चली जा रही है. यह लो तावीज… जरा ठहरो… मैं इस पर गंगाजल छिड़क देता हूं.’’

पंडितजी ने कोई मंत्र बुदबुदाते हुए बोतल में से पानी के कुछ छींटे तावीज पर फेंके और फिर उसे रवि के बाएं बाजू पर बांध दिया, ‘‘जाओ, तुम्हारी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी.’’

रवि ने जेब से 11 सौ रुपए निकाल कर पंडितजी के हाथ पर रख दिए.

‘‘बेटा, 40 दिन के बाद पंडित अवधकिशोर का चमत्कार देखना. अच्छा, मुझे अभी एक यजमान के यहां जाना है…’’

रवि अपने कमरे का ताला खोल रहा था कि सामने से सुधा की आवाज सुनाई दी, ‘‘नमस्कार… पंडितजी ने सुबह मुझे सबकुछ बता दिया था. मंत्रजाप की विधि सीख ली और तावीज भी बंधवा लाए. कितने दे आए?’’

‘‘11 सौ रुपए,’’ रवि ने मुसराते हुए बताया.

‘‘गनीमत है कि 21 सौ या 31 सौ रुपए नहीं ऐंठ लिए…’’ सुधा ने मजाकिया लहजे में कहा, ‘‘अब तो पूरे 40 दिन बाद ही प्रेमिका आप के पीछेपीछे चल रही होगी. खैर, चाय पीएंगे आप?’’

‘‘रहने दो… बच्चे बेकार में शक करेंगे,’’ रवि ने सुधा की आंखों में झांका.

‘‘दोनों ट्यूशन पढ़ने गए हैं… घंटेभर बाद लौटेंगे.’’

उस दिन चाय पीते समय रवि ने महसूस किया कि सुधा उस की तरफ खिंच रही है. उस की हर अदा में छिपे न्योते को वह साफसाफ समझ रहा था.

हफ्तेभर बाद एक दिन रवि शाम को 5 बजे ही अपने कमरे पर लौट आया. दरवाजा खुलने की आवाज सुनते ही सुधा ने बाहर झांका. फिर बाहर सुनसान गली का मुआयना करने के बाद वह तेज कदमों से रवि के कमरे में आ पहुंची, ‘‘जल्दी से यहां आ जाओ. मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘चाय तो बाद में पी लेंगे… पहले जरा मुंह तो मीठा कराओ,’’ कहते हुए रवि ने सुधा को बांहों में कसते हुए उस के होंठों पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी.

‘‘अरेअरे, क्या करते हो… दरवाजा खुला है, कोई आ जाएगा,’’ सुधा ने नाटकीय अंदाज में खुद को छुड़ाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है, चलो… मैं अभी आता हूं,’’ रवि की बांहों से छूटते ही सुधा अपने कमरे में जा पहुंची.

उस दिन चाय पीते समय रवि और सुधा के बीच काफी बातें होती रहीं.

सुधा ने बताया कि उस के मातापिता भी जल्दी ही चल बसे थे. मौसामौसी ने नौकरानी की तरह उसे घर में रखा. विधुर पंडितजी ने उन्हीं के गांव के रहने वाले एक जानने वाले के जरीए शराबी मौसा पर अपने रुतबे और दौलत का चारा फेंका. 50 हजार रुपए में सौदा तय हुआ और फिर 20 साला सुधा अधेड़, विधुर के पल्ले बांध दी गई.

‘‘सुधा, अब जल्दी ही तुम्हारी सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा… चिंता मत करो,’’ रवि हौले से बोला.

‘‘क्या कह रहे हो? तुम तो खुद ही अपनी प्रेमिका की समस्या से परेशान हो… मेरे लिए तुम क्या कर पाओगे?’’

‘‘मेरी बात गौर से सुनो, पंडितजी के तंत्रमंत्र से कुछ होने वाला नहीं… ये सब तांत्रिकों के ठगी के तरीके मात्र हैं. अंधविश्वासी, आलसी और टोनेटोटकों के चक्कर में पड़ने वाले लोग ही आसानी से इन के शिकार होते हैं.

‘‘मैं ने तुम्हारे नजदीक आने के लिए ही पंडितजी के साथ एक चाल चली है. वे या बच्चे किसी तरह का शक न करें, इसलिए उन से मेलजोल बढ़ाने के लिए तुम्हारी खातिर 11 सौ रुपए देने पडे़.

‘‘सुनो, इस तरह बात करते हुए हम कभी भी पकड़े जा सकते हैं. जल्दी ही मैं तुम्हें एक चिट्ठी दूंगा, तुम भी चिट्ठी द्वारा ही जवाब देना,’’ कहते हुए रवि अपने कमरे की ओर चल दिया.

हालांकि रवि को जरा भी भरोसा नहीं था, पर फिर भी वह हर रोज मधु के नाम की एक माला का जाप जरूर करता था कि शायद इस बार पंडितजी का वशीकरण मंत्र कुछ काम कर जाए.

20-22 दिन बाद जब वह नूरां बस्ती में मधु का दीदार करने पहुंचा, तो एक परिचित ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कहो दोस्त, कहां भटक रहे हो? चिडि़या तो फुर्र हो गई… तुम्हारी मधु तो पिछले हफ्ते ही ब्याह रचा कर विदा हो गई.’’

‘‘सच कह रहे हो तुम?’’ रवि के दिल को धक्का लगा.

‘‘अरे भाई, मैं झूठ क्यों बोलूंगा. उस के घर वालों से जा कर पूछ लो,’’ उस आदमी ने कहा.

अब थकेहारे कदमों से उस गली से लौटने के अलावा रवि के पास कोई चारा ही न था.

एक दिन पंडितजी ने सुबहसुबह रवि का दरवाजा खटाखटाया, ‘‘क्या बात है, आजकल तुम नजर ही नहीं आ रहे? मेरे खयाल से वशीकरण मंत्र जाप के 40-50 दिन तो हो ही गए होंगे… तुम ने खुशखबरी नहीं सुनाई?’’ पंडितजी ने खड़ेखड़े ही पूछा.

‘‘जी हां…’’ रवि ने मुसकराते हुए  कहा, ‘‘आप के आशीर्वाद से मधु पूरी तरह मेरे वश में हो गई है. धन्य हैं आप और धन्य है आप का वशीकरण मंत्र.’’

‘‘बहुत अच्छे…’’ कहते हुए पंडितजी बाहर चले गए.

उसी दिन शाम को जब बच्चे ट्यूशन से लौटे, तो सुधा को घर में न पा कर उन्होंने पंडितजी को फोन किया. वह फौरन ही घर आ पहुंचे. उन्होंने सामने देखा कि रवि के कमरे के बाहर भी ताला लगा हुआ था.

4-5 पड़ोसियों से पूछा, पर सभी ने न में सिर हिला दिया.फिर एक वकील दोस्त को साथ ले कर नजदीकी थाने में पत्नी सुधा की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई और रवि की गैरमौजूदगी के कारण पत्नी के संग उस की मिलीभगत का शक भी जाहिर किया.

तकरीबन एक हफ्ते तक जगहजगह पूछताछ करने और ठोकरें खाने के बाद पंडितजी का शक पक्का हो गया कि रवि ही सुधा को भगा कर ले गया है.

इसी सिलसिले में पंडितजी अपने साथ वाले दफ्तर के बंगाली तांत्रिक से बातचीत कर रहे थे, तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘पंडितजी, आप खुद को ज्योतिष शास्त्र का माहिर कहते हो… क्या कभी आप ने अपनी पत्नी का भविष्यफल नहीं देखा, उस की हस्तरेखाएं नहीं देखीं कि वह किस शुभ घड़ी में, किस दिन, किस आशिक के संग भागने जा रही है?’’

‘‘चुप भी रहो यार, क्यों जले पर नमक छिड़कते हो,’’ पंडितजी गुस्से से बोले.

‘‘तुम ने उस नौजवान का क्या नाम बताया था, जिस के साथ उस ने भागने….?’’

‘‘रवि.’’

‘‘तुम ने जो उसे वशीकरण मंत्र दिया था, लगता है, उस ने उस का जाप अपनी प्रेमिका का नाम ले कर नहीं, तुम्हारी पत्नी सुधा का नाम ले कर किया होगा,’’ बंगाली तांत्रिक ने ठहाका लगाया, तो पंडितजी आगबबूला होते हुए बोले, ‘‘तुम्हारी ठग विद्या से भी मैं अच्छी तरह वाकिफ हूं. जबान संभाल कर बोलो… इस हमाम में हम सभी नंगे हैं…’’

गड़ा धन: क्या रमेश ने दी राजू की बलि

‘‘चल बे उठ… बहुत सो लिया… सिर पर सूरज चढ़ आया, पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही नहीं लेती,’’ राजू का बाप रमेश को झकझोरते हुए बोला.

‘‘अरे, अभी सोने दो. बेचारा कितना थकाहारा आता है. खड़ेखड़े पैर दुखने लगते हैं… और करता भी किस के लिए है… घर के लिए ही न… कुछ देर और सो लेने दो…’’ राजू की मां लक्ष्मी ने कहा.

‘‘अरे, करता है तो कौन सा एहसान करता है. खुद भी तो रोटी तोड़ता है चार टाइम,’’ कह कर बाप रमेश फिर से राजू को लतियाता है, ‘‘उठ बे… देर हो जाएगी, तो सेठ अलग से मारेगा…’’

लात लगने और चिल्लाने की आवाज से राजू की नींद तो खुल ही गई थी. आंखें मलता, दारूबाज बाप को घूरता हुआ वह गुसलखाने की ओर जाने लगा.

‘‘देखो तो कैसे आंखें निकाल रहा है, जैसे काट कर खा जाएगा मुझे.’’

‘‘अरे, क्यों सुबहसुबह जलीकटी बक रहे हो,’’ राजू की मां बोली.

‘‘अच्छा, मैं बक रहा हूं और जो तेरा लाड़ला घूर रहा है मुझे…’’ और एक लात राजू की मां को भी मिल गई.

राजू जल्दीजल्दी इस नरक से निकल जाने की फिराक में है और बाप रमेश सब को काम पर लगा कर बोतल में मुंह धोने की फिराक में. छोटी गलती पर सेठ की गालियां और कभीकभार मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को.

यहां राजू की मां लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई. वह भी घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के घरों में झाड़ूबरतन करती थी.

‘‘लक्ष्मी, तू उस बाबा के मजार पर गई थी क्या धागा बांधने?’’ मालकिन के घर कपड़े धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी.

माला अधेड़ उम्र की थी और लक्ष्मी की परेशानियों को जानती भी थी, इसलिए वह कुछ न कुछ उस की मदद करने को तैयार रहती.

‘‘हां गई थी उसे ले कर… नशे में धुत्त रहता है दिनरात… बड़ी मुकिश्ल से साथ चलने को राजी हुआ…’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया, ‘‘पर होगा क्या इस सब से… इतने साल तो हो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा का मजार… ये मंदिर… उस बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो कर के देख लिया, पर न ही कोख फलती है और न ही घर पनपता है. बस, आस के सहारे दिन कट रहे हैं,’’ कहतेकहते लक्ष्मी की आंखों से आंसू आ गए.

माला उसे हिम्मत बंधाते हुए बोली, ‘‘सब कर्मों के फल हैं री… और जो भोगना लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…’’ बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी.

‘‘सुन, एक बाबा और है. उस को देवता आते हैं. वह सब बताता है और उसी के अुनसार पूजा करने से बिगड़े काम बन जाते हैं,’’ माला ने बताया.

‘‘अच्छा, तुझे कैसे पता?’’ लक्ष्मी ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उस की लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई. मुझे तभी तेरा खयाल आया और उस बाबा का पताठिकाना पूछ कर ले आई. अब तू बोल कि कब चलना है?’’

‘‘उस से पूछ कर बताऊंगी… पता नहीं किस दिन होश में रहेगा.’’

‘‘हां, ठीक है. वह बाबा सिर्फ इतवार और बुधवार को ही बताता है. और कल बुधवार है, अगर तैयार हो जाए, तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही, फिर हम साथ चलेंगे… मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है,’’ माला बोली.

लक्ष्मी ने हां भरी और दोनों काम निबटा कर अपनेअपने रास्ते हो लीं.

लक्ष्मी माला की बात सुन कर खुश थी कि अगर सबकुछ सही रहा, तो जल्दी ही उस के घर की भी मनहूसियत दूर हो जाएगी. पर कहीं राजू का बाप न सुधरा तो… आने वाली औलाद के साथ भी उस ने यही किया तो… जैसे सवालों ने उस की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की, पर उस ने खुद को संभाल लिया.

सामने आम का ठेला देख कर लक्ष्मी को राजू की याद आ गई.

‘राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है. सुबहसुबह बेचारा राजू उदास हो कर घर से निकला था, आम के रस से रोटी खाएगा, तो खुश हो जाएगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूंगी,’ मन में ही सारे तानेबाने बुन कर लक्ष्मी रुकी और एक आम ले कर जल्दीजल्दी घर की ओर चल दी.

घर पहुंच कर दोनों को खाना खिला कर सारे कामों से फारिग हो लक्ष्मी राजू के बाप से बात करने लगी. शराब का नशा कम था शायद या आम के रस का नशा हो आया था, वह अगले ही दिन जाने को मान गया.

अगले दिन राजू, उस का बाप और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ ले कर बाबा के ठिकाने पर चल दिए.

बाबा के दरवाजे पर 8-10 लोग पहले से ही अपनीअपनी परेशानी को दूर कर सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे. एकएक कर के सब को अंदर बुलाया जाता. वे लोग भी जा कर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए.

सभी लोग अपनीअपनी परेशानी में खोए थे. यहां माला लक्ष्मी को बीचबीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा बरताव करना है और इतनी जोर से समझाती कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुंच जाती. एकदो बार तो रमेश को गुस्सा आया, पर लक्ष्मी ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाए रखा.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद उन की बारी आई, तब तक 5-6 परेशान लोग और आ चुके थे. खैर, अपनी बारी आने की खुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ झलक रही थी. यों लग रहा था, मानो यहां से वह बच्चा ले कर और घर की गरीबी यहीं छोड़ कर जाएगी.

चारों अंदर गए. बाबा ने उन की समस्या सुनी. फिर थोड़ी देर ध्यान लगा कर बैठ गया.

कुछ देर बाद बाबा ने जब आंखें खोलीं, तो आंखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं. अब लक्ष्मी को भरोसा हो गया था कि उस की समस्या का खात्मा हो ही जाएगा.

बाबा ने कहा, ‘‘कोई है, जिस की काली छाया तुम लोगों के घर पर पड़ रही है. वही तुम्हारे बच्चा न होने की वजह है और जहां तुम रहते हो, वहां गड़ा धन भी है, चाहो तो उसे निकलवा कर रातोंरात सेठ बन सकते हो…’’

रमेश और लक्ष्मी की आंखें चमक उठीं. उन दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर रमेश बाबा से बोला, ‘‘हम लोग खुद ही खुदाई कर के धन निकाल लेंगे और आप को चढ़ावा भी चढ़ा देंगे. आप तो जगह बता दो बस…’’

बाबा ने जोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यह सब इतना आसान नहीं…’’

‘‘तो फिर… क्या करना होगा,’’ रमेश उतावला हो उठा.

‘‘कर सकोगे?’’

‘‘आप बोलिए तो… इतने दुख सहे हैं, अब तो थोड़े से सुख के बदले भी कुछ भी कर जाऊंगा.’’

‘‘बलि लगेगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात. मैं बकरे का इंतजाम कर लूंगा.’’

‘‘बकरे की नहीं.’’

‘‘तो फिर…’’

‘‘नरबलि.’’

रमेश को काटो तो खून नहीं. लक्ष्मी और राजू भी सहम गए.

‘‘मतलब किसी इनसान की हत्या?’’ रमेश बोला.

‘‘तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को. जाओ, तुम लोगों से नहीं हो पाएगा,’’ बाबा तकरीबन चिल्ला उठा.

माला बीच में ही बोल उठी, ‘‘नहीं बाबा, नाराज मत हो. मैं समझाती हूं दोनों को,’’ और लक्ष्मी को अलग ले जा कर माला बोलने लगी, ‘‘एक जान की ही तो बात है. सोच, उस के बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी. बच्चापैसा सब… देदे बलि.’’

लक्ष्मी तो जैसे होश ही खो बैठी थी. तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘किस की बलि दे दें?’’

‘‘जिस का कोई नहीं उसी की. अपना खून अपना ही होता है. पराए और अपने में फर्क जानो,’’ माला बोली.

यह बात सुन कर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर तकरीबन झपटते हुए बोला, ‘‘किस की बात कर रही है बुढि़या… जबान संभाल… वह मेरा बेटा है. 2 साल का था, जब वह मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था. कलेजे का टुकड़ा है वह मेरा,’’ राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और आंखें फाड़फाड़ कर देखता रहा.

बाबा सब तमाशा देखसमझ चुका था कि ये लोग जाल में नहीं फंसेंगे और न ही कोई मोटी दक्षिणा का इंतजाम होगा, इसलिए शिष्य से कह कर उन चारों को वहां से बाहर निकलवा दिया.

राजू हैरान था. बाहर निकल कर राजू के मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘‘बाबा, मैं तेरा गड़ा धन बनूंगा.’’

यह सुन कर रमेश ने राजू को अपने सीने से लगा लिया. उस ने राजू से माफी मांगी और कसम खाई कि आज के बाद वह कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

न्याय: क्या उस बूढ़े आदमी को न्याय मिला?

लेखक- Dheeraj Pundir

राजीव अदालत के बाहर पड़ी लकड़ी की बेंच पर खामोश बैठा अपनी बारी का इंतजार करतेकरते ऊंघने लगा था. बड़ी संख्या में लोग आजा रहे थे. कुछ के हाथों में बेड़ियां थीं, जो कतई ये साबित नहीं करती थीं कि वे मुजरिम ही थे.

कुछ राजीव जैसे हालात के सताए गलियारे में बैठे ऊंघ रहे थे. उन में बहुत से चेहरे जानेपहचाने थे, जिन को अपनी वहां एक बरस की आवाजाही के दौरान वह देखता आ रहा था. इतना जरूर था कि कुछ चेहरे दिखाई देना बंद हो जाते और उन की जगह नए चेहरे शामिल हो जाते. ऐसा लगता जैसे कोई मेला था, जहां लोगों की आवाजाही कोई बड़ा मसला नहीं थी.

रहरह कर वादियों, प्रतिवादियों को पुकारा जाता और वे उम्मीद के अतिरेक में दौड़ कर अंदर जाते. उन में से जो  खुशनसीब होते, लौटते वक्त उन के चेहरे पर मुसकान होती, वरना अमूमन लोग मुंह लटकाए नाउम्मीद ही लौटते नजर आते.

बात बस इतनी सी थी कि एक साल पहले औफिस से घर लौटते वक्त रास्ते में पड़ी लावारिस लाश के बारे में उस ने थाने को इत्तिला दे दी थी. तब से वह निरंतर मानवता की अपनी बुरी आदत को कोसता अदालत की हाजिरी भर रहा था.

भीतर चक्कर लगा आने के लिए जैसे ही वह उठा, सामने से शरीर का भार अपनी लाठी पर लिए वह बूढ़ा आता दिखा, जिसे राजीव एक साल से लगातार देखता आ रहा था.

वक्त की मार से उस का शरीर झुकताझुकता 90 अंश के कोण पर आ टिका कथा. आंखें चेहरे के सांचे में धंस गई थीं और शरीर की त्वचा सिकुड़ कर झुर्रियों में तबदील हो गई थी.

बूढ़े को देख कर राजीव को हर बार यही ताज्जुब होता कि उस की सांसें आखिर कहां अटकी हुई हैं और क्या न्याय की अपुष्ट उम्मीद ही उस को इतनी शक्ति दे रही थी कि तकरीबन 100 बरस की उम्र के बावजूद वह बेसहारा इस कभी न खत्म होने वाले सिलसिले से जूझ रहा था. चर्चा थी कि बूढ़े की कोई औलाद और नजदीकी रिश्तेदार भी न था.

बूढ़ा लोगों की भीड़ के बीच से अपने शरीर का बोझ ढोता सा धीरेधीरे चला आ रहा था. लोग उस की बगल से ऐसे निकल जाते जैसे वह अदृश्य हो. किसी को उस पर तरस न आता कि जरा सा सहारा दे कर उसे उस की मंजिल तक पहुंचा दे. शायद हर कोई उस बूढ़े की तरह ही असहाय था. उन मुकदमों के कारण जो शायद अंतहीन थे. रोज की तरह सब विचार छोड़ कर राजीव ने बूढ़े को सहारा दे कर बैंच पर बैठा दिया.

राजीव उस बूढ़े और उस के मसले से खूब परिचित था.64 साल पहले दर्ज जमीन के जिस मुकदमे की पैरवी करने बरसों से लगातार आ रहा था उस का औचित्य क्या बचा था, राजीव की समझ से परे था.

हुआ यों था कि बूढ़े का एकलौता 12 बिस्से का जमीन का रकबा उस के पड़ोसी ने अपने खेत में मिला लिया था. तब वह जवान हुआ करता था. पहले तो उस ने लट्ठ के जोर से जमीन छुड़ाने की सोची, मगर कुछ समझदार लोगों ने कहा, “देश में गरीब मजलूम के लिए कानून है, अदालत है, वहां जाओ. क्यों आफत गले डालते हो. कहीं चोट लग गई तो जेल हो जाएगी और कामधंधे से जाओगे सो अलग.”

उसे बात कुछ तर्कसंगत लगी. उस ने मुकदमा दायर कर दिया. उम्मीद करते जवानी गुजर गई. वकील की फीस का पाईपाई का हिसाब पास था, वह भी जमीन की कीमत से ऊपर पहुंच गया. मगर बात न्याय की ठहरी, इसलिए हार नहीं मानी.

बूढ़े को इत्मीनान से वहीं बैठा छोड़ कर राजीव बूढ़े के वकील के पास पहुंचा, जो कि कहीं निकलने को ही था.

“वह बूढ़ा आया है. आप का क्लायंट,” राजीव ने बताया.

“इस बूढ़े की…” लोगों की बातों में मशगूल वकील शायद कोई कड़वी बात कहतेकहते अचानक चुप हुआ, फिर अपने सहायक से कहा, “आज उस का फैसला आ जाएगा. उसे थमा कर जान छुड़ा,” कह कर वकील लोगों से हाथ मिला कर बड़ी तेजी से निकल गया.

राजीव वापस उस बूढ़े के पास लौटा. बूढ़े के कान के पास मुंह कर के ऊंची आवाज में उस ने बूढ़े को बताया कि वकील को सूचित कर दिया है. तभी उस ने सुना कि हरकारा पेशी के लिए पुकार लगा रहा था, “राजीव कुमार वल्द हरिसिंह हाजिर हों…”

प्रतिदिन की तरह 50 रुपए अर्दली की भेंट कर वह जज साहब के समक्ष हाजिर हुआ. जज साहब ने बस चंद बोल कहे, “तुम बरी किए जाते हो और ताकीद रहे कि एक नेक शहरी का फर्ज निभाते हुए भविष्य में भी अगर ऐसा वाकिया पेश आए तो कानून को इत्तला जरूर करोगे.”

न चाहते हुए भी हामी भर कर राजीव चल पड़ा मन में सोचता हुआ कि कोई मरता है मरे कभी दरियादिली के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

तभी उसे जज साहब की आवाज सुनाई दी. वे कह रहे थेे, “बूढ़े की फाइल निकालो.”

अनायास ही राजीव के कदम जड़ हो गए. मन में घूम रहे सब विचार नेपथ्य में गुम हो गए. उसे वकील की कही बात याद थी, “आज उस का फैसला आ जाएगा.”

घर लौटने की इच्छा छोड़ कर वह एक तरफ दीवार के पास खड़ा हो गया.

जज साहब ने बूढ़े की फाइल पर सरसरी नजर डाली और पेशकार की तरफ देख कर पूछा, “वादी अदालत के समक्ष हाजिर है?”

“नहीं हुजूर, वादी बहुत बूढ़ा है. पांव पर खड़ा नहीं हो सकता, मगर वह बाहर बैंच पर लेटा है.”

सुन कर जज साहब के चेहरे पर दया के भाव आ गए, फिर संभाल कर पूछा,

“सब सुबूत दुरुस्त हैं?”

पेशकार ने हां में सिर हिलाया.

“तब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं. लिहाजा, अदालत फैसला सुनाती है कि जिस जमीन के टुकड़े पर बूढ़े ने अपना दावा पेश किया था, वह टुकड़ा उसी का है. प्रतिपक्ष को इस ताकीद के साथ कि बूढ़े को परेशान न किया जाए फैसला बूढ़े के हक में सुनाया जाता है… और साथ ही, पुलिस को आदेश जारी किया जाता है कि चूंकि वादी बूढ़ा हो चुका  है, इसलिए मौके पर जा कर उसे जमीन पर कब्जा दिलाया जाए.”

इतना कह कर जज साहब उठ कर चले गए.

राजीव को अपने बरी होने से कहीं ज्यादा बूढ़े के मुकदमे की खुशी थी. फिर यह सोच कर वह गंभीर हो गया कि फैसला मुफीद ही सही, मगर 64 बरस बाद क्या अब भी उस का औचित्य जस का तस है.

राजीव बाहर आया कि बूढ़े को खुशखबरी दे. उस ने देखा कि वह बैंच पर इत्मीनान से सो रहा है. सुकुन की नींद जैसे उसे फैसले के अपने पक्ष में आने का पूर्वाभास हो.

राजीव ने जमीन पर उकड़ू बैठ कर बूढ़े का कंधा पकड़ कर धीरे से हिलाया, तो पहले से बेजान शरीर एक तरफ लुढ़क गया. वह मर चुका था बिना यह जाने कि देश के कानून ने कितनी दरियादिली दिखा कर 64 साल बाद उस की जमीन का मालिकाना हक वापस लौटाया था.

पीछे हरकारा आवाज दे रहा था, “नेकीराम वल्द बिशनसिंह निवासी मोहनपुर हाजिर हो.”

इस बात से बेखबर कि  न्याय की बाट जोहते बूढ़े की हाजिरी का वक्त कहीं ओर मुकर्रर हो गया था.

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