इस बीच मां रोज ही किसी न किसी लड़की का जिक्र मेरे सामने छेड़ देतीं, लेकिन मैं टालता रहता क्योंकि मन में एक आशा बंधी थी कि शायद ज्योतिषी की बात सच हो जाए.
वक्त धीरेधीरे सरकता रहा. देखते ही देखते 4 साल बीत गए. मैं इंतजार करता रहा, पर ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध नहीं हुई. अनु अपने पति के साथ हंसीखुशी जीवन व्यतीत कर रही थी.
मैं अपना सबकुछ खो चुका था. ये
4 साल मुझ पर एक सदी से भी भारी थे. एकएक पल मैं ने किसी मनचाही खबर के इंतजार में गुजारा था. लेकिन वह समाचार मुझ तक कभी नहीं पहुंचा. मैं बहुत स्थायी हो गया था. स्वार्थ इंसान को इस कदर नीचे गिरा देता है, आज सोचता हूं तो आत्मग्लानि से भर उठता हूं.
मां बहुत बीमार थीं. उस दिन वे मुझ से रोते हुए बोलीं, ‘‘अंकित, तू मुझे चैन से मरने भी देगा या नहीं?’’
एक दिन उन्होंने मुझे शादी के लिए मजबूर कर दिया. मैं मन से अनु का था, यह बात मैं उन्हें कैसे बताता. मां से तो क्या, यह बात मैं किसी से भी नहीं कह पाया था, अनु से भी नहीं. काश, मैं ने उस से इस संबंध में कुछ कह दिया होता.
मैं ने मां की बात मान ली. वक्त का महत्त्व मुझे अच्छी तरह समझ आ चुका था कि जो लोग वक्त के साथ नहीं चलते, वक्त भी उन का साथ छोड़ देता है.
अकसर मैं सोचता कि अनु की शादी तय होने के वक्त मैं कहां था. सड़क के किनारे धूनी रमाए किसी ज्योतिषी ने अनु से यों ही कुछ कह दिया और मैं ने आंखें मूंद कर उस पर विश्वास कर लिया, जबकि अनु ने खुद उस का विश्वास कभी नहीं किया.
न जाने क्यों उस वक्त मैं अपार सुंदरता को पाना चाहता था. आत्मविश्वास की कमी या निर्णय ले पाने की अक्षमता में मैं ने खुद ही वह सुनहरा अवसर खो दिया था. कुछ अनोखा पाने की चाह में जो कुछ सामने था, उसे स्वीकार नहीं कर सका और भटकता रहा. मगर मेरी तलाश कभी खत्म नहीं हुई क्योंकि मन का रिश्ता सुंदरता के सारे आयामों से ऊपर होता है और मन ने जो कुछ कहा मैं ने उसे कभी नहीं सुना. महज एक ज्योतिषी की बात मान कर अपनी जिंदगी की सब से अनमोल चीज खो दी थी.
मां की बात मान कर मैं ने उन्हें लड़की पसंद करने के लिए कहा क्योंकि पसंदनापसंद करने की और दोष निकालने की मेरी उम्र बीत चुकी थी.
पर मां बोलीं, ‘‘नहीं, ऐसे नहीं, तू खुद ही पहले लड़की देख ले. बाद का झंझट मुझे पसंद नहीं.’’
‘‘नहीं मां, मैं वादा करता हूं, ऐसा कभी नहीं होगा,’’ मैं ने धीरे से कहा.
मां ने श्रद्धा को पसंद किया. एक साधारण सा सगाई समारोह हुआ. श्रद्धा को उसी दिन देखा था. एक उड़ती सी दृष्टि डाली थी मैं ने उस पर, पर उस ने मुझे कुछ ऐसे देखा था जैसे बरसों से जानती हो.
एक पल में अनु की तुलना मैं ने श्रद्धा से कर डाली. सगाई की अंगूठी पहनाते वक्त भी मैं अनु के बारे में ही सोच रहा था. श्रद्धा से मेरी कोई बात ही नहीं हो पाई.
फिर हमारी शादी हो गई. शादी में अनु भी अपने पति के साथ आई थी. उसे देख कर जख्म फिर ताजा हो गया. फेरों से पहले तक मन में एक उम्मीद बंधी थी.
मां से वादा किया था. फिर श्रद्धा अब मेरी पत्नी थी. अनु को अब मुझे भूलना ही होगा, यह सोच कर मैं ने श्रद्धा से कहा था, ‘‘आज हमारी शादी की पहली रात है. वादा करो कि हर कदम पर मेरा साथ दोगी. अगर कभी मैं कहीं कमजोर पड़ गया तो सहारा दे कर मुझे संभाल लोगी.’’
‘‘आप जैसा चाहेंगे मैं वैसे ही बन कर रहूंगी. अब तो मेरा जीवन ही आप का है. पर यह कमजोर पड़ने वाली बात आप ने क्यों कही?’’
‘‘ऐसे ही. कभीकभी जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जब इंसान किसी गलत इच्छा या गलत भावना के वशीभूत हो कर कोई गलत काम कर बैठता है. बस, उस समय तुम मुझे संभाल लेना.’’
अनु के बारे में कुछ बताने की मैं ने आवश्यकता नहीं समझी. मैं नए सिरे से जिंदगी शुरू करना चाहता था.
श्रद्धा मेरे लिए बहुत ही अच्छी पत्नी साबित हुई. उस के आते ही मां के स्वास्थ्य में भी सुधार होने लगा. वह मेरा पूरा खयाल रखती थी. दूसरी ओर, मैं भी अपनी ओर से कोई कमी न रखता.
दीवाली नजदीक आ रही थी. अनु मायके आई हुई थी. उस के घर में पुताई हो रही थी. सारा सामान इधरउधर फैला हुआ था. श्रद्धा और मैं अनु से मिलने उस के घर गए. श्रद्धा काम में अनु की मदद कराने लगी, मैं भी मदद कराने के उद्देश्य से इधरउधर फैली हुई किताबें समेटने लगा. अचानक एक डायरी मेरे हाथों से गिर कर खुल गई.
अनु की लिखावट थी, ‘अंकित को…’ मैं अपना नाम पढ़ कर चौंक गया. मैं ने इधरउधर देखा. अनु की पीठ मेरी ओर थी.
मैं ने झुक कर डायरी उठा ली और पढ़ने लगा.
‘जितना मैं अंकित को चाहती हूं. काश, वह भी मुझे उतना ही चाहता. कल मेरी शादी है. मैं किसी और की हो जाऊंगी. काश, मैं अंकित की हो पाती…’
इस के आगे मैं नहीं पढ़ सका. मेरी आंखें नम हो उठीं. अचानक अनु मेरी ओर मुड़ी. फिर चौंक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मेरी डायरी है, आप ने पढ़ी तो नहीं?’’
‘‘नहीं अनु, मैं ने कुछ भी नहीं पढ़ा. यह लो अपनी डायरी.’’
अनु ने मेरे हाथों से डायरी खींच ली. वह पलट कर अंदर जाने लगी तो मैं ने उसे पुकारा, ‘‘अनु.’’
‘‘जी.’’
‘‘सुनो.’’
‘‘क्या बात है?’’
‘‘कुछ नहीं.’’
फिर न जाने क्यों उस के सिर पर हाथ रख कर बोला, ‘‘सदा सुखी रहो.’’
अनु मेरी ओर देखती रह गई. श्रद्धा भी बाहर आ गई थी. मैं उस से बोला, ‘‘चलो श्रद्धा, घर चलें. मां इंतजार कर रही होंगी.’’
फिर अनु की ओर देखे बिना मैं श्रद्धा को साथ ले कर अपने घर वापस आ गया.