पैर की जूती – भाग 2 : क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

भाभी के बहुत आग्रह करने पर वह उठी, बाथरूम गई, और हाथमुंह धोया. पर कपड़े तो वह सब वहीं छोड़ आई थी. मैले कपड़े पहन कर जब वह बाहर आईर् तो उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. भाभी अपनी उम्दा लाल साड़ी लिए उस के इंतजार में खड़ी थीं.

‘‘जरीना, यह लो. इसे पहन लो. मैं तब तक खाने का इंतजाम करती हूं.’’

‘‘मगर, भाभी…’’

‘‘मैं यह अगरमगर नहीं सुनने वाली. लो, इसे पहन लो.’’

भाभी के ये शब्द सुन कर उसे साड़ी लेनी पड़ी. भाभी साड़ी थमा कर रसोईघर में चली गईं और वह भी बुझे दिल से साड़ी पहन कर रसोईघर में जा पहुंची.

‘‘भैया कब आएंगे, भाभी?’’

‘‘अपने भैया की मत पूछो, जरीना. वरदी पहन ली तो सोचते हैं सारी जिम्मेदारी जैसे इन्हीं के कंधों पर है. मुहर्रम के दिनों में तो इस कदर मशगूल थे कि घर का होश ही नहीं रहा. एक दिन पहले सब को बुला कर चेतावनी दे दी कि ताजिए का जुलूस निकालना हो तो शांति से, नहीं तो सब इंस्पैक्टर अमजद खां सब को ठिकाने लगा देगा. नतीजा बड़ा खुशगवार रहा.

‘‘और अब होली का समय आ गया है. तुम तो जानती हो, इतने अच्छे त्योहार पर भी हिंदुओं, मुसलमानों में दंगाफसाद हो जाता है. वे यह नहीं समझते कि हम जो मुसलमान हुए हैं, वे अरब से नहीं आए बल्कि यहीं के हिंदू भाइयों से कट कर बने हैं. खैर छोड़ो, कहां की बातें ले बैठी हूं. बहुत दिनों के बाद आई हो. आराम से रहो. जब जी चाहे, अपने हबीब के पास चली जाना. हमारे हबीब तो अपनी बीवी से बात करने के बजाय थाने से ही प्यार किए बैठे हैं.’’

भाभी के अंतिम वाक्य पर वह हंस पड़ी, ‘‘अरे भाभी, फख्र करो आप को ऐसा शौहर मिला है जो अपनी ड्यूटी को तो समझता है.’’

‘‘अरी, तुम क्या जानो. अभी होली में उन का करिश्मा देखना. पूरे 20 घंटे की ड्यूटी कर रात को घर आएंगे. आते ही कहेंगे, ‘फरजाना, अरे होली के पेड़े तो खिलाओ जो कमला भाभी के यहां से आए हैं. तू तो कुछ बनाती नहीं.’ अब तुम ही सोचो, ऐसे खुश्क माहौल में किस का दम नहीं घुटेगा. कहने को तो कह देंगे, ‘अरी बेगम, पड़ोस में इतने लोग थे, डट कर खेल लेना था उन से. हम पुलिस वालों की होली तो दूसरे दिन होती है.’ और फिर दूसरे दिन, तौबातौबा, जरीना, तुम देखोगी तो घबरा जाओगी. इतना हिंदू भाई होली नहीं खेलते, जितना कि ये खेलते हैं. इन की देखादेखी महल्ले वाले भी इस जश्न में शामिल हो जाते हैं.’’

वह भाभी की बात टुकुरटुकुर सुनती रही.

‘‘भाभी, यह सब सुन कर दिल को बड़ा सुकून मिलता है. मुसलमानों और हिंदुओं के  अनेक त्योहार हैं. अपने यहां जो महत्त्व ईद का है वही हिंदुओं के यहां होली का है. होली के रंगों में सारी दुश्मनी धुल जाती है.

मुझे तो 3 साल से होली खेलने का मौका नहीं मिला. वह भी इत्तफाक था कि होली से 2 माह पहले ही शादी हो गई. इस दरम्यान, मैं ने न गृहस्थी का सुख जाना, न पति का. मैं तो एक तरह से पैर की जूती बन कर रह गई हूं, जो पैरों में पड़ी बस घिसती रहती है और तले के बिलकुल घिस जाने के बाद फेंक दी जाती है,’’ कहते हुए उस ने भाभी को अपनी पीठ दिखलाई, जिस पर मार के काले निशान पड़े थे.

भाभी ने उन्हें देख कर अपनी आंखें मूंद लीं. फिर थरथराते लबों से बोलीं, ‘‘पगली, मैं तो उस दिन ही समझ गईर् थी जब तेरे घर आई थी. पर कह न सकी, तुम्हारे घर में लोग जो मौजूद थे. आने के बाद इन से कहा तो ये बुरी तरह तमतमा उठे थे. बोले कि उस करीम के बच्चे को अभी सबक सिखाता हूं. वह तो मैं ने बड़ी मुश्किल से समझाया, नहीं तो ये तो तुम्हारे करीम को हथकड़ी लगा कर थाने में बिठला देते.’’

‘‘अब तुम आ गई हो, तुम्हारे खयालात से हम वाकिफ हो गए हैं. चलो, अब कोई कार्यवाही करने से फायदा भी रहेगा. हां, अपने को अकेला मत समझना. हम सब तुम्हारे साथ हैं. तुम तो पढ़ीलिखी लड़की हो. अब तक तो तुम्हें बगावत कर देनी चाहिए थी. खैर, देर आयद दुरुस्त आयद.’’

जरीना और फरजाना आपस में बातें कर ही रही थीं कि अमजद भी आ पहुंचा. वरदी में उस का चेहरा रोब से दमक रहा था. आते ही वह सोफे पर बैठ कर चिल्लाया, ‘‘फरजाना.’’

‘‘आई.’’

फरजाना ने जातेजाते जरीना से धीमे से कहा, ‘‘देखा जरीना, हमारे मियां को हमारे बिना चैन नहीं. पर तुम यहीं रहना, मैं उन्हें हैरत में डालना चाहती हूं.’’

फरजाना तेजी से बाहर गई और जरीना अपनी जिंदगी की तुलना फरजाना भाभी से करने लगी. कितनी मुहब्बत है इन दोनों में और एक वह है, जिसे कभी भी प्यार के दो शब्द सुनने को नहीं मिले.

बाहर से मुहब्बतभरा स्वर अंदर आ रहा था, ‘‘क्या बीवी के बिना चैन नहीं पड़ता?’’

‘‘यह बीवी चीज ही ऐसी होती है.’’

अमजद का जवाब सुन कर जरीना मुसकरा उठी.

‘‘अरे, छोडि़ए भी. लगता है आज आप ने कुछ पी रखी है.’’

‘‘अरी बेगम, जिस दिन से तुम से शादी हुई है, हम तो बिन पिए ही मतवाले हो गए हैं.’’

‘‘ओ जरीना बी, अपने भाईर् को समझाओ.’’

भाभी की आवाज सुन कर जरीना फौरन बाहर आ गई और अमजद को सलाम कर के मुसकराने लगी.

अमजद जरीना को देख कर घबरा गया, फिर पसीना पोंछ कर सलाम का उत्तर देते हुए बोला, ‘‘कब आई, मुन्नी?’’

‘‘चंद लमहे हुए हैं, भाईजान.’’

‘‘फरो डार्लिंग, हमारी बहन को नाश्ता वगैरा दिया?’’

‘‘वह तो आप का इंतजार कर रही थी.’’

‘‘तो चलो. सब एकसाथ बैठ कर खाएं.’’

खाने के दौरान बातों का क्रम चला. तो अमजद बोला, ‘‘तेरे आने का कारण मैं समझ गया हूं, जरीना. मैं जानता हूं, करीम निहायत घटिया दरजे का इंसान है. उस पर बातों का नहीं, डंडे का असर होता है. मैं तो तेरा निकाह उस के साथ करने के सख्त खिलाफ था. मगर तुम तो जानती हो, अपने मांबाप का रवैया. खैर, तू फिक्र मत कर, उस साले को मैं ठिकाने लगाऊंगा. वैसे, साला तो मैं हूं उस का पर अब उलटा ही चक्कर चलाना पड़ेगा.’’

अमजद के शब्दों से फरजाना इतनी हंसी कि उसे उठ कर बाहर चले जाना पड़ा. फिर बाथरूम में उलटी करने की आवाज आई. जरीना इस आवाज से उठ कर फौरन उधर भागी. उस ने भाभी को पानी दे कर कुल्ला करने में मदद की और फिर उसे संभाल कर अंदर ले आई और बिस्तर पर लिटा दिया. फिर अमजद की ओर देखते हुए बोली, ‘‘भैया, ऐसा मजाक मत करिए, जिस से किसी की जान पर बन आए.’’

‘‘अरी, इस का टाइम ही खराब है. मैं हमेशा कहता हूं ठूंसठूंस कर मत खा. वह अंदर वाला फेंक देगा. यह मानती नहीं है, अब इसे तू ही समझा.’’

‘‘यानी कुछ है.’’

‘‘बिलकुल.’’ अमजद कहने को कह गया. पर फिर तेजी से झेंप कर भाग खड़ा हुआ. इधर फरजाना भी शरमा गई थी.

‘‘भाभी, हमारा इनाम.’’

‘‘पूरा घर तुम्हारा है, जो चाहे ले लो.’’

‘‘वह तो ठीक है, भाभी, पर हम तो चाहते हैं कि वह होने वाला पहले हमारी गोद में खेले.’’इस पर फरजाना ने प्यार से जरीना के गाल पर एक हलकी सी चपत लगा दी.

पैर की जूती – भाग 1: क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

होली के रंगों की तरह, वह ससुराल में यह उम्मीद ले कर आई थी कि उसे यहां अपने शौहर और सासससुर का प्यार मिलेगा, आने वाला समय इंद्रधनुषी रंगों की तरह आकर्षक और रंगबिरंगा होगा. लेकिन यहां आते ही उस की सारी आशाएं लुप्त हो गईं. हर वक्त ढेर सारा काम और ऊपर से मारपीट व गालियों की बौछार. इन यातनाओं से वह भयभीत हो उठी. न जाने कब ये कयामत के बादल बन कर उस पर टूट पड़ें. करीम से पहले उस के रिश्ते की बात उस के फुफेरे भाई अमजद से चली थी. पर अमजद ने इस रिश्ते को यह कह कर ठुकरा दिया कि वे भाईबहन हैं और वह भाईबहन के निकाह को ठीक नहीं समझता.

करीम से उस के रिश्ते की बात जब महल्ले में उड़ी तो महल्ले के सभी बुजुर्ग खुश हो उठे और बोले, ‘‘वाह, लड़की हो जरीना जैसी. फौरन मांबाप का कहना मान गई. वैसे आजकल की लड़कियां तौबातौबा, कितनी नाफरमान हो गई हैं. सचमुच जरीना जैसी लड़की सब को नहीं मिलती.’’

बुजुर्गों की बातों से छुटकारा मिलता तो सहेलियां उस पर कटाक्ष करतीं, ‘‘वाह बन्नो, अपने हबीब से मिलने की इतनी जल्दी तैयारी कर ली? अरी, थोड़े दिन तो और सब्र किया होता. दीवाली व ईद तो मना ली, होली भी मना कर जाती तो क्या फर्क पड़ जाता? ’’ और वह गुस्से व शर्म से कसमसा कर रह जाती.

कुछ दिनों बाद उस की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. शादी से पहले उस ने एक ख्वाब देखा था. ख्वाब यह था कि वह करीम को अपने मायके लाएगी और होली का त्योहार उल्लास से मनाएगी. पर उस का सपना, सपना ही रह गया.

उस के मायके में मुसलिम त्योहारों को जितनी खुशी से मनाया जाता है उतनी ही हिंदू त्योहारों को भी. वहां त्योहार मनाते समय यह नहीं देखा जाता कि उस का ताल्लुक उन के अपने मजहब से है या किसी दूसरे धर्म से. वे तो इस देश में मनाए जाने वाले प्रत्येक त्योहार को अपना त्योहार मानते हैं पर उस की ससुराल में तो सब उलटा ही था. उसे ऐसा पति मिला, जो पत्नी की इज्जत करना भी नहीं जानता था. वह तो उसे अपने पैर की जूती समझता था.

शादी के कुछ महीने बाद की बात है. उस दिन सब्जी में नमक कुछ ज्यादा हो गया था. करीम के निवाला उठाने से पहले सासससुर ने निवाला उठाया और मुंह में लुकमा डालते ही चीख पड़े, ‘‘यह सब्जी है या जहर? क्या करीम की शादी हम ने यही दिन देखने के लिए की थी?’’

यह सुनते ही करीम भड़क उठा था, ‘‘नालायक, खाना पकाना तक नहीं आता? क्या तेरे मांबाप ने तुझे यही सिखाया था? इस महंगाई के जमाने में इतनी बरबादी. चल, सारी सब्जी तू ही खा, नहीं तो मारमार कर खाल खींच लूंगा.’’

उसे विवश हो कर पतीली की पूरी सब्जी अपने गले से उतारनी पड़ी थी. इनकार करती तो करीम के हाथ में जो आता, उस से मारमार कर उस का भुकस निकाल देता.

इस घटना से भयभीत हो कर वह इतनी बीमार पड़ी कि उस के लिए दो कदम चलना भी मुश्किल हो गया.

पर करीम के मांबाप यही कहते, ‘‘काम के डर से बहाना बना रही है. चल उठ, काम कर, हमारे घर में तेरे ये नखरे नहीं चलेंगे.’’

उसे लाचार हो कर बिस्तर से उठना पड़ता. कदमकदम पर चक्कर आता तो पूरा घर खिल्ली उड़ा कर कहता, ‘‘देखा, कुलच्छन कैसी नजाकत दिखा रही है.’’

अंत में हार कर उस ने करीम से कह दिया, ‘‘देखिए, मुझे कुछ दिनों के लिए मायके भिजवा दीजिए. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘वाह, क्या मैं तुझे इसलिए निकाह कर के लाया हूं कि तू अपने मांबाप के यहां अपनी हड्डियां गलाए? अगर फिर कभी जाने का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

इन जानवरों के बीच में वह विवश सी हो गई. घर जाने का  नाम उस की जबान पर आते ही ये लोग भूखे गिद्ध की तरह उस के शरीर पर टूट पड़ते. अगर उस की पड़ोसिन निर्मला उस का ध्यान न रखती और उसे वक्त पर चोरीछिपे दवा ला कर न देती तो वह कभी की इस दुनिया से कूच कर गई होती.

करीम ने उस दिन फिर उसे बुरी तरह मारा था. इस स्थिति को सहतेसहते उसे करीब 3 साल हो गए थे. उस की स्थिति उस वहशी कसाई के हाथों में बंधी बकरी की तरह थी जिस का हलाल होना तय था.

इस मुसीबत के समय उसे एक ही हमदर्द चेहरा नजर आता और वह था अमजद का. यह सही था कि उस ने ममेरी बहन होने की वजह से उस से शादी करने से इनकार कर दिया था, पर जब उसे यह पता चला कि जरीना का निकाह करीम से हो रहा है, तो वह दौड़ादौड़ा मामू के पास आया था और उन से बोला था, ‘अरे मामृ, जरीना बहन को कहां दे रहे हो? वह लड़का तो बिलकुल गधा है. अपनी समझ से तो काम ही लेना नहीं जानता. जो मांबाप कहते हैं, बस, आंख मींच कर वही करने लगता है, चाहे वह ठीक हो या गलत. जरीना वहां जा कर कभी खुश नहीं रह सकती. वे लोग उसे अपने पैर की जूती बना कर रखेंगे.’

पर अमजद की बात को किसी ने नहीं माना और जो होना था, वही हुआ. विदा के वक्त अमजद ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा था, ‘पगली, तू रोती क्यों है? अगर तुझे कभी जरूरत पड़े तो अपने इस भाई को याद कर लेना. तू फिक्र मत कर, मैं तेरे हर दुखदर्द में काम आऊंगा.’

जरीना ने किसी तरह जीवन के 3 साल बिता दिए पर अब उस से बरदाश्त नहीं होता था. उस ने सोचा, अब उसे उस शख्स का दामन थामना ही होगा, जो सही माने में उस का हमदर्द है. फरजाना भाभी यानी अमजद की बीवी भी कई बार उस के घर आईं. वे उस की खैरियत पूछतीं तो जरीना हमेशा हंस कर यही कहती, ‘ठीक हूं, भाभी.’

और कई बार तो ऐसा हुआ कि जब वह मार खा कर सिसक रही होती, ठीक उसी वक्त फरजाना वहां पहुंच जाती. ऐसे वक्त चेहरे पर मुसकराहट लाना बड़ा कठिन होता है. भाभी भी चेहरा देख कर समझ जाती थीं पर घर के अन्य लोगों की मौजूदगी में कुछ बोल नहीं पाती थीं. आखिर वे चुपचाप चली जातीं. कुछ अरसे बाद अमजद का दूसरे शहर में तबादला हो गया. एक रहासहा आसरा भी दूर हो गया.

उस रोज घर में कोई नहीं था. मार और दर्द से उस का बदन टूट रहा था. गुस्से से उस का शरीर कांपने लगा. उस ने अपने वहशी पति के नाम एक लंबा खत लिखा और उसे मेज पर रख कर घर से निकल गई.

2 बजे की ट्रेन पकड़ कर शाम को वह अमजद के शहर पहुंची. रेलवेस्टेशन से टैक्सी ले कर घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो गया था. टैक्सी से उतर कर वह बुझे मन से घर की ड्योढ़ी की ओर बढ़ गई.

सामने से आती फरजाना भाभी उसे देखते ही चौंकीं, ‘‘अरी जरीना, तू कब आई?’’

वह भाभी को सलाम कर सोफे पर बैठते हुए धीमे से बोली, ‘‘बस, सीधे  घर से चली आ रही हूं, भाभी.’’

फरजाना उस के मैले कुचैले कपड़ों और रूखे बालों को एकटक देखती रहीं. फिर क्षणभर बाद बोली, ‘‘यह अपनी क्या हालत बना रखी है, जरीना?’’

भाभी के शब्दों से उस के धैर्य का बांध टूट गया. जो आंसू अब तक जज्ब थे, वे फरात नदी की तरह बह निकले.

‘‘अरी, तू रो रही है,’’ भाभी ने दिलासा देते हुए उस की आंखों से आंसू पोंछ दिए, ‘‘चल जरीना, हाथमुंह धो, कपड़े बदल और जो कुछ हुआ उसे भूल जा.’’

Holi Special: पैर की जूती

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