खराब सिस्टम और बहकता युवा

गुलामी के दिनों में भी लोग काम करते ही हैं. यह प्रकृति की जरूरत है कि हर जीव किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश करे चाहे उसे आजादी के साथ रहना नसीब हो, मनचाहे लोगों के बीच में रहने को मिले, जुल्म करने वालों की गुलामी सहते हुए रहना पड़े या जंगलों में लगभग अकेले हरदम खतरों के बीच रहना पड़े. यही वजह है कि लाखों नहीं, करोड़ों लड़कियां घरवालों की जबरदस्ती के कारण ऐसों से शादी कर लेती हैं जिन्हें शादी के पहले नापसंद करती थीं, फिर वर्षों उन के साथ निभाती हैं और बच्चे तक पैदा करती हैं.
आज की सरकार हूणों, शकों, तुर्कों, मुगलों, अंगरेजों से बेहतर हो या न हो, लोग काम तो करते ही रहेंगे. चाहे जितनी महंगाई हो, जितने पैट्रोल के दाम बढ़ें, जितनी नौकरियां छूटें या न मिलें, वे कुछ न कुछ जुगाड़ कर पेट भरते और तन ढकने के लायक पैसा जुटा ही लेते हैं. जब देश के 130 करोड़ लोग ऐसा करेंगे तो सरकार के हिसाब से देश में प्रोडक्शन भी होगा और बिजनैस भी चलेगा.

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यह मनचाहा है, इसे जानने का आज कोई तरीका नहीं है पर जब एक सरकारी नौकरी के लिए लाखों एप्लीकेशंस आ रही हों तो साफ है कि देश के युवा जिस तरह की सैलरी वाली नौकरी चाह रहे हैं, वह नहीं लग रही या नहीं मिल रही.
सरकार भले कहती रहे कि उस का जीएसटी का कलैक्शन बढ़ गया और इस का मतलब है कि देश में व्यापार व उत्पादन बढ़ा है.  असल में स्थिति इस के उलट है. 18वीं व 20वीं सदी में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था. एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के दौरान और दूसरी बार सीधे ब्रिटेन के शासन के अधीन. दोनों बार अंगरेज देश से बहुत ज्यादा पैसा ले गए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ज्यादा बोनस अपने शेयरहोल्डरों को दिया जबकि दूसरी बार ब्रिटेन ने हिटलर से लड़ाई में ज्यादा सेना झोंकी और भारत के लोग भूखे मरते रहे.
देश में आज पैसे की किल्लत कैसी है, यह गंगा में बहाए शवों से पता चला है. जब सरकार ज्यादा कर वसूलने के ढोल बजा रही थी तो खांसी और सांस की बीमारी से गांवों में लोग मर रहे थे. वे कोविड से नहीं मर रहे थे क्योंकि गांव में न कोविड टैस्ंिटग सैंटर हैं न औक्सीजन देने वाले अस्पताल.
बड़े अफसोस की बात है कि जैसे तुलसीदास मुगलों के शासन के दौरान रामभजन की वकालत करते रहे, तकरीबन वैसे ही हमारे युवा इन दिनों टिकटौक जैसे शौर्ट वीडियो बना कर फालतू में जंगली पौधों की तरह उग रहे एप्स पर डाल रहे थे. लोगों की सेवा करने के बजाय उन्हें फिक्र अपने लाइक्स और फौलोअर्स की रही. यह एक समाज के सड़ जाने की निशानी है जो सामूहिक परेशानी में भी केवल सैकड़ों रुपए के सुख के लिए कीमती समय, पैसा और तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है.

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इस की दोषी सरकार नहीं, मातापिता हैं जो खुद हिंदूमुसलिम या पूजापाठ में मस्त हो गए हैं और उन की समझ नहीं रह गई कि कल को क्या अच्छा होगा, क्या गलत. युवाओं ने साबित कर दिया है कि देश का कल काला हो सकता है. भारत पहले ही चीन से रेस में पिछड़ चुका है, भूटान और बंगलादेश से भी पीछे है, वियतनाम, इंडोनेशिया, कंबोडिया से गरीब है. बस, अफ्रीका के कुछ देश भारत से पीछे हैं जहां गृहयुद्ध चल रहे हैं. वैसे, यहां भारत में भी गलीगली में गृहयुद्ध की ट्रेनिंग दी जा रही है. शक हो तो कहीं भी खड़े हो कर 4-5 युवाओं को सुन लो वे मरनेमारने की बात करेंगे, चीन की नहीं, अपने किसी पड़ोसी की.

बड़ी कंपनियां और टैक्स हैवन

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पद पाने के 100 दिनों में दुनियाभर की अमीर कंपनियों की नकेल कसने में सफलता पाने का पहला कदम उठा लिया. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जरमनी, कनाडा, इटली, जापान और यूरोपीय यूनियन ने तय किया है कि बड़ी कंपनियां अपना पैसा टैक्स हैवनों में ले जा कर छिपा नहीं पाएंगी. टैक्स हैवन माने जाने वाले वे देश हैं जो बहुत कम टैक्स चार्ज करते हैं. बहुत से देशों में काम करने वाली कंपनियां अपने हैडऔफिस इन देशों में खोल रही हैं ताकि दुनियाभर में कमाए पैसों पर वे नाममात्र का टैक्स दे कर सुरक्षित रख सकें.

अब फैसला हुआ है कि अगर किसी कंपनी का कारोबार तो एक देश में है पर टैक्स कम टैक्स चार्ज करने वाले देश में दिया जा रहा है तो वह देश अतिरिक्त कर लगाएगा. अब यह देखना है कि जहां मुनाफा कमाया जा रहा है वह इस बात का ऐसेस कैसे करता है. इस का मतलब है कि बड़ी कंपनियों को अपने लेखाजोखों में बड़ा परिवर्तन करना पड़ेगा.

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दूसरे शब्दों में इस का मतलब यह है कि विश्वभर में फैली और विश्वभर में कमा रही कंपनियां खतरे में हैं. इन में टैक और फार्मा कंपनियां ज्यादा हैं और इन्हीं में युवाओं को मोटी सैलरी मिलती है. दुनियाभर का टैलेंट असल में इन कंपनियों में जमा हो रहा है और ये टैलेंट जहां नएनए टैक उत्पाद बना रहे हैंवहीं सरकारों की नाक के नीचे अमीरगरीब की खाई को चौड़ा कर रहे हैं. ये युवा ही ऐसे प्रोग्राम बनाते हैं जिन के बलबूते पर कंपनियां अपने राज को राज रख पाती हैं. इन युवाओं के कारण कंपनियों के राज तो गुप्त हैं पर किसी सरकार का कोई राज छिपा नहीं है.

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ऐसी बहुत फिल्में बन चुकी हैं जिन में ये तेजतर्रार युवा ऐसे देश में बैठ कर काम कर रहे हैं जहां बड़े देशों के फौलादी हाथ नहीं पहुंच रहे पर टैक्नोलौजी के बल पर वे सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर रहे हैं. हर देश की सरकार इन युवाओं को अपने यहां बनाए रखना चाहती है पर बिना टैक्स दिए चल रही कंपनियां कई गुना अच्छा पैसा दे रही हैं. ये कंपनियां ऐसी माफिया हैं जो बिना बंदूकों के सरकारों का तख्ता पलट सकती हैं.

टैक्स हैवनों को भेदने का कदम अमीरगरीब के भेद की लड़ाई नहीं हैअभी तो यह बड़ी सरकारों की अपनी डिफैंस की लड़ाई है जो वे पैसे के बहाने से लड़ रही हैं.

खुले रैस्तराओं का समय

कोरोना के दिनों में वैसे तो रैस्तरां बंद ही रहे पर कईर् देशों में उन्हें खुले में चलाने की इजाजत दी गई और यह प्रयोग सफल रहा क्योंकि खुले में मेजें दूरदूर लगीं और वायरस के हवा से एकदूसरे तक पहुंचने के अवसर काफी कम हो गए. दुनियाभर के बहुत से देश अब गरमी हो या सर्दीईटिंग आउट को ही फैशन बना देना चाह रहे हैं ताकि लोगों को एयरकंडीशंड इलाकों के दमघोटू माहौल से बचाया जा सके.

शहरों में जगह की किल्लत है पर इतनी भी नहीं कि बाहर पटरियों पर हलका सा शेड और हवा का इंतजाम कर बैठने की जगह न बनाई जा सके. घरों में एयरकंडीशनर होने के बावजूद लोग आज भी बाग या नदी के किनारे बैठ कर सुस्ताना चाहते हैं. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने असल में लोगों को बिगाड़ दिया है. बंद जगह में शोर मचाने की छूट भी मिलने लगी और बहुत सी अनचाही हरकतें भी होने लगीं.

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अब जैसेजैसे भारत में लौकडाउन डरतेडरते अनलौक किया जा रहा हैखुले में रैस्तरां का प्रयोग ज्यादा किया जाना चाहिए ताकि युवाओं को ठंडक और गरमी सहने की आदत पड़नी शुरू हो जाए. आजकल कम अमीर देशों में मांबापों की चिंता बिजली के बिलों की ही होती है क्योंकि युवा हीटर और एयरकंडीशनर दोनों साथ चलाने लगें तो भी आश्चर्य की बात न होगी. घर में सुरक्षित टैंपरेचर में रहने की आदत उन्हें निकम्मा बना रही है. वैसेयही युवा ग्लोबल वार्मिंग पर बड़ेबड़े भाषण देते हैं और एनर्जी को बचाने का उपदेश देते हैं.

खुले रैस्तराओं में वर्गभेद व जातिभेद भी कम हो जाता है. एयरकंडीशंड रैस्तराओं ने हाल के सालों में इंटीरियर डैकोरेशन पर बेहद औब्सीन पैसा खर्च करना शुरू किया है. और यदि सब को बैठना बाहर तंबू के नीचे ही है  तो बहुत सा पैसा बचेगा. बाहर का वातावरण युवाओं को असलियत के ज्यादा  पास रखेगा. जो काम असल में छिप कर होने चाहिए वे फिर इन रैस्तराओं में तो नहीं हो पाएंगे. अगर शहर खाने को बाहर ही कंपलसरी कर दें तो बहुत भला होगा. खर्च भी कम होगा और भेदभाव भी कम.

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जनता की जान बचाने के लिए डंडाधारी पुलिस होना जरूरी है?

इस देश की पुलिस पूरी तरह से कोरोना से लड़ने को तैयार है जैसे वह हर आपदा में तैयार रहती है. हर आपदा में पुलिस का पहला काम होता है कि निहत्थे, बेगुनाहों, बेचारों और गरीबों को कैसे मारापीटा जाए. चाहे नोटबंदी हो, चाहे जीएसटी हो, चाहे नागरिक कानून हों, हमारी पुलिस ने हमेशा सरकार का पूरा साथ दे कर बेगुनाह गरीबों पर जीभर के डंडे बरसाए हैं. किसान आंदोलन में भी लोगों ने देखा और उस से पहले लौकडाउन के समय सैकड़ों मील पैदल चल रहे गरीब मजदूरों की पिटाई भी देखी.

किसी भी बात पर पुलिस सरकार की हठधर्मी के लिए उस के साथ खड़ी होती है और जरूरत से ज्यादा बल दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ती. पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, तमिलनाडु में केंद्र के साथ पार्टियों की पुलिस 5 नहीं 50,000 से 5 लाख तक लोगों के गृह मंत्री या प्रधानमंत्री की चुनावी भीड़ को कोरोना के खिलाफ नहीं मान रही थी पर अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं, हर चौथे दिन एकदो घटनाएं सामने आ ही जाती हैं, जिन में लौकडाउन को लागू कराने के लिए धड़ाधड़ डंडे बरसाए जा रहे थे.

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भारत की जनता अमेरिकी जनता की तरह नहीं जो पुलिस से 2-2 हाथ भी कर सकती है. यह तो वैसे ही डरीसहमी रहती है. बस भीड़ हो तो थोड़ी हिम्मत रहती है पर इस पर जो बेरहमी बरती जाती है वह अमेरिका के जार्ज फ्लायड की हत्या की याद दिलाती है. फर्क इतना है कि अमेरिका में दोषी पुलिसमैन को लंबी जेल की सजा दी गई. यहां 5-7 दिन लाइनहाजिर कर इज्जत से बुला लिया जाएगा.

अदालत में तो मामला चलाना ही बेकार है क्योंकि पुलिस वालों के अत्याचार, डंडों, मामलों में फंसा देने की धमकियों से गवाह आगे आते ही नहीं.  कोविड की तैयारी भी यहां पुलिस कर रही है, अस्पताल, डाक्टर, लैब या दवा कंपनियां नहीं. सरकार को मालूम है कि पुलिस हर मौके का पूरा नाजायज फायदा उठाएगी.  कोविड के लिए लौकडाउन में जो लोग सड़क पर चल रहे हैं या दुकान चला रहे हैं वे अपने लिए खुद जोखिम ले रहे हैं. वे नियम तोड़ रहे हैं पर दूसरों से ज्यादा नुकसान उन्हीं को है. सिर्फ इसलिए उन पर डंडे बरसाना कि आदेश को तोड़ा जा रहा है बेरहमी है. यह सिनेमाघर के आगे टिकट के लिए लगी लंबी लाइन पर आंसू गैस छोड़ने की तरह है क्योंकि इस से किसी और को नुकसान नहीं हो रहा है.

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पुलिस असल में मौका ढूंढ़ती है कि अपनी ताकत आम जनता को दिखा सके ताकि हर समय दहशत का माहौल बना रहे. यहां आमतौर पर शिकायत करने वालों को भी शक की निगाह से देखा जाता है. सिर्फ खेलेखाए लोग ही पुलिस की मिलीभगत से शिकायतें करने की हिम्मत करते हैं. गरीब आदमी तो दूसरों की मार भी खा लेता है पुलिस की भी.  उम्मीद थी कि कोरोना में लोग बाहर न निकलें, इसे समझाने के लिए सत्ता में बैठी पार्टियों के पेशेवर ग्राहक आगे आएंगे. लेकिन उन्हें तो वोट चाहिए, मंदिर चाहिए, सत्ता चाहिए, ठेके चाहिए. जनता की जान बचानी है तो डंडाधारी पुलिस ही है उन के पास. बस, यही इस देश की हालत है.

क्या गर्लफ्रेंड रखना आसान काम है?

हर जवान की इच्छा होती है कि उस की कोई गर्लफ्रैंड हो. आजकल गांवकसबों में लड़केलड़कियों को मिलने के इतने मौके मिलने लगे हैं कि आसानी से गर्लफ्रैंड बन जाती हैं. पर आज के छोटे शहरों, कसबों और गांवों की लड़कियां भोलीभाली नहीं हैं. वे अपनी कीमत जानती हैं. वे लड़कों से ज्यादा पढ़ रही हैं. वे लड़कों से ज्यादा हुनरमंद हैं. घरों में रहते हुए भी उन्हें पैसे की कीमत मालूम है.
आज गांवों की लड़कियों को भी काम के मौके मिलने लगे हैं. थोड़ी पढ़ाई हो, थोड़ा काम तो उम्मीदों के पंख लग जाते हैं. शहर जा कर मौल में खाना और पिक्चर देखना, स्मार्ट फोन खरीदना, डाटा चार्ज कराना, घरेलू रोटी, शरबत की जगह बर्गर, पिज्जा और कोक लेना वे जानती हैं और इन सब का भुगतान बौयफ्रैंड ही करेगा, वे यह भी जानती हैं.
आज की लड़कियां अपने साथ की कीमत भी जानती हैं और अपने बदन की भी. उन्हें अगर सैक्स पर कोई एतराज न हो तो वे यह भी जानती हैं कि यह चीज कीमती है. वे इस की कीमत लेना शादी तक नहीं टालना चाहतीं. उन्हें आज ही चाहिए और इसीलिए लड़कों को मरखप कर कमा कर, चोरी कर के गर्लफ्रैंड के लिए पैसा जमा करना ही होता है. घरों में लड़की को आज भी कमतर माना जाता है पर लड़कियां फिर भी जुगत भिड़ा कर आसमान में उड़ने के लिए एक साथी को ढूंढ़ने से कतराती नहीं हैं और इस साथी को ही पंखों को हवा देनी होती है.
दिल्ली में अप्रैल के दूसरे सप्ताह में एक लड़के ने अपनी गर्लफ्रैंड के खर्च उठाने के लिए 7 महीने का एक बच्चा ही अगवा कर लिया और 40 लाख रुपयों की मांग कर डाली. इस नौसिखिए अपराधी कोपकड़ लिया गया पर वह बक गया कि इस तरह का जोखिम उस ने क्यों लिया था.

लड़कियों की खातिर गलियों में आएदिन मारपीट होती रहती है. लव जिहाद का शिगूफा इसीलिए उठाया गया है क्योंकि हिंदू लड़कियों को मुसलिम लड़के भाते हैं जो मेहनती हैं, काम करना जानते हैं और हिंदू लड़कों के मुकाबले ज्यादा तहजीब वाले हैं. मुसलमानों में लड़कियों को बहुत आजादी नहीं है. परदा है, बुरका है पर फिर भी धार्मिक कानूनों में वे बराबर की सी हैं. उन के बीच पलेबढ़े हुए लड़के हिंदू निकम्मों से ज्यादा बेहतर हैं.

फिर हिंदू दलित लड़कियां सुंदर हों तो हिंदू लड़के गर्लफ्रैंड नहीं बनाना चाहते, बस उन से सैक्स चाहते हैं, राजीराजी या जबरन. लव जिहाद का शिगूफा हिंदू लड़कों की पोल खोल रहा है कि आखिर क्यों हिंदू लड़कियां मुसलिम लड़कों को मरने तक की हद तक चाहने लगी हैं.

गर्लफ्रैंड चाहे हिंदू हो या मुसलिम पालना आसान नहीं है. आज शादी की उम्र टल रही है. 30-35 साल तक की उम्र के लड़के भी एक छत पा सकने लायक नहीं कमा पा रहे. उन्हें गर्लफ्रैंड ही चाहिए क्योंकि शादी कर नहीं सकते, घर ला नहीं सकते. दोजनी मोदीशाहसरकार को वैसे तो समाज की बड़ी चिंता है पर उस के लठैतों की क्या बुरी हालत समाज में है, उस की कोई फिक्र नहीं. इसलिए गर्लफ्रैंड बनाओ, खर्च करो, रोओ, लड़कोंकेलिए यही बचा है.

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क्या सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह है ?

देश में सरकार के खिलाफ हर बात कहने वाले के साथ अब वही सुलूक हो रहा है जो हमारी पौराणिक कहानियों में बारबार दोहराया गया है. हर ऋषिमुनि इन कहानियों में जो भी एक बार कह डालता, वह तो होगा ही. विश्वामित्र को यज्ञ में दखल देने वाले राक्षसों को मरवाना था तो दशरथ के राजदरबार में गुहार लगाई कि रामलक्ष्मण को भेज दो. दशरथ ने खूब विनती की कि दोनों बच्चे हैं, नौसिखिए हैं पर विश्वामित्र ने कह दिया तो कह दिया. वे नहीं माने.

कुंती को वरदान मिला कि वह जब चाहे जिस देवता को बुला सकती है. सूर्य को याद किया तो आ गए पर कुंती ने लाख कहा कि वह बिना शादीशुदा है और बच्चा नहीं कर सकती पर सूर्य देवता नहीं माने और कर्ण पैदा हो गया. उसे जन्म के बाद पानी में छोड़ना पड़ा.

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अब चाहे पश्चिम बंगाल हो, कश्मीर का मुद्दा हो, किसानों के कानून हों, जजों की नियुक्ति हो, लौकडाउन हो, नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सरकार के महर्षियों ने एक बार कह दिया तो कह दिया. अब तीर वापस नहीं आएगा.

कोविड के दिनों में तय था कि वैक्सीन बनी तो देश को 80 करोड़ डोज चाहिए होंगी पर नरेंद्र मोदी को नाम कमाना था पर लाखों डोज भारतीयों को न दे कर 150 देशों में भेज दी गईं जिन में से 82 देशों को तो मुफ्त दी गई हैं. भारत में लोग मर रहे हैं, वैक्सीन एक आस है पर फैसला ले लिया तो ले लिया.

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यह हर मामले में हो रहा है. पैट्रोल, डीजल, घरेलू गैस के दाम बढ़ रहे हैं तो कोई सुन नहीं रहा.  चुनाव तो हिंदूमुसलिम कर के जीत लिए जाएंगे. नहीं जीते तो विधायकों को खरीद लेंगे जैसे कर्नाटक, असम, मध्य प्रदेश में किया.

जनता की न सुनना हमारे धर्मग्रंथों में साफसाफ लिखा है. राजा सिर्फ गुरुओं की सुनेगा चाहे इस की वजह से सीता का परित्याग हो, शंबूक का वध हो, एकलव्य का अंगूठा काटना हो. जनता बीच में कहीं नहीं आती. यह पाठ असल में हमारे प्रवचन करने वाले शहरों में ही नहीं गांवों में भी इतनी बार दोहराते हैं कि लोग समझते हैं कि राज करने का यही सही तरीका है. भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी ऐसे ही राज करती रही है, ममता बनर्जी भी ऐसे ही करती हैं, उद्धव ठाकरे भी.

यह हमारी रगरग में बस गया है कि किसी की न सुनो. हमारा हर नेता, हर अफसर अपने क्षेत्र में अपनी चलाता है चाहे सही हो या गलत. यह तो पक्का है कि जब 10 फैसले लोगे तो 5 सही ही होंगे. पर 5 जो खराब हैं, गलत हैं, दुखदायी हैं, जनता को पसंद नहीं हैं तो दुर्वासा मुनि की तरह जम कर बैठ जाने का क्या मतलब? आज सरकार लोकतंत्र की देन है, संविधान की देन है, पुराणों की नहीं. पौराणिक सोच हमें नीचे और पीछे खींच रही है. हर जना आज परेशान है. आज धन्ना सेठों को छोड़ कर हर किसान, मजदूर, व्यापारी परेशान है पर वह भी यही सोचता है कि राजा का फैसला तो मानना ही होगा. उस के गले से आवाज नहीं निकलती.

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यह सोच हर गरीब को ले डूबेगी. गरीब हजारों सालों से गरीब रहा क्योंकि वह बोला नहीं. उस ने पढ़ा नहीं, समझा नहीं, जाना नहीं. इंदिरा गांधी ने इस का फायदा उठाया. आज मोदी उठा रहे हैं. जिस अच्छे दिन की उम्मीद लगा रखी थी वह आएगा तो तब जब अच्छा होता क्या है यह कहने का हक होगा और सुनने वाला सुनेगा.

पश्चिम बंगाल में चलेगा ममता बनर्जी का जादू ?

भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव को जीतने में कुछ ज्यादा बेचैन ही नजर आ रही है और इसलिए उस के पिछलग्गू इस बात पर तो खुश होंगे कि उन की राह में रोड़ा बनी ममता बनर्जी की टांग एक भीड़ के कुचले जाने की वजह से क्रैक कर गई और बाकी चुनाव में उन्हें ह्वीलचेयर पर बैठ कर बोलना और जगहजगह जाना पड़ेगा.

यह घटना हुई इसलिए कि ममता बनर्जी अपने और अपने वोटरों के बीच फासला नहीं रखतीं. इस देश में वैसे तो छूतअछूत का दौर आज भी चलता है और जब तक दूसरे की जाति पता नहीं हुई उसे छूने का परहेज ही किया जाता है. जो जितना बड़ा हिंदू कट्टरपंथी होगा वह उतना ज्यादा छुआछात बरतेगा और कहीं गंदा न हो जाए वह भीड़ में ही नहीं जाएगा. जो मंत्री है उसे तो भरपूर सरकारी बंदोबस्त मिलता है और प्रधानमंत्री के आसपास तो सिर्फ कैमरे वाले ही फटक सकते हैं. गनीमत है कि ममता बनर्जी ऐसी नहीं हैं.

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चुनावों में इस तरह पैर टूटने से काफी नुकसान हो सकता है क्योंकि ममता बनर्जी अब उतनी जगह नहीं जा पाएंगी जितनी वे चाहती थीं. भाजपा की हो सकती है इस वजह से लौटरी भी खुल जाए. दूसरी तरह यह भी हो सकता है कि पश्चिम बंगाल की जनता कहे, अरे यह नेता तो अपनी है, अपनों के साथ घुलतीमिलती है, सेहत तक का खयाल नहीं रखती. ऐसा हुआ तो फायदा हो भी सकता है.

वैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हारें या न हारें यह पक्का दिख रहा है कि कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का सफाया होगा ही. वे मुंह दिखाने लायक सीटें भी नहीं जीतेंगे. वैसे भी वे नहीं चाहते कि जो भाजपा को पसंद नहीं करते उन की वोटें कटें. वे चाहते हैं कि चाहे वे हार जाएं पर भाजपा सरकार न बना पाए.

ऐसा लग नहीं रहा कि भाजपा को बड़ी जीत मिलने वाली है क्योंकि अभी भी ममता बनर्जी का जादू चालू है. पिछले सभी चुनावों में जहां भी कद्दावर विपक्ष का नेता है, भारतीय जनता पार्टी जीत नहीं पाई. पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र इस बात का सुबूत हैं कि अब तक भाजपा कहीं भी कद्दावर नेता को हरा नहीं पाई है. दिल्ली के राज सिंहासन पर भी वह जीत इसीलिए रही है क्योंकि देश की जनता ढुलमुल नेताओं के साथ खुश नहीं है और नरेंद्र मोदीकी टक्कर का नेता कोई कहीं नहीं है. इस के बावजूद बहुत से राज्यों में लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को न के बराबर की जीत मिली है.

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पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने क्या किया क्या नहीं यह अब सवाल ही नहीं रह गया है. ममता बनर्जी तो तब अच्छा रिपोर्टकार्ड दिखाएं जब सामने वाले के पास नारों, वादों के अलावा कोई रिपोर्टकार्ड हो. सामने वाले तो न अपनी डिगरी दिखाते हैं, न कोविड में जमा किए अरबों का हिसाब देने को तैयार हैं और न ही कोई उन से राम मंदिर के बनाने के लिए चंदों की लिस्ट मांगेगा. वे तो वैसे ही बातों के धनी हैं पर जनता समझती नहीं ऐसा भी नहीं. जहां चेहरा अच्छा होता है वहां पंजाब और दिल्ली के नगरनिकायों जैसे नतीजे आते हैं जहां भाजपा दूरदूर तक नजर नहीं आई थी.

क्या ‘जय श्रीराम’ के नारे से जनता की समस्याओं का हल किया जा सकता है ?

जब देश में महंगाई की डायन का साया चारों तरफ फैल रहा हो, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही हो, कानूनों की मनमानी के खिलाफ देश के कितने हिस्सों में जनता उबाल पर हो, राजपाट करने वाले या तो प्रवचन करने में लगे हैं या धर्म का डंका बजा कर राज्य सरकारों को गिराने में लगे हैं.

पश्चिम बंगाल के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने जय श्रीराम का नारा लगा रखा है और खरीदफरोख्त कर के अब पुडुचेरी की कांग्रेस सरकार गिरा दी. राज करने वालों को या तो पौराणिक धर्म को बचाने की चिंता है या फिर उस के सहारे अपनी गलतियों को छिपाने की.

देश की जनता की मूल परेशानियों के बारे में भाजपा की सोच गायब सी हो गई है. जितने मंत्री हैं, सांसद हैं, राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री हैं अगर भारतीय जनता पार्टी के हैं तो राम मंदिर के लिए चंदा जुटाने में लगे हैं या जनता को बहकाने में कि इसी से उन का कल्याण होगा, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में पक्का. जो दूसरे दलों की सरकारें हैं वे सम झ नहीं पा रहीं कि वे जनता के हितों में काम करें या अपनी धोती में भाजपा की लगाई गई आग को बुझाने में.

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नुकसान जनता का है. जनता को जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा. हां 1940-45 की तरह बंगाल में आए अकाल की तरह देश की सड़कों पर भूखों की कतारें नहीं लग रहीं और गरीब और किसान भी जो कैमरों की लपेटों में आ रहे हैं, खातेपीते दिख रहे हैं, पर यह कमाल इस सरकार का नहीं, यह बिजली, पानी, कपड़ा, मकान की नई तकनीकों का है.

जो पैसा गांवों में दिख रहा है और शहरों की गरीब बस्तियों में दिख रहा है उस का बड़ा हिस्सा उन मजदूरों का है जो विदेशों में काम कर रहे हैं. 90 लाख तो खाड़ी के देशों में ही हैं. 80 लाख दूसरे देशों में हैं. लगभग सवा करोड़ भारतीय मजदूर 80,00,00,00,000 डौलर तो बैंकों के जरीए भारत में भेजते हैं. विदेशों में वे कोई ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने नहीं गए हैं. जो 90 लाख खाड़ी के देशों में हैं वे तो मुसलिम मालिकों के पास काम कर रहे हैं.

हमारे नेता इन मुसलिम मालिकों के यहां लगभग गुलामी कर के भेजे पैसे पर देश में 8,000-8,000 करोड़ के हवाईजहाज खरीदते हैं ताकि वे एक जगह से दूसरी जगह आराम से जा सकें. इस पैसे के बल पर राम मंदिर बन रहा है. इन मुसलिम मालिकों के बल पर कमाए पैसे से चारधाम की सड़कें बन रही हैं.

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देश में हिंदूमुसलिम कर रहे नेता आम जनता को भड़का और बहका रहे हैं कि धर्म की रक्षा ही सब से बड़ा काम है. ये वे ही लोग है जिन्हें सिखों में खालिस्तानी ही नजर आते हैं. ये नेता वे हैं जो विदेशी संबंधों के नाम पर किसी को भी जेल में ठूंस देते हैं. पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी हो या मध्य प्रदेश अगर भाजपा सरकारों को गिराने में लगी है न कि विदेशों से आए मजदूरों के पैसे का सही इस्तेमाल करने में तो यह जमींदारी से भी बदतर काम होगा. रातदिन खट कर हमारे मजदूर देश में भी और विदेश में भी जो कमाते हैं वह उन के सुखों के लिए है, भगवानों की मूर्तियों के लिए नहीं.

यह ठीक है कि धर्म के दुकानदारों के जबरदस्त प्रचार की वजह से हर देशवासी आज धर्म को काम से ज्यादा इंर्पोटैंस देने लगा है पर यह अपने लिए खुद गड्ढा खोदना है. किसी न किसी दिन चारों ओर फेंकी गई मिट्टी ढहेगी ही और खोदने वाले दबे पाए जाएंगे.

आखिर पढ़ाई की संस्थाओं में अड़चनें क्यों आ रही है?

मोदी सरकार ने भीमराव अंबेडकर के आरक्षण का असर कम करने के लिए पढ़ाई की संस्थाओं में जो इकोनौमिकली वीकर सैक्शनों के लिए आरक्षण घोषित किया था, उस में भी अड़चनें आ रही हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में बहुत सी सीटें खाली रह गई हैं क्योंकि चाहने वालों को सर्टिफिकेट नहीं मिले थे.

शायद बात दूसरी है. रिजर्वेशन के खिलाफ हल्ला इसलिए नहीं है कि ऊंची जातियों के लोगों को शिक्षा संस्थानों या नौकरियों में जगह नहीं मिल पा रही है और उन की जगह पिछड़े और दलित आ रहे हैं. यह हल्ला तो इसलिए मच रहा है कि आखिर पिछड़े और दलित पढ़ें ही क्यों और सरकारी नौकरी में बाबू अफसर क्यों बनें?

ऊंची जाति वालों को रोज पुराण पढ़ कर आज भी सुनाए जा रहे हैं कि साफ लिखा है कि पिछड़ी और निचली जाति के लोगों का काम न राज करना है, न ज्ञान पाना और देना है, न व्यापार करना है. ऊंची जातियों के लोगों ने पिछले 200 सालों में बड़ी मेहनत से पुराणों की महानता का बखान करकर के लोगों के दिमाग में बैठाया है कि जो भी इन में लिखा है वही पहला और आखिरी सच है और इन में अगर लिखा है कि शूद्र (सभी पिछड़े ओबीसी) व जाति बाहर (सभी तरह के दलित) न पैसे के हकदार हैं, न राज के, न पढ़ाई और ज्ञान के तो सही लिखा है. यह इन के पिछले जन्मों के पापों का फल है और इन्हें भुगता जाना चाहिए चाहे कोई भी कीमत हो. इन्हें न भोगना भगवान के आदेश के खिलाफ जाना है. अगर नासमझ पिछड़े व दलित इस ईश्वरवाणी को नहीं समझ रहे तो ज्ञानी स्वामियों का फर्ज व अधिकार है कि वे समझाएं चाहे बोल कर या डंडा मार कर या फिर जेल में बंद कर के.

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अगर कालेजों में इकोनौमिकली वीकर सैक्शन की सीटें नहीं भर रहीं तो इसलिए कि इन जातियों में गरीब हैं ही न के बराबर और जो हैं वे इतने निकम्मे हैं जो घटी कटऔफ में भी दाखिला नहीं ले पाते.

जो पिछड़े और दलित अच्छे नंबर पा कर ज्ञान और सत्ता पा रहे हैं उन से निबटना हमारे महाज्ञानी अच्छी तरह जानते हैं और तभी वे सत्ता में बैठ गए हैं जबकि उन की गिनती मुट्ठीभर है. पिछड़े और दलित किसानों की सरकारों को कहीं चिंता है क्या, जो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दिए बैठे हैं. अगर धर्म का काम, जैसे कांवड़ यात्रा, हो रहा होता तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह खुद चल कर सिर नवाने जाते.

विश्वविद्यालयों में ईडब्ल्यूएस कोटे में जो सीटें खाली हैं वे आरक्षण के खिलाफ हल्ले की पोल खोलती हैं.

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मजबूत देश बनाएं

यदि अमेरिका चाहता तो उत्तरी कोरिया द्वारा पहले परमाणु बम बनाने पर ही उस पर हमला कर देता पर एक के बाद एक राष्ट्रपतियों ने उत्तरी कोरिया पर केवल आर्थिक प्रतिबंध लगाए. इस बार अमेरिका के खब्ती राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरिया के नेता किम जोंग उन को सिंगापुर के होटल में फेसटूफेस मीटिंग के लिए आने पर मजबूर किया.

इसी तरह कश्मीर समस्या का हल आर्थिक है, सैनिक नहीं. जो लोग गुर्रा रहे हैं कि मार दो, चीर दो, हमला कर दो, युद्ध कर दो वे इतिहास, वास्तविकता और व्यावहारिकता से परे हैं. देश ने हत्या करने वालों की फौज खड़ी कर ली है जिन्होंने 2014 में कांग्रेस को पप्पू की पार्टी साबित कर के भाषणचतुर नरेंद्र मोदी को जितवा दिया था. यह फौज सोचती है कि ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप के जरिए वह पाकिस्तान को डरा देगी. वह यह भी सोचती है कि जैसे तार्किक, समझदार लोगों को अरबन नक्सलाइट कह कर उन का मुंह बंद कर दिया वैसे ही सभी कश्मीरियों को गौहत्यारों जैसा अपराधी बना देगी.

कश्मीर को और पाकिस्तान को कड़ी मेहनत व आर्थिक विकास से जीता जा सकता है. आज पाकिस्तान और भारत के कट्टर एकजैसा व्यवहार कर रहे हैं और दोनों ही तरफ ऐसे लोग भी सत्ता में हैं जिन के लिए आर्थिक विकास नहीं, धमकीभरे बयान सही हैं.

1920 और 1940 के बीच जरमनी ने हार के बावजूद सैकड़ों हवाई जहाज, हजारों टैंक, लाखों बंदूकें बना ली थीं क्योंकि उस के उद्यमियों ने रातदिन मेहनत कर के एक मजबूत आर्थिक देश को जन्म दिया था. हिटलर बकबक करता रह जाता अगर उस के पास वे जहाज, वे लड़ाकू विमान, वे फौजी सामान नहीं होते जिन से उस ने चारों ओर एकसाथ फैलना शुरू कर दिया था.

कई देश, जिन में इंग्लैंड तक शामिल था, हिटलर के जरमनी की आर्थिक शक्ति से डरे हुए थे. उस इंग्लैंड ने चेकोस्लोवाकिया को हिटलर को भेंट में दे डाला था जिस का साम्राज्य दुनियाभर में था.

आज भारत के पास ऐसा कुछ नहीं है कि वह सिर उठा कर पाकिस्तान से या पाकिस्तान से हमदर्दी रखने वाले थोड़े से कश्मीरियों से कह सके कि भारत उन्हें सुख, समृद्धि व सुरक्षा सब देगा. मुख्य भारत अपनेआप में कराह रहा है. कश्मीरियों के साथ भेदभाव तो छोडि़ए, हम तो अपने उस वर्ग को भी जो

85 फीसदी है, खुश नहीं रख पा रहे. हमारे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, युवा बेरोजगारी से त्रस्त हैं.

पाकिस्तान को करारा जवाब देना है तो भारत को आर्थिक महाशक्ति बनना होगा, केवल ज्यादा जनसंख्या के बल पर नहीं, प्रतिव्यक्ति ज्यादा उत्पादन के बल पर. सेना भी तभी मजबूत होगी जब उस के लायक भरपूर पैसा होगा. आज हम विदेशों द्वारा कबाड़ में पड़े हवाई जहाज, एयरक्राफ्ट कैरियर, सबमैरीन खरीद रहे हैं, अपने नहीं बना पा रहे. यह ट्विटर वाली फौज लोहे को पीट कर टैंक बनाना नहीं जानती.

आज इस तरह का माहौल बना दिया गया है कि जो थोथे नारे न लगाए उसे देशद्रोही मानना शुरू कर दिया जाता है. व्यावहारिक बात करने वाले को लिबटार्ड कह कर गाली दी जाती है, उस के खिलाफ बेमतलब की एफआईआर दर्ज करा दी जाती है ताकि वह जेलों या अदालतों में सड़े.

पुलवामा का बदला मजबूत देश बना कर लेना होगा, एक मजबूर सरकार को युद्ध में बलि चढ़ाने से नहीं. गरीब देश के गरीब सैनिक कितना लड़ सकते हैं. उन्हें आर्थिक व तकनीकी ताकत दो.

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