फैसले

लेखक-संगीता बवेजा

‘‘नानी, जैसे फिल्मों में दिखाते हैं वैसे ही मां भी दुलहन बनेंगी?’’ उस ने फिर पूछा.

‘‘मुझे नहीं पता,’’ मीना ने नाती को टालते हुए कहा.

4 वर्ष का सौरभ दुनियादारी से तो बेखबर था लेकिन जो कुछ घर में हो रहा था उसे शायद वह सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा था. स्वीकार तो घर में कोई नहीं कर पा रहा था लेकिन इस के सिवा दूसरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था. मीना रोने लगी तो सौरभ उन के नजदीक खिसक आया और उन के आंसू पोंछता हुआ बोला, ‘‘नानी, रोओ मत. अब मैं आप से कुछ नहीं पूछूंगा. बस, एक बात और बता दो, जिन से मम्मी की शादी हो रही है वह कौन हैं?’’

मीना स्वर को संयत करती हुई बोलीं, ‘‘वह तेरे पापा हैं.’’

‘‘अच्छा, मैं अब पापामम्मी दोनों के साथ रहूंगा,’’ सौरभ खुशी से उछल पड़ा तो मीना उस का चेहरा देखती रह गईं.

अंजली अपनी मां और बेटे की बातें बगल के कमरे में बैठी सुन रही थी. उस के हाथ का काम छूट गया और वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गई. अतीत की काली परछाइयां जैसे उस के चारों ओर मंडराने लगी थीं.

5 साल पहले भी घर में उस की शादी की तैयारियां चल रही थीं. तब अंजली के मन में उत्साह था. आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे. तब गाजेबाजे के साथ वह विवेक की पत्नी बन अपने ससुराल पहुंची. जहां सभी ने खुले दिल से उस का स्वागत किया था. विवेक अपने मातापिता का इकलौता लड़का था. शादी के दूसरे दिन विवेक के 10-12 दोस्त उन्हें बधाई देने आए थे. नए जोडे़ को ले कर सब दोस्त मजाक कर रहे थे. उन्हीं में एक ऐसा भी दोस्त था, जिसे देख कर अंजली सहज नहीं हो पा रही थी, क्योंकि जितने समय सब बैठे थे उस की दोनों आंखें उसे घूरती ही रहीं.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

‘विवेक, मुझे तो तुझ से जलन हो रही है,’ सब के बीच सूरज बोला, ‘तू इतनी सुंदर बीवी जो ले कर आया है. अब मेरे नसीब में जाने कौन है?’ सूरज ने नजरें अंजली पर जमाए हुए कहा तो सब हंस पडे़.

‘चिंता मत कर, तुझे अंजली भाभी से भी ज्यादा खूबसूरत बीवी मिलेगी,’ दोस्तों के बीच से एक दोस्त की आवाज सुनाई दी तो सूरज ने नाटकीय अंदाज में अपने दोनों हाथ ऊपर हवा में लहरा दिए. एक बार फिर जोर से हंसी के फौआरे फूट पडे़.

चायनाश्ते के बाद जब सब दोस्त जाने लगे तो सूरज अंजली के करीब आ कर बोला, ‘मुझे अच्छी तरह पहचान लीजिए, भाभी जान. मैं विवेक का बहुत करीबी दोस्त हूं सूरज और आप चाहें तो आप का भी करीबी बन सकता हूं.’

अंजली उस के इस कथन से सकपका गई और एक देवर की अपनी नई भाभी से चुहलबाजी समझ कर चुप रह गई.

सूरज अब अकसर घर आने लगा. वह बात तो विवेक से करता पर उस की निगाहें अंजली पर ही टिकी रहतीं. अंजली ने कई बार विवेक को इशारों से समझाने की कोशिश भी की पर वह अपनी दोस्ती के आगे किसी को न तो कुछ समझता था और न समझाने का मौका देता था.

एक दिन सूरज किसी फिल्म की 3 टिकटें ले आया और विवेक व अंजली को ले जाने की जिद करने लगा. अंजली ने फिल्म देखने न जाने के लिए सिर दर्द का बहाना भी किया लेकिन उस के आगे उस की एक न चली.

अंजली को फिल्म देखने जाना ही पड़ा. इंटरवल से पहले तो सब ठीक था. विवेक उन दोनों के बीच में बैठा था. अंजली ने चैन की सांस ली लेकिन इंटरवल में जब वे लोग ठंडा पी कर लौटे तो अंजली को बीच की सीट पर बैठना पड़ा और वह विवेक से कुछ कहती इस से पहले फिल्म शुरू हो गई. सूरज ने मौका मिलते ही अंजलि को परेशान करना शुरू कर दिया. उस की आंखें तो सामने परदे पर थीं लेकिन हाथ और पैर अकसर अंजली से टकराते रहे. अंजली ने जब उसे घूर कर देखा तो वह अंजान बना फिल्म देखने लगा. किसी तरह फिल्म देख कर वह घर पहुंची तो उस ने मन में निश्चय किया कि आज की घटना वह विवेक से नहीं बल्कि अपनी सास को बताएगी.

अगले दिन विवेक के जाने के बाद अंजली अपनी बात कहने के लिए सास के पास गई. पर वहां कमरे में सामान फैला देख वह बोली, ‘मम्मीजी, आप कहीं जा रही हैं क्या?’

‘हां बहू, मैं और विवेक के पिताजी सोच रहे थे कि तुम घर संभाल रही हो तो हम दोनों कहीं घूम आएं. बहुत दिनों से हरिद्वार जाने की सोच रहे थे,’ अंजली की सास के स्वर में शहद की मिठास थी.

‘कितने दिनों के लिए आप लोग जा रहे हैं?’  अंजली ने झिझकते हुए पूछा.

‘3-4 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘आप लोग रास्ते में मुझे मेरी मां के घर छोड़ देंगे?’ अंजली ने हिम्मत बटोर कर पूछा.

‘बेटी, तेरे ही सहारे तो मैं निश्ंिचत हो कर जा रही हूं और फिर विवेक का खयाल कौन रखेगा?’ अंजली की सास ने कहा.

घर में अकेले रहने की कल्पना मात्र से अंजली का मन घबरा रहा था पर वह करे भी तो क्या. सोचा, चलो मांजी को हरिद्वार से लौटने पर सब बात बता देगी. यह सोच कर अंजली फिर अपने काम में लग गई. यथासमय सासससुर के हरिद्वार जाने के बाद अंजली डाक्टर के पास नर्सिंग होम चली गई क्योंकि कुछ दिन से उसे ऐसा लग रहा कि  शायद उस के व विवेक के प्यार का बीज उस के अंदर पनपने लगा है. घर में किसी से कुछ कहने से पहले वह डाक्टर की सहमति चाहती थी इसलिए आज रिपोर्ट लेने चली गई.

‘मुबारक हो अंजली, तुम मां बनने वाली हो,’ डाक्टर ने मुसकरा कर अंजली के हाथ में रिपोर्ट पकड़ा दी, ‘घर से तुम्हारे साथ कौन आया है?’

‘धन्यवाद, डाक्टर, मैं अकेली आई हूं. कुछ खास बात है तो मुझे बताइए,’ अंजली ने कहा.

‘नहीं, कुछ खास बात नहीं है,’ डाक्टर बोली, ‘मैं तो बस, इतना कहना चाहती थी कि तुम्हारे घर वालों को अब तुम्हारा खास खयाल रखना चाहिए.’

घर जातेजाते अंजली सोच रही थी कि आज जब विवेक घर आएंगे तो उन्हें यह खास खबर बताऊंगी. सुन कर कितने खुश होंगे वह. यह सोचते हुए अंजली विवेक के आने का इंतजार कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

ये भी पढ़ें- आंचल की छांव

अंजली ने लपक कर दरवाजा खोला तो सामने सूरज खड़ा था.

‘कैसी हो भाभी…जान?’ सूरज ने कुटिल हंसी के साथ पूछा.

अंजली दरवाजा कस कर पकडे़ हुए बोली, ‘मांबाबूजी घर पर नहीं हैं. आप फिर कभी आइएगा.’ लेकिन सूरज दरवाजे को ठेल कर जबरदस्ती अंदर घुस आया.

‘मैं जानता हूं कि वे लोग हरिद्वार गए हैं, पर तुम मुझे जाने को क्यों कह रही हो,’ अंजली को सिर से पैर तक घूरते हुए सूरज बोला, ‘कितने दिन बाद तो आज यह मौका हाथ लगा है. इसे यों ही क्यों गंवाने दें.’

‘तुम क्या अनापशनाप बके जा रहे हो?’ सूरज को बीच में टोकते हुए अंजली बोली, ‘तुम्हें शरम आनी चाहिए, मैं तुम्हारे अजीज दोस्त की बीवी हूं.’

सूरज उस की इस बात पर ठठा कर हंसते हुए बोला, ‘तुम्हें पता है अंजली, आज तक मैं ने विवेक की हर चीज शेयर की है तो बीवी क्यों नहीं, तुम चाहो तो सब हो सकता है और विवेक को कानोंकान खबर भी नहीं होगी.’

‘तुम अभी दफा हो जाओ मेरे घर से,’ अंजली चीखते हुए बोली, ‘मैं तुम्हें और बरदाश्त नहीं कर सकती. आज मैं विवेक को सब सचाई बता कर रहूंगी.’

‘तुम समझने की कोशिश करो अंजली, तुम्हारे लायक सिर्फ मैं हूं, विवेक नहीं, जो मुझ से हर लिहाज में उन्नीस है,’ कहतेकहते सूरज ने अंजली का हाथ पकड़ अपनी तरफ खींचा तो ‘चटाक’ की आवाज के साथ अंजली ने सूरज के गाल पर तमाचा जड़ दिया.

‘मैं सिर्फ और सिर्फ अपने पति से प्यार करती हूं और अब तो उस के बच्चे की मां भी बनने वाली हूं,’ फुफकार हुए अंजली बोली और सूरज को दरवाजे की ओर धकेल दिया.

‘तुम ने मेरा प्रस्ताव अस्वीकार कर बहुत बड़ी भूल की है अंजली. तुम्हें तो मैं ऐसा मजा चखाऊंगा कि भूल कर भी तुम मुझे कभी भुला नहीं पाओगी,’ जातेजाते सूरज उसे धमकी दे गया.

अंजली का शरीर गुस्से से कांप रहा था. उसे अपनी खूबसूरती और शरीर दोनों से घृणा होने लगी, जिसे सूरज ने छूने की कोशिश की थी. जो हुआ था उस के बारे में सोचतेसोचते अंजली परेशान हो गई. बुरेबुरे खयाल उस के मन में आने लगे कि आज तक तो विवेक आफिस से सीधे घर आते थे फिर आज देर क्यों? इसी उधेड़बुन में अंजली बैठी रही. रात 9 बजे विवेक घर आया.

‘आज बहुत देर कर दी आप ने,’ अंजली ने दरवाजा खोलते ही सामने खड़े विवेक को देख कर पूछा.

‘तुम्हारे लिए तो अच्छा ही है,’ विवेक ने चिढ़ कर कहा.

‘क्या मतलब?’ अंजली हैरानी से बोली.

‘तुम मां बनने वाली हो?’ विवेक ने गुस्से में पूछा.

‘जी, आप को किस ने बताया?’

‘तुम यह बताओ कि बच्चा किस का है?’ चिल्ला कर बोला विवेक.

‘किस का है, क्या मतलब? यह हमारा बच्चा है,’ अंजली विवेक को घूर कर बोली.

‘खबरदार, जो अपने पाप को मेरा नाम देने की कोशिश भी की. मैं सब जानता हूं, तुम कहांकहां जाती हो?’

‘आप यह सब क्या अनापशनाप बोले जा रहे हैं. आज हुआ क्या है आप को? कहीं सूरज…’

अंजली की बात बीच में काटते हुए विवेक फिर दहाड़ा, ‘देखा, चोर की दाढ़ी में तिनका. अपनेआप जबान खुलने लगी. हां, सूरज ने ही मुझे सारी सचाई बताई है. उसी ने तुम्हें हमेशा किसी के साथ देखा है और आज तुम ने सूरज के सामने सचाई स्वीकार की थी और सूरज ने मुझे यह भी बताया है कि तुम अपने आशिक के बच्चे की मां बनने वाली हो जिसे तुम मेरा नाम दोगी.’

ये भी पढ़ें- किसे स्वीकारे स्मिता

‘बस कीजिए, आप. इतना विश्वास है अपने दोस्त पर और अपनी बीवी पर जरा सा भी नहीं. आप क्या जानें सूरज की सचाई को. जबकि हकीकत यह है कि उस ने मुझे हमेशा गंदी नजरों से देखा और आज उस ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश भी की. अंजली अपनी बात अभी कह भी नहीं पाई थी कि विवेक का करारा तमाचा अंजली के गाल पर पड़ा और कमरे में सन्नाटा छा गया.’

‘देखा, जब अपना मैला दामन दूसरों को दिखने लगा तो तुम ने दूसरों पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया. हां, मुझे सूरज पर विश्वास है, तुम पर नहीं. तुम्हें यहां आए 6 महीने भी नहीं हुए और सूरज के साथ मैं ने 6 सालों से कहीं ज्यादा समय बिताया है. अब जब तुम्हारी असलियत जाहिर हो चुकी है तो मैं तुम्हें बरदाश्त नहीं कर सकता. मैं कल सुबह तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ कर आऊंगा और तलाक लूंगा,’ इतना कह कर विवेक अपने कमरे में जाने को मुड़ा तो अंजली उसे खींच कर अपने सामने खड़ा कर गरजते हुए बोली, ‘मैं नहीं जानती कि सूरज ने क्या झूठी कहानी आप को सुनाई है. अब मैं भी आप के साथ नहीं रहना चाहूंगी लेकिन मैं इतना आप को बता दूं कि विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. मैं चाहूं तो आप को प्रमाण दे सकती हूं कि मेरी कोख में आप का बच्चा है पर उस से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उस प्रमाण को सूरज फिर झूठा बना सकता है.’

रात भर अंजली सो न सकी. सुबह होते ही वह उठी और अपना सामान ले कर मायके चल दी. विवेक को पता भी नहीं चला.

मायके में मांबाबूजी को अपनी आप- बीती सुना कर अंजली ने ठंडी सांस ली. बाबूजी गुस्से से तमतमा उठे, ‘विवेक की यह मजाल कि फूल सी नाजुक और गंगा सी पवित्र बेटी पर लांछन लगाता है. मैं उस नवाबजादे को छोडूंगा नहीं.’

‘आप शांत रहिए और कुछ समय बीतने दीजिए. शायद विवेक को खुद अपनी गलती का एहसास हो जाए अन्यथा हम दोनों इस की ससुराल चलेंगे,’ मां ने बाबूजी को शांत करते हुए कहा.

लेकिन वहां से न कोई आया न ही उन्होंने अंजली के मांबाप से कोई बात की. बल्कि उन की पहल को ठुकराते हुए विवेक ने तलाक के कागज अंजली को भिजवाए तो पत्थर सी बनी अंजली ने यह सोच कर चुपचाप कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए कि जहां एक बार बात बिगड़ गई वहां दोबारा सम्मान और प्यार पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

धीरेधीरे समय बीतता गया. सौरभ का जन्म हो गया. अंजली ने कई बार नौकरी करने की जिद की पर बाबूजी ने हमेशा यह कह कर मना कर दिया कि तुम अपना बच्चा संभालो. मैं अभी इतना कमाता हूं कि तुम्हारा भरणपोषण कर सकूं.

एक दिन बाबूजी अंजली को समझाते हुए बोले, ‘बेटी, जिंदगी बहुत बड़ी होती है. मैं सोचता हूं कि तेरी शादी कहीं और कर दूं.’

‘बाबूजी, शादीविवाह से मेरा विश्वास उठा चुका है,’ अंजली बोली, ‘अब तो सौरभ के सहारे मैं पूरा जीवन काट लूंगी.’

‘बेटी, आज तो हम हैं लेकिन कल जब हम नहीं रहेंगे तब तुम किस के सहारे रहोगी?’ बाबूजी ने समझाया.

‘क्या मैं अपना सहारा स्वयं नहीं बन सकती? मैं क्यों दूसरों में अपना सहारा ढूंढ़ने के लिए कदम आगे बढ़ाऊं और फिर गिरूं.’

‘पांचों उंगलियां एकसमान नहीं होतीं,’ बाबूजी समझाते हुए बोले, ‘जीतेजी तुम्हारा सुखीसंसार देखने की हार्दिक इच्छा है वरना मर कर भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. क्या मेरी इतनी सी इच्छा तुम पूरी नहीं करोगी?’

बाबूजी के इस कातर स्वर से अंजली पिघल गई पर दृढ़ स्वर में बोली, ‘ठीक है बाबूजी, मैं शादी करूंगी पर उस व्यक्ति से जो मुझे सौरभ के साथ अपनाएगा.’

सुन कर बाबूजी थोड़ा विचलित तो हुए पर प्रत्यक्ष में बोले, ‘ठीक है जिन से तुम्हारी शादी की बात चल रही है उन से मैं तुम्हारी बातें कह दूंगा पर सौरभ को हम शादी के कुछ समय बाद भेजेंगे.’

‘‘अंजली बेटी, तुम तैयार नहीं हुई,’’ मीना ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा तो अंजली अपनी यादों से वापस लौट आई. बेटी की भीगीभीगी आंखें देख मीना का मन भी भीग उठा.

कोर्ट में रजिस्ट्रार के सामने अमित और अंजली दोनों ने हस्ताक्षर किए. अमित के चेहरे पर परिपक्वता थी फिर भी चेहरे की गरिमा अलग थी. उन का व्यक्तित्व विशिष्ट था.

सौरभ को कुछ दिन बाद भेजने की बात कह बाबूजी रोतेबिलखते सौरभ को ले कर भीतर कमरे में चले गए और अपने घर से विदा हो अंजली एक बार फिर अनजान लोगों के बीच आ गई.

अमित की दोनों बेटियां सुमेधा और सुप्रिया गुडि़यों जैसी थीं. सौरभ से उम्र में कुछ बड़ी थीं जो जल्दी ही अंजली से घुलमिल गईं. 2 महीने बीततेबीतते अंजली ने अमित से कहा, ‘‘मैं सौरभ को यहां लाना चाहती हूं.’’

‘‘हां, इस बारे में हम शाम को बात करेंगे,’’ अमित झिझकते हुए इतना कह कर आफिस चले गए.

शाम को सब बैठे टेलीविजन देख रहे थे तो अमित की मां बोलीं, ‘‘बहू, मुझे जल्दी से अब पोते का मुंह दिखाना.’’

ये भी पढ़ें- रायचंद

‘‘सौरभ भी आप का पोता ही है मांजी.’’ जाने कैसे हिम्मत कर अंजली कह गई.

यह सुनते ही अमित और उस की मां का चेहरा उतर गया.

एक पल बाद ही अमित की मां बोलीं, ‘‘लेकिन मैं अपने पोते अपने खून की बात कर रही थी बहू.’’

‘‘क्या मैं सुमेधा और सुप्रिया को अपना नहीं मानती, तो फिर सौरभ को अपनाने में आप को क्या दिक्कत है?’’ अंजली विनम्रता से बोली.

‘‘बहू, मैं ने तो शुरू में ही तुम्हारे बाबूजी को मना कर दिया था कि सौरभ को हम नहीं अपनाएंगे,’’ अमित की मां ने कहा तो अंजली यह सुन कर अवाक् रह गई.

‘‘चलिए, मैं मान लेती हूं कि आप ने बाबूजी से यह बात कही होगी जो उन्होंने मुझे नहीं बताई पर मैं अपने बच्चे के बिना नहीं रह सकती,’’ अंजली ने कहा.

‘‘देखो बहू, मैं इस बारे में सोच भी लेती पर अब जिंदा मक्खी निगल तो नहीं सकती न. मुझे सचाई का पता चल चुका है. मैं सौरभ को नहीं अपना सकती, जाने किस का गंदा खून है.’’

‘‘मांजी’’ अंजली ने चिल्ला कर उन की बात बीच में काट दी, ‘‘आप को मेरे या सौरभ के बारे में ऐसी बातें कहने का कोई हक नहीं है.’’

‘‘तुम क्या हक दोगी और अपने बारे में क्या सफाई दोगी?’’ अमित की मां तल्ख शब्दों में बोलीं, ‘‘तुम्हारे बारे में हमें सबकुछ पता है. मैं सब जान कर भी खामोश हो गई कि चलो, इनसान से गलती हो जाती है और सौरभ कौन सा मेरे घर आएगा पर अब तुम्हारी यह जिद नहीं चलेगी.’’

‘‘मांजी, यह मेरी जिद नहीं, मेरा हक है. मेरे मां होने का हक है,’’ अंजली भी उसी तरह तल्ख लहजे में बोली, ‘‘सौरभ विवेक का ही बेटा है और कौन किस का बेटा है यह एक मां ही जानती है और मैं नहीं चाहती कि हमारी भूल की सजा मेरा बेटा भुगते. वो यहां जरूर आएगा और मेरे साथ ही रहेगा.’’

अंजली का यह फैसला सुन कर अमित की मां गरज उठीं.

‘‘इस घर में सौरभ नहीं आएगा और अगर सौरभ इस घर में आएगा तो मैं इस घर में नहीं रहूंगी.’’

‘‘आप इस घर से क्यों जाएंगी. ये आप का घर है, आप शौक से रहिए. इस घर के लिए अभी मैं अजनबियों सी हूं, मैं ही चली जाऊंगी. पहले भी मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ था, आज फिर हो रहा है. पहले सूरज खिलाड़ी था और आज आप हैं जो स्वयं एक मां हैं. क्या आप अपने बच्चों से दूर रह सकती हैं?’’ अंजली अमित की मां का सामना करते हुए बोली.

‘‘पहली शादी टूट चुकी है. दूसरी हुई है तो निबाह ले मूरख वरना दुनिया थूथू करेगी,’’ अमित की मां ने कटाक्ष किया.

‘‘मैं ने आज तक अमित से या आप से यह नहीं पूछा कि इन की पहली पत्नी ने इन्हें क्यों तलाक दे दिया पर अब सोच सकती हूं कि अमित के तलाक में भी आप का ही हाथ रहा होगा.’’

मां और पत्नी के बीच बढ़ती तकरार को देख कर अमित मां को उन के कमरे में ले गए और अंजली पैर पटकती हुई अपने कमरे में लौट आई.

अंजली को लगा कि एक बार फिर उसे ससुराल की दहलीज लांघनी होगी पर इस बार वह अपने पैरों पर खड़ी हो अपना सहारा स्वयं बनेगी. बाबूजी ने झूठ बोल उस का संसार बसाना चाहा पर सौरभ की कीमत दे कर वह बाबूजी की इच्छा पूरी नहीं कर पाएगी. उस की आंखें नम हो आईं. उसे अपनी तकदीर पर रोना आ गया.

तभी अमित कमरे में प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘क्या सोच रही हो अंजली? शायद, घर वापस जाने की सोच रही हो?’’

‘‘जी,’’ छोटा सा उत्तर दे अंजली फिर खामोश हो गई.

‘‘मैं ने तो तुम से जाने को नहीं कहा,’’ अमित ने कहा तो अंजली रुखाई से बोली, ‘‘लेकिन आप ने अपनी मां का या मेरी बातों का कोई विरोध भी तो नहीं किया. क्या आप सुमेधा और सुप्रिया के बिना रह सकते हैं?’’ इतना कहतेकहते अंजली रो पड़ी.

‘‘ठीक है, हम जाएंगे और अपने बेटे सौरभ को ले कर आएंगे,’’ अमित की बात सुन सहसा अंजली को विश्वास नहीं हुआ. वह चकित सी अमित को देख रही थी तो अमित हंस पड़े.

‘‘लेकिन आप की मां,’’ अंजली ने शंका जाहिर की.

‘‘अरे हां, मैं तो भूल ही गया था, अभी आया,’’ कह कर अमित मुड़ने को हुए तो अंजली ने टोका, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’

‘‘अपनी मां को घर से निकालने,’’ अमित ने हंस कर कहा.

‘‘जी’’ किसी बच्चे की तरह चौंक कर अंजली फिर बोली, ‘‘जी.’’

‘‘अरे भई, उन्होंने ही तो अभी कहा था कि इस घर में या तो सौरभ रहेगा या वह रहेंगी. कल जब सौरभ आ रहा है तो जाहिर है वह यहां नहीं रहेंगी,’’ अमित ने कहा.

ये भी पढ़ें- सपनों की राख तले

‘‘लेकिन मैं ऐसा भी नहीं चाहती. आखिर वह आप की मां हैं,’’ अंजली अटकते हुए बोली.

‘‘मेरी मां हैं तभी तो उन्हें उन के भाई के यहां कुछ दिन छोड़ने के लिए जा रहा हूं. तुम चिंता मत करो. वह भी अपने बच्चे से अलग होंगी तभी तुम्हारी ममता को समझ पाएंगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर अमित बाहर निकल अपनी मां के कमरे की ओर मुड़ गए.

सुखदुख के मिलेजुले भाव ले वह अमित और उन की मां की उठती आवाजों को सुनती रही. बहस का अंत अमित के पक्ष में आतेआते अंजली का मस्तक अमित के लिए श्रद्धा से झुक गया.     द्य

आईना

लेखिका-  सुधा गुप्ता

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्योंकर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

ये भी पढ़ें- मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

अस्पताल रह कर चारू लौटी तो अपने ही कमरे में कैद हो कर रह गई. परेशान हो गया था अनुराग. एक दिन मैं ने फोन किया तो बेचारा रो पड़ा था.

‘‘अच्छीभली हमारे घर आई थी. मायके में सारा घर चारू ही संभालती थी. मैं इस सच को अच्छी तरह जानता हूं. हमारे घर आई तो चाय का कप बनाते भी उस के हाथ कांपते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, मौसी?’’

‘‘उसे दीदी से दूर  ले जा. मेरी बात मान, बेटा.’’

‘‘मम्मी तो उस की देखभाल करती हैं. बेचारी चारू की चिंता में आधी हो गई हैं.’’

‘‘यही तो समस्या है, अनुराग बेटा. शोभा तेरी मां हैं तो मेरी बड़ी बहन भी हैं, जिन्हें मैं बचपन से जानती हूं. मेरी बात मान तो तू चारू को कहीं और ले जा या कुछ दिन के लिए मेरे घर छोड़ दे. कुछ भी कर अगर चारू को बचाना चाहता है तो, चाहे अपनी मां से झूठ ही बोल.’’

अनुराग असमंजस में था मगर बचपन से मेरे करीब होने की वजह से मुझ पर विश्वास भी करता था. टूर पर ले जाने के बहाने वह चारू को अपने साथ मेरे घर पर ले आया तो चारू को मैले कपड़ों में देख कर मुझे अफसोफ हुआ था.

‘‘मौसी, आप क्या समझाना चाहती हैं…मेरे दिमाग में ही नहीं आ रहा है.’’

‘‘बस, अब तुम चिंता मत करो. तुम्हारा 15 दिन का टूर है और दीदी को यही पता है कि चारू तुम्हारे साथ है, 15 दिन बाद चारू को यहां से ले जाना.’’

अनुराग चला गया. जाते समय वह मुड़मुड़ कर चारू को देखता रहा पर वह उसे छोड़ने भी नहीं गई. 6-7 महीने ही तो हुए थे शादी को पर पति के विछोह की कोई भी पीड़ा चारू के चेहरे पर नहीं थी. चूंकि मेरे दोनों बेटे बाहर पढ़ते हैं और पति शाम को ही घर पर आने वाले थे इसीलिए हम दोनों उस समय अकेली ही थीं.

‘‘चारू, बेटा क्या लेगी? ठंडा या गरम, कुछ नाश्ता करेगी न मेरी बच्ची?’’

स्नेह से सिर पर हाथ फेरा तो मेरी गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. मैं प्यार से उसे सहलाती रही.

‘‘ऐसा लगता है मौसी कि मैं मर जाऊंगी. मुझे बहुत डर लगता है. कुछ नहीं होता मुझ से.’’

‘‘होता है बेटा, होता क्यों नहीं. तुम्हें तो सब कुछ आता है. चारू इतनी समझदार, इतनी पढ़ीलिखी, इतनी सुंदर बहू है हमारी.’’

चारू मेरा हाथ कस कर पकड़े रही जब तक पूरी तरह सो नहीं गई. एक प्रश्नचिह्न थी मेरी बहन सदा मेरे सामने, और आज भी वह वैसी ही है. एक उलझा हुआ चरित्र जिसे स्वयं ही नहीं पता, उसे क्या चाहिए. जिस का अहं इतना ऊंचा है कि हर रिश्ता उस के आगे बौना है.

शाम को मेरे पति घर आए तब उन्हें मेरे इस कदम का पता चला. घबरा गए वह कि कहीं दीदी को पता चला तो क्या होगा. कहीं रिश्ता ही न टूट जाए.

‘‘टूटता है तो टूट जाए. उम्र भर हम ने दीदी की चालबाजी सही है. अब मैं बच्चों को तो दीदी की आदतों की बलि नहीं चढ़ने दे सकती. जो होगा हो जाएगा. कभी तो आईना दिखाना पड़ेगा न दीदी को.’’

चारू की हालत देख कर मैं सुबकने लगी थी. चारू उठी ही नहीं. सुबह का नाश्ता किया हुआ  था. खाना सामने आया तो पति का मन भी भर आया.

‘‘बच्ची भूखी है. मुझ से तो नहीं खाया जाएगा. तुम जरा जगाने की कोशिश तो करो. आओ, चलो मेरे साथ.’’

रिश्ते की नजाकत तो थी ही लेकिन सर्वोपरि थी मानवता. हमारी अपनी बच्ची होती तो क्या करते, जगाते नहीं उसे. जबरदस्ती जगाया उसे, किसी तरह हाथमुंह धुला मेज तक ले आए. आधी रोटी ही खा कर वह चली गई.

‘‘सोना मत, चारू. अभी तो हम ने बातें करनी हैं,’’ मैं चारू को बहाने से जगाना चाहती थी. पहले से ही खरीदी साड़ी उठा लाई.

‘‘चारू, देखना तुम्हारे मौसाजी मेरे लिए साड़ी लाए हैं, कैसी है? तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. तुम्हारी साडि़यां देखी थीं न शादी में, जरा पसंद कर के दे दो. यही ले लूं या बदल लूं.’’

चारू ने तनिक आंखें खोलीं और सामने पड़ी साड़ी को उस ने गौर से देखा फिर कहने लगी, ‘‘मौसाजी आप के लिए इतने प्यार से लाए हैं तो इसे ही पहनना चाहिए. कीमत साड़ी की नहीं कीमत तो प्यार की होती है. किसी के प्यार को दुत्कारना नहीं चाहिए. बहुत तकलीफ होती है. आप इसे बदलना मत, इसे ही पहनना.’’

शब्दों में सुलह कम प्रार्थना ज्यादा थी. स्नेह से माथा सहला दिया मैं ने चारू का.

‘‘बड़ी समझदार हो तुम, इतनी अच्छी बातें कहां से सीखीं.’’

‘‘अपने पापा से, लेकिन शादी के बाद मेरी हर अच्छाई पता नहीं कहां चली गई मौसी. मैं नाकाम साबित हुई हूं, घर में भी और नातेरिश्तेदारों में भी. मुझे कुछ आता ही नहीं.’’

‘‘आता क्यों नहीं? मेरी बच्ची को तो बहुत कुछ आता है. याद है, तुम्हारे मौसाजी के जन्मदिन पर तुम ने उपमा और पकौड़े बनाए थे, जब तुम अनुराग के साथ पहली बार हमारे घर आई थीं. आज भी हमें वह स्वाद नहीं भूलता.’’

‘‘लेकिन मम्मी तो कहती हैं कि आप लोग अभी तक मेरा मजाक उड़ाते हैं. इतना गंदा उपमा आप ने पहली बार खाया था.’’

यह सुन कर मेरे पति अवाक् रह गए थे. फिर बोले, ‘‘नहीं, चारू बेटा, मैं अपने बच्चों की सौगंध खा कर कहता हूं, इतना अच्छा उपमा हम ने पहली बार खाया था.’’

शोभा दीदी ने बहू से इस तरह क्यों कहा? इसीलिए उस के बाद यह कभी हमारे घर नहीं आई. आंखें फाड़फाड़ कर यह मेरा मुंह देखने लगे. इतना झूठ क्यों बोलती है यह शोभा? रिश्तों में इतना जहर क्यों घोलती है यह शोभा? अगर सुंदर, सुशील बहू आ गई है तो उस को नालायक प्रमाणित करने पर क्यों तुली है? इस से क्या लाभ मिलेगा शोभा को?

‘‘तुम, तुम मेरी बेटी हो, चारू. अगर मेरी कोई बेटी होती तो शायद तुम जैसी होती. तुम से अच्छी कभी नहीं होती. मैं तो सदा तुम्हारे अपनेपन से भरे व्यवहार की प्रशंसा करता रहा हूं. लगता ही नहीं कि घर में किसी नए सदस्य का आगमन हुआ था. अपनी मौसी से पूछो, उस दिन मैं ने क्या कहा था? मैं ने कहा था, हमें भी ऐसी ही बहू मिल जाए तो जीवन में कोई भी कमी न रह जाए. मैं सच कह रहा हूं बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, मेरा विश्वास करो.’’

मेरे सामने सब साफ होता गया. शोभा अपने पुत्र और पति के सामने भी खुद को बहू से कम सुंदर, कम समझदार प्रमाणित नहीं करना चाहती.

दूसरी सुबह ही मैं ने पूरा घर चारू को सौंप दिया. मेरे पति ने ही मुझे समझाया कि एक बार इसे अपने मन की करने तो दो, खोया आत्मविश्वास अपनेआप लौट आएगा. बच्ची पर भरोसा तो करो, कुछ नया होगा तो उसे स्वीकारना तो सीखो. इस का जो जी चाहे करे, रसोई में जो बनाना चाहे बनाए. कल को हमारी भी बहुएं आएंगी तो उन्हें स्वीकार करना है न हमें.

चाय बनाने में चारू के हाथ कांप रहे थे. वह डर रही थी तो मैं ने उस का हौसला बढ़ाने के लिए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ कमी होगी तो हम पूरी कर लेंगे. तुम बनाओ तो सही. बनाओ, शाबाश.’’

मेरे इस अभियान में पति भी मेरे साथ हो गए थे. उन्हें विश्वास था कि चारू अच्छी हो जाएगी. शाम को घर आए तो पता चला कि 15 दिन की छुट््टी पर हैं. पूछा तो हंसने लगे, ‘‘क्या करता, आज शोभा का फोन आया था. कहती थी 2 दिन के लिए यहां आना चाहती है. उसे मैं ने टाल दिया. मैं ने कह दिया कि कल से बनारस जा रहे हैं हम, मिल नहीं पाएंगे. इसलिए क्षमा करें.’’

ये भी पढ़ें- आंचल की छांव

‘‘अच्छा? यह तो मैं ने सोचा ही न था,’’ पति की समझदारी पर भरोसा था मुझे.

‘‘अब चारू के बहाने मैं भी घर पर रह कर आराम करूंगा. चारू नएनए पकवान बनाएगी, है न बिटिया.’’

‘‘मेरी खातिर आप को कितना झूठ बोलना पड़ रहा है.’’

15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. सब बदल गया, मानो हमें बेटी मिल गई हो. सुबह नाश्ते से ले कर रात खाने तक सब चारू ही करती रही. मेरे कितने काम रुके पड़े थे जो मैं गरदन में दर्द की वजह से टालती जा रही थी. चारू ने निबटा दिए थे. घर की सब अलमारियां करीने से सजा दीं और बेकार सामान अलग करवा दिया.

घर की साजसज्जा का भी चारू को शौक है. फैब्रिक पेंट और आयल पेंट से हमारा अतिथि कक्ष अलग ही तरह का लगने लगा. नई सोच और नई ऊर्जा पर मेरी थक चुकी उंगलियां संतुष्ट एवं प्रसन्न थीं. काश, ऐसी ही बहू मुझे भी मिल जाए. क्या दीदी को ऐसा नहीं लगता? फिर सोचती हूं उस की उंगलियां थकी ही कब थीं जो बहू में सहारा खोजतीं. उस ने तो आज तक सदा अभिनय किया और दांवपेच खेल कर अपना काम चलाया है. मेरी बनाई पाक कला पर बड़ी सहजता से अपना नाम चिपकाना, बनीबनाई चीज और पराई मेहनत का सारा श्रेय खुद ले जाना दीदी का सदा का शौक रहा है. भला इस में मेहनत कैसी जो वह थक जाती और बहू का सहारा उसे मीठा लगता.

अनुराग का फोन अकसर आता रहता. चारू उस से बात करने से भी कतराती. पूछने पर बताने लगी, ‘‘बहुत परेशान किया है मुझे अनुराग ने भी. कम से कम इन्हें तो मेरा साथ देना चाहिए. मेरा मन नहीं है बात करने का.’’

एक दिन चारू बोली, ‘‘मौसी, मैं अपने मायके पापा के पास भाग जाना चाहती थी लेकिन डरती हूं कि पापा को मेरी हालत देख कर धक्का लगेगा. उन्हें भी तो दुखी नहीं करना चाहती.’’

‘‘इस घर को अपने पापा का ही घर समझो, मैं हूं न,’’ भावविह्वल हो कर मेरे पति बोले थे. बरसों से मन में बेटी की साध थी. चारू से इन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों किसी भी विषय पर अच्छी खासी चर्चा कर बैठते.

‘‘बहुत समझदार और बड़ी सूझबूझ वाली है चारू, इसीलिए तुम्हारी बहन के गले में कांटे की तरह फंस गई. यह तो होना ही था. भला शोभा जैसी औरत इसे कैसे बरदाश्त करती?’’ मेरे पति बोले.

15 दिन बाद अनुराग आया और उस के सभी प्रश्नों के उत्तर उस के सामने थे. मेरे घर की नई साजसज्जा, दीवार पर टंगी खूबसूरत पेंटिंग, सोफों पर पड़े सुंदर कुशन, मेज पर सजा स्वादिष्ठ नाश्ता, सब चारू का ही तो कियाधरा था.

‘‘पता चला, मैं क्यों कहती थी कि चारू को मेरे पास छोड़ जा. कुछ नहीं किया मैं ने, सिर्फ उसे मनचाहा करने की आजादी दी है. पिछले 15 दिन से मैं ने पलट कर भी नहीं देखा कि वह क्या कर रही है. जो लड़की मेरा घर सजासंवार सकती है, क्या अपने घर में निपट गंवार होगी? क्या एक कप चाय भी वह तुम्हें नहीं पिला पाती होगी? अपनी मां का इलाज कराओ अनुराग, चारू तो अच्छीभली है. जाओ, जा कर मिलो उस से, अंदर है वह.’’

शाम तक अनुराग हमारे ही साथ रहा. घर जाने का समय आया तो हम दोनों का भी मन डूबने लगा. अपने मौसा की छाती से लग कर चारू फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘नहीं बिटिया, रोना नहीं. तुम्हारा अपना घर तो वही है न. अब तुम्हें उसी को सजानासंवारना है. जब भी याद आए, मत सोचना तुम्हारे पापा का घर दूर है. नहीं तो एक फोन ही घुमा देना, हम अपनी बच्ची से मिलने आ जाएंगे.’’

हाथ में पकड़ी सुंदर टाप्स की डब्बी इन्होंने चारू को थमा दी.

‘‘पापा के घर से बिटिया खाली हाथ नहीं न जाती. जाओ बच्ची, फलो- फूलो, खुश रहो.’’

दोनों चले गए. हम उदास भी थे और संतुष्ट भी. पूरी रात अपने कदम का निकलने वाला नतीजा कैसा होगा, सोचते रहे. सुबहसुबह इन्होंने शोभा दीदी के घर फोन किया.

‘‘दीदी, हम बनारस से लौट आए हैं. आप आइए न, कुछ दिन हमारे पास,’’ और कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद हंसते हुए फोन रख दिया.

‘‘सुनो, अब तुम्हारी बहन परेशान हैं. क्या उन्हें भी बुला लें. कह रही हैं, चारू अनुराग के साथ कुछ दिनों के लिए टूर पर गई थी और अब लौटी है तो मेमसाहब के रंगढंग ही बदले हुए हैं. कह रही हैं कि अपना और अनुराग का नाश्ता वह खुद ही बनाएंगी.’’

हैरान रह गई मैं, ‘‘तो क्या बहू की चुगली दीदी आप से कर रही हैं. उन्हें शर्म है कि नहीं?’’

मेरे पति खिलखिला कर हंस पडे़ थे. हमारा प्रयोग सफल रहा था. चारू संभल गई थी. अब भोगने की बारी दीदी की थी. कभी न कभी तो उसे अपना बोया काटना ही पड़ता न, सो उस का समय शुरू होता है अब.

अब अकसर ऐसा होता है, दीदी आती हैं और घंटों चारू के उसी अभिनय को कोसती रहती हैं जिस के सहारे दीदी ने खुद अपनी उम्र गुजारी है. कौन कहे दीदी से कि उसे आईना दिखाया जा रहा है, यह उसी पेड़ का कड़वा फल है जिस का बीज उस ने हमेशा बोया है. कभी सोचती हूं कि दीदी को समझाऊं लेकिन जानती हूं वह समझेंगी नहीं.

भूल जाता है मनुष्य अपने ओछे कर्म को. अपने संताप का कारण कभीकभी वह स्वयं ही होता है. जरा सा संतुलन अगर रिश्तों में शोभा भी बना लेने का प्रयास करती तो न वह कल औरों को दुखी करती और न ही आज स्वयं परेशान होती.

जो भी प्रकृति दे दे

लेखक- सुधा गुप्ता

कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

ये भी पढ़ें- लाश वाली सवारी

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

ये भी पढ़ेंकजरी

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

ये भी पढ़ें- जी शुक्रिया

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

ये भी पढ़ें- हड़ताली

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

ये भी पढ़ें- प्रश्नों के घेरे में

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे,

पुरस्कार

लेखक- सुरेंद्र नाथ मल्होत्रा

उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

ये भी पढ़ें- आइए एडमिशन का मौसम है

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

ये भी पढ़ें- राख: अभी ठंडी नहीं हुई

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

ये भी पढ़ें- सीमा रेखा

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

ये भी पढ़ें- शिकार

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

आइए एडमिशन का मौसम है

लेखक-  शरद उपाध्याय

हमारे देश में प्रतिदिन हजारों बच्चों का जन्म होता है. बच्चे धीरेधीरे बड़े होते हैं व एक दिन उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जहां पर उन्हें स्कूल भेजने का संस्कार संपन्न कराना पड़ता है.

बच्चों को स्कूल में डालना, देखने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना सरल वास्तव में है नहीं. वे दिन गए जब बच्चों को सरलता से स्कूल में एडमिशन मिल जाया करता था. बच्चा थोड़ा सा ठीकठाक हुआ, उलटीसीधी गिनती बताने लगता था तो भी वे मात्र इस आधार पर कि बच्चे को पर्याप्त दिशाज्ञान है, स्कूल में भर्ती कर लेते थे.

पर आज ऐसा कुछ भी नहीं है. वर्तमान में एडमिशन एक दुर्लभ प्रक्रिया हो गई है. बच्चे के जन्म के साथ ही यह चिंता और बहस का विषय हो जाता है. जैसे ही बच्चा जन्मता है, मांबाप उस के भविष्य की चिंता प्रारंभ कर देते हैं. उन्हें घबराहट होती है कि बस, 3 या 4 साल बाद वे ‘स्कूल एडमिशन’ के पीड़ादायक दौर से गुजरने वाले हैं. उन्हें भूख कम लगने लगती है तथा ब्लडप्रेशर में उतारचढ़ाव अधिक महसूस होता है.

पहले जहां इस प्रक्रिया में अध्ययन केवल बच्चे को करना पड़ता था आजकल मांबाप को अधिक मेहनत करनी पड़ती है. वर्षों पूर्व की गई पढ़ाई की यादें ताजा हो जाती हैं तथा मांबाप  के हाथ में पत्रपत्रिकाओं के स्थान पर कोर्स की किताबें नजर आने लगती हैं.

बच्चे के जन्म के साथ ही मातापिता का नगरीय भौगोलिक ज्ञान बढ़ जाता है. शहर के वे सभी स्कूल, जहां वे बच्चे का एडमिशन कराना चाहते हैं, उन के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं. वे जब कभी भी उधर निकलते हैं, उन स्कूलों को देख कर ठंडी आहें भरते हैं.

ये भी पढ़ें- बताएं कि हम बताएं क्या

बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो मांबाप के चिंताग्राफ में वृद्धि हो जाती है. वे तथाकथित स्कूलों के अध्यापक- अध्यापिकाओं से संबंध बढ़ाने लगते हैं. जानपहचान न होने के बावजूद उन्हें नमस्ते करते हैं. यहां वे गुरुजनों के प्रोत्साहन के अभाव को दार्शनिक अंदाज में लेते हैं. वे सोचते हैं, कोई बात नहीं, आज नहीं तो कल ईश्वर उन की प्रार्थना को अवश्य सुनेगा.

थोड़ा सा परिचय होने के बाद वे गुरुजनों को घर पर चाय के लिए आमंत्रित करते हैं एवं उन के न आने पर स्वयं उन के घर जा धमकते हैं. इन नाना प्रकार के मौकों पर मिली उपेक्षा को वे भविष्यरूपी निवेश समझ कर पी जाते हैं.

लेकिन उन के प्रयास केवल बाहरी नहीं होते, उन का घर भी एक बाल अध्ययन केंद्र बन जाता है. पहले वे स्वयं रटरट कर याद करते हैं, उस के बाद बच्चे के साथ अत्याचार जारी रखते हैं. जिन सब्जियों को पहले वे मात्र हिंदी में ही पका कर खाते थे. अब उन के अंगरेजी अर्थ के लिए किताबों का सहारा लेते हैं. पहले उन के घर में जहां रोज पूजा के मंत्र गूंजते थे, अब पालतू जानवरों व पक्षियों के नाम तैरते रहते हैं. उन का घर, घर न लग कर चिडि़याघर प्रतीत होता है.

व्यक्ति घर से निकलने वाले सभी रास्ते भूल जाता है. वह घर से दफ्तर जाता है व दफ्तर से लौट कर सीधे घर आता है. घर आते ही वह किताबें उठा कर सीधे ट्यूशन पढ़ने चला जाता है. आखिरकार आजकल बच्चों के साथसाथ मांबाप का भी इंटरव्यू लिया जाता है. कहीं किसी मौके पर बच्चा तो होशियारी का परिचय दे जाए, किंतु मांबाप फिसड्डी साबित हों, इस डर से वह निरंतर अध्ययन में लगा रहता है.

आजकल बड़ेबड़े स्कूलों में फीस का स्तर भी बड़ाबड़ा ही होता है. अत: वह निर्धारित समय पर आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए विभिन्न ऋण योजनाओं का दामन पकड़ते हैं. जिस खर्चे में उन की कालिज स्तर की पढ़ाई संपन्न हो गई थी, आजकल उस में तो बच्चा नर्सरी भी पास नहीं कर सकता.

जैसे ही उन का नालायक बच्चा लायक बनता है उन की तैयारियां युद्ध स्तर पर प्रारंभ हो जाती हैं. पति व पत्नी  अपनी बेकाबू काया पर काबू पाने के लिए सघन अभियान प्रारंभ कर देते हैं. पति जहां रोज सुबहसुबह दौड़ लगाता है वहीं पत्नी रस्सी कूद कर शरीर छरहरा करने का असफल प्रयास करती है. आखिरकार इंटरव्यू में मांबाप फिट नहीं दिखे तो बच्चे के अनफिट होने की आशंका बढ़ जाती है.

पत्नी जो विभिन्न मौकों पर अंगरेजी की टांग तोड़ती रहती है, अब थोड़ा संभलसंभल कर बोलने लगती है.

शहर के विभिन्न स्कूल एडमिशन के इस पावन पर्व पर अपने फार्म जारी करते हैं जिस पर व्यक्ति सैकड़ों रुपए इनवेस्ट कर आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देता है.

फिर आता है इंटरव्यू का दौर. उस से पूर्व मातापिता का जहां खाना हराम हो जाता है वहीं बच्चों की डाइट बढ़ जाती है. अच्छे प्रदर्शन का वचन देने के बदले वह नाना प्रकार की स्वादिष्ठ वस्तुएं अनवरत पाता रहता है. इस से जहां बच्चे का स्वास्थ्य सुधरता है वहीं चिंतित मातापिता का स्वास्थ्य व बजट, दोनों बिगड़ जाता है.

इंटरव्यू के दौरान विभिन्न स्कूलों के अलगअलग चयनकर्ताओं के सामने प्रदर्शन करता है. जब तक रिजल्ट नहीं आता तब तक मांबाप, आपस में बैठ कर तीनों के प्रदर्शन की समीक्षा करते रहते हैं. वे विभिन्न देवीदेवताओं के समक्ष मनौती मानते हैं.

ये भी पढ़ें- टूटता विश्वास

किंतु होनी को कौन टाल सकता है. चंद भाग्यवानों के अतिरिक्त सभी का विश्वास भगवान से उठ जाता है. वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं. बच्चे का जीवन स्तर, जोकि अच्छे प्रदर्शन के वचन के कारण ऊपर उठ गया था, पुन: गरीबी की रेखा के नीचे आ जाता है.

फिर वे भारतीय खिलाडि़यों के अच्छे प्रदर्शन न कर पाने की तरह, एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं. और अंत में थकहार कर समझौतावादी हो जाते हैं. परिणाम में वे नालायक बेटे को किसी लायक स्कूल के स्थान पर अन्य स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं और इसे नियति मान कर स्वीकार कर लेते हैं. द्य

मेरी बेटी का व्यंजन परीक्षण

लेखक-  सुव्रता हेमंत

इसलिए जब वह छात्रावास चली गई तो मैं ने चैन की सांस ली. लेकिन जबजब वह छुट्टियों में घर आ जाती तो रहीसही कसर पूरी कर लेती.

इस बार उस ने रसोई में कुछ अधिक ध्यान देने की ठानी. बोली, ‘‘मां, इस बार सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत हम लंदन जाएंगे. मुझे भारतीय खाना बनाना पड़ेगा. मुझे कुछ सिखाओ. कुछ ऐसे व्यंजन बनाना सिखाओ कि लंदन में बसी मेरी सहेलियां खुश हो जाएं.’’

यह सुनते ही मेरा बेटा चहक उठा, ‘‘अब तो मजा आएगा. आप खाना बनाओ. नएनए व्यंजन बनाओ, मैं चख कर बताऊंगा कि ठीक बने हैं या नहीं.’’

लेकिन 1-2 दिन में उस का यह उत्साह भी ठंडा पड़ गया. बने व्यंजन चखने तो क्या वह उन्हें देखने को भी तैयार न होता.

अब तो रसोई की तमाम चीजों से बेटी का परिचय कराना जरूरी हो गया. नमक की जगह मीठा सोडा, फिटकरी की जगह मिश्री की डली का प्रयोग बेटी बिना किसी संकोच के बड़े इत्मीनान से कर देती थी. दालों की भूलभुलैया की वजह से सभी दालों का मिश्रण पकता. कभी उड़द की जगह मूंग की दाल दहीभल्लों के लिए भिगोई जाती. वैसे जीरा और सौंफ का फर्क वह जल्दी ही समझ गई. बस, 1-2 दाने मुंह में डाल कर स्वाद चख लेती थी.

ये भी पढ़ें- अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

एक दिन पुलाव के चावलों का और डोसे बनाने के लिए रखे कच्चे चावलों का दलबदल हो गया, बनने को तो दोनों व्यंजन बन गए मगर उन्हें स्वादिष्ठ कहना इस शब्द का अपमान होगा. बेटी खीजती हुई बोली, ‘‘पता नहीं रसोई में इतनी सारी चीजें क्यों रखती हो?’’ परिणामस्वरूप हर डब्बे पर नाम तथा उपयोग की पर्चियां चिपकाई गईं.

अब बात आई मसालों पर.

‘‘ओफ्फो, यह काली मिर्च, सफेद मिर्च और लाल मिर्च. सिर्फ एक मिर्च रखा करो, हरी वाली.’’

मसालों के पैकेट खरीदने का मुझे शौक नहीं था. मेरे बेटे को ताजा, गरममसाला पसंद था, परंतु अब हर प्रकार के पिसे मसालों के पैकेट खरीदे गए थे. इस से वह दुकानदार बड़ा खुश हो गया जिस से हम सामान खरीदते थे, ‘‘गुडि़या, तुम्हारी मां बिना मसालों के खाना बनाती थीं, अब तुम हमारे मसालों से बढि़या खाना बनाना.’’

रोटी या परांठे बनाने से पहले आटा गूंधना बड़ा कठिन काम था. कभी आटा पतला हो जाता था तब मुझे वह आटा ले कर तंदूर वाले के पास तंदूरी रोटी बनवाने के लिए जाना पड़ता. इतने पतले आटे की रोटियां सेंकना मुझे मेरी मां ने सिखाया नहीं था. एक बार आटा इतना सख्त गूंधा गया कि उस की पूडि़यां पापड़ की तरह बेलतेबेलते मेरे बाजू और कंधों में दर्द होने लगा. पूडि़यों में मठरी का सा मजा आ गया.

एकाध सब्जी का प्रशिक्षण जरूरी था. बेटा बोला, ‘‘आलू की सब्जी बनाना. कम से कम लंदन के लोगों को यह तो पता चल जाएगा कि किस चीज की सब्जी बनी है.’’

आलू उबाल कर, उस पर नमक- मसाला छिड़क कर, सब्जी बनाने की विधि सुन कर बेटी खुश हो गई. परंतु जब सब्जी बन गई तो उसे चखने के बाद बेटे ने दही और अचार के साथ रोटी खाई.

अब स्कूल से एक काफी लंबा पत्र आया. पत्र द्वारा सूचित किया गया था कि लंदन में जाने वाले बच्चों की सूची में मेरी बेटी का नाम भी शामिल है. इस के लिए बधाई दी गई थी. आगे लिखा था कि छात्राओं को भारतीय वेशभूषा के साथ भारतीय संस्कृति के बारे में जानकारी जरूरी थी, यह भी जरूरी था कि भारतीय ढंग से खाना बनाना, गीत गाना और नृत्य करना आता हो. बरतन मांजने, प्लेटों को धोने आदि का अभ्यास भी जरूरी था.

अब बेटी की सहायता करने के लिए उस की सहेलियां आने लगीं और खाना बनाने का अभ्यास करवाने लगीं. हर रोज सवेरे, दोपहर और शाम को भी भंगड़ा तथा गिद्दा नृत्य का अभ्यास भी वह सब करतीं. व्यंजनों की एक किताब खरीदी गई. उस के अनुसार खाना बनाने का प्रयास होने लगा. जो चीज घर में न होती, उसे तुरंत दुकान से खरीदा जाता, इस के बावजूद व्यंजनों का चटपटा स्वाद न होता, जैसेतैसे राजमाआलू की सब्जी और पूडि़यां तथा चावल बनाना लड़कियां सीख गईं.

खाना खाने के बाद बरतन मांजे जाते. साथ में ऊंचे स्वर में रेडियो चलता. रेडियो पर गाने वाली गायिका के साथसाथ बेटी भी गाना गाती. बीच में कुछ बेसुरे स्वर भी आते फिर पता चलता कि चीनी के कपप्लेट अथवा कांच के गिलास बेसुरे ढंग से टूट गए थे.

ये भी पढ़ेंघर ससुर: क्यों दमाद के घर रहने पर मजबूर हुए पिताजी?

जब लंदन जाने में 6-7 दिन बाकी रह गए तब मेरा धैर्य और संयम खत्म हो गया. मैं ने प्यार से बेटी को समझाया, ‘‘अब मैं व्यंजन बनाऊंगी. तुम और तुम्हारी सहेलियां देखना कि मैं किस प्रकार विभिन्न व्यंजन आदि बनाती हूं.’’

वह बिफर कर बोली, ‘‘मां, तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती. सभी सहेलियों की माताएं उन्हें प्रोत्साहन देती हैं और तुम? मैं जानती हूं, तुम नहीं चाहतीं कि मैं और कुछ सीखने का प्रयास करूं.’’

फिर उदास स्वर में बोली, ‘‘मां, तुम्हें तो मुझ पर नाराज होना चाहिए. तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा कि तुम्हारी बेटी को कोई व्यंजन बनाना नहीं आता और यहां तुम हो कि मुझे प्यार करती जा रही हो, हद है, मां.’’

मैं सहम गई, ‘‘अच्छा बेटी, चलो, बनाओ खाना या कोई भी व्यंजन बनाओ. मैं कुछ नहीं कहूंगी. तुम तो मेरी अच्छी बेटी हो. अब उदास होने की क्या जरूरत है?’’

लेकिन गुस्से से तमतमाती हुई वह रसोई से बाहर चली गई. जाने से पहले बोली, ‘‘अब मेरा मूड खराब हो गया. अब नहीं बनाऊंगी. पिछले 15 दिनों से खाना बना रही हूं, लेकिन तुम ने और भैया ने क्या कभी मेरी तारीफ की है?’’

अब उस ने जोर से अपने कपड़ों का बक्सा खींचा और अपने सूटों और चुन्नियों को परखने लगी. वह सिलाई की मशीन निकाल कर बैठ गई. इतने में उस की सहेली आ गई. सूट की सिलाई कैसे की जाती है, इस पर बहस होने लगी. बेटे ने होशियारी से उन्हें दरजी के पास जाने की सलाह दी. मैं अपनी रसोई में घुस गई. अब सूटों की बहस से बचने का यही एक रास्ता था.

रसोई में टूटी प्लेटों और कपों का ढेर सारा कचरा भरा था. प्रेशर कुकर और पतीले जल कर काले पड़े थे. कई डब्बों के ढक्कन गायब थे, कई मर्तबानों के सिर्फ ढक्कन ही शेष थे.

ये भी पढ़ें- काश: क्या मालती प्रायश्चित्त कर सकी?

बेटी का व्यंजन प्रशिक्षण हमें काफी महंगा पड़ा था. बेटा चुपके से पास आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘चलो मां, आज होटल में डोसा खाने चलते हैं. कल से करना रसोई की सफाई. कल तो तुम्हारी प्यारी बेटी लंदन चली जाएगी.’’     द्य

मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

लेखक- श्रीप्रकाश श्रीवास्तव

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’

‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला.

‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं.

दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया.

बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली. प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा.

2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’

निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता. बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’

‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं. क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’

ये भी पढ़ें- मसीहा: शांति की लगन

‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’

सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए. वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा.

लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा. कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से?

परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए.

ये भी पढ़ें- अपना बेटा

एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’

साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’

परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’

वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’

उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया. यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’

‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा.

‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था.

विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए.

अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई.

‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई. वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’

मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’

‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’ यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले.

परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी.

मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी. बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़.

परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’

‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया.

‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी.

सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया. परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए.

काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती. वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो.

सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’

‘‘कोई  उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली.

परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’

ये भी पढ़ें- जड़ों से जुड़ा जीवन

सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था.

‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं.

‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा.

सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया.

‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’

‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया.

‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली.

‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए. अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया.

‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’

परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था.

परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी.

परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई. 2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार.

सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था. यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था.

दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए.

परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी. पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’

धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है. हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं.

इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’

चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी. उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता.

परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’

ये भी पढ़ें- स्वप्न साकार हुआ: फिर मिला सम्मान…

मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया. यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था.

परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी. पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.   द्य

किसे स्वीकारे स्मिता

लेखक- राजेश मलिक

‘‘मैम, रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित है और इस में कुछ भी गलत नहीं है.’’

‘‘क्या तुम्हें अधिकारियों के आदेश का पता नहीं कि हमें शतप्रतिशत बच्चों को साक्षर दिखाना है,’’ सुपरवाइजर ने मेज पर रखी रिपोर्ट को स्मिता की तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘इसे ठीक करो.’’

‘मैम, फिर सर्वे की जरूरत ही क्यों?’ स्मिता ने कहना चाहा किंतु सर्वे के दौरान होने वाले अनुभवों की कड़वाहट मुंह में घुल गई.

चिलचिलाती धूप, उस पर कहर बरपाते लू के थपेडे़, हाथ में एक रजिस्टर लिए स्मिता बालगणना के राष्ट्रीय कार्य में जुटी थी. शारीरिक पीड़ा के साथ ही उस का चित्त भी अशांत था. मन का मंथन जारी था, ‘बालगणना करूं या स्कूल की ड्यूटी दूं. घर का काम करूं या 139 बच्चों का रिजल्ट बनाऊं?’ अधिकारी तो सिर्फ निर्देश देना जानते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि कर्मचारी के लिए इतना सबकुछ कर पाना संभव भी है या नहीं.

स्कूटर की आवाज से स्मिता की तंद्रा भंग हुई. सड़क के किनारे बहते नल से उस ने चुल्लू में पानी ले कर गले को तर किया. उस के मुरझाए होंठों पर ताजगी लौटने लगी. नल को बंद किया तो खराब टोंटी से निकली पानी की बूंदें उस के चेहरे और कपड़ों पर जा पड़ीं. उस ने कलाई पर बंधी घड़ी पर अपनी नजरें घुमा दीं.

ये भी पढ़ें- अनुगामिनी: पति के हर दुख की साथी…

‘एक बज गया,’ वह बुदबुदाती हुई एक मकान की ओर बढ़ गई. घंटी बजाने पर दरवाजा खुलने में देर नहीं लगी थी.

एक सांवली सी औरत गरजी, ‘‘तुम्हारी अजीब दादागिरी है. अरे, जब मैं ने कह दिया कि मेरे बच्चे पोलियो की दवा नहीं पिएंगे, तो क्यों बारबार आ जाती हो? जाइए यहां से.’’

स्मिता को लगा जैसे किसी ने उस के मुंह पर जोर का तमाचा मारा हो. उस ने विनम्र स्वर में कहा, ‘‘बहनजी, एक मिनट सुनिए तो, लगता है आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं पोलियो के लिए नहीं, बालगणना के लिए यहां आई हूं.’

‘‘फिर आइएगा, अभी मुझे बहुत काम है,’’ उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

वह हताशा में यह सोचती हुई पलटी कि इस तरह तो कोई जानवर को भी नहीं भगाता.

स्मिता को लगा कि कई जोड़ी आंखें उस के शरीर का भौगोलिक परिमाप कर रही हैं मगर वह उन लोगों से नजरें चुराती हुई झोपड़ी की तरफ चली गई. वहां नीम के पेड़ की घनी छाया थी. एक औरत दरवाजे पर बैठी अपने बच्चे को दूध पिला रही थी. दाईं ओर 3 अधनंगे बच्चे बैठे थाली में सत्तू खा रहे थे. सामने की दीवार चींटियों की कतारों से भरी थी.

स्मिता उस औरत के करीब जा कर बोली, ‘‘हम बालगणना कर रहे हैं। कृपया बताइए कि आप के यहां कितने बच्चे हैं और उन में कितने पढ़ते हैं?’’

‘‘बहनजी, मेरी 6 लड़कियां और 3 लड़के हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है.’’

‘‘9 बच्चे,’’ वह चौंकी और सोचने लगी कि यहां तो एक बच्चा संभालना भी मुश्किल हो रहा है लेकिन यह कैसे 9 बच्चों को संभालती होगी?

‘‘अम्मां, कलुवा सत्तू नहीं दे रहा है.’’

‘‘कलुवा, सीधी तरह से इसे सत्तू देता है या नहीं कि उठाऊं डंडा,’’ औरत चीख कर बोली.

‘‘ले खा,’’ और इस के साथ लड़के के मुंह से एक भद्दी सी गाली निकली.

‘‘नहीं बेटा, गाली देना गंदी बात है,’’ कहती हुई स्मिता उस औरत से मुखातिब हुई, ‘‘आप ने अभी तक अपने बच्चों का नाम स्कूल में क्यों नहीं लिखवाया?’’

ये भी पढ़ें- बदलते रिश्ते: आखिर क्यों रमेश के मन में आया शक

‘‘अरे, बहनजी, चौकी वाले स्कूल में गई थी मगर मास्टर ने यह कह कर मुझे भगा दिया कि यहां दूसरे महल्ले के बच्चों का नाम नहीं लिखा जाता है. अब आप ही बताइए, जब मास्टर नाम नहीं लिखेेंगे तो हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? रही बात इस महल्ले की तो यहां सरकारी स्कूल है नहीं, और जो स्कूल है भी वह हमारी चादर से बाहर है.’’

एकएक कर के कई वृद्ध, लड़के, लड़कियां और औरतें वहां जमा हो गए. कुछ औरतें अपनेअपने घर की खिड़कियों से झांक रही थीं. स्मिता ने रजिस्टर बंद करते हुए कहा, ‘‘कल आप फिर स्कूल जाइए, अगर तब भी वह नाम लिखने से मना करें तो उन से कहिए कि कारण लिख कर दें.’’

‘‘ठीक है.’’

एकाएक धूल का तेज झोंका स्मिता से टकराया तो उस ने अपनेआप को संभाला. फिर एकएक कर के सभी बच्चों का नाम, जाति, उम्र, पिता का नाम, स्कूल आदि अपने रजिस्टर में लिख लिया.

बगल के खंडहरनुमा मकान में उसे जो औरत मिली वह उम्र में 35-40 के बीच की थी. चेहरा एनेमिक था. स्मिता ने उस से सवाल किया, ‘‘आप के कितने बच्चे हैं?’’

अपने आंचल को मुंह में दबाए औरत 11 बोल कर हंस पड़ी.

स्मिता ने मन ही मन सोचा, बाप रे, 11 बच्चे, वह भी इस महंगाई के जमाने में. क्या होगा इस देश का? पर प्रत्यक्ष में फिर पूछा, ‘‘पढ़ते कितने हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, क्या करेंगे पढ़ कर? आखिर करनी तो इन्हें मजदूरी ही है.’’

‘‘बहनजी, आप ऐसा क्यों सोचती हैं? पढ़ाई भी उतनी ही जरूरी है जितना कि कामधंधा. आखिर बच्चों को स्कूल भेजने में आप को नुकसान ही क्या है? उलटे बच्चों को स्कूल भेजेंगी तो हर महीने उन्हें खाने को चावल और साल में 300 रुपए भी मिलेंगे.’’

चेचक के दाग वाली एक अन्य औरत तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘यह सब कहने की बात है कि हर महीने चावल मिलेगा. अरे, मेरे लड़के को न तो कभी चावल मिला और न ही 300 रुपए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? आप का लड़का पढ़ता किस स्कूल में है?’’

‘‘अरी, ओ रिहाना… कहां मर गई रे?’’

‘‘आई, अम्मी.’’

‘‘बता, उस पीपल वाले स्कूल का क्या नाम है?’’

वह सोचती हुई बोली, ‘‘कन्या माध्यमिक विद्यालय.’’

स्मिता ने अपने रजिस्टर में कुछ लिखते हुए पूछा, ‘‘आप ने कभी उस स्कूल के प्रिंसिपल से शिकायत की?’’

‘‘तुम पूछती हो शिकायत की. अरे, एक बार नहीं, मैं ने कई बार की, फिर भी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसीलिए मैं ने उस की पढ़ाई ही बंद करवा दी.’’

ये भी पढ़ें- बहू-बेटी: आखिर क्यों सास के रवैये से परेशान थी जया…

‘‘इस से क्या होगा, बहनजी.’’

स्मिता के इस प्रश्न पर उस ने उसे हिकारत भरी नजरों से देखा और बोली, ‘‘कुछ भी हो अब मुझे पढ़ाई करानी ही नहीं, वैसे भी पढ़ाई में रखा ही क्या है? आज मेरे लड़के को देखो, 20 रुपए रोज कमाता है.’’

स्मिता उन की बातों को रजिस्टर में उतार कर आगे बढ़ गई. अचानक तीखी बदबू उस की नाक में उतर आई. चेहरे पर कई रेखाएं उभर आई थीं. एक अधनंगा लड़का मरे हुए कुत्ते को रस्सी के सहारे खींचे लिए जा रहा था और पीछेपीछे कुछ अधनंगे बच्चे शोर मचाते हुए चले जा रहे थे. उस ने मुंह को रूमाल से ढंक लिया.

मकान का दरवाजा खुला था. चारपाई पर एक दुबलपतला वृद्ध लेटा था. सिरहाने ही एक वृद्धा बैठी पंखा झल रही थी. स्मिता ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘मांजी, आप के यहां परिवार में कितने लोग हैं.’’

‘‘इस घर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं है,’’ उस वृद्धा का स्वर नम था.

‘‘क्यों, आप के लड़के वगैरह?’’

‘‘वह अब यहां नहीं रहते और क्या करेंगे रह कर भी, न तो अब हमारे पास कोई दौलत है न ही पहले जैसी शक्ति.’’

‘‘मांजी, बाबा का नाम क्या है?’’

उस वृद्धा ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया. स्मिता की निगाहें उस गुदे हुए नाम पर जा टिकीं, ‘‘कृष्ण चंदर वर्मा,’’ उस के मुंह से शब्द निकले तो वृद्धा ने अपना सिर हिला दिया.

‘‘अच्छा, मांजी,’’ कहती हुई स्मिता सामने की गली की ओर मुड़ गई. वह बारबार अपने चेहरे पर फैली पसीने की बूंदों को रूमाल से पोंछती. शरीर पसीने से तरबतर था. उस की चेतना में एकसाथ कई सवाल उठे कि क्या हो गया है आज के इनसान को, जो अपने ही मांबाप को बोझ समझने लगा है, जबकि मांबाप कभी भी अपने बच्चों को बोझ नहीं समझते?’’

स्मिता सोचती हुई चली जा रही थी. कुछ आवाजें उस के कानों में खनकने लगीं, ‘अरे, सुना, चुरचुर की अम्मां, खिलावन बंगाल से कोई औरत लाया है और उसे 7 हजार रुपए में बेच रहा है.’

आवाज धीमी होती जा रही थी. क्योंकि कड़ी धूप की वजह से उस के कदम तेज थे. वह अपनी रफ्तार बनाए हुए थी, ‘आज औरत सिर्फ सामान बन कर रह गई है, जो चाहे मूल्य चुकाए और ले जाए,’  वह बुदबुदाती हुई सामने के दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

तभी पीछे से एक आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आप को किस से मिलना है. मम्मी तो घर पर नहीं हैं?’’

‘‘आप तो हैं. क्या नाम है आप का और किस क्लास में पढ़ते हैं?’’

‘‘मेरा नाम उदय सोनी है और मैं कक्षा 4 में पढ़ता था.’’

‘‘क्या मतलब, अब आप पढ़ते नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, मम्मीपापा में झगड़ा होता था  और एक दिन मम्मी घर छोड़ कर यहां चली आईं,’’ उस बच्चे ने रुंधे स्वर में बताया.

‘कैसे मांबाप हैं जो यह भी नहीं सोचते कि उन के झगड़े का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ स्मिता ने सोचा फिर पूछा, ‘‘पर सुनो बेटा, आप के पापा का क्या नाम है?’’

उस बच्चे का स्वर ऊंचा था, ‘‘पापा का नहीं, आप मम्मी का नाम लिखिए, बीना लता,’’ इतना बता कर वह चला गया.

ये भी पढ़ें- कड़वी गोली

स्मिता के आगे अब एक नया दृश्य था. कूड़े के एक बड़े से ढेर पर 6-7 साल के कुछ लड़के झुके हुए उंगलियों से कबाड़ खोज रहे थे. दुर्गंध पूरे वातावरण में फैल रही थी. वहीं दाईं ओर की दीवार पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘यह है फील गुड.’ स्मिता के मस्तिष्क में कई प्रश्न उठे, ‘जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं उन के हाथों में उन के मांबाप ने कबाड़ का थैला थमा दिया. कैसे मांबाप हैं? सिर्फ पैदा करना जानते है.’ किंतु वह केवल सोच सकती थी इन परिस्थितियों को सुधारने की जिन के पास शक्ति व सामर्थ्य है वह तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहते.

हवा अब भी आग बरसा रही थी. स्मिता को रहरह कर अपने बच्चे की ंिचंता सता रही थी. मगर नौकरी के आगे वह बेबस थी. सामने से एक जनाजा आता नजर आया. वह किनारे हो गई. जनाजा भीड़ को खींचे लिए जा रहा था.

कुछ लोग सियापे कर रहे थे. नाटे कद की स्त्री कह रही थी, ‘बेचारी, आदमी का इंतजार करतेकरते मर गई, बेहतर होता कि वह विधवा ही होती.’

‘तुम ठीक बोलती हो, भूरे की अम्मां. जो आदमी महीनों अपने बीवी- बच्चों की कोई खोजखबर न ले वह कोई इनसान है? यह भी नहीं सोचता कि औरत जिंदा भी है या मर गई.’

‘अरी बूआ, तुम भी किस ऐयाश की बात करती हो. वह तो सिर्फ औरत को भोगना जानता था. 9 बच्चे क्या कम थे? अरे, औरत न हुई कुतिया हो गई. मुझे तो बेचारे इन मासूमों की चिंता हो रही है.’

‘किसी ने उस के पति को खबर की?’ एक दाढ़ी वाले ने आ कर पूछा.

‘अरे भाई, उस का कोई एक अड््डा हो तो खबर की जाए.’

एकएक कर सभी की बातें स्मिता के कानों में उतरती रहीं. वह सोचने पर मजबूर हो गई कि औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. वह तो सिर्फ मर्दों के हाथों की कठपुतली है जिस ने जब जहां चाहा खेला, जब जहां चाहा ठुकरा दिया.

प्यास के कारण स्मिता का गला सूख रहा था. उस ने सोचा कि वह अगले दरवाजे पर पानी का गिलास अवश्य मांग लेगी. उस के कदम तेजी से बढ़े जा रहे थे.

धूप दैत्य के समान उस के जिस्म को जकड़े हुए थी. उस ने एक बार फिर अपने चेहरे को रूमाल से पोंछा. उत्तर की ओर 1 वृद्धा, 2 लड़के बैठे बीड़ी का कश ले रहे थे.

‘‘अम्मां, यही आंटी मुझे पढ़ाती हैं,’’ दरवाजे से लड़के का स्वर गूंजा.

इस से पहले कि स्मिता कुछ बोलती, एक भारी शरीर की औरत नकाब ओढ़ती हुई बाहर निकली और तमतमा कर बोली, ‘‘एक तो तुम लोग पढ़ाती नहीं हो, ऊपर से मेरे लड़के को फेल करती हो?’’

उस औरत के शब्दबाणों ने स्मिता की प्यास को शून्य कर दिया.

‘‘बहनजी, जब आप का लड़का महीने में 4 दिन स्कूल जाएगा तो आप ही बताइए वह कैसे पास होगा?’’

‘‘मास्टराइन हो कर झूठ बोलती हो. अरे, मैं खुद उसे रोज स्कूल तक छोड़ कर आती थी.’’

‘‘बहनजी, आप का कहना सही है, मगर मेरे रजिस्टर पर वह गैरहाजिर है.’’

‘‘तो, गैरहाजिर होने से क्या होता है,’’ इतना कहती हुई वह बाहर चली गई.

खिन्न स्मिता के मुंह से स्वत: ही फूट पड़ा कि स्कूल भेजने का यह अर्थ तो नहीं कि सारी की सारी जिम्मेदारी अध्यापक की हो गई, मांबाप का भी तो कुछ फर्ज बनता है.

स्मिता प्यास से व्याकुल हो रही थी. उस ने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं, तभी उस की नजर एक दोमंजिले मकान पर जा टिकी. वह उस मकान के चबूतरे पर जा चढ़ी. स्मिता ने घंटी दबा दी. कुछ पल बाद दरवाजा खुला और एक वृद्ध चश्मा चढ़ाते हुए बाहर निकले. शरीर पर बनियान और पायजामा था.

वृद्ध ने पूछा, ‘‘आप को किस से मिलना है?’’

‘‘बाबा, मैं बालगणना के लिए आई हूं. क्या मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?’ स्मिता ने संकोचवश पूछा.

‘‘क्यों नहीं, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आप अंदर चली आइए.’’

स्मिता अंदर आ गई. उस की निगाहें कमरे में दौड़ने लगीं. वहां एक कीमती सोफा पड़ा था. उस के सामने रखे टीवी और टेपरिकार्डर मूक थे. कमरे की दीवारें मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, ओशो, रवींद्रनाथ टैगोर की तसवीरों से चमक रही थीं. दाईं तरफ की मेज पर कुछ साहित्यिक पुस्तकों के साथ हिंदी, उर्दू और अंगरेजी के अखबार बिखरे थे.

स्मिता ने खडे़खडे़ सोचा कि लगता है बाबा को पढ़ने का बहुत शौक है.

‘‘तुम खड़ी क्यों हो बेटी, बैठो न,’’ कह कर वृद्ध ने दरवाजे की ओर बढ़ कर उसे बंद किया और बोले, ‘‘दरअसल, यहां कुत्ते बहुत हैं, घुस आते हैं. तुम बैठो, मैं अभी पानी ले कर आता हूं. घर में और कोई है नहीं, मुझे ही लाना पड़ेगा. तुम संकोच मत करो बेटी, मैं अभी आया,’ कहते हुए वृद्ध ने स्मिता को अजब नजरों से देखा और अंदर चले गए.

ये भी पढ़ें-पवित्र पापी

उन के अंदर जाते ही टीवी चल पड़ा. स्मिता ने देखा टीवी स्क्रीन पर एक युवा जोड़ा निर्वस्त्र आलिंगनबद्ध था. स्मिता के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गई. उस की प्यास गायब हो गई. घबरा कर उठी और दरवाजे को खोल कर बाहर की ओर भागी. वह बुरी तरह हांफ रही थी और उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. जैसे अभी किधर से भी आ कर वह बूढ़ा उसे अपने चंगुल में दबोच लेगा और वह कहीं भाग न सकेगी.

‘‘सोच क्या रही हो? जाओ, और जा कर इस रिपोर्ट को ठीक कर के लाओ. मुझे तथ्यों पर आधारित नहीं, शासन की नीतियों पर आधारित रिपोर्र्ट चाहिए.’’

स्मिता चौंकी, ‘‘जी मैम, मैं समझ गई,’’ वह चली तो उस के कदम बोझिल थे और मन अशांत.

रायचंद

लेखक- डा. सत्यकुमार

आप के मित्रों में, संबंधियों में और पड़ोसियों में अनेक ऐसे व्यक्ति होंगे जिन को हर बात का ज्ञान होता है. ताल ठोंक कर वे अपनी बात कहते हैं और आप को पसोपेश में डाल देते हैं.

‘‘जी, हां, इन्हें ही मैं रायचंद कहता हूं. इन से आप पूछें या न पूछें, मांगें न मांगें, यह अपनी राय जरूर देंगे. उस शाम मैं उदास बैठा था. सीताराम आया तो मुंह से निकल गया, ‘‘पिताजी का पत्र आया है, माताजी अस्वस्थ हैं. सोचता हूं, घर का चक्कर लगा आऊं.’’

सीताराम तपाक से बोला, ‘‘यार, मां आखिर बूढ़ी हैं, पता नहीं क्या हाल हो. तुम ऐसा करो भाभीजी को भी साथ ले जाओ. अगर कहीं ऐसीवैसी बात हो गई तो…’’

महीने की 28 तारीख थी. मैं अकेले जाने में ही खर्च का प्रबंध नहीं कर पा रहा था और वह कह रहा था कि भाभीजी को भी ले जाओ, और फिर बच्चे? बच्चों की परीक्षा सिर पर आ रही थी.

तभी विजय आ गया. उस का कोई परिचित टेलीफोन एक्सचेंज में था. बोला, ‘‘चलो, फोन से सही हाल पता करते हैं.’’

ये भी पढ़ें- जड़ों से जुड़ा जीवन

मैं ने कहा, ‘‘भाई, वहां टेलीफोन नहीं है.’’

वह बोला, ‘‘कहीं पड़ोस में तो होगा? कुछ न कुछ सिलसिला निकल आएगा, चलो तो.’’

मुझे घर फोन करने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी. पासपड़ोस क्या, मुझे तो अपने कसबे के भी किसी व्यक्ति का टेलीफोन नंबर पता नहीं था.

उसे जैसेतैसे टाला तो कमल आ गया. रास्ते में विजय ने उसे बता दिया था. बोला, ‘‘एक्सप्रेस टेलीग्राम कर दो. मेरी मानो तो जवाबी तार कर दो. घर बैठे कल हाल मालूम हो जाएगा.’’

क्या कहता? तार से पहले तो पोस्टकार्ड पहुंच जाता है.

तभी पड़ोसी रामलखन आ गया. बोला, ‘‘अरे, क्यों परेशान होते हो? उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्दी ठीक हो जाएं. बीमारी तो लगी ही रहती है. अच्छाभला आदमी भी अपना डाक्टरी मुआयना कराने चला जाए तो डाक्टर लोग 10 बीमारियां बता देंगे. रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों का दर्द और भी न जाने क्याक्या.’’

वकील सुशील कुमार घूम कर लौट रहे थे. बातचीत सुन कर चले आए. छड़ी उठा कर बोले, ‘‘देखो भाई, ऐसा करो कि बहू को भेज दो. तुम जा कर क्या करोगे? वह सास की सेवा करेगी और तुम्हारे पिताजी को चायखाना भी मिलता रहेगा. बस, कल ही भेज दो.’’

यानी यहां घर मैं देखूं, बच्चों को मैं संभालूं.

यह तो केवल एक उदाहरण है. आप के मुंह से तो कुछ निकलना चाहिए और बस, कंप्यूटर की तरह रायचंदजी की राय हाजिर है.

एक बार गरमियों में महेश मसूरी जाने का कार्यक्रम बना रहा था. साथियों को पता लगने में क्या देर लगती है? बस, फिर तो रोज मसूरी, नैनीताल, शिमला, डलहौजी, श्रीनगर, दार्जिलिंग आदि की चर्चा सुनने को मिलती, ‘‘मसूरी में क्या रखा है? नंगी पहाडि़यां हैं. पानी की अलग किल्लत रहती है. 3 दिन में बोर हो जाओगे.’’

एक नैनीताल की राय देते हुए नौकाविहार का गुणगान करता तो दूसरा दार्जिलिंग के सूर्योदय का बखान करता. इधर तीसरा मरने से पहले ही जन्नत भेजने की कोशिश करता, ‘‘कश्मीर जाओ यार, पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है.’’

रायचंदों के सब्ज- बागों से घर में ही फूट पड़ गई. महेश की पत्नी कश्मीर के लिए हठ करने लगी, बेटा नैनीताल के ताल में छलांग लगाने लगा और बेटी माउंट आबू के सपने देखते कहती, ‘‘लौटते हुए उदयपुर, चित्तौड़, जयपुर, अजमेर व अलवर भी घूमते आएंगे.’’

परिणाम यह हुआ कि गरमी घर पर ही चखचख करते, पसीना पोंछते निकल गई.

बेटी की शादी आप को करनी है, पर पेट में दर्द रायचंद के हो रहा है. पता चलते ही गंभीरता से बोलेंगे, ‘‘भाई, हलवाई कौन सा तय किया?’’ और फिर अपनी राय देना शुरू कर देंगे.

ये भी पढ़ें- स्वप्न साकार हुआ: फिर मिला सम्मान…

आप के बच्चे ने हाईस्कूल पास किया है, उसे भविष्य में क्या बनना चाहिए, यह मशविरा वह बिना मांगे देंगे, ‘‘वाणिज्य विषय में क्या रखा है? विज्ञान का युग है. 21वीं सदी में पहुंचने के लिए हमें कितने ही इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ेगी, इलेक्ट्रानिक्स में भेजो.’’

उस के कालिज में प्रवेश तक न जाने कितने प्रस्ताव आप के पास आ जाएंगे, आप के लिए सिरदर्द बन कर.

उस दिन छज्जूमल की दादी चल बसीं. एक रायचंद बोले, ‘‘भाई, ऐसा करो, एक बस की व्यवस्था कर लो. गढ़मुक्तेश्वर ले चलते हैं. धर्मकर्म वाली महिला थीं. आत्मा को शांति प्राप्त होगी.’’

दूसरे रायचंद ने हरिद्वार की सिफारिश की. तीसरे ने विद्युत शवदाहगृह की दलील दी. चौथे ने चंदन की लकड़ी मंगाने की राय दी. छज्जूमल सिर खुजाते- खुजाते परेशान.

असली परेशानी तो बीमार पड़ने पर होती है. मिजाजपुरसी को आने वाला हर व्यक्ति जैसे पूरा डाक्टर होता है, ‘‘किस का इलाज हो रहा है? क्या दवा चल रही है? कितना फायदा है? क्या परहेज बताया है?’’ आदिआदि. और फिर जाने से पहले अपनी पसंद के डाक्टर को दिखाने की राय अवश्य देगा तथा चलतेचलते एक नुसखा भी आजमाने को कह जाएगा.

रामभरोसे को जब मैं रविवार को देखने पहुंचा तो उस की खाट के साथ सटी मेज पर दवाइयों की शीशियों के पास एक पेंसिल और पैड भी पड़ा था. मैं ने पूछा, ‘‘आजकल क्या लिखते रहते हो?’’

वह मुसकरा कर बोला, ‘‘जो भी आता है एक नुसखा लिखा जाता है.’’

मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘सब नुसखे आजमा रहे हो? शरीर को प्रयोगशाला बना लिया है क्या?’’

ये भी पढ़ें- रिंग टोन्स के गाने, बनाएं कितने अफसाने

उस ने हंसते हुए खाट के नीचे रखी टोकरी की ओर इशारा कर दिया. वह कागजों के ढेर से अटी पड़ी थी. मैं उस की समझदारी की दाद दे कर लौटते हुए सोच रहा था कि रायचंदों से परेशान हो कर ही शायद मिर्जा गालिब ने यह शेर कहा होगा.

‘‘कमी नहीं है जहां में गालिब,

एक खोजो, हजार मिलते हैं.’’      द्य

सपनों की राख तले

लेखक-पुष्पा भाटिया

दौड़भाग, उठापटक करते समय कब आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह गश खा कर गिर पड़ी, याद नहीं.

आंख खुली तो देखा कि श्वेता अपने दूसरे डाक्टर सहकर्मियों के साथ उस का निरीक्षण कर रही थी. तभी द्वार पर किसी ने दस्तक दी. श्वेता ने पलट कर देखा तो डा. तेजेश्वर का सहायक मधुसूदन था.

‘‘मैडम, आप के लिए दवा लाया हूं. वैसे डा. तेजेश्वर खुद चेक कर लेते तो ठीक रहता.’’

आंखों की झिरी से झांक कर निवेदिता ने देखा तो लगा कि पूरा कमरा ही घूम रहा है. श्वेता ने कुछ देर पहले ही उसे नींद का इंजेक्शन दिया था. पर डा. तेज का नाम सुन कर उस का मन, अंतर, झंकृत हो उठा था. सोचनेविचारने की जैसे सारी शक्ति ही चुक गई थी. ढलती आयु में भी मन आंदोलित हो उठा था. मन में विचार आया कि पूछे, आए क्यों नहीं? पर श्वेता के चेहरे पर उभरी आड़ीतिरछी रेखाओं को देख कर निवेदिता कुछ कह नहीं पाई थी.

‘‘तकदीर को आप कितना भी दोष दे लो, मां, पर सचाई यह है कि आप की इस दशा के लिए दोषी डा. तेज खुद हैं,’’ आज सुबह ही तो मांबेटी में बहस छिड़ गई थी.

‘‘वह तेरे पिता हैं.’’

‘‘मां, जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके वह व्यक्ति समाज में रह कर समाज का अंग नहीं बन सकता और न ही सम्माननीय बन सकता है,’’ क्रोधित श्वेता कुछ ही देर में कमरा छोड़ कर बाहर चली गई थी.

ये भी पढ़ें- अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

बेटी के जाने के बाद से उपजा एकांत और अकेलापन निवेदिता को उतना असहनीय नहीं लगा जितना हमेशा लगता था. एकांत में मौन पड़े रहना उन्हें सुविधाजनक लग रहा था.

खयालों में बरसों पुरानी वही तसवीर साकार हो उठी जिस के प्यार और सम्मोहन से बंधी, वह पिता की देहरी लांघ उस के साथ चली आई थी.

उन दिनों वह बी.ए. फाइनल में थी. कालिज का सालाना आयोजन था. म्यूजिकल चेयर प्रतियोगिता में निवेदिता और तेजेश्वर आखिरी 2 खिलाड़ी बचे थे. कुरसी 1 उम्मीदवार 2. कभी निवेदिता की हथेली पर तेजेश्वर का हाथ पड़ जाता, कभी उस की पीठ से तेज का चौड़ा वक्षस्थल टकरा जाता. जीत, तेजेश्वर की ही हुई थी लेकिन उस दिन के बाद से वे दोनों हर दिन मिलने लगे थे. इस मिलनेमिलाने के सिलसिले में दोनों अच्छे मित्र बन गए. धीरेधीरे प्रेम का बीज अंकुरित हुआ तो प्यार के आलोक ने दोनों के जीवन को उजास से भर दिया.

अंतर्जातीय विवाह के मुद्दे को ले कर परिवार में अच्छाखासा विवाद छिड़ गया था. लेकिन बिना अपना नफानुकसान सोचे निवेदिता भी अपनी ही जिद पर अड़ी रही. कोर्ट में रजिस्टर पर दस्तखत करते समय, सिर्फ मांपापा, तेजेश्वर और निवेदिता ही थे. इकलौती बेटी के ब्याह पर न बाजे बजे न शहनाई, न बंदनवार सजे न ही गीत गाए गए. विदाई की बेला में मां ने रुंधे गले से इतना भर कहा था, ‘सपने देखना बुरा नहीं होता पर उन सपनों की सच के धरातल पर कोई भूमिका नहीं होती, बेटी. तेरे भावी जीवन के लिए बस, यही दुआ कर सकती हूं कि जमीन की जिस सतह पर तू ने कदम रखा है वह ठोस साबित हो.’

विवाह के शुरुआती दिनों में सुंदर घर, सुंदर परिवार, प्रिय के मीठे बोल, यही पतिपत्नी की कामना थी और यही प्राप्ति. शुरू में तेज का साथ और उस के मीठे बोल अच्छे लगते थे. बाद में यही बोल किस्सा बन गए. निवि को बात करने का ढंग नहीं है, पहननाओढ़ना तो उसे आता ही नहीं है. सीनेपिरोने का सलीका नहीं. 2 कमरों के उस छोटे से फ्लैट को सजातेसंवारते समय मन हर पल पति के कदमों की आहट को सुनने के लिए तरसता. कुछ पकातेपरोसते समय पति के मुख से 1-2 प्रशंसा के शब्द सुनने के लिए मन मचलता, लेकिन तेजेश्वर बातबात पर खीजते, झल्लाते ही रहते थे.

निवेदिता आज तक समझ नहीं पाई कि ब्याह के तुरंत बाद ही तेज का व्यवहार उस के प्रति इतना शुष्क और कठोर क्यों हो गया. उस ने तो तेज को मन, वचन, कर्म से अपनाया था. तेज के प्रति निवेदिता को कोई गिलाशिकवा भी नहीं था.

कई बार निवेदिता खुद से पूछती कि उस में उस का कुसूर क्या था कि वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. लोगों के बीच जल्द ही आकर्षण का केंद्र बन जाती थी या उस की मित्रता सब से हो जाती थी. वरना पत्नी के प्रति दुराव की क्षुद्र मानसिकता के मूल कारण क्या हो सकते थे? शरीर के रोगों को दूर करने वाले तेजेश्वर यह क्यों नहीं समझ पाए कि इनसान अपने मृदु और सरल स्वभाव से ही तो लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बनता है.

ये भी पढ़ें- घर ससुर: क्यों दमाद के घर रहने पर मजबूर हुए पिताजी?

दिनरात की नोकझोंक और चिड़- चिड़ाहट से दुखी हो उठी थी निवेदिता. सोचा, क्या रखा है इन घरगृहस्थी के झमेलों में?

एक दिन अपनी डिगरियां और सर्टिफिकेट निकाल कर तेज से बोली, ‘घर में बैठेबैठे मन नहीं लगता, क्यों न मैं कोई नौकरी कर लूं?’

‘और यह घरगृहस्थी कौन संभालेगा?’ तेज ने आंखें तरेरीं.

‘घर के काम तो चलतेफिरते हो जाते हैं,’ दृढ़ता से निवेदिता ने कहा तो तेजेश्वर का स्वर धीमा पड़ गया.

‘निवेदिता, घर से बाहर निकलोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’

‘क्यों…’ लापरवाही से पूछा था उस ने.

‘लोग न जाने तुम्हें कैसीकैसी निगाहों से घूरेंगे.’

कितना प्यार करते हैं तेज उस से? यह सोच कर निवेदिता इतरा गई थी. पति की नजरों में, सर्वश्रेष्ठ बनने की धुन में वह तेजेश्वर की हर कही बात को पूरा करती चली गई थी, पर जब टांग पर टांग चढ़ा कर बैठने में, खिड़की से बाहर झांक कर देखने में, यहां तक कि किसी से हंसनेबोलने पर भी तेज को आपत्ति होने लगी तो निवेदिता को अपनी शुरुआती भावुकता पर अफसोस होने लगा था.

निरी भावुकता में अपने निजत्व को पूर्ण रूप से समाप्त कर, जितनी साधना और तप किया उतनी ही चतुराई से लासा डाल कर तेजेश्वर उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही बाधित करते चले गए.

दर्द का गुबार सा उठा तो निवेदिता ने करवट बदल ली. यादों के साए पीछा कहां छोड़ रहे थे. विवाह की पहली सालगिरह पर मम्मीपापा 2 दिन पहले ही आ गए थे. मित्र, संबंधी और परिचितों को आमंत्रित कर उस का मन पुलक से भर उठा था लेकिन तेजेश्वर की भवें तनी हुई थीं. निवेदिता के लिए पति का यह रूप नया था. उस ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि इस खुशी के अवसर को तेज अंधकार में डुबो देंगे और जरा सी बात को ले कर भड़क जाएंगे.

‘मटरमशरूम क्यों बनाया? शाही पनीर क्यों नहीं बनाया?’

छोटी सी बात को टाला भी जा सकता था पर तेजेश्वर ने महाभारत छेड़ दिया था. अकसर किसी एक बात की भड़ास दूसरी बात पर ही उतरती है. तेज का स्वभाव ही ऐसा था. दोस्ती किसी से करते नहीं थे, इसीलिए लोग उन से दूर ही छिटके रहते थे. आमंत्रित अतिथियों से सभ्यता और शिष्टता से पेश आने के बजाय, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही उन्होंने वह हंगामा खड़ा किया था. यह सबकुछ निवेदिता को अब समझ में आता है.

2 दिन तक मम्मीपापा और रहे थे. तेज इस बीच खूब हंसते रहे थे. निवेदिता इसी मुगालते में थी कि मम्मीपापा ने कुछ सुना नहीं था पर अनुभवी मां की नजरों से कुछ भी नहीं छिपा था.

घर लौटते समय तेज का अच्छा मूड देख कर उन्होंने मशविरा दिया था, ‘जिंदगी बहुत छोटी है. हंसतेखेलते बीत जाए तो अच्छा है. ज्यादा ‘वर्कोहोलिक’ होने से शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं. कुछ दिन कहीं बाहर जा कर तुम दोनों घूम आओ.’

इतना सुनते ही वह जोर से हंस दी थी और उस के मुंह से निकल गया था, ‘मां, कभी सोना लेक या बटकल लेक तक तो गए नहीं, आउट आफ स्टेशन ये क्या जाएंगे?’

मजाक में कही बात मजाक में ही रहने देते तो क्या बिगड़ जाता? लेकिन तेज का तो ऐसा ईगो हर्ट हुआ कि मारपीट पर ही उतर आए.

ये भी पढ़ें- काश: क्या मालती प्रायश्चित्त कर सकी?

हतप्रभ रह गई थी वह तेज के उस व्यवहार को देख कर. उस दिन के बाद से हंसनाबोलना तो दूर, उन के पास बैठने तक से घबराने लगी थी निवेदिता. कई दिनों तक अबोला ठहर जाता उन दोनों के बीच.

उन्हीं कुछ दिनों में निवेदिता ने अपने शरीर में कुछ आकस्मिक परिवर्तन महसूस किए थे. तबीयत गिरीगिरी सी रहती, जी मिचलाता रहता तो वह खुद ही चली गई थी डा. डिसूजा के क्लिनिक पर. शुरुआती जांच के बाद डा. डिसूजा ने गर्भवती होने का शक जाहिर किया था, ‘तुम्हें कुछ टैस्ट करवाने पड़ेंगे.’

एक घंटा भी नहीं बीता था कि तेज घर लौट आए थे. शायद डा. डिसूजा से उन की बात हो चुकी थी. बच्चों की तरह पत्नी को अंक में भर कर रोने लगे.

‘इतनी खुशी की बात तुम ने मुझ से क्यों छिपाई? अकेली क्यों गई? मैं ले चलता तुम्हें.’

आंख की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े. खुद पर ग्लानि होने लगी थी. कितना छोटा मन है उन का…ऐसी छोटीछोटी बातें भी चुभ जाती हैं.

अगले दिन तेज ने डा. कुलकर्णी से समय लिया और लंच में आने का वादा कर के चले गए. 10 सालों तक हास्टल में रहने वाली निवेदिता जैसी लड़की के लिए अकेले डा. कुलकर्णी के क्लिनिक तक जाना मुश्किल काम नहीं था. डा. डिसूजा के क्लिनिक पर भी वह अकेली ही तो गई थी. पर कभीकभी अपना वजूद मिटा कर पुरुष की मजबूत बांहों के घेरे में सिमटना, हर औरत को बेहद अच्छा लगता है. इसीलिए बेसब्री से वह तेज का इंतजार करने लगी थी.

दोपहर के 1 बजे जूते की नोक से द्वार के पट खुले तो वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई थी. तेज बुरी तरह बौखलाए हुए थे. शायद थके होंगे यह सोच कर निवेदिता दौड़ कर चाय बना लाई थी.

‘पूरा दिन गंवारों की तरह चाय ही पीता रहूं?’ तेज ने आंखें तरेरीं तो साड़ी बदल कर, वह गाउन में आ गई और घबरा कर पूछ लिया, ‘आजकल काम ज्यादा है क्या?’

‘मैं आलसी नहीं, जो हमेशा पलंग पर पड़ा रहूं. काम करना और पैसे कमाना मुझे अच्छा लगता है.’

अपरोक्ष रूप से उस पर ही वार किया जा रहा है. यह वह समझ गई थी. सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट लिए निवेदिता अंदर ही अंदर घुटती रही थी. उस ने कई किताबों में पढ़ा था कि गर्भवती महिला को हमेशा खुश रहना चाहिए. इसीलिए पति के स्वर में छिपे व्यंग्य को सुन कर भी मूड खराब करने के बजाय चेहरे पर मुसकान फैला कर बोली, ‘एक बार ब्लड प्रैशर चेक क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह ही चिड़चिड़ाते रहते हो.’

इतना सुनते ही तेजेश्वर ने घर के हर साजोसामान के साथ कई जरूरत के कागज भी यत्रतत्रसर्वत्र फैला दिए थे. निवेदिता आज तक इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाई कि क्या पतिपत्नी का रिश्ता विश्वास पर नहीं टिका होना चाहिए. वह जहां जाती तेजेश्वर के साथ जाती, वह जैसा चाहते वैसा ही पहनती, ओढ़ती, पकाती, खाती. जहां कहते वहीं घूमने जाती. फिर भी वर्जनाओं की तलवार हमेशा क्यों उस के सिर पर लटकती रहती थी?

अंकुश के कड़े चाबुक से हर समय पत्नी को साध कर रखते समय तेजेश्वर के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि जो पति अपनी पत्नी को हेय दृष्टि से देखता है उस औरत के प्रति बेचारगी का भाव जतला कर कई पुरुष गिद्धों की तरह उस के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं. इस में दोष औरत का नहीं, पुरुष का ही होता है.

यही तो हुआ था उस दिन भी. श्वेता के जन्मदिन की पार्टी पर वह अपने कालिज की सहपाठी दिव्या और उस के पति मधुकर के साथ चुटकुलों का आनंद ले रही थी. मां और पापा भी वहीं बैठे थे. पार्टी का समापन होते ही तेज अपने असली रूप में आ गए थे. घबराहट से उन का पूरा शरीर पसीनेपसीने हो गया. लोग उन के गुस्से को शांत करने का भरसक प्रयास कर रहे थे पर तेजेश्वर अपना आपा ही खो चुके थे. एक बरस की नन्ही श्वेता को जमीन पर पटकने ही वाले थे कि पापा ने श्वेता को तेज के चंगुल से छुड़ा कर अपनी गोद में ले लिया था.

‘मुझे तो लगता है कि तेज मानसिक रोगी है,’ पापा ने मां की ओर देख कर कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ अनुभवी मां ने बात को संभालने का प्रयास किया था.

‘यदि यह मानसिक रोगी नहीं तो फिर कोई नशा करता है क्योंकि कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा अभद्र व्यवहार कभी नहीं कर सकता.’

उस दिन सब के सामने खुद को तेजेश्वर ने बेहद बौना महसूस किया था. घुटन और अवहेलना के दौर से बारबार गुजरने के बाद भी तेज के व्यवहार की चर्चा निवेदिता ने कभी किसी से नहीं की थी. कैसे कहती? रस्मोरिवाज के सारे बंधन तोड़ कर उस ने खुद ही तो तेजेश्वर के साथ प्रेमविवाह किया था पर उस दिन तो मम्मी और पापा दोनों ने स्वयं अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना था.

पापा ने साथ चलने के लिए कहा तो वह चुपचाप उन के साथ चली गई थी. सोचती थी, अकेलापन महसूस होगा तो खुद ही तेज आ कर लिवा ले जाएंगे पर ऐसा मौका कहां आया था. उस के कान पैरों की पदचाप और दरवाजे की खटखट सुनने को तरसते ही रह गए थे.

श्वेता, पा…पा…कहना सीख गई थी. हुलस कर निवेदिता ने बेटी को अपने आंचल में छिपा लिया था. दुलारते- पुचकारते समय खुशी का आवेग उस की नसों में बहने लगा और अजीब तरह का उत्साह मन में हिलोरें भरने लगा.

‘कब तक यों हाथ पर हाथ धर कर बैठी रहेगी? अभी तो श्वेता छोटी है. उसे किसी भी बात की समझ नहीं है लेकिन धीरेधीरे जब बड़ी होगी तो हो सकता है कि मुझ से कई प्रकार के प्रश्न पूछे. कुछ ऐसे प्रश्न जिन का उत्तर देने में भी मुझे लज्जित होना पड़े.’

घर में बिना किसी से कुछ कहे वह तेज की मां के चौक वाले घर में पहुंच गई थी. पूरे सम्मान के साथ तेजेश्वर की मां ने निवेदिता को गले लगाया था बल्कि अपने घर आ कर रहने के लिए भी कहा था. लेकिन बातों ही बातों में इतना भी बता दिया था कि तेज कनाडा चला गया है और जाते समय यह कह गया है कि वह निवेदिता के साथ भविष्य में कोई संबंध नहीं रखना चाहता है.

निवेदिता ने संयत स्वर में इतना ही पूछा था, ‘मांजी, यह सब इतनी जल्दी हुआ कैसे?’

‘तेज के दफ्तर की एक सहकर्मी सूजी है. उसी ने स्पांसर किया है. हमेशा कहता था, मन उचट गया है. दूर जाना है…कहीं दूर.’

सारी भावनाएं, सारी संवेदनाएं ठूंठ बन कर रह गईं. औरत सिर्फ शारीरिक जरूरत नहीं है. उस के प्रेम में पड़ना, अभिशाप भी नहीं है, क्योंकि वह एक आत्मीय उपस्थिति है. एक ऐसी जरूरत है जिस से व्यक्ति को संबल मिलता है. हवा में खुशबू, स्पर्श में सनसनी, हंसी में खिलखिलाहट, बातों में गीतों सी सरगम, यह सबकुछ औरत के संपर्क में ही व्यक्ति को अनुभव होता है.

समय की झील पर जिंदगी की किश्ती प्यार की पाल के सहारे इतनी आसानी से गुजरती है कि गुजरने का एहसास ही नहीं होता. कितनी अजीब सी बात है कि तेज इस सच को ही नहीं पहचान पाए. शुरू से वह महत्त्वाकांक्षी थे पर उन की महत्त्वाकांक्षा उन्हें परिवार तक छोड़ने पर मजबूर कर देगी, ऐसा निवेदिता ने कभी सोचा भी नहीं था. कहीं ऐसा तो नहीं कि बच्ची और पत्नी से दूर भागने के लिए उन्होंने महत्त्वाकांक्षा के मोहरे का इस्तेमाल किया था?

इनसान क्यों अपने परिवार को माला में पिरोता है? इसीलिए न कि व्यक्ति को सीधीसादी, सरल सी जिंदगी हासिल हो. निवेदिता ने विवेचन सा किया. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से अपनों को ही खुदगर्जी का लकवा मार जाए तो पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर ठंडे, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता है?

मन में विचार कौंधा कि अब यह घर उसे छोड़ देना चाहिए. आखिर मांबाप पर कब तक आश्रित रहेगी. और अब तो भाई का भी विवाह होने वाला था. उस की और श्वेता की उपस्थिति ने भाई के सुखद संसार में ग्रहण लगा दिया तो? उसे क्या हक है किसी की खुशियां छीनने का?

अगले दिन निवेदिता देहरादून में थी. सोचा कि इस शहर में अकेली कैसे रह सकेगी? लेकिन फौरन ही मन ने निश्चय किया कि उसे अपनी बिटिया के लिए जीना होगा. तेज तो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर विदेश जा बसे पर वह अपने दायित्वों से कैसे मुंह मोड़ सकती है?

श्वेता को सुरक्षित भविष्य प्रदान करने का दायित्व निवेदिता ने अपने कंधों पर ले तो लिया था पर वह कर क्या सकती थी? डिगरियां और सर्टि- फिकेट तो कब के तेज के क्रोध की आग पर होम हो चुके थे.

नौकरी ढूंढ़ने निकली तो एक ‘प्ले स्कूल’ में नौकरी मिल गई, साथ ही स्कूल की प्राध्यापिका ने रहने के लिए 2 कमरे का मकान दे कर उस की आवास की समस्या को भी सुलझा दिया, पर वेतन इतना था कि उस में घर का खर्चा चलाना ही मुश्किल था. श्वेता के सुखद भविष्य को बनाने का सपना वह कैसे संजोती?

मन ऊहापोह में उलझा रहता. क्या करे, कैसे करे? विवाह से पहले कुछ पत्रिकाओं में उस के लेख छपे थे. आज फिर से कागजकलम ले कर कुछ लिखने बैठी तो लिखती ही चली गई.

कुछ पत्रिकाओं में रचनाएं भेजीं तो स्वीकृत हो गईं. पारिश्रमिक मिला, शोहरत मिली, नाम मिला. लोग प्रशंसात्मक नजरों से उसे देखते. बधाई संदेश भेजते, तो अच्छा लगता था, फिर भी भीतर ही भीतर कितना कुछ दरकता, सिकुड़ता रहता. काश, तेज ने भी कभी उस के किसी प्रयास को सराहा होता.

ये भी पढ़ें- मसीहा: शांति की लगन

निवेदिता की कई कहानियों पर फिल्में बनीं. घर शोहरत और पैसे से भर गया. श्वेता डाक्टर बन गई. सोचती, यदि तेज ने ऐसा अमानवीय व्यवहार न किया होता तो उस की प्रतिभा का ‘मैं’ तो बुझ ही गया होता. कदमकदम पर पत्नी की प्रतिभा को अपने अहं की कैंची से कतरने वाले तेजेश्वर यदि आज उसे इस मुकाम पर पहुंचा हुआ देखते तो शायद स्वयं को उपेक्षित और अपमानित महसूस करते. यह तो श्वेता का संबल और सहयोग उन्हें हमेशा मिलता रहा वरना इतना सरल भी तो नहीं था इस शिखर तक पहुंचना.

दरवाजे पर दस्तक हुई, ‘‘निवेदिता,’’ किसी ने अपनेपन से पुकारा तो अतीत की यादों से निकल कर निवेदिता बाहर आई और 22 बरस बाद भी तेजेश्वर का चेहरा पहचानने में जरा भी नहीं चूकी. तेज ने कुरसी खिसका कर उस की हथेली को छुआ तो वह शांत बिस्तर पर लेटी रही. तेज की हथेली का दबाव निवेदिता की थकान और शिथिलता को दूर कर रहा था. सम्मोहन डाल रहा था और वह पूरी तरह भारमुक्त हो कर सोना चाह रही थी.

‘‘बेटी के ब्याह पर पिता की मौजूदगी जरूरी होती है. श्वेता के विवाह की बात सुन कर इतनी दूर से चला आया हूं, निवि.’’

यह सुन कर मोम की तरह पिघल उठा था निवेदिता का तनमन. इसे औरत की कमजोरी कहें या मोहजाल में फंसने की आदत, बरसों तक पीड़ा और अवहेलना के लंबे दौर से गुजरने के बाद भी जब वह चिरपरिचित चेहरा आंखों के सामने आता है तो अपने पुराने पिंजरे में लौट जाने की इच्छा प्रबल हो उठती है. निवेदिता ने अपने से ही प्रश्न किया, ‘कल श्वेता ससुराल चली जाएगी तो इतने बड़े घर में वह अकेली कैसे रहेगी?’

‘‘सूजी निहायत ही गिरी हुई चरित्रहीन औरत निकली. वह न अच्छी पत्नी साबित हुई न अच्छी मां. उसे मुझ से ज्यादा दूसरे पुरुषों का संसर्ग पसंद था. मैं ने तलाक ले लिया है उस से. मेरा एक बेटा भी है, डेविड. अब हम सब साथ रहेंगे. तुम सुन रही हो न, निवि? तुम्हें मंजूर होगा न?’’

बंद आंखों में निवेदिता तेज की भावभंगिमा का अर्थ समझ रही थी.

बरसों पुराना वही समर्थन, लेकिन स्वार्थ की महक से सराबोर. निवेदिता की धारणा में अतीत के प्रेम की प्रासंगिकता आज तक थी, लेकिन तेज के व्यवहार ने तो पुराने संबंधों की जिल्द को ही चिंदीचिंदी कर दिया. वह तो समझ रही थी कि तेज अपनी गलती की आग में जल रहे होंगे. अपनी करनी पर दुखी होंगे. शायद पूछेंगे कि इतने बरस उन की गैरमौजूदगी में तुम ने कैसे काटे. कहांकहां भटकीं, किनकिन चौखटों की धूल चाटी. लेकिन इन बातों का महत्त्व तेजेश्वर क्या जानें? परिवार जब संकट के दौर से गुजर रहा हो, गृहकलह की आग में झुलस रहा हो, उस समय पति का नैतिक दायित्व दूना हो जाता है. लेकिन तेज ने ऐसे समय में अपने विवेक का संतुलन ही खो दिया था. अब भी उन का यह स्पर्श उसे सहेजने के लिए नहीं, बल्कि मांग और पूर्ति के लिए किया गया है.

पसीने से भीगी निवेदिता की हथेली धीरेधीरे तेज की मजबूत हथेली के शिकंजे से पीछे खिसकने लगी, निवेदिता के अंदर से यह आवाज उठी, ‘अगर सूजी अच्छी पत्नी और मां साबित न हो सकी तो तुम भी तो अच्छे पिता और पति न बन सके.  जो व्यक्ति किसी नारी की रक्षा में स्वयं की बलि न दे सके वह व्यक्ति पूज्य कहां और कैसे हो सकता है? 22 बरस की अवधि में पनपे अपरिचय और दूरियों ने तेज की सोच को क्या इतना संकुचित कर दिया है?’

जेहन में चुभता हुआ सोच का टुकड़ा अंतर्मन के सागर में फेंक कर निवेदिता निष्प्रयत्न उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘तेज, दूरियां कुछ और नहीं बल्कि भ्रामक स्थिति होती हैं. जब दूरियां जन्म लेती हैं तो इनसान कुछ बरसों तक इसी उम्मीद में जीता है कि शायद इन दूरियों में सिकुड़न पैदा हो और सबकुछ पहले जैसा हो जाए, पर जब ऐसा नहीं होता तो समझौता करने की आदत सी पड़ जाती है. ऐसा ही हुआ है मेरे साथ भी. घुटनों चलने से ले कर श्वेता को डाक्टर बनाने में मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ी. रुकावटें आईं पर हम दोनों मांबेटी एकदूसरे का संबल बने रहे. आज श्वेता के विवाह का अनुष्ठान भी अकेले ही संपूर्ण हो जाएगा.’’

ये भी पढ़ें- अपना बेटा

एक बार निवेदिता की पलकें नम जरूर हुईं पर उन आंसुओं में एक तरह की मिठास थी. आंसुओं के परदे से झांक कर उन्होंने अपनी ओर बढ़ती श्वेता और होने वाले दामाद को भरपूर निगाहों से देखा. श्वेता मां के कानों के पास अपने होंठ ला कर बुदबुदाई, ‘जीवन के मार्ग इतने कृपण नहीं जो कोई राह ही न सुझा सकें. मां, जिस धरती पर तुम खड़ी हो वह अब भी स्थिर है.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें