लगातार बढ़ता कुत्तों का खौफ

देशभर में कुत्तों का खौफ बढ़ रहा है. भोपाल शहर में 16 जनवरी, 2024 को 1-2 नहीं, बल्कि 45 लोगों को कुत्तों ने काट लिया था. इस के हफ्तेभर पहले ही कारोबारी इलाके एमपी नगर में महज डेढ़ घंटे में 21 लोगों को कुत्तों ने काटा था. छिटपुट घटनाओं की तो गिनती ही नहीं.

लेकिन दहशत उस वक्त भी फैली थी, जब अयोध्या इलाके में रहने वाले एक मजदूर परिवार के 7 महीने के मासूम बच्चे को कुत्तों के झुंड ने घसीट कर काटकाट कर मार डाला था. उस बच्चे का एक हाथ ही कुत्तों ने बुरी तरह से चबा डाला था.

देश के हर छोटेबड़े शहर की तरह भोपाल भी कुत्तों से अटा पड़ा है. कुत्तों की सही तादाद का आंकड़ा नगरनिगम के पास भी नहीं है, लेकिन पालतू कुत्तों की संख्या केवल 500 है. इतने ही लोगों ने अपने पालतू कुत्तों का रजिस्ट्रेशन कराया है, वरना तो पालतू कुत्तों की तादाद 10,000 से भी ज्यादा है.

लेकिन नई समस्या पालतू या आवारा कुत्तों की तादाद से ज्यादा उन का खौफ है, जिस का किसी के पास कोई हल या इलाज नहीं दिख रहा है.

इलाज तो कुत्तों के काटे का भी सभी को नहीं मिल पाता, क्योंकि ऐसे बढ़ते मामलों के मद्देनजर अस्पतालों में एंटी रेबीज इंजैक्शनों का टोटा पड़ने लगा है.

10 जनवरी, 2024 को कुत्ते के काटने के बाद जब 45 लोग एकएक कर जयप्रकाश अस्पताल पहुंचे थे, तब कुछ को ही ये इंजैक्शन मिल पाए थे.

वैसे तो कुत्तों का खौफ पूरे देश और दुनियाभर में है, लेकिन भोपाल के हादसों ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा है सिवा सरकार और नगरनिगम के, जिन का कहना यह है कि जब वे कुत्तों पर कोई कार्यवाही करते हैं, तो ?ाट से कुत्ता प्रेमी आड़े आ जाते हैं.

14 जनवरी, 2024 को जब नगरनिगम की टीम आवारा कुत्तों को पकड़ने पिपलानी इलाके में पहुंची, तो एक कुत्ता प्रेमी लड़की उस टीम से भिड़ गई. नगरनिगम ने उस लड़की के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी.

यह जान कर हैरानी होती है कि भोपाल में नगरनिगम अमला अब तक तकरीबन 7 कुत्ता प्रेमियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा चुका है.

क्या करें इन कुत्तों का

जाहिर है कि कुत्ता प्रेमियों का विरोध ‘कुत्ता पकड़ो मुहिम’ में बाधा बनता है. कई एनजीओ तो बाकायदा कुत्ता प्रेम से फलफूल रहे हैं. इन की रोजीरोटी ही कुत्ता प्रेम है. इन लोगों को उन मासूमों की मौत से कोई लेनादेना नहीं, जिन्हें कुत्तों ने बेरहमी से काटकाट कर और घसीटघसीट कर मार डाला.

आवारा और पालतू कुत्तों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, तो इस की बड़ी वजह कुत्तों की नसबंदी न हो पाना भी है जो आसान काम नहीं, लेकिन इस बाबत तो स्थानीय निगमों को जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी कि वे ढिलाई बरतते हैं और हरकत में तभी आते हैं, जब हादसे बढ़ने लगते हैं.

लाख टके का सवाल जो मुंहबाए खड़ा है वह यह है कि इन कुत्तों का क्या किया जाए? इन्हें मारो तो दुनियाभर के लोगों की हमदर्दी और कानून आड़े आ जाते हैं और न मारो तो बेकुसूर लोग परेशान होते हैं. कई मासूमों की मौत ने तो इस चिंता को और बढ़ा दिया है. जहां नजर डालें, चारों तरफ कुत्ते ही कुत्ते दिखते हैं.

धर्म भी कम जिम्मेदार नहीं

कुत्तों के हिंसक होने की कोई एक वजह नहीं होती. भोपाल के हादसों के बीच कुछ ज्ञानियों ने मौसम को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की, लेकिन यह दलील लोगों के गले नहीं उतरी.

असल में लोगों की धार्मिक मान्यताएं भी इस की जिम्मेदार हैं, जो यह कहती हैं कि कुत्तों को शनिवार के दिन खाना खिलाने से जातक पर शनि और राहू का प्रकोप नहीं होता. भोपाल में जगहजगह ऐसे सीन देखने को मिल जाते हैं, जिन में राहूशनि पीडि़त लोग कुत्तों का भंडारा कर रहे होते हैं.

भोपाल के ही शिवाजी नगर इलाके में हर शनिवार की शाम एक बड़ी कार रुकती है, तो कुत्ते जीभ लपलपाते उस की तरफ लपक पड़ते हैं.

इस गाड़ी से 2 सभ्य सज्जन उतरते हैं और कुत्तों को बिसकुट, रोटी, ब्रैड वगैरह खिलाते हैं और इतने प्यार से खिलाते हैं कि पलभर को आप यह भूल जाएंगे कि इन कुत्तों की वजह से औसतन 5 लोग रोज अस्पतालों के चक्कर काटते हैं और हैरानपरेशान होते हैं.

कहना तो यह बेहतर होगा कि इन धर्मभीरुओं की वजह से लोग तकलीफ उठाते हैं और पैसा भी बरबाद करने को मजबूर होते हैं.

कुत्तों के इस सामूहिक और सार्वजनिक भोज के नजारे में दिलचस्प बात यह भी है कि इस वक्त कुत्ते बिलकुल इनसानों की तरह अपनी बारी के आने का इंतजार इतनी शांति और अनुशासन से करते हैं कि लगता नहीं कि ये वही कुत्ते हैं, जो बड़ी चालाकी से घात लगा कर राह चलते लोगों की पिंडली अपने दांतों में दबा लेते हैं या फिर ग्रुप बना कर ‘भोंभों’ करते हुए राहगीरों और गाडि़यों पर ?ापट्टा मारते हैं.

नेताओं के प्रिय कुत्ते

इस में शक नहीं है कि गाय के साथसाथ कुत्ता पुराने जमाने से ही आदमी का साथी और पालतू रहा है. महाभारत काल में तो कुत्ता पांडवों के साथ स्वर्ग तक गया था.

हुआ यों था कि धर्मराज के खिताब से नवाजे गए युधिष्ठिर के लिए जब स्वर्ग का दरवाजा खुला, तो वे अड़ गए कि जाऊंगा तो कुत्ता ले कर ही, वरना नहीं जाऊंगा.

बात बिगड़ने लगी, तो उपन्यासकार वेद व्यास ने सुखांत के लिए यह बताते हुए सस्पैंस खत्म किया कि उस कुत्ते के वेश में यमराज ही थे, जो युधिष्ठिर का इम्तिहान ले रहे थे.

यानी, पौराणिक काल से ही कुत्ता आम के साथसाथ खास लोगों और शासकों का प्रिय रहा है. मौजूदा दौर में कई नेताओं का कुत्ता प्रेम अकसर खबर बनता है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रिय कुत्ता कालू तो इंटरनैट सैलिब्रिटी कहलाता है. यह लैब्राडोर नस्ल का कुत्ता गोरखपुर में उन के मठ में रहता है और पनीर खाने का शौकीन है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कुत्तों के शौकीन हैं. उन के नए कुत्ते का नाम ‘नूरी’ है, जो उन्होंने अपनी मां सोनिया गांधी को कर्नाटक चुनाव के दौरान तोहफे में दिया था. इस कुत्ते की नस्ल जैक रसेल टैरियर है.

यहां बताना प्रासंगिक है कि इस कुत्ते (शायद कुतिया) का नाम ‘नूरी’ रखने पर एआईएमआईएम के एक नेता मोहम्मद फरहान ने इसे उन लाखों मुसलिम लड़कियों की बेइज्जती बताया था, जिन का नाम नूरी है.

भोपाल के हादसों के बाद साध्वी उमा भारती ने भी कुत्ता प्रेमियों को लताड़ लगाई थी. कुत्तों के खौफ से बचने के लिए उन्होंने कुत्तों के लिए अलग से अभयारण्य बनाए जाने की बात कही थी. मुमकिन है, अब गौशालाओं की तर्ज पर कुत्ताशालाएं खुलने की मांग उठने लगे.

लेकिन हल यह है

देशभर में कुत्तों के काटने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2023 में 27 लाख,

50 हजार लोगों को कुत्तों ने काटा था. यह एक चिंताजनक आंकड़ा है, क्योंकि इन में से 20,000 लोग रेबीज से मरे. ऐसे में कोई वजह नहीं कि कुत्तों से हमदर्दी रखी जाए, लेकिन उन्हें मार देना भी हल नहीं.

बेहतर तो यह होगा कि लोग कुत्ते पालना बंद करें, इन्हें खाना देना बंद करें, अपने धार्मिक अंधविश्वास छोड़ें. इन सब से समस्या खत्म भले न हो, लेकिन कम तो जरूर होगी.

‘लीप ईयर में’ 29 फरवरी को महिलाओं को क्यों बच्चा पैदा करने से किया जाता है मना

अंग्रेजी कैलेंडर की गणना सूर्य वर्ष के आधार पर की जाती है. इस कैलेंडर को ‘ग्रेगोरियन कैलेंडर’ कहा जाता है और इस का पहला महीना जनवरी होता है. इसी ‘ग्रेगोरियन कैलेंडर’ के हिसाब से साल में 365 दिन होते हैं और हर 4 साल बाद लीप ईयर आता है, जिस में 365 की बजाय 366 दिन हो जाते हैं.

एक दिन बढ़ने की यह वजह

दरअसल, पृथ्‍वी को सूर्य का चक्‍कर लगाने में 365 दिन और करीब 6 घंटे लगते हैं और तब जा कर एक सूर्य वर्ष पूरा होता है और नया साल शुरू होता है. ये 6-6 घंटे की अवधि जुड़ते हुए 4 सालों में पूरे 24 घंटे की हो जाती है और 24 घंटे का एक पूरा दिन होता है. इस एक्‍सट्रा दिन को फरवरी में जोड़ दिया जाता है. यही वजह है कि हर चौथे साल में फरवरी 29 दिनों की होती है.

इस दिन से जुड़े मिथक और अंधविश्वास

चूंकि यह 29 तारीख 4 साल में एक बार आती है तो इसे अजूबा मान लिया जाता और फिर इस से जुड़े कई मिथक जन्म ले लेते हैं, जो धीरे धीरे अंधविश्वास में बदल जाते हैं.

29 फरवरी से जुड़ा एक मिथक यह भी है कि इस दिन जनमे बच्चे बड़े विलक्षण होते हैं. लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है. केवल 4 साल में एक बार जन्मदिन आने से किसी का विलक्षण होना अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं है.

महिलाओं को बच्चा पैदा करने की मनाही

कई देशों खासकर स्कॉटलैंड में ऐसा माना जाता है कि महिलाओं के लिए 29 फरवरी भी एक बहुत ही सफल दिन हो सकता है, क्योंकि हर 4 साल में एक बार 29 फरवरी को उन्हें किसी पुरुष को प्रपोज करने का ‘अधिकार’ होता है.

इस ‘अधिकार’ की भी गजब कहानी है. काफी साल पहले ‘लीप ईयर’ के दिन को अंग्रेजी कानून में कोई मान्यता नहीं थी (उस दिन को ‘लीप ओवर’ कर दिया गया था और नजरअंदाज कर दिया गया था, इसलिए इसे ‘लीप ईयर’ कहा गया). लिहाजा यह निर्णय लिया गया कि उस दिन की कोई कानूनी स्थिति नहीं है, जिस का अर्थ है कि इस दिन परंपरा को तोड़ना स्वीकार्य है.

किंवदंती है कि 5वीं शताब्दी में किल्डारे के सेंट ब्रिगिड ने कथित तौर पर सेंट पैट्रिक को प्रस्ताव दिया था कि महिलाओं को 4 साल में एक बार अपने डरपोक प्रेमी को प्रपोज करने का अधिकार देना चाहिए. इस की इजाजत भी दी गई थी और आज भी बहुत सी महिलाएं यह रिवाज निभाती दिख जाती हैं.

स्कॉटिश अंधविश्वास का मानना ​​है कि 29 फरवरी को किसी मां का अपने बच्चे को जन्म देना दुर्भाग्यपूर्ण है. इस दिन की तुलना 13वें शुक्रवार से की जाती है, जिसे एक अशुभ दिन के रूप में भी देखा जाता है. इस 13 तारीख को इसे अंग्रेजी में ‘फ्राइडे द थर्टिंथ’ कह कर दुर्भाग्य से जोड़ा जाता है. बहुत से लोगों का मानना है कि यह दिन और तारीख जब भी मिलते हैं तो दुर्भाग्य पैदा करते हैं. इस दिन और तारीख के संयोग को अशुभ मान कर लोग घर से बाहर निकलने तक से घबराते हैं.

‘लीप डे’ यानी 29 फरवरी पर किसी पुरुष को प्रपोज करना ठीक है, लेकिन उसी दिन के बारे में यूनानियों का मानना ​​है कि ‘लीप डे’ पर शादी करना बेहद अशुभ होता है और यदि आप लीप डे’ पर तलाक लेते हैं, तो आप को कभी भी दोबारा प्यार नहीं मिलेगा.

तन्मय अग्रवाल : गेंदबाजों को धुन कर बनाया एक नया क्रिकेट रिकॉर्ड

इतिहास बनाने वाले अनेक नहीं होते कोई एक होता है जो अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर जीत दर्ज करता है. ऐसा ही कुछ हुआ जिसके कारण आज तन्मय अग्रवाल का नाम बल्लेबाज के रूप में सम्मान से लिया जा रहा है. तन्मय धरमचंद अग्रवाल का जन्म 3 मई, 1995 को हुआ. ये एक भारतीय क्रिकेटर हैॆ जो हैदराबाद के लिए खेलते हैं. तन्मय एक बाएं हाथ के शीर्ष क्रम के बल्लेबाज हैं. उन्होंने 2014 में हैदराबाद के लिए अपने प्रथम श्रेणी क्रिकेट और लिस्ट ए क्रिकेट दोनों की शुरुआत की थी.

रणजी ट्राफी में 26 जनवरी, 2024 के दिन अरुणाचल प्रदेश और हैदराबाद के बीच खेला गया मुकाबला इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया. सिर्फ एक दिन के खेल में तन्मय अग्रवाल ने धुआंधार अंदाज में गेंदबाजों की पिटाई करते हुए तिहरा शतक जमा कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया. सिर्फ 147 गेंद पर 21 छक्के और 33 चौके की मदद से तन्मय अग्रवाल नामक इस नए बल्लेबाज ने 323 रन ठोंक कर दिखा दिया कि आने वाले समय में वह देश के लिए क्या कुछ कर सकता है.

आप को बता दें कि 28 साल के तन्मय अग्रवाल का क्रिकेट की तरफ नन्ही उम्र में ही शौक पैदा हो गया था. पिता ने इन्हें क्रिकेट की तरफ प्रोत्साहित किया और देखते ही देखते तन्मय के धमाकेदार खेल का नतीजा था कि उन्होंने हैदराबाद अंडर-14 टीम में जगह बनाई.

यही नहीं, इस के बाद तन्मय अग्रवाल अंडर-16, अंडर-19, अंडर-22 और अंडर-25 टीम में जगह बनाने में कामयाब हुए. दरअसल, 2014 में तन्मय को प्रथम श्रेणी क्रिकेट में खेलने का मौका मिला था. अभी तक वे हैदराबाद के लिए 56 प्रथम श्रेणी मैचों में 3,500 से अधिक रन बना चुके हैं. इतना ही नहीं, वे इंडियन प्रीमियर लीग में सनराइजर्स हैदराबाद के लिए साल 2017 और 2018 में टीम का हिस्सा भी बन कर अपनी चमक बिखेर चुके हैं.

महत्वपूर्ण यह है कि तन्मय अग्रवाल ने अब दक्षिण अफ्रीका के मार्को माराइस के 191 गेंद पर बनाए तिहरे शतक के रिकार्ड को 147 गेंद पर बना कर तोड़ डाला है. इसी कारनामे को वेस्टइंडीज के महान बल्लेबाज विवियन रिचर्ड्स ने 244 गेंद पर अंजाम दिया था. एक दिन में 300 रन बना कर तन्मय अग्रवाल ने भारतीय दिग्गज वीरेंद्र सहवाग को भी पीछे छोड़ दिया. 2009 में उन्होंने श्रीलंका के खिलाफ ब्रेबोर्न टेस्ट में एक दिन में 284 रन बनाए थे.

तन्मय अग्रवाल ने अपनी इस ऐतिहासिक पारी के बाद मीडिया से रूबरू हो कर कहा, ‘यह पूर्व नियोजित पारी नहीं थी. यह एक और सामान्य दिन था और मैं हर पारी में जिस तरह से खेलता हूं उसी तरह खेल रहा था. मैं ने इस सीजन के लिए कोई लक्ष्य नहीं तय किया था. मैं बस अच्छी बल्लेबाजी करना चाहता था. यह मानसिकता मददगार रही. अच्छा लगता है कि मेरा नाम सूची में सब से ऊपर है.

‘मैं अपने परिवार और दोस्तों का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने इतने वर्षों तक मेरा समर्थन किया. बिना उन के समर्थन के यह सफलता प्राप्त करना आसान नहीं था.’

 

क्या गुरुघंटाल है विवेक बिंद्रा

भटके हुए यूथ को बेवकूफ बनाना आसान होता है चाहे धर्म के नाम पर हो या कैरियर के नाम पर. आजकल इन्हीं दोनों का इस्तेमाल कर सोशल मीडिया पर मोटिवेशन के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले इन्फ्लुएंसरों की फौज खड़ी हो गई है जो बड़ीबड़ी बातें कर के करोड़ों छाप रहे हैं. ऐसा ही एक मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिंद्रा है जो अब विवादों में है.

पैसा कमाना गलत नहीं, लेकिन गलत हो कर पैसा कमाना गलत है. यह इस बात पर भी डिपैंड करता है कि आप का मीडियम क्या है और उन मीडियमों से आप कैसे सक्सैस हासिल करते हैं. आजकल यूथ ज्यादा और जल्दी पैसा कमाना चाहते हैं. सब को बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूमना है, बड़ा घर चाहिए, नाम चाहिए, इज्जत चाहिए और ये सब मिल जाए तो एक अच्छी लड़की या लड़का किसे नहीं चाहिए भला. पर यह होगा कैसे, यह सवाल बारबार परेशान करता है. कभी यह सवाल नैया पार तो लगाता है पर बहुत बार इस से जू?ा रहा यूथ जल्दी किसी के लपेटे में भी आ जाता है.

यही कारण भी है कि इन को लपेटे में लेने के लिए सोशल मीडिया पर गुलाटियां खाने वाले मोटिवेशनल इन्फ्लुएंसर भरे पड़े हैं, जो खुलमखुल्ला लाखों रुपए महीने के कमाने के तरीके बताते हैं. आखिर ये शौर्टकट तरीके हैं क्या और इन की संभावनाएं कितनी हैं? क्या ये तरीके सही भी हैं?

इन्फ्लुएंसर विवेक बिंद्रा की कला

41 साल का विवेक बिंद्रा खुद को ‘डा. विवेक बिंद्रा : मोटिवेशनल स्पीकर’ के नाम से इंट्रोड्यूस करता है. इसी नाम से उस ने यूट्यूब चैनल बनाया हुआ है. इस चैनल में लगभग 2 करोड़ 13 लाख सब्सक्राइबर हैं. वहीं उस की हर वीडियो को लाखों लोग देखते हैं. सम?ा जा सकता है कि किस हद तक युवाओं के बीच इस ने पैठ बनाई है. इस के वीडियो के थंबनेल पर लिखा रहता है कि ‘फलाना अमीर कैसे बने’, ‘पैसों में खेलोगे’, ‘करोड़ों कैसे कमाएं’. यह युवा की इच्छा की नब्ज पर हाथ रखता है जिस के सपने वह युवा देखना शुरू कर देता है जिस की हलकी भूरी मूछदाढ़ी अभी आनी शुरू हुई है.

उस के बताए उदाहरण इतने लच्छेदार होते हैं कि कोई भी ट्रैप में फंस सकता है. जैसे, बिंद्रा ने एक वीडियो ‘चार्ली मुंगर’ पर बनाया है जो अमेरिकी बिसनैसमैन और इन्वैस्टर है. बिंद्रा बंदर की तरह उछलउछल कर बोलता है कि मुंगर 7 साल की उम्र में 10 घंटे ग्रौसरी की दुकान पर काम कर के पैसे कमाया करता था और वह 10 से 12 साल की उम्र तक आतेआते अपनी क्लास के बच्चों के होमवर्क, असाइनमैंट बना कर पैसे कमाया करता था.

बेसिरपैर के दावे

सवाल यह कि क्या किसी स्कूल का टीचर ऐसे तरीके बताएगा पैसे कमाने के? दूसरा, क्या कोई अपने 7 साल के बच्चे को इस उम्र में काम पर भेजेगा जब तक बड़ी मजबूरी न हो? दरअसल हकीकत यह है कि मुंगर ने अपनी टीनएज उम्र में जिस बफेट एंड सन ग्रौसरी शौप में काम किया उस का मालिक वारेन बफेट के दादा अर्नेस्ट पी बफेट थे. आगे चल कर मुंगर को वारेन बफेट की बर्कशायर हैथवे कंपनी का उपाध्यक्ष बनाया जाता है. मुंगर के दादा और पिता दोनों ही वकील थे. मुंगर का परिवार फाइनैंशियली व सोशियली रूप से पावरफुल था.

इस का प्रूफ यह कि जब चार्ली मुंगर ने अपने पिता के अल्मा मेटर,  हार्वर्ड लौ स्कूल में दाखिला लेने की कोशिश की तो डीन ने उसे ऐक्सैप्ट नहीं किया क्योंकि मुंगर ने ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी नहीं की थी लेकिन हार्वर्ड लौ के पूर्व डीन और मुंगर परिवार के मित्र रोस्को पाउंड के आपसी संबंध अच्छे थे और उन के बीच हुई बातचीत के बाद कालेज के डीन नरम पड़ गए. बिंद्रा अपने वीडियो में बातों को तोड़मरोड़ कर बताता है. यही उस की कला है.

बिंद्रा ने अपने चैनल पर दावा किया है कि वह 10 दिनों में एमबीए कराएगा. एमबीए सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं क्योंकि इस डिग्री की अहमियत जितनी है उस से ज्यादा इस की फीस है. फीस इतनी कि बाप को सड़क पर आना पड़ जाए. एमिटी और शारदा वाले तो खाल खींचे बगैर बात भी नहीं करते.

एमबीए एक प्रोफैशनल डिग्री है जिसे तभी कराया जा सकता है जब उस संस्था को यूजीसी से सर्टिफिकेशन प्राप्त हो. अगर आप किसी सरकारी यूनिवर्सिटी से भी एमबीए करने की सोचेंगे तो आप से पहले वह आप की क्वालिफिकेशन पूछेगी, आप का एग्जाम होगा और उस के बावजूद 1 प्रतिशत चांस है कि आप को पढ़ने को मिले वह भी तब जब इस की फीस दो से तीन लाख रुपए देने की आप में हिम्मत हो.

सवाल यह कि 2 साल का कोर्स 10 दिनों में औनलाइन कोई कैसे करा सकता है? कोई करा सकता है तो इस की औथेंटिसिटी क्या है? इस में क्या सिखाया जाता है और इस की कितनी वैल्यू है? सवाल यह भी कि क्या बिंद्रा कोई जादूगर है जो पलक झपकते एमबीए बना देता है?

असल में यह कोई एमबीए है ही नहीं. विवेक बिंद्रा, जो यूट्यूबर कम और एंटरप्रेन्योर ज्यादा कहलवाना पसंद करता है, का ‘बड़ा बिजनैस प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी है जो गोलमोल बातें कर बिजनैस स्ट्रैटेजी सिखाता है. वह मल्टी मार्केटिंग के नाम पर कोर्स बेचता है और पैसे कमाने का तरीका बताता है. यानी, आप का हजारों रुपए इस कोर्स में फंस चुका है और अगर अपना पैसा निकालना चाहते हैं तो और लोगों को इस जाल में फंसाइए. इसे ही पिरामिड स्कीम कहा जाता है.

इसे और आसान भाषा में सम?ाना है तो आप ने यूनिवर्सिटी, कालेज, स्कूल और नुक्कड़ों के आसपास सूटबूट पहने, टाई लगाए कुछ युवाओं को कोनोंखोंपचों में कुछ खुसरफुसर करते देखा होगा. ये लोग नैटवर्किंग मार्केट वाले कहलाते हैं. लंबीचौड़ी हांकते हैं, ?ाटपट अमीर बनने के नुस्खे बांटते हैं. आज बाइक-कार, कलपरसों मकान सब 10 मिनट की बात में दिलाने के सपने दिखा देते हैं. इन का लैवल डायमंड कैटेगरी तक बनने का होता है जो सब से ऊंचा पद होता है, जो ऊपर बैठ कर मलाई खाता है.

नाकामयाबी की गिरफ्त

विवेक बिंद्रा को देखनेसुनने वाले वे नौजवान हैं जो अपनेआप को जीवन में नाकामयाब सम?ाते हैं. उन्हें यह बताया जाता है कि बिजनैस से गरीब, अनपढ़ आदमी भी इन्वैस्टमैंट कर के महीने के लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकता है, एक कामयाब एंटरप्रेन्योर बन सकता है. बल्कि, सच यह है कि इन के पास कामयाब लोगों का कोई उदाहरण नहीं दिखता और जिसे सामने लाया जाता है वह खुद इन में से ही एक होता है. इन की भाषा बिलकुल दस का बीस, बीस का पचास, पचास का सौ जैसी होती है, बिलकुल वैसी जैसे दिल्ली के लालकिले के सामने लगने वाले चोर बाजार में मुंह में गुटका दबाए 20-21 साल का लड़का अपना सामान बेचने के लिए चिल्लाता है.

फैक्ट यह है कि देश में बेरोजगारी पिछले 50 वर्षों में आज सब से अधिक है. जिस हिसाब से जनसंख्या में बढ़ोतरी हुई है उस के हिसाब से नौकरियों को नहीं बढ़ाया गया है. बड़ीबड़ी कंपनियां सरकारी क्षेत्र और छोटे व्यापारियों के बाजार पर नियंत्रण के लिए अपने बाजार का विस्तार करने में लगे हुए हैं.

इस का मतलब यह हुआ कि एक आदमी की कामयाबी हजारोंलाखों लोगों की बरबादी से गुजरती है. उदहारण के लिए एक कुरसी है और हजारों लोगों से पूछा जाता है आप को कितनी चाहिए. हरेक व्यक्ति एक ही बोलता है क्योंकि चाहिए उसे एक ही और वह रेस में दौड़ पड़ता है. दौड़ के बाद एक व्यक्ति को कुरसी मिलती है और बाकी लोग बाहर हो जाते हैं. बिजनैस तभी चलेगा जब बाकियों का बिजनैस कम हो या वे बरबाद हो जाएं क्योंकि दर्शक और उपभोक्ताओं की संख्या सीमित है.

बाजार के इसी नियम से कई लोग बनते हैं और करोड़ों लोग बिखरते हैं. ऐसी समस्याओं के बीच विवेक बिंद्रा जैसे लोग ठगी का जाल बुन कर सैकड़ोंकरोड़ों का मुनाफा बनाते हैं. आजकल स्टार्टअप, एंटरप्रेन्योर का शोर मचा पड़ा है. सब को रातोंरात स्टार बनाने की बात की जा रही है. वैसे ही जैसे आप इंस्टाग्राम पर अपनी तसवीर के साथ शाहरुख खान का गाना लगा कर फील करते हैं और हकीकत उस से बहुत अलग होती है.

टाटा, अंबानी, बिड़ला आदि भारत के सब से बड़े बिजनैसमेन माने जाते हैं. ये बड़े कारखाने चलाते हैं, प्रोडक्शन करते हैं, कुछ मैटीरियल तैयार करते हैं जिन्हें लोग कंज्यूम करते हैं जिस पर लोग मुनाफा कमाते हैं. बिंद्रा की कंपनी कोई प्रोडक्शन नहीं करती. वह लोगों को बिजनैस आइडिया बेच कर अपना धंधा चलाती है.

विवेक बिंद्रा आज के समय में जन्मे बेरोजगारों को भटकाने का काम करता है. यह व्यक्ति मार्केट में जोखिम उठा कर लोगों को पैसे लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है, इस में गलत नहीं पर उस के बाद उन की बदहाली से अपना मुंह फेर लेना किसी धोखे से कम नहीं. आप यूट्यूब पर ऐसे कई वीडियो देख सकते हैं जिन में लोगों का रुपया वापस नहीं मिलने की बात सामने आती है. ऐसी परिस्थिति में लोग और डिप्रैशन का शिकार होते हैं.

विवेक बिंद्रा एक न्यूज चैनल में इंटरव्यू देते कहता है, ‘‘बाजार को जो चाहिए वह हमारा स्कूली सिस्टम नहीं दे पाता.’’ सही है स्कूल में हर चीज नहीं सिखाई जाती, बेशक, यह लूटमार का अड्डा नहीं बन सकता, फ्रौड करने की दुकान तो बिलकुल नहीं बनना चाहिए. स्कूलों में 10 दिनों में एमबीए बनना और बनाने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती.

धर्म के नाम पर सब बिकता है

बिंद्रा जैसे लोग अपने व्यापार में धर्म व आस्था का भरपूर इस्तेमाल करना जानते हैं जिस से लोग इन की गलत बातों का भी सही मतलब सम?ों. यह एक तरह का जस्टिफिकेशन बन जाता है जिसे लोग ऐक्सैप्ट कर लेते हैं. हकीकत में यह इन के जाल बिछाने का एक रास्ता है. धर्म के मामले में यूथ टची होने लगा है. उन्हें मूर्ख बनाना पहले से कहीं आसान हो गया है जिस का फायदा इन्फ्लुएंसर उठाने लगे हैं. (मुक्ता के दिसंबर 2023 इशू में एल्विश यादव का उदाहरण इसी संबंध में विस्तार से बताया गया).

दरअसल, पढ़नेलिखने की आदत कम होने से युवाओं की सोचनेसम?ाने की क्षमता कम होती जा रही है. वह किसी भी बेबुनियादी बात को सच मान लेते हैं खासकर तब जब उन्हें इसे धर्म के रैपर में लपेट कर दिया गया हो.

विवेक बिंद्रा वर्णव्यवस्था के संबंध में एक वायरल वीडियो में कहता है कि समाज में कुछ लोग आदेश को पालन करवाने और कुछ लोग आदेश का पालन करने में ज्यादा सक्षम होते हैं. एक तरफ आरक्षण को बिंद्रा गलत मानता है और दूसरी तरफ जाति आधारित शोषण पर अपनी चुप्पी बनाए रखता है. हकीकत में इस का जाति, गरीबी और किसी भी कारण से पिछड़े लोगों की समस्या से कोई लेनादेना नहीं है बल्कि हर साल यह अपने मुनाफे को कैसे कई गुना बढ़ा सके, यह इस की प्रायोरिटी रहती है.

घरेलू विवाद में फंसा

आज विवेक बिंद्रा अपनी निजी जिंदगी के कारण भी सुर्खियों में बना पड़ा है. 6 दिसंबर, 2023 को वह अपनी दूसरी पत्नी यानिका से विवाह करता है, जिस के अगले दिन बिंद्रा पर अपनी पत्नी से मारपीट और बदसलूकी का आरोप लगता है. एक वीडियो वायरल है जिस में यानिका बिंद्रा से उसे जाने देने की गुहार लगाती दिखाई दे रही है.

पहली पत्नी गीतिका के साथ भी बिंद्रा पर मारपीट करने का आरोप लगा था जिस के बाद उस ने बिंद्रा से तलाक ले लिया था. याद रहे, बिंद्रा एक मोटिवेशनल इन्फ्लुएंसर है जो युवाओं को ‘मोटिवेट’ करता है. अब सम?ों पत्नी पर डोमैस्टिक वायलैंस करने वाला कैसे बड़ेबड़े सैमिनारों के स्टेज पर फर्जी बातें करता रहा होगा? बिंद्रा अपनी दोनों पत्नियों के साथ मारपीट का आरोपी है. कई लोगों ने इस पर फ्रौड करने का आरोप लगाया है.

फ्रौड करने का आरोप

महेशवरी पेरी, जो ‘360 कैरियर’ के संस्थापक हैं, बताते हैं कि बिंद्रा की कंपनी की एक साल की कमाई 172 करोड़ रुपए है और 2 साल में कंपनी ने 308 करोड़ रुपए कमाए हैं. यह एक मल्टीलैवल मार्केटिंग कंपनी है. यह लोगों से ऐसे वादे करता है जिन को पूरा नहीं किया जा सकता. यह लोगों को महीने के लाख से 20 लाख कमाने का तरीका बताता है जबकि इस के खुद के एंपलौय मात्र 20-30 हजार रुपए महीने में काम कर रहे हैं.

इन की बातों में आप को एमबीए, एंटरप्रेन्योर, इंटरनैशनल कंसल्टैंट जैसे शब्द दिखेंगे जो छोटे शहरों के युवाओं के लिए बड़े सपने जैसा है. बिंद्रा की दुकान सपने बेच कर चलती है क्योंकि उस के बिना यह चलेगी ही नहीं. सोचिए, इस की जगह अगर वह स्किल डैवलपमैंट का इस्तेमाल करता तो कोई इतना ध्यान ही न देता.

सोशल मीडिया ने रास्ता दिखाने से ज्यादा लोगों को भटकाया है. जो सोशल मीडिया हमारी ताकत हो सकता था वह आज सोसाइटी को कमजोर व खोखला कर रहा है. लोग अपने आसपास के जीवन से दूर होते जा रहे हैं. लोगों को अकेला रहना बेहतर लगने लगा है.

देश में शिक्षा की स्थिति काफी खराब है. स्कूल पूरा होने से पहले ही स्टूडैंट्स का एक बड़ा हिस्सा बाहर निकल जाता है. पढ़ेलिखे लोगों को भी अच्छी नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है. कहने का मतलब एकदम साफ यह है कि देश में कोई ऐसा सिस्टम ही नहीं है जो युवाओं को रास्ता दिखा सके और इसी का फायदा बिंद्रा जैसे इन्फ्लुएंसर उठा रहे हैं.

सा कमाना गलत नहीं, लेकिन गलत हो कर पैसा कमाना गलत है. यह इस बात पर भी डिपैंड करता है कि आप का मीडियम क्या है और उन मीडियमों से आप कैसे सक्सैस हासिल करते हैं. आजकल यूथ ज्यादा और जल्दी पैसा कमाना चाहते हैं. सब को बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूमना है, बड़ा घर चाहिए, नाम चाहिए, इज्जत चाहिए और ये सब मिल जाए तो एक अच्छी लड़की या लड़का किसे नहीं चाहिए भला. पर यह होगा कैसे, यह सवाल बारबार परेशान करता है. कभी यह सवाल नैया पार तो लगाता है पर बहुत बार इस से जूझ रहा यूथ जल्दी किसी के लपेटे में भी आ जाता है.

यही कारण भी है कि इन को लपेटे में लेने के लिए सोशल मीडिया पर गुलाटियां खाने वाले मोटिवेशनल इन्फ्लुएंसर भरे पड़े हैं, जो खुलमखुल्ला लाखों रुपए महीने के कमाने के तरीके बताते हैं. आखिर ये शौर्टकट तरीके हैं क्या और इन की संभावनाएं कितनी हैं? क्या ये तरीके सही भी हैं?

इन्फ्लुएंसर विवेक बिंद्रा की कला

41 साल का विवेक बिंद्रा खुद को ‘डा. विवेक बिंद्रा : मोटिवेशनल स्पीकर’ के नाम से इंट्रोड्यूस करता है. इसी नाम से उस ने यूट्यूब चैनल बनाया हुआ है. इस चैनल में लगभग 2 करोड़ 13 लाख सब्सक्राइबर हैं. वहीं उस की हर वीडियो को लाखों लोग देखते हैं. समझ जा सकता है कि किस हद तक युवाओं के बीच इस ने पैठ बनाई है. इस के वीडियो के थंबनेल पर लिखा रहता है कि ‘फलाना अमीर कैसे बने’, ‘पैसों में खेलोगे’, ‘करोड़ों कैसे कमाएं’. यह युवा की इच्छा की नब्ज पर हाथ रखता है जिस के सपने वह युवा देखना शुरू कर देता है जिस की हलकी भूरी मूछदाढ़ी अभी आनी शुरू हुई है.

उस के बताए उदाहरण इतने लच्छेदार होते हैं कि कोई भी ट्रैप में फंस सकता है. जैसे, बिंद्रा ने एक वीडियो ‘चार्ली मुंगर’ पर बनाया है जो अमेरिकी बिसनैसमैन और इन्वैस्टर है. बिंद्रा बंदर की तरह उछलउछल कर बोलता है कि मुंगर 7 साल की उम्र में 10 घंटे ग्रौसरी की दुकान पर काम कर के पैसे कमाया करता था और वह 10 से 12 साल की उम्र तक आतेआते अपनी क्लास के बच्चों के होमवर्क, असाइनमैंट बना कर पैसे कमाया करता था.

बेसिरपैर के दावे

सवाल यह कि क्या किसी स्कूल का टीचर ऐसे तरीके बताएगा पैसे कमाने के? दूसरा, क्या कोई अपने 7 साल के बच्चे को इस उम्र में काम पर भेजेगा जब तक बड़ी मजबूरी न हो? दरअसल हकीकत यह है कि मुंगर ने अपनी टीनएज उम्र में जिस बफेट एंड सन ग्रौसरी शौप में काम किया उस का मालिक वारेन बफेट के दादा अर्नेस्ट पी बफेट थे. आगे चल कर मुंगर को वारेन बफेट की बर्कशायर हैथवे कंपनी का उपाध्यक्ष बनाया जाता है. मुंगर के दादा और पिता दोनों ही वकील थे. मुंगर का परिवार फाइनैंशियली व सोशियली रूप से पावरफुल था.

इस का प्रूफ यह कि जब चार्ली मुंगर ने अपने पिता के अल्मा मेटर,  हार्वर्ड लौ स्कूल में दाखिला लेने की कोशिश की तो डीन ने उसे ऐक्सैप्ट नहीं किया क्योंकि मुंगर ने ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी नहीं की थी लेकिन हार्वर्ड लौ के पूर्व डीन और मुंगर परिवार के मित्र रोस्को पाउंड के आपसी संबंध अच्छे थे और उन के बीच हुई बातचीत के बाद कालेज के डीन नरम पड़ गए. बिंद्रा अपने वीडियो में बातों को तोड़मरोड़ कर बताता है. यही उस की कला है.

बिंद्रा ने अपने चैनल पर दावा किया है कि वह 10 दिनों में एमबीए कराएगा. एमबीए सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं क्योंकि इस डिग्री की अहमियत जितनी है उस से ज्यादा इस की फीस है. फीस इतनी कि बाप को सड़क पर आना पड़ जाए. एमिटी और शारदा वाले तो खाल खींचे बगैर बात भी नहीं करते.

एमबीए एक प्रोफैशनल डिग्री है जिसे तभी कराया जा सकता है जब उस संस्था को यूजीसी से सर्टिफिकेशन प्राप्त हो. अगर आप किसी सरकारी यूनिवर्सिटी से भी एमबीए करने की सोचेंगे तो आप से पहले वह आप की क्वालिफिकेशन पूछेगी, आप का एग्जाम होगा और उस के बावजूद 1 प्रतिशत चांस है कि आप को पढ़ने को मिले वह भी तब जब इस की फीस दो से तीन लाख रुपए देने की आप में हिम्मत हो.

सवाल यह कि 2 साल का कोर्स 10 दिनों में औनलाइन कोई कैसे करा सकता है? कोई करा सकता है तो इस की औथेंटिसिटी क्या है? इस में क्या सिखाया जाता है और इस की कितनी वैल्यू है? सवाल यह भी कि क्या बिंद्रा कोई जादूगर है जो पलक झपकते एमबीए बना देता है?

असल में यह कोई एमबीए है ही नहीं. विवेक बिंद्रा, जो यूट्यूबर कम और एंटरप्रेन्योर ज्यादा कहलवाना पसंद करता है, का ‘बड़ा बिजनैस प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी है जो गोलमोल बातें कर बिजनैस स्ट्रैटेजी सिखाता है. वह मल्टी मार्केटिंग के नाम पर कोर्स बेचता है और पैसे कमाने का तरीका बताता है. यानी, आप का हजारों रुपए इस कोर्स में फंस चुका है और अगर अपना पैसा निकालना चाहते हैं तो और लोगों को इस जाल में फंसाइए. इसे ही पिरामिड स्कीम कहा जाता है.

इसे और आसान भाषा में सम?ाना है तो आप ने यूनिवर्सिटी, कालेज, स्कूल और नुक्कड़ों के आसपास सूटबूट पहने, टाई लगाए कुछ युवाओं को कोनोंखोंपचों में कुछ खुसरफुसर करते देखा होगा. ये लोग नैटवर्किंग मार्केट वाले कहलाते हैं. लंबीचौड़ी हांकते हैं, झटपट अमीर बनने के नुस्खे बांटते हैं. आज बाइक-कार, कलपरसों मकान सब 10 मिनट की बात में दिलाने के सपने दिखा देते हैं. इन का लैवल डायमंड कैटेगरी तक बनने का होता है जो सब से ऊंचा पद होता है, जो ऊपर बैठ कर मलाई खाता है.

नाकामयाबी की गिरफ्त

विवेक बिंद्रा को देखनेसुनने वाले वे नौजवान हैं जो अपनेआप को जीवन में नाकामयाब सम?ाते हैं. उन्हें यह बताया जाता है कि बिजनैस से गरीब, अनपढ़ आदमी भी इन्वैस्टमैंट कर के महीने के लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकता है, एक कामयाब एंटरप्रेन्योर बन सकता है. बल्कि, सच यह है कि इन के पास कामयाब लोगों का कोई उदाहरण नहीं दिखता और जिसे सामने लाया जाता है वह खुद इन में से ही एक होता है. इन की भाषा बिलकुल दस का बीस, बीस का पचास, पचास का सौ जैसी होती है, बिलकुल वैसी जैसे दिल्ली के लालकिले के सामने लगने वाले चोर बाजार में मुंह में गुटका दबाए 20-21 साल का लड़का अपना सामान बेचने के लिए चिल्लाता है.

फैक्ट यह है कि देश में बेरोजगारी पिछले 50 वर्षों में आज सब से अधिक है. जिस हिसाब से जनसंख्या में बढ़ोतरी हुई है उस के हिसाब से नौकरियों को नहीं बढ़ाया गया है. बड़ीबड़ी कंपनियां सरकारी क्षेत्र और छोटे व्यापारियों के बाजार पर नियंत्रण के लिए अपने बाजार का विस्तार करने में लगे हुए हैं.

इस का मतलब यह हुआ कि एक आदमी की कामयाबी हजारोंलाखों लोगों की बरबादी से गुजरती है. उदहारण के लिए एक कुरसी है और हजारों लोगों से पूछा जाता है आप को कितनी चाहिए. हरेक व्यक्ति एक ही बोलता है क्योंकि चाहिए उसे एक ही और वह रेस में दौड़ पड़ता है. दौड़ के बाद एक व्यक्ति को कुरसी मिलती है और बाकी लोग बाहर हो जाते हैं. बिजनैस तभी चलेगा जब बाकियों का बिजनैस कम हो या वे बरबाद हो जाएं क्योंकि दर्शक और उपभोक्ताओं की संख्या सीमित है.

बाजार के इसी नियम से कई लोग बनते हैं और करोड़ों लोग बिखरते हैं. ऐसी समस्याओं के बीच विवेक बिंद्रा जैसे लोग ठगी का जाल बुन कर सैकड़ोंकरोड़ों का मुनाफा बनाते हैं. आजकल स्टार्टअप, एंटरप्रेन्योर का शोर मचा पड़ा है. सब को रातोंरात स्टार बनाने की बात की जा रही है. वैसे ही जैसे आप इंस्टाग्राम पर अपनी तसवीर के साथ शाहरुख खान का गाना लगा कर फील करते हैं और हकीकत उस से बहुत अलग होती है.

टाटा, अंबानी, बिड़ला आदि भारत के सब से बड़े बिजनैसमेन माने जाते हैं. ये बड़े कारखाने चलाते हैं, प्रोडक्शन करते हैं, कुछ मैटीरियल तैयार करते हैं जिन्हें लोग कंज्यूम करते हैं जिस पर लोग मुनाफा कमाते हैं. बिंद्रा की कंपनी कोई प्रोडक्शन नहीं करती. वह लोगों को बिजनैस आइडिया बेच कर अपना धंधा चलाती है.

विवेक बिंद्रा आज के समय में जन्मे बेरोजगारों को भटकाने का काम करता है. यह व्यक्ति मार्केट में जोखिम उठा कर लोगों को पैसे लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है, इस में गलत नहीं पर उस के बाद उन की बदहाली से अपना मुंह फेर लेना किसी धोखे से कम नहीं. आप यूट्यूब पर ऐसे कई वीडियो देख सकते हैं जिन में लोगों का रुपया वापस नहीं मिलने की बात सामने आती है. ऐसी परिस्थिति में लोग और डिप्रैशन का शिकार होते हैं.

विवेक बिंद्रा एक न्यूज चैनल में इंटरव्यू देते कहता है, ‘‘बाजार को जो चाहिए वह हमारा स्कूली सिस्टम नहीं दे पाता.’’ सही है स्कूल में हर चीज नहीं सिखाई जाती, बेशक, यह लूटमार का अड्डा नहीं बन सकता, फ्रौड करने की दुकान तो बिलकुल नहीं बनना चाहिए. स्कूलों में 10 दिनों में एमबीए बनना और बनाने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती.

धर्म के नाम पर सब बिकता है

बिंद्रा जैसे लोग अपने व्यापार में धर्म व आस्था का भरपूर इस्तेमाल करना जानते हैं जिस से लोग इन की गलत बातों का भी सही मतलब समझें. यह एक तरह का जस्टिफिकेशन बन जाता है जिसे लोग ऐक्सैप्ट कर लेते हैं. हकीकत में यह इन के जाल बिछाने का एक रास्ता है. धर्म के मामले में यूथ टची होने लगा है. उन्हें मूर्ख बनाना पहले से कहीं आसान हो गया है जिस का फायदा इन्फ्लुएंसर उठाने लगे हैं. (मुक्ता के दिसंबर 2023 इशू में एल्विश यादव का उदाहरण इसी संबंध में विस्तार से बताया गया).

दरअसल, पढ़नेलिखने की आदत कम होने से युवाओं की सोचनेसमझने की क्षमता कम होती जा रही है. वह किसी भी बेबुनियादी बात को सच मान लेते हैं खासकर तब जब उन्हें इसे धर्म के रैपर में लपेट कर दिया गया हो.

विवेक बिंद्रा वर्णव्यवस्था के संबंध में एक वायरल वीडियो में कहता है कि समाज में कुछ लोग आदेश को पालन करवाने और कुछ लोग आदेश का पालन करने में ज्यादा सक्षम होते हैं. एक तरफ आरक्षण को बिंद्रा गलत मानता है और दूसरी तरफ जाति आधारित शोषण पर अपनी चुप्पी बनाए रखता है. हकीकत में इस का जाति, गरीबी और किसी भी कारण से पिछड़े लोगों की समस्या से कोई लेनादेना नहीं है बल्कि हर साल यह अपने मुनाफे को कैसे कई गुना बढ़ा सके, यह इस की प्रायोरिटी रहती है.

घरेलू विवाद में फंसा

आज विवेक बिंद्रा अपनी निजी जिंदगी के कारण भी सुर्खियों में बना पड़ा है. 6 दिसंबर, 2023 को वह अपनी दूसरी पत्नी यानिका से विवाह करता है, जिस के अगले दिन बिंद्रा पर अपनी पत्नी से मारपीट और बदसलूकी का आरोप लगता है. एक वीडियो वायरल है जिस में यानिका बिंद्रा से उसे जाने देने की गुहार लगाती दिखाई दे रही है.

पहली पत्नी गीतिका के साथ भी बिंद्रा पर मारपीट करने का आरोप लगा था जिस के बाद उस ने बिंद्रा से तलाक ले लिया था. याद रहे, बिंद्रा एक मोटिवेशनल इन्फ्लुएंसर है जो युवाओं को ‘मोटिवेट’ करता है. अब समझें पत्नी पर डोमैस्टिक वायलैंस करने वाला कैसे बड़ेबड़े सैमिनारों के स्टेज पर फर्जी बातें करता रहा होगा? बिंद्रा अपनी दोनों पत्नियों के साथ मारपीट का आरोपी है. कई लोगों ने इस पर फ्रौड करने का आरोप लगाया है.

फ्रौड करने का आरोप

महेशवरी पेरी, जो ‘360 कैरियर’ के संस्थापक हैं, बताते हैं कि बिंद्रा की कंपनी की एक साल की कमाई 172 करोड़ रुपए है और 2 साल में कंपनी ने 308 करोड़ रुपए कमाए हैं. यह एक मल्टीलैवल मार्केटिंग कंपनी है. यह लोगों से ऐसे वादे करता है जिन को पूरा नहीं किया जा सकता. यह लोगों को महीने के लाख से 20 लाख कमाने का तरीका बताता है जबकि इस के खुद के एंपलौय मात्र 20-30 हजार रुपए महीने में काम कर रहे हैं.

इन की बातों में आप को एमबीए, एंटरप्रेन्योर, इंटरनैशनल कंसल्टैंट जैसे शब्द दिखेंगे जो छोटे शहरों के युवाओं के लिए बड़े सपने जैसा है. बिंद्रा की दुकान सपने बेच कर चलती है क्योंकि उस के बिना यह चलेगी ही नहीं. सोचिए, इस की जगह अगर वह स्किल डैवलपमैंट का इस्तेमाल करता तो कोई इतना ध्यान ही न देता.

सोशल मीडिया ने रास्ता दिखाने से ज्यादा लोगों को भटकाया है. जो सोशल मीडिया हमारी ताकत हो सकता था वह आज सोसाइटी को कमजोर व खोखला कर रहा है. लोग अपने आसपास के जीवन से दूर होते जा रहे हैं. लोगों को अकेला रहना बेहतर लगने लगा है.

देश में शिक्षा की स्थिति काफी खराब है. स्कूल पूरा होने से पहले ही स्टूडैंट्स का एक बड़ा हिस्सा बाहर निकल जाता है. पढ़ेलिखे लोगों को भी अच्छी नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है. कहने का मतलब एकदम साफ यह है कि देश में कोई ऐसा सिस्टम ही नहीं है जो युवाओं को रास्ता दिखा सके और इसी का फायदा बिंद्रा जैसे इन्फ्लुएंसर उठा रहे हैं.

गांवदेहात में भी बिक रहा है जायकेदार मोमोज

भारत में मोमोज की शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी, जब बहुत बड़ी तादाद में लोग तिब्बत देश छोड़ कर रहने के लिए भारत आ गए थे. उन के साथ ही मोमोज भी भारत पहुंच गया था.

पहले मोमोज भारत के सिक्किम, मेघालय, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और कलिमपोंग के पहाड़ी इलाकों में पहुंचा, पर इस के बाद जैसेजैसे इस का स्वाद लोगों की जबान को पंसद आने लगा, मोमोज सब से ज्यादा बिकने वाला तिब्बती फूड हो गया. अब यह गांवशहर और कसबों से ले कर मैट्रो शहरों तक में बिक रहा है. यह रोजगार का सब से बड़ा जरीया भी बन गया है.

उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल जिले के नलाई तल्ली गांव के रहने वाले रणजीत सिंह अपने सपनों को पूरा करने लखनऊ आए थे. होटल और रैस्टोरैंट में वेटर की जौब की. इस के बाद कचौड़ी का ठेला लगाना शुरू किया. इस में नुकसान उठाना पड़ा, तो इस के बाद रणजीत सिंह ने साल 2008 में लखनऊ के हजरतगंज इलाके में चाऊमीन का ठेला लगाना शुरू किया. नए साल की शुरुआत में रणजीत सिंह ने चाऊमीन के साथ गिफ्ट के रूप में मोमोज देना शुरू किया.

मोमोज से बनाई पहचान

नौर्मल मोमोज जहां स्टीम किए होते थे, वहीं रणजीत सिंह के मोमोज फ्राई किए होते थे. चटनी भी अलग थी. फ्राई मोमोज और चटनी का स्वाद लोगों को ऐसा पसंद आया कि रणजीत सिंह के ठेले से चाऊमीन से कहीं ज्यादा मोमोज बिकने लगा.

इस के बाद रणजीत सिंह ने अपने इस कारोबार को बढ़ाने का काम शुरू किया. साल 2013 में ‘नैनीताल मोमोज’ के नाम से लखनऊ के गोमतीनगर इलाके मे ढाबा खोल दिया. उस के बाद नैनीताल मोमोज रैस्टोरैंट खोला.

आज ‘नैनीताल मोमोज’ देश का सब से बड़ा ब्रांड बन गया है. 150 तरह के वैजनौनवैज मोमोज उन के यहां मिलते हैं. अलगअलग शहरों में 30 आउटलैट्स हैं. इन में लखनऊ के अलावा गाजियाबाद, नोएडा, मुंबई, सीतापुर, गोरखपुर, आगरा, कानपुर, वाराणसी, प्रयागराज, बाराबंकी, बुलंदशहर, अलीगढ़ जैसे शहर शामिल हैं.

नैनीताल मोमोज की सब से खास बात यह है कि इस को तैयार करने में मल्टीग्रेन आटा, हरी सब्जियों और खास किस्म के मसालों का इस्तेमाल किया जाता है. मैदा इस्तेमाल नहीं किया जाता है, जिस से खाने वाले को अलग स्वाद मिलता है.

रणजीत सिंह कहते हैं, ‘‘मोमोज को बनाने में मैदा इस्तेमाल होने से इस को हैल्दी फूड नहीं माना जाता था. ऐसे में हम ने अपने मोमोज को हैल्दी बनाने के लिए हरी सब्जी और मल्टीग्रेन आटा, रागी का इस्तेमाल करना शुरू किया. इसे लोगों ने पसंद किया. अब अलगअलग स्वाद वाले 150 किस्म के मोमोज हमारे यहां तैयार होते हैं. हम उत्तराखंड के रहने वाले हैं, इसलिए हम ने अपनी पहचान के मुताबिक नैनीताल को जोड़ कर ‘नैनीताल मोमोज’ की शुरुआत की.’’ अपनी मेहनत से रणजीत सिंह ने ठेले से अपना सफर शुरू कर के मोमोज चेन रैस्टोरैंट बनाने का काम किया.

कहां का है मोमोज

मोमोज को अलगअलग नामों से जाना जाता है. चीन में जहां इस का नाम मोमो है, वहीं तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के इलाके में इस को मोमो के नाम से जाना जाता है.

असल में मोमो शब्द चाइनीज होने के कारण इस को चाइना का फूड मान लिया जाता है. मोमो एक चाइनीज शब्द है, जिस का मतलब होता है भाप में पकी हुई रोटी. मजेदार बात यह है कि मोमो चीन का माना जाता है, पर यह नेपाल और तिब्बत की डिश है. इस का आकार देखने में पहाड़ जैसा बनता है. यह अरुणाचल प्रदेश के मोनपा और शेरदुकपेन जनजाति के खानपान का एक अहम हिस्सा है. यह जगह तिब्बत बौर्डर से बिलकुल लगी हुई है. यहां के लोग मोमोज को पोर्क, सरसों की पत्तियों और हरी सब्जियों की फिलिंग से तैयार करते हैं.

मैदानी इलाकों में शुरुआत

मैदानी इलाकों में इस की शुरुआत स्टीम से तैयार मोमोज के रूप में हुई. स्वाद के अनुसार इस के अंदर भरी जाने वाली चीजों में बदलाव होता गया. ठेले पर मोमोज के 30 रुपए में 6 पीस मिलते हैं. होटल और रैस्टोरैंट में यह कीमत अलगअलग है. वैजनौनवैज के हिसाब से कीमत घटतीबढ़ती रहती है.

अब इसे सब्जियों के अलावा चिकन और पनीर की फिलिंग से भी तैयार किया जाता है. स्टीम के अलावा लोग मोमोज को फ्राई कर के, रोस्ट कर के इस का स्वाद लेते हैं. अब तो तंदूरी मोमोज, अफगानी मोमोज, कुरकुरे मोमोज और यहां तक कि चौकलेट मोमोज जैसी वाइड वैरायटी भी मिलने लगी है.

आसान है बनाना

खाने के सब से ज्यादा ठेले मोमोज के ही लगते हैं. इन को बनाना आसान होता है. सस्ते और टेस्टी होने के चलते खाने वालों को यह खूब पसंद आता है. शायद ही देश का कोई ऐसा इलाका हो, जहां मोमोज न खाया जाता हो.

बौडी लैंग्वेज बताती है हमारे विचार

बौडी लैंग्वेज हमारे विचारों के आदानप्रदान में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. कहते हैं कि ताश के खिलाड़ी अपनी चाल तय न कर पाने की वजह से एकदूसरे की ओर ताक लगाए बैठे रहते हैं, ताकि किसी भी तरह उन्हें अपने अगले दांव का सूत्र मिल जाए. इसी तरह से हमारे व्यक्तित्व की चाबी है बौडी लैंग्वेज, जो हमारी अंदरूनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में काफी कारगर होती है.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, शब्द हमारी बातचीत का सिर्फ एकतिहाई हिस्सा हैं और जब तक शब्दों के साथ चेहरे की भंगिमाएं और हावभाव शुमार न हों, बातचीत अधूरी रह जाती है. जीवन में किसी भी इंसान की वर्तमान मानसिक स्थिति जानने के लिए उस के शब्दों और शरीर के विभिन्न अंगों की गतिविधियों को सूक्ष्मता से परखना होता है. ऐसे बहुत से शारीरिक संकेत हैं जिन का अर्थ काफी सीक्रेट होता है और वे हमें सामने वाले के प्रति और ज्यादा चौकन्ना कर देते हैं.

  1. शरीर के सभी अंग किसी तरह नकारात्मक या सकारात्मक संकेत देते हैं. इस में चेहरे को सब से ज्यादा अहमियत दी जाती है. सिर का हिलाना यानी किसी चीज के लिए सहमति देना होता है या फिर धैर्य रखना. सिर ऊपर उठा कर चलना या ऊपर की ओर सधी हुई नाक घमंड का द्योतक होता है या फिर एकांतता में यकीन करने का. कांपते होंठ दिल पर गहरी चोट पहुंचने का संकेत देते हैं.
  2. चमकती हुई आंखें, डरावनी आंखें, गहरी आंखें, गुस्से से भरी आंखें, इतने सारे भावों वाली होने के कारण आंखों को मन का आईना भी कहा जाता है. बातचीत के दौरान हम एकदूसरे की आंखों में जितना देखते हैं, संबंध उतने ही मजबूत बनते हैं. बंद आंखें सीक्रेसी या आराम करने की इच्छा जताती हैं. झुकी हुई, इधरउधर निहारती हुई आंखें कुछ छिपाने की कोशिश करती हैं. घूरती हुई आंखें किसी की आक्रामक प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित करती हैं. अधखुली और बुझी हुई सी आंखें ऊब जाने की दशा जाहिर करती हैं. बातचीत के दौरान आंखें मिला कर बात न करना दर्शाता है कि व्यक्ति असुरक्षा का शिकार है या फिर लापरवा है.
  3. भौंहें भी किसी न किसी तरह भावनाएं शेयर करती हैं. ऊंची भौंहें इंसान की परेशानी की सूचक होती हैं.
  4. बातचीत के समय हाथपांवों की गतिविधियां हमारे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में सहायक होती हैं. यह एक अच्छे वक्ता की पहचान है कि वह बोलते वक्त अपने हाथों और पांवों का भी इस्तेमाल करता हो.
  5. बातचीत के दौरान अपनी बांहें या टांगें क्रौस न करें, इस से आप की मुद्रा तनावग्रस्त नजर आएगी. अपने हाथ सिर के पीछे बांधना अतिरिक्त आत्मविश्वास का सूचक होता है. बातचीत के दौरान पैर हिलाना व टेबल पर उंगलियां फिराना घबराहट का सूचक होता है. हैंडशेक हलके हाथों से किया जाए तो यह कम उत्सुकता को दर्शाता है. कस कर, हाथों को दबा कर किया गया हैंडशेक व्यावसायिकता की पहचान है.
  6. मुंह के ऊपर या चेहरे पर हाथ रखना नकारात्मक बौडी लैंग्वेज का सूचक है.
  7. मुट्ठी भींचना गुस्से का सूचक होता है, वहीं मुट्ठी बंद करना डर का संकेत देता है. बातचीत के दौरान नाखून कुतरना और बारबार नाक को छूना सामने वाले की नर्वसनैस को दर्शाता है.

वायरल रील्स औफ 2023, इस रील ने तो गजब ही कर डाला

Viral Reels in Hindi: साल 2023 के दौरान तरहतरह की वीडियो रील्स वायरल हुईं, जिन को सोशल मीडिया पर देखने वालों का तांता लगा रहा. ‘मोयेमोये’ की मोह ऐसी लगी कि पूरा देश ‘मोयेमोये’ करने लगा. जी हां, इंस्टाग्राम हो या फेसबुक, अब भी हर जगह ‘मोयेमोये’ छाया हुआ है. और तो और फिल्मस्टार भी इस के मोह से बच नहीं पाए. हाल ही में बौलीवुड के हीरो आयुष्मान खुराना ने एक लाइव परफौर्मेंस के दौरान ‘मोयेमोये’ पर वीडियो बना कर सब को हैरान कर दिया.

‘क्या है सचिन में, लप्पू सा सचिन है, बोलना वापे आवे न, झींगुर सा लड़का है’. मिथिलेश गुप्ता का यह डायलौग तो आप सभी ने सुना ही होगा. कितने ही मीम्स, कितनी ही रील्स इस पर बनीं और यह सब की जबान पर छा गया. मिथिलेश गुप्ता ने ये शब्द सचिन की शारीरिक बनावट पर एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहे. यह पूरा मामला पाकिस्तान से इंडिया भाग कर आई सीमा हैदर से शुरू हुआ था.

इस साल एक नाम हर किसी की जबान पर चढ़ गया. यह नाम जसमीन कौर का है. सोशल मीडिया पर इन की एक के बाद एक कई रील वायरल हो रही हैं. इन्हीं में से एक है ‘मैं ने पहना है लड्डू पीला कलर’. इस रील ने धूम मचा दी है. जिसे देखो वह इसी औडियो पर रील बना रहा है. अगर आप ने यह वायरल वीडियो नहीं देखी, तो जल्दी से जा कर सोशल मीडिया पर देखिए.

‘पानी पानी पानी, अंकलजी, पानी पिला दो, मेरा गला सूख रहा है’. इस साल इंटरनैट पर यह वीडियो खूब वायरल हुआ. यह वीडियो वायरल होने का एक कारण यह भी था कि इस के आने के बाद दिल्ली में बाढ़ आ गई थी. इस पर लोगों ने चुटकी लेते हुए कहा था कि शायद अब बच्चे की प्यास बुझ गई होगी. इस वीडियो के वायरल होने का कारण बच्चे की इरिटेटिंग आवाज है. यह वायरल वीडियो आप को इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक व दूसरे सोशल प्लेफौर्म्स पर मिल जाएगी.

मासूमियत से भरे बच्चे ने जब कहा, “खट्टी टौफी खाई है मैं ने, मैं कुछ भी कर सकता हूं. मेरे चाचा मेरे लिए एयरप्लेन लाए थे, रीटा के लिए डौल लाए थे. मेरे पास तो एयरप्लेन है, पर मेरे एयरप्लेन में सैल खत्म हो गया है,” तो हर कोई बच्चे पर मोहित हो गया. लोगों ने बच्चे की इस वीडियो को वायरल कर दिया. अगर आप को यह वीडियो देखनी है, तो आप इसे इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब किसी पर भी देख सकते हैं.

‘बादल बरसा बिजुली सावन को पानी, चिसोचिसो मौसम छ तातो जवानी’. इंस्टाग्राम पर इस गाने की हजारों वीडियो वायरल हुईं. यह एक नेपाली गाना है, जिस पर नेपाल में रहने वाली 2 बहनों प्रिंसी खतिवडा और प्रिज्मा खतिवडा ने वीडियो बनाई. वे दोनों सनसिल्क नेपाल की ब्रैंड एंबेसडर भी हैं.

यह रील वायरल भले ही 2023 में हुई है, लेकिन यह गाना साल 2004 में आया था. यह नेपाली फिल्म ‘कर्तव्य’ का गाना है. सोशल मीडिया पर इस साल वायरल वीडियो की लिस्ट में यह वीडियो भी शामिल है. इस वीडियो पर 2 मिलियन व्यूज और 5 मिलियन लाइक थे. आप यह वीडियो इंस्टाग्राम अकांउट पर देख सकते हैं.

‘अच्छा अच्छा, ठीक है, समझ गया’, ‘बेकार है भाई, मैं तो टूट गया’, ‘झुक के रहना पड़ेगा मेरे आगे’, ‘यार, मैं इतना सुंदर क्यों हूं, पता नहीं ऐसा क्या है मुझ में’. सोशल मीडिया पर इस साल ये भी रील्स छाई रहीं. आप जान कर हैरान होंगे कि ये सभी वीडियो सिर्फ एक ही शख्स की हैं, जिस का नाम पुनीत सुपरस्टार है. यह लोगों के बीच ‘लार्ड पुनीत’ के नाम से फेमस है. उस के इंस्टाग्राम पर 2.7 मिलियन फौलोअर्स हैं. पुनीत का हर कंटैंट क्रेजी होता है.

‘हौलेहौले साजना, धीरेधीरे बालमा, ओ हो ओ हो.’ 2 क्यूट बच्चों के गाए गाने का यह वीडियो इस साल इंटरनैट पर छाया रहा. इस वीडियो पर तकरीबन 2 मिलियन व्यूज थे. वैसे यह वीडियो 3 साल पुराना है. पहले यह टिकटौक पर अपलोड किया गया था, लेकिन वायरल इस साल हुआ.

क्या क्रिकेट बन रहा है भारत में हिंदूमुसलिम करने वाला खेल?

आम भारतीयों के लिए चाहे क्रिकेट एक आस्था वाला खेल है, दुनिया के लिए यह केवल गोरे अंगरेजों के साहबों का खेल है जिसे दक्षिणी एशिया के गुलाम रहे देशों में दिल से अपना लिया गया. पहले इसे भारत की फुरसत को गिनाने के लिए 5-5 दिन खेला जाता था और सिर्फ साहब लोग खेलते थे जैसा आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ में दिखाया गया था. अब नए साहबों का खेल हो गया है पर यह गुलाम देशों से ज्यादा जगह नहीं खेला जा रहा है और इस बार भी 184-185 देशों में से कुल जमा 10 देशों के खेल को वर्ल्ड कप कहा गया और उसी में भारतीय महीनेभर से ज्यादा अपना समय बरबाद करते रहे.

क्रिकेट ऐसा खेल है जिस में खिलाड़ी तो 22 होते हैं पर 9 तो सिर्फ स्टेडियम में बैठे रहते हैं और कुछ देर 1 को हिलनाडुलना होता है तो कुछ देर 2 से 5 तक को, बाकी समय फील्ड पर 10-11 खिलाड़ी खड़े ही रहते हैं. यह जैंटलमैनों का खेल है पर भारत में काले साहबों को भी खुश करने के लिए ले लिया गया और धीरेधीरे इसी खेल ने राजनीतिक रंग ले लिया और भारतपाकिस्तान खेल होता है तो देशप्रेम का सवाल भी उठ खड़ा होता है.

क्रिकेट का भारत और पाकिस्तान में खेल से ज्यादा धर्म से संबंध हो गया है. भारत की क्रिकेट टीम खेलती है तो हिंदू आरोप लगाते हैं कि मुसलिम दुआ करते हैं कि भारत हार जाए और पाकिस्तान खेल रहा हो तो हिंदू प्रार्थना करते हैं कि पाकिस्तान हार जाए. ये हिंदूमुसलिम किस देश में रह रहे हैं इस का कोई फर्क नहीं पड़ता. इंगलैंड में पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया खेल रहे हों तो भारत से गए हिंदू तालियां पाकिस्तान की हार पर बजाते हैं.

इस तरह का हिंदूमुसलिम करने वाला खेल असल में तो पढ़ेलिखे तार्किक लोगों के लिए एक टैबू होना चाहिए पर जिस तरह भारतपाकिस्तान और फाइनल में भारतआस्ट्रेलिया मैचों में भीड़ उमड़ी थी और हर जगह बड़ी स्क्रीनें लगा कर हंगामा मचा था उस से यह तो साफ है कि यह कभी एक जमीन, एक देश में रहे लोगों के बीच की रेखाओं में से एक है.

भारतीय टीम का 2023 के वर्ल्ड कप फाइनल में 6 विकेट से हार जाना अपनेआप में कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि खेलों में हारजीत चलती है. भारत पहले इसी कप में आस्ट्रेलिया को हरा चुका था इसलिए उम्मीद थी कि यह फाइनल भी जीतेगा पर आस्ट्रेलिया ने जता दिया कि इस खेल में कला और कौशल के साथ बहुतकुछ और भी है.

यह खेल असल में सब से बड़ा जुआ बन चुका है. हर बात पर शर्तें लगती हैं. खिलाडि़यों पर आरोप लगते हैं कि वे शर्तों के व्यापार में लगे लोगों से रिश्वतें लेते हैं. हर क्रिकेट बोर्ड पर कोई राजनीतिक हैसियत वाला बैठा है क्योंकि वही ही रिश्वतों की, जुए की और विज्ञापनों से होने वाली आमदनी को जेब में रखने का हकदार है. क्रिकेट को धर्म की तरह बेचा जाता है जिस के धर्मगुरु हैं, पुजारी हैं, देवीदेवता हैं, कुछ देवीदेवता दूसरे खेमें में चले गए तो उन्हें दस्युओं की तरह आज के पंडों ने निकाल फेंका है.

आस्ट्रेलिया से वर्ल्ड कप हारने का मतलब यह नहीं कि भारतीय टीम कम हो गई है. शायद इस का कारण यही है आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी बैटिंग (जुए वाली बैटिंग) के अनुसार खेलने को तैयार नहीं थे. भारत ने जीत की पूरी तैयारी कर ली थी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह पूरे समय स्टेडियम में डटे रहे. इस दौरान देश पर कोई आर्थिक संकट नहीं आया. उत्तराखंड की सुरंग में फंसे दलितशूद्र मजदूरों का कोई खयाल नहीं आया क्योंकि यह क्रिकेट धर्म का मामला था.

भारत की तैयारी बेकार गई पर पैसा जिस का बनना था, पूरा बना होगा. यह कितना पैसा था, कितना लोगों ने खोया, कितना कमाया यह अंदाजा लगाना आसान नहीं है. बस अब अगले खेल के रिजल्ट का इंतजार है 3 दिसंबर को 5 विधानसभाओं के और 2024 में लोकसभा के. वे भी क्रिकेट की तरह ही हैं.

World Cup Final: सट्टेबाजी, देशभक्ति और धर्मभक्ति के अंधकार में गुम होता खेल

Sports News in Hindi: हाथ को आया, पर मुंह न लगा. यह इस बार भारतीय क्रिकेट टीम (Indian Cricket Team) के साथ हुआ. फाइनल मुकाबले से पहले लगातार 10 मैच जीतने वाली नीली जर्सी पहने ‘टीम इंडिया’ (Team India) के सामने पीली जर्सी वाले आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी खड़े थे, जो बड़े मैचों में गजब का खेल दिखाते हैं. 19 नवंबर, 2023 को अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम (Narender Modi Stadium) में भी यही हुआ. तकरीबन एक लाख, 30 हजार दर्शकों से खचाखच भरे स्टेडियम में उन्होंने भारी दबाव पर पार पाते हुए एक शानदार जीत हासिल की और भारत को 6 विकेट से हराते हुए चमचमाती ट्रॉफी अपने नाम कर ली. दरअसल, आस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम की एक बड़ी खासीयत यह है कि वह दबाव वाले मैचों में सामने वाली टीम पर एकदम से हावी हो जाती है. इस टीम की बल्लेबाजी और गेंदबाजी तो बढ़िया है ही, इन की फील्डिंग भी कमाल की होती है.

इस के अलावा यह टीम मानसिक रूप से बहुत ज्यादा मजबूत है. जब यह मैदान पर होती है, तो अलग ही रोब से अपना हर काम करती है. हर खिलाड़ी सामने वाली टीम के बल्लेबाजों पर हावी होने की फिराक में रहता है. गलती की नहीं कि भुगतो खमियाजा.

पर क्या आज की तारीख में क्रिकेट मनोरंजन करने का साधन भर रह गया है? ऐसा नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पास आज अथाह पैसा है. इतना ज्यादा कि वह अपने खिलाड़ियों को मालामाल रखता है. इस बोर्ड पर काबिज होने के लिए नेता तक उतावले रहते हैं. अगर वे खुद नहीं कोई पद पाते हैं, तो अपने बच्चों को दिला देते हैं.

फिलहाल गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह बीसीसीआई के सचिव हैं और उन का पूरे बोर्ड पर दबदबा साफ दिखाई देता है. वजह साफ है कि बीसीसीआई सोने का अंडा देने वाली मुरगी है, जो आईसीसी पर भी रोब दिखाने में कोताही नहीं बरतती है.

एक कड़वी हकीकत यह भी है कि क्रिकेट चंद देशों में खेला जाने वाला खेल है खासकर यह उन देशों में ज्यादा मशहूर है, जो कभी अंगरेजों के गुलाम रहे थे. इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका में तो इसे आज भी ‘जैंटलमैन का गेम’ कहा जाता है, पर भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका में यह गलीकूचों में गेंदबल्ले से खेला जाने वाला सस्ता खेल है.

यही वजह है कि यह भारत और पाकिस्तान में हौकी जैसे उस खेल को खा गया है, जो कभी इन दोनों देशों की शान हुआ करता था. पाकिस्तान तो हौकी के लिहाज से ज्यादा गहरे गड्ढे में है. भारत के भी कुछ खास अच्छे हालात नहीं हैं.

सट्टेबाजी की गिरफ्त में

जहां अथाह पैसा होगा, वहां गैरकानूनी काम भी खूब होंगे. जब से बीसीसीआई ने क्रिकेट को कमाई का धंधा बना लिया है, तब से यह खेल मैदान से ज्यादा सट्टेबाजों के ठिकानों पर खेला जाने लगा है. लोग भले ही इस भरम में रहें कि इस वर्ल्ड कप को आस्ट्रेलिया ने जीता है, पर असली जीत तो हमेशा सटोरियों की होती है.

पता नहीं सटोरियों के उस पैसे का किस तरह का गलत इस्तेमाल होता है, वह ड्रग्स में लगता है या आतंकवाद को बढ़ावा देने में या फिर गैरकानूनी हथियार खरीदने में झोंक दिया जाता है, किसे पता. पर बेवकूफ लोग लगा देते हैं अपनी गाढ़ी कमाई इस गंदे कारोबार में.

‘फ्री प्रैस जर्नल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक सट्टेबाज ने कहा था कि उस ने पहले कभी इतना तनाव और उत्साह नहीं देखा. मैच को ले कर लोगों में एक अलग लैवल का क्रेज देखने को मिला.

‘फ्री प्रैस जनरल’ के ही मुताबिक, दाऊद इब्राहिम गिरोह मुंबई, इंदौर, दिल्ली, अहमदाबाद, कराची, दुबई और बैंकौक में फैले सट्टेबाजों के अपने विशाल नैटवर्क के जरीए पूरी फौर्म में दिखा.

‘टीवी-9’ की रिपोर्ट को मानें तो फाइनल मुकाबले में 70,000 करोड़ रुपए का सट्टा लगाया गया था, जबकि भारत और पाकिस्तान के मैच पर 40,000 करोड़ की सट्टेबाजी हुई थी. एक और जानकारी के मुताबिक, इस फाइनल मुकाबले से पहले 500 से ज्यादा बैटिंग वैबसाइट और 200 के आसपास मोबाइल एप्स ऐक्टिव हो गए थे.

इतना ही नहीं, क्रिकेट वर्ल्ड कप में सट्टा लगवाने के आरोप में पतिपत्नी को नंदग्राम पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वे दोनों राजनगर ऐक्सटैंशन, गाजियाबाद की एक सोसाइटी में फ्लैट किराए पर ले कर हाई प्रोफाइल लोगों को सट्टा लगवाते थे. इस के लिए वे दुबई से औनलाइन सट्टे की ट्रेनिंग ले कर आए थे.

पुलिस के मुताबिक, दोनों पतिपत्नी ने वर्ल्ड कप के और दूसरे मैचों के दौरान भी सट्टेबाजी करवाई थी. अंदाजा है कि उन्होंने 100 से ज्यादा लोगों के जरीए एक करोड़ रुपए से ज्यादा की सट्टेबाजी की है. आरोपियों के पास से पुलिस ने एक लैपटौप, 4 मोबाइल फोन और 5 सिमकार्ड बरामद किए.

इन के मुंह पर भी तमाचा

फाइनल मुकाबले में भारत की हार से उन लोगों को तो कड़ा सबक मिल गया होगा, जो खेलों को खेल से ज्यादा देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ कर देखते हैं. उन के लिए खेल किसी रणभूमि सा हो जाता है और वे अपने योद्धाओं को अजेय समझ लेते हैं. उन्हें तथाकथित ऊपर वाले का दूत मान बैठते हैं.

फाइनल मुकाबला शुरू होने से पहले एक अखबार ‘दैनिक जागरण’ की हैडिंग थी कि ‘आज होगा धर्मयुद्ध’. इस तरह की बचकाना हैडिंग का क्या मतलब? क्या अहमदाबाद में कोई ‘महाभारत’ रचा जा रहे था? ऐसे शीर्षक देश को भरमाने वाले होते हैं और लोगों को उकसाते हैं कि जीतने पर अपने खिलाड़ियों को भगवान मान लें और हारने पर उन्हें राक्षस का सा दर्जा दे दें.

इतना ही, बहुत से लोगों ने तो नरेंद्र मोदी को ही इस हार का जिम्मेदार ठहरा दिया और उन्हें ‘पनौती’ कहा, क्योंकि वे मैच देखने स्टेडियम गए थे. वैसे, यह जो देश का आज का माहौल है, उस में भारतीय जनता पार्टी का भी बड़ा खास रोल है, क्योंकि वह हर बात को देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ देती है.

देशभक्ति और धर्मभक्ति के नाम पर किसी गरीब के घर पर बुलडोजर चला दो या किसी का एनकाउंटर कर दो, सब सही मान लिया जाता है. ऐसा ही कुछ आलम इस बार स्टेडियमों में भी दिखा. भारत के मैचों में ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लग रहे थे. लोगों के घरों में हवन कराए जा रहे थे.

उत्तर प्रदेश के कानपुर में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए कानपुर युवा उद्योग व्यापार मंडल श्याम बिहारी गुट के पदाधिकारियों ने झकरकटी में बने आशा माता मंदिर में हवनपूजन किया था. हरियाणा में अंबाला जिले के काली माता मंदिर में हवनयज्ञ कर भारत की जीत की कामना की गई थी.

क्रिकेटर विराट कोहली दिल्ली में पश्चिम विहार की जिस कालोनी में 10 सालों तक रहे थे, वहां के लोगों ने भारतीय टीम के जीतने और विराट कोहली की 51वीं सैंचुरी के लिए हवन किया था.

उत्तराखंड के कुमाऊं में पत्थरचट्टा में आनंदी मंदिर धाम में लोगों ने भारत की जीत के लिए हवनपूजन किया था, तो वहीं सीरगोटिया में मुसलिम औरतों ने दुआ मांगी था.

इतना ही नहीं, दोनों टीमों की कुंडलियों को खंगाला जा रहा था. सूर्य, मंगल, बुध, शनि, राहुकेतु की दशा और दिशा तय की जा रही थीं.

अहमदाबाद के एक ज्योतिषी कौशिक भाई जोशी ने दावा किया था कि भारतीय क्रिकेट टीम जीतेगी, क्योंकि मकर का चंद्रमा कमाल करेगा.

पंडित संजय उपाध्याय ने मैच से पहले ‘एबीपी न्यूज’ से बातचीत के दौरान बताया, ‘ज्योतिष विद्या के अनुसार इस समय बृहस्पति मेष राशि और राहु मीन राशि में मौजूद है और शनि राशि अपने मूल त्रिकोण राशि में मौजूद है. इस के अलावा मंगल राशि भी वृश्चिक राशि के साथ है.

‘वहीं दूसरी तरफ आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के भी राशि अनुकूल ही है, इसलिए निश्चित तौर पर आज होने वाले भारतआस्ट्रेलिया फाइनल मुकाबले में एक कड़ा रोमांचक मुकाबले देखने को मिल सकता है, लेकिन परिणाम भारत के पक्ष में बनने की ज्यादा स्थितियां देखी जा रही हैं.’

मेरठ के ज्योतिषाचार्य डाक्टर संजीव शर्मा के मुताबिक, ‘जैसा मैं ने देखा है कल मैच के समय की जो कुंडली रहेगी वह कुंभ लग्न की रहेगी. इस समय भारतवर्ष का शनि बहुत अच्छा चल रहा है और शनि देव गोचर में अपनी राशि में ही भ्रमण कर रहे हैं. जो स्टेडियम का नाम है वह नरेंद्र मोदी स्टेडियम है और हमारे प्रधानमंत्री श्री मोदीजी का शनि भी बहुत अच्छा है.

‘… कुलमिला कर कल अपने तिरंगे की शान व प्रतिष्ठा के लिए 140 करोड़ भारतीय अपने सब्र का फल चखेंगे. दोस्तो, 19 नवंबर, 2023 इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाला है. कल कुछ अलग चमत्कारिक रिकौर्ड बनने वाले हैं. हम सब इस अविस्मरणीय पल का साक्षी बनें. कुछ तो बात है इस देश की माटी में जिस ने सचिन और विराट जैसे खिलाड़ियों को जन्मा है.’

एक ज्योतिषी ने तो भारत को स्टीवन स्मिथ, डेविड वार्नर और पैट कमिंस से बचने की सलाह दी थी. वे तीनों तो ज्यादा करामात नहीं कर पाए, लेकिन फिर भी भारत हार गया.

एक और ज्योतिषी ने तो यह तक कह दिया था कि भारत टौस हारेगा, पर मैच जीतेगा. कुलदीप यादव और रवींद्र जडेजा गेंदबाजी में कमाल दिखाएंगे, पर ऐसा भी नहीं हो पाया.

एक मैच को जिताने की खातिर न जाने कितने लोगों ने अपना कीमती समय खराब कर दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के काफिले ने स्टेडियम के आसपास के सिक्योरिटी के सारे इंतजाम गड़बड़ा दिए होंगे. मतलब हर तरह का कर्मकांड किया गया, देशभक्ति और धर्मभक्ति का हर पैतरा आजमाया गया, राजनीतिक कद को भुनाने की कोशिश की गई, पर कोई फायदा नहीं निकला.

दूसरी तरफ आस्ट्रेलिया के लोग थे. स्टेडियम में सिर्फ ‘नीली जर्सी’ ही हर तरफ दिखाई दे रही थी. ‘पीली जर्सी’ के समर्थक न के बराबर थे. अगर यह इतना ही बड़ा उत्सव होता तो यकीनन आस्ट्रेलियाई लोग भी भारत आने को उतावले दिखते, पर ऐसा हुआ नहीं.

याद रहे कि हर चीज में देशभक्ति और धर्मभक्ति को ऊपर रखना एक खतरनाक ट्रैंड है, जो भविष्य में भारत की एकता के लिए महंगा पड़ सकता है, क्योंकि ऐसा दिमागी अंधापन लोगों के मन में जहर भर देता है.

यह ठीक है कि भारतीय क्रिकेट टीम देश की नुमाइंदगी करती है, पर उसे हर मैच के लिए पैसे मिलते हैं. वह एक प्रोफैशनल टीम है और उसे अपनी हारजीत का इतना ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि उसे देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ दिया जाए.

फाइनल मैच में हारने के बाद भारतीय खिलाड़ियों ने आस्ट्रेलिया की टीम को गले लग कर बधाई दी थी, फिर यह धर्मयुद्ध कैसे हो गया? वैसे भी इस वर्ल्ड कप में विजेता टीम आस्ट्रेलिया को तकरीबन 33 करोड़ रुपए मिले हैं और भारत को तकरीबन 16 करोड़ रुपए. वे तो सभी मालामाल हो गए हैं और लोग दकियानूसी बातों में उलझ कर अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं.

परीक्षा से डर कैसा : यह रिजल्ट आखिरी तो नहीं

मनोवैज्ञानिक और काउंसलर अब्दुल माबूद कहते हैं, ‘‘यह काफी नाजुक दौर होता है, बच्चों को उन की जिंदगी की कीमत समझाना अभिभावकों का पहला काम होना चाहिए.’’

अब्दुल माबूद ने यह बात बच्चों की परीक्षा और उन के मानसिक दबाव को ले कर कही है. दरअसल,  परीक्षाओं का दौर खत्म होने के बाद छात्रों को कुछ दिनों की राहत तो मिलती है पर साथ ही रिजल्ट का अनचाहा दबाव बढ़ने लगता है. बच्चे भले ही हम से न कहें पर उन्हें दिनरात अपने रिजल्ट की चिंता सताती रहती है. बोर्ड एग्जाम्स को तो हमारे यहां हौआ से कम नहीं माना जाता, जबकि यह इतना गंभीर नहीं होता जितना हम इसे बना देते हैं.

आजकल तो छोटी क्लास के बच्चों पर भी रिजल्ट का दबाव रहता है और इस दबाव की वजह सिर्फ और सिर्फ उन के पेरैंट्स होते हैं. ज्यादातर पेरैंट्स बच्चों के रिजल्ट को अपने मानसम्मान और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं. यही वजह है कि वे खुद तो तनाव में रहते हैं, बच्चों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनाव का शिकार बना देते हैं.

छात्रों पर बढ़ता दबाव

एग्जाम्स के रिजल्ट आने से पहले ही छात्रों के मनमस्तिष्क पर अपने रिजल्ट को ले कर दबाव पड़ने लगता है. एक तो स्वयं की उच्च महत्त्वाकांक्षा और उस पर प्रतिस्पर्धा का दौर छात्रों के लिए कष्टकारक होता है.

वैसे तो छात्रों को पता होता है कि उन के पेपर कैसे हुए और अमूमन रिजल्ट के बारे में उन्हें पहले से ही पता होता है, इसीलिए कुछ छात्र तो निश्चिंत रहते हैं पर कुछ को इस बात का भय सताता रहता है कि रिजल्ट खराब आने पर वे अपने पेरैंट्स का सामना कैसे करेंगे.

आत्महत्याएं चिंता का विषय

प्रतिस्पर्धा के दौर में सब से आगे रहने की महत्त्वाकांक्षा और इस महत्त्वाकांक्षा का पूरा न हो पाना छात्रों को अवसाद की तरफ धकेल देता है, जिस पर पेरैंट्स हर वक्त उन की पढ़ाई पर किए जाने वाले खर्च की दुहाई देते हुए उन पर लगातार दबाव डालते रहते हैं. इस से कभीकभी छात्र यह सोच कर हीनभावना के शिकार हो जाते हैं कि वे अपने पेरैंट्स की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. यही वजह कभीकभी उन्हें अवसाद के दलदल में धकेल देती है और वे नासमझी में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं.

पेरैंट्स के पास सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचता. ऐसे में उन्हें यह विचार सताने लगता है कि काश, उन्होंने समय रहते अपने बच्चे की कद्र की होती. जिसे इतने अरमानों से पालापोसा, बड़ा किया वह उन के कंधों पर दुख का बोझ छोड़ कर चला गया. पिछले 15 सालों में 34,525 छात्रों ने केवल अनुत्तीर्ण होने की वजह से आत्महत्या की. ये आंकड़े सच में निराशाजनक और चिंतनीय हैं जिन पर सभी को विचार करने की जरूरत है.

बच्चों के साथ फ्रैंडली रहें

पेरैंट्स यदि बच्चों के साथ ज्यादातर सख्ती से पेश आएंगे तो बच्चे उन्हें अपने मन की बात नहीं बताएंगे. अगर वे रिजल्ट को ले कर तनाव में हैं तो भी डर के कारण नहीं बता पाएंगे. बच्चों के साथ आप का दोस्ताना व्यवहार उन्हें आप के नजदीक लाएगा और वे खुल कर आप से बात करना सीखेंगे. इस से न केवल वे तनावमुक्त रहेंगे बल्कि उन का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. उन्हें इस एहसास के साथ जीने दें कि चाहे जो भी रिजल्ट आए, पेरैंट्स उन के दोस्त के रूप में उन के साथ हैं.

तुम हमारे लिए सब से कीमती

बच्चों को इस बात का एहसास कराएं कि इस दुनिया में आप के लिए सब से कीमती वे हैं न कि बच्चों का रिजल्ट. अपने मानसम्मान को बच्चों के कंधों का बोझ न बनाएं. बच्चों के सब से पहले काउंसलर उन के पेरैंट्स ही होते हैं. यदि वे उन्हें नहीं समझेंगे तो हो सकता है बच्चे अवसाद के शिकार हो जाएं. उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि कोई भी परिणाम हमारे लिए तुम्हारी सलामती से बढ़ कर नहीं है.

शिक्षा को अहमियत देना गलत नहीं है लेकिन शिक्षा व परीक्षा के नाम व्यक्तिगत जिंदगी से सबकुछ खत्म कर लेना और उसे ही जीवन का अंतिम सत्य मान लेना खुद को कष्ट पहुंचाना ही है. अगर जीवन के हर भाव व पहलुओं का आनंद लेना है तो बच्चों की खुशी का भी ख्याल रखना होगा.

रिजल्ट के दिनों में पैरेंट्स के लिए बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना बेहद जरूरी है. यह देखें कि कहीं वे गुमसुम या परेशान तो नहीं, ठीक से खाना खाते हैं या नहीं, जीवन के बारे में निराशावादी तो नहीं हो रहे हैं. इस समय पेरैंट्स को धैर्य का परिचय दे कर बच्चों के लिए संबल बनना चाहिए, न कि उन पर दबाव डालना चाहिए. उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि उन का रिजल्ट चाहे जैसा रहे, उन के पेरैंट्स हमेशा उन के साथ हैं.

जीवन चलने का नाम है. एक बार गिर कर दोबारा उठा जा सकता है. जीवन में न जाने कितनी परीक्षाएं आतीजाती रहेंगी. उठो, चलो और आगे बढ़ो. अपनी क्षमताओं को पहचानो.

दुनिया ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जिन में बचपन में पढ़ाई में कमजोर रहे छात्रों ने बाद में सफलता के कई नए रिकौर्ड कायम किए हैं, आविष्कार किए हैं. यह परीक्षा जीवन की आखिरी परीक्षा नहीं है. जीवन चुनौतियों का नाम है. फेल होने का मतलब जिंदगी का अंत नहीं होता. इंसान वह है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़े.

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